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संस्कृत से अरुचि क्यों
श्री गोपोलाल 'प्रमर' एम. ए.
सस्कृत भाषा के वाङ्मय की-सी विविधता और था लेकिन इसके अनेक कारण माइए,उन कारणों पर विपुलता ससार की किसी भी भाषा में कदाचित् ही होगी। हम कुछ विचार करेसस्कृत का महानथ अहग्वेद ससार की प्राचीनतम पुस्तको मे प्रथम है । प्रादिकवि बाल्मीकि और महाकवि कालिदास
भारत के भूतपूर्व शासकों द्वारा विरोष : का स्थान विश्वप्रसिद्ध कतिपय महाकवियो में सर्वोपरि है। प्राचीनकाल से हो भारत अनेक प्राकर्षणो का केन्द्र सस्कृत के व्याकरण की कोई जोड नही । मानव-जीवन के रहा है। कदाचित् इसोलिए विदेशी शासको ने इस देश प्रत्येक पहलू पर सस्कृत ने प्रकाश डाला है। सस्कृत में पर मनचाहा शासन किया। उनके शासन तक तो फिर भी जहाँ सहस्राब्दियो पूर्व की सभ्यता के दर्शन होते है सहस्रा
कुशल थी पर उसे स्थाई बनाए रखने के लिए यहा की ब्दियो के पश्चात् आने वाली सभ्यता की भविष्यवाणी भी
सस्कृति को भी उन्होने क्षत-विक्षत करने की चेष्टाए की। है । सस्कृत वह भापा है जिसमे दर्शन, विज्ञान और जीवन
सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति प्रायः सस्कृत विद्या मे ही केन्द्रित का अद्वितीय समन्वय मिलता है। संस्कृत साहित्य ही से
थी। अतः उन्होने उसी पर अनेक घातक प्रहार किए, विश्व के लिए शान्तिमय सन्देश प्रसारित होता है ।
सस्कृत के विद्वानों और काव्यकारो को प्राश्रयहीन किया,
मठ और गुरुकुल ध्वस्त किए, ग्रन्थो को अग्निसात् या परन्तु उसी सस्कृत को आज की स्थिति में देखकर
जलमग्न किया और अन्ततोगत्वा उसे 'मृत भाषा' बनाकर हमे उस सरस्वती का स्मरण पाता है जिसे ब्रह्मलोक त्याग
ही छोडा। कर मर्त्यलोक पाना पड़ा था। सरस्वती तो फिर भी अमृत कहलाती रही परन्तु सस्कृत को 'मृत' तक कह डाला गया।
सस्कृत की: वर्तमान स्थिति के लिए ये विदेशी शासक अाज यह स्थिति है कि सस्कृत परम्परागत पजारी कहलाते बहुत कुछ उत्तरदायी हैं। कुछ विद्या-प्रेमी उदार-हदय वाले हमी लोग उससे अरुचि करने लगे है, उसके अध्ययन- शास
शासको की चर्चा हम नही कर रहे हैं । मनन को अपनी गौरव हानि समझने लगे है। यही नही,
पाश्चात्य सभ्यता के प्रति मोह: संस्कृत से हमारी अरुचि उत्तरोत्तर बढ़ रही है जिसके
अग्रेजी शासनकाल में भारतीयो का मोह पाश्चात्य उदाहरण है वे शतश: विद्यालय और पाठशालाएं जो छात्रा
सभ्यता के प्रति तीव्र वेग से बढा । यह परम्परा प्राज भाव के कारण अन्तिम सांसें ले रही है, वे दिग्गज सस्कृत विद्वान् जो इस लिए हमारे सम्मान के पात्र नही रहे
भी बहुत अंशो मे कायम है। सूट-बूट से सजे आज के कि वे केवल सस्कृतज्ञ है और वे हम और हमारे विविध
अप-टू डेट नौजवान को मस्कृत विद्या मे 'पण्डिताऊपन' की नेता जिन्हे, सस्कृत विद्या का प्रचार-प्रसार तो दूर रहे,
झलक मिलती है, उसका अध्ययन-मनन कोरा 'पुराणपथ'
प्रतीत होता है । पाश्चात्य विद्वानों ने तो सस्कृत का श्रेष्ठ उसे यथा स्थिति कायम रखना भी दुष्कर है ।
अध्ययन किया है लेकिन पाश्चात्य सभ्यता से मोहित इन कारण
तथाकथित भारतीय विद्वानों और नेतामों को सस्कृत में हाँ ब्रह्मलोक त्यागकर मर्त्यलोक मे सरस्वती को तो साहित्यिक और प्राध्यात्मिक तत्त्व नजर नहीं पाते । उसमें दुर्वासा के शाप से पाना पड़ा था, लेकिन सस्कृत को उस उन्हे मनोविज्ञान और मानव-जीवन के विश्लेषक तत्त्वों की स्थिति में क्यो पाना पड़ा? उसका तो एक ही कारण कमी खटकती है । ये भ्रान्त धारणाएं पाश्चात्य सभ्यता