Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराण मूल आचार्य जिनसेन सम्पादन-अनुवाद डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराण आचार्य जिनसेन ( 9वीं शती) द्वारा प्रणीत 'आदिपुराण' प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव तथा भरत बाहुबली के पुण्यचरित के साथ-साथ भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के मूल स्त्रोतों एवं विकासक्रम को आलोकित करने वाला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जैन संस्कृति एवं इतिहास के अध्ययन के लिए यह अनिवार्य है। यह मात्र पुराण-ग्रन्थ ही नहीं है, एक श्रेष्ठ महाकाव्य भी है। विषयप्रतिपादन की दृष्टि से यह धर्मशास्त्र, राजनीति शास्त्र और आचारशास्त्र भी माना गया है। मानव सभ्यता की आद्य व्यवस्था का प्रतिपादन करने के कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। मानव समाज का विकासक्रम, विभिन्न समूहों में उसका वर्गीकरण, वर्ग-विशेष के धार्मिक संस्कार आदि अनेक आयामों की इसमें विशद रूप से विवेचना की गयी है। संस्कृत एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं के परवर्ती कवियों के लिए यह उपजीव्य ग्रन्थ बना रहा है। - सम्पूर्ण कृति (आदिपुराण) भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा दो भागों में प्रकाशित है। ग्रन्थ के सम्पादक हैं- जैन धर्मदर्शन तथा संस्कृत साहित्य के अप्रतिम विद्वान डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य । ग्रन्थ में संस्कृत मूल के साथ हिन्दी अनुवाद, महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना एवं परिशिष्टों के रूप में पारिभाषिक, भौगोलिक और व्यक्तिपरक शब्द सूचियाँ भी दी गयी हैं। इससे यह शोधकर्ताओं, विशेषकर पुराण एवं काव्यसाहित्य का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करनेवालों के लिए अपरिहार्य ग्रन्थ बन गया है। विषयक्रम की दृष्टि से ग्रन्थ का तीसरा भाग है- आचार्य गुणभद्र द्वारा रचित 'उत्तरपुराण' (ज्ञानपीठ प्रकाशन) जिसमें ऋषभदेव के उत्तरवर्ती शेष 23 तीर्थंकरों, 11 चक्रवर्तियों, 9 बलभद्रों, 9 नारायणों, 9 प्रतिनारायणों तथा तत्कालीन विभिन्न राजाओं एवं पुराण पुरुषों के जीवन-वृत्तों का सविशेष वर्णन है । प्रस्तुत है- आदिपुराण के दोनों भागों का यह नया संशोधित संस्करण। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनसेन विरचित आदिपुराण द्वितीय भाग Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : संस्कृत ग्रन्थांक 9 आचार्य जिनसेन विरचित आदिपुराण [ द्वितीय भाग ] (हिन्दी अनुवाद, प्रस्तावना तथा परिशिष्ट आदि सहित ) सम्पादन- अनुवाद डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य भारतीय ज्ञानपीठ तेरहवाँ संस्करण : 2011 मूल्य : 350 रुपये Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISBN 81-263-0853-2 (Set) 978-81-263-1844-5 (Part-II) भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना : फाल्गुन कृष्ण 9; वीर नि. सं. 2470; विक्रम सं. 2000; 18 फरवरी 1944) पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की स्मृति में साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमा जैन द्वारा सम्पोषित मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध विषयक जैन साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनके मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की ग्रन्थसूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य ग्रन्थ भी इस ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं। प्रधान सम्पादक (प्रथम संस्करण) डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ.ने. उपाध्ये प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110003 मुद्रक : विकास कम्प्यूटर ऐंड प्रिंटर्स, दिल्ली-110 032 © भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Moortidevi Jain Granthamala : Sanskrit Series-9 ĀDIPURĀŅA of ĀCHĀRYA JINASENA [ Part - II ] (With Hindi Translation, Introduction and Appendices) Edited and Translated by Dr. Pannalal Jain, Sahityacharya BHARATIYA INANPITH Thirteenth Edition : 2011 Price : Rs. 350 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISBN 81-263-0853-2 (Set) 978-81-263-1844-5 (Part-II) BHARATIYA JNANPITH (Founded on Phalguna Krishna 9; Vira N. Sam. 2470; Vikrama Sam. 2000; 18th Feb. 1944) MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA FOUNDED BY Sahu Shanti Prasad Jain In memory of his illustrious mother Smt. Moortidevi and promoted by his benevolent wife Smt. Rama Jain In this Granthamala critically edited Jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc. are being published in the original form with their translations in modern languages. Catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies on art and architecture by competent scholars and popular Jain literature are also being published. General Editors (First Edition) Dr. Hiralal Jain and Dr. A. N. Upadhye Published by Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110 003 Printed at : Vikas Computer & Printers, Delhi-110 032 © All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पृष्ठ षड्विंशतितम पर्व चक्रवर्ती भरतने विधिपूर्वक चक्ररत्नकी पूजा की और फिर पुत्रोत्पत्तिका उत्सव मनाया। नगरीकी सजावट की गयी। अनन्तर दिग्विजयके लिए उद्यत हुए । उस समय शरद् ऋतुका विस्तृत वर्णन । दिग्विजयके लिए उद्यत चक्रवर्तीका वर्णन । तत्कालोचित सेनाकी शोभाका वर्णन । पूर्व दिशामें प्रयाणका वर्णन । गंगाका वर्णन । १-१७ सप्तविंशतितम पर्व सारथी-द्वारा गंगा तथा वनकी शोभाका वर्णन । हाथी तथा घोड़ा आदि सेनाके अंगोंका वर्णन। १८-३२ __ अष्टाविंशतितम पर्व दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही दिग्विजयके लिए आगे प्रयाण किया। चक्ररत्न उनके आगे-आगे चल रहा था। तात्कालिक सेनाकी शोभाका वर्णन । क्रमशः चलकर वे गंगाद्वारपर पहुँचे । वहाँ वे उपसमुद्रको देखते हुए स्थलमार्गसे गंगाके किनारेके उपवनमें प्रविष्ट हुए । वहीं सेनाको ठहराया । अनन्तर समुद्रके किनारेपर पहुँचे, वहाँ समुद्रका विस्तृत वर्णन । ३३.४४ भरत चक्रधर लवणसमुद्र में स्थलकी तरह वेगसे आगे बढ़ गये। बारह योजन आगे चलकर उन्होंने अपने नामसे चिह्नित एक बाण छोड़ा, जो कि मागध देवकी सभामें पहुँचा। पहले तो मागधदेव बहुत बिगड़ा पर बादमें बाणपर चक्रवर्तीका नाम देख गर्वरहित हुआ तथा, हार, सिंहासन और कुण्डल साथ लेकर चक्रवर्तीके स्वागतके लिए पहुँचा। चक्रवर्ती उसकी विनयसे बहुत प्रसन्न हुए। ४५-५.० समुद्रका विविध छन्दों-द्वारा विस्तृत वर्णन। अन्तमें कवि-द्वारा पुण्यका माहात्म्य वर्णन । ५१-६१ एकोनत्रिंशत्तम पर्व अनन्तर चक्रवर्ती दक्षिण दिशाकी ओर आगे बढ़े। मार्गमे अनेक राजाओंको वश करते जाते थे। बीचमें मिलनेवाले विविध देशों, नदियों और पर्वतोंका वर्णन । ६२.७१ दक्षिण समुद्रके तटपर चक्रवर्तीने अपनी समस्त सेना ठहरायो। वहाँकी प्राकृतिक शोभाका वर्णन । चक्रवर्तीने रथके द्वारा दक्षिण समुद्र में प्रवेश कर वहाँके अधिपति व्यन्तरदेवको जीता। ७२-८० त्रिंशत्तम पर्व सम्राट् भरत दक्षिण दिशाको विजय कर पश्चिमको ओर बढ़े। वहाँ विविध वनों, पर्वतों और नदियोंकी प्राकृतिक सुषमा देखते हुए वे बहुत ही प्रसन्न हुए। क्रमशः वे विन्ध्य गिरिपर पहुँचे। उसकी बिखरी हुई शोभा देखकर उनका चित्त बहुत ही प्रसन्न हुआ । वहीं उन्होंने अपनी सेना ठहरायी। अनेक वनोंके स्वामी उनके पास तरह-तरहकी भेंट लेकर मिलनेके लिए आये। भरतने सबका यथोचित सन्मान किया। समुद्रके किनारे-किनारे जाकर वे पश्चिम लवणसमुद्रके तटपर पहुँचे। वहां उन्होंने दिव्य शस्त्र धारण कर पश्चिम समुद्रमें बारह योजन प्रवेश किया और व्यन्तराधिपति प्रभास नामक देवको वशमें किया। पुण्यके प्रभावसे क्या नहीं होता? .८१-९५ एकत्रिंशत्तम पर्व अनन्तर अठारह करोड़ घोड़ोंके अधिपति भरत चक्रधरने उत्तरकी ओर प्रस्थान Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया । क्रमशः चलते हुए विजयार्ध पर्वतकी उपत्यकामे पहुँचे। यहाँ वे अपनी समस्त सेना ठहराकर निश्चिन्त हुए। पता चलनेपर विजयार्धदेव अपने समस्त परिकरके साथ इनके पास आया और उनका आज्ञाकारी हुआ विजयार्थको जीत लेनेसे इनकी दिग्विजयका अर्थभाग पूर्ण हो गया। अनन्तर उन्होंने उत्तरभारतमें प्रवेश करने के अभिप्रायसे दण्डर द्वारा विजयार्थ पर्वतके गुहाद्वार का उद्घाटन किया । आदिपुराणम् त्रयस्त्रिंशत्तम पर्व दिग्विजय करनेके बाद चक्रवर्ती सेनासहित अपनी नगरीके प्रति वापस लौटे मार्गमें अनेक देशों, नदियों और पर्वतोंको उल्लंघित करते हुए कैलास पर्वतके समीप आये वहाँसे श्री ऋषभ जिनेन्द्रकी पूजा करनेके लिए कैलास पर्वतपर गये अनेक राजा पृष्ठ ९६-१११ द्वात्रिंशत्तम पर्व गरमी शान्त होनेपर उन्होंने गुहाके मध्य में प्रवेश किया। काकिणी रत्नके द्वारा मार्गमें प्रकाश होता जाता था । बीचमें उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामकी नदियाँ मिलीं, उनके तटपर सेनाका विश्राम हुआ स्थपतिरत्नने अपने बुद्धि-बल से पुल तैयार किया जिससे समस्त सेना उस पार हुई गुहागर्भसे निकलकर सेनासहित भरत उत्तर भरतक्षेत्र में पहुँचे। चिलात और आवर्त नामके राजा बहुत कुपित हुए वे परस्पर में मिलकर चक्रवर्तीसे युद्ध करने के लिए उद्यत हुए । नाग जातिके देवोंकी सहायता से उन दोनोंने चक्रवर्तीकी सेनापर पनघोर वर्षा की जिससे ७ दिन तक चक्रवर्तीकी सेना चर्मरत्नके बीचमें नियन्त्रित रही । अनन्तर जयकुमारके आग्नेय वाणसे नाग जातिके देव भाग बड़े हुए और सब उपद्रव शान्त हुआ । चिलात और आवर्त दोनों ही म्लेच्छ राजा निरुपाय होकर शरण में आये । क्रमशः भरतने उत्तरभरत के समक्ष म्लेच्छ खण्डोंपर विजय प्राप्त की । ११२-१३० 1 उनके साथ थे । पुरोहितके द्वारा कैलास पर्वतका वर्णन | १३१-१३६ समवशरणका संक्षिप्त वर्णन । समवसरण में स्थित श्री ऋषभ जिनेन्द्रका वर्णन सम्राट के द्वारा भगवान्की स्तुतिका वर्णन | १३७-१५० चतुस्त्रिंशत्तम पर्व कैलास से उतरकर अयोध्या नगरीकी ओर प्रस्थान | चक्ररत्न अयोध्या नगरीके द्वारपर आकर रुक गया, जिससे सबको आश्चर्य हुआ । चक्रवर्ती स्वयं सोच-विचार में पड़ गये निमित्तज्ञानी पुरोहितने बतलाया कि अभी आपके भाइयोंको वा करना बाकी है । पुरोहितकी सम्मति के अनुसार राजदूत भाइयोंके पास भेजे गये। उन्होंने भरतको आज्ञामें रहना स्वीकार नहीं किया और श्री ऋषभनाथ स्वामीके पास जाकर दीक्षा ले ली । T पञ्चत्रिंशत्तम पर्व सब भाई तो दीक्षित हो चुके, परन्तु बाहुबली राजदूतको बात सुनकर शुभित हो उठे। उन्होंने कहा कि जब पिताजीने सबको समान रूपसे राजपद दिया है, तब एक सम्राट् हो और दूसरा उसके अधीन रहे यह सम्भव नहीं । उन्होंने दूतको फटकारकर वापस कर दिया, अन्तमें दोनों ओरसे युद्ध की तैयारियाँ हुईं। पृष्ठ १५१-१७१ 1 पत्रिंशत्तम पर्व युद्धके लिए इस ओरसे भरतकी सेना आगे बढ़ी और उस ओरसे बाहुबलीकी सेना आगे आयी। बुद्धिमान् मस्त्रियोंने विचार किया कि इस भाई-भाईकी लड़ाई में सेनाका व्यर्थ ही संहार होगा । इसलिए अच्छा हो कि स्वयं ये दोनों भाई ही लड़ें। सबने मिलकर नेत्रयुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध ये तीन युद्ध निश्चित किये तीनों ही युद्धोंमें जब बाहुबली विजयी हुए तब भरतने कुपित होकर चक्ररत्न चला दिया, परन्तु उससे बाहुबलीकी कुछ भी हानि नहीं हुई। बाहु बली चक्रवर्तीके इस व्यवहारसे बहुत ही विरक्त हुए और जंगलमें जाकर उन्होंने १७२-१९९ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पृष्ठ दीक्षा ले ली। वे एक वर्ष का प्रतिमायोग चत्वारिंशत्तम पर्व ले कायोत्सर्ग करते हुए तपश्चरण करते षोडश संस्कार तथा हवनके योग्य मन्त्रोंका रहे । भरत चक्रवर्तीने उनके चरणोंमें अपना वर्णन। २९०-३१६ मस्तक टेक दिया। बाहुबली केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षको प्राप्त हुए। २००-२२.० एकचत्वारिंशत्तम पर्व सप्तत्रिंशत्तम पर्व कुछ समय व्यतीत होनेपर भरत चक्रधरने एक दिन रात्रिके अन्तिम भागमें अद्भुत फल चक्रवर्तीने बड़े वैभवके साथ अयोध्या नगरमें दिखलानेवाले कुछ स्वप्न देखे । स्वप्न देखनेप्रवेश किया। उनके वैभवका वर्णन। २२१-२३९ के बाद उनका चित्त कुछ त्रस्त हुआ। अष्टत्रिंशत्तम पर्व उनका वास्तविक फल जाननेके लिए वे भगवान् आदिनाथके समवसरणमें पहुँचे । एक दिन भरतने सोचा कि हमने जो वैभव वहाँ जिनेन्द्र वन्दनाके अनन्तर उन्होंने श्री प्राप्त किया है उसे कहाँ खर्च करना आद्यजिनेन्द्रसे निवेदन किया कि मैंने ब्राह्मण चाहिए। जो मुनि हैं, वे तो धनसे निःस्पृह वर्णकी सृष्टि की है। वह लाभप्रद होगी या रहते हैं । अतः अणुव्रतधारी गृहस्थोंके हानिप्रद । तथा मैंने कुछ स्वप्न देखे हैं लिए ही धनादिक देना चाहिए। एक दिन उनका फल क्या होगा ? भरतके भरत चक्रवर्तीने नगरके सब लोगोंको किसी उत्तरमें श्री भगवान्ने कहा कि वत्स! यह उत्सवके बहाने अपने घर बुलाया। घरके ब्राह्मण वर्ण आगे चलकर मर्यादाका लोप अन्दर पहुँचनेके लिए जो मार्ग थे बे हरित करनेवाला होगा यह कहकर उन्होंने स्वप्नोंअंकुरोंसे आच्छादित करा दिये। बहुत-से का फल भी बतलाया, जिसे सुनकर चक्रवर्तीलोग उन मार्गोंसे चक्रवर्तीके महलके भीतर ने अयोध्या नगरीमें वापस प्रवेश किया। प्रविष्ट हुए । परन्तु कुछ लोग बाहर खड़े और दुःस्वप्नोंके फलको शान्तिके लिए जिनारहे । चक्रवर्तीने उनसे भीतर न आने का जब भिषेक आदि कार्य कर सुखसे प्रजाका पालन कारण पूछा तब उन्होंने कहा कि मार्गमें किया। ३१७-३३० उत्पन्न हुई हरी घास आदिमें एकेन्द्रिय जीव होते हैं। हम लोगोंके चलनेसे वे सब मर द्विचत्वारिंशत्तम पर्व जायेंगे अतः दयाको रक्षाके लिए हम लोग एक दिन भरत सम्राट् राजसभामें बैठे हुए भीतर आनेमें असमर्थ हैं। चक्रवर्ती उनके थे । पास ही अनेक अन्य राजा विद्यमान थे। इस उत्तरसे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उस समय उन्होंने विविध दृष्टान्तोंके द्वारा . उन्हें दूसरे प्रासुक मार्गसे भीतर बुलाया और राजाओंको राजनीति तथा वर्णाश्रम धर्मका उन्हें दयालु समझकर श्रावक संज्ञा दी, वही उपदेश दिया। ३३१-३५० ब्राह्मण कहलाये। इन्हें ब्राह्मणोचित क्रियाकाण्ड आदिका उपदेश दिया। अनेक त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व क्रियाओंका उपदेश दिया। सबसे पहले यहाँसे गुणभद्राचार्यकी रचना है। सर्वप्रथम गर्भान्वय क्रियाओंका उपदेश दिया। २४०-२६८ उन्होंने गुरुवर जिनसेनके प्रति भक्ति प्रकट कर अपनी लघुता प्रदर्शित की। अनन्तर एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व श्रेणिकने समवसरणसभामें खड़े होकर श्री तदनन्तर भरत चक्रवर्तीने दीक्षान्वय गौतम गणधरसे प्रार्थना की कि भगवन् ! क्रियाओंका उपदेश दिया। २६९-२७६ अब में श्री जयकुमारका चरित सुनना चाहता फिर कन्वय क्रियाओंका निरूपण किया। २७७-२८९ हूँ कृपा कर कहिए । उत्तरमें गणधर स्वामी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ने जयकुमारका विस्तृत चरित कहा। काशी- पट्ट बाँधा और बड़े वैभवके साथ सुखसे रहने - राज अकम्पनकी सुपुत्री सुलोचनाने स्वयंवर लगे। मण्डपमें जयकुमारके गलेमें वरमाला इधर किसी कारणवश सुलोचनाके पिता डाल दी। ३५१-३८५ अकम्पनको संसारसे विरक्ति हो गयी। उन्होंने चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व वैराग्यभावनाका चिन्तन कर अपनी विरक्तिस्वयंवर समाप्त होते ही चक्रवर्ती भरतके पुत्र को बढ़ाया तथा रानी सुप्रभाके साथ दीक्षा अर्ककीति और जयकुमारके बीच घनघोर , धारण कर निर्वाण प्राप्त किया। सुप्रभा युद्ध हुआ। अन्तमें जयकुमार विजयी हुए । यथायोग्य स्वर्गमें उत्पन्न हुई। ४४२-४४३ अकम्पन तथा भरतकी दूरदर्शितासे युद्ध जयकुमार और सुलोचनाके विविध भोगोंका शान्त हुआ तथा दोनोंका मनमुटाव दूर वर्णन । ४४३-४४५ हुआ। ३८६-४२४ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व किसी एक दिन जयकुमार अपनी प्राणवल्लभा अकम्पनने पुत्रीके शील और सन्तोषकी सुलोचनाके साथ मकानकी छतपर बैठे हुए प्रशंसा की तथा अर्ककीर्तिकी प्रशंसा कर थे कि अचानक उनकी दृष्टि आकाशमार्गसे उन्हें शान्त किया। तथा चक्रवर्ती भरतके जाते हए विद्याधर-दम्पतिपर पड़ी। दृष्टि पास दूत भेजकर अपने अपराधके प्रति क्षमा- पड़ते ही 'हा मेरी प्रभावती' कहकर जययाचना की। चक्रवर्तीने उसके उत्तरमें कुमार मूच्छित हो गये और सुलोचना भी अकम्पन और जयकुमारकी बहुत ही 'हा मेरे रतिवर' कहती हुई मूच्छित हो प्रशंसा की। ४२५-४३१ गयी। उपचारके बाद दोनों सचेत हुए। जयकुमार और सुलोचनाका प्रेममिलन - जब जयकुमारने सुलोचनासे मूच्छित होनेका जयकुमारने अपने नगरकी ओर वापस आनेका कारण पूछा तब वह पूर्वभवका वृत्तान्त कहने विचार प्रकट किया तब अकम्पनने उन्हें बड़े लगी। विस्तारके साथ दोनोंकी भवावलिका वैभवके साथ बिदा किया। मार्गमें जयकुमार वर्णन । ४४६-४७९ चक्रवर्ती भरतसे मिलनेके लिए गये। चक्र सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व वर्तीने उनका बहुत सत्कार किया। जयकुमार और सुलोचना पूर्व भवकी चर्चा अयोध्यासे लौटकर जब जयकुमार अपने कर रहे थे, कि जयकुमारने उससे श्रीपाल पड़ावकी ओर गंगाके मार्गसे जा रहे थे तब चकवर्तीके विषयमें पूछा। सुलोचनाने अपनी एक देवीने मगरका रूप धरकर उनके सरस वाणीके द्वारा श्रीपाल चक्रवर्तीका हाथीको ग्रस लिया जिससे जयकुमार हाथी विस्तृत कथानक प्रकट किया । अनन्तर दोनों सहित गंगामें डूबने लगे तब सुलोचनाने सुखसे अपना समय बिताने लगे। ४८०-५०० पंचनमस्कार मन्त्रकी आराधनासे इस उप देव-द्वारा जयकुमारके शीलकी परीक्षा। सर्गको दूर किया। ४३२-४४० जयकुमारका संसारसे विरक्त होना और बड़ी धूमधामके साथ जयकुमारने हस्तिनापुर भगवान् ऋषभदेवके समवसरणमें गणधर में प्रवेश किया। नगरके नर-नारियोंने पद प्राप्त करना। ५०१-५१२ सुलोचना और जयकुमारको देखकर अपने भरत चक्रवर्तीका दीक्षाग्रहण, केवलज्ञानको नेत्र सफल किये। जयकुमारने हेमांगद प्राप्ति, भगवान्का अन्तिम विहार और आदिके समक्ष ही सुलोचनाको पटरानीका निर्वाणप्राप्ति । ५१३-५१५ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराण भाग दो के सुभाषित 'अहो कष्टा दरिद्रता ।' 'रम्यं हारि न कस्य वा ।' 'नूनं तीव्रप्रतापानां माध्यस्थ्यमपि तापकम् ।' 'महतां चित्रमीहितम् ।' 'अहो स्थैर्य महात्मनाम् ।' 'बिर्भात यः पुमान् प्राणान् परिभूतिमलीमसान् । न गुणैलिङ्गमात्रेण पुमानेष प्रतीयते ॥ ' 'सचित्र पुरुषो वास्तु चञ्चापुरुष एव च । यो विनापि गुणैः पोस्नैः नाम्नैव पुरुषायते ।।' ' स पुमान् यः पुनीते स्वं कुलं जन्म च पौरुषैः । भटब्रुवो जनो यस्तु तस्यास्त्वभवनिर्भुवि ॥' 'सत्यं परिभवः सोढुमशक्यो मानशालिनाम् । बलवद्भिर्विरोधस्तु स्वपराभवकारणम् ॥' 'बलिनामपि सन्त्येव बलीयांसो मनस्विनः । बलवानहमस्मीति नोत्सेक्तव्यमतः परम् ॥' 'इहामुत्र च जन्तूनामुन्नत्यै पूज्यपूजनम् । तापं तत्रानुबध्नाति पूज्यपूजाव्यतिक्रमः ।।' 'सम्भोगैरतिरसिको न तृप्यतीह ' 'पुण्ये बलीयसि किमस्ति जगत्यजय्यम्' 'पुण्यात्परं न खलु साधनमिष्टसिद्धये ' 'पुण्यात्परं न हि वशीकरणं जगत्याम्' 'पुण्यं जले स्थलमिवाभ्यवपद्यते नृन् पुण्यं स्थले जलमिवाशु नियन्ति तापम् । पुण्यं जलस्थलभये शरणं तृतीयं पुण्यं कुरुध्वमत एवं जना जिनोक्तम् ॥' 'पुण्यं परं शरणमापदि दुर्विलङ्घ्यं पुण्यं दरिद्रति जने धनदायि पुण्यम् । पुण्यं सुखार्थिनि जने सुखदायि रत्नं पुण्यं जिनोदितमतः सुजनाश्चिनुध्वम् ॥' पुण्यं जिनेन्द्रपरिपूजन साध्यमाद्यं पुण्यं सुपात्रगतदानसमुत्थमन्यत् । पुण्यं व्रतानुचरणादुपवासयोगात् पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥' 'किमु कल्पतरोः सेवास्त्यफलाल्पफलापि वा 'सत्यं बहुनटो नृपः ' 'सर्वो हि वाञ्छति जनो विषयं मनोज्ञम्' 'प्रभवो मितभाषिणः ' २६।४९ २७।१९ २७।१०० २८।२७ २८/५७ २८।१२९ २८१३० २८।१३१ २८।१३९ २८।१४२ २८।१५१ २८|१९० २८२१४ २८ २१५ २८ २१६ २८ २१७ २८ २१८ २८ २१९ २९।३३ २९।३७ २९।१५३ ३४/३० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आदिपुराणम् 'क्रोधान्धतमसे मग्नं यो नात्मानं समुद्धरेत् । स कृत्य संशयं द्वैधान्नोत्तरीतुमलन्तराम् ॥' 'किं तरां स विजानाति कार्याकार्यमनात्मवित् । यः स्वान्तः प्रभवान् जेतुमरीन्न प्रभवेत् प्रभुः ॥' 'स्थायुकं हि यशो लोके गत्वर्यो ननु सम्पदः । ' 'किमप्सरः शिरोजान्तसुमनोगन्धलालितः तुम्बीवनान्तमभ्येति प्राणान्तेऽपि मधुव्रतः ' 'मुक्ताफलाच्छमादाय गगनाम्बुनवाम्बुदात् । शुष्यत्सरोऽपि किं वाञ्छेदुदन्यन्नपि च ।।' 'उत्तिष्ठन्ते स्म मुक्त्यर्थं बद्धकक्षा मुमुक्षवः' 'सर्व हि परिकर्मेदं बाह्यमध्यात्मशुद्धये' 'प्रादुरासन् विशुद्धं हि तपः सूते महत्फलम्' 'अयं खलु खलाचारो यद् बलात्कारदर्शनम् । स्वगुणोत्कीर्तनं दोषोद्भावनं च परेषु यत् ।।' 'विवृणोति खलोऽन्येषां दोषान् स्त्रांश्च गुणान् स्वयम् । संवृणोति च दोषान् स्वान् परकीयान्गुणानपि ।।' 'अनिराकृतसंतापा सुमनोभिः समुज्झिताम् । फलहीनां श्रयत्यज्ञः खलतां खलतामिव ।।' 'सतामसम्मतां विष्वगाचितां विरसैः फलैः । मन्ये दुःखलतामेनां खलतां लोकतापिनीम् ॥' 'नैकान्तशमनं साम समाम्नातं सहोष्मणि । स्निग्धेऽपि हि जने तप्ते सर्पिषीवाम्बुसेचनम् ॥' 'उपप्रदानमप्येवं प्रायं मन्ये महौजसि । समित्सहस्रदानेऽपि दीप्तस्याग्नेः कुतः शमः ॥' 'लोहस्येवोपतप्तस्य मृदुता न मनस्विनः । दण्डोऽप्यनुनयग्राहये सामजे न मृगद्विषि ।। ' 'जरन्नपि गज : कक्षां गाहते कि हरे : शिशो : ।' 'तेजस्वी भानुरेवैकः किमन्योऽप्यस्त्यतः परम् ॥' 'स्वदोमफलं श्लाघ्यं यत्किंचन मनस्विनाम् । न चातुरन्तमप्यैश्यं परभ्रूलतिकाफलम् ॥' 'पराज्ञोपहतां लक्ष्मी यो वाञ्छेत्पार्थिवोऽपि सन् । सोऽपार्थयति तामुक्ति सर्पोक्तिमिव डुण्डुभः ॥ ' 'परावमानमलिनां भूति धत्ते नृपोऽपि यः । नृपशोस्तस्य नन्वेष भारो राज्यपरिच्छदः ॥ 'मानभङ्गाजितैर्भोगैर्यः प्राणान्धर्तुमीहते । तस्य भग्नरदस्येव द्विरदस्य कुतो भिदा ।।' 'छत्रभङ्गाद्विनाप्यस्य छायाभङ्गोऽभिलक्ष्यते । यो मानभङ्गभारेण बिभर्त्यवनतं शिरः ॥' 'मुनयोऽपि समानाश्चेत् त्यक्तभोगपरिच्छदाः । को नाम राज्यभोगार्थी पुमानुज्झेत्समानताम् ।।' 'वरं वनाधिवासोऽपि वरं प्राणविसर्जनम् । कुलाभिमानिनः पुंसो न पराज्ञाविधेयता ।।' ३४।७४ ३४।७५ ३४।८६ ३४।१०६ ३४।१०७ ३४।१६७ ३४।२१३ ३४।२१४ ३५।९४ ३५/९५ ३५।९६ ३५।९७ ३५।१०० ३५।१०१ ३५ १०२ ३५।१०५ ३५।१०८ ३५।११२ ३५।११३ ३५।११४ ३५।११५ ३५।११६ ३५।११७ ३५।११८ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५।११९ ३५।१२१ ३६।३० ३६।७३ ३६७४ ३६७५ ३६१७६ ३६५८६ ३६१८७ ३६।११७ आदिपुराण भाग दो के सुभाषित 'मानमेवाभिरक्षन्तु धीराः प्राणः प्रणश्वरैः । नन्वलंकुरुते विश्वं शश्वन्मानाजितं यशः ॥' 'वचोभिः पोषयन्त्येव पण्डिताः परिकल्वपि । प्रक्रान्तायां स्तुताविष्टः सिंहो ग्राममृगो ननु ।' 'ननु सिंहो जयत्येकः संहितानापि दन्तिनः ।' 'को नाम मतिमानीप्सेद् विषयान्विषदारुणान् । येषां वशगतो जन्तुः यात्यनर्थपरम्पराम् ॥' 'वरं विषं यदेकस्मिन्भवे हन्ति न हन्ति वा । विषयास्तु पुनर्नन्ति हन्त जन्तूननन्तशः ॥' 'आपातमात्ररम्याणां विपाककटुकात्मनाम् । विषयाणां कृते नाज्ञो यात्यनर्थानपार्थकम् ॥' 'अत्यन्तरसिकानादौ पर्यन्ते प्राणहारिणः । किपाकपाकविषमान् विषयान् कः कृती भजेत् ॥' 'प्रसह्य पायतन् भूमौ गात्रेषु कृतवेपथुः । जरापातो नृणां कष्टो ज्वरः शीत इवोद्भवन् ।' 'अङ्गसादं मतिभ्रेषं वाचामस्फुटतामपि । जरा सुरा च निविष्टा घटयत्याशु देहिनाम् ॥' 'नाग्न्यं नाम परं तपः' 'ज्ञानशुद्धया तपःशुद्धिरस्यासीदतिरेकिणी । ज्ञानं हि तपसो मूलं यद्वन्मूलं महातरोः॥' 'सूते हि फलमक्षीणं तपोऽक्षणमुपासितम् ॥' 'महतां हि मनोवृत्ति!त्सेकपरिरम्भिणी' 'रत्नानि ननु तान्येव यानि यान्त्युपयोगिताम् ॥' 'तपः श्रुतं च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्यकारणम् । तपःश्रुताभ्यां यो होनो जातिब्राह्मण एव सः ॥ 'क्षत्रियो न्यायजीविकः' 'प्रजा कामदुघा धेनुर्मता न्यायेन योजिता ।' 'राजवृत्तमिदं विद्धि यन्यायेन धनार्जनम् । वर्धनं रक्षणं चास्य तीर्थे च प्रतिपादनम् ॥' 'अज्ञानकुलधर्मो हि दुर्वृ त्तैर्दूषयेत्कुलम्' 'रक्षितं हि भवेत्सर्व नृपेणात्मनि रक्षिते' "हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तवाक्' 'पुराणं धर्मशास्त्रं च तत्स्याद् वधनिषेधि यत् । वधोपदेशि यत्तत्तु ज्ञेयं धूर्तप्रणेतृकम् ॥' 'मन्त्रास्त एव धासु ये क्रियासु नियोजिताः । दुर्मन्त्रास्तेऽत्र विज्ञेया ये युक्ताः प्राणिमारणे ॥' 'स्यान्निरामिषभोजित्वं शुद्धिराहारगोचराः । सर्वंकषास्तु ते ज्ञेया ये स्युरामिषभोजिनः ॥' 'अहिंसाशद्धिरेषां स्याद् ये निःसङ्गा दयालवः । रताः पशुवधे ये तु न ते शुद्धा दुराशयाः ॥' 'न्यायो दयावृत्तित्वमन्यायः प्राणिमारणम् ।' 'को हि नाम तमो नशं हन्यादन्यत्र भास्करात् ।' ३६।१४८ ३६।१५५ ३७।१३ ३७११९ ३८।४३ ३८।२६२ ३८।२६९ ३८।२७० ३८।२७४ ३८।२७५ ३९।२२ ३९।२३ ३९।२६ ३९।२९ ३९।३० ३९।१४१ ४०१९ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ४११९७ ४१११०४ ४१।११४ ४१।११६ ४३।१६ ४३।२० ४३।२१ ४३।२४ ४३।२६. ४३।२८ आदिपुराणम् 'धर्मशीले महोपाले याति तच्छीलतां प्रजाः । अताच्छील्यमतच्छीले यथा राजा तथा प्रजा ॥' 'दानं पूजां च शीलं च दिने पर्वण्युपोषितम् । धर्मश्चतुर्विधः सोऽयमाम्नातो गृहमेधिनाम् ॥' 'धर्मे हि चिन्तिते सर्व चिन्त्यं स्यादनु चिन्तितम्' 'धर्मो रक्षत्युपायेभ्यो धर्मोऽभीष्टफलप्रदः। धर्मः श्रेयस्करोऽमुत्र धर्मेणेहाभिनन्दथुः ॥' 'धर्मा ननु केनापि नादशि विरसं क्वचित्' 'दोषान्गुणान् गुणी गृह्णन् गुणान् दोषांस्तु दोषवान् । सदसज्ज्ञानयोश्चित्रमत्र माहात्म्यमीदृशम् ॥' 'गुणिनां गुणमादाय गुणी भवतु सज्जनः । असद्दोषसमादानाद् दोषवान् दुर्जनोऽद्भुतम् ॥' 'कविरेव कवेत्ति कामं काव्यपरिश्रमम्, .. वन्ध्या स्तनन्धयोत्पत्तिवेदनामिव नाकविः' .. 'गुणागुणानभिज्ञेन कृता निन्दाथवा स्तुतिः । जात्यन्धस्येव धृष्टस्य रूपे हासाय केवलम् ॥' 'गणयन्ति महान्तः किं क्षुद्रोपद्रवमल्पवत्, दाह्यं तृणाग्निना तूलं पत्युस्तापोऽपि नाम्भसाम् ॥' 'काष्ठजोऽपि दहत्यग्निः काष्ठं तं तत्तु वर्धयेत् । प्रदीपायितमताभ्यां सदसद्भूतभासने ॥' 'हृदि धर्ममहारत्नमागमाम्भोधिसम्भवम् । कौस्तुभादधिकं मत्वा दधातु पुरुषोत्तमः ।।' 'आकरेष्विव रत्नानामूहानां नाशये क्षयः । विचित्रालंकृती : कर्तुं दौर्गत्यं किं कवेः कृतीः॥' 'नार्थिनो विमुखान्सन्तः कुर्वते तद्धि तद्वतम्' 'सन्तोऽवसरवादिनः' 'न सहन्ते ननु स्त्रीणां तियंचोऽपि पराभवम्' 'आभिजात्यं वयोरूपं विद्यां वृत्तं यश:श्रियम् । विभुत्वं विक्रम कान्तिमैहिकं पारलौकिकम् ।। प्रीतिमप्रीतिमादेयमनादेयं कृपां त्रपाम् । हानि वृद्धि गुणान्दोषान्गणयन्ति न योषितः ।।' 'वृश्चिकस्य हि विषं पश्चात्पन्नगस्य विषं पुरः । योषितां दूषितेच्छानां विश्वतो विषमं विषम् ॥' 'जालकैरिन्द्रजालेन वञ्च्या ग्राम्या हि मायया । ताभिः सेन्द्रो गुरुर्वञ्च्यस्तन्मायामातर : स्त्रियः ॥' दोषाः किं तन्मयास्तासु दोषाणां कि समुद्भवः । तासां दोषेभ्य इत्यत्र न कस्यापि विनिश्चयः ॥' 'निर्गुणान्गुणिनो मन्तुं गुणिनः खलु निर्गुणान् । नाशकत् परमात्मापि मन्यन्ते ता हि हेलया ।' 'आर्याणामपि वाग्भूयो विचार्या कार्यवेदिभिः । वाया : किं पुनर्नार्या : कामिनां का विचारणा ॥' 'कनीयसोऽपि सम्बन्धं नेच्छन्ति ज्यायसा सह' ' ४३३२९ ४३।३५ ४३१४२ ४३७२ ४३१७३ ४३.९९ ४३११०२।१०३ ४३।१०४ ४३३१०७ ४३।१०९ ४३।११० ४३।११५ ४३।१८८ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण द्वितीय भाग Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मज्जिनसेनाचार्यविरचितम् आदिपुराणम् [ द्वितीयो भागः ] अथ षड्विंशतितमं पर्व अथ चक्रधरः पूजां चक्रस्य विधिवत् व्यधात् । सुतोत्पत्तिमपि श्रीमानभ्यनन्ददनुक्रमात् ॥ १ ॥ 'नादरिद्रीजनः कश्चिद् विभोस्तस्मिन् महोत्सवे | दारिद्यूमर्थिलाभे तु जातं विश्वाशितंभवे ॥२॥ 'चतुष्केषु च रथ्यासु' पुरस्यान्तर्बहिः पुरम् । पुञ्जीकृतानि रत्नानि तदार्थिभ्यो ददौ नृपः ॥ ३॥ अभिवार कियेवासीचक्र पूजास्य विद्विषाम् । जगतः शान्तिकर्मेव जातकर्माण्यभूत्तदा ॥४॥ ततोऽस्य दिग्जयोद्योगसमये शरदापतन् । जयलक्ष्मीरिवामुष्य प्रसन्ना विमलाम्बरा ॥५॥ अलका इव संरेजरस्या" मधुकरव्रजाः । सप्तच्छद सूनोत्थर जो भूषितविग्रहाः" ॥६॥ प्रसन्नमभवत्तोयं सरसां सरितामपि । कवीनामिव सत्काव्यं जनता चित्तरञ्जनम् ॥७॥ सितच्छदावली " रेजे संपतन्ती समन्ततः । स्थूलमुकावली नद्वा कण्डिकेच शरच्छ्रियः ॥ ८ ॥ ۹۶ अथानन्तर श्रीमान् चक्रवर्ती भरत महाराजने विधिपूर्वक चक्ररत्नकी पूजा की और फिर अनुक्रमसे पुत्र उत्पन्न होनेका आनन्द मनाया ॥ १ ॥ राजा भरतके उस महोत्सवके समय संसार भर में कोई दरिद्र नहीं रहा था किन्तु दरिद्रता सबको सन्तुष्ट करनेवाले याचकोंके प्राप्त करनेमें रह गयी थी । भावार्थ- महाराज भरतके द्वारा दिये हुए दानसे याचक लोग इतने अधिक सन्तुष्ट हो गये कि उन्होंने हमेशा के लिए याचना करना छोड़ दिया ॥ २ ॥ उस समय राजाने चौराहोंमें, गलियोंमें, नगरके भीतर और बाहर सभी जगह रत्नोंके ढेर किये थे और वे सब याचकोंके लिए दे दिये थे ।। ३ । उस समय भरतने जो चक्ररत्नकी पूजा की थी वह उसके शत्रुओंके लिए अभिचार क्रिया अर्थात् हिंसाकार्य के समान मालूम हुई थी और पुत्र जन्मका जो उत्सव किया था वह संसारको शान्ति कर्मके समान जान पड़ा था । ४ ।। तदनन्तर भरतने दिग्विजय के लिए उद्योग किया, उसी समय शरदऋतु भी आ गयी जो कि भरतकी जयलक्ष्मीके समान प्रसन्न तथा निर्मल अम्बर ( आकाश ) को धारण करनेवाली थी ।। ५ ।। उस समय सप्तपर्ण जातिके फूलोंसे उठी हुई परागसे जिनके शरीर सुशोभित हो रहे हैं ऐसे भ्रमरोंके समूह इस शरदऋतुके अलकों (केशपाश) के समान शोभायमान हो रहे थे || ६ || जिस प्रकार कवियोंका उत्तम काव्य प्रसन्न अर्थात् प्रसाद गुणसे सहित और जनसमूह के चित्तको आनन्दित करनेवाला होता है उसी प्रकार तालाबों और नदियोंका जल भी प्रसन्न अर्थात् स्वच्छ और मनुष्योंके चित्तको आनन्द देनेवाला बन गया था ।। ७ ।। चारों ओर उड़तो हुई हंसों की पंक्तियाँ ऐसी मुशोभित हो रही थीं मानो शरदऋतु रूपी लक्ष्मी १ दरिद्रो नाभूत् । नो दरिद्री जनः ल० । न दरिद्री जनः द०, इ० अ०, प०, स० । २ याचकजनप्राप्ती ३ सकलतृप्तिजनके । ४ चतुष्पथकृतमण्डपेषु । ५ वीथिषु । ६ 'वहिः पर्ययां च' इति समासः । ७ मारणक्रिया । ८ आगता । ९ निर्मलाकाशा निर्मलवसना च । १० वरलक्ष्म्याः । १२ आच्छादित | १२ हंसपङ्क्तिः । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ។ 3 सरोजलमभूत्कान्तं सरोजरजसा ततम् । सुवर्णरजसाकीर्णमिव कुट्टिमभूतलम् ॥९॥ सरः सरोजरजसा परितः स्थगितोदकम् । कादम्ब जायाः संप्रेक्ष्य मुहुर्मुहुः स्थलशङ्कया ॥ १० ॥ कञ्जकिञ्जल्क पुन्जेन पिञ्जरा षट्पदावली । सौवर्णमणिधेव शरदः कण्ठिका बभौ ॥ ११॥ सरोजलं समासेदुर्मुखराः सितपक्षिणः" । "वदान्यकुलमुद्भूतसौगन्ध्यमिव वन्दिनः ॥ १२ ॥ नदीनां पुलिनान्यासन् शुचीनि शरदागमे । हंसानां रचितानीव शयनानि सितांशुकैः ॥ १३ ॥ सरांसि ससरोजानि सोत्पला 'वप्रभूमयः । सहंससैकता' नद्यो जहइचेतांसि कामिनाम् ॥ १४ ॥ प्रसन्नसलिला रेजुः सरस्यः सहसारसाः । कूजितैः कलहंसानां जितन पुरशिञ्जितैः ॥ १५॥ नीलोत्पलेक्षणा रेजे शरच्छी: पङ्कजानना । व्यक्तमाभाषमाणेव कलहंसी कलस्वनैः ॥१६॥ पक्कशालिभुवो नम्रकणिशाः पिञ्जरश्रियः । स्नाता 'हरिद्रवासन् शरत्कालप्रियागमे ॥ १७ ॥ मन्दसाना मदं भेजुः सहसाना" " मदं जहुः । शरलक्ष्मीं समालोक्य शुद्ध्यशुद्धयोरयं निजः ॥ १८ ॥ की बड़े-बड़े मोतियोंकी मालासे बनी हुई कण्ठमाल ( गले में पहननेका हार ) ही हों ॥ ८ ॥ कमलों की परागसे व्याप्त हुआ सरोवरका जल ऐसा सुन्दर जान पड़ता था मानो सुवर्णकी धूलिसे व्याप्त हुआ रत्नजटित पृथिवीका तल ही हो || ९ || जिसका जल चारों ओरसे कमलोंकी परागसे ढँका हुआ है ऐसे सरोवरको देखकर कादम्ब जातिके हंसोंकी स्त्रियाँ स्थलका सन्देह कर बार-बार मोहमें पड़ जाती थीं अर्थात् सरोवरको स्थल समझनें लगती थीं ॥ १० ॥ जो भ्रमरोंकी पंक्तियाँ कमलोंकी केशरके समूहसे पीली-पीली हो गयी थीं वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो सुवर्णमय मनकाओंसे गूंथा हुआ शरदऋतुका कण्ठहार ही हो ।। ११ ।। जिस प्रकार चारण लोग प्रसिद्ध दानी पुरुषके समीप उसकी कीर्ति गाते हुए पहुँचते हैं उसी प्रकार हंस पक्षी भी शब्द करते हुए अतिशय सुगन्धित सरोवर के जलके समीप पहुँच रहे थे ।। १२ ।। शरद् ऋतुके आते ही नदियोंके किनारे स्वच्छ हो गये थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो सफेद वस्त्रोंसे बने हुए हंसों के बिछौने ही हों ॥ १३ ॥ कमलोंसे सहित सरोवर, नील कमलोंसे सहित खेतों की भूमियाँ और हंसों सहित किनारोंसे युक्त नदियाँ ये सब कामी मनुष्योंका चित्त हरण कर रहे थे ।। १४ ।। जिनमें स्वच्छ जल भरा हुआ है और जो सारस पक्षियोंके जोड़ोंसे सहित हैं ऐसे छोटे-छोटे तालाब, नूपुरोंके शब्दको जीतनेवाले कलहंस पक्षियोंके सुन्दर शब्दोंसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे ।। १५ ।। नीलोत्पल ही जिसके नेत्र हैं और कमल ही जिसका मुख है ऐसी शरदऋतुकी लक्ष्मीरूपी स्त्री कलहंसियोंके मधुर शब्दोंके बहाने वार्तालाप करती हुई-सी जान पड़ती थी ।। १६ ।। जिनमें बालें नीचेको ओर झुक गयी हैं और जिनकी शोभा कुछकुछ पीली हो गयी है ऐसी पके चावलोंकी पृथिवियाँ उस समय ऐसी जान पड़ती थीं मानो शरद् कालरूपी पतिके आनेपर हल्दी आदिके उबटन द्वारा स्नान कर सुसज्जित ही बैठी हों ।। १७ ।। उस शरदऋतुकी शोभा देखकर हंस हर्षको प्राप्त हुए थे और मयूरोंने अपना हर्ष छोड़ दिया था । सो ठीक ही है क्योंकि शुद्धि और अशुद्धिका यही स्वभाव होता है । भावार्थहंस शुद्ध अर्थात् सफेद होते हैं इसलिए उन्हें शरदऋतुकी शोभा देखकर हर्ष हुआ परन्तु मयूर अशुद्ध अर्थात् नीले होते हैं इसलिए उन्हें उसे देखकर दुःख हुआ । किसीका वैभव देखकर शुद्ध अर्थात् स्वच्छ हृदयवाले पुरुष तो आनन्दका अनुभव करते हैं और अशुद्ध अर्थात् मलिन स्वभाववाले - दुर्जन पुरुष दुःखका अनुभव करते हैं, यह इनका स्वभाव ही है ।। १८ ।। २ १ कलहंसस्त्रियः । ' कादम्बः कलहंसः स्याद्' इत्यभिधानात् । २ मोहयन्ति स्म । ३ रचिता । ४ जगुः । ५ हंसा: । ६ त्यागिसमूहम् । ७ सौहार्दम् । ८ केदार । ९ पुलिन । १० अपहरन्ति स्म । ११ रजन्या । १२ हंसाः । मन्दमाना ल० । १३ हर्षम् । १४ मयूराः । सहमाना ल० । १५ अयमात्मीयगुणो हि । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितमं पर्व कलहंसा हसन्तीव विरुतैः स्म शिखण्डिनः । अहो 'जडप्रिया यूयमिति निर्मलमूर्तयः ॥१६॥ चित्रवर्णा घनाबद्धरुचयो गिरिसंश्रयाः । समं शतमखेष्वासैर्बहिणः स्वोन्नतिं जहुः ॥२०॥ "बन्धूकैरिन्द्रगोपश्रीरातेने वनराजिषु । शरल्लक्ष्येव निष्ठ्यूतैस्ताम्बूलरसबिन्दुभिः ॥२१॥ विकासं बन्धुजीवेषु शरदाविर्मवन्त्यधात् । सतीव सुप्रसन्नाशा विपका विशदाम्बरा ॥२२॥ हंसस्वनानकाकाशकणिशोज्ज्वलचामरा । पुण्डरीकातपत्रासीदिग्जयोत्थेव सा शरत ॥२३॥ दिशां"प्रसाधनायाधाद्''वाणासनपरिच्छदम् । शरत्कालो "जिगीषोहि इलाध्यो बाणासनग्रहः ॥२४॥ घनावली कृशा पाण्डुरासीदाशा विमुञ्चती। घनागमवियोगोत्थचिन्तयेवाकुलीकृता ॥२५॥ नमः सतारमारेजे विहसत्कुमुदाकरम् । कुमुद्वतीवनं चाभाज्जयत्तारकितं नमः ॥२६॥ . निर्मल शरीरको धारण करनेवाले हंस मधुर शब्द करते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो अहो तुम लोग जड़प्रिय - मूर्खप्रिय ( पक्ष में जलप्रिय ) हो इस प्रकार कहकर मयूरोंकी हँसी ही उड़ा रहे हों ॥ १९ ॥ जिनका वर्ण अनेक प्रकारका है, जिनकी रुचि-इच्छा (पक्ष में कान्ति ) मेघोंमें लग रही है और जो पर्वतोंके आश्रय हैं ऐसे मयूरोंने इन्द्रधनुषोंके साथ-ही-साथ अपनी भी उन्नति छोड़ दी थी। भावार्थ - उस शरदऋतुके समय मयूर और इन्द्रधनुष दोनोंकी शोभा नष्ट हो'. गयी थी ॥ २० ॥ वन-पंक्तियोंमें शरदऋतुरूपी लक्ष्मीके द्वारा थूके हुए ताम्बूलके रसके बूंदोंके समान शोभा देनेवाले बन्धक ( दुपहरिया ) पुष्पोंने क्या इन्द्रगोप अर्थात् वर्षाऋतुमें होनेवाले लाल रंगके कीड़ोंकी शोभा नहीं बढ़ायी थो ? अर्थात् अवश्य ही बढ़ायी थी। बन्धूक पुष्प इन्द्रगोपोंके समान जान पड़ते थे ॥ २१ ॥ जिस प्रकार निर्मल अन्तःकरणवाली, पापरहित और स्वच्छ वस्त्र धारण करनेवाली कोई सती स्त्री घरसे बाहर प्रकट हो अपने बन्धुजनोंके विषयमें विकास अर्थात् प्रेमको धारण करती है उसी प्रकार शुद्ध दिशाओंको धारण करनेवाली कीचड़रहित और स्वच्छ आकाशवाली शरदऋतुने भी प्रकट होकर बन्धुजीव अर्थात् दुपहरियाके फलोंपर विकास धारण किया था - उन्हें विकसित किया था। तात्पर्य यह है कि उस समय दिशाएँ निर्मल थीं, कीचड़ सूख गया था, आकाश निर्मल था और वनोंमें दुपहरियाके फूल खिले हुए थे ।। २२ ।। उस समय जो हंसोंके शब्द हो रहे थे वे नगाड़ोंके समान जान पड़ते थे, वनोंमें काशके फूल फूल रहे थे वे उज्ज्वल चमरोंके समान मालूम होते थे, और तालाबोंमें कमल खिल रहे थे वे क्षत्रके समान सुशोभित हो रहे थे तथा इन सबसे वह शरद्ऋतु ऐसी जान पड़ती थी मानो उसे दिग्विजय करनेकी इच्छा ही उत्पन्न हुई हो ।। २३ ॥ उस शरदऋतुने दिशाओंको प्रसाधन अर्थात् अलंकृत करनेके लिए बाणासन अर्थात बाण और आसन जातिके पुष्पोंका समूह धारण किया था सो ठोक ही है मीकि शत्रुओंको प्रसाधन अर्थात् वश करनेके लिए जिगीषु राजाको बाणासन अर्थात् धनुषका ग्रहण करना प्रशंसनीय ही है ।। २४ ।। उस समय समस्त आशा अर्थात् दिशाओं ( पक्षमें संगमकी इच्छाओं )को छोड़ती हुई मेघमाला कृश और पाण्डवर्ण हो गयी थी सो उससे ऐसी जान पडती थी मानो वर्षाकालके वियोगसे उत्येन्न हुई चिन्तासे व्याकुल होकर ही वैसी हो गयी हो ॥ २५ ।। उस शरदऋतके समय ताराओंसे सहित आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो कुमुदिनियोंसहित सरोवरकी हँसी ही कर रहा हो १ जलप्रिया ल०, द०, इ०, स०, अ०, प० । २ मेघकृतवाञ्छाः । ३ इन्द्र चापे. । ४ बन्धुजीवकैः। बन्धूकैः बन्धुजीवकः' इत्यभिधानात् । ५ बन्धूक-कुसुमेषु, पक्षे सुहृज्जीवेषु । ६ पुण्याङ्गनेव । ७ सुप्रसन्नदिक्, पक्षे सुप्रसन्नमानसा। सुप्रसन्नात्मा-ल०। ८ विगतकर्दमा, पक्षे दोषरहिता। ९ पक्षे निर्मलवस्त्राः । १० अलंकाराय । जयार्थं च । ११ झिण्टिकुसुमसर्जककुसुमपरिकरम् । पक्षे धनुःपरिकरम् । १२ जेतुमिच्छोः । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् तारकाकुमुदाकीणे नभःसरसि निर्मले । हंसायते स्म शीतांशुर्विक्षिप्तकरपक्षतिः ॥२७॥ नभोगृहाङ्गगे तेनुः श्रियं पुष्पोपहारजाम् । तारकादिग्वधूहारतारमुक्ताफलत्विषः ॥२८॥ बभुनभोऽम्बुधौ ताराः स्फुरन्मुक्ताफलामलाः। करका इव मंघोघनिहिता हिमशीतलाः ॥२६॥ ज्योत्स्नासलिलसंभूता इव बुद्बुदपतयः । तारका रुचिमातेनुर्विप्रकीर्णा नभोऽङ्गगे ॥३०॥ तनूभूतपयोवेणी नद्यः परिकृशा दधुः । वियुक्ता घनकालेन विरहिण्य इवाङ्गनाः ॥३१॥ अनुद्धता गभीरत्वं भेजुः स्वच्छजलांशुकाः । सरिस्त्रियो घनापायाद् वैधव्यमिव संश्रिताः ॥३२॥ दिगङ्गना घनापायप्रकाशीभूतमूर्तयः । व्यावहासीमिवातनुः प्रसन्ना हंसमण्डलैः ॥३३॥ कूजितैः कलहंसानां निर्जिता इव तत्त्यजुः । केकायितानि शिखिनः सर्वः कालबलाद् बली ॥३४॥ ज्योत्स्नादुकूलवसना लसन्नक्षत्रमालिका । बन्धुजीवाधरा रंजे निर्मला शरदङ्गना ॥३५॥ ज्योत्स्ना कीर्तिमिवातन्वन् विधुगंगनमण्डले । शरल्लक्ष्मी समासाद्य सुराजेवाद्युतत्तराम् ॥३६॥ बन्धुजीवेषु' विन्यस्तरागा' बाणकृतद्युतिः । हंसी सखीवृता रंजे नवोढेव शरद्वधूः ॥३७॥ और कुमुदिनियोंसे सहित सरोवर ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओंसे सुशोभित आकाशको ही जीत रहा हो ॥ २६ ॥ तारकारूप कुमदोंसे भरे हुए आकाशरूपी निर्मल सरोवरमें अपने किरणरूप पंखोंको फैलाता हुआ चन्द्रमा ठीक हंसके समान आचरण करता था ।। २७ ।। जिनकी कान्ति दिशारूपी स्त्रियोंके हारोंमें लगे हुए बड़े-बड़े मोतियोंके समान है ऐसे तारागण आकाशरूपी घरके आँगनमें फूलोंके उपहारसे उत्पन्न हुई शोभाको बढ़ा रहे थे ।। २८ ।। देदीप्यमान मुक्ताफलोंके समान निर्मल तारे आकाशरूपी समुद्र में ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो मेघोंके समूहने बर्फके समान शीतल ओले ही धारण कर रखे हों ॥ २९ ॥ आकाशरूपी आँगनमें जहाँ-तहाँ बिखरे हुए तारागण ऐसी शोभा धारण कर रहे थे मानो चाँदनीरूप जलसे उत्पन्न हुए बबूलोंके समूह ही हों ।। ३० । वर्षाकालरूपी पतिसे बिछुड़ी हुई नदियाँ विरहिणी स्त्रियोंके समान अत्यन्त कृश होकर जलकी सूक्ष्म प्रवाहरूपी चोटियोंको धारण कर रही थीं ॥ ३१ ॥ वर्षाकालके नष्ट हो जानेसे नदीरूप स्त्रियाँ मानो वैधव्य अवस्थाको ही प्राप्त हो गयी थीं, क्योंकि जिस प्रकार विधवाएँ उद्धतता छोड़ देती हैं उसी प्रकार नदियोंने भी उद्धतता छोड़ दी थी, विधवाएँ जिस प्रकार स्वच्छ ( सफेद ) वस्त्र धारण करती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी स्वच्छ वस्त्ररूपी जल धारण कर रही थीं, और विधवाएँ जिस प्रकार अगम्भीर वृत्तिको धारण करती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी अगम्भीर अर्थात् उथली वृत्तिको धारण कर रही थीं ॥३२॥ मेघोंके नष्ट हो जानेसे जिनकी मूर्ति-आकृति प्रकाशित हो रही है ऐसी दिशारूपी स्त्रियाँ अत्यन्त प्रसन्न हो रही थीं और हंसरूप आभरणोंके छलसे मानो एक-दूसरेके प्रति हँस हो रही थीं ॥ ३३ ॥ उस समय मयूरोंने अपनी केका वाणी छोड़ दी थी, मानो कलहंस पक्षियोंके मधुर शब्दोंसे पराजित होकर ही छोड़ दी हो, सो ठीक ही है क्योंकि समयके बलसे सभी बलवान् हो जाते हैं ।। ३४ ।। चाँदनीरूपी रेशमी वस्त्र पहने हए, देदीप्यमान नक्षत्रोंकी माला ( पक्षमें सत्ताईस मणियोंवाला नक्षत्रमाल नामका हार' ) धारण किये हुए और दुपहरियाके फूल रूप अधरोंसे सहित वह निर्मल शरद्ऋतुरूपी स्त्री अतिशय सुशोभित हो रही थी ॥ ३५ ॥ शरद्ऋतुकी शोभा पाकर आकाशमण्डलमें चाँदनीरूपी कीर्तिको फैलाता हुआ चन्द्रमा किसी उत्तम राजाके समान अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥३६॥ वह शरऋतु नवोढ़ा स्त्रोके समान १ किरणा एव पक्षति: मूलं यस्य । २ वर्षोपला: । ३ निक्षिप्ता: । ४ पयःप्रवाहा इत्यर्थः । ५ पक्षे श्वेतस्थूलवस्त्राः । ६ विधवाया भावः । ७ परस्परहासम् । ८ हंसमण्डनाः प०, इ०, द० । हंसमण्डनात् ल० । ९ मयूररुतानि । १० तारकावली, पक्षे हारभेदः । ११ बन्धूकेषु बान्धवेषु च । १२ झिण्टि, पक्षे शर । १३ विकासः, पक्षे कान्तिः । १४ नूतनविवाहिता। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडविंशतितमं पर्व འ ५ स्वयं धतमभाद् व्योम स्वयं प्रच्छालितः शशी । स्वयं प्रसादिता नद्यः स्वयं संमाजिता दिशः ॥ ३८ ॥ शरलक्ष्मीमुखालोकदर्पणे शशिमण्डले । प्रजादृशो धृतिं भेजुरसंमृष्टसमुज्ज्वले ॥ ३९ ॥ वनराजीस्ततामोदाः कुसुमाभरणोज्ज्वलाः । मधुव्रता भजन्ति स्म कृतकोलाहलस्वनाः ॥४०॥ तन्व्यो वनलता रेजुर्विकासिकुसुम स्मिताः । सालका इव गन्धान्धविलोलालिकुलाकुलाः ॥४१॥ दर्षोद्धुराः” खुरोत्खातभुवस्ताम्रीकृतक्षणाः । वृषाः प्रतिवृषालोककुपिताः प्रतिसस्त्रनुः ॥४२॥ अवाकिरन् शृङ्गायैर्वृषभा धीरनिःस्वनाः । वनस्थलीः स्थलाम्भोजमृणालशकलाचिताः ॥४३॥ वृषाः ककुदसंलग्नमृदः कुमुदपाण्डुराः । व्यक्ताङ्कस्य मृगाङ्कस्य लक्ष्मीमभिरु स्तदा ॥ ४४ ॥ क्षीरत्लत्रमयीं कृत्स्नामातन्वाना वनस्थलीम् । प्रस्नुवाना वनान्तेषु प्रसस्रुर्गोमतल्लिकाः” ॥४५॥ कुण्डोऽन्योऽमृतपिण्डेन" घटिता इव निर्मलाः । गोगृष्टयों' वनान्तेषु शरच्छ्रिय इवारुचन् ॥४६॥ सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार नवोढ़ा स्त्री बन्धुजीव अर्थात् भाई-बन्धुओंपर राग अर्थात् प्रेम रखती है उसी प्रकार वह शरदऋतु भी बन्धुजीव अर्थात् दुपहरिया के फूलोंपर राग अर्थात् लालिमा धारण कर रही थी, नवोढा स्त्री जिस प्रकार देदीप्यमान होती है उसी प्रकार शरदऋतु भी बाण जातिके फूलोंसे देदीप्यमान हो रही थी और नवोढा स्त्री जिस प्रकार सखियोंसे घिरी रहती है उसी प्रकार वह शरदऋतु भी हंसीरूपी सखियोंसे घिरी रहती थी ||३७|। उस समय आकाश अपने-आप साफ किये हुएके समान जान पड़ता था, चन्द्रमा प आप धोये हुएके समान मालूम होता था, नदियाँ अपने-आप स्वच्छ हुई-सी जान पड़ती थीं और दिशाएँ अपने-आप झाड़-बुहारकर साफ की हुईके समान मालूम होती थीं ||३८|| जो शरदऋतुरूपी लक्ष्मीके मुख 'देखनेके लिए दर्पणके समान है और जो बिना साफ किये ही अत्यन्त उज्ज्वल है ऐसे चन्द्रमण्डलमें प्रजाके नेत्र बड़ा भारी सन्तोष प्राप्त करते थे || ३९ || जिनकी सुगन्धि चारों ओर फैल रही हैं और जो फूलरूप आभरणोंसे उज्ज्वल हो रही हैं ऐसी वनपंक्तियोंको भ्रमर कोलाहल शब्द करते हुए सेवन कर रहे थे ||४०|| जो फूले हुए पुष्परूपी मन्द हास्यसे सहित थीं तथा गन्धसे अन्धे हुए भ्रमरोंके समूहसे व्याप्त होनेके कारण जो सुन्दर केशोंसे सुशोभित थीं ऐसी वनकी लताएँ उस समय कृश शरीरवाली स्त्रियोंके समान शोभा पा रही थी ।। ४९ ।। जो खुरोंसे पृथिवीको खोद रहे थे, जिनकी आँखें लाल-लाल हो रही थीं और जो दूसरे बैलोंके देखनेसे क्रोधित हो रहे थे ऐसे मदोन्मत्त बैल अन्य बैलोंके शब्द सुनकर बदलेमें स्वयं शब्द कर रहे थे ||४२ ।। उसी प्रकार गम्भीर शब्द करते हुए वे बैल अपने सींगों के अग्रभागसे स्थलकमलोंके मृणालके टुकड़ोंसे व्याप्त हुई वनकी पृथिवीको खोद रहे थे ||४३|| इसी तरह उस शरदऋतुमें जिनके काँधौलपर मिट्टी लग रही है और जो कुमुद पुष्पके समान अत्यन्त सफेद हैं ऐसे वे बैल स्पष्ट चिह्नवाले चन्द्रमाकी शोभा धारण कर रहे थे ||४४ || जिनसे अपने-आप दूध निकल रहा है ऐसी उत्तम गायें वनकी सम्पूर्ण पृथिवीको दुग्ध प्रवाहके रूप करती हुई वनोंके भीतर जहाँ-तहाँ फिर रही थीं ॥ ४५ ॥ इसी प्रकार जिनके स्तन कुण्डके समान भारी हैं और जो अमृतके पिण्डसे बनी हुईके समान अत्यन्त निर्मल हैं ऐसी ती प्रसूत हुई गायें वनोंके मध्य में शरदऋतुकी शोभाके समान जान पड़ती थीं ॥ ४६ ॥ १ आत्मना प्रसन्नमित्यर्थः । २ प्रसन्नीकृताः । ३ कृशाः अङ्गनाश्च । ४ उत्कृष्टा । ५ वृषभाः । ६ किरन्ति स्म । ७ वनस्थलीं ल० । ८ - चिताम् ल० । ९ धरन्ति स्म । १० प्रशस्तगावः । 'मतल्लिका मचिका प्रकाण्डमुद्धतल्लजौ । प्रशस्तवाचकान्यमूनि' इत्यभिधानात् । ११ पिठराधीनाः । 'पिरुर : स्थात्युखा कुण्डमित्यभिधानात् । 'ऊधस्तु क्लीबमापीनम्' । 'ऊधसोऽनम्' इति सूत्रात् सकारस्य नकारादेशः । १२ सकृत्प्रसूता गावः । 'गृष्टिः सकृत्प्रसूतिका' इत्यभिधानात् । १३ इवाभवन् ल० । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १० २ 'सापयेन्प्रकृतस्वनान् । पीनापीनाः पयस्विन्यः पयः पीयूषमुत्सुकाः ॥४७॥ क्षीरस्य निजान् वत्सान् हुम्भागम्भीरनिःस्वनान् । धेनुष्याः पाययन्ति स्म गोपैरपि नियन्त्रिताः ॥ ४८ ॥ प्राक्स्वीया जलदा जाताः शिखिनामप्रियास्तदा । रिक्ता जलधनापायादहो कष्टा दरिद्रता ॥ ४९॥ "व्यावहासीमिवातेनुर्गिरयः पुष्पितैर्दुमैः । व्यात्युक्षीमिव तन्वानाः स्फुरनिर्झरशीकरैः ॥ ५०॥ प्रवृद्धवसो'' रेजुः कलमा भृशमानताः । परिणामात्प्रशुष्यन्तौ ' जरन्तः पुरुषा इव ॥ ५१॥ "विरेजु रसना पुष्पैर्मदा लिपटलावृतैः । इन्द्रनीलकृतान्तर्यैः " सौवर्णैरिव भूषणैः ॥५२॥ घनावरणनिर्मुक्ता दधुराशा दृशां मुदम् । नटिका" इव नेपथ्यगृहाद्वङ्गमुपागताः ॥५३॥ अदधुर्धनवृन्दानि मुक्तासाराणि भूधराः । सदशानीव" वासांसि निष्प्रवाणीनि" सानुभिः ॥ ५४ ॥ पवनाधोरणारूढाभ्रे मुर्जीमूतदन्तिनः । सान्तर्गजा निकुञ्जेषु सासारमदशीकराः ॥ ५५ ॥ शुकावलीप्रवालाभचञ्चुस्तेने दिवि श्रियम् । हरिन्मणिपिनद्वेव तोरणाली सपद्मभा ॥५६॥ जिनके स्तन बहुत ही स्थूल हैं और जो हम्भा शब्द कर रही हैं ऐसे दूधवाली गायें दूध पीने के लिए उत्सुक तथा बार-बार हम्भा शब्द करते हुए अपने बच्चोंको दूधरूपी अमृत पिला रही थीं ॥४७॥ जो गायें ग्वालाओंके यहाँ बन्धकरूपसे आयी थीं अर्थात् दूधके ठेकापर आयी थीं, उन्होंने उन्हें यद्यपि बाँध रखा था तथापि वे 'हुम्भा' ऐसा गम्भीर शब्द करनेवाले एवं दूध पीने के लिए उत्सुक अपने बच्चोंको दूध पिला ही रही थीं || ४८ || जो मेघ पहले मयूरोको अत्यन्त प्रिय थे वे ही अब शरदऋतुमें जलरूप धनके नष्ट हो जानेसे खाली होकर उन्हें अप्रिय हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि दरिद्रता बहुत ही १६ कष्ट समय फूले हुए वृक्षोंसे पर्वत ऐसे जान पड़ते थे झरते हुए झरनों के छींटोंसे ऐसे जान पड़ते थे एक-दूसरेके ऊपर जल डाल रहे हों ॥५०॥ देनेवाली होती है || ४९ || उस मानो परस्पर में हँसी ही कर रहे हों और मानो फाग ही कर रहे हों - विनोदवश कलमी जातिके धान, जो कि बहुत दिन के अथवा जिनके समीप बहुत पक्षी बैठे हुए थे, जो खूब नव रहे थे और जो अपने परिपाक से जगत्के समस्त जीवोंका पोषण करते थे, वे ठीक वृद्ध पुरुषोंके समान सुशोभित हो रहे थे ।।५१।। सहजनाके वृक्ष मदोन्मत्त भ्रमरोंके समूहसे घिरे हुए अपने फूलोंसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनके मध्यभागमें इन्द्रनील मणि लगा हुआ है ऐसे सुवर्णमय आभूषणोंसे ही सुशोभित हो रहे हों ॥५२॥ जिस प्रकार आभूषण आदि पहननेके परदेवाले घरसे निकलकर रंगभूमिमें आयी हुई नृत्यकारिणी नेत्रोंको आनन्द देती है उसी प्रकार मेघोंके आवरणसे छूटी हुई दिशाएँ नेत्रोंको अतिशय आनन्द दे रही थीं ॥ ५३ ॥ पर्वतोंने जो अपनी शिखरोंपर जलरहित सफेद बादलोंके समूह धारण किये थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अंचलसहित नवीन वस्त्र ही हों ॥ ५४ ॥ जिनपर वायुरूपी महावत बैठे हुए हैं, जो भीतर-ही-भीतर गरज रहे हैं और जो लतागृहों में जलकी बूँदेंरूपी मदधाराकी बूँदें छोड़ रहे हैं ऐसे मेधरूपी हाथी जहाँ-तहाँ फिर रहे थे ।। ५५ ।। जिनकी चोंच मूँगाके समान लाल है ऐसी तोताओंकी ६ १ हुँभा इत्यनुकरणारावभृतः । २ पाययन्ति स्म । ३ प्रकर्षेण कृत । ४ प्रवृद्धोधसः । ५ धेनवः । ६ -मुत्सुकाम् ल० । ७ क्षीरमात्मानमिच्छून् । ८ 'धेनुष्या बन्धके स्थिता' इत्यभिधानात् । ९ परस्परहसनम् । १० परस्परसेचनम् । ११ वृद्धवयस्काः प्रवृद्धपक्षिणश्च । १२ परिपक्वात् । १३ वृद्धाः | १४ सर्जकाः । १५ मध्यैरित्यर्थः । १६ नर्तक्यः । १७ अलंकारगृहात् । १८ वर्षाणि । १९ वस्तिसहितानि । 'स्त्रियां बहुत्वे वस्त्रस्य दशा स्युर्वस्तयः' इत्यभिधानात् । अन्यदपि दशावर्तावस्थायां वस्त्रान्ते स्युर्दशा अपि । २० वस्त्राणि । २१ नूतनानि । 'अनाहतं निष्प्रवाणि तन्त्रकं च नवाम्बरे' इत्यभिधानात् । २२ हस्तिपक । 'आधोरणी हस्तिपक:' इत्यभिधानात् । २३ मेघ । २४ सानुषु । २५ आकाशे । २६ पद्मरागसहिता । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड्विंशतितमं पर्व चेतांसि 'तरणाङ्गोपजीविनामुद्धतात्मनाम् । पुंसां च्युताधिकाराणामिव दैन्यमुपागमन् ॥५७॥ प्रतापी भुवनस्यैकं चक्षुर्नित्यमहोदयः। भास्वानाक्रान्ततेजस्वी बमासे भरतेशवत् ॥५॥ इति प्रस्पष्टचन्द्रांशुमहासे शरदागमे । चक्रे दिग्विजयोद्योगं चक्री चक्रपुरस्सरम् ॥५९॥ प्रस्थानभेयों गम्भीरप्रध्वानाः प्रहतास्तदा । श्रता बर्हिभिरुचैघनाडम्बरशङ्किभिः॥६०॥ कृतमङ्गलनेपथ्यो बभारोरस्थलं प्रभुः । शरलक्ष्म्येव संभक्तं सहारहरिचन्दनम् ॥६१॥ ज्योत्स्नामये दुकूले च शुक्ले परिदधौ नृपः । शरच्छ्रियोपनीते वा मृदुनी दिव्यवाससी ॥२॥ आजानुलम्बिना ब्रह्मसूत्रेण विवभौ विभुः । हिमाद्रिरिव गङ्गाम्बुप्रवाहेण तटस्पृशा ॥६३॥ 'तिरीटोदग्रमर्धासौ कर्णाभ्यां कुण्डले दधौ । चन्द्रार्कमण्डले वक्तुमिवायाते जयोत्सवम् ॥६४॥ वक्षःस्थलेऽस्य रुरुचे रुचिरः कौस्तुमो मणिः। जयलक्ष्मीसमुद्वाहमङ्गलाशंसिदीपवत् ॥६५॥ पंक्ति आकाशमें ऐसी शोभा बढ़ा रही थी मानो पद्मराग मणियोंकी कान्तिसहित हरित मणियोंकी बनी हुई वन्दनमाला ही हो ।।५६।। जिस प्रकार अधिकारसे भ्रष्ट हुए मनुष्योंके चित्त दीनताको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार नावोंके द्वारा आजीविका करनेवाले उद्धत मल्लाहोंके चित्त दीनताको प्राप्त हो रहे थे । भावार्थ - शरदऋतुमें नदियोंका पानी कम हो जानेसे नाव चलानेवाले लोगोंका व्यापार बन्द हो गया था इसलिए उनके चित्त दुःखी हो रहे थे ।।५७।। उस समय सूर्य भी ठीक महाराज भरतके समान देदीप्यमान हो रहा था, क्योंकि जिस प्रकार भरत प्रतापी थे उसी प्रकार सूर्य भी प्रतापी था, जिस प्रकार भरत लोकके एकमात्र नेत्र थे अर्थात् सबको हिताहितका मार्ग दिखानेवाले थे उसी प्रकार सूर्य भी लोकका एकमात्र नेत्र था, जिस प्रकार भरतका तेज प्रतिदिन बढ़ता जाता था उसी प्रकार सूर्यका भी तेज प्रतिदिन बढ़ता जाता था, और जिस प्रकार भरतने अन्य तेजस्वी राजाओंको दबा दिया था उसी प्रकार सूर्यने भी अन्य चन्द्रमा तारा आदि तेजस्वी पदार्थोंको दबा दिया था - अपने तेजसे उनका तेज नष्ट कर दिया था ।।५८॥ इस प्रकार अत्यन्त निर्मल चन्द्रमाकी किरणें ही जिसका हास्य है ऐसी शरद् ऋतुके आनेपर चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्न आगे कर दिग्विजय करनेके लिए उद्योग किया ॥५९।। उस समय गम्भीर शब्द करते हुए प्रस्थान कालके नगाड़े बज रहे थे, जिन्हें मेघके आडम्बरकी शंका करनेवाले मयूर अपनी ग्रीवा ऊँची उठाकर सुन रहे थे ॥६०॥ उस समय जिन्होंने मंगलमय वस्त्राभूषण धारण किये हैं ऐसे महाराज भरत हार तथा सफेद चन्दनसे सुशोभित जिस वक्षःस्थलको धारण किये हुए थे वह ऐसा जान पड़ता था मानो शरद्ऋतुरूपी लक्ष्मी ही उसकी सेवा कर रही हो ॥६१॥ महाराज भरतने चाँदनीसे बने हुएके समान सफेद, बारीक और कोमल जिन दो दिव्य वस्त्रोंको धारण किया था वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शरदऋतुरूपी लक्ष्मीके द्वारा ही उपहारमें लाये गये हों ।। ६२ ।। घुटनों तक लटकते हुए ब्रह्मसूत्रसे महाराज भरत ऐसे सुशोभित हो रहे थे, जैसा कि तटको स्पर्श करनेवाले गंगा जलके प्रवाहसे हिमवान् पर्वत सुशोभित होता है ।। ६३ ॥ मुकुट लगानेसे जिनका मस्तक बहुत ऊंचा हो रहा है ऐसे भरत महाराजने अपने दोनों कानोंमें जो कुण्डल धारण किये थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो जयोत्सवकी बधाई देनेके लिए सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डल ही आये हों ॥ ६४ ॥ भरतेश्वरके वक्षःस्थलपर देदीप्यमान कौस्तुभ मणि ऐसा सुशोभित होता था, १ द्रोण्युडुपाद्युपजीविनाम् । नदीतारकाणामित्यर्थः । २ मङ्गलालंकारः । ३ सेवितम् । ४ किरीटोदन - ल०, द०, अ०, स०। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् विधुबिम्बप्रतिस्पर्धि 'दधेऽस्यातपवारणम् । तन्निभेनैन्दवं बिम्बमागत्येव सिषेविषु ॥६६॥ तदस्य रुचिमातेने तमातपवारणम् । चूडारनांशुभिभिन्नं सारुणांश्विव पङ्कजम् ॥६॥ स्वधुनीशीकरस्पर्धि चामराणां कदम्बकम् । दुधुवुर्वारनार्योऽस्य दिक्कन्या इव संश्रिताः ॥६॥ ततः स्थपतिरोन निर्मम स्यन्दनो महान् । सुवर्णमणिचित्राङ्गो मेरुकुञ्जश्रियं हसन् ॥६९॥ चक्ररत्नप्रतिस्पर्धिचक्रद्वितयसंगतः । वज्राक्षघटितो रंजे रथोऽस्यव मनोरथः ॥७॥ कामगैर्वायुरंहोभिः" कुमुदोज्ज्वलकान्तिभिः । यशोवितानसंकाशैः स रथोऽयोजि वाजिभिः ॥७१॥ स तं स्यन्दनमारुक्षयुक्तसारथ्यधिष्टितम् । नितम्बदेशमीशः सुरराडिव चक्रराट् ॥७२॥ ततः प्रास्थानिकः पुण्यनि?षैरभिनन्दितः । प्रतस्थे दिग्जयोद्युक्तः कृतप्रस्थानमङ्गलः ॥७३॥ तदा नभोऽङ्गणं कृत्स्नं जयघोषैररुध्यत । नृपाङ्गणं च संरुद्वमभवत सैन्यनायकैः ॥७॥ महामुकुटबद्धास्तं परिवत्रुः समन्ततः । दुरात् प्रणतमूर्धानः सुरराजमिवामराः ॥७५॥ प्रचचाल वलं विष्वगारुडपुरवीथिकम् । महायोधमयी सृष्टिरपूर्वेवाभवत्तदा ॥७६॥ मानो विजयलक्ष्मीके विवाहरूपी मंगलकी सूचना देनेवाला दीपक ही हो ।। ६५ ॥ उन्होंने चन्द्रमण्डलके साथ स्पर्धा करनेवाले जिस छात्र को धारण किया था वह ऐसा जान पड़ता था मानो उस छत्रके बहानेसे स्वयं चन्द्रमण्डल ही आकर उनकी सेवा करना चाहता हो ।। ६६ ।। महाराज भरतने जो छत्र धारण किया था वह चूड़ारत्नकी किरणोंसे मिलकर ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो सूर्यको लाल किरणोंसहित कमल ही हो ॥ ६७ ॥ जो वारांगनाएँ महाराज भरतके आसपास गंगाके जलकी बूंदोंके साथ स्पर्धा करनेवाले चमरोंके समूह ढोल रही थीं वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो अच्छी तरहसे आयी हुई दिक्कन्याएं ही हों ।।६८।। तदनन्तर स्थपति रत्नने एक बड़ा भारी रथ तैयार किया जो कि सुवर्ण और मणियोंसे चित्र-विचित्र दिखनेवाले मेरु पर्वतके लतागृहोंकी शोभाकी ओर हँस रहा था ॥६९।। वह रथ चक्ररत्नकी प्रतिस्पर्धा करनेवाले दो पहियोंसे सहित था तथा वज्रके बने हुए अक्ष ( दोनों पहियोंके बीचमें पड़ा हुआ मजबूत लोहदण्ड-भौंरा ) से युक्त था इसलिए महाराज भरतके मनोरथके समान बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था ॥७०॥ उस रथमें जो घोड़े जोते गये थे वे इच्छानुसार गमन करते थे, वायुके समान वेगशाली थे, कुमुदके समान उज्ज्वल कान्तिवाले थे और यशके समूहके समान जान पड़ते थे ॥७१॥ जिस प्रकार इन्द्र मेरु पर्वतके तटपर आरूढ़ होता है उसी प्रकार भरतेश्वर, योग्य सारथिसे युक्त रथपर आरूढ़ हआ ॥७२॥ तदनन्तर प्रस्थान समयमें होनेवाले 'जय' 'जय' आदि पूण्य शब्दोंके द्वारा जिनका अभिनन्दन किया जा रहा है, जो दिग्विजयकी समस्त तैयारियां कर चुके हैं और जिनके साथ प्रस्थानकालीन सभी मंगलाचार किये जा चुके हैं ऐसे महाराज भरतने प्रस्थान किया ॥७३॥ उस समय आकाशरूपी समस्त आँगन जय-जय शब्दोंकी घोषणासे भर गया था, और राजाका आँगन सेनापतियोंसे भर गया था ।।७४। जिस प्रकार देव लोग इन्द्रको घेरकर खड़े हो जाते हैं उसी प्रकार दूरसे ही मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हुए महामुकुट बद्ध राजा लोग भरतको घेरे हुए चारों ओर खड़े थे ॥७५॥ जिसने चारों ओरसे नगरकी समस्त गलियोंको रोक लिया है ऐसी वह सेना चलने लगी। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो बड़े-बड़े १ दधे ल०। २ आतपवारणव्याजेन । ३ मिश्रम् । ४ सूर्यकिरणसहितम्। ५ वीजयन्ति स्म।' ६ संसृताः ल०। ७ रच्यते स्म। ८ अवयव । ९ तट । १० वरुथाङग। ११ वेगवद्भिः । १२ इज्यते स्म । १३ युक्तिपरसारथिसमाश्रितम् । १४ मेरोः । १५ प्रस्थाने नियुक्तः । १६ भटमयी। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितमं पर्व पुरः पादातमाश्वीयं रथकड्या च हास्तिकम् । क्रमान्निरी युरावेष्टय सपताकं रथं प्रभोः ॥७७॥ रथ्या रथ्याश्वसंघद्वादुत्थितैहेमरेणुभिः। बलोदाक्षमाव्योम समुत्पेतुरिव स्वयम् ॥७८॥ रौक्मै रजोभिराकीर्णं तदा रेजे नभोऽजिरम् । स्पृष्टं बालातपेनेव पटवासेन वाततम् ॥७॥ शनैः शनैजनैर्मुक्ता विरेजुः पुरवीथयः । कल्लोलैरिव वेलोत्यैर्महाब्धेस्तीरभूमयः ॥८॥ पुराङ्गनाभिरुन्मुक्ताः सुमनोजलयोऽपतन् । सौधवातायनस्थाभिदृष्टिपातः समं प्रभो ॥४१॥ जयेश विजयिन् विश्वं विजयस्व दिशो दश । पुण्याशिषां शतैरित्थं पौराः प्रभुमययुजन् ॥८२॥ सम्राट् पश्यन्नयोध्यायाः परां भूतिं तदातनीम् । शनैः प्रतोली संप्रापद् रत्नतोरणभासुराम् ॥८३॥ पुरो बहिः पुरः पश्चात् समं च विभुनाऽमुना । ददृशे दृष्टिपर्यन्तमसङ्खयमिव तद्बलम् ॥४॥ जगतः प्रसवागारादिव तस्मात् पुराद् बलम् । निरियाय निरुच्छवासं शनैरारुद्धगोपुरम् ॥८५॥ किमिदं प्रलयक्षोभात् क्षुभितं वारिधेर्जलम् । किमुत त्रिजगत्सर्गः प्रत्यग्रोऽयं विज़म्भते ॥८६॥ इत्याशङ्कय नभोभाग्भिः सुरैः साश्चर्यमीक्षितम् । प्रससार बलं विष्वक्पुरान्निर्याय चक्रिणः ॥८७॥ www योद्धाओंकी एक अपूर्व सृष्टि ही उत्पन्न हुई हो ॥ ७६ ।। सबसे पहले पैदल चलनेवाले सैनिकोंका समूह था, उसके पीछे घोड़ोंका समूह था, उसके पीछे रथोंका समूह और उसके पीछे हाथियोंका समूह था । इस प्रकार वह सेना पताकाओंसे सहित महाराजके रथको घेरकर अनुक्रमसे निकली ॥७७॥ जिन मार्गोसे वह सेना जा रही थी वे मार्ग रथ और घोड़े के संघटनसे उठी हुई सुवर्णमय धूलिसे ऐसे जान पड़ते थे मानो सेनाका आघात सहने में असमर्थ होकर स्वयं आकाशमें ही उड़ गये हों ।। ७८ ।। उस समय सुवर्णमय धूलिसे भरा हुआ आकाशरूपी आँगन ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बालसूर्यकी सुनहली प्रभासे स्पर्श किया गया हो, और सुगन्धित चूर्णसे ही व्याप्त हो गया हो ।।७९।। धीरे-धीरे लोग नगरकी गलियोंको छोड़कर आगे निकल गये जिससे खाली हुई वे गलियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो ज्वारभाटासे उठी हुई लहरोंके चले जानेपर खाली हुई समुद्रके किनारेको भूमि ही हो ॥ ८० ।। उस समय बड़े-बड़े मकानोंके झरोखोंमें खड़ी हुई नगर-निवासिनी स्त्रियोंके द्वारा अपने-अपने कटाक्षोंके साथ छोड़ी हुई. पुष्पांजलियाँ महाराज भरतके ऊपर पड़ रही थीं ॥८१॥ हे ईश, आपकी जय हो, हे विजय करनेवाले महाराज, आप संसारका विजय करें और दशों दिशाओंको जीतें; इस प्रकार सैकड़ों पुण्याशीर्वादोंके द्वारा नगरनिवासी लोग भरतकी पूजा कर रहे थे-उनके प्रति सम्मान प्रकट कर रहे थे ।। ८२ ।। इस प्रकार उस समय होनेवाली अयोध्याकी उत्कृष्ट विभूतिको देखते हुए सम्राट भरत धीरे-धीरे रत्नोंके तोरणोंसे देदीप्यमान गोपुरद्वारको प्राप्त हए ।। ८३ ।। उस समय महाराज भरतको नगरके बाहर अपने आगे-पीछे और साथ-साथ जहाँतक दृष्टि पड़ती थी वहाँतक असंख्यात सेना ही सेना दिखाई पड़ती थी॥ ८४ ।। जगत्की उत्पत्तिके घरके समान उस अयोध्यापुरीसे वह सेना गोपुरद्वारको रोकती हुई बड़ी कठिनतासे धीरे-धीरे बाहर निकली ॥८५।। क्या यह प्रलय कालके क्षोभसे क्षोभको प्राप्त हुआ समुद्रका जल है ? अथवा यह तीनों लोकोंकी नवीन सृष्टि उत्पन्न हो रही है ? इस प्रकार आशंका कर आकाशमें खड़े हुए देव लोग जिसे बड़े आश्चर्य के साथ देख रहे हैं ऐसी चक्रवर्तीको वह सेना नगरसे निकलकर चारों ओर फैल गयी ।।८६-८७।। १ पदातीनां समूहः। २ - कटया ल.। ३ निर्गच्छन्ति स्म। ४ र थनियुक्तवाजी। रथाश्वः द०, ल०, इ०। ५ उत्पतन्ति स्म । ६ स्पष्टं ल०। ७ चाततम् । ८ जलविकारोत्थैः 'अब्ध्यम्बुविकृता वेला' इत्यभिधानात् । -मपूजयन् ल० । १० सम्पदम् । ११ तत्कालजाम् । १२ गोपुरम् । १३ उच्छ्वासान्निष्क्रान्तं यथा भवति तथा । ससङ्कटमिति यावत् । १४ त्रिलोकसृष्टिः । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ततः प्राची दिशं जेतुं कृतोद्योगो विशापतिः । प्रययौ प्राङ्मुखो भूत्वा चक्ररत्नमनुव्रजन् ॥८॥ चक्रमस्य ज्वलद्योम्नि प्रयाति स्म पुरो विभोः । सुरैः परिष्कृतं विश्वग्मास्त्र द्विस्वभास्वरम् ॥८६॥ चक्रानुयायि तद्बजे निधीनामीशितुर्बलम् । गुरोरिच्छानुवर्तिष्णु मुनीनामिव मण्डलम् ॥१०॥ दण्डरत्नं पुरोधाय सेनानीरग्रणीरभूत । स्थपुटानि समीकुर्वन् स्थलदुर्गाण्ययत्नतः ॥११॥ अग्रण्या दण्डन्नेन पथि राजपथीकृते । यथेष्टं प्रययौ सैन्यं क्वचिदप्यस्खलद्गति ॥१२॥ ततोऽध्वनि दिशामीशः सोऽपश्यच्छारदीं श्रियम् । दिशां प्रसाधनों कीर्तिमात्मीयामिव निर्मलाम् ॥१३॥ सरांसि कमलामोदमुद्रमन्ति शरच्छ्रियः । मुखायितानि संप्रेक्ष्य सोऽभ्यनन्ददर्धाशिता ॥४॥ स हंसान सरमा तीरप्वपश्यत् कृतशिजनान् । मृगालपीथसंपुष्टान् शरदः पुत्रकानिव ॥१५॥ चच्चा मृणालमुद्धत्य हंसी हंस्यै समर्पयन् । राजहंसस्य हृद्यस्य महतीं तिमाददे ॥१६॥ सधीची वीचिसंरुद्धामपश्यन् परितः" सरः। कोकः कोकूयमानोऽस्य मनसः प्रीतिमातनोत् ॥१७॥ "हंस यूनाब्जकिंजल्करजःपिञ्जरितां निजाम् । वधू विधूतां सोऽपश्यच्चक्रवाकीविशङ्कया ॥१८॥ तरार्धवलीभूतविग्रहां कोककामिनीम् । व्यामोहादनुधावन्तं स जरद्धंसमैक्षत ॥६॥ नदीपुलिनदेशेषु हंससारसहारिषु । शयनेष्विवं तस्यासीद् धृतिः शुचिमसीमसु" ॥१०॥ तदनन्तर जिन्होंने सबसे पहले पूर्व दिशाको जीतनेका उद्योग किया है। ऐसे महाराज भरतने चक्ररत्नके पीछे-पीछे जाते हुए पूर्वकी ओर मुख कर प्रयाण किया ।। ८८ ॥ सूर्यमण्डलके समान देदीप्यमान और चारों ओरसे देव लोगोंके द्वारा घिरा हुआ जाज्वल्यमान चक्ररत्न आकाशमें भरतेश्वरके आगे-आगे चल रहा था ।।८९।। जिस प्रकार मुनियोंका समूह गुरुकी इच्छानुसार चलता है उसी प्रकार निधियोंके स्वामी महाराज भरतकी वह सेना चक्ररत्नकी इच्छानुसार उसके पीछे चल रही थी ॥ ९० ॥ दण्डरत्नको आगे कर सेनापति सबसे आगे चल रहा था और वह ऊँचे-नीचे दुर्गम वनस्थलोंको लीलापूर्वक एक-सा करता जाता था ॥ ९१ ॥ आगे चलनेवाला दण्डरत्न सब मार्गको राजमार्गके समान विस्तृत और सम करता जाता था इसलिए वह सेना किसी भी जगह स्खलित न होती हुई इच्छानुसार जा रही थी॥१२॥ तदनन्तर मार्गमें प्रजापति-भरतने दिशाओंको अलंकृत करनेवाली अपनी कोतिके समान निर्मल शरद्ऋतुकी शोभा देखी ॥९३॥ शरद्ऋतुरूपी लक्ष्मीके मुखके समान जो सरोवर कमलको सुगन्धि छोड़ रहे थे उन्हें देखकर महाराज भरत बहुत ही प्रसन्न हुए ॥ ९४ ।। सरोवरोंके किनारेपर मधुर शब्द करते हुए और मृणालरूपी मक्खन खाकर पुष्ट हुए हंसोंको भरतेश्वरने शरदऋतुके पुत्रोंके समान देखा ॥ ९५ ॥ जो हंस अपनी चोंचसे मृणालको उठाकर हंसीके लिए दे रहा था उसने, सब राजाओंमें श्रेष्ठ इन भरत महाराजके हृदयमें बड़ा भारी सन्तोष उत्पन्न किया था ॥९६॥ जो चकवा लहरोंसे रुकी हुई चकवीको न देखकर सरोवरके चारों ओर शब्द कर रहा था उसने भी भरतके मनकी प्रीतिको अत्यन्त विस्तृत किया था ॥ ९७ ॥ एक तरुण हंसने कमल केशरकी धूलिसे पीली हुई अपनी हंसीको चकवी समझकर भूलसे छोड़ दिया था महाराज भरतने यह भी देखा ॥ ९८ ।। लहरोंसे जिसका शरीर सफेद हो गया है ऐसी चकवीको हंसी समझकर और उसपर मोहित होकर एक बूढ़ा हंस उसके पीछे-पीछे दौड़ रहा था – महाराज भरतने यह भी देखा ।। ९९ ॥ जिनकी सीमाएँ अत्यन्त पवित्र हैं जो हंस तथा १ पूर्वाम् । २ परिवृतं ल०। ३ सूर्यविम्बम् । ४ तद्भेजे ल०। ५ निम्नोन्नतानि । ६ शिजितान् प०, द०, ल०। ७ क्षीरनवनीत । स्वपयोनवनीतमित्यर्थः । ८ राजश्रेष्ठस्य । ९ हृदये। १० प्रियाम् । ११ सरसः समन्तात् । १२ भृशं स्वरं कुर्वाणः । १३ तरुणहंसेन । १४ अवज्ञाताम् । १५ चक्री । १६ शुचित्वस्यावधिषु। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितमं पर्व 'रोधोलताशिखोत्सृष्टपुष्पप्रकटशोमिनीः । सरित्तीरभुवोऽदर्शज्जलोच्छवासतरङिगताः ॥१०१॥ लतालयेषु रम्येषु रतिरस्य प्रपश्यतः । स्वयं गलत्प्रसूनौघरचितप्रस्तरेष्वभूत् ॥१०२॥ क्वचिल्लतागृहान्तःस्थचन्द्रकान्तशिलाश्रितान् । स्वयशोगानसंसक्तान् किन्नरान् प्रभुरक्षत ॥१०॥ क्वचिल्लताः प्रसूनेषु विलीनमधुपाक्लीः। विलोक्य स्रस्तकेशीनां सस्मार प्रिययोषिताम् ॥१०॥ सुमनोवर्षमातेनुः प्रीत्येवास्याधिमूर्धजम् । पवनाधूतशाखाग्राः प्रफुल्ला मार्गशाखिनः ॥९०५॥ सच्छायान् सफलान् तुङगान् सर्वसंभोग्यसंपदः । मार्गदुमान् समद्राक्षीत् स नृपाननकर्वतः ॥१०६॥ सरस्तीरभुवोऽपश्यत् सरोजरजसा तताः। सुवर्णकुट्टि माशङ्कामध्वन्यहृदि तन्वतीः ॥१०॥ बलरेणुभिरारुद्ध दोषांमन्य नभस्यसौ । करुणं रुदतीं वीक्षाञ्चक्रे चक्राकामिनीम् ॥१०॥ गवां गणानथापश्यद्गोष्पदारण्य चारिणः । क्षीरमेघानिवाजस्रं क्षरक्षीरप्लुतान्तिकान् ॥१०॥ सौरभेयान् स शृङ्गाग्रसमुत्खातस्थलाम्बुजान् । मृणालानि यशांसीव किरतोऽपश्यदुन्मदान् ॥११०॥ सारस आदि पक्षियोंसे मनोहर हैं, और जो बिछी हुई शय्याओंके समान जान पड़ते हैं ऐसे नदी-किनारेके प्रदेशोंपर महाराज भरतको भारी सन्तोष हुआ ॥१००। जो किनारेपर लगी हई लताओंके अग्रभागसे गिरे हए फलोंके समहसे सशोभित हो रही हैं और जो जलके प्रवाहसे उठी हुई लहरोंसे व्याप्त हैं ऐसी नदियोंके किनारेकी भूमि भी भरतेश्वरने बड़े प्रेमसे देखी थी ॥१०१॥ जिनमें अपने-आप गिरे हुए फूलोंके समूहसे शय्याएँ बनी हुई हैं ऐसे रमणीय लतागृहोंको देखते हुए भरतको उनमें भारी प्रीति उत्पन्न हुई थी ॥१०२।। उन भरत महाराजने कहीं-कहींपर लतागृहोंके भीतर पड़ी हुई चन्द्रकान्त मणिकी शिलाओंपर बैठे हुए और अपना यशगान करने में लगे हुए किन्नरोंको देखा था ।।१०३॥ कहीं-कहींपर लताओंके फूलोंपर बैठे हुए भ्रमरोंके सनूहों को देखकर जिनकी चोटियाँ ढीली होकर नीचेकी ओर लटक रही हैं ऐसी प्रिय स्त्रियोंका स्मरण करता था ।। १०४।। जिनकी शाखाओंके अग्रभाग वायुसे हिल रहे हैं ऐसे फूले हुए मार्गके वृक्ष मानो बड़े प्रेमसे ही भरत महाराजके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा कर रहे थे ।।१०५।। वह भरत मार्गके दोनों ओर लगे हुए जिन वृक्षोंको देखते जाते थे वे वृक्ष राजाओंका अनुकरण कर रहे थे क्योंकि जिस प्रकार राजा सच्छाय अर्थात् उत्तम कान्तिसे सहित होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी सच्छाय अर्थात् उत्तम छांहरीसे सहित थे, जिस प्रकार राजा सफल अर्थात् अनेक प्रकारकी आयसे सहित होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष सफल अर्थात् अनेक प्रकारके फलोंसे सहित थे, जिस प्रकार राजा तुंग अर्थात् उदार प्रकृतिके होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी तुंग अर्थात् ऊँचे थे और जिस प्रकार राजाओंकी सम्पदाएं सबके उपभोगमें आती हैं उसी प्रकार उन वृक्षोंकी फल पुष्प पल्लव आदि सम्पदाएँ भी सबके उपभोगमें आती थीं ।।१०६॥ जो सरोवरोंके किनारेकी भूमियाँ कमलोंकी परागसे व्याप्त हो रही थी और इसीलिए जो पथिकोंके हृदयमें 'क्या यह सुवर्णकी धूलियोंसे व्याप्त हैं,' इस प्रकार शंका कर रही थीं; उन्हें भी महाराज भरत देखते जाते थे ।।१०७।। सेनाकी धूलिसे भरे हुए और इसीलिए रात्रिके समान जान पड़नेवाले आकाशमें रात्रि समझकर रोती हुई चकवीको देखकर महाराज भरतके हृदयमें बड़ी दया उत्पन्न हो रही थी ॥१०८॥ कुछ आगे चलकर उन्होंने जंगलोंकी गोचरभूमिमें चरते हुए गायोंके समूह देखे, वे गायोंके समूह दूधके मेघोंके समान निरन्तर झरते हुए दूधसे अपनी समीपवर्ती भूमिको तर कर रहे थे ।।१०९।। जिन्होंने अपने सींगोंके १ तटलता। ' "कूलं रोधश्च तीरश्च तटं त्रिषु' इत्यभिधानात् । २ केशेषु । ३ रजसा-ल० । ४ आत्मानं दोपां रात्रि मन्यत इति । ५ क्रियाविशेषणानां नपुंसकत्वं द्वितीया वक्तव्या। ६ आलुलोके । ७ गोगम्यवन । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् वात्सकं क्षीरसंपोषादिव निर्मलविग्रहम् । सोऽपश्यञ्चापलस्येव परां कोटिं कृतोत्प्लुतिम् ॥१११॥ स पक्ककणिशानम्रकलमक्षेत्रमैक्षत । नौद्धत्यं फलयोगीति नृणां वमिवोद्यतम् ॥११२॥ वप्रान्त भुवमाघ्रातुमिवोत्पलमिवानतान् । स कैदार्येषु कलमान् वीक्ष्यानन्दं परं ययौ ॥११३॥ फलानतान् स्तम्बकरीन सोऽपश्यद् वप्रभूमिपु । स्वजन्म हेतून् केदारान्नमस्यत इवादरात् ॥११॥ आपीतपयसः प्राज्यक्षीरा लोकोपकारिणीः । पयस्विनीरिवापश्यत् प्रसूताः शालिसंपदः ॥११५॥ "अवतंसितनीलाब्जाः कजरेणुश्रितस्तनीः । इक्षुदण्डभृतोऽपश्यच्छालीश्चोत्कुर्वतीः स्त्रियः ॥११६॥ हारिगीतस्वनाकृष्ट वेष्टिता हंसमण्डलैः। शालिगोप्यो दृशोरस्य मुदं तेनुर्वधूटिकाः ॥११७॥ कृताध्वगोपरोधानि गीतानि दधतीः सतीः । न्यस्तावतंसाः कणिशेः शालिगोपीर्ददर्श सः ॥११८॥ सुगन्धिमुखनिःश्वासा भ्रमरैराकुलीकृताः । मनोऽस्य जहः शालीनां पालिकाः कलबालिकाः ॥११६॥ उपाध्वं प्रकृतक्षेत्रान् क्षेत्रिणः परिधावतः । बलोपरोधैरायस्तानै क्षतासौ'- सकौतुकम् ॥१२०॥ अग्रभागसे स्थलकमल उखाड़ डाले हैं और जो अपने यशके समान उनकी मृणालोंको जहाँतहाँ फेंक रहे हैं ऐसे उन्मत्त बैल भी भरत महाराजने देखे थे ॥११०॥ दूधसे पालन-पोषण होनेके कारण ही मानो जिनका निर्मल-सफेद शरीर है, जो चंचलताको अन्तिम सीमाके समान जान पड़ते हैं और जो बार-बार उछल-कूद रहे हैं ऐसे गायोंके बछड़ोंके समूह भी भरतेश्वर देखते जाते थे ॥१११।। भरत महाराज पकी हुई बालोंसे नम्रीभूत हुए धानोंके खेत भी देखते जाते थे, उस समय वे खेत ऐसे मालूम होते थे मानो 'लोगोंको उद्धतपना फल देनेवाला नहीं है' यही कहनेके लिए तैयार हुए हों ॥११२॥ जो खेतके भीतर उत्पन्न हुए कमलोंको सूंघनेके लिए ही मानो नम्रीभूत हो रहे हैं ऐसे खेतोंमें लगे हुए धानके पौधोंको देखकर भरत महाराज परम आनन्दको प्राप्त हो रहे थे ।।११३॥ उन्होंने खेतकी भूमियोंमें फलोंके भारसे झुके हुए धानके उन पौधोंको भी देखा था जो कि अपने जन्म देनेके कारण खेतोंको बड़े आदरके साथ नमस्कार करते हुए-से जान पड़ते थे ॥११४।। उन्होंने जहाँ-तहाँ फैली हुई धानरूप सम्पदाओंको गायोंके समान देखा था, क्योंकि जिस प्रकार गायें जल पीती हैं उसी प्रकार धान भी जल पीते है ( जलसे भरे हुए खेतोंमें पैदा होते हैं ) जिस प्रकार गायोंमें उत्तम दूध भरा रहता है उसी प्रकार धानोंमें भी पकनेके पहले दूध भरा रहता है और गायें जिस प्रकार लोगोंका उपकार करती हैं उसी प्रकार धान भी लोगोंका उपकार करते हैं ॥