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अगवालों का जैन सस्कृति में योगदान
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पार्य सिद्धथुपाय का भी आपने अंग्रेजी में अनुवाद किया। पाई । यद्यपि प्राज के समान उनकी शिक्षा नही थी कितु जो प्रकाशित हो चुका है। ये सब कार्य आपने अजिताश्रम उस समय के योग्य काम चलाऊ शिक्षण अवश्य था। लखनऊ मे ही सम्पन्न किये। आपकी मृत्यु सन् १९५३- बुद्धि अच्छी होने के कारण आपने अपने कार्य के योग्य ५४ मे हैई है। इसके बाद आपका अजिताश्रम समाज- योग्यता प्राप्त कर ली। सेवा से वचित हो गया, उनके पुत्रादिको को समाज-सेवा वे सादगी को पसन्द करते थे, सादगी में पले थे। का अवकाश भी नहीं मिलता।
साधारण वस्त्र पहिनते थे। धोती या पायजामा, खद्दर की __छयालीसवे विद्वान कवि ज्यातिप्रसाद जी है, जो कमीज, कोट और सिर पर गाधी ठोपी या दुपट्टा बाधते देवबन्द के निवासी थे। देववन्द जि. सहारनपुर में है। थे। चरित्र निष्ठ धार्मिकता, सहज स्नेह और प्रसन्न यहाँ मुसलमानो का अरबी फारसीका एक विश्व विद्यालय- रहना यह उनके जीवन के सहचर थे । मैने उन्हें देखा है । (ढारूल उन्लम) भी है जैनियो की भी अच्छी वस्ती है उनके भाषण भी सुने है। उन्होने सारा जीवन समाज और घरो की संख्या ५०-६० से कम नही है। और सेवा में लगाया। व भावक कवि भी थे परन्तु कवितामे चार जिनमन्दिर है। देवबन्द हाथ के बुने मूतो कपड़े कोई खास आकर्षण न था। 'ससार दुख दर्पण उनकी खद्दर दुतई और खेश के लिए प्रसिद्ध है। यह एक पुराना अच्छी कविता है भाषा अत्यन्त सरल है । वे सुधारक तो कस्बा है। और दो तिहाई के लगभग मुसलमानो की थे परन्तु अन्तर कमजोरी के कारण विवाद पाने पर चुप वस्ती है । इसी नगर में बाबू सूरजभान जी और मुख्तार रह जाते थे। लेख भी लिखते थे, पत्रो के सम्पादक भी श्री जुगलकिशोर जी ने वकालत की और जैन गजट का रहे। जैन प्रदीप तो उन्ही का पत्र था। समाज में अच्छी सम्पादन कार्य किया है। और ग्रन्थ परीक्षाएँ लिखी है। ख्याति व प्रतिष्ठा प्राप्त की। स्थानकवासी समाज म इस नगर मे सन् १८८२ वि० स० १६३६ मे बाबू ज्योति- भी समजसबा की। पर समाज ने सेवको को कभी अपप्रसाद जी का जन्म हुया। आपके पिता नत्यूमल जी नाया नही, और न उनको किसी प्रकार का खास सहयोग साधारण दुकानदार थे, और बड़ी कठिनता से अपने कुटुब ही प्रदान किया । यदि सेवको को अच्छा सहारा मिले तो वे का निर्वाह करते थे। लाला नत्थूमल की तीन सन्ताने ममाज को समुन्नत बनाने का और भी अधिक काम कर थी। ज्योतिप्रसाद, जयप्रकाश और एक छोटी पुत्री। सकते है। निर्धनता एक अभिशाप जो है। जब बाबू ज्योतिप्रसाद जी
वाब ज्योतिप्रसाद जी की वि० स० १९६४ मे २८ सात वर्ष के थे तभी आपके पिता जी का स्वर्गवास हो
मई सन् १९३७ मे ७ महीने की बीमारी के बाद देहा. गया। उस समय आपकी मुसीबत का क्या कहना । उस
वसान हो गया। समाज से एक सेवक सदा के लिए चला समय आपकी माता ने अपने चरित्र के सरक्षण के साथ
गया। समाज-सेवकों की कमी बरावर बनी रहती है। परिश्रम द्वारा उपाजित पाय से तीनो सन्तानों का पालन
उसका कारण समाज का उनके प्रति उपेक्षाभाव है। पोषण और शिक्षण कार्य इस तरह से किया जो अनुकरणीय है । ऐसी माताएँ सदा सम्मान के योग्य होती है। सैतालीसवे विद्वान पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार है, जो निर्धनता मे बच्चों की शिक्षा का उचित प्रबन्ध नही हो मरसावा जिला सहारनपुर के निवासी है। आपके पिता पाता । वह माता धन्य है जिसने परिश्रम द्वारा अजित जी का नाम लाला नत्थूमल चौधरी और माता का नाम द्रव्य से अपनी सन्तान को शिक्षित बनाया है। उस समय भूई देवी था । आपका जन्म वि० स० १९३४ सन् १८७७ देवबन्द की जैन पाठशाला में अध्यापक कचीरा जिला मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी के दिन सन्ध्या के समय हया इटावा के निवासी पंडित झुन्नीलाल जी थे जो वैद्य, कवि था। माता पिता का प्राचार-विचार रहन-सहन सादा और ज्योतिषी भी थे। उन्ही से ज्योतिप्रसाद ने विद्या- और धार्मिक था। अतः आप पर भी उसका प्रभाव अकित ध्ययन किया था। उसी पाठशाला में उर्दू की शिक्षा भी रहा । आपके दो भाई और थे, जो दिवंगत हो चुके है।