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कुलपाक के माणिक स्वामी
महाकवि रन्नको अपने प्रास्थान में बुलाकर, 'कविचक्रवर्ती' रहा है। यद्यपि इधर श्वेताम्बर भाइयो ने मदिर पोर की उपाधि से समलकृत किया था। महाकवि इस रन्न ने मूर्तियों में विशेष परिवर्तन कर लिया है। फिर भी मदिर अपने सुप्रसिद्ध महाकाव्य ‘अजितनाथपुराण' मे, अपनी के शिखर पर माज भी अनेक मूर्तियां दिगम्बर मुद्रा में पोषिका अत्तिमब्वे को स्मरण करने वाले पद्य में ही इन ही दृष्टि गोचर होती है। भूगर्भ से प्राप्त मूर्तियां भी महाकवियों के समय में ही वर्तमान शकर गड को भी एक दिगम्बर मुद्रा में ही वर्तमान है । जिनालय में विराजमान प्रतिष्ठित धार्मिक व्यक्ति के रूप में स्मरण किया है। अन्यान्य विशालकाय मनोज्ञ मूर्तिया दक्षिण भारत के शकर गड और अत्तिमब्वे के वजोमान मे अन्तर होने पर अन्यान्य मदिरो मे अधिक परिमाण मे उपलब्ध होने वाली भी ये दोनो समकाली न रहे । पूर्वोक्त कथा में एक व्या- दिगम्बर सप्रदाय की मूर्तियो की तरह अर्धपद्मासन में ही पारी की पत्नी के रूप में प्रतिपादित सती गुणवती सभवतः विद्यमान है। विद्याधर जी का कहना यथार्थ है कि इस 'गुणदककीति' उपाधि प्राप्त दानचितामणि अत्तिमब्बे ही समय मतियों भलेख जिलकल नजर नही पाते है। पर्व हो सकता है । क्योंकि उपर्युक्त कथा एक व्यापारी के द्वारा मे मूर्तियों में लेख अवश्य रहे होगे। आज भी मदिर में जनश्रति के आधार पर ७.. वर्षों के बाद लिखी गयी है। अर्धपद्मासनस्थ नीलरग वाली ऋषभ भगवान् की मूर्ति घारवार जिले के लक्कुडि के शासन में अन्यान्य अतिशयो विराजमान है । मूर्ति बहुत मनोज है। के साथ-साथ अत्तिमब्वे के द्वारा नदी से एक जिन प्रतिमा को उठा लाने का उल्लेख भी पाया जाता है । १२ वीं
मैं कुलपाक के मदिर को देखने के बाद हैदराबाद में शताब्दी के श्रवण बेल्गोल के शिलालेख मे भी अत्तिमब्बे मे
स्थित प्राध्र प्रदेशीय पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष डा० पी०
श्री निवासाचार्य मे मिला था। आप सुयोग्य विद्वान् है । सम्बन्ध रखने वाली इन बातों का उल्लेख विस्तार से
वे बहुत प्रेम से मिले । अन्यान्य बात-चीत के सिलसिले में मिलता है। पूर्वोक्त समुद्र तीर गोदावरी जहा बगाल
मैने उनमे कुलपाक क्षेत्र के मम्बन्ध में भी चर्चा की। उस समुद्र में जा मिलता है वही स्थान हो सकता है । क्योकि
पर उन्होंने यो कहा कि कुलपाक मूल में दिगम्बर सप्रदाय कवि नागव ने शकर गड को पोरगल निवासी बतलाया
के अधिकार में ही रहा। यह वस्तुतः दिगम्बर सप्रदाय है । पोरगल्लु और कुलपाक ये दोनो गोदावरी के ही पास
की ही तीर्थ है। इस बात को समर्थन करने वाले अनेक है। इसीलिये इस क्षेत्र का नाम कुलपाक की अपेक्षा कोल्लि
कन्नड गिलालेख मिले है। वे शिलालेख पुरातत्त्व विभाग पाक अधिक सुसगत जचता है। क्योकि कोल्लि शब्द का
की ग्रोर से गीध्र ही प्रकाशित होने वाले है। प्रकाशित अर्थ है खाडी।
होने के बाद उन शिलालेखा को आप के पास भेज दूगा । अस्तु, सितम्बर १९५८ में हैदराबाद से ४५ मील दूर । पर बाद में यह बात मेरे दिमाग से एकदम उतर गयी। पर स्थित, कुलपाक को स्वयं गया है। वहा के जिनालय 'अनेकान्त' के इस लेख को देखने के बाद ही पूर्वोक्त बात प्राचीन मूर्तिया भूगर्भ से उपलब्ध अन्यान्य स्मारक इन सब याद आयो । ग्वैर इस समय कुलपाक के सम्बन्ध में इतना वस्तुओं के देखने से मुझे भी विश्वास हुआ कि यह क्षेत्र हो कहना है । पूर्वोक्त कन्नड शिलालेखों को प्राप्त करने श्वेताम्बरों के अधिकार में आने के पूर्व दिगम्बर क्षेत्र ही के उपरॉन फिर मै लिम्वगा। *
सुभाषित स जीवति यशो यश्य कोतिर्यस्य सजीवति । प्रयशोऽकोतिसंपन्नो जीवन्नपि मृतोपमः ॥ साषोः प्रकोपितस्यापि मनो ना याति विक्रियाम् । नहि तापयितु शक्यं सागराम्भस्तणोल्कया ।