११५॥ जिन्होंने नालसहित कमलोंको अपने कर्णका आभूषण बनाया है, कमलकी पराग जिनके स्तनोंपर पड़ रही है, जो हाथमें ईखका दण्डा लिये हुए हैं और जो धान रखानेके लिए 'छो-छो' शब्द कर रही हैं ऐसी स्त्रियोंको भी उन्होंने देखा था ॥११६॥ जो अपने मनोहर गीतोंके शब्दोंसे खिचकर आये हुए हंसोंके समूहोंसे घिरी हुई हैं ऐसी धानकी रक्षा करनेवाली नवीन स्त्रियाँ भरत महाराजके नेत्रोंका आनन्द बढ़ा रही थीं ॥११७॥ जो पथिकोंको रोकनेवाले सुन्दर गीत गा रही हैं और जिन्होंने धानको बालोंसे कर्णभूषण बनाकर धारण किये हैं ऐसी धानकी रखानेवाली स्त्रियोंको भरतने बड़े प्रेमसे देखा था ॥११८॥ जो अपने मुखकी सुगन्धित निःश्वाससे आये हुए भ्रमरोंसे व्याकुल हो रही हैं ऐसी धान रखानेवाली सुन्दर लड़कियाँ महाराज भरतके मनको हरण कर रही थीं ॥११९॥ जो सेनाके लोगोंसे मार्गके समीपवर्ती खेतोंकी रक्षा करनेके लिए उनके १ भुव: अन्तः अन्तर्भुवम् । २ -मेवानतान् ल०, इ०; प० । ३ सस्यक्षेत्रसमूहेषु । ४ धेनूः । ५ स वतंसित-इ०। ६ उत्कर्षान् कुर्वतोः । ७ कुलबालिकाः ल०, इ०, द०। ८ मार्गसमीपे । ९ कृत । १० क्लेशितान् । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंशतितमं प १३ उपशल्यभुवोऽद्राक्षन्निगमानभितो विभुः । केदारला वैराकीर्णाः स भ्राम्यदभिः कृषीवलैः ॥१२१॥ सोऽपश्यन्निगमोपान्ते पथः संश्यानकर्दमान् । प्रव्यक्तगोखुरक्षोदस्थपुटान तिसङ्कटान् ॥१२२॥ निगमान् परितोऽपश्यद् ग्राममुख्यान् महाबलान् । पयस्विनो जनैः सेव्यान् 'महारामतरूनपि ॥ १२३॥ ग्रामान् कुक्कुटसम्पात्यान् सोऽत्यगाद् वृतिभिर्वृतान् । कोशातकीलतापुष्पस्थगिताभिरितोऽमुतः ॥ १२४॥ "कुटी परिसरेध्वस्य धृतिरासीत् प्रपश्यतः । फलपुष्पानता वल्लीः प्रसवाढ्याः सतीरपि ॥ १२५ ॥ योषितो "निष्क्रमालाभिर्वलयैश्च विभूषिताः । पश्यतोऽस्य मनो जहग्रमीणाः संश्रिता वृतीः " ॥ १२६॥ "हैयङ्गवीन कलशैर्दध्नामपि निहित्रकैः । ग्रामेषु फलभेदैश्च तमद्राक्षुर्महत्तराः ॥ १२७॥ ततो विदूरमुल्लङ्घय सोऽध्वानं पृतनावृतः । गङ्गामुपासदद् वीरः प्रयाणैः कतिथैरपि ॥ १२८ ॥ हिमवद्विष्टतां पूज्यां "सतामासिन्धु गामिनीम् । शुचिप्रवाहामाकल्पवृत्ति कीर्तिमिवात्मनः ॥१२९॥ "शफरीप्रेक्षणामुद्यत्तरङ्गभ्रूविनर्तनाम् । वनराजी बृहच्छाटी परिधानां वधूमिव ॥ १३०॥ ०४ चारों ओर दौड़ रहे हैं और सेनाके लोगोंकी जबरदस्ती करनेपर खेदखिन्न हो रहें हैं, ऐसे खेतोंके मालिक किसानों को भी भरतेश्वरने बड़े कौतुक के साथ देखा था ।। १२० ।। जो खेत काटनेवाले इधर-उधर घूमते हुए किसानोंसे व्याप्त हो रही हैं ऐसी प्रत्येक ग्रामोंके चारों ओरकी निकटवर्ती भूमियों को भी भरतेश्वरने देखा था ।। १२१ ॥ जो स्पष्ट दिखनेवाले गायोंके खुरोंके चिह्नोंसे ऊँचे-नीचे हो रहे हैं और जो अत्यन्त सकड़े हैं ऐसे कुछ-कुछ कीचड़ से भरे हुए गाँव के समीपवर्ती मार्गों को भी भरत महाराज देखते जाते थे ॥ १२२ ॥ उन्होंने ग्रामोंके चारों ओर खड़े हुए महाबलवान् गाँव के मुखिया लोगोंको देखा था तथा पक्षी तियंच और मनुष्यों के द्वारा सेवा करने योग्य बड़े-बड़े बगीचोंके वृक्ष भी देखे थे १२३ ।। जो जहाँ-तहाँ लौकी अथवा तुरईकी लताओंके फूलोंसे ढकी हुई वाड़ियोंसे घिरे हुए हैं और जिनपर एकसे दूसरेपर मुरगा भी उड़कर जा सकता है ऐसे गावोंको वे दूरसे ही छोड़ते जाते थे || १२४ || झोंपड़ियोंके समीपमें फल और फूलोंसे झुकी हुई लताओंको तथा पुत्रोंसे युक्त सती स्त्रियोंको भी देखते हुए महाराज भरतको बड़ा आनन्द आ रहा था ।। १२५ ।। जो सुवर्णकी मालाओं और कड़ोंसे अलंकृत हैं तथा वाड़ियोंकी ओटमें खड़ी हुई हैं ऐसी गाँवोंकी स्त्रियाँ भी देखनेवाले भरतका मन हरण कर रही थीं ।। १२६।। गाँवोंके बड़े-बड़े लोग घीके घड़े, दहीके पात्र और अनेक प्रकारके फल भेंट कर उनके दर्शन करते थे ॥ १२७॥ ।। तदनन्तर धीरवीर भरत सेनासहित कितनी ही मंजिलों द्वारा लम्बा मार्ग तय कर गंगा नदीके समीप जा पहुँचे ।। १२८ ॥ वहाँ जाकर उन्होंने गंगा नदीको देखा, जो कि उनकी कीर्ति के समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार उनकी कीर्ति हिमवान् पर्वतसे धारण गयी थी उसी प्रकार गंगा नदी भी हिमवान् पर्वतसे धारण की गयी थी, जिस प्रकार उनकी पूज्य और उत्तम थी उसी प्रकार गंगा नदी भी पूज्य तथा उत्तम थी, जिस प्रकार उनकी कीर्ति १ ग्रामान्तभुवः । " ग्रामान्त उपशल्यं ३ मार्गान् । -४ ईषदार्द्र कर्दमान् । ल० । क्षीरोपायनान् क्षीरिणश्च । ज्योत्स्निकायामपामार्गेऽपि सा भवेत्' इत्यभिधानात् । १० गृह ११ पुत्रैराढ्या । १३ ग्रामे भवाः । १४ 'संवृतावृती: संसृतासृती:' इत्यपि क्वचित् । १५ घृतकुम्भैः । १७ - सदद्धीरः द० । १८ कतिपयैः । १९ सती-ल० । २० मीननेत्राम् । । स्यात्" इत्यभिधानात् । २ केदारान् लुनन्तीति केदारलावास्तैः । ५ ग्राममहत्तरान् । ६ महाफलान् द०, इ० । ७ वयस्तिरोजनैः ८ महाग्राम - इत्यपि क्वचित् । ९ पटोरिका । 'कोशातकी १२ सुवर्णमालाभिः । १६ भाजनविशेषैः । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आदिपुराणम् विस्तीर्णैर्जनसंभोग्यैः कूजद्धंसालिमेखलैः । तरङ्गवसनैः कान्तां' पुलिनैर्जघनैरिव ॥१३१॥ 'लोलोमिहस्तनिधूतपक्षिमालाकलस्वनैः । किमप्यालपितुं यत्नं तन्वन्ती वा ॥१३२॥ क्षती वन्येभदन्तानां रोधोजघनवर्तिनीः। रुन्धतीमब्धिभीत्येव लसर्मिदकूलकैः ॥१३३॥ रोमराजीमिवानीलां वनराजी विवृण्वतीम् । तिष्ठमानामिवावर्तव्यक्तनाभिमुदन्वते ॥१३॥ विलोलवीचिसंवादुत्थितां पतगावलिम् । पताकामिव बिभ्राणां लब्धां सर्वापगाजयात् ॥१३५॥ समांसमीनां पर्याप्तपयसं धीरनिःस्त्रनाम् । जगतां पावनी मान्यां हसन्तीं गोमतल्लिकाम् ॥१३६॥ गुरुप्रवाहप्रसृतां तीर्थकामरूपासिताम् । गम्भीरशब्दसंभूति जैनी श्रुतिमिवामलाम् ॥१३७॥ कीति समुद्र तक गमन करनेवाली थी उसी प्रकार गंगा नदी भी समुद्र तक गमन करनेवाली थी, जिस प्रकार उनकी कीतिका प्रवाह पवित्र था उसी प्रकार गंगा नदीका प्रवाह भी पवित्र था और जिस प्रकार उनकी कीर्ति कल्पान्त काल तक टिकनेवाली थी उसी प्रकार गंगा नदी भी कल्पान्त काल तक टिकनेवाली थी। अथवा जो गंगा किसी स्त्रीके समान जान पडतो थी, क्योंकि मछलियाँ ही उसके नेत्र थे, उठती हुई तरंगें ही भौंहोंका नचाना था और दोनों किनारोंके वनकी पंक्ति ही उसकी साड़ी थी। जो स्त्रियोंके जघन भागके समान सुन्दर किनारोंसे सहित थी, उसके वे किनारे बहुत ही बड़े थे। शब्द करती हुई हंसोंकी माला ही उनकी करधनी थी और लहरें ही उनके वस्त्र थे।-चंचल लहरोंरूपी हाथोंके द्वारा उड़ाये हुए पक्षिसमूहोंके मनोहर शब्दोंसे जो ऐसी जान पड़ती थी मानो किनारेके वृक्षोंके साथ कुछ वार्तालाप करनेके लिए प्रयत्न ही कर रही हो ।- जो अपनी छलकती हुई लहरोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो तटरूपी नितम्ब प्रदेशपर जंगली हाथियोंके द्वारा किये हुए दाँतोंके घावोंको समुद्ररूप पतिके डरसे शोभायमान लहरोंरूपी वस्त्रसे ढंक ही रही हो। जो दोनों ओर लगी हुई हरीभरी वनश्रेणियोंके प्रकट करने तथा साफ-साफ दिखाई देनेवाली भँवरोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो किसी स्त्रीकी तरह अपने समद्ररूप पतिके लिए रोमराजि और नाभि ही दिखला रही हो ।-जो चंचल लहरोंके संघटनसे उड़ी हुई पक्षियोंकी पंक्तिको धारण कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो सब नदियोंको जीत लेनेसे प्राप्त हुई विजयपताकाको ही धारण कर रही हो। जो किसी उत्तम गायको हँसी करती हुई-सी जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार उत्तम गाय समांसमीना अर्थात् प्रति वर्ष प्रसव करनेवाली होती है उसी प्रकार वह नदी भी समांस-मीना अर्थात परिपृष्ट मछलियोंसे सहित थी, जिस प्रकार उत्तम गायमें पर्याप्त पय अर्थात् दुध होता है उसी प्रकार उस नदीमें भी पर्याप्त पय अर्थात् जल था, जिस प्रकार उत्तम गाय गम्भीर शब्द करती है उसी प्रकार वह भी गम्भीर कल-कल शब्द कर रही थी, उत्तम गाय जिस प्रकार जगतको पवित्र करनेवाली है उसी प्रकार वह भी जगत्को पवित्र करनेवाली थी और उत्तम गाय जिस प्रकार पूज्य होती है उसी प्रकार वह भी पूज्य थी । अथवा जो जिनवाणीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार जिनवाणी गुरु-प्रवाह अर्थात् आचार्य परम्परासे प्रसृत हुई है उसी प्रकार वह भी गुरुप्रवाह अर्थात् बड़े भारी जलप्रवाहसे प्रसृत हुई थी-प्रवाहित हुई थी। जिस प्रकार जिन वाणी तीर्थ अर्थात् धर्मको इच्छा करनेवाले पुरुषों १ कान्तः ल०। २ बालोमि-त० । ३-वनेभः ल०। ४ तीर । ५ प्रदर्शयन्तीम् । ६ मांसभक्षकमीनसहिताम् । प्रतिवर्ष गर्भ गृह णन्तीम् । 'समांसमीना सा यैव प्रतिवर्ष प्रसूयते' । ७ प्रशस्तगाम् । गोमचचिकाम् ल०, द०, इ० । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ षड्विंशतितमं पर्व राजहंसैः'कृतोपास्यामलध्यां विस्तायतिम् । जयलक्ष्मीमिव स्फीतामात्मीयामब्धिगामिनीम् ॥ १३८॥ विलसत्पद्मसंभूतां जनतानन्ददायिनीम् । जगद्मोग्यामिवात्मीयां श्रियमायतिशालिनीम् ॥१३९॥ विजयातटाक्रान्ति कृतश्लाघां सुरंहसम् । अमग्नप्रसरां दिव्यां निजामिव पताकिनीम् ॥१४०॥ व्यालोलोमिकरास्पृष्टैः स्वतीरवनपादपैः । दधद्मिरकुरो दमाश्रितां कामुकैरिव ॥१४१॥ रोधोलतालयासीनान स्वेच्छया सुरदम्पतीन् । हसन्तीमिव सुध्वानैः शीकरोत्थैर्विसारिभिः ॥१४२॥ किन्नराणां कलक्वाणैः सगानैरुपवीणितैः । सेव्यपर्यन्तभूभागलतामण्डपमण्डनाम् ॥१४३॥ के द्वारा उपासित होती है उसी प्रकार वह भी तीर्थ अर्थात् पवित्र तीर्थ-स्थानकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंके द्वारा उपासित होती अथवा किनारेपर रहनेवाले मनुष्य उसमें स्नान आदि किया करते थे, जिस प्रकार जिनवाणीसे गम्भीर शब्दोंकी उत्पत्ति होती है उसी प्रकार उससे भी गम्भीर अर्थात् बड़े जोरके शब्दोंकी उत्पत्ति होती थी, और जिस प्रकार जिनवाणी मल अर्थात पर्वापर विरोध आदि दोषोंसे रहित होती है उसी प्रकार वह भी मल अर्थात् कीचड़ आदि गँदले पदार्थोंसे रहित थी।-अथवा जो अपनी ( भरतकी) विजयलक्ष्मोके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार विजयलक्ष्मीकी उपासना राजहंस अर्थात् बड़े-बड़े राजा लोग करते थे उसी प्रकार उस नदीकी भी उपासना राजहंस अर्थात् एक प्रकारके हंसविशेष करते थे, जिस प्रकार जयलक्ष्मीका कोई उल्लंघन-अनादर नहीं कर सकता था उसी प्रकार उस नदोका भी कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था, जयलक्ष्मीका आयति अर्थात् भविष्यत्काल जिस प्रकार स्पष्ट प्रकट था इसी प्रकार उसकी आयति अर्थात् लम्बाई भी प्रकट थी, जयलक्ष्मी जिस प्रकार स्फीत अर्थात् विस्तृत थी उसी प्रकार वह भी विस्तृत थी और जयलक्ष्मी जिस प्रकार समुद्र तक गयी थी उसी प्रकार वह गंगा भी समुद्र तक गयी हुई थी। अथवा जो भरतकी राज्यलक्ष्मीके समान मालूम होती थी क्योंकि जिस प्रकार भरतकी राज्यलक्ष्मी शोभायमान पद्म अर्थात् पद्म नामकी निधिसे उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार वह नदी भी पद्म अर्थात् पद्म नामके सरोवरसे उत्पन्न हुई थी, भरतकी राज्यलक्ष्मी जिस प्रकार जनसमूहको आनन्द देनेवाली थी उसी प्रकार वह भी जनसमहको आनन्द देनेवाली थी, भरतकी राज्यलक्ष्मी जिस प्रकार जगत्के भोगने योग्य थी उसी प्रकार वह भी जगत्के भोगने योग्य थी, और भरतकी लक्ष्मी जिस प्रकार आयति अर्थात् उत्तरकालसे सुशोभित थी उसी प्रकार वह आयति अर्थात् लम्बाईसे सुशोभित थी ।-अथवा जो भरतकी सेनाके समान थी, क्योंकि जिस प्रकार भरतकी सेना विजयार्ध पर्वतके तटपर आक्रमण करनेसे प्रशंसाको प्राप्त हुई थी उसी प्रकार वह नदी भी विजयाध पर्वतके तटपर आक्रमण करनेसे प्रशंसाको प्राप्त हुई थी ( गंगा नदी विजया पर्वतके तटको आक्रान्त करती हुई बही है ) जिस प्रकार भरतकी सेनाका वेग तेज था उसी प्रकार उस नदीका वेग भी तेज था। जिस प्रकार भरतकी सेनाके फैलावको कोई नहीं रोक सकता था उसी प्रकार उसके फैलावको भी कोई नहीं रोक सकता था और भरतकी सेना जिस प्रकार दिव्य अर्थात् सुन्दर थी उसी प्रकार वह नदी भी १ सेवाम् । २ विवृतायतीम् ल०। ३ पद्महदे जाताम् । पक्षे निधिविशेषजाताम् । ४ आक्रमण । ५ श्लाघ्यां ल०, इ०। ६ सुवेगाम् । ७ रोमाञ्चम् । ८ तीरलतागृहस्थितान् । ९ सुस्वानः ल० । स्वस्वानः इ०। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् हारिभिः किन्नरोगीतैराहता हरिणागनाः। दधतीं तीरकच्छेषु प्रसारितगलगलाः ॥१४॥ हृद्यः ससारसारावैः पुलिनैर्दिव्ययोषिताम् । नितम्बानि सकाचीनि हसन्तीमिव विस्तृतैः ॥१४५|| चतुर्दशभिरन्वितां सहस्ररब्धियोषिताम् । "सद्धीचीनामिवोहीचिं बाहूनां परिरम्भणे ॥१४६।। इन्याविष्कृतसंशोभा जाहीमैक्षत प्रभुः। हिमवदगिरिणाम्भोधेः प्रहितामिव कण्टिकाम् ।।१४।। मालिनीवृत्तम शरदुप हितकान्ति प्रान्तकान्तारराजी विरचितपरिधानां सैकतारोहरम्याम् । युवतिमिव गभीरावर्तनाभिं प्रपश्यन् प्रमदमतुलमूहे क्ष्मावतिः स्वःस्रबन्तीम् ॥१४॥ सरसिजमकरन्दोद्गन्धिराधूतरोधो वनकिसलयमन्दा दोलनोदूढमान्द्यः । असकृदमरसिन्धोराधुनानस्तरङगा नहृत नृपवधूनामध्वखेदं समीरः ॥१४६॥ सुन्दर थी। जो चंचल लहरोंरूपी हाथोंसे स्पर्श किये गये और अंकुररूपी रोमांचोंको धारण किये हुए अपने किनारेके वनके वृक्षोंसे आश्रित थी और उससे ऐसी मालूम होती थी मानो कामी जनोंसे आश्रित कोई स्त्री ही हो । - जो जलकणोंसे उत्पन्न हुए तथा चारों ओर फैलते हुए मनोहर शब्दोंसे अपनी इच्छानुसार किनारेपर-के लतागृहोंमें बैठे हुए देव-देवांगनाओंकी हँसी करती हुई-सी जान पड़ती थी। किन्नरोंके मधुर शब्दवाले गायन तथा वीणाकी झनकारसे सेवनीय किनारेकी पृथिवीपर बने हुए लतागृहोंसे जो बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थी। - किन्नर देवोंके मनोहर गानोंसे बुलायी हुई और सुखसे ग्रीवाको लम्बा कर बैठी हुई हरिणियोंको जो अपने किनारेकी भूमिपर धारण कर रही थी। - जिनपर सारस पक्षी कतार बाँधकर मनोहर शब्द कर रहे हैं ऐसे अपने बड़े-बड़े सुन्दर किनारोंसे जो देवांगनाओंके करधनीसहित नितम्बोंकी हँसी करती हुई-सी जान पड़ती थी। - जिन्होंने आलिंगन करने के लिए तरंगरूपी भुजाएँ ऊपरकी ओर उठा रखी हैं ऐसी सखियोंके समान जो चौदह हजार सहायक नदियोंसे सहित है। - इस प्रकार जिसकी शोभा प्रकट दिखाई दे रही है और जो हिमवान् पर्वतके द्वारा समुद्रके लिए भेजी हुई कण्ठमालाके समान जान पड़ती है ऐसी गंगा नदी महाराज भरतने देखी ॥ १२९-१४७ ॥ शरदऋतुके द्वारा जिसकी कान्ति बढ़ गयी है, किनारेके वनोंकी पंक्ति ही जिसके वस्त्र हैं, जो बालूके टोलेरूप नितम्बोंसे बहुत ही रमणीय जान पड़ती हैं, गम्भीर भंवर ही जिसकी नाभि है और इस प्रकार जो एक तरुण स्त्रीके समान जान पड़ती है ऐसी गंगा नदीको देखते हुए राजा भरतने अनुपम आनन्द धारण किया था ॥ १४८ ॥ जो कमलोंकी मकरन्दसे सुगन्धित है, कुछ-कुछ कम्पित हुए किनारेके वनके पल्लवोंके धीरे-धीरे हिलनेसे जिसका मन्दपना प्रकट हो रहा है और जो गंगा नदीको तरंगोंको बार-बार हिला रहा १ तीरवनेषु । २ प्रसारितो भूत्वा सुखातिशयेनाधो गलद्गलो यासां ताः। ३ सखीनाम् । ४ वीचिबाहूनां ल० । ५ गंगाम् । ६ प्राप्त । ७ सैकतनितम्ब ।' Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितमं शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् तामाक्रान्तहरिन्मुखां' कृतरनोभूतिं जगत्पावनी जैनी - मासेव्यां द्विजकुञ्जरैरविरतं संताप विच्छेदिनीम् । कीर्तिमिवाततामपमलां शश्वजनानन्दिनीं निध्यायन् विबुधापगां निधिपतिः प्रीतिं परामासदत् ॥ १५०॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेना वार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहे भरतराजदिग्विजयोद्योगवर्णनं नाम षड्विंशतितमं पर्व ॥२६॥ है ऐसा वहाँका वायु रानियोंके मार्गके परिश्रमको हरण कर रहा था ।। १४९ ।। वह गंगा ठीक जिनेन्द्रदेवकी कीर्ति के समान थी क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्र देवकी कीर्तिने समस्तं दिशाओंको व्याप्त किया है उसी प्रकार गंगा नदीने भी पूर्व दिशाको व्याप्त किया था, जिनेन्द्र भगवान्की कीर्तिने जिस प्रकार रज अर्थात् पापोंका नाश किया है उसी प्रकार गंगा नदीने भी रज अर्थात् धूलिका नाश किया था, जिनेन्द्र भगवान्‌की कोर्ति जिस प्रकार जगत्को पवित्र करती है उसी प्रकार गंगा नदी भी जगत्को पवित्र करती है, जिनेन्द्र भगवान्‌की कीर्ति जिस प्रकार द्विज कुंजर अर्थात् श्रेष्ठ ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्योंके द्वारा सेवित है उसी प्रकार गंगा नदी भी द्विज कुंजर अर्थात् पक्षियों और हाथियोंके द्वारा सेवित है, जिनेन्द्र भगवान्‌की कीर्ति जिस प्रकार निरन्तर संसार - भ्रमण - जन्य सन्तापको दूर करती है उसी प्रकार गंगा नदी भी सूर्यकी किरणोंसे उत्पन्न सन्तापको नष्ट करती थी और जिनेन्द्र भगवान्की कीर्ति जिस प्रकार विस्तृत, निर्मल और सदा लोगों को आनन्द देनेवाली है उसी प्रकार वह गंगा नदी भी विस्तृत, निर्मल तथा सदा लोगोंको आनन्द देती थी । इस प्रकार उस गंगा नदीको देखते हुए निधियोंके स्वामी भरत महाराज परम प्रीतिको प्राप्त हुए थे ।। १५०॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहकें हिन्दी भाषानुवाद में भरतराजकी दिग्विजयके उद्योगको वर्णन करनेवाला छब्बीसवाँ पर्व पूर्ण हुआ । १ दिङ्मुखाम् । २ रजोनाशनम् । ३ पक्षिगजैः विप्रादिमुख्यैश्च । ३ १७ ४ अवलोकयन् । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व अथ व्यापारयामास दृशं तत्र' विशां पतिः । प्रसन्नैः सलिलैः पाद्यं वितरन्यामिवात्मनः ॥१॥ व्यापारितदृशं तत्र प्रभुमालोक्य सारथिः। प्राप्तावसरमित्यूचे वचश्चेतोऽनुरञ्जनम् ॥२॥ इयमाह्लादिताशेषभुवना देवनिम्नगा । रजो विधुन्धती भाति भारतीव स्वयंभुवः ॥३॥ पुनातीयं हिमाद्रिं च सागरं च महानदी । प्रसूतोच प्रवेशे च गम्भीरा निर्मलाशया ॥४॥ इमां वनगजाः प्राप्य निर्वान्त्येते मदइच्युतः । मुनीन्द्रा इव सद्विद्यां गम्भीरां तापविच्छिदम् ॥५॥ इतः पिबन्ति वन्येभाः पयोऽस्याः कृतनिःस्वनाः । इतोऽमी पूरयन्येना मुक्तासाराः शरद्धनाः ॥६॥ अस्याः प्रवाहमम्भोधिर्धत्ते गाम्भीर्ययोगतः । अपोढं विजयाधेन तुगेनाप्यचलात्मना ॥७॥ अस्याः पयःप्रवाहेण नूनमब्धिर्वितृड़ भवेत् । क्षारेण पयसा स्वेन दह्यमानान्तराशयः ॥८॥ पद्मदाद्विमवतः प्रसन्नादिव मानसात् । प्रसूता पप्रथे पृथ्व्यां शुद्धजन्मा हि पूज्यते ॥९॥ व्योमापगामिमां प्राहुर्वियत्तः पतितां क्षिती । गङ्गादेवीगृहं विष्वगाप्लाव्य स्वजलप्लवैः ॥१०॥ अथानन्तर वहाँपर जो स्वच्छ जलसे अपने लिए ( भरतके लिए ) पादोदक प्रदान करती हुई-सी जान पड़ती थी ऐसी गंगा नदीपर महाराज भरतने अपनी दृष्टि डाली ।। १ ।। उस समय सारथिने महाराज भरतको गंगापर दृष्टि डाले हुए देखकर चित्तको प्रसन्न करनेवाले निम्नलिखित समयानुकूल वचन कहे ।। २ ।। हे महाराज ! यह गंगा नदी ठीक ऋषभदेव भगवान्की वाणीके समान जान पड़ती है, क्योंकि जिस प्रकार ऋषभदेव भगवान्की वाणी समस्त संसारको आनन्दित करती है उसी प्रकार यह गंगा नदी भी समस्त लोकको आनन्दित करती है और ऋषभदेव भगवान्की वाणी जिस प्रकार रज अर्थात् पापोंको नष्ट करनेवाली है उसी प्रकार यह गंगा नदी भी रज अर्थात् धूलिको नष्ट कर रही है ।। ३ ।। गम्भीर तथा निर्मल जलसे भरी हुई यह गंगा नदी उत्पत्तिके समय तो हिमवान् पर्वतको पवित्र करती है और प्रवेश करते समय समुद्रको पवित्र करती है ॥ ४ ॥ जिस प्रकार गम्भीर और सन्तापको नष्ट करनेवाली सद्विद्या ( सम्यग्ज्ञान ) को पाकर बड़े-बड़े मुनि लोग मद अर्थात् अहंकार छोड़कर मुक्त हो जाते हैं उसी प्रकार ये जंगली हाथी भी इस गम्भीर तथा सन्तापको नष्ट करनेवाली गंगा नदीको पाकर मद अर्थात् गण्डस्थलसे झरनेवाले तोयविशेषको छोड़कर शान्त हो जाते हैं ।। ५ ।। इधर ये वनके हाथी शब्द करते हुए इसका पानी पी रहे हैं और इधर जलकी वृष्टि करते हुए ये शरद् ऋतुके मेघ इसे भर रहे हैं ।। ६ ।। अत्यन्त ऊँचा और सदा निश्चल रहनेवाला विजया पर्वत भी जिसे धारण नहीं कर सका है ऐसे इसके प्रवाहको गम्भीर होनेसे समुद्र सदा धारण करता रहता है ।। ७ ।। सम्भव है कि अपने खारे जलसे जिसका अन्तःकरण निरन्तर जलता रहता है ऐसा समुद्र इस गंगा नदीके जलके प्रवाहसे अवश्य ही प्यासरहित हो जायेगा ॥ ८ ॥ यह गंगा प्रसन्न मनके समान निर्मल हिमवान् पर्वतके पद्म नामक सरोवरसे निकलकर पृथिवीपर प्रसिद्ध हुई है सो ठीक ही है क्योंकि जिसका जन्म शुद्ध होता है वह पूज्य होता ही है ॥९॥ यह गंगा अपने जलके प्रवाहसे गंगादेवीके घरको चारों ओरसे भिगोकर आकाश १ गङ्गायाम्। २ उत्पत्तिस्थाने। ३ सुखिनो भवन्ति मुक्ताश्च । ४ मदच्युतः ल० । ५ परमागमरूपाम् । ६ सोढमशक्यम् । दत्तुमशक्यमित्यर्थः । ७ वियतः ल०, इ०, द० । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व विभर्ति हिमवानां शशाङ्ककरनिर्मलाम् । आ सिन्धोः प्रसृतां कीर्तिमिव स्वां लोकपावनीम् ॥ ११ ॥ वनराजीद्वयेनेयं विभाति तटवर्तिना । वाससोरिव युग्मेन विनीलेन कृतश्रिया ॥१२॥ ताश्रयिणीं धत्ते हंसमालां कलस्वनाम् । काञ्चीमिवेयमम्भोजरजः पिञ्जरविग्रहाम् ॥ १३ ॥ नदीसवरियं स्वच्छ मृणालशकलामलाः । संविभर्ति स्वसात्कृत्य सख्यं श्लाध्यं हि तादृशम् ॥१४॥ राजहंसैरियं सेव्या लक्ष्मीरिव विभाति ते । तन्वती जगतः प्रीतिमलङ्घयमहिमा परैः ॥ १५ ॥ वनवेद मियं धत्ते समुत्तुङ्गां हिरण्मयीम् । आज्ञांमिव तवालङ्कयां नभोमार्गविलङ्घिनीम् ॥ १६॥ इतः प्रसीद देवेमां शरलक्ष्मीं विलोकय । वनराजिषु संरूढां सरित्सु सरसीषु च ॥ १७ ॥ इमे सप्तच्छदाः पौष्पं विकिरन्ति रजोऽभितः । पटवासमिवामोदसंवासितहरिन्मुखम् ॥ १८॥ ७ बाणैः कुसुमबाणस्य बाणैरिव विकासिभिः । हियते' कामिनां चेतो रम्यं हारि न कस्य वा ॥१९॥ विकसन्ति सरोजानि सरस्सु सममुत्पलैः । विकासिलोचनानीव वदनानि शरच्छ्रियः ॥ २० ॥ पङ्कजेषु विलीयन्ते भ्रमरा गन्धलोलुपाः । कामिनीमुखपद्मेषु कामुका इव काहला ः ' मनोजशरपुङ्खाब्जैः पक्षैर्मधुकरा इमे । विचरन्त्यब्जिनीषण्डे मकरन्दरसोत्सुकाः ॥२२॥ ९ ॥२१॥ ܘܪ १६ से अर्थात् हिमवान् पर्वतके ऊपरसे पृथिवीपर पड़ी है इसलिए इसे आकाशगंगा भी कहते हैं ।। १० ।। जो चन्द्रमाकी किरणोंके समान निर्मल है, समुद्र तक फैली हुई है और लोकको पवित्र करनेवाली है ऐसी इस गंगाको यह हिमवान् अपनी कीर्तिके समान धारण करता है ॥११॥ यह गंगा अपने तटवर्ती दोनों ओरके वनोंसे ऐसी सुशोभित हो रही है मानो इसने नीले रंगके दो वस्त्र ही धारण कर रखे हों ॥ १२ ॥ कमलोंके परागसे जिनका शरीर पीलापीला हो गया है और जो मनोहर शब्द कर रही हैं ऐसी हंसों की पंक्तियोंको यह नदी इस प्रकार धारण करती है मानो मन्द मन्द शब्द करती हुई सुवर्णमय करधनी ही धारण किये हो ॥ १३॥ यह नदी स्वच्छ मृणालके टुकड़ोंके समान निर्मल अन्य सखी स्वरूप सहायक नदियोंको अपनेमें मिलाकर धारण करती है सो ठीक ही है क्योंकि ऐसे पुरुषोंकी मित्रता ही प्रशंसनीय कहलाती है || १४ || अनेक राजहंस ( पक्ष में बड़े-बड़े राजा ) जिसकी सेवा करते हैं, जो संसारको प्रेमी उत्पन्न करनेवाली है, और जिसकी महिमा भी कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसी यह गंगा आपकी राजलक्ष्मीके समान सुशोभित हो रही है ||१५|| जो अत्यन्त ऊँची है, सोनेकी बनी हुई है, आकाश मार्गको उल्लंघन करनेवाली है और आपकी आज्ञा के समान जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसी वनवेदिकाको यह गंगा नदी धारण कर रही है ।। १६ ।। हे देव, प्रसन्न होइए और इधर वनपंक्तियों, नदियों और तालाबोंमें स्थान जमाये हुई शरदऋतुकी इस शोभाको निहारिए ।। १७ ।। ये सप्तपर्ण जातिके वृक्ष अपनी सुगन्धिसे समस्त दिशाओंको सुगन्धित करनेवाले सुगन्धिचूर्णके समान फूलोंकी परागको चारों ओर बिखेर रहे हैं || १८ | इधर कामदेवके बाणोंके समान फूले हुए बाण जातिके वृक्षों द्वारा कामी मनुष्योंका चित्त अपहृत किया जा रहा है सो ठीक ही है क्योंकि रमणीय वस्तु क्या अपहृत नहीं करती ? अथवा किसे मनोहर नहीं जान पड़ती ? ॥ १९ ॥ इधर तालाबों में नील कमलोंके साथ-साथ साधारण कमल भी विकसित हो रहे हैं और जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो जिनमें नेत्र विकसित हो रहे हैं ऐसे शरदऋतुरूपी लक्ष्मी के मुख ही हों ||२०|| इधर ये कुछ-कुछ अव्यक्त शब्द करते हुए सुगन्धके लोभी भ्रमर कमलोंमें उस प्रकार निलीन हो रहे हैं जिस प्रकार कि चाटुकारी करते हुए कामी जन स्त्रियोंके मुखरूपी कमलोंमें निलीन - आसक्त होते हैं ॥ २१ ॥ जो मकरन्द रसका पान १ बिर्भात ० । २ घृतश्रिया ल० द०, इ० । ३ स्वच्छमृणाल-ल० । ४ तादृशाम् ल० । ५ पक्षे राजश्रेष्ठे । ६ प्रसिद्धाम् । ७ झिण्टिभिः । ८ अपहृतम् । ९ आश्लिष्यन्ति । निलीयन्ते ल० । १० अस्फुटवचनाः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् रूषिताः कञ्जकिंजलकैराभान्स्येते मधुव्रताः । सुवर्णकपिगैरङ्गः कामाग्नेरिव मुर्मुराः ॥२३॥ स्थलेषु स्थलपद्मिन्यो विकसन्त्यश्चकासति । शरच्छुियो जिगीषन्त्या दृष्यशाला इवोस्थिताः ॥२४॥ स्थलाब्जशकिनी हंसी सरस्यब्जरजस्तते । संहृत्य पक्षविक्षेपं विशन्तीयं निमज्जति ॥२५।। हंसोऽयं निजशावाय चञ्च्चोद्धृत्य लसद्विसम् । पीथबुद्ध्या ददात्यस्मै शशाङ्ककरकोमलम् ॥२६॥ 'कृतयत्नाः प्लवन्तऽमी राजहंसाः सरोजले । सरोजिनीरजःकीणे धूतपक्षाः शनैः शनैः ॥२७॥ चक्रवाकी सरम्तीरे तरङ्गः स्थगिताममूम् । अपश्यन् करुणं रौति चक्राह्वः साश्रुलोचनः ॥२८॥ अभ्येति वरटाशङ्की धार्तराष्ट्रः कृतस्वनम् । सरस्तरङ्गशुभ्रागी कोककान्तामनिच्छतीम् ॥२६॥ अनुगङगातटं भाति साप्तपर्णमिदं वनम् । सुमनोरेणुभिर्कोम्नि वितानश्रियमादधत् ॥३०॥ मन्दाकिनीतरङगोत्थपवनोऽध्वश्रमं हरन् । शनैः स्पृशति 'नोऽङगामि 'रोधोवनविधूननः ॥३१॥ आतिथ्यमिव नस्तन्वन् हृतगङ्गाम्बुशीकरः । अभ्येति" पवमानोऽयं वनवीथीर्विधूनयन् ॥३२॥ अगोष्पदमिदं देव देवैरध्युषितं वनम् । लतालयैर्विभात्यन्तः "कुसुमप्रस्तराञ्चितैः ॥३३॥ करनेके लिए उत्कण्ठित हो रहे हैं ऐसे ये भ्रमर कामदेवके बाणोंकी मूठके समान आभावाले अपने पंखोंसे कमलिनियोंके समूहमें जहाँ-तहाँ विचरण कर रहे हैं, घूम रहे हैं ॥ २२ ॥ जिनके अंगोपांग कमलकी केशरसे रूषित होनेके कारण सुवर्णके समान पीले-पीले हो गये हैं ऐसे ये भ्रमर कामरूपी अग्निके स्फुलिङ्गोंके समान जान पड़ते हैं ॥ २३ ॥ जगह-जगह पृथिवीपर फूले हुए स्थल-कमलिनियोंके पेड़ ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाली शरद् ऋतुरूपी लक्ष्मीके खड़े हुए कपड़ेके तम्बू ही हों ॥ २४ ।। जो कमलोंकी परागसे व्याप्त हो रहा है ऐसे सरोवरमें कमलको स्थलकमल समझती हुई यह हंसी पंखोंके विक्षेपको रोककर अर्थात् पंख हिलाये बिना ही प्रवेश करती है और पानीमें डूब जाती है ॥ २५ ॥ यह हंस चन्द्रमाकी किरणोंके समान कोमल और देदीप्यमान मृणालको अपनी चोंचसे उठाकर और क्षीरसहित मक्खनके समान कोई पदार्थ समझकर अपने बच्चेके लिए दे रहा है ।। २६ ॥ कमलिनीके परागसे भरे हुए तालाबके जलमें ये हंस धीरे-धीरे पंख हिलाते हुए बड़े प्रयत्नसे तैर रहे हैं ॥ २७ ।। तालाबके तीरपर तरंगोंसे तिरोहित हुई चकवीको नहीं देखता हुआ यह हंस आँखों में आँसू भरकर बड़ी करुणाके साथ रो रहा है ।। २८ ।। सम्भोगकी इच्छा करनेवाला यह शब्द करता हुआ हंस, तालाबकी तरंगोंसे जिसका शरीर सफेद हो गया है ऐसी चकवीके सम्मुख जा रहा है जब कि वह चकवी इस हंसकी इच्छा नहीं कर रही है ।।२९।। गंगा नदोके किनारे-किनारे यह सप्तपर्ण जातिके वृक्षोंका वन ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो अपने फूलोंकी परागसे आकाशमें चंदोवाकी शोभा ही धारण कर रहा हो ॥ ३० ॥ मार्गकी थकावटको दूर करता हुआ और किनारेके वनोंको हिलाता हुआ यह गंगाकी लहरोंसे उठा हुआ पवन हम लोगोंके शरीरको धीरे-धीरे स्पर्श कर रहा है ॥३१॥ वनकी पंक्तियोंको हिलाता हुआ यह वायु ग्रहण की हुई गंगाके जलकी बूंदोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो हम लोगोंका अतिथि-सत्कार करता हुआ ही आ रहा हो ॥३२॥ हे देव, जो गायोंके संचारसे रहित है अर्थात् अत्यन्त दुर्गम १ आच्छादिताः। २ कनकवत् पिङ्गलैः । ३ विस्फुल्लिङ्गाः । ४ पटकुटयः । 'दुष्यं वस्त्रे च तद्गृहे'। ५ सक्षीरनवनीतबुद्ध्या । ६ कृतयत्नं ल०, द०, इ०, अ०, प०, स०,। ७ स्तनिताम् आच्छादिताम् । ८ आलोक यन् । ९ हंसकान्तेति शडकावान् । 'वरटा हंसकान्ता स्यात् वरटा वरलापि च" इति वैजयन्ती। १० सितेतरचञ्चुचरणवान् हंसः । 'राजहंसास्तु ते चञ्चश्चरणैः लोहितैः सिताः । मलिनमल्लिकाक्षास्तैर्तिराष्ट्राः सितेतरैः' इत्यभिधानात् । ११ कृतस्वनः द०, ब०, ल० । कृतस्वनाम् अ० । १२ अस्माकम् । १३ तटवन । १४ अतिथित्वम् । १५ शीकरैः ल०, ५०, इ० । १६ अभिमुखमागच्छति । १७ प्रमाणरहितम् । प्रवेष्टुमशक्यं वा। १८ विभात्येतैः इ०, ल०,' द० । १९ शयन । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व मन्दारवनवीथीनां सान्द्रच्छायाः समाश्रिताः । चन्द्रकान्तशिलास्वेते रंरम्यन्ते नमःपदः ॥३४॥ अहो तटवनस्यास्य रामणीयकमद्भुतम् । 'अवधूतनिजावासा रिरंसन्तेऽत्र यत्सुराः ॥३५॥ मनोभवनिवेशस्य लक्ष्मीस्त्र वितन्यते । सुरदम्पतिभिः स्वैरमारब्धरतिविभ्रमैः ॥३६॥ इयं निधुवनासक्ताः सुरवीरतिकोमलाः । हसतीव तरड्गोत्यैः शीकरैरमरापगा ॥३७॥ इतः किन्नरसंगीतमितः सिद्धोपीणितम् । इतो विद्याधरीनृत्तमि तस्तद्गतिविभ्रमः ॥३८॥ नृत्तमप्सरसां पश्यन् शण्वस्तद्गीतनिःस्वनम् । वाजिवक्त्रोऽयमुग्रीवः सममास्तं रखकान्तया ॥३९॥ *निष्पर्यायं वनेऽमुग्मिनृतुवों विवर्धते । परस्परमिव द्रष्टुमुत्सुकायितमानसः ॥४०॥ अशोकतरुरत्रायं तनुते पुप्पमजरीम् । लाक्षारक्तैः खगस्त्रीणां चरणैरभिताडितः॥४१॥ 'पुस्कोकिलकलालापमुखरीकृतदिङ्मुखः। चूतोऽयं मञ्जरीधत्ते मदनस्येव तीरिकाः ॥४२॥ चम्पका विकसन्तोऽत्र कुसुमतौं' वितन्वति । प्रदीपानिव पुष्पौघान् दधतीमे "मनोभुवः ॥४३॥ सहकारेवमी मत्ता विरुवन्ति मधुव्रताः। विजिगीषोरनङ्गस्य काहला इव पूरिताः ॥४४॥ कोकिलानकनिःस्वानरलिज्यारवजृम्भितैः । अभिषेणयतीवात्र मनोभूर्भुवनत्रयम् ॥४५॥ है और जो देवोंके द्वारा अधिष्ठित है अर्थात् जहाँ देव लोग आकर क्रीड़ा करते हैं ऐसा यह वन फूलोंके बिछौनोंसे सुशोभित इन लतागृहोंसे अतिशय सुशोभित हो रहा है ॥ ३३ ॥ इधर मन्दार वृक्षोंकी वन-पंक्तियोंकी घनी छायामें बैठे हुए ये देव लोग चन्द्रकान्त मणियोंकी शिलापर बार-बार क्रीड़ा कर रहे हैं ॥३४।। अहा, इस किनारेके वनकी सुन्दरता कैसी आश्चर्यजनक है कि देव लोग भी अपने-अपने निवासस्थान छोड़कर यहाँ क्रीड़ा करते हैं ।। ३५ ।। जिन्होंने अपनी इच्छानुसार रति-क्रीड़ा प्रारम्भ की है ऐसे देव-देवांगनाओंके द्वारा यहाँ काम देवके घरकी शोभा बढ़ायी जा रही है। भावार्थ - देव-देवांगनाओंकी स्वच्छन्द रतिक्रीड़ाको देखकर मालूम होता है कि मानो यह कामदेवके रहनेका घर ही हो ।। ३६ ॥ यह गंगा अपनी तरंगोंसे उठी हुई जलकी बूंदोंसे ऐसी जान पड़ती है मानो सम्भोग करने में असमर्थ होकर दीनताभरे अस्पष्ट शब्द करनेवाली देवांगनाओंकी हँसी ही कर रही हो ॥३७॥ इधर किन्नरोंका संगीत हो रहा है, इधर सिद्ध लोग वीणा बजा रहे हैं, इधर विद्याधरियाँ नृत्य कर रही हैं और इधर कुछ विद्याधरियाँ विलासपूर्वक टहल रही हैं ॥३८॥ इधर यह किन्नर अपनी कान्ताके साथ-साथ अप्सराओंका नृत्य देखता हुआ, और उनके संगीत शब्दोंको सुनता हुआ सुखसे गला ऊँचा कर बैठा है ॥ ३९ ।। परस्परमें एक-दूसरेको देखनेके लिए जिसका मन उत्कण्ठित हो रहा है ऐसा ऋतुओंका समूह इस वनमें एक साथ इकट्ठा होता हुआ बढ़ रहा है ॥ ४० ॥ लाखसे रंगे हुए विद्याधरियोंके चरणोंसे ताड़ित हुआ यह अशोक वृक्ष इस वनमें पुष्प-मंजरियोंको धारण कर रहा है ।। ४१ ।। ' कोकिलोंके आलापसे जिसने समस्त दिशाओंको वाचालित कर दिया है ऐसा यह आम्रवृक्ष कामदेवकी आँखोंकी पुतलियोंके समान पुष्प-मंजरियोंको धारण कर रहा है ॥४२॥ वसन्तऋतुके फैलनेपर इस वनमें जो चम्पक जातिके वृक्ष विकसित हो रहे हैं और फूलोंके समूह धारण कर रहे हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो कामदेवके दीपक ही धारण कर रहे हों ॥ ४३ ॥ इधर ये मदोन्मत्त भ्रमर आम्र वृक्षोंपर ऐसा शब्द कर रहे हैं मानो सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाले कामदेवरूपी राजाके बाजे ही बज रहे हों ॥४४॥ कोयलों१ अवज्ञात । २. रन्तुमिच्छन्ति । ३ यस्मात् कारणात् ।। ४ शक्ताः ल०, इ०। ५ रतिकाहलाः ल०, द०, इ० । ६ नृत्यम् अ०, इ० । ७ युगपत् । निष्पर्यायो प०, ल०, द०, अ०, स०। ८ पुस्कोकिलानामालापः ल०। ९ बाणाः । तारकाः ल० । १० विकसन्त्यत्र ल०, द०, इ०, अ०, प०, स० । ११ वसन्तकाले । १२ विस्तृते सति । अविवक्षितकर्मकोऽकर्मक इत्यकर्मकत्वमत्र । १३ दधतोऽमी ल०, द०, इ०, अ०, ५०, स० । १४ ध्वनन्ति । १५ सेनया अभियाति । णिज्बहुलं कृत्रादिषु णिज् । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् निचुलः सहकारेण विकसन्नत्र माधवीम् । तनोति लक्ष्मीमक्षुणामहो प्रावृटश्रिया समम् ॥४६॥ माधवीस्तबकेप्वत्र माधवोऽद्य विज़म्भते । वनलक्ष्मीप्रहासस्य लीलां तन्वत्सु विश्वतः ॥४७॥ वासन्न्यो विकसन्त्येता वसन्तर्तुस्मितश्रियम् । तन्धानाः कुसुमामोदैराकुलीकृतषट्पदाः ॥४८॥ मल्लिकाविततामोदैबिलोलीकृतषटपदः। पादपेषु पदं धत्ते शुचिः पुष्पशुचिस्मितः ॥४॥ कदम्बामोदसुरभिः केतकीधूलिधूसरः । तापात्ययानिलो देव नित्यमत्र विज़म्भते ॥५०॥ माद्यन्ति कोकिलाः शश्वत् सममत्र शिखण्डिभिः । कलहंसीकलस्वानैः संमूर्छित विकूजिताः ॥५१॥ कूजन्ति कोकिला मत्ताः केकायन्ते कलापिनः । उभयस्यास्य वर्गस्य हंसाः 'प्रत्यालपन्त्यमी ॥५२॥ इतोऽमी किन्नरीगीतमनुकूजन्ति षट्पदाः । सिद्धोपवीणितान्येषु निहनुतेऽन्यभृतस्वनः ॥५३॥ जितनूपुरझंकारमितो हंसविकूजितम् । इतश्च खेचरीनृत्यमनुनृत्यच्छिखाबलम् ॥५४॥ इतश्च सैकतोत्सङ्गे सुप्तान् हंसान् सशावकान् । प्रातः प्रबोधयत्युद्यन्” खेचरीनपुरारवः ॥५५॥ इतश्च रचितानल्पपुष्पतल्पमनोहराः । चन्द्रकान्तशिलागर्भा सुरैर्नोग्या लतालयाः ॥५६॥ के मधुरशब्दरूपी नगाड़ों और भ्रमरोंकी गुंजार रूप प्रत्यंचाकी टंकारध्वनिसे यहाँ ऐसा मालूम होता है मानो कामदेव तीनों लोकोंको जीतनेके लिए सेनासहित चढ़ाई ही कर रहा हो ॥ ४५ ॥ अहा, कैसा आश्चर्य है कि आम्रवृक्षके साथ-साथ फूलता हुआ यह निचुल जातिका वृक्ष इस वनमें वर्षाऋतुकी शोभाके साथ-साथ वसन्तऋतुकी भारी शोभा बढ़ा रहा है ॥४६॥ इधर इस वनमें चारों ओरसे वन-लक्ष्मीके उत्कृष्ट हास्यकी शोभा बढ़ानेवाले माधवीलताके गुच्छोंपर आज वसन्त बड़ी वृद्धिको प्राप्त हो रहा है । ४७ ।। जो अपने विकाससे वसन्तऋतुके हास्यकी शोभा बढ़ा रही हैं और जो फूलोंकी सुगन्धिसे भ्रमरोंको व्याकुल कर रही हैं ऐसी ये वसन्तमें विकसित होनेवाली माधवीलताएँ विकसित हो रही हैं - फूल रही हैं ॥४८॥ जिसने मालतीकी फैली हुई सुगन्धिसे भ्रमरोंको चंचल कर दिया है और फूल ही जिसका पवित्र हास्य है ऐसा यह ग्रीष्मऋतु वृक्षोंपर पैर रख रहा है-अपना स्थान जमा रहा है ॥४९।। हे देव, कदम्ब पुष्पोंको सुगन्धिसे सुगन्धित तथा केतकीकी धूलिसे धूसर हुआ यह वर्षाऋतुका वायु इस वनमें सदा बहता रहता है ॥५०॥ इस वनमें मयूरोंके साथ-साथ कोयल सदा उन्मत्त रहते हैं और कल-हंसियों ( वदकों ) के मनोहर शब्दोंके साथ अपना शब्द मिलाकर बोलते हैं ॥५१॥ इधर उन्मत्त कोकिलाएँ कह कह कर रही हैं, मयर केका वाणी कर रहे हैं और ये हंस इन दोनोंके शब्दोंकी प्रतिध्वनि कर रहे हैं । ५२ ॥ इधर ये भ्रमर किन्नरियोंके द्वारा गाये हुए गीतोंका अनुकरण कर रहे हैं और इधर यह कोयल सिद्धोंके द्वारा बजायी हुई वीणाके शब्दोंको छिपा रहा है ।। ५३ ॥ इधर नूपुरोंकी झंकारको जीतता हुआ हंसोंका शब्द हो रहा है, और इधर जिसका अनुकरण कर मयूर नाच रहे हैं ऐसा विद्याधरियोंका नृत्य हो रहा है ॥ ५४ ।। इधर बालूके टीलोंकी गोदमें अपने बच्चोंसहित सोये हुए हंसोंको प्रातःकालके समय यह विद्याधरियोंके नूपुरोंका ऊँचा शब्द जगा रहा है ।। ५५ ॥ इधर जो बहुत-से फूलोंसे बनायी हुई शय्याओंसे मनोहर जान पड़ते हैं, जिनके मध्यमें चन्द्रकान्त मणिको शिलाएँ पड़ी १ हिज्जुलः । 'निचुलो हिज्जुलोऽम्बुजः' इत्यभिधानात् । २ वसन्ते भवाम्। 'अलिमुक्तः पुण्ड्रक: स्याद् वासन्ती माधवी लता' इत्यभिधानात् । एतानि पुण्ड्रदेशे वसन्तकाले बाहुलेन जायमानस्य नामानि । ३ वासन्तीगुच्छकेषु । 'स्याद् गुच्छकस्तु स्तबकः' इत्यभिधानात् । ४ ग्रीष्मः । ५. पुष्पाण्येव शुचिस्मितं यस्य सः । ६ ईषत्पाण्डुः । 'ईषत्पाण्डुस्तु धूसरः' इत्यभिधानात् । ७ वर्षाकालवायुः । ८ मिश्रित । ९ केका कुर्वन्ति । १० प्रत्युत्तरं कुर्वन्ति । ११ अपलापं कुरुते । १२ अनुगतं नृत्यन् शिखाबलो यस्य । १३-त्युच्चैः पं० । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व २३. इतीदं वनमत्यन्तरमणीयैः परिच्छदैः । स्वर्गाद्यानगतां प्रीतिं जनयेत् स्वःसदा सदा ॥५७॥ बहिस्तटवनादतद् दृश्यते काननं महत् । नानाद्रुमलतागुल्मवीमिरतिदुर्गमम् ॥५८॥ दृष्टीनामप्यगम्येऽस्मिन् वने मृगकदम्बकम् । नानाजातीयमुभ्रान्तं सैन्यक्षोभात् प्रधावति ॥५॥ इदमस्मबलक्षोभादुत्त्रस्तमृगसंकुलम् । वनमाकुलितप्राणमिवाभात्यन्धकारितम् ॥६॥ गजयूथमित: कच्छादन्धकारमिवामितः । विश्लिष्टं' बलसंशोभादपसर्पत्यतिद्वतम् ॥६१॥ शनैः प्रयाति संजिघ्रन्" दिशः प्रोक्षिप्तपुष्करः । स महाहिरिवादीन्द्रो भद्रोऽयं गजयूथपः ॥६॥ महाहिरयमायाम मिमान इव भूरुहाम् । ३वसन्नायच्छते' कच्छादृत्वाकृतशरीरकः ॥६३॥ 'शयपोता निकुन्जेषु पुजीभूता वसन्त्यमी। "वनस्पेवान्त्रसंतानाश्वमूक्षोभाद्विनिःसृताः ॥६॥ अयमेकचरः'' पोत्रसमुल्खातान्तिकस्थलः । रुणद्धि वर्त्म सैन्यस्य वराहस्तीवरोषणः ॥६॥ सैनिकरर्यमारुद्ध पाषाणलकटादिभिः । व्याकुलीकुरुते सैन्यं गण्डो गण्ड' इव स्फटम ॥६॥ प्राणा इव वनादस्माद् विनिष्कामन्ति सन्तताः । सिंहा बहुदवज्वाला धुन्वाना केसरच्छटाः ॥६॥ हई हैं और जो देवोंके उपभोग करने योग्य हैं ऐसे लतागृह बने हुए हैं ॥५६।। इस प्रकार यह वन अत्यन्त रमणीय सामग्रीसे देवोंके सदा नन्दन वनको प्रीतिको उत्पन्न करता रहता है ।। ५७ ।। इधर किनारेके वनके बाहर भी एक बड़ा भारी वन दिखाई दे रहा है जो कि अनेक प्रकारके वृक्षों, लताओं, छोटे-छोटे पौधों और झाड़ियोंसे अत्यन्त दुर्गम है ॥ ५८ ।। जिसमें दृष्टि भी नहीं जा सकती ऐसे इस वनमें सेनाके क्षोभसे घबड़ाया हुआ यह अनेक जातिके मृगोंका समूह बड़े जोरसे दौड़ा जा रहा है ।।५९|| जो हमारी सेनाके क्षोभसे भयभीत हए हरिणोंसे व्याप्त है तथा जिसमें जीवोंके प्राण आकूल हो रहे हैं ऐसा यह वन अन्धकारसे व्याप्त हएके समान जान पड़ता है । ६० ॥ इधर सेनाके क्षोभसे अलग-अलग हुआ यह हाथियोंका झुण्ड गंगा किनारेके जलवाले प्रदेशसे अन्धकारके समान चारों ओर बड़े वेगसे भागा रहा है ॥ ६१ ॥ हाथियोंके झुण्डकी रक्षा करनेवाला यह भद्र गजराज सूंडको अँचा उठाता हुआ तथा दिशाओंको सूघता हुआ धीरे-धीरे ऐसा जा रहा है मानो शेषनागसहित सुमेरु पर्वत ही जा रहा हो ।। ६२ ॥ जिसने अपने शरीरके ऊर्ध्वभागको ऊँचा उठा रखा है ऐसा यह बड़ा भारी सर्प जलवाले प्रदेशसे साँस लेता हुआ इस प्रकार आ रहा है मानो वृक्षोंकी लम्बाईको नापता हुआ ही आ रहा हो ॥६३।। इधर इस लतागृहमें इकट्ठे हुए ये अजगरके बच्चे इस प्रकार श्वास ले रहे हैं मानो सेनाके क्षोभसे वनकी अंतड़ियोंके समूह ही निकल आये हों ॥६४|| जो अकेला ही फिरा करता है, जिसने अपनी नाकसे समीपके स्थल खोद डाले हैं, और जो अत्यन्त क्रोधी है ऐसा यह शूकर सेनाका मार्ग रोक रहा है ॥६५॥ सेनाके लोगोंने जिसे पत्थर लकड़ी आदिसे रोक रखा है ऐसा यह गण्ड अर्थात् छोटे पर्वतके समान दिखनेवाला गैंडा हाथी स्पष्ट रूपसे सेनाको व्याकुल कर रहा है ॥६६॥ जो दावानलकी ज्वालाके समान पीले और विस्तृत गरदनपर-के बालोंके समूहोंको हिला रहे हैं ऐसे ये सिंह इस वनसे इस प्रकार १ नाकिनाम् । २ प्रतानिनीलताभिः । 'लता प्रतानिनी वीरुत् गुल्मिन्युपलमित्यपि' इत्यभिधानात् । ३ बहुजलप्रदेशात् । 'जलप्रायमनूपं स्यात् पुंसि कच्छस्तथाविधः ।' इत्यभिधानात् । ४ विभक्तम् । ५ आघ्राणयन् । ६ प्रमिति कुर्वन्निव । ७ दीर्धीभवति । यमुनः स्वेऽङ्गे चाजाः” इत्यात्मनेपदी। -नागच्छते ल०, इ०। ८ अजगरशिशवः । ९ निकुञ्जऽस्मिन् ल०, द०, इ०। १० पुरीतत् । ११ एकाको । १२ मुखाग्र । 'मुखाग्रे क्रोडहलयोः पोत्रम्' इत्यभिधानात् । 'योत्रप्पोहलक्रोडमुखे त्रट्' इति सूत्रेण सिद्धिः । १३ वेष्टितः । १४ आकुली-ल०। १५ खड्गीमृगः । १६ गण्डशल इव। १७ दवज्वालसदृशाः । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आदिपुराणम् गुग्गुलूनां ' वनादेष महिषो घनकर्बुरः । निर्याति मृत्युदंष्ट्राभविषाणाग्रातिभीषणः ॥६॥ ललद्वालधयो लोलजिह्वा व्यालोहितेक्षणाः । व्याला बलस्य संक्षोभममी तन्वन्त्यनाकुलाः ॥६६॥ शरभः सं समुत्पत्य मतन्नुत्तापितोऽपि सन् । नैष दुःखःसिकां वेद चरणैः पृष्टवर्तिभिः ॥७॥ चमरोऽयं 'चमूरोधाद् विदुतो" द्रुतमुत्पनन् । क्षोभं तनोति सैन्यस्य दर्पो रूपीव' दुर्धरः ॥७१॥ शशः शशन्नयं देव सैनिकैरननुद्रुतः । शरणायेव भीतात्मामध्येसैन्यं निलीयते ॥७२॥ सारङ्गोऽयं तनुच्छायाकल्माषितवनः शनैः । प्रयाति शृङ्गभारेण शाखिनेव प्रशुष्यता ॥७३॥ दक्षिणेर्मतया विध्वगभिधावन्त्य पीक्षिता" । प्रजानुपालनं न्याय्यं तवाचष्टे मृगप्रजा ॥७॥ कलापी बहभारेण मन्दं मन्दं व्रजत्यसौ। केशपाशश्रियं तन्वन् वनलक्ष्म्यास्तनुरुहैः ॥७५॥ नेत्रावलीमिवातन्वन् वनभूम्याः सचन्द्रकैः । कलापिनामयं संघो विभात्यस्मिन् वनस्थले ॥६॥ संक्रीडतां रथाङ्गानां स्वनमाकर्णयन् मुहुः । हरिणानामिदं यूथं नापसर्पति वर्मनः ॥७७॥ निकल रहे हैं मानो उसके प्राण ही निकल रहे हों ॥६७।। जो मेघके समान कर्बुर वर्ण है, जिसके सींगका अग्रभाग यमराजकी दाढ़के समान है तथा जो अत्यन्त भयंकर है ऐसा यह भैंसा इस गूगुलके वनसे बाहर निकल रहा है ॥६८। जिनकी पूंछ हिल रही है, जिह्वा चंचल हो रही है और नेत्र अत्यन्त लाल हो रहे हैं ऐसे ये सिंह आदि क्रूर जीव स्वयं व्याकुल न होकर ही सेनाका क्षोभ बढ़ा रहे हैं ।।६९।। यह अष्टापद अकाशमें उछलकर यद्यपि पीठके बल गिरता है तथापि पीठपर रहनेवाले पैरोंसे यह दु खका अनुभव नहीं करता। भावार्थ-अष्टापद नामका एक जंगली जानवर होता है उसके पीठपर भी चार पाँव होते हैं। जब कभी वह आकाशमें छलाँग मारनेके बाद चित्त अर्थात् पोठके बल गिरता है तो उसे कुछ भी कष्ट नहीं होता क्योंकि वह अपने पीठपर-के पैरोंसे सँभलकर खड़ा हो जाता है ॥७०॥ जो मूर्तिमान् अहंकारके समान है, दुर्जेय है और सेनासे घिर जानेके कारण जल्दी-जल्दी छलाँग मारता हुआ इधर-उधर दौड़ रहा है ऐसा यह मृग सेनाका क्षोभ बढ़ा रहा है ॥७१॥ हे देव, यह खरगोश दौड़ रहा है, यद्यपि सैनिकोंने इसका पीछा नहीं किया है तथापि यह भीरु होनेसे इधर-उधर दौड़कर शरण ढूँढ़नेके लिए आपकी सेनाके बीच में ही कहीं छिप जाता है ॥७२॥ जिसने अपने शरीरकी कान्तिसे वनको भी काला कर दिया है ऐसा यह कृष्णसार जातिका मृग सूखे हुए वृक्षके समान अनेक शाखाओंवाले सींगोंके भारसे धीरे-धीरे जा रहा है ॥७३।। देखिए, दाहिनी ओर घाव लगनेसे जो चारों ओर चक्कर लगा रहा है ऐसा यह हरिणोंका समूह मानो आपसे यही कह रहा है कि आपको सब जीवोंका पालन करना योग्य है ॥७४॥ जो अपनी पूंछके द्वारा वनलक्ष्मीके केशपाशकी शोभाको बढ़ा रहा है ऐसा यह मयूर पूछके भारसे धीरे-धीरे जा रहा है ॥७५।। इधर इस वनस्थलमें यह मयूरोंका समूह ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो अपनी पूंछपर-के चन्द्रकोंसे वनकी पृथिवीरूपी स्त्रीके नेत्रोंके समूहकी शोभा ही बढ़ा रहा हो ॥७६।। इधर देखिए, चलते हुए रथके पहियेके शब्दको बार-बार सुनता हुआ यह हरिणोंका समूह मार्ग १ कौशिकानाम् । कुम्भोरुखलकं क्लीबे कौशिको गुग्गुलुः पुरः' इत्यभिधानात् । २ चलत् । ३ दुष्टमृगाः । ४ निर्भीताः । ५ अष्टापदः । ६ ऊर्ध्वमुखचरणो भूत्वा । ७ जानाति । ८ व्याघ्रः । ९ सेनानिरोधात् । १० धावमानः । ११ रूपी च ल० । १२ 'शश प्लुतगतो' उत्प्लुत्य गच्छन् । १३ अनुगतः । १४ सैन्यमध्ये । १५ अन्तहितो भवति । विलीयते अ०, इ० । १६ शबलितः । १७ दक्षिणभागे कृतव्रणतया । 'दक्षिणे गतया विष्वगभिधावन् प्रवीक्षताम् । प्रजानुपालनं न्याय्यं तवाचष्टे मृगव्रजः ॥' ल०। १८ सैनिकैरवलोकिताः । १९ मृगसमूहः । २० चीत्कारं कुर्वताम् । 'क्रीडोऽकूजे' इति अकूजार्थे त विधानात् कूजार्थे परस्मैपदी । २१ वर्त्मनः ल० । दूरतः अ०। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व 'हरिणीप्रेक्षितेष्वेताः पश्यन्ति सकुतूहलम् । स्वां नेत्रशोभां कामिन्यो बर्हिबर्हेषु मूर्धजान् ॥ ७८ ॥ इत्यनाकुलमेवेदं सैन्यैरप्याकुलीकृतम् । वनमालक्ष्यते विश्वगसंबाधमृगद्विजम् ॥७९॥ जैोऽध्यातपो नायमिहास्मान् देव बाधते । वने महातरुच्छाया नैरन्तर्यानुबन्धिनि ॥ ८० ॥ इमे वनमा भान्ति सान्द्रच्छाया मनोरमाः । त्वद्भक्त्यै वनलक्ष्म्येव मण्डपा विनिवेशिताः ॥ ८१ ॥ सरस्यः स्वच्छसलिला वारितोष्णास्तटदुमैः । स्थापिता वनलक्ष्म्येव प्रप भान्ति क्लमच्छिदः ॥ ८२ ॥ बाणासनाकीर्णमिदं खड्गिभिराततम् । सहीस्तिकमपर्यन्तं वनं युष्मद्वलायते ॥८३॥ इत्थं वनस्य सामृद्ध्यं निरूपयति सारथौ । वनभूमिमतीयाय सम्राङविदितान्तम् ॥८४॥ तदाश्वीयखुरोद्वातादुत्थिता वनरेणवः । दिशां मुखेषु संलग्नास्तेनुर्यवनिका श्रियम् ॥ ८५ ॥ सादिनां वारवाणानि स्मृतान्यपि सितांशुकैः । कापायाणीव जातानि ततानि वनरेणुभिः ॥ ८६॥ वनरेणुभिरालग्नैर्जटीभूतानि योषितः । स्तनांशुकानि वृच्छ्रेण दधुरध्वश्रमालसाः ॥ ८७ ॥ कुम्भस्थलीपु संसक्ताः करिणामध्वरेणवः । सिन्दूरश्रियमातेनुर्धातुभूमिसमुत्थिताः ॥ ८८ ॥ יי २५ से एक ओर नहीं हट रहा है ||७|| ये स्त्रियाँ हरिणियोंके नेत्रोंमें अपने नेत्रोंकी शोभा बड़े कौतूहल के साथ देख रही हैं और हरिणोंकी पूँछोंमें अपने केशोंकी शोभा निहार रही हैं ॥ ७८ ॥ जिसमें हरिण पक्षी आदि सभी जीव एक-दूसरेको बाधा किये बिना ही निवास कर रहे हैं ऐसा यह वन यद्यपि सैनिकोंके द्वारा व्याकुल किया गया है तथापि आकुलतासे रहित ही प्रतीत हो रहा है ।। ७९ ।। हे देव, जो बड़े-बड़े वृक्षोंकी घनी छायासे सदा सहित रहता है ऐसे इस वन में रहनेवाले हम लोगोंको यह तीव्र घाम कुछ भी बाधा नहीं कर रहा है ॥ ८० ॥ ये घनी छायावाले वनके मनोहर वृक्ष ऐसे जान पड़ते हैं मानो आपकी भक्तिके लिए वनलक्ष्मी के द्वारा लगाये हुए मण्डप ही हों ॥। ८१|| किनारेपर के वृक्षोंसे जिनकी सब गरमी दूर कर दी गयी है ऐसे स्वच्छ जलसे भरे हुए ये छोटे-छोटे तालाब ऐसे मालूम होते हैं मानो वनलक्ष्मीने क्लेश दूर करनेवाली प्याऊ हो स्थापित की हों ॥ ८२ ॥ हे प्रभो, यह वन आपकी सेनाके समान जान पड़ता है क्योंकि जिस प्रकार आपकी सेना बहुत से बाणासन अर्थात् धनुषोंसे व्याप्त है उसी प्रकार यह वन भी बाण और असन जातिके वृक्षोंसे व्याप्त है, जिस प्रकार आपकी सेना खड्गी अर्थात् तलवार धारण करनेवाले सैनिकोंसे हुई है उसी प्रकार यह वन भी खड्गी अर्थात् गैंडा हाथियोंसे भरा हुआ है, जिस प्रकार आपकी सेना हाथियोंके समूह से सहित है उसी प्रकार यह वन भी हाथियोंके समूह से सहित है और जिस प्रकार आपकी सेनाका अन्त नहीं दिखाई देता उसी प्रकार इस वनका भी अन्त नहीं दिखाई देता ||८३ || इस प्रकार सारथिके वनकी समृद्धिका वर्णन करते रहनेपर सम्राट् भरत उस वनभूमिको इस तरह पार कर गये कि उन्हें उसकी लम्बाईकां पता भी नहीं चला ॥ ८४ ॥ उस समय घोड़ोंके समूहके खुरोंके आघात से उठी हुई वनकी धूलि समस्त दिशाओं में व्याप्त होकर परदेकी शोभा धारण कर रही थी ।। ८५ ।। घुड़सवारोंके कवच, यद्यपि ऊपरसे सफेद वस्त्रोंसे ढंके हुए थे तथापि वनकी धूलिसे व्याप्त होने के कारण ऐसे मालूम पड़ते थे मानो कषाय रंगसे रंगे हुए ही हों ॥ ८६ ॥ मार्ग के परिश्रमसे अलसाती हुई स्त्रियाँ वनकी धूलि लगनेसे भारी हुए स्तन ढँकनेवाले वस्त्रोंको बड़ी कठिनाई से धारण कर रही थीं ॥ ८७ ॥ गेरू रंगकी भूमिसे उठी हुई मार्गकी धूलि भरी 'प्रपा पानीयशालिका' १ लोचने । २ पक्षी । ३ प्रवृद्धः । ४ तत्र भजनाय । ५ पानीयशालिकाः । इत्यभिधानात् । ६ झिण्डि सर्जक, पक्षे चाप । ७ गण्डमृगैः, पक्षे आयुधिकैः । ८ उभयत्रापि गजसमूहम् । ९ अज्ञातान्तरमधियंस्मिन्नत्यकर्मणि । १० अश्वारोहकाणाम् । 'अश्वारोहास्तु सादिनः' इत्यभिधानात् । ११ कञ्चुकाः । कञ्चुको वारवाणोऽस्त्री' इत्यभिधानात् । १२ युतानि । १३. कषायरञ्जितानि । १४ गैरिक । ४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ततो सध्यन्दिनेऽभ्यणे दिदीपे तीव्रमंशुमान् । विजिगीषुरिवारूढप्रतापः शुद्धमण्डलः ॥८९॥ सरस्तीरतरुच्छायामाश्रयन्ति स्म पत्रिणः । शरदातपसंतापात् संकुचत्पत्रसंपदः ॥१०॥ हंसाः कलमषण्डेषु पुजीभूतान् स्वशावकान् । पौराच्छादयामासुरसोढजरठातपान् ।।११।। वन्याः स्तम्बेरमा भेजुः सरसीरवगःहितुम् । मदतिषु तप्तासु मुक्ता मधुकरवजैः ॥१२॥ शाग्वाभङ्गैः कृतच्छायाः प्रयान्तो गजयूथपाः । शाखोद्वारमिवातन्वन् खरांशो करपीडिताः ॥१३॥ यूथं वनवराहाणामुपर्युपरि पुञ्जितम् । तदा प्रविश्य वेशन्तमधिशिश्ये सकर्दमम् ॥१४॥ मृणालैरङ्गमावेष्टच स्थिता हंसा विरेजिरे । प्रविटाः शरणायेव शशाङ्ककरपम्जरम् ॥१५॥ चक्रवाकयुवा भेजे घनं शैवलमाततम् । सर्वाङ्गलग्नमुष्णालुर्विनीलमिव क कम् ॥१६॥ पुण्डरीकातपत्रेण कृतच्छायोऽब्जिनीवने । राजहंसस्तदा भेजे हंसीभिः सह मज्जनम् ॥१७॥ विसभङ्गैः कृताहारा मृणालैरवगुण्ठिताः । विसिनीपत्रतल्पेषु शिश्यिरे हंसशावकाः ॥९८॥ इति शारदिकं तीव्र तन्वाने तापमातपे । पुलिनेषु प्रतप्तेषु न हंसा धृतिमादधुः ॥१९॥ हाथियोंके गण्डस्थलोंमें लगकर सिन्दूरकी शोभा धारण कर रही थी ।।८८।। तदनन्तर मध्याह्नका समय निकट आनेपर सूर्य अत्यन्त देदीप्यमान होने लगा। उस समय वह सूर्य किसी विजिगीषु राजाके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार विजिगीषु राजा प्रताप ( प्रभाव ) धारण करता है उसी प्रकार सूर्य भी प्रताप ( प्रकृष्ट गरमी ) धारण कर रहा था और जिस प्रकार विजिगीषु राजाका मण्डल ( स्वदेश ) शुद्ध अर्थात् आन्तरिक उपद्रवोंसे रहित होता है उसी प्रकार सूर्यका मण्डल ( बिम्ब ) भी मेघ आदिका आवरण न होनेसे अत्यन्त शुद्ध (निर्मल) था ॥८९।। शरद्ऋतुके घामके सन्तापसे जिनके पंखोंकी शोभा संकुचित हो गयी है ऐसे पक्षी सरोवरोंके किनारेके वृक्षोंकी छायाका आश्रय लेने लगे । ९० ॥ जो मध्याह्नकी गरमी सहन करनेमें असमर्थ हैं और इसीलिए जो कमलोंके समूहमें आकर इकट्ठे हुए हैं ऐसे अपने बच्चोंको हंस पक्षी अपने पंखोंसे ढंकने लगे ॥ ९१ ॥ मदका प्रवाह गरम हो जानेसे जिन्हें भ्रमरोंके समूहने छोड़ दिया है ऐसे जंगली हाथी अवगाहन करनेके लिए सरोवरोंकी ओर जाने लगे ॥ ९२ ॥ सूर्यको किरणोंसे पीड़ित हुए हाथी वृक्षोंकी डालियाँ तोड़-तोड़कर अपने ऊपर छाया करते हुए जा रहे थे और उनसे ऐसे मालूम होते थे मानो शाखाओंका उद्धार ही कर रहे हों ॥९३।। उस समय जंगली शूकरोंका समूह कीचड़सहित छोटे-छोटे तालाबोंमें प्रवेश कर परस्पर एक दूसरेके ऊपर इकट्ठे हो शयन कर रहे थे । ९४ ॥ अपने शरीरको मृणालके तन्तुओंसे लपेटकर बैठे हुए हंस ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो अपनी रक्षा करनेके लिए चन्द्रमाकी किरणोंसे बने हुए पिंजड़े में ही घुस गये हों ।। ९५ ।। जो उष्णता सहन करने में असमर्थ है ऐसे किसी तरुण चकवाने अपने सर्व शरीरमें लगे हुए, मोटे-मोटे तथा विस्तृत शेवालको धारण कर रखा था और उससे वह ऐसा मालम होता था मानो नीले रंगका कुरता ही धारण कर रहा हो ॥१६॥ जिसने कमलिनियोंके वनमें सफेद कमलरूप छत्रसे छाया बना ली है ऐसा राजहंस उस मध्याह्नके समय अपनी हंसियोंके साथ जलमें गोते लगा रहा था ॥ ९७ ॥ जिन्होंने मृणालके टुकड़ोंका आहार किया है और मृणालके तन्तुओंसे ही जिनका शरीर ढंका हुआ है ऐसे हंसोंके बच्चे कमलिनीके पत्ररूपी शय्यापर सो रहे थे ॥ ९८ । इस प्रकार शरद्ऋतुका घाम तीव्र सन्ताप फैला रहा १ मध्याह्नकाले । २ पक्षिणः ल० । ३ पक्ष । ४ शाखाखण्डैः । ५ पल्लवानि गृहीत्वा आक्रोशम् । ६ पल्वलम् । अल्पसर इत्यर्थः । "वेशन्तः पल्वलं चाल्पसरः' इत्यभिधानात । ७ उष्णमसहमानः। 'शीतोष्ण त्रयादशः आलुः'। ८ आच्छादिता। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व मध्यस्थोऽपि तदा तीव्र तताप तरणिर्भुवम् । नूनं तावप्रतापानां माध्यस्थ्यमपि तापकम् ॥१०॥ स्वेदबिन्दुभिराबद्धजालकानि' नृपस्त्रियः । वदनान्यूहरब्जिन्यः पमानीवाग्वुशीकरैः ॥१०॥ नृपवल्लभिकावक्त्रपङ्कजेप्वपुषच्छ्रियम् । धर्मबिन्दृद्गमो निर्यल्लावण्यरसपूरवत् ॥१०२॥ गलधर्माम्बुबिन्दूनि मुखानि नृपयोषिताम् । अवश्यायततानीव राजीवानि विरंजिरे ॥१०३॥ नृपाङ्गनामुखाब्जानि धर्मबिन्दुभिराबभुः । मुक्ताफलैर्द्रवीभूतैरिवालकविभूषणैः ॥१०४॥ रथवाहा रथानुहुरायस्ताः फेनिलमुखेः । तंव तपति तिग्मांशी समऽपि प्रस्खलत्खुराः ॥१०५॥ हृस्ववृत्तखुरास्तुङ्गास्तनुस्निग्धतनूरुहाः । पृथ्वासना महावाहाः प्रययुर्वायुरंहसः ॥१०६॥ महाजवजषो वस्त्रादुदमन्तः खुरानिव । महोरस्काः स्फुरत्प्रोथा द्रुतं जग्मुर्महाहयाः ॥१०७॥ समुच्छ्रितपुरो भागाः शुद्धावर्ता मनोजवाः । अपर्याप्तेषु मार्गेषु द्रुतमीयुस्तुरङगमाः ॥१०८॥ मंधासत्वजवोपेता विनीताश्चटुल क्रमाः । गल्हमाना'' इव स्प्रष्टुं महीमश्वा द्रुतं ययुः ॥१०॥ अश्वेभ्योऽपि रथेभ्योऽपि पत्तयो वेगितं ययुः । सोपानकैः पदैः स्थाणुकण्टकोपललङ्घिनः ॥११०॥ था और उससे तपे हए नदियोंके किनारोंपर हंसोंको सन्तोष नहीं हो रहा था ॥९९।। उस समय सूर्य यद्यपि मध्यस्थ था-आकाशके बीचोबीच स्थित था, पक्षपातरहित था तथापि वह पृथिवीको बहुत ही सन्तप्त कर रहा था सो ठीक ही है क्योंकि तीव्र प्रतापी पदार्थोंका मध्यस्थ रहना भी सन्ताप करनेवाला होता है ॥१००। जिस प्रकार कमलिनियाँ ( कमलकी लताएँ ) । सुशोभित कमलोंको धारण करती हैं उसी प्रकार महाराज भरतकी स्त्रियाँ पसीनेकी बूंदोंसे जिनपर मोतियोंका जाल-सा बन रहा है ऐसे अपने मुख धारण कर रही थीं ॥१०१।। रानियोंके मुख-कमलोंपर जो पसीनेकी बूंदें उठी हुई थीं वे निकलते हुए सौन्दर्य रूपी रसके प्रवाहके समान शोभाको पुष्ट कर रही थीं ॥१०२॥ जिनसे पसीनेकी बूंदें टपक रही हैं ऐसे रानियोंके मुख ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो ओसकी बूंदोंसे व्याप्त हुए कमल ही हों ॥१०३॥ जिन पसीनेकी बूंदोंसे रानियोंके मुख-कमल सुशोभित हो रहे थे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो केशपाशको अलंकृत करनेवाले मोती ही पिघल-पिघलकर तरल रूप हो गये हों ।।१०४।। उस समय सूर्य बड़ी तेजीके साथ तप रहा था इसलिए जो घोड़े रथोंको ले जा रहे थे उनके मुख परिश्रमसे खुल गये थे, उनमें फेन निकल आया था और उनके खुर समान जमीनपर भी स्खलित होने लगे थे ॥१०५॥ जिनके खुर छोटे और गोल हैं, जिनपर छोटे और चिकने रोम हैं, जो बहुत ऊँचे हैं, जिनका आसन अर्थात् पीठ बहुत बड़ी है, और जिनका वेग वायुके समान है ऐसे बड़े-बड़े उत्तम घोड़े भी जल्दी-जल्दी दौड़े जा रहे थे ।।१०६॥ जो तीव वेगसे सहित हैं. जो अपने आगेके खरोंको मखसे उगलते हएके समान जान पड़ते हैं. जिनका वक्षःस्थल बड़ा है और जिनकी नाकके नथने कुछ-कुछ हिल रहे हैं ऐसे बड़े-बड़े घोडे जल्दी-जल्दी जा रहे थे ॥१०७॥ जिनके आगेका भाग बहत ऊँचा है. जिनके शरीरपर-के भंवर अत्यन्त शद हैं. और जिनका वेग मनके समान है ऐसे घोड़े उस छोटे-से मार्गमें बडी शीघ्रताके साथ जा रहे थे ॥१०८॥ जो बुद्धि-बल और वेगसे सहित हैं, विनयवान् हैं तथा सुन्दर गमनके धारक हैं ऐसे घोड़े पृथिवीको ( रजस्वला अर्थात् धूलिसे युक्त-पक्षमें रजोधर्मसे युक्त-समझ ) उसके स्पर्श करनेमें घृणा करते हुए ही मानो बड़े वेगसे जा रहे थे ॥१०९॥ पैदल चलनेवाले १ जालसमूहानि । कोरकाणि वा। २ प्रालेय । 'अवश्यायस्तु नीहारस्तुषारस्तुहिनं हिमम् । प्रालेयं मिहिका च' इत्यभिधानात् । ३ रयाश्वाः । ४ उपतप्ताः । - रायस्तैः इत्यपि पाठः । ५ समानभूतलेऽपि । ६ पृयुलपृष्ठभागाः । ७ वायुवेगाः । ८ घोगाः। ९देवमणि प्रमुखशुभावर्ताः । १० असम्पूर्णषु सत्सु । ११ कुत्समानाः । १२ वेगवद् यथा भवति तथा । १३ सपादत्राणः । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् शाक्तिकाः सह याष्टीकैः प्रासिका धन्वभिः समम् । नैस्त्रिंशिकाच तेऽन्योन्यं स्पर्धयेव ययुद्धतम् ॥१११॥ पुरः प्रधावितैः प्रेसद्वारवागा अपल्लवाः। जातपक्षा इवोडीय भटा जग्मुरतिद्रुतम् ॥११२॥ प्रयात धावतापत मार्ग मा रुध्वमग्रतः। इत्युच्चैरुच्चरद्ध्वानाः पौरस्त्यानत्ययुर्भटाः ॥११३॥ इतोऽपसर्पताश्चीयादितो धावत हास्तिकात् । इतो रथादपत्रता दूरं नश्यत नश्यत ॥११४॥ अमुष्माज्जनसंघहादुत्थापयत डित्यकान् । इतोहस्त्युरसादश्वानपसारयत द्रुतम् ॥११५॥ इतः प्रस्थानमारुध्य स्थितोऽयं घाटको गजः। मध्येऽध्वं "प्राजितुषात् पर्यस्तोऽयमितो रथः ॥११६॥ "क्रमेलकोऽयमुत्त्रस्तः प्रतीपं पथि धावति । उत्सृष्टभारो लम्बोष्टी जनानिव विडम्बयन् ॥११७॥ वित्रस्ताद्वेसरादेनां पतन्तोमवरोधिकाम् । संधारयन् पातेऽस्मिन् सौविदल्लः पतत्ययम् ॥११८॥ यवीयानेष पण्यस्त्रीमुखालोकनविस्मितः । पातितोऽप्यश्वसंवटै त्मानं वेद' शून्यधीः ॥११९॥ हरिद्वारञ्जितश्मश्रुः कज्जलाङ्कितलोचनः । कुटिनीमनुयन्नेष४ २"प्रवयास्तरुणायते ॥१२०॥ इति प्रयाणसंजल्पैरज्ञाताश्वपरिश्रमाः । सैनिकाः शिविरं प्रापन् सेनान्याः प्रानिवेशितम् ॥१२१॥ सैनिक जूता पहने हुए पैरोंसे ढूँठ काँटे तथा पत्थर आदिको लाँघते हुए घोड़े और रथोंसे भी जल्दी जा रहे थे ॥११०॥ शक्ति नामके हथियारको धारण करनेवाले लट्ठ धारण करनेवालोंके साथ, भाला धारण करनेवाले धनुष धारण करनेवालोंके साथ और तलवार धारण करनेवाले लोग परस्पर एक-दूसरेके साथ स्पर्धा करते हुए ही मानो बड़ी शीघ्रताके साथ जा रहे थे ॥१११॥ आगे-आगे दौड़नेसे जिनके कवचके अग्रभाग कुछ-कुछ हिल रहे हैं ऐसे योद्धा लोग इतनी जल्दी जा रहे थे मानो पंख उत्पन्न होनेसे वे उड़े हो जा रहे हों ॥११२॥ चलो, दौड़ो, हटो, आगेका मार्ग मत रोको इस प्रकार जोर-जोरसे बोलनेवाले योद्धा लोग अपने सामनेके लोगोंको हटा रहे थे ॥११३।। अरे, इन घोड़ोंके समूहसे एक ओर हटो, इन हाथियोंके समूहसे भागो, और बिचले हुए इन रथोंसे भी दूर भाग जाओ ।।११४॥ अरे, इन बच्चोंको लोगोंकी इस भीड़से उठाओ और इन हाथियोंके आगेसे घोड़ोंको भी शीघ्र हटाओ ॥११५।। इधर यह दुष्ट हाथी रास्ता रोककर खड़ा हुआ है और इधर यह रथ सारथिको गलतीसे मार्गके बीचमें ही उलट गया है ॥११६॥ इधर देखो, जिसने अपना भार पटक दिया है, जिसके लम्बे होंठ हैं और जो बहुत घबड़ा गया है ऐसा यह ऊँट मार्गमें इस प्रकार उलटा दौड़ा जा रहा है मानो लोगोंकी विडम्बना ही करना चाहता हो ॥११७॥ इधर इस ऊँची जमीनपर घबड़ाये हुए खच्चरपर-से गिरतो हुई अन्तःपुरकी स्त्रीको कोई कंचुकी बीचमें ही धारण कर रहा है परन्तु ऐसा करता हुआ वह स्वयं गिर रहा है ॥११८॥ यह तरुण पुरुष वेश्याका मुख देखनेसे आश्चर्यचकित होता हुआ घोड़ेके धक्केसे गिर गया है, परन्तु वह मूर्ख 'मैं' गिर गया हूँ इस तरह अब भी अपने-आपको नहीं जान रहा है ॥११९।। जिसने अपने बाल खिजाबसे काले कर लिये हैं, जिसकी आँखोंमें काजल लगा हुआ है और जो किसी कुट्टिनीके पीछे-पीछे जा रहा है ऐसा यह बूढ़ा ठीक तरुण पुरुषके समान आचरण कर रहा है ॥१२०॥ इस प्रकार चलते समयकी बात १ शवितः प्रहरणं येषां ते शाक्तिकाः । २ यष्टिहेतिकैः । ३ कौन्तिकाः । ४ असिहेतिकाः । ५ प्रधावनैः । ६ चलत्कञ्चुक । ७ पुरोगामिनः । ८ भो विगतभयाः । ९ बालकान् । डिम्भकान् ल०, द०, इ०, अ०, प०, स०। १० हस्तिमुख्पात् । ११ गमनम् । पन्थान-ले० । १२ मार्गमध्ये । १३ सारथेः । 'नियन्ता प्राजिता यन्ता सूतः क्षत्ता च सारथिः ।' इत्यभिधानात् । १४ उत्तानितः । १५ उष्ट्रः । १६ भीति गतः । १७ प्रतिकूलम् । अभिमुखमित्यर्थः । १८ प्रपातस्तु तटोभृगुः । १९ कञ्चुकी । २० युवा । २१ जानाति । २२ पलितप्रतीकारार्थ प्रयुक्तौषधविशेषरजित । २३ शफरोम् । 'कट्रिनी शफरी समे' इत्यभिधानात् । २४ अनुगच्छन् । २५ वृद्धाः । 'प्रवाः स्थविरो वृद्धो जोनो जीर्णो जरत्नपि' इत्यभिधानात् । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व ततोऽवरोधनवधूमुखच्छायाविधिनि । मध्यन्दिनातपे सम्राट् संप्राप शिबिरान्तकम् ॥१२२॥ छत्र रत्नकृतच्छायो दिव्यं रथमधिष्ठितः । न तदातपसंबाधां विदामास विशांपतिः ॥१२३॥ वर्षीयोभिरथासन्नै रारब्धसु खसंकथः । प्रयातमपि नावानं विवेद भरताधिपः ॥१२४॥ नोवातः कोऽप्यभूदङ्गे रथाङ्गपरिवर्तनैः । रथवेगेऽपि नास्याभूत् क्लेशो दिव्यानुभावतः ॥१२५॥ रथवेगानिलोदस्तं व्यायतं तद्ध्वजांशुकम् । पश्चादागामिसैन्यानामिव मार्गमसूत्रयत् ॥१२६॥ रथोद्धतगतिक्षोभादुद्भूताङगपरिश्रमाः । कथं कथमपि प्रापन् रथिनोऽन्ये रयं प्रभोः ॥१२७॥ "तमवशेषमध्वन्यस्तरङ्गैरत्यवाहयन्। सादिनः प्रभूणा साधं शिविरं प्रविविक्षवः ॥१२८॥ दूरादुप्यकुटीभेदानुत्थितान् प्रभुरक्षत । सेनानिवेशममितः सौधशोभापहासिनः ॥१२९॥ रौप्यदण्डेषु विन्यस्तान् विस्तृतान् पटमण्डपान् । सोऽपश्यज्जनतातापहारिणः सुजनानिव ॥१३०॥ किमंतानि स्थलाब्जानि हंसयूथान्यमूनि वा। इत्याशङकय स्थूलाग्राणि दूराद्ददृशिरे जनैः ॥१३॥ सामन्तानां निवेशेषु कायमानानि नैकधा । निवेशितानि विन्यासैनिदध्यो प्रभुरग्रतः ॥१३२॥ परितः कायमानानि वीक्ष्य कण्टकिनीतीः । निष्कण्टके निजे राज्ये मेने तानेव कण्टकान् ॥१३३॥ चीतसे जिन्हें मार्गका परिश्रम भी मालम नहीं हुआ है ऐसे सैनिक लोग सेनापतिके द्वारा पहलेसे ही तैयार किये हुए शिबिर अर्थात् ठहरनेके स्थानपर जा पहुँचे ॥ १२१ ॥ तदनन्तर जब मध्याह्नका सूर्य अन्तःपुरको स्त्रियोंके मुखको कान्तिको मलिन कर रहा था तब सम्राट भरत शिबिरके समीप पहुँचे ।। १२२ ।। जिनपर छत्ररत्नके द्वारा छाया की जा रही है और जो देवनिर्मित सुन्दर रथपर बैठे हुए हैं ऐसे महाराज भरतको उस दोपहरके समय भी गरमीका कुछ भी दुःख मालूम नहीं हुआ था ।।१२३॥ जिन्होंने समीपमें चलनेवाले वृद्ध जनोंके साथ-साथ अनेक प्रकारकी कथाएँ प्रारम्भ की हैं ऐसे भरतेश्वरको बीते हुए मार्गका भी पता नहीं चला था ॥१२४॥ दिव्य सामर्थ्य होनेके कारण रथके पहियोंको चालसे उनके शरीरमें कुछ भी उद्घात ( दचका ) नहीं लगा था और न रथका तीव्र वेग होनेपर भी उनके शरीरमें कुछ क्लेश हुआ था ॥१२५॥ रथके वेगसे उत्पन्न हुए वायुसे ऊपरकी ओर फहराता हुआ उनकी ध्वजाका लम्बा वस्त्र ऐसा जान पड़ता था मानो पीछे आनेवाली सेनाके लिए मार्ग ही सूचित कर रहा हो ।।१२६।। रथकी उद्धत गतिके क्षोभसे जिनके अंग-अंगमें पीड़ा उत्पन्न हो रही है ऐसे रथपर सवार हुए अन्य राजा लोग बड़ी कठिनाईसे महाराज भरतके रथके समीप पहुँच सके थे ॥१२७।। जो घुड़सवार लोग महाराज भरतके साथ ही शिबिरमें प्रवेश करना चाहते थे उन्होंने बचे हुए मार्गको अपने उन्हीं चलते हुए श्रेष्ठ घोड़ोंसे बड़ी शीघ्रताके साथ तय किया था ॥ १२८ ।। जो राजभवनोंकी शोभाकी ओर भी हँस रहे हैं ऐसे शिबिरके चारों ओर खड़े किये हुए रावटी तम्बू आदि डेराओंको महाराज भरतने दूरसे ही देखा ॥१२९॥ उन्होंने चाँदीके खम्भोंपर खड़े किये हुए बहुत बड़े-बड़े कपड़ेके उन मण्डपोंको भी देखा था जो कि सज्जन पुरुषोंके समान लोगोंका सन्ताप दूर कर रहे थे ॥१३०॥ क्या ये स्थलकमल हैं अथवा हंसोंके समूह हैं इस प्रकार आशंका कर लोग दूरसे ही उन तम्बुओंके अग्रभागोंको देख रहे थे ॥ १३१ ॥ सामन्त लोगोंकी ठहरनेकी जगहपर अनेक प्रकारकी रचना कर जो तम्बू वगैरह बनाये गये थे उन्हें भी महाराज भरतने सामनेसे देखा था ॥ १३२ ॥ तम्बुओंके चारों ओर जो कटीली १ दिनाधिपे ट० । मध्याह्नसूर्ये । २ विविदे। ३ कुलवृद्धादिभिः । ४ मुख ल०। ५ अतिदूरं गतम् । ६ पीडा। ७ रथचक्रभ्रमणः। ८ क्लमः ट० । श्रमः। ९ उद्धतम्। १० अदर्शयत्। ११ अध्वनि साधुभिः । १२ अतिक्रम्य प्रापत्। १३ प्रवेष्टुमिच्छवः । १४ सेनारचनायाः समन्तात् । १५ पटकुटयाग्राणि । 'दूष्यं स्थूलं पटकुटीगुणलपनिश्रेणिका तुल्या' इति वैजयन्ती। १६ कुटीभेदाः । १७ नानाप्रकारा । १८ ददर्श । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० आदिपुराणम् । तरुशाखाग्रसंसक्त पर्याणादि परिच्छदान् । स्कन्धावाराद् बहिः कांश्चिदावासान् प्रभुरैक्षत ॥१३४॥ बहिर्निवेशमित्यादीन् विशेषान् स विलोकयन् । प्रवेशे शिविरस्यास्य महाद्वारमथासदत् ॥१३५॥ तदतीत्य समं सैन्यैः संगच्छन् किंचिदन्तरम् । महाब्धिसमनिर्घोषमाससाद वणिक्पथम् ॥ १३६ ॥ कृतोपशोभमाबद्धतोरणं चित्रकेतनम् । वणिग्भिरूडरत्नार्थं स जगाहे वणिक्पथम् ॥१३७॥ प्रत्यापणमसौ तत्र रत्नराशीन्निधीनिव । पश्यन् मेने निधीयत्तां प्रसिद्धचैव तथास्थिताम् ॥१३८॥ समौक्तिकं स्फुरद्रत्नं जनतोत्कलिकाकुलम् । रथा वणिक्पथाम्भोधिं पोता इव ललङ्घिरं ॥ १३९॥ चलदश्वीयकल्लोलैः स्फुरन्निस्त्रिशरोहितैः । राजमार्गोऽम्बुधेलीलां महेभमकरैरधात् ॥ १४०॥ राजन्यकेन संरुद्धः समन्तादानृपालयम् । तदासौ विपणीमार्गः सत्यं राजपथोऽभवत् ॥ १४१ ॥ ततः पर्यन्तविन्यस्त रत्नभासुरतोरणम् । रथकव्यां परिक्षेपकृतबाह्यपरिच्छदम् ॥१४२॥ आरुध्यमानमश्वीत्रैर्हास्तिकेनातिदुर्गमम् । बहुनागवनं " जुष्टं " कलभैश्च करेणुभिः ॥ १४३॥ छत्रषण्डकृतच्छायं महोद्यानमिव ववचित् । ववचित्सामन्तमण्डल्या रचितास्थानमण्डलम् ॥१४४॥ बनायी गयी थीं उन्हें देखकर महाराज भरतने अपने निष्कण्टक राज्य में ये ही काँटे हैं ऐसा माना था । भावार्थ भरत के राज्य में बाड़ी के काँटे छोड़कर और कोई काँटे अर्थात् शत्रु नहीं थे ।। १३३ ॥ जहाँपर वृक्षोंकी डालियोंके अग्र भागपर घोड़ोंके पलान आदि अनेक वस्तुएँ टॅगी हुई हैं और जो शिबिरके बाहर बने हुए हैं ऐसे कितने ही डेरे महाराज भरतने देखे ।। १३४ ।। इस प्रकार शिबिरके बाहर बनी हुई अनेक प्रकारकी विशेष वस्तुओं को देखते हुए महाराज शिबिर में प्रवेश करनेके लिए उसके बड़े दरवाजेपर जा पहुँचे ।। १३५ ।। बड़े दरवाजेको उल्लंघन कर सैनिकोंके साथ कुछ दूर और गये तथा जिसमें समुद्र के समान गम्भीर शब्द हो रहे हैं ऐसे बाजार में वे जा पहुँचे ।। १३६ ।। जिसकी बहुत अच्छी सजावट की गयी है जिसमें तोरण बँधे हुए हैं, अनेक प्रकारकी ध्वजाएँ फहरा रही हैं और व्यापारी लोग जिसमें रत्नोंका अर्घ लेकर खड़े हैं ऐसे उस बाजार में महाराजने प्रवेश किया ।। १३७ ॥ वहाँपर प्रत्येक दूकानपर निधियों के समान रत्नोंकी राशि देखते हुए महाराज भरतने माना था कि निधियोंकी संख्या प्रसिद्धि मात्र से ही निश्चित की गयी है । भावार्थ - प्रत्येक दूकानपर रत्नोंकी राशियाँ देखकर उन्होंने इस बातका निश्चय किया था कि निधियोंकी संख्या नौ है यह प्रसिद्धि मात्र है, वास्तव में वे असंख्यात हैं ।। १३८ ॥ जो मोतियोंसे सहित है, जिसमें अनेक रत्न देदीप्यमान हो रहे हैं और जो मनुष्योंके समूहरूपी लहरोंसे व्याप्त हो रहा है ऐसे उस बाजाररूपी समुद्रको रथोंने जहाज के समान पार किया था ।। १३९ ।। उस समय वह राजमार्ग चलते हुए घोड़ोंके समुदायरूपी लहरोंसे, चमकती हुई तलवाररूपी मछलियोंसे और बड़े-बड़े हाथीरूपी मगरोंसे ठीक समुद्रकी शोभा धारण कर रहा था || १४० ।। उस समय वह बाजारका रास्ता महाराजके तम्बू तक चारों ओरसे अनेक राजकुमारोंसे भरा हुआ था इसलिए वास्तवमें राजमार्ग हो रहा था ।। १४१ ॥ तदनन्तर जिसके समीप ही रत्नोंके देदीप्यमान तोरण लग रहे हैं, घेरकर रखे हुए रथोंके समूहसे जिसकी बाहरकी शोभा बढ़ रही है - जो घोड़ोंके समूहसे भरा हुआ है, हाथियोंके समूहसे जिसके भीतर जाना कठिन है, जो हाथियों की बड़ी भारी सेनासे सुशोभित है, हाथियोंके बच्चे और हथिनियोंसे भी भरा हुआ है । अनेक छत्रोंके समूहकी छाया होने से १ पल्यनादिपरिकरान् । २ शिखरात् । ३ कटकाद् बहिः । ४ धृतरत्नार्घम् । ५ प्रमाणम् । ६. नवनिधिरूपेण स्थिताम् । तथास्थितान् ल० । ७. तरङ्गाकुलम् । ८. मत्स्यविशेषैः । ९. रथसमूहपरिवेष्टेन कृतबाह्यपरिकरम् । १०. ईषदसमाप्तनागवनम् । नागवनसदृशमिति यावत् । ११ सेवितम् । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व प्रविशद्भिश्व निर्यदभिरपर्यन्तैर्नियोगिभिः । महाब्धेरिव कल्लोलैस्तरमाविवध्वनि ॥ १४९ ॥ जनतोत्सारण व्यग्र महादौवारपालकम् । कृतमयनिषं वाग्देव्येव कृतास्पदम् ॥ १४६ ॥ चिरानुभूतमप्येवमपूर्वमिव शोभया । नृपो नृपाङ्गगं पश्यन् किमप्यासीत् सविस्मयः ॥ १४७ ॥ निधयो यस्य पर्यन्तं मध्ये रत्नान्यनन्तशः । महतः शिविरस्यास्त्र विशेष कोऽनुवर्णयेत् ॥ १४८॥ शार्दूलविक्रीडितम् स श्रीमानिति विश्वतः स्वशिबिरं लक्ष्म्या निवासायितं पश्यन्नात्तष्टतिर्विलङ्घ्य विशिखाः' संभ्राम्यत्प्रतिहाररुद्व जनतासंबाधमुल्केतनं - प्राविक्षत् कृतसंनिवेशमचिरादात्मालयं श्रीपतिः ॥१४९॥ तत्रापिःकृतमङगले सुरसरिद्रीचीभुवा वायुना "मृगणवेदिके विकिरता तापच्छिदः शीकरान् । शस्ते वस्तुनि विस्तृते स्थपतिना सद्यः समुत्थापिते स्वर्गापहासिश्रियः । लक्ष्मीमान् सुखभावसन्नधिपतिः प्राचीं दिशं निर्जयन् ॥ १५०॥ ३१ जो कहीं पर किसी बड़े भारी बगीचाके समान जान पड़ता है और कहीं अनेक राजाओंकी मण्डली से युक्त होनेके कारण सभामण्डपके समान मालूम होता है, जो प्रवेश करते हुए और बाहर निकलते हुए अनेक कर्मचारियोंसे लहरोंसे शब्द करते हुए किसी महासागर के किनारे के समान जान पड़ता है । जहाँपर बड़े-बड़े द्वारपाल लोग मनुष्योंकी भीड़को दूर हटाने में लगे हुए हैं, जहाँ अनेक प्रकारके मंगलमय शब्द हो रहे हैं और इसीलिए जो ऐसा जान पड़ता है मानो सरस्वती देवीने ही उसमें अपना निवास कर रखा हो तथा जो चिरकालसे अनुभूत होनेपर भी अपनी अनोखी शोभासे अपूर्वके समान मालूम हो रहा है ऐसे राजभवनके आँगनको देखते हुए महाराज भरत भी कुछ-कुछ आश्चर्यचकित हो गये थे ।। १४२ - १४७ ।। जिसके चारों ओर निधियाँ रखी हुई हैं और बीच में अनेक प्रकारके रत्न रखे हुए हैं ऐसे उस बड़े भारी शिबिरकी विशेषताका कौन वर्णन कर सकता है ।। १४८ ।। इस प्रकार लक्ष्मीके निवासस्थानके समान सुशोभित अपने शिबिरको चारों ओरसे देखते हुए जो अत्यन्त सन्तुष्ट हो रहे हैं ऐसे लक्ष्मीपति श्रीमान् भरतने, चारों ओर दौड़ते हुए द्वारपालोंके द्वारा जिसमें मनुष्योंकी भीड़IT उपद्रव दूर किया जा रहा है, जिसपर अनेक पताकाएँ फहरा रही हैं, और जिसमें अनेक प्रकारकी रचना की गयी है ऐसे अपने तम्बू में शीघ्र ही प्रवेश किया || १४९ || जिसमें मंगलद्रव्य रखे हुए हैं, गंगा नदीकी लहरोंसे उत्पन्न हुए तथा सन्तापको दूर करनेवाली जलकी बूँदोंको बरसाते हुए वायुसे जिसके आँगनकी वेदी साफ की गयी है, जो प्रशंसनीय है, विस्तृत है तथा स्थपति ( शिलावट ) रत्नके द्वारा बहुत शीघ्र खड़ा किया गया है, बनाया गया है ऐसे तम्बू में पूर्व दिशाको जीतनेवाले, निधियोंके स्वामी श्रीमान् भरतने सुखपूर्वक निवास किया १ रथ्याः । ' रथ्या प्रतोली विशिखा' इत्यमर: । २ विहितसम्यगरचनम् । ३ भरतेश्वरः । ४ सम्मार्जित । ५ गृहे । ६ पूर्वाम् । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् राज्ञामावसथेषु शान्तजनताक्षोभेपु पीताम्भसा मश्वानां पटमण्डपेषु निवहे स्वैरं तृणग्रासिनि । गङ्गातीरसरोवगाहिनि वनेप्वालानिते हास्तिके __ जिष्णोस्तत्कटकं चिरादिव कृतावासं तदा लक्ष्यते ॥१५१॥ तवासीनमुपायनैः कुलधनैः कन्याप्रदानादिभिः प्राच्या मण्डलभूभुजः समुचितैराराधयन् साधनैः । संरुद्वाः प्रविहाय मानमपरे प्राणंशिषुश्चक्रिणं दरादानतमौलयो जिनमिव प्राज्योदयं नाकिनः ॥१५२॥ इत्याचे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भरतराजविजय. प्रयाणवर्णनं नाम सप्तविंशतितमं पर्व ॥२७॥ ॥१५०॥ जिस समय राजाओंके तम्बुओंमें मनुष्योंकी भीड़का क्षोभ शान्त हो गया था, घोड़ोंके समूह जल पीकर कपड़ेके बने हुए मण्डपोंमें अपने इच्छानुसार घास खाने लगे थे, और हाथियोंके समूह गंगा नदीके किनारेके सरोवरोंमें अवगाहन कराकर-स्नान कराकर-वनोंमें बाँध दिये गये थे उस समय विजयी महाराज भरतको वह सेना ऐसी जान पड़ती थी मानो चिरकालसे ही वहाँ रह रही हो ॥१५१॥ जिस प्रकार श्रेष्ठ महिमाको धारण करनेवाले तथा समवसरण सभामें विराजमान जिनेन्द्रदेवकी देव लोग आराधना करते हैं उसी प्रकार श्रेष्ठ वैभवको धारण करनेवाले तथा उस मण्डपमें बैठे हुए महाराज भरतको पूर्वदिशाके राजाओंने अपनी कुल-परम्परासे आया हुआ धन भेटमें देकर, कन्याएँ प्रदान कर तथा और भी अनेक योग्य वस्तुएं देकर उनकी आराधना-सेवा की थी। इसी प्रकार उनकी सेनाके द्वारा रोके हए अन्य कितने ही राजाओंने अहंकार छोड़कर दूरसे ही मस्तक झुकाकर चक्रवर्तीके लिए प्रणाम किया था ॥१५२॥ इस प्रकार आप नामसे प्रसिद्ध भगवजिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण श्रीमहापुरागसंग्रह के भाषानुवादमें भरतराजका राजाओंकी विजयके लिए प्रयाण करना इस बातका वर्णन करनेवाला सत्ताईसवाँ पर्व समाप्त हुआ। १ सेनाभिः । २ परिवृताः । ३ नमस्कुर्वन्ति स्म । ४ प्रचुराभ्युदयम् । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व अथान्येद्युदिनारम्भे कृतप्राभातिकक्रियः । प्रयागमकरोच्चक्री चक्ररत्रानुमार्गतः ॥१॥ अलङ्ध्यं चक्रमाक्रान्तपरचक्रपराक्रमम् । दण्डव दण्डितारातियमस्य पुरोऽभवत् ॥२॥ रक्ष्यं देवपहस्रेण चक्र दा दुश्च तादृशः । जयाङ्गमिदमेवास्य द्वयं शेषः परिच्छदः ॥३॥ विजयाधप्रतिस्पर्धिवर्माणं यागहस्तिनम् । प्रतस्थे प्रभुरारुह्य नाम्ना विजयपर्वतम् ॥४॥ प्राची दिशमथो जेतुमापयोधेस्तमुद्यतम् । नूनं स्तम्बेरमव्याजादूहे विजयपर्वतः ॥५॥ सुरेभं शरदभ्राभमारूढो जयकुञ्जरम् । स रंजे दीप्तमुकुटः सुरभं' सुरराडिव ॥६॥ सितातपत्रमस्योच्च विवृतं श्रियमादधे । यशसां प्रसवागारमिव तजम्भितम् ॥७॥ लक्ष्मीप्रहासविशदा चामराली समन्ततः । व्यधूयतास्य विध्वस्ततापा ज्योत्स्नेव शारदी ॥८॥ जयद्विरदमारूडो ज्वलजैत्रास्त्रभासुरः । जयलक्ष्मीकटाक्षागामगमत् स शरव्यताम् ॥९॥ महामुकुटबद्धानां सहस्राणि समन्ततः । तमनुप्रचलन्ति स्म सुराधिपमिवामराः ॥१०॥ __ अथानन्तर-दूसरे दिन सवेरा होते ही जो प्रातःकालके समय करने योग्य समस्त क्रियाएँ कर चुके हैं ऐसे चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्नके पीछे-पीछे प्रस्थान किया ॥१॥ शत्रु-समूहके परा-' क्रमको नष्ट करनेवाला तथा स्वयं दूसरों के द्वारा उल्लंघन न करने योग्य चक्र रत्न और शत्रुओंको दण्डित करनेवाला दण्डरत्न, ये दोनों ही रत्न चक्रवर्तीकी सेनाके आगे-आगे रहते थे ॥२॥ चक्ररत्न एक हजार देवोंके द्वारा रक्षित था और दण्डरत्न भी इतने ही देवोंके द्वारा रक्षित था। वास्तवमें चक्रवर्तीकी विजयके कारण ये दो हो थे, शेष सामग्री तो केवल शोभाके लिए थी ॥३।। अबकी बार चक्रवर्तीने, जिसका शरीर विजया पर्वतके साथ स्पर्धा कर रहा है ऐसे विजयपर्वत नामके पूज्य हाथीपर सवार होकर प्रस्थान किया था ॥४॥ उस समय ऐसा मालूम होता था मानो समुद्र पर्यन्त पूर्व दिशाको जीतने के लिए उद्यत हए महाराज भरतको उस हाथीके छलसे विजया पर्वत ही धारण कर रहा हो ।।५।। जिस प्रकार देदीप्यमान मुकुटको धारण करनेवाला इन्द्र ऐरावत हाथीपर चढ़ा हुआ सुशोभित होता है उसी प्रकार देदीप्यमान मुकुटको धारण करनेवाला भरत शरदऋतुके बादलोंके समान सफेद और देवोंके द्वारा दिये हुए उस विजयपर्वत हाथीपर चढ़ा हुआ सुशोभित हो रहा था ॥६॥ भरतेश्वरके ऊपर लगा हुआ सफेद छत्र ऐसी शोभा धारण कर रहा था मानो छत्रके बहानेसे यशकी उत्पत्तिका स्थान ही हो ॥७॥ लक्ष्मीके हास्यके समान निर्मल और शरदऋतुकी चाँदनीके समान सन्तापको नष्ट करनेवाली चमरोंकी पंक्ति महाराज भरतके चारों ओर ढोली जा रही थी ॥८॥ विजय नामके हाथीपर आरूढ़ हुए और विजय प्राप्त करानेवाले प्रकाशमान अस्त्रोंसे देदीप्यमान होनेवाले भरतेश्वर जयलक्ष्मीके कटाक्षोंके लक्ष्य बन रहे थे । भावार्थ - उनकी ओर विजयलक्ष्मी देख रही थी ॥९॥ जिस प्रकार देव'लोग इन्द्रके पीछे-पीछे चलते हैं उसी प्रकार हजारों मुकुटबद्ध बड़े-बड़े राजा लोग चारों ओर भरत महाराजके पीछे-पीछे चल रहे थे ॥१०॥ 'आज १ अनुगमनात् । २ अरिनिकर । परराष्ट्र वा। ३ चक्रिणः । ४ परिकरः । ५ विजयागिरिणा स्पर्धमानदेहम् । ६ पूजोपेतगजम् । ७ ननु ल०। ८ धरति स्म । ९ विजयाईगिरिः । १० सुशब्दम् । ११ ऐरावतम् । १२ क्षत्रव्याज । १३ लक्ष्यताम् । 'लक्ष लक्ष्यं शरव्यं च' इत्यभिधानात् । १४ अपरिमिता इत्यर्थः । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् दरमद्य प्रयातव्यं निवेष्टव्यमुपार्णवम् । त्वरध्वमिति सेनान्यः सैनिकानुदतिष्टयन् ॥११॥ त्वर्यतां प्रस्थितो देवो दवीयश्च प्रयाणकम् । बलाधिकारिणामिन्थं वचो बलमचुक्षुभत् ॥१२॥ अद्यासिन्धु प्रयातव्यं गङ्गाद्वारे निवेशनम् । संश्राव्यो मागधोऽद्यैव विलध्य पयसां निधिम् ॥१३॥ समुद्रमद्य पश्यामः समुद्रङ्गत्तरङ्गकम् । समुद्रं लङ्घतेऽद्यैव समुद्रं शासनं विभोः ॥१४॥ अन्योन्यस्येति संजल्पैः संप्रास्थिषत सैनिकाः । प्रयाणभेरीप्रध्यानस्तदोद्यन् वामदिध्वन' ॥१५॥ ततः प्रचलिता सेना मानुगङ्गतायतिः । मिमानेव तदायाम पाथे प्रथितध्वनिः ॥१६॥ सचामरा चलढुंसां सबलाको पताकिनी । अन्यियाय चमुर्गङ्गा ससुरा तरङ्गिणीम् ॥१७॥ राजहंसः कृताध्यामा क्वचिदप्यस्थलद्गतिः । चमरधि प्रति प्रायान् “सा द्वितीयव जाह्नवी ॥१८॥ "विपरीतामतवृत्ति निम्नगा मुश्नतस्थितिः । श्रिमार्गगां व्यजेष्टासौ पृतना बहुमागंगा ॥१९॥ बहुत दूर जाना है और समुद्रके समीप ही ठहरना है इसलिए जल्दी करो' इस प्रकार सेनापति लोग सैनिकोंको जल्दी-जल्दी उठा रहे थे ।।११।। 'अरे जल्दी करो, महाराज प्रस्थान कर गये, और आजका पड़ाव बहुत दूर है' इस प्रकार सेनापतियोंके वचन सेनाको क्षोभित कर रहे थे ॥१२॥ 'आज समुद्र तक चलना है, गंगाके द्वारपर ठहरना है और आज ही समुद्रको उल्लंघन कर मागधदेवको वश करना है ॥१३।। आज हम लोग, जिसमें ऊंची-ऊँची लहरें उठ रही हैं ऐसे समुद्रको देखेंगे और आज ही समुद्रको उल्लंघन करनेके लिए महाराजकी मुहर सहित आज्ञा है' ॥१४॥ इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करते हुए सैनिकोंने प्रस्थान किया, उस समय प्रयाण-कालमें बजनेवाले नगाड़ोंके उठे हुए शब्दने आकाशको शब्दायमान कर दिया था ॥१५॥ तदनन्तर, जिसका शब्द सब ओर फैल रहा है ऐसी वह सेना गंगा नदीके किनारेकिनारे लम्बी होकर इस प्रकार चलने लगी मानो उसकी लम्बाईका नाप करती हुई ही चल रही हो ॥१६॥ उस समय वह सेना ठीक गंगा नदीका अनुकरण कर रही थी क्योंकि जिस प्रकार गंगा नदीमें हंस चलते हैं उसी प्रकार उस सेनामें चमर ढुलाये जा रहे थे, जिस प्रकार गंगा नदीमें बगुला उड़ा करते हैं उसी प्रकार उस सेनामें ध्वजाएँ फहरायी जा रही थीं और जिस प्रकार गंगा नदी में अनेक तरंग उठा करते हैं उसी प्रकार उस सेनामें अनेक घोड़े उछल रहे थे ॥१७॥ वह सेना समुद्रकी ओर इस प्रकार जा रही थी मानो दूसरी गंगा नदी ही जा रही हो क्योंकि जिस प्रकार गंगा नदीमें राजहंस निवास करते हैं। उसी प्रकार उस सेनामें भी राजहंस अर्थात् श्रेष्ठ राजा लोग निवास कर रहे थे और जिस प्रकार गंगा नदीकी गति कहीं भी स्खलित नहीं होती उसी प्रकार उस सेनाकी गति भी कहीं स्खलित नहीं हो रही थी ॥१॥ अथवा उस सेनाने गंगा दीको जीत लिया था क्योंकि गंगा नदी विपरीत अर्थात् उलटी प्रवृत्ति करनेवाली थी ( पक्षमें वि-परीत - पक्षियोंसे व्याप्त थी ) परन्तु सेना विपरीत नहीं थी अर्थात् सदा चक्रवर्तीके आज्ञानुसार ही काम करती थी, गंगा नदी निम्नगा अर्थात् नीच पुरुषको प्राप्त होनेवाली थी ( पक्षमें ढालू स्थानकी ओर बहनेवाली थी ) परन्तु सेना उसके विरुद्ध उन्नतगा अर्थात् उन्नत पुरुष-चक्रवर्तीको प्राप्त होनेवाली थी और इसी प्रकार गंगा त्रिमार्गगा अर्थात् तीन मार्गोसे गमन करनेवाली थी ( पक्ष में त्रिमार्गगा, यह गंगाका एक नाम है ) परन्तु १ अर्णवसमीपे । २ वेगं कुरुध्वम् । ३ दूरतरम् । ४ आ समुद्रम् । ५ साधनीयः । संसाध्यो इ०, अ०, द०, ल०। ६ उच्चैश्चलद्वीचिकम् । ७ समुद्रलङ्घनेऽद्यैव ल०, द०, इ०। ८ मुद्रया सहितम् । ९ गन्तुमुपक्रान्तवन्तः । १० खम् । ११ ध्वनिमकारयत् । १२ विसकण्ठिकासहितम् । १३ सपताकावती। १४ तरङ्गवतीम् । १५ अगच्छत् । १६ पक्षिभिः परिवृताम् । प्रतिकूलामिति ध्वनिः । १७ विपरीत-वृत्तिरहितेत्यर्थः । १८ नोचपथगामिति ध्वनिः । पथगामिछत् । १६ पक्षिमिकारयत् । १२वल, द०, इ. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व अनुगङ्गातटं यान्ती ध्वजिनी सा ध्वजांशुकैः । वररेणुभिराकीर्णं संममार्जेब खाङ्गणम् ॥२०॥ दुर्विगाहा महाग्राहाः सैन्यान्युत्तरुरन्तरे । गङ्गानुगा धुनीब्रह्वीबहुराजकुलस्थितीः ॥२१॥ मार्गे बहुविधान देशान् सरितः पर्वतानपि । वनधीन वनदुर्गाणि खनीरप्यत्यगात् प्रभुः ॥२२॥ अगोष्पदेष्वरण्येषु दृशं व्यापारयन् विभुः। भूमिच्छिन्द्रपिधानाय क्षणं यत्नमिवातनोत् ॥२३॥ पथि प्रणेमुरागस्य संभ्रान्ता मण्डलाधिपाः । दण्डोपनतवृत्तस्य विषयोऽयमिति प्रभुम् ॥२४॥ स चक्र धेहि राजेन्द्र सधुरं प्राज सारथे । संजल्प इति नास्यासीदयत्नावनतद्विषः ॥२५॥ प्रतियोद्धमशक्तास्तं प्रथनेषु जिगीषवः । तत्पदं प्रणतिव्याजात् समौलिभिरताडयन् ॥२६॥ "विभुत्वमरिचक्रेषु भूपरागानुरम्जनम् । स्वचक्र इव सोऽधत्त महतां चित्रीहितम् ॥२७॥ सेना अनेक मार्गोसे गमन करनेवाली थी ॥१९॥ गंगानदीके किनारे-किनारे जाती हुई बहे सेना अपनी फहराती हुई ध्वजाओंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो वनकी धूलिसे भरे हुए आकाशरूपी वजाओंके वस्त्रोंसे साफ ही कर रही हो ॥२०॥ महाराज भरतकी सेनाओंने गंगाकी ओर आनेवाली उन अनेक नदियोंको पार किया था जो राजकलकी स्थितिके समान जान पडती थीं क्योंकि जिस प्रकार राजकुलकी स्थिति दुर्विगाह अर्थात् दुःखसे जाननेके योग्य होती है उसी प्रकार वे नदियाँ भी दुर्विगाह अर्थात् दुःखसे प्रवेश करने योग्य थीं और राजकुलकी स्थिति जिस प्रकार महाग्राह अर्थात् महास्वीकृतिसे सहित होती है उसी प्रकार वे नदियाँ भी महाग्राह अर्थात् बड़े-बड़े मगर-मच्छोंसे सहित थीं ॥२१॥ धनवान् महाराज भरत मार्गमें पड़ते हुए अनेक देश, नदियाँ, पर्वत, वन, किले और खान आदि सबको उल्लंघन करते हुए आगे चले जा रहे थे ।।२२।। गाय आदि जानवरोंके संचारसे रहित अर्थात् अगम्य वनों में दृष्टि डालते हुए भरतेश्वर ऐसे जान पड़ते थे मानो पृथिवीके छिद्रोंको टाँकनेके लिए क्षण-भरके लिए न यत्न ही कर रहे हों ॥२३॥ मार्गमें घबड़ाये हुए अनेक मण्डलेश्वर राजा भरतको यह सोचकर प्रणाम कर रहे थे कि यह देश दण्डरत्नके धारकका है ।।२४॥ मार्गमें महाराज भरतेश्वरके समस्त शत्रु बिना प्रयत्नके हो नम्रीभूत होते जाते थे इसलिए उन्हें कभी यह शब्द नहीं कहने पड़ते थे कि हे राजेन्द्र, आप चक्ररत्न धारण कीजिए और हे सारथे, तुम रथ चलाओ ॥२५।। जीतनेकी इच्छा करनेवाले अन्य कितने ही राजा लोग युद्ध में भरतेश्वरसे लड़नेके लिए समर्थ नहीं हो सके थे इसलिए नमस्कारके बहाने अपने मुकुटोंसे ही उनके पैरोंकी ताड़ना कर रहे थे ॥२६॥ महाराज भरत जिस प्रकार अपने राज्यमें विभुत्व अर्थात् ऐश्वर्य धारण करते थे उसी प्रकार शत्रुओंके राज्यों में भी विभुत्व अर्थात् पृथिवीका अभाव धारण करते थे-उनकी भूमि छीन लेते थे, (विगत भूर्येषां तेषां भावः विभुत्वम् ) और जिस प्रकार अपने राज्यमें भूप-रागानुरंजन अर्थात् १ महानक्राः, पक्षे महास्वीकाराः । २ नदीः । ३ राजकुलस्थितेः समाः [प्रकारार्थे बहुच् ] । ४ बहुसंख्यान् । बहुस्थितान् ल०, इ० । बहुतिथान् ट०। ५ सरोवरान् । धनवान् ल०, ५०, इ० । बलवान् अ०, स० । ६ अगम्येषु । ७ भूगर्ताच्छादनाय । ८ दण्डेन, प्राप्तं वृत्तं यस्य स तस्य । ९ प्रणामः । १० प्रसिद्धस्त्वम् । ११ धारय । १२ यानमुखम् । 'धू: स्त्री क्लीबे यानमुखम्' इत्यभिधानात् । १३ प्रेरय, 'अज प्रेरणे च' । १४ युद्धेषु । प्रधनेषु ल०, द०, इ०, प०, स०, अ० । १५ प्रभुत्वम्, व्यापित्वं च । १६ स्वराष्ट्रपक्षे भूपानामनुरागरञ्जनम् । अरिराष्ट्रपक्षे भुवः परागरञ्जनम् । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् । संध्यादिविषये नास्य समकक्षो हि पार्थिवः। षाडगुप्यमत एवास्मिन् चरितामभूत् प्रभो ॥२८॥ प्रतिराष्ट्रमुपानीतप्राभृतान् विषयाधिपान् । संभावयन् प्रसादेन सोऽत्य गाद् विषयान् बहून् ॥२६॥ नास्त्रे व्यापारितो हस्ती मौवी धनुषि नार्पिता । केवलं प्रभुशक्त्यैव प्राची दिग्विजिताऽमुना ॥३०॥ गोकुलानामुपान्तेषु सोऽपश्यद् युववल्लवान् । बनवलीभिराबद्धजूटकान् गोऽभिरक्षिणः ॥३१॥ भन्थाकर्षश्रमोदभूतस्वेदबिन्दुचिताननाः । मध्नती: सकुचोत्कम्पं सलीलत्रिकनर्तनः ॥३२॥ मन्थरज्जुसमाकृष्टिक्लान्तबाहूः' इलथांशुकाः । स्रस्तस्तनांशुका लक्ष्यत्रिवलीभङ गुरोदराः ॥३३॥ क्षुब्धाभिघातोच्चलितस्थलगोरसबिन्दुभिः । विरलैरङ्गसंलग्नः शोभा कामपि पुष्णतीः ॥३४॥ मन्यारवानुसारेण किंचिदारब्धमूर्छनाः । विस्रस्तकबरीबन्धाः कामस्येव पताकिकाः ॥३५॥ "गेष्टाङ्गणेषु सल्लापैः स्वैरमारब्धमन्थनाः । प्रभुर्गापवधूः पश्यन् किमयासीत समुन्सुकः ॥३६॥ वने वनगजैर्जुष्टे प्रभुमेनं वनचराः । दन्तैर्वनकरीन्द्राणामद्राक्षुः सह मौक्तिकैः ॥३७॥ राजाओं के प्रेमपूर्ण अनुरागको धारण करते थे उसी प्रकार शत्रुओंके राज्योंमें भी भू-परागानुरंजन अर्थात् पृथिवीकी धूलिसे अनुरंजन धारण करते थे, शत्रुओंको धूलिमें मिला देते थे, सो ठीक ही है, क्योंकि महापुरुषोंकी चेष्टाएँ आश्चर्य करनेवाली होती ही हैं ॥२७।। सन्धि आदि गुणोंके विषयमें कोई भी राजा महाराज भरतके बराबर नहीं था इसलिए सन्धि आदि छहों गण उन्हीं में चरितार्थ हए थे। भावार्थ - कोई भी राजा इनके विरुद्ध नहीं था इसलिए इन्हें किसीसे सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और आश्रय नहीं करने पड़ते थे ॥२८॥ प्रत्येक देशमें भेंट लेकर आये हुए वहाँके राजाओंका बड़ी प्रसन्नतासे आदर-सत्कार करते हुए महाराज भरत बहुत-से देशोंको उल्लंघन कर आगे बढ़ते जाते थे ।।२९॥ भरतेश्वरने न तो कभी तलवारपर अपना हाथ लगाया था और न कभी डोरी ही धनुषपर चढ़ायी थी। उन्होंने केवल अपनी प्रभुत्वशक्तिसे ही पूर्व दिशाको जीत लिया था ॥३०॥ उन्होंने गोकुलोंके समीप ही गायोंकी रक्षा करनेवाले तथा वनकी लताओंसे जिन्होंने अपने शिरके बालोंका जूड़ा बाँध रखा है ऐसे तरुण ग्वाला देखे ॥३१॥ कढ़नियोंके खींचनेके परिश्रमसे उत्पन्न हुए पसीनेकी बूंदोंसे जिनके मुख व्याप्त हो रहे हैं, जो लीलापूर्वक नितम्बोंको नचा-नचाकर स्तनोंको हिलाती हुई दही मथ रही हैं, कढ़नियोंके खींचनेसे जिनकी भुजाएँ थक गयी हैं, जिनके सब वस्त्र ढीले पड़ गये हैं, जिनके स्तनोंपर-का वस्त्र भी नोचेकी ओर खिसक गया है, जिनके कृश उदरमें त्रिवलीकी रेखाएँ साफ-साफ दिख रही हैं, रई ( फल ) के आघातसे उछल-उछलकर शरीरसे जहाँ-तहाँ लगी हुई दहीकी बड़ी-बड़ी बूंदोंसे जो एक प्रकारकी विचित्र शोभाको पुष्ट कर रही हैं, मन्थनसे होनेवाले शब्दोंके साथ-साथ ही जिन्होंने कुछ गाना भी प्रारम्भ किया है, जिनके केशपाशका बन्धन खुल गया है और इसीलिए जो कामदेवकी पताकाओंके समान जान पड़ती हैं, तथा गोशालाके आँगनोंमें अपने इच्छानुसार वार्तालाप करती हुई जिन्होंने दहीका मथना प्रारम्भ किया है ऐसी ग्वालाओंकी स्त्रियोंको देखते हुए महाराज भरतेश्वर कुछ उत्कण्ठित हो उठे थे ॥३२-३६॥ जंगली हाथियोंसे भरे हुए वनमें रहनेवाले भील लोगोंने जंगली हाथियों के दाँत और मोती भेंटकर महाराजके दर्शन किये थे ॥३७।। जिनका शरीर श्याम है जिनके १ सन्धिविग्रहयानासनद्वैधाश्रयानां विषये। २ समानप्रतिपत्तिकः । ३ सन्ध्यादिगुणसमूहः । ४ कृतकृत्यम् । ५ प्रभोः स०, अ०, द० । ६ नासौ ल०, द०, ई० । ७ तरुणगोपालान् । 'गोपे गोपालगोसंख्यागोदुगाभीरवल्लवाः' इत्यभिधानात् । ८ केशपाशान् । ९ मथनं कुर्वती: । १० नितम्ब । 'त्रिका कूपस्य वेमौ स्यात् त्रिक पृष्ठधरे त्रये' इत्यभिधानात् । ११ समाकर्षणग्लाना। १२ मनोज्ञ । १३ मथन । १४ स्वर विश्रवण । १५ गौस्थान । 'गोष्टं गोस्थानकम्' इत्यभिधानात् । १६ मिथो भाषणः । १७ सेविते । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व श्यामागीरनभिव्यक्तरोमराजीस्तनूदरीः । परिधान कृतालोलपल्लवव्यक्तसंवृतीः ॥३८॥ चमरीबालकाविद्ध कबरीबन्धबन्धुराः । फलिनी कलसंधमालारचितकण्ठिकाः ॥३९॥ कस्तूरिकामृगाध्यासवासिताः सुरभीम॒दः । संचिन्वतीर्वनाभोगे प्रसाधनजिवृक्षया ॥४०॥ पुलिन्दकन्यकाः सैन्यसमालोकनविस्मिताः। अव्याजसुन्दराकारा दूरादालोकयत् प्रभुः ॥४१॥ चमरीवालकान् केचित् केचित् कस्तूरिकाण्डकान् । प्रभोरुपायनीकृत्य ददृशुम्लेंच्छराजकाः ॥४२॥ तत्रान्तपालदुर्गाणां सहस्राणि सहस्रशः । लब्धचक्रधरादेशः सेनानी: समशिथ्रियत् ॥४३॥ अपूर्वरत्नसंदर्भः कुप्यसारधनैरपि । अन्तपालाः प्रभोराज्ञां सप्रणामैरमानयन् ॥४४॥ ततो विदूरमुल्लङ्ध्य सोऽध्वानं सह सेनया। गङ्गाद्वारमनुप्रापत् स्वमिवालध्यमर्णवम् ॥४५॥ बहिः समुद्रमुद्रिक्तं द्वेप्यं निम्नोपगं' जलम् । समुद्रस्येव १०निष्यन्दमब्धेराराद् व्यलोकयत् ॥४६॥ वर्षारम्भो युगारम्भे योऽभूत् कालानुभावत:११ । ततः प्रभृति संवृद्धं जल द्वीपान्तमावृणोत् ॥४७॥ अलङध्यत्वान् १२महीयस्त्वाद हीपपर्यन्तवेष्टनात् । द्वैष्यमम्बु १3समुद्रिक्तमगादुपसमुद्रताम् ॥४८॥ पश्यन्नुपसमुद्रं तं गत्वा स्थलपथेन १४सः । गङ्गोपनवेद्यन्तर्भागे१५ सैन्यं न्याविशत् ॥४९॥ शरीरपर अभी रोमराजी प्रकट नहीं हुई है, उदर भी जिनका कृश है, वस्त्रके समान धारण किये हुए चंचल पत्तोंसे जिनके शरीरका संवरण प्रकट हो रहा है, चमरी गायके बालोसे बंध हुए केशपाशोंसे जो बहुत ही सुन्दर जान पड़ती हैं, गुंजाफलोंसे बनी हुई मालाओंको जिन्होंने अपना कण्ठहार बनाया है, कस्तूरी मृगके बैठनेसे सुगन्धित हुई मिट्टीको आभूषण बनानेकी इच्छासे जो वनके किसी एक प्रदेश में इकट्ठी कर रही हैं, जिनका आकार वास्तवमें सुन्दर है और जो सेनाके देखनेसे विस्मित हो रही हैं ऐसी भीलोंकी कन्याओंको भरतने दूरसे ही देखा था ।।३८-४१।। कितने ही म्लेच्छ राजाओंने चमरो गायके बाल और कितने ही ने कस्तूरीमृगकी नाभि भेंट कर भरतके दर्शन किये थे ॥४२॥ वहाँपर सेनापतिने चक्रवर्तीकी आज्ञा प्राप्त कर अन्तपालोंके लाखों किले अपने वश किये । ॥४३॥ अन्तपालोंने अपूर्व-अपूर्व रत्नोंके समूह तथा सोना चाँदी आदि उत्तम धन भेंट कर भरतेश्वरको प्रणाम किया तथा उसकी आज्ञा स्वीकार की ॥४४॥ तदनन्तर सेनाके साथ-साथ बहत कुछ दर मार्गको व्यतीत कर वे गंगाद्वारको प्राप्त हुए और उसके बाद ही अपने समान अलंघनीय समुद्रको प्राप्त हुए ॥४५।। उन्होंने समुद्रके समीप ही; समुद्रसे बाहर उछल-उछलकर गहरे स्थानमें इकट्ठे हुए द्वीपसम्बन्धी उस जलको देखा जो कि समुद्रके निप्यन्दके समान मालूम होता था अथवा समुद्रके जलके समान ही निश्चल-स्थायी था अर्थात उपसमद्रको देखा. समद्रका जो जल उछल-उछलकर समुद्रके समीप ही द्वीपके किसी गहरे स्थाममें इकट्ठा होता जाता है वही उपसमुद्र कहलाता है । उपसमुद्र द्वीपके भीतर होता है इसलिए उसका जल द्वैप्य कहलाता है। उपसमुद्रका जल ऐसा जान पड़ता था मानो समुद्रका स्वेद ही इकट्ठा हो गया हो ।।१६।। कर्मभूमिरूप युगके प्रारम्भमें जो वर्षा हुई थी तबसे लेकर कालके प्रभावसे बढ़ता हुआ वही जल द्वीपके अन्त भाग तक पहुँच गया था ॥४७।। जो जल समुद्रसे उछल-उछलकर द्वीपमें आया था वह अलंघनीय था, बहुत गहरा था और उसने द्वीपके सब समीपवर्ती भागको घेर लिया था इसलिए वही उपसमुद्र कहलाने लगा था ॥४८॥ उस उपसमुद्र को देखते हुए भरतने सुखकर मार्गसे जाकर १ अभ्यन्तरप्रदेशाः । २ गजारचित । ३ अनपाधि । ४ व्याध । ५ कासश्रीखण्डादि । ६ अपूजयन् । ७ समुद्रस्य बहिः । ८ द्वीपसंबन्धि । ९ अगाधभावप्राप्तम् । १० प्रस्रवणम् । ११ सामथ्यतः । १२ अत्यन्तमहत्त्वात् । १३ उत्कटम् । १४ सूखपथेन ल०, सुलपथेन इ०, ल० । 'सुखेन लायते गृह्यते इति सुल:', इति 'इ' टिप्पण्याम् । १५ वेद्यन्तभागे ल० । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् 1४ १६ 1 7. 'इमामृचमापठत् ॥ ६०॥ वेदिक तोरणद्वार मस्ति तत्रोच्छ्रितं महत् । शनैस्तेन प्रविश्यान्तर्वणं सैन्यं न्यविक्षत ॥ ५० ॥ तत्र वास्तुशादस्य किंचित् संकुचितायतः । स्कन्धावारनिवेशोऽभूदलक्ष्य व्यूहविस्तृतिः ॥५१॥ नन्दनप्रतिमै' तस्मिन् वने रुद्धातपाङ्घ्रिपं । गङ्गाशीतानिलस्पशैस्तद्वलं सुखमावसत् ॥ ५२ ॥ तस्मिन् पौरुषसाध्येऽपि कृत्ये देवं प्रमाणयन् । लवणाब्धिजयोद्यक्तः सोऽभ्यैच्छद् दैविकीं क्रियाम् ॥५३॥ 'अधिवासितजैास्त्रः स त्रिरात्रमुपोषिवान् । मन्त्रानुस्मृतिपूतात्मा शुचितल्पोपगः शुचिः ॥ ५४ ॥ सायं प्रातिकनिःशेषकरणीये समाहितः । पुरोधोऽधिष्ठितां पूजां स व्यधात् परमेष्टिनाम् ॥ ५५ ॥ सेनान्यं बलरक्षायै नियोज्य विधिवद् विभुः । प्रतस्थे घृतदिव्यास्त्रो जिगीपुलवणाम्बुधिम् ॥५६॥ १० प्रतिग्रहापसारादिचिन्ताऽभून्नास्य चेतसि । ११ विलिलङ्घयिषोरभ्रिम हो १२ स्थैर्य महात्मनाम् ॥ ५७ ॥ अजितंजयमारुझद् रथं दिव्यास्त्र संभृतम् । योजितं वाजिभिर्दिव्यैर्जलस्थल विलङ्घभिः ॥ ५८ ॥ - पत्र श्यामरथं प्रोच्चैश्चलञ्चकाङ्ककेतनम् । तमू हुर्जवना" वाहा "दिव्य सव्येष्टचोदिताः ॥५६॥ ततोऽस्मै दत्तपुण्याशीः पुरोधा धृतमङ्गलः । त्वं देव विजयस्वेति स गंगा उपवनकी वेदीके अन्तभाग में सेनाका प्रवेश कराया ||४९ || भारी तोरणद्वार है जो कि उत्तर द्वार कहलाता है, उसी द्वारसे भीतर सेना ठहरी ॥ ५०॥ वहाँ चक्रवर्तीका जो शिविर था डेरोंके कारण उसकी लम्बाई कुछ संकुचित हो गयी थी पर सेनाकी रचनाका विस्तार अलंघनीय था ।। ५१ ।। जो नन्दन वनके समान है तथा जिसके वृक्ष सूर्यके आतापको रोकनेवाले हैं ऐसे उस वन में भरतकी वह सेना गंगा नदीकं शीतल वायुके स्पर्शसे सुखपूर्वक निवास करती थी ॥ ५२ ॥ यद्यपि मागध देवको वश करना यह कार्य पौरुषसाध्य है अर्थात् पुरुषार्थसे ही सिद्ध हो सकता है तथापि उसमें देवकी प्रमाणता मानकर लवण समुद्रको जीतनेके लिए तत्पर हुए भरत महाराजने भगवान् अरहन्त देवके आराधन करनेका विचार किया ॥५३॥ जिसने मन्त्र तन्त्रोंसे विजयके शस्त्रोंका संस्कार किया है, तीन दिन उपवास किया है, मन्त्रके स्मरणसे जिसका आत्मा पवित्र है, जो पवित्र शय्यापर बैठा हुआ है, स्वयं पवित्र है, सायंकाल और प्रातःकालकी समस्त क्रियाओं में सावधान है और पुरोहित जिसके समीप बैठा है ऐसे उस भरतने पंच परमेष्ठीकी पूजा की ।। ५४-५५ ।। भरतने विधिपूर्वक सेनाकी रक्षाके लिए सेनापतिको नियुक्त किया और स्वयं दिव्य अस्त्र धारण कर लवण समुद्रको जीतने की इच्छा से प्रस्थान किया || ५६ ॥ समुद्रको उल्लंघन करनेकी इच्छा करनेवाले भरतके चित्तमें यह भी चिन्ता नहीं हुई थी कि क्या-क्या साथ लेना चाहिए और क्याक्या यहाँ छोड़ देना चाहिए सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों का धैर्य ही आश्चर्यजनक होता है ।। ५७ ।। जो देवोपनीत अस्त्र-शस्त्रोंसे भरा हुआ है और जिसमें जल स्थल दोनोंपर समान रूपसे चलनेवाले दिव्य घोड़े जुते हुए हैं ऐसे अजितंजय नामके रथपर भरतेश्वर आरूढ़ हुए ॥५८॥ जो पत्तोंके समान हरितवर्ण है, जिसपर बहुत ऊँचे चक्र के आकार से चिह्नित ध्वजा फहरा रही है और जो दिव्य सारथिके द्वारा प्रेरित है - हाँका जा रहा है - ऐसे उस रथको वेगशाली घोड़े ले जा रहे थे ||१९|| तदनन्तर हे देव, आपकी जय हो इस प्रकार भरतके लिए १ तत्रोत्तरं द०, ल० । २ द्वारेण । ३ गृहसामर्थ्यात् । ४ बलविन्यासविस्तारः । ५ सदृशे । ६ - माविशत् ७ मागधामरसाधनरूपकायें । ८ मन्त्रसंस्कृत । ९ अस्तमनप्रभातसंबन्धि । १० स्वीकारत्यजनादि । ११ लिङ्घितुमिच्छो । १२ मतास्थय अ०, स०, इ० । १३ वानवाजिभिः श्यामवर्णीकृतरथम् । अनेकतद्रथाश्वाः हरिद्वर्णा इत्युक्ताः । १४ वेगिनः | १५ दिव्यसारथिप्रेरिताः । 'नियन्ता प्राजिता यन्ता सूतः क्षत्ता च सारथिः । सव्येष्टृ दक्षिणस्थौ च संज्ञारयकुटुम्बिनः' इत्यभिधानात् । ( सव्येष्टेति ऋदन्त इति केचित् ), १६ चोदितं ल० । नोदिताः स० अ० । १७ श्रुतमङ्गलम् अ०, स०, इ० । १८ ऋचं मन्त्रमित्यर्थः । ३८ دا ल० । יי वहाँ वेदिकामें एक बड़ा धीरे-धीरे प्रवेश कर वनके Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व जयन्ति विधुताशेषबन्धना धर्मनायकाः । त्वं धर्मविजयी भूत्वा तत्प्रसादाज्जयाखिलम् ॥६१॥ सन्स्यब्धिनिलया देवास्त्व दभुक्त्यन्तर्निवासिनः । तान् विजेतुमयं कालस्तवेत्युच्चैर्जुघोष च ॥६॥ ततः कतिपयैरेव नायकैः परिवारितः । जगतीतलमारुक्षद् गङ्गाद्वारस्य चक्रभृत् ॥६३॥ न केवलं समुद्रान्तःप्रवेशद्वारमेव तत् । कार्यसिद्धरपि द्वारं तदमस्त रथाङ्गभूत ॥६॥ सृतमङ्गलवेषस्य तहृद्यारोहणं विभोः। विजयश्रीसमुद्वाहवेद्यारोहणवद् बभौ ॥६५॥ मद्गृहाङ्गणवेदीयं जगतीति विकल्पयन् । दृशं व्यापारयामास कुल्याबुद्ध्या महोदधौ ॥६६॥ स प्रतिज्ञामिवारूढो जगतीं तां महायतिम् । निस्तीर्णमिव तत्पारं पारावारमजीगणत् ॥६॥ मुहुः प्रचलदुद्वेलकल्लोलमनिलाहतम् । विलङ्घनाभयादुच्चैः फूत्कुर्वन्तमिवारवैः ॥६॥ वीचिबाहुभिरुन्मुक्तैः सरत्नैः शीकरोत्करैः । पाद्यं स्वस्यव तन्वानं मौक्तिकाशतमिश्रितैः ॥६६॥ असङ्ख्यशलमाक्रान्तविश्वद्वीपमपारकम् । परैरलङ्घयमक्षोभ्यं स्वबलौघानुकारिणम् ॥७॥ 'उत्फेनजम्भिकारम्भैः सापस्मारमिवोल्वणम् । केनाप्यशक्यमाधतु क्वचिदप्यनवस्थितम् ॥७१॥ पवित्र आशीर्वाद देकर मंगलद्रव्य धारण किये हुए पुरोहितने इस नीचे लिखी हुई ऋचाको पढ़ा ॥६०।। समस्त कर्मबन्धनको नष्ट करनेवाले धर्मनायक-तीर्थकर देव सदा जयवन्त रहते हैं इसलिए उनके प्रसादसे तू भी धर्मपूर्वक विजय प्राप्त कर, सबको जीत ॥६१॥ उसी समय पुरोहितने यह भी जोरसे घोषणा की कि हे देव, इस समुद्र में निवास करनेवाले देव आपके उपभोग करने योग्य क्षेत्रके भीतर ही रहते हैं इसलिए उन्हें जीतनेके लिए आपका यह समय है ॥६२॥ तदनन्तर कुछ वीर पुरुषोंसे घिरे हुए चक्रवर्ती भरत गंगाद्वारकी वेदीपर जा चढ़े ॥६३।। चक्रवर्तीने उस गंगाद्वारकी वेदीको केवल समुद्रके भीतर प्रवेश करनेका द्वार ही नहीं समझा था किन्तु अपने कार्यकी सिद्धि होनेका भी द्वार समझा था ॥६४।। मंगल वेषको धारण करनेवाले चक्रवर्तीका उस वेदीपर आरूढ़ होना विजय-लक्ष्मीके विवाहकी वेदीपर आरूढ़ होनेके समान बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था ॥६५॥ यह वेदी मेरे घरके आँगनको वेदी है इस प्रकार कल्पना करते हुए भरतने महासागरपर कृत्रिम नदीकी बुद्धिसे दृष्टि डाली थी। भावार्थ - भरतने अपने बलकी अधिकतासे गङ्गाकी वेदीको ऐसा समझा था मानो यह हमारे घरके आंगनकी ही वेदी है और महासमुद्रको ऐसा माना था मानो यह एक छोटी-सी नहर ही है ।।६६।। वे उस बड़ी लम्बी वेदीपर इस प्रकार आरूढ़ हुए थे जैसे अपनी प्रतिज्ञापर ही आरूढ़ हुए हों और समुद्रको उन्होंने ऐसा माना था जैसे उसके दूसरे किनारेपर ही पहुँच गये हो ॥६७|| उस वेदीपर-से उन्होंने समुद्र देखा, उस समुद्र में बारबार तटको उल्लंघन करनेवाली लहरें उठ रही थीं, पवन उसका ताड़न कर रहा था और वह अपने गम्भीर शब्दोंसे ऐसा मालूम होता था मानो उल्लंघनके भयसे रो ही रहा हो। तरंगरूपी भुजाओंसे किनारेपर छोड़े हुए रत्नसहित जलके छोटे-छोटे कणोंसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो भरतके लिए मोती और अक्षतोंसे मिला हुआ अर्घ ही दे रहा हो। उस समुद्रमें असंख्यात शंख थे, उसने समस्त द्वीपोंको आक्रान्त कर लिया था, वह पाररहित था, उसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था और न उसे कोई क्षोभित ही कर पाता था इसलिए वह ठीक भरतको सेनाके समूहका अनुकरण कर रहा था क्योंकि उसमें भी बजाये जानेवाले असंख्यात शंख थे, उसने भी समस्त द्वीप आक्रान्त कर लिये थे-अपने अधीन बना लिये थे, वह भी अपार था, वह भी दूसरोंके द्वारा अलंघनीय तथा क्षोभित करनेके अयोग्य था। वह समुद्र किसी अपस्मार ( मृगी) १ तीर्थकराः । २ त्वत्पालनक्षेत्र । ३ वेदिभुवम् । ४ रथाङ्गधृत् द०, इ०, ल०। ५ मङ्गलालंकारस्य। ६ 'कुल्याल्पा कृत्रिमा सरित्' । ७ पारंगतम्। ८ उद्गतडिण्डोराभिवृद्धिः । पक्षे उद्गतफेन । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० आदिपुराणम् अकस्मादुच्चरध्वानमनिमित्तचलाचलम् । अकारणकृतावर्तमति सकुसुकस्थितिम् ॥७२॥ हसन्तमित्र फेनोधैर्लसन्तमिव वीचिभिः । चलन्तमित्र कल्लोलैर्माद्यन्तमिव घूर्णितैः ॥ ७३ ॥ सन्नमुल्बणविषं मुक्तशुल्कारमीकरम् । स्फुरतरङ्गनिर्मोकं स्फुरन्तमित्र भोगिनम् ॥७४॥ " अन्य स्वपानादुद्विक्तप्रतिश्यायमिवाधिकम् । क्षुतानीव विकुर्वाणं ध्वनितानि सहस्रशः ॥ ७५ ॥ "आनमसकृत्पीतविश्वस्रोतस्विनीरसम् । रसातिरेकादुद्गारं तन्वानमिव खात्कृतैः ॥७६॥ निजगम्भीरपातालमहागर्तापदेशतः । अवृष्यन्तमिवाम्भोभिरातालुविवृताननम् ॥७७॥ के रोगी के समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार अपस्मारका रोगी फेनसहित आती हुई भिकाओं अर्थात् जमुहाइयोंसे व्याकुल रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी फेनसहित उठती हुई जृम्भिका अर्थात् लहरोंमे व्याकुल था, जिस प्रकार अपस्मारका रोगी किसीके द्वारा पकड़कर नहीं रखा जा सकता उसी प्रकार वह समुद्र भी किसीके द्वारा नहीं रोका जा सकता और . जिस प्रकार अपस्मारका रोगी किसी भी जगह स्थिर नहीं रहता इसी प्रकार वह समुद्र भी किसी जगह स्थिर नहीं था - लहरोंके कारण चंचल हो रहा था। वह समुद्र अकस्मात् ही गम्भीर शब्द करता था, बिना कारण ही चंचल था और बिना कारण ही उसमें आवर्त अर्थात् भँवर पड़ते थे, इसलिए उसकी दशा किसी अत्यन्त अस्थिर मनुष्यसे भी बढ़कर हो रही थी क्योंकि अत्यन्त अस्थिर मनुष्य भी अचानक शब्द करने लगता है, चिल्ला उठता है, बिना कारण ही काँपने लगता है, और बिना कारण ही आवर्त करने लगता है, इधर-उधर भागने लगता है । वह समुद्र फेन उठनेसे ऐसा जान पड़ता था मानो हँस ही रहा हो, ज्वार-भाटाओंसे ऐसा मालूम होता था मानो लास्य ( नृत्य ) ही कर रहा हो, लहरोंसे ऐसा सुशोभित होता था मानो चल ही रहा हो और हिलनेसे ऐसा दिखाई देता था मानो नशेमें झूम ही रहा हो अथवा वह समुद्र किसी सर्प के समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार सर्प रत्नसहित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी रत्नसहित था, जिस प्रकार सर्प में उत्कट विष अर्थात् जहर रहता है उसी प्रकार समुद्र में भी उत्कट विष अर्थात् जल था, जिस प्रकार सर्प सू सू आदि फुंकारोंसे भयंकर होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी सू सू आदि शब्दोंसे भयंकर था, जिस प्रकार सर्पके देदीप्यमान कांची होती है उसी प्रकार उस समुद्र के भी देदीप्यमान लहरें थीं, और जिस प्रकार सर्प चंचल रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी चंचल था । अथवा वह समुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो अधिक पानी पीने से उसे सर्दी ( जुकाम) ही हो गयी हो और इसीलिए हजारों शब्दोंके बहाने छींकें ही ले रहा हो । अथवा वह समुद्र किसी आद्यून अर्थात् बहुत खानेवाले - पेटू मनुष्यके समान जान पड़ता था, क्योंकि जिस प्रकार आद्यून मनुष्य बहुत खाता है और बादमें भोजनकी अधिकता होनेसे डकारें लेता है उसी प्रकार उस समुद्रने भी समस्त नदियों का जल पी लिया था और बादमें जलकी अधिकता होनेसे वह भी शब्दोंके बहाने डकारें ले रहा था। वह समुद्र अपने गम्भीर पातालरूपी महाउदरके बहानेसे जलसे कभी तृप्त नहीं होता था और इसीलिए मानो उसने तालु पर्यन्त अपना मुख खोल रखा था । भावार्थ- वह समुद्र किसी ऐसे मनुष्य के समान जान पड़ता था जो बहुत खानेपर भो तृप्त नहीं होता, क्योंकि जिस प्रकार तृप्त नहीं होनेवाला मनुष्य बहुत कुछ खाकर भी तृष्णासे अपना मुख खोले रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी बहुत कुछ जल ग्रहण कर चुकनेपर भी तृष्णासे अपना मुख खोले रहता था - नदियों १ चञ्चलम् । २ नितराम् अस्थिरस्थितिम् । 'असंकुसुकोऽस्थिरे' इत्यमरः । विशेषनिघ्नवर्गः । ३ नृत्यन्तम् । ४ उत्कटजलम् । ५ सीकरम प० । ६ उत्कटपीनसम् ' प्रतिश्यायस्तु पीनसः' इत्यभिधानात् । ७ औदरिकम् । तृप्तिरहितमित्यर्थः । ८-गर्भाप-ल० । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व दिशा रावणमाकान्म्याचलग्राहं विभीषणम् । रक्षसामिव संपातमतिकायं महोदरम् ॥७॥ वीची बाहुभिराघ्नन्तमजस्रं तटवेदिकाम् । समर्यादत्वमाहत्य श्रावयन्तमिवात्मनः ॥७॥ चलभिरचलोदः कल्लोलैरतिवर्तिनम् । सरिघुवतिसंभोगादसंमान्तमिवात्मनि ॥४०॥ तरहिगततर्नु वृद्धं पृथुकं व्यतरङ्गितम् । सरत्नमतिकान्ताङ्ग सग्राहमतिभीषणम् ॥१॥ लावण्यऽपि न संभोग्यं गाम्भीर्यऽप्यनवस्थितम् । महत्त्वेऽपि कृताक्रोश व्यक्तमेव जलाशयम् ॥२॥ न चास्य मदिरासङगो न कोऽपि मदनज्वरः । तथाप्युद्रित कन्दर्पमारूढमधुविक्रियम् ॥८३॥ का अन्य जल ग्रहण करनेके लिए तत्पर रहता था। वह समुद्र समस्त दिशाओं में व्याप्त होकर शब्द कर रहा था इसलिए 'रावण' था, उसने अनेक पहाड़ अपने जलके भीतर डुबा लिये थे इसलिए 'अचल ग्राह' था। वह सब जीवोंको भय उत्पन्न कराता था इसलिए विभीषण था, अत्यन्त बड़ा था इसलिए 'अतिकाय' था और बहुत गहरा होनेसे 'महोदर' था इस प्रकार वह ऐसा जान पड़ता था मानो राक्षसोंका समूह ही हो। वह समुद्र अपनी तरंगरूपी भुजाओंके द्वारा किनारेकी वेदीपर निरन्तर आघात करता रहता था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो धक्का देकर उसे अपने समर्यादपनेको ही सुना रहा हो । वह पर्वतके समान ऊँची उठती हई लहरोंसे किनारेको उल्लंघन कर रहा था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो नदीरूप स्त्रियोंके साथ सम्भोग करनेसे अपने-आपमें ही नहीं समा रहा हो। उसके शरीरमें अनेक तरंगरूपी सिकुड़नें उठ रही थीं इसलिए वह वृद्ध पुरुषके समान जान पड़ता था, ( पक्षमें अत्यन्त बड़ा था ) अथवा वह समुद्र किसी पृथुक अर्थात् बालकके समान मालूम होता था ( पक्षमें पृथुक अधिक है जल जिसमें ऐसा था ) क्योंकि जिस प्रकार बालक पृथिवीपर घुटनोंके बल चलता है उसी प्रकार वह समुद्र भी लहरोंके द्वारा पृथिवीपर चल रहा था, जिस प्रकार बालक सरकता है उसी प्रकार वह भी लहरोंसे सरकता था, जिस प्रकार बालक अत्यन्त सुन्दर होता है उसी प्रकार वह भी अत्यन्त सुन्दर था। इसके सिवाय वह समद्र मगरमच्छ आदि जलचरजीवोंसे सहित था तथा अत्यन्त भयंकर था अथवा वह समुद्र स्पष्ट ही जलाशय (ड और ल में अभेद होनेसे जडाशय ) अर्थात् मूर्ख था क्योंकि लावण्य रहनेपर भी वह उपभोग करने योग्य नहीं था जो लावण्य अर्थात् सुन्दरतासे सहित होता है वह उपभोग करने योग्य अवश्य होता है परन्तु समद वैसा नहीं था ( पक्ष में लावण्य अर्थात खारापन होनेसे किसीके पीने योग्य नहीं था ) गम्भीरता होनेपर भी वह स्थिर नहीं था, जो गम्भीरता अर्थात् धैर्यसे सहित होता है वह स्थिर अवश्य रहता है परन्तु समुद्र ऐसा नहीं था ( पक्ष में. गम्भीरता अर्थात् गहराई होनेपर भी वह लहरोंसे चंचल रहता था ) और महत्त्वके रहते हुए भी वह चिल्लाता रहता था-गालियाँ बका करता था, जो महत्त्व अर्थात बडप्पनसे सहित होता है वह बडा शान्त रहता है. चिल्लाता नहीं है परन्तु समुद्र ऐसा नहीं था (पक्षमें बड़ा भारी होनेपर भी लहरोंके आघातसे शब्द करता रहता था ) इन सब कारणोंसे स्पष्ट है कि वह जडाशय अवश्य था ( पक्षमें जल है आशयमें जिसके अर्थात जलसे भरा हुआ था)। उस समुद्रके यद्यपि मद्यका संगम नहीं था-मद्यपानका अभाव था तथापि वह आरूढ मधुविक्रिय था अर्थात् मद्यपानसे उत्पन्न होनेवाले विकारनशाको धारण कर रहा था, इसी प्रकार यद्यपि उसके काम-ज्वर नहीं था तथापि वह उद्रिक्तकन्दर्प था अर्थात् तीव्र काम-विकारको धारण करनेवाला था । भावार्थ-इस श्लोकमें श्लेष१ रौतीति रावणस्तम् । शब्दं कुर्वन्तमिति यावत् । पक्षे दशास्यम् । २ पर्वतस्वीकारवन्तम् । पक्षे अचलग्राहमिति कंचिद् राक्षसम् । ३ भयंकरम् । पक्षे रावणानुजम् । ४ अतिशयं मूर्तिम् महान्तमित्यर्थः । पक्षे अतिकायमिति कंचिदसुरम् । ५ महाकुक्षिम् । पक्षे महोदर मिति राक्षसम् । ६ उत्कटकामम्, पक्षे उत्कटजलदर्पम् । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ आदिपुराणम् अनाशितंभयं' पीत्वा सुस्वादुसरितां जलम् । गतागतानि कुर्वन्तं संतोषादिव वीचिभिः ॥१४॥ नदीवधूभिरासेव्यं कृतरत्नपरिग्रहम् । महाभोगिभिराराध्यं चातुरन्तमिव प्रभुम् ॥८५॥ यादोदोर्घातनिर्धात दंरोच्चलितशीकरैः । सपताकमिवाशेषशेषार्णवविनिर्जयात् ॥८६॥ कुलाचल पृथुस्तम्भजम्बू द्वीपमहौकसः । विनीलरत्ननिर्माणमकं सालमिवोच्छुितम् ॥८७॥ अनादिमस्तपर्यन्तमखिलार्थावगाहनम् । गभीरशब्दसंदर्भ श्रुतस्कन्धमिवापरम् ॥८॥ नित्यप्रवृत्तशब्दत्वाद् द्रव्यार्थिकनयाश्रितम् । वीचीनां क्षणभङगित्वात् पर्यायनयगोचरम् ॥८६॥ नित्यानुबद्धतृष्णत्वात् शश्वज्जलपरिग्रहात्। गुरूणां च तिरस्कारात किंराजानमिवान्वहम् ॥१०॥ मूलक विरोधाभास अलंकार है इसलिए प्रारम्भ-कालमें विरोध मालम होता है परन्तु बादमें उसका परिहार हो जाता है। परिहार इस प्रकार समझना चाहिए कि वह मद्यके संगमसे रहित होकर मधु अर्थात् पुष्परसकी विक्रिया धारण कर रहा था अथवा मनोहर जलपक्षियोंकी क्रियाएँ धारण कर रहा था और कामज्वरसे रहित होकर भी उद्रिक्त-कन्दर्प था अर्थात जलके अहंकारसे सहित था। वह समुद्र किनारेपर आती-जाती हुई लहरोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो जिससे कभी तप्ति न हो ऐसा नदियोंका मीठा जल पीकर लहरों-द्वारा सन्तोषसे गमनागमन ही कर रहा हो। अथवा वह समुद्र चक्रवर्तीके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार चक्रवर्ती अनेक स्त्रियोंके द्वारा सेवित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी नदीरूपी अनेक स्त्रियोंके द्वारा सेवित था, जिस प्रकार चक्रवर्तीके पास अनेक रत्नोंका परिग्रह रहता है उसी प्रकार उस समुद्रके पास भी अनेक रत्नोंका परिग्रह था, जिस प्रकार चक्रवर्ती महाभोगी अर्थात् बड़े-बड़े राजाओंके द्वारा आराधन करने योग्य होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी महाभोगी अर्थात् बड़े-बड़े सोके द्वारा आराधन करने योग्य था और जिस प्रकार चक्रवर्ती चारों ओर प्रसिद्ध रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी चारों ओर प्रसिद्ध था-व्याप्त था। जल-जन्तुओंके आघातसे उड़ी हुई और बहुत दूर तक ऊँची उछटी हुई जलकी बूंदोंसे वह समुद्र ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बाकीके समस्त समुद्रोंको जीतनेसे अपनी विजय-पताका ही फहरा रहा हो। उस समुद्रका नीले रंगका पानी वायुके वेगसे ऊपरको उठ रहा था जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो कुलाचलरूपी बड़े-बड़े खम्भोंपर बने हुए जम्बूद्वीपरूपी विशाल घरका नील रत्नोंसे बना हुआ एक ऊँचा कोट ही हो । अथवा वह समुद्र दूसरे श्रुतस्कन्धके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार श्रुतस्कन्ध आदि-अन्त-रहित है उसी प्रकार वह समुद्र भी आदि-अन्त-रहित था, जिस प्रकार श्रुतस्कन्ध समस्त पदार्थों का अवगाहन-निरूपण करनेवाला है उसी प्रकार वह समुद्र भी समस्त पदार्थोंका अवगाहन-प्रवेशन-धारण करनेवाला है, और जिस प्रकार श्रुतस्कन्धमें गम्भीर शब्दोंकी रचना है उसी प्रकार उस समद्रमें भी गम्भीर शब्द होते रहते थे-अथवा वह समुद्र द्रव्याथिक नयका आश्रय लेता हुआ-सा जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार द्रव्याथिक नयसे प्रत्येक पदार्थमें नित्य शब्दकी प्रवृत्ति होती है उसी प्रकार उस समद्र में भी नित्य शब्दकी प्रवृत्ति हो रही थी अर्थात् निरन्तर गम्भीर शब्द होता रहता था। अथवा उसकी लहरें क्षणभंगुर थीं इसलिए वह पर्यायार्थिकके गोचर भी मालूम होता था क्योंकि पर्यायार्थिक नय पदार्थोंको क्षणभंगुर अर्थात् अनित्य बतलाता है। अथवा वह समुद्र किसी दुष्ट राजाके समान मालूम होता था क्योंकि जिस प्रकार दुष्ट राजा सदा तृष्णासे सहित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी सदा तृष्णासे सहित रहता था अर्थात् प्रतिक्षण अनेक नदियोंका जल ग्रहण करते रहने१ अतृप्तिकरम् । २ महासः । ३ सार्वत्रिक प्रसिद्धमित्यर्थः । चातुरङ्ग-स०, इ०, अ०, प० । ४ नि तैल० । ५ महागृहस्य । ६ जडस्वीकारात् । ७ गुरुद्रव्याणामधःकरणात् । ८ कुत्सितराजानम् । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व ससत्त्वमतिगम्भीरं भोगिभितवेलकम् । सुराजानमिवात्युच्चैर्वृत्तिं मर्यादया पृतम् ॥११॥ अनेकमन्तरद्वीपमन्तनतिनमात्मनः । दुर्गदेशमिवाहार्यं पालयन्तमलङ्घनैः ॥१२॥ गर्जद्भिरतिगभीरं नभोव्यापिभिरूजितैः । आपूर्यमाणमम्भोभिनाधः किङ्कररिव ॥३॥ रङ्गितैश्चलितैः क्षोभैरूस्थितैश्च विवर्तनः । ग्रहाविष्टमिवोजम्मं सध्वानं च सघूर्णितम् ॥१४॥ रतांशुचित्रिततलं मुकाशवलिताणसम् । ग्राहरध्यासितं विप्वक्सुखालोकं च भीपणम् ॥१५॥ नदीनं रत्नभूयिष्ठमप्प्रागं चिरजीवितम् । समुद्रमपि चोन्मुद्रं 'झपकनुममन्मथम् ॥६६॥ पर भी सन्तुष्ट नहीं होता था, जिस प्रकार दुष्ट राजा जल (जड़) अर्थात् मूर्ख मनुष्योंसे घिरा रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी निरन्तर जल अर्थात् पानीसे घिरा रहता था, और जिस प्रकार दुष्ट राजा गुरु अर्थात् पूज्य महापुरुषोंका तिरस्कार करता है उसी प्रकार वह समद्र भी गुरु अर्थात् भारी वजनदार पदार्थों का तिरस्कार करता रहता था अर्थात् उन्हें डुबोता रहता था । अथवा वह समुद्र किसी उत्तम राजाके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार उत्तम राजा सत्त्व अर्थात् पराक्रमसे सहित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी सत्त्व अर्थात् जलजन्तुओंसे सहित था, जिस प्रकार उत्तम राजा अत्यन्त गम्भीर होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी अत्यन्त गम्भीर अर्थात् गहरा था, जिस प्रकार उत्तम राजाके समीप अनेक भोगी अर्थात् राजा लोग विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार उस समद्रकी बेला (तट) पर भी अनेक भोगी अर्थात सर्प विद्यमान रहते थे, जिस प्रकार उत्तम राजाकी वृत्ति उच्च होती है उसी प्रकार उस समुद्रकी वत्ति भी उच्च थी अर्थात उसका जल हवासे ऊँचा उठ रहा था और जिस प्रकार उत्तम र मर्यादा अर्थात् कुल-परम्परासे आयी हुई समीचीन पद्धतिसे सहित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी मर्यादा अर्थात् पालीसे सहित था। वह समुद्र अपने मध्यमें रहनेवाले अनेक अन्तर्वीपोंकी रक्षा कर रहा था वे अन्तद्वीप उसके अलंघनीय तथा हरण करनेके अयोग्य किलोंके समान जान पड़ते थे। वह अतिशय गम्भीर समुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो सेवकोंके समान निरन्तर बढ़ते हुए, गरजते हुए और आकाशमें फैले हुए मेघोके द्वारा ही जलसे भरा गया हो अथवा वह समुद्र किसी ग्रहाविष्ट अर्थात् भूत लगे हुए मनुष्यके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार ग्रहाविष्ट मनुष्य जमीनपर रेंगता है, चलता है, क्षुब्ध होता है, ऊँचा उछलता है और इधरउधर घूमता है अथवा करवटें बदलता है उसी प्रकार वह समुद्र भी लहरोंसे पृथिवीपर रेंग रहा था, चल रहा था, क्षुब्ध था, ऊँचा उछलता और इधर-उधर घूमता था अर्थात् कभी इधर लहरता था तो कभी उधर लहरता था, तथा ग्रहाविष्ट मनुष्य जिस प्रकार उज्जृम्भ अर्थात् उठती हुई जमुहाइयोंसे सहित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी उज्जृम्भ अर्थात् उठती हुई लहरोंसे सहित था, जिस प्रकार ग्रहाविष्ट मनुष्य शब्द करता है उसी प्रकार समुद्र भी शब्द कर रहा था और जिस प्रकार ग्रहाविष्ट मनुष्य काँपता रहता है उसी प्रकार वह समद्र भी वायुसे काँपता रहता था। उस समुद्रका तल भाग रत्नोंकी किरणोंसे चित्र-विचित्र हो रहा था, उसका जल मोतियोंसे चित्रित था, और वह चारों ओर मगरमच्छोंसे भरा हुआ था इसलिए वह देखनेमें अच्छा भी लगता था और भयानक भी मालूम होता था। वह समुद्र अनेक रत्नोंसे १ भूप्रसर्पणः । २ चलनः । ३ उत्थानः । ४ भ्रमणः । ५ उज्जम्भणम् । पक्षे जम्भिकासहितम् । ६ सरित्पतिम् । निस्वसदृशम् । 'नभात्रे निषेधे च स्वरूपार्थे व्यतिक्रमे । ईषदर्थे च सादृश्ये तद्विरुद्धतदन्ययोः ॥' इत्यभिधानात् । ७ आपः प्राणं यस्य स तम् । पक्षे गतप्राणम् । ८ चिरकालस्थायिनम् । -जीविनम् अ०, ५०, ब०, स०, इ० । ९ मुद्रया सहितम् । १० मुद्रारहितम् । महान्तमित्यर्थः । ११ झषाङ्कितम् । १२ मत् मनो मथ्नातीति मन्मथः न मन्मथः अमन्मथस्तं मनोहरमित्यर्थः । नोहरमित्यर्थ महान्तमित चिरकालस्था सादृश्ये Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् अदृष्टपारमाभ्यमसंहार्य 'मनुत्तरम् । सिद्धालयमिव व्यक्तमव्यक्तममृतास्पदम् ॥१७॥ क्वचिन्महोपलच्छायाँ कृतसंध्याभ्रविभ्रमम् । कृतान्धतमसारम्भ क्वचिन्नीलाइमरश्मिभिः ॥९८॥ हरिन्मणिप्रभोत्स: क्वचि संदिग्ध शैवलम् । क्वचिच्च कोङ्कमी कान्ति तन्वानं विद्माईरः ॥१९॥ क्वचिच्छुक्तिपुटो दसमुच्चलितमौकिकम् । तारकानिकराकीणं हसन्तं जल भृत्पथम् ॥१०॥ वेलापर्यन्तसंमृ छन्सर्वरत्नांशुशीकरः । क्वचिदिन्द्रधनुलेखां लिखन्तमिव खाङ्गणे ॥१०१॥ रथाङ्गपाणिरित्युच्चः संवृतं रनकोटिभिः। महानिधिमिवापूर्वमपश्यन्मकराकरम् ॥१०२॥ भरा हुआ था इसलिए नदीन अर्थात् दीन नहीं था यह उचित था ( पक्षमें 'नदी इन' नदियोंका स्वामी था ) परन्तु अप्राण अर्थात् प्राणरहित होकर भी चिरजीवित अर्थात् बहुत समय तक जीवित रहनेवाला था, समुद्र अर्थात् मुद्रासहित होकर भी उन्मुद्र अर्थात् मुद्रारहित था और झषकेतु अर्थात् मछलीरूप पताकासे सहित होकर भी अमन्मथ अर्थात् कामदेव नहीं था यह विरुद्ध बात थी किन्तु नीचे लिखे अनुसार अर्थमें परिवर्तन कर देनेसे कोई विरुद्ध बात नहीं रहती। वह प्राणरहित होनेपर भी चिरजीवित अर्थात् चिरस्थायी रहनेवाला था अथवा चिरकालसे जलसहित था, समुद्र अर्थात् सागर होकर भी उन्मुद्र अर्थात् उत्कृष्ट आनन्दको देनेवाला था ( उद्-उत्कृष्टां मुदं हर्ष राति-ददातीति उन्मुद्रः ) और झषकेतु अर्थात् समुद्र अथवा मछलियोंके उत्पातसे सहित होकर भी अमन्मथ अर्थात् काम नहीं था। अथवा वह समद्र स्पष्ट ही सिद्धालयके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार सिद्धालयका पार दिखाई नहीं देता है उसी प्रकार उस समुद्र का भी पार दिखाई नहीं देता था – दोनों ही अदृष्टपार थे, जिस प्रकार सिद्धालय अक्षोभ्य है अर्थात् आकुलतारहित है । उसो प्रकार समुद्र भी अक्षोभ्य था अर्थात् क्षोभित करनेके अयोग्य था उसे कोई गॅदला नहीं कर सकता था, जिस प्रकार सिद्धालयका कोई संहार नहीं कर सकता उसी प्रकार उस समूहका भी कोई संहार नहीं कर सकता था, जिस प्रकार सिद्धालय अनुत्तर अर्थात् उत्कृष्ट है उसी प्रकार वह समुद्र भी अनुत्तर अर्थात् तैरनेके अयोग्य था, जिस प्रकार सिद्धालय अव्यक्त अर्थात् अप्रकट है उसी प्रकार वह समुद्र भी अव्यक्त अर्थात् अगम्य था और सिद्धालय जिस प्रकार अमृतास्पद अर्थात् अमृत (मोक्ष) का स्थान है उसी प्रकार वह समुद्र भी अमृत (जल) का स्थान था। कहीं तो वह समुद्र पद्मरागमणियोंसे सन्ध्याकालके बादलोंकी शोभा अथवा सन्देह धारण कर रहा था और कहीं नील मणियोंकी किरणोंसे गाढ़ अन्धकारका प्रारम्भ करता हुआ-सा जान पड़ता था। कहीं हरित मणियोंकी कान्तिके प्रसारसे उसमें शेवालका सन्देह हो रहा था और कहीं वह मूंगाओंके अंकुरोंसे कुंकुमकी कान्ति फैला रहा था। कहीं सीपोंके सम्पुट खुल जानेसे उसमें मोती तैर रहे थे और उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओंके समूहसे भरे हुए आकाशकी ओर हँस ही रहा हो । तथा कहींपर किनारेके समीप ही समस्त रत्नोंकी किरणोंसहित जलकी छोटी-छोटी बँदें पड़ रही थीं उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशरूपी आँगनमें इन्द्रधनुषकी रेखा ही लिख रहा हो। इस प्रकार जो ऊँचे तक करोड़ों रत्नोंसे भरा हुआ था ऐसे उस समुद्रको चक्रवर्तीने अपूर्व महानिधिके समान देखा ।। ६८-१०२ ।। १ अविनाश्यम् । २ न विद्यते उत्तरः श्रेष्ठो यस्मात् स तम् । ३ सलिलपीयूषनिवासम् । पक्षे अभयस्थानम् । 'सुधाकरयज्ञशेषसलिलाज्यमोक्षधन्वन्तरिविषकन्दच्छिन्न सहायदिविजेष्वमृतम्' इत्यभिधानात् । ४ पद्मरागमाणिक्य । ५ लिप्त । सन्देहविषयीकृत । ६ समुत्सर्पन्नानारत्नमरीचियुतशीकरैः । ७ -संकरैः प० । ८ मकरालयम् ल०। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व दृष्ट्वाऽथ तं महाभागः कृतधी/रनिःस्वनम् । दृष्टयैवातुल यच्चक्री गोप्पदावज्ञयार्णवम् ॥१०३॥ ततोऽभिमतसंसिद्ध्यै कृतसिद्धनमस्क्रियः। रथं प्रचोदयेत्युच्चैःप्राजितारमचोदयत् ॥१०४॥ विमुक्तप्रग्रहै हैरुह्यमानो मनोजवैः । लवणान्धौ द्रुतं प्रायाद् यानपात्रायितो रथः ॥१०५॥ रथो मनोरथात् पूर्व रथात् पूर्व मनोरथः । इति संभाव्यवेगोऽसौ रथो वाधि व्यगाहत ॥१०६॥ जलस्तम्भः प्रयुको नु जलं न स्थलतां गतम् । स्यन्दनं यदमी वाहा जले निन्युः स्थलास्थया ॥१७॥ तथैव चक्रचीत्कारः तथैवोच्चैः प्रधौरितम । यथा बहिर्जलं पूर्वमहो पुण्यं रथाङ्गिनः ॥१०८॥ महद्भिरपि कल्लोलैः शीक्यमानास्तुरङ्गमाः। रथं निन्युरनायासात् प्रत्युतैषां स विश्रमः ॥१०९ रथचक्रसमुत्पीडाजलोत्पीडःखमुत्पतन् । न्यधाद् ध्वजांशुके जाडयं जलानामीशी गतिः ॥११॥ नाङ्गरागस्तुरङ्गाणामादितः श्रममितः । क्षालितः खुरवेगोत्थैः केवलं शीकररपाम् ॥१११॥ क्षणं रथाङ्गसङ्घहाजलमब्धेर्द्विधाऽभवत् । व्यभावि भाविनां वर्त्म चक्रिणामिव सूत्रितम् ॥११२॥ रथोऽस्याभिमतां भूमि प्रापत्सारथिचोदितः । मनोरथोऽपि संसिद्धिं पुण्यसारथिचोदितः ॥११३॥ तदनन्तर-महाभाग्यशाली बुद्धिमान् भरतने गम्भीर शब्द करते हुए उस समुद्रको देखकर, दृष्टि मात्रसे ही उसे गायके खुरके समान तुच्छ समझ लिया ॥१०३।। और फिर अपने मनोरथकी सिद्धिके लिए सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार कर 'शीघ्र ही रथ बढ़ाओ' इस प्रकार सारथिके लिए जोरसे प्रेरणा की ॥१०४।। जिनकी रास ढीली कर दी गयी है और जिनका वेग मनके समान है ऐसे घोड़ोंके द्वारा ले जाया जानेवाला वह रथ लवणसमुद्रमें जहाजकी नाई शीघ्रताके साथ जा रहा था ॥१०५॥ मनोरथसे पहले रथ जाता है अथवा रथसे पहले मनोरथ जाता है इस प्रकार जिसके वेगकी सम्भावना की जा रही है ऐसा वह रथ समुद्र में बड़े वेगके साथ जा रहा था ॥१०६।। क्या वह जलस्तम्भिनी विद्यासे थेंभा दिया गया था अथवा स्थलपनेको ही प्राप्त हो गया था क्योंकि चक्रवर्तीके घोड़े स्थल समझकर ही जलमें रथ खींचे लिये जा रहे थे ।।१०७।। जिस प्रकार जलके बाहर पहियोंका चीत्कार शब्द होता था उसी प्रकार जलके भीतर भी हो रहा था और जिस प्रकार जलके बाहर घोड़े दौडते थे उसी प्रकार जलके भीतर भी दौड़ रहे थे, अहा ! चक्रवर्तीका पुण्य भी कैसा आश्चर्यजनक था ! ॥१०८।। वे घोड़े बड़ी-बड़ी लहरोंसे सींचे जानेपर भी बिना किसी परिश्रमके रथको ले जा रहे थे। उन लहरोंसे उन्हें कुछ दुःख नहीं होता था बल्कि उनका परिश्रम दूर होता जाता था ॥१०९।। रथके पहियेके आघातसे आकाशकी ओर उछलनेवाले जलके समूहने ध्वजाके वस्त्र में भी जाड्य अर्थात् भारीपन ला दिया था सो ठीक ही है क्योंकि जलका ऐसा ही स्वभाव होता है। भावार्थसंस्कृत काव्योंमें ड और ल के बीच कोई भेद नहीं माना जाता इसलिए जलानाम्की जगह जडानाम् पढ़कर चतुर्थ चरणका ऐसा अर्थ करना चाहिए कि मूर्ख मनुष्योंका यही स्वभाव होता है कि वे दूसरोंमें भी जाड्य अर्थात् मूर्खता उत्पन्न कर देते हैं ।।११०॥ घोड़ोंके शरीरपर लगाया हुआ अंगराग ( लेप ) परिश्रमसे उत्पन्न हुए पसीनेसे गीला नहीं हुआ था केवल खरोंके वेगसे उठे हए जलके छीटोंसे ही धल गया था ॥१११।। रथके पहियोंके संघटनसे क्ष भरके लिए जो समुद्रका जल फटकर दोनों ओर होता जाता था वह ऐसा मालूम होता था मानो आगे होनेवाले सगर आदि चक्रवर्तियोंके लिए सूत्र डालकर मार्ग ही तैयार किया जा रहा हो ॥११२।। सारथिके द्वारा चलाया हुआ चक्रवर्तीका रथ उनके अभिलषित स्थानपर पहुँच १ महाभागं ल० । २ सारथिम् । ३ त्यक्तरज्जुभिः । ४ अगच्छत । ५ स्थलमिति बुद्धया । ६ गतिविशेषाक्रान्तम् । ७ जलाद् बहिः। स्थले इत्यर्थः । ८ सिच्यमानाः । ९ सेचनविधिः । १० श्रमहरणकारणम् । ११ समुत्पीडनात् । १२ जलसमूहः । जलानां जडानामिति ध्वनिः । १३ स्वेदैः । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LA आदिपुराणम् गया ऋतिपयान्यब्धी योजनानि रथः प्रभोः । स्थितोऽन्तर्जलमाक्रम्य ग्रस्ताश्व इव वाधिना ॥११४॥ द्विपयोजनमागाहा स्थित मध्येऽर्णवं रथे। रथाङ्गपाणिरारुष्टो जग्राह किल कार्मकम् ॥११५॥ स्फुरज्ज्यं वज्रकाण्डं तदनुरारोपितं यदा । तदा जीवितसंदेहदोलारूढमभूजगत् ॥११६॥ स्फुरन्मारिवस्तस्य मुहुः प्रधानयन् दिशः । प्रशोभमनयद्वाधि चलत्तिमिकुलाकुलम् ॥११७॥ संहार्यः किममध्याब्धिरुत विश्वमिदं जगत् । इत्याशक्य झणं तस्थे तदा नभसि खेचरैः ॥११८॥ वक्रेऽपि गुणवत्यस्मिनृजुकर्मणि कार्मुके । अमोघं संदधे बाणं इलाध्यं स्थानकमास्थितः ॥११६॥ अहं हि भरतो नाम चक्री वृषभनन्दनः । मत्साभवन्तु मदभुक्तिवासिनो ब्यन्तरामराः ॥१२०॥ इति व्यक्तलिपिन्यासो दूतमुख्य इव द्रुतम् । स पत्री' चक्रिणा मुक्तः प्राङ्मुखीमास्थितो गतिम् ॥१२१॥ ''जितनिर्यातनिर्दोषं धनि कुर्वनाभस्तलात् । न्यपसन्मागधावासे तत्सैन्यं क्षोभमानयन् ॥१२२॥ कि.ष क्षुभितोऽम्भाधिः करुपान्तपवनाहतः । निर्घात: किंस्त्रिदुद्ध्वान्तो भूमिकम्पो नु जम्भतं ॥१२३॥ ''इत्याकुलाकुलधियस्तनिकायोपगाः सुराः । परिवदुरुपत्यैनं सन्नद्धा माग, प्रभुम् ॥१२॥ देव दीप्र : शरः कोऽपि पतितोऽस्मत्सभाङ्गणे । तेनायं प्रकृतः क्षोभो न किंचित्कारणान्तरम् ॥१२५॥ गया और पुण्यरूपी सारथिके द्वारा प्रेरित हुआ उनका मनोरथ भी सफलताको प्राप्त हो गया ॥११३।। महाराज भरतका रथ समुद्र में कुछ योजन जाकर जलके भीतर ही खड़ा हो गया मानो समुद्रने ऊपरकी ओर बढ़कर उसके घोड़े ही थाम लिये हों ।।११४।। जब वह रथ समुद्रके भोतर बारह योजन चलकर खड़ा हो गया तब चक्रवर्तीने कुछ कुपित होकर धनुप उठाया ।।११५।। जिसको प्रत्यंचा ( डोरी ) स्फूरायमान है और काण्ड वज्रके समान है ऐसा वह धनुप जिस समय चक्रवतीने प्रत्यंचासे युक्त किया था उसी समय यह जगत् अपने जीवित रहनेके सन्देह रूपी लापर आरूढ़ हो गया था अर्थात् समस्त संसारको अपने जीवित रहनेका सन्देह हो गया था ।।११६।। समस्त दिशाओंको वार-बार शब्दायमान करते हुए चक्रवर्तीके धनुपकी स्फुरायमान प्रत्यंचाके शब्दने इधर-उधर भागते हए मच्छोंके समहसे भरे हए समुद्रको भी क्षोभित कर दिया था ॥११७।। क्या यह चक्रवर्ती इस समुद्रका संहार करना चाहता है अथवा समस्त संसारका ? इस प्रकार आशंका कर विद्याधर लोग उस समय क्षण-भरके लिए आकाशमें खड़े हो गये थे ।।११८।। जो टेढ़ा होकर भी गणवान् ( पक्षमें डोरीसे सहित) और सरल कार्य करनेवाला था ( पक्षमें सीधा बाण छोड़नेवाला था ) ऐसे उस धनुषपर चक्रवर्तीने प्रशंसनीययोग्य आसनसे खड़े होकर भी व्यर्थ न जानेवाला अमोघ नामका बाण रखा ।।११९।। 'मैं वृषभदेवका पुत्र भरत नामका चक्रवर्ती हैं इसलिए मेरे उपभोगके योग्य क्षेत्रमें रहनेवाले सब व्यन्तर देव मेरे अधीन हों इस प्रकार जिसपर स्पष्ट अक्षर लिखे हए हैं ऐसा हुआ वह चक्रवर्तीके द्वारा चलाया हुआ बाण मुख्य दूतको तरह पूर्व दिशाकी ओर मुख कर चला ॥१२०-१२१॥ और जिसने वज्रपातके शब्दको जीत लिया है ऐसा भारी शब्द करता हुआ तथा मागध देवकी सेनामें क्षोभ उत्पन्न करता हुआ वह बाण आकाश-तलसे मागध देवके निवासस्थान में जा पड़ा ।।१२२।। क्या यह कल्पान्त कालके वायुसे ताडित हुआ समुद्र ही क्षोभको प्राप्त हुआ है ? अथवा जोरसे शब्द करता हुआ वज्र पड़ा है ? अथवा भूमिकम्प ही हो रहा है ? इस प्रकार जिनकी बुद्धि अत्यन्त व्याकुल हो रही है ऐसे उसके समीप रहनेवाले व्यन्तरदेव तैयार होकर मागध देवके पास आये और उसे घेरकर खड़े हो गये ।।१२३-१२४॥ हे देव, हमारे सभा१ जलमध्यं । २ अर्णवमध्ये। ३ क्रुद्धः। ४ स्फुरन्ती या मौवीं यस्य स तम् । ५ चक्रिणः । ६ स्थानकम् प्रत्याले ढादिस्थानम् । ७ मदधीना भवन्तु । ८ मम क्षेत्रवासिन इत्यर्थः । ९ बाणः । १० पूर्वाभिमुखीम् । ११ अशनि । १२ अत्याकुलबुद्धयः । १३ विहितः । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व 3 * येनायं प्रहितः पत्री नाकिना दानवेन वा । तस्य कर्तुं प्रतीकारमिम सज्जा वयं प्रभो ॥ १२६॥ इत्यारक्षि मस्तूर्णमस्य विज्ञापितः प्रभुः । माच्वं महालापैरित्युचैः प्रत्युवाच तान् ॥१२७॥ यूयं एवमाद्याः सोऽहमेवास्मि मागधः । श्रुतपूर्वमिदं किं वः सोडपूर्वी मयेत्यः ॥ १२८ ॥ विभर्ति यः पुमान् प्राणान् परिभूतिमलीमसान् । न गुणैलिंगमात्रेण पुमाने प्रतीयते ॥ ३२२ ॥ स चित्रपुरुषो वास्तु चञ्चापुरुष एव च । यो विनापि गुणैः पोर्नाम्नैव पुरुषायते ॥१३०॥ १३ 43 16 स पुमान् यः पुनीते स्वं कुलं जन्म च पौरुषः भटबुबो जनो यस्तु तस्यास्च भवनिभुवि ॥ १३१ ॥ विजिगीता देवा" वयं नेच्छाविहारतः । ततोऽरिविजयादेव संग्दस्तु सदापि नः ॥ १३२ ॥ वस्तुवाहन राज्याङ्गराराधयति यः परम् । परभोगीणमैश्वर्य ेतस्य मम्ये विडम्बनम् ॥ १३३ ॥ शरणाली शशी प्रभुः कोऽपि मतोऽयं धनमीप्सति । धनायतोऽस्य दास्यामि निधनं प्रश्नः समम् ॥ १३४ ॥ येनं शरं तावन् कोपानेः प्रथनम् । करवाणीदमेवास्तु "तनुशर कैरुपेन्धनम् ॥ १३५ ॥ भवनके आंगन में कोई देदीप्यमान बाण आकर पड़ा है उसीसे यह क्षोभ हुआ है इसका दूसरा कारण नहीं है ।। १२५ ।। हे प्रभो, जिस किसी देव अथवा दानवने यह बाण छोड़ा है हम सब लोग उसका प्रतिकार करनेके लिए तैयार हैं ।। १२६ ।। इस प्रकार रक्षा करनेवाले वीर योद्धाओंने शीघ्र ही आकर अपने स्वामी मागध देवसे निवेदन किया और मागध देवने भी बड़े जोरसे उन्हें उत्तर दिया कि चुप रहो, इस प्रकार वीर वाक्योंसे कुछ लाभ नहीं है ।। १२७।। तुम लोग वे ही मेरे अधीन रहनेवाले देव हो और मैं भी वही मागध देव हैं, क्या मुझे कभी पहले अपना शत्रु सहन हुआ है ? यह बात तुम लोगोंने पहले भी कभी सुनी है ? ।।१२।। जो पुरुष पराभवसे मलिन हुए अपने प्राणोंको धारण करता है वह गुणोंसे पुरुष नहीं कहलाता किन्तु केवल लिंगसे ही पुरुष कहलाता है ।। १२९ ।। जो पुरुष पुरुषोंमें पाये जानेवाले गुणोंके बिना केवल नाम से ही पुरुष बनना चाहता है वह या तो चित्रमें लिखा हुआ पुरुष है अथवा तृण काष्ठ वगैरह से बना हुआ पुरुष है ।। १३०|| जो अपने पराक्रमसे अपने कुल और जन्मको पवित्र करता है। वास्तव में वही पुरुष कहलाता है, इसके विपरीत जो मनुष्य मूठमूठ ही अपनेको वीर कहता है पृथिवीपर उसका जन्म न लेना ही अच्छा है ।। १३१ ।। हम लोग शत्रुओंको जीतनेसे ही 'देव' कहलाते हैं, इच्छानुसार जहां-तहां विहार करनेमात्र से देव नहीं कहलाते इसलिए हम लोगोंकी सम्पत्ति सदा शत्रुओंको विजय करनेमात्र से ही प्राप्त हो ।। १३२ ।। जो मनुष्य रस्न आदि वस्तु, हाथी घोड़े आदि वाहन और छत्र चमर आदि राज्यके चिह्न देकर किसी दूसरेकी आराधना सेवा करता है उसका ऐश्वर्य दूसरोंके उपभोगके लिए हो और में ऐसे ऐश्वयंको केवल विडम्बना समझता हूँ ।। १३३॥ बाण चलानेवाला यह कोई राजा मुझसे धन चाहता है सो इसके लिए मैं युद्धके साथ-साथ निधन अर्थात् मृत्यु दूंगा || १३४|| सबसे पहले मैं इस बाणको चूर कर अपने क्रोधरूपी अग्निका पहला ईधन बनाऊँगा, यही बाण अपने छोटे-छोटे टुकड़ों 1 ७ ४७ 1 दोष्यन्ति १ प्रभो वयम् स० अ०, प०, इ० । २ अङ्गरक्षिभटैः । ३ तूष्णीं तिष्ठत । ४ ते पूर्वस्मिन् विद्यमाना एव । ५ परिभव । ६ तृणपुरुषः । चञ्चोऽनलादिनिर्माणे चञ्चा तु तृणपूरुषे' इत्यभिधानात् । करिकलभन्यायमाश्रित्य पुनः पुरुषशब्दप्रयोगः । ७ वा ल०, ब०, अ०, प०, स० द०, इ० । ८ पुरुषसंबन्धिभिः ९ अनुत्पत्तिः । 'नङो निः शापे' इति अनिप्रत्ययान्तः । १० विजिगीषन्तीति देवाः ११ स्वरविहारतः । क्रीडाविहारत इति भावः । १२ परभोगि १३] अस्मत् । १४ प्रधनैः ० ० ० अ०, प०, स० युद्ध इत्यभिधानात् । १५ अलगकलै: ( चूर्णीकृतशरोरेन्धनैः ) । शत्रुशरीरशकलैः । १६ संधुक्षणम्, अग्निज्वालनम् । । हितम् । युद्धमायोधनं जन्यं प्रधनं प्रविदारणम्' Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् साक्षेपमिति संरम्भादुदीर्य गिरमूर्जिताम् । व्यरंसीद् दशनज्योत्स्ना संहरन्मागधामरः ॥१३६॥ ततस्तमूचुरभ्यर्णाः सुरा दृष्ट परम्पराः । प्रभु शमयितुं क्रोधाद् विद्या वृद्वैविभोः स्थितिः ॥१३॥ यथार्थं वरमर्थ्य च मितं च बहुविस्तरम् । अनाकुलं च गम्भीरं नाधियामीदृशं वचः ॥१३८॥ सत्यं परिभवः मोढुमशक्यो मानशालिनाम् । बलवद्भिर्विरोधस्तु स्त्रपराभवकारणम् ॥१३९॥ सत्यमेव यशो रक्ष्यं प्राणैरपि धनैरपि । तत्तु प्रभुमनाश्रित्य कथं लभ्येत धीधनैः ॥१४॥ अलब्धभावो लब्धार्थपरिरक्षणमित्यपि । द्वयमेतत् सुग्वाल्लभ्यं जिगीषो श्रयं विना ॥१४१॥ बलिनामपि सन्न्येव बलीयांसो मनस्विनः । बलवानहमस्मीति नोत्संक्तव्यमतः परम् ॥१४२॥ न किंचिदप्यनालोच्य विधेयं सिद्धिकाम्यता । ततः शरः कुतस्योऽयं किमीयों वेति मृग्यताम् ॥११३॥ श्रतं च बहुशोऽस्माभिराप्तीयं पुष्कलं वचः । जिनाश्चक्रधरैस्पार्ध वस्यन्ताहेति भारते ॥१४४॥ ननं चक्रिण एवायं जयाशंसी शरागमः । धूतान्धतमसोद्योतः संभाव्योऽन्यत्र किरवेः ॥११५॥ अथवा खलु संशय्य चक्रपाणेरयं शरः । व्यनक्ति व्यक्तमेवैनं तन्नामाक्षरमालिका ॥१४६॥ से मेरी क्रोधरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेवाला हो ॥१३५॥ इस प्रकार वह मागध देव क्रोधसे तिरस्कारके साथ-साथ कठोर वचन कहकर दाँतोंकी कान्तिको संकुचित करता हुआ जब चुप हो रहा ॥१३६।। तब कुल-परम्पराको देखनेवाले समीपवर्ती देव उसका क्रोध शमन करनेके लिए उससे कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि राजा लोगोंकी स्थिति विद्याकी अपेक्षा वृद्ध हुए मनुष्योंसे ही होती है, भावार्थ-जो मनुष्य विद्यावृद्ध अर्थात् विद्याकी अपेक्षा बड़े हैं उन्हींसे राजा लोगोंकी मर्यादा स्थिर रहती है किन्तु जो मनुष्य केवल अवस्थासे बड़े हैं उनसे कुछ लाभ नहीं होता ॥१३७। उन देवोंने जो वचन कहे थे वे समयके अनुकूल थे, अर्थसे भरे हुए थे, परिमित थे, अर्थको अपेक्षा बहुत विस्तारवाले थे, आकुलतारहित थे और गम्भीर थे सो ठीक ही है क्योंकि मूर्खाके ऐसे वचन कभी नहीं निकलते हैं ॥१३८। उन देवोंने कहा कि हे प्रभो, यह ठीक है कि अभिमानी मनुष्योंको अपना पराभव सहन नहीं हो सकता है परन्तु बलवान् पुरुषोंके साथ विरोध करना भी तो अपने पराभवका कारण है ॥१३९।। यह बिलकुल ठीक है कि अपने प्राण अथवा धन देकर भी यशकी रक्षा करनी चाहिए परन्तु वह यश किसी समर्थ पुरुषका आश्रय किये बिना बुद्धिमान् मनुष्योंको किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? ॥१४०॥ प्राप्त नहीं हुई वस्तुका प्राप्त होना और प्राप्त हुई वस्तुको रक्षा करना ये दोनों ही कार्य किसी विजिगीषु राजाके आश्रयके बिना सुखपूर्वक प्राप्त नहीं हो सकते ॥१४१॥ हे प्रभो, बलवान् मनुष्योंकी अपेक्षा और भी अधिक बलवान् तथा बुद्धिमान् हैं इसलिए मैं बलवान् हूँ इस प्रकार कभी गर्व नहीं करना चाहिए ।।१४२॥ सिद्धि अर्थात् सफलताको इच्छा करनेवाले पुरुषको बिना विचारे कुछ भी कार्य नहीं करना चाहिए इसलिए यह बाण कहाँसे आया है ? और किसका है ? पहले इस बातकी खोज करनी चाहिए ॥१४३।। इस भारतवर्ष में चक्रवर्तियोंके साथ तीर्थ कर निवास करेंगे, अवतार लेंगे ऐसे आप्त पुरुषोंके यथार्थ वचन हम लोगोंने अनेक बार सुने हैं ॥१४४॥ विजयको सूचित करनेवाला यह बाण अवश्य ही चक्रवर्तीका ही होगा क्योंकि सघन अन्धकारको नष्ट करनेवाला प्रकाश क्या सूर्यके सिवाय किसी अन्य वस्तुमें भी सम्भव हो सकता है ? अर्थात् नहीं ॥१४५।। अथवा इस विषयमें संशय करना व्यर्थ है । यह बाण चक्रवर्तीका ही है, क्योंकि इसपर खुदे हुए नामके अक्षरोंकी माला साफ-साफ हो १ प्रभोः स्थितिविद्यावद्धर्भवति हि । २ प्रभोः ल०। ३ यथावसरमत्यं च ८०, ल०, अ०, प०, स०, इ० । ४ अभिलषणीयम् । ५ बुद्धिहीनानाम् । ६ सिद्धि वाञ्छता। ७ कस्य संबन्धि । ८ विचार्यताम् । ९ आप्तसंबन्धि । १० रवि विवय॑ । ११ शङ्कां मा कार्षीः। १२ चक्रिनामाक्षर । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m अष्टाविंशतितम पर्व तदेनं शरमभ्यर्च्य गन्धमाल्याक्षतादिभिः । पूज्यायव विमोराज्ञा गत्वास्माभिः शरार्पणा ॥१७॥ मा गा मागध वैचित्यं' कार्यमेतद् विनिश्चिनु । न युक्तं तत्प्रतीपत्वं तव तदेशवासिनः ॥१५॥ तदलं देव संरभ्य तत्प्रातीयं न शान्तये । महतः सरिदोघस्य कः प्रतीपं तरन् सुखी ॥१४९॥ बलवाननुवर्त्यश्चेदनुनेयोऽद्य चक्रभृत् । महत्सु चैतसीं वृत्तिमामनन्स्यविपत्करीम् ॥१५॥ इहामुत्र च जन्तूनामुन्मत्यै पूज्यपूजनम् । तापं तत्रानुबध्नाति पूज्यपूजाव्यतिक्रमः ॥१५॥ इति तद्वचनास्किंचित् प्रबुद्ध इव तत्क्षणम् । अज्ञातमेवमेतत्स्यादित्यसौ प्रत्यपद्यत" ॥१५॥ ससंभ्रममिवास्याभूञ्चित्तं किंचित्ससाध्वसम् । साशङ्कमिव सोद्वेगं प्रबुद्धमिव च क्षणम् ॥१५३॥ ततः प्रसेदुषी तस्य नचिरादेव शेमुषी । पूर्वापरं व्यलोकिष्ट कोपापायात् प्रशेमुषी ॥१५॥ सोऽयं चक्रभृतामाद्यो भरतोऽलङ्घयशासनः । प्रतीक्ष्यः सर्वथास्माभिरनु नेयश्च सादरम् ॥१५५॥ चक्रित्वं चरमाङ्गत्वं पुत्रत्वं च जगद्गुरोः । इत्यस्य पूज्यमेकैकं किं पुनस्तत्समुच्चितम् ॥१५६॥ इति निश्चित्य "संभ्रान्तैरनुयातः सुरोत्तमैः । सहसा चक्रिणं द्रष्टुमुच्चचाल स मागधः ॥१५७॥ चक्रवर्तीको प्रकट कर रही है ॥१४६।। इसलिए गन्ध माला अक्षत आदिसे इस बाणकी पूजा कर हम लोगोंको आज ही वहाँ जाकर उनका यह बाण उन्हें अर्पण कर देना चाहिए और आज ही उनकी आज्ञा मान्य करनी चाहिए ॥१४७॥ हे मागध, आप किसी प्रकारके विकारको प्राप्त मत हूजिए, और हम लोगोंके द्वारा कहे हुए इस कार्यका अवश्य ही निश्चय कीजिए, क्योंकि उनके देशमें रहनेवाले आपको उनके साथ विरोध करना उचित नहीं है ॥१४८।। इसलिए हे देव, क्रोध करना व्यर्थ है, चक्रवर्तीके साथ वैर करनेसे कुछ शान्ति नहीं होगी क्योंकि नदीके बड़े भारी प्रवाहके प्रतिकूल तैरनेवाला कौन सुखी हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥१४९।। यदि बलवान् मनुष्यको अनुकूल बनाये रखना चाहिए यह नीति है तो चक्रवर्तीको आज ही प्रसन्न करना चाहिए, क्योंकि बड़े पुरुषोंके विषयमें बेंतके समान नम्र वृत्ति ही दुःख दूर करनेवालो है ऐसा विद्वान् लोग मानते हैं ॥१५०॥ पूज्य मनुष्योंकी पूजा करनेसे इस लोक तथा परलोक-दोनों ही लोकोंमें जीवोंको उन्नति होती है और पूज्य पुरुषों की पूजाका उल्लंघन अर्थात् अनादर करनेसे दोनों ही लोकोंमें पापबन्ध होता है ॥१५१।। इस प्रकार उन देवोंके वचनोंसे जिसे उसी समय कुछ-कुछ बोध उत्पन्न हुआ है ऐसे उस मागध देवने मुझे यह हाल मालूम नहीं था यह कहते हुए उनके वचन स्वीकार कर लिये ॥१५२॥ उस समय उसके चित्तमें कुछ घबड़ाहट, कुछ भय, कुछ आशंका, कुछ उद्वेग और कुछ प्रबोध-सा उत्पन्न हो रहा रहा था ॥१५३।। तदनन्तर थोड़ी ही देरमें निर्मल हुई और क्रोधके नष्ट हो जानेसे शान्त हुई उसकी बुद्धिने आगे पीछेका सब हाल देख लिया ॥१५४॥ यह वही चक्रवर्तियोंमें पहला चक्रवर्ती भरत है जिसकी कि आज्ञाका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता, हम लोगोंको हरएक प्रकारसे इसकी पूजा करनी चाहिए और आदरसहित इसकी आज्ञा माननी चाहिए ॥१५५।। यह चक्रवर्ती है, चरमशरीरी है और जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवका पुत्र है, इन तीनोंमें-से एकएक गुण ही पूज्य होता है फिर जिसमें तीनोंका समुदाय है उसकी तो बात ही क्या कहनी है ? ॥१५६।। इस प्रकार निश्चय कर वह मागध देव शीघ्र ही चक्रवर्तीको देखनेके लिए आकाश-मार्गसे चला, उस समय सम्भ्रमको प्राप्त हुए अनेक अच्छे-अच्छे देव उसके पीछे-पीछे १ चित्तविकारम् । २ चक्रिप्रतिकूलत्वम् । ३ -वर्तिनः ल०। ४ संरम्भ मा कार्षीः। (५ प्रातिकूल्यम् । ६ प्रवाहस्य । ७ वेतससम्बन्धिनीम्। अनुकूलतामित्यर्थः । ८ पापं ल०। ९ जन्तौ। १० एव । ११ अनुमेने । १२ इव अवधारणे। १३ प्रसन्नवती। १४ अलाकालेनैव । १५ उपशमवती । १६ पूज्यः । सांशयिकः, संशयापनमानसः । १७ सम्भ्रमवद्भिः ।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् खमुन्मणितिरीटांशुरचितेन्द्रशरासनम् । क्षणेनोल्लङ्घय संप्रापत् तं देशं यत्र चक्रभूत् ॥१५८॥ पुरोधार्य शरं रत्नपटले सुनिवेशितम् । मागधः प्रभुमानसी दार्य स्वीकुरु मामिति ॥१५९॥ चक्रोत्पत्तिक्षणे भद्र यन्नायामोऽनभिज्ञकाः । महान्तमपराधं नस्वं क्षमस्वार्थितो मुहुः॥१६॥ युष्मत्पादरजःस्पर्शाद् वार्धिरेव न केवलम् । पूता वयमपि श्रीमन् त्वत्पादाम्बुजसेवया ॥१६१॥ रत्नान्यमून्यनर्धाणि स्वर्गेऽप्यसुलभानि च । अधों" निधीनामाधातुं सोपयोगानि सन्तु ते ॥१६॥ हारोऽयमतिरोचिष्णुरवाराह रशुक्तिजैः । अवेणुद्विपसंभूतैः दृब्धो मुक्ताफलैर्युजैः ॥१६३॥ तव वक्षःस्थलाश्लेषा दुपेया दुपहारताम् । स्फुरन्ती' कुण्डले चामू कर्णासङ्गात् पवित्रताम् ॥१६४॥ इत्यस्मै कुण्डले दिव्ये हारं च विततार सः । त्रैलोक्यसारसंदोह मिवैकध्यमुपागतम् ॥१६५॥ रत्नैश्चाभ्यर्च्य रत्नेशं मागधः प्रीतमानसः । प्रभोरवाप्तसत्कारः तन्मतात् स्वमगात् पदम् ॥१६६॥ अथ तत्रस्थ एवाब्धि सान्तीपं विलोकयन् । प्रभुर्विसिस्मये किंचिद् बह्वाश्चर्यो हि वारिधिः ॥१६७॥ ततः कुतूहलाद वाधि पश्यन्तं धूर्गतः पतिम् । तमित्युवाच दन्तांशुसुमनोमारीः किरन् ॥१६८॥ पृथ्वीवृत्तम् अयं जलधिरुच्चलत्तरलवीचिबाहूद्धतस्फुरन्मणिगणार्चनो ध्वनदसङ्ख्यशङ्खाकुलः । तवार्षमिव संविधित्सुरनुवेलमुच्चै दन् मरुद्भुतजलानको दिशतु शश्वदानन्दथुम् ॥१६९॥ जा रहे थे ॥१५७॥ देदीप्यमान मणियोंसे जड़े हुए मुकुटकी किरणोंसे जिसमें इन्द्रधनुष बन रहा है ऐसे आकाशको क्षण-भरमें उल्लंघन कर वह मागध देव जहाँ चक्रवर्ती था उस स्थानपर जा पहुँचा ॥१५८॥ रत्नके पिटारेमें रखे हुए बाणको सामने रखकर मागध देवने भरतके लिए नमस्कार किया और कहा कि हे आर्य, मुझे स्वीकार कीजिए-अपना ही समझिए ॥१५९।। हे भद्र, हम अज्ञानी लोग चक्र उत्पन्न होनेके समय ही नहीं आये सो आप हमारे इस भारी अपराधको क्षमा कर दीजिए, हम बार-बार प्रार्थना करते हैं ॥१६०॥ हे श्रीमन्, आपके चरणोंकी धलिके स्पर्शसे केवल यह समद्र ही पवित्र नहीं हुआ है किन्त आपके चरणकमलोंकी सेवा करनेसे हम लोग भी पवित्र हो गये हैं ॥१६१॥ हे प्रभो, यद्यपि ये रत्न अमूल्य हैं और स्वर्गमें भी दुर्लभ हैं तथापि आपकी निधियोंके नीचे रखनेके काम आवें ॥१६२।। यह अतिशय देदीप्यमान तथा सूअर, सीप, बाँस और हाथीमें उत्पन्न न होनेवाले दिव्य मोतियोंसे गुथा हुआ हार आपके वक्षःस्थलके आलिंगनसे पूज्यताको प्राप्त हो तथा ये देदीप्यमान-चमकते हुए दोनों कुण्डल आपके कानोंकी संगतिसे पवित्रताको प्राप्त हों ॥१६३-१६४॥ इस प्रकार उस मागध देवने एकरूपताको प्राप्त हुए तीनों लोकोंकी सार वस्तुओंके समुदायके समान सुशोभित होनेवाला हार और दोनों दिव्य कुण्डल भरतके लिए समर्पित किये ।।१६५॥ तदनन्तर जिसका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है ऐसे मागध देवने अनेक प्रकारके रत्नोंसे रत्नोंके स्वामी भरत चक्रवर्तीकी पूजा की और फिर उनसे आदर-सत्कार पाकर उन्हींकी सम्मतिसे वह अपने स्थानपर चला गया ॥१६६॥ अथानन्तर-वहाँ खड़े रहकर ही अन्तर्वीपोंसहित समुद्रको देखते हुए महाराज भरतको कुछ आश्चर्य हुआ सो ठीक ही है क्योंकि वह लवणसमुद्र अनेक आश्चर्योंसे सहित था ॥१६७॥ तदनन्तर दाँतोंकी किरणेंरूपी पुष्पमंजरीको बिखेरता हुआ सारथि कौतूहलसे समुद्रको देखनेवाले भरतसें इस प्रकार कहने लगा ॥१६८॥ कि, उछलती. हुई चंचल लहरों १ अग्रे कृत्वा। २ नमस्करोति स्म। ३ आगताः । ४ प्राथितः । ५ निधि प्रयत्नेन स्थापयितुमधः शिलाकर्तुं सप्रयोजनानि भवन्त्विति भावः। ६ न सूकरजैः । ७ इक्षुजैः । ८ संगात् । ९ उपगच्छत् । १० पूज्यताम् । ११ स्फुरती कुण्डले चेमे ल० । १२ एकप्रकारम् । १३ विस्मितवान् । १४ यानमुखं गतः । सारथिरित्यर्थः । १५ आनन्दम् । १० पूज्यताम् । ११त्वात भावः। ६ न सकरातः । ५ निधि प्रयत्नेन स्थान Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व अमुष्यजलमुत्पतद्गगनमेतदालक्ष्यते शशाङ्ककरकोमलच्छविभिराततं शीकरैः । प्रहासमिव दिग्वधू परिचयाय विश्वग्दधत् तितांस दिव चात्मनः प्रतिदिशं यशो भागशः ॥ १७० ॥ क्वचित्स्फुटितशुक्तिमौनिकततं सतारं नभो जयत्य लिकलीमसं मकरमीनराशिश्रितम् । क्वचित्सलिलमस्य भोगिकुल संकुलं सून्नतं नरेन्द्र कुलमुत्तम स्थितिजिगीषतीवोद्भयम् ॥ १७१ ॥ इतो विशति गाङ्गमम्बु शरदम्बुदाच्छच्छवि स्रुतं हिमवतोऽमुतश्च सुरसं पयः सैन्धवम् । तथापि न जलागमेन धृतिरस्य पोपूर्यते ध्रुवं न जलसंग्रहैरिह जलाशयो' द्वायति ॥ १७२॥ वसन्ततिलकावृत्तम् व्याप्योदरं चलकुलाचलसंनिकाशाः पुत्रा इवास्य तिमयः पयसा प्रपुष्टाः । कल्लोलकाच परिमारहिताः समन्तादन्योन्य घट्टनपराः सममावसन्ति ॥ १७३॥ ५.१ रूपी भुजाओं के द्वारा धारण किये हुए देदीप्यमान मणियोंके समूह ही जिसकी पूजा की सामग्री हैं, जो शब्द करते हुए असंख्यात शंखोंसे आकुल है, जो प्रत्येक बेलाके साथ जोरसे शब्द कर रहा है, वायुके द्वारा कम्पित हुआ जल ही जिसके नगाड़े हैं और जो इन सबसे ऐसा जान पड़ता मानो आपके लिए अर्घं ही देना चाहता हो ऐसा यह समुद्र सदा आपके लिए आनन्द देवे ।। १६९ ॥ आकाशकी ओर उछलता हुआ और चन्द्रमाकी किरणोंके समान कोमल कान्तिवाले जलके छोटे-छोटे छींटोंसे व्याप्त हुआ इस समुद्रका यह जल ऐसा जान पड़ता है मानो दिशारूपी स्त्रियोंके साथ परिचय करने के लिए चारों ओरसे हास्य ही कर रहा हो अथवा अपना यश बाँटकर प्रत्येक दिशा में फैलाना ही चाहता हो ॥ १७० ॥ खुली हुई सीपोंके मोतियोंसे व्याप्त हुआ, भ्रमर के समान काला और मकर, मीन, मगरमच्छ आदि जल-जन्तुओंकी राशि - समूहसे भरा हुआ यह समुद्रका जल कहीं ताराओं सहित, भ्रमर के समान श्याम और मकर मीन आदि राशियों से भरे हुए आकाशको जीतता है तो कहीं राजाओंके कुलको जीतना चाहता है क्योंकि जिस प्रकार राजाओंका कुल भोगी अर्थात् राजाओंके समूहसे व्याप्त रहता है उसी प्रकार यह जल भी भोगी अर्थात् सर्पोंके समूहसे व्याप्त है, जिस प्रकार राजाओं का कुल सून्नत अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट होता है उसी प्रकार यह जल भी सून्नत अर्थात् अत्यन्त ऊँचा है, जिस प्रकार राजाओंका कुल उत्तम स्थिति अर्थात् मर्यादासे सहित होता है उसी प्रकार यह जल भी उत्तम स्थिति अर्थात् अवधि ( हद) से सहित है, और राजाओंका कुल जिस प्रकार उद्भट अर्थात् उत्कृष्ट योद्धाओंसे हित होता है उसी प्रकार यह जल भी उद्भट अर्थात् प्रबल है ।। १७१ । । इधर हिमवान् पर्वतसे निकला हुआ तथा शरदऋतुके बादलोंके समान स्वच्छ कान्तिको धारण करनेवाला गंगा नदीका जल प्रवेश कर रहा है और उस ओर सिन्धु नदीका मीठा जल प्रवेश कर रहा है, फिर भी जलके आने से इसका सन्तोष पूरा नहीं होता है, सो ठीक ही है क्योंकि जलाशय ( जिसके बोचमें जल है, पक्षमें जड़ आशयवाला - मूर्ख) जल ( पक्ष में जड़ - मूर्ख) के संग्रहसे कभी भी सन्तुष्ट नहीं होता है । भावार्थ - जिस प्रकार जलाशय जडाशय अर्थात् मूर्ख मनुष्य जलसंग्रह - जड़संग्रह अर्थात् मूर्ख मनुष्योंके संग्रह से सन्तुष्ट नहीं होता उसी प्रकार जलाशय अर्थात् जलसे भरा हुआ समुद्र या तालाब जल संग्रह अर्थात् पानी के संग्रह करनेसे सन्तुष्ट नहीं होता ॥ १७२ ॥ । इस समुद्रके उदर अर्थात् मध्यभाग अथवा पेटमें व्याप्त होकर पय अर्थात् जल अथवा दूधसे अत्यन्त पुष्ट हुए तथा चलते हुए कुलाचलोंके समान बड़े-बड़े इसके पुत्रोंके समान मगरमच्छ और प्रमाणरहित १ विस्तारितुमिच्छत् । २ सर्पममूह पक्षे भोगिसमूह | ३ सिन्धु नदीसंबन्धि । ४ जलाधारः जडबुद्धिश्च । ५ द्रायति तृप्यति । द्वै तृप्ती । - ६ माविशन्ति ल०, द० । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आदिपुराणम् आपो धनं धृतरसाः सरितोऽस्य दाराः पुत्रीयिता जलचराः सिकताश्च रनम् । इत्थं विभूति लवदुर्ललितो विचित्रं धत्ते महोदधिरिति प्रथि मानमेषः ॥ १७४॥ निःश्वासधूममलिनाः फणमण्डलान्तः सुव्य करत्नरुचयः परितो भ्रमन्तः । व्यायच्छमानतनवो रुषित रकस्मादब्रोल्मुकश्रियममी दधते फणीन्द्राः ॥१७५॥ पादैरयं जलनिधिः शिशिरैरपीन्दोरास्पृश्यमानसलिलः सहसा ख मुद्यन् । रोषादिवोच्चलति मुक्तगभीरभाषो वेलाच्छलेन"न महान् सहतेऽभिभूतिम् ॥१७६॥ नाकौकसां धृतरसं"सहकामिनीभिराक्रीडनानि "सुमनोहरकाननानि । द्वीपस्थलानि रुचिराणि सहस्रशोऽस्मिन् सन्त्यन्तरीपमिव दुर्गनिवेशनानि ॥१७७॥ अनेक लहरें ये सब चारों ओरसे एक दूसरेको धक्का देते हुए एक ही साथ इस समुद्र में निवास कर रहे हैं ॥१७३॥ हे प्रभो, इस समुद्रके जल ही धन हैं, रस अर्थात् जल अथवा शृंगार या स्नेहको धारण करनेवाली नदियाँ ही इसकी स्त्रियां हैं, मगरमच्छ आदि जलचर जीव ही इसके पुत्र हैं और बालू ही इसके रत्न हैं इस प्रकार यह थोड़ी-सी विभूतिको धारण करता है तथापि महोदधि इस भारी प्रसिद्धिको धारण करता है यह आश्चर्यको बात है। भावार्थ - इस श्लोकमें कविने समुद्रकी दरिद्र अवस्थाका चित्रण कर उसके महोदधि नामपर आश्चर्य प्रकट किया है। दरिद्र अवस्थाका चित्रण इस प्रकार है। हे प्रभो, इस समुद्रके पास आजीविकाके योग्य कुछ भी धन नहीं है । केवल जल ही इसका धन है अर्थात् दूसरोको पानी पिला पिलाकर ही अपना निर्वाह करता है. इसकी नदीरूप स्त्रियोंका भी बुरा हाल है वे वेचारी रस-जल धारण करके अर्थात् दूसरेका पानी भर-भरकर ही अपनी आजीविका चलाती हैं। पुत्र हैं परन्तु वे सब जलचर अर्थात् ( जडचर ) मूर्ख मनुष्योंके नौकर हैं अथवा मूर्ख होनेसे नौकर हैं अथवा पानीमें रहकर शेवाल बीनना आदि तुच्छ कार्य करते हैं, इसके सिवाय कुलपरम्परासे आयो हुई सोना-चाँदी रत्न आदिकी सम्पत्ति भी इसके पास कुछ नहीं है - बाल ही इसके रत्न हैं, यद्यपि इसमें अनेक रत्न पैदा होते हैं परन्तु वे इसके निजके नहीं हैं उन्हें दूसरे लोग ले जाते हैं इसलिए दूसरेके ही समझना चाहिए इस प्रकार यह बिलकुल ही दरिद्र है फिर भी महोदधि ( महा +उ+दधिक ) अर्थात् लक्ष्मीका बड़ा भारी निवासस्थान इस नामको धारण करता है यह आश्चर्यकी बात है । आश्चर्यका परिहार ऊपर लिखा जा चुका है ॥१७४।। जो निःश्वासके साथ निकलते हुए धूमसे मलिन हो रहे हैं, जिनके फणाओंके मध्यभागमें रत्नोंकी कान्ति स्पष्ट रूपसे प्रकट हो रही है, जो चारों ओर गोलाकार घूम रहे हैं, जिनके शरीर बहुत लम्बे हैं. और जो अकस्मात ही क्रोध करने लगते हैं ऐसे ये सर्प इस समद्र में अलातचक्रकी शोभा धारण कर रहे हैं ॥१७५॥ इस समुद्र का जल चन्द्रमाके शीतल पादों अर्थात् पैरोंसे (किरणोंसे) स्पर्श किया जा रहा है, इसलिए ही मानो यह क्रोधसे गम्भीर शब्द करता हुआ ज्वारकी लहरोंके छलसे बदला चुकानेके लिए अकस्मात् आकाशकी ओर उछलकर दौड़ रहा है सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष तिरस्कार नहीं सह सकते ॥१७६॥ इस समुद्र के जलके १ पुत्रा इव आचरिताः । २ विभूतरैश्वर्यस्य लवो लेशस्तेन दुर्ललितो दुर्गवः । लवशब्दोऽत्र विचित्रकारणम् । ३ प्रसिद्धताम् । ४ फणमण्डलमध्ये। ५ सुप्रकट । ६ दीर्घ भवच्छरीराः। ७ रोषैः। ८ अलातशोभाम् । ९ किरणः चरणरिति ध्वनिः । १०-दिवोच्छ्वलति ल०। ११ जलविकारव्याजेन । 'अब्ध्यम्बुविकृता वेला' इत्यभिधानात् । १२ पराभवम् । १३ क्रियाविशेषणम् । मतिरसं द० । प्रतरसां ल० । १४ आसमन्तात् क्रीडनानि येषु तानि । १५ समनोहर इत्यपि क्वचित् पाठः । १६ अन्तीपमिव । 'द्वीपोऽस्त्रियामन्तरोपं यदन्तर्वारिणस्तटम् ।' इत्यभिधानात् । १७ महाद्वीपमध्यवर्तीनि गिरिदुर्गादिनिवेशनानि च सन्तीत्यर्थः । * 'दधि क्षीरोत्तरावस्थाभाषे श्रीवाससर्जयोः' इति मेदिनी। विभतेरैश्वर्यस्य लबो लट दीर्घभवच्छर मारण्याजेन । अव्यम्समन्तात का इव आचरिताः । २ फणमण्डलमध्ये । पाच्छवलति ल० । ११ जलतरसां ल० । १४यामन्तरीप Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व मालिनीवृत्तम् अयमनिभृतवेलो रुद्ररोधोऽन्तरालैरनिल बलविलोलैर्भूरिकल्लोलजालैः । तटवनमभिहन्ति व्यक्तमस्मै प्ररुण्यन् मम किल बहिरस्मान्नास्ति वृत्तिर्मुधेति ॥ १७८ ॥ अविगणितमहत्त्वा यूयमस्मान् स्वपादैरभिहथ' किमलध्यं वो वृथा तौङ्गयमेतत् । वयमिव किमलङ्घयाः किं गभीरा इतीत्थं परिवदति 'विराबैर्नून मब्धिः कुलाद्वीन् ॥१७९॥ प्रहर्षिणीवृत्तम् अत्रायं भुजगशिशुबिलाभिशङ्की 'व्यात्तास्यं तिमिमभिधावति प्रहृष्टः । तं सोऽपि स्वगलबिलावल मलमं स्वान्त्रास्था" विहितदयो न जेगिलीति ॥ १८० ॥ दोधकवृत्तम् महामणिरश्मिविकीर्णं तोयममुष्य धृतामिषशङ्कः । एष१२ मीनगणोऽनुसरन् सहसास्माद् वह्निभिया पुनरप्यपयाति ॥ १८१ ॥ लोलतरङ्गविलोलितदृष्टिर्वृद्धतरोऽसुमतिः" सुमतं` नः। १७ १८ ही रथमेष तिमिङ्गिलशङ्की पश्यति पश्य तिमिः स्तिमिताक्षः ॥ १८२ ॥ भुजङ्गप्रयातवृत्तम् ९ इहामी भुजङ्गाः सरत्नैः फणामैः समुत्क्षिप्य भोगान् खमुद्वीक्षमाणाः । विभाव्यन्त एते तरङ्गीरुहस्तैर्धृता दीपिकौघा महावार्धिनेव ॥ १८३॥ ५३ भीतर अपनी देवांगनाओं के साथ बड़े वेग से आते हुए देवोंके हजारों क्रीड़ा करनेके स्थान हैं, हजारों मनोहर वन हैं और हजारों सुन्दर द्वीप हैं तथा वे सब ऐसे जान पड़ते हैं मानो इसके भीतर बने हुए किले ही हों ॥। १७७ ॥ ज्वार-भाटाओंसे चंचल हुआ यह समुद्र इस वनके बाहर मेरा जाना नहीं हो सकता है इसलिए इसपर प्रकट क्रोध करता हुआ अपने किनारेके वनको वायुके वेगसे अतिशय चंचल और पृथिवी तथा आकाशके मध्य भागको रोकनेवाली अनेक लहरोंके समूह से व्यर्थ ही ताड़न कर रहा है ।। १७८ ।। हे प्रभो, यह गरजता हुआ समुद्र ऐसा जान पड़ता है मानो अपने ऊँचे शब्दोंसे कुल पर्वतोंको यही कह रहा है कि हे कुलपर्वतो, तुम्हारी ऊँचाई बहुत है इसलिए क्या तुम अपने पैरों अर्थात् अन्तके भागोंसे हम लोगों की ताड़ना कर रहे हो ? तुम्हारी यह व्यर्थकी ऊंचाई क्या उल्लंघन करनेके अयोग्य है ? क्या तुम हमारे समान अलंध्य अथवा गम्भीर हो ? ॥ १७९ ।। इधर यह साँपका बच्चा अपना बिल समझकर प्रसन्न होता हुआ, मुख फाड़े हुए मच्छके मुखमें दौड़ा जा रहा है और वह भी अपने गले रूप बिल में लगे हुए इस साँपके बच्चेको अपनी आँत समझ दयाके कारण नहीं निगल रहा है ।। १८०।। इधर यह मछलियोंका समूह पद्मराग मणिकी किरणोंसे व्याप्त हुए इस समुद्र जलको मांस समझकर उसे लेनेके लिए दौड़ता है और फिर अकस्मात् ही अग्नि समझकर वहाँसे लौट आता है ।।१८१ ॥ हे देव, इधर देखिए, चंचल लहरोंसे जिसकी दृष्टि चंचल हो रही है और जो बहुत ही बूढ़ा है ऐसा यह मच्छ इस रथको मछलियोंको खानेवाला बड़ा मच्छ समझकर निश्चल दृष्टिसे देख रहा है, हमारा खयाल है कि यह बड़ा दुर्बुद्धि है || १८२ ॥ इधर १ अस्थिर । अचलमित्यर्थः । २ आकाशमण्डलै: 'भूम्याकाशरहः प्रयोगानयेषु रोधस्' । ३ तटवनाय । ४ वृथा । ५ अभिताडयथ । ६ पक्षिध्वनिभिः । ७ इव । ८ विवृताननम् । ९ मध्य । मध्यमं चावलग्नं च योsस्त्री' इत्यमरः । १० निजपुरीतद्विद्याकृतकृतय: ( ? ) [ निजपुरीत द्विभ्रमकृतदयः ] १९ भृशं गिलति । '१२ पद्मराग । १३ समुद्रस्य । १४ पलल । १५ अशोभनबुद्धिः । १६ साधुज्ञातम् । १७ मत्स्यः । १८ 'स्तिमिता बार्द्ध निश्चलामित्यभिधानात् । १९ शरीराणि । 'भोगः सुखे स्त्र्यादिभृतावहेरच फणकाययोः' । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् भुजङ्गप्रयातैरिदं वारिराशेर्जलं लक्ष्यतेऽन्तःस्फुरद्रत्नकोटि । महानीलवेश्मेव दीपैरनेकैवलगिश्वलद्भिस्ततध्वान्तनुद्भिः ॥१८४॥ मत्तमयूरवृत्तम् वातावाता "पुकरवाद्यब्वनिमुच्चैस्तन्वानेधो मन्द्रगनीरं कृतलास्याः । द्वीपोपान्त सन्ततमस्पिन सुरकन्या रंरम्यन्त मतमयरैः सममेताः ॥१८५॥ नीलं श्यामाः कृतरवमुच्चैर्धतनादा विद्युद्वन्तः स्फुरितभुजङ्गोत्कणरत्नम् । आश्लिष्यन्ती जलदसमूहा जलमस्य व्यक्ति नोपवजितुमलं ते घनकाले ॥१८६॥ पश्याम्भोधेरनुतटमेनां वनराजी राजीवास्य प्रशमिततापां विततापाम् ।। वेलोत्सर्पजलकणिकाभिः'' परिधौता नीलां शाटीमिव सुमनोभिः प्रविकीर्णाम् ॥१८७॥ तोटकवृत्तम् परितः सरसीः सरसैः कमलैः सुहिताः सुचिरं विचरन्ति मृगाः । "उपतीरममुष्य निसर्गसुखां वसतिं' 'निरुपद्रुतिमेत्य वने ॥१८८॥ अनुतीरवनं मृगयूथमिदं कनकस्थलमुज्ज्वलितं रुचिभिः । परिवीक्ष्य दवानलशङ्कि भृशं परिधावति धावति तीरभुवः ॥१८९॥. रत्नसहित फणाके अग्रभागसे अपने मस्तकको ऊँचा उठाकर आकाशकी ओर देखते हुए ये सर्प ऐसे जान पड़ते हैं मानो इस महासमुद्रने अपने तरंगोंरूपी बड़े-बड़े हाथोंसे दीपकोंके समूह ही धारण कर रखे हों ॥१८३।। जिसके भीतर करोड़ों रत्न देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा यह महासमद्रका जल सोके इधर-उधर जानेसे ऐसा दिखाई देता है मानो फैले हए अन्धकारको नष्ट करते हुए, जलते हुए और चलते हुए अनेक दीपकोंसे सहित महानील मणियोंका बना हुआ घर हो हो ।।१८४॥ जिस समय यह समुद्र वायुके आघातसे पुष्कर ( एक प्रकारका बाजा )के समान गम्भीर और ऊँचे शब्द करता है उस समय इस द्वीपके किनारेपर इन उन्मत्त मयूरोंके साथ साथ नृत्य करती हुई ये देवकन्याएँ निरन्तर क्रीड़ा किया करती हैं ।। १८५ ॥ वर्षाऋतुमें बादलोंके समूह और इस समुद्रका जल दोनों एक समान रहते हैं क्योंकि वर्षाऋतुमें बादलोंके समूह काले रहते हैं और समुद्रका जल भी काला रहता है, बादलोंके समूह जोरसे गरजते हुए आनन्दित होते हैं और समुद्रका जल भी जोरसे शब्द करता हुआ आनन्दित होता है - लहराता रहता है, बादलोंके समूहमें बिजली चमकती है और समुद्रके जलमें भी सर्पोके ऊँचे उठे हुए फणाओंपर रत्न चमकते रहते हैं, इस प्रकार बादलोंके समूह अपने समान इस समुद्रके जलका आलिंगन करते हुए वर्षाऋतुमें किसी दूसरी जगह नहीं जा सकते यह स्पष्ट है ।। १८६ ।। कमलके समान सुन्दर मुखको धारण करनेवाले हे देव, समुद्र के किनारे-किनारेकी इन वनपंक्तियोंको देखिए जिनमें कि सूर्यका सन्ताप बिलकुल ही शान्त हो गया है, जहाँ-तहाँ विस्तृत जल भरा हुआ है, जो फूलोंसे व्याप्त हो रही हैं और जो बेड़ी-बड़ी लहरोंके उछलते हुए जलकी बूंदोंसे धोई हुई नीले रंगको साड़ियोंके समान जान पड़ती हैं ।।१८७॥ इस समुद्रके किनारेके वनमें उपद्रवरहित तथा स्वभावसे ही सुख देनेवाले स्थानपर आकर सरस कलमी धानोंको खाते हुए ये हरिण बहुत काल तक इन तालाबोंके चारों ओर घूमा करते हैं ॥१८८। इस किनारेके वनमें कान्ति १ व्याप्तान्धकारनाशकैः । २ जलमिति वाद्य अथवा चर्मानद्धवाद्यभेदः । ३ सममेतैः ल०, द० । ४ धृतमोदा ल। ५ तडिद्वन्तः । ६ व्यक्तं ल०। ७ गन्तुम् । ८ मेघसम्हाः । ९ कमलास्य । १० विस्तृतजलाम् । ११ जललवैः । 'कणिका कथ्यतेऽत्यन्ता सूक्ष्मवस्त्वग्निमन्थयो:' ।। १२ वस्त्रम् । १३ सरसीनां समन्ततः । १४ पोषिताः । १५ तटे। १६निरुपद्रवाम । १७ तटवने । १८ परिमण्डले (वेलायाम्) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं.पर्व ५५ प्रहर्षिणी लावण्यादयमभिसारयन् सरित्स्त्रीरास्रस्तप्रतनुजलांशुकास्तरङ्गैः । आश्लिप्यन्मुहुरपि नोफ्याति तृप्तिं संभोगैरतिरसिको न तृप्यतीह ॥१६॥ वसन्ततिलका रो धोभुवोऽस्य तनुशीकरवारिसिक्ताः संमार्जिता विरलमुच्चलितैस्तरङ्गैः ।। भान्तीह संततलताविगलत्प्रसूननित्योपहारसुभगा धुसदा निषेव्याः ॥१९१॥ मन्दाक्रान्ता स्वर्गाद्यानश्रिय मिव हसत्युत्प्रसूने वनेऽस्मिन् मन्दासणां सरति पवने मन्दमन्दं वनान्तात् । मन्दाक्रान्ताः सललितपदं किंचिदारब्धगानाश्चङ्कम्यन्ते खगयुवतयस्तीरदेशेष्वमुप्य ॥१९२॥ प्रहर्षिणी अप्सव्य स्तिमिरयमाजिघां सुरारादभ्येति द्रुतममिभावुकोप्सुयोनिम्"। शैलोच्चानपि निगिलंस्तिमीनितोऽन्यो व्यत्यास्ते समममुना युयुत्समानः ॥१९३॥ पृथ्वी जलादजगरस्तिमि शयुमपि स्थलादप्सुजो विकर्षति" युयुत्सया कृतदृढग्रहो दुर्ग्रहः । तथापि न जयो मिथोऽस्ति समकक्ष्ययोरेनयोधुवं न 'समकक्ष्ययोरिह जयेतरप्रक्रमः ॥१९॥ से प्रकाशमान सुवर्णमय स्थानोंको देखकर जिसे दावानलकी शंका हो रही है ऐसा यह हरिणोंका समूह बहुत शीघ्र किनारेको पृथ्वीकी ओर लौटता हुआ दौड़ा जा रहा है ॥ १८९ ॥ यह समुद्र, जिनके जलरूपी सूक्ष्म वस्त्र कुछ-कुछ नीचेकी ओर खिसक गये हैं ऐसी नदीरूपी स्त्रियोंको लावण्य अर्थात् सुन्दरताके कारण ( पक्षमें खारापनके कारण ) अपनी ओर बुलाता हुआ तथा तरंगोंके द्वारा बार-बार उनका आलिंगन करता हुआ भी कभी तृप्तिको प्राप्त नहीं होता सो ठीक ही है क्योंकि जो अत्यन्त रसिक अर्थात् कामी ( पक्षमें जलसहित ) होता है वह इस संसारमें अनेक बार सम्भोग करनेपर भी तृप्त नहीं होता है ॥१९०॥ जो छोटी-छोटी बूंदोंके पानीके सींचनेसे स्वच्छ हो गयी हैं, निरन्तर लताओंसे गिरते हुए फूलोंके उपहारसे जो सदा सुन्दर जान पड़ती हैं, और जो देवोंके द्वारा सेवन करने योग्य हैं ऐसी ये यहाँकी किनारेकी भूमियाँ विरल-विरल रूपसे उछलती हुई लहरोंसे अत्यन्त सुशोभित हो रही हैं । १९१ ॥ स्वर्गके उपवनकी शोभाकी ओर हँसनेवाले तथा फूलोंसे भरे हुए इस वनमें मन्दार वृक्षोंके वनके मध्य भागसे यह वायु धीरे-धीरे चल रहा है और इसी समय जिन्होंने कुछ-कुछ गाना प्रारम्भ किया है ऐसी ये धीरे-धीरे चलनेवाली विद्याधरियाँ इस समुद्रके किनारेके प्रदेशोंपर लीलापूर्वक पैर रखती उठाती हुई टहल रही हैं ॥ १९२ ।। इधर, इस जलमें उत्पन्न हुए अन्य अनेक मच्छोंको तिरस्कार कर उनके मारनेकी इच्छा करता हुआ यह इसी जलमें उत्पन्न हुआ बड़ा मच्छ बहुत शीघ्र दूरसे उनके सन्मुख आ रहा है और पर्वतके समान बड़े-बड़े मच्छोंको निगलता हुआ यह दूसरा बड़ा मच्छ उस पहले बड़े मच्छके साथ युद्ध करनेकी इच्छा करता हुआ खड़ा है।।१९३॥ इधर, यह अजगर जलमें-से किसी बड़े मच्छको अपनी ओर खींच रहा है और मजबूतीसे पकड़ने- । १ अभिसारिकाः कुर्वन् । २ श्लक्ष्ण । ३ तटभूमयः । ४ देवानाम् । ५ हसतीति हसत् तस्मिन् । ६ सरतीति सरत् तस्मिन् । ७ मन्दगमनाः । ८ अप्सु भवः । ९ आहन्तुमिच्छुः । १० अभिभवशीलः । ११ शङ्ख जलचरं वा। १२ वैपरीत्येन स्थितः । १३ अजगरम् । १४ मत्स्यः । १५ आकर्षति । १६ योद्धमिच्छया। १७ परस्परविहितदृढग्रहणम् । ग्रहः स्वीकारः। १८ गृहीतुमशक्यः। १९ समबलयोः । २० अपजयः । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् वन वनगरिदं जलनिधेः समास्फालितं वनं वनगजैरिव स्फुटविमुक्तसाराविणम् । मृदङ्गपरिवादनश्रियमुपादधदिक्तटे तनोति तटमुच्चलस्सपदि दत्तसंमार्जनम् ॥१९५॥ तरत्तिमिकलेवरं स्फुटितशुक्तिशल्का चितं स्फुरत्परुषनिःस्वनं विवृतरन्ध्रपातालकम् । भयानकमितो जलं जलनिधेर्ल सत्पन्नगप्रमुकतनु कृत्तिसंशयितवीचिमालाकुलम् ॥१९६॥ इतो धुतवनोऽनिलः शिशिरशीकरानाकिरमुपैति शनकैस्तद्रुमसुगन्धिपुष्पाहरः । इतश्च परुषोऽनिलः स्फुरति धूतकल्लोलसात् कृतस्वनभयानकस्तिमिकलेवरानाधुनन् ॥१९७॥ शार्दूलविक्रीडितम् अस्योपान्तभुवश्चकासति तरां वेलोच्चलन्मौक्तिकैराकीर्णाः कुसुमोपहारजनितां लक्ष्मी दधाना भृशम् । सेवन्ते सह सुन्दरीभिरमरा याः स्वर्गलोकान्तरं मन्वाना धृतसंमदास्तटवनच्छायातरून्संश्रिताः ॥१८॥ एते ते मकरादयो जलचरा मत्वेव कुक्षिम्भरि वारां राशिमनन्तरायमधिकं पुत्रा इवास्यौरसाः । भागस्य प्रतिलिप्पया नु जनकस्याक्रोशतोप्यग्रतो युध्यन्ते मिलिताः परस्परमहो बद्धधो धिग्धनम्। १९९। लोकानन्दिमिरप्रमा परिगतैरुच्चावचैर्भोगिना मारूडैरधिमस्तक शुचितमैः संतापविच्छेदिमिः। पातालैर्विवृताननैर्मुहरपि प्राप्तव्ययैरक्षयैरासंसारममुख्य नास्ति विगमो रनर्जलौघेरपि ॥२०॥ वाला यह दुष्ट मच्छ भी लड़नेकी इच्छासे उसे जमीनपर-से अपनी ओर खींच रहा है तथापि एक समान बल रखनेवाले इन दोनोंमें परस्पर किसीकी जीत नहीं हो रही है सो ठीक ही है क्योंकि इस संसारमें जो समान शक्तिवाले हैं उनमें परस्पर जय और पराजयका निर्णय नहीं होता है ।। ।।१९४॥ जंगली हाथियोंके द्वारा अतिशय ताड़न किया हुआ यह समुद्रका जल, जिसमें जंगली हाथी स्पष्ट रूपसे गर्जना कर रहे हैं ऐसे किसी वनके समान तथा भृदंग बजनेकी शोभाको धारण करता हुआ और दिशाओंमें उछलता हुआ किनारेको बहुत शीघ्र शुद्ध कर रहा है ॥१९५॥ जिसमें अनेक मछलियोंके शरीर तैर रहे हैं, जो खुली हुई सीपोंके टुकड़ोंसे व्याप्त है, जिसमें कठोर शब्द हो रहे हैं, जिसने अपने रन्ध्रोंमें पातालको भी धारण कर रखा है, और जो तैरते हुए साँपोंसे छूटी हुई काँचलियोंसे लोगोंको ऐसा सन्देह उत्पन्न करता है मानो लहरोंके समूहसे ही व्याप्त हो ऐसा यह समुद्रका जल इधर बहुत भयानक हो रहा है ।। १९६।। इधर, वनको हिलाता हुआ, शीतल जलकी बूंदोंको बरसाता हुआ और वृक्षोंके सुगन्धित फूलोंकी सुगन्धिका हरण करता हुआ वायु धीरे-धीरे किनारेकी ओर बह रहा है और इधर बड़ेबड़े मच्छोंके शरीरको कपाता हुआ तथा हिलती हुई लहरोंके शब्दोंसे भयंकर यह प्रचण्ड वायु बह रहा है ।। १९७ ।। जो बड़ी-बड़ी लहरोंसे उछलते हुए मोतियोंसें व्याप्त होकर फूलोंके उपहारसे उत्पन्न हुई अतिशय शोभाको धारण करती हैं , किनारेके वनके छायादार वृक्षोंके नीचे बैठे हए देव लोग हर्षित होकर अपनी-अपनी देवांगनाओंके साथ जिनकी सेवा करते हैं और इसीलिए जो दूसरे स्वर्गलोककी शोभा बढ़ाती हैं ऐसी ये इस समुद्रके किनारेकी भूमियाँ अत्यन्त सुशोभित हो रही हैं ॥१९८॥ ये मगरमच्छ आदि जलचर जीव, जिसके पास अनन्त धन है ऐसे इस समुद्रको अपने उदरका पालन-पोषण करनेवाला पिता समझकर सगे पुत्रोंके समान उसका धन बाँटकर अपने भाग (हिस्से)को अधिक रूपसे लेनेकी इच्छासे, गर्जनाके शब्दोंके बहाने चिल्लाते हुए पिताके सामने ही इकट्ठे होकर क्रोधित होते हुए परस्परमें लड़ रहे हैं, हाय ! ऐसे धनको धिक्कार हो ॥१९९।। मुँह खोलकर पड़े हुए अनेक पातालों अर्थात् विवरों और १ जलम् । , २ शकल। ३ ललत्यत्रङ्ग-ल०, अ०, द०, इ०, ५०, स०, ब०,। चलत्सर्पम् । ४ निर्मोक । ५ पुष्पाण्याहतुं शील: । ६ तन्वाना प० । ७ स्वोदरपूरकम् । 'उभावात्मभरिः कुक्षिभरि। स्वोदरपूरके ।' इत्यभिधानात् । ८ उरसि भवाः । ९ भागं लब्धुमिच्छया । १० इव । ११ प्रमाणरहितैः । १२ नानाप्रकारः । १३ मस्तके। १४ वियोगः । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितम पर्व स्रग्धरा वज्रद्रोण्याममुष्य क्वथदिव जारं व्यक्तमुबुबुदाम्बुस्फूर्जत्पातालरन्ध्रोच्छवसदनिलबलाद्विष्वगावर्तमानम् । प्रस्तीर्णानेकरत्नान्यपहरति जनेनूनमुत्तप्तमन्तः प्रायो रायां वियोगो जनयति महतोऽप्युग्रमन्तर्विदाहम् ।२०१॥ प्रहर्षिणी आयुष्मन्निति बहुविस्मयोऽयमब्धिः सदनः सकलजगजनोपजीव्यः । गम्भीरप्रकृतिरनल्पसत्त्वयोगः प्रायस्त्वामनहरते विना जडिम्ना ॥२०२॥ वसन्ततिलका इत्यं नियन्तरि परां श्रियमम्बुराशेरावर्गयत्यनुगतैर्वचनैर्विचित्रैः। प्राप प्रमोदमधिकं नचिराच्च सम्राट सेनानिवेशममियातुमना बभूव ॥२०३॥ बड़वानलोंके द्वारा बार-बार ह्रास होनेपर भी जिनका कभी क्षय नहीं हो पाता है, जो लोगोंको आनन्द देनेवाले हैं, प्रमाण-रहित हैं, अनेक प्रकारके हैं, सर्पोके फणाओंपर आरूढ़ हैं, अत्यन्त पवित्र हैं, और सन्तापको नष्ट करनेवाले हैं ऐसे रत्नों तथा जलके समूहोंकी अपेक्षा इस समुद्रका जबतक संसार है तबतक कभी भी नाश नहीं होता। भावार्थ-यद्यपि इस समुद्रके अनेक रत्न इसके विवरों-बिलोंमें घुसकर नष्ट हो जाते हैं और जलके समूह बड़वानलमें जलकर कम हो जाते हैं तथापि इसके रत्न और जलके समूह कभी भी विनाशको प्राप्त नहीं हो पाते क्योंकि जितने नष्ट होते हैं उससे कहीं अधिक उत्पन्न हो जाते हैं ॥२००॥ बहुत बड़े पातालरूपी छिद्रोंके द्वारा ऊपरकी ओर बढ़ते हुए वायुके जोरसे जो चारों ओर घूम रहा है और जिसमें जलके अनेक बबूले उठ रहे हैं ऐसा यह समुद्रका उदर अर्थात् मध्यभाग वज्रकी कड़ाही में खौलता हुआ-सा जान पड़ता है अथवा लोग इसके जहाँ-तहाँ फैले हुए अनेक रत्न ले जाते हैं इसलिए मानो यह भीतर ही भीतर सन्तप्त हो रहा है सो ठीक ही है क्योंकि धनका वियोग प्रायः करके बड़े-बड़े पुरुषोंके हृदयमें भी भयंकर दाह उत्पन्न कर देता है ॥२०१॥ हे आयुष्मन्, जिस प्रकार आप अनेक आश्चर्योसे भरे हुए हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी अनेक आश्चर्योंसे भरा हुआ है, जिस प्रकार आपके पास अच्छे-अच्छे रत्न हैं उसी प्रकार इस समुद्रके पास भी अच्छे-अच्छे रत्न हैं, जिस प्रकार संसारके समस्त प्राणी आपके उपजीव्य हैं अर्थात् आपकी सहायतासे ही जीवित रहते हैं उसी प्रकार इस समुद्रके भी उपजीव्य हैं अर्थात् समुद्रमें उत्पन्न हुए रत्न मोती तथा जल आदिसे अपनी आजीविका करते हैं, जिस प्रकार आप गम्भीर प्रकृतिवाले हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी गम्भीर (गहरी) प्रकृतिवाला है और जिस प्रकार आप अनल्पसत्त्व योग अर्थात् अनन्त शक्तिको धारण करनेवाले हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी अनल्पसत्त्व योग अर्थात् बड़े-बड़े जलचर जीवोंसे सहित है अथवा जिस प्रकार आप अनालसत्व योग अर्थात् आलस्यके सम्बन्धसे रहित हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी अनालसत्व योग अर्थात् नाल (नरा) रहित जीवोंके सम्बन्धसे सहित हैं इस प्रकार यह समुद्र ठीक आपका अनुकरण कर रहा है । यदि अन्तर है तो केवल इतना ही है कि यह जलकी ऋद्धिसे सहित है और आप जल अर्थात् मूर्ख ( जड़ ) मनुष्योंको ऋद्धिसे सहित हैं ॥२०२।। इस प्रकार जब सारथिने समुद्रकी उत्कृष्ट शोभाका वर्णन किया तब सम्राट भरत बहुत ही अधिक आनन्दको प्राप्त हुए तथा शीत्र ही अपनी छावनीमें जानेके लिए उद्यत हुए ॥२०३।। १-वय॑मानम् द०, ५०, ल.। २ धनानाम् । ३ अनुकरोति । ४ जडत्वेन । ५ सारथी । ६ आशु . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ आदिपुराणम् मालिनी अथ रथपरिवृत्यै' सारथौ कृच्छ्रकृच्छ्राद् विषमवलन भुग्नग्रीवमवान्नुनुत्सौ ँ । तिरुति मन्दं वीचिवेगोपशान्ते शिविरमभिनिधीनामीशिता संप्रतस्थे ॥ २०४ ॥ कथमपि रथचक्रं सारयित्वाम्बुरु प्रवणकृत कोपान् वाजिनोऽनुप्रसाध्य । रथमधि जलमब्धौ चोदयामास सूतो जलधिरपि नृपानु व्रज्यवोच्चचाल ॥ २०५ ॥ अयमयमुद्रमारो वारिराशेर्वरूथं स्थगयति रथवेगादेष भिन्नोरिब्धिः । इति किल तटसद्भिस्तर्यमाणो रथोऽयं जवनतुरंगकृष्टः 'प्राप पारेसमुद्रम् ॥ २०६॥ 10 शिखरिणी १२ " तरङ्गात्यस्तोऽयं समघटितसर्वाङ्गघटनो रथः क्षेमात् प्राप्तो रथचरणहेतिश्च कुशली । तुरङ्गा धौताङ्गा जलधिसलिलैरक्षतखुरा महत्पुण्यं जिगोरिति किल जजल्पुस्तजुषः ॥२०७॥ नृपैर्गङ्गाद्वारे प्रणतमणिमौल्यर्पित करैरधस्तात्तद्वेद्याः सजयजयघोषैरधिकृतैः" । बहिर्द्वारं'" सैन्यैर्युगपदसकृद्घोषितजयैर्विभुर्दृष्टः प्रापत् स्वशिबिरबाहिस्तोरणभुवम् ॥ २०८॥ 13 ४ अथानन्तर - जब सारथिने बड़ी कठिनाईसे रथ लौटानेके लिए विषम रूपसे घूमनेके कारण गलेको कुछ टेढ़ा कर घोड़ोंको हाँका, मन्द मन्द वायु बहने लगा और लहरोंका वेग शान्त हो गया तब निधियोंके स्वामी भरतने छावनीकी ओर प्रस्थान किया || २०४ || पानीसे रुके हुए रथ के पहियोंको किसी तरह बाहर निकालकर और बार-बार हाँकने अथवा बोझ धारण करनेके कारण कुपित हुए घोड़ोंको प्रसन्न कर सारथि समुद्र में जलके भीतर ही रथ चला रहा था, और वह समुद्र भी उस रथके पीछे-पीछे जानेके लिए ही मानो उछल रहा था ।। २०५ ।। अरे, यह समुद्रकी बड़ी भारी लहर रथकी छतरीको अवश्य ही ढक लेगी और इधर रथके वेगसे समुद्र की लहरें भी फट गयी हैं इस प्रकार किनारेपर खड़े हुए लोग जिसके विषय में अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क कर रहे हैं ऐसा वह वेगशाली घोड़ोंसे खींचा हुआ रथ समुद्र के किनारे पर आ पहुँचा ।।२०६।। जिसके समस्त अंगोंकी रचना एक समान सुन्दर है ऐसा यह रथ लहरोंको उल्लंघन करता हुआ कुशलतापूर्वक किनारे तक आ गया है, चक्ररत्नको धारण करनेवाले चक्रवर्ती भरत भी सकुशल आ गये हैं और समुद्र के जलसे जिनके समस्त अंग धुल गये हैं तथा जिनके खुर भी नहीं घिसे हैं ऐसे घोड़े भी राजी खुशी आ पहुँचे हैं । अहा ! विजयी चक्रवर्तीका बड़ा भारी पुण्य है, इस प्रकार किनारेपर खड़े हुए लोग परस्परमें वार्तालाप कर रहे थे ॥२०७॥ जो वेदीके नीचे गंगाद्वारपर नियुक्त किये गये हैं, जिन्होंने नवाये हुए मणिमय मुकुटोंपर अपने-अपने हाथ जोड़कर रखे हैं और जो जय-जय शब्दका उच्चारण कर रहे हैं ऐसे राजा लोग, तथा दरवाजेके बाहर एक साथ बार-बार जयघोष करनेवाले सैनिक लोग जिसे देख १ परिवर्तनाय । २ विषमाकर्षणकुटिलग्रीवं यथा भवति तथा। ३ प्रेरितुमिच्छौ सति । ४ गमयित्वा । ५ प्रेरण । ६ प्रसादं नीत्वा । ७ अनुगमनेन । ८ जलसमूहः । तीरथः । १० वेगाश्वाकृष्टः । ११ समुद्रस्य पारम् । १२ तरङ्गान् अत्यस्तः तरङ्गात्यस्तः इति द्वितीयातत्पुरुषः । वररुचिना तथैवोक्तत्वात् । १३. समानं यथा भवति तथा घटित । १४ चक्रायुधः । १५ तटसेविनः । तीरस्था इत्यर्थः । १६ अधिकारिभिः । १७ द्वारस्य बाह्ये । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व शार्दूलविक्रीडितम् तत्रोद्रोषितमङ्गलैर्जयजयेत्यानन्दितो वन्दिभिर्गत्वातः शिबिरं नृपालयमहाद्वारं समासादयन् । . 'अन्तर्वशिकलोकवारवनितादत्ताक्षताशासनः प्राविक्षन्निजकतनं निधिपतिर्वातोल्लसत्केतनम् ॥२०॥ वसन्ततिलका देवोऽयमक्षततनुर्विजिताब्धिरागात् ते यूयमानयत साक्षतसिद्धशेषाः । आशीघमाध्वमिह संमुखमेत्य तूर्णमित्युत्थितः कलकलः कटके तदाभूत् ॥२१०॥ जीवेति नन्दतु भवानिति वर्धिषीष्ठाः देवेति निर्जयरिपूनिति गां जयेति । त्वं "स्ताच्चिरायुरिति कामितमाप्नुहीति पुण्याशिषां शतमलम्भि तदा स वृद्धैः ॥२११॥ जीयादरीनिह भवानिति निर्जितारिदेव प्रशाधि वसुधामिति सिद्धरत्नः । खं जीवताच्चिरमिति प्रथमं चिरायुरायोजि मङ्गलधिया पुनरुक्तवाक्यः ॥२१२॥ देवोऽयमम्बुधिमगाधमलङ्घयपारमुल्लङ्घय लब्धविजयः पुनरप्युपायात् । पुण्यकसारथिरिहेति विनान्तरायः पुण्य प्रसेदुषि नृणां किमिवारत्यलवयम् ॥२१३॥ रहे हैं ऐसा वह भरत अपनी छावनीके बाहरवाली तोरणभूमिपर आ पहुँचा ॥२०८।। वहाँपर जय जय इस प्रकार मंगलशब्द करते हुए बन्दीजन जिन्हें आनन्दित कर रहे हैं ऐसे वे महाराज भरत छावनीके भीतर जाकर राजभवनके बड़े द्वारपर जा पहुँचे वहाँ परिवारके लोगों तथा वेश्याओंने उन्हें मंगलाक्षत तथा आशीर्वाद दिये। इस प्रकार निधियोंके स्वामी भरतने जिसपर वायुके द्वारा ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसे अपने तम्बू में प्रवेश किया ॥२०९।। जिन्होंने शरीरमें कुछ चोट लगे बिना ही समुद्रको जीत लिया है ऐसे ये भरत महाराज आ गये हैं, इसलिए तुम मंगलाक्षतसहित सिद्ध तथा शेषाक्षत लाओ, तुम आशीर्वाद दो और तुम बहुत शीघ्र सामने जाकर खड़े होओ इस प्रकार उस समय सेनामें बड़ा भारी कोलाहल उठ रहा था ॥२१०॥ हे देव, आप चिरकाल तक जीवित रहें, समृद्धिमान् हों, सदा बढ़ते रहें, आप शत्रुओंको जीतिए, पृथिवीको जीतिए, आप चिरायु रहिए और समस्त मनोरथोंको प्राप्त कीजिए - आपकी सब इच्छाएं पूर्ण हों इस प्रकार उस समय वृद्ध मनुष्योंने भरत महाराजके लिए सैकड़ों पवित्र आशीर्वाद प्राप्त कराये थे ॥२११।। यद्यपि भरतेश्वर शत्रुओंको पहले ही जीत चुके थे तथापि उस समय उन्हें आशीर्वाद दिया गया था कि देव, आप शत्रुओंको जीतिए, यद्यपि उन्होंने चौदह रत्नोंको पहले ही प्राप्त कर लिया था तथापि उन्हें आशीर्वाद मिला था कि हे देव ! आप पृथिवीका शासन कोजिए, और इसी प्रकार वे पहले ही से चिरायु थे तथापि आशीर्वाद में उनसे कहा गया था कि हे देव, आप चिरकाल तक जीवित रहें - चिरायु हों। इस प्रकार मंगल समझकर लोगोंने उन्हें पुनरुक्त ( कार्य हो चुकनेपर उसी अर्थको सूचित करनेके लिए फिरसे कहे हुए ) वचनोंसे युक्त किया था ॥२१२।। एक पुण्य ही जिनका सहायक है ऐसे महा राज भरत अगाध और पाररहित समुद्रको उल्लंघन कर तथा योग्य उपायसे विजय प्राप्त कर बिना किसी विघ्न-बाधाके यहाँ वापस आ गये हैं सो ठीक ही है क्योंकि निर्मल पुण्यके रहते १ कञ्चुको । 'अन्तवंशिका अन्त.पुराधिकारिणः ।' 'अन्त.पुरेष्वधिकृतः स्यादन्तर्वशिको जनः' इत्यभिधानात् । २ आशीर्वचनः । ३ आशिषं कुरुध्वम् । ४ भुवम् । ५ भव । ६ याहि । ७ शासु अनुशिष्टी लोट् । ८ उपागमत् । ९ प्रसन्ने सति । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम पुण्योदयं भरत चक्रधरो जिगीषुरुनिन्नवेलमनिलाहतवीचिमालम् । प्रोलक्य वार्धिममरं सहसा विजिग्ये पुग्ये बलीयसि किमस्ति जगत्प्रजय्यम् ॥२१४॥ पुण्योदयेन मकराकरवारिसीम पृथ्वी स्वसादकृत चक्रधरः पृथुश्रीः । दुलंयमब्धिमवगाह्य विनोपसर्गः पुण्यात् परं न खलु साधनमिष्टसिद्धयै ॥२१५॥ चक्रायुधोऽयमरिचक्रभयंकरश्रीराक्रम्य 'सिन्धुमतिभीषणनक्रचक्रम् । चक्रे वशे सुरमवश्यमनन्यवश्यं पुण्यात् परं न हि वशीकरणं जगत्याम् ॥२१६॥ पुण्यं जले स्थलमिवाभ्यवपद्यते नून् पुण्यं स्थले जलमिवाशु नियन्ति तापम् । पुण्यं जलस्थलमये शरणं तृतीयं पुण्यं कुरुध्वमत एव जना जिनोक्तम् ॥२१७॥ पुण्यं परं शरणमापदि दुर्विलङ्घयं पुण्यं दरिद्रति जने धनदायि पुण्यम् । पुण्यं सुखार्थिनि जने सुखदायि रत्नं पुण्यं जिनोदितमतः सुजनाश्चिनुध्वम् ॥२१॥ पुण्यं जिनेन्द्रपरिपूजनसाध्यमाद्यं पुण्यं सुपात्रगतदानसमुत्थमन्यत् । पुण्यं व्रतानुचरणादुपवासयोगात् पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥२१॥ हुए मनुष्योंको क्या अलंघनीय ( प्राप्त न होने योग्य ) रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥२१३।। सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाले भरत चक्रवर्तीने पुण्यके प्रभावसे, जिसमें ज्वारभाटा उठ रहे हैं और जिसमें लहरोंके समूह वायुसे ताड़ित हो रहे हैं ऐसे समुद्र को उल्लंघन कर शीघ्र ही मागध देवको जीत लिया सो ठीक ही है क्योंकि अतिशय बलवान् पुण्यके रहते हुए संसारमें अजय्य अर्थात् जीतनेके अयोग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥२१४।। बहुत भारी लक्ष्मीको धारण करनेवाले चक्रवर्ती भरतने पुण्यकर्मके उदयसे ही बिना किसी उपद्रवके उल्लंघन करनेके अयोग्य समुद्रका उल्लंघन कर समुद्रका जल ही जिसकी सीमा है ऐसी पृथिवीको अपने अधीन कर लिया, सो ठीक ही है क्योंकि इष्ट पदार्थोंकी सिद्धि के लिए पुण्यसे बढ़कर और कोई साधन नहीं है ॥२१५॥ शत्रुओंके समूहके लिए जिनकी सम्पत्ति बहुत ही भयंकर है ऐसे चक्रवर्ती भरतने अत्यन्त भयंकर मगर-मच्छोंके समूहसे भरे हुए समुद्रका उल्लंघन कर अन्य किसीके वश न होने योग्य मागध देवको निश्चित रूपसे वश कर लिया, सो ठीक ही है क्योंकि लोकमें पुण्यसे बढ़कर और कोई वशीकरण ( वश करनेवाला ) नहीं है ॥२१६॥ पुण्य ही मनुष्योंको जलमें स्थलके समान हो जाता है, पुण्य ही स्थलमें जलके समान होकर शीघ्र ही समस्त सन्तापको नष्ट कर देता है और पुण्य ही जल तथा स्थल दोनों जगहके भयमें एक तीसरा पदार्थ होकर शरण होता है, इसलिए हे भव्यजनो, तुम लोग जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए पुण्यकर्म करो ॥२१७॥ पुण्य ही आपत्ति के समय किसीके द्वारा उल्लंघन न करनेके योग्य उत्कृष्ट शरण है, पुण्य ही दरिद्र मनुष्योंके लिए धन देनेवाला है और पुण्य ही सुखकी इच्छा करनेवाले लोगोंके लिए सुख देनेवाला है, इसलिए हे सज्जन पुरुषो ! तुम लोग जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए इस पुण्यरूपी रत्नका संचय करो ॥२१८॥ जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करनेसे उत्पन्न होनेवाला पहला पुण्य है, सुपात्रको दान देनेसे उत्पन्न हुआ, दूसरा पुण्य है व्रत पालन करनेसे उत्पन्न हुआ, तीसरा पुण्य है और उपवास करनेसे उत्पन्न हुआ, चौथा पुण्य है इस प्रकार पुण्यकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंको ऊपर लिखे हुए चार प्रकारके पुण्योंका १ सीमां ल०, इ०, द०, अ०, ५०, स०। २ स्वाधीनं चकार । ३ समुद्रम् । ४ प्राप्नोति । -मिवाभ्युपपद्यते ल०, द० । ५ दरिद्रयति । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व इत्थं स्वपुण्यपरिपाकजमिष्टलाभं ' संश्लाघयन् जनतया श्रुतपुण्यघोषः । चक्री सभागृहगतो नृपचक्रमध्ये शक्रोपमः पृथुनृपासनमध्यवात्सीत् ॥ २२०॥ हरिणी धुततटवने रक्ताशोकप्रवालपुटोद्भिदि स्पृशति पवने मन्दं तरङ्गविभेदिनि । अनुसरसरित्सैन्यैः सार्धं प्रभुः सुखमावसज्जलनिधिजय श्लाघाशीर्भिर्जिनाननुचिन्तयन् ॥ २२१॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहे पूर्वार्णवद्वार विजयवर्णनं नामाष्टाविशं पर्व ॥ २८ ॥ संचय करना चाहिए ।। २९९ ।। इस प्रकार जिसने लोगों के समूहसे पुण्यकी घोषणा सुनी है ऐसे चक्रवर्ती भरत, अपने पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुए इष्ट वस्तुओंके लाभकी प्रशंसा करते हुए सभाभवनमें पहुँचे और वहाँ राजाओंके समूहके मध्यमें इन्द्रके समान बड़े भारी राजसिंहासनपर आरूढ़ हुए ॥ २२० ॥ जिस समय किनारेके वनको हिलानेवाला, रक्त अशोक वृक्षकी कोंपलोंके संपुटको भेदन करनेवाला और लहरोंको भिन्न-भिन्न करनेवाला वायु धीरेधीरे बह रहा था उस समय समुद्रको जीतनेकी प्रशंसा और आशीर्वादके साथ-साथ जिनेन्द्र भगवान्का स्मरण करते हुए भरतने गंगा नदीके किनारे-किनारे ठहरी हुई सेनाके साथ सुखसे निवास किया था ।। २२१ ॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवाद में पूर्वसमुद्र के द्वारको विजय करनेका वर्णन करनेवाला अट्ठाईसवाँ पर्व समाप्त हुआ । ६१ १ उदयजम् । २ स श्लाघयन् ल० । ३ जनसमूहेन । ४ अधिवसति स्म । ५ पल्लवपुटी भेदिनि । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व - अथ चक्रधरो जैनों कृत्वेज्यामिष्टसाधनीम् । प्रतस्थे दक्षिणामाशां जिगीषुरनुतोयधि ॥१॥ 'यतोऽस्य पदढक्कानां ध्वनिरामन्द्रमुच्चरन् । मूर्छितः काहलारावैरब्धिध्वानं तिरोदधे ॥२॥ प्रयाणभेरीनिःस्वानः सम्मूर्छन् गजबृहितैः। दिमखान्यनयत् क्षोभ हृदयानि च विद्विषाम् ॥३॥ विवभुः पवनोद्धृता जिगीषोर्जयकेतनाः । वारिधेरिव कल्लोलानुवैलानाजुहूषवः ॥४॥ एकतो लवणाम्भोधिरन्यतोऽप्युपसागरः । तन्मध्ये यान्बलौघोऽस्य तृतीयोऽब्धिरिवाबभौ ॥५॥ हस्त्यश्वरथपादातं देवाश्च सनभश्चराः । षडङ्ग बलमस्येति पप्रथे व्याप्य रोदसी ॥६॥ पुरः प्रतस्थे दण्डेन चक्रेण तदनन्तरम् । ताभ्यां विशोधिते मार्गे तबलं प्रययौ सुखम् ॥७॥ तच्चक्रमरिचक्रस्य केवलं क्रकचायितम्"। दण्डोऽपि दण्डपक्षस्य कालदण्ड इवापरः ॥८॥ प्रययौ निकषाम्भोधि समया तटवेदिकाम् । अनुवेलावनं सम्राट् सैन्यैः संश्रावयन्" दिशः॥६॥ अनुवाधितटं कर्षन्नलयां स्वामनीकिनीम् । आज्ञालतां नृपाद्रीणां मूनि रोपयति स्म सः ॥१०॥ चलिते चलितं पूर्व निर्याते निःसृतं पुरः। प्रयाते यातमेवास्मिन् सेनानीभिरिवारिभिः ॥११॥ अथानन्तर - चक्रवर्ती भरत समस्त इष्ट वस्तुओंको सिद्ध करनेवाली जिनेन्द्रदेवकी पूजा कर दक्षिण दिशाको जीतनेकी इच्छा करते हुए समुद्र के किनारे-किनारे चले ॥ १॥ जिस समय चक्रवर्ती जा रहे थे उस समय तुरहीके शब्दोंसे मिली हुई पदरूपी नगाड़ोंकी गम्भीर ध्वनि समुद्र की गर्जनाको भी ढक रही थी ।।२।। हाथियोंकी चिग्घाड़ोंसे मिले हुए प्रस्थानके समय बजनेवाले नगाड़ोंके शब्द समस्त दिशाओं तथा शत्रुओंके हृदयोंको क्षोभ प्राप्त करा रहे थे ।। ३ ।। जीतनेकी इच्छा करनेवाले चक्रवर्तीकी वायुसे उड़ती हुई विजय-पताकाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो ज्वारसे उठी हुई समुद्रको लहरोंको ही बुला रही हों ॥ ४ ॥ उस सेनाके एक ओर (दक्षिणकी ओर ) तो लवण समद्र था और दूसरी ( उत्तरकी ) ओर उपसागर था उन दोनोंके बीच जाता हुआ वह सेनाका समूह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो तीसरा समुद्र ही हो ॥५॥ हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, देव और विद्याधर यह छह प्रकारकी चक्रवर्तीकी सेना आकाश और पृथिवीके अन्तरालको व्याप्त कर सब ओर फैल गयी थी ॥ ६॥ सेनामें सबसे आगे दण्डरत्न और उसके पीछे चक्र रत्न चलता था तथा इन दोनोंके द्वारा साफ किये हुए मार्गमें सुखपूर्वक चक्रवर्तीकी सेना चलती थी । ७ ।। चक्रवर्तीका वह एक चक्र ही शत्रुओंके समूहको नष्ट करनेके लिए करोतके समान था तथा दण्ड ही दण्ड देने योग्य शत्रुओंके लिए दूसरे यमदण्डके समान था ॥ ८ ॥ सम्राट् भरत समुद्र के समीप-समीप किनारेकी वेदीके पास-पास किनारेके अनुसार अपनी सेनाके द्वारा दिशाओंको गुंजाते हुए - सचेत करते हुए चले ।। ९ ।। अपनी अलंघनीय सेनाको समद्रके किनारे-किनारे चलाते हए चक्रवर्ती भरत अपनी आज्ञारूपी लताको राजारूपी पर्वतोंके मस्तकपर चढ़ाते जाते थे ॥ १० ॥ महाराज भरतके शत्रु उनके सेनापतियोंके समान थे, क्योंकि जिस प्रकार महाराजके चलनेकी इच्छा होते ही सेनापति १ गच्छतः । २ पटु प०, इ०, द० । ३ मिश्रितः । ४ आच्छादयति स्म । ५ मिश्रीभवन् । ६ उज्जृम्भितान् । ७ स्पर्धा कर्तुमिच्छवः । ८ गच्छन् । ९ द्यावापृथिव्यौ । 'भूद्यावौ रोदस्यौ रोदसी च ते' इत्यमरः । १० दण्डरत्नेन । ११ करपत्रमिवाचरितम् । १२ यमस्य दण्डः। १३ अम्भोधेः समीपम् । 'निकषा त्वन्तिके मध्ये' । १४ तटवेदिकायाः समीपे । १५ साधयन् । १६ प्रापयन् । १७ भरते । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व निष्क्रान्त इति संभ्रान्तैरायात इति भीवशैः । प्राप्त इत्यनस्यैश्च प्रणेमे सोऽरिभूमिपैः ॥१२॥ महापगारयस्येव तरुरस्य बलीयसः । यो यः प्रतीपमभवत् स स निर्मूलतां ययौ ॥१३॥ "प्रतीपवृत्तिमादर्श छायात्मानं च नास्मनः । विक्रमैकरसश्चक्री सोऽसोढ किमुत द्विषम् ॥१४॥ चमरवश्रवादेव कैश्चिदस्य विरोधिभिः। चमूरुवृत्तमारब्धमतिदरं पलायितैः ॥१५॥ "महाभोगैर्नृपैः कैश्चिद् भयादुत्सृष्टमण्डलैः । भुजङ्गैरिव निर्मो कस्तत्यजेऽपि परिच्छदः ॥१६॥ प्रदुष्टान् भोगिनः काशित् प्रभुरुद्धृत्य मन्त्रतः । वल्मीकेष्विव दुर्गेषु कुल्यानन्यानतिष्टिपत् ॥१७॥ पहले ही चलनेके लिए तैयार हो जाते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजको चलनेके लिए तत्पर सुनकर स्वयं चलनेके लिए तत्पर हो जाते थे अर्थात् स्थान छोड़कर भागनेकी तैयारी करने लगते थे अथवा भरतकी ही शरणमें आनेके लिए उद्यत हो जाते थे, जिस प्रकार महाराजके नगरसे बाहर निकलते ही सेनापति उनसे पहले बाहर निकल आते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजको नगरसे बाहर निकला हुआ सुनकर स्वयं अपने नगरसे बाहर निकल आते थे अर्थात् नगर छोड़कर बाहर जानेके लिए तैयार हो जाते थे अथवा भरतसे मिलनेके लिए अपने नगरोंसे बाहर निकल आते थे और जिस प्रकार महाराजके प्रस्थान करते ही सेनापति उनसे पहले प्रस्थान कर देते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजका प्रस्थान सुनकर उनसे पहले ही प्रस्थान कर देते थे अर्थात् अन्यत्र भाग जाते थे अथवा चक्रवर्तीसे मिलनेके लिए आगे बढ़ आते थे ॥११॥ चक्रवर्ती भरत नगरसे बाहर निकला यह सुनकर जो व्याकुल हो जाते थे, चक्रवर्ती आया यह सुनकर जो भयभीत हो जाते थे और वह समीप आया यह सुनकर जो अस्थिरचित्त हो जाते थे ऐसे शत्रु राजा लोग उन्हें जगह-जगह प्रणाम करते ॥१२॥ जिस प्रकार किसी महानदीके बलवान् वेगके विरुद्ध खड़ा हुआ वृक्ष निर्मूल हो जाता है-जड़सहित उखड़ जाता है उसी प्रकार जो राजा उस बलवान् चक्रवर्तीके विरुद्ध खड़ा होता था-उसके सामने विनयभाव धारण नहीं करता था वह निर्मूल हो जाता था-वंशसहित नष्ट हो जाता था ॥१३॥ एक पराक्रम ही जिसे प्रिय है ऐसा वह भरत जब कि दर्पणमें उलटे पड़े हुए अपने प्रतिबिम्बको भी सहन नहीं करता था तब शत्रुओंको किस प्रकार सहन करता ? ॥१४॥ कितने ही विरोधी राजाओंने तो उनकी सेनाका शब्द सुनते ही बहुत दूर भागकर हरिणकी वृत्ति प्रारम्भ की थी ॥१५॥ और कितने ही वैभवशाली बड़े-बड़े राजाओंने भयसे अपने-अपने देश छोड़कर छत्र चमर आदि राज्य-चिह्नोंको उस प्रकार छोड़ दिया था जिस प्रकार कि बड़ेबड़े फणाओंको धारण करनेवाले सर्प अपने वलयाकार आसनको छोड़कर काँचली छोड़ देते हैं ॥१६॥ जिस प्रकार दुष्ट सोको मन्त्रके जोरसे उठाकर वामीमें डाल देते हैं उसी प्रकार भरतने अन्य कितने ही भोगी-विलासी दुष्ट राजाओंको मन्त्र (मन्त्रियोंके साथ की हुई सलाह) के जोरसे उखाड़कर किलोंमें डाल दिया था, उनके स्थानपर अन्य कुलीन राजाओंको बैठाया १ समीपं प्राप्तः । २ अवस्थामतिक्रान्तैः । त्यक्तपूर्वस्वभावैस्त्यिर्थः । ३ महानदीवेगस्य। ४ प्रतिकूलम् । ५ प्रतिकूलवृत्तिम् । ६ छायास्वरूपम् । 'आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वर्म च' इत्यमरः । ७ सहति स्म । ८ सेनाध्वनिसमाकर्णनात् । ९ कम्भोजादिदेशजऋणविशेषवर्तनम् । 'कदली कन्दली चीनश्चमूरुप्रियकावपि । समरुश्चेति हरिणा अमी अजिनयोनयः ।' इत्यभिधानात् । १० पलायिभिः ल०, प०, द०,। ११ पक्षे महाकायैः । 'भोगः सुखे स्यादिभृतावहेश्च फणकाययोः' इत्यभिधानात् । १२ त्यक्तभूभागैः । पक्षे त्यक्तवलयः । १३ परिच्छदोऽपि छत्रचामरादिपरिकरोऽपि परित्यक्ततः । १४ पक्षे सर्पान् । १५ मन्त्रशक्तिः । १६ सत्कुलजाम् । १७ स्थापयति स्म । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ १६ आदिपुराणम् - अनन्यशरणैरन्यैस्तापविच्छेदमिच्छुमिः । तत्पादपादपच्छाया न्यषेवि सुखशीतला ॥१८॥ केषांचित् पत्रनिर्मोक्ष छायापायं च भूभुजाम् । पादपानामिव ग्रीष्मः समभ्यर्णश्चकार सः ॥१९॥ घस्तोष्मप्रसरों गाढमुच्छ्वसन्तोऽन्तराकुलाः । प्राप्तेऽस्मिन् वैरिभूपालाः प्रापुर्मर्तव्यशेषताम् ॥२०॥ चैरकाम्यति वः स्मास्मिन् प्रागेव विननाश सः। विदिध्यापयिषुर्वहिं शलभः कुशली किमु ॥२१॥ वस्तुवाहनसर्वस्वमाच्छिद्य प्रभुराहरन् । अरित्वमरिचक्रेषु व्यक्तमेव चकार सः ॥२२॥ स्वयमर्पितसर्वस्वा नमन्तश्चक्रवर्तिनम् । पूर्वमप्यरयः पश्चादधिकारित्वमाचरन् ॥२३॥ "साधनैरमुनाक्रान्ता या धरा धृतसाध्वसा । साधनैरेव तं तोषं नीत्वाऽभूद्धतसाध्वसा ॥२४॥ "कुल्याः कुलधनान्यस्मै दत्वा स्वां भुवमार्जिजन् । कुल्या धनजलौघस्य जिगीषोस्ते हि पार्थिवाः॥२५॥ प्रजाः करमराक्रान्ता यस्मिन् स्वामिनि दुःस्थिताः । तमुद्धत्य परे तस्य युक्तदण्डं न्यधान विभुः॥२६॥ था ॥१७॥ जिन्हें अन्य कोई शरण नहीं थी और जो अपना सन्ताप नष्ट करना चाहते थे ऐसे कितने ही राजाओंने सुख तथा शान्ति देनेवाली भरतके चरणरूपी वृक्षोंकी छायाका आश्रय लिया था ॥१८॥ जिस प्रकार समीप आया हुआ ग्रीष्म ऋतु वृक्षोंके पत्र अर्थात् पत्तोंका नाश कर देता है और उनकी छाया अर्थात् छाँहरीका अभाव कर देता है उसी प्रकार समीप आये हुए भरतने कितने ही राजाओंके पत्र अर्थात् हाथी घोड़े आदि वाहनों (सवारियों) का नाश कर दिया था और उनकी छाया अर्थात् कान्तिका अभाव कर दिया था। भावार्थ-भरतके समीप आते ही कितने ही राजा लोग वाहन छोड़कर भाग जाते थे तथा उनके मुखकी कान्ति भयसे नष्ट हो जाती थी ॥१०॥ महाराज भरतके समीप आते ही शत्रु राजाओंका सब तेज (पक्षमें गरमी) नष्ट हो गया था, उनके भारी-भारी श्वासोच्छ्वास चलने लगे थे और वे अन्त.करणमें व्याकुल हो रहे थे, इसलिए वे मरणोन्मुख मनुष्यकी समानताको प्राप्त हो रहे थे ॥२०॥ जिस पुरुषने भरतके साथ शत्रुता करनेकी इच्छा की थी वह पहले ही नष्ट हो चुका था, सो ठीक ही है क्योंकि अग्निको बुझानेकी इच्छा करनेवाला पतंगा क्या कभी सकुशल रह सकता है ? अर्थात् नहीं ॥२१॥ महाराज भरतने शत्रुओंके हीरा मोती आदि रत्न तथा सवारी आदि सब धन छीन लिया था और इस प्रकार उन्होंने समस्त अरि अर्थात् शत्रुओंके समूहको स्पष्ट रूपसे अरि अर्थात् धनरहित कर दिया था ॥२२॥ अपने आप समस्त धन भेंट कर चक्रवर्तीको नमस्कार करनेवाले राजा लोग यद्यपि पहले शत्रु थे तथापि पीछेसे वे बड़े भारी अधिकारी हुए थे ।।२३।। जो पृथिवी पहले भरतकी सेनासे आक्रान्त होकर भयभीत हो रही थी वही पृथिवी अब अपने धनसे भरतको सन्तोष प्राप्त कराकर निर्भय हो गयी थी ॥२४॥ उच्च कुलोंमें उत्पन्न हुए अनेक राजाओंने भरतेश्वरके लिए अपनी कुल-परम्परासे चला आया धन देकर फिरसे अपनी पृथिवी प्राप्त की थी सो ठीक ही है क्योंकि वे राजा विजयाभिलाषी राजाके लिए धनरूपी जलके प्रवाहकी प्राप्तिके लिए 'कुल्या'-नदी अथवा नहरके समान होते हैं। भावार्थ-विजयी राजाओंको धनकी प्राप्ति साधारण राजाओंसे होती है।।२५॥ जिस राजाके रहते हुए प्रजा करके बोझसे दबकर दुःखी हो रही थी, १ वाहननिर्णाशम् पक्षे पूर्णविनाशम् । २ तेजोहानिम् । ३ समीपस्थः । ४ निरस्तप्रभावप्रसराः । पक्षे निरस्तोष्णप्रसराः । ५ भरते। ६ मरणकालमाप्तपुरुषसमानतामित्यर्थः । ७ वैरमिच्छति । ८ यो नास्मिन् इ०। ( ना पुमान् इति इ० टिप्पणी )। ९ क्षपयितुमिच्छुः । १० आकृष्य । ११ स्वीकुर्वन् । १२ न विद्यते राः धनं येषां तानि अरीणि तेषां भावस्तत्त्वम्, निर्धनत्वमित्यर्थः । १३ अधिकशत्रुत्वमिति ध्वनिः । १४ सैन्यैः । १५ निरस्तभीतिः । १६ कुलजाः । १७ उपार्जयति स्म । ऋज गतिस्थानार्जनोपार्जनेषु । १८ सरितः । 'कुल्या कुलवधूः सरित्' । अथवा कृत्रिमसरितः । तत्पक्षे 'कुल्याल्पा कृत्रिमा सरित्' । १९ दुःखिताः ल० । १० योग्यदण्डकारिपुरुष स्थापयामास । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व निजग्राह नृपान् दृप्ताननुजग्राह सस्क्रियान् । न्याय्यः क्षात्रो ऽयमित्येव प्रजाहितविधिल्सया॥२७॥ योगक्षेमा जगत्स्थिस्यै न प्रजास्वेव केवलम् । प्रजापालेष्वपि प्रायस्तस्य चिन्त्ययमीयतः ॥२८॥ पार्शिवस्यैकराष्ट्रस्य मता वर्णाश्रमाः प्रजाः । पार्थिवाः सार्वभौमस्य प्रजा यत्तेन ते वृताः ॥२६॥ पुण्यं साधनमस्यैकं चक्रं तस्यैव पोषकम् । तद्वयं साध्यसिद्ध्यङ्ग सेनाङ्गानि विभूतये ॥३०॥ इति मण्डलभूपालान् बलात् प्राणमयन्नयम्। 'मानमेवाभनक तेषां न सेवाग्रजयं विभुः ॥३१॥ प्रतिप्रयाणमभ्यत्य प्राणंसिपुरमुं नृपाः । प्राणरक्षामिवास्याज्ञां वहन्तः स्वेषु मूर्धसु ॥३२॥ प्रणताननुजग्राह सातिरेकैः फलैः प्रभुः। किमु कल्पतरोः सेवास्त्यफलाल्पफलापि वा ॥३३॥ "संप्रेक्षितैः स्मितहसिः सविश्रम्भैश्च जल्पितैः । सम्राट् संभावयामास नृपान् संमाननैरपि ॥३४॥ स्मितैः प्रसादं संजल्पैर्विसम्भं हसितैर्मुदम् । प्रेक्षितैरनुरागं च व्यनक्ति स्म नृपंपु सः ॥३५॥ भरतने उसे हटाकर उसके पदपर किसी अन्य नीतिमान् राजाको वैठाया था ॥२६॥ उन्होंने अहंकारी राजाओंको दण्डित किया था और सत्कार अथवा उत्तम कार्य करनेवाले राजाओंपर अनुग्रह किया था सो ठीक ही है क्योंकि प्रजाका हित करनेकी इच्छासे क्षत्रियोंका यह धर्म ही न्यायपूर्ण है ॥२७।। राजा भरतने जगत्की स्थितिके लिए केवल प्रजाके विषयमें ही योग (नवीन वस्तुको प्राप्त करना) और क्षेम (प्राप्त हुई वस्तुकी रक्षा करना) की चिन्ता नहीं की थी किन्तु प्रजाकी रक्षा करनेवाले राजाओंके विषयमें भी प्रायः उन्हें योग और क्षेमकी चिन्ता रहती थी ॥२८॥ किसी एक देशके राजाकी प्रजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्ण रूप मानी जाती है परन्तु चक्रवर्तीकी प्रजा नम्रीभूत हुए राजा लोग ही माने जाते हैं इसलिए चक्रवर्तीको प्रजाके साथ-साथ राजाओंकी चिन्ता करना भी उचित है ।।२९।। भरतके समस्त कार्योको सिद्ध करनेवाला एक पुण्य ही मुख्य साधन था, और चक्ररत्न उस पुण्यकी पुष्टि करनेवाला था, पुण्य और चक्ररत्न ये दोनों ही उसके साध्य (सिद्ध करने योग्य विजय रूप कार्य) की सिद्धिके अंग थे, बाको हाथी घोड़े आदि सेनाके अंग केवल वैभवके लिए थे ॥३०॥ इस प्रकार मण्डलेश्वर राजाओंसे बलपूर्वक प्रणाम कराते हए चक्रवर्तीने उनका केवल मान भंग ही किया था, अपनी सेवाके लिए जो उनका प्रेम था उसे नष्ट नहीं किया था ॥३१॥ प्राणोंकी रक्षाके समान भरतकी आज्ञाको अपने मस्तकपर धारण करते हुए अनेक राजा लोग प्रत्येक पड़ावपर आकर उन्हें प्रणाम करते थे ॥३२॥ प्रणाम करनेवाले राजाओंको महाराज भरतने बहुत अधिक फल देकर अनुगृहीत किया था सो ठीक ही है क्योंकि कल्पवृक्षकी सेवा क्या कभी फलरहित अथवा थोड़ा फल देनेवाली हुई है ? ॥३३॥ सम्राट् भरतने कितने ही राजाओंकी ओर देखकर, कितने ही राजाओंकी ओर मुसकराकर, कितने ही राजाओंकी ओर हँसकर, कितने ही राजाओंके साथ विश्वासपूर्वक वार्तालाप कर, और कितने ही राजाओंका सन्मान कर उन्हें प्रसन्न किया था ॥३४॥ उन्होंने कितने ही राजाओंपर मुसकराकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की थी, कितने ही राजाओंपर वार्तालाप कर अपना विश्वास प्रकट किया था कितने ही राजाओंपर हँसकर अपना हर्ष प्रकट किया था और कितने ही राजाओंपर प्रेमपूर्ण १ निग्रहं करोति स्म। २ दर्पाविष्टान् । ३ स्वीकृतवान् । ४ न्यायादनपेतः । ५ क्षत्रियधर्मः । ६ पार्थिवेषु । ७ एकदेशवतः । ८ क्षत्रियादिवर्णाः ब्रह्मचर्याद्या आश्रमाः । ९ प्रजायन्ते प०, ल० । १० पार्थिवाः । ११ स्वीकृताः । १२ प्रहोभूतानकुर्वन् । १३ गर्वमेव । १४ मर्दयति स्म । 'भजोऽत्रमर्दने' । १५ नमस्कुर्वन्ति स्म । १६ तैर्दत्तधनात् साधिकैः । १७ स्निग्धावलोकनैः। संप्रेक्षणैः ल० । १८ सविश्वासैः । 'समौ विश्रम्भविश्वासौ' इत्यमरः । १९ वचनैः । २० वस्त्राभरणादिपूजनैः । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ आदिपुराणम् "अनाप्नीत प्रणतानेष समताप्सीद् विरोधिनः । शमप्रतापो श्मा जतुः पार्थिवस्याचितौ गुणौ ॥३६॥ प्रसन्नया दशैवास्य प्रसादः प्रणते रिपौ। भ्रभङ्गेनास्फुटत कोपः सत्यं बहुनटो नृपः ॥३७॥ अंङ्गान्मणिभिरत्यङ्गैर्वङ्गांस्तुङ्गैर्मतङ्गः । तैश्च तैश्च कलिङ्गेशान् सोऽभ्यनन्ददुपानतान् ॥३८॥ मागधायितमेवास्य स्फुट "मागधिकैर्नृपैः । कीर्तयद्भिगंणानच्चैः प्रसादमभिलाषुकैः ॥३९॥ कुरूनदन्तीन पाञ्चालान काशींश्च सह कोसलैः । वैदर्भानप्यनागासादाचकर्ष' चमूपतिः ॥४०॥ व्रजन् मद्रांश्च कच्छांश्च दीन् वत्सान् ससुमकान् । पुण्डानोण्डांश्च गौडांश्च "मतमश्रावयद विभोः ॥४१॥ दशार्णान् कामरूपांश्च काश्मीरानप्युशीनरान् । मध्यमानपि भूपालान् सोऽचिराद् वशमानयत् ॥४२॥ ददुरस्मै नृपाः प्राच्यकलिङ्गाङ्गारजान् गजान् । गिरीनिव महोच्छायान् प्रश्चोतन्मदनिझरान् ॥४३॥ 'दशार्णकवनोद्भुतानपि चेविककुशजान् । दिङ्नागस्पर्धिनो नागा आदुर्नाग वनाधिपाः ॥४॥ विभोर्बलभरक्षोभमासहन्तीव दुःसहम् । सुपुवेऽनन्तरत्नानि गर्भिणीव वसुन्धरा ॥४५॥ दष्टि डालकर अपना प्रेम प्रकट किया था ॥३५॥ उन्होंने नम्रीभूत राजाओंको सन्तुष्ट किया था और विरोधी राजाओंको अच्छी तरहसे सन्तप्त किया था सो ठीक ही है क्योंकि पृथिवीको जीतनेके लिए शान्ति और प्रताप ये दो ही राजाओंके योग्य गुण माने गये हैं ॥३६॥ राजा भरत नमस्कार करनेवाले पुरुषपर अपनी प्रसन्न दृष्टिसे प्रसन्नता प्रकट करते थे और साथ ही शत्रुके ऊपर भौंह टेढ़ी कर क्रोध प्रकट करते जाते थे इसलिए यह उक्ति सच मालूम होती है कि राजा लोग नट तुल्य होते हैं ॥३७॥ उत्तम-उत्तम मणियोंको भेंट कर नमस्कार करते हुए अंग देशके राजाओंगर, ऊँचे-ऊँचे हाथियोंको भेंट कर नमस्कार करते हुए वंग देशके राजाओंपर और मणि तथा हाथो दोनोंको भेंट कर नमस्कार करते हुए कलिंग देशके राजाओंपर वह भरत बहुत ही प्रसन्न हुए थे ॥३८॥ भरतेश्वरके प्रसादकी इच्छा करनेवाले मगध देशके राजा उनके उत्कृष्ट गुण गा रहे थे इसलिए वे ठीक मागध अर्थात् बन्दीजनोंके समान जान पड़ते थे ॥३९।। भरत महाराजके सेनापतिने कुरु, अवन्ती, पांचाल, काशी, कोशल और वैदर्भ देशोंके राजाओंको बिना किसी परिश्रमके अपनी ओर खींच लिया था अर्थात् अपने वश कर लिया था ॥४०।। मद्र, कच्छ, चेदि, वत्स, सुह्म, पुण्ड, औण्ड और गौड़ देशोंमें जा-जाकर सेनापतिने सब जगह भरत महाराजकी आज्ञा सुनायी थी ॥४१।। उसने दशार्ण, कामरूप, कश्मीर, उशीनर और मध्यदेशके समस्त राजाओंको बहुत शीघ्र वश कर लिया था ॥४२॥ वहाँके राजाओंने जिनसे मदके निर्झरने झर रहे हैं ऐसे, पूर्व देशमें उत्पन्न होनेवाले तथा कलिंग और अंगार देशमें उत्पन्न होनेवाले, पर्वतोंके समान ऊँचे-ऊँचे हाथी महाराज भरतके लिए भेंटमें दिये थे ॥४३॥ जिनमें हाथी उत्पन्न होते हैं ऐसे वनोंके स्वामियोंने दिग्गजोंके साथ स्पर्धा करनेवाले, दशार्णक वनमें उत्पन्न हए तथा चेदि और ककुश देशमें उत्पन्न हुए हाथी महाराजके लिए प्रदान किये थे ॥४४॥ उस समय भरतेश्वरको पथिवीपर जहाँ-तहाँ अनेक रत्न भेटमें मिल रहे थे इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो गर्भिणीके समान पृथिवीने चक्रवर्तीकी सेनाके बोझसे उत्पन्न हुए दुःसह क्षोभको न सह सकनेके कारण ही अनन्त रत्न उत्पन्न किये हुए हों ॥४५।। १ तर्पयामास । २ सन्तापयति स्म। ३ जेतुं ल०, इ०, अ०, ५०, स० । ४ व्यक्तो बभूव । ५ नटसदृशः । ६ अङ्गदेशाधिपान् । ७ अनयँः । ८ आनतान् । ९ मागधीयित -40, इ० । स्तुतिपाठका इवाचरितान् । १० मगधाधिपः । ११ स्वीकृतवान् । १२ गच्छन् । १३ शासनम्, आज्ञामित्यर्थः । १४ प्राक्दिसंबन्धिकलिङ्गदेशाङ्गारजान् । १५ गलत् । १६ दशाणदेशसंबन्धि । १७ चेदिकसेरुजान ल०, द० । १८ दधति स्म । १९ गजवन । २० गर्भस्थशिशुरिव । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपाण्डरगिरिप्रस्थादा च वैभारपर्वतात् । आशैलाद् गोरथादस्य विचेरुर्जयकुञ्जराः ॥ ४६ ॥ वङ्गाङ्गपुण्ड्रमगधान् "मलदान् काशिक्ौसलान् । सेनानीः परिबभ्राम जिगीषुर्जय साधनैः ॥४७॥ कालिन्दकालकूटौ च किरातविषयं तथा । मलदेशं च संप्रापन्म तादस्य चमूपतिः ॥ ४८ ॥ धुनीं सुमागधीं गङ्गां गोमतीं च कपीवतीम् । स्थास्फां' च नदीं तीर्त्वा मुरस्य चमूगजाः ॥४९॥ गम्भीरामतिगम्भीरां कालतोयां च कौशिकीम् । नदीं कालमहीं ताम्रामरुणां निचुरामपि ॥ ५० ॥ लौहि समुद्रं च कम्बुकं च महत्सरः । चमूमतङ्गजास्तस्य भेजुः प्राच्य वनोपगाः ॥ ५१ ॥ दक्षिणेन" नदं शोणमुत्तरेण च नर्मदाम् । बीजानदीमुभयतः परितो मेखलानदीम् ॥५२॥ विचेरुः स्वखुरोद्धतधूलीसंरुद्धदिखाः । "जविनोऽस्य स्फुरत्प्रोथा " जयसाधनवाचिनः ॥ ५३ ॥ औदुम्बरीच पनसां तमसां प्रमृशामपि । "पपुरस्य द्विपाः शुक्तिमतों च यमुनामपि ॥ ५४ ॥ चेदिपर्वतमुलङ्घय चेदिराष्ट्र' "विजिग्यिरे । पम्पा सरोऽम्भोऽतिगमा विभोरस्य तुरंगमाः ॥ ५५ ॥ तमृश्यमूकमाक्रम्य कोलाहलगिरिं श्रिताः । प्राङ्माल्य गिरिमासेदुर्जयिनोऽस्य जयद्विपाः ॥५६॥ नागप्रियाद्विमाक्रम्य "कुतपावज्ञया विभोः । सेनाचराः स्वसाञ्चक्रुर्गजांश्चेदिककूशजान् ॥ ५७॥ नदीं वृवत क्राम्खा वन्येभक्षत रोधसम्" । भेजुश्वित्रवतीमस्य चमूवीरास्तुरंगमैः ॥ ५८ ॥ 43 ६ ९ १० ६७ हिमवान् पर्वतके निचले भागसे लेकर वैभार तथा गोरथ पर्वत तक सब जगह भरत महाराजके विजयी हाथी घूम रहे थे || ४६ || सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाला भरतका सेनापति अपनी विजयी सेनाके साथ-साथ बंग, अंग, पुण्ड्र, मगध, मालव, काशी और कोशल, देशों में सब जगह घूमा था ।।४७।। भरतकी सम्मति से वह सेनापति कालिन्द, कालकूट, भीलोंका देश, और मल्ल देशमें भी पहुँचा था ॥ ४८ ॥ उनकी सेनाके हाथी सुमागधी, गंगा, गोमती, कपीवती ओर रथास्फा नदीको तैरकर जहाँ-तहाँ घूम रहे थे ||४९ || पूर्व दिशाके पास-पास जानेवाले उनकी सेना हाथी अत्यन्त गहरी गम्भीरा, कालतोया, कौशिकी, कालमही, ताम्रा, अरुणा और निचुरा आदि नदियों तथा लोहित्य समुद्र और कंबुक नामके बड़े-बड़े सरोवरोंमें घूमे थे ॥ ५०५१ ॥ जिन्होंने अपने खुरोंसे उठी हुई धूलिसे समस्त दिशाएँ भर दी हैं, जो बड़े वेगशाली हैं और जिनके नथनें चंचल हो रहे हैं ऐसे महाराज भरतकी विजयी सेनाके घोड़े शोण नामके नदकी दक्षिण ओर, नर्मदा नदीकी उत्तर ओर, बीजा नदीके दोनों ओर और मेखला नदीके चारों ओर घूमे थे ।।५२ - ५३ ॥ भरतके हाथियोंने उदुम्बरी, पनसा, तमसा, प्रमृशा, शुक्तिमती और यमुना नदीका पान किया था ||५४ ॥ चक्रवर्तीके घोड़ोंने पम्पा सरोवर के जलको पार किया था तथा चेदि नामके पर्वतको उल्लंघन कर चेदि नामके देशको जीता था ।।५५।। सबको जीतनेवाले भरतके विजयी हाथी ऋष्यमूक पर्वतका उल्लंघन कर कोलाहल पर्वत तक जा पहुँचे थे और फिर माल्य पर्वतके पूर्व भागके समीप भी जा पहुँचे थे || ५६ ॥ भरतकी सेनाके लोगोंने देहली- जैसा समझ अवज्ञापूर्वक नागप्रिय पर्वतका उल्लंघन कर चेदि और ककूश 'देशमें उत्पन्न हुए हाथियोंको अपने अधीन कर लिया था ||५७ || उनकी सेनाके वीर पुरुष घोड़ों द्वारा वृत्रवती नदीको पार कर जिसके किनारे जंगली हाथियोंसे खूंदे गये हैं ऐसी चित्र १ चरन्ति स्म । २ मलयान् इ० अ० । मालयान् प० । मालवान् ल० द० । ३ आज्ञातः । ४ चक्रिणः । ५ रथस्यां अ० । रेवस्यां प०, ८० । रवस्थां द० । ६ अवतीर्य । ७ निधुरामपि ल० । ८ लौहित्यसमुद्रनाम१२ नासिका । १३ उदुम्बरीं स०, १५ चेदिदेशम् । १६ जयन्ति स्म । सरोवरम् । ९ पूर्व । १० शोणनदस्य दक्षिणस्यां दिशि । ११ वेगिनः । इ०, अ०, प०, द०, ल० । १४ 'ययुः' इत्यपि पाठः । यानमकुर्वन् । १७ पम्पासरोजलमतिक्रान्ताः । १८ देहली । १९ - सेरुजान् ल०, ८० वृत्तवतीं अ०, स० । २१ वनगजक्षुण्णतटाम् । । २० वेत्रवतीं इ० । छत्रवतीं प० । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ आदिपुराणम् रुद्ध्वा माल्यवतीतीरवनं वन्येभसंकुलम् । यामुनं च पयः पीत्वा जिग्युरस्य द्विपा दिशः ॥१९॥ अनुवेणुमतीतीरं गत्वास्य जयसाधनम् । वत्सभूमि समाक्रम्य दशाम प्यलङ्घयत् ॥६०॥ विशालां नालिकां सिन्धुं पर निष्कुन्दरीमपि । बहुवज्रां च रम्यां च नदी सिकतिनीमपि ॥६१॥ ऊहां च समतोयां च कक्षामपि कपीवतीम् । निर्विन्ध्यां च धुनी जम्बूमती च सरिदुत्तमाम् ॥६२॥ वस्तुमत्यापगामब्धिगामिनी शर्करावतीम् । सिप्रां च कृतमालां च परिना पनसामपि ॥६३॥ नदीमवन्तिकामां च हस्तिपानी च निम्नगाम् । कागन्धुमापगां व्याघ्री धुनी चर्मण्वतीमपि ॥६॥ शतभोगां च नन्दां च नदीं करभवेगिनीम् । चुल्लितापी च रेवां च सप्तपारां च कौशिकीम् ॥६५॥ सरितोऽसूरगाधापा विष्वगारुद्ध्य तद्बलम् । तुरंगमखुरोरखाततीरा विस्तारिणीय॑धात् ॥६६॥ तैरश्चिकं गिरि क्रान्त्वा रुद्ध्वा वैडूर्यभूधरम् । भटाः कूटाद्रिमुल्लङ्घय पारियात्रमशिश्रियन् ॥६॥ गत्वा पुप्पगिरेः प्रस्थान सानून सितगिरेरपि । गदागिरनिकुञ्जेषु बलान्यस्य विशश्रमुः ॥६८॥ वातपृष्ठदरीभागा नृश्नवत् कुक्षिभिः" समम् । तत्सैनिकाः श्रयन्ति स्म कम्बलाद्रितटान्यपि ॥६६॥ वासवन्तं महाशैलं विलङ्घयासुरधूपने'। स्थित्वाऽस्य सैनिकाः प्रापन् मदेभानङ्गरेयिकान् ॥७॥ निःसपत्नमिति भ्रमुरितश्चेतश्च सैनिकाः। द्विपान वनविभागेषुकर्षन्तोऽस्य निजैर्गजैः ॥७१॥ दुस्तराः सुतरा जाताः संभुक्ताः सरितो बलैः । स्वारोहाच दुरारोहा गिरयः क्षुण्णसानवः ॥७२॥ वती नदीको प्राप्त हुए थे ।।५८॥ जंगली हाथियोंसे भरे हुए माल्यवती नदीके किनारेके वनको घेरकर तथा यमुना नदीका पानी पीकर भरतके हाथियोंने उस ओरकी समस्त दिशाएं जीत ली थीं ।।५९।। उनकी विजयी सेनाने वेणुमती नदीके किनारे-किनारे जाकर वत्स देशकी भूमिपर आक्रमण किया और फिर दशार्णा ( धसान ) नदीका भी उल्लंघन किया - पार किया ॥६०॥ भरतकी सेनाने विशाला, नालिका, सिन्धु, पारा, निःकुन्दरी, बहुवज्रा, रम्या, सिकतिनी, कुहा, समतोया, कंजा, कपीवती, निर्विन्ध्या, नदियोंमें श्रेष्ठ जम्बूमती, वसुमती. समुद्र तक जानेवाली शर्करावती, सिप्रा, कृतमाला, परिजा, पनसा, अवन्तिकामा, हस्तिपानी, कागन्धु, व्याघ्री, चर्मण्वती, शतभागा, नन्दा, करभवेगिनी, चुल्लितापी, रेवा, सप्तपारा, और कौशिकी इन अगाध जलसे भरी हुई नदियोंको चारों ओरसे घेरकर जिनके किनारे घोड़ोंके खुरोंसे खुद गये हैं ऐसी उन नदियोंको बहुत चौड़ा कर दिया था ॥६१-६६।। सैनिकोंने तैरश्चिक नामके पर्वतोंको लाँधकर वैडूर्य नामका पर्वत जा घेरा और फिर कूटाचलका उल्लंघन कर पारियात्र नामका पर्वत प्राप्त किया ॥६७।। भरतकी वह सेना पुष्प गिरिके शिखरोंपर चढ़कर सितगिरिके शिखरोंपर जा चढ़ी और फिर वहाँसे चलकर उसने गदा नामक पर्वतके लतागृहोंमें विश्राम किया ॥६८॥ भरतके सैनिकोंने ऋक्षवान् पर्वतकी गुफाओंके साथ-साथ वातपृष्ठ पर्वतको गुफाओंका आश्रय लिया और फिर वहाँसे चलकर कम्बल नामक पर्वतके किनारोंपर आश्रय प्राप्त किया ॥६९।। वे सैनिक वासवन्त नामके महापर्वतका उल्लंघन कर असुरधूपन नामक पर्वतपर ठहरे और फिर वहाँसे चलकर मदेभ आनंग और रेमिक पर्वतपर जा पहुँचे ॥७०।। सेनाके लोग उन देशोंको शत्रुरहित समझकर अपने हाथियोंके द्वारा वनके प्रदेशोंमें हाथी पकड़ते हुए जहाँ-तहाँ घूम रहे थे ।।७१॥ जो नदियाँ दुस्तर अर्थात् कठिनाईसे तैरने योग्य थीं वे ही नदियाँ सैनिकोंके द्वारा उपभुक्त होनेपर सुतर अर्थात् सुखसे १ बलम् । २ 'दशान्'ि इत्यपि क्वचित् । ३ कुहा ल० । ४ कामधुन्यापगाम् । ५ सानून् । ६ स्मितगिरे-ल०। ७ नितम्बेषु । ८ विश्रास्यन्ति स्म। ९ वातपृष्ठगिरिकन्दरप्रदेशान् । १० भल्लूका इव । ११ तद्धीरस्थितगुहाभिः सह इत्यर्थः । ११ असुरधूपन इति पर्वतविशेषे। १३ मदेभश्च आनङ्गश्च रेयिकश्च तान् । १४ स्वीकुर्वन्तः । १५ सुखारोहाः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व ६९ राष्ट्राण्यवधयस्तेषां राष्ट्रीयाश्च महीभुजः । फलाय जज्ञिरे भर्तुर्योजिताश्चामुना फलैः ॥७३॥ नृपानवारपारीणान्प्यानप्युपसागरे । बली बलैरवष्टभ्य प्रापोपवनजान् गजान् ॥७४॥ रत्नान्यपि विचित्राणि तेभ्यो लब्ध्वा यथेप्सितम् । तानेवास्थापयत्तत्र संतुष्टः प्रभुराज्ञया ॥७५॥ महान्ति गिरिदुर्गाणि निम्नदुर्गाणि च प्रभोः । सिद्धानि बलरुद्धानि किमसाध्यं महीयसाम् ॥७६॥ इत्थं स पृथिवीमध्यान् पौरस्त्यान्निर्जयन्नपान् । प्रतस्थे दक्षिणामाशां दाक्षिणात्यजिगीषया ॥७७॥ यतो यतो बलं जिष्णोः प्रचलत्युद्धनायकम् । ततस्ततः स्म सामन्ता नमन्त्यानम्रमौलयः ॥८॥ त्रिकलिङ्गाधिपानोद्रान् कच्छान्ध्रविषयाधिपान् । प्रातरान् केरलांश्चोला पुन्नागांश्च व्यजेष्ट सः ॥७९॥ कुडुम्बानोलिकांश्चैव स माहिषकमकुरान् । पाण्ड्यानन्तरपाण्ड्यांश्च दण्डेन वशमानयत् ॥८॥ नृपानेतान् विजित्याशु प्रणमय्य स्वपादयोः । हृत्वा तत्साररत्नानि प्रभुः प्रापत् परां मुदम् ॥८॥ सेनानीरपि बभ्राम विभोराज्ञां समुद्वहन् । गिरीन् ससरितो देशान् कालिङ्गकवनाश्रितान् ॥८२॥ स साधनैः समं भेजे तैलामिक्षुमतीमपि । नदी नरवां वङ्गां श्वसनां च महानदीम् ॥४३॥ तैरने योग्य हो गयी थीं। इसी प्रकार जो पर्वत दुरारोह अर्थात् कठिनाईसे चढ़ने योग्य थे वे ही पर्वत सैनिकोंके द्वारा शिखरोंके चूर्ण हो. जानेसे स्वारोह अर्थात् सुखपूर्वक चढ़ने योग्य हो गये थे ॥७२॥ देश, उनकी सीमाएँ और देशोंके राजा लोग सम्राट भरतेश्वरको फल प्रदान करनेके लिए ही उत्पन्न हुए थे तथा बदलेमें भरतने भी उन्हें अनेक फलोंसे युक्त किया था। भावार्थ - सम्राट् भरत जहाँ-जहाँ जाते थे वहाँ-वहाँके लोग उन्हें अनेक प्रकारके उपहार दिया करते थे और भरत भी उनके लिए अनेक प्रकारकी सुविधाएँ प्रदान करते थे ॥७३॥ जो राजा लोग उपसमुद्रके उस पार रहते थे अथवा उप-समुद्रके भीतर द्वीपोंमें रहते थे उन सबको बलवान् भरतने सेनाके द्वारा अपने वश किया था तथा वनमें उत्पन्न होनेवाले हाथियोंको पकड़-पकड़कर उनका पोषण किया था ।।७४।। महाराज भरतने उन राजाओंसे अपनी इच्छानुसार अनेक प्रकारके रत्न लेकर सन्तुष्ट हो अपनी आज्ञासे उनके स्थानोंपर उन्हींको फिरसे विराजमान किया था ॥७५।। जो बड़े-बड़े किले पहाड़ोंके ऊपर थे और जो जमीनके नीचे बने हुए थे वे सब सेनाके द्वारा घिरकर भरतके वशीभूत हो गये थे, सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंको क्या असाध्य है ? ॥७६।। इस प्रकार भरतने पूर्व दिशाके समस्त राजाओंको जीतकर दक्षिण दिशाके राजाओंको जीतनेकी इच्छासे उस पृथिवीके मध्यभागसे दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान किया ॥७७॥ उत्कृष्ट सेनापति सहित विजयी भरतकी सेना जहाँ-जहाँ जाती थी वहाँ-वहाँ के राजा लोग सामन्तोंसहित मस्तक झुका-झुकाकर उन्हें नमस्कार करते थे ।।७८।। दक्षिणमें भरतने त्रिकलिंग, ओद्र, कच्छ, प्रातर, केरल, चेर और पुन्नाग देशोंके सब राजाओंको जीता था ॥७९।। तथा कूट, ओलिक, महिष, कमेकुर, पाण्ड्य और अन्तरपाण्ड्य देशके राजाओंको दण्डरत्नके द्वारा अपने वशीभूत किया था ॥८०॥ सम्राट भरतने इन सब राजाओंको शीघ्र ही जीतकर उनसे अपने चरणोंमें प्रणाम कराया और उनके सारभूत रत्न लेकर परम आनन्द प्राप्त किया ।।८१।। चक्रवर्तीकी आज्ञा धारण करता हआ सेनापति भी कालिंगक वनके समीपवर्ती अनेक पहाड़ों, नदियों तथा देशोंमें घूमा था ॥८२॥ वह अपनी सेनाओंके, साथ-साथ तैला, इक्षुमती, नकरवा, वंगा और श्वसना आदि महानदियोंको प्राप्त हुआ था १ सेनान्या। २ उभयतीरे भवान् । 'पारावारपरेभ्यः इति खः' इति प्राजितीयेऽर्थे खः। 'पारावारे परे तीरे' इत्यमरः । ३ द्वीपे जातान् । ४ घाटीं कृत्वा । ५ पुपोष वनजान् ल०, द०, इ०, अ०। ६ पूर्वदिग्भवान्। ७ दक्षिणदिशि जाता । ८ घेरान् ल०, द० । ९ बलेन । १० प्रभो-ल०। ११ कलिङ्गदेशसंबन्धि । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् 1 धुन वैतरणीं माषवतीं च समहेन्द्रकाम् । सैनिकैः सममुत्तीर्य ययौ शुप्कनदीमपि ॥ ८४ ॥ सप्त गोदावरी' 'पश्यन् गोदावरीं शुचिम् । सरो मानसमासाद्य मुमुदे शुचिमानसः ॥ ८५ ॥ 'सुप्रयोगां नदीं तीर्खा कृष्णवेणां च निम्नगाम् । सन्नीरां च प्रवेणीं च व्यतीयाय समं बलैः ॥८६॥ कुब्जां धैर्यां च चूर्णां च वेणां सूकरिक्रामपि । 'अम्बेणां च नदीं पश्यन् दाक्षिणात्यानशुश्रुवत्॥८७॥ महेन्द्रादिं समाक्रामन् विन्ध्योपान्तं च निर्जयन् । नागपर्वतमध्यास्य प्रययौ मलयाचलम् ॥८८॥ गोशीर्षं दर्दुराद्रिं च गिरिं पाण्डयकवाटकम् । स शीतगुहमासीदन गं श्रीकटनाह्वयम् ॥८९॥ श्रीपर्वतं च किष्किन्धं निर्जयञ्जयसाधनैः । तत्र तत्रोचितैलभैरवर्धत चमूपतिः ॥ ९० ॥ कर्णाटकान् स्फुटाटोपविकटोद्भट वेषकान् । हरिद्राञ्जनताम्बूल प्रियान् प्रायो यशोधनान् ॥९१॥ आन्ध्रान् "रुन्द्रप्रहारेषु कृतलक्षान् ' कदर्यकान् । पाषाणकठिनानङ्गैर्न परं हृदयैरपि ॥९२॥ कालिङ्गकानू प्रायसाधनान् सकलाधनान् । प्रायेण तादृशानोङ्गान् जडानुड्ड "मरप्रियान् ॥ ९३ ॥ "चोलिकान्नालिकप्रायान्" प्रायशोऽनृजु चेष्टितान् । केरलान् सरलालापान् कलागोष्ठीषु॥९४॥ पाण्ड्यान् प्रचण्डदोर्दण्डखण्डितारातिमण्डलान् । प्रायो गजप्रियान् धन्विकुन्तभूयिष्ठसाधनान् ॥९५॥ ॥८३॥ तथा वैतरणी, माषवती और महेन्द्रका इन नदियोंको अपने सैनिकोंके साथ पार कर वह शुष्क नदीपर जा पहुँचा था ॥ ८४ ॥ सप्तगोदावरको पार कर पवित्र गोदावरीको देखता हुआ वह पवित्र हृदयवाला सेनापति मानस सरोवरको पाकर बहुत प्रसन्न हुआ ||८५|| तदनन्तर उसने सेनाओंके साथ-साथ सुप्रयोगा नदीको पार कर कृष्णवेणा, सन्नीरा और प्रवेणी नामकी नदीको पार किया || ८६ ॥ तथा कुब्जा, धैर्या, चूर्णी, वेणा, सूकरिका और अम्बर्णा नदीको देखते हुए उसने दक्षिण दिशाके राजाओंको चक्रवर्तीकी आज्ञा सुनायी ॥ ८७॥ फिर महेन्द्र पर्वतको उल्लंघन कर विन्ध्याचल के समीपवर्ती प्रदेशोंको जीतता हुआ नागपर्वत पर चढ़कर वह सेनापति मलय पर्वतपर गया ॥ ८८ ॥ | वहाँसे अपनी सेना के साथ-साथ गोशीर्ष, दर्दुर, पाण्ड्य, कवाटक और शीतगृह नामके पर्वतोंपर पहुँचा तथा श्रीकटन, श्रीपर्वत और किष्किन्ध पर्वतोंको जीतता हुआ वहाँके राजाओंसे यथायोग्य लाभ पाकर वह सेनापति अतिशय वृद्धिको प्राप्त हुआ ।। ८९-९० ।। प्रकट रूपसे धारण किये हुए आडम्बरोंसे जिनका वेष विकट तथा शूरवीरताको उत्पन्न करनेवाला है, जिन्हें हल्दी, ताम्बूल और अंजन बहुत प्रिय हैं; तथा प्रायः कर जिनके यश ही धन है. ऐसे कर्णाटक देशके राजाओंको, जो कठिन प्रहार करने में सिद्धहस्त हैं। जो बड़े कृपण हैं और जो केवल शरीरकी अपेक्षा ही पाषाणके समान कठोर नहीं हैं किन्तु हृदयकी अपेक्षा भी पाषाणके समान कठोर हैं ऐसे आन्ध्र देशके राजाओंको, जिनके प्रायः हाथियोंकी सेना है और जो कला-कौशल रूप धनसे सहित हैं ऐसे कलिंग देशके राजाओंको, जो प्रायः कलिंग देशके समान हैं, मूर्ख हैं और लड़नेवाले हैं ऐसे ओण्ड्र देशके राजाओंको, जिन्हें प्रायः झूठ बोलना प्रिय नहीं है और जिनकी चेष्टाएँ कुटिल हैं ऐसे चोल देशके राजाओं को, मधुर गोष्ठी करने में प्रवीण तथा सरलतापूर्वक वार्तालाप करनेवाले केरल देशके राजाओं को, जिनके भुजदण्ड अत्यन्त बलिष्ठ हैं, जिन्होंने शत्रुओंके समूह नष्ट कर दिये हैं, जिन्हें हाथी बहुत प्रिय हैं और जो युद्ध में प्रायः धनुष तथा भाला आदि शस्त्रोंका अधिकतासे प्रयोग करते हैं ऐसे पाण्ड्य ७० १५ १ तीर्थं अ०, स०, ल० । २ 'सुप्रवेगाम्' इत्यपि क्वचित् । ३ कृष्णवर्णी ल० । ४ अभ्यर्णा ल० । ५ श्रावयति स्म । ६ नागपर्वते स्थित्वा । ७ आगमत् । ८ गर्व । ९ मनोहरः । ' विकटः सुन्दरे प्रोवतो विशालविकरालयोः' इत्यभिधानात् । १० दुःख । ११ कृतव्याजान् । 'व्याजोऽपदेशो लक्ष्यं च' इत्यमरः । १२ कृपणान् । कदर्ये कृपणक्षुद्रकिपचानमितंपचाः' इत्यमरः । १३ करिबहलसेनान् । १४ युद्ध । १५ द्राविडान् । १६ अलीक अनृत । १७ वक्रवर्तनान् । १८ कलगोष्ठीषु चञ्चुरान् ल० द० । १६ प्रतीतान् । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व 'दृष्टापदानानन्यांश्च तत्र तत्र व्युदुत्थितान् । जयसैन्यैरवस्कन्य सेनानीरनयद् वशम् ॥१६॥ ते च सत्कृत्य सेनान्यं पुरस्कृत्य ससाध्वसम् । चक्रिणं प्रणमन्ति स्म दूरादूरीकृतायतिम् ॥१७॥ करग्रहेण संपीड्य दक्षिणाशां वधूमिव । प्रसभं हृततत्सारो दक्षिणाब्धिमगात् प्रभुः ॥१८॥ 'लवङ्गलवलीप्रायमलागुल्मलतान्तिकम् । वेलोपान्तवनं पश्यन् महतीं पृतिमाप सः ॥१९॥ तमासिपेविरं मन्दमान्दोलितसरोजलाः । एलासुगन्धयः सौम्या वेलान्तवनवायवः ॥१०॥ मरुदुद्धतशाखाग्रविकीर्णसुमनोऽञ्जलिः । नूनं प्रत्यगृहीदेनं वनोद्देशो विशांपतिम् ॥१०१॥ पवनाधूतशाखाद्य तपट पदनिःस्वनैः । विश्रान्त्यै सैनिकानस्य व्याहरन्निव पादपाः ॥१०॥ अथ तस्मिन् वनाभोग सैन्यमावासयद् विभुः । वैजयन्तमहाद्वारनिकटेऽम्बुनिधेस्तटे ॥१०३॥ सन्नागं° बहुपुन्नागं''सुमनोभि रधिष्टितम् । बहुपत्ररथं जिष्णोर्बलं तद्वनमावसत् ॥१०॥ देशके राजाओंको और जिन्होंने प्रतिकल खडे होकर अपना पराक्रम दिखलाया है ऐसे अन्य देशके राजाओंको सेनापतिने अपनी विजयी सेनाके द्वारा आक्रमण कर अपने अधीन किया था ॥९१-९६। उन राजाओंने सेनापतिका सत्कार कर तथा भयसहित कूछ भेंट देकर जिन्होंने उनका भविष्यत्काल अर्थात् आगे राजा बना रहने देना स्वीकार कर लिया है ऐसे चक्रवर्तीको दूरसे ही प्रणाम किया था ।।९७।। जिस प्रकार पुरुष करग्रह अर्थात् पाणिग्रहण संस्कारसे किसी स्त्रीको वशीभूत कर लेता है उसी प्रकार चक्रवर्ती भरतने करग्रह अर्थात् टैक्स वसूलीसे दक्षिण दिशाको अपने वश कर लिया था और फिर जबरदस्ती उसके सार पदार्थों को छीनकर दक्षिण समुद्रकी ओर प्रयाण किया था ॥९८॥ वहाँ वह चक्रवर्ती, जिनमें प्रायः लवंग और लवलीकी लताएँ लगी हुई हैं तथा जो इलायचीके छोटे-छोटे पौधोंकी लताओंसे सहित है ऐसे किनारेके समीपवर्ती वनको देखता हुआ बहुत भारी सन्तोषको प्राप्त हुआ था ।।१९।। जो तालाबोंके जलको हिला रहा है, जिसमें इलायचीकी सुगन्धि मिली हुई है और जो सौम्य है ऐसे किनारेके वनकी वायु उस चक्रवर्तीकी सेवा कर रही थी ॥१००। वायुसे हिलती हुई शाखाओंके अग्रभागसे जिसने फूलोंकी अंजलि बिखेर रखी है ऐसा वह वनका प्रदेश ऐसा जान पड़ता था मानो इस चक्रवर्तीकी अगवानी ही कर रहा हो ॥१०१।। वृक्षोंकी शाखाओंके अग्रभाग वायुसे हिल रहे थे और उनपर भ्रमर स्पष्ट शब्द कर रहे थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे वृक्ष हाथ हिला-हिलाकर भ्रमरोंके शब्दोंके बहाने पुकार-पुकारकर विश्राम करनेके लिए भरतके सैनिकोंको बुला ही रहे हों ।१०२।। अथान्तर-चक्रवर्तीने उस वनके मैदानमें समुद्रके किनारे वैजयन्त नामक महाद्वारके निकट अपनी सेना ठहरायी ॥१०३।। वह वन और भरतकी सेना दोनों ही समान थे क्योंकि जिस प्रकार वन सनाग अर्थात् मोथाके पौधोंसे सहित था उसी प्रकार सेना भी सनाग अर्थात् हाथियोंसे सहित थी, जिस प्रकार वन बहुपुन्नाग अर्थात् नागकेशरके बहुत वृक्षोंसे सहित था उसी प्रकार सेना भी बहुपुन्नाग अर्थात् अनेक उत्तम पुरुषोंसे सहित थी, जिस प्रकार वन सुमन अर्थात् फूलोंसे सहित था उसी प्रकार वह सेना भी सुमन अर्थात् देव अथवा अच्छे हृदयवाले पुरुषोंसे सहित थी, और जिस प्रकार वन बहुपत्ररथ अर्थात् अनेक पक्षियोंसे सहित होता १ दृष्टसामर्थ्यात् । 