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________________ प्रोम् प्रहम् अनकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २१ किरण ३ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६४, वि० सं० २०२५ । अगस्त सन् १९६८ स्वयंभूस्तुति स्वयंभुवायेन समुद्धृतं जगज्जडत्वकूपे पतितं प्रमादतः । परात्मतत्त्वप्रतिपादनोल्लसद्वचोगुणरादिजिनः स सेव्यताम् ॥१॥ भवारिरेको न परोऽस्ति देहिना सहन रत्नत्रयमेक एव हि। स दुर्जयो येन जितस्तदाश्रयात्ततोऽजितान्मे जिनतोऽस्तु सत्सुखम् ॥२॥ -मुनि श्री पचनन्दि प्रर्थ-स्वयम्भू अर्थात् स्वयं ही प्रबोध को प्राप्त हुए जिस आदि ( ऋषभ ) जिनेन्द्र ने प्रमाद के वश होकर अज्ञानता रूप कुए में गिरे हुए जगत् के प्राणियों का पर-तत्त्व और आत्मतत्त्व (अथवा उत्कृष्ट आत्मतत्त्व) के उपदेशो में शोभायमान वचनरूप गुणो से उद्धार किया है उस आदि जिनेन्द्र की आराधना करना चाहिए । भावार्थ-उक्त श्लोक में प्रयुक्त 'गुण' शब्द के दो अर्थ है-हितकारकत्व आदि गुण तथा रस्सी । उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कोई मनुष्य यदि प्रमावधानी से कुएँ में गिर जाता है तो इतर दयालु मनुष्य कुएं में रस्सियों को डाल कर उनके सहारे से उसे बाहर निकाल लेने है। इसी प्रकार भगवान् प्रादि जिनेन्द्र जो बहुत से प्राणी अज्ञानता के वश होकर धर्म के मार्ग से विमुख होते हुए कष्ट भोग रहे थे उनका हितोपदेश के द्वारा उद्धार किया था-उन्हे मोक्षमार्ग में लगाया था। उन्होने उनको ऐसे वचनों द्वारा पदार्थ का स्वरूप समझाया था जो हितकारक होते हुए उन्हे मनोहर भी प्रतीत होते थे । 'हित मनोहारि च दुर्लभ वचः' इस उक्ति के अनुसार यह सर्वसाधारण को सुलभ नही है ॥१॥ प्राणियो का संसार ही एक उत्कृष्ट शत्रु तथा रत्नत्रय ही एक उत्कृष्ट मित्र है, इनके सिवाय दूसरा कोई शत्रु अथवा मित्र नहीं है । जिसने उस रत्नत्रयरूप मित्र के अवलम्बन से उस दुर्जय ससाररूप शत्रु को जीत लिया है उस अजित जिनेन्द्र से मुझे समीचीन सुख प्राप्त होवे ।।२।।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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