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वर्शन और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में : स्याद्वाद और सापेक्षवाद
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Relativity)' किया। इस प्रकार दो विभिन्न क्षेत्रों से तोड़ रहा है। दूसरे को हर्ष हुमा कि यह मुकुट तैयार प्रारम्भ हुए दो सिद्धान्तों का तथा प्रकार का नाम-साम्य कर रहा है। तीसरा व्यक्ति मध्यस्थ भावना मे रहा; एक महान् कुतूहल तथा जिज्ञासा का विषय है। क्योंकि उसे तो सोने से काम था। तात्पर्य यह हुआ
एक ही स्वर्ण मे उसी समय एक विनाश देख रहा है, सहज भी, कठिन भी:
एक उत्पत्ति देख रहा है और एक ध्रुवता देख रहा है। दोनों ही सिद्धान्त अपने-अपने क्षेत्र में सहज भी माने
इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से त्रिगुणात्मक गये हैं और कठिन भी। स्याद्वाद को ही लें-इसकी
है।" प्राचार्यों ने और अधिक सरल करते हुए कहा-- जटिलता विश्व-प्रसिद्ध है। जहाँ जैनेतर दिग्गज विद्वानों
"वही गोरस दूध रूप से नष्ट हुआ, दधि रूप मे उत्पन्न ने इसकी समालोचना के लिए कलम उठाई वहाँ उनकी
हमा, गोरस रूप में स्थिर रहा। जो पयोव्रती है वह समालोचनाएं स्वयं बोल पडी हैं-उन्होंने स्याद्वाद को
दधि को नही खाता, दधि व्रती पय नही पीता और गोरस समझा ही नहीं है। प्रयाग विश्वविद्यालय के उपकुलपति
त्यागी दोनो को नही खाता. पीता'।" ये विरुद्ध धर्मों की महामहोपाध्याय डा. गंगानाथझा एम० ए०, डी० लिट्,
सकारण स्थितियाँ है। इसलिए वस्तु मे नाना अपेक्षामो एल० एल० डी० लिखते है-"जब से मैंने शकराचार्य
से नाना विरोधी धर्म रहते ही है। इसी प्रकार जब कभी द्वारा किया गया सिद्धान्त का खण्डन पढा है तब से मुझे
राह चलते आदमी ने भी पूछ लिया कि आपका स्याद्वाद विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है, जिसे
क्या है तो प्राचार्यों ने कनिष्ठा व अनामिका सामने करते वेदान्त के प्राचार्यों ने नही समझा है । और जो कुछ अब
हुए पूछा'-दोनो मे बड़ी कौन-सी है ? उत्तर मिलातक मैं जैनधर्म को जान सका हूँ, उससे मुझे यह दृढ
अनामिका बड़ी है । कनिष्ठा को समेट कर और मध्यमा विश्वास हुआ है कि यदि वे (शंकराचार्य) जैनधर्म को
फैला कर पूछा-दोनो अगुलियों में छोटी कौन सी है ? उसके असली ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हे
उत्तर मिला-अनामिका । आचार्यों ने कहा-यही हमारा जैनधर्म का विरोध करने को कोई बात नही मिलती।"
स्याद्वाद है जो तुम एक ही अगुली को बडी भी कहते हो __ स्याद्वाद के विषय मे उसकी जटिलता के कारण और छोटी भी। यह स्यादाद की सहजगम्यता है। ऐसे विवेचनो की बहुलता यत्र तत्र दीख पड़ती है। इस
सापेक्षवाद की भी इस दिशा मे ठीक यही गति है। जटिलता को भी प्राचार्यों ने कही-कही इतना सहज बना कठिन तो वह इतना है कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी इसको दिया है कि जिससे सर्वसाधारण भी स्याद्वाद के हृदय तक पूर्णतया समझने व समझाने में चक्कर खा जाते है । कहा पहुँच सकते है। जब प्राचार्यों के सामने यह प्रश्न पाया जाता है कि यह सिद्धान्त गणित की गुत्थियों से इतना कि एक ही वस्तु मे उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता जैसे भरा है कि इसे अब तक ससार भर मे कुछ सौ प्रादमी परस्पर विरोधी धर्म कैसे ठहर सकते है तो स्यावादी
१. घटमौलि सुवणार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम् । प्राचार्यों ने कहा- “एक स्वर्णकार स्वर्ण-कलश तोडकर ।
शोक प्रमोद माध्यस्थ जनो याति सहेतुकम् ॥ स्वर्ण-मुकुट बना रहा था, उसके पास तीन ग्राहक आये ।
-शास्त्र वार्ता समुच्चय एक को स्वर्ण-घट चाहिए था, दूसरे को स्वर्ण-मुकुट और
२. उत्पन्न दधिभावेन नष्ट दुग्धतया पयः । तीसरे को केवल सोना । स्वर्णकार की प्रवृत्ति को
गोरसत्वात् स्थिर जानन् स्याद्वादद्विड् जनोऽपिक. ॥१॥ देखकर पहले को दुःख हा कि यह स्वर्ण-कलश को
पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवतः । १. इण्डियन फिलोसोफी, पृ० ३०५ ।
अगोरसवतो नोभे, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ॥२॥ २. जैन-दर्शन, १६ सितम्बर १९३४ ।
३. यथा अनामिकायाः कनिष्ठामधिकृत्य दीर्घत्वं, ३. उत्पाद् व्यय प्रौव्य युक्त सत् ।
मध्यमा मधिकृत्य हृस्वत्वम् । -श्रीभिक्षु न्याय कणिका
-प्रज्ञासूत्र वृत्तिः पद भाषा ११