'अपादानं कर्मणि स्यादतिवृत्तेऽवखण्डने ।' इत्यभिधानात् । २ अभ्युत्थितान् । ३ आक्रम्य । ४ अङ्गीकृतसंपदम् । ५ बलात्कारेण । ६ चन्दनलता। ७ 'तताङ्कितम्' इत्यपि क्वचित् । ततं विस्तृतम् । ८ आह्वयन्ति स्मेव । ९ विस्तारे । १० प्रशस्तगजम् । सुनागवृक्षं च । ११ पुरुषश्रेष्ठं नागकेसरं च । १२ देवैः कुसुमैश्च । १३ बहवाहनस्यन्दनम् बहलविहगं च। 'पतत्रिपत्रिपतगपतत्पत्ररथाण्डजाः' इत्यभिधानात् । १४ एवंविधं बलमेवंविधं वनमावसत् । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ आदिपुराणम् सच्छायान् सांस्तुङ्गान् बहुपत्र परिच्छदान् । असेवन्त जनाः प्रीत्या पार्थिवांस्तापविच्छिदः ॥ १०५ ॥ सच्छायानप्यसंभाव्याफलान् प्रोज्झ्य महाद्रुमान् । सफलान् विरलच्छायानप्यहो शिश्रियुर्जनाः ॥ १०६॥ 'आकालिकी मनाहृत्य बहिश्छायां तदातनीम् । भाविनीं तरुमुलेषु छायामाशिश्रियञ्जनाः ॥ १०७॥ वनस्थली तरुच्छायानिरुद्धमणित्विषः । 'सजानयस्तरस्तीरेष्वध्यासिषत सैनिकाः ॥ १०८ ॥ प्रेयसीभिराद्धप्रणयैराश्रिता नृपैः । कल्पपादपजां लक्ष्मी व्यक्तमृहुर्वनद्रुमाः ॥ १०९ ॥ कपयः कपिकच्छूनामुनानाः फलच्छटाः । सैनिकानाकुलांश्चक्रुर्निविष्टान् वीरुधामधः ॥११०॥ सरःपरिसरेष्वासन् प्रभोरावीयमन्दुराः । सुन्दराः स्वैरमाहायें "पिच्छे स्णाङ्कुरैः " ॥१११॥ है उसी प्रकार वह सेना भी अनेक सवारियों और रथोंसे सहित थी, इस प्रकार भरतकी वह सेना अपने समान वनमें ठहरी ||१०४ | उस वनके पार्थिव अर्थात् वृक्ष ( पृथिव्यां भवः, 'पार्थिवः' ) पार्थिव अर्थात् राजाओं ( पृथिव्या अधिपः 'पार्थिवः' ) के समान थे, क्योंकि जिस प्रकार राजा सच्छाय अर्थात् उत्तम कान्तिसे सहित होते हैं उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी सच्छाय अर्थात् उत्तम छाया (छाँहरी) से सहित थे, जिस प्रकार राजा लोग सफल अर्थात् आयसे सहित होते हैं उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी सफल अर्थात् फलोंसे सहित थे। जिस प्रकार राजा लोग तुंग अर्थात् ऊँची प्रकृतिके उदार होते हैं उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी तुंग अर्थात् ऊँचे थे, जिस प्रकार राजा लोग बहुपत्रपरिच्छद अर्थात् अनेक सवारी आदिके वैभवसे सहित होते हैं उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी बहुपत्रपरिच्छद अर्थात् अनेक पत्तोंके परिवार सहित थे और जिस प्रकार राजा लोग ताप अर्थात् दरिद्रतासम्बन्धी दुःखको नष्ट करनेवाले होते हैं। उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी ताप अर्थात् सूर्यके घामसे उत्पन्न हुई गरमीको नष्ट करनेवाले थे, इस प्रकार भरतके सैनिक, राजाओंकी समानता रखनेवाले वृक्षोंका आश्रय बड़े प्रेमसे ले रहे थे ।। १०५ ।। सेनाके कितने ही लोग उत्तम छायासे सहित होनेपर भी जिनसे फल मिलनेकी सम्भावना नहीं थी ऐसे बड़े-बड़े वृक्षोंको छोड़कर थोड़ी छायावाले किन्तु फलयुक्त वृक्षोंका आश्रय ले रहे थे । भावार्थ - जिस प्रकार धनाढ्य होनेपर भी उचित वृत्ति न देनेवाले कंजूस स्वामीको छोड़कर सेवक लोग अल्पधनी किन्तु उचित वृत्ति देनेवाले उदार स्वामीका आश्रय लेने लगते हैं उसी प्रकार सैनिक लोग फलरहित बड़े-बड़े वृक्षोंको छोड़कर फलसहित छोटेछोटे वृक्षोंका आश्रय ले रहे थे ॥ १०६ ॥ सेनाके लोग उस समयकी थोड़ी देर रहनेवाली बाहरकी छाया छोड़कर वृक्षोंके नीचे आगे आनेवाली छायामें बैठे थे ॥ १०७॥ | वनस्थलीके वृक्षों की छायासे जिनपर सूर्यकी धूप रुक गयी है ऐसे कितने ही सैनिक अपनी-अपनी स्त्रियों सहित तालाबोंके किनारोंपर बैठे हुए थे || १०८ ॥ परस्परके प्रेमसे बँधे हुए राजा लोग अपनी-अपनी स्त्रियों सहित जिनके नीचे बैठे हुए हैं ऐसे वनके वृक्ष कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुई शोभाको स्पष्ट रूपसे धारण कर रहे थे । भावार्थ - वनके वे वृक्ष कल्पवृक्षोंके समान जान पड़ते थे और उनके नीचे बैठे हुए स्त्री-पुरुष भोगभूमिके आर्य तथा आर्याओंके समान मालूम होते थे ॥१०९ ॥ वहाँ करें की कलियोंको हिलाते हुए वानर उन लताओंके नीचे बैठे हुए सैनिकों को व्याकुल कर रहे थे क्योंकि करेंचकी फलियोंके रोयें शरीरपर लग जानेसे खुजली उठने लगती है। ॥११०॥ तालाबों के समीप ही इच्छानुसार चरने योग्य तथा भापसे ही टूटनेवाले सुकोमल घास के - १ सच्छायान् तेजस्विनश्च । २ बहुदलपरिकरान् बहुवाह्नपरिकरांश्च । ३ वृक्षान् नृपतींश्च । ४ अस्थिराम् । ५ - माशिश्रियुर्जनाः ल० द० । ६ स्त्रीसहिताः । ७ मर्कटीनाम् । 'कपिकच्छुश्च मर्कटी' इत्यभिधानात् । ८ फलपञ्जरी: । ५ लतानाम् । १० सर्वत्र प्रदेशेषु सुलभैरित्यर्थः । ११ कोमलैः । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व अवतारितपर्याण'मुखभाण्डाद्युपस्कराः । स्फुरन्प्रामुग्रश्वाः मां जधुर्विविवृन्सवः ॥११२॥ सान्दपारज कीर्णाः सरसामन्तिकस्थले । मन्दं दुधुवुरङगानि वाहाः कृतविवर्तनाः ॥११३॥ विवभावस्वरे कजरजःपुलोऽनिलोद्धतः । अयत्न रचितोऽश्वानामिवोच्चैः पटमण्डपः ॥११॥ रजस्वला महीं स्पृदा जुगुप्सव इवोत्थिताः । द्रुतं विविशुरम्नांसि सरसीनां महाहयाः ॥११५॥ बारिवारिजकिंजल्कनतान्यश्वा विगाहिताः । धौतमप्यङ्गरागं स्वं भेजुरम्भोजरेणुभिः ॥११६॥ वरोवगाह निधूतश्रमाः पीताम्भसो हयाः । आमीलितासमध्यूषुर्विततान् पटमण्डपान् ॥११॥ नालिकरदनप्यासीदुचितो''वर्मशालिनः । निवेशो हास्तिकस्यास्य विभोतालीवनेषु च ॥११८॥ प्रपतन्नालिकेरौघस्थपुटा वनभूमयः । हस्तिनां स्थानतामीयुस्तैरेव प्रान्तसारितैः ॥११६॥ द्विपानुदन्यतरतीय वमथुव्यञ्जितश्रमान् । निन्युजलोपयोगाय सरांस्यभिनिषादिनः ॥१२॥ नीचैतिन मुध्यक्तमार्गसंजनितश्रमान् । गजानाधोरणा निन्युः सरसीरवगाहने ॥१२१॥ अंकुरोंसे सुन्दर, चक्रवर्तीके घोड़ोंकी घुड़सालें थीं ॥१११॥ जिनपर-से पलान और लगाम आदि सामग्री उतार ली गयी है ऐसे घोड़े जमीनपर लोटनेकी इच्छा करते हुए, हिलते हुए नथनोंसे युक्त मुखोंसे जमीनको सूंघ रहे थे ॥११२॥ कमलोंकी सान्द्र परागसे भरे हुए, तालाबके समीपवर्ती प्रदेशपर लोटकर वे घोडे धलि झाडनेके लिए धीरे-धीरे अपने शरीर हिला रहे थे ॥११३।। जो कमलोंको परागका समूह वायुसे उड़कर आकाशमें छा गया था वह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो घोड़ोंके लिए बहुत ऊँचा कपड़ेका मण्डप ही बनाया गया हो ॥११४।। बड़े-बड़े घोड़े पृथिवीको रजस्वला अर्थात् धूलिसे युक्त ( पक्षमें रजोधर्मसे युक्त ) देखकर ग्लानि करते हुए-से उठे और शीघ्र ही सरोवरोंके जलमें घुस गये ॥११५॥ कमलकी केशरसे भरे हुए जल में प्रविष्ट हुए घोड़ोंका अंगराग ( शोभाके लिए शरीरपर लगाया हुआ एक प्रकारका लेप ) यद्यपि धुल गया था तथापि उन्होंने कमलोंके परागसे अपने उस अंगरागको पुनः प्राप्त कर लिया था। भावार्थ-कमलोंकी केशरसे भरे हुए पानीमें स्नान करनेसे उनके शरीरपर जो कमलोंकी केशरके छोटे-छोटे कण लग गये थे उनसे अंगरागकी कमी नहीं मालूम होती थी ॥११६।। सरोवरोंमें घुसकर स्नान करनेसे जिनका सब परिश्रम दूर हो गया है और जिन्होंने इच्छानुसार जल पी लिया है ऐसे घोड़े कपड़ेके बड़े-बड़े मण्डपोंमें कुछ-कुछ नेत्र बन्द किये हए खड़े थे ॥११७।। ऊँचे-ऊँचे शरीरोंसे सुशोभित होनेवाले, महाराज भरतके हाथियोंके डेरे नारियल और ताड़ वृक्षके वनोंमें बनाये गये थे जो कि सर्वथा उचित थे ॥११८॥ जो वनकी भूमि ऊपरसे पड़ते हुए नारियलोंके समूहसे ऊँची-नीची हो रही थी वही नारियलोंके एक ओर हटा देनेसे हाथियोंके योग्य स्थान बन गयी थी॥११९।। जिन्हें बहुत प्यास लगी है तथा जो वमथु अर्थात् सूंडसे निकाले हुए जलके छींटोंसे अपना परिश्रम प्रकट कर रहे हैं ऐसे हाथियोंको महावत लोग पानी पिलानेके लिए तालाबोंपर ले गये थे॥१२०।। जो धीरे-धीरे चलनेसे मार्गमें उत्पन्न हुए परिश्रमको प्रकट कर रहे हैं ऐसे हाथियोंको महावत १ पल्ययनखलीनादिपरिकराः । २ आघ्रापयन्ति स्म ३ विवर्तयितुमिच्छवः । ४-कीर्ण ल०। ५ कम्पन्ति स्म । ६ -निलोद्धृतः ल० । ७ अयं नु ल०। ८ कुसुमरजोवतीम्, ऋतुमतीमिति ध्वनिः । ९ दृष्ट्वा ल०, द०। १० जलानीत्यर्थः । ११ प्रमाणम् । 'वष्म देहप्रमाणयोः' इत्यभिधानात् । १२ गजैरेव । १३ स्वकरीत्याकारेण पर्यन्तप्रसारितैः । १४ तृषितान् । 'उदन्या तु पिपासा तृट' इत्यभिधानात् । १५ करशीकरप्रकटित । 'वमथुः करशीकरः' इत्यभिधानात् । १६ हस्त्यारोहाः । 'हस्त्यारोहा निषादिनः' इत्यमरः । १७ मन्दगमनेन । म्खलद्गमनेन वा । अगमनेनेत्यर्थः । 'अल्पे नीचैमहत्युच्चैः' । १८ अवगाहनार्थम् । १० Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् प्रवेष्टुमब्जिनीपत्रच्छन्नं नागो नवग्रहः । नैच्छत् प्रचोद्यमानोऽपि वारि वारी विशङ्कया ॥१२२॥ वनं विलोकयन स्वैरं कवलोचितपल्लवम् । गजश्चिरगृहीतोऽपि किमप्यासीत् समुत्सुकः ॥१२३॥ स्वैरं न पपुरम्भांसि नागृह्णन् कवलानपि । केवलं वनसंभोगसुखानां सस्मरुन्जाः ॥१२४॥ उत्पुष्करान् स्फुरद्वौक्म कक्ष्यान्निन्युर्द्विपान् सरः । सशयूनिव' नीलादीन् सविद्युत इवाम्बुदान् ॥१२५॥ वनद्विपमदामोदवाहिने गन्धवाहिने । अजः कुप्यालोपान्तं निन्ये कृच्छान्निषादिना ॥१२६॥ अकस्मात कुपितो दन्ती शिरस्तिर्यग्विधूनयन् । अनङ्कशवशस्तीव्रमाधोरणमखेदयत् ॥१२७॥ वन्यानेकपसंभोगसंक्रान्तमदवासनाम् । विसोढुं सरसीं नैच्छन्मदेभः करिणीमिव ॥१२८॥ पीतं वनद्विपैः पूर्वमम्बु तद्दानवासितम् । द्विपः करेण संजिघ्रन् नापादास्फालयत् परम् ॥१२९॥ पीताम्भसो मदासारवृद्धिं निन्युः सरोजलम् । गजा मुधा धनादानं नूनं वान्छन्ति नोन्नताः ॥१३०॥ उत्पुष्कर सरोमध्ये निमग्नोऽपि मदद्विपः । रणद्भिः' 'खमुत्पत्य व्यज्यते स्म मधुवतैः ॥१३१॥ पीताम्बुरम्बुदस्पर्धि बृहितो मदकुंजरः । दुधात्र गाउकण्डूयां चण्डगण्डूषवारिभिः ॥१३२॥ लोग नहलानेके लिए तालाबोंपर ले गये थे ॥१२१॥ कोई नवीन पकड़ा हुआ हाथी बार-बार प्रेरित होनेपर भी कमलिनीके पत्तोंसे ढके हुए जलमें समुद्रकी आशंकासे प्रवेश नहीं करना चाहता था ॥१२२॥ बहत दिनका पकडा हआ भो कोई हाथी अपने इच्छानुसार खाने योग्य नवीन पत्तोंवाले वनको देखता हआ विलक्षण रीतिसे उत्कण्ठित हो रहा था ॥१२३।। कितने ही हाथियोंने इच्छानुसार न तो पानी हो पिया था और न ग्रास ही उठाये थे, वे केवल वनके सम्भोगसे उत्पन्न सुखोंका स्मरण कर रहे थे ॥१२४॥ जिनकी सूंड ऊँची उठी हुई है और जिनकी बगलमें सुवर्णकी मालाएँ देदीप्यमान हो रही हैं ऐसे हाथियोंको महावत लोग सरोवरोंपर ले जा रहे थे, उस समय वे हाथी ऐसे जान पड़ते थे मानो अजगरसहित नील पर्वत ही हो अथवा बिजलीसहित मेघ ही हों ॥१२५।। जो जंगली हाथीके मदकी गन्धको धारण करनेवाले वायुसे कुपित हो रहा है ऐसे किसी हाथोको उसका महावत बड़ी कठिनाईसे जलके समीप ले जा सका था ॥१२६।। अचानक कुपित हुआ कोई हाथी अपने शिरको तिरछा हिला रहा था, वह अंकुशके वश भी नहीं होता था और महावतको खेदखिन्न कर रहा था ॥१२७॥ जंगली हाथीके सम्भोगसे जिसमें मदकी वास फैल रही है ऐसी हथिनीको जिस प्रकार कोई मदोन्मत्त हाथी नहीं चाहता है उसी प्रकार जिसमें जंगली हाथियोंकी क्रीड़ासे मदकी गन्ध मिली हुई है ऐसी सरोवरीमें कोई मदोन्मत्त हाथी प्रवेश नहीं करना चाहता था ॥१२८॥ जिस पानीको पहले वनके हाथी पी चुके थे और इसीलिए जो मदकी गन्धसे भरा हुआ था ऐसे पानीको सेनाके हाथियोंने नहीं पिया था, वे केवल सूंडसे सूंघ-सूंघकर उसे उछाल रहे थे ॥१२९।। जिन हाथियोंने तालाबका पानी पिया था उन्होंने अपना मद बहा-बहाकर तालाबका वह पानी बढ़ा दिया था, सो ठीक ही है क्योंकि जो उन्नत अर्थात् बड़े होते हैं वे किसीका व्यर्थ ही धन लेनेकी इच्छा नहीं करते हैं ।।१३०।। कोई मदोन्मत्त हाथी यद्यपि सूंड ऊपर उठाकर तालाबके मध्यभागमें डूबा हुआ था तथापि आकाशमें उड़कर शब्द करते हुए भ्रमरोंसे 'वह यहाँ है', इस प्रकार साफ समझ पड़ता था । ॥१३१॥ जो पानी पी चुका है और जिसकी गर्जना मेघोंके साथ स्पर्धा कर रही है ऐसा कोई मदोन्मत्त हाथी अपने कुरलेके जलकी तेज फटकारसे कपोलोंकी खुजली शान्त कर रहा था १ नवो नूतनो ग्रहः स्वीकारो यस्य सः । २ गजबन्धनहेतुभूतगतिशङ्कपा । 'वारी तु गजबन्धनी' इत्यभिधानात् । ३ वनस्य संभोगाज्जातसुखानाम् । ४ उद्गतहस्ताग्रान् । ५ सुवर्णमयसवरत्रान् । 'दूष्या कक्ष्या वरत्रा स्यात्' इत्यभिधानात् । ६ अजगरसहितान् । ७ अनिलाय । ८ विगाडं ल०, द०। ९ आघ्रापयन् । १० न पिबन्ति स्म । ११ भृशं गुञ्जभिः । १२ अपनयति स्म । १३ कपोलकण्डूयनम् । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व विमुक्तं व्यक्तसूत्कारं करमुत्क्षिप्य वारणैः । वारि स्फटिकदण्डस्य लक्ष्मीमूहं खमुच्चलत् ॥१३३॥ उदगाहैर्विनिर्धूतश्रमाः केचिन्मतङ्गजाः । विसभङ्गै 'रघुस्पृप्ति हेलया कवलीकृतैः ॥१३४॥ मृणालैरधिदन्ताग्रमर्पितैर्विबभुर्गजाः । अजस्रमम्बु संसेकाद् रदैः प्रारोहितैरिव ॥१३५॥ प्रमाद्यन् द्विरदः कश्चिन्मृणालं स्वकरोदुष्टतम् । ददावालान बुध्यैव नियन्त्रे द्विगुणीकृतम् ॥१३६॥ चरणालग्नमाकर्षन् मृणाल भीलुको गजः । बहिःस रस्तटं १० व्यास्वदन्दुतन्तुकशङ्कया ॥१३७॥ करैरुत्क्षिप्य पद्मानि स्थिताः स्तम्बेरमा बभुः । देवतानुस्मृतिं किंचित् कुर्वन्तोऽर्घोरिवोद्धृतैः ॥१३८॥ सरस्तरङ्गधौताङ्गा रेजुस्तुङ्गा मतङ्गजाः । शृङ्गारिता इवालग्नैः सान्द्रैरम्भोजरेणुभिः ॥ १३९ ॥ _११ १२ 3 ५ यः करिभिरुद्धं परिहृत्य सरोजलम् । पतत्रिणः सरस्तीरं तद्युक्तमबलीयसाम् ॥१४०॥ सरोवगाह निर्णिक्तमूर्तयोऽपि मतङ्गजाः । " रजः प्रमाथैरात्मानं चक्रुरेव मलीमसम् ॥ १४१ ॥ १ १५ वयं जात्यैव मातङ्गा" मदेनोद्दीपिताः पुनः । कुतस्त्या शुद्धिरस्माकमित्यात्तं नु" रजो गजैः ॥१४२॥ वसन्ततिलकावृत्तम् इथं सरस्सु रुचिरं प्रविहृत्य नागाः संतापमन्त' रुदितं प्रशमय्य तोयैः । ती मानुपययुः किमपि प्रतोषाद् बन्धं तु तत्र नियतं न विदांबभूवुः " ॥१४३॥ ७५ ॥ १३२ ॥ कितने ही हाथी सूँड़ ऊँची उठाकर सू सू शब्द करते हुए ऊपरको पानी छोड़ रहे थे, उस समय आकाशकी ओर उछलता हुआ वह पानी ठीक स्फटिक मणिके बने हुए दण्डेकी शोभा धारण कर रहा था ।। १३३ ।। पानी में प्रवेश करनेसे जिनका सब परिश्रम दूर हो गया है ऐसे कितने ही हाथी लोलापूर्वक मृणालके टुकड़े खाकर सन्तोष धारण कर रहे थे || १३४|| कितने ही हाथी अपने दाँतोंके अग्रभागपर रखे हुए मृणालोंसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो निरन्तर पानीके सींचनेसे उनके दाँत ही अंकुरित हो उठे हों ॥ १३५ ॥ मद से अत्यन्त उन्मत्त हुआ कोई हाथी अपनी सूँड़से ऊपर उठाये हुए मृणालको बाँधनेकी साँकल समझकर उसे दोहरी कर हातको दे रहा था ।। १३६ ।। अपने पैर में लगे हुए मृणालको खींचता हुआ कोई भीरु हाथी उसे बाँधनेकी साँकल समझकर तालाब के बाहरी तटपर ही खड़ा रह गया था ।। १३७ ।। अपनी सूँड़ोंसे कमलों को उठाकर खड़े हुए हाथी ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो हाथोंमें अर्घ लेकर किसी देवताका कुछ स्मरण ही कर रहे हों ।। १३८ ।। जिनके शरीर तालाबकी लहरोंसे धुल गये हैं ऐसे ऊँचे-ऊँचे हाथी सघन रूपसे लगे हुए कमलोंकी परागसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो स्नान कराकर उनका शृंगार ही किया गया हो ।। १३९ ।। हाथियोंसे घिरे हुए तालाबके जलको छोड़कर सब पक्षी तालाब के किनारेपर चले गये थे सो ठीक ही है क्योंकि निर्बल प्राणियोंको ऐसा ही करना योग्य है || १४० ।। तालाबोंमें प्रवेश करनेसे जिनके शरीर निर्मल हो गये हैं ऐसे कितने ही हाथी धूल उड़ाकर फिरसे अपने-आपको मैला कर रहे थे ।। १४१ ॥ प्रथम तो हम लोग जातिसे ही मातंग अर्थात् चाण्डाल हैं ( पक्षमें - हाथी हैं ) और फिर मद अर्थात् मदिरासे ( पक्ष में- गण्डस्थलसे बहते हुए तरल पदार्थसे ) उत्तेजित हो रहे हैं इसलिए हम लोगोंकी शुद्धि अर्थात् पवित्रता ( पक्ष में - निर्मलता ) कहाँसे रह सकती है ऐसा समझकर ही मानो हाथियोंने अपने ऊपर धूल डाल ली थी || १४२ || इस प्रकार वे हाथो बहुत देर तक सरोवरोंमें क्रीड़ा कर और अन्तरंग में उत्पन्न हुए सन्तापको जलसे शान्त कर किनारे के वृक्षों १ खमुच्छ्वलत् ल० द०, इ० अ०, प०, स० । २ जलावगाहैः । ३ मृणालखण्डैः । ४ धृतवन्तः । ५ दन्तै: ल०, ५० । ६ संजातप्रारोहैः, अङ्करितैः । ७ बन्धनरज्जुः । ८ आरोहकाय । ९ सरस्वटीबाह्य प्रदेशे । १० प्रक्षिपति स्म । 'असु क्षेपणे' । ११ शृङ्खलासूत्र । 'अथ शृङ्खले । 'अन्दुको गिलोsस्त्री स्याद्' इत्यभिधानात् । १२ त्यक्त्वा । १३ शुद्ध । १४ धूलिप्रक्षेपैः । १५ श्वपचाः इति ध्वनिः । १६ इव । १७ अभ्यन्तरोदभूतम् । १८ न विदन्ति स्म । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ आदिपुराणम् 3 हृत्वा सरोऽम्बु करिणो निजदानवारि संवर्धितं विनिमयादनुणाचं सन्तः । तद्वीचिहस्तजनितप्रतिरोधशङ्का व्यासंगिनो नु सरसः प्रसभं निरीयुः ॥ १४४ ॥ आधोरणा मदमष मलिनान् करीन्द्रान् निर्णक्तु मम्बु सरसामवगाहयन्तः । शेकुर्न केवलमपामुपयोगमात्रं तीरस्थिताननु नयैस्तद वीकरन्त" ॥१४५॥ स्वैरं नवाम्युपरितमयनलभ्यत रमेषु न कृतः कोऽपि ६ छावलम्भि न तु विश्रमणं प्रभिः स्तम्बेरमै मदः खलु नात्मनीनः ॥१४६॥ नावा द्रुतं गुरुतरैरपि नातियातो युद्धेषु जातु न किमप्यपराद्धमभिः । ។ ។ ११ 16 भारक्षभाश्च करिणः सविशेषमेव बद्धास्तथाप्यनिभृता इति दिक्चलत्वम् ॥ १४७॥ बनी" नः किमिति हन्त विनापराधाज् जानीत भोः प्रतिफलत्यचिरादिदं वः । इत्युत्सूणि विधूय शिरांसि बन्धे वैरं तु यम्पु गजाः स्म विभावयन्ति ॥ १७८॥ आधातुको द्विरदिनः सविशेषमेव गात्रापरान्तकर वालधिपु न्यायोजि । वन्धेन सिन्धुररास्थितरे तथा नो गाडीभवत्यविरताक्ष" परत्र बन्धः ॥ १४५ ॥ १५ १९ के समीप आ गये थे, यद्यपि वहाँ उनके बाँधनेका स्थान नियत था तथापि क्रीड़ासे उत्पन्न हुए अतिशय सन्तोष से उन्हें उसका कुछ भी ज्ञान नहीं था || १४३ || हाथियोंने तालाबोंका जो पानी पिया था उसे मानो अपना बदला चुकानेके लिए ही अपने मदरूपी जलसे बढ़ा दिया था, इस प्रकार प्यासरहित हो सुखकी सांस लेते हुए वे हाथी, 'ये तालाब अपनी लहरेंरूपी हाथोंसे कहीं हमें रोक न ले' ऐसी आशंका कर तालाबोंसे शीघ्र ही बाहर निकल आये थे || १४४ ।। मदरूपी स्याहीसे मलिन हुए हाथियोंको निर्मल करनेके लिए तालाबोंके जलमें प्रवेश कराते हुए महावत जब उन्हें जलके भीतर प्रविष्ट नहीं करा सके तब उन्होंने केवल जल ही पिलाना चाहा परन्तु बहुत कुछ अनुनय-विनय करनेपर भी वे किनारेपर खड़े हुए उन हाथियोंको केवल जल भी पिलाने के लिए समर्थ नहीं हो सके थे । भावार्थ - मदोन्मत्त हाथी न तो पानीमें ही घुसे थे और न उन्होंने पानी ही पिया था ।। १४५ ।। मदोन्मत्त हाथियोंने न तो अपने इच्छानुसार बिना यत्नके प्राप्त हुआ पानी ही पिया था, न किनारेके वृक्षोंसे कुछ तोड़कर खाया ही था और न वृक्षोंकी छाया में कुछ विश्वास ही प्राप्त किया था, खेद है कि यह मद कभी भी आत्माका भला करनेवाला नहीं है ।। १४६ ।। इन हाथियोने शरीर भारी होनेसे शीघ्र ही मार्ग तय नहीं किया यह बात नहीं है अर्थात् इन्होंने भारी होनेपर भी शीघ्र ही मार्ग तय किया है, इन्होंने युद्ध में भी कभी अपराध नहीं किया है और ये भार ढोनेके लिए भी सबसे अधिक समर्थ हैं फिर भी केवल चंचल होनेसे इन्हें बद्ध होना पड़ा है इसलिए इस चंचलताको ही धिक्कार हो ।।१४७।। तुम लोग इस प्रकार बिना अपराधके हम लोगोंको क्यों बाँध रहे हो? तुम्हारा यह कार्य तुम्हें शीघ्र ही इसका वदला देगा यह तुम खूब समझ लो इस प्रकार बाँधनेके कारण महावतोंमें जो वर था उसे वे हाथी अंकुशको ऊपर उछालकर मस्तक हिलाते हुए स्पष्ट रूपसे जतला रहे थे || १४८|| जो हाथी जीवोंका घात करनेवाले थे वे शरीरके आगे पीछे तथा सूँड़ और पूँछ आदि 7 १ नैमेयात् । 'परिदानं परीवर्त नैमेयनियभावपि' इत्यभिधानात् । २ - दतॄणा: श्वसन्तः ल० ।- दनृणाः श्वसन्तः द०। ३ शुद्धान् कर्तुम् । ४ तीरे स्थितान्-ल० । ५ कारयन्ति स्म । ६ नैव । ७ मत्तः । प्रभिन्नो गति मत' इत्यभिधानात् ८ आत्महितम्। ९ नानुयातो प० ० १० ११ बन्धनं कुरुथ | १२लो १३ भी: यूयम् १४ कुशं यथा भवति तथा 'अंकुशोअत्री सूणिः स्त्रियाम्' इत्यभिधानात् । १५ हिंस्रक: । 'शरारुर्घातुको हिंस्र:' इत्यभिधानात् । १६ अपरगात्रान्त । शरीरापरभाग । 'द्वौ पूर्वपश्चाद्जादिदेशी गाणारे क्रमात् इति रभसः । गात्रे इत्युक्ते पूर्वजा, अपरे इत्युक्ते इस्तिन: अपरा अन्त इत्युक्ते हस्तिनो मध्यप्रदेश, कर इत्युक्ते हस्तिनो हस्तः, वालधिरित्युक्ते पुच्छविशेषः शरीरमध्य । १७ अधातुका १८ असंयतात् । अवतिकादित्यर्थः १९ संयते । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व आलानिता वनतरुवतिमात्रमुच्चस्कन्धेषु सिन्धुरवराश्च तथोच्चकैर्यत् । तन्ननमाश्रयणमिष्टमुदात्तमेव संधारणाय महतामहतात्मसारम् ॥१५०॥ इत्यं नियन्तृभिरनेकपवृन्दमुच्चैरालानितं तरुषु सामि निमीलिताक्षम् । तस्थौ मुखं विचतुरेण कृताङ्गहारं लीलोपयुक्तकवलं स्फुटकर्णतालम् ॥१५१॥ उत्तारिताखिलपरिच्छदलाघवेन प्रव्यञ्जितद्रुतगतिक मलक्ष्यवेगाः । आपातुमम्बुसरसा परितः प्रसस्रुरुच्छृङ्खलै रनुगताः कलभैः करिण्यः ॥१५२॥ प्राक्पीतमम्बु सरसां कृतमौष्ट्रकेण स्वोद्गाल दूषितमुपात्ततदङ्गगन्धम् । नापातुमैच्छदुदिदन्य"षितोऽपि वर्कः सर्वो हि वाञ्छति जनो विषयं मनोज्ञम् ॥१५३॥ पीतं पुरा गजतया सलिल मदाम्बु संवासितं सरसिजाकरमेत्य तूर्णम् । प्रीत्या पपुः कलभकाश्च करणवश्च संभोगहेतुरुदितो हि सगन्ध भावः ॥१५४॥ प्रहर्षिणी पीत्वाऽम्भो व्यपगमितान्तरङ्गतापाः संतापं बहिरुदितं सरोवगाहैः । नीत्वान्तं गजकलभैः समं करिण्यः संभोक्तुं सपदि वनदुमान् विचेरुः ॥१५५॥ सब जगह बन्धनोंसे युक्त किये गये थे और जो हाथी किसीका घात नहीं करते थे वे बन्धनसे युक्त नहीं किये गये थे इससे यह सिद्ध होता है कि जो अविरत अर्थात् हिंसा आदि पापोंके त्यागसे रहित हैं उन्हींके कर्मबन्धन सुदृढ़ रूपसे होता है और जो विरत अर्थात् हिंसा आदि पापोंके त्यागसे सहित हैं उनके कर्मका बन्ध नहीं होता ॥१४९।। जिनके स्कन्ध बहुत ऊंचे गये हैं ऐसे वनके वृक्षोंमें ही सेनाके ऊँचे-ऊँचे हाथी बाँधे गये थे सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंको धारण करनेके लिए जिसकी स्वशक्ति नष्ट नहीं हुई है ऐसा बहुत बड़ा ही आश्रय चाहिए ॥१५०॥ इस प्रकार महावतोंके द्वारा ऊँचे वृक्षोंमें बाँधा हुआ वह हाथियोंका समूह अपनी आधी आँखें बन्द किये हए सूखसे खड़ा था, उस समय वह अपना सब शरीर हिला रहा था, लीलापूर्वक ग्रास ले रहा था और कान फडफडा रहा था ॥१५।। पलान आदि सब सामान उतार लेनेसे हलकी होकर जिन्होंने जल्दी-जल्दी चलकर अपनी शीघ्र गति प्रकट की है. तः चंचल बच्चे जिनके पीछे-पीछे आ रहे हैं ऐसी हथिनियाँ तालाबोंका पानी पीनेके लिए चारों ओर जा रही थीं ॥१५॥ तालाबोंके जिस पानीको पहले ऊंटोंके समह पी चके थे. जो ऊँटोंके उगालसे दूषित हो गया था और जिसमें ऊँटोंके शरीरकी गन्ध आने लगी थी ऐसे पानीको हाथीका बच्चा प्यासा होनेपर भी नहीं पीना चाहता था, सो ठीक ही है क्योंकि सभी कोई अपने मन के विषयभूत पदार्थके अच्छे होनेकी चाह रखते हैं ॥१५३॥ जिसे पहले हाथियों के समूह पी चुके थे और जिसमें उनके मद जलकी गन्ध आ रही है ऐसे पानीको हथिनियाँ तथा उनके बच्चे बहुत शो तालाबपर जाकर बड़े प्रेमसे पी रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि समानता ही साथसाथ खाने-पीने आदि सम्भोगका कारण होती है ॥१५४॥ जिन्होंने जल पीकर अन्तरंगका सन्ताप दूर किया है और तालाबमें घुसकर बाहरी सन्ताप नष्ट किया है ऐसी हथिनियाँ अपने १ आधोरणः । २ यस्मात् कारणात् । ३ अर्धं । ४ विदृश्यानि विगतानि चत्वारि यस्य तेन । ५ अङ्गविक्षेपम् । ६ पाद । ७.स्वच्छन्दवृत्तिभिः । ८ सम्पूर्णम् । ९ उष्ट्रसमूहेण । १० निजोद्गार । ११ उष्ट्रशरीरगन्धम् । १२ भृशं तृषितः । १३ तरुणगजः । विक्कः अ० । १४ उक्तः । १५ परिमलत्वं मित्रत्वं च । १६ नाशम् । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् वल्लीनां सकुसुमपल्लवाग्रभङ्गान् गुल्मौघानपि सरसां कडङ्गरांश्च । सुस्वादून मृदुविटपान् वनगुमाणां तद्यूथं कवलयति स्म धेनुकानाम् ॥१५६॥ कुलेषु प्रतनुतृणाङ्कुरान् प्रमृद्नन् वप्रान्तानपि रदनैः शनैर्विनिघ्नन् । वल्ल्यग्रग्रसनचणः फलेग्रहिः सन् व्यालोलः कलमगणश्चिरं विजह ॥१५॥ प्रत्यग्राः किसलयिनीहाण शाखा भग्ध्युच्चैर्वनगहनं निषीद कुन्जे । संभोग्यानुपसरसल्लकीवनान्तानित्येवं व्यहृत" वने करेणुवर्गः ॥१५॥ संभोगैर्वनमिति निर्विशन् यथेष्टं स्वातन्त्र्यान्मुहरपि'धूर्गतैर्निबद्धः । बद्धव्यः सहकलभः करेणुवर्गः संप्रापत् समुचितमात्मनो निवेशम् ॥१५९॥ वित्रस्तैरपथमुपाहृतस्तुरंगैः पर्यस्तो" रथ इह भग्नधूर्निरक्षः । एतास्ता द्रुतमपयान्त्यपेत्य मार्गाद् वारस्त्रीवहनपराश्च वेगसर्यः" ॥१६०॥ वित्रस्तः" करमनिरीक्षणाद् गजोऽयं भीरुत्वं प्रकटयति प्रधावमानः । "उत्त्रस्तात्पतति च बेसरादमुष्माद् विस्रस्तस्तनजघनांशुका पुरन्ध्री ॥१६॥ इत्युच्चैय॑तिवदतां' पृथग्जनानां संजल्पैः क्षुभितखरोष्ट्रकौक्षकैश्च । "ब्याक्रोशैर्जनितरवैश्च सैनिकानां संक्षोमः क्षणमभवञ्चमूषु राज्ञाम् ॥१६२॥ बच्चोंके साथ खानेके लिए शीघ्र ही वनके वृक्षोंकी ओर चली गयीं ॥१५५॥ वह हथिनियोंका समूह लताओंके पुष्पसहित नवीन पत्तोंके अग्रभागोंको, छोटे-छोटे पौधोंको, रसीले कडंगरि वृक्षोंको और वनके वृक्षोंकी स्वादिष्ट तथा कोमल शाखाओंको खा रहा था ॥१५६।। लतागृहोंमें पतली घासके अंकुरोंको खूदता हुआ खेतोंकी मेड़को अपने दाँतोंसे धीरे-धीरे तोड़ता हुआ, लताओंके अग्रभागके खानेमें चतुर तथा फलोंको तोड़ता हुआ वह चंचल हाथियोंके बच्चोंका समूह चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा था ॥१५७।। पत्तेवाली नवीन लताओंको ग्रहण कर, ऊँची-ऊँची शाखाओंसे युक्त सघन वनमें जा, लतागृहमें बैठ और खानेके योग्य सल्लकी वनोंके समीप जा इस प्रकार महावतोंको आज्ञासे वह हथिनियोंका समूह वनमें इधर-उधर विहार कर रहा था ॥१५८॥ इस प्रकार जो अनेक प्रकारकी क्रीड़ाओंके द्वारा वनका अपनी इच्छानुसार उपभोग कर रहा है, स्वतन्त्रतापूर्वक आगे चलनेसे महावत लोग जिसे रोक रहे हैं और जो बाँधनेके योग्य हैं ऐसा वह हथिनियोंका समूह बच्चोंके साथ अपने ठहरने योग्य स्थानपर जा पहुँचा॥१५९।। इधर हाथियोंसे डरे हुए इन घोड़ोंने यह रथ कुमार्गमें ले जाकर पटक दिया है, इसका धुरा और भौंरा टूट गया है तथा वेश्याओंको ले जानेमें तत्पर ये खच्चरियाँ अपना मार्ग छोड़कर बहुत शीघ्र भागी जा रही हैं ॥१६०॥ इधर यह ऊँट देखनेसे डरा हुआ हाथी दौड़ा जा रहा है और उससे अपना भीरुपना प्रकट कर रहा है तथा इधर जिसके स्तन और जघनपरका वस्त्र खिसक गया है ऐसी यह स्त्री डरे हुए खच्चरसे गिर रही है ॥१६१।। इस प्रकार जोर-जोरसे बोलते हुए साधारण पुरुषोंकी बातचीतके शब्दोंसे, क्षोभको प्राप्त हुए गधे, ऊँट तथा बैलोंके शब्दोंसे और परस्पर बुलानेसे उत्पन्न हुए सैनिकोंके कठोर शब्दोंसे राजाओंकी १ बुसानि । 'कडङ्गरो बुसं क्लीबे' इत्यभिधानात् । २ करिणीनाम् । 'करिणी धेनुका वशा' इत्यमरः । सुरभीणाम् । ३ कोमल । ४ मर्दयन् । ५ सान्वन्तान् । 'स्नुर्वप्रः सानुरस्त्रियाम्' इत्यमरः । ६ भक्षणसमर्थः । ७ फलानि गृह्णन् । ८ भङ्गं कुरु । ९ आस्स्व। १० सादिजनानुनयः । ११ विहाति स्म । १२ अनुभवन् । १३ सादिभिः । १४ निषिद्धः । १५ उत्तानं यथा पतितः । १६ भग्नयानमुखः । १७ निर्गतावयवः । १८ वेसराः । १९ भयं गतः । २० चकितात् । २१ परस्परभाषमाणानाम् । २२ वृषभैः । २३ परस्पराह्वयः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व मालिनी अवनिपतिसमाजे नानुयातस्तुरं गैरकृश विभव योगान्निर्जयन् लोकपालान् । प्रतिदिशमुपवनाशिष चक्रपाणिः शिविरमविश दुच्चैर्वन्दिनां पुण्यघोषैः ॥ १६३॥ अथ सरसिजिनीनां गन्धमादाय सान्द्रं श्रुततटवनवीथिर्मन्दमावान् समन्तात् । श्रममखिलमनौसीत् कर्तुमस्योपचारं प्रहित इव सगन्धः सिन्धुना गन्धवाहः ॥ १६४ ॥ अविदितपरिमाणैरन्वितो रखशङ्खः" स्फुरितमणिशिखाग्रैर्भोगिभिः लेवनीयः । सततमुपचितात्मा रुढ दिक्चक्रवालो जलनिधिमनुजहे तस्य सेनानिवेशः ॥ १६५ ॥ 3 शार्दूलविक्रीडितम् 98 तत्रावासितसाधन निधिपतिर्गत्वा रथेनाम्बुधिं जैत्रास्त्रप्रतितर्जितामरसमस्तं व्यन्तराधीश्वरम् । जित्वा मागधवत् क्षणाद्वरतनुं तत्साह्वमम्भोनिधेद्वीपं शश्वदलं चकार यशसा कल्पान्तरस्थायिना ॥ १६६ ॥ लेभे भेद्यमुरछदं वरतनोग्रैवेयकं च स्फुरच्चूडारवमुदंशु दिव्यकटकान् सूत्रं च रत्नोज्ज्वलम् । सहलैरिति पूजितः स भगवान् श्रीवैजयन्तार्णव द्वारेण प्रतिसंनिवृत्य कटकं प्राविशदुत्तोरणम् ॥ १६७॥ सेनाओं में क्षण-भर के लिए बड़ा भारी क्षोभ उत्पन्न हो गया था ।। १६२ ।। घोड़ोंपर बैठे हुए अनेक राजाओं का समूह जिसके पीछे-पीछे चल रहा है ऐसा वह चक्रवर्ती अपने बड़े भारी वैभवसे लोकपालों को जीतता हुआ तथा प्रत्येक दिशासे बन्दीजनोंके मंगल गानोंके साथ-साथ आशीर्वाद सुनता हुआ अपने उच्च शिविर में प्रविष्ट हुआ ।। १६३॥ अथानन्तर जो किनारेके वनकी पंक्तियोंको हिला रहा है ऐसा वायु कमलिनियोंकी उत्कट गन्ध लेकर धीरे-धीरे चारों ओर बह रहा था और समुद्र के द्वारा भेजे हुए किसी खास सम्बन्धी के समान चक्रवर्ती के समस्त परिश्रमको दूर कर रहा था ।। १६४ ।। उस समय वह चक्रवर्तीकी सेनाका स्थान ( पड़ाव ) ठीक समुद्रका अनुकरण कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार समुद्र प्रमाणरहित शंख और रत्नोंसे सहित होता है उसी प्रकार वह चक्रवर्तीकी सेनाका स्थान भी प्रमाणरहित शंख आदि निधियों तथा रत्नोंसे सहित था, जिस प्रकार समुद्र, जिनके मस्तक - पर अनेक रत्न देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे भोगी अर्थात् सर्पोंसे सेवनीय होता है उसी प्रकार वह चक्रवर्तीकी सेनाका स्थान भी, जिनके मस्तकपर अनेक मणि देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे भोगी अर्थात् राजाओं के द्वारा सेवनीय था, जिस प्रकार समुद्र निरन्तर बढ़ता रहता है उसी प्रकार वह चक्रवर्तीकी सेनाका स्थान भी निरन्तर बढ़ता जाता था, और जिस प्रकार समुद्र सब दिशाओंको घेरे रहता है उसी प्रकार वह चक्रवर्तीकी सेनाका स्थान भी सब दिशाओंको घेरे हुए था ।। १६५ || जिसने अपनी सेना समुद्र के किनारे ठहरा दी है और जिसने अपने विजयशील शस्त्रोंसे मागध देवकी सभाको जीत लिया है ऐसे निधियोंके स्वामी चक्रवर्तीने रथके द्वारा समुद्रमें जाकर मागध देवके समान व्यन्तरोंके स्वामी वरतनु देवको भी जीता और समुद्रके भीतर रहनेवाले उसके वरतनु नामक द्वीपको कल्पान्त काल तक स्थिर रहनेवाले अपने यशसे सदा के लिए अलंकृत कर दिया ॥ १६६ ॥ भरतने वरतनु देवसे कभी न टूटनेवाला कवच, देदीप्यमान हार, चमकता हुआ चूड़ारत्न, दिव्य कड़े और रत्नोंसे प्रकाशमान यज्ञोपवीत इतनी वस्तुएँ प्राप्त कीं । तदनन्तर उत्तम रत्नोंसे जिसकी पूजा की गयी है ऐसे ऐश्वर्यशाली १ आगच्छन् । २ अपनयति स्म । ३ बन्धुः । ४ समुद्रेण । ५ चक्रादिरत्नशङ्खनिधिभिः । पक्षे मौक्तिकादिरत्नशङ्खैः । ६ पक्षे सर्पेः । ७ वद्धितस्वरूपः । ८ अनुकरोति स्म । ९ निवासितबलः । १० पूज्यः । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० आदिपुराणम् स्वयंस्फुटं प्रकटकाला स्वं चान्तर्गतरागमायु कथ सर्वस्वं समर्पयपनयनन्तणं दक्षिणो वारां राशिरमात्यवहि भुमी निपजमाराधयन् ॥ १६८ ॥ आस्थाने जयदुदुभीननु नदन् ' प्राभातिके मङ्गले गम्भीरवर्तिर्जयनिमिवधारयन् । सुन्यकं स जलाशयोऽप्यजल धीरांपतिः श्रीपतिं निर्ऋत्यस्थितिरन्वियाय सुचिरं शक्रो यथाद्यं जिनम् इत्यायें भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिपष्टिक्षण महापुराण संप्रहे दक्षिणा द्वार विजयवर्णनं नामैकोनत्रिंशं पर्व ॥ २६॥ भरतने वैजयन्त नामक समुद्रके द्वारसे वापस लौटकर अनेक प्रकारके तोरणोंसे सुशोभित किये गये अपने शिबिर में प्रवेश किया || १६७ ।। उस समय वह दक्षिण दिशाका लवणसमुद्र ठीक मन्त्रीकी तरह छलरहित हो भरतकी सेवा कर रहा था, क्योंकि जिस प्रकार मन्त्री अपने स्वच्छ हृदयको प्रकट करता है उसी प्रकार वह समुद्र भी मोतियोंके छलसे अपने स्वच्छ हृदय (मध्यभाग) को प्रकट कर रहा था, जिस प्रकार मन्त्री अपने अन्तरंगका अनुराग (प्रेम) प्रकट करता है उसी प्रकार वह समुद्र भी उत्पन्न होते हुए मूंगाओंके अंकुरोंसे अपने अन्तरंगका अनुराग ( लाल वर्ण ) प्रकट कर रहा था, जिस प्रकार मन्त्री अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है उसी प्रकार समुद्र भी अपना सर्वस्व (जल) समर्पण कर रहा था, जिस प्रकार मन्त्री अपना गुप्त धन उनके समीप रखता है उसी प्रकार वह समुद्र भी अपना गुप्त धन ( मणि आदि ) उनके समीप रख रहा था, जिस प्रकार मन्त्री दक्षिण ( उदार सरल ) होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी दक्षिण ( दक्षिणदिशावर्ती ) था ।। १६८ ।। अथवा जिस प्रकार इन्द्र दास होकर अनन्त चतुष्ट्यरूप लक्ष्मी के स्वामी प्रथम जिनेन्द्र भगवान् वृषभदेवकी सेवा करता था उसी प्रकार वह समुद्र भी दास होकर राज्यलक्ष्मीके अधिपति भरत चक्रधरकी सेवा कर रहा था, क्योंकि जिस प्रकार इन्द्र आस्थान अर्थात् समवसरण सभामें जाकर विजय दुन्दुभि बजाता था उसी प्रकार वह समुद्र भी भरतके आस्थान अर्थात् सभामण्डपके समीप अपनी गर्जनासे विजय-दुन्दुभि बजा रहा था, जिस प्रकार इन्द्र प्रातः कालके समय पढ़े जानेवाले मंगल पाठके लिए जय जय शब्दका उच्चारण करता था उसी प्रकार वह समुद्र भी प्रातः कालके समय पढ़े जानेवाले भरतके मंगल-पाठके लिए अपने गम्भीर शब्दोंसे जय जय शब्दका स्पष्ट उच्चारण कर रहा था, जिस प्रकार इन्द्र जलाशय ( जडाशय ) अर्थात् केवलज्ञानकी अपेक्षा अल्पज्ञानी होकर भी अपने ज्ञानकी अपेक्षा अजलधी ( अजड़धी ) अर्थात् विद्वान् ( अजडा धीर्यस्य सः ) अथवा अजड ( ज्ञानपूर्ण परमात्मा ) का ध्यान करनेवाला ( अजडं ध्यायतीत्यजडधी: ) था उसी प्रकार वह समुद्र भी जलाशय अर्थात् जलयुक्त होकर भी अजलधी अर्थात् जल प्राप्त करनेकी इच्छासे ( नास्ति जले धीर्यस्य सः ) रहित था, इस प्रकार वह समुद्र चिरकाल तक भरतेश्वरकी सेवा करता रहा ||१६९ || इस प्रकार आर्य नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिपष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवाद में दक्षिण समुद्रके द्वारके विजयका वर्णन करनेवाला उनतीस पर्व समाप्त हुआ। १ प्रापयन् । २ अन्तर्जलम् । ३ समवसरणे । ४ सदृशं ध्वनन् । ५ पटुबुद्धिः । ६ भृत्यवृत्तिः । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व 'अथापरान्तं निर्जेतुमुद्यतः प्रभुरुद्ययौ । दक्षिणापादिग्भागं वशीकुर्वन् स्वसाधनः ॥१॥ पुरः प्रयातमश्वीयैरन्वक प्रचलितं रथैः । मध्ये हस्तिवटा प्रायात् सर्वत्रैवात्र पत्तयः ॥२॥ "सदेवबलमित्यस्य चतुरङ्ग विभोर्चलम् । विद्याभृतां बलैः साई पड्भिरङ्गैविपप्रथें ॥३॥ प्रचलदलसंक्षोभादुच्चचाल किलार्णवः । महतामनुवृत्तिं नु श्रावयन्ननुर्जाविनाम् ॥४॥ बलैः प्रसह्य निभुक्ताः प्रह्वन्ति स्म महीभुजः । सरितः कर्दमन्ति स्म स्थलन्ति स्म महायः॥५॥, सुरसाः कृतनिर्वाणाः स्पृहणीया बुभुश्चभिः । महद्भिः सममुद्योगैः फलन्ति स्मास्प सिद्धयः ॥६॥ अभेद्या दृढसंवाना' विपक्षजय हेतवः । शक्तयोऽस्य स्फुरन्ति स्म सेनाश्च विजिगीषुषु ॥७॥ फलेन' योजितास्तीक्ष्णाः सपना दूरगामिनः । नाराचैः सम मेतस्य योधा जग्मुर्जयाङ्गताम् ॥८॥ अथानन्तर-पश्चिम दिशाको जीतनेके लिए उद्यत हुए चक्रवर्ती भरत अपनी सेनाके द्वारा दक्षिण और पश्चिम दिशाके मध्यभाग ( नैऋत्य दिशा ) को जीतते हुए निकले ॥१॥ उनकी सेनामें घोड़ोंके समूह सबसे आगे जा रहे थे, रथ सबसे पीछे चल रहे थे, हाथियोंका समूह बीचमें जा रहा था और प्यादे सभी जगह चल रहे थे ॥२॥ हाथी, घोड़े, रथ, प्यादे इस प्रकार चार तरहकी भरतकी सेना देव और विद्याधरोंकी सेनाके साथ-साथ चल रही थी। इस प्रकार वह सेना अपने छह अंगोंके द्वारा चारों ओर विस्तार पा रही थी ।।३।। उस चलती हुई सेनाके क्षोभसे समुद्र भी क्षुभित हो उठा था - लहराने लगा था और ऐसा जान पड़ता था मानो 'सबको महापुरुषोंका अनुकरण करना चाहिए' यही बात सेवक लोगोंको सुना रहा हो ॥४।। सेनाके द्वारा जबरदस्ती आक्रमण किये हुए राजा लोग नम्र हो गये थे, नदियोंमें कीचड़ रह गया था और बड़े-बड़े पहाड़ समान – जमीनके सदृश-हो गये थे ।।५।। जिनका उपभोग अत्यन्त मनोरम है, जो सन्तोष उत्पन्न करनेवाली हैं, और जो उपभोगकी इच्छा करनेवाले मनुष्योंके द्वारा चाहने योग्य हैं ऐसी इस चक्रवर्तीकी समस्त सिद्धियाँ इसके बड़े भारी उद्योगोंके साथ-ही-साथ फल जाती थीं अर्थात् सिद्ध हो जाती थीं - ॥६॥ जिन्हें कोई भेद नहीं सकता है, जिनका संगठन अत्यन्त मजबूत है और जो शत्रुओंके क्षयका कारण हैं ऐसी भरतकी शक्ति तथा सेना दोनों ही शत्रु राजाओंपर अपना प्रभाव डाल रहे थे ।।७।। भरतके योद्धा उनके बाणोंके समान थे, क्योंकि जिस प्रकार योद्धा फल अर्थात् इच्छानुसार लाभसे युक्त किये जाते थे उसी प्रकार बाण भी फल अर्थात् लोहेकी नोकसे युक्त किये जाते थे, जिस प्रकार योद्धा तीक्ष्ण अर्थात् तेजस्वी थे उसी प्रकार बाण भी तीक्ष्ण अर्थात् १ 'रूप्याद्रिनाथनतमौलिविराजिरत्नसंदोहनिर्गलितदीप्तिमयाङ्घ्रिपद्मम् । देवं नमामि सततं जगदेकनाथं भक्त्या प्रणष्टदुरितं जगदेकनाथम् ।। 'त' पुस्तकेऽधिकोऽयं श्लोकः । २ अपरदिगवधिम् । ३ अभ्युदयवान् । ४ नैर्ऋत्यदिग्भागम् । ५ पश्चात् । ६ अगच्छत् । ७ सदेवं ल०। ८ प्रकाशते स्म । ९ भटानाम् । १० बलात्कारेण । ११ निर्जिताः । १२ प्रणता इव आचरन्ति स्म। १३ महीभुजः वृक्षा वा। १४ कर्दमा इवाचरिताः । १५ सिद्धिपक्षे रागसहिताः । फलपक्षे रससहिताः । 'गुणे रागे द्रवे रसः' इत्यमरः । १६ कृतसुखाः । १७ भोक्तुमिच्छुभिः । आश्रितजनैरित्यर्थः । १८ उत्साहैः। १९ फलानीवाचरन्ति स्म । २० कार्यसिद्धयः । २१ दृढ- . संबन्धाः । २२ -क्षय-ल० । २३ प्रभुमन्त्रोत्साहरूपाः । २४ तीरिफलेन अभीष्टफलेन च। २५ पत्रसहिताः सहायाश्च । २६ बाणः । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ आदिपुराणम् दूरमुत्सारिताः सैन्यैः परित्यक्तपरिच्छदाः । विपक्षाः सत्यमेवास्य विपक्षत्वमुपाययुः ॥९॥ आक्रान्त भूभृतो नित्यं भुनानाः फलसंपदम् । कुपतित्वं ययुश्चित्रं कोपेऽप्यस्य विरोधिनः ॥१०॥ संधिविग्रहचिन्तास्य पदविद्यास्व भृत् परम् । धूतया तव्यपक्षस्य व संधानं क्व विग्रहः ॥११॥ इत्यजेतव्यपक्षोऽपि यदयं दिग्जयोद्यतः । तन्ननं भुक्तिमात्मीयां तद्वयाजेन परीयिवान् ॥१२॥ • आक्रान्ताः सनिकैरस्य विभोः पारेऽणवं'भुवः । पूगद्रुमकृतच्छाया नालिकरबनैस्तताः ॥१३॥ निपपे नालिकराणां तरुणानां स्रुतो रसः । सरस्तीरतरुच्छाया विश्रान्तरस्य सैनिकैः ॥१४॥ पैने थे, जिस प्रकार योद्धा सपक्ष अर्थात् सहायकोंसे सहित थे उसी प्रकार बाण भी सपक्ष अर्थात् पंखोंसे सहित थे, और जिस प्रकार योद्धा दूर तक गमन करनेवाले थे उसी प्रकार बाण भी दूर तक गमन करनेवाले थे, इस प्रकार वे दोनों साथ-साथ ही विजयके अंग हो रहे थे ॥८॥ भरतके विपक्ष (विरुद्धः पक्षो येषां ते विपक्षाः ) अर्थात् शत्रओंको उनकी सेनाने दूर भगा दिया था और उनके छत्र चमर आदि सब सामग्री भी छीन ली थी इसलिए वे सचमुच ही विपक्षपनेको ( विगतः पक्षो येषां ते विपक्षास्तेषां भावस्तत्त्वम् ) प्राप्त हो गये थे अर्थात् सहायरहित हो गये थे ।।९।। यह एक आश्चर्यको बात थी कि भरतके विरोधी राजा सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर तथा उनके क्रोधित होनेपर भी अनेक प्रकारकी फल-सम्पदाओंका उपभोग करते हुए कुपतित्व अर्थात् पृथिवीके स्वामीपनेको प्राप्त हो रहे थे। भावार्थ - इस श्लोकमें श्लेषमूलक विरोधाभास अलंकार है इसलिए पहले तो विरोध मालूम होता है बादमें उसका परिहार हो जाता है। इलोकका जो अर्थ ऊपर लिखा गया है उससे विरोध स्पष्ट ही झलक रहा है क्योंकि भरतके क्रोधित होनेपर और उनकी सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर कोई भी शत्रु सुखी नहीं रह सकता था परन्तु नीचे लिखे अनुसार अर्थ बदल देनेसे उस विरोधका परिहार हो जाता है-भरतके विरोधी राजा लोग, उनके कुपित होने तथा सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर अपनी राजधानी छोड़कर जंगलोंमें भाग जाते थे, वहाँ फल खाकर ही अपना निर्वाह करते थे और इस प्रकार कु-पतित्व अर्थात् कुत्सित राजवृत्ति ( दरिद्रता ) को प्राप्त हो रहे थे ॥१०॥ उस भरतको सन्धि ( स्वर अथवा व्यंजनोंको मिलाना ) और विग्रह ( व्युत्पत्ति ) की चिन्ता केवल व्याकरण शास्त्र में ही हुई थी अन्य शत्रुओंके विषयमें नहीं हुई थी सो ठीक ही है क्योंकि जिसने समस्त शत्रुओंको नष्ट कर दिया है उसे कहाँ सन्धि ( अपना पक्ष निर्बल होनेपर बलवान् शत्रुके साथ मेल करना ) करनी पड़ती है ? और कहाँ विग्रह ( युद्ध ) करना पड़ता है ? अर्थात् कहीं नहीं ॥११।। इस प्रकार भरतके यद्यपि जीतने योग्य कोई शत्रु नहीं था तथापि वे जो दिग्विजय करनेके लिए उद्यत हुए थे सो केवल दिग्विजयके छलसे अपने उपभोग करने योग्य क्षेत्रमें चक्कर लगा आये थे - घूम आये थे ॥१२॥ महाराज भरतके सैनिकोंने, जहाँ सुपारीके वृक्षोंके द्वारा छाया की गयी है और जो नारियलके वनोंसे व्याप्त हो रही है ऐसे समुद्रके किनारेकी भूमिपर आक्रमण किया था ।।१३।। सरोवरोंके किनारेके वृक्षोंकी छायामें विश्राम करनेवाले भरतके सैनिकोंने नारियलके तरुण अर्थात् बड़े-बड़े वृक्षों १ सहायपुरुषरहितत्वम् । २ आक्रान्ता भूभृतो ल०। भूभृतः राजानः पर्वताश्च । ३ अभीष्टफलसंपदम्, बनस्पतिफलसंपदं च । ४ भूपतित्वं कुत्सितपतित्वं च । ५ संधानयुद्धचिन्ता च । ६ शब्दशास्त्रेषु । ७ निरस्तशत्रपक्षस्य । ८ पालनक्षेत्रम् । ९ दिग्विजयछद्मना। १० प्रदक्षिणीकृतवान् । ११ समुद्रतीरम् । 'पारे मध्येऽन्यः षष्ठ्या ' । १२ पानं क्रियते स्म । १३ निसृतः । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पव स्फुरस्परुषसंपातपानाधूननोस्थितः । तालीवनेषु तत्सन्यः शुश्रुवे मर्मरध्वनिः ॥१५॥ । समं ताम्बूलवल्लीभिरपश्यत् क्रमुकान् विभुः । एककार्यत्वमस्माकमितीव मिलितान्मिथः ॥१६॥ नृपस्ताम्बूलवल्लीनामुपध्नान् क्रमुकदुमान् । निध्यायन् वेष्टि तांस्ताभिर्मुमुदे दम्पतीयितान् ॥१७॥ स्वाध्यायमिव कुर्वाणान् वनेष्वविरतस्वनान् । वीन्मुनीनिव सोऽपश्यद् यत्रास्त मितवासिनः ॥१८॥ पनसानि मृदून्यन्तः कण्टीनि बहिस्त्वचि । सुरसान्यमृतानीव जनाः प्रादन् यथेप्सितम् ॥१९॥ नालिकररसः पानं पनसान्यशनं परम् । मरीचान्युपदंशश्च वन्यावृत्तिरहो सुखम् ॥२०॥ सरसानि मरीचानि किमप्यास्वाद्य विकिरान् । रुवतः" प्रभुरद्राक्षीद् गलदश्रुविलोचनान् ॥२१॥ विदश्य मञ्जरीस्तीक्ष्णा मरीचानां सशङ्कितम् । शिरो विधुन्वतोऽपश्यत् प्रभुस्तरुणमर्कटान् ॥ २२ ॥ * वनस्पतीन् फलानम्रान् वीक्ष्य लोकोपकारिणः । जाताः कल्पमास्तित्वे निरारेकास्तदा जनाः ॥२३॥ लतायुवतिसंसक्ताः प्रसवाड्या वन डुमाः । करदा इव तस्यासन् प्रीणयन्तः फलैर्जनान् ॥२४॥ नालिकरासमत्ताः' किंचिदाघुर्णितेक्षणाः । यशोऽस्य जगुरामन्द्रकुहरं सिंहलाङ्गनाः ॥२५॥ से निकला हुआ रस खूब पिया था ॥१४॥ वहाँ भरतकी सेनाके लोगोंने ताड़ वृक्षोंके वनोंमें वायुके हिलनेसे उठी हुई बहुत कठोर सूखे पत्तोंकी मर्मर-ध्वनि सुनी थी ॥१५॥ वहाँ सम्राट भरतने हम लोगोंका एक ही समान कार्य होगा यही समझकर जो पानकी बेलोंके साथ-साथ परस्परमें मिल रहे थे ऐसे सुपारीके वृक्ष देखे ॥१६।। जो पानोंकी लताओंके आश्रय थे तथा जो उनके साथ लिपटकर स्त्री-पुरुषके समान जान पड़ते थे ऐसे सुपारीके वृक्षोंको बड़े गौरके साथ देखकर महाराज भरत बहुत ही प्रसन्न हुए थे ॥१७।। उन वनोंमें सूर्यास्तके समय निवास करनेवाले जो पक्षी निरन्तर शब्द कर रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो सूर्यास्तके समय निवास करनेवाले तथा स्वाध्याय करते हुए मुनि ही हों उन्हें भरतने देखा था ।।१८।। जो भीतर कोमल हैं तथा बाहरी त्वचापर काँटोंसे यक्त हैं ऐसे अमतके समान मीठे कटहलके फल सेनाके लोगोंने अपनी इच्छानुसार खाये थे ॥१९॥ वहाँ पीनेके लिए नारियलका रस, खानेके लिए कटहलके फल और व्यंजनके लिए मिरचे मिलती थीं, इस प्रकार सैनिकोंके लिए वन में होनेवाली भोजनकी व्यवस्था भी सूखकर मालम होती थी ।।२०। जो सरस अर्थात् गीली मिरचे खाकर कुछ-कुछ शब्द कर रहे हैं और जिनकी आँखोंसे आँस गिर रहे हैं ऐसे पक्षियोंको भी भरतने देखा था ॥२२॥ जो तरुण वानर बहुत तेज मिरचोंके गच्छोंको निः रूपसे खाकर बादमें चरपरी लगनेसे सिर हिला रहे थे उन्हें भी महाराजने देखा ॥२२॥ उस समय वहाँ फलोंसे झुके हुए तथा लोगोंका उपकार करनेवाले वृक्षोंको देखकर लोग कल्पवक्षोंके अस्तित्वमें शंकारहित हो गये थे ॥२३।। जो लतारूप स्त्रियोंसे लिपटे हए हैं और अनेक फलोंसे युक्त हैं ऐसे वनके वृक्ष अपने फलोंसे सेनाके लोगोंको सन्तुष्ट करते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो भरतके लिए कर हो दे रहे हों ॥२४॥ जो नारियलकी मदिरा पीकर उन्मत्त हो रही हैं और इसीलिए जिनके नेत्र कुछ-कुछ घूम रहे हैं ऐसी सिंहल द्वीपकी स्त्रियाँ वहाँ गद्गद १ तालवनेषु । २ शुष्कपर्णध्वनिः । 'अय मर्मरः, स्वनिते वस्त्रपर्णानाम्' इत्यभिधानात् । ३ पर्णक्रमुकमेलनादेककायत्वमिति । ४ आश्रयभूतान् । 'स्थादुपघ्नोऽन्तिकाश्रये' इत्यमरः । ५ विध्याय वे-ल०। ६ -स्वनम् ल० । ७ विहगान् । ८ यत्र रविरस्तं गतस्त्र वासिनः । ९ भक्षयन्ति स्म । भक्षितवन्तः इत्यर्थः । १० वनवासः । - ११ रवं कुर्वतः । १२ भक्षयित्वा । १३ निस्सन्देहाः । १४ करं सिद्धायं ददतीति करदाः, कुटुम्बिजना इवेत्यर्थः। 'आलस्योपहतः पादः पादः पाषण्डमाथितः । राजानं सेवते पादः पादः कृषिमुपागतः ॥' १५ प्रचलायित । १६ गम्भीरगहरं यथा भवति तथा । गद्गदसहितकम्पनं कुहरशब्देनोच्यते । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् त्रिकूट मलयोत्सङ्गे गिरौ पाण्डवकवाटके | जगुरस्य यशो मन्द्रमूर्च्छनाः किन्नराङ्गनाः ॥ २६ ॥ मलयोपान्तकान्तारे सह्याचलवनेषु च । यशो वनेचरस्त्रीभिरुज्जगेऽस्य जयार्जितम् ॥ २७॥ चन्दनोद्यानमाधूय मन्दं गन्धवहो ववौ । मलयाचलकुजेभ्यो हरनिर्झरशीकरान् ॥ २८ ॥ विविसारी दाक्षिण्यं समुज्झन्नपि सोऽनिलः । संभावयन्निवातिथ्यैर्विभोः श्रममपाहरत् ॥ २९ ॥ एलालवङ्गसंवास सुरभित्रसित मुखैः । स्तनैरापाण्डुभिः सान्द्रचन्दनद्रवचर्चितैः ॥३०॥ सलीलमृदुभियतैिर्नितम्ब भरमन्थरैः । स्मितैरनङ्गपुष्पास्त्रस्तत्रको भेदविभ्रमैः ॥ ३१॥ कोकिलालापमधुरैर्ज्वलितै ( जल्पितै ) रनतिस्फुटैः । मृदुबाहुलतान्दोल सुभगैश्च विचेष्टितैः ॥ ३२ ॥ लास्यैः स्खलत्पदन्यासैर्मुक्ताप्रायैविभूषणैः । मदमञ्जुभिरुद्गीतैर्जितालिकुलशिञ्जितैः" ॥३३॥ तमाल नवीथीषु संवरन्त्यो यदृच्छया । मनोऽस्य जहरा रूढयौवनाः केरलस्त्रियः ॥ ३४ ॥ प्रसाध्य दक्षिणामाशां विभुस्त्रैराज्यपालकान् । समं प्रणमयामास विजित्य जयसाधनैः ॥ ३५ ॥ कण्ठसे महाराज भरतका यश गा रही थीं ||२५|| त्रिकूट पर्वतपर, मलयगिरिके मध्यभागपर और पाण्ड्य कवाटक नामके पर्वतपर किन्नर जातिकी देवियाँ गम्भीर स्वरसे चक्रवर्तीका यश गा रही थीं ||२६|| इसी प्रकार मलय गिरिके समीपवर्ती वनमें और सह्य पर्वत के ari भीलोंकी स्त्रियाँ विजयसे उत्पन्न हुआ महाराजका यश जोर-जोरसे गा रही थीं ||२७|| उस समय मलय गिरिके लतागृहोंसे झरनोंके जलके छोटे-छोटे कण हरण करता हुआ तथा चन्दनके बगीचेको हिलाता हुआ वायु धीरे-धीरे बह रहा था ||२८|| वह वायु दक्षिण दिशाको छोड़कर चारों ओर बह रहा था और ऐसा जान पड़ता था मानो अतिथि सत्कार के द्वारा भावार्थ — इस श्लोक में भरतका सन्मान करता हुआ ही उनका परिश्रम दूर कर रहा था । दाक्षिण्य शब्द के श्लेष तथा अपि शब्दके सन्निधानसे नीचे लिखा हुआ विरोध प्रकट होता है— 'वह वायु यद्यपि दाक्षिण्य ( स्वामी के इच्छानुसार प्रवृत्ति करना ) भावको छोड़कर स्वछन्दता पूर्व चारों ओर घूम रहा था तथापि उसने एक आज्ञाकारी सेवककी तरह भरतका अतिथिसत्कार कर उनका सब परिश्रम दूर कर दिया था, जो स्वामीके विरुद्ध आचरण करता है वह उसकी सेवा क्यों करेगा ? यह विरोध परन्तु दाक्षिण्य शब्दका दक्षिण दिशा अर्थ लेनेसे वह विरोध दूर हो जाता है ( 'दक्षिणो दक्षिणोद्भूतसरलच्छन्दवतिषु' इति मेदिनी, दक्षिणस्य भावो दाक्षिण्यम्, पक्षे दक्षिणैव दाक्षिण्यम् ) ||२९|| तमाल वृक्षोंके वनकी गलियोंमें इच्छानुसार इधर-उधर घूमती हुई केरल देशकी तरुण स्त्रियाँ इलायची, लौंग आदि सुगन्धित वस्तुओं के सम्बन्धसे जिनके निःश्वास सुगन्धित हो रहे हैं ऐसे मुखोंसे, जो घिसे हुए चन्दन के गाढ़ लेपसे सुशोभित हो रहे हैं ऐसे स्तनोंसे नितम्बोंके भारसे मन्थर लीलासहित सुकोमल गमनसे, जो कामदेव के पुष्परूपी शस्त्रोंके गुच्छोंके खिलने के समान सुशोभित हो रहे हैं ऐसे मन्द हास्यसे, कोयलकी कूकके समान मनोहर तथा अव्यक्त वाणीसे, सुकोमल बाहुरूपी लताओंके इधर-उधर फिरानेसे सुन्दर चेष्टाओंसे, जिसमें स्खलित होते हुए पैर पड़ रहे हैं ऐसे नृत्योंसे, अधिकतर मोतियोंके बने हुए आभूषणोंसे, भ्रमरसमूहकी गुंजारको जीतनेवाले मद मनोहर उत्कृष्ट गीतोंसे चक्रवर्ती भरतका मन हरण कर रही थीं ॥। ३० - ३४|| इस प्रकार महाराज भरतने अपनी विजयी सेनाके द्वारा दक्षिण दिशाको वश कर चोल, केरल और पाण्ड्य ८४ १ त्रिकूटे म० द० ल० अ०, प०, स० । त्रिकूटगिरिमलयाचलसानी । २ व्रनचर-ल० । ३ विसरणशीलः । ४ दक्षिणदिग्भागः । आनुकूल्येन च । ५ अतिथौ साधुभिः उपचारैरित्यर्थः । ६ उच्छ्वासैः । ७ गमनैः । ८ मन्दैः । ९ जल्पितैः वचनैः । १० सिञ्जनैः अ०, प०, ब०, स० । ११ त्रिराज्येषु जातान् । चोरकेरलपाण्डघान् । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व कालिङ्ग केजरस्य मलयोपान्तभूधराः । तुलयद्भिरिबोन्मानमाक्रान्ताः स्वेन वर्मणा ॥३६॥ दिशां प्रान्तेषु विश्रान्तैर्दिग्जयेऽस्य चमूगजैः । दिग्गजत्वं स्वसाच्चक्रे शोभायै तत्कथान्तरम् ॥३७॥ ततोऽ परान्तमारुह्यं सह्याचलतटोपगः । पश्चिमार्णववेद्यान्त पालकानजयद् विभुः ॥३८॥ जयसाधनमस्याब्धेशरातीरे व्यजम्भत । महासाधनम प्युच्चैः परं" पारमवाष्टभत्॥३९॥ उपसिन्धु रिति व्यक्तमुभयोस्तरियोबलम् । दृष्ट्वास्य साध्वसाक्षुभ्यन्निवाभूदाकुलाकुलः ॥४०॥ ततः स्म बलसंक्षोभादितो बाधिः प्रसर्पति । इतः स्म बलसंशोभात् ततोऽब्धिः प्रतिसर्पति ॥४१॥ हरिन्मणिप्रभोल्सपैस्ततमब्धेर्बभौ जलम् । चिराद् विवृत्तमस्यैव सर्शवलमधस्तलम् ॥४२॥ पद्मरागांशुभिभिन्नं क्वचनाब्धेय॑भाजलम् । क्षोभादिवास्य' हृच्छीर्णमुच्चलच्छोणितच्छटम् ॥४३॥ सह्योन्सङ्गे लुटन्नब्धिनूनं दुःखं न्यवेदयत् । सोऽपि संधारयन्नेनं बन्धुकृत्यमिवातनोत् ॥४४॥ असौर्बलसंघट्टैः सह्यः सह्यतिपीडितः । शाखोद्धारमिव व्यक्तमकरोद रुग्णपादपैः ॥४५॥ इन तीन राजाओंको एक साथ जीता और एक ही साथ उनसे प्रणाम कराया ॥३५।। जो अपने शरीरसे मानो मलय पर्वतकी ऊँचाईकी ही तुलना कर रहे हैं ऐसे कलिंग देशके हाथियोंने मलय पर्वतके समीपवर्ती अन्य समस्त छोटे-छोटे पर्वतोंको व्याप्त कर लिया था ॥३६॥ दिग्विजयके समय दिशाओंके अन्त भागमें विश्राम करनेवाले भरतके हाथियोंने दिग्गजपना अपने अधीन कर लिया था अर्थात् स्वयं दिग्गज बन गये थे इसलिए अन्य आठ दिग्गजोंकी कथा केवल शोभाके लिए ही रह गयी थी ॥३७॥ तदनन्तर पश्चिमी भागपर आरूढ़ होकर सह्य पर्वतके किनारे के समीप होकर जाते हुए भरतने पश्चिम समुद्रकी वेदीके अन्तकी रक्षा करनेवाले राजाओंको जीता ॥३८॥ भरतकी वह विजयी सेना समुद्रके समीप किनारे-किनारे सब जगह फैल गयी थी और वह इतनी बड़ी थी कि उसने समुद्रका दूसरा किनारा भी व्याप्त कर लिया था ॥३९।। उस समय हवासे लहराता हुआ उपसमुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो दोनों किनारेपर भरतकी सेना देखकर भयसे ही अत्यन्त आकुल हो रहा हो ॥४०॥ उस किनारेका उपसमुद्र सेनाके क्षोभसे इस किनारेकी ओर आता था और इस किनारेका उपसमुद्र सेनाके क्षोभसे उस किनारेकी ओर जाता था ॥४१॥ ऊपर फैली हुई हरे मणियोंकी कान्तिसे व्याप्त हुआ वह समुद्रका जल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इस समुद्रका शेवालसहित नीचेका भाग ही बहुत समय बाद उलटकर ऊपर आ गया हो ॥४२॥ कहीं-कहींपर पद्मराग मणियोंकी किरणोंसे व्याप्त हआ समद्रका जल ऐसा जान पड़ता था मानो सेनाके क्षोभसे समद्रका हदय ही फट गया हो और उसीसे खूनकी छटाएं निकल रही हों ॥४३।। सह्य पर्वतकी गोदमें लोटता हुआ ( लहराता हआ ) वह समद्र ऐसा जान पड़ता था मानो उससे अपना दुःख ही कह रहा हो और सहयपर्वत भी उसे धारण करता हुआ ऐसा मालूम होता था मानो उसके साथ अपना बन्धुभाव ( भाईचारा ) ही बढ़ा रहा हो ।।४४॥ सेनाके असह्य संघटनोंसे अत्यन्त पीड़ित हुआ वह सह्यपर्वत अपने टूटे हए वृक्षोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो अपने मस्तकपर लकड़ियोंका गट्ठा रख१ कलिङ्गवने जातः । कलिगवनजाता उन्नतकायाश्च । उक्तं च दण्डिना देशविरोधप्रतिपादनकाले 'कलिङ्गवनसंभूता मृगप्राया मतङ्गजाः' इति । २ मलयदेशसमीपस्थपर्वताः। ३ गुणयद्भिः - अ०, इ०, स० । ४ दिग्गजाः सन्तीति कथाभेदः । ५ अपरदिग्भागम् । ६ व्याप्य । ७ वेलान्त-इत्यपि क्वचित् । ८ प्रभुः ल०। ९ विजृम्भितम् ल०। १० -मत्युच्चैः द०, ल०, अ०, प०, स०। ११ अपरतीरम् । १२ अशिश्रियत् । १३ उपसमुद्रः । १४ परिणतम् । चिरकालप्रवर्तितम् । १५ हृत् हृदयम् शीर्ण विदीर्ण सत् । १६ -मुच्छ्वलल०. द० । १७ सह्यगिरिसानी । १८ पश्चिमार्णवपर्वतः । १९ पल्लवं गृहीत्वा आक्रोशम् । २० भुग्न । 'रुग्णं भुग्ने' इत्यमरः । भुग्न-ल० । भग्न-द० । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ आदिपुराणम् चलत्सत्त्वो 'गुहारन्ध्रविमुञ्चन्नाकुलं स्वनम् । महाप्राणोऽद्विरुत्क्रान्ति मियायेव बलक्षतः ॥४६॥ चलच्छाखी चलत्सत्त्वः चलच्छिथिलमेखलः । नाम्नै वाचलतां भेजे सोऽदिरेवं चलाचलः ॥४७॥ गजतावन संभोगैस्तुरङ्गखुरघट्टनैः । सह्योत्सङ्गभुवः क्षुण्णाः स्थलीभावं क्षणाद् ययुः ॥४८॥ आपश्चिमार्णवतटादा च मध्यमपर्वतात् । आतुङ्गवरकादवेस्तुङ्गगण्डोपलावितात् ॥४९॥ तं कृष्णगिरिमुलक्य तं च शैलं सुमन्दरम् । मुकुन्दं चाद्विमुदृप्ता जयेभास्तस्य बभ्रमुः ॥५०॥ तत्रोपरान्तकान् नागान् ह्रस्वग्रीवान् परान रदैः।युक्तान् पीनायतस्निग्धैः श्यामान् स्वक्षान् मृदुत्ववः॥५१॥ 'महोत्सङ्गानुदग्राङ्गान् रक्तजिह्मोष्टतालुकान् । मानिनो दीर्घवालोष्टान् पद्मगन्धमदच्युतः ॥५२॥ संतुष्टान् स्वे वने शूरान् दृढपादान् सुवर्षणः । स भेजे तद्वनाधीशैः ससंभ्रममुपाहृतान् ॥५३॥ वनरोमावलीस्तुङ्गतटारोहा' बहूदीः । पूर्वापराब्धिगाः सोऽत्यत सह्याद्रे१हितरिव ॥५४॥ संचरद्भीषणग्राहीमा भैमरथी नदीम् । नक्रचक्रकृतावर्तेरवेणां च दारुणाम् ॥५५॥ कर भरतके प्रति अपनी पराजय ही स्वीकृत कर रहा हो (पूर्व कालमें यह एक पद्धति थी कि पराजित राजा सिरपर लकड़ियोंका गट्ठा रखकर गले में कुल्हाड़ो लटकाकर अथवा मुखमें तृण दबाकर विजयी राजाके सामने जाते थे और उससे क्षमा माँगते थे। ) ॥४५॥ वह पर्वतरूपी बड़ा भारी प्राणी सेनाके द्वारा घायल हो गया था, उसके शिखर टूट-फूट गये थे, उसका सत्त्व अर्थात् धैर्य विचलित हो गया था-उसके सब सत्त्व अर्थात् प्राणी इधर-उधर भाग रहे थे, वह गुफाओंके छिद्रोंसे व्याकुल शब्द कर रहा था और इन सब लक्षणोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो बहुत शीघ्र मरना ही चाहता हो ॥४६॥ उस पर्वतके सब वृक्ष हिलने लगे थे, सब प्राणी इधर-उधर चंचल हो रहे थे-भाग रहे थे और उसके चारों ओरका मध्यभाग भी शिथिल होकर हिलने लगा था इस प्रकार वह पर्वत नाममात्रसे ही अचल रह गया था, वास्तवमें चल हो गया था ॥४७।। लोगोंकी वनक्रीड़ाओंसे तथा घोड़ोंके खुरोंके संघटनसे उस सह्य पर्वतके ऊपरकी भूमि चूर-चूर होकर क्षण-भर में स्थलपनेको प्राप्त हो गयी थी अर्थात् जमीनके समान सपाट हो गयी थी ॥४८॥ चक्रवर्ती भरतके मदोन्मत्त विजयी हाथी, पश्चिम समुद्रके किनारेसे लेकर मध्यम पर्वत तक और मध्यम पर्वतसे लेकर ऊंची-ऊँची चट्टानोंसे चिह्नित तुंगवरक पर्वत तक, कृष्ण गिरि, सुमन्दर तथा मुकुन्द नामके पर्वतको उल्लंधन कर, चारों ओर घूम रहे थे ॥४९५०॥ जिनकी गरदन कुछ छोटी है, जो देखने में उत्कृष्ट हैं, मोटे लम्बे और चिकने दाँतोंसे सहित हैं, काले हैं, जिनकी सब इन्द्रियाँ अच्छी हैं, चमड़ा कोमल है, पीठ चौड़ी है, शरीर ऊंचा है, जोभ, होंठ और तालु लाल हैं, जो मानी हैं, जिनकी पूँछ और होंठ लम्बे हैं, जिनसे कमलके समान गन्धवाला मद झर रहा है, जो अपने ही वनमें सन्तुष्ट हैं, शूरवीर हैं, जिनके पैर मजबूत हैं, शरीर अच्छा है और जिन्हें उन वनोंके स्वामी बड़े हर्ष या क्षोभके साथ भेंट देनेके लिए लाये हैं ऐसे पश्चिम दिशामें उत्पन्न होनेवाले हाथो भी भरतने प्राप्त किये थे ।।५१-५३॥ वन-ही जिनकी रोमावली है और ऊँचे किनारे ही जिनके नितम्ब हैं ऐसी सह्य पर्वतकी पुत्रियोंके समान पूर्व तथा पश्चिम समुद्रकी ओर बहनेवाली अनेक नदियाँ महाराज भरतने उल्लंघन की थी-पार की थीं ॥५४॥ चलते-फिरते हुए भयंकर मगरमच्छोंसे भयानक भीमरथी नदी, नाकुओंसे समूहसे की हुई आवर्तोसे भयंकर दारुवेणा नदी, किनारे १ गुह्यरन्ध्रः ल०। २ सिंहादिसत्त्वरूपमहाप्राणः । 'प्राणो हुन्मारुते चोले काले जीवेऽनिले बले।' इत्यभिधानात् । ३ मरणावस्थाम् ( मृतिम् ) । ४ जनता ल०, द०। ५ पश्चिमदिक्समीपान् । ६ कुब्जस्कन्धोत्कृष्टान् । ७ पीनायित-ल०। ८ सुनेत्रान् । ९ बृहदुपरिभागान् । १० उपायनीकृतान् । ११ नितम्बाः । १२ अगात् । १३ पुत्रीरिव । १४ भीमरथीं ल० । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व नीरां तीरस्थवानीर शाखाग्रस्थगिताम्भसम् । मूलां कूलंकरोधैरुन्मूलिततटद्रुमाम् ॥५६॥ बाणामविरता बाणां केतम्बामम्बुसंभृताम् । करीरित तटोत्सङ्गां करीरी सरिदुत्तमाम् ॥५७॥ प्रहरी विषमग्राहैदूषितामसीमिव । मुररां कुररैः सेव्यामपपङ्को सतीमित्र ॥५॥ पारा पारेजलं कृजस्क्रीञ्चकादम्ब सारमाम् । 'दमनां समनिम्नेषु'समानामस्वलद्गतिम् ॥१६॥ मदस्रति मिवाबद्धवेणिकां "सह्यदन्तिनः । गोदावरीमविच्छिन्नप्रवाहामतिविस्तृताम् ॥६॥ करीरवण सरुद्धतटपर्यन्तभूतलाम् । तापीमातपसंतापात् कवोष्णा बिभ्रतीमपः ॥६१॥ रम्यां तीरतरुच्छायासंसुप्तमृगशावकाम् । "खातामिवापरान्तस्य नदी लागलखातिकाम् ॥६२॥ सरितोऽम् : समं सैन्यैरुत्ततार चमूपतिः । तत्र तत्र 'समाकर्षन्मदिनो वनसामजान् ॥६३॥ प्रसारितसरिज्जिह्मो योऽब्धिं पातुमिवोद्यतः । सह्याचलं तमुल्लङ्घय विन्ध्याहिं प्राप तद्बलम् ॥६४॥ भूभृतां पतिमुत्तुङ्गं पृथुवंशं 'तायतिम् । परैरलङ्घयमद्राक्षीद् विन्ध्याहिं स्वमिव प्रभुः ॥६५॥ पर स्थित बेतोंको शाखाओंके अग्रभागसे जिसका जल ढंका हआ है ऐसी नीरा नदी, किनारेको तोड़नेवाले अपने प्रवाहसे जिसने किनारेके वक्ष उखाड़ दिये हैं ऐसी मला नदी. जिसमें निरन्तर शब्द होता रहता है ऐसी बाणा नदी, जलसे भरी हुई केतवा नदी, जिसके किनारेके प्रदेश हाथियोंने तोड़ दिये हैं अथवा जिसके किनारेके प्रदेश करीर वृक्षोंसे व्याप्त हैं ऐसी करीरी नामकी उत्तम नदी, विषमग्राह अर्थात् नीच मनुष्योंसे दूषित व्यभिचारिणी स्त्रीके समान विषम ग्राह अर्थात् बड़े-बड़े मगरमच्छोंसे दूषित प्रहरा नदी, सतो स्त्रीके समान अपंका अर्थात् कीचड़रहित, (पक्षमें-कलंकरहित) तथा कुरर पक्षियोंके द्वारा सेवा करने योग्य मुररा नदी, जिसके जलके किनारेपर क्रौंच, कलहंस ( वदक ) और सारस पक्षी शब्द कर रहे हैं ऐसो पारा नदी, जो समान तथा नीची भूमिपर एक समान जलसे भरी रहती है तथा जिसकी गति कहीं भी स्खलित नहीं होती है ऐसी मदना नदी, जो सह्य पर्वतरूपी हाथीके बहते हुए मदके समान जान पड़ती है, जो अनेक धाराएं बाँधकर बहती है, जिसका प्रवाह बीचमें कहीं नहीं टूटता, और जो अत्यन्त चौड़ी है ऐसी गोदावरी नदी, जिसके किनारेके समोपकी भूमि करीर वृक्षोंके वनोंसे भरी हुई है और जो धूपकी गरमीसे कुछ-कुछ गरम जलको धारण करती है ऐसी तापी नदी, तथा जिसके किनारेके वृक्षोंको छाया में हरिणोंके बच्चे सो रहे हैं और जो पश्चिम देशको परिखाके समान जान पड़ती है ऐसी मनोहर लांगलखातिका नदी, इत्यादि अनेक नदियोंको सेनापतिने अपनी सेनाके साथ-साथ पार किया था। उस समय वह सेनापति मदोन्मत्त जंगली हाथियोंको भी पकड़वाता जाता था ।।५५-६३।। जो अपनी नदियोंरूपी जीभोंको फैलाकर मानो समुद्रको पीनेके लिए ही उद्यत हुआ है ऐसे उस सह्य पर्वतको उल्लघन कर भरतकी सेना विन्ध्याचलपर पहुँची ॥६४॥ चक्रवर्ती भरतने उस विन्ध्याचलको अपने समान ही देखा था क्योंकि जिस प्रकार आप भूभृत् अर्थात् राजाओंके पति थे उसी प्रकार विन्ध्याचल भी भूभृत् अर्थात् पर्वतोंका पति था, जिस प्रकार आप उत्तुंग अर्थात् अत्यन्त उदार हृदय थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी उत्तुंग अर्थात् अत्यन्त ऊंचा १ वेतस। २ प्रवाहैः। ३ अविच्छिन्नविष्वग्बाणाम् । अविरत: आबाणो यस्यां सा। ४ केतवा ल०। ५ गजप्रेरित। ६ विषममकरैः, पक्षे नीचग्रहणः । ७ पक्षिविशेषैः । ८ अपगतकर्दमाम् । पक्षे अपगतदोषपङ्काम् । ९ तीरजले । १० कलहंस । ११ मदनां ल०, द० । १२ समानप्रदेशेषु । निम्नदेशेषु च । १३ जलेन समानोम् । १४ मदस्रवणम् । १५ प्रवाहाम् । कुल्याम् वा। १६ वेणूवन । १७ खातिकाम् । १८ पश्चिमदेशस्य ।। १९ स्वीकुर्वन् । २० राज्ञां गिरीणां च। २१ महान्वयं महावेणुं च। २२ धृतधनागमम्। धृतायामं च । 'आयतिर्दीर्घतायां स्यात् प्रभुतागामिकालयोः ।' Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पस आदिपुराणम् भाति यः शिखरैस्तुङ्गैर्दूरव्यायतनिझ रैः । सपताकैर्विमानौधैर्विश्रमायेव संश्रितः ॥६६॥ यः पूर्वापरकोटिभ्यां विगाह्याम्बुनिधिं स्थितः। नूनं दावत्रयात् सख्य ममुना प्रचिकीर्षति ॥६॥ नयन्ति निझरा यस्य शश्वत्पुष्टिं तटदुमान् । स्वपादाश्रयिणः पोप्याः प्रभुणेतीव शंसितुम् ॥६॥ तटस्थपुट पाषागस्खलितोच्चलिताम्भसः । नदीवधूः कृतध्वानं निर्झरहसतीव यः ॥६९॥ वनामोगमपर्यन्तं यस्य दग्धुमिवाक्षमः । भृगुपाताय दावाग्निः शिखराण्यधिरोहति ॥७॥ चलहावपरीतानि यत्कूटानि वनेचरैः । चामीकरमयानीव लक्ष्यन्ते शुचि सन्निधौ ॥७१॥ समातङ्गं वनं यस्य सभुजङ्गपरिग्रहम् । विजाति कण्टकाकीर्ण क्वचिद्वत्तेऽतिकष्टताम् ॥७२॥ श्रीब'कुञ्जरयोगेऽपि क्वचिदक्षीवकुञ्जरम् । विपत्रमपि सत्पत्रपल्लवं भाति य द्वनम् ॥७३॥ था, जिस प्रकार आप पृथुवंश अर्थात् विस्तृत-उत्कृष्ट वंश ( कुल ) को धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी पृथुवंश अर्थात् बड़े-बड़े बाँसके वृक्षोंको धारण करनेवाला था, जिस प्रकार आप धृतायति अर्थात् उत्कृष्ट भविष्यको धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी धृतायति अर्थात् लम्बाईको धारण करनेवाला था, और जिस प्रकार आप दूसरोंके द्वारा अलंध्य अर्थात् अजेय थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी दूसरोंके द्वारा अलंध्य अर्थात् उल्लंघन न करने योग्य था॥६५।। जिनसे बहुत दूर तक फैलनेवाले झरने झर रहे हैं ऐसे ऊँचे-ऊँचे शिखर. से वह पर्वत ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पताकाओंसहित अनेक विमानोंके समूह ही विश्राम करनेके लिए उसपर ठहरे हों ॥६६॥ वह पर्वत अपने पूर्व और पश्चिम दिशाके दोनों कोणोंसे समुद्र में प्रवेश कर खड़ा हुआ था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो दावानलके डरसे समुद्रके साथ मित्रता ही करना चाहता हो ॥६७॥ उस विन्ध्याचलके झरने 'स्वामीको • अपने चरणोंको आश्रय लेनेवाले पुरुषोंका अवश्य ही पालन करना चाहिए' मानो यह सूचित करनेके लिए हो अपने किनारेके वृक्षोंका सदा पालन-पोषण करते रहते थे ॥६८॥ वह पर्वत शब्द करते हुए निर्झरनोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो अपने किनारेके ऊंचे-नीचे पत्थरोंसे स्खलित होकर जिनका पानी ऊपरकी ओर उछल रहा है ऐसी नदीरूपी स्त्रियोंकी हँसी ही कर रहा हो ।।६९॥ उस पर्वतके शिखरोंपर लगा हुआ दावानल ऐसा जान पड़ता था मानो उसके सोमारहित बहुत बड़े वनप्रदेशको जलानेके लिए असमर्थ हो ऊपरसे गिरकर आत्मघात करनेके लिए ही उसके शिखरोंपर चढ़ रहा हो ॥७०।। आषाढ़ महीनेके समीप जलते हुए दावानलसे घिरे हुए उस पर्वतके शिखर वहाँके भीलोंको सुवर्णसे बने हुएके समान दिखाई देते थे ।।७१।। उस पर्वतका वन कहीं-कहीं मातंग अर्थात् हाथियोंसे सहित था अथवा मातंग अर्थात् चाण्डालोंसे सहित था, भुजंग अर्थात् सर्पोके परिवारसे युक्त था अथवा भुजंग अर्थात् नीच ( विट-गुण्डे ) लोगोंके परिवारसे युक्त था और अनेक प्रकारके काँटोंसे भरा हुआ था अथवा अनेक प्रकारके उपद्रवी लोगोंसे भरा हुआ था इसलिए वह बहुत ही दुःखदायी अथवा शोचनीय अवस्थाको धारण कर रहा था ॥७२॥ उस पर्वतपर-का वन क्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत्त हाथियोंसे युक्त होकर भी अक्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत हाथियोंसे रहित था, और विपत्र अर्थात् पत्तोंसे रहित होकर भी सत्पत्रपल्लव अर्थात् पत्तों तथा कोंपलोंसे सहित १ इव । २ मित्रत्वम् । ३ समुद्रेण । ४ कर्तुमिच्छति । ५ तटनिम्नोन्नत । ६ प्रपातपतनाय । 'प्रपातस्त्वतटो भृगुः' इत्यभिधानात् । ७ ग्रीष्म । ८ सगजं पक्षे सचाण्डालम् । ९ ससर्प, पक्षे सविट् । १० पक्षिताति, पक्षे नीच जाति । ११ मत्तगज । १२ अक्षीबं समुद्रलवणम् 'सामुद्रं यत्तु लवणमक्षीवं वशिरञ्च तत्' । कुजो गुल्मगुहान्ती रातीति ददातीति । १३ वीनां पत्राणि पक्षा यस्मिन सन्तीति, अथवा विगताश्त्रम् । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तम पर्व स्फुटद्वेणूदरोन्मुक्तैर्व्यस्तैर्मुक्ताफलैः क्वचित् । वनलक्ष्म्यो हसन्तीव स्फुटहन्तांशु यद्वने ॥७॥ गुहामुखस्फुरदीरनिर्झरप्रतिशब्दकैः । गर्जतीव कृतस्पर्धी महिम्ना यः कुलाचलैः ॥७५॥ स्फुटन्निम्नोन्नतोद्देशेश्चित्रवर्णश्च धातुभिः । मृगरूपैरतक्यैश्च चित्राकारं बिभर्ति यः ॥७६॥ ज्वलन्त्योषधयो यस्य वनान्तेषु तमीमुखे । देवताभिरिवोत्क्षिप्ता दीपिकास्तिमिरच्छिदः ॥७७॥ क्वचिन्मृगेन्द्र भिन्नेभकुम्भोच्चलितमौक्तिकैः । मदुपान्तस्थलं धत्ते प्रकीर्णकुसुमश्रियम् ॥७८॥ स तमालोकयन् दूरादाससाद महागिरिम् । आह्वयन्तमिवासक्त मरुद्धतैस्तद्रुमैः ॥७९॥ स तद्वनगतान् दूरादपश्यद् घनकर्बुरान् । “सयूथानुनुवंशान् किरातान् करिणोऽपि च ॥८॥ सरिद्वधूस्तदुल्सङ्गे विवृत्तशफरीक्षणाः । तद्वल्लभा इवापश्यत् स्फुरद्विरुतमन्मनाः ॥८१॥ था इस प्रकार विरोधरूप होकर भी सुशोभित हो रहा था। भावार्थ - इस श्लोकमें विरोधाभास अलंकार है, विरोध ऊपर दिखाया जा चुका है अब उसका परिहार देखिए - वहाँका वन क्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत्त हाथियोंसे युक्त होनेपर भी अक्षीबकुंजर अर्थात् समुद्री नमक तथा हाथीदाँतोंको देनेवाला था अथवा सहजनों के लतामण्डपोंको प्रदान करनेवाला था और विपत्र अर्थात पक्षियोंके पंखोंसे सहित होकर भी उत्तम पत्तों तथा नवीन कोंपलोसे सहित था ( अक्षीबं च कुञ्जश्चेत्यक्षीबकुजौ, तौ राति ददातीत्यक्षीबकुञ्जरम् अथवा 'अक्षीबाणां शोभाजनानां कुजं लतागृहं राति ददाति', 'सामुद्रं यत्तु लवणमक्षीबं वशिरं च तत्' 'कुजो दन्तेऽपि न स्त्रियाम्' 'शोभाञ्जने शिग्रुतीक्ष्णगन्धकाक्षीबमोचकाः इति सर्वत्रामरः ) ॥७३।। उस पर्वतके वनमें कहीं-कहींपर फटे हए बाँसोंके भीतरसे निकलकर चारों ओर फैले हुए मोतियोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो वनलक्ष्मियाँ ही दाँतोंकी किरणें फैलाती हुई हँस रही हों ।।७४।। गुफाओंके द्वारोंसे निकलती हुई झरनोंकी गम्भीर प्रतिध्वनियोंसे वह पर्वत ऐसा जान पडता था मानो अपनी महिमाके कारण कुलाचलोंके साथ स्पर्धा करता हुआ गरज ही रहा हो ॥७५।। वह पर्वत ऊँचे नोचे प्रदेशोंसे, अनेक रंगकी धातुओंसे और हरिणोंके अचिन्तनीय वर्णोसे प्रकट रूप ही एक विचित्र प्रकारका आकार धारण कर रहा था ॥७६॥ उस पर्वतके वनोंमें रात्रि प्रारम्भ होनेके समय अनेक प्रकारकी औषधियाँ प्रकाशमान होने लगती थीं जो कि ऐसी जान पड़ती थीं मानो देवताओंने अन्धकारको नष्ट करनेवाले दीपक ही जलाकर लटका दिये हों ॥७७॥ कहीं-कहींपर उस पर्वतके समीपका प्रदेश, सिंहोंके द्वारा फाड़े हुए हाथियोंके मस्तकोंसे उछलकर पड़े हुए मोतियोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो बिखरे हुए फूलोंको शोभा ही धारण कर रहा हो ॥७८।। जो वायुसे हिलते हुए किनारेके वृक्षोंसे बुलाता हुआ-सा जान पड़ता था ऐसे अपनेमें आसक्त उस महापर्वतको दूरसे ही देखते हुए चक्रवर्ती भरत उसपर जा पहुँचे । ॥७९।। वहाँ जाकर उन्होंने उस पर्वतके वनोंमें रहनेवाले झुण्डके झुण्ड भील और हाथी देखे । वे भील मेघोंके समान काले थे और धनुषोंके बाँसोंको ऊँचा उठाकर कन्धोंपर रखे हुए थे तथा हाथी भी मेघोंके समान काले थे और धनुषके समान ऊँची उठी हुई पीठकी हड्डीको धारण किये हुए थे ॥८०॥ उस पर्वतके किनारेपर उन्होंने चंचल मछलियाँ ही जिनके नेत्र हैं और बोलते हुए पक्षियोंके शब्द ही जिनके मनोहर शब्द हैं ऐसी उस विन्ध्याचलकी प्यारी स्त्रियोंके समान नदीरूपी स्त्रियोंको बड़ी ही उत्कण्ठाके साथ १ स्फुरद्दन्तांश-ल० । २ व्यक्त । ३ गैरिकादिभिः । ४ उद्धृताः । ५ -च्छ्वलत-ल०, द० । ६ पुष्पोपहारशोभाम् । ७ अनवरतम् । ८ ससमूहान् । ९ उद्गतधनुषो वेणून् । उद्गतधनुराकारपृष्ठस्थांश्च । १० पर्वतसानो। ११ विहगध्वनिरेवाव्यक्तवाचो यासां ताः । -मुन्मनाः ल०, द०। - १२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् मध्येविन्ध्यमथैक्षिष्ठ नर्मदा सरिदुत्तमाम् । प्रततामिव तत्कीर्तिमासमुद्रमपारिकाम् ॥८२॥ तरङ्गितपयोवेगां भुवो वेणीमिवायताम् । पताकानिव विन्ध्याद्रेः शेषाद्विजयशंसिनीम् ॥८३॥ सा धुनी बलसंक्षोभादुड्डीनविहगावलिः । विभोरुपागमे बद्धतोरणेव क्षणं व्यभात् ॥८॥ नर्मदा सत्यमेवासीन्नर्मदा नृपयोषिताम् । यदुपोरुत्तरन्तीस्ताः शफरीभिरघट्टयत् ॥४५॥ तामुत्तीर्य जनक्षोभादुत्पत-पतगावलिम् । बलं विन्ध्योत्तरप्रस्थानाक्रामत् कुतुपास्थया ॥८६॥ तस्या दक्षिणतोऽपश्यद् विन्ध्य मुत्तरतोऽप्यसौ । 'द्विधाकृतमिवात्मानमपर्यन्तं दिशोर्द्वयोः ॥४७॥ स्कन्धावारनिवेशोऽस्य नर्मदाममितोऽद्युतत् । प्रथिम्ना" विन्ध्यमावेष्टय स्थितो विन्ध्य इवापरः ॥८॥ १२गजैर्गण्डोपलैरश्वैरश्ववक्त्रैश्च विद्रुतैः । स्कन्धावारः स विन्ध्यश्च मिदां" नावापतुर्मिथः ॥८९॥ बलोपभुक्तनिःशेषफलपल्लवपादपः । अप्रसूनलतावीरुद्विन्ध्यो वन्ध्यस्तदाभवत् ॥१०॥ वैणवैस्तण्डुलैर्मुक्ताफलमित्रैः कृतार्चनाः । अध्यूषुः सैनिकाः स्वैरं रम्या विन्ध्याचलस्थलीः ॥११॥ देखा ॥८१॥ तदनन्तर उन्होंने विन्ध्याचलके मध्य भागमें समुद्र तक फैली हुई और किसीसे न रुकनेवाली उसकी कीतिके समान नर्मदा नामकी उत्तम नदी देखी ॥८२।। जिसके जलका प्रवाह अनेक लहरोंसे भरा हुआ है ऐसी वह नर्मदा नदी पृथिवीरूपी स्त्रीकी लम्बी चोटीके समान जान पड़ती थी अथवा शेष सब पर्वतोंको जीत लेनेकी सूचना करनेवाली विन्ध्याचलकी विजय-पताकाके समान मालूम होती थी॥८३।। सेनाके क्षोभसे जिसके ऊपर पक्षियोंकी पंक्तियाँ उड़ रही हैं ऐसी वह नदी क्षण-भरके लिए ऐसी जान पड़ती थी मानो उसने चक्रवर्तीके आनेपर तोरण ही बाँधे हों ॥८४॥ चूंकि वह नर्मदा नदी जलको पार करनेवाली रानियोंके लिए उनकी जाँघोंके पास मछलियोंके द्वारा धक्का देती थी इसलिए वह सचमुच ही उन्हें नर्मदा अर्थात् क्रीड़ा प्रदान करनेवाली हुई थी॥८५।। मनुष्योंके क्षोभसे जिसके पक्षियोंकी पंक्ति ऊपरको उड़ रही है ऐसी उस नर्मदा नदीको पार कर उस सेनाने देहली समझकर विन्ध्याचलके उत्तरकी ओर आक्रमण किया ॥८६॥ वहाँ भरतने दक्षिण और उत्तर दोनों ही ओर विन्ध्याचलको देखा, उस समय दोनों ओर दिखाई देनेवाला वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो अपने दो भाग कर दोनों दिशाओंको ही अर्पण कर रहा हो ॥८७।। भरतकी सेनाका पड़ाव नर्मदा नदीके दोनों किनारोंपर था और वह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अपने विस्तारसे विन्ध्याचलको घेरकर कोई दूसरा विन्ध्याचल ही ठहरा हो ॥८८॥ उस समय सेनाका पड़ाव और विन्ध्याचल दोनों ही परस्परमें किसी भेद ( विशेषता ) को प्राप्त नहीं हो रहे थे क्योंकि जिस प्रकार सेनाके पड़ावमें हाथी थे उसी प्रकार विन्ध्याचलमें भी हाथियोंके समान ही गण्डोपल अर्थात् बड़ी-बड़ी काली चट्टानें थीं और सेनाके पड़ावमें जिस प्रकार अनेक घोड़े इधर-उधर फिर रहे थे उसी प्रकार उस विन्ध्याचलमें भी अनेक अश्ववक्त्र अर्थात् घोड़ोंके मुखके समान मुखवाले किन्नर जातिके देव इधर-उधर फिर रहे थे ( कवि-सम्प्रदायमें किन्नरोंके मुखोंका वर्णन घोड़ोंके मुखोंके समान किया जाता है ) ॥८९॥ सेनाने उस विन्ध्याचलके समस्त फल, पत्ते और वृक्षोंका उपभोग कर लिया था और लताओं तथा छोटे-छोटे पौधोंको पुष्परहित कर दिया था इसलिए वह विन्ध्याचल उस समय वन्ध्याचल अर्थात् फल-पुष्प आदिसे रहित हो गया था ॥१०॥ मोतियोंसे मिले हुए बांसी चावलोंसे जिनेन्द्रदेवकी पूजा करते हुए सैनिक लोगोंने वहाँ इच्छा१-मवैक्षिष्ट अ०, स०, इ०। २ प्रवेणीम् । ३ नर्म क्रीडा तां ददातीति नर्मदा। ४ ऊरुसमीपे । यदपो हयुत्तरन्ती-ल० । ५ पक्षी । ६ देहलीति बुद्ध्या। ७ नर्मदायाः । ८ दक्षिणस्यां दिशि स्थितः । ९ उत्तरस्यां दिशि स्थितम् । १० विन्ध्याचलम् नर्मदाविन्ध्याचलमध्ये विभिद्य द्विधाकृत्य गतेति भावः । ११ पृथुत्वेन । १२ गण्डशैलैः । १३ किन्नरः । १४ भेदम् । १५ निवसन्ति स्म । १६ -स्थितिः ल० । