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मानव जानियों का देवीकरण
मनु की सन्तान मानव, दिति की मन्तान दैत्य, (असुर) सग्राम देव और दैत्यों के बीच अमृत को लेकर हुआ था।
और अदिति की सन्तान देव जाति में प्रविष्ट हुई। यह इस सग्राम में भी असुरो से देव हारने लगे तब विष्णु के अदिति कौन है ? महर्षि यास्क ने निघण्टु मे पृथ्वी के पास गए। विष्णु ने दधीचि ऋषि से हथियार मागने की २१ नाम गिनाए है उसमें एक नाम अदिति भी पृथ्वी सलाह दी । दधीचि ने अपनी अस्थि का एक टुकड़ा देवों का नाम है । अदिति को देव माता भी कहा है। इससे को दिया और विश्वकर्मा ने शस्त्र बनाया। उसी शस्त्र स्पष्ट होता है कि देव जाति को जन्म देने का सौभाग्य प्रयोग से देवो ने असुरो को पराजित कर दिया था। इस इस पृथ्वी को मिला । पौराणिक अभिमत यह है कि दिति पराजय के बाद असुर पाताल में चले गए। पौर अदिति काश्यप की पत्नियाँ थी। अदिति से देव और वैदिक परम्परा और जैन परम्परा दोनो के अनुसार दिति से दैत्य (असुर) पैदा हए । ये परस्पर सौतेले भाई अमुरो का निवास स्थान पाताल माना है लेकिन यह थे इसलिए बार-बार युद्ध हा करते थे। प्रत्येक शब्द पाताल कहाँ था यही एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। हिन्दू पुराण का समय के साथ उत्कर्ष और अपकर्ष होता है । असुर मे सात पाताल माने गए है.-अतल, वितल, सुतल, तलाशब्द अाज अभद्र अर्थ में प्रयुक्त होता है पर उस समय तल, महातल, रसातल और पाताल'। सर्वत्र ऐसा नही था। असुर वे थे जो सुरा नही पीते थे। जैन दर्शन में बताया है कि धरती के निम्नस्तरीय नशा नहीं करते थे। सुरा नही पीने के कारण ही उनका भाग मे पाताल है। इतिहास की दृष्टि से भी पाताल की नाम असुर पडा था' इससे लगता है यह बहुत ही सभ्य कल्पना वर्तमान पृथ्वी के निम्नस्तरीय भाग में है। जहाँ जाति थी इसमे खान-पान का उच्चस्तरी विवेक था। आज भी असुर जाति के ध्वसावशेष प्राप्त है। धरती का बहुत सभव है कि अनेक प्राणी का सरक्षण करने के कारण पर्वतीय भाग ऊर्ध्व भाग होता है। तिब्बत, चीन और भा उन्ह असुर कहा गया हो। असन-प्राणान रक्षतीति- उसके पास-पास के प्रदेश पर्वतीय भाग पर बसे हुए है। असुरः ।
तिब्बत को संस्कृत साहित्य में त्रिविष्टप कहा जाता है । पौराणिक साहित्य में देवासर का संग्राम बहुत ही त्रिविष्टप' नाम स्वर्ग का है । इसे ऊर्वलोक मे भी माना प्रसिद्ध है। असुर एक बहुत ही बलवान जाति थी। जब है। इससे स्पष्ट होता है कि तिब्बत, चीन और उसके देव और अमुर का प्रथम सग्राम हा तो असरो ने सरो प्रासपास का भाग उवलोक में सम्मिलित थे। और यही को बुरी तरह से हरा दिया था। असर के गुरु शक्राचार्य स्वर्गभूमि थी। यहाँ पर देवसंस्कृति का विकास था। थे उनके पास एक ऐसी विद्या थी कि सग्राम मे घायल वनवास करते समय ऋषि भारद्वाज ने कहा-चित्रकूट मसुरो को पुनः शीघ्र ही स्वस्थ बना दिया जाता था। पर्वत पर बहुत से ऋषि सैकडो वर्ष तप कर महाअसुरों को जीतने का साहस देवों मे नही था समुद्र मन्थन देव के साथ स्वर्ग को चले गए थे। आप वही पर के समय देव-असुरों के बीच एक भयंकर सग्राम छिड़ा था। निवास करे। विष्णु त्रिविष्टप के अधिपति थे। हिन्दी विश्व के इतिहास में यह सग्राम बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध १. बा० रा. वाल काड मर्ग ४५ श्लोक ४० हा क्योकि इस समय दैत्य सस्कृति एक ओर इडोनेशिया २. भागवतसे अमेरिका तक तथा दूसरी ओर अफ्रीका और इजिप्ट
३. स्कन्द पुराण-महेश्वर खड-१ प्र० ५० श्लोक तक फैल गई थी। अभी-अभी इडोनेशिया में खुदाई होने
२।३।४ से दैत्य संस्कृति के बहुत से चिह्न प्राप्त हुए है। यह ४. स्वर्गस्त्रिविष्टप घौदिवौ भुविस्तविषताविषो नाकः । १. हिन्दू देव परिवार का विकास खण्ड १ पृ० ५१
गौस्त्रिदिवमूर्ध्वलोक. सुरालयस्तत्सदस्त्वमटा: ॥८७॥
-अभिधान चिन्तामणि देवकाण्ड २ २. वा० रा. बालकांड सर्ग ४५ श्लोक ४० ३. वा. रा. वाल का. सर्ग ४५ श्लोक ३८
५. ऋषयस्तत्र बहवोविहत्य शरदां शतम् ।
तपसादिवमारूढा कपाल शिरसा सह ॥३१॥ ४. The s.S Ch. IV P.31
-बा०रा० अयोध्या का० सर्ग ५४