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________________ अनेकान्त गच्छे माथुरनाम्नि जोजतिवरा कीतियश: तत्पदात् ता वाइस्सइ वाऊ बरसणकालेण जिम्भंतो ॥६६ इस काण्ड के अन्तिम भाग में आधारभूत ग्रंथकर्ता के तत्पट्ट गुणचंद्रदेवणिनस्तत्पट्टपूर्वाचले रूप में लेखक ने भडुली का नाम दिया हैसूर्याभा सकलाविचंद्रगरवस्तत्पदृशोभाकराः पुवायरियहि जो भणिउ भलि भासिउ मासि। संजाता हि महेन्द्रसेनविपुला विद्यागुणालंकृता ते सब जोडि मिलाइया कविसु भगोतोदासि ।।१३८ नानाशास्त्रसमूहपद्धतिधरा दुर्वादिविच्छेदकाः॥ दूसरे काण्ड का नाम नक्षत्रसार अर्घदीपक है तथा तसिष्यं बुधसेवको हि सततं प्रग्रोतका अन्वये इसमें १०७ पद्य हैं । इसके उदाहरणवंशलगोत्रपवित्र साधुमुनयः चरणांबुजे षट्पदः । पदा सूर्यसुतो पूर्वाफाल्गुनीसंस्थिता ध्रवं। भगवदासभिधान तेन लिखितं ग्रंथमिदं ज्योतिष चितावस्था भवे राजा संसारं भयवारणं ॥१ष सर्व दुःकृतकर्मना क्षयकरं जीयात् तदेतच्चिरं । महमूलकत्तियासु रूढो वकं धरह परणिसुवो। वर्धमान के देहुरई नौतन कोट हिसार । धान्नु करेइ महग्धं गरवइ-छत्तं विणासेइ ॥८३ दास भगोती ने भन्यो सो पुणु परोपकार । तीसरे काण्ड में ३०१ पद्य है । इसका नाम लेखक ने प्रतिविस्तर सब छोडके सारु लिया मथि सोइ । नहीं दिया है। इसमे बारह राशियों मे ग्रहो के शुभाशुभ बुधि जन सबै संवारयह हीन अधिक तहं होइ । फल, ग्रहण के फल, १०८ केतूदय के फल, ग्रहो के मिलने मेघराज सुतु साधना नाउ बिहारीदासु । तथा वक्र होने का फल और वर्षा के भविष्य आदि का ताको सुत गुरुभक्तियुत उदचंदु मुणि तासु ॥ वर्णन है । इसके उदाहरणतिसु उपदेश लिख्यो कछुक ज्योतिषसारु बनाइ । मिथुने भास्करे जातः कसं कंदमूलकं । पढहि गुणहि परवीण नर तिन घरि कमला थाइ । सर्वपा तिलतलं च मह जायते ध्रु ॥ सोलहसइ चौराणुवइ अस्वन सुदि बुधवारि । चंती पून्यो निम्मली भली भणिज्जइ लोइ । शुक्लयोग सुभ दिन तिहां स्वाति नक्षत्र विचारि ।। प्रह मंडलु ससि ग्रहनु मुणि उलकापातु जुहोई॥ तादिन लिखि पूरण भया समुझाइ चतुर सुजाण । ऊपर के वर्णन तथा उदाहरणों से स्पष्ट होगा कि पचगोठि हईसार कहु क्षेम कुसल कल्याण ॥ लेखक ने इस ग्रथ में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश तथा हिन्दी वाजहि तूर अनंद के घरि घरि मंगलचारु। इन चारों भाषामों के पद्यो का उपयोग किया है। उन्होंने कवि सु भगोती इज लवह सदाजु हर्ष विथार॥ ये पद्य अन्य ग्रंथों से संकलित किये हैं ऐसा निम्न कथन से इस ग्रथ में तीन काण्ड है-प्रथम द्वादशमासफल- प्रतीत होता हैशुभ कथन काण्ड मे १४३ पद्य है। इसके कुछ उदाहरण सुगम श्लोक जे लखे मइमा गुरु दिये ललाइ । इस प्रकार है बहु ते ग्रंथनि दूंसकह लिखे ठकाणी साइ॥ पाखि अंधारइ चतकई वृद्धि होई तिथि कोइ । इसी कारण ग्रंथ के विषय प्रतिपादन में सुसूत्रता नही पाखि चांदणे फिरि घटइ अन्न घणेरा होई॥ आ सकी है । ये पद्य मूलतः काफी अशुद्ध भी है । बरसइ पून्यो साढको मास एक सुरभिक्ष । यह ज्योतिषसार प्रथ भी उसी हस्तलिखित में मिला पाछै होइ महर्घता समा सुभिक्ष दुभिक्ष ॥२३ है जिसमे से वैद्यविनोद का परिचय पहले दिया गया है । दोज तीज सुदि माह की शुक्र शनीचर मेलु । हस्तलिखित के पत्र ५८ से ७६ तक यह रथ है । यह खांडा वाजइ देसहि रुहिर मही महि रेलु ॥४४ हस्तलिखित संवत् १८१० से १८१६ तक लिखा गया है सनि प्राइचिहि मगलिहि जेइ कक्कह सकति । ऐसा इसको पुष्पिकानों से स्पष्ट होता है। इसका लेखन अन्न महग्या तुच्छ जल के नर वे जुमंति ॥५६ बुरहानपुर में लाड झाति के नेमासा भीखासा के लिए चित्तस्य सेयपक्खे पडिबइ जइ सूखासरो होई। प्रेमलाभ ने पूर्ण किया था।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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