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"युगवीर" के जीवन का भव्य अन्त
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मुना कर उनको फिर परमात्मा की आराधना ही मे पापों की आलोचना करूँगा। जिससे मुझे अधिक सान्त्वना स्थित कर देता था। कोरी रात भगवान महावीर स्वामी मिले। मै उठकर चला पाया और थोडा लेट गया फिर की सामने टंगी हुई मूर्ति की ओर टकटकी लगा ध्यान महेश तथा घर से बगबर पांच दस मिनट बाद चक्कर पूर्वक दर्शन करते रहे, जरा देर को भी नीद नही आई। लगाते रहे। उस रोज बराबर तीन घन्टे तक मामायिक स्वामी समन्तभद्र-स्तोत्र जो उनकी खुद ही की कृति है की। जब मामायिक से ध्यान हटा तो कहने लगे कि आज उन्हीं की प्राग्रह से उसे में सुनाता रहा।
मामायिक मे बहुत मन लगा और बडी शान्ति मिली अब फिर जब कभी बीच में मेरे द्वारा सकनित उर्दू के
मेरा चित्त हलका है और मुझे कोई कप्ट नही है। फिर
बोले कि कमोड लगा दो तो टट्टी पेशाब से निवृत्त हो ल , अध्यात्मिक शेर भी सुनते रहे। उनमें से कुछ इस प्रकार
टट्टी पेशाब ठीक किया और कहा कि अब धुला दो मैने
खब धो दिया और उनकी धोती भी जो गीली हो गई हमें खुदा के सिवा कुछ नज़र नहीं पाता।
थी बदल दी । अब थोडा सा आपको ऊपर को खसका दू निकल गये हैं बहुत दूर जुस्तजू से हम ॥
तो तकिये के सहारे मिर मा जायगा। मैने व महेश ने चला जाता हूँ हंसता खेलता मौजे हवादस से ।
जैसे ही सहारा देकर ऊपर खमकाया उसी समय उनके अगर प्रासनियां हो जिन्दगी दुश्वार हो जाये ।।
सुबह के ७ बजकर १३ मिनट पर प्राण पखेरू उड गये अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम पायेगा।
उनमे कुछ भी न रहा । चेतना निकल गई और जड तो मरने से दर गुजरा मेरे किस काम पायेगा ।
शरीर पडा रहा। हम सब कुटुम्बीजन विलम्व विलख कर जहाँ तक बसर कर जिन्दगी पाला ख्यालों में।
रोने लगे। मरते समय या रात्रि मे कोई भी अगलक बना देता है कामिल बैठना साहब कमालों में ।।
मूचक नही हुए और हम स्वप्न में भी यह नहीं सोचते थे जिनके दिल में है दर्द दुनिया का।
कि ये आज हमसे सदा के लिए बिछड़ जायेगे । ऐसे पुन्य वही दुनिया में जिन्दा रहते हैं।
मात्मा का चोला एकदम छुट गया जैसे कोई बात चीत खुदाबन्दा मेरो गुमराहियों से दरगुजर फरमा।
करता मनुष्य अाँखे मीच कर गहरी नीद मे सो जाता है। मै उस मोहाल में रहता हूँ जिसका नाम दुनिया है।
यह सब उनकी धर्मज्ञ भावना का ही असर था जो उन्हे वहदते खास इश्क में रयत का जिक्र क्या।
अन्त समय में कोई पीडा का अनुभव नही हुआ और अपने ही जलवे देखिये अपनी ही बज्में नाज़ में ।
उनका मरण समाधिपूर्वक ही हया। अब और अधिक गलों ने खारो के छेड़ने पर सिवा खामोशी के दम न मारा।
मैं क्या लिखू, अब वे हममें नहीं रहे; परन्तु उनकी
में क्या लिख. अब वे हममें नहीं र शरीफ उल में अगर किसी से तो फिर शराफत कहाँ रहेगी।
स्मृति तथा आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहेगा। उनका जिन्दगी ऐसी बना जिन्दा रहे दिलशाद तू।
नाम जैन जनेतर समाज में सदा अमर रहेगा । कि "युगजब न हो दुनिया में तो दुनिया को प्राये याद तू॥
वीर" जैसा भी कोई साहित्य तपस्वी हो गया है जिसने वीदारे शशजहत है कोई दीवावर तो हो।
अपना सारा जीवन जिनवाणी प्रभावना और सरस्वती जल्वा कहां नहीं है कोई प्रहले नजर तो हो ।
आराधना मे लगाये रखा। उनके फूल उनकी इच्छा के इतना बुलन्द कर नज़रे जल्वा ख्वाह को।
अनुकूल सरासावा पाश्रम में भिजवा दिये गये है। जल्वे खुद पाएँ दृढ़ने तेरी निगाह को ।।
डा० श्रीचन्द जी ने मुख्तार साहब के अन्तिम समय सुबह के चार बजे कहने लगे कि अब तुम आराम के सम्बन्ध में जो कुछ लिखकर भेजा है, उसको उनकी करो मै भी लेटे-लेटे सामायिक करता रहूँगा और अपने इच्छानुसार ज्यो का त्यो दे दिया है।