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________________ प्रागम और त्रिपिटकों के संदर्भ में प्रजातशत्रु कुणिक होना दोनो ही परम्पगए बताती है। जैन परम्परा के रचना-काल विक्रम संवत् के पूर्व का माना जाता है तथा अनुसार तो माता से पुत्र-प्रेम की बात सुन कर पिता की अट्टकथापो का रचना-काल विक्रम संवत् की पांचवी मृत्यु से पूर्व ही कुणिक को अनुताप हुआ था। राजा की शताब्दी का है। यह भी एक भिन्नता का कारण है। प्रात्म-हत्या के पश्चात् तो वह परशू से छिन्न चम्पक-वृक्ष जिस-जिस परम्परा में अनुश्रुतियो से कथा-वस्तु का जो भी की तरह भुमितल पर गिर पड़ा। मुहूर्तानर से सचेत रूपक आ रहा था, वह शताब्दियो बाद व शताब्दियों के हया। फट-फट कर रोया और कहने लगा ग्रहो । मैं अन्तर से लिखा गया । कितना अधन्य हूँ, कितना अपुण्य है, कितना प्रकृतपुण्य वध-सम्बन्धी समुल्लेखों से यह तो अवश्य व्यक्त होता हूँ, कितना दुष्कृत हूँ। मैने अपने देवतुल्य पिता को निगड- है कि बौद्ध परम्परा अजातशत्रु की क्रूरता सुस्पष्ट कर बन्धन में डाला । मेरे ही निमित्त से श्रेणिक राजा कालगत देना चाहती है, जब कि जैन परम्परा उसे मध्यम स्थिति हुआ। इस शोक से अभिभूत होकर वह कुछ ही समय में रखना चाहती है। बौद्ध परम्परा मे पैरो को चिरवाने, पश्चात गजगृह छोड़ कर चम्पानगरी में निवास करने उनमें नमक भरवाने और अग्नि से तपाने का उल्ले लगा । उसे ही मगध की राजधानी बना दिया। बहुत ही अमानवीय-सा लगता है । जैन परम्परा मे श्रेणिक को केवल कारावास मिलता है। भूखो मारने आदि की बौद्ध परम्परा के अनुसार--जिस दिन बिवसार की यातनाए वहाँ नही है ! मृत्यु भी उसकी 'आत्महत्या के रूप मृत्यु हुई, उसी दिन अजातशत्र के पुत्र उत्पन्न हुआ। मे होती है । जब कि बौद्ध परम्परा के अनुसार अजातशत्र सवादबाहको ने पुत्र-जन्म का लिखित सवाद अजातशत्र के हाथ में दिया। पुत्र-प्रम से राजा हप-विभोर हो उठा। स्वय पितृ-वधक होता है। इस सब का हेतु भी यही हो सकता है कि कुणिक जैन परम्परा का अनुयायी विशेष था। अस्थि और मज्जा तक पुत्र-प्रेम में परिणत हो गया। उसके मन मे आया, जब मैने जन्म लिया, तब राजा मातृ-परिचय श्रेणिक को भी इतना ही तो प्रेम हा होगा। तत्क्षण दोनो परम्पगमो में कुणिक की माता का नाम भिन्नउसने कर्मकगे को कहा-- 'मेरे पिता को बन्धन-मुक्त भिन्न है। जातक के अनमार कोशल-देवी कोशल देश के करो।" सवाद-वाहको ने विम्बिसार की मृत्यु का पत्र भी राजा महाकोशल की पुत्री थी अर्थात् कोशल-नरेश प्रसेनराजा के हाथो में दे दिया। पिताकी मृत्य का सम्वाद पढ़ते जित् की बहिन थी'। विवाह-प्रसग पर काशी देश का हो वह चीख उठा और दौड कर माता के पास प्राया। एक ग्राम उसे दहेज में दिया गया था । बिम्बिसार के वध माना से पूछा- "मेरे प्रति मेरे पिता का स्नेह था !" से प्रसेनजित् ने वह ग्राम वापिस ले लिया। लडाई हुई, माता ने वह अगुली चसने की बात अजातशत्रु को बनाई। एक वार हारने के पश्चात् प्रसेनजित् की विजय हुई। तब वह और भी शोक विह्वल हो उठा और अपने किए भानेज समझ कर उसने अजातशत्रु को जीवित छोड़ा, हुए पर अनुताप करने लगा। सन्धि की नथा अपनी पुत्री बजिरा का उसके साथ विवाह किया । बही गाँव पुनः उमे कन्या-दान में दे दिया। समीक्षा मयत्त-निकाय के इस वर्णन मे अजातशत्रु को प्रसेनजित् दोहद, अंगुली-ब्रण, कारावास आदि घटना-प्रसगो के १५० दलसुख मालवणिया, प्रागम-युग का जैन-दर्शन, बाह्य निमित्त कुछ भिन्न है, पर घटना-प्रसंग हार्द को दृष्टि सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६६ पृ० २६ से दोनों परम्परामो में समाम है। एक ही कथा-वस्तु का २ द्रष्टव्य, भिक्षु धर्म रक्षित, प्राचार्य बुद्धघोष, महाबोधि दो परम्परागो में इतना-सा भेद अस्वाभाविक नहीं है। सभा, सारनाथ, वागणसी, १९५६ पृ० ७ प्रत्येक बड़ी घटना अपने वर्तमान मे ही नाना रूपो मे प्रच- ३ Jataka Ed. by Fausball, Vol. III, p. 121 लित हो जाया करती है। संभवत: निरयावलिका पागमका ४ जातक अट्टकथा, स० २४६, २८३
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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