________________
प्रोम् महंम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २१ किरण ४
। ॥
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६५, वि० सं० २०२५
।
अक्टूबर सन् १९६८
स्वयंभूस्तुति
पुनातु नः संभवतीर्थकृज्जिनः पुनः पुनः संभवदुःखदुःखिताः। ततिनाशाय विमुक्तिवर्त्मनः प्रकाशकं यं शरणं प्रपेदिरे ॥३ निजगुणैरप्रतिमर्महाजनो न तु त्रिलोकीजनतार्चनेन यः । यतो हि विश्वं लघु तं विमुक्तये नमामि साक्षादभिनन्दनं जिनम् ॥४ नय-प्रमाणादिविधानसद्धटं प्रकाशितं तत्त्वमतीव निर्मलम् । यतस्त्वया तत्सुमतेऽत्र तावकं तदन्वयं नाम नमोऽस्तुते जिन ॥५
- मुनि श्री पचनन्दि
अर्थ-बार-बार जन्म-मरण रूप ससार के दुख से पीडित प्राणी उस पीड़ा को दूर करने के लिए मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने वाले जिस सम्भवनाथ तीर्थकर की शरण में प्राप्त हुए थे वह सम्भव जिनेन्द्र हमको पवित्र करे ॥३॥ जन्म-मरण से रहित जो अभिनन्दन जिनेन्द्र अपने अनुपम गुणो से महिमा को प्राप्त हुए है, न कि तीन लोक में स्थित जनता की पूजा से; तथा जिनके आगे विश्व तुच्छ है-जो अपने अनन्त ज्ञान के द्वारा समस्त विश्व को जानते देखते है, उन अभिनन्दन जिनके लिए मै मुक्ति के प्राप्त्यर्थ नमस्कार करता हूँ ॥४॥ हे सुमति जिनेन्द्र ! चूकि आपने नय एवं प्रमाण प्रादि की विधि से सगत तत्त्व (वस्तु स्वरूप) को अतिशय निर्दोष रीति से प्रकाशित किया था, अतएव प्रापका सुमति (मु शोभना मतिर्यस्यासो सुमति =उत्तम बुद्धि वाला) यह नाम सार्थक है । हे जिन ! पापको नमस्कार हो ।।५।।