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तम पर्व कृतावासं च तत्रैनं ददृशुस्तद्वनाधिपाः । वन्यरुपायनैः इलाध्यैरगदैश्च महौषधैः ॥१२॥ उपानिन्युः करीन्द्राणां दन्तानस्मै सलौक्तिकान् । किरातवर्या वर्या हि स्वोचिता सस्क्रिया प्रभौ ॥५३॥ पश्चिमान विन्ध्याद्विमुल्लङध्योत्तीर्य नर्मदाम् । विजेतुमपरामाशां प्रतस्थे चक्रिणो बलम् ॥१॥ गत्वा किंचिदु दग्भूयः प्रतीची दिशमानशे । प्राक प्रतापोऽस्य दुर्वारः सचक्रं चरम बलम् ॥१५॥ तदा प्रचलदश्वीयखुरोद्भुत महीरजः । न केवलं द्विषां तेजो रुरोध द्युमणेरपि ॥१६॥ लाटा ललाट संवृष्टभूपृष्ठाश्चाटुभाषिणः । लालाटिकपदं भेजुः प्रभोराज्ञावशीकृताः ॥९॥ केचित्सौराष्ट्रिकै गैः परे पाञ्चनदैर्गजैः । तं तद्वनाधिपा वीक्षांचक्रिरे चक्रचालिताः ॥९८॥ चक्रसंदर्शनादेव बस्ता निर्मण्डलग्रहाः । ग्रहाइव नृपाः केचित् चक्रिणो वशमाययुः ॥१९॥ दिश्यानिव द्विपान् मापान्पृथुवंशान्मदोधुरान् । प्रचक्रे प्रगुणांश्चक्री बलादाक्रम्य दिक्पतीन् ॥१०॥ नृपान् सौराष्ट्रकानुष्ट्र वामीशतभृतोपदान् । समाजयन् प्रभुभेंजे रम्या रैवतकस्थलीः ॥१०१॥ नुसार निवास किया था सो ठीक ही है क्योंकि विन्ध्याचलपर रहना बहुत ही रमणीय होता है ॥९१॥ विन्ध्याचलके वनोंके राजाओंने वनोंमें उत्पन्न हुई, रोग दूर करनेवाली और प्रशंसनीय बड़ी-बड़ी ओषधियाँ भेंट कर वहाँपर निवास करनेवाले राजा भरतके दर्शन किये ॥९२॥ भीलोंके राजाओंने बड़े-बड़े हाथियोंके दाँत और मोती महाराज भरतकी भेंट, किये सो ठीक ही है क्योंकि स्वामीका सत्कार अपनी योग्यताके अनुसार ही करना चाहिए ॥९३॥ विन्ध्याचलको पश्चिमी किनारेके अन्तभागसे उल्लंघन कर और नर्मदा नदीको पार कर चक्रवर्तीकी सेनाने पश्चिम दिशाको जीतनेके लिए प्रस्थान किया ॥९४॥ वह सेना पहले तो कुछ उत्तर दिशाकी ओर बढ़ी और फिर पश्चिम दिशामें व्याप्त हो गयी। सेनामें सबसे आगे महाराज भरतका दुर्निवार प्रताप जा रहा था और उसके पीछे-पीछे चक्रसहित सेना जा रही थो ॥९५॥ उस समय वेगसे चलते हुए घोड़ोंके समूहके खुरोंसे उड़ी हुई पृथिवीको धूलिने केवल शत्रुओंके ही तेजको नहीं रोका था किन्तु सूर्यका तेज भी रोक लिया था ॥९६॥ जिन्होंने अपने ललाटसे पृथिवीतलको घिसा है और जो मधुर भाषण कर रहे हैं ऐसे भरतकी आज्ञासे वश किये हुए लाट देशके राजा उनके लालाटिक पदको प्राप्त हुए थे। ( ललाटं पश्यति लालाटिक:-स्वामी क्या आज्ञा देते हैं ? यह जाननेके लिए जो सदा स्वामीके मुखकी ओर ताका करते हैं उन्हें लालाटिक कहते हैं ।) ॥९७॥ चक्र रत्नसे विचलित हुए कितने ही वनके राजाओंने सोरठ देशमें उत्पन्न हुए और कितने ही राजाओंने पंजाबमें उत्पन्न हुए हाथी भेंट देकर भरतके दर्शन किये ॥९८॥ जो चक्रके देखनेसे ही भयभीत हो गये हैं और जिन्होंने अपने देशका अभिमान छोड़ दिया है ऐसे कितने ही राजा लोग सूर्य चन्द्र आदि ग्रहोंके समान चक्रवर्तीके वश हो गये थे । भावार्थ-जिस प्रकार समस्त ग्रह भरतके वशीभूत थे-अनुकूल थे उसी प्रकार उस दिशाके समस्त राजा भी उनके वशीभूत हो गये थे ॥९९॥ चक्रवर्ती भरतने दिग्गजोंके समान पृथुवंश अर्थात् उत्कृष्ट वंशमें उत्पन्न हुए ( पक्षमें-पीठपर-की चौड़ी रीढ़से सहित ) और मदोटुर अर्थात् अभिमानी ( पक्षमें-मदजलसे उत्कट ) राजाओंको जबरदस्ती आक्रमण कर अपने वश किया था ॥१००॥ सैकड़ों ऊँट और घोड़ियोंकी भेंट लेकर आये हुए सोरठ देशके राजाओंसे १ व्याधिघातकः । २ उपायनीकृत्य नयन्ति स्म। उपनिन्युः अ०, इ०, ५०, स०, द० । ३ श्रेष्ठाः । ४ चया ल०। ५ विभौ स०, अ०। ६ पश्चिमान्तेन ल०, द०। ७ उत्तरदिशम्। ८ पश्चिमाम् । ९ पश्चात् । १० खुरोद्भूतमहीरज: ल० । ११ संदष्ट-इ०, ५०, द०। १२ विशिष्टभत्यपदम् । 'लालाटिकः प्रभाभावदशा कायक्षमश्च यः' इत्यभिधानात । १३ पञ्चनदीष जातः । १४ देशग्रहणरहिताः । १५ आदित्यग्रहाः । १६ दिशि भवान् । १७ प्रणतान् । १८ उष्ट्राश्वसम्हधतोपदान् । १९ तोषयन् । २० ऊजयन्तागारस्थल Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि पुराणम् सुराष्ट्रपूजयन्ताहिमद्विराजमिवोच्छुितम् । ययौ प्रदक्षिणीकृत्य भावितीर्थमनुस्मरन् ॥१०२॥ क्षौमांशुकदुकूलैश्च चीनपट्टाम्बरैरपि । पटीभदैश्च' देशेशा ददृशुस्तमुपायनैः ॥१०३॥ कांश्चित् संमानदानाभ्यां कांश्चिद्वि सम्भमाषितैः । प्रसन्नवाशितैः कांश्चिद् भूपान्विभुररञ्जयत् ॥१०४॥ गजप्रवे कैर्जा यश्चै रत्नरपि पृथग्विधैः । तमानचुनृपास्तुष्टाः स्वराष्ट्रोपगतं प्रभुम् ॥१०५॥ तरस्विभिर्व पुर्मेधावयःसत्त्वगुणान्वितैः । तुरंगमस्तुरुष्का द्यौर्वभुमाराधयन् परे ॥१०६॥ कंचिकाम्बोजबाहीकतैतिलारसैन्धवैः । वानायुकैः सगान्धारापय रपि वाजिभिः ॥१०७॥ कुलोपकलसंभूतैर्नानादिग्देशचारिभिः । आजानेयः समग्राङ्गैः प्रभुमैक्षन्त पार्थिवाः ॥१०८॥ प्रतिप्रयाणमित्यस्य रत्नलाभो न केवलम् । यशोलाभश्च दुःसाध्यान् बलात् साधयतो नृपान् ॥१०॥ जलस्थलपथान् विष्वगारुध्य जयसाधनैः । प्रत्यन्तपालभूपालानजयत्तच्चमृपतिः ॥११०॥ विलध्य विविधान् देशानरण्यानीः सरिगिरीन् । तत्र तत्र विभोराज्ञासेनानीराश्वशुश्रुवत्' ॥१११॥ प्राच्यानिव स भूपालान् प्रतीच्यानप्यनुक्रमात् । श्रावयन् हृततन्मानधनः प्रापापराम्बुधिम् ॥११२॥ सेवा कराते हुए अथवा उनसे प्रीतिपूर्वक साक्षात्कार ( मुलाकात ) करते हुए चक्रवर्ती भरत गिरनार पर्वतके मनोहर प्रदेशों में जा पहुँचे ॥१०१॥ भविष्यत् कालमें होनेवाले तीर्थ कर नेमिनाथका स्मरण करते हुए वे चक्रवर्ती सोरट देशमें सुमेरु पर्वतके समान ऊँचे गिरनार पर्वतकी प्रदक्षिणा कर आगे बढ़े ॥१०२॥ उन-उन देशोंके राजाओंने उत्तम-उत्तम रेशमी वस्त्र, चायना सिल्क तथा और भी अनेक प्रकारके अच्छे-अच्छे वस्त्र भेंट देकर महाराज भरतके दर्शन किये ॥१०३।। भरतने कितने ही राजाओंको सन्मान तथा दानसे, कितने ही राजाओंको विश्वास तथा स्नेहपूर्ण बातचीतसे और कितने ही राजाओंको प्रसन्नतापूर्ण दृष्टिसे अनुरक्त किया था ॥१०४॥ कितने हो राजाओंने सन्तुष्ट होकर उत्तम हाथी, कुलीन घोड़े और अनेक प्रकारके रत्नोंसे अपने देश में आये हुए महाराज भरतकी पूजा की थी-॥१०५।। अन्य कितने ही राजाओंने वेगसे चलनेवाले, तथा शरीर, बुद्धि, अवस्था और बल आदि गुणोंसे सहित तुरुष्क आदि देशोंमें उत्पन्न हुए घोड़ोंके द्वारा भरतकी सेवा की ।।१०६॥ कितने ही राजाओंने उसी देशके घोड़े-घोड़ियोंसे उत्पन्न हुए, तथा एक देशके घोड़े और अन्य देशकी घोड़ियोंसे उत्पन्न हुए, नाना दिशाओं और देशोंमें संचार करनेवाले, कुलीन और पूर्ण अंगोपांग धारण करनेवाले, काम्बोज, वाल्हीक, तैतिल, आरट्ट, सैन्धव, वानायुज, गान्धार और वापि देशमें उत्पन्न हुए घोड़े भेंट कर महाराजके दर्शन किये थे ॥१०७-१०८॥ इस प्रकार भरतको प्रत्येक पड़ावपर केवल रत्नोंकी ही प्राप्ति नहीं हुई थी किन्तु अपने पराक्रमसे बड़े-बड़े दुःसाध्य (कठिनाइयोंसे जीते जाने योग्य) राजाओंको जीत लेनेसे यशकी भी प्राप्ति हुई थी ॥१०९।। भरतके सेनापतिने अपनी विजयो सेनाओंके द्वारा चारों ओरसे जल तथा स्थलके मार्ग रोककर पहाड़ी राजाओंको जीता ॥११०॥ सेनापतिने अनेक प्रकारके देश, बड़े-बड़े जंगल, नदियाँ और पर्वत उल्लंघन कर सब जगह शीघ्र ही सम्राट् भरतकी आज्ञा स्थापित की ॥१११॥ इस प्रकार चक्रवर्ती क्रम-क्रमसे पूर्व दिशाके राजाओंके समान पश्चिम दिशाके राजाओंको भी वश करता हुआ तथा उसके अभिमान और धनका हरण करता हुआ पश्चिम समुद्रकी ओर १ सूत्रवस्त्रद्वयं पटी। २ स्नेह । ३ श्रेष्ठैः । ४ नानाविधैः। ५ तुरुष्कदेशजात्यायैः । ६ तैतिल-आर. सिन्धुदेशजैः । ७ वानायुदेशे जातः । ८ वापिदेशभवः, पायः द०, वाणये ल०। ९ कुलीनः । 'आजानेयाः कुलीनाः स्युः' इत्यभिधानात्, जात्यश्वरित्यर्थः । १० प्रभो- ल० । ११ श्रावयति स्म । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व वेलासरित्करान्वाद्धिरतिदरं प्रसारयन् । नूनं प्रत्यग्रहीदेवं नानारवार्घमुद्वहन् ॥११३॥ शूर्पोन्मयानि रत्नानि वार्धरित्यप्रशंसिनी। यानपात्रमहामानैरुन्मयान्यन तानि यत् ॥११॥ नाम्नैव लवणाम्भोधिरित्युदन्वान् लघुकृतः । रत्नाकरोऽयमित्युच्चैर्बहु मने तदा नृपैः ॥११५॥ पतन्यत्र पतङ्गोऽपि तेजसा याति मन्दताम् । दिदीपे तत्र तेजोऽस्य प्रतीच्यां जयतो नृपान् ॥११६॥ धारयंश्च क्ररत्नस्य पारयः संगरोदधेः । द्विषा मुदे जयस्तीवं स तिग्मांशुरिवाद्युतत् ॥११७॥ अनुवाद्धि तटं गत्वा सिन्धुद्वारे न्यवेशयत् । स्कन्धावारं स लक्ष्मीवानक्षोभ्यं स्वमिवाशयम् ॥११८॥ सिन्धोस्तटवने रम्ये न्यविक्षन्नास्य सैनिकाः । चमूद्विरदसंभोगनिकुब्जीभूतपादप" ॥११९॥ तत्राधिवासितानोङ्गः पुरश्चरणकर्मवित् । पुरोधा धर्मचक्रेशान् प्रपूज्य विधिवत्ततः ॥१२०॥ सिद्धशेषाक्षतैः पुण्यैर्गन्धोदकविमिश्रितैः । अभ्यनन्दत्सुयज्वा तं पुण्याशीभिश्च चक्रिणम् ॥१२१॥ ततोऽसौ धृतदिव्यास्त्रो रथमारुह्य पूर्ववत् । जगाहे लवणाम्भोधि गोष्पदावज्ञया प्रभुः ॥१२२॥ चला ॥११२।। उस समय वह समुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो किनारेपर बहनेवाली नदियाँरूपी हाथोंको बहुत दूर तक फैलाकर नाना प्रकारके रत्नरूपी अर्घको धारण करता हुआ महाराज भरतकी अगवानी ही कर रहा हो अर्थात् आगे बढ़कर सत्कार ही कर रहा हो ॥११३॥ जो लोग कहा करते हैं कि समुद्रके रत्न सूपसे नापे जा सकते हैं वे उसकी ठीक-ठीक प्रशंसा नहीं करते बल्कि अप्रशंसा ही करते हैं क्योंकि यहाँ तो इतने अधिक रत्न हैं कि जो बड़ेबड़े जहाजरूप नापोंसे भी नापे जा. सकते हैं ॥११४।। यह समुद्र 'लवण समुद्र' इस नामसे बिलकुल ही तुच्छ कर दिया गया है, वास्तवमें यह रत्नाकर है इस प्रकार उस समय भरतआदि राजाओंने उसे बहुत बड़ा माना था ॥११५।। जिस दिशामें जाकर सूर्य भी अपने तेजकी अपेक्षा मन्द ( फीका ) हो जाता है उसी दिशामें पश्चिमी राजाओंको जीतते हुए चक्रवर्ती भरत का तेज अतिशय देदीप्यमान हो रहा था ॥११६।। चक्ररत्नको धारण करता हुआ, युद्धरूपी समुद्रको पार करता हुआ और शत्रुओंको उद्विग्न करता हुआ वह भरत उस समय ठीक सूर्यके समान देदीप्यमान हो रहा था ।।११७॥ जो राज्यलक्ष्मीसे युक्त है ऐसे उस भरतने समुद्रके किनारे-किनारे जाकर अपने हृदयके समान कभी क्षुब्ध न होनेवाला अपनी सेनाका पड़ाव सिन्धु नदीके द्वारपर लगवाया। भावार्थ - जहाँ सिन्धु नदी समुद्र में जाकर मिलती है वहाँ अपनी सेनाके डेरे लगवाये ॥११८।। सेनाके हाथियोंके उपभोगसे जहाँके वृक्ष निकुंज अर्थात् लतागृहोंके समान हो गये हैं ऐसे सिन्धु नदीके किनारेके मनोहर वनमें भरतकी सेनाके लोगोंने निवास किया ॥११९।। तदनन्तर कार्यके प्रारम्भमें करने योग्य समस्त कार्योंको जाननेवाले परोहितने वहाँपर मन्त्र के द्वारा चक्ररत्नको पजा कर विधिपर्वक धर्मचक्रके स्वामी अर्थात् जिनेन्द्रदेवकी पूजा की और फिर गन्धोदकसे मिले हए पवित्र सिद्ध शेषाक्षतों और पुण्यरूप अनेक आशीर्वादोंसे चक्रवर्ती भरतको आनन्दित किया ॥१२०-१२१।। तदनन्तर १ वेलासरित एव कराः तान् । २ इव । ३ प्रस्फोटनेन उन्मातुं योग्यानि । प्रस्फोटनं शूर्पमस्त्रीत्यभिधानात् । ४ वेला । -रिभ्यप्रशंसिभिः ल०। प्रशस्तेऽपि न प्रशस्या । ( प्रशस्ताऽपि न प्रशस्या)। ५ सूर्यः । ६ प्रतीच्यानिति पाठः । ७ चक्ररत्नं धारयन् । ८ प्रतिज्ञासमुद्रं समाप्तं कुर्वन् । ९ शत्रून् । १० कम्पयन् । (एज कम्पने इति धातुः । 'दारिपारिवेद्युदेजिजेतिसाहिसाहिलिम्पविन्दोपसर्गात् इति कर्तरि शप् प्रत्ययः' । 'मध्ये कर्तरि शप्' इति शविधानात् एजयादेशः )। ११ नितरां ह्रस्वीभूत । १२ समन्त्रकं पूजितचक्ररत्नः ( अनः शकटम् तस्याङ्गम् चक्रम् )। १३ पूर्वसेवा । १४ पञ्चपरमेष्ठिनः। १५ पुरोहितः । सुष्ठु दृष्टवान् । 'यज्वा तु विधिनेष्टवान्' इत्यमरः । 'सुयजोङ वनिप्' इति अतीतार्थे सुयजधातुभ्यां ड्वनिप्प्रत्ययः । १६ मागधविजये यथा । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् प्रभा समजयत्तत्र प्रभासं व्यन्तराधिपम् । प्रभासमूहमर्कस्य स्वभासा तर्जयन्प्रभुः ॥१२३॥ जयश्रीशफरीजालं मुक्काजालं ततोऽमरात् । लेभे सान्तानिकों माला हेममालां च चक्रभृत् ॥१२४॥ इति पुण्योदयाजिष्णुर्व्यजेष्टामरसत्तमान् । तस्मात् पुण्यधनं प्राज्ञाः शश्वदर्जयतोर्जितम् ॥१२५॥ शार्दूलविक्रीडितम् त्वङ्गसुङ्गतुरङ्गसाधनखुरक्षुण्णान्महीस्थण्डिलाद उद्भूतैरणरे णुभिर्जलनिधेः कालुष्यमापादयन् । सिन्धुद्वारमुपेत्य तत्र विधिना जित्वा प्रभासामरं तस्मात्सारधनान्यवापदतुलश्रीरग्रणीश्चक्रिणाम् ॥१२६॥ लक्ष्म्यान्दोल लतामिवोरसि दधत् संतानपुष्पसजं मुक्ताहेममयेन जालयुगलेनालंकृतोच्चैस्तनुः । लक्ष्म्यद्वाह"गृहादिवाप्रतिभयो नियन्निधेरम्भसा लक्ष्मीशो रुरुचे भृशं नववरच्छायां" परामुद्वहन् ॥१२७॥ जिसने दिव्य अस्त्र धारण किये हैं ऐसे भरतने पहलेके समान रथपर चढ़कर गोष्पदके समान तुच्छ समझते हुए लवण समुद्रमें प्रवेश किया ॥१२२।। अपनी प्रभासे सूर्यकी प्रभाके समूहको तिरस्कृत करते हुए भरतने वहाँ जाकर अतिशय कान्तिमान् प्रभास नामके व्यन्तरोंके स्वामीको जीता ॥१२३।। तदनन्तर चक्रवर्तीने उस प्रभासदेवसे जयलक्ष्मीरूपी मछलीको पकड़नेके लिए जाल के समान मोतियोंका जाल, कल्पवृक्षके फूलोंकी माला और सुवर्णका जाल भेंट स्वरूप प्राप्त किये ॥१२४। इस प्रकार विजयी भरतने अपने पुण्यकर्मके उदयसे अच्छे-अच्छे देवोंको भी जीता इसलिए हे पण्डितजन, तुम भी उत्कृष्ट फल देनेवाले पुण्यरूपी धनका सदा उपार्जन करो ॥१२५।। अनुपम लक्ष्मीके धारक भरत, उछलते हुए बड़े-बड़े घोड़ोंकी सेनाके खुरोंसे खुदी हुई पृथिवीसे उड़ती हुई रथकी धूलिके द्वारा समुद्रको कलुषता प्राप्त कराते हुए (गेंदला करते हुए) सिन्धुद्वारपर पहुँचे और वहाँ उन्होंने विधिपूर्वक प्रभास नामके देवको जीतकर उससे सारभूत धन प्राप्त किया ॥१२६।। जो अपने वक्षःस्थलपर लक्ष्मीके झूलाकी लताके समान कल्पवृक्षके फूलोंकी माला धारण किये हुए है, जिसका ऊँचा शरीर मोती और सुवर्णके बने हुए दो जालोंसे अलंकृत हो रहा है, जो निर्भय है और लक्ष्मीका स्वामी है ऐसा यह भरत लक्ष्मीके विवाहगृहके समान समुद्रसे निकल रहा है और नवीन वरकी उत्कृष्ट कान्तिको धारण करता हुआ अत्यन्त सुशोभित हो रहा है ।।१२७।। इस प्रकार समुद्र-पर्यन्त पूर्व दिशाके राजाओंको, वैजयन्त पर्वत तक दक्षिण दिशाके राजाओंको और पश्चिम समुद्र १ प्रकृष्टदीप्तिम् । २ जयश्रीरेव शफरी मत्सी तस्या जालम् पाशः । ३ कल्पवृक्षजाताम् । ४ बल्गत् । ५ चूर्णीकृतात् । ६ शर्कराणायप्रदेशात् । ७ सङ्गरपांशुभिः । ८ संपादयन् । ६ लक्ष्म्याः प्रेखोलिकारज्जुम् । १० मालायुग्मेन । ११ विवाह । १२ भयरहितः । १३ नूतनवरशोभाम् । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व प्राच्या नाजलधेरपाच्यनृपती नावैजयन्ताजयन् निर्जित्यापरसिन्धुसीमघटितामाशां प्रतीचीमपि । दिक्पालानिव पार्थिवान्प्रणमयन्नाकम्पयन्नाकिनो दिकचक्रं विजितारिचक्रमकरोदित्थं स भूभृत्प्रभुः ॥१२८॥ पुण्याच्च क्रधरश्रियं विजयिनीमैन्द्री च दिव्यश्रियं पुण्यात्तीर्थकरश्रियं च परमां नैःश्रेयसींचाश्नुते । पुण्यादित्यसुभृच्छ्रियां चतसृणामाविर्भवेद् भाजनं तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याजिनेन्द्रागमात् ॥१२६॥ इत्यार्षे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे पश्चिमार्णवद्वारविजयवर्णनं नाम त्रिंशं पर्व ॥३०॥ को सीमा तक पश्चिम दिशाको जीतकर दिक्पालोंके समान समस्त राजाओंसे नमस्कार कराते हुए तथा देवोंको भी कम्पायमान करते हुए राजाधिराज भरतने समस्त दिशाओंको शत्रुरहित कर दिया ॥१२८॥ पुण्यसे सबको विजय करनेवाली चक्रवर्तीकी लक्ष्मी मिलती है, इन्द्रकी दिव्य लक्ष्मी भी पुण्यसे मिलती है, पुण्यसे ही तीर्थंकरकी लक्ष्मी प्राप्त होती है और परम कल्याणरूप मोक्षलक्ष्मी भी पुण्यसे ही मिलती है इस प्रकार यह जीव पुण्यसे ही चारों प्रकारकी लक्ष्मीका पात्र होता है, इसलिए हे सुधी जन ! तुम लोग भी जिनेन्द्र भगवान्के पवित्र आगमके अनुसार पुण्यका उपार्जन करो ।।१२९।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें पश्चिमसमुद्रके द्वारका विजय वर्णन करनेवाला तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। १ पूर्वीदिक्देशजान् । २ पूर्वसमुद्रपर्यन्तम् । ३ दक्षिणदेशभूपान् । ४ पवित्रात् । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तमं पर्व कौबेरीमथ निर्जेतुमाशामभ्युद्यतो विभुः । प्रतस्थे वाजिभूयिष्ठैः साधनैः स्थगयन् दिशः ॥१॥ धौरितर्गत मुत्साहैः सत्त्वं शिक्षां च लाघवैः । जातिं वपुर्गणैस्तज्ज्ञास्तदाश्वानां विजज्ञिरे ॥२॥ धौरितं गतिचातुर्यमुत्साहस्तु पराक्रमः । शिक्षाविनयसंपत्ती रोमच्छाया वपुर्गुणः ॥३॥ पुरोभागा निवात्येतुं पश्चाद्भागैः कृतोद्यमाः । प्रययुतमध्वानमधनीना स्तुरङ्गमाः ॥४॥ खुरोद्धृतान् महीरेणून स्वाङ्गस्पर्शभयादिव । केचिद् व्यती युरध्यध्वं' महाश्वाः कृतविक्रमाः ॥५॥ छायात्मानः सहोत्थानं'' केचित्सोढुमिवाक्षमाः। खुरैरघट्टयन वाहाः स तु सौक्षम्यानबाधितः ॥६॥ केचिन्नृत्तमिवातेनुर्महीरङ्गे तुरङ्गमाः । क्रमैश्चक्रमणारम्भे कृतमड्डुकवादनैः ॥७॥ स्थिरप्रकृतिसत्त्वानामश्वानां चलताऽभवत् । प्रचलल्खुरसंक्षुण्णभुवां गतिषु केवलम् ॥ ८॥ कोटयोऽष्टादशास्य स्युजिनां वायुरंहसाम्। आजानेयप्रधानानां योग्यानां चक्रवर्तिनः ॥६॥ रुद्वरोधोवनाक्षुण्णह्यतटभूसियन्त्यपः । सिन्धोः प्रतीपतां भजे प्रयान्ती सा पताकिनी ॥१०॥ अथानन्तर-उत्तर दिशाको जीतनेके लिए उद्यत हए चक्रवर्ती भरत जिनमें अनेक घोड़े हैं ऐसी सेनाओंसे दिशाओंको व्याप्त करते हुए निकले ॥१॥ उस समय घोड़ोंके गुण जानने वाले लोगोंने धौरित नामकी गतिसे उनकी चाल जानी, उत्साहसे उनका बल जाना, स्फूर्तिके साथ हलकी चाल चलनेसे उनकी शिक्षा जानी और शरीरके गुणोंसे उनकी जाति जानी ॥२॥ गतिकी चतुराईको धौरित, उत्साहको पराक्रम, विनयको शिक्षा और रोमोंको कान्तिको शरीरका गुण कहते हैं ॥३॥ अच्छी तरह मार्ग तय करनेवाले घोड़े मार्गमें बहुत जल्दी-जल्दी जा रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने पीछेके भागोंसे अगले भागोंको उल्लंघन ही करना चाहते हों ॥४॥ अपने खुरोंसे उड़ती हुई पृथिवीकी धूलिका कहीं हमारे ही शरीरके साथ स्पर्श न हो जावे इस भयसे ही मानो अनेक बड़े-बड़े घोड़े अपना पराक्रम प्रकट करते हुए मार्गमें उस धूलिको उल्लंधित कर रहे थे ॥५।। कितने ही घोड़े अपनी छायाका भी अपने साथ चलना नहीं सह सकते थे इसलिए ही मानो वे उसे अपने खुरोंसे तोड़ रहे थे परन्तु सूक्ष्म होनेसे उस छायाको कुछ भी बाधा नहीं होती थी ॥६।। कितने ही घोड़े ऐसे जान पड़ते थे मानो चलनेके प्रारम्भमें बजते हुए नगाड़े आदि बाजोंके साथ-साथ अपने पैरोंसे पृथ्वीरूपी रंगभूमिपर नृत्य ही कर रहे हों ॥७॥ जिनका स्वभाव और पराक्रम स्थिर है परन्तु जिन्होंने अपने चलते . हुए खुरोंसे पृथ्वी खोद डाली है ऐसे घोड़ोंकी चंचलता केवल चलने में ही थी अन्यत्र नहीं थी ॥८॥ जिनका वेग वायुके समान है, जो उत्तम जातिके हैं और जो योग्य हैं ऐसे चक्रवर्तीके घोड़ोंकी संख्या अठारह करोड़ थी ।९।। जिसने किनारेके वन रोक लिये हैं, जिसने किनारेकी पृथिवी १ धाराभिः । 'आस्कन्दितं धौरितकं रेचितं वल्गितं प्लुतम् । गतयोऽमः पञ्च धाराः ।' पदैरुत्प्लुत्योत्प्लुत्य गमनम् आस्कन्दितम् । कङ्कशिखिकोडनकुलगतैः सदृशम् धौरितकम् । मध्यमवेगेन चक्रवद् भ्रमणम् रेचितम् । पविल्गितम् वल्गितम् । मृगसाम्येन लङ्घनं प्लुतम् । आस्कन्दितादीनि पञ्चपदानि धाराशब्दवाच्यानि । धारेत्यश्वगतिः, सा ये आस्कन्दितादिभेदेन पञ्चविधा भवतीत्यर्थः । २ गमनम् । ३ बुबुधिरे । ४ पूर्वकायान् । ५ अतिगन्तुम् । ६ अपरकायैः । ७ अध्वनि समर्थाः । ८ अतीत्यागच्छन् । ९ मार्गे। १८ छायास्वरूपस्य । ११ छायात्मा। १२ शीघ्रगमनारम्भ। १३ वाद्यविशेषः । १४ पवनवेगिनाम् । १५ जात्यश्वमुख्यानाम् । १६ सिन्धुनद्याः । १७ प्रतिकूलताम् । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तमं पर्व प्रभोरिवागमात्तष्टा सिन्धुः सैन्याधिनायकान् । तरङ्गपवनैर्मन्दमासिषेवे सुखाहरैः१ ॥११॥ गङ्गावर्णनयोपेतां फेनार्धा संमुखागताम् । तां पश्यन्नुत्तरामाशां जितां मेने निधीश्वरः ॥१२॥ अनुसिन्धुतटं सैन्यैरुदीच्यान साधयन्नृपान् । विजयाचिलोपान्तमाससाद शनैर्मनुः ॥१३॥ स गिरिमणिनिर्माणनवकूटविशङ्कटः । ददृशे प्रभुणा दूराद् धृतार्घ इव राजतः ॥१४॥ स शैल: पवनाधूतचलशाखाग्रबाहुभिः । दूरादभ्यागतं जिष्णुमाजुहावेव पादपैः ॥१५॥ सोऽचलः शिखरोपान्तनिपतन्निराम्बुभिः । प्रभोरुपागाने पाद्यं संविधित्सुरिवाचकात् ॥१६॥ स नगो नागपुन्नागपूगाद्विद्रुमसङ्कटैः । रम्यैस्तटवनोद्देशैराह्नत् प्रभुमिवासितुम् ॥१७॥ रजो वितानयन् पौष्पं पवनैः परितो वनम् । सोऽभ्युत्तिष्ठन्निवास्यासीत् कूजरकोकिलडिण्डिमः ॥१८॥ किमत्र बहुना सोऽद्रिविभुं दिग्विजयोद्यतम् । प्रत्यैच्छदिव संप्रीत्या सत्काराङ्गैरतिस्फुटैः ॥१९॥ ११पिनद्धतोरणामुच्चैरतीत्य वनवेदिकाम् । नियन्त्रितं १२ बलाध्यक्षैर्जगाहेऽन्तर्वणं बलम् ॥२०॥ वनोपान्तभुवः सैन्यैरारुद्वा रुद्वदिङ्मुखैः । उड्डोनविहगप्राणा निरुच्छ्वासास्तदाभवन् ॥२१॥ तोड़ दी है और जो जलको कम करती जाती है ऐसी चलती हुई वह सेना मानो सिन्धु नदीके साथ शत्रुता ही धारण कर रही थी। भावार्थ-वह सेना सिन्धु नदीको हानि पहुँचाती हुई जा रही थी ॥१०॥ वह सिन्धु नदी मानो चक्रवर्ती भरतके आनेसे सन्तुष्ट होकर ही सुख देनेवाली अपनी लहरोंके पवनसे धीरे-धीरे सेनाके मुख्य लोगोंकी सेवा कर रही थी ॥११॥ जो गंगा नदीके समस्त वर्णनसे सहित है और फेनोंसे भरी हुई है ऐसी सामने आयी हुई सिन्धु नदीको देखते हुए निधिपति-भरत उत्तर दिशाको जीती हुईके समान समझने लगे थे ॥१२॥ सिन्धु नदीके किनारे-किनारे अपनी सेनाओंके द्वारा उत्तर दिशाके राजाओंको वश करते हुए कुलकर-भरत धीरे-धीरे विजयाध पर्वतके समीप जा पहुँचे ॥१३॥ जो मणियोंके बने हुए नौ शिखरोंसे बहुत विशाल मालूम होता था ऐसा वह चाँदीका विजयार्ध पर्वत भरतने दूरसे ऐसा देखा मानो शिखरोंके बहानेसे अर्घ ही धारण कर रहा हो ॥१४॥ जिनकी शाखाओंके अग्रभागरूपी भुजाएँ वायुसे हिल रही हैं ऐसे वृक्षोंसे वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो दूरसे सन्मुख आये हुए विजयी भरतको बुला ही रहा हो ॥१५।। शिखरोंके समीपसे ही पड़ते झरनोंके जलसे वह पर्वत ऐसा अच्छा सुशोभित हो रहा था मानो चक्रवर्ती भरतके आनेपर उनके लिए पाद्य अर्थात् पैर धोनेका जल ही देना चाहता हो ॥१६॥ वह पर्वत पुन्नाग, नागकेसर और सुपारी आदिके वृक्षोंसे भरे हुए तथा मनोहर अपने किनारेके वनके प्रदेशोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो विश्राम करनेके लिए स्वामी भरतको बुला ही रहा हो ॥१७॥ जो अपने वनके चारों ओर वायुसे उड़ते हुए फूलोकी परागका चँदोवा तान रहा है और शब्द करते हुए कोकिल ही जिसके नगाड़े हैं ऐसा वह पर्वत भरतका सन्मान करनेके लिए सामने खड़े हुए के समान जान पड़ता था ॥१८॥ इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ है ? इतना ही बहुत है कि वह पर्वत बड़े प्रेमसे प्रकट किये हुए सत्कारके सब साधनोंसे दिग्विजय करनेके लिए उद्यत हुए भरतका मानो सत्कार ही कर रहा था ॥१९॥ जिसके चारों ओर तोरण बंधे हुए हैं ऐसी वनकी ऊँची वेदीका उल्लंघन कर सेनापतियोंके द्वारा नियन्त्रित की हुई ( वश की हुई ) सेनाने वनके भीतर प्रवेश किया ॥२०॥ समस्त दिशाओंमें फैलनेवाली सेनाओंसे उस वनके समीप १ सुखस्याहरणम् स्वीकारो येभ्य(पञ्चमी) स्ते तैः, सुखाकररित्यर्थः। २ फेनाढयाम् प०, ल० । ३ विशालः । ४ रजतमयः । ५ संविधातुमिच्छुः । ६ अभात् । ७ संकुलैः, ल०, ५०, द०, स०, अ०, इ०। ८ वस्तुम् । ९ विस्तारयन् । १० अभिमुखमुष्ठित्तन् । ११ विभक्त अ०, ५०, द०, स०, ल०, इ० । १२ नियमितम् ! १३ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् अभूतपूर्वमुद्भुतप्रतिध्वानं बलध्वनिम् । श्रुत्वा १बलवदुत्त्रेसु स्तियञ्चो वनगोचराः ॥२२॥ वलोभादिभों निर्यन वलओऽभाद् बनान्तरात् । सुरंभः सुविनकाङ्गः सुरंभ इव वर्मणा ॥२३॥ प्रबोध जम्भणादास्यं व्याददौ किल कंपरी । न मंऽस्यन्त मयं किंचित पश्यतेऽतीव दर्शयन् ॥२४॥ शरनो रभसादृर्वमुत्पन्योत्तानित: पतन् । सुस्थ एव पदः पृष्ठौ र भून्निधिकोशलान' ॥२५॥ ११विधागोलिखितस्कन्धो रुषिताऽऽताम्रितक्षणः । खुरोग्वातावनिः सैन्यददृशे महिषो विभी: ॥२६॥ चमरवश्रवोद्भुत "साध्वयाः क्षुद्रका मृगाः । विजयाईगृहोत्सगान युगक्षय'' इवाश्यन् ॥२७॥ अनुद्वता मृगाः शावैः पलायां चक्रिरेऽभितः । वित्रस्त वेपमानाडा:१°सिकाभयरमैरिव ॥२८॥ वराहाररति मुक्त्वा वराहा मुक्तपल्बलाः १ । विनेपु विस्कुटायो' श्चमझोभादितोऽमुतः ॥२१॥ "वरणावरणास्तस्थुः करिणोऽन्ये भयद्गताः । हरिणा हरिणा रातिगृहान्तानधिशिपियरे ॥३०॥ की समस्त भूमियाँ भर गयी थीं, उनके पक्षीरूपी प्राण उड़ गये थे और उस समय वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो श्वासोच्छ्वाससे रहित ही हो गयी हों। अर्थात् सेनाओंके बोझसे दबकर मानो मर ही गयी हों ॥२१॥ जो पहले कभी सुननेमें नहीं आया था और जिसकी प्रतिध्वनि उठ रही थी ऐसा सेनाका कलकल शब्द सुनकर वनमें रहनेवाले पश बहत ही भयभीत और दु:खी हो गये थे ।।२२॥ जो अपने शरीरकी अपेक्षा ऐरावत हाथीके समान था, जिसके समस्त अंगोपांगोंका विभाग ठीक-ठीक हुआ था, और जो मधुर गर्जना कर रहा था ऐसा कोई सफेद रंगका हाथी सेनाके क्षोभसे वनके भीतरसे निकलता हुआ बहुत ही अच्छा मुशोभित हो रहा था ।।२३।। मेरे मनमें कुछ भी भय नहीं है जिसकी इच्छा हो सो देख ले इस प्रकार दिखलाता हुआ ही मानो कोई सिंह जागकर जमुहाई लेता हुआ मुँह खोल रहा था ।।२०।। अमापद बड़े वेगसे ऊपरकी ओर उछलकर ऊपरकी ओर मुंह करके नीचे पड़ गया था परन्तु बनानेवाले (नामकर्म) को चतुराईसे पीठपर-के पैरोंसे ठीक-ठीक आ खड़ा हुआ था-उसे कोई चोट नहीं आयी थी ॥२५॥ जो पत्थरसे अपने कन्धे घिस रहा है, जिसके नेत्र क्रोधित होनेसे कुछ-कुछ लाल हो रहे हैं और जो खुरोंसे पृथिवी खोद रहा है ऐसा एक निर्भय भैंसा सेनाके लोगोंने देखा था॥२६॥ सेनाके शब्द सुननेसे जिनके भय उत्पन्न हो रहा है ऐसे छोटे-छोटे पशु प्रलयकालके समान विजया पर्वतकी गुफाओंके मध्य भागका आश्रय ले रहे थे। भावार्थ-जिस प्रकार प्रलयकालके समय जीव विजयार्धकी गुफाओं में जा छिपते हैं उसी प्रकार उस समय भी अनेक जीव सेनाके शब्दोंसे डरकर विजयार्धको गुफाओंमें जा छिपे थे ॥२७॥ जिनके पीछे-पीछे बच्चे दौड़ रहे हैं और जिनका शरीर कप रहा है ऐसे डरे हए हरिण चारों ओर भाग रहे थे तथा वे उस समय ऐसे मालूम होते थे मानो भयरूपी रससे सींचे ही गये हों ॥२८॥ सेनाके क्षोभसे जिन्होंने जलसे भरे हुए छोटे-छोटे तालाब (तलैया) छोड़ दिये हैं और जिनके झुण्ड बिखर गये हैं ऐसे सूअर अपने उत्तम आहार में प्रेम छोड़कर इधर-उधर घुस रहे थे ॥२९॥ कितने ही अन्य हाथी भयसे भागकर वृक्षोंसे ढकी हुई जगहमें छिपकर जा खड़े हुए थे और हरिण सिंहोंकी गुफाओं १ अधिकम् । २ तत्र सुः । ३ धवल: । ४ रेजे । ५ शोभनवनिः । ६ मुम्यक्तावयवः । ७ देवगणः । ८ विवृत. मकरोत् । ९ पृष्ठवत्तिभिः । १. निर्माणकम अथवा विधिः । ११. पापाणो ल०। १२ रोपेणारुणीकृतः । १३ निर्भीतिः । १४ सेनाध्वन्याकर्णनाज्जात । १५ प्रलयकाले यथा । १६ अनुगताः । १७ कम्पमानशरीराः । १८ उत्कृष्टाहारप्रोतिम् । १९ त्यक्तवेशन्ताः । २० नश्यन्ति स्म । विविशुः ल० । २१ विप्रकीर्णवृन्दाः । २२ वृक्षविशेषाच्छादनाः सन्तः । २३ सिंहः।' Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तमं पर्व इति सत्या वनस्येव प्रागाः प्रचलिता भृशम् । प्रत्यापत्ति चिरादीयुः सैन्यक्षोभे प्रसेदुषि'॥३१॥ प्रयायानुवनं किंचिदन्तरं तदनन्तरम् । रूप्यामध्यमं कूटं संनिकृष्य स्थितं बलम् ॥३२॥ ततस्तस्मिन् बने मन्दं मरुतां दोलितद्रुमे । नृपाज्ञया बलाध्यक्षाः स्कन्धावारं न्यवेशयन् ॥३३॥ स्वैरं जगृहुरावासान् सैनिकाः सानुमत्तटे । स्वयं गलत्प्रसूनौघ घनशाखि घने वने ॥३४॥ सरस्तीरतरूपान्तलतामण्डपगोचराः । रम्या बभूवुरावासाः सैनिकानामयत्नतः ॥३५॥ वनप्रवेशमुन्मुग्धाः प्राहुर्वैराग्यकारणम् । तत्प्रवेशो १ यतस्तेषामभवद् रागवृद्धये ॥३६॥ अथ तत्र कृतावासं ज्ञात्वा सनियमं प्रभुम् । अगान्मागधवत् द्रष्टुं विजयाधिपः सुरः ॥३७॥ तिरीटशिखरोदनो लम्बप्रालम्बनिझर.११ । स भास्वत्कटको रेजे राजताद्विरिवापरः ॥३८॥ सितांशुकधरः स्रग्वी हरिचन्दनचर्चितः । स वभौ धृतरत्ना? निधिः शङ्ख इवोच्छ्रितः ॥३६॥ ससंभ्रमं च सोऽभ्येत्य प्रहृतामगमत्प्रभोः । ससत्कारं च तं चक्री भद्रासनमलम्भयत् ॥४०॥ के भीतर ही जा ठहरे थे ॥३०॥ इस प्रकार वनके प्राणोंके समान अत्यन्त चंचल हुए प्राणी सेनाका क्षोभ शान्त होनेपर बहुत देरमें अपने-अपने स्थानोंपर वापस लौटे ॥३१॥ तदनन्तर वह सेना वन ही वन कुछ दूर जाकर विजयार्ध पर्वतके पाँचवें कूटके समीप पहुँचकर ठहर गयी ॥३२॥ सेनाके ठहरनेपर सेनापतियोंने महाराजकी आज्ञासे, जिसके वृक्ष मन्द-मन्द वायुसे हिल रहे थे ऐसे उस वनमें सेनाके डेरे लगवा दिये थे ॥३३॥ जिसमें अपने आप फूलोंके समूह गिर रहे हैं और जो घने-घने लगे हुए वृक्षोंसे सघन हैं ऐसे विजयार्ध पर्वतके किनारेके वनमें सैनिक लोगोंने अपने इच्छानुसार डेरे ले लिये थे ॥३४॥ सरोवरोंके किनारेके वृक्षोंके समीप ही जो लतागृहोंके स्थान थे वे बिना प्रयत्न किये हो सेनाके लोगोंके मनोहर डेरे हो गये थे ।।३५॥ 'वनमें प्रवेश करना वैराग्यका कारण है, ऐसा मूर्ख मनुष्य ही कहते हैं क्योंकि उस वन में प्रवेश करना उन सैनिकोंकी रागवृद्धिका कारण हो रहा था। भावार्थ-वनमें जानेसे सेनाके लोगोंका राग बढ़ रहा था इसलिए वनमें जाना वैराग्यका कारण है ऐसा कहनेवाले पुरुष मूर्ख ही हैं ।।३६।। अथानन्तर-महाराज भरतको वहाँ नियमानुसार ठहरा हुआ जानकर विजयार्घ पर्वतका स्वामी विजयार्ध नामका देव मागध देवके समान भरतके दर्शन करनेके लिए आया ॥३७।। उस समय वह देव किसी दूसरे विजयाध पर्वतके समान सुशोभित हो रहा था, क्योंकि जिस प्रकार विजयार्ध पर्वत शिखरसे ऊँचा है उसी प्रकार वह देव भी मुकुटरूपी शिखरसे ऊंचा था, जिस प्रकार विजयार्ध पर्वतपर झरने झरते हैं उसी प्रकार उस देवके गलेमें भी झरनोंके समान हार लटक रहे थे और जिस प्रकार विजयार्ध पर्वतका कटक अर्थात् मध्यभाग देदीप्यमान है उसी प्रकार उसका कटक अर्थात् हाथोंका कड़ा भी देदीप्यमान था ।।३८॥ जो सफेद वस्त्र धारण किये हुए है, मालाएँ पहने है, जिसके शरीरपर सफेद चन्दन लगा हुआ है और जो रत्नोंका अर्घ धारण कर रहा है ऐसा वह देव खड़ी की हई शंख नामक निधिके समान सुशोभित हो रहा था ॥३९।। उस देवने बड़ी शीघ्रताके साथ आकर चक्रवर्तीको नमस्कार किया और १ पुनस्तत्प्राप्ति पूर्वस्थितिमित्यर्थः । २ जग्मुः । ३ प्रशान्ते सति । ४ गत्वा । ५ रोप्याद्रेः प०, द०, ल० । रूपाद्रेः अ०, स०, द०। ६ समीपं गत्वा । ७ अद्रिसानौ । ८ 'निषु निमित्तसमारोहपरिणाघनोद्घनाघनोपघ्ननिघोग्यसंघामूर्त्यत्यादानाङ्गासन्ननिमित्तप्रशस्तगणा' इति सूत्रेण निमित्तार्थ्यनिघशब्दो निपातितः निमित्तशब्दः समारोहपरिणाहे वर्तते ऊर्ध्व विशालतायां वर्तते इत्यर्थः । समारोहपरिणाह 'परिणाहो विशालता' उत्सेधः विशाल: इत्यर्थः । अस्मिन्नर्थे घनोद्धनापघनोपध्ननिघद्वसंघामूर्त्यत्यादानाङ्गासन्ननिमित्त प्रशस्तगणा इति निपातनात् सिद्धिः । ९ जडाः । १० यस्मात् कारणात् । ११ ऋजुलम्बिहारः । १२ करवलय. एव सानु । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् गोपायिताऽहमस्यादेमध्यम कुटमावसन् । स्वैरचारी चिरादद्य त्वयाऽस्मि परवान् विभो ॥४१॥ विद्धि मां विजया ख्यममुं च गिरिमूर्जितम् । अन्योऽन्य संश्रयादावानलंघ्यावचलस्थिती ॥४२॥ देव दिग्विजयस्याई विभजन्नेष सानुमान् । विजयाईश्रुतिं धत्ते तास्थ्यात् तद्ढयो वयम् ॥४३॥ आयुप्मन्युप्मदीयाज्ञां मूर्ना स्रजमिवोद्वहन् । पदातिनिर्विशेषोऽस्मि विज्ञाप्यं किमतः परम् ॥४४॥ इति ब्रुवंस्तथोत्थाय शिवस्तीर्थाम्बुभिः प्रभुम् । सोऽभ्यविञ्चत सुरः सार्धं स्वं नियोगं निवेदयन् ॥४५॥ तदा प्रणेदुरामन्द्रमानकाः पथि वार्मुचाम् । विचेरुर्मरुतो मन्दमाधूतवनवीथयः ॥४६॥ ननृतुः सुरनर्तक्यः सलीलानर्तितध्रुवः । जगुश्च मङ्गलान्यस्य जयशंसीनि किन्नराः ॥४७॥ कृताभिषेकमेनं च शुभ्रनेपथ्यधारिणम् । युयोज रत्नलाभेन लम्भयन् स जयाशिषः ॥४८॥ - स तस्मै रत्नभृङ्गारं सितमातपवारणम् । प्रकीर्णक युगं दिव्यं ददौ च हरिविष्टरम् ॥४९॥ इति प्रसाधितस्तेन वचोभिः सानुवर्तनैः । प्रसादतरला दृष्टिं तत्र व्यापारयत् प्रभुः ॥५०॥ विसर्जितश्च सानुशं प्रभुणा कृतसक्रियः । भृत्यत्वं प्रतिपद्यास्य स्वमोकः प्रत्यगात् सुरः ॥५१॥ विजयाद्ध जिते कृत्स्नं जितं दक्षिणभारतम् । मन्वानो निधिराट् तच्च चक्ररलमपूजयत् ॥५२॥ चक्रवर्तीने भी उसे सत्कारपूर्वक उत्तम आसनपर बैठाया ॥४०॥ भरतसे उस देवने कहा कि मैं इस पर्वतका रक्षक हूँ और इस पर्वतके बीचके शिखरपर रहता हूँ। हे प्रभो, मैं आजतक अपनी इच्छानुसार रहता था-स्वतन्त्र था परन्तु आज बहुत दिनमें आपके अधीन हुआ हूँ ॥४१।। मुझे तथा इस ऊँचे पर्वतको आप विजयार्ध जानिए अर्थात् हम दोनोंका नाम विजयार्ध है और हम दोनों ही परस्पर एक दूसरेके आश्रयसे अलंघ्य तथा निश्चल स्थितिसे युक्त हैं ॥४२॥ हे देव, यह पर्वत दिग्विजयका आधा-आधा विभाग करता है इसलिए ही यह विजया नामको धारण करता है और उसपर रहनेसे मेरा भी विजया नाम रूढ़ हो गया है ।।४३॥ हे आयुष्मन्, मैं आपकी आज्ञाको मालाके समान मस्तकपर धारण करता हूँ और आपके पैदल चलनेवाले एक सैनिकके समान ही हैं, इसके सिवाय मैं और क्या प्रार्थना करूँ? ||४४।। इस प्रकार कहता हुआ और 'दिग्विजय करनेवाले चक्रवतियोंका अभिषेक करना मेरा काम है' इस तरह अपने नियोगको सूचना करता हुआ वह देव उठा और अनेक देवोंके साथ-साथ कल्याण करनेवाले तीर्थजलसे सम्राट भरतका अभिषेक करने लगा ॥४५॥ उस समय आकाशमें गम्भीर शब्द करते हुए नगाड़े बज रहे थे और वन-गलियोंको कम्पित करता हुआ वायु धीरे-धीरे बह रहा था ॥४६॥ लीलापूर्वक भौंहोको नचाती हुई नृत्य करनेवाली देवांगनाएँ नृत्य कर रही थीं और किन्नर देव भरतकी विजयको सूचित करनेवाले मंगलगीत गा रहे थे ॥४७।। तदनन्तर जिनका अभिषेक किया जा चुका है और जो सफेद वस्त्र धारण किये हुए हैं ऐसे भरतको विजय करनेवाला आशीर्वाद देते हए उस देवने अनेक रत्नोंकी प्राप्तिसे युक्त किया अर्थात् अनेक रत्न भेंट किये ॥४८॥ उस देवने उनके लिए रत्नोंका भुंगार, सफेद छत्र, दो चमर और एक दिव्य सिंहासन भी भेंट किया था ॥४९।। इस प्रकार ऊपर लिखे हुए सत्कारसे तथा विनयसहित वचनोंसे प्रसन्न हुए भरतने उस देवपर प्रसन्नतासे चंचल हुई अपनी दृष्टि डाली ॥५०॥ अनन्तर भरतने जिसका आदर-सत्कार किया है और 'जाओ' इस प्रकार आज्ञा देकर जिसेबिदा किया है ऐसा वह विजया देव उनका दासपना स्वीकार कर अपने स्थानपर वापस चला गया ।॥५१॥ विजयार्ध पर्वतके जीत लेनेपर समस्त दक्षिण भारत जीत लिया गया १ रक्षिता । २ नाथवान् परवश इत्यर्थः । 'परवान्नाथवानपि' इत्यभिधानात् । ३ परस्परमाधाराधेयरूपसंश्रयात् । ४ तस्मिन् तिष्ठति इति तत्स्थः तस्य भावः तात्स्थ्यम् तस्मात् । ५ विजयार्द्ध इति रूढयः । ६ पत्तिसदृशः । ७ मङ्गलैः । ८ विजयार्द्धकुमारः । ९ चामरयुगलम् । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ एकत्रिंशत्तमं पर्व गन्धैः पुप्पैश्च धूपैश्च दोपैश्च सजलाक्षतैः । फलैश्च चरुभिर्दिव्यैश्चक्रेज्यां निरवर्तयत् ॥५३॥ विजया जयेऽप्यासीदमन्दोऽस्य जयोद्यमः । उत्तरार्धजथाशंसा प्रत्यागूर्णस्य चक्रिणः ॥५४॥ ततः प्रतीपमागत्य रूप्याद्रेः पश्चिमां गुहाम् । निकषा वनमारुध्य बलैरीशो न्यविक्षत ॥५५॥ दक्षिणेन तमद्रीन्द्र मध्ये वेदिकयोर्द्वयोः । बलं निविविशे भर्तुः सिन्धोस्तटवनाद् बहिः ॥५६॥ भूयो द्रष्टव्यमत्रास्ति बह्वाश्चर्ये धराधरे । इति तत्र चिरावासं बहु मेने किलाधिराट् ॥५७॥ चिरासनेऽपि तत्रास्य नासीत् स्वल्पोऽप्युपक्षयः । "प्रत्युतापूर्वलाभेन प्रभुरापूर्यताब्धिवत् ॥५८॥ कृतासनं च तत्रैनं श्रुत्वा द्रष्टुमुपागमन् । पार्थिवाः पृथिवीमध्यात् मध्ये' नद्योर्द्वयोः स्थितः ॥५९॥ दूरानत चलन्मौलिसंदष्टकरकुटमलाः। प्रणमन्तः स्फुटीचक्रः प्रभौ भक्ति महीभुजः ॥६०॥ कुमागरुं कर्पूरसुवर्णमणिमौक्तिकैः । रतैरन्यैश्च रत्नेशं भक्त्यानचुनृपाः परम् ॥६१॥ विश्वगापूर्यमाणस्य रैराशिभिरनारतम् । कोश प्रावेशरत्नानामियत्तां कोऽस्य निणयेत् ॥६२॥ देशाध्यक्षा बलाध्यक्षैबलं सुकृतरक्षणम् । यवसेन्धन संधानैस्तदोपजगृहुश्विरम् ॥६३॥ उत्तरार्द्धजयोद्योगं प्रभोः श्रुत्वा तदागमन् । पार्थिवाः कुरुराजाद्याः समग्रबलवाहनाः ॥६४॥ ऐसा मानते हुए चक्रवर्तीने चक्ररत्नकी पूजा की ॥५२।। उन्होंने चक्ररत्नकी पूजा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, जल, अक्षत, फल और दिव्य नैवेद्यके द्वारा की थी ॥५३॥ विजयाध पर्वत तक विजय कर लेनेपर भी उत्तरार्धको जीतने की आशासे उद्यत हए चक्रवर्तीका विजयका उद्योग शिथिल नहीं हुआ था ॥५४॥ तदनन्तर-वह भरत कुछ पीछे लौटकर विजयाध पर्वतकी पश्चिम गुहाके समीपवर्ती वनको अपनी सेवाके द्वारा घेरकर ठहर गया ॥५५॥ विजायार्ध पर्वतके दक्षिणकी ओर पर्वत तथा वन दोनोंकी वेदियोंके बीच में सिन्धु नदीके किनारेके वनके बाहर भरतकी सेना ठहरी थी ॥५६॥ अनेक आश्चर्यो से भरे हुए इस पर्वतपर बहुत कुछ देखने योग्य है यही समझकर चक्रवर्तीने वहाँ बहुत दिन तक रहना अच्छा माना था ।।५७।। वहाँपर बहुत दिनतक रहनेपर भी भरतका थोड़ा भी खर्च नहीं हुआ था, बल्कि अपूर्व-अपूर्व वस्तुओंके लाभ होनेसे वह समुद्रके समान भर गया था ॥५८॥ भरतको वहाँ रहता हुआ सुनकर गंगा और सिन्धु दोनों नदियोंके बीचमें रहनेवाले अनेक राजा लोग अपनी-अपनी पृथ्वीसे उनके दर्शन करनेके लिए आये थे ।।५९।। दूरसे झुके हुए चंचल मुकुटोंपर जिन्होंने अपने हाथ जोड़कर रखे हैं ऐसे नमस्कार करते हुए राजा लोग महाराज भरतमें अपनी भक्ति प्रकट कर रहे थे ॥६०। उन राजाओंने केशर, अगुरु, कपूर, सुवर्ण, मोती, रत्न तथा और भी अनेक वस्तुओंसे भक्तिपूर्वक चक्रवर्तीका उत्तम सन्मान किया था ॥६१॥ धनकी राशियोंसे निरन्तर चारों ओरसे भरते हुए भरतके खजाने में प्रविष्ट हुए रत्नोंकी मर्यादा ( संख्या ) का भला कौन निर्णय कर सकता था ? भावार्थ-उसके खजानेमें इतने अधिक रत्न इकटे हो गये थे कि उनकी गणना करना कठिन था ॥६२॥ उस समय समीपवर्ती देशोंके राजाओंने, सेनापतियोंके द्वारा जिसकी अच्छी तरह रक्षा की गयी है ऐसी भरतकी सेनाको चिरकाल तक भूसा, ईधन आदि वस्तुएं देकर उपकृत किया था ॥६३॥ महाराज भरत विजयार्ध पर्वतसे उत्तर भागको जीतनेका उद्योग कर रहे हैं यह सुनकर कुरु देशके राजा जयकुमार १ इच्छामुद्दिश्य । २ उद्यतस्य । ३ पश्चिमदिशम् । ४ रोप्याद्रप० । रूप्याद्रः अ०, स०, इ० । ५ वनस्य समीपम् । ६ तस्य अद्रीन्द्रस्य दक्षिणस्यां दिशि । ७ पर्वतवेदिकावनवेदिकयोः । ८ बहुकालनिवसने सत्यपि । ९ धनव्ययः । १० पुनः किमिति चेत् । ११ गङ्गासिन्धुनदीमध्यात् । १२ कुड्मलाः द०, ल०, अ०, स०, इ०। १३ कालागुरु 'कालागुर्वगुरुः स्याद्' इत्यमरः । १४ भाण्डागारप्रवेशयोग्य । १५ तृण । १६ उपकार चक्रुः । १७ सोमप्रभपुत्राद्याः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आदिपुराणम् आहूताः केचिदाजग्मुः प्रभुणा मण्डलाधिपाः । अनाहूताश्च संभेजुर्विभुं चारभटाः परे ॥६५॥ विदेशः किल यातव्यो जेतव्या म्लेच्छभूमिपाः । इति संचिन्त्य सामन्तैः प्रायः सज्ज धनुर्बलम् ॥६६॥ धन्धिनः शरनाराचसंभृतेषुधिबन्धनैः । न्यवेदयन्निवात्मानमृणदासमधीशिनाम् ॥६७॥ धनुर्धरा धनुः सज्ज्यमा स्फाल्य चकृपुः परे । चिकीर्षव इवारीणां जीवाकर्ष सहुंकृताः ॥६८॥ करवालान् करे कृत्वा तुलयन्ति स्म केचन । स्वामिसत्कारभारेण नूनं तान् प्रमिमित्सवः ॥६९॥ 'संवर्मिता भृशं रेजुर्भटाः प्रोल्लासितासयः" । निर्मोकैरिव "विश्लिष्टैः ललजिह्वामहाहयः ॥७०॥ साटोपं स्फुटिताः केचिद् वल्गन्ति स्माभितो भटाः । अस्युद्यताः" पुरोऽरातीन् पश्यन्त इव संमुखम्॥ "अस्वैय॑स्त्रैश्च शस्त्रैश्च शिरस्त्रैः सतनुत्रकैः । दधुर्जयनशालाना" लीलां रथ्याः सुसंभृता ॥७२॥ रथिनो रथकट्यासु गु/रायुधसंपदः । समारोप्यापि पत्तिभ्यो भेजुरेवातिगौरवम् ॥७३॥ तथा और भी अनेक राजा लोग अपनी समस्त सेना और सवारियां लेकर उसी समय आ पहुँचे ॥६४॥ कितने ही मण्डलेश्वर राजा भरतके बुलाये हुए आये थे और कितने ही शूर वीर लोग बिना बुलाये ही उनके समीप आ उपस्थित हुए थे ॥६५॥ अब विदेशमें जाना है और म्लेच्छ राजाओंको जीतना है यही विचार कर सामन्तोंने प्रायः धनुष-बाणको धारण करने वाली सेना तैयार की थी ॥६६॥ धनुष धारण करनेवाले योद्धा छोटे-बड़े बाणोंसे भरे हए तरकसोंके बाँधनेसे ऐसे जान पड़ते थे मानो वे अपने स्वामियोंसे यही कह रहे हों कि हम लोग आपके ऋणके दास हैं अर्थात् आज तक आप लोगोंने जो हमारा भरण-पोषण किया है उसके बदले हम लोग आपकी सेवा करनेके लिए तत्पर हैं ॥६७॥ हुंकार शब्द करते हुए कितने हो धनुषधारी लोग अपने डोरीसहित धनुषको आस्फालन कर खींच रहे थे और उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शत्रुओंके जीवोंको ही खींचना चाहते हों ।।६८॥ कितने ही योद्धा लोग हाथमें तलवार लेकर उसे तोल रहे थे मानो स्वामीसे प्राप्त हुए सत्कारके भारके साथ उसका प्रमाण ही करना चाहते हों ॥६९।। जो कवच धारण किये हुए हैं और जिनकी तलवारें चमक रही हैं ऐसे कितने ही योद्धा इतने अच्छे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनकी काँचली कुछ ढीली हो गयी है और जीभ बार-बार बाहर लपक रही है ऐसे बड़े-बड़े सर्प ही हों ॥७०॥ कितने ही योद्धा अभिमानसहित हाथमें तलवार उठाये और गर्जना करते हुए चारों ओर इस प्रकार घूम रहे थे मानो शत्रुओंको अपने सामने ही देख रहे हों ॥७१॥ आग्नेय बाण आदि अस्त्र, महास्तम्भ आदि व्यस्त्र, तलवार धनुष आदि शस्त्र, शिरकी रक्षा करनेवाले लोहके टोप और कवच आदिसे भरे हुए रथोंके समूह ठोक आयुधशालाओंकी शोभा धारण कर रहे थे ॥७२।। रथोंमें सवार होनेवाले योद्धा यद्यपि भारी-भारी शस्त्रोंको रथोंपर रखकर जा रहे थे तथापि १ वीरभटाः । 'शूरवीरश्च विक्रान्तो भरश्चारभटो मतः' इति हलायुधः । २ नानादेशः । ३ भूभुजः म०, द०, अ०, ५०, स०, ल०, इ० । ४ सन्नद्धीकृतम् । ५ ज्यासहितम् । ६ आताड्य, टणत्कारं कृत्वा। स्फाल्या चकृपुः ब०, द०, अ०, म०, प०, स०, ल०, इ०। ७ आकर्षयन्ति स्म । ८ भारेण सह । ९.प्रमातुमिच्छवः । १० धृतकवचाः। ११ प्रकर्षेणोल्लासितखड्गाः। १२ शिथिलैः । १३ चलत् । १४ आस्फालिते भुजाः । १५ खड्गे उद्युक्ताः । १६ शत्रून् प्रत्यक्षमालोकयन्निव । १७ दिव्यायुधैः । १८ गरलगुडाद्यायुधः । १९ सामान्यायुधैः । २० शीपकः । २१ शस्त्रशालानाम् । २२ वीथ्याः । २३ रथिकाः । २४ रथसमहेषु । २५ अतिश्लाचनम् । अति भारयुक्तमिति ध्वनिः, अत्यर्थ वेगं गता इत्यर्थः । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तमं पर्व १०३ हस्तिनां पदरक्षायै सुमभ योजिता नृपैः । राजन्यैः सह युवानः कृताश्चाभिनिषादिनः ॥७॥ प्रवीरा राजयुवानः क्लुप्ताः पत्तिषु नायकाः। अश्वीय' च समन्नाहाः सोत्तरङ्गा स्तुरंगिणः ॥७५॥ आरचय्य बल. के स्वानीक्षांचक्रिरे नृपाः । दण्डमगदुलभोगासंहृतव्यूहः सुयोजितैः ॥७६॥ चक्रिणो वसरः कोऽस्य योऽस्माभिः साध्यतेऽल्पकः । भक्तिरेषा तु नः काले प्रभोर्यदनुसर्पणम् ॥७॥ प्रभोरवसरः सार्यः प्रसायं नो यशोधनम् । विरोधिवलमुन्सा संधार्य पुरुपव्रतम् ॥७८॥ दृष्टव्या विविधा देशा लब्धव्याश्च जयाशिषः । इत्युदाचक्रिरे ऽन्योन्यं भटाः श्लाध्यरुदाहृतैः ॥७९॥ गिरिदुर्गोऽयमुल्लायो महत्यः सरितोऽन्तरा। इत्यपायक्षिणः केचिदयानं 'बहु मनिरं ॥८॥ इति नानाविधैर्भावैः संजल्पैश्च लघुन्थिताः । प्रस्थिताः मनिकाः प्रापन् संश्वराः शिबिरं प्रभोः॥८॥ वे पैदल चलनेवाले सैनिकोंकी अपेक्षा अधिक गौरव अर्थात् भारीपन ( पक्षमें श्रेष्ठता ) को प्राप्त हो रहे थे। भावार्थ-पैदल चलनेवाले सैनिक अपने शस्त्र कन्धेपर रखकर जा रहे थे और रथोंपर सवार होनेवाले सैनिक अपने सब शस्त्र रथोंपर रखकर जा रहे थे तो भी वे पैदल चलनेवालोंकी अपेक्षा अधिक भारी हो रहे थे यह बड़े आश्चर्यकी बात है परन्तु अति गौरव शब्दका अर्थ अतिशय श्रेष्ठता लेनेपर वह आश्चर्य दूर हो जाता है। पैदल सैनिकोंकी अपेक्षा रथपर सवार होनेवाले सैनिक श्रेष्ठ होते ही हैं ।।७३।। राजाओंने हाथियोंके पैरोंकी रक्षा करनेके लिए जिन शूरवीर योद्धाओंको नियुक्त किया था वे अनेक राजाओंके साथ युद्ध करते थे और उन हाथियोंके चारों ओर विद्यमान रहते थे अथवा समयपर महावत भी बनाये जाते थे ॥७४॥ जो राजाओंके साथ भी युद्ध करनेवाले थे ऐसे श्रेष्ठ शूरवीर पैदल सेनाके सेनापति बनाये गये और जो घुड़सवार कवच पहने हुए तथा लहराते हुए नदीके प्रवाहके समान थे उन्हें घुड़सवार सेनाका सेनापति बनाया था ॥७५।। कितने ही राजा लोग अच्छी तरह योजित किये हुए दण्डव्यूह, मण्डलव्यूह, भोगव्यूह और असंहृतव्यूहसे अपनी सेनाकी रचना कर उसे देख रहे थे ॥७६।। इस चक्रवर्तीका ऐसा कौन-सा कार्य है जिसका हुम तुच्छ लोग स्मरण भी कर सकते हों अर्थात् कार्य का सिद्ध करना तो दूर रहा उसका स्मरण भी नहीं कर सकते, फिर भी हम लोग जो स्वामीके पीछे-पीछे चल रहे हैं सो यह हम लोगोंकी इस समयपर होने वाली भक्ति ही है। हम लोगोंको स्वामीका कार्य सिद्ध करना चाहिए, अपना यशरूपी धन फैलाना चाहिए, शत्रुओंकी सेना दूर हटानी चाहिए, पुरुषार्थ धारण करना चाहिए, अनेक देश देखने चाहिए और विजयके अनेक आशीर्वाद प्राप्त करने चाहिए, इस प्रकार प्रशंसनीय उदाहरणोंके द्वारा योद्धा लोग परस्परमें बातचीत कर रहे थे ॥७७-७९॥ यह दुर्गम पर्वत उल्लंघन करना है और बीचमें बड़ी-बड़ी नदियाँ पार करनी हैं इस प्रकार अनेक विघ्न-बाधाओंका विचार करते हुए कितने ही लोग आगे नहीं जाना ही अच्छा समझते थे ।।८।। इस प्रकार अनेक प्रकारके भावों और परस्परकी बातचीतके साथ जल्दी उठकर 'जिन्होंने प्रस्थान किया है ऐसे सैनिक लोग अपने-अपने स्वामियोंसहित चक्रवर्तीके शिविरमें जा पहुँचे ॥८१।। १ अश्वसमूहे । २ सकवचाः । ३ मिसमानाः । ४ दण्डादीनि चत्वारि व्यूहभेदनामानि । अत्राभिधानम्'तिर्यग्वृत्तिस्तु दण्डः स्याद् भोगोऽन्यावृत्तिरेव च । मण्डलं सर्वतो वृत्तिः प्रागवृत्तिरसंहृतः'। ५ समयः । ६ स्मर्यते ८०, ल०, अ०, प०, ह०, स० । ७ अनुवर्तनम् । ८ प्रापणीयः । ९ ऊचिरे । १० मध्ये मध्ये । ११ वाहनरहितत्वम् अथवा अगमनम् । १२ निजस्वामिसहिताः । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आदिपुराणम् प्रचेलुः सर्वसामग्रथा नृपाः संभृतकोष्टिकाः । प्रभोश्चिरं जयोद्योगमाकलय्याहिमाचलम् ॥८२॥ भटैर्लाकुटिकैः केचिद्धता लालाटिकैः परे । नृपाः पश्चास्कृतानीका विमोनिकटमाययुः ॥८३॥ समन्तादिति सामन्तैरापतद्भिः संसाधनैः । समिद्धशासनश्चक्री समेत्य जयकारितः ॥८४॥ सामवायिक सामन्तसमाजैरिति सर्वतः । सरिदोधैरिवाम्भोधिरापूर्यत विभोर्बलम् ॥८५॥ सवनः सावनिः सोऽद्रिः परितो रुरुधे बलैः । जिनजन्मोत्सवे मेरुरनीकैरिव नाकिनाम् ॥८६॥ विजया चलप्रस्था विभोरध्यासिता बलैः । स्वर्गावासश्रियं तेनुविभक्तपमन्दिरैः'' ॥८॥ प्रश्वेलित रथं विष्वक् प्रहेषिततुरंगमम् । प्रबृहितगजं सैन्यं ध्वनिसादकरोद् गिरिम् ॥८८॥ बलध्वानं गुहारन्धैः प्रतिश्रुद्धत मुद्वहन् । सोऽद्विरुद्रिततद्रोधो" ध्रुवं फूत्कारमातनोत् ॥८९॥ अत्रान्तरे ज्वलन्मौलिप्रभापिञ्जरिताम्बरः । ददृशे प्रभुणा ब्योम्नि गिरेरवतरत् सुरः ॥१०॥ स ततोऽवतरन्नद्रेर्बभौ "सानुचरोऽमरः । सवनः” कल्पशाखीव लसदाभरणांशुकः ॥११॥ भरतेश्वरका हिमवान् पर्वत तक विजय प्राप्त करनेका उद्योग बहुत समयमें पूर्ण होगा ऐसा समझकर राजा लोग सब प्रकारकी सामग्रीसे कोठे भर-भरकर निकले ॥८२।। कितने ही राजा लाठी धारण करनेवाले योद्धाओंके साथ, और कितने ही ललाटकी. ओर देखनेवाले उत्तम सेवकोंके साथ, अपनी सेना पीछे छोड़कर भरतके निकट आये ।।८३॥ इस प्रकार अपनीअपनी सेना सहित चारों ओरसे आते हुए अनेक सामन्तोंने एक जगह इकट्ठे होकर, जिनकी आज्ञा सब जगह देदीप्यमान है ऐसे चक्रवर्तीका जय-जयकर किया ॥८४॥ जिस प्रकार नदियोंके समूहसे समुद्र भर जाता है उसी प्रकार सहायता देनेवाले सामन्तोंके समूहसे भरतकी सेना सभी ओरसे भर गयी थी ॥८५।। जिस प्रकार भगवान्के जन्म-कल्याणके समय वन और भूमि सहित सुमेरु पर्वत देवोंकी सेनाओंसे भर जाता है उसी प्रकार वह विजयार्ध पर्वत भी वन और भूमिसहित चारों ओरसे सेनाओंसे भर गया था ॥८६।। भरतकी सेनाओंसे अघिष्ठित हुए विजयाध पर्वतके शिखर अलग-अलग तने हुए राजमण्डपोंसे स्वर्गकी शोभा धारण कर रहे थे ॥८७॥ जिसमें चारों ओरसे रथ चल रहे हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं और हाथी गरज रहे हैं ऐसी उस सेनाने उस विजयार्ध पर्वतको एक शब्दोंके ही अधीन कर दिया था अर्थात् शब्दमय बना दिया था ॥८८॥ गुफाओंके छिद्रोंसे जिसकी प्रतिध्वनि निकल रही है ऐसे सेनाके शब्दोंको धारण करता हुआ वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो सेनासे घिर जानेके कारण फू फू शब्द ही कर रहा हो अर्थात् रो ही रहा हो । ८९।। ... इसी बीचमें भरतने, देदीप्यमान मुकुटकी कान्तिसे जिसने आकाशको भी पीला कर दिया है और जो पर्वतपर-से नीचे उतर रहा है ऐसा एक देव आकाशमें देखा ॥९०॥ जिसके आभूषण तथा वस्त्र देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा वह देव अपने सेवकोंसहित उस पर्वतसे उतरता हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो जिसके आभूषण और वस्त्र देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा वनसहित १ भूपाः ल । २ तण्डुलादिभारवाहकबलीबर्दाः । ३ लकुटम् आयुधं येषां तैः । ४ प्रभो वदशिभिः 'लालाटिकः प्रभोर्भावदर्शी कार्यक्षमश्च यः' इत्यभिधानात् । ५ जयकारं नीतः संजातजयकारो वा जय जयेति स्तुत इति यावत् । ६ मिलित । ७ वनसहितः । ८ अवनिसहितः । ९ सैन्यैः । १० सानवः । ११ मण्डलै: ल। १२ सिंहनादित 'क्ष्वेडा तु सिंहनादः स्यात्' इत्यभिधानात् । १३ शब्दमयमकरोत् । १४ प्रतिध्वनिभूतम् 'सती प्रतिश्रुत्प्रतिध्वाने' इत्यभिधानात् । १५ उत्कटसेनानिरोधः । १६ अनुचरैः सहितः । १७ वनेन सहितः Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ एकत्रिंशत्तम पर्व दिव्यः प्रभान्वयः कोऽपि संमूर्च्छति किमम्बरे । तडित्पुञ्जः किमग्न्यचिरिति दृष्टः क्षणं जनैः ॥१२॥ किमप्येतदधिज्योतिरित्यादावविशेषतः । पश्चादवयवव्यक्त्या प्रव्यक्तपुरुषाकृतिः ॥१३॥ कृतमालश्रुतिव्यक्त्यै कृतमालः स चम्पकैः । कृतमाल इवोत्फुल्लो निदध्ये प्रभुणाऽग्रतः ॥९॥ सप्रणामं च संप्राप्तं तं वीक्ष्य सहसा विभुः । यथाहप्रतिपत्त्याऽस्मा आसनं प्रत्यपादयत् ॥१५॥ प्रभुणाऽनुमतश्चायं कृतासनपरिग्रहः । क्षणं विसिस्मिये पश्यन् धामा मुष्या मानुषम् ॥१६॥ संभाषितश्च संभ्राजा पूर्व' पूर्वार्द्धभाषिणा। सुरः प्रचक्रमे वक्तमिति प्रश्रयवद्वचः ॥९७॥ क्व वयं क्षुद्रका देवाः क्व मवान् दिव्यमानुषः । पौतन्य' 'मुचितं मन्ये वाचाटयति नः स्फुटम् ॥२८॥ आयुष्मन् कुशलं प्रष्टुं जिहीमः शासितुस्तव । स्वदायत्ता यतः कृत्स्ना जगत: कुशलक्रिया ॥१९॥ लोकस्य कुशलाधाने निरूढं यस्य कौशलम् । कुशलं दक्षिणस्याऽस्य बाहोस्ते मां जिगीषतः १०० देवानां प्रिय देवत्वं तवाशेषजगजयात् । नाम्नैव तु वयं देवा जातिमात्रकृतोतयः ॥१०॥ गीर्वाणा वयमन्यत्र जिगीषी शितगीशराः । त्वयि कुण्ठगिरो“जाताः प्रस्खलद्गर्वगद्गदाः १०२ कल्पवृक्ष ही हो ॥९१॥ क्या कोई दिव्य प्रभाका समूह आकाशमें फैल रहा है ? अथवा क्या बिजलीका समूह है ? अथवा क्या अग्निकी ज्वाला है ? इस प्रकार अनेक कल्पनाओंसे लोगोंने जिसे क्षण-भर देखा था जो पहले तो यह कोई कान्तिका समूह है इस प्रकार सामान्य रूपसे देखा गया था, परन्तु बादमें अवयवोंके प्रकट होनेसे जिसका पुरुषका-सा आकार साफसाफ प्रकट हो रहा था, जो अपना कृतमाल नाम प्रकट करनेके लिए चम्पाके फूलोंकी माला पहने हुआ था और जो उससे फूले हुए, कृतमाल वृक्षके समान जान पड़ता था ऐसे उस देवको चक्रवर्ती भरतने अपने सामने खड़ा हुआ देखा ।।९२-९४॥ आनेके साथ ही नमस्कार करते हए उस देवको अकस्मात् अपने सामने देखकर भरतने उसे यथायोग्य सत्कारके साथ आसन दिया ॥९५॥ भरतकी आज्ञासे वह देव आसनपर बैठा और उनके लोकोत्तर तेजको देखता हुआ क्षण-भरके लिए आश्चर्य करने लगा ॥९६॥ प्रथम ही, पहले बोलनेवाले सम्राट भरतने जिसके साथ बातचीत की है ऐसा वह देव नीचे लिखे अनुसार विनयसहित वचन कहने लगा ॥९७।। हे देव, हम क्षुद्र देव कहाँ ? और आप दिव्य मनुष्य कहाँ ? तथापि मैं ऐसा मानता हूँ कि हम लोगोंका यथायोग्य देवपना ही हम लोगोंको स्पष्ट रूपसे वाचालित कर रहा है अर्थात् जबरदस्ती बुलवा रहा है ॥९८॥ हे आयुष्मन्, आप-जैसे शासन करनेवालोंका कुशल-मंगल पूछनेके लिए हम लोग लज्जित हो रहे हैं क्योंकि इस जगत्का सब तरहका कल्याण करना आपके ही अधीन है ॥९९॥ जगत्का कल्याण करनेके लिए जिसकी चतुराई प्रसिद्ध है और जो समस्त पृथिवीको जीतना चाहती है ऐसी आपकी इस दाहिनी भुजाकी कुशलता है न ? ॥१००॥ हे देव, आप देवोंके भी प्रिय हैं, आपने समस्त जगत्को जीत लिया है इसलिए यह देवपना आपके ही योग्य है हम लोग तो अत्यन्त तुच्छ देव हैं-केवल देव जातिमें जन्म होनेसे ही देव कहलाने लगे हैं । यहाँ पर 'देवानां' 'प्रिय' ये दोनों ही पद पृथक्-पृथक् हैं, अथवा ऐसा १ प्रभासंतानः । २ व्याप्नोति । ३ अग्निशिखामतिक्रान्तः । ४ कृतमालनामा । कृतमाल आरग्वधः । 'आरग्वधे राजवृक्षः शम्भाकचतुरंगुलाः । आरेवतव्याधिघातकृतमालसुवर्णकाः ।।' इत्यभिधानात्। ५ दृश्यते स्म। ६प्रापयत । ७ तेजः । ८ चक्रिणः । ९ मानुषमतीतम् । १० संस्कृतभाषिणा । पूर्वाभि-अ०, ५०, स०, द०, ल०। ११ पुतानायाः अपत्यं पौतनः तस्य भावः पोतन्यम् । देवत्वमित्यर्थः । १२ नूनम् । १३ वाचालं करोति । १४ लज्जामहे । १५ यस्मात् कारणात् । १६ क्षेमकरणे । १७ प्रख्यातम् । १८ क्षेमं किम् । १९गीरेव शापानुग्रहसमर्था वाणा: साधनं निग्रहानुग्रहयोरेषामिति गीर्वाणाः देवा इत्यर्थः । २० जिगीषोः त्वत्त: अन्यत्र । २१.शीतशीश्वराः ट० । मन्दानामीश्वरा इत्यर्थः । शीते शेरते एते शीतशयः - तेषामीश्वराः क्रियासु मन्दानामीश्वरा इत्यर्थः । 'मूढाल्पापटुनिर्भाग्याः । मन्दाः स्युः ।' इत्यमरः । २२ मन्दवचसः । नोति । ३ अग्निशिखामतिक्रान्तःवर्णकाः ।' इत्यभिधानात्। य०स०, द०, ल Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् राजोनिस्त्वयि राजेन्द्र राजतेऽनन्यगामिनी । आवण्डमण्डलां कृत्स्ना षटग्वण्डा गां नियच्छति ॥१०३॥ चक्रान्मना ज्वलन्यप प्रतापस्तव दुःसहः । प्रथते दण्डनीतिश्च दण्डरबछलाद विभोः ॥१०४॥ ईशितव्या मही कृत्स्ना स्वतन्त्रस्त्वमसीश्वरः । निधिरवद्धि रैश्वयं कः परस्त्वादृशः प्रभुः ॥१०५॥ भ्रमयंकाकिनी लोकं शश्वकीतिरनर्गला । सरस्वती च वाचाला कथं ते ते प्रिय प्रभोः ॥१०६॥ इति प्रतीतमाहात्म्यं त्वां सभाजयितुं दिवः । त्वलध्वानसंशोभयाध्वमान वयमागताः ॥१०७॥ कृस्था वयमस्याः स्वपदा दविचालिनः। भूमिमंतावती तावत् त्वया देवावतारिताः ॥१०८॥ विष्णकृटान्रावामवासिनी व्यन्तरा वयम् । संविधेयास्त्वये दानी प्रत्यासन्नाः पदातयः ॥१०१॥ विद्धि मां विजयाई मर्मज्ञमभनाशनम् । कृतमालं गिरेरस्य कूटेऽमुष्मिन् कृतालयम् ॥११०॥ मयि रसाकृतीय स्वीकृतोऽयं महाचलः । सगुहाकाननस्यास्य गिरगर्भविदस्म्यहम् ॥१११॥ गर्भज्ञोऽहं गिरस्मीन्यायल्पमिदगुच्यने । द्वीपाब्धिवलये कृस्ने नास्माकं कोऽप्यगोचरः ॥११२॥ अर्थ करना चाहिए कि हे प्रिय, समस्त जगत्को जीतनेसे आप देवोंके भी देव हैं ॥१०१।। हम गीर्वाण हैं और आपके अतिरिक्त विजयकी इच्छा करनेवाले किसी दूसरे पुरुपके विषयमें यद्यपि हम वचनरूपी तीक्ष्ण वाणोंको धारण करते हैं तथापि आपके विषयमें हम लोग कुण्ठितवचन हो रहे हैं, हमारा अहंकार जाता रहा है और हमारे वचन गद्गद स्वरसे निकल रहे हैं ॥१०२।। हे राजेन्द्र, आप छह खण्डोंमें बँटी हुई समस्त प्रदेशसहित इस सम्पूर्ण पृथिवीका शासन करते हैं इसलिए दूसरी जगह नहीं रहनेवाली राजोक्ति आपमें ही सुशोभित हो रही है-आप ही वास्तवमें राजा हैं ॥१०३॥ हे विभो, चक्ररत्नके बहानेसे यह आपका दुःसह प्रताप देदीप्यमान हो रहा है और दण्डरत्नके छलसे आपकी दण्डनीति प्रसिद्ध हो रही है ॥१०४।। यह समस्त पृथिवी आपके अधीन है-पालन करने योग्य है, आप इसके स्वतन्त्र ईश्वर हैं और निधियाँ तथा रत्न ही आपका ऐश्वर्य है इसलिए आपके समान ऐश्वर्यशाली दूसरा कौन है ? ॥१०५।। हे प्रभो, आपकी कीर्ति स्वच्छन्द होकर समस्त लोकमें सदा अकेली फिरा करती है और सरस्वती वाचाल है अर्थात् बहुत बोलनेवाली है फिर भी न जाने ये दोनों ही स्त्रियाँ आपको प्रिय क्यों हैं ? ॥१०६। इस प्रकार जिनका माहात्म्य प्रसिद्ध है ऐसे आपकी सेवा करनेके लिए हम लोग आपकी सेनाके शब्दके क्षोभसे भयभीत हो आकाशसे यहाँ आये हैं ॥१०७॥ हे देव, हम लोग इस पर्वतके शिखरपर रहते हैं और अपने स्थानसे कभी भी विचलित नहीं होते परन्तु इस भूमिपर आपके द्वारा ही अवतारित हुए हैं-उतारे गये हैं ॥१०८॥ हम लोग दूर-दूर तक अनेक स्थानोंमें रहनेवाले व्यन्तर हैं अब आप हम लोगोंको अपने समीप रहनेवाले सेवक बना लीजिए ॥१०९।। आप मुझे इस पर्वतके इस शिखरपर रहनेवाला और विजया पर्वतका मर्म जाननेवाला कृतमाल नामका देव जानिए ॥११०॥ हे देव, आपने मुझे वश कर लिया है इसलिए इस महापर्वतको अपने अधीन हुआ ही समझिए क्योंकि मैं गुफाओं और वनसहित इस पर्वतका समस्त भीतरी हाल जानता हूँ ॥१११।। अथवा मैं 'इस पर्वतका भीतरी हाल जाननेवाला हूँ' यह बहुत ही थोड़ा कहा गया है क्योंकि समस्त द्वीप और समुद्रोंके भीतर ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है जो हम लोगोंका जाना १ राजेति शब्दः । २ शासति । ३ ऐश्वर्यवती भवितुं योग्या। ४ प्रतिबन्धरहिता। ५ कोतिसरस्वत्यौ । ६ प्रियतमे (बभूवतु) । ७ सेवितुम् । ८ स्वस्थानात् । ९ एतावद्भुमिपर्यन्तम् । 'यावत्तावच्च साकल्येऽवधी मानेऽवधारणे' । १० संविधापयितुं योग्याः । ११ त्वदधीने कृते । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तमं पर्व १०७ 3 ११ .13 'वटस्थानवरस्थां' फुटस्थान कोटरोटजान्। अझपाटान् अपाठां विद्धि नः सार्व सर्वगान् ॥ ११३ ॥ इति प्रशान्तमस्विपचः संभाव्य सादरम् । सोऽमरो विर्त तारास्मै भूषणानि चतुर्दश ॥ ११४ ॥ ताम्यनम्योपलभ्यानि प्राप्य चक्री परां मुदम् । भेजे "ताकृतसत्कारैः सुरः सोऽप्याप संमदम् ॥ ११५ ॥ सं रूप्याद्विगुहाहारप्रवेशोपायशंसिनम् । प्रविसज्यं स्वयेनाभ्यं प्राहिणोत् प्रभुरतः ॥ ११६ ॥ त्वमुदाय गुहाद्वारं पावनिर्वाति सा गुहा तावत् पाश्चात्यखण्डस्य निर्जयाय कुरुथमम् ॥ ११७ ॥ इति चक्रधरादेशं मूर्ध्ना माल्यमिवोद्वहन् । कृतमालामरोद्दिष्टकृत्स्नोपायप्रयोगवित् ॥ ११८ ॥ कृती कतिपयैरेष तुरंगैः सपरिच्छदैः । प्रतस्थे वाजिरलेन दण्डपाणिश्चमूपतिः ॥ ११६ ॥ किंचिच्चान्तरमुल्लङ्घय स सिन्धोर्वनवेदिकाम् । विगाह्य विजयार्द्धस्य संप्रापत् तटवेदिकाम् ॥ १२० ॥ तत्सोपानेन रूप्याद्रेरारुह्य जगतीतलम् । प्रत्यङ्मुखो गुहोत्संग माससाद चमूपतिः ॥ १२१ ॥ जया चक्रवर्तीति सोऽश्वरत्नमधिष्टितः । दण्डेाडयामास गुहाद्वारं स्फुरद्ध्वनिः ॥ १२२ ॥ दण्डाभिघातेन गुहाद्वारे निरर्गले " । तद्गर्भाद् बलवानूष्मा निर्ययौ किल संततः ॥ १२३ ॥ दधदण्डाभिघातोत्थं "क्रेङ्कारमरपुटम् । सवेदनमिवास्वेदि निर्गतासु गुहोष्मणा ॥ १२४॥ १६ हुआ न हो ॥११२॥ हे सार्व अर्थात् सबका हित करनेवाले, वटके वृक्षोंपर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ोंके शिखरोंपर वृक्षोंकी खोलों और पत्तोंकी झोपड़ियोंमें रहनेवाले तथा दिन और रात्रि में भ्रमण करनेवाले हम लोगोंको आप सब जगह जानेवाले समझिए ।। ११३ || इस प्रकार आदरसहित शान्त और ओजपूर्ण वचन कहकर उस देवने भरत के लिए चौदह आभूषण दिये ।। ११४ ।। जो किसी दूसरेको प्राप्त नहीं हो सकते थे ऐसे उन आभूषणोंको पाकर चक्रवर्ती परम हर्षको प्राप्त हुए और चक्रवर्तीके द्वारा किये हुए सत्कारोंसे वह देव भी अत्यन्त हर्षको प्राप्त हुआ ।। ११५ ।। तदनन्तर विजयार्थं पर्वतकी गुफाके द्वारसे प्रवेश करनेका उपाय बतलानेवाले उस देवको भरत चक्रवर्तीने विदा किया और गुफाका द्वार खोलनेके लिए सबसे आगे अपना सेनापति भेजा ।। ११६ ॥ चक्रवर्तीने सेनापतिसे कहा कि तुम गुफाका द्वार उघाड़कर जबतक गुफा शान्त हो तबतक पश्चिम खण्डको जीतनेका उद्योग करो ।। ११७|| इस प्रकार चक्रवर्तीकी आज्ञाको मालाके समान मस्तकपर धारण करता हुआ और कृतमाल देवके द्वारा बतलाये हुए समस्त उपायोंके प्रयोगको जाननेवाला वह चतुर सेनापति कुछ घोड़े और सैनिकोंके साथ दण्डरत्न हाथमें लेकर अश्वरत्नपर आरूढ़ होकर चला ॥११८ - ११९ ।। और थोड़ी दूर जाकर तथा सिन्धु नदीके वनकी वेदीको उल्लंघन कर विजयार्ध पर्वतके तटकी वेदीपर जा पहुँचा ॥१२०॥ प्रथम ही वह सेनापति सीढ़ियोंके द्वारा विजयार्ध पर्वतकी वेदिकापर चढ़ा और फिर पश्चिमकी ओर मुँहकर गुफाके आगे जा पहुंचा ॥१२१॥ अवरत्नपर बैठे हुए सेनापतिने चक्रवर्तीकी जय हो इस प्रकार कहकर दण्डरत्नसे गुफाद्वारका ताड़न किया जिससे बड़ा भारी शब्द हुआ ।। १२२ । दण्डरत्नकी चोटसे गुफाका द्वार खुल जानेपर उसके भीतरसे बड़ी भारी गरमी निकलने लगी ॥ १२३॥ दण्डरत्नके प्रहारसे उत्पन्न हुए क्रेड्कार शब्दको धारण करते हुए दोनों किवाड़ ऐसे जान पड़ते थे मानो बेदनासे सहित होनेके कुछ १ न्यग्रोधस्थान् । २ पातालस्थान् । 'गर्तावटौ भुवि श्वभ्रं' इत्यभिधानात् । श्वभ्रगतविटागादा भुवो विवरवाचकाः' इति कात्येनोक्तम् । ३ वृक्षविवरपर्णशालासु जातान् 'पर्णशालोटजोऽस्त्रियाम्' इत्यभिधानात् । ४ राक्षसेभ्योऽन्यान् । ५ क्षपा रात्रिः तस्यामटन्तीति क्षपाटाः तान् राक्षसानित्यर्थ । 'पलंकषो रात्रिमटो रायटो जललोहितः' इत्यभिधानात् ६ सहितान् ७ तेजोऽन्वितम् । ८ ददौ ९ तिलकादिचतुर्दशाभरणानि । १० चक्रित ११ उपशान्तिमेति १२ पश्चिमखण्ड १३ आशाम् १४ पश्चिमाभिमुखः । १५ समीपम् । १६] आरु १७ दण्डरमेन १८ अर्गलरहिते सति । १९ विस्तृतः । २० ध्वनिविशेषः । २१ कवाटयुगलम् 'कटावमररं तुल्ये' इत्यभिधानात् । २२ स्विद्यति स्म स्वेदितमित्यर्थः । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आदिपुराणम् उद्घाटितकवाटेन द्वारेणोप्माणमुद्वमन् । रराज राजतः शैलो लब्धोच्छवासश्चिरादिव ॥१२५॥ कवाटपुटविश्लेषादुच्चचार महान् ध्वनिः । दण्डेनाभिहतस्यादराक्रोश इव विस्फुरन् ॥१२६॥ गुहोष्मणा स नाश्लेषि' विदूरमपवाहितः । तरश्विनाऽश्वरत्वेन देवताभिश्च रक्षितः ॥१२७॥ निपेतुरमरस्त्रीणां दृक्क्षेपैः सममम्बरात् । सुमनःप्रकरास्तस्मिन् हासा इव जयश्रियः ॥१२८॥ तटवेदी ससोपानां रूप्यारेः समतीयिवान् । सोऽभ्यत् सतोरणां सिन्धोः पश्चिमां वनवेदिकाम् ॥१२६॥ वेदिकां तामतिक्रम्य संजगाहे परां भुवम् । नानाकरपुरग्रामसीमारामैरलंकृताम् ॥ १३०॥ प्रविष्टमात्र एवास्मिन् प्रजास्त्रासमुपाययुः । समं दारगवैरन्या घटन्ते स्म पलायितुम् ॥१३॥ केचित् कृतधियो धीराः सार्धाः पुण्याक्षतादिभिः । प्रत्यग्रहीषुरभ्येत्य सबलं बलनायकम् ॥१३२॥ न भेतव्यं न भेतव्यमाध्यमाचं यथासुखम् । इत्य स्याज्ञाकरा विष्वगभ्रेमुराश्वासितप्रजाः ॥१३३॥ म्लेच्छखण्डमखण्डाज्ञः परिक्रामन् प्रदक्षिणम् । तत्र तत्र विभोराज्ञा म्लेच्छराजैरजिग्रहत्॥१३॥ इदं चक्रधरक्षेत्रं स चैष निकटे प्रभुः । तमाराधयितुं यूयं त्वरध्वं सह साधनैः ॥१३५॥ भरतस्यादिराजस्य चक्रिणोऽप्रतिशासनम् । शासनं शिरसा दध्वं यूयमित्यन्वशाच्च तान् ॥१३६॥ कारण चिल्ला ही रहे हों, उन्हें दुःखसे पसीना ही आ गया हो और गुफाके भीतरकी गरमीसे उनके प्राण ही निकले जा रहे हों ।।१२४॥ जिसके किवाड़ खुल गये हैं ऐसे द्वारसे गरमीको निकालता हुआ वह विजया पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो बहुत दिन बाद उसने उच्छ्वास ही लिया हो ॥१२५।। दोनों किवाड़ोंके खुलनेसे एक बड़ा भारी शब्द हुआ था और वह ऐसा जान पड़ता था मानो दण्डरत्नके द्वारा ताड़ित हुए पर्वतके रोनेका शब्द ही हो ॥१२६॥ वेगशाली अश्वरत्न जिसे बहुत दूर तक भगा ले गया है और देवताओंने जिसकी रक्षा की है ऐसे उस सेनापतिको गुफाकी गरमी छू भी नहीं सकी थी ॥१२७।। उस समय उस सेनापतिपर देवांगनाओंके कटाक्षोंके साथ-साथ आकाशसे फूलोंके समूह पड़ रहे थे और वे जयलक्ष्मीके हासके समान जान पड़ते थे ॥१२८॥ सेनापति सीढ़ियोंसहित विजयाध पर्वतके किनारेको वेदीका उल्लंघन करता हुआ तोरणसहित सिन्धु नदीके पश्चिम ओरवाली वनकी वेदिका के सम्मुख पहुँचा ॥१२९।। उसने उस वेदिकाका भी उल्लंघन कर अनेक खानि, पुर, ग्राम, सीमा और बाग-बगीचोंसे सुन्दर म्लेच्छखण्डकी उत्तम भूमिमें प्रवेश किया ॥१३०॥ उस भूमिमें सेनापतिके प्रवेश करते ही वहाँकी समस्त प्रजा घबड़ा गयी, उसमें से कितने ही लोग स्त्रियों तथा गाय-भैंस आदिके साथ भागनेके लिए तैयार हो गये ॥१३१॥ कितने ही बुद्धिमान् तथा धीर वीर पुरुष पवित्र अक्षत आदिका बना हुआ अर्घ लेकर सेनासहित सेनापतिके सम्मुख गये और उसका सत्कार किया ॥१३२॥ अरे डरो मत, डरो मत, जिसको जिस प्रकार सुख हो उसी प्रकार रहो इस प्रकार प्रजाको आश्वासन देते हुए चक्रवर्तीके सेवक चारों ओर घूमे थे ॥१३३॥ अखण्ड आज्ञाको धारण करनेवाला वह सेनापति प्रदक्षिणा रूपसे म्लेच्छखण्ड में घूमता हुआ जगह-जगह म्लेच्छ राजाओंसे चक्रवर्तीकी आज्ञा स्वीकृत करवाता जाता था ॥१३४॥ सेनापतिने म्लेच्छ राजाओंको यह भी सिखलाया कि यह चक्रवर्तीका क्षेत्र है और वह प्रसिद्ध चक्रवर्ती समीप ही है इसलिए तुम सब अपनी-अपनी सेनाओंके साथ उनकी सेवा करनेके लिए शीघ्रता करो । चक्रवर्ती भरत इस युगके प्रथम अथवा सबसे मुख्य राजा हैं इसलिए कभी भंग नहीं होनेवाली उनकी आज्ञाको तुम सब अपने मस्तकपर धारण करो ॥१३५-१३६॥ १न आलिङ्गितः। २ अपनीतः । ३ अभ्यगच्छत् । ४ प्रविशति स्म । सज्गाहे ल०। ५ पश्चिमाम् । ६ ( द्वन्द्वसमासः ) कलत्रधेनुभिः । ७ चेष्टन्ते स्म । ८ यथासुखं तिष्ठत । ९ सेनान्यः । १० भृत्याः । ११ अग्राहयत् । १२ समीपे आस्ते । १३ न विद्यते प्रतिशासनं यस्य । १४ धारयत । १५ शास्ति स्म । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिशत्तमं पर्व जाता वयं चिरादद्य सनाथा इत्युदाशिषः' । केचिच्चक्रधरस्याज्ञामशठा प्रत्यपत्सत ॥१३७॥ संधिविग्रहयानादिषाडगुण्यकृतविक्रमाः । बलात् प्रमाणिताः केचिद् ऐश्वर्यलवदूषिताः ॥१३८॥ कांश्चिदुर्गाश्रितान् म्लेच्छानवस्कन्दनिरोधनैः । सेनानीर्वशमानिन्ये नमत्यज्ञोऽधिकं क्षतः ॥१३६॥ केचिद् बलैरकष्टब्धा स्तत्पीडां सोढुमक्षमाः,। शासने चक्रिणस्तस्थुः स्नेहो नापीलितात् खलात् ॥१४०॥ इत्युपायैरुपायज्ञः साधयन्म्लेच्छभूभुजः । तेभ्यः कन्यादिरत्नानि प्रभो ग्यान्युपाहरत् ॥ १४१॥ . धर्मकर्मबहिर्भूता इत्यमी म्लेच्छका मताः । अन्यथाऽन्यैः समाचारैरार्यावर्तन ते समाः ॥१४२॥ इति प्रसाध्य तां भूमिमभूमि धर्मकर्मणाम् । म्लेच्छराजबलैः सार्धं सेनानीयवृतत् पुनः ॥१४३॥ रराज राजराजस्य साश्वरत्नचमूपतिः । सिद्धदिग्विजयी जैनः प्रताप इव मूर्तिमान् ॥१४४॥ सतोरणामतिक्रम्य स सिन्धोर्वनवेदिकाम् । विगाढश्च ससोपानां रूप्यास्तटवेदिकाम् ॥१४५॥ आरूढो जगतीमद्रव्यूंढोरस्को"महाभुजः । षड्भिर्मासैः प्रशान्तोष्म सोऽध्यवासीद् गुहामुखम् ॥१४६॥ तत्रासीनश्च संशोध्य बह्वपायं गुहोहरम् । कृतारक्षाविधिः सम्यक प्रत्यायाच्छिबिरं"प्रभोः ॥१४७॥ 'आज हम लोग बहुत दिनमें सनाथ हुए हैं इसलिए जोर-जोरसे आशीर्वाद देते हुए कितने ही बुद्धिमान् लोगोंने चक्रवर्तीको आज्ञा स्वीकृत की थी ॥१३७॥ जिन्होंने सन्धि, विग्रह और यान आदि छह गुणोंमें अपना पराक्रम दिखाया था और जो थोड़े-से ही ऐश्वर्यसे उन्मत्त हो गये थे ऐसे कितने ही राजाओंसे सेनापतिने जबरदस्ती प्रणाम कराया था ॥१३८॥ किलेके भीतर रहनेवाले कितने ही म्लेच्छ राजाको सेनापतिने उनका चारों ओरसे आवागमन रोककर वश किया था सो ठीक ही है क्योंकि अज्ञानी लोग अधिक दुःखी किये जानेपर ही नम्रोभूत होते हैं ॥१३९॥ कितने ही राजा लोग सेनाओंके द्वारा घिरकर उससे उत्पन्न हुए दुःखको सहन करनेके लिए असमर्थ हो चक्रवर्तीके शासनमें स्थित हुए थे, सो ठीक ही है क्योंकि बिना पेले खल अर्थात् खलीसे स्नेह अर्थात् तेल उत्पन्न नहीं होता ( पक्षमें बिना दुःखी किये हुए खल अर्थात् दुर्जनसे स्नेह अर्थात् प्रेम उत्पन्न नहीं होता) ॥१४०॥ इस प्रकार उपायोंको जाननेवाले सेनापतिने अनेक उपायोंके द्वारा म्लेच्छ राजाओंको वश किया और उनसे चक्रवर्तीके उपभोगके योग्य कन्या आदि अनेक रत्न भेंटमें लिये ॥१४१॥ ये लोग धर्मक्रियाओंसे रहित हैं इसलिए म्लेच्छ माने गये हैं, धर्मक्रियाओंके सिवाय अन्य आचरणोंसे आर्यखण्डमें उत्पन्न होनेवाले लोगोंके समान हैं ॥१४२॥ इस प्रकार वह सेनापति, धर्मक्रियाओंसे रहित उस म्लेच्छभूमिको वश कर म्लेच्छराजाओंकी सेनाके साथ फिर वापस लौटा ॥१४३॥ जिसने दिग्विजय कर लिया है, सबको जीतना ही जिसका स्वभाव है, और जो अश्वरत्नसे सहित है ऐसा वह राजाधिराज भरतका सेनापति ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो मूर्तिमान् प्रताप ही हो ॥१४४॥ तोरणोंसहित सिन्धु नदीके वनकी वेदीको उल्लंघन कर वह सेनापति सीढ़ियोंसहित विजया पर्वतके वनकी वेदीपर जा चढ़ा ॥१४५॥ जिसका वक्षःस्थल बहुत बड़ा है और जिसकी भुजाएं बहुत लम्बी हैं ऐसा वह सेनापति पर्वतकी वेदिकापर चढ़कर छह महीनेमें जिसकी गरमी शान्त हो गयी है ऐसी गुफाके द्वारपर ठहर गया ॥१४६॥ वहाँ ठहरकर उसने अनेक विघ्नोंसे भरे हुए गुफाके भीतरी भागको शुद्ध (साफ) कराया और फिर अच्छी तरहसे उसकी रक्षा १ उद्गताशीर्वचनाः । २ निष्कपटवृत्तयो भूत्वा । ३ अङ्गीकारं कृतवन्तः । ४ धाटीनिरोधनैः । निग्रहस्तु निरोधः स्याद्' इत्यमरः । अभ्यासाधनात्मकनिग्रहः। उक्तं च विदग्धचूडामणौ 'अभ्यवस्कन्दनं त्वभ्यासाधनम्' (घेरेका नाम )। ५ अधिकं पीड़ितो भूत्वा । ६ वेष्टिताः । ७ विवाहादिभिः । ८ पुण्यभूम्या आर्याखण्डेनेत्यर्थः । 'आर्यावर्तः पुण्यभूमिः' इत्यभिधानात् । ९ अस्थानम् । १० प्रविष्टः । ११ विशालवक्षस्थलः । १२ तस्थौ । १३ गुहाद्वारम् । १४ स्कन्धावार प्रत्यगात् । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् अथ संमुखमागत्य 'सानीकैर्नृपसत्तमैः । प्रत्यगृह्यत सेनानीः सज़यानकनिःस्वनम् ॥१४८॥ विभक्कतोरणामुच्चैः प्रचलत्केतुमालिकाम् । महावीथीमतिक्रम्य प्राविक्षत् स नृपालयम् ॥१४॥ तुरंगमवरादूरात् कृतावतरणः कृती । प्रभोपासनस्थस्य प्रापदास्थानमण्डपम् ॥१५०॥ दूरानतचलन्मौलिसंदष्टकरकुटुमलः । प्रणनाम प्रभुं सभ्यैर्वीक्ष्यमाणः सविस्मितैः ॥१५१॥ मुखरैर्जयकारेण म्लेच्छराजैः ससाध्वसम् । प्रणेमे प्रभुरभ्येत्य ललाटस्पृष्टभूतलैः ॥१५२॥ तदुपाहृत रत्नाद्यैर चयन्नुपढौकितैः । नामादेशं च तानस्मै प्रभवेऽसौ न्यवेदयत् ॥१५३॥ सप्रसादं च संमान्य सत्कृतास्ते महीभुजः । प्रमोरनुमताद् भूयः स्वमोकः प्रत्ययासिषुः ॥१५४॥ इत्थं पुण्योदयाच्चक्री बलात् प्रत्यन्तपालकान् । विजिग्ये दण्डमात्रेण जयः पुण्याहते कुतः ॥१५५॥ मालिनी अथ नृपतिसमाजेनार्चितः सानुरागं विजितसकलदुर्गः प्रयन् म्लेच्छनाथान् । पुनरपि विजयायायोजि सोऽग्रेसरत्वे जय इव जयचिह्नर्मानितो रत्नभा ॥१५६॥ जयति जिनवराणां शासनं यत्प्रसादात् पदमिदमधिराज्ञां प्राप्यते हेलयैव । समुचितनिधिरत्नप्राज्यभोगोपभोगप्रकटितसुखसारं भूरि संपत्प्रसारम् ॥१५७॥ का उपाय कर वह चक्रवर्तीकी छावनीमें वापस लौट आया ॥१४७।। सेनापतिके वहाँ पहुँचनेपर अनेक उत्तम-उत्तम राजाओंने अपनी सेनाओंके साथ सामने जाकर विजयसूचक नगाड़ोंके शब्दोंके साथ-साथ उसका स्वागत-सत्कार किया ।।१४८॥ जिसमें अनेक तोरण लगे हए हैं और जिसमें बहत ऊँची अनेक-पताकाओंके समह फहरा रहे हैं ऐसे राजमार्गको उल्लंघन कर वह सेनापति महाराज भरतके डेरेमें प्रविष्ट हुआ ॥१४९।। वह व्यवहार कुशल सेनापति दूरसे ही उत्तम घोड़ेपर-से उतर पड़ा और जहाँ महाराज भरत राजसिंहासनपर बैठे हुए थे उस सभामण्डपमें जा पहुँचा ॥१५०॥ दूरसे ही झुके हुए चंचल मुकुटपर जिसने अपने दोनों हाथ जोड़कर रखे हैं और सभासद् लोग जिसे आश्चर्यके साथ देख रहे हैं ऐसे सेनापतिने महाराज भरतको नमस्कार किया ॥१५१॥ जिन्होंने अपने ललाटसे पृथिवीतलका स्पर्श किया है और जो जयजय शब्द करनेसे वाचालित हो रहे हैं ऐसे म्लेच्छ राजाओंने भयसहित सामने आकर भरतको नमस्कार किया ॥१५२।। उन म्लेच्छ राजाओंके द्वारा उपहारमें लाये हुए रत्न आदिको सामने रखकर सेनापतिने महाराज भरतसे नाम ले लेकर सबका परिचय कराया ॥१५३।। महाराजने प्रसन्नताके साथ सन्मान करके उन सब राजाओंका सत्कार किया, तदनन्तर वे राजा महाराजकी अनुमतिसे अपने-अपने स्थानपर वापस चले गये ॥१५४।। इस प्रकार चक्रवर्तीने पुण्य कर्मके उदयसे केवल दण्डरत्नके द्वारा हो म्लेच्छ राजाओंको जबरदस्ती जीत लिया था सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यके बिना विजय कहाँसे हो सकती है ? ॥१५५॥ अथानन्तर-अनेक राजाओंके समूहने प्रेमपूर्वक जिसका सत्कार किया है, जिसने सब किले जीत लिये हैं, जिसने म्लेच्छ राजाओंको नम्रीभूत किया है, जो साक्षात् विजयके सामान सुशोभित हो रहा है और विजयके चिह्नोंसे जिसका सन्मान किया गया है ऐसे उस सेनापतिको रत्नोंके स्वामी भरत महाराजने विजय प्राप्त करनेके लिए फिर भी प्रधान सेनापतिके पदपर नियुक्त किया ।।