________________
अग्रवालों का जन संस्कृति में योगदान
४५
यह पहला पत्र था। दक्षिण को जैन समाजको जागृत जैन ग्रन्थो के छपने का प्रस्ताव किया था। अतएव १० करनेवाले सेठ हीराचन्द नेमचन्द द्वारा संभवत: उस समय प्यारेलाल जी ने मोचा कि यदि महासभा रही तो जैनग्रथ 'जैन बोधक' भी निकलने लगा था।
छपने का बखेडा खडा हो जायगा इससे महासभा को सन् १८८५ के लगभग मुरादाबाद के मुंशी मुकुन्द- समाप्त कर देना ही श्रेयस्कर है। रायजी और प० चुन्नीलालजी ने निश्चय किया कि जैन तब बाबूजी ने महासभा को फिर में पुनरुज्जीवित समाजकी उन्नति के लिए कुछ प्रयत्न किया जाय । मुंशी करने का निश्चय किया, जिसका प० चुन्नीलालजी ने अनुजो संस्कृत, फारसी और अरबी के पडित थे और जमी- मोदन किया। और इटावा जाकर मुशी चम्पतराय जी की दार भी थे और प० चुन्नीलालजी मस्कृतन विद्वान थे भी अनुमति ली, अन्ततोगत्वा मथुराके मेलेमे महासभा को
और पाढतका काम करते थे। दोनो विद्वानो ने जगह- पुनरुज्जीवित किया गया। बाबू चम्पतरायजी उसके महाजगह भ्रमण किया, जैन सभाए तथा जैनपाठशालाए मत्री बनाये गये । सभा की ओरसे एक साप्ताहिक पत्र भी स्थापित की। इन्होंने एक 'जैन पत्रिका' भी प्रकाशित की निकालने का निश्चय किया गया और उसका नाम 'जन थी, जिममे उनके भ्रमणका वृत्तान्त रहता था और वह सब गजट' रग्वा गया और उसके मबसे पहले सम्पादक बाबू जगह मुफ्त भेजी जाती थी। मुशी मुकन्दरायजी बडे सभा. मूरजभान जी बनाए गए। यह बात जैन गजट के प्रथम चतुर थे। अपने प्रवास मे उन्होने बड़े कार्य किये-एक सम्पादक, यह घटना मभवतः सन् १६०१-२ की है। तो मथुरा मे जैन महासभा की स्थापना की और राजा
बाबजी ने 'जैन गजट' का सम्पादन कार्य डेढ वर्ष के लक्ष्मणदास जी सी० आई० ई० को उमका अध्यक्ष बनाया
लगभग किया। उसके अनेक ग्राहक बनाये जिनकी सख्या और दूसरे अलीगढ़ मे १० छेदालालजी की अधीनता में लिजा का प्रधानता म ५०० के हो गई थी। बाबजी ने परिश्रम करके उसका
कोई भी एक बढी पाटगाला जैन विद्वान तैयार करने के लिए की। मालन किया उसका प्रचार सब किया। वकालत
उक्त दोनो विद्वानों के कार्य का बाबूजी पर बडा हुए निस्वार्थ भाव से सेवा करना बहात ही कठिन कार्य है। प्रभाव पड़ा। बाबू जी उन्हे अपना गुरु मानते थे, और उन्होंने उस समय उनकी वकालत अच्छी चल रही थी। यद्यपि उनके पदचिन्होका अनुसरण भी किया। अब बाबजीने जैन वकालत की अोर उनका प्रान्तरिक भुकाव न था, फिर भी ग्रन्थों के स्वाध्याय में मन लगाया और धीरे-धीरे जैनधर्म उन्हें करना ही पड़ता था। उसे करते हुए भी मामाजिक की यथेष्ट जानकारी प्राप्त कर ली।
एव धार्मिक कार्यों में कमी नहीं आने देते थे। जैन गजट देवबन्द में वकालत करते हए मन १८९२ या ३म के जीवन की सबसे उल्लेखनीय घटना यह थी कि बाबजी बाबूजी ने 'जैन हितोपदेशक' नामका मासिक पत्र उर्द में ने उसे दशलक्षण पर्व में दम दिन के लिा दैनिक बना जारी किया। उसमे 'उपदेशक फण्ड' कायम करने की दिया था और ऐमा प्रबन्ध किया था कि प्रत्येक ग्राहक को अपील की गई और वह कायम भी हो गया। उसके मंत्री वह दस दिनो तक पढने को मिलता था। मुशी चम्पनराय जी डिप्टी मजिस्ट्रेट बनाए गए और
इधर जैन ग्रन्थों की छपाई के सामाजिक विवाद के ज्योनिपरत्न चौधरी जियालाल ने उक्त फण्ड की ओर से कारण उत्तरोनर विरोध बढ़ता गया, तब मुशी चम्पतदौरा शुरू किया।
रायजी की मम्मति मे बाबूजी ने जैनगजट की सम्पादकी दीपावली की छट्रियों मे मरमावा के हकीम उग्रसैन से स्तीफा दे दिया। परन्तू 'जन हितोपदेशक' को बराबर जी के माथ बाबूजी ने भी उक्त फण्ड की ओर से एक लम्बा चालू रखा। महारनपुर के लाला उग्रसैन जी बाबूजी को दौरा किया। इस दौरे में उन्हें मुरादाबाद में मालूम हुआ बहुत चाहते थे, उन्होने बाबूजी को वहाँ जैन सभाका मत्री कि मथुरा में स्थापित महासभा का प० प्यारेलाल जी बनाया था। महासभा के मेले पर जब छापे का सगठित अलीगढ की कृपासे विघटन हो गया है। क्योकि मोलापुर विरोध हुआ तब उग्रसैन जी बोले कि सहारनपुर जिले का के स्व० सेठ हीगचन्द नेमचन्द ने महामभा के जल्से में जुम्मा मै लेता हूँ कि शास्त्र जी नही छप पायेगे । तब बाब