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________________ देवागम स्तोत्र व उसका हिन्दी अनुवाद सिद्ध (७६-७८), अन्तरग-बहिरंग (७६-८७), देव-पौरुष सर्वथा अशुद्ध ही। किन्तु वे शुद्धि-प्रभव्यत्व शक्ति(८८-६१), अन्य को दुख और स्वको सुख के उत्पादन में और अशुद्धि-प्रभव्य शक्ति-से संयुक्त दो प्रकार के पाप तथा अन्य को सुख और स्व को दुख के उत्पादन मे माने गए हैं। जैसे-उड़द के अधिकांश कण पाक्य पुण्य (६२-६५), तथा अज्ञान से बन्ध व अल्पज्ञान से शक्ति-पकने की योग्यता-से संयुक्त होते हैं, पर मोक्ष (६६-१००), इन अन्य एकान्त वादो का भी उनमें ऐसे भी कुछ दाने होते है जो उस पाक्य शक्ति से निराकरण करने हा अनेकान्त वाद के आश्रय से उपर्युक्त रहित होते है । यह प्रत्यक्ष मे देखा गया है। उनमें शुद्धि उभय धर्मों के अस्तित्व को अविरुद्ध सिद्ध किया गया है। शक्ति की अभिव्यक्ति सादि है, क्योकि, उसके अभि प्रस गवश यहा कर्मबन्ध के प्रकरण मे (३८-१००) व्यजक जो सम्यग्दर्शन आदि है वे सादि हैं । पर अशुद्धि बतलाया गया है कर्मबन्ध (स्थिति-अनुभागरुप) अज्ञान शक्ति-की अभिव्यक्ति अनादि है, क्योंकि, उसके अभिसे-क्रोधादि कपायों के साथ रहने वाले मिथ्या ज्ञान व्यजक जो मिथ्यादर्शनादि है वे प्रवाह स्वरूप से अनादि से-हुअा करता है, कषाय रहित प्रज्ञान-छदमस्थ के है। ये शुद्धि-अशुद्धि शक्तिया चूकि स्वाभाविक है, अतः अल्पज्ञान-से नही । तथा मोक्ष प्ररहत अवस्थारुप जीवन ऐसा क्यों है ? इस प्रश्न के लिए यहा कोई स्थान नही मुक्ति-उस अल्पज्ञान से होतो है जो क्षीण कपाय गुण है (६८-१००)। स्थान के अन्तिम समय में होता है, न कि सूक्ष्म साम्पराय प्रमाण व उसका फल पर्यन्त रहने वाले मोह युक्त अल्पज्ञान से । काम-क्रोधादिरूप कार्य-भवससार-- इस कर्मबन्ध के अनुसार हुआ अब उपेय तत्त्व जो सर्वज्ञता ब वीतरागता आदि है करता है । यहा यह कहा जा सकता है कि काम-क्रोधादि- तथा उपाय तत्व जो हेतुबाद व काल लब्धियादि है रूप कार्य महेश्वर के निमित्त से होता है। इस प्राशका उनका ज्ञान चूकि प्रमाण और नयके प्राश्रय से होता है, का निराकरण करते हुए यह कहा गया है कि वह र कहा गया है कि वह अतः उनमे प्रथमतः प्रमाण का विवेचन करते हुए कहा अतः उनम प्रर कामादि-राग द्वेषादि की उत्पत्ति रूप-कार्य चकि अनेक गया है कि जो तत्व ज्ञान है-सशयादि से रहित यथार्थ प्रकार का है, अतः उसका कारण भी अनेक स्वभाव वाला ज्ञान है-उसे प्रमाण कही जाता है। वह दो प्रकार का होना चाहिये, न कि नित्य व एक ही स्वभाव से सदा है-एक तो युगपत् सर्व पदार्थों के प्रतिभासन रूप केवल अवस्थित रहने वाला महेश्वर । सो वह कारण अनेक ज्ञान और दूसरा क्रम से होने वाला-मति, श्रन, अवधि विधि कर्म का-ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों का-बन्ध और मनः पर्ययस्वरूप क्षायोपशमिक-ज्ञान । स्यावाद ही हो सकता है। जिसके अनुरूप वह कामादि कार्य व नय से संस्कृत वह तत्त्व, ज्ञान कथचित-समस्त पदार्थों घटित होता है और वह कारणों के अनसार राग देष के प्रतिभास की अपेक्षा-प्रक्रम है, कथचित्-कुछ निय. एव मोह आदि के अनुरूप-बन्ध करता है। इस पर मित विषयों के ग्रहण की अपेक्षा-क्रमभावी हैं, इत्यादि पुनः यह पाशका होती है कि यदि कामादि रूप वह प्रकार से उक्त तत्त्वज्ञान के विषय मे सप्तभगी की कार्य-भाव ससार-कर्मबन्ध के अनुसार हा करता है योजना की सूचना की गई है (१०१)। तो बस कर्मबन्ध के समान रहते हुए किन्ही जीवों के मुक्ति उनमें प्रथम प्रमाण का व्यवहित ( पारम्परित ) फल और किन्ही के ससार की व्यवस्था घटित नही होती । इस उपेक्षा है, क्योंकि, केवलज्ञान के प्रगट हो जाने पर कृत प्राशका का निरसन करते हुए कहा गया है कि शुद्धि- कृत्य हो जाने से राग द्वेष के प्रभाव मे किसी भी पदार्थ के भव्यत्व-पौर अशुद्धि-अभव्यता के अधार से प्राणियों ग्रहण और छोडने की आवश्कता नही रहती। शेष मत्याके मुक्ति और ससार की व्यवस्था में किसी प्रकार का दिरूप प्रमाण का वह फल उपेक्षा के साथ ग्रहण और त्याग विरोध नहीं है । कारण यह कि वे जीव न तो साख्यों के के विवेक को उत्पन्न करना भी है । साक्षात् फल दोनों का समान सर्वथा शुद्ध माने गये है और मीमांसको के समान ही अपने विषय मे अज्ञान की निवृत्ति है ( १०२)।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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