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अनेकान्त
आपका अवसान वि० स० १६३६-३७ के लगभग हुआ था। तब लखनऊ मे जैन रथोत्सव का कार्य धूमधाम से है । आपके सुपुत्र शान्तिचन्द्र जी है जो विजनौर मे रहते सम्पन्न हुआ था। उस समय बाबू अजितप्रसाद जी ने
अपनी १५ वर्ष की अवस्था में एक भाषण दिया था, जो चवालीसवे विद्वान बाबू ऋषभदास जी वकील मेरठ छपाकर वितरित किया गया था। है। जो उन्नीसवीं और बीसवी शताब्दी के प्रारम्भ के सेवा-कार्य :विद्वान थे। उस समय के विद्वानों में आप प्रमुख थे। पाप बाबू अजितप्रसाद जी ने अपनी वकालत करते हुए लाला मन्नुलाल जी बैकर मेरठ के सहोदर थे। और बी. भी जीवन भर समाज सेवा की है। बाबू जी केवल एडए. पास कर वकील बने थे । आप वचपन से ही धार्मिक मोर
वोकेट ही नही रहे किन्तु जज और चीप जस्टिस जैसे सस्कारो मे पले थे, इसलिए आपके जीवन मे धार्मिक
सम्मानीय पदो पर भी रहे है। सन् १९१२ में आपने संस्कारों का जज मौजद था। देवदर्शन, स्वाध्याय और बम्बई प्रान्तीय सभा के अध्यक्ष पद से एक भाषण पढ़ा पजादि श्रावकोपयोगी कार्यों में बराबर रुचि रखते थे। था । ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी की प्रेरणा प्रापको बराबर शान्तचित्त और सरल परिणामी थे। आपने स्वाध्याय प्रेरित करती रही है। अापने सन १९१३ से जीवन पर्यन्त द्वारा अच्छा धार्मिक ज्ञान प्राप्त किया था। प्राप हिन्दी तक अग्रेजी जैन गजट के सम्पादन का कार्य किया है। उर्दू और अंग्रेजी तीनो भाषाओं मे लिखते थे। आपके
आप सन् १६०४ से भारत जैन महामण्डल के कार्यधार्मिक एव समाजिक लेख उर्द के 'जैन प्रदीप', 'जैन कर्ता. मत्री और सभापति भी रहे है। सन १६०५ मे ससार' और अग्रेजी 'जैन गजट' में प्रकाशित होते थे। बनारस स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना हुई थी, तब से इतना ही नही किन्तु 'कलकत्ता रिव्यु' और 'थियोसोफिस्ट' कई वर्ष तक ग्राप जसको पता नामक नेतर पत्रो में भी जैनधर्म सम्बन्धी लेख प्रकाशित थे । सन् १९२३ मे पाप महासभा से पृथक होकर दि० होते थे। आपके कुछ लेखो का संग्रह 'इन लाइट इन्टु जैन परिषद् के संस्थापको मे भी रहे। जैनिज्म' नाम से प्रकाशित हुआ था।
सन् १९२३ से २६ तक आप तीर्थक्षेत्र कमेटी की आपने योगीन्द्रदेव कृत परमात्म प्रकाश का अंग्रेजी ओर से सम्मेदशिखर, राजगिरि और पावापुरी आदि में अनुवाद और व्याख्या लिखी थी जो 'सेन्ट्रल पब्लिशिग क्षेत्रो के मुकदमों में हजारीबाग, राची और पटना में रह हाउस प्रारा' से प्रकाशित हुअा है। बाबू सा. जैन प्रदीप कर कार्य किया । और उनसे तीर्थ क्षेत्रों की जो सेवा बन के नियमित लेखक थे। प्रेमी जी कहा करते थे कि बाबू सकी उसमे बराबर अपना योगदान करते रहे । ऋषभदेव जी के देहावसान के बाद जैनप्रदीप भी बन्द हो
साहित्य-सेवा :गया। आपकी मृत्यु कब हुई उसकी तिथि वगैरह ठीक
बाबू अजितप्रसादजी मे जैनधर्म और उसके साहित्यकी माल्म नही हो सकी पर आपके निधन से जैन समाज को लगन तो थी ही, साथ में ब्र० शीतलप्रसाद जी की प्रेरणा काफी क्षति पहुँची
भी उनमे काम कर रही थी। जैन गजट आदि मे कुछ पैतालीसवें विद्वान बाबू अजितप्रसाद जी एडवोकेट लिखते ही रहते थे। परन्तु उनके पास इतना अधिक है। जिनका जन्म सन् १८७४ के लगभग हुआ था । अपके समय नहीं था कि वे स्थायी रूप से साहित्य-सेवा मे जुटे पिता स्वर्गीय देवीप्रसाद जी बड़े ही दूरदर्शी और धार्मिक रहें। फिर भी उन्हे जितना अवकाश मिलता था उसमे प्रकृति के सज्जन थे। वे सन् १८८७ मे लखनऊ अाये थे। समाज-सेवा और तीर्थक्षेत्र रक्षादि के कार्यो से समय उस समय आपकी अवस्था १३ वर्ष की थी। सन् १८८६ निकाल कर कुछ समय साहित्य-सेवा मे भी लगाते थे। में देवीप्रसाद जी ने लखनऊ में 'जैनधर्म प्रवर्धनी सभा' परिणाम स्वरूप बाबू जी ने अमितगत्याचार्य द्वितीय के की स्थापना की थी। उससे लखनऊ जैनसमाज में नवीन सामायिक पाठ का अंग्रेजी मे अनुवाद किया था। और जागृति और जैनधर्म के प्रति विशेष आकर्षण प्राप्त हुआ विक्रम की दशवी शताब्दी के प्राचार्य अमृतचन्द्र के पुरु