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________________ सोनागिरि सिद्धक्षेत्र और तत्सम्बन्धी साहित्य डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, एम. ए. (त्रय). पी-एच. डी. सोनागिरि सिद्धक्षेत्र के श्रमणगिरि, स्वर्णगिरि, स्वर्णा- प्रेमीजी के उक्त कथन को निराधार कहना तो अनुचल, कनकाचल, कनकगिरि एव कनकपवंत प्रादि नाम भी चित है; पर यह पुन. विचारणीय अवश्य है। सोनगिरि मिलते हैं । निर्वाणकाण्ड' में स्वर्णगिरि से नग और प्रनग- के सम्बन्ध मे जो उल्लेख उपलब्ध है, उनसे उसकी निर्वाण कुमार के निर्वाण प्राप्त करने का उल्लेख पाया है। जन भूमि के रूप में १५वी शती या इससे पूर्व की मान्यता इतिहाम के प्रसिद्ध विद्वान स्व०प० नाथगम प्रेमी ने सिद्ध होती है। वहाँ के मूर्तिलेख १३वी शती के उपलब्ध अनेक प्रमाणों के आधार पर गजगृह पञ्चपर्वतो में श्रमण- है, अत इस क्षेत्र की प्रतिष्ठा इसके पूर्व ही हो चुकी गिरि को नग, अनगकुमार का निर्वाणस्थल सिद्ध किया है, होगी। १५वी शती के अपभ्रश भाषा के विद्वान् कवि साथ ही उन्होने जैन एव बौद्ध वाङ्मय के आधार पर रहध ने "रिट्रणेमिचरिउ' की प्रशस्ति मे सोनगिरि का राजगृह के ऋषिरि का नामान्तर श्रवण या श्रमणगिरि उल्लेख किया। बताया है - को माना है। प्रेमीनीको मोनगिरि के सिद्धक्षेत्र होने मे 'कमलकित्ति उत्तमखम-धारउ, प्रशका थी ही, पर उन्हे इसकी प्राचीनता मे भी सन्देह भवह भव-अंबोणिहि-तारउ । था। उनके निबन्ध का अध्ययन करने से यह धारणा तस्स पट्ट 'कणद्दि' परिदृउ, उत्पन्न होती है कि सोनगिरि का प्रचार सिद्धक्षेत्र के रूप सिरि 'सुहचंद' सु-तव-उक्कंठिउ । १७वी शती के पश्चात् हुआ है। उन्होने स्वर्णाचल अर्थात- भण्य जीवो को ससार समुद्र से पार करने माहात्म्य के प्रकाशित होने पर लिखा है-"ऐसा मालूम ___ वाले उत्तम क्षमा के धारक कमलकीति हुए । इनके पट्टधर होता है कि यह सब कगमात सौरीपुर या बटेश्वर के शभचन्द्र का कनकगिरि-सोनागिरि पर अभिषेक हपा भट्टारक जिनेन्द्रभूषण (विश्वभूषण के शिष्य और ब्रह्म था। महाकवि रइधू ने कमलकीत्ति का निर्देश इस ग्रन्थ हर्षमागर के पुत्र) की है, जिन्होने अटेर निकासी दीक्षित की अन्तिम प्रशस्ति में किया है। देवदत्त से यह १६ मों का सस्कृत काव्य वि० स०१८४५ शंदऊ सूरि सुगुरु 'सुहचंदों, मे बनवाया और उन्होने ही इसे सबसे पहले मिद्धक्षेत्र के 'कमलकित्ति-पढेंबर चंदो॥ रूप मे प्रसिद्ध किया।" कमलकीत्ति और उनके पट्टधर शिष्य शुभचन्द्र का १ अगाणगकुमाग विक्खा-पचद्ध-कोडि-रिसिसहिया। का निर्देश वि० सं० १५०६; १५१०; १५३० और मुवण्णगिरि-मत्थयत्थे णिव्वाण गया णमो तेसि ।। १६३६ के अभिलेखों में उपलब्ध होता है। कमलकीत्ति -निर्वाणकाण्ड (गाथा) काष्ठासघी माथुरगच्छ और पुष्करगण के भट्टारक हेमनग अनग कुमार सुजान, पांच कोडि मस अर्घ प्रमान। कीति के शिष्य थे । यथामृक्ति गय सानागिार-शाश, त वदो त्रिभुवनपति ईस ॥ सवत् १५.६ वर्षे ज्येष्ठ सुदी १५ शुक्रे काष्ठासंघ -निर्वाणकाण्ड (भाषा) श्रीकमलकीत्ति देवाः तदाम्नाये सा० थिरू स्त्री भानदे पुत्र २ जनसाहित्य और इतिहास, हिन्दी प्रथरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, द्वितीय सस्करण पृ० ४३६ ४ जनग्रंथ-प्रशस्तिसंग्रह द्वितीय भाग, वीरसेवा मन्दिर, ३ वही, पृ० ४३६ दिल्ली पृ० ८८
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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