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________________ २४६ अनेकान्त प्रसन्नता है, बैठो तुमने मेरी बहुत सेवा की और ऐसी हूँ और उन्होंने मेरी काफी सहायता की है। समाज भी सेवा की कि अपने सगे पेट का भी इतनी सेवा न करता मेरी साहित्य सेवाओं का लोहा मानती है। मुझे किसी मैं तुम सबसे बहुत प्रसन्न हूँ, और तुम्हारी सेवा फले। अभिनन्दन या प्रशंसा की आवश्यकता नहीं, मै तो ससार फिर बोले कि देखो अब मुझे अपना अन्त समीप मालूम के कोने कोने में भगवान महावीर की वाणी व सन्देश होता है क्योंकि मेरे शरीर में अब किसी प्रकार का कोई पहुँचाना चाहता हूँ जिससे सब जैन धर्मानुलम्बी बनें और कष्ट व पीडा व रोग नही है। देखो सूजन भी अपने आप अपने धर्म का खूब प्रचार व प्रभावना हो। मैंने बड़े बड़े बहुत कम हो गई है सो मैं अब यह चाहता हूँ कि मेरा विद्वानों और धर्म के ठेकेदारो से टक्कर ली; परन्तु अन्त अन्त समय समाधि पूर्वक बीते । तुम मेरे पास बैठ जाओ में मेरी विजय हुई कारण कि जो कुछ भी मैं कहता या और मुझे सावधान रखते रहना, चेहरे पर उनके मुझे बड़ा लिखता वह सब प्रागमानुसार प्रामाणिक और अकाट्य तेज प्रतीत हुआ। उनका एक-एक शब्द अभी तक मेरे होता था, यही एक दृष्टि है जिसे मैंने अपने सारे जीवन मे हृदय पटल पर अकित है। उन्होंने कहा देखो मैने तुमको अपनाया और सफलता प्राप्त की। निःस्वार्थ भाव से समाज के प्रागे लाकर खड़ा कर दिया है और तुम अपने समाज की, अपने धर्म की सेवा की उसका फल मुझे जैसा ज्ञान की वृद्धि करते रहना । और सबसे बड़ी और मर्म मिला सो तुम देख ही रहे हो। जिस समय वे सब यह को बात यह है कि किसी के आगे कभी भी अपने स्वाभि- कहते जाते थे मेरे नेत्र सजल थे और में उन्हे सान्त्वना मान को न गिराना। मुझे देखो मैने सब सकटो को झेलते देता रहता कि आपके कहे अनुसार ही चलूगा, यह आप हुए अपनी सस्था को अकेले चलाया और इतना ऊँचा पूर्ण विश्वास रखे। फिर मैंने उनसे कहा कि अब आप पहुंचा दिया कि सब इसका लोहा मानते है । और अब इस चर्चा को छोडे और अपना मोह इधर से हटाकर भी इस रुग्न अवस्था में ग्रन्थो का लिखना फिर भी उनका अपने परिणामो की शान्ति की और लगाइये तो कहने प्रकाशन का कार्य करता रहा हूं। इसी प्रकार तुम भी लगे कि विलकुल रोक है मेरे परिणामो में अब बिलकुल निर्भय होकर इस सस्था का भार अपने ऊपर लेकर आकुलता नहीं है और अब तो बस शान्तिसे समाधिपूर्वक इसको चलाते रहना । साहित्य का काम डा० दरबारीलाल मेरा यह शेष जीवन जो अब बहुत कम है व्यतीत हो । जी करेंगे और बाकी तुम्हारी सब देख-भाल रहेगी। ट्रम्ट मेरे मन मे जो मोह की शल्य थी वह मैने तुम पर अच्छी की व्यवस्था मैंने कर दी है। उसी व्यवस्था के अनुसार तरह प्रकट कर दी। सबसे पहले उन्होंने हृदय से उन सब कार्य करना और सदा इस बात का ध्यान रखना कि लोगो से क्षमा मागी जो उनके प्रति कुछ कटु विचार संस्था को चाहे लोगबाग कितना ही तोडने मरोडने की रखते थे। और उसी क्षण उन्होने अपनी ओर से भी सब कोशिश करे कभी भी इसको गिरने न देना बल्कि नित्य- को क्षमा कर दिया । यहाँ तक कि स्व. बा. जयभगवान प्रति इसको ऊंचा उठाने का प्रयास करते रहना, यह जी व बा० छोटेलाल जी सभी से क्षमा मांग ली और तुम्हारे ऊपर उत्तरदायित्व है। इसी से मेरी आत्मा को किसी से भी कोई शिकवा या गिला न रहा। मेरे परिणाम शान्ति मिलेगी। सस्था को चलाने के लिये मैंने काफी अब निर्मल तथा शुद्ध है। अब मेरे अन्तरग मे कोई उचित प्रबन्ध कर दिया है, उतने ही में यह सस्था अच्छे कषाय नहीं है और किसी प्रकार का शरीर तथा पैसे प्रकार से चलती रहेगी। और फिर अपनी समाज में का मोह नही है मैने सब त्याग कर दिया । अब भगवान साहू शान्तिप्रसाद जी जैसे बहुत से उदार दानी विद्यमान से यही प्रार्थना है कि मेरे परिणामों में विशुद्धता बनी है उनकी भी सहायता से तुम कार्य कर सकते हो, वे तुम्हे रहे । मैं जरा भी अपने समताभाव से विचलित न होने कभी किसी बात से मना नहीं करेंगे। क्योकि वे मुझसे पाऊँ और हर समय अरहंत, सिद्ध ही सारी रात मुंह से बहुत प्रभावित है। मुझे वे सन्मान की दृष्टि से देखते है धीरे-धीरे उच्चारण करते रहे जब भी विचलित होते और मै भी उनको आदर और प्रेम की दृष्टि से देखता थे तो मैं उन्हे सावधान कर देता था और धार्मिक ६चों
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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