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अनेकान्त
उल्लिखित अन्य विद्वानों की ऐसी रचनाओं का विवरण साधेषु हन्यते वृष्टिनिरभ्र वृष्टिरुत्तमां ॥२२२ दिया जा रहा है जिनका उपयोग मेघविजयजी ने अपने एवं देशनिवेश पुट्ठालजलप्राण्यादि संमूच्र्छनाद । उक्त ग्रन्थ में किया है। पर उनकी पूरी प्रतिया मेरी हेतून प्रागवगम्य सम्यगुदकासारस्य सारस्यदीन् ।
प्राप्त नही है । जिस किमो मन्जन का व हीरविजयमूरि का तो कही पता नही चलना पर रचनायें कही मिल जाये तो उसकी वे जानकारी मूझे ।
मेघजी होरजी बम्बई से सन् १९२५ में प्रकाशित 'मेघ सूचित करने या प्रकाशित करने का कष्ट करे । चूकि मेघ- माला' विचार का रचयिता विजयप्रभमूरि बतलाया है। महोदय में मेघ अर्थात वर्षा मवन्धी महत्वपूर्ण विवरण है। तटागि उसके गत
तद्यपि उसके अन्त में विजयप्रभरि के रचे जाने की
विज इसलिए यह ग्रन्थ बहुत ही महत्वपूर्ण है। और इस ग्रन्थ ।
प्रशस्ति नहीं है। मे जिन अलम्य रचनायो का उद्धरण व उल्लेख है वे भी
श्रीहोर विजयसूरि कृत मेघमालायां प्रोक्तुम्
श्रीहोर विजय अवश्य ही महत्व को होगी। मेघ महोदय हिन्दी अनुवाद
रज्उच्छवम्मि वामो उत्तरो वहइ धन्ननिष्फत्ती। सहित प. भगवानदास जैन ने मवत् १९८३ मे बीकानेर
पुव्वाई नीरबहु नो पच्छिम वाएण करवरयं ।१०४ मे रहते समय प्रकाशित किया था। उनसे भी इन अलम्य
दक्खिण वाय दुकालो अहवा बज्जेई वाउ चउदिसो। रचनामो सम्बन्धी पूछा गया तो उत्तर मिला कि ग्रंथ प्रका
तह लोय उवद्वष जुज्झइ राया खग्रो लोए ।।१०५ शन को ४० वर्ष हो जाने पर भी इन रचनाया की प्रतिया
क्वचित्तु-पूर्ववाते तीइशुका मत्कुणा मूषकादयः । उन्हे कही भी नहीं मिल सकी है
बारुणे तु युगन्धर्या निष्पत्तिबहुला भुवि ॥१०६ मेघ महोदय मे 'हीर मेघमाला' नामक ग्रन्थ का
___दूसरे ग्रन्थ दुर्गदेव के मृष्टि मवत्सर के उद्धरण मेधउल्लेख और उद्धरण अनेक स्थानो में मिलता है इस ग्रन्थ
महोदय में पाए जाते है। इस ग्रन्थ की भी अन्य कोई के नाम से जैसा कि लगता है कि इसकी रचना नपागच्छ
पूरी प्रति जानने में नहो पाई। दुर्गदेव के अन्य कई ग्रन्थ के हीरविजय सूरि ने की और इमका स्पष्ट उल्लेव मघ
प्राप्त होते है जिनमे मे रिप्टसमुच्चय' तो प्रकाशित भी महोदय मे है। इस ग्रथ के उद्धरण मेधमहोदय के ४४
हो चुका है। दुर्गदेव ज्योतिष ग्रादि के अच्छे जैन विद्वान् ४१-६२, २३७, २३६, २५३, २५८, २६०, २६४, २८६,
मालूम होने है। अत उनका मृष्टि सवत्सर अवश्य ही २६२, ३११, ३१६, ३४०, ३४२, ३५०, ३८५, ४१४,
उल्लग्वनीय कृति है जिमकी खोज की जानी चाहिए । ४५१, ४६०, ४६१, ५१२, इन स्थानो मे हुआ है। उद्धृत
दुर्गदेव की रचनाये प्राकृत भाषा की प्राप्त है । मेघमहादय गाथाये व श्लोक प्राकृत और सस्कृत दोनो भाषामो के है।
के प्रारम्भ में संस्कृत और फिर प्राकृत मूलगाथा दी गई यहा कतिपय उद्धरण दिये जा रहे है ...
है। उद्धरण इस प्रकार है :हीर मेघमालायामपि
अथ जनमते दुर्गदेवः स्वकृतषष्टि संवत्सरग्रन्थे पुनरेवमाहपरिवेष वाय बद्दल संमारागं च इंदघणु होई।
प्रों नमः परमात्मनं वन्दित्वा श्रीजिनेश्वरम् । हिम करइ गज्ज विज्जु घंटा गम्भो भणिएहि ॥२१८
केवलज्ञानमास्थाय दुर्गदेवेन भाष्यते ।१ जीवेम्यः पुट्ठालाः सूत्र पथगेव समीरिताः ।
पार्थ उवाचतेन केचिदजीवाः स्युर्महावृष्टश्च हेतवः ॥२१६ भगवन् दुर्गदेवेश ! देवानामधिप ! प्रभो ! जलयोनिकजीवादेः सद्भूतिः प्रच्युतियथा ।
भगवन् कथ्यतां सत्यं संवत्सरफलाफलम् ॥२ विचार्यते देशतस्ते तथा ग्रामे च मण्डले ॥२२० दुर्गदेव उवाचयहिनेऽभ्रादिसम्भूतिमघशास्त्रे निरूपिता।
शृणु पार्थ ! यथावृत्तं भविष्यन्ति तथाद्भुतम् । यथा सा वृष्टि हेतुः स्यात् तथाभ्रादेः परिच्युतिः ॥२२१ दुर्भिक्षं च सुभिक्षं च राजपीड़ा भयानि च ॥३ यदुक्तम्
एतद् योऽत्र न जानाति तस्य जन्म निरर्थकम् । प्रादौ दश ऋणाक्षि ज्येष्ठ शुक्ले निरीक्षयेत् ।
तेन सर्व प्रवक्ष्यामि विस्तरेण शुभाशुभम् ॥४