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अनेकान्त
जैन दर्शन में कही इस प्रकार के देव और मनुष्यों के ओर दक्षिणी गोलार्ध के राक्षस काले रग के थे। बीच सम्बन्ध का उल्लेख नहीं हुआ है लेकिन देवों का बौद्ध दर्शन में पाया है कि एक समय भगवान् वैशाली वर्णन करते समय प्रौपपातिक में एक ऐसा तथ्य पाया है के महावन मे कूटागार शाला मे विहार करते थे। उस जो एक नया हो रहस्य उद्घाटित करता है। उक्त देवो समय पाँच सौ लिच्छवी थे। उनमे से कुछ नील वर्ण, नील के शरीर का रग चार प्रकार का माना गया है। श्याम, वस्त्र और नील अलकारो वाले, कुछ लिच्छवी पीत वर्ण, पीला, लाल और सफेद । आधुनिक विद्वानों का अभिमत पीत वस्त्र और पीत अलकारो वाले, कुछ लिच्छवी लाल है कि ससार की समस्त जातियाँ इन चार ही रगों में वर्ण, लाल वस्त्र और लाल अलकारोवाले और कुछ विभक्त है। रूमी, चीनी और मगोलिया पीली जाति के । लिच्छवी श्वेत वर्ण, श्वेत वस्त्र और श्वेत अलकारोबाले लोग है । अमेरिका के रेड इंडियन भी मंगोलिया वर्ग मे थे। माने जाते है। पीली जाति के लोग पूर्वी एशिया तथा
देव जाति के रंगो के साथ मानव जाति के रंगो का पश्चिम और विपुवन् अमेरिका के अधिकांश भाग मे रहते थे । अफ्रिका तथा गर्म प्रदेशो के लोग श्याम रग के होते ।
साम्य हमे कोई बहुत ही गम्भीर निष्कर्ष पर पहुंचाता है हैं। यूरोप में लाल और श्वेत रग के लोग होते है।
और यह सोचने के लिए अवसर देता है कि भगवान की प्राचीन काल मे भी यही मान्यता रही है। वाल्मीकि
परिषद में उपस्थित होनेवाले देव यदि धरती से दूर कोई रामायण के अनुमार रावण का ध्वस करने के लिए सुग्रीव
भिन्न ही वायुमण्डल मे रहनेवाले होते तो इसी धरती पर ने अपार सेना जमा की थी उसमे सूर्य के समान लाल,
निवास करनेवाले और धरती की पाबहवा मे पलनेवाले चन्द्रमा की तरह सफेद, कमल केसर जैसे पीले लोग
प्राणियों के रगो से यह समता नहीं होती प्रत लगता है
ये देव भी इसी धरती पर रहने वाले प्राणी थे। धरती पर शामिल थे। निष्कर्ष की भाषा यह है कि राम और रावण के युद्ध
विभिन्न जातियां फैली हुई थी उनमे से देव जातियां भी मे एक ओर भूमण्डल के पूरे उत्तरी गोलार्ध के श्वेत,
थी। उनका शरीर मानव जैसे ही अस्थि. रक्त आदि पीली, और लाल रंग की जातियाँ सम्मिलित थी तो दूसरी
परमाणु पो से बना हुआ था। इनकी संस्कृति, इनकी भाषा,
इनका रहन-सहन मानवीय जगत् मे कोई निविशेष नही १. तरुणादित्य वर्णेश्च-शशि गौरश्च वानर ।
था ऐसी सभव कल्पना लगती है। पन केसर वर्णेश्च-वेतै मेरु कृतालय. ॥१३॥ -वा० रा० किष्किन्धा काड मर्ग ३६ २ अगुत्तर निकाय-नि० ५ ब्राह्मण वर्ग पृ० ४२४
सबोध जीवन कितेक ताप सामा तू इतेकु कर, लक्ष कोटि जोर जोर नेकु न अघातु है। चाहतु धरा को धन प्रान सब भरों गेह, यों न जाने जनम सिरानों मोहि जातु है। काल सम क्रूर जहां निशदिन घेरो करें, ताके बीच शशा जीव कोलों ठहरातु है। देखतु हैं नैन निसो जग सब चल्यो जात, तऊ मूढ चेत नाहि लोभ ललचातु है।
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+ सुनिरे ! सयाने नर, कहा कर घर घर, तेरो जु शरीर घर घरी ज्यों तरतु है। छिन छिन छोजे प्रायु जल जैसे घरी जाय, ताहू को इलाज कछु उरहू परतु है ।। प्रादि जे सहे है ते तो यादि कछु नाहि तोहि अागे कहो कहा गति काहे उछरतु है। घरो एक देखो ख्याल घरी को कहाँ है चाल, घरी घरी धरियाल शोर यों करतु है।
-भगवतीदास
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