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अनेकान्त
में विराजमान उन्हें वीर-वाणी के प्रचार-प्रसार की चिन्ता भान वकील के समीप रह कर मुख्तार गिरी प्रारम्भ कर अवश्य होगी, जिस काम को उन्होने अधुरा छोड़ा उसे हम दी । दस वर्ष तक उसमें पर्याप्त प्रगति की । और आपका सब अनुयायियों को आगे बढ़ाना प्रथम कर्तव्य है। उस अध्ययन निरन्तर चलता रहा। फिर उस कार्य से दोनों साहित्य-तपस्वी के प्रति हम भाव भरी श्रद्धांजलि अर्पित [को घृणा हो गई। फलतः चलती हुई प्रेक्टिस को दोनों करते है।
ने यकायक छोड दिया। फिर सत्योदय, जैन प्रदीप पादि श्रद्धा के फूल
पत्रों का प्रकाशन किया। आप में दान शीलता, उदारता,
विनय, सौजन्य सादगी और सच्चरित्रता प्रादि सभी गुण बा० सूरजभान जी जैन 'प्रेमी' प्रागरा :
विद्यमान थे। उनमें वात्सल्य का भाव भरा हुआ था। संसार की परिवर्तन शीलता के वशीभूत होकर अनेक अपरिचित व्यक्ति मे उनसे मिलने पर प्रात्मीयता के भाव मानव इस ससार में आते है। और चले जाते है। ऐसे ही जगृत हो जाते थे। और यह अनुभव करने लगता था कि मानवों में कुछ ऐसी विभूतियों का प्रादुर्भाव होता है। न जाने प्राचार्य जी के साथ कितना प्राचीन पोर घनिष्ट जिनकी ससार को बड़ी जरूरत होती है। वे ससार मे परिचय है। अपनी जीवन यात्रा करते हुये, शुभ कार्यो का उपार्जन इसके पश्चात् आपने अपनी जन्मभूमि सरसावा मे कर अपनी यश पताका ससार मे फहरा जाते है। इसी अपनी जायदाद पर ही वीरसेवामन्दिर की स्थापना की। कारण से उनका नाम चिरस्मरणीय हो जाता है। उनका फिर इक्यावन हजार का दृस्ट बना कर शोध कार्य प्रारम्भ लक्ष्य मानव प्रगति की ओर रहता है और स्वार्थमयी किया। भारत स्वतन्त्र होने पर आपने वीरसेवामन्दिर भावनाये उन पर अपना प्रभाव नही जमा पाती। उनकी का विशाल भवन बाब छोटेलालजी कलकत्ताके सौजन्य से उदारता, सच्चरित्रता एवं कल्याणकारिणी धामिक दरियागज दिल्ली में निर्माण कराया। जो अाज तक शोध प्रवृत्तियों से व्यथित मानव समाज को सुख शान्ति प्राप्त और साहित्य का कार्य कर रहा है। इसकी व्यवस्था ५० होती है। उनके व्यक्तित्व के प्राकर्षण से मनुष्य ऐसी परमानन्द जी शास्त्री के हाथ में है। इससे आचार्य जी का विभूतियो के सन्निकट पहुँच कर आत्मिक शान्ति का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। अनुभव करता है।
आपने अपनी अधिकांश सम्पत्ति का सदुपयोग सम्यगपूर्व जन्म की कठोर तपस्या और शुभ सस्कारों से ज्ञान के प्रचार और प्रसार के लिए किया, और वीर सेवा ही किसी विशेष व्यक्ति को ये गुण ससार की भलाई के मन्दिर के द्वारा उच्च कोटि के प्रथों का प्रकाशन किया लिये प्रेरित करते है। वस्तुत: सफल जीवन ही मार्ग- था। और वही से अनेकांत पत्र लगभग २० वर्ष से प्रकादर्शक है। ऐसे सत्पुरुषों की जीवन गाथा मानवता के शित हो रहा है । उदात्त गुणों का प्रकाश कर मानव को मानवोचित शील यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि मुख्तार साहब ने लगभग ७० संयम, सत्य और अहिया का पाठ पढ़ाती है। ऐसी दिव्य वर्ष तक जैन समाज और साहित्य की सेवा की है। प्राप प्रात्माओं मे वाङ्गमय विद्वान राष्ट्र के महान् साहित्यिक ने प्राज तक ३०-४० छोटे बडे सार्थ ग्रंथ तैयार करके इतिहारा वेत्ता, प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' का प्रगट किए है। साराश यह है कि पाप का सारा जीवन नाम भी पाता है। जिन्हे ससार के अमूल्य और दुर्लभ हो जैन साहित्य के सृजन में व्यतीत हया है । पदार्थ विद्या, धन और यश प्राप्त था। उनका जीवन माज आप प्राच्य विद्या के महा पडित, शोध और खोज के युग के लिए शान्ति का सोपान निश्चित करता है। के दुरूह कार्यों में सलग्न लेखनी के धनी, मालोचक,
प्राचार्य जी का जन्म मिती मार्गसिर शुक्ला ११ संवत श्रद्धा से युक्त थे। पाप की साहित्य-सेवा तथा दान के १९३४ में सरसावा (सहारनपुर) में एक सम्पन्न अग्रवाल लिए जितना भी लिखा जाय कम है। कुल में हुमा । पाप ने २० वर्ष की अवस्था में बा० सूरज प्राप की पादरणीय कृति 'मेरी भावना' जन-मानस