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________________ १९६ मनेकान्त होगी। निधि रचनामों का एक संग्रह अवश्य प्रकाशित किया उत्तरोत्तर उन्नत होते जायंगे । मैं हस्तिनापुर ब्रह्मचर्याजाना चाहिए। वही उनके प्रति हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि श्रम की चोथी श्रेणी का विद्यार्थी रहा हगा, कि तभी से मुख्तार सा० का लाभ मेरे चित्त में श्रद्धेय स्थान बना डा. प्रद्युम्न कुमार जी जैन : बैठा और वह अन्त तक मेरे लिए उसी प्रकार सम्माननीय जैन जगत का अद्भुत रत्न विलुप्त हो गया-यह बने रहे। जानकर हृदय को करारा धक्का लगा। ऐसा प्रतीत हुआ यह मेरा सौभाग्य था जैसे छुटपन मे मुझे उनका जैसे कि मुख्तार प्रणीत 'मेरी भावना' दोलायमान हो उठी आशीर्वाद प्राप्त हुआ वैसे ही आगे जा कर भी मैं उनका हो । और जीवन की सारहीनता के सम्पूर्ण स्व का अना- स्नेह भाजन बना रहा । मैं अपनी विनम्र श्रद्धाजलि प्राप वरण हो गया हो। प्रातः स्मरणीय १० जुगल किशोर के द्वारा उनकी स्मृति के प्रति अर्पित करता है। मुख्तार जी जैन वाङ्मय के गौरव प्रतीक थे। पुरातन की परमानन्द शास्त्री खोज एवं भावी के सृजन के अद्भुत सामजस्य थे वह। मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी इस युग के महान विद्वान, मेरा प्रत्यक्ष परिचय न होते हुए भी मुझे मुख्तार जी का साहित्य सर्जक, मार्मिक टीकाकार, मान्यसम्पादक, व्यक्तित्व सदैव परिचित सा लगता रहा। वाणी के इस प्राक्तन विद्याविमर्श विचक्षण और इतिहासज्ञ थे। वे धनजय से समाज को काफी बड़ी प्राशाए थीं। बा० प्रबल सुधारक, अच्छे लेखक एव उग्र समीक्षक थे। पहले कामताप्रसाद जी के निधन के बाद जैन जगत को यह मै उन्हें 'मेरी भावना के सर्जक के रूप मे परोक्ष रूप से दूसरी बडी क्षति इतने अल्प समय मे ही भोगनी पड़ेगी- जानता था । किन्तु सन् १९३६ से अब तक मैं उनके यह कोई नहीं जानता था। इन रिक्त स्थानो की पूर्ति सानिध्य मे रहा । उनके साथ कार्य किया। और उनके हेतु जनमानस को कठिन प्रतीक्षा ही करनी होगी। कार्यों में यथासाध्य सहयोग भी देता रहा. उनके अनुभव मैं अपनी सहज समवेदना उस सम्पूर्ण शोक सतप्त एव निर्देशों से लाभ भी उठाया। उनका जीवन एक परिवार के साथ एकाकार करता हूँ जो दिवगत भव्यात्मा साहित्यिक जीवन था, उनमे साहित्य के प्रति अदम्य के प्रत्यक्ष विछोह की वेदना सहन कर रहा है । पडित जी उत्साह और लगन थी। इसी कारण वे साहित्य तपस्वी के रूप में उल्लेखित किये जाते है। उनकी रचनाएँ प्रौढ़ तो निकटभव्य थे ही और उनका क्षयोपशम भी तीव्र था। और प्रामाणिक है। उनकी स्मृति और याददाश्त मुझे पूर्ण प्राशा है कि उनकी प्रात्मा को सद्गति प्राप्त (धारणा) प्रबल थी। वे लिखने से पूर्व उस पर गहरा हुई होगी। विचार करते थे, तब कही उस पर लेखनी चलाते थे। जैनेन्द्रकुमार जी जैन उनके अनुवाद करने की पद्धति निराली थी। वे बहुत स्वर्गीय श्री मुख्तार जूगलकिशोर जी मानों इस धीरे-धीरे लिखते, किन्तु उसे बार बार पढ़ते थे। और शताब्दी के जन संस्कृति और जागृति के मूर्तिमान इतिहास शब्दों का जोड़ इस तरह से बैठाने का प्रयत्न करते जिससे थे। उनकी लगन और अध्यवसाय अनुपम, जैन वाङ्मय उसमें विरोध और असम्बद्धता उद्भावित न हो सके। और पुरातत्त्व की दिशा में उनकी सेवाए बेजोड़ रही। उनके समीक्षा ग्रन्थ जैन संस्कृति के अमूल्य रत्न है। उनके स्थान को किसी तरह भी भरा नही जा सकता, और विद्वानों के मार्गदर्शक, उनके गवेषणात्मक लेख जैन समाज उनका सदा ऋणी रहेगा। उनकी 'मेरी भावना अत्यन्त महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक तथ्यो के उद्भावक जैन घरों में ही नही जनेतर परिवारो मे भी प्रचारित तथा भ्रान्ति के उन्मूलक है। उनकी व्याख्याएं कठिन हई। और लगभग उनका नित्य पाठ बन गई । उनके विषय को भी सरल एव सुबोध बनाती हैं। दार्शनिक द्वारा स्थापित अनेकान्त और वीर सेवामन्दिर उनकी ग्रन्थों की टीकाएँ भी उनके तलस्पर्शी पाण्डित्य की द्योतक ऐसी यादगार है जो भाशा है समाज के सहयोग से है। वे वीरसेवामन्दिर जैसी संस्था के सस्थापक थे । उनकी
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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