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वर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक अध्ययन
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के पूर्व मे दर्शन और तत्पश्चात् ज्ञान हुआ करता है। इस केवली के केवलज्ञानावरण का क्षय हो जाने पर जिस प्रकार छद्मस्थ के दोनों उपयोगों में क्रमवृत्तिता है। परन्तु प्रकार केवलज्ञान प्रादुर्भूत होता है उसी प्रकार केवलकेवली के ये दोनों उपयोग क्रम से होते है या युगपत्, दर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शन भी उनके होना ही इसमें कुछ मतभिन्नता है जो इस प्रकार है
चाहिए। कितने ही प्राचार्य इन दोनों उपयोगों का अस्तित्व सूत्र में केवलज्ञान और केवलदर्शन को सादि-अनन्त केवली के युगपत् मानते है। इसके लिए वे निम्न युक्तिया कहा गया है । यदि उक्त दोनो उपयोगो को साथ न माना देते है
जाय-एकान्तरित माना जाता है- तो उनकी यह सूत्रोक्त
अनन्तता समाप्त हो जाती है। १ दसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवयोगा। जुगवं जम्हा..........॥ द्रव्यसंग्रह ४४.
न तु अन्य । नियमात्-नियमन । नन्दी. हरि. वृत्ति मणपज्जवणाणतो णाणस्स दरिसणस विसेसो । पृ ४० (ई० १९६६). समतितर्क २।३.
परन्तु जयधवलाकारके अभिप्रायको देखते हुए ऐसा ...... 'ज्ञान-दर्शनोपयोगी क्रमेण भवत इति प्रतीत होता है कि वे सिद्धसेन सूरि को केवलज्ञान यावत् । तथाहि-चक्षुरचक्षुरवधिज्ञानानि चधर
और केवलदर्शन की एकता (अभेद) के पक्षपाती चक्षुरवधिदर्शनेभ्य. पृथक्कालानि, छद्मस्थोपयोगा
मानते है। उन्होंने जयधवला (१, पृ. ३५७) में त्मकज्ञानत्वात् श्रुत-मन पर्यायज्ञानवत् । समतितर्क
'जण केवलणाण स-परपयासय, तेण केवलदसणं णत्थि अभय. वृत्ति २।३
त्ति के वि भणनि' यह सूचित करके आगे 'एत्थुवजुगव वट्टइ णाण केवलणाणिस्म दमण च तहा।
उज्जतीग्रो गाहापो' लिवकर समतितककी 'मणपज्जवदिणयम्पयास-ताव जह बट्टइ तह मुणयन्त्र ।
णाणंतो' इत्यादि गाथा (२।३) को उद्धृत कर -नियमसार १६०.
'पद पि ण घडदे' प्रादि सदर्भ के द्वारा निरसन किया ___ण च दोण्हमुवजोगाणमकमेण वृत्ती विरुद्धा,
है। यहा विचारणीय यह है कि गाथा उन्होने केवल कम्मकयस्स कमस्स तदभावेण अभावमुवगयस्स तत्थ
एक ही उद्धृत की है, पर पत्थुवउज्जतीनो गाहाम्रो' मतविरोहादो । जयध. १, पृ ३५६ ५७
लिख कर सूचना उन्होने अनेक गाथानो के उद्धृत . . . . . . . . केवलिणाहे तु ते दो वि ।। द्रव्यसग्रह ४४.
करने की की है । यह कुछ विसगतिसी दिखती है । अभयदेव मुरि के अनुमार समतितर्क के कर्ता
नन्दी. चणि (पृ२८-- ई० १६६६) और उक्त हरि. सिद्धसेन मूरि भी केवली के केवलज्ञान और केवल
वृत्ति में प्रकृत गाथा के आगे उन दोनो उपयोगो के दर्शन को युगपत् स्वीकार करते है। यथा-केवल
अभेद की सूचक 'अण्णे ण नेव वीसु दसणमिच्छति ज्ञान पुन. केवलाख्यो बोध. दर्शनमिति वा ज्ञान
जिणग्दिस्स । ज चिय केवलणाण त चिय से दसण मिति वा यत् केवल तत् समानम्-समानकालम्,
वेति ॥' यह एक अन्य गाथा भी उपलब्ध होती है। द्वयमपि युगपदेवेति भावः । समति अभय. वृत्ति २।३.
सभव है लेखक के प्रमादवश यह गाथा जयधवला में __ अभयदेव के समान हरिभद्र सूरि भी उन्हे उक्त
लिखने से रह गई हो। यह गाथा हरिभद्र की धर्मदोनो उपयोगो को युगपत् स्वीकार करने वाले प्रगट।
सग्रहणी में भी प्रकृत गाथा के आगे १३३७ न० पर
पायी जाती है। करते है। वे नन्दीसूत्र की अपनी वृत्ति में उद्धृत
समति २।५, ज्ञान-दर्शनयोरक्रमेण प्रवृत्ति, कि न "केई भणंति जुगव जाणइ पासइ य केवली णियमा।"
स्यादिति चेत् किमिति न भवति ? भवत्येव, क्षीणाइस गाथा का अर्थ इस प्रकार करते है-'केचन'
वरणे द्वयोरक्रमण प्रवृत्त्युपलम्भात् । धवला पु. १, सिद्धसेनाचार्यादयः 'भणति'। किम् ? 'युगपद' एक
पृ. ३८४. स्मिन्नेव काले 'जानाति पश्यति च' । क. ? केवली, ४ समति. २, ७-८; धर्मसग्रहणी १३३८.