१५६॥ योग्य निधियाँ, रत्न तथा उत्कृष्ट भोग-उपभोगकी वस्तुओं १ ससैन्यैः । २ तन्म्लेच्छराजेभ्य आहृत । ३ पूजयन् । ४ प्रभोः समीपं नीतैः । ५ नामोद्देशम् । ६ म्लेच्छराजान् । ७ निजावासं संप्रतिजग्मुः । ८ म्लेच्छराजान् 'प्रत्यन्तो म्लेच्छदेशः स्यादित्यभिधानात् । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तमं शार्दूलविक्रीडितम् छ चन्द्रक पहासि रुचिरं चामीकरप्रोज्ज्वल इण्ड चामरयुग्मकं सुरसरिड्डिण्डीरपिण्डच्छविः । रुक्मादेरिव संविभक्कमपरं कूटं मृगेन्द्रासनं लेभेऽसौ विजयार्द्धनाथविजयाइनान्यथान्यान्यपि ॥ १५८ ॥ गीर्वाणः कृतमाल इत्यभिमतः संपूज्य तं सादरं "प्रादादाभरणानि यानि न सम्राट् तैरचका दलंकृततनुः कल्पद्रुमः पुष्पितो पुनस्तंपामिह। स्युमितिः २ I मेरोः सानुमिवाश्रित मणिमयं सोऽध्यासितो विरम् ॥ १५६ ॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण संग्रहे विजयार्द्ध गुहाद्वारोद्घाटनवर्णनं नामैकत्रिंशं पर्व ॥ ३१ ॥ के द्वारा जिसमें सुखों का सार प्रकट रहता है, और जिसमें अनेक सम्पदाओंका प्रसार रहता है ऐसा यह चक्रवर्तीका पद जिसके प्रसादसे लीलामात्रमें प्राप्त हो जाता है ऐसा यह जिनेन्द्र भगवान्का शासन सदा जयवन्तं रहे ॥ १५७ ॥ महाराज भरतने विजयार्ध पर्वतके स्वामीको जीतकर उससे चन्द्रमाकी किरणोंकी हँसी करनेवाला सुन्दर छत्र, सुवर्णमय देदीप्यमान दण्डोंसे युक्त तथा गंगा नदीके फेनके समान कान्तिवाले दो मनोहर चमर, सुमेरु पर्वत से अलग किये हुए उसके शिखरके समान सिंहासन तथा और भी अन्य अनेक रत्न प्राप्त किये थे ।।१५८।। ‘कृतमाल' इस नामसे प्रसिद्ध देवने सत्कार कर महाराज भरतके लिए जो आभूपण दिये थे इस भरतक्षेत्रमें उनकी उपमा देने योग्य कोई भी पदार्थ नहीं है । उन अनुपम आभूषणोंसे जिनका शरीर अलंकृत हो रहा है और जो मणियों के बने हुए सिंहासनपर विराजमान हैं ऐसे महाराज भरतेश्वर उस समय मेरु पर्वत के शिखरपर स्थित फूले हुए कल्प वृक्ष के समान अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ।। १५९।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणमंग्रहके हिन्दी भाषानुवाद में विजयार्ध पर्वतकी गुफाका द्वार उघाड़नेकावर्णन करनेवाला इकतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ । १११ १ ददौ । २ उपमा । ३ बभौ । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व अथान्येचुरुपारूढसंभ्रमैर्बलनायकैः । प्रत्यपाल्यत संनद्धः प्रयाणसमयः प्रभोः ॥१॥ गजताश्वीयरथ्यानां पादातानां च संकुलैः । न नृपाजिरमेवासीद् रुद्धमद्रेवनान्यपि ॥२॥ जयकुञ्जरमारूढः परीतो नृपकुञ्जरैः । रेजे निर्यन्प्रयाणाय सम्राट शक्र इवामरैः ॥३॥ किंचित् पश्चान्मुखं गत्वा सेनान्या शोधिते पथि । ध्वजिनी संकुचन्त्यासीदीर्याशुद्धिं श्रितेव सा ॥१॥ प्रगुणस्थानसोपानां रूप्यादेः श्रेणिमश्रमात् । मुनेः शुद्धिरिव श्रेणीमारूढ़ा सा पताकिनी ॥५॥ . तमिति गुहा यासौ गिरिव्याससमायतिः । उच्छ्रिता योजनान्यष्टौ ततोऽर्द्धाधिकविस्तृतिः ॥६॥ वाजं कपाटयोर्युग्मं या स्वोच्छायमितोच्छिति । दधे पृथक स्वविष्कम्भसाधिकव्यंशविस्तृतिः ॥७॥ पराय॑मणिनिर्माणरुचिमवारबन्धना । तदधस्तलनिस्सर्पसिन्धुस्रोतोविराजिता ॥८॥ अशक्योद्घाटनाऽन्येषां मुक्त्वा चक्रिचमूपतिम् । तन्निरर्गलितत्वाच्च प्रागेव कृतनिर्वृतिः ॥९॥ अथानन्तर-दूसरे दिन जिन्हें जल्दी हो रही है और जो हरएक प्रकारसे तैयार हैं ऐसे सेनापति लोग चक्रवर्तीके चलनेके समयकी प्रतीक्षा करने लगे ॥१॥ हाथियोंके समूह, घोड़ोंके समूह, रथोंके समूह और पैदल चलनेवाले सैनिक, इन सबकी भीड़से केवल महाराजका आँगन ही नहीं भर गया था किन्तु विजयार्ध पर्वतके वन भी भर गये थे ॥२॥ विजयी हाथीपर चढ़ा हुआ और अनेक श्रेष्ठ राजाओंसे घिरा हुआ चक्रवर्ती जब विजयके लिए निकला तब ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि ऐरावत हाथीपर चढ़ा हुआ और देवोंसे घिरा हुआ इन्द्र सुशोभित होता है ॥३॥ भरतकी वह सेना कुछ पश्चिमकी ओर जाकर सेनापतिके द्वारा शद्ध किये हए मार्गमें संकुचित होकर चल रही थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो वह ईर्यापथ शुद्धिको ही प्राप्त हुई हो ॥४॥ जिस प्रकार मुनियोंकी विशुद्धता उत्तम गुणस्थान ( आठवें, नौवें, दशवें रूपी सीढ़ियोंसे युक्त श्रेणी ( उपशम श्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी ) पर चढ़ती है उसी प्रकार चक्रवर्तीकी सेना, जिसपर उत्तम सीढ़ियाँ बनी हुई हैं ऐसी विजयाध पर्वतकी श्रेणीपर जा चढ़ी थी ॥५॥ वहाँ तमिसा नामको वह गुफा थी जो कि पर्वतकी चौड़ाईके बराबर लम्बी थी, आठ योजन ऊँची थी और उससे डेवढ़ी अर्थात् बारह योजन चौड़ी थी जो अपनी ऊँचाईके बराबर ऊँचे और कुछ अधिक छह-छह योजन चौड़े वज्रमयी किवाड़ोंके युगल धारण कर रही थी, जिसके दरवाजेकी चौखट महामूल्य रत्नोंसे बनी हुई होनेसे अत्यन्त देदीप्यमान थी, जो अपने नीचेसे निकलते हुए सिन्धु नदीके प्रवाहसे सुशोभित थी, चक्रवर्तीके सेनापतिको छोड़कर जिसे और कोई उघाड़ नहीं सकता था, जो सेनापतिके द्वारा पहले ही उघाड़ दी जानेसे शान्त पड़ गयी थी-भीतरकी गरमी निकल जानेसे ठण्डी पड़ गयी थी। जो यद्यपि जगत्की सृष्टिके समान अनादि थी तथापि किसीके द्वारा बनायी हुईके समान मालम १ प्रतीक्ष्यते स्म । २ सैन्यानाम् ल० । ३ पदातीनाम् ल०। ४ परिवृतः । ५ निर्गच्छन् । ६ पश्चिमाभिमुखम् । ७ ऋजुसंस्थानसोपानां प्रकृष्टगुणस्थानसोपानांच। ८ सेना। ९ पञ्चाशद्योजनायामेति भावः । १० अष्टयोजनोत्सेधात् । ११ द्वादशयोजनविस्तारेत्यर्थः । १२ यमलकवाटे एकैककवाटम् । १३ द्वादशयोजनविस्तारवद् गुहायाः साधिकद्वितीयं विस्तारम् । यमलरूपकवाटे एकैककवाटस्य साधिकषड्योजनविस्तृतिरित्यर्थः । १४ द्वारबन्धादधस्तलनिर्गच्छत् । देहल्या अधस्तले निर्गच्छदिति भावः । १५ तेन चमूपतिना समुद्घाटितकवाटत्वात् । १६ कृतोपशान्तिः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व जगत्स्थितिरिवानाद्या घटितव' च केनचित् । जैनी 'श्रुतिरिवोपात्तगाम्भीर्या मुनिभिर्मता ॥ १० ॥ व्यायता जीविताशेव मूच्छेव च तमोमयी । गतेवोल्लाघतां कृच्छ्रान्मुक्तोष्मा शोधितोदरा ॥११॥ कुटीव च प्रसूताया निषिद्वान्यप्रवेशना । कृतरक्षाविधिर्द्वारे धृतमङ्गलसंविधिः ॥ १२ ॥ तामालोक्य बल जिष्णोर्द्वरादासीत्स साध्वसम् । तमसा सूचिभेद्येन कजलेनेव संभृताम् ॥१३॥ चक्रिणा ज्ञापितो भूयः सेनानीः सपुरोहितः । तत्तमो निर्गमोपायें प्रयत्नमकरोत्ततः ॥ १४ ॥ काकिणीमणिरत्नाभ्यां प्रतियोजनमालिखत् । गुहाभित्तिये सूर्य सोमयोर्मण्डलद्वयम् ॥ १५ ॥ तत्प्रकाशकृतोद्योतं सज्योत्स्नातमसंनिधिम् । गृहामध्यमपध्वान्तं व्यगाहत ततो बलम् ॥ १६ ॥ चक्ररज्वलद्वीपे ससेनान्या पुरः स्थिते । बलं तदनुमार्गेण प्रविभज्य द्विधा ययौ ॥ १७ ॥ परिसिन्धु नदीस्रोतः प्राक् पश्चाच्चोभयोः पयोः । बलं प्रायज्जलं सिन्धोरुपयुज्योपयुज्य तत् ॥ १८ ॥ पथि द्वैधे स्थिता तस्मिन् सेनाग्रण्या नियन्त्रिता' । सा चमूः संशय द्वैधं तदा प्रापद् दिगाश्रयम् ॥ ततः प्रयाणकैः कैश्चित् प्रभूतयवसोदकैः " । गुहार्द्ध संमितां भूमिं व्यतीयाय पतिर्विशाम् ॥ २० ॥ १२ ११३ " होती थी, अत्यन्त गम्भीर ( गहरी ) होनेके कारण जिसे मुनि लोग जिनवाणीके समान मानते थे क्योंकि जिनवाणी भी अन्त्यन्त गम्भीर ( गूढ़ अर्थोंसे भरी हुई ) होती है । जो जीवित रहनेकी आशाके समान लम्बी थी, मूर्च्छाके समान अन्धकारमयी थी, गरमी निकल जाने तथा भीतरका प्रदेश शुद्ध हो जानेसे जो नीरोग अवस्थाको प्राप्त हुईके समान जान पड़ती थी, जिसमें चक्रवर्तीकी सेनाको छोड़कर अन्य किसीका प्रवेश करना मना था, जिसके द्वारपर रक्षाकी सब विधि की गयी थी, जिसके समीप मंगलद्रव्य रखे हुए थे और इसलिए जो प्रसूता (बच्चा उत्पन्न करनेवाली) स्त्रीकी कुटी ( प्रसूतिगृह ) के समान जान पड़ती थी ।। ६-१२ ।। सुईकी नोकसे भी जिसका भेद नहीं हो सकता ऐसे कज्जलके समान गाढ़ अन्धकारसे भरी हुई उस गुफाको देखकर चक्रवर्तीकी सेना दूरसे ही भयभीत हो गयी थी ||१३|| तदनन्तर जिसे चक्रवर्तीने आज्ञा दी है ऐसे सेनापतिने पुरोहित के साथ-साथ उस अन्धकारसे निकलने का उपाय करनेके लिए फिर प्रयत्न किया ||१४|| उन्होंने गुफाकी दोनों ओरकी दीवालोंपर काकिणी और चूड़ामणि रत्नसे एक-एक योजनकी दूरीपर सूर्य और चन्द्रमाके मण्डल लिखे ||१५|| तदनन्तर उन मण्डलोंके प्रकाशसे जिसमें प्रकाश किया जा रहा है, चाँदनी और धूप दोनों ही जिसमें मिल रहे हैं तथा जिसका सब अन्धकार नष्ट हो गया है, ऐसे गुफाके मध्य भाग में सेनाने प्रवेश किया ||१६|| आगे-आगे सेनापतिके साथ-साथ चक्ररत्नरूपी देदीप्यमान दीपक चल रहा था और उसके पीछे-पीछे उसी मार्ग से दो भागों में विभक्त होकर सेना चल रही थी || १७|| वह सेना सिन्धु नदी प्रवाहको छोड़कर पूर्व तथा पश्चिम की ओरके दोनों मार्गोंमें सिन्धु नदी के जलका उपयोग करती हुई जा रही थी || १८|| उन दोनों मार्गों पर चलती हुई तथा सेनापतिके द्वारा वश की हुई वह सेना उस समय दिशाओंसम्बन्धी संशयकी द्विविधताको प्राप्त हो रही थी अर्थात् उसे इस बातका संशय हो रहा था कि पूर्वदिशा कौन है ? और पश्चिम दिशा कौन है ? ॥१९॥ तदनन्तर जिनमें घास और पानी अधिक है ऐसे कितने ही मुकाम चलकर महाराज १ निर्मितेव । २ केनचित् पुरुषेण । ३ परमागमः । ४ ऋजुत्वं गतेव । 'उल्लाघो निर्गतो गदात्' । ५ शोधितान्तरा ल० । ६ गुहाम् । ७ सेनापतिसमन्विते । ८ सिन्धुनदीप्रवाहं वर्जयित्वा । परिशब्दस्य वर्जनार्थत्वात् । ९ पश्चात् पूर्वापर । १० अगच्छत् । ११ द्विप्रकारवती । १२ नियमिता । १३ संशयभेदं संशयविनाशं वा । १४ उपदेशाश्रयं वा संशयभेदं प्राप । पूर्वादिदिग्भेदे सेना सम्देहवती जातेत्यर्थः । १५ तृण, घास । 'घासो यवसं तृणमर्जुमि' त्यभिधानात् । १६ गुहानामर्द्धप्रमिताम् । १७ अत्यगात् । १५ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४, आदिपुराणम् .. यत्रोन्मग्नजला सिन्धुर्निमग्नजलया समम् । प्रविष्टा तिर्यगुद्देशं तं प्राप बलमीशितुः ॥२१॥ तयोरारात्तटे सैन्यं निवेश्य भरतेश्वरः । वैषम्यमुभयोनद्योः प्रेक्षांचक्रे सकौतुकम् ॥२२॥ एकाऽधः पातयत्यन्या दार्वाद्युत्प्लावत्यरम् । मिथो विरुद्ध सांगल्ये संगते ते कथंचन ॥२३॥ नद्योरुत्तरणोपायः को नु स्यादिति तर्कयन् । द्रुतमाह्वापयामास तास्थः स्थपतिं पतिः ॥२४॥ तयोरारात्तटे पश्यन्नुत्पतन्निपतजलम् । दृष्टयैव तुलयामास जलाअलिमिव क्षणम् ॥२५॥ उपर्युच्छ्वासयन्येनां महान् वायुः स्फुरन्नधः । वायुस्तदन्यथावृत्ति रमुप्यां च विज़म्भते ॥२६॥ उपनाहारते कोऽन्यः प्रतीकारोऽनयोरिति । भिषग्वर इवारेभे संक्रमोपक्रम कृती ॥२७॥ अमानुषेष्वरण्यपु ये केचन महाइमाः । स तानानाययामाम' दिव्यशक्त्यनुभावतः ॥२८॥ सारदारुमिरुत्तम्भ्य स्तम्भानन्तर्जलस्थितान् । स्थपतिः स्थापयामास तेषामुपरि संक्रमम् ॥२९॥ बलव्यसनमाशङ्कय" चिरवृत्ती" स धीरधीः । क्षणाग्निष्पादयामाम संक्रमं प्रभुशासनात् ॥३०॥ कृतः कलकलः सैन्यैर्निष्टिते सेतुकर्मणि । तदेव च बलं कुस्नमुत्ततार परं तटम् ॥३१॥ भरतने गुफाकी आधी भूमि तय की ॥२०॥ और जहाँपर 'उन्मग्नजला' नदी 'निमग्नजला' नदीके साथ-साथ दोनों तरफकी दीवालोंके कुण्डोंसे निकलकर सिन्धु नदीमें प्रविष्ट होती है उस स्थानपर चक्रवर्तीकी सेना जा पहुँची ॥२१॥ महाराज भरतेश्वर उन दोनों नदियोंके किनारेके समीप ही सेना ठहराकर कौतुकके साथ उन दोनों नदियोंकी विषमता देखने लगे ।।२२।। इन दोनोमें-से एक अर्थात् निमग्नजला तो लकड़ी आदिको शीघ्र ही नीचे ले जा रही है और दूसरी अर्थात् उन्मग्नजला प्रत्येक पदार्थको शीघ्र ही ऊपरकी ओर उछाल रही है । यद्यपि ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं तथापि किसी प्रकार यहाँ आकर सिन्धु नदीमें मिल रही हैं ॥२३॥ इन नदियोंके उतरनेका उपाय क्या है ? इस प्रकार विचार करते हुए चक्रवर्तीने वहाँ खड़े-खड़े ही शीघ्र ही अपने स्थपति (सिलावट) रत्नको बुलाया ॥२४॥ जिनका पानी ऊपर लथा नीचेकी ओर जा रहा है ऐसी उन दोनों नदियोंको देखते हुए सिलावट रत्नने उन्हें अपनी दृष्टिमात्रसे ही क्षण-भरमें अंजलि-भर जलके समान तुच्छ समझ लिया ॥२५॥ उसने समझ लिया कि इस उन्मग्नजला नदीको इसके नीचे रहनेवाला महावायु ऊपरकी ओर उछालता है और इस निमग्नजला नदीको उसके ऊपर रहनेवाला महावायु नीचेकी ओर ले जाता है ।।२६।। इसलिए इन दोनोंका पुल बाँधनेके सिवाय और क्या उपाय हो सकता है ऐसा विचार कर उत्तम वैद्यके समान कार्यकुशल सिलावट रत्नने उन नदियोंके पार होनेका उपाय अर्थात् पूल बाँधनेका उपाय प्रारम्भ कर दिया ॥२७॥ उसने अपनी दिव्य शक्तिकी सामर्थ्यसे निर्जन वनोंमें जो कुछ बड़े-बड़े वृक्ष थे वे मँगवाये। भावार्थ - अपने आश्रित देवोंके द्वारा सघन जंगलोंसे बड़े-बड़े वृक्ष मँगवाये ॥२८॥ उसने मजबूत लकड़ियोंके द्वारा जलके भीतर मजबूत खम्भे खड़े कर उनपर पुल तैयार कर दिया ॥२९।। अधिक . समय लगनेपर सेनाको दुःख होगा इस बातका विचार कर उस गम्भीर बुद्धिके धारक सिलावटने भरतेश्वरकी आज्ञासे क्षण-भरमें ही पुल तैयार कर दिया था ॥३०।। पुल तैयार होते ही सेनाओंने आनन्दसे कोलाहल किया और उसी समय चक्रवर्तीकी समस्त सेना उतरकर नदियोंके उस किनारे १ यस्मिन् प्रदेशे। २ पूर्वापरभित्ति द्वयदण्डान् निर्गत्य । ३ प्रदेशम् । ४ काष्ठादि । ५ स तन्नदीद्वयम् ल०, इ०, अ०, प०, स० । ६ ददर्शेत्यर्थः । ७ उत्पतनिपतरूपत्वादलियुक्तजलवत् । ८ अधोगमनवृत्तिः । ९ बन्धनात् विना। १० सेतूपक्रमम् । ११ आनयति स्म । १२ विन्यस्य । १३ जलं स्थिरात् ब०, द० । जले स्थिरात् इ० । १४ स्तम्भानाम् । १५ सेतुम् । १६ बलस्य पीडा भविष्यन्तीति विशङ्कय । १७ चिरकालेऽतीते सति । १८ अपरतीरम् । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशन्तम पर्व ११५ नायकैः सममन्याः प्रभुर्गजघटावृतः । महापथेन तेनैव जलदुर्ग व्यलङ्घयत् ॥३२॥ ततः कतिपयैरेव प्रयाणैरतिवाहितैः' । गिरिदुर्ग विलंध्योदग्ग्रहाद्वारमवासदत् ॥३३॥ निरर्गलीकृतं द्वार पौरस्त्यैरिभसाधनैः । व्यतीत्य प्रभुरस्याद्रेर युवास वनावनिम् ॥३४॥ अधिशय्य गुहागर्म चिरं,मातुरिवोदरम् । लब्धं जन्मान्तरं मेने निःसृतैः सैनिकैर्बहिः ॥३५॥ गुहेयमतिगृध्येव गिलित्वा जनतामिमाम् । जरणाशक्तिो नूनमुज्जगाल बहिः पुनः ॥३६॥ व्यजनैरिव शाखागैर्वीजयन् वनवीरुधाम् । गुहोष्मणां चिरं खिन्नां चमूमाश्वासयन्मरुत् ॥३७॥ तद्वनं पवनाधूतं चलच्छाखाकरोत्करैः । प्रभोरुपागमे तोषामनतॆव तार्तवम् ॥३८॥ पूर्ववत् पश्चिमे खण्डे बलापण्या प्रसाधिते । विजे→ मध्यमं खण्डं साधनैः प्रभुरुययौ ॥३९॥ न करैः पीडितो लोको न भुवः शोषितो रसः । नार्केणेव जनस्तप्तः प्रभुणाऽभ्युद्यताप्युदक' ॥४०॥ कौबेरी दिशमास्थाय'तपत्येकान्ततः करः । मानुर्भरतराजस्तु भुवस्तापमपाकरीत् ॥४१॥ कृतब्यूहानि सैन्यानि संहतानि परस्परम् । नातिभूमिं ययुर्जिप्णोर्न स्वैरं परिबभ्रमुः ॥४२॥ पर जा पहुँची ॥३१॥ दूसरे दिन हाथियों के समूहसे घिरे हुए महाराज भरतने अनेक राजाओंके साथ-साथ उसी जलमय महामार्गसे कठिन रास्ता तय किया ॥३२॥ तदनन्तर कितने ही मुकाम चलकर और उस पर्वतरूपी दुर्ग (कठिन मार्ग) को उल्लंघन कर वे उस गुफाके उत्तर द्वारपर जा पहुँचे ॥३३॥ आगे चलनेवाली हाथियोंकी सेनाके द्वारा उघाड़े हुए उत्तर द्वारको उल्लंघन कर चक्रवर्तीने विजया पर्वतके वनकी भूमिमें निवास किया ॥३४॥ माताके उदरके समान गुहाके गर्भ में चिरकाल तक निवास कर वहाँसे बाहर निकले हुए सैनिकोंने ऐसा माना था मानो दूसरा जन्म ही प्राप्त हुआ हो ॥३५॥ सेनाको बाहर प्रकट करती हुई वह गुफा ऐसी जान पड़ती थी मानो पहले वह बड़ी भारी तृष्णा इस मनुष्य-समूहको निगल गयी थी परन्तु पचानेकी शक्ति न होनेसे अब उसे फिर बाहर उगल रही हो ॥३६॥ उस समय पंखोंके समान वनलताओंको शाखाओंके अग्रभागसे हवा करता हुआ वायु ऐसा जान पड़ता था मानो चिरकाल तक गफाकी गरमीसे दुःखी हई सेनाको आश्वासन ही दे रहा हो ॥३७॥ जिसने ऋतु-सम्बन्धी अनेक फल-फूल धारण किये हैं और जो वायुसे हिल रहा है ऐसा वह वन उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो चक्रवर्तीके आनेपर सन्तुष्ट होकर हिलते हुए अपने शाखा रूपी हाथोंके समूहसे नृत्य ही कर रहा हो ॥३८॥ जब सेनापति पहलेकी तरह यहाँके भी पश्चिम म्लेच्छ खण्डको जीत चुका तब महाराज भरत अपनी सेनाओंके द्वारा मध्यम म्लेच्छ खण्डको जीतनेके लिए उद्यत हुए ॥३९॥ यद्यपि भरत सूर्यके समान उत्तर दिशाकी ओर निकले थे तथापि जिस प्रकार सूर्य अपने कर अर्थात किरणोंसे लोगोंको पीडित करता है. पथिवीका रस अर्थात् जल सुखा देता है, और मनुष्योंको सन्तप्त करता है उस प्रकार उन्होंने अपने कर अर्थात् टेक्ससे लोगोंको पीड़ित नहीं किया था, पृथिवीका रस अर्थात् आनन्द नहीं सुखाया था-नष्ट नहीं किया था और न मनुष्योंको सन्तप्त अर्थात् दुःखी ही किया था ॥४०॥ सूर्य उत्तर दिशामें पहुँचकर अपनी किरणोंसे सन्ताप करता है परन्तु महाराज भरतने पृथिवीका सन्ताप दूर कर दिया था ॥४१।। जिनमें अनेक व्यहोंकी रचना की गयी है और जो परस्परमें मिली हुई हैं ऐसी भरतकी सेनाएँ न तो उनसे बहुत दूर ही जाती थीं और न स्वच्छन्दतापूर्वक १ अपनीतैः । २ उत्तरगुहाद्वारम् । ३ पुरोगतः । ४ वनभूमिम् । ५ मन्यते स्म । ६ अतिवाञ्छया। ७ निगरणं कृत्वा । ८ जरणशक्त्यभावात् । ९ उगिलति स्म । १० ऋतौ भवम् आर्तवम् पुष्पादि । धृतमातवं येन तत् । ११ उत्तरदिगभागः । १२ उत्तरस्यां दिशि स्थित्वा। १३ नितराम् । १४ विहितरचनानि । १५ संबद्धानि मिलितानि वा। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ आदिपुराणम् प्रसाधितानि दुर्गाणि कृतं चाशक्यसाधनम् । परचक्रमवष्टब्धं चक्रिणो जयसाधनैः ॥४३॥ बलवान्नाभियोक्तव्यों रक्षणीयाश्च संश्रिताः । यतितव्यं क्षितित्राणे जिगीषोवृत्तमीदृशम् ॥४४॥ इत्यलङ्घयबलश्चक्री चक्ररत्नमनुव्रजन् । कियतीमपि तां भूमिमवाष्ट म्भीत् स्वसाधनैः ॥४५॥ तावच्च परचक्रेण स्वचक्रस्य पराभवम् । चिलातावर्तनामानौ प्रभू शुश्रवतुः किल ॥४६॥ अभूतपूर्वमेतन्नों परचक्रमुपस्थितम् । व्यसनं प्रतिकर्तव्यमित्यास्तां संगतो मिथः ॥४७॥ ततो धनुर्धरप्रायं सहावीयं सहास्तिकम् । इतोऽमुतश्च संजग्मे तत्सैन्यं म्लेच्छराजयोः ॥४८॥ कृतीच्चविग्रहारम्भौ संरम्भं प्रतिपद्य तौ। विक्रम्य चक्रिणः सैन्यभेंजतुर्विजिगीषुताम् ॥४६॥ तावञ्च सुधियो धीराः कृतकार्याश्च मन्त्रिणः । निषिध्य तो रणारम्भाद् वचः पथ्यमिदं जगुः ॥५०॥ न किंचिदप्यनालोच्य विधेयं सिद्धिकाम्यता । अनालोचितकार्याणां दीयस्यो'ऽर्थसिद्धयः ॥५१॥ कोऽयं प्रभुरवष्टम्भी कुतस्त्यो वा कियद्बलः । बलवान् इत्यनालोच्य नाभिषेण्यः कथंचन ॥५२॥ विजयाxचलोलङ्घी नैष सामान्यमानुषः । दिव्यो दिव्यानुभावो वा भवेदेष न संशयः ॥५३॥ इधर-उधर ही घूमती थीं ॥४२॥ चक्रवर्तीकी विजयी सेनाओंने अनेक किले अपने वश किये, जिन्हें कोई वश नहीं कर सकता था, ऐसे राजाओंको वश किया और शत्रुओंके देश घेरे ॥४३।। बलवान्के साथ युद्ध नहीं करना, शरणमें आये हुएकी रक्षा करना, और अपनी पृथिवीकी रक्षा करनेमें प्रयत्न करना यही विजयकी इच्छा करनेवाले राजाके योग्य आचरण हैं ॥४४॥ इस प्रकार जिनकी सेना अथवा पराक्रमको कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसे चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्नके पीछे-पीछे जाते हए अपनी सेनाके द्वारा वहाँकी कितनी ही भूमिको अपने अधीन कर लिया ॥४५।। इतने में ही चिलात और आवर्त नामके दो म्लेच्छ राजाओंने शत्रओंकी सेनाके द्वारा अपनी सेनाका पराभव होता सुना ॥४६॥ हमारे देशमें शत्रुओंकी सेना आकर उपस्थित होना यह हम दोनोंके लिए बिलकुल नयी बात है, इस आये हुए संकटका हमें प्रतिकार करना चाहिए ऐसा विचारकर वे दोनों ही म्लेच्छ राजा परस्पर मिल गये ।।४७।। तदनन्तर जिसमें प्रायः करके धनुष धारण करनेवाले योद्धा हैं, तथा जो हाथियों और घोड़ोंके समूहसे सहित हैं ऐसी उन दोनों राजाओंकी सेना इधर-उधरसे आकर इकट्ठी मिल गयी ॥४८॥ जिन्होंने भारो युद्ध करनेका उद्योग किया है ऐसे वे दोनों ही राजा क्रोधित होकर तथा पराक्रम प्रकट कर चक्रवर्तीकी सेनाओं के साथ विजिगीषुपनको प्राप्त हुए अर्थात् उन्हें जीतनेकी इच्छासे उनके प्रतिद्वन्द्वी हो गये ।।४२॥ इसीके बीच, बुद्धिमान् धीर-वीर तथा सफलतापूर्वक कार्य करनेवाले मन्त्रियोंने उन दोनों राजाओंको युद्धके उद्योगसे रोककर नीचे लिखे अनुसार हितकारी वचन कहे ॥५०॥ हे प्रभो; सिद्धिकी इच्छा करनेवालोंको बिना विचारे कुछ भी नहीं करना चाहिए क्योकि जो बिना विचारे कार्य करते हैं उनके कार्योंकी सिद्धि बहुत दूर हो जाती है ॥५१।। हमारी सेनाको रोकनेवाला यह कौन राजा है ? कहाँसे आया है ? इसकी सेना कितनी है और यह कितना बलवान् है इन सब बातोंका विचार किये बिना ही उसकी सेनाके सम्मुख किसी भी तरह नहीं जाना चाहिए ॥५२॥ विजयाध पर्वतको उल्लंघन करनेवाला यह कोई साधारण मनुष्य नहीं है, यह या तो कोई देव होगा या कोई दिव्य प्रभावका धारक होगा इसमें व्याप्तम् । २ अभिषेणनीयः । ३ महतीम् । ४ वेष्टयति स्म । ५ परसैन्येन । ६ स्वराष्ट्रस्य ७ आवयोः । ८ संगतमभूत् । ९ अधिकां शक्ति विधाय । १० सिद्धिमिच्छता । ११ दूरतराः । १२ कियदबल अ०, स०। इ० । १३ सेनया अभियातव्यः । १४ सर्वथा । १५ देवः । १६ दिव्यसामर्थ्यः । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तम पर्व ११७ तदास्तां समरारम्भः संभाव्यो दुर्गसंश्रयः । तदाश्रितैरनायासात् जेतुं शक्यो रिपुमहान् । ५४ ॥ समावदुर्गमेतन्नः क्षेत्र केनामिभूयते । हिमवद्विजया द्विगङ्गा सिन्धुतटावधि ॥५५॥ अन्यच्च देवताः सन्ति सत्यमस्मत्कुलोचिताः । नागामेघमुखा नाम ते निरुन्धन्तु शात्रवान् ॥५६॥ इति तद्वचनाजातजयाशंसौ जनेश्वरौ । देवतानुस्मृति सद्यः चक्रतुः कृतपूजनौ ॥५७॥ ततस्ते जलदाकारधारिणो घनगर्जिताः । परितो वृष्टिमातेनुः सानिलामनिलाशनाः ॥५८॥ तजलं जलदोद्गीर्णं बलमाप्लाव्य जैष्णवम् । अधस्तिीर्यगथोऽवं च समन्तादभ्यदुद्रवत् ॥५६॥ न चेल क्नोपमस्यासीत् शिबिरे वृष्टिरीशितुः । बहिरेकार्णवं कृत्स्नमकरोद् व्याप्य रोदसी ॥६०॥ छत्ररत्नमुपर्यासीचर्मरत्नमधोऽभवत् । ताभ्यामावेष्टय तद्बुद्धं बलं स्यूतमिवामितः ॥६॥ मध्यरत्नद्वयस्यास्य स्थितमासप्तमाद् दिनात् । जलप्लवे बलं भर्तय॑तमण्डायितं तदा ॥२॥ चक्ररत्र कृतोद्योते रुद्धद्वादशयोजने । तत्राण्डके स्थितं जिष्णोनिराबाधमभूदु बलम् ॥६३॥ प्रविभक्तचतुर सेनान्यान्तःसुरक्षितम् । बहिर्जयकुमारेण ररक्षे किल तद्बलम् ॥६४॥ तदा पटकुटीभेदाः कीडिकाश्च विशङ्कटाः। कृताः स्थपतिरत्रेन' रथाश्चाम्बरगोचराः ॥६५॥ कुछ भी सन्देह नहीं है ॥ ५३ । इसलिए युद्धका उद्योग दूर रहे, हम लोगोंको किसी किलेका आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि किलेका आश्रय लेनेवाले पुरुष बड़ेसे बड़े शत्रुको सहज ही जीत सकते हैं ॥ ५४ ।। हिमवान् पर्वतसे विजयाध पर्वत तक और गंगा नदीसे सिन्धु नदीके किनारे तक का यह हमारा क्षेत्र स्वभावसे ही किलेके समान है, इसका पराभव कौन कर सकता है ? इसे कौन जीत सकता है ? ॥ ५५ ।। और दूसरी बात यह भी है कि हमारी कुल-परम्परासे चले आये नागमुख और मेघमुख नामके जो देव हैं वे अवश्य ही शत्रुओंको रोक लेंगे ॥ ५६ ।। इस प्रकार मन्त्रियोंके वचनोंसे जिन्हें विजय करनेकी इच्छा उत्पन्न हुई है ऐसे उन दोनों राजाओंने शीघ्र ही पूजन कर देवताओंका स्मरण किया ॥५७॥ स्मरण करते ही नागमुख देव, बादलों- . का आकार धारण कर घनघोर गर्जना करते हुए चारों ओर झंझावायुके साथ-साथ जलकी वृष्टि करने लगे ।। ५८ ॥ मेघोंके द्वारा बरसाया हुआ वह जल भरतेश्वरकी सेनाको डुबोकर ऊपर नीचे तथा अगल-बगल चारों ओर बहने लगा ।। ५९ ॥ यद्यपि वह जल इतना अधिक बरसा था कि उसने आकाश और पृथिवीके अन्तरालको व्याप्त कर बाहर एक समुद्र-सा बना' दिया था परन्तु चक्रवर्तीके शिबिर ( छावनी )में वस्त्रका एक टुकड़ा भिगोने योग्य भी वृष्टि नहीं हुई थी । ६० ।। उस समय भरतकी सेनाके ऊपर छत्ररत्न था और नीचे चर्मरत्न था, उन दोनों रत्नोंसे घिरकर रुकी हुई सेना ऐसी मालूम होती थी मानो चारों ओरसे सी ही दी गयी हो अर्थात् चर्मरत्न और छत्ररत्न इन दोनोंमें चारों ओरसे टाँके लगाकर बीचमें ही रोक दी गयी हो ॥ ६१ ॥ उस जलके प्रवाहमें भरतकी वह सेना सात दिनतक दोनों रत्नोंके भीतर ठहरी थी और उस समय वह ठीक अण्डाके समान जान पड़ती थी॥ ६२ ।। जिसमें चक्ररत्नके द्वारा प्रकाश किया जा रहा है ऐसे उस बारह योजन लम्बे-चौड़े अण्डाकार तम्बूमें ठहरी हुई भरतकी सेना सब तरहकी पीड़ासे रहित थी । ६३ ।। उस बड़े तम्बूमें चारों दिशाओंमें . . चार दरवाजे विभक्त किये गये थे, उसके भीतरकी रक्षा सेनापतिने की थी और बाहरसे जय कुमार उस सेनाकी रक्षा कर रहे थे ॥ ६४ ॥ उस समय सिलावट रत्नने अनेक प्रकारके कपड़ेके तम्ब, घासकी बड़ी-बड़ी झोपड़ियाँ और आकाशमें चलनेवाले रथ भी तैयार किये थे ॥६५॥ १ गाङ्गसिन्धु-ल०। २ नागमेघ-ल। ३ नागाः । ४ जिष्णोश्चक्रिणः संबन्धि । ५ अभिधावति स्म । ६ पटमाई यथा भवति । ७ ऊतम् तन्तुना संबद्धमित्यर्थः । ८ अण्डमिवाचरितम् । ९. पञ्जरे। १० कोटिकाः कुटीराः, शालाः । किटिकाश्च ल०, द०, अ०प०, स० । ११ विशालाः । १२ रथाः संचरगोचराः प० । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आदिपुराणम् बहिः कलकलं श्रुत्वा किमतदिति पार्थिवाः । करं व्यापारयामासुः क्रुन्द्राः कौक्षेयकं प्रति ॥६६॥ ततश्चक्रधरादिष्टा गणबद्धामरास्तदा । नागानुत्सारयामासु रारुष्टा हुंकृतैः क्षणात् ॥६॥ बलवान् कुरुराजोऽपि मुक्तसिंहप्रगर्जितः । दिव्यास्त्रैरजयन्नागान् रथं दिव्यमधिष्टितः ॥६॥ तदा रणाङ्गणे वर्षन् शरधारामनारतम् । स रेजे धृतसन्नाहः प्रावृपेण्य इवाम्बुदः ॥६९।। तन्मुक्ता दिशिखा दीपा रेजिरे समराजिरें । द्रष्टुं तिरोहितानागान् दीपिका इव बोधिताः ॥७॥ ततो निववृत जित्वा नागान् मंघमुखानसौ । कुमारो रणसंरम्भात् प्राप्तमेघस्वरश्रुतिः ॥७१॥ कुरुराजस्तदा स्फूर्जत्पर्जन्य' स्तनितोजितैः । गर्जितैर्निर्जयन् मंघमुखान् ख्यातस्तदाज्ञया ॥७२॥ तोषितैरवदानेन घोषितोऽस्य जयोऽमरैः । दन्ध्वनदुन्दुभिध्वानबधिरीकृतदिङमुखैः ॥७३॥ ततो दृष्टापदानोऽयं तुष्टुवे चक्रिणा मुहुः । नियोजितश्च सत्कृत्य वीरो वीराग्रणीपदं ॥७॥ इन्द्रजाल इवामुष्मिन् व्यतिक्रान्तेऽहिविप्लवे । प्रत्यापत्तिमगाद् भूयो बलमाविर्भवजयम् ॥७॥ विध्वस्ते पन्नगानीक विबलो म्लेच्छनायकी । चक्रिणश्चरणावेत्य भयभ्रान्तो प्रणेमतुः ॥७६॥ धनं यशोधनं चास्मै कृतागः परिशोधनम् । दत्वा प्रसीद देवेति तो भृत्यत्वमुपेयतुः ॥७७॥ बाहर कोलाहल सुनकर 'यह क्या है' इस प्रकार कहते हुए राजाओंने क्रोधित होकर अपना हाथ तलवारकी ओर बढ़ाया ॥ ६६ ॥ तदनन्तर उस समय जिन्हें चक्रवर्तीने आदेश दिया है ऐसे गणबद्ध जातिके देवोंने क्रुद्ध होकर अपने हुंकार शब्दोंके द्वारा क्षण-भरमें नागमुख देवोंको हटा दिया ॥ ६७ ॥ अतिशय बलवान् कुरुवंशी राजा जयकुमारने भी दिव्य रथपर बैठकर सिंह-गर्जना करते हुए, दिव्य शस्त्रोंके द्वारा उन नागमुख देवोंको जीता ॥ ६८ ॥ उस समय युद्धके आँगनमें निरन्तर बाणोंकी वर्षा करता हुआ और शरीरपर कवच धारण किये हुए वह जयकुमार वर्षाऋतुके बादलके समान सुशोभित हो रहा था ।। ६९ ॥ जयकुमारके द्वारा छोड़े हुए वे देदीप्यमान बाण युद्धके आँगनमें ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो छिपे हुए नागमुखोंको देखनेके लिए जलाये हुए दीपक ही हों ॥७०॥ तदनन्तर वह जयकुमार नागमुख और मेघमुख देवोंको जीतकर तथा मेघेश्वर नाम पाकर उस युद्धसे वापस लौटा ॥ ७१ ।। उस समय वह जयकुमार बिजली गिरानेके पहले भयंकर शब्द करते हुए बादलोंकी गर्जनाके समान अपनी तेज गर्जनाके द्वारा मेघमुख देवोंको जीतता हुआ मेघेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुआ था ॥७२॥ बार-बार बजते हुए दुन्दुभियोंके शब्दोंसे जिन्होंने समस्त दिशाएँ बहिरी कर दी हैं ऐसे देवोंने इस जयकुमारके पराक्रमसे सन्तुष्ट होकर इसका जयजयकार किया था ।। ७३ ॥ तदनन्तर जिसका पराक्रम देख लिया गया है ऐसे इस जयकुमारकी चक्रवर्तीने भी बार-बार प्रशंसा की और उस वीरका सत्कार कर उन्होंने उसे मुख्य शूरवीरके पदपर नियुक्त किया । ७४ । इन्द्रजालके समान वह नागमुख देवोंका उपद्रव शान्त हो जानेपर जिसकी जीत प्रकट हो रही है ऐसी वह भरतकी सेना पुनः स्वस्थताको प्राप्त हो गयी अर्थात् उपद्रव टल जानेपर सुखका अनुभव करने लगी ।। ७५ ॥ नागमुख देवोंकी सेनाके भाग जानेपर वे दोनों ही चिलात और आवर्त नामके म्लेच्छ राजा निर्बल हो गये और भयसे घबड़ाकर चक्रवर्तीके चरणोंके समीप आकर प्रणाम करने लगे ॥ ७६ ।। उन्होंने अपराध क्षमा कराकर भरतके लिए बहुत-सा धन तथा यशरूपी धन दिया और 'हे देव, प्रसन्न होइए' इस प्रकार कहकर उनकी दासता स्वीकार १खड्गम् । २ आज्ञापिताः । ३ पलायितान् चक्रुः । ४ क्रुद्धाः । ५ जयकुमारः । ६ धृतकवचः । ७ प्रावृषि भवः । ८ समरांगणे । ९ न्यवृतत् । १० प्राप्तमेघस्वरसंज्ञः । ११ मेघः । १२ पराक्रमेण । १३ दृष्टावदातोऽयं स०, ल०, द० । दृष्टावदानोऽयं द०, प० । दृष्टसामर्थ्य: । १४ स्तूयते स्म । १५ पूर्वस्थितिम् । स्वरूपात् प्रच्युतस्य पुनः स्वरूपे अवस्थानम्, आश्वासमित्यर्थः । १६ कृतदोषस्य परिशोधनं यस्मात् तत् । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व ११६ निस्सपत्नां महीमेनां कुर्वसर्वानिधीश्वरः । आ हिमाद्रितटा भूयः प्रयाणमकरोद् बलैः ॥७॥ सिन्धुरोधोभुवः क्षुन्दन प्रयाणे जयसिन्धुरैः सिन्धुप्रपात मासीदन्" सिन्धुदेव्या न्यषेचि सः ॥७॥ ज्ञात्वा समागतं जिष्णुं देवि स्वावासगोचरम् । उपयाय समुद्धस्य रत्नाघं सपरिच्छदा ॥८॥ पुण्यैः सिन्धु जलैरेनं हेमकुम्भशतोद्ध तैः । साभ्यषिञ्चत् स्वहस्तेन मद्रासननिवेशितम् ॥१॥ कृतमङ्गलनेपथ्यमभ्यनन्दज्जयाशिषा । देव त्वदर्शनादद्य पूताऽस्मीत्यवदच्च तम् ॥२॥ तत्र भद्रासनं दिव्यं लब्ध्वा तदुपढौकितम् । कृतानुव्रजनां° किंचित् सिन्धुदेवीं व्यसर्जयत् ॥८३॥ हिमाचलमनुप्राप्तस्तत्तटानि जयं'' जयम् । कैश्चित्प्रयाणकैः प्रापत् हिमवत्कूटसंनिधिम् ॥४॥ पुरोहितसखस्तन कृतोपवसनक्रियः । अध्यशेत शुचिं शय्यां दिव्यास्त्राण्यधिवासयन् ॥८५॥ विधिरेष न चाशक्तिरिति संभावितो नृपैः । स राज्यमकरोच्चापं "वज्रकाण्डमयत्नतः ॥८६॥ तत्रामोघं शरं दिव्यं समधत्तोर्ध्वगामिनम् । वैशाखस्थानमास्थाय' स्वनामाक्षरचिह्नितम् ॥८७॥ मुक्तसिंहप्रणादेन यदा मुक्तः शरोऽमुना" । तदा सुरगणैस्तुष्टैर्मुक्तोऽस्य कुसुमांजलिः ॥८॥ की ॥७७। इस समस्त पृथिवीको शत्रुरहित करते हुए प्रथम निधिपति-चक्रवर्तीने फिर अपनी सेनाके साथ-साथ हिमवान् पर्वतके किनारे तक गमन किया ॥७८॥ गमन करते समय अपने विजयी हाथियोंके द्वारा सिन्धु नदीके किनारेकी भूमिको खूदते हुए भरतेश्वर जब सिन्धुप्रपातपर पहुंचे तब सिन्धु देवीने उनका अभिषेक किया ॥७९॥ वह देवी भरतको अपने निवासस्थानके समीप आया हुआ जानकर रत्नोंका अर्घ लेकर परिवारके साथ उनके पास आयी थी ॥८०॥ और उसने अपने हाथसे सुवर्णके सैकड़ों कलशोंमें भरे हुए सिन्धु नदीके पवित्र जलसे भद्रासनपर बैठे हुए महाराज भरतका अभिषेक किया था ॥८१।। अभिषेक करनेके बाद उस देवीने मंगलरूप वस्त्राभूषण पहने हुए महाराज भरतको विजयसूचक आशीर्वादोंसे आनन्दित किया तथा यह भी कहा कि हे देव, आज आपके दर्शनसे मैं पवित्र हुई हूँ ॥८२।। वहाँ उस सिन्धु देवीका दिया हुआ दिव्य भद्रासन प्राप्त कर भरतने आगेके लिए प्रस्थान किया और कुछ दूर तक पीछे-पीछे आती हुई सिन्धु देवीको बिदा किया ।।८३॥ हिमवान् पर्वतके समीप पहुँचकर उसके किनारोंको जीतते हुए भरत कितने ही मुकाम चलकर हिमवत् कूटके निकट जा पहुँचे ।।८४॥ वहाँ उन्होंने पुरोहितके साथ-साथ उपवास कर और दिव्य अस्त्रोंकी पूजा कर डाभकी पवित्र शय्यापर शयन किया ॥८५॥ अस्त्रोंकी पूजा करना यह एक प्रकारकी विधि ही है, कुछ चक्रवर्तीका असमर्थपना नहीं है, ऐसा विचार कर राजाओंने जिनका सन्मान किया है ऐसे भरतराजने बिना प्रयत्नके ही अपना वज्रकाण्ड नामका धनुष डोरीसे सहित किया ॥८६।। और वैशाख नामका आसन लगाकर अपने नामके अक्षरोंसे चिह्नित तथा ऊपरकी ओर जानेवाला अपना अमोघ ( अव्यर्थ ) दिव्य बाण उस धनुषपर रखा ॥८७॥ जिस समय सिंहनाद करते हुए भरतने वह बाण छोड़ा था उस समय देवोंके समूहने सन्तुष्ट होकर उनपर फूलोंकी अंजलियाँ छोड़ी थीं, अर्थात् फूलोंकी वर्षा की थी॥८८।। १ उत्कृष्टनिधिपतिः । 'वरे त्वर्वागि'त्यभिधानात् । २ सिन्धुनदीतीरभूमीः। ३ संचूर्णयन् । ४ सिन्धुनदीपतनकुण्डम् । ५ आगच्छन् । ६ न्यषेवि द० । सेवते स्म । ७ उपाययौ। ८ सपरिकरा। ९ पवित्रः । १० विहितानुगमनाम् । ११ जयन् जयन् ल०, अ०, इ० । जयं जयन् प०, स०। १२ हिमवन्नामकूट । १३ अधिशेते स्म । १४ मन्त्रैरभिपूजयन् । १५ शक्यभावो न । १६ मौर्वीसहितम् । १७ संधानमकरोत् । १८ वैशाखस्थाने स्थित्वा, वितस्त्यन्तरेण स्थिते पादद्वये विशाखः, तथा चोक्तं धनुर्वेदे। वामपादप्रसारे दक्षिणसंकोचे प्रत्यलीढं दक्षिणजंघाप्रसारे वामसंकोचे चालीढम् । तुल्यपादयुगम् समपदम् । वितस्त्यन्तरेण स्थिते पादद्वारे विशाबः, मण्डलाकृति पादद्वयं मण्डलम् । १९ चक्रिणा। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम 3 समुत्पत्य क्वचिदष्यस्वलद्गतिः । संप्राप्यद्विमवत्कटं तद्वेश्माकम्पयन् पतन् ॥८९॥ साध्यायं ज्ञातचक्रधरागमः । उच्चचाल चलन्मौलिस्तन्निवासी सुरोत्तमः ॥ ९० ॥ संप्राप्तमुदेश यमध्यास्ते स्म चक्रतुत दरोप संरम्भो धनुयमसकृत्स्पृशन् ॥९१॥ " ११ 15 हिमवान पृथग्जनः । चितोऽय वया देवदत्तमतिमानुषम् ॥९२॥ 'विप्रान्तराः स्वास्मदावासाः कव भवच्छरः । तथाप्याकम्पितास्तेन पततैपरे वयम् ॥ ९३॥ स्वप्रतापः शरण्याजातुपतन् गगनाङ्गणम् गणवदपदं कर्तुमस्मान्नाहूतवान् भुवम् ॥९४॥ विजितान्धिः समाक्रान्तविज या गुहीदर हिमाडिशिप जम्भते ते जयोग्रमः ॥९५॥ जयवानुवाद सिदग्विजयस्ते जयतान् नन्दाविद्विषीष्ट भवानिति ॥९६॥ समुचरत् जयध्यानमुखः स सुंरः समम् । प्रभु समाजयामास संपणारं सुरोत्तमः ॥१७॥ अभिषिच्य च राजेन्द्र राजयद्विधिना ददी गोशीचन्दनं सोऽस्मै सममोपथिमालया ॥९८॥ मुक्तिवासिनी देव दृरानमितमीलयः । देवाखामानमन्ये प्रसादाभिकाङ्क्षिणः ॥ ९९ ॥ जिसकी गति कहीं भी स्खलित नहीं होती ऐसा वह बाण ऊपरकी ओर दूर तक जाकर वहाँपर रहनेवाले देवके भवन में पड़कर उस भवनको हिलाता हुआ हिमवत्कूटपर जा पहुँचा ||२९॥ मागध देवके समान कुछ विचार कर जिसने चक्रवर्तीका आगमन समझ लिया है ऐसा यहाँका रहनेवाला देव अपना मस्तक झुकाता हुआ चला ॥ ९० ॥ और जिसने अपना कुछ क्रोध रोक लिया है ऐसा वह देव धनुषकी चापका स्पर्श करता हुआ उस स्थानपर जा पहुँचा जहाँपर कि चक्रवर्ती विराजमान थे || ११|| वह देव भरतसे कहने लगा कि हे देव, यह हिमवान् पर्वत अत्यन्त ऊँचा है और साधारण पुरुषोंके द्वारा उल्लंघन करने योग्य नहीं है फिर भी आज आपने उसका उल्लंघन कर दिया है इसलिए आपका चरित्र मनुष्योंका उल्लंघन करनेवाला अर्थात् लोकोत्तर है ।। ९२ ।। हे देव, बहुत दूर बने हुए हम लोगोंके आवास कहाँ ? और आपका बाण कहाँ ? तथापि पड़ते हुए इस बाणने हम सबको एक ही साथ कम्पित कर दिया ॥ ९३ ॥ हे देव, यह आपका प्रताप बाणके व्याजसे आकाशमें उछलता हुआ ऐसा जान पड़ता था मानो हम लोगोंको गणबद्ध ( चक्रवर्ती के अधीन रहनेवाली एक प्रकारकी देवोंकी सेना ) देवोंके स्थानपर नियुक्त होनेके लिए बुला ही रहा था || १४ || जिसने समुद्रको भी जीत लिया है और विजयार्ध पर्वतकी गुफाओंके भीतर भी आक्रमण कर लिया है ऐसा यह आपका विजय करनेका उद्यम आज हिमवान् पर्वतके शिखरोंपर भी फैल रहा है || १५ || हे प्रभों, आपका समस्त दिग्विजय सिद्ध हो चुका है इसलिए हे जयशील, आपकी जय हो, आप समृद्धिमान हों और सदा बढ़ते रहें इस प्रकार आपका जयजयकार बोलना पुनरुक्त है || ९६ ।। इस प्रकार उच्चारण करता हुआ जो जय जय शब्दोंसे वाचाल हो रहा है ऐसा वह उत्तम देव अन्य अनेक उत्तम देवोंके साथ-साथ सब तरहके उपचारोंसे भरतकी सेवा करने लगा ||९७ ॥ तथा राजाओंके योग्य विधिसे राजाधिराज भरतका अभिषेक कर उसने उनके लिए औषधियों के समूह के साथ गोशीर्ष नामका चन्दन समर्पित किया || ९८ || और कहा कि हे देव, आपके क्षेत्रमें रहनेवाले ये देव आपकी प्रसन्नताकी इच्छा करते हुए दूरसे ही मस्तक झुकाकर आपके लिए नमस्कार 菜々 1५ १ संप्रापद्धिम- प०, ल० । २ विषायत्यर्थः । ३ हिमवत्कृटवासी हेमवानाम ४ ईपपीडित | ११ जयोद्योगः । ५ सामान्यैः । ६ दिव्यमित्यर्थः । ७दूर । ८ भवतो वाणः । ९ शरेण । १० युगपत् । १२ सार्थक पुनर्वचनमनुवादः । १३ संभावयामास । १४ राजाविधानेन । १५ १६] वनपुष्पमाला १७ तवं पालन क्षेत्रवासिनः । हरिचन्दनम् । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व १२१ ७ 3 धेहि' देव ततोsस्मासु प्रसादतरलां दशम् । स्वामिप्रसादलामो हि वृत्ति लामो ऽनुजीविनाम् ॥१००॥ निदेश रुचितैवास्मान् संभावयितुमर्हसि । वृत्तिलाभादपि प्रायस्तल्लामः किंकरैर्मतः ॥ १०१ ॥ मानयनिति तद्वाक्यं स तानमरसत्तमान् । व्यसर्जयत्स्वसात्कृत्य यथास्वं कृतमाननान् ॥ १०२ ॥ हिमवज्जयशंसीनि मङ्गलान्यस्य किन्नराः । जगुस्तत्कुञ्ज देशेषु स्वैरमारब्धमूर्च्छना ॥१०३॥ असकृत् किन्नर स्त्रीणामाधुन्वानाः स्तनावृतीः । सरोवीचिभिदो मन्दमाववुस्तद्वनानिलाः ॥ १०४ ॥ स्थलाब्जिनीवनाद्विष्वक किरन् किंजल्कजं रजः । हिमी हिमाद्रिकुञ्जेभ्यस्तं सिषेवे समीरणः ॥ १०५ ॥ स्थलाम्भोरुहिणीवास्य कीर्तिः साकं " जयश्रिया । हिमाचलनिकुञ्जेषु पप्रथे " दिग्जयार्जिता ॥ १०६ ॥ हिमाचलस्थलेष्वस्य धृतिरासीत् प्रपश्यतः । कृतोपहारकृत्येषु' ' स्थलाम्भोजैर्विकस्वरैः ॥ १०७ ॥ तमुच्चैर्वृत्तिमाक्रान्तदिक्चक्रं विष्टतायतिम् । स्वमिवानल्परत्वद्धिं हिमाद्रि बहुमंस्त" सः ॥ १०८ ॥ कर रहे हैं ॥९९॥ इसलिए हे देव, हम लोगोंपर प्रसन्नता से चंचल हुई दृष्टि डालिए क्योंकि स्वामीकी प्रसन्नता प्राप्त होना ही सेवक लोगोंकी आजीविका प्राप्त होना है । भावार्थ - स्वामी लोग सेवकोंपर प्रसन्न रहें यही उनकी उचित आजीविका है ॥१००॥ हे स्वामिन्, आप उचित आज्ञाओं के द्वारा हम लोगों को सन्मानित करनेके योग्य हैं अर्थात् आप हम लोगोंको उचित आज्ञाएँ दीजिए क्योंकि सेवक लोग स्वामीकी आज्ञा मिलनेको आजीविका ( तनख्वाह ) की प्राप्ति से भी कहीं बढ़कर मानते हैं ।। १०१ ।। इस प्रकारके उस देवके वचनोंकी प्रशंसा करते हुए भरतने उन सब उत्तम देवोंका सत्कार किया और सबको अपने अधीन कर बिदा कर दिया ।। १०२ ।। उस समय अपने इच्छानुसार स्वरोंका चढ़ाव उतार करनेवाले किन्नर देव उस पर्वतके लतागृहों के प्रदेशों में 'भरतने हिमवान् देवको जीत लिया है' इस बातको सूचित करनेवाले मंगलगीत गा रहे थे ।। १०३ ।। उस समय वहाँ किन्नर देवोंकी स्त्रियोंके स्तन ढकनेवाले वस्त्रों को बार-बार हिलाता हुआ तथा तालाबकी तरंगोंको छिन्न-भिन्न करता हुआ उस हिमवान् पर्वतके वनोंका वायु धीरे-धीरे बह रहा था ।। १०४ ॥ स्थल-कमलिनियोंके वनके चारों ओर केशरसे उत्पन्न हुआ रज फैलाता हुआ तथा हिमवान् पर्वतके लतागृहोंसे आया हुआ शीतल वायु महाराज भरतकी सेवा कर रहा था ।। १०५ ।। दिग्विजय करनेसे प्राप्त हुई भरतकी कीर्ति जयलक्ष्मी के साथ-साथ स्थलकमलिनियोंके समान हिमवान् पर्वतके लतागृहों में फैल रही थी ।। १०६ ।। जिन्होंने फूले हुए स्थल-कमलोंसे उपहारका काम किया है ऐसे हिमवान् पर्वतके स्थलोंमें चारों ओर देखते हुए भरतको बहुत ही सन्तोष होता था ।। १०७ ॥ वहं हिमवान् पर्वत ठीक भरतके समान था क्योंकि जिस प्रकार भरत उच्चैर्वृत्ति अर्थात् उत्कृष्ट व्यवहार धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह पर्वत भी उच्चैर्वृत्ति अर्थात् बहुत ऊँचा था, जिस प्रकार भरतने अपने तेजसे समस्त दिशाएं व्याप्त कर ली थीं उसी प्रकार उस पर्वतने भी अपने विस्तारसे समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली थीं, जिस प्रकार भरत आयति अर्थात् उत्तम भवितव्यता ( भविष्यत्काल ) धारण करते थे उसी प्रकार वह पर्वत भी आयति अर्थात् लम्बाई धारण कर रहा था और जिस प्रकार भरतके पास अनेक रत्नरूपी सम्पदाएँ थीं उसी प्रकार उस पर्वतके पास भी अनेक रत्नरूपी सम्पदाएँ थीं । इस प्रकार अपनी समानता रखनेवाले उस हिमवान् १ कुरु । २ जीवितलाभः । ' आजीवो जीविका वार्ता वृत्तिर्वर्तनजीवने' इत्यभिधानात् । ३ सेवकानाम् । ४ शासनैः । 'अपवादस्तु निर्देशो निदेशः शासनं च सः । शिष्टिश्चाज्ञा च' इत्यभिधानात् । ५ आज्ञालाभः । ६ पूजयन् । ७ तद्देवस्य वचनम् । ८ हिमवन्निकुञ्जप्रदेशेषु । 'निकुञ्जकुञ्जौ वा क्लीबे लतादिपिहितोदरे' इत्यभिधानात् । ९ उरोजाच्छादनवस्त्राणि । १० सह । 'साकं सत्रा समं सह' इत्यभिधानात् । ११ प्रकृष्टोऽभवत् । १२ विहितपुष्पोपहारव्यापारेषु । १३ धृतधनागमम् । १४ बहुमानमकरोत् । १६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आदिपुराणम् अत्रान्तरे' गिरीन्द्रेऽस्मिन् व्यापारितदृशं प्रभुम् । विनोदयितुमित्युचैः पुरोधा गिरमभ्यधात् ॥ १०१ ॥ हिमवानयमुत्तुङ्गः संगतः सततं श्रिया । कुलक्षोणीभृतां धुर्यो धत्ते युष्मदनुक्रियाम् ॥ ११०॥ अहो महानयं शैलो दुरारोहो दुरुत्तरः" । शरसंधानमात्रेण सिद्धो युष्मन्महोदयात् ॥ १११ ॥ चित्रैरलंकृता रत्रैरस्य श्रेणी हिरण्मयी । शतयोजनमात्रोच्चा टङ्कच्छिन्नेव भात्यसौ ॥ ११२ ॥ स्त्रपूर्वापरकोटिभ्यां विगाह्य लवणार्णवम् । स्थितोऽयं गिरिराभाति मानदण्डायितो भुवः ॥ ११३ ॥ "द्विर्विस्तृतोऽयमद्रीन्द्रो भरताद् भरतर्षभ । मूले चोपरिभागे च तुल्यविस्तारसंमतिः ॥११४॥ अस्यानुसानु रम्येयं वनराजी विराजते । शश्वदध्युषिता सिद्धविद्याधरमहोरगैः ॥ ११५ ॥ १० तटाभोगा विभान्त्यस्य ज्वलन्मणिविचित्रिताः । चित्रिता इव संक्रान्तैः स्वर्वधूप्रतिस्त्रिकैः ॥ ११६॥ पर्यटन्ति तदेवस्य सप्रेयस्यो " नभश्चराः । स्वैरसंभोगयोग्येषु हारिभिर्रुतिकागृहैः ॥ ११७ ॥ विवि रमणीयेषु सानुष्वस्य धृतोत्सवाः । न धृतिं दधतेऽन्यत्र गीर्वाणाः साप्सरोगणाः ॥ ११८ ॥ पर्वतको भरतने बहुत कुछ माना था - आदरकी दृष्टि से देखा था ।। १०८ ।। इसी बीच में, जब कि महाराज भरत अपनी दृष्टि हिमवान् पर्वतपर डाले हुए थे उसकी शोभा निहार रहे थे तब पुरोहित उन्हें आनन्दित करनेके लिए नीचे लिखे अनुसार उत्कृष्ट वचन कहने लगा ॥ १०९ ॥ हे प्रभो, यह हिमवान् पर्वत बहुत ही उत्तुंग अर्थात् ऊँचा है, सदा श्री अर्थात् शोभासे सहित रहता है और कुलक्षोणीभृत् अर्थात् कुलाचलों में श्रेष्ठ है इसलिए आपका अनुकरण करता है - आपकी समानता धारण करता है क्योंकि आप भी तो उत्तुंग अर्थात् उदारमना हैं, सदा श्री अर्थात् राज्यलक्ष्मीसे सहित रहते हैं और कुलक्षोणीभृत् अर्थात् वंशपरम्परासे आये हुए राजाओं में श्रेष्ठ हैं ॥ ११० ॥ अहा, कितना आश्चर्य है कि यह बड़ा भारी पर्वत, जो कि कठिनाईसे चढ़ने योग्य है और जिसका पार होना अत्यन्त कठिन है, डोरीपर बाण रखते ही आपके पुण्य प्रतापसे आपके वश हो गया है ।। १११ ॥ इसकी सुवर्णमयी श्रेणी अनेक प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित हो रही है, सौ योजन ऊँची है और ऐसी जान पड़ती है मानो टाँकीसे गढ़ कर ही बनायी गयी हो ।। ११२ ।। अपने पूर्व और पश्चिमके कोणोंसे 'लवण समुद्र में प्रवेश कर' पड़ा हुआ यह पर्वत ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो पृथिवीके नापनेका एक दण्ड ही हो ।। ११३ ।। हे भरतश्रेष्ठ, यह श्रेष्ठ पर्वत भरतक्षेत्र से दूने विस्तारंवाला है और मूल, मध्य तथा ऊपर तीनों भागों में इसका समान विस्तार है ।। ११४ ।। जिसमें सिद्ध, विद्याधर और नागकुमार निरन्तर निवास करते हैं ऐसी यह मनोहर वनकी पंक्ति इस पर्वतके प्रत्येक शिखरपर शोभायमान हो रही है ॥ ११५ ॥ देदीप्यमान मणियोंसे चित्र-विचित्र हुए इस पर्वत के किनारे के प्रदेश बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे हैं और भीतर पड़ते हुए देवांगनाओंके प्रतिबिम्बों से ऐसे जान पड़ते हैं मानो उनमें अनेक चित्र ही खींचे गये हों ।। ११६ ।। सुन्दर लतागृहोंसे अपनी इच्छानुसार उपभोग करने योग्य इस पर्वतके किनारोंपर अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ विद्याधर लोग टहल रहे हैं ।। ११७ ॥ जो देव लोग अपनी अप्सराओंके साथ इस पर्वत के निर्जन पवित्र और रमणीय किनारोंपर क्रीड़ा कर लेते हैं फिर उन्हें किसी दूसरी जगह सन्तोष नहीं होता १ अस्मिन्नवसरे । २ श्रीदेव्या लक्ष्म्या च । ३ मुख्यः । ४ तवानुकरणम् । ५ अवतरितुमशक्यः । १० सानुविस्ताराः । ६ राद्धो ल० । ७ द्विगुणविस्तारः । ११ प्रियतमासहिताः । १२ पवित्र । ८ भरतश्रेष्ठ । ९ तुल्या विस्तार-ल०, ६० । 'वित्रिवती पूतविजन' इत्यभिधानात् । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तम पर्व १२३ पर्यन्तेऽस्य' वनोदेशा विकासि कुसमस्मिताः। हसन्तीवामरोद्यानश्रियमात्मीयया श्रिया ॥११९॥ स्वेन मूर्ना बिभत्येष श्रियं नित्यानपायिनीम् ।। स्मार्ताः स्मरन्ति यां शच्याः सौभाग्यमदकर्षिणीम् ॥१२०॥ मुनि पद्महदोऽस्यास्ति तश्री बहुवर्णनः । प्रसन्नवारिरुत्फुल्लहैमपङ्कजमण्डनः ॥१२१॥ हृदस्यास्य पुरःप्रत्यक्तोरण द्वारनिर्गते । गङ्गासिन्धू महानद्यौ धत्तेऽयं धरणीधरः ॥१२२॥ सरितं रोहितास्यां च दधात्येष शिलोच्चयः । तदु दक्तोरण द्वारान्निःसृत्योदारवीं गताम् ॥ १२३॥ महापगाभिरित्याभिरलङ्घयाभिर्विभात्ययम् । तिसृभिः शक्तिभिः स्वं वा भूभृद्भाव विभावयन् ॥१२४॥ शिखररेष कुत्कीलः कीलयन्निव खाङ्गणम् । सिद्धाध्वानं रुणद्वीद्धैः पराध्यै रुद्धदिङ्मुखैः ॥१२५॥ 'परशतमिहादीन्द्रे सन्त्यावासाः सुधाशिनाम् । येऽनल्पां कल्पजां लक्ष्मी हसन्तीव स्वसंपदा ॥१२६॥ इत्यनेकगुणेऽप्यस्मिन् दोषोऽस्त्यको महान् गिरौ । यत् पर्यन्तगतान्धत्ते गुरुरप्यगुरुद्रुमान् ॥१२७॥ अलङ्घयमहिमोदनो गरिमाक्रान्तविष्टयः । जगद्गुरोः ''पुरोराभामयं धत्ते धराधरः ॥१२८॥ है ।। ११८ ॥ जो फूले हुए फूलरूपी हास्यसे सहित हैं ऐसे इसके किनारेके वनके प्रदेश ऐसे जान पड़ते हैं मानो अपनी शोभासे देवोंके बगीचेकी शोभाकी हँसी ही कर रहे हों ।। ११९ ।। यह पर्वत अपने मस्तक ( शिखर ) से उस शोभाको धारण करता है, जो कि, सदा नाशरहि है और स्मृतिके जानकार पण्डित लोग जिसे इन्द्राणीके सौभाग्यका अहंकार दूर करनेवाली कहते हैं ॥१२०।। इसके मस्तकपर पद्म नामका वह सरोवर है जिसमें कि श्री देवीका निवास है, शास्त्रकारोंने जिसका बहुत कुछ वर्णन किया है, जिसमें स्वच्छ जल भरा हुआ है, और जो फूले हुए सुवर्ण कमलोंसे सुशोभित है ॥१२१।। यह पर्वत क्रमसे इस पद्मसरोवरके पूर्व तथा पश्चिम तोरणसे निकली हुई गंगा और सिन्धुनामकी महानदियोंको धारण करता है ॥१२२॥ तथा पद्म सरोवरके उत्तर तोरणद्वारसे निकलकर उत्तरकी ओर गयी हुई. रोहितास्या नदीको भी यह पर्वत धारण करता है ।।१२३।। यह पर्वत इन अलंध्य तीन महानदियोंसे ऐसा सुशोभित होता है मानो उत्साह, मन्त्र और प्रभुत्व इन तीन शक्तियोंसे अपना भूभृद्भाव अर्थात् राजापना ( पक्षमें पर्वतपंना ) ही प्रकट कर रहा हो ॥१२४॥ देदीप्यमान तथा दिशाओंको व्याप्त करनेवाले अपने अनेक शिखरोंसे यह पर्वत ऐसा जान पड़ता है मानो आकाशरूपी आँगनको कीलोंसे युक्त कर देवोंका मार्ग ही रोक रहा हो ॥१२५।। इस पर्वतराजपर देवोंके अनेक आवास हैं जो कि अपनी शोभासे स्वर्गकी बहुत भारी शोभाकी भी हँसी करते हैं ।।१२६।। इस प्रकार इस पर्वत में अनेक गुण होनेपर भी एक बड़ा भारी दोष है और वह यह कि यह स्वयं गुरु अर्थात् बड़ा होकर भी अपने चारों ओर लगे हुए अगुरु द्रुम अर्थात् छोटे-छोटे वृक्षोंको धारण करता है ( परिहार पक्षमें अगुरु द्रुमका अर्थ अगुरु चन्दनके वृक्ष लेना चाहिए ) ॥१२७।। यह पर्वत जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवकी सदृशता धारण करता है क्योंकि जिस प्रकार भगवान् वृषभदेव अपनी अलंघ्य महिमासे उदग्र अर्थात् उत्कृष्ट हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी अपनी अलंघ्य महिमासे उदग्र अर्थात् ऊँचा है और जिस प्रकार भगवान् वृषभदेवने अपनी गरिमा अर्थात् गरुपनेसे समस्त विश्वको व्याप्त कर लिया है उसी प्रकार इस पर्वतने भी अपनी गरिमा अर्थात् भारीपनसे समस्त विश्वको व्याप्त कर लिया है । भावार्थ - जिस प्रकार भगवान् वृषभदेवका गुरुपना समस्त लोकमें प्रसिद्ध है उसी प्रकार इस पर्वतका भारीपना भी लोकमें प्रसिद्ध १ पर्यन्तस्य ल०। २ स्मृतिदिनः । ३ धृता श्रीः (देवी) येन स । ४ पूर्वपश्चिमदिवस्थतोरण । ५ तत्पग्रसरोवरस्थोत्तरदिक्स्थतोरण। ६ उत्तरदिङ्मुखीम् । ७ देवभेदमार्गम् । ८ अपरिमिताः। 'परा संख्या शताधिकात् । ९ स्वर्गजाम् । १० कालागुरुतरून्, लघुतरूनिति ध्वनिः । ११ उपमाम् । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् 10 इत्यस्याद्रेः परं शोभां शंसत्युच्चैः पुरोधसि । प्रशशंस तमन्द्रं संप्रीतो भरताधिपः ॥ १२६ ॥ स्वभुक्तिक्षेत्रसीमानं सोऽभिनन्द्य हिमाचलम् । प्रत्यावृतत् प्रभुद्धं वृषभाद्विं कुतूहलात् ॥१३०॥ यो योजनशतोच्छ्रायो मूले तावच्च विस्तृतः । तदर्द्धविस्तृतिमूर्ध्नि भुवो मौलि रिवोद्गतः ॥ १३१ ॥ यस्योरसंगभुवो रम्याः कदली घण्डमण्डितैः । संभोगाय नभोगानां वसन्ते स्म लतालयैः ॥ १३२॥ समागम सनागैश्च सपुन्नागैः परिष्कृतम् । यदुपान्ते वनं सेव्यं मुच्यते जातु नामरैः ॥ १३३ ॥ स्त्रतटस्फटिकोत्सर्पत्प्रभादिग्धहरिन्मुखम् । शरदभ्रैरिवारब्धवपुषं सनभोजुषम् ॥१३४॥ तं शैलं भुवनस्यैकं ललामेव निरूपयन् । कलयामास लक्ष्मीवान् स्वयशः प्रतिमानकम् ॥१३५॥ तमेकपाण्डुरं " शैलमाक्यान्तमनश्वरम् । स्वयशोराशिनीकाशं पश्यन्नभिननन्द सः ॥ १३६ ॥ asar: प्रभुमायान्तमायान्तमखिलद्विषाम् । प्रत्यग्रही दिवाभ्येत्य " विष्वद्व्यग्भिर्वनानिलैः ॥१३७॥ तत्तटोपान्तविश्रान्तखचरोरग किन्नरैः । प्रोद्गीयमानममलं शुश्रुवे "स्वयंशोऽमुना ॥ १३८ ॥ 'जयलक्ष्मी मुखालोकमङ्गलादर्शविभ्रमाः । तत्तटीभित्तयो जहुर्मनोऽस्य स्फटिकामलाः ॥ १३९॥ १६ १२४ ४ है, अथवा इस पर्वत अपने विस्तारसे लोकका बहुत कुछ अंश व्याप्त कर लिया है ।। १२८ ॥ इस प्रकार जब पुरोहित उस पर्वतकी उत्कृष्ट शोभाका वर्णन कर चुका तब भरतेश्वरने भी प्रसन्न होकर उस पर्वतकी प्रशंसा की ।। १२९ || अपने उपभोग करनेयोग्य क्षेत्रकी सीमा स्वरूप हिमवान् पर्वतकी प्रशंसा कर महाराज भरत कुतूहलवश वृषभाचलको देखने के लिए लौटे ॥१३०॥ जो सौ योजन ऊँचा है, मूल तथा ऊपर क्रमसे सौ और पचास योजन चौड़ा है एवं ऊपरकी ओर उठा हुआ होनेसे पृथिवीके मस्तक के समान जान पड़ता है । जिसके ऊपरके मनोहर प्रदेश केलोंके समूह से सुशोभित लतागृहोंसे आकाशगामी देव तथा विद्याधरोंके उपभोग करने योग्य हैं, नाग, सहजना और नागकेशरके वृक्षोंसे घिरे हुए तथा सेवन करने योग्य जिस पर्वतके समीपके वनों को देव लोग कभी नहीं छोड़ते हैं। अपने तटपर लगे हुए स्फटिक मणियोंकी फैलती हुई प्रभासे जिसने समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली हैं, जिसका शरीर शरद ऋतु के बादलों से बना हुआ-सा जान पड़ता है और जो सदा देव तथा विद्याधरोंसे सहित रहता है, ऐसे उस पर्वतको लोकके एक आभूषणके समान देखते हुए श्रीमान् भरतने अपने यशका प्रतिबिम्ब माना था ।। १३१ - १३५ ।। जो एक सफेद रंगका है और जो कल्पान्त काल तक कभी नष्ट नहीं होता ऐसे उस वृषभाचलको अपने यशकी राशिके समान देखते हुए महाराज भरत बहुत ही आनन्दित हुए थे ।।१३६।। उस समय वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो समस्त शत्रुओंकी सर्वमुखी भाग्यको नष्ट करनेवाले चक्रवर्ती भरतको अपने समीप आता हुआ जानकर चारों ओर बहनेवाले वनके वायुके द्वारा सामने जाकर उनका स्वागत-सत्कार ही कर रहा हो ।। १३७ ।। वहाँपर भरतने उस पर्वतके किनारेके समीप विश्राम करते हुए विद्याधर नागकुमार और किन्नर देवोंके द्वारा गाया हुआ अपना निर्मल यश भी सुना था ॥ १३८ ॥ स्फटिकके समान १२ १ स्तुति कुर्वति सति । २ प्रशंस्य । ३ व्याघुटितवान् । ४ खण्ड-अ० ६ नागवृक्षसहितम् । ७ सर्जकतरुभिः । ८ यदुपान्तवनं ल०, प०, ५०, १० घटित । ११ आकाशस्पर्शनसहितम्, देव- विद्याधर- सहितम् । १४ सदृशम् । १५ केवलं धवलम् । १६ समानम् । १७ आ समन्तात् अयः इत्यर्थः । विभूत्यन्तकम् समन्तात्पुण्यनाशक मित्यर्थः । 'अतः शुभावहो विधि' प्रसारिभिः । विष्वट्यङ् विष्वगञ्चतीत्यभिधानात् । १९ श्रूयते स्म । द०, स० ल० । ५ समर्था भवन्ति । अ०, प०, स० । ९ लिप्तदिङ्मुखम् । तिलकम् । १३ विलोकयन् । आयः तस्य अन्तः अन्तकः नाश रित्यभिधानात् । १८ समन्तात् Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व १२५ अधिमंखलमस्यासीच्छिलाभित्तिषु चक्रिणः । स्वनामाक्षरविन्यासे धृति विश्वक्षमाजितः ॥१४०॥ काकिणीरत्नमादाय यदा लिलिखिषत्ययम् । तदा राजसहस्राणां नामान्यत्रैमताधिराट् ॥१४१॥ असंख्य कल्पकोटीषु येऽतिक्रान्ता धराभुजः । तेषां नामभिराकीणं तं पश्यन् स सिसिष्मये ॥१४२॥ ततः किंचित् स्खलद्गो विलक्षीभूय चक्रिराट । अनन्यशासनामेनां न मने भरतावनीम् ॥१४३॥ स्वयं कस्यचिदेकस्य निरस्यन्नामशासनम् । स मने निखिलं लोकं प्रायः स्वार्थपरायणम् ॥१४४॥ अथ तत्र शिलापट्टे स्वहस्ततलनिस्तले । प्रशस्तिमित्युदात्तार्थं व्यलिखत् स यशोधनः ॥१४५॥ स्वस्तीक्ष्वाकुकुलव्योमतलप्रालेयदीधितिः । चातुरन्त महीभर्ता भरतः शातमातुरः ॥१४६॥ श्रीमानानम्रनिःशेषखचरामरभूचरः । प्राजापत्यो मनुर्मान्यः शूरः शुचिरुदारधीः ॥१४७॥ चरमागधरो धीरो "धौरेयश्चक्रधारिणाम् । परिक्रान्तं धराचक्र जिष्णुना येन दिग्जये ॥१४८॥ यस्याष्टादशकोटथोऽश्वा जलस्थलविलङ्घिनः । लक्षाश्चतुरशीतिश्च मदेभा जयसाधने ॥१४९॥ यस्य दिग्विजये विष्वग्बलरेणुभिरुत्थितैः । सदिङ्मखं खमारुद्धं कपोतगलकर्बु रैः ॥१५०॥ निर्मल और विजयलक्ष्मीके मुख देखनेके लिए मंगलमय दर्पणके समान उस वृषभाचलके किनारेकी दीवारें भरतका मन हरण कर रही थीं ॥ १३९ ॥ समस्त पृथिवीको जीतनेवाले चक्रवर्ती भरतको उस पर्वतके किनारेकी शिलाकी दीवारोंपर अपने नामके अक्षर लिखनेमें बहुत कुछ सन्तोष हुआ था ॥ १४० ॥ चक्रवर्ती भरतने काकिणी रत्न लेकर ज्यों ही वहाँ कुछ लिखनेकी इच्छा की त्यों ही उन्होंने वहाँ लिखे हुए हजारों चक्रवर्ती राजाओंके नाम देखे ॥१४१॥ असंख्यात करोड़ कल्पोंमें जो चक्रवर्ती हए थे उन सबके नामोंसे भरे हुए उस वृषभाचलको देखकर भरतको बहुत ही विस्मय हुआ ॥ १४२ ।। तदनन्तर जिसका कुछ अभिमान दूर हआ है ऐसे चक्रवर्तीने आश्चर्यचकित होकर इस भरतक्षेत्रकी पथिवीको अनन्यशासन अर्थात् जिसपर दूसरेका शासन न चलता हो ऐसा नहीं माना था। भावार्थ - वषभाचलकी दीवालोंपर असंख्यात चक्रवतियोंके नाम लिखे हुए देखकर भरतका सब अभिमान नष्ट हो गया और उन्होंने स्वीकार किया कि इस भरतक्षेत्रकी पृथिवीपर मेरे समान अनेक शक्तिशाली राजा हो गये हैं ॥ १४३ ॥ चक्रवर्ती भरतने किसी एक चक्रवर्तीके नामकी प्रशस्तिको स्वयं – अपने हाथसे मिटाया और वैसा करते हुए उन्होंने प्रायः समस्त संसारको स्वार्थपरायण समझा ।। १४४ ।। अथानन्तर - यश ही जिसका धन है ऐसे चक्रवर्तीने अपने हाथके तलभागके समान चिकने उस शिलापट्टपर नीचे लिखे अनुसार उत्कृष्ट अर्थसे भरी हुई प्रशस्ति लिखी ॥ १४५ ॥ स्वस्ति श्री इक्ष्वाकु वंशरूपी आकाशका चन्द्रमा और चारों दिशाओंकी पृथिवीका स्वामी मैं भरत हूँ, मैं अपनी माताके सौ पुत्रोंमें-से एक बड़ा पुत्र हूँ, श्रीमान् हूँ, मैंने समस्त विद्याधर देव और भूमिगोचरी राजाओंको नम्रीभूत किया है, प्रजापति भगवान् वृषभदेवका पुत्र हूँ, मनु हूँ, मान्य हूँ, शूरवीर हूँ, पवित्र हूँ, उत्कृष्ट बुद्धिका धारक हूँ, चरमशरीरी हूँ, धीर वीर हूँ, चक्रवतियोंमें प्रथम हूँ और इसके सिवाय जिस विजयीने दिग्विजयके समय समस्त पृथिवीमण्डलकी परिक्रमा दी है अर्थात् समस्त पृथिवीमण्डलपर आक्रमण किया है, जिसके जल और स्थलमें चलनेवाले अठारह करोड़ घोड़े हैं, जिसकी विजयी सेनामें चौरासी लाख मदोन्मत्त हाथी १ संतोषः । २ सकलमहीविजयिनः । ३ लिखितुमिच्छति । ४ अपरिमितानां राज्ञामित्यर्थः । ५ विस्मयान्वितो भूत्वा । 'विलक्षो विस्मयान्विते' इत्यभिधानात् । ६ वर्तुले समतले इत्यर्थः । ७ चतुरन्तो द०, ५०, इ०, अ०, स०। ८ त्रिसमुद्र-हिमवगिरिपर्यन्तमहीनाथः । ९ शतस्य माता शतमाता तस्या अपत्यं शातमातुरः । १० प्रजापतेः पुरोरपत्यं पुमान् । ११ मुख्यः । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ आदिपुराणम प्रसाधितदिशो यस्य यशः शशिकलामलम् । सुरैरसकृदुद्गीतं कुलक्षोणीध्रकुक्षिषु ॥१५॥ दिग्जय यस्य सैन्यानि विश्रान्तान्य धिदिक्कटम् । चक्रानुभ्रान्तितान्तानि कान्वा हैमवतीस्थलीः ॥१५२॥ नप्ता श्रीनाभिराजस्य पुत्रः श्रीवृषभशिनः । षट्षण्डमण्डितानां यः स्म शास्त्यखिलां महीम् ॥१५३॥ मत्वाऽसौ गवरी लक्ष्मी जित्वरः सर्वभूभृताम् । जगद्विसत्वरी कीर्तिमतिष्टिपदिहाचले ॥१५४॥ इति प्रशस्तिमात्मीयां विलिखन स्वयमक्षरैः । प्रसूनप्रकरमुक्कैर्नुपोऽवचकिरऽ मरैः ॥१५५॥ तत्रोच्चै रुञ्चरद्ध्वाना मन्द्रदुन्दुभयोऽध्वनन् । दिवि देवा जयंत्याशीश्शताप्युच्चैरघोषयन् ॥५६॥ स्वधुनीसीकरासारवाहिनो गन्धवाहिनः । मन्दं-विचेहराधूत सान्द्रमन्दारनन्दनाः ॥१५७॥ न केवलं शिलाभित्तावस्य नामाक्षरावली । लिखितानेन चान्द्रऽपि बिम्बे तल्लान्छनच्छलात् ॥१५॥ लिखितं साक्षिणे भुक्तिरित्यस्तीहापि शासने । लिखितं सोऽचलो भुक्तिर्दिजये साक्षिणोऽमराः ॥१५९॥ अहो महानुभावोऽयं चक्री दिक्चक्रनिर्जये । येनाक्रान्तं महीचक्रमानवसतित्रिकात् ॥१६॥ खचरादिरलयोऽपि हेलयालवितोऽमुना । कीर्तिः स्थलाजिनीवास्य रूढा हमाचलस्थले ॥१६॥ हैं, जिसकी दिग्विजयके समय चारों ओर उठी हुई कबूतरके गलेके समान कुछ-कुछ मलिन सेनाकी धूलिसे समस्त दिशाओंके साथ-साथ आकाश भर जाता है, समस्त दिशाओंको वश करनेवाले जिसका चन्द्रमाकी कलाओंके समान निर्मल यश कुलपर्वतोंके मध्यभागमें देव लोग बारबार गाते हैं, दिग्विजयके समय चक्रके पीछे-पीछे चलनेसे थकी हुई जिसकी सेनाओंने हिमवान् पर्वतकी तराईका उल्लंघन कर दिशाओंके अन्तभागमें विश्राम लिया है, जो श्री नाभिराजका पौत्र है, श्री वृषभदेवका पुत्र है, जिसने छह खण्डोंसे सुशोभित इस समस्त पृथिवीका पालन किया है और जो समस्त राजाओंको जीतनेवाला है ऐसे मुझ भरतने लक्ष्मीको नश्वर समझकर जगत्में फैलनेवाली अपनी कीतिको इस पर्वतपर स्थापित किया है ।। १४६ - १५४ ॥ इस प्रकार चक्रवर्तीने अपनी प्रशस्ति स्वयं अक्षरोंके द्वारा लिखी, जिस समय चक्रवर्ती उक्त प्रशस्ति लिख रहे थे उस समय देव लोग उनपर फूलोंकी वर्षा कर रहे थे ॥ १५५ ॥ वहाँ जोर-जोरसे शब्द करते हुए गम्भीर नगाड़े बज रहे थे, आकाशमें देव लोग जय-जय इस प्रकार सैकड़ों आशीदि रूप शब्दोंका उच्चारण कर रहे थे ।। १५६ ॥ और गंगा नदीके जलकी बूंदोंके समूहको धारण करता हुआ तथा कल्पवृक्षोंके सघन वनको हिलाता हुआ वायु धीरे-धीरे बह रहा था ॥१५७॥ भरतके नामके अक्षरोंकी पंक्ति केवल शिलाकी दीवारपर ही नहीं लिखी गयी थी किन्तु उन्होंने काले चिह्नके बहानेसे चन्द्रमाके मण्डलमें भी लिख दी थी। भावार्थ - चन्द्रमाके मण्डल में जो काला-काला चिह्न दिखाई देता है वह उसका चिह्न नहीं है, किन्तु भरतके नामके अक्षरोंकी पंक्ति ही है, यहाँ कविने अपह्नति अलंकारका आश्रय लेकर वर्णन किया है ॥१५८॥ अन्य प्रशस्तियोंके समान भरतकी इस प्रशस्तिमें भी लेख, साक्षी और उपभोग करनेयोग्य क्षेत्र ये तीनों ही बातें थीं क्योंकि लेख तो वृषभाचलपर लिखा ही गया था, दिग्विजय करनेसे छह खण्ड भरत उपभोग करनेयोग्य क्षेत्र था और देव लोग साक्षी थे ॥ १५९ ।। अहा, यह चक्रवर्ती बड़ा प्रतापी है क्योंकि इसने समस्त दिशाओंको जीतते समय पूर्व पश्चिम और दक्षिणके तीनों समुद्रपर्यन्त समस्त भूमण्डलपर आक्रमण किया है - समस्त भरतको अपने वश कर लिया है। यद्यपि विजयार्ध पर्वत उल्लंघन करनेयोग्य नहीं है तथापि इसने १ चक्रानुगमनेन भिन्नानि । २ गमनशीलाम् । ३ जयनशीलः । ४ विसरणशीलाम् । ५ व्यलिखत् ल०, अ०, द०, स० । ६ आकीर्णः । ७ - राष्मात ल० । ८ पत्रम् । ९ पूर्वदक्षिणपश्चिमसमुद्रपर्यन्तम् । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व इति दृष्टापदानं तं तुष्टुवुर्नाकिनायकाः । दिष्ट्या स्म वर्धयन्त्येनं साङ्गनाश्व नभश्चराः ॥१६२॥ भूयः प्रोत्साहितो देवैर्जयोद्योगमनूनयन् । गङ्गापातमभीयाय व्याहृत इव तत्स्वनैः ॥१६३॥ गलद्गङ्गाम्बुनिष्टयताः शीकरा मदशीकरः । समूच्र्छर्नृपेभाणां व्यात्युक्षी वा तितांसवः ॥१६॥ पतद्गङ्गाजलावर्न परिवर्द्धितकौतुकः । प्रत्याग्राहि स तत्पात गङ्गादेव्या कृतार्धया ॥१६५॥ सिंहासने निवेश्यनं प्रारखं सुखशीतलैः । सोऽभ्यषिञ्चजलैङ्गैिः शशाङ्ककरहासिभिः ॥१६६॥ कृतमङ्गलसङ्गीतनान्दीतूर्यरवाकुलम् । निर्वयं मजनं जिष्णुभैजे मण्डनमप्यतः ॥१६७॥ अथास्मै व्यत रत् प्रांशु रत्नांशुस्थगिताम्बरम् । सेन्द्रचापमिवादीन्द्र शिखरं हरिविष्टरम् ॥१६८॥ चिरं वर्चस्व वद्धिष्णो जीवतानन्दताद भवान् । इत्यनन्तरमाशास्य तिरोऽभूत् सा विसर्जिता ॥१६॥ अनुगङ्गातट सैन्यैराबजन्विषयाधिपः । सिषेवे पवमानश्च गङ्गाग्बुकणवाहिभिः ॥१७॥ गङ्गातटवनोपान्तनिवेशेषु विशाम्पतिम् । सुखयामासरन्वीपमायाता' वनमारुताः॥१७१॥ उसे लीलामात्रमें ही उल्लंघन कर दिया है और इसकी कीर्ति स्थल-कमलिनीके समान हिमालय पर्वतकी शिखरपर आरूढ़ हो गयी है। इस प्रकार जिनका पराक्रम देख लिया गया है ऐसे उन भरत महाराजको बड़े-बड़े देव भी स्तुति कर रहे थे और अपनी-अपनी स्त्रियोंसे सहित विद्याधर लोग भी भाग्यसे उन्हें बढ़ा रहे थे अर्थात् आशीर्वाद दे रहे थे ॥१६०-१६२॥ तदनन्तर-जिन्हें देवोंने फिर भी उत्साहित किया है ऐसे महाराज भरतने अपने विजयके उद्योगको कम न करते हुए गंगापात ( जहाँ हिमवान् पर्वतसे गंगा नदी पड़ती है उसे गंगापात कहते हैं ) के सम्मुख इस प्रकार गये मानो उसके शब्दोंके द्वारा बुलाये ही गये हों ॥१६३।। ऊपरसे गिरती हुई गंगा नदीके जलके समीपसे उछटे हुए छोटे-छोटे जलकण राजाओंके हाथियोंके मदकी बूंदोंके साथ इस प्रकार मिल रहे थे मानो वे दोनों परस्पर फाग ही खेलना चाहते हों अर्थात् एक दूसरेको सींचना ही चाहते हों ।।१६४॥ पड़ते हुए गंगाजलकी भंवरोंसे जिसका कौतूहल बढ़ रहा है ऐसे भरतका गंगापातके स्थानपर अर्घ धारण करनेवाली गंगादेवीने सामने आकर सत्कार किया ॥१६५।। गंगादेवीने चक्रवर्ती भरतको पूर्व दिशाकी ओर मुख कर सिंहासनपर बैठाया और फिर सुखकारी, शीतल तथा चन्द्रमाकी किरणोंकी हँसी करनेवाले गंगा नदीके जलसे उनका अभिषेक किया ॥१६६॥ जिसमें मंगल संगीत, आशीर्वाद वचन और तुरही आदि बाजोंके शब्द मिले हुए हैं ऐसे अभिषेकको समाप्त कर विजयशील भरतने उसो गंगादेवीसे सब वस्त्राभूषण भी प्राप्त किये ॥१६७॥ तदनन्तर देदीप्यमान रत्नोंकी किरणोंसे जिसने आकाश भी व्याप्त कर लिया है और जो इन्द्रधनुषसहित सुमेरु पर्वतके शिखरके समान जान पड़ता है ऐसा एक सिंहासन गंगादेवीने भरतके लिए समर्पित किया ॥१६८। और फिर 'सदा बढ़नेवाले हे महाराज भरत, आप चिर काल तक बढ़ते रहिए, चिरकाल तक जीवित रहिए और चिरकाल तक आनन्दित रहिए अथवा समृद्धिमान् रहिए इस प्रकार आशीर्वाद देकर महाराज भरतके द्वारा बिदा हो वह गंगादेवो तिरोहित हो गयी ॥१६९।। अथानन्तर-सेनाके साथ-साथ गंगाके किनारे-किनारे जाते हए भरतकी अनेक देशोंके स्वामी-राजाओंने और गंगा नदीके जलकी बूंदोंको धारण करनेवाले वायुने सेवा की थी ॥१७०।। गंगा किनारेके वनोंके समीपवर्ती भागोंमें पीछेसे आता हुआ वनका वायु चक्रवर्ती १ दृष्टसामर्थ्यम् । दृष्टावदानं प०, अ० । दृष्टावदानं ल०। २ सन्तोषेण । ३ अनूनं कुर्वन् संवर्द्धयन्नित्यर्थः । ४ अभिमुखमगच्छत् । ५ प्रसरन्ति स्म । ६ नृपसंबन्धिगजानाम् । ७ परस्परसेचनम् । ८ विस्तारितुमिच्छवः । ९ ददौ । १० उचत । ११ अनुकूलताम् । १२ वनवायवः ल० । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आदिपुराणम् वने वनचरस्त्रीणामुदस्यन्नलकावलीः । मुहुस्स्खलन् कपालेषु नृत्यद्वनशिखण्डिनाम् ॥१७२॥ विलोलितालिराधुन्वन्नत्फुल्ला वनवल्लरीः। गिरिनिर्झरसंश्लेषशिशिरो मरुदाववौ ॥१७३॥ प्रतिप्रयाणमानम्रा नृपास्तद्देशवासिनः । प्रभुमाराधयांचक्रराक्रान्ता जयसाधनैः ॥१७॥ कृत्स्नामिति प्रसाध्यैनामुत्तरां भरतावनिम् । प्रत्यासीददथो जिष्णुर्विजयाचलस्थलीः ॥१७५॥ तत्रावासितसैन्यं च सेनान्यं प्रभुरादिशत् । अपावृत गुहाद्वारः प्राच्यखण्टुं जयेत्यरम् ॥१७६॥ यावदभ्येति सेनानीम्लेच्छराजजयोग्रमात् । तावत्प्रभोः किलातीयुर्मासाः षट् सुखसंगिनः ॥१७॥ दक्षिणोत्तरयोः श्रेण्योः निवसन्तोऽम्बरेचराः । विद्याधराधिपः साई प्रभुं द्रष्टुमिहाययुः ॥१७॥ विद्याधरधराधीशैरारादानम्रमौलिमिः । नखांशुमालिकाब्याजादाज्ञास्य शिरसा पृता ॥१७९॥ न मिश्च विनमिश्चैव विद्याधर धराधिपौ । स्वसारधनसामग्रया विभुं प्रष्टुमुपेयतुः ॥१०॥ विद्याधरधरासारधनोपायनसंपदा । तदुपानीतयाऽनन्यलभ्ययासीद्विभोर्धतिः ॥१८१॥' तदुपाकृतरत्नौधैः कन्यारत्नपुरःसरै । सरिदोधैरिवोदवानापूर्यत तदा प्रभुः ॥१८२॥ स्वसारं' च नमेर्धन्यां सुभद्रा नामकन्यकाम् । उदुवाहस लक्ष्मीवान् कल्याणैः खचरोचितैः ॥१८३॥ को सुखी कर रहा था ॥१७१॥ वहाँके वनमें भीलोंकी स्त्रियोंके केशोंके समूहको उड़ाता हुआ नृत्य करते हुए वनमयूरोंकी पूँछपर बार-बार टकराता हुआ भ्रमरोंको इधर-उधर भगाता हुआ, फूली हुई वनकी लताओंको कुछ कुछ हिलाता हुआ और पहाड़ी झरनोंके स्पर्शसे शीतल हुआ वायु चारों ओर बह रहा था ॥१७२-१७३॥ विजय करनेवाली सेनाके द्वारा दबाये हुए उन देशोंमें निवास करनेवाले राजा लोग नम्र होकर प्रत्येक पड़ावपर महाराज भरतकी आराधना करते थे ॥१७४।। इस प्रकार उत्तर भरत क्षेत्रकी समस्त पथिवीको वश कर विजयी महाराज भरत फिरसे विजयाध पर्वतको तराईमें आ पहुँचे ॥१७५।। वहाँपर उन्होंने सेना ठहराकर सेनापतिके लिए आज्ञा दी कि 'गुफाका द्वार उघाड़कर शीघ्र ही पूर्व खण्डकी विजय प्राप्त करो' ॥१७६।। जबतक सेनापति म्लेच्छराजाओंको जीतकर वापस आया तबतक सुखपूर्वक रहते हुए महाराज भरतके छह महीने वहींपर व्यतीत हो गये ॥१७७॥ विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण तथा उत्तर श्रेणीपर निवास करनेवाले विद्याधर लोग अपने-अपने स्वामियोंके साथ महाराज भरतका दर्शन करनेके लिए वहींपर आये ॥१७८॥ दूरसे ही मस्तक झुकानेवाले विद्याधर राजाओंने नखोंकी किरणोंके समूहके बहानेसे महाराज भरतकी आज्ञा अपने सिरपर धारण की थी। भावार्थ-नमस्कार करते समय विद्याधर राजाओंके मस्तकपर जो भरत महाराजके चरणोंके नखोंकी किरणें पड़ती थीं उनसे वे ऐसे मालूम होते थे मानो भरतकी आज्ञा ही अपने मस्तकपर धारण कर रहे हों ॥१७९।। नमि और विनमि दोनों ही विद्याधरोंके राजा अपने मुख्य धनकी सामग्रीके साथ भरतके दर्शन करनेके लिए समीप आये ॥१८०।। नमि और विनमि जो अन्य किसीको नहीं मिलनेवाली विद्याधरोंके देशकी मख्य धनरूप सम्पत्ति भेटमें लाये थे उससे महाराज भरतको भारी सन्तोष हुआ था ॥१८१॥ जिस प्रकार नदियोंके प्रवाहसे समुद्र पूर्ण हो जाता है उसी प्रकार उस समय नमि और विनमिके द्वारा उपहारमें लाये हुए कन्यारत्न आदि अनेक रत्नोंके समूहसे महाराज भरतकी इच्छा पूर्ण हो गयी थी ॥१८२।। श्रीमान् भरतने राजा नमिकी बहिन सुभद्रा नामकी उत्तम कन्याके साथ १ स्थलीम् ल०, द०, इ०, अ०, स०। २ सैन्यश्च ल०। ३ विभुः। ४ उद्घाटित । ५ पूर्वखण्डम् । ६ शीघ्रम् । ७ आगच्छन् । ८ क्षेत्र । ९ प्रभुं ल०, अ०, स०, इ०, द०। १० विद्याधरैरुपायनीकृतया । ११ भगिनीम् । 'भगिनी स्वसा' इत्यभिधानात् । १२ परिणीतवान् । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तम पर्व १२६ ता मनोजरसस्येव सतिं संप्राप्य चक्रभृत् । स्वं मेने सफलं जन्म परमानन्दनिर्भरः ॥१८४॥ तावानिर्जितनिःशेषम्लेच्छराजबलो बलैः । जयलक्ष्मी पुरस्कृत्य सेनानीः प्रभुमैक्षत ॥१८५॥ कृतकार्यं च सत्कृत्य तं तांश्च म्लेच्छनायकान् । विसयं सम्राट् सजोऽभूत् प्रत्यायातुमपाङमहीम् १८६ जयप्रयाणशंसिन्यस्तदा भेर्यः प्रदध्वनुः । विष्वग्बलार्णवे क्षोभमातन्वन्त्यो महीभृताम् ॥१८७॥ तां काण्डकप्रपाताख्यां प्रागेवोद्घाटितां गुहाम् । प्रविवेश बलं जिष्णोश्चक्ररत्नपुरोगमाम् ॥१८॥ गङ्गापगोभयप्रान्तमहावीथीद्वयन सा । व्यतीयाय गुहां सेना कृतद्वारा चमूभृतां ॥१८९॥ मुच्यमाना गुहा सैन्यैश्चिरादुच्छ्वसितेव सा । चमूरपि गुहारोधान्निःसृत्योज्जीवितेव सा ॥१९०॥ नाट्यमालामरस्तत्र रत्नाधैं प्रभुमर्घयन् । प्रत्यगृह्णाद् गुहाद्वारि पूर्णकुम्भादिमङ्गलैः ॥१९१॥ कृतोपच्छन्दनं चामुं नाटयमालं सुरर्षभम् । व्यसर्जयद्यथोद्देशं सत्कृत्य भरतर्षभः ॥१९२॥ कृतोदयमिनं ध्वान्तात्परितो गगनेचराः । परिचेरुर्नभोमार्गमारुध्य पृतसायकाः ॥१३॥ मालिनीवृत्तम् नमिविनमिपुरी गैरन्वितः खेचरेन्द्रः खचरगिरिगुहान्तर्धान्तमुत्सार्य दूरम् ।। रविरिव किरणोधैर्योतयन्दिग्विभागान् निधिपतिरुदियाय प्रीणयन् जीवलोकम् ॥१९४॥ सरसकिसलयान्तःस्पन्दमन्दे सुरस्त्रीस्तनतटपरिलग्नक्षौमसंक्रान्तवासे ।। सरति मरुति मन्दं कन्दरेष्वद्रिमर्तुनिधिपतिशिबिराणां प्रादुरासन्निवेशाः ॥१९५॥ विद्याधरोंके योग्य मंगलाचारपूर्वक विवाह किया ॥१८३।। रसकी धाराके समान मनोहर उस सुभद्राको पाकर उत्कृष्ट आनन्दसे भरे हुए चक्रवर्तीने अपना जन्म सफल माना था ॥१८४।। इतने में ही जिसने अपनी सेनाके द्वारा समस्त म्लेच्छ राजाओंकी सेन्ग जीत ली है ऐसे सेनापतिने जयलक्ष्मीको आगे कर महाराज भरतके दर्शन किये ॥१८५।। जिसने अपना कार्य पूर्ण किया है ऐसे सेनापतिका सन्मान कर और आये हुए म्लेच्छ राजाओंको बिदा कर सम्राट भरतेश्वर दक्षिणकी पृथिवीकी ओर आनेके लिए तैयार हुए ॥१८६॥ उस समय विजयके लिए प्रस्थान करनेकी सूचना देनेवाली भेरियाँ राजाओंकी सेनारूपी समुद्रमें क्षोभ उत्पन्न करती हुई चारों ओर बज रही थीं ॥१८७।। चक्ररत्न जिसके आगे चल रहा है ऐसी भरतकी सेनाने पहलेसे ही उघाड़ी हुई काण्डकप्रपात नामकी प्रसिद्ध गुफामें प्रवेश किया ।।१८८॥ उस सेनाने गंगा नदीके दोनों किनारोंपर-की दो बड़ी-बड़ी गलियोंमें-से, सेनापतिके द्वारा जिसका द्वार पहलेसे ही खोल दिया गया है ऐसी उस गुफाको पार किया ॥१८९।। सेनाके द्वारा छोड़ी हुई वह गुफा ऐसी जान पडती थी मानो चिरकालसे उच्छवास ही ले रही हो और वह सेना भी गुफाके रोधसे निकलकर ऐसी मालूम होती थी मानो फिरसे जीवित हुई हो ॥१९०।। वहाँ नाट्यमाल नामके देवने दक्षिण गुफाके द्वारपर पूर्णकलश आदि मंगलद्रव्य रखकर तथा रत्नोंके अर्घसे अर्घ देकर भरत महाराजकी अगवानी की थी - सामने आकर सत्कार किया था ॥१९१॥ भरत महाराजने अनेक प्रकारकी स्तुति करनेवाले उस नाट्यमाल नामके श्रेष्ठ देवका सत्कार कर उसे अपने स्थानपर जानेके लिए बिदा कर दिया ॥१९२॥ धनुष-बाण धारण करनेवाले विद्याधर चारों ओरसे आकाशमार्गको घेरकर, सूर्यके समान अन्धकारसे परे रहकर उदित होनेवाले चक्रवर्तीकी परिचर्या करते थे ॥१९३।। जिनमें नमि और विनमि मुख्य हैं ऐसे विद्याधरोंसहित तथा विजयार्ध पर्वतकी गुफाके भीतरी अन्धकारको दूर हटाकर सूर्यके समान किरणोंके समूहसे दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ वह निधियोंका अधिपति चक्रवर्ती समस्त जीवलोकको आनन्दित करता हुआ उदित हुआ अर्थात् गुफाके बाहर निकला ॥१९४।। रस१ मनोज्ञां रसस्येव । २ दक्षिणभूमिम् । ३ सेनान्या। ४ कृतसान्त्वनम् । ५ सुरश्रेष्ठम् । ६ निजदेशमनतिक्रम्य । ७ पुरःसरैः । ८ उदेति स्म । ९ सुगन्धे । १० वाति सति । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० आदिपुराणम् किसलयपुटभेदी देवदारुद्रुमाणामसकृदमरसिन्धोः सीकरान्व्याधुनानः । श्रमसलिलममुष्णा'दुष्णसंभूष्णु जिष्णोः, खचरगिरितटान्तान्निष्पत न्मातरिश्वा ॥१९६॥ सपदिविजयसैन्यैर्निर्जितम्लेच्छखण्डः समपहृतजयश्रीश्चक्रिणादिष्टमात्रात् । जिनमिव जयलक्ष्मी सन्निधानं निधीनां परि वृढमुपतस्थौ नम्रमौलिश्चमूभृत् ॥१९७॥ शार्दूलविक्रीडितम् जित्वा म्लेच्छनृपी विजित्य च सरं प्रालेयशैलेशिनं देव्यौ च प्रणमय्य दिव्यमुभयं स्वीकृत्य भद्रासनम् । हेलानिर्जितखेचराद्विरधिराट प्रत्यन्तपालान् जयन् सेनान्या विजयी व्यजेष्ट निखिला षटखण्डभूषां भुवम् १९८ पुण्यादित्ययमाहिमाह्वयगिरेरातोयधेः 'प्राक्तनादाचापा'च्यपयोनिधेर्जलनिधेरा च प्रतीच्यादितः । चक्रेश्मामरिचक्र भीकरकरश्चक्रेण चक्री वशे तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियो जैने मते सुस्थिताः ॥१९९॥ इत्यार्षे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भरतोत्तरार्द्धविजयवर्णनं नाम द्वात्रिंशत्तमं पर्वे ॥३२॥ युक्त नवीन कोमल पत्तोंके भीतर प्रवेश करनेसे मन्द हआ तथा देवांगनाओंके स्तनतटपर लगे हुए रेशमी वस्त्रोंमें जिसको सुगन्धि प्रवेश कर गयी है ऐसा वायु जिस समय उस विजयार्ध पर्वतकी गुफाओंमें धीरे-धीरे बह रहा था उस समय निधियोंके स्वामी चक्रवर्तीकी सेनाके डेरोंकी रचना शुरू हुई थी ॥१९५।। देवदारु वृक्षोंके कोमल पत्तोंके सम्पुटको भेदन करनेवाला तथा गंगा नदीके जलकी बूंदोंको बार-बार हिलाता हुआ और विजयाध पर्वतके किनारेके अन्त भागसे आता हुआ वायु गरमोसे उत्पन्न हुए महाराज भरतके पसीनेको दूर कर रहा था ।।१९६॥ चक्रवर्तीके द्वारा आज्ञा प्राप्त होनेमात्रसे ही जिसने अपनी विजयी सेनाओंके द्वारा बहुत शीघ्र समस्त म्लेच्छ खण्ड जीत लिये हैं और जो जयलक्ष्मीको ले आया है ऐसा सेनापति अपना मस्तक झुकाये हुए, निधियोंके स्वामी भरत महाराजके समीप आ उपस्थित हुआ। उस समय भरत ठीक जिनेन्द्रदेवके समान मालूम होते थे क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्र देवके समीप सदा जयलक्ष्मी विद्यमान रहती है उसी प्रकार उनके समीप भी जयलक्ष्मी सदा विद्यमान रहती थीं ॥१९७॥ विजयी भरतने ( चिलात और आनर्त नामके ) दोनों म्लेच्छराजाओंको जीतकर हिमवान् पर्वतके स्वामी हिमवान् ‘देवको कुछ ही समयमें जीता, तथा ( गंगा सिन्धु नामकी ) दोनों देवियोंसे प्रणाम कराकर ( उनके द्वारा दिये हुए ) दो दिव्य भद्रासन स्वीकृत किये,, और विजयाध पर्वतको लीला मात्रमें जीतकर उसके समीपवर्ती राजाओंको जीतते हुए उन्होंने सेनापतिके साथ-साथ छह खण्डों से सुशोभित भरत क्षेत्रकी समस्त पृथिवीको जीता ॥१९८॥ जिनका हाथ अथवा टैक्स शत्रुओंके समूहमें भय उत्पन्न करनेवाला है ऐसे चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्नके द्वारा पुण्यसे ही हिमवान् पर्वतसे लेकर पूर्व दिशाके समुद्र तक और दक्षिण समुद्रसे लेकर पश्चिम समुद्र तक समस्त पृथिवी अपने वश को थी। इसलिए बुद्धिमान् लोगोको जैन-मतमें स्थिर रहकर सदा पुण्य उपार्जन करना चाहिए ।।१९९।। इस प्रकार अर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रह के हिन्दी भाषानुवादमें उत्तरार्ध भरतको विजयका वर्णन करनेवाला बत्तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। १ अनाशेयत् । २ उष्णसंजातम् । ३ आगच्छन् । ४ आज्ञातः । ५ नाथम् । ६ प्राप्तवानित्यर्थः । ७ सुचिरं ल०, द०। ८ हिमवगिरिपतिम् । ९ गङ्गादेवीसिन्धुदेव्यो। १० पूर्वात् । ११ दक्षिणसमुद्रात् । १२ भर्यकरकरः । 'भयंकरं प्रतिभय'मित्यभिधानात् ।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व श्रीमानानमिताशेषनृपविद्याधरामरः । सिद्धदिग्विजयश्चक्री न्यवृतरवां पुरी प्रति ॥१॥ नवास्य निधयः सिद्धा रत्नान्यपि चतुर्दश । 'सिद्धविद्याधरैः साई षट्षण्डधरणीभुजः ॥२॥ जित्वा महीमिमां कृत्स्ना लवणाम्भोधिमेखलाम् । प्रयाणमकरोच्चक्री साकेतनगरं प्रति ॥३॥ प्रकीर्णकचलद्वीचिरुल्लसच्छत्रबुद्ध दा । निर्ययो विजया द्रितटाद् गङ्गेव सा चमूः ॥४॥ करिणीनौभिरश्वीयकल्लोलैर्जनतोमिभिः। दिशो रुन्धन्बलाम्भोधिः प्रससर्प स्फुरद्ध्वनिः ॥५॥ चलता रथचक्राणां चीत्कारैर्हय हेषितैः । बृंहितैश्च गजेन्द्राणां शब्दाद्वैतं तदाभवत् ॥६॥ भर्यः प्रस्थानशंसिन्यो नेदुरामन्द्रनिःस्वनाः । अकालस्तनि ताशङ्कामातन्वानाः शिखण्डिनाम् ॥७॥ तदाऽभूद्रुद्धमवीयं हास्तिकेन प्रसर्पता । न्यरोधि पत्तिवृन्दं च प्रयान्त्या रथकल्पया ॥८॥ पादातकृतसंबाधात् पथः पर्यन्तपातिनः । हया गजा वरूथाश्च भेजुस्तिर्यक्प्रचोदिताः ॥९॥ पर्वतोदग्रमारूढो गजं विजयपर्वतम् । प्रतस्थे विचलन्मौलि: चक्री शक्रसमद्यतिः ॥१०॥ अनुगङ्गातटं देशान् विलङ्घय ससरिगिरीन् । कैलासशैलसान्निध्यं प्रापतञ्चक्रिणो बलम् ॥११॥ अथानन्तर - जिन्होंने समस्त राजा विद्याधर और देवोंको नम्रीभूत किया है तथा समस्त दिग्विजयमें सफलता प्राप्त की है ऐसे श्रीमान चक्रवर्ती भरत अपनी अयोध्यापुरीके प्रति लौटे ।।१॥ इन महाराज भरतको नौ निधियाँ और चौदह रत्न सिद्ध हुए थे तथा विद्याधरोंके साथ-साथ छह खण्डोंके समस्त राजा भी इनके वश हए थे ॥२॥ लवण समद्र ही जिसकी मेखला है ऐसी इस समस्त पृथिवीको जीतकर चक्रवर्तीने अपने अयोध्या नगरकी ओर प्रस्थान किया ।।३।। ढुलते हुए चमर ही जिसकी लहरें हैं और ऊपर चमकते हुए छत्र ही जिसके बबूले हैं ऐसी वह सेना गंगाके समान विजयार्ध पर्वतके तटसे निकली ॥४॥ हथिनीरूपी नावोंसे. घोडोंके समहरूपी लहरोंसे और मनुष्योंके समहरूपी छोटी-छोटी तरंगोंसे दिशाओंको रोकता हुआ तथा खूब शब्द करता हुआ वह सेनारूपी समुद्र चारों ओर फैल गया ॥५॥ उस समय चलते हुए रथोंके पहियोंके चीत्कार शब्दसे, घोड़ोंकी हिनहिनाहटसे और हाथियोंकी गर्जनासे शब्दाद्वैत हो रहा था अर्थात् सभी ओर एक शब्द-ही-शब्द नजर आ रहा था ॥६॥ जिनका शब्द अतिशय गम्भीर है ऐसी प्रस्थान-कालको सूचित करनेवाली भेरियाँ मयूरोंको असमयमें ही बादलोंके गरजनेकी शंका बढ़ाती हुई शब्द कर रही थीं ॥७॥ उस समय दौड़ते हुए हाथियोंके समूहसे घोड़ोंका समूह रुक गया था और चलते हुए रथोंके समूहसे पैदल चलनेवाले सिपाहियोंका समूह रुक गया था ॥८॥ पैदल सेनाके द्वारा जिन्हें कुछ बाधा की गयी है ऐसे हाथी घोड़े और रथ - थोड़ी दूर तक कुछ तिरछे चलकर ठीक रास्तेपर आ रहे थे। भावार्थ - सामने पैदल मनुष्यों की भीड़ देखकर हाथी घोड़े और रथ बगलसे बरककर आगे निकल रहे थे ।।९।। जिनका मुकुट कुछ-कुछ हिल रहा है और जिनकी कान्ति इन्द्रके समान है ऐसे चक्रवर्तीने पर्वतके समान ऊंचे विजय पर्वत नामके हाथीपर सवार होकर प्रस्थान किया ॥१०॥ चक्रवर्ती की वह सेना गंगा नदीके किनारे-किनारे अनेक देश, नदी और पर्वतोंको उल्लंघन करती हई १ सिद्धा विद्या-ल०, इ०, द०, अ० स०, प० । २ षट्खण्डस्थितमहीपालाः । ३ मेघध्वनि । ४ मार्गान् । संबाधान्पथः अ०, ५०, स०, इ०, द. ५ मार्ग विहाय पर्यन्ते वर्तमाना भूत्वा । ६ संप्रापच्चक्रिणां बलम् ल । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ आदिपुराणम् कैलासाचलमभ्यर्णमथालोक्य रथाङ्गभृत् । निवेश्य निकटे सैन्यं प्रययौ जिनमचितुम् ॥१२॥ प्रयान्तमनुजग्मुस्तं भरतेशं महाद्युतिम् । रोचिष्णुमौलयः क्षमापाः सौधर्मेन्द्रमिवामराः ॥१३॥ अचिराच्च तमासाद्य शरदम्बरसच्छविम् । जिनस्येव यशोराशिमभ्यनन्दद्विशां पतिः ॥१४॥ निपतन्निरारावैराह्वयन्तमिवामरान् । त्रिजगद्गुरुमेत्यारात् सेवध्वमिति सादरम् ॥१५॥ मरुदान्दोलितोदयशाखाग्रेस्तटपादपैः । प्रतोषादिव नृत्यन्तं विकासिकुसुमस्मितैः ॥१६॥ तटनिर्झरसंपातैर्दातुं पाद्यमिवोद्यतम् । वन्दारो भब्यवृन्दस्य विष्वगास्कन्दतो जिनम् ॥१७॥ शिखरोलि खिताम्मोदपटलोद्गी णवारिभिः । दावमीत्येव सिञ्चन्तं स्वपर्यन्तलतावनम् ॥१८॥ शुचिग्राव विनिर्माणैः शिखरैः स्थगिताम्बरः । गतिप्रसरमर्कस्य न्यक्कुर्वाणमिवोच्छितैः ॥१९॥ क्वचित् किंनरसंभोग्यैः क्वचित् पन्नगसेवितैः । क्वचिच्च खचराक्रीडै नैराविष्कृतश्रियम् ॥२०॥ क्वचिद्विरलनीलांशुमिलितैः स्फटिकोपलैः । शशाङ्कमण्डलाशङ्कामातन्वन्तं नभोजुषाम् ॥२१॥ हरिन्मणिप्रभाजालै जालैश्च प्रभाश्मनाम्" । क्वचिदिन्द्रधनुलेखामालिखन्तं नभोऽङ्गणे ॥२२॥ क्रमसे कैलास पर्वतके समीप जा पहुँची ॥११॥ तदनन्तर चक्रवर्तीने कैलास पर्वतको समीप ही देखकर सेनाओंको वहीं पास में ठहरा दिया और स्वयं जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करनेके लिए प्रस्थान किया ॥१२।। जिस प्रकार सौधर्म इन्द्रके पीछे-पीछे देदीप्यमान मुकुटको धारण करनेवाले अनेक देव जाते हैं उसी प्रकार आगे-आगे जाते हए अतिशय कान्तिमान् महाराज भरतके पीछे-पीछे देदीप्यमान मुकूटको धारण करनेवाले अनेक राजा लोग जा रहे थे ।।१३।। जिसकी क्रान्ति शरद्ऋतुके बादलोंके समान है और इसीलिए जो जिनेन्द्र भगवान्के यशके समूहके समान जान पड़ता है ऐसे उस कैलास पर्वतको बहुत शीघ्र पाकर महाराज भरत बहुत ही प्रसन्न हुए ॥१४॥ जो पड़ते हुए झरनोंके शब्दोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो समीप आकर तीनों जगत्के गुरु भगवान् वृषभदेवको सेवा करो इस प्रकार देव लोगोंको आदरपूर्वक बुला ही रहा हो – जिनकी ऊंची-ऊँची शाखाओंके अग्रभाग वायुके द्वारा हिल रहे हैं और जिनपर फूले हुए फूल उनके मन्द हास्यके समान मालूम होते हैं ऐसे अपने किनारोंपर-के वृक्षोंसे जो ऐसा जान पड़ता है मानो सन्तोषसे नृत्य ही कर रहा हो-जो किनारोंपर-से झरनोंके पड़नेसे ऐसा जान पड़ता है मानो जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना करनेके लिए चारों ओरसे आते हुए भव्य जीवोंके समूहके लिए पैर धोनेके लिए जल देनेको ही उद्यत हुआ हो - जो शिखरोंसे विदीर्ण हुए बादलोंके समूहसे गिरते हुए जलसे ऐसा जान पड़ता है मानो दावानलके डरसे अपने समीपवर्ती लताओंके वनको सींच ही रहा हो-जो स्फटिक मणिके सफेद पत्थरोंसे बने हुए और आकाशको घेरनेवाले अपने ऊंचे-ऊँचे शिखरोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो सूर्यको गतिके फैलावको रोक ही रहा हो-जिनमें कहीं तो किन्नर जातिके देव सम्भोग कर रहे हैं, कहीं नागकुमार जातिके देव सेवा कर रहे हैं और कहीं विद्याधर लोग क्रीड़ा करते हैं ऐसे अनेक वनोंसे जिसकी शोभा • प्रकट हो रही है - जो कहींपर कुछ-कुछ नीलमणियोंकी किरणोंसे मिले हुए स्फटिक मणियोंके पत्थरोंसे देवोंको चन्द्रमण्डलकी आशंका उत्पन्न करता रहता है। जो कहींपर हरे रंगके मणियोंकी प्रभाके समूहसे और स्फटिक मणियोंकी प्रभाके समूहसे आकाशरूपी आँगनमें इन्द्रधनुषकी रेखा लिख रहा था। कहींपर पद्मराग मणियोंकी किरणोंसे मिले हुए स्फटिक मणियोंकी किरणोंसे जिसके किनारेका समीपभाग कुछ-कुछ लाली लिये हुए सफेद रंगका हो गया है और १ कैलासम् । २ बन्दनशीलस्य । ३ आगच्छतः । ४ विदारित । ५ उदगत । ६ स्फटिकपाषाण । ७ संभोगः द०, अ० स०1८ खेचरा-प० । ९खचराणाम् आसमन्तात् क्रीडा येषु तानि । १०-मातन्वानं-द०, ल०,अ०, स०, इ० । ११ पद्मरागाणाम् । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व पद्मरागांशुभिभिन्नैः स्फटिकोपलरश्मिभिः । आरक्तश्वेतवप्रान्तं किलासिनमिव क्वचित् ॥२३॥ क्वचिद्विश्लिष्ट शैलेयपटलैर्बहुदगुणैः । मृगेन्द्रनखरोलेखसहैर्गण्डोपलैस्ततम् ॥२४॥ क्वचिद्गुहान्तराद् गुञ्जन्मृगेन्द्र प्रतिनादिनोः । तटीर्दधानमुद्वद्धमदैः परिहृतागजैः ॥२५॥ क्वचित् सितोपलोत्संगचारिणीरमराङ्गनाः । विभ्राणं शरदभ्रान्तर्वतिनीरिव विद्युतः ॥२६॥ तमित्यद्भुतया लक्ष्म्या परीतं भूभृतां पतिम् । स्वमिवालङ्घयमालोक्य चक्रपाणिरगान्मुदम् ॥२७॥ गिरेरधस्तले दूराद् वाहनादिपरिच्छदम् । विहाय पादचारेण ययौ किल स धर्मधीः ॥२८॥ पझ्यामारोहतोऽस्यादि नासीत् खेदो मनागपि । हितार्थिनां हि खेदाय नात्मनीनः क्रियाविधिः ॥२९॥ आरुरोह स तं शैलं सुरशिल्पिविनिर्मितैः । विविक्तैर्मणिसोपानस्स्वर्गस्येवाधिरोहणैः ॥३०॥ अधित्यकासु सोऽस्याद्रेः प्रस्थाय वनराजिषु । लम्मितो ऽतिथिसत्कारमिव शीतैर्वनानिलैः ॥३१॥ क्वचिदुत्फुल्लमन्दारवणवीथीविहारिणीः। विविक्त सुमनोभूषाः सोऽपश्यद्वनदेवताः ॥३२॥ क्वचिद्वनान्तसंसुप्तनिजशावानुशायिनीः । मृगीरपश्यदारब्ध मृदुरोमन्थमन्थराः ॥३३॥ .. क्वचिन्नि कुञ्चसंसुप्तान् बृहतः शयु पोतकान् । 'पुरीतन्निकरानद्रेरिवापश्यत्स पुञ्जितान् ॥३४॥ क्वचिद् गजमदामोदवासितान् गण्डशैलकान् । ददृशे हरिरारोषादुलिखन्नखराङ्कुरैः ॥३५॥ इसलिए जो ऐसा जान पड़ता है मानो उसे किलास ( कुष्ठ ) रोग ही हो गया हो । जिनपर कहीं-कहीं अनेक धातुओंके टुकड़े टूट-टूटकर पड़े हैं तथा जो सिंहोंके नखोंका आघात सहनेवाली हैं और इसलिए जो ऐसी जान पड़ती हैं मानो उनपर बहुत-सा दाद हो गया हो ऐसी अनेक चट्टानोंसे जो व्याप्त हो रहा है। कहीं-कहींपर जिनमें गुफाओंके भीतर गरजते हुए सिंहोंकी प्रतिध्वनि व्याप्त हो रही है और इसीलिए जिन्हें मदोन्मत्त हाथियोंने छोड़ दिया है ऐसे अनेक किनारोंको जो धारण कर रहा है और जो कहीं-कहींपर शरदऋतुके बादलोंके भीतर रहनेवाली बिजलियोंके समान स्फटिक मणियोंकी शिलाओंपर चलनेवाली देवांगनाओंको धारण कर रहा है -इस प्रकार अद्भुत शोभासे सहित उस कैलास पर्वतको देखकर चक्रवर्ती भरत बहुत ही आनन्दको प्राप्त हुए । और उसका खास कारण यह था कि चक्रवर्तीके समान ही अलंघ्य था और भूभृत् अर्थात् पर्वतों ( पक्षमें राजाओं ) का अधिपति था ॥१५-२७॥ धर्मबुद्धिको धारण करनेवाले महाराज भरत पर्वतके नीचे दूरसे ही सवारी आदि परिकरको छोड़कर पैदल चलने लगे ॥२८।। पर्वतपर पैदल चढ़ते हुए भरतको थोड़ा भी खेद नहीं हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंको आत्माका हित करनेवाली क्रियाओंका करना खेदके लिए नहीं होता है ॥२९॥ स्वर्गकी सीढ़ियोंके समान देवरूपी कारीगरोंके द्वारा बनायी हुई पवित्र मणिमयी सीढ़ियोंके द्वारा महाराज भरत उस कैलास पर्वतपर चढ़ रहे थे ॥३०॥ चढ़ते-चढ़ते वे उस पर्वतके ऊपरको भूमिपर जा पहुँचे और वहां उन्होंने वनकी पंक्तियोंमें वनकी शीतल वायुके द्वारा मानो अतिथिसत्कार ही प्राप्त किया था ॥३१॥ वहाँ उन्होंने कहीं तो फूले हुए मन्दार वनकी गलियोंमें घूमती हुई तथा फूलोंके पवित्र आभूषण धारण किये हुई वनदेवियोंको देखा ॥३२॥ कहीं वनके भीतर अपने बच्चोंके साथ लेटी हुई और धीरे-धीरे रोमन्थ करती हुई हरिणियोंको देखा॥३३॥ कहीं संकुचित होकर सोते हुए और एक जगह इकट्ठे हुए अजगरके उन बड़े-बड़े बच्चोंको देखा जो कि उस पर्वतको अंतड़ियोंके समूहके समान जान पड़ते थे ॥३४॥ और कहींपर हाथियोंके मदसे सुवासित बड़ी-बड़ी काली चट्टानोंको हाथी १ मिलितैः । २ पाटलसान्वन्तम् । 'श्वेतरक्तस्तु पाटलः' इत्यभिधानात | ३ सिध्मलम् । 'किलासी सिध्मल इत्यभिधानात् । ४ शिथिलितकुसुमसमूहैः। ५ दद्रुरोगिसदृशः । 'दद्रुणो दद्रुरोगी स्याद्' इत्यभिधानात् । ६ स्फटिकशिलामध्य । ७ आत्महितः । ८ ऊर्ध्वभूमिषु । ९ प्रापितः । १० विभिन्न । ११ उपक्रान्त । १२ निकुञ्ज ल०, द०, अ०, १०, इ०, स० । १३ अजगरशिशून् । १४ अन्त्रसमूहान् । १५ दृश्यते स्म । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आदिपुराणम् किंचिदन्तरमारुह्य पश्यन्नद्रेः परां श्रियम् । प्राप्तावसरमित्यूचे वचनं च पुरोधसा ॥३६॥ पश्य देव गिररस्य प्रदेशान्बहुविस्मयान् । रमन्ते त्रिदशा यत्र स्वर्गावासेऽप्यनादराः ॥३७॥ पर्याप्तमतदवास्य प्राभवं भुवनातिगम् । देवो यदेनमध्यास्त चराचरगुरुः पुरुः ॥३८॥ महाद्विरयमुत्संगसंगिनीः सरिदङ्गनाः । शश्वद् बिभर्ति कामीव गलन्नीलजलांशुकाः ॥३६॥ क्रीडाहतोरहिंस्रोऽपि' मृगेन्द्रो गिरिकन्दरात् । महाहिमयमाकर्षन्दन्मुिञ्चत्यपारयन् ॥४०॥ सर्वद्वन्द्व सहान्सार्वान् जनतातापहारिणः । मुनीनिव वनाभोगानेष धत्तेऽधिमेखलम् ॥४१॥ हरीन्नखरनिर्मिन्नमदद्विरदमस्तकान् । निर्झरैः पापमीत्येव तर्जयत्येष सारवैः ॥४२॥ धत्ते सानुचरान् भद्रान् उच्चैशान स्ववग्रहान् । वनद्विपानयं शैलो भवानिव महीभुजः ॥४३॥ ध्वनतो घनसंघातान्' शरमा रभसादमी। द्विरदाशङ्कयोत्पत्य पतन्तो यान्ति शोच्यताम् ॥४४॥ कपोलकाषसंरुग्णत्वचो मदजलाविला: । द्विपानां वनसंभोगं सूचयन्तीह शाखिनः ॥४॥ समझकर नखरूपी अंकुरोंसे विदारण करता हुआ सिंह देखा ॥३५॥ भरत महाराज कुछ दूर आगे चढ़कर जब पर्वतकी शोभा देखने लगे तब पुरोहितने अवसर पाकर नीचे लिखे अनुसार वचन कहे ॥३६॥ हे देव, इस पर्वतके अनेक आश्चर्योसे भरे हुए उन प्रदेशोंको देखिए जिनपर कि देव लोग भी स्वर्गवास में अनादर करते हुए क्रीड़ा कर रहे हैं ॥३७।। समस्त लोकको उल्लंघन करनेवाली इस पर्वतकी महिमा इतनी ही बहुत है कि चर और अचर-सभीके गुरु भगवान् वृषभदेव इसपर विराजमान हैं ॥३८॥ यह महापर्वत अपनी गोदी अर्थात् नीचले मध्यभागमें रहनेवाली और जिनके नीले जलरूपी वस्त्र छूट रहे हैं ऐसी नदीरूपी स्त्रियोंको कामी पुरुषकी तरह सदा धारण करता है ।।३९।। यह सिंह अहिंसक होनेपर भी केवल क्रीड़ाके लिए पर्वतकी गुफामें-से एक बड़े भारी सर्पको खींच रहा है परन्तु लम्बा होनेसे खींचनेके लिए असमर्थ होता हुआ उसे छोड़ भी रहा है ॥४०॥ यह पर्वत अपने तटभागपर ऐसे अनेक वनके प्रदेशोंको धारण करता है जो कि ठीक मुनियोंके समान जान पड़ते हैं क्योंकि जिस प्रकार मुनि सब प्रकारके द्वन्द्व अर्थात् शीत उष्ण आदिकी बाधा सहन करते हैं उसी प्रकार वे वनके प्रदेश भी सब प्रकारके द्वन्द्व अर्थात् पशुपक्षियों आदिके युगल सहन करते हैं,-धारण करते हैं, जिस प्रकार मुनि सबका कल्याण करते हैं उसी प्रकार वनके प्रदेश भी सबका कल्याण करते हैं और जिस प्रकार मुनि जनसमूहके सन्ताप अर्थात् मानसिक व्यथाको दूर करते हैं उसी प्रकार वनके प्रदेश भी संताप अर्थात् सूर्यके घामसे उत्पन्न हुई गरमीको दूर करते हैं ॥४१॥ यह पर्वत शब्द करते हुए झरनोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो जिन्होंने अपने नखोंसे मदोन्मत्त हाथियोंके मस्तक विदारण किये हैं ऐसे सिंहोंको पापके डरसे तर्जना ही कर रहा हो-डाट ही दिखा रहा हो ॥४२॥ हे नाथ, जिस प्रकार आप सानुचर अर्थात् सेवकोंसहित, भद्र, उच्च कुलमें उत्पन्न हुए और उत्तम शरीरवाले अनेक राजाओंको धारण करते हैं-उन्हें अपने अधीन रखते हैं, उसी प्रकार यह पर्वत भी सानुचर अर्थात् शिखरोंपर चलनेवाले, पीठपर-की उच्च रीढ़से युक्त और उत्तम शरीरवाले भद्र जातिके जंगली हाथियोंको धारण करता है ॥४३॥ इधर ये अष्टापद, गरजते हुए मेघोंके समूहको हाथी समझकर उनपर उछलते हैं परन्तु फिर नीचे गिरकर शोचनीय दशाको प्राप्त हो रहे हैं ॥४४॥ कपोलोंके घिसनेसे जिनकी छाल घिस १ अघातुकोऽपि । २ समर्थो भूत्वा । ३ प्राणियुगल, पक्षे दुःख । ४ सर्वहितान् । ५ गिरिः । ६ ध्वनिसहितः । ७ सानुपु चरन्तीति सानुचरास्तान, पक्षे अनुचरैः सहितान् । ८ उन्नतपृष्ठास्थीन्, पक्षे इक्ष्वाक्वादिवंशान् । ९ स्वविग्रहान् ट०। शोभनललाटान् । 'अवग्रहो ललाटं स्याद्' इत्यभिधानात् । पक्षे-सुष्ठु स्वतन्त्रतानिषेधान् । 'अवग्रह इति ख्यातो वृष्टिरोधे गजालिके। स्वतन्त्रतानिषेधेऽपि प्रतिबन्धेऽप्यवग्रहः' इत्यभिधानात् । १० भूपतीन् । ११ मेघसमहान् । १२ गण्डस्थलनिघर्षणसंभग्न । १३ आर्द्राः । १४ गिरौ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तम पर्व १३५ शाखामृगा' मृगेन्द्राणां गर्जितैरिह तर्जिताः। पुक्षीभूता निकुञ्जषु पश्य तिष्ठन्ति साध्वसात् ॥४६॥ मुनीन्द्रपाठनि?पैरितो रम्यमिदं वनम् । तृणाग्रकवलग्रासिकुरंगकुलसंकुलम् ॥४७॥ इतश्च हरिणाराति कठोरारवभीषणम् । विमुक्तकवलच्छेदप्रपलायितकुञ्जरम् ॥४८॥ जरजरन्त शृङ्गाग्रक्षतवल्मीकरोधसः । इतो रम्या वनोद्देशा वराहोत्खातपल्वला: ॥४९॥ मृगैः प्रविष्टवेशन्त वंशस्तम्बोपगै गजैः । सूच्यते हरिणाक्रान्तं वनमेतद् भयानकम् ॥५०॥ वनप्रवेशिभिनित्यं नित्यं स्थण्डिलशायिमिः । न मुच्यतेऽयमदीन्द्रो मृगैर्मुनिगणैरपि ॥५१॥ इति प्रशान्तो रौद्रश्च सदैवायं धराधरः । सन्निधानाजिनेन्द्रस्य शान्त एवाधुना पुनः ॥५२॥ . गजैः पश्य मृगेन्द्राणां संवासमिह कानने । नखरक्षतमार्गेषु स्वैरमास्पृशतामिमान् ॥५३॥ 'चारणाध्युषितानेते 'गुहोत्संगानशङ्किताः । विशन्त्यनुगताः शावैः पाकसत्त्वैः समं मृगाः ॥५४॥ अहो परममाश्चर्य तिरश्चामपि यद्गणः । अनुयातं मुनीन्द्राणामज्ञातभयसंपदाम् ॥५५॥ सोऽयमष्टापदैर्जुष्टो मृगैरन्वर्थनामभिः । पुनरष्टापदख्याति पुरति स्वदुपक्रमम् ॥५६॥ स्फुरन्मणितटोपान्तं तारकाचक्रमापतत् । न याति व्यक्तिमस्याद्रेस्तद्रोचिश्छन्नमण्डलम् ॥५७॥ . गयी है और जो मदरूपी जलसे मलिन हो रहे हैं ऐसे इस वनके वृक्ष हाथियोंकी वनक्रीड़ाको साफ-साफ सूचित कर रहे हैं ॥४५।। इधर देखिए, सिंहोंकी गर्जनासे डरे हुए ये बन्दर भयसे इकट्ठे होकर लतामण्डपोंमें बैठे हुए हैं ॥४६॥ यह वन इधर तो बड़े-बड़े मुनियोंके पाठ करनेके शब्दोंसे रमणीय हो रहा है और इधर तृणोंके अग्रभागका ग्रास खानेवाले हरिणोंके समूहसे व्याप्त हो रहा है ॥४७॥ इधर सिंहोंके कठोर शब्दोंसे भयंकर हो रहा है और इधर खाना-पीना छोड़कर हाथियोंके समूह भाग रहे हैं ॥४८॥ इधर, जिनमें वृद्ध जंगली भैंसाओंने सोंगोंकी नोकसे बामियोंके किनारे खोद दिये हैं और सूअरोंने छोटे-छोटे तालाब खोद डाले हैं ऐसे ये सुन्दर-सुन्दर वनके प्रदेश हैं ॥४९॥ छोटे-छोटे तालाबोंमें घुसे हुए हरिणों और बाँसकी झाड़ियोंके समीप छिपकर खड़े हुए हाथियोंसे साफ-साफ सूचित होता है कि इस भयंकर वनपर अभी-अभी सिंहने आक्रमण किया है ।।५०॥ सदा वनमें प्रवेश करनेवाले और सदा जमोनपर सोनेवाले हरिण और मुनियोंके समूह इस वनको कभी नहीं छोड़ते हैं ॥५१॥ इस प्रकार यह पर्वत सदा शान्त और भयंकर रहता है परन्तु इस समय श्री जिनेन्द्रदेवके सन्निधानसे शान्त ही है ॥५२॥ इधर, इस वनमें सिंहोंका हाथियोंके साथ सहवास देखिए, ये सिंह अपने नखोंसे किये हुए हाथियोंके घावोंका इच्छानुसार स्पर्श कर रहे हैं ॥५३॥ जिनके पीछेपीछे बच्चे चल रहे हैं ऐसे हरिण, सिंह, व्याघ्र आदि दुष्ट जीवोंके साथ-साथ चारण-मुनियोंसे अधिष्ठित गुफाओंमें निर्भय होकर प्रवेश करते हैं ॥५४॥ अहा, बड़ा आश्चर्य है कि पशुओंके समूह भी, जिन्हें वनके भय और शोभाका कुछ भी पता नहीं है ऐसे मुनियोंके पीछे-पीछे फिर रहे हैं ।।५५।। सार्थक नामको धारण करनेवाले अष्टापद नामके जीवोंसे सेवित हुआ यह पर्वत आपके चढ़नेके बाद अष्टापद नामको प्राप्त होगा ॥५६॥ जिसपर अनेक मणि देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे इस पर्वतके किनारेके समीप आता हुआ नक्षत्रोंका समूह उन मणियोंकी किरणोंसे अपना मण्डल तिरोहित हो जानेसे प्रकटताको प्राप्त नहीं हो रहा है। भावार्थ - १ मर्कटाः । २ सिंह । ३ वृद्धमहिष । ४ वामलूरतटाः । 'वामलूरश्च नाकुश्च वल्मीकं पुन्नपुंसकम्' इत्यभिधानात् । ५ अल्पसरोवराः । ६ पल्वलः । 'वेशन्तं पल्वलं चाल्पसर' इत्यभिधानात् । ७ वेणुपुञ्जसमीपगैः । ८ सहवासम् । ९ नखरक्षतकोर्णपंक्तिषु । १० चारणमुनिभिराश्रितान् । ११ गुहामध्यान् । १२ सिंहशार्दूलादिक्रूरमृगैः । १३ हरिणादयः । १४ अनुगतम् । १५ सेवितः । १६ सार्थाऽभिधानः । १७ भविष्यत्काले आगमिष्यति । १८ त्वया प्रथमोपक्रमं यथा भवति तथा । १९ आगच्छत् । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ आदिपुराणम् ज्वलत्योषधिजालेऽपि निशि नाभ्येति किन्नरः । तमोविशङ्कयाऽस्यागुरिन्द्रनीलमयीस्तटीः ॥५०॥ हरिन्मणितटोत्सर्पन्मयूखानत्र भूधरे । तृणाङ्करधियोपेत्य मृगा यान्ति विलक्ष्यताम् ॥५६॥ सरोजराग रत्नांशुच्छरिता वनराजयः । तताः संध्यातपेनेव पुष्णन्तीह परां श्रियम् ॥६०॥ सूर्यांशुभिः परामृष्टाः सूर्यकान्ता ज्वलन्त्यमी। प्रायस्तेजस्विसंपर्कस्तेजः पुष्णाति तादृशम् ॥६१॥ इहेन्दुकरसंस्पर्शात्प्रक्षरन्तोऽप्यनुक्षपम् । चन्द्रकान्ता न हीयन्ते विचित्रा पुद्गलस्थितिः ॥१२॥ सुराणामभिगम्यत्वात् सिंहासनपरिग्रहात् । महत्त्वादचलत्वाच्च गिरिरेष जिनायते ॥६३॥ शुद्धस्फटिकसंकाशनिर्मलोदारविग्रहः । शुद्धात्मेव शिवायास्तु तवायमचलाधिपः ॥६४॥ इति शंसति तस्याः परां शोमा पुरोधसि । शंसाद्भूत इवानन्दं परं प्राप परंतपः ॥६५॥ किंचिच्चान्तरमुल्लङ्घय प्रसन्नेनान्तरात्मना । प्रत्यासन्नजिनास्थानं विदामास विदांवरः ॥६६॥ निपतत्पुष्पवर्षेण दुन्दुभीनां च निःस्वनैः । विदांबभूव लोकेशमभ्यासकृतसंनिधिम् ॥६७॥ किनारेके समीप संचार करते हुए नक्षत्रोंके समूहपर मणियोंकी कान्ति पड़ रही है जिससे वे मणियोंके समान ही जान पड़ते हैं, पृथक् रूपसे दिखाई नहीं देते हैं ॥५७॥ यद्यपि यहाँ रात्रिके समय ओषधियोंका समूह प्रकाशमान रहता है तथापि किन्नर जातिके देव अन्धकारकी आशंकासे इन्द्रनील मणियोंके बने हुए इस पर्वतके किनारोंके सम्मुख नहीं जाते हैं ॥५८॥ इस पर्वतपर हरित मणियोंके बने हुए किनारोंकी फैलती हुई किरणोंको हरी घासके अंकुर समझकर हरिण आते हैं परन्तु घास न मिलनेसे बहुत ही आश्चर्य और लज्जाको प्राप्त होते हैं ॥५९॥ इधर पद्मराग मणियोंकी किरणों-सी व्याप्त हई वनकी पंक्तियाँ ऐसी उत्कृष्ट शोभा धारण कर रही हैं मानो उनपर सन्ध्याकालकी लाल-लाल धूप ही फैल रही हो ॥६०॥ ये सूर्यकान्त मणि सूर्यको किरणोंका स्पर्श पाकर जल रही हैं सो ठीक ही है क्योंकि प्रायः तेजस्वी पदार्थका सम्बन्ध तेजस्वी पदार्थके तेजको पुष्ट कर देता है ॥६१।। इस पर्वतपर चन्द्रमाकी किरणोंका स्पर्श होनेपर चन्द्रकान्त मणियोंसे यद्यपि प्रत्येक रात्रिको पानी झरता है तथापि ये कुछ भी कम नहीं होते सो ठीक ही है क्योंकि पुद्गलका स्वभाव बड़ा ही विचित्र है ॥६२॥ अथवा यह पर्वत ठीक जिनेन्द्रदेवके समान जान पड़ता है क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्र देवके समीप देव आते हैं उसी प्रकार इस पर्वतपर भी देव आते हैं, जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवने सिंहासन स्वीकार किया है उसी प्रकार इस पर्वतने भी सिंहासन अर्थात् सिंहके आसनोंको स्वीकार किया है - इसपर जहाँ-तहाँ सिंह बैठे हुए हैं अथवा सिंह और असन वृक्ष स्वीकार किये हैं, जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव महान् अर्थात् उत्कृष्ट हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी महान् अर्थात् ऊँचा है और जिनेन्द्रदेव जिस प्रकार अचल अर्थात अपने स्वरूपमें स्थिर हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी अचल अर्थात स्थिर है ।।.६३।। हे देव, जिसका उदार शरीर शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल है ऐसा यह पर्वतराज कैलास शुद्धात्माकी तरह आपका कल्याण करनेवाला हो ॥६४॥ इस प्रकार जब पुरोहितने उस पर्वतकी उत्कृष्ट शोभाका वर्णन किया तब शत्रुओंको सन्तप्त करनेवाले महाराज भरत इस प्रकार परम आनन्दको प्राप्त हुए मानो सुखरूप ही हो गये हों ॥६५॥ विद्वानोंमें श्रेष्ठ भरत चक्रवर्ती प्रसन्न चित्तसे कुछ ही आगे बढ़े थे कि उन्हें वहाँ समीप ही जिनेन्द्रदेवका समवसरण जान पडा ॥६६॥ ऊपरसे पड़ती हुई पुष्पवृष्टिसे और दुन्दुभि बाजोंके शब्दोंसे उन्होंने जान १ विस्मयताम् । २ पद्मराग । ३ मिश्रिताः। ४ वर्द्धयन्ति । ५ रात्रौ रात्रौ। ६ न कृशा भवन्ति । ७ हरिविष्टरस्वीकारात्, पक्षे सिंहानामशनवृक्षाणां च स्वीकारात् । ८ स्तुति कुर्वति सति । ९ सुखायत्तः। १० परं शत्रु तापयतीति परंतपश्चक्री । ११ जानाति स्म । १२ समोपविहितस्थितिम् । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ शतपर्व ४ मन्दारकुसुमोद्गन्धिरान्दोलितलतावनः । पवनस्तमभीयाय प्रत्युद्यन्निव पावनः ॥ ६८ ॥ सुमनोवृष्टिरापतदापूरितनभोङ्गणा । विरजीकृत भूलोकैः समं शीतैरपां कणैः ॥ ६९ ॥ शुश्रुवे ध्वनिरामन्द्रो दुन्दुभीनां नमोऽङ्गणे । श्रुतः केकिमिरुग्रीवैर्धनस्तनितशङ्किमिः ॥७०॥ गुल्फदन प्रसूनौघसंमर्दमृदुना पथा" । तमद्विशेषमश्रान्तः प्रययौ स नृपाग्रणीः ॥७१॥ aaisa तं शैलमपश्यत् सोऽस्य मूर्धनि । प्रागुक्तवर्णनोपेतं जैनमास्थानमण्डलम् ॥७२॥ समेत्य वसरावेक्षास्तिष्ठन्त्यस्मिन् सुरासुराः । इति तज्ज्ञैर्निरुकं तत्सरणं समवादिकम् ॥७३॥ आखण्डलधनुर्लेखामखण्डपरिमण्डलाम् । जनयन्तं निजोद्योतैर्धूली सालमथासदत् ॥७४॥ हेमस्तम्माग्रविन्यस्तरत्त्रतोरणभासुरम् । धूली सालमतीत्यासौ मानस्तम्भमपूजयत् ॥ ७५ ॥ मानस्तम्भस्य पर्यन्ते सरसीः ससरोरुहाः । जैनीस्वि श्रुती: स्वच्छशीतलापो' 3 ददर्श सः ॥७६॥ धूली सालपरिक्षेपस्यान्तर्भागे समन्ततः । वीथ्यन्तरेषु सोऽपश्यद् देवावासोचिता भुवः ॥७७॥ अतीत्य परतः किंचिद् ददर्श जलखातिकाम् । सुप्रसन्नामगाधां च मनोवृत्तिं सतामिव ॥ ७८ ॥ वल्लीवनं ततोऽद्राक्षी नानापुष्पलताततम् । पुष्पासवरसामत्तभ्रममरसंकुलम् ॥७९॥ लिया था कि त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्रदेव समीप ही विराजमान हैं ॥ ६७ ॥ मन्दार वृक्षोंके फूलोंसे सुगन्धित और लताओंके वनको कम्पित करनेवाला वायु उनके सामने इस प्रकार आया था मानो उनकी अगवानी ही कर रहा हो ||६८ || जिन्होंने पृथ्वीको धूलिरहित कर दिया है ऐसी जलकी शीतल बूँदोंके साथ-साथ आकाशरूपी आँगनको भरती हुई फूलों की वर्षा पड़ रही थी || ६९ || जिन्हें मेघोंकी गर्जना समझनेवाले मयूर, अपनी गरदन ऊँची कर सुन रहे हैं। ऐसे आकाशरूपी आँगन में होनेवाले दुन्दुभि बाजोंके गम्भीर शब्द भी महाराज भरतने सुने थे ॥७०॥ राजाओंमें श्रेष्ठ महाराज भरत, पैरकी गाँठों तक ऊँचे फैले हुए फूलोंके सम्मर्दसे जो अत्यन्त कोमल हो गया है ऐसे मार्गके द्वारा बिना किसी परिश्रमके बाकी बचे हुए उस पर्वतपर चढ़ गये थे ।।७१।। तदनन्तर उस पर्वतपर चढ़कर भरतने उसके मस्तकपर पहले कही हुई रचना सहित जिनेन्द्रदेवका समवसरण मण्डल देखा || ७२ || इसमें समस्त सुर और असुर आकर दिव्य ध्वनिके अवसरकी प्रतीक्षा करते हुए बैठते हैं इसलिए जानकार गणधरादि देवोंने इसका समवसरण ऐसा सार्थक नाम कहा है ॥७३॥ अथानन्तर - महाराज भरत, जो अपने प्रकाशसे अखण्ड मण्डलवाले इन्द्रधनुषकी रेखाको प्रकट कर रहा है ऐसे धूलिसालके समीप जा पहुँचे ||७४ || सुवर्णके खम्भोंके अग्रभागपर लगे हुए रत्नोंके तोरणोंसे जो अत्यन्त देदीप्यमान हो रहा है ऐसे धूलिसालको उल्लंघन कर उन्होंने मानस्तम्भकी पूजा की ॥ ७५ ॥ जिनमें स्वच्छ और शीतल जल भरा हुआ है और कमल फूल रहे हैं ऐसी जिनेन्द्र भगवान्‌की वाणीके समान - मानस्तम्भके चारों ओरकी बावड़ियाँ भी महाराज भरत ने देखीं ॥७६॥ धूलिसालकी परिधिके भीतर चारों ओरसे गलियोंके बीचबीचमें उन्होंने देवोंके निवास करने योग्य पृथ्वी भी देखी ॥ ७७ ॥ कुछ और आगे चलकर उन्होंने जलसे भरी हुई परिखा देखी। वह परिखा सज्जन पुरुषोंके चित्तकी वृत्तिके समान स्वच्छ और गम्भीर थी ॥७८॥ तदनन्तर जो अनेक प्रकारके फूलोंकी लताओंसे व्यस्प्त हो रहा है और जो फूलों के आसवरूपी रससे मत्त होकर फिरते हुए भ्रमरोंसे व्याप्त है ऐसा लता । ४ घुण्टिकप्रमाण | 'तद्ग्रन्थी घुण्टिके गुल्फी' -१ अभिमुखं जगाम । २ जलानाम् । ३ भरतेन श्रूयते स्म इत्यभिधानात् । ५ मार्गेण । ६ श्रमरहितः । ७ कैलासस्य । ८ समागत्य । ९ प्रभोरवसरमालोकयन्तः । १० समवसरणम् । ११ आगमत् । १२ पर्यन्तसरसी ल० । १३ शैत्यजलाः, पक्षे शान्तिजलाः । १४ देवप्रासादभूमीः । १८ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आदिपुराणम् ततः किंचित्पुरो गच्छन् सालमाद्यं व्यलोकयत् । निषधाद्रितटस्पर्धिवपुषं रत्नभाजुषम् ॥८०॥ सुरदौवारिका रक्ष्यतयतोलीतलाश्रितान् । सोऽपश्यन्मङ्गलद्रव्यभेदांस्तत्राष्टधा स्थितान् ॥ ८१ ॥ ततोऽन्तः प्रविशन्वीक्ष्य द्वितयं नाट्यशालयोः । प्रीतिं प्राप परां चक्री शक्रस्त्रीवर्तनोचितम् ॥ ८२ ॥ धूपघटयोर्युग्मं तत्र वीथ्युभयान्तयोः । सुगन्धीन्धन संदोहोद्गन्धिधूपं व्यलोकयत् ॥ ८३ ॥ कक्षान्तरे द्वितीयेऽस्मिन्नसौ वनचतुष्टयम् । निदध्यौ विगलत्पुष्पैः कृतार्थमिव शाखिभिः ॥ ८४ ॥ "प्रफुलवनमाशोकं साप्तपर्णं च चाम्पकम् । आम्रेडितं वनं प्रेक्ष्य सोऽभूदाम्रेडितोत्सवः ॥ ८५ ॥ तत्र चैत्यद्रुमांस्तुङ्गान् जिनबिम्बैरधिष्टितान् । पूजयामास लक्ष्मीवान् पूजितान्नृसुरेशिनाम् ॥ ८६ ॥ तत्र किन्नरनारीणां गीतैरामन्द्रमूर्च्छनैः । लेभे परां धृतिं चक्री गायन्तीनां जिनोत्सवम् ॥ ८७ ॥ सुगन्धिपवनामोदनिःश्वासा कुसुमस्मिता । वनश्रीः कोकिलालापैः संजजल्पेव' चक्रिणा ॥ ८८ ॥ भृङ्गीसंगीतसंमूर्च्छत् कोकिलानकनिस्स्वनैः । अनङ्गविजयं जिष्णोर्वनानीवोदघोषयन् ॥ ८९ ॥ त्रिजगज्जनता जत्र प्रवेशरभसोत्थितम् । तत्राशृणोन्महाघोषमपां घोषमिवोदधेः ॥९०॥ वन वेदीमथापश्यद् वनरुद्धावनेः परम् । वनराजी विलासिन्याः काञ्चीमिव कणन्मणिम् ॥९१॥ तद्गोपुरावनिं क्रान्त्वा ध्वजरुद्वावनिं सुरान् । आजुहू पुमिवाऽपश्य मरुधूतैर्ध्वजांशुकैः ॥ ९२ ॥ वन देखा ॥ ७९ ॥ | वहाँसे कुछ आगे जाकर उन्होंने पहला कोट देखा जो कि निषध पर्वतके किनारे के साथ स्पर्धा कर रहा था और रत्नोंकी दीप्तिसे सुशोभित था ||८०|| देवरूप द्वारपाल जिसकी रक्षा कर रहे हैं ऐसे गोपुरद्वार के समीप रखे हुए आठ मंगलद्रव्य भी उन्होंने देखे ॥८१॥ तदनन्तर भीतर प्रवेश करते हुए चक्रवर्ती भरत इन्द्राणीके नृत्य करनेके योग्य दोनों ओरकी दो नाट्यशालाओंको देखकर परम प्रीतिको प्राप्त हुए ||८२॥ वहाँसे कुछ आगे चलकर मार्गके दोनों ओर बगल में रखे हुए तथा सुगन्धित ईंधनके समूहके द्वारा जिनसे अत्यन्त सुगन्धित धूम निकल रहा है ऐसे दो धूपघट देखे || ८३ || इस दूसरी कक्षा में उन्होंने चार वन भी देखे जो कि झड़ते हुए फूलोंवाले वृक्षोंसे अर्घ देते हुएके समान जान पड़ते थे || ८४|| फूले हुए अशोक वृक्षोंका वन, सप्तपर्ण वृक्षोंका वन, चम्पक वृक्षोंका वन और आमोंका सुन्दर वन देखकर भरत महाराजका आनन्द भी दूना हो गया था ।। ८५ ।। श्रीमान् भरतने उन वनोंमें जनप्रतिमाओं से अधिष्ठित और इन्द्र नरेन्द्र आदिके द्वारा पूजित बहुत ऊँचे चैत्यवृक्षोंकी भी पूजा की ॥८६॥ उन्हीं वनोंमें किन्नर जातिकी देवियाँ भगवान्का उत्सव गा रही थीं, 'उनके गम्भीर तानवाले गीतोंसे चक्रवर्ती भरतने परम सन्तोष प्राप्त किया था ॥ ८७ ॥ सुगन्धित पवन ही जिसका सुगन्धिपूर्ण निःश्वास है और फूल ही जिसका मन्द हास्य है ऐसी वह वनकी लक्ष्मी कोयलों मधुर शब्दोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो चक्रवर्तीके साथ वार्तालाप ही कर रही हो ॥ ८८ ॥ भ्रमरियोंके संगीतसे मिले हुए कोकिलारूपी नगाड़ोंके शब्दोंसे वे वन ऐसे जान पड़ते थे मानो जिनेन्द्र भगवान् ने जो कामदेवको जीत लिया है उसीकी घोषणा कर रहे हों ॥ ८९ ॥ वहाँपर तीनों लोकोंके जनसमूहके निरन्तर प्रवेश करनेकी उतावलीसे जो समुद्रके जलकी गर्जनाके समान बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था उसे भी भरत महाराजने सुना था ।। ९० ।। तदनन्तर उन वनोंसे रुकी हुई पृथिवीके आगे उन्होंने वनपंक्तिरूपी विलासिनी स्त्रीकी मणिमयी मेखला के समान मणियोंसे जड़ी हुई वनकी वेदी देखी ।। ९९ ।। वनवेदी के मुख्य द्वारकी भूमिको उल्लंघन कर चक्रवर्ती भरतने ध्वजाओंसे - पृथिवी उस समय ऐसी मालूम हो रही थी मानो वायुसे हिलते हुए ध्वजाओंके वस्त्रोंके द्वारा रुकी हुई पृथिवी देखी, वह १ ददर्श । २ प्रफुल्लवन - ल० । ३ आम्रेडितवनं ल० । आम्रमिति स्तुतम् । ४ द्वित्रिगुणितोत्सवः । ५ जल्पति स्म । ६ संमिश्रीभवत् । ७ स्फुरद्रत्नाम् । ८ सुराट् ल० द० । ९ आह्वातुमिच्छुम् । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व सावनिः सावनीवोद्यद् ध्वजमालातताम्बरा । सचक्रा सगजा रंजे जिनराजजयोर्जिता ॥१३॥ केतवो हरिवस्त्राब्जबहिणेभगरुत्मनाम् । स्रगुक्षहंस चक्राणां दशधोक्ता जिनेशिनः ॥१४॥ तानेकशः शतं चाष्टौ ध्वजान प्रतिदिशं स्थितान् । वरीवश्यन्न गाचक्री स तदावनेः परम् ॥१५॥ द्वितीयमार्जुनं सालं सगोपुरचतुष्टयम् । व्यतीत्य परतोऽपश्यन्नाट्यशालादिपूर्ववत् ॥५६॥ तत्र पश्यन्सुरस्त्रीणां नृत्यं गीतं निशामयन् । धूपामोदं च संजिघ्रन् सुप्रीताक्षी ऽभवद् विभुः ॥९॥ कक्षान्तरे ततस्तस्मिन् कल्पवृक्षवनावलिम् । स्रग्वस्त्राभरणादीलदा स निरूपयन् ॥१८॥ सिद्धार्थपादपस्तित्र सिद्धबिम्बैरधिष्ठितान् । परीत्य प्रणमन् प्रार्चीदर्चितानाकिनायकैः ॥१९॥ वनवेदी ततोऽतीत्य चतुर्गोपुरमण्डनाम् । प्रासादरुद्वामवनी स्तूपांश्च प्रभुरक्षत ॥१०॥ प्रासादा विविधास्तत्र सुरावासाय कल्पिताः । त्रिचतुष्पञ्चभूम्याद्या''नानाच्छन्दैरलंकृताः॥१०१॥ स्तूपाश्च रत्ननिर्माणाः सान्तरा रत्नतोरणैः । समन्ताजिनबिम्बैस्तै निचिताशा काशिरे ॥१०॥ तां पश्यन्नर्चयंस्तांश्च तांश्च तांश्च स कीर्तयन् । तां च कक्षां व्यतीयाय विस्मयं परायिवान् ॥१०३॥ उन्हें बुला ही रही हो ॥९२॥ वह ध्वजाभूमि यज्ञभूमिके समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार यज्ञभूमिका आकाश अनेक फहराती हुई ध्वजाओंके समूहसे व्याप्त होता है उसी प्रकार उस ध्वजाभूमिका आकाश भी अनेक फहराती हुई ध्वजाओंके समहसे व्याप्त हो रहा था, जिस प्रकार यज्ञभूमि धर्मचक्र तथा हाथी आदिके मांगलिक चिह्नोंसे सहित होती है उसी प्रकार वह ध्वजाभूमि भी चक्र और हाथीके चिह्नोंसे सहित थी, तथा जिस प्रकार यज्ञभूमि जिनेन्द्रदेवके जय अर्थात् जयजयकार शब्दोंसे व्याप्त होती है उसी प्रकार वह ध्वजाभूमि भी जिनेन्द्रदेवके जयजयकार शब्दोंसे व्याप्त थी अथवा कर्मरूपी शत्रुओंको जीत लेनेसे प्रकट हुई थी ॥९३।। जिनराजकी वे ध्वजाएँ सिंह, वस्त्र, कमल, मयूर, हाथी, गरुड़, माला, बैल, हंस और चक्र इन चिह्नोंके भेदसे दश प्रकारकी थीं ॥९४॥ वे ध्वजाएँ प्रत्येक दिशामें एकएक प्रकारको एक सौ आठ स्थित थीं, उन सबकी पूजा करते हुए चक्रवर्ती महाराज उस ध्वजाभूमिसे आगे गये ।।१५।। आगे चलकर उन्होंने चार गोपुर दरवाजोंसहित चाँदोका बना हुआ दूसरा कोट देखा और उसे उल्लंघन कर उसके आगे पहलेके समान ही नाट्यशाला आदि देखीं ।।९६॥ वहाँ देवांगनाओंके नृत्य देखते हुए, उनके गीत सुनते हुए और धूपकी सुगन्ध सूंघते हुए महाराज भरतकी इन्द्रियाँ बहुत ही सन्तुष्ट हुई थीं ।।९७।। आगे चलकर उन्होंने उसी कक्षाके मध्यमें माला, वस्त्र और आभूषण आदि अभीष्ट फल देनेवाली कल्प वृक्षोंके वनकी भूमि देखी ॥९८।। उसी वनभूमिमें उन्होंने सिद्धोंकी प्रतिमाओंसे अधिष्ठित और इन्द्रोंके द्वारा पूजित सिद्धार्थ वृक्षोंकी प्रदक्षिणा दी, उन्हें प्रणाम किया और उनकी पूजा की ॥९९।। तदनन्तर चार गोपुर दरवाजोंसे सुशोभित वनकी वेदीको उल्लंघन कर चक्रवर्तीने अनेक महलोंसे भरी हई पथिवी और स्तुप देखे ॥१००। वहाँ देवोंके रहनेके लिए जो महल बने हुए थे वे तीन खण्ड, चार खण्ड, पाँच खण्ड आदि अनेक प्रकारके थे तथा नाना प्रकारके उपकरणोंसे सजे हुए थे ।।१०१।। जिनके बीच-बीच में रत्नोंके तोरण लगे हए हैं और जिनपर चारों ओरसे जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाएँ विराजमान हैं ऐसे वे रत्नमयी स्तूप भी बहुत अधिक सुशोभित हो रहे थे ॥१०२।। उन स्तूपोंको देखते हए, उनकी पूजा करते हए और उन्हींका वर्णन करते हुए जिन्हें परम आश्चर्य प्राप्त हो रहा है ऐसे भरतने क्रम-क्रमसे उस कक्षाको उल्लंघन १ यज्ञसंबन्धिनीव । सवनः यज्ञः । २ मालावृषभ । ३ एकैकस्मिन् ( दिशि )। ४ पूजयन् । ५ प्रथमसालोक्तवत् । ६ शृण्वन् । ७ आघ्राणयन् । ८ प्रीतेन्द्रियः । ९ वनावनिम् ल०, प० । १० पश्यन् । ११ स्वस्तिकसर्वतोभद्रनन्द्यावर्तरुचकवर्द्धमानादिरचनाविशेषैः । १२ व्यतीतवान् । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आदिपुराणम् नमःस्फटिकनिर्माणं प्राकारवलयं ततः। 'प्रत्यासत्तेर्जिनस्येव लब्धशुद्धिं ददर्श सः ॥१०४॥ तत्र कल्पोपमै देवै महादौवारपालकैः । सादरं सोऽभ्यनुज्ञातः प्रविवेश समां विभोः ॥१०५॥ समन्ताद्योजनायामविष्कम्भपरिमण्डलम् । श्रीमण्डपं जगद्विश्वमपश्यन्मान्तमात्मनि ॥१०६॥ तत्रापश्यन्मुनीनिद्धबोधान्देवीश्च 'कल्पजाः । सार्यिका नृपकान्ताश्च ज्योतिर्वन्योरगामरीः ॥१०७॥ भावनव्यन्तरज्योतिःकल्पेन्द्रान्पार्थिवान्मृगान् । भगवत्पादसंप्रेक्षाप्रीतिप्रोत्फुल्ललोचनान् ॥१०८॥ गणानिति क्रमात् पश्यम्परीयाय परंतपः । त्रिमेखलस्य पीठस्य प्रथमां मेखलां श्रितः ॥१०९॥ तत्रानर्च मुदा चक्री धर्मचक्रचतुष्टयम् । यक्षेन्द्रवितं मूर्ना बध्नबिम्बानुकारि यत् ॥११॥ द्वितीयमेखलायां च प्रार्चदष्टौ महाध्वजान् । चक्रेभोक्षाब्जपञ्चास्यस्रग्वस्त्रगरुडाङ्कितान् ॥१११॥ मेखलायां तृतीयस्यामथैक्षिष्ट जगद्गुरुम् । वृषभं स कृती यस्यां श्रीमद्गन्धकुटीस्थिता ॥११२॥ तद्गर्भ रत्नसंदर्भरुचिरे हरिविष्टरे । मेरुशृङ्ग इवोत्तुङ्गे सुनिविष्टं महातनुम् ॥११३॥ छत्रत्रयकृतच्छायमप्यच्छायमघच्छिदम् । स्वतेजोमण्डलाक्रान्तनृसुरासुरमण्डलम् ॥११४॥ अशोकशाखिचिह्वेन व्यञ्जयन्तमिवाञ्जसा । स्वपादाश्रयिणां शोकनिरासे शक्तिमात्मनः ॥११५॥ चलत्प्रकीर्णकाकीर्णपर्यन्तं कान्तविग्रहम् । रुक्माद्रिमिव वप्रान्त पतन्निर्झरसंकुलम् ॥११६॥ - ~ किया ॥१०३॥ आगे चलकर उन्होंने आकाशस्फटिकका बना हआ तीसरा कोट देखा। वह कोट ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेन्द्रदेवकी समीपताके कारण उसे शुद्धि ही प्राप्त हो गयी हो ॥१०४॥ वहाँ महाद्वारपालके रूपमें खड़े हुए कल्पवासी देवोंसे आदरसहित आज्ञा लेकर भरत महाराजने भगवान्की सभामें प्रवेश किया ॥१०५॥ वहाँ उन्होंने चारों ओरसे एक योजन लम्बा, चौड़ा, गोल और अपने भीतर समस्त जगत्को स्थान देनेवाला श्रीमण्डप देखा ॥१०६।। उसी श्रीमण्डपके मध्यमें उन्होंने जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंके दर्शन करनेसे उत्पन्न हुई प्रीतिसे जिनके नेत्र प्रफुल्लित हो रहे हैं ऐसे क्रमसे बैठे हुए उज्ज्वल ज्ञानके धारी मुनि, कल्पवासिनी देवियाँ, आर्यिकाओंसे सहित रानी आदि स्त्रियाँ, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवोंकी देवियाँ, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देव, राजा आदि मनुष्य और मृग आदि पशु ऐसे बारह संघ देखे तथा इन्हींको देखते हुए महाराज भरतने तीन कटनीदार पीठकी प्रथम कटनीका आश्रय लेकर उसकी प्रदक्षिणा दी ॥१०७-१०९॥ उस प्रथम कटनीपर चक्रवर्तीने, जिन्हें यक्षोंके इन्द्रोंने अपने मस्तकपर धारण कर रखा है और जो सूर्यके बिम्बका अनुकरण कर रहे हैं ऐसे चारों दिशाओंके चार धर्मचक्रोंकी प्रसन्नताके साथ पूजा की ॥११०॥ दूसरी कटनीपर उन्होंने चक्र, हाथी, बैल, कमल, सिंह, माला, वस्त्र और गरुड़के चिह्नोंसे चिह्नित आठ महाध्वजाओंकी पूजा की ॥११९॥ तदनन्तर विद्वान् चक्रवर्तीने, जिसपर शोभायुक्त गन्धकुटी स्थित थी ऐसी तीसरी कटनीपर जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवको देखा ॥११२।। उस गन्धकुटीके भीतर जो रत्नोंकी बनावटसे बहुत ही सुन्दर और मेरु पर्वतके शिखरके समान ऊँचे सिंहासनपर बैठे हुए थे, जिनका शरीर बड़ा - जिनपर तीन छत्र छाया कर रहे थे परन्तु जो स्वयं छायारहित थे, पापोंको नष्ट करनेवाले थे, जिन्होंने अपने प्रभामण्डलसे मनुष्य, देव और धरणेन्द्र सभीके समूहको व्याप्त कर लिया था-जो अशोक वृक्षके चिह्नसे ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने चरणोंका आश्रय लेनेवाले जीवोंका शोक दूर करनेके लिए अपनी शक्ति ही प्रकट कर रहे हों-जिनके समीपका भाग चारों ओरसे ढुलते हुए चामरोंसे व्याप्त हो रहा था, जो सुन्दर शरीरके धारक थे और इसीलिए जो उस सुमेरु १ सामीप्यात् । २ कल्पजैः । ३ दिव्यैः । ४ अपूजयत् । ५ समूहम् । ६ शोकविच्छेदे । ७ सानुप्रान्त । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व १४१ तेजसा चक्रवालेन स्फुरता परितो वृतम् । परिवेषवृतस्यार्कमण्डलस्यानुकारकम् ॥११७॥ वियद'दुन्दुभिभिमन्द्रघोषैरुद्धोषितोदयम् । सुमनोवर्षिभिर्दिव्यजी मूतैरूर्जितश्रियम् ॥११८॥ स्फुरद्गम्भीरनि?षप्रीणितत्रिजगत्समम् । प्रावृषेण्यं पयोवाहमिव धर्माम्बुवर्षिणम् ॥११६॥ नानाभाषात्मिकां दिव्यभाषामेकात्मिकामपि । प्रथयन्तमयत्नेन हृद्ध्वान्तं नुदतीं नृणाम् ॥१२०॥ अमेयवीर्यमाहार्यविरहे ऽप्यतिसुन्दरम् । सुवाग्विभवमुत्सर्पसौरभं शुभलक्षणम् ॥५२१॥ अस्वेदमलमच्छायमपक्ष्मस्पन्दबन्धुरम् । सुसंस्थानमभेद्यं च दधानं वपुरूर्जितम् ॥१२२॥ रत्यप्रत_माहात्म्यं दूरादालोकयन् जिनम् । प्रह्वोऽभूत्स महीस्पृष्ट जानुरानन्दनिर्भरः ॥१२३॥ दूरानतचलन्मौलिरालोलमणिकुण्डलः । स रेजे प्रणमन् भक्त्या जिनं रौरिवार्घयन् ॥१२४॥ ततो विधिवदानचं जलगन्धस्रगक्षतैः । चस्प्रदीपधूपैश्च सफलैः स फलेप्सया ॥१२५॥ कृतपूजाविधिर्भूयः प्रणम्य परमेष्टिनम् । स्तोतुं स्तुतिभिरत्युच्चैरारेभे भरताधिपः ॥१२६॥ त्वां स्तोष्ये परमात्मानमपारगुणमच्युतम् । चोदितोऽहं बलाद् भवत्या शक्त्या मन्दोऽप्यमन्दया ॥१२७॥ पर्वतके समान जान पड़ते थे जो कि शिखरोंके समीप भागसे पड़ते हुए झरनोंसे व्याप्त हो रहा है-जो चारों ओरसे फैलते हुए कान्तिमण्डलसे व्याप्त हो रहे थे और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो गोल परिधिसे घिरे हुए सूर्यमण्डलका अनुकरण ही कर रहे हों-गम्भीर शब्द करनेवाले आकाशदुन्दुभियोंके द्वारा जिनका माहात्म्य प्रकट हो रहा था तथा फूलोंकी वर्षा करनेवाले दिव्य मेघोंके द्वारा जिनकी शोभा बढ़ रही थी-जिन्होंने चारों ओर फैलती हुई अपनी गम्भीर गर्जनासे तीनों लोकोंके जीवोंकी सभाको सन्तुष्ट कर दिया था और इसीलिए जो धर्मरूपी जलकी वर्षा करते हुए वर्षाऋतुके मेघके समान जान पड़ते थे, जो उत्पत्तिस्थानकी अपेक्षा एक रूप होकर भी अतिशयवश 'श्रोताओंके कर्णकुहरके समीप अनेक भाषाओंरूप परिणमन करनेवाली और जीवोंके हृदयका अन्धकार दूर करनेवाली दिव्य ध्वनिको बिना किसी प्रयत्नके प्रसारित कर रहे थे-जो अनन्त वीर्यको धारण कर रहे थे, आभूषणरहित होनेपर भी अतिशय सुन्दर थे, वाणीरूपी उत्तम विभूतिके धारक थे, जिनके शरीरसे सुगन्धि निकल रही थी, जो शुभ लक्षणोंसे सहित थे, पसीना और मलसे रहित थे, जिनके शरीरकी छाया नहीं पड़ती थी, जो आँखोंके पलक न लगनेसे अतिशय सुन्दर थे, समचतुरस संस्थानके धारक थे, और जो छेदन-भेदनरहित अतिशय बलवान् शरीरको धारण कर रहे थे-ऐसे अचिन्त्य माहात्म्यके धारक श्री जिनेन्द्र भगवान्को दूरसे ही देखते हुए भरत महाराज आनन्दसे भर गये तथा उन्होंने अपने दोनों घुटने जमीनपर टेककर श्री भगवान्को नमस्कार किया ॥११३-१२३॥ दूरसे ही नम्र होनेके कारण जिनका मुकुट कुछ-कुछ हिल रहा है और मणिमय कुण्डल चंचल हो रहे हैं ऐसे भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेवको प्रणाम करते हुए चक्रवर्ती भरत ऐसे जान पड़ते थे मानो उन्हें रत्नोंके द्वारा अर्घ ही दे रहा हो ॥१२४॥ तदनन्तर उन्होंने मोक्षरूपी फल प्राप्त करनेकी इच्छासे विधिपूर्वक जल, चन्दन, पुष्पमाला, अक्षत, नैवेद्य, दीप, धूप और फलोंके द्वारा भगवान्की पूजा की ।।१२५॥ पूजाकी विधि समाप्त कर चुकनेके बाद भरतेश्वरने परमेष्ठी वृषभदेवको प्रणाम किया और फिर अच्छे-अच्छे स्तोत्रोंके द्वारा उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥१२६।। हे भगवन, आप परमात्मा हैं, अपार गणोंके धारक हैं. अविनश्वर हैं और मैं शक्तिसे हीन हूँ तथापि बड़ी भारी भक्तिसे जबरदस्ती प्रेरित होकर आपकी स्तुति करता १ विष्वग् इ० । २ आकाशे ध्वनदुन्दुभिः । ३ सुरमेघैः । ४ प्रावृषि भवम् । ५ आभरणाद् विरहितेऽपि । ६ समचतुरस्र । ७ महीपृष्ठ ल०। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ - आदिपुराणम् 1 कसे गुणा गणामध्यगन्या' क मारशः तथापि प्रसतुं यावद्गुणनियां ॥१२८॥ फलाय त्वद्गता मन्दिरमल्याय प्रकल्पते । स्वामिसंपत्पुष्णाति ननु संपत्परम्पराम् ॥१२९ ॥ घातिकर्ममा प्रादुरासन् गुणास्तव धनावरणनिर्मुकमृतेर्भानोगंथांऽशवः ॥१३०॥ यथार्थदर्शनज्ञानसुखवीर्यादिलब्धयः क्षाविश्यस्तव निर्माता घातिकर्मविनिर्जयात् ॥ १३३॥ वाख्यं परं ज्योतिस्तव देव यदोद्गात् तदा लोकमलोकं च त्वमबुद्धा विनावधेः ।। १३२ ॥ सार्वज्ञयं तव वक्तीश वचः शुद्धिरशेषगा । न हि वाग्विभवो मन्दधियामस्तीह पुष्कलः ॥१३३॥ वक्तृप्रामाण्यतो देव वचःप्रामाण्यमिष्यते न तद् वः प्रभवम्युज्ज्वला गिरः ॥ १३४ ॥ सप्तभङ्गवाग्भिके ते भारती विश्वगोचरा आप्तप्रतीति ममलां त्वयुद्धाववितुं क्षमा ॥ १३५ ॥ स्यादत्येव हि नास्त्येव स्यादवक्तव्यमित्यपि । स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमिति ? ते सार्व' 'भारती ॥ १३६ ॥ हूँ ।। १२७ ।। हे देव, जो गणधर देवोंके द्वारा भी गम्य नहीं हैं ऐसे कहाँ तो आपके अनन्त गुण और कहाँ मुझ सरीखा मन्द पुरुष ? तथापि आपके गुणोंके अधीन रहनेवाली भक्ति से प्रेरित होकर आपकी स्तुति करनेका प्रयत्न करता हूँ || १२८|| हे भगवन्, आपके विषयमें की हुई थोड़ी भक्ति भी बहुत भारी फल देनेके लिए समर्थ रहती है सो ठीक ही है क्योंकि स्वामीकी सम्पत्ति सेवक जनोंकी सम्पत्तिकी परम्पराको पुष्ट करती ही है ॥ १२९ ॥ हे नाथ, जिस प्रकार मेघोंके आवरणसे छूटे हुए सूर्यकी अनेक किरणें प्रकट हो जाती हैं उसी प्रकार घातिया कर्मरूपी मलके दूर हो जानेसे आपके अनेक गुण प्रकट हुए हैं ।। १३०|| हे प्रभो, घातिया कर्मों को जीत लेनेसे आपके यथार्थ दर्शन, ज्ञान, सुख और बीर्य आदि क्षायिक लब्धियाँ प्रकट हुई हैं ।। १३१ || हे देव, जिस समय आपके केवलज्ञान नामकी उत्कृष्ट ज्योति प्रकट हुई थी उसी समय आपने मर्यादाके बिना ही समस्त लोक और अलोकको जान लिया था ।। १३२ ।। हे ईश, सब जगह जानेवाली अर्थात् संसारके सब पदार्थोंका निरूपण करनेवाली आपके वचनोंकी शुद्धि आपके सर्वशपनेको प्रकट करती है सो ठोक ही है क्योंकि इस जगत् में मन्द बुद्धिवाले जीवोंके इतना अधिक वचनोंका वैभव कभी नहीं हो सकता है ।। १३३ ।। हे देव, नक्ताकी प्रमाणतासे ही वचनोंकी प्रमाणता मानी जाती है क्योंकि अत्यन्त अशुद्ध वक्तासे उज्ज्वल वाणी कभी उत्पन्न नहीं हो सकती है ।। १३४।। हे नाथ समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाली आपकी यह सप्तभंगरूप वाणी ही आपमें आप्तपनेकी निर्मल प्रतीति उत्पन्न करानेके लिए समर्थ है ।। १३५ ।। है सबका हित करनेवाले, आपकी सप्तभंगरूप बाणी इस प्रकार है कि जीवादि पदार्थ कथंचित् हैं ही, कथंचित् नहीं ही हैं, कथंचित् दोनों प्रकार ही हैं, कथंचित् अवक्तव्य ही हैं, कथंचित् अस्तित्व रूप होकर अवक्तव्य हैं, कथंचित् नास्तित्व रूप होकर अवक्तव्य हैं और कथंचित् अस्तित्व तथा नास्तित्व दोनों रूप होकर अवक्तव्य हैं। विशेषार्थजैनागम में प्रत्येक वस्तुमें एक-एक धर्मके प्रतिपक्षी धर्मकी अपेक्षासे सात-सात भंग माने गये हैं, जो कि इस प्रकार हैं-१ स्यादस्त्येव २ स्यान्नास्त्येव ३ स्वादस्ति च नास्त्येव ४ स्यादवक्तव्यमेव ५ स्यादस्ति चावक्तव्यं च ६ स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च और ७ स्यादस्ति नास्ति चाववतव्यं च । , 1 इनका स्पष्ट अर्थ यह है कि संसारका १ - मध्यगम्या ल० । २ प्रयत्न करिष्ये । ३ त्वद्गुणाधीनतया । ४ नितरां जाता । ५ उदेति रूप । ६ सर्वज्ञताम् ७ सर्वगा ८ सम्पूर्णः । ९ आप्तस्य निश्चिति १० स्यादस्त्येवेत्यादिना सप्तभंगी योजनीया, कथ मिति चेत् (१) स्यादरस्येव (२) स्यानास्त्येव (३) इयमपि मिलित्वा स्यादस्तिनास्त्येव (४) स्यादवमेव (५) स्पादवतव्यपदेन सह स्पादस्ति नास्तीति इयं योजनीयम् कथम् ? स्वादस्त्यववतव्यम् (६) स्पान्नास्त्यवक्तम्यमिति (७) स्यादस्तिनास्त्वसम्यमिति ११ सर्वहित , Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व 1. विरुद्वाबद्धवाग्जालरुद्वव्यामुग्वबुद्धिषु । अश्रद्धेयमनाप्तेषु सार्वश्यं त्वयि तिष्ठते ॥१३७॥ रविः पयोधरोत्संगसुप्तरश्मिर्विकासिभिः । सूच्यतेऽब्जैर्यथा तद्वदुद्वैर्वाग्विभवैर्भवान् ॥ १३८॥ प्रत्येक पदार्थ स्वचतुष्टय ( द्रव्य-क्षेत्र - काल - भाव ) की अपेक्षा अस्तित्व रूप ही है, परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तित्व रूप ही है और एक साथ दोनों धर्म नहीं कहे जा सकनेके कारण अवक्तव्य रूप भी है, इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में मुख्यतासे अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य ये तीन धर्म पाये जाते हैं । इन्हीं मुख्य धर्मोके संयोगसे सात-सात धर्म हो जाते हैं । जैसे ' जीवोऽस्ति ' जीव है । यहाँपर जीव और अस्तित्व क्रियामें विशेष्य विशेषण सम्बन्ध है । विशेषण विशेष्यमें ही रहता है इसलिए जीवका अस्तित्व जीव में ही है दूसरी जगह नहीं है, इसी प्रकार 'जीवो नास्ति' - जीव नहीं है यहाँपर भी जीव और नास्तित्वमें विशेष्य- विशेषण सम्बन्ध है इसलिए ऊपर कहे हुए नियमसे नास्तित्व जीव में ही है दूसरी जगह नहीं है । जीवके इन अस्तित्व और नास्तित्व रूप धर्मोंको एक साथ कह नहीं सकते इसलिए उसमें एक अवक्तव्य नामका धर्म भी है । इन तीनों धर्मों में से जब जीवके केवल अस्तित्व धर्मकी विवक्षा करते हैं तब 'स्याद् अस्त्येव जीवः' ऐसा पहला भंग होता है, जब नास्तित्व धर्मकी विवक्षा करते हैं तब 'नास्त्येव जीव: ' ऐसा दूसरा भंग होता है, जब दोनोंकी क्रम-क्रमसे विवक्षा करते हैं तब 'स्यादस्ति च नास्त्येव जीव:' इस प्रकार तीसरा भंग होता है, जब दोनोंकी अक्रम अर्थात् एक साथ विवक्षा करते हैं तब दो विरुद्ध धर्मं एक कालमें नहीं कहे जा सकनेके कारण 'स्यादवक्तव्यमेव' ऐसा चौथा भंग होता है, जब अस्तित्व और अवक्तव्य इन दो धर्मों की विवक्षा करते हैं तब 'स्यादस्ति चावक्तव्यं च' ऐसा पाँचवाँ भंग होता है, जब नास्तित्व और अवक्तव्य इन दो धर्मोकी विवक्षा करते हैं तब 'स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च' ऐसा छठा भंग हो जाता है और जब अस्तित्व, नास्तित्व तथा अवक्तव्य इन धर्मोकी विवक्षा करते हैं तब 'स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यं च' ऐसा सातवाँ भंग हो जाता है। संयोगकी अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ में प्रत्येक धर्म सात-सात भंगके रूप रहता है इसलिए उन्हें कहनेके लिए जिनेन्द्र भगवान्ने सप्त-भंगी ( सात भंगों के समूह ) रूप वाणीके द्वारा उपदेश दिया है । जिस समय जीवके अस्तित्व धर्मका निरूपण किया जा रहा है उस समय उसके अवशिष्ट धर्मोंका अभाव न समझ लिया जाये इसलिए उसके साथ विवक्षासूचक स्याद् शब्दका भी प्रयोग किया जाता है तथा सन्देह दूर करनेके लिए नियमवाचक एव याच आदि निपातोंका भी प्रयोग किया जाता है जिससे सब मिलाकर 'स्यादस्त्येव जीवः ' इस वाक्यका अर्थ होता है कि जीव किसी अपेक्षासे है ही । इसी प्रकार अन्य वाक्योंका अर्थ भी समझ लेना चाहिए। जैनधर्म अपनी व्यापक दृष्टिसे पदार्थ के भीतर रहनेवाले उसके समस्त धर्मों का विवक्षानुसार कथन करता इसलिए वह स्याद्वादरूप कहलाता है । वास्तव में इस सर्वमुखी दृष्टिके बिना वस्तुका पूर्ण स्वरूप कहा भी तो नहीं जा सकता । १३६ ।। हे देव, जिनकी बुद्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुद्ध तथा सम्बन्धरहित वचनोंके जाल में फँसकर व्यामुग्ध हो गयी है ऐसे कुदेवों में श्रद्धान नहीं करने योग्य सर्वज्ञता आपमें विराजमान है । भावार्थ - सर्वज्ञ वही हो सकता है जिसके वचनोंमें कहीं भी विरोध नहीं आता है । संसारके अन्य देवी-देवताओंके वचनोंमें पूर्वापर विरोध पाया जाता है और इसीसे उनकी भ्रान्त बुद्धिका पता चल जाता है इन सब कारणों को देखते हुए 'वे सर्वज्ञ थे' ऐसा विश्वास नहीं होता परन्तु आपके वचनों अर्थात् उपदेशों में कहीं भी विरोध नहीं आता तथा आपने वस्तुके समस्त धर्मोका वर्णन किया है इससे आपकी बुद्धि - ज्ञान-निर्भ्रान्त है और इसीलिए आप सर्वज्ञ हैं || १३७ ।। जिस प्रकार • मेघोंके १४३ १ प्रमाणभूते निर्णयाय तिष्ठतीत्यर्थः । स्थेयप्रकाशने इति स्थेयविषये आत्मनेपदे - विवादपदे निर्णेता प्रमाणभूतः पुरुषः स्थेयः । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् यथान्धतमसे दूरात्तक्यं ते विरुतैः शिखी । तथा त्वमपि सुव्यक्तैः सूतैराप्तोन्तिमर्हसि ॥१३९॥ आस्तामाध्यात्मिकीयं ते ज्ञानसंपन्महोदया । बहिर्विभूतिरेवैषा शास्ति नः शास्तृतां त्वयि ॥१४०॥ परार्ध्यमासनं सैंहं कल्पितं सुरशिल्पिभिः । रत्नरुक्छुरितं भाति तावकं " मेरुशृङ्गवत् ॥ १४१॥ "सुरैरुच्छ्रितमेत से छत्राणां त्रयमूर्जितम् । त्रिजगत्प्राभवे चिह्नं न प्रतीमः कथं वयम् ॥१४२॥ चामराणि तवामूनि वीज्यमानानि चामरैः । शंसन्त्यनन्यसामान्यमैश्वर्यं भुवनातिगम् ॥१४३॥ परितस्त्वत्सभां देव वर्षन्त्येते सुराम्बुदाः । सुमनोवर्षमुद्गन्धि व्याहृतमधुपव्रजम् ॥ १४४॥ सुरदुन्दुभयो मन्द्रं ध्वनन्त्येते' नभोऽङ्गणे । सुरकिंकर हस्ताग्रताडितास्त्वजयोत्सवे ॥ १४५ ॥ सुरैरासेवितोपान्तो जनताशोकतापनुत् । प्रायस्त्वामयमन्वेति " तवाशोकमही रुहः ॥ १४६॥ स्वदेहदीप्तयो दीप्राः प्रसरन्त्यमितः सभाम् । धृतबालातपच्छायास्तन्वाना नयनोत्सवम् ॥ १४७ ॥ १४४ । - बीचमें जिसकी समस्त किरणें छिप गयी हैं ऐसा सूर्य यद्यपि दिखाई नहीं देता तथापि फूले हुए कमलोंसे उसका अस्तित्व सूचित हो जाता है उसी प्रकार आपका प्रत्यक्ष रूप भी दिखाई नहीं देता तथापि आपके श्रेष्ठ वचनोंके वैभवके द्वारा आपके प्रत्यक्ष रूपका अस्तित्व सूचित हो रहा है । भावार्थ- आपके महान् उपदेश ही आपको सर्वज्ञ सिद्ध कर रहे हैं ||१३८ ।। अथवा जिस प्रकार सघन अन्धकार में यद्यपि मयूर दिखाई नहीं देता तथापि अपने शब्दोंके द्वारा दूरसे ही पहचान लिया जाता है उसी प्रकार आपका आप्तपना यद्यपि प्रकट नहीं दिखाई देता तथापि आप अपने स्पष्ट और सत्यार्थ वचनोंसे आप्त कहलानेके योग्य हैं ।। १३९ ।। अथवा हे देव, जिसका बड़ा भारी अभ्युदय है ऐसी यह आपकी अध्यात्मसम्बन्धी ज्ञानरूपी सम्पत्ति दूर रहे, आपकी यह बाह्य विभूति ही हम लोगोंको आपके हितोपदेशीपनका उपदेश दे रही है । भावार्थ • आपकी बाह्य विभूति ही हमें बतला रही है कि आप मोक्षमार्गरूप हितका उपदेश देनेवाले सच्चे वक्ता और आप्त हैं ॥१४०॥ हे भगवन्, देवरूप कारीगरोंके द्वारा बनाया हुआ और रत्नोंकी किरणोंसे मिला हुआ आपका यह श्रेष्ठ सिंहासन मेरु पर्वत के शिखरके समान सुशोभित हो रहा है ।। १४१ ।। देवोंके द्वारा ऊपरकी ओर धारण किया हुआ यह आपका प्रकाशमान छत्रत्रय आपकी तीनों लोकोंकी प्रभुताका चिह्न है ऐसा हम क्यों न विश्वास करें ? भावार्थ- आपके मस्तक के ऊपर आकाशमें जो देवोंने तीन छत्र लगा रखे हैं वे ऐसे मालूम होते हैं मानो आप तीनों लोकोंके स्वामी हैं यही सूचित कर रहे हों ।। १४२ ॥ देवोंके द्वारा बुलाये हुए ये चमर तीनों जगत्को उल्लंघन करनेवाले आपके असाधारण ऐश्वर्यको सूचित कर रहे हैं ।। १४३ || हे देव, ये देवरूपी मेघ आपकी सभाके चारों ओर अत्यन्त सुगन्धित तथा भ्रमरोंके समूहको बुलानेवाली फूलोंकी वर्षा कर रहे हैं || १४४ ।। हे प्रभो, आपके विजयोत्सवमें देवरूप किंकरोंके हाथोंके अग्र भागसे ताड़ित हुए ये देवोंके दुन्दुभि बाजे आकाश रूप आँगनमें गम्भीर शब्द कर रहे हैं ।। १४५ ।। जिसका समीप भाग देवोंके द्वारा सेवित है अर्थात् जिसके समीप देव लोग बैठे हुए हैं और जो जनसमूहके शोक तथा सन्तापको दूर करनेवाला है ऐसा यह अशोकवृक्ष प्राय: आपका ही अनुकरण कर रहा है क्योंकि आपका समीप भाग भी देवोंके द्वारा सेवित है और आप भी जनसमूहके शोक और सन्तापको दूर करनेवाले हैं ।। १४६ ॥ जिसने प्रातः कालके सूर्यकी कान्ति धारण की है और जो नेत्रोंका रही है ऐसी यह आपके शरीरकी देदीप्यमान कान्ति सभाके चारों ओर फैल रही है। उत्सव बढ़ा भावार्थ - १ वहि । २ श्रुतेर्योग्यो भवसि । ३ शिक्षकत्वम् । ४ रत्नकान्तिमिश्रितम् । ५ त्वत्संबन्धि । ६ देवरुद्धृतम् । ७ लोक्यप्रभुत्वे । ८ कथं न विश्वासं कुर्मः । ९ नदन्त्येते ल० । १० संतापहारि । ११ अनुकरोति । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व दिव्यभाषा तवाशेवभाषा भेदानुकारिणी । निरस्यति मनोध्वान्तमत्राचामपि देहिनाम् ॥ १४८ ॥ प्रतिहार्यमयी भूतिरियमष्टतयी प्रभो । महिमानं तयाचष्टे विसष्टं विष्टपातिगम् ॥ १४६ ॥ त्रिमेखलस्य पीठस्य मेरोवि गरीयसः । चूलिकेव विभात्युच्चैः सेव्या गन्धकुटी तव ॥ १५०॥ वन्दारुणां मुनीन्द्राणां स्तोत्रप्रतिरवैर्मुहुः । स्तोतुकामेव भक्त्या त्वां सैषा भात्यतिसंमदात् ॥ १५१ ॥ परार्थ्यरत्ननिर्माणामेनामत्यन्तमास्त्रराम् । स्वामध्यासीनमानम्रा नाकभाजो भजन्त्यमी ॥ १५२॥ शिखामणोऽमीषां नम्राणां भान्ति मौलयः । सदीपा इव रत्नार्घाः स्थापितास्त्वत्पदान्तिके ॥ १५३ ॥ नतानां सुरकोटीनां चकासत्यधिमस्तकम् । प्रसादांशां इवालग्ना युष्मत्पादनखांशवः ॥ १५४ ॥ नखदर्पण संक्रान्तविम्वान्यमरयोषिताम् । दधत्यमूनि वक्त्राणि त्वदुपाङ्ङ्घयम्बुजश्रियम् ॥ १५५॥ वक्त्रेध्वमरनारोणां संधत्ते कुङ्कुमश्रियम् । युष्मत्पादतलच्छाया प्रसरती जयाऽरुणा ॥ १५६॥ Toursषित भूभागमध्यवर्ती त्रिमेखलः । पीठाद्वियमाभाति तत्राविष्कृतमङ्गलः ॥ १५७ ॥ प्रथमोsस्य परिक्षेपो धर्मचक्ररलंकृतः । द्वितीयोऽपि तवामीभिर्दिक्ष्वष्टासु महाध्वजैः ॥ १५८ ॥ श्री मण्डपनिवेशस्ते योजनप्रमितोऽप्ययम् । त्रिजगज्जनताऽजस्त्रप्रावेशोपग्रहक्षमः ॥ १५९ ॥ धूली सालपरिक्षेपो मानस्तम्भाः सरांसि च । खातिका सलिलापूर्णा वल्लीवनपरिच्छदः ॥ १६० ॥ आपके भामण्डलकी प्रभा सभाके चारों ओर फैल रही है || १४७ ।। समस्त भाषाओंके भेदोंका अनुकरण करनेवाली अर्थात् समस्त भाषाओं रूप परिणत होनेवाली आपकी यह दिव्य ध्वनि जो वचन नहीं बोल सकते ऐसे पशु पक्षी आदि तिर्यंचोंके भी हृदयके अन्धकारको दूर कर देती है ॥ १४८ ॥ हे प्रभो, आपकी यह प्रातिहार्यरूप आठ प्रकारकी विभूति आपकी लोकोत्तर महिमाको स्पष्ट रूपसे प्रकट कर रही है || १४९ ।। मेरु पर्वत के समान ऊँचे तीन कटनीदार पीठ पर सबके द्वारा सेवन करने योग्य आपकी यह ऊँची गन्धकुटी मेरुकी चूलिकाके समान सुशोभित हो रही है ।। १५० ।। वन्दना करनेवाले उत्तम मुनियोंके स्तोत्रोंकी प्रतिध्वनिसे यह गन्धकुटी ऐसी जान पड़ती है मानो भक्तिवश हर्षसे आपकी स्तुति ही करना चाहती हो ॥ १५१ ॥ हे प्रभो, जो श्रेष्ठ रत्नोंसे बनी हुई और अतिशय देदीप्यमान इस गन्धकुटीमें विराजमान हैं। ऐसे आपकी, स्वर्ग में रहनेवाले देव नम्र होकर सेवा कर रहे हैं ।। १५२ ।। हे देव, जो अग्रभागमें लगे हुए मणियों सहित हैं ऐसे इन नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुट ऐसे जान पड़ते हैं मानो आपके चरणोंके समीप दीपकसहित रत्नोंके अर्घ ही स्थापित किये गये हों ॥। १५३ ॥ नमस्कार करते हुए करोड़ों देवोंके मस्तकोंपर जो आपके चरणोंके नखोंकी किरणें पड़ रही हैं वे ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो उनपर प्रसन्नताके अंश ही लग रहे हों ।। १५४ || आपके नखरूपी दर्पण में जिनका प्रतिबिम्ब पड़ रहा है ऐसे ये देवांगनाओंके मुख आपके चरणों के समीपमें कमलोंकी शोभा धारण कर रहे हैं ॥१५५॥ जवाके फूलके समान लाल वर्ण जो यह आपके पैरों के तलवोंकी कान्ति फैल रही है वह देवांगनाओंके मुखोंपर कुंकुमकी शोभा धारण कर रही है ।। १५६ ।। जो बारह सभाओंसे भरी हुई पृथिवीके मध्यभागमें वर्तमान है और जिसपर अनेक मंगल द्रव्य प्रकट हो रहे हैं ऐसा यह तीन कटनीदार आपका पीठरूपी पर्वत बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा है ।। १५७।। इस पीठकी पहली परिधि धर्मचक्रोंसे अलंकृत है और दूसरी परिधि भी आठों दिशाओं में फहराती हुई आपकी इन बड़ी-बड़ी ध्वजाओंसे सुशोभित है ।। १५८ ।। यद्यपि आपके श्रीमण्डपकी रचना एक ही योजन लम्बी-चौड़ी है तथापि वह तीनों जगत् के जनसमूह के निरन्तर प्रवेश कराते रहने रूप उपकारमें समर्थ है ।। १५९ ।। हे प्रभो, यह धूलीसालकी परिधि, ये मानस्तम्भ, सरोवर, स्वच्छ जलसे भरी हुई परिखा, लता१ तिरश्चाम् । २ तव पादसमीपे । ३ द्वादशगणस्थित | ४ उपकारदक्षः । त्रिजगज्जनानां स्थानदाने समर्थ इत्यर्थः । १९ १४५ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आदिपुराणम् सालत्रितयमुत्तङ्गचतुर्गोपुरमण्डितम् । मङ्गलद्रव्यसंदोहो निधयस्तोरणानि च ॥१६॥ नाट्यशालाद्वयं दीप्तं लसद्धपघटीद्वयम् । वनराजिपरिक्षेपश्चैत्यद्रुमपरिष्कृतः ॥१६२॥ वनवेदीद्वयं प्रोच्चैर्ध्वजमालाततावनिः । कल्पद्रुमवनाम.गाः स्तूपहावलीत्यपि ॥१३॥ सदोऽवनि रियं देव नृसुरासुरपावनी । त्रिजगत्सारसंदोह इवैकत्र निवेशितः ॥१६॥ बहिर्विभूतिरित्युच्चैराविकृतमहोदयाः । लक्ष्मीमाध्यात्मिकी व्यक्तं व्यनकि जिन तावकीम् ॥१६५॥ सभापरिच्छदः सोऽयं सुरैस्तव विनिर्मितः । वैराग्यातिशयं नाथ नोपहन्त्य प्रतर्कितः ॥१६६॥ इत्यद्भतमाहात्म्यास्त्रिजगदल्लभो भवान् । । स्तुत्योपतिष्टमानं मां पुनीतात्पूतशासनः ॥१६॥ अलं स्तुतिप्रपञ्चेन तवाचिन्त्यतमा गुणाः । जयेशान नमस्तुभ्यमिति संक्षेपतः स्तुवे ॥१६॥ जयेश जय निर्दग्धकर्मेन्धनजयाजर । जय लोकगुरो सार्व जयताजय जित्वरं ॥१६९॥ जय लक्ष्मीपते जिष्णो जयानन्तगुणोज्ज्वल । जय विश्वजगद्वन्धो जय विश्वजगद्धित ॥१७॥ जयाखिलजगद्वेदिन् जयाखिलसुखोदय । जयाखिलजगज्ज्येष्ठ जयाखिलजगद्गुरो ॥१७१॥ , जय निर्जितमोहारे जय तर्जितमन्मथ । जय जन्मजरातङ्कविजयिन् विजितान्तक ॥१७॥ वनोंका समूह - ऊँचे-ऊँचे चार गोपुर दरवाजोंसे सुशोभित तीन कोट, मंगल द्रव्योंका समूह, निधियाँ, तोरण - दो-दो नाट्यशालाएं, दो-दो सुन्दर धूप घट, चैत्यवृक्षोंसे सुशोभित वन पंक्तियोंकी परिधि - दो वनवेदो, ऊँची-ऊँची ध्वजाओंकी पंक्तिसे भरी हुई पृथिवी, कल्पवृक्षोंके वनका विस्तार, स्तूप और मकानोंकी पंक्ति - इस प्रकार मनुष्य देव और धरणेन्द्रोंको पवित्र करनेवाली आपकी यह सभाभूमि ऐसी जान पड़ती है मानो तीनों जगत्की अच्छीअच्छी वस्तुओंका समूह ही एक जगह इकट्ठा किया गया हो ॥१६०-१६४॥ हे जिनेन्द्र, जिससे आपका महान् अभ्युदय या ऐश्वर्य प्रकट हो रहा है ऐसी यह आपकी अतिशय उत्कृष्ट बाह्य विभूति आपकी अन्तरंग लक्ष्मीको स्पष्ट रूपसे प्रकट कर रही है ॥१६५।। हे नाथ, जिसके विषयमें कोई तर्क-वितर्क नहीं कर सकता ऐसी यह देवोंके द्वारा रची हुई आपके सभवसरणको विभूति आपके वैराग्यके अतिशयको नष्ट नहीं कर सकती है। भावार्थ - समवसरण सभाको अनुपम विभूति देखकर आपके हृदयमें कुछ भी रागभाव उत्पन्न नहीं होता है ॥१६६॥ इस प्रकार जिनकी अद्भुत महिमा है, जो तीनों लोकोंके स्वामी हैं, और जिनका शासन अतिशय पवित्र है ऐसे आप स्तुतिके द्वारा उपस्थान ( पूजा ) करनेवाले मुझे पवित्र कीजिए ॥१६७॥ हे भगवन्, आपकी स्तुतिका प्रपंच करना व्यर्थ है क्योंकि आपके गुण अत्यन्त अचिन्त्य हैं इसलिए मैं संक्षेपसे इतनी ही स्तुति करता हूँ कि हे ईशान, आपको जय हो और आपको नमस्कार हो ॥१६८॥ हे ईश, आपकी जय हो, हे कर्मरूप इधनको जलानेवाले, आपकी जय हो, हे जरारहित, आपको जय हो, हे लोकोंके गुरु, आपकी जय हो, हे सबका हित करनेवाले, आपकी जय हो, और हे जयशील, आपकी जय हो ॥१६९।। हे अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीके स्वामी जयनशील, आपकी जय हो। हे अनन्तगुणोंसे उज्ज्वल, आपकी जय हो । हे समस्त जगत्के बन्धु, आपकी जय हो । हे समस्त जगत्का हित करनेवाले, आपकी जय हो ॥१७०॥ हे समस्त जगत्को जाननेवाले, आपकी जय हो। हे समस्त सुखोंको प्राप्त करनेवाले, आपकी जय हो। हे समस्त जगत्में श्रेष्ठ, आपकी जय हो। हे समस्त जगत्के गुरु, आपकी जय हो ॥१७१।। हे मोहरूपी शत्रुको जीतनेवाले, आपकी जय हो। हे कामदेवको भर्त्सना करने १ अलंकृतः 'परिष्कारो विभूषणम्' इत्यभिधानात् । २ नवाभोगः द०, इ०, । ३ समवसरणभूमिः । ४ न नाशयति । ५ ऊहातीतः ऊहितुमशक्य इत्यर्थः । ६ स्तोत्रेणार्चयनम् । ७ पवित्रं कुरु । ८ जयशील । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व जय निर्मद निर्माय जय निहि निर्मम । जय निर्मल निर्द्वन्द्व जय निष्कल' पुष्कल ॥१७३॥ जय प्रबुद्ध सन्मार्ग जय दुर्मार्गरोधन । जय कर्मारिमर्माविद्ध मचक्र जयोद्धर ॥१४॥ जयाध्वरपते यज्वन् जय पूज्य महोदय । जयोद्धार जयाचित्य सद्धर्मरथसारथे ॥१७५॥ जय निस्तीर्णसंसारपारावारगुणाकर । जय निःशेषनिष्पीतविद्यारत्नाकर प्रभो ॥१७६॥ नमस्ते परमानन्तसुखरूपाय तायिने । नमस्ते परमानन्दमयाय परमात्मने ॥१७॥ नमस्ते भवनोद्भासिज्ञानभाभारभासिने । नमस्ते नयनानन्दिपरमौदरिकत्विषे ॥१७८॥ नमस्ते मस्तकन्यस्तस्वहस्ताञ्जलिकुडुमलैः । स्तुताय त्रिदशाधीशैः स्वर्गावतरणोत्सवे ॥१७९॥ नमस्ते प्रचलन्मौलिघटिताञ्जलिबन्धनैः । नुताय मेरुशैलाग्रस्नाताय सुरसत्तमैः ॥१८०॥ नमस्ते मुकुटोपाग्रलग्नहस्तपुटो टैः । लौकान्तिकैरधीष्टाय परिनिष्क्रमणोत्सवे ॥१८१॥ नमस्ते स्वकिरीटापरस्त्रग्रावान्तचुम्बिभिः । कराजमुकुलैः प्राप्तकेवलेज्याय नाकिनाम् ॥१८२॥ नमस्ते पारनिर्वाणकल्याणेऽपि प्रवर्त्यति । पूजनीयाय वह्नीन्द्रज्वलन्मुकुटकोटिमिः ॥१८३॥ वाले, आपकी जय हो। हे जन्मजरारूपी रोगको जीतनेवाले, आपकी जय हो। हे मृत्युको जीतनेवाले, आपकी जय हो ॥ १७२॥ हे मदरहित, मायारहित, आपकी जय हो। हे मोहरहित, ममतारहित, आपकी जय हो। हे निर्मल और निर्द्वन्द्व, आपकी जय हो। हे शरीररहित, और पूर्ण ज्ञानसहित, आपकी जय हो ॥ १७३ ॥ हे समीचीन मार्गको जाननेवाले, आपकी जय हो। हे मिथ्या मार्गको रोकनेवाले, आपकी जय हो। हे कर्मरूपी शत्रुओंके मर्मको वेधन करनेवाले, आपकी जय हो। हे धर्मचक्रके द्वारा विजय प्राप्त करनेमें उत्कट, आपकी जय हो ॥ १७४ ।। हे यज्ञके अधिपति, आपकी जय हो । हे कर्मरूप ईधनको ध्यानरूप अग्निमें होम करनेवाले, आपकी जय हो। हे पूज्य तथा महान् वैभवको धारण करनेवाले, आपकी जय हो। हे उत्कृष्ट दयारूप चिह्नसे सहित तथा हे समीचीन धर्मरूपी रथके सारथि, आपकी जय हो ।।१७५॥ हे संसाररूपी समुद्रको पार करनेवाले, हे गुणोंकी खानि, आपकी जय हो । हे समस्त विद्यारूपी समुद्रका पान करनेवाले, हे प्रभो, आपकी जय हो ॥१७६।। आप उत्कृष्ट अनन्त सुखरूप हैं तथा सबकी रक्षा करनेवाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। आप परम आनन्दमय और परमात्मा हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥ १७७ ॥ आप समस्त लोकको प्रकाशित करनेवाले ज्ञानकी दीप्तिके समूहसे देदीप्यमान हो रहे हैं इसलिए आपको नमस्कार हो । आपके परमौदारिक शरीरको कान्ति नेत्रोंको आनन्द देनेवाली है इसलिए आपको नमस्कार हो ॥ १७८ ॥ हे देव, स्वर्गावतरण अर्थात् गर्भकल्याणकके उत्सवके समय इन्द्रोंने अपने हाथोंकी अंजलिरूपी बिना खिले कमल अपने मस्तकपर रखकर आपकी स्तुति की थी इसलिए आपको नमस्कार हो ॥१७९।। अपने नम्र हुए मस्तकपर दोनों हाथ जोड़कर रखनेवाले उत्तमउत्तम देवोंने जिनकी स्तुति की है तथा सुमेरु पर्वतके अग्रभागपर जिनका जन्माभिषेक किया गया है ऐसे आपके लिए नमस्कार है ॥ १८० । दीक्षाकल्याणकके उत्सवके समय अपने मुकुटके समीप ही हाथ जोड़कर लगा रखनेवाले लौकान्तिक देवोंने जिनका अधिष्ठान अर्थात् स्तुति की है ऐसे आपके लिए नमस्कार हो ॥ १८१ ।। अपने मुकुटके अग्रभागमें लगे हुए रत्नोंका चुम्बन करनेवाले देवोंके हाथरूपी मुकुलित कमलोंके द्वारा जिनके केवलज्ञानकी पूजा की गयी है ऐसे आपके लिए नमस्कार हो ।।१८२।। हे भगवन्, जब आपका मोक्षकल्याणक होगा १ शरीरबन्धनरहित । २ मर्म विध्यति ताडयतीति मर्मावित् तस्य संबुद्धिः । 'नहिवृतिवृषिव्यधिसहितनिरुचि क्वो कारकस्यति' दीर्घः । ३ उद्भट । ४ दयाचिह्न द०, ल०, इ०, अ०, प०, स० । ५ पालकाय । ६ ज्ञानकिरणसमूहप्रकाशिने । ७ स्तुताय । ८ भ्रमद्भिः , समर्थः वा। ९ अधिकमिष्टाय सत्कारानुमतायेत्यर्थः । १० भाविनि। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ आदिपुराणम् नमस्ते प्रासकल्याणसहेज्याय महौजते । प्राज्यत्रैलोक्यराज्याय ज्यायसे ज्यायसामपि ॥१४॥ नमस्ते नतनाकीन्द्रचूलारमार्चिता ये । नमस्ते दुर्जयारातिनिर्जयोपार्जितश्रिये ॥१८॥ नमोऽस्तु तुभ्यमि? सपर्यामहंते पराम् । रहोरजोऽरिघाताचे प्राप्ततन्नामरूढय ॥१८६॥ जितान्तक नमस्तुभ्यं जितमोह नमोऽस्तु ते । जितानङ्ग नमस्ते स्वाद विरागाय स्वयंभुवे ॥१८७॥ त्वां नमस्यन् जननम्रर्नम्यते सुकृती पुमान् । गां जयेजितजेत व्यस्त्वजयोदोषणात्कृती ॥१८॥ त्वत्स्तुतेः पूतवागस्मि त्वस्मृतः पूतमानसः । त्वन्नतेः पूतदेहोऽस्मि धन्योऽस्म्यद्य त्वदीक्षणात् ॥१८९॥ अहमद्य कृतार्थोऽस्मि जन्माद्य सफलं मम । सुनिवृत्ते दृशौ मेऽद्य सुप्रसन्नं मनोऽद्य मे ॥१९०॥ त्वत्तीर्थसरसि स्वच्छे पुण्यतोयसुसंभृते । सुस्नातोऽहं चिरादद्य पूतोऽस्मि सुखनिर्वृतः ॥१९१॥ त्वत्पादनखमाजालसलिलैरस्तकल्मषैः । अधिमस्तकमालग्नैरभिषिक्त इवास्म्यहम् ॥१९२॥ एकतः सार्वभौमश्रीरियमप्रतिशासना । एकतश्च भवत्पादसेवालोकैकपावनी ॥१९३॥ उस समय भी देदीप्यमान मुकुटोंको धारण करनेवाले वह्निकुमार देवोंके इन्द्र आपकी पूजा करेंगे इसलिए आपको नमस्कार हो । १८३ ।। हे नाथ, आपको गर्भ आदि कल्याणकोंके समय बड़ी भारी पूजा प्राप्त हुई है, आप महान् तेजके धारक हैं, आपको तीन लोकका उत्कृष्ट राज्य प्राप्त हुआ है और आप बड़ोंमें भी बड़े अथवा श्रेष्ठोंमें भी श्रेष्ठ हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥ १८४ ।। नमस्कार करते हुए स्वर्गके इन्द्रोंके मुकुटमें लगे हुए मणियोंसे जिनके चरणोंकी पूजा की गयी है ऐसे आपके लिए नमस्कार हो और जिन्होंने कर्मरूपी दुर्जेय शत्रुओंको जीतकर अनन्तचतुष्टयरूपी उत्तम लक्ष्मी प्राप्त की है ऐसे आपके लिए नमस्कार हो । १८५ ।। हे उत्कृष्ट ऋद्धियोंको धारण करनेवाले, आप उत्कृष्ट पूजाके योग्य हैं तथा रहस् अर्थात् अन्तराय रज अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण और अरि अर्थात् मोहनीय कर्मके नष्ट करनेसे आपने 'अरिहन्त' ऐसा सार्थक नाम प्राप्त किया है इसलिए आपको नमस्कार हो ॥ १८६ ॥ हे मृत्युको जीतनेवाले, आपको नमस्कार हो। हे मोहको जीतनेवाले, आपको नमस्कार हो। और हे कामको जीतनेवाले, आप वीतराग तथा स्वयम्भू हैं इसलिए आपको नमस्कार हो । १८७ ॥ हे नाथ, जो आपको नमस्कार करता है वह पुण्यात्मा पूरुष अन्य अनेक नम्र पुरुषोंके द्वारा नमस्कृत होता है और जो आपके विजयकी घोषणा करता है वह कुशल पुरुष जीतने योग्य समस्त कर्मरूप शत्रुओंको जीतकर गो अर्थात् पृथिवी या वाणीको जीतता है ॥ १८८ ॥ हे देव, आज आपकी स्तुति करनेसे मेरे वचन पवित्र हो गये हैं, आपका स्मरण करनेसे मेरा मन पवित्र हो गया है, आपको नमस्कार करनेसे मेरा शरीर पवित्र हो गया है और आपके दर्शन करनेसे मैं धन्य हो गया हूँ ।। १८९ ॥ हे भगवन्, आज मैं कृतार्थ हो गया हूँ, आज मेरा जन्म सफल हो गया है, आज मेरे नेत्र सन्तुष्ट हो गये हैं और आज मेरा मन अत्यन्त प्रसन्न हो गया है ॥ १९० ॥ हे देव, स्वच्छ और पुण्यरूप जलसे खूब भरे हुए आपके तीर्थरूपी सरोवरमें मैंने चिरकालसे अच्छी तरह स्नान किया है इसीलिए मैं आज पवित्र तथा सुखसे सन्तुष्ट हो रहा हूँ ॥ १९१ ।। हे प्रभो, जिसने समस्त पाप नष्ट कर दिये हैं ऐसा जो यह आपके चरणोंके नखोंको कान्तिका समहरूप जल मेरे मस्तकपर लग रहा है उससे मैं ऐसा मालूम होता हूँ मानो मेरा अभिषेक ही किया गया हो ॥१९२॥ हे विभो, एक ओर तो मुझे दूसरेके शासनसे रहित यह चक्रवर्तीकी विभूति प्राप्त हुई है और एक ओर १ पूजायाः योग्याय । २ अन्तरायज्ञानावरणमोहनीयघातात् । ३ अर्हन्निति नामप्रसिद्धाय । ४ भवतु । ५ नमस्कुर्वन् । ६ भोजितजेतव्यपक्ष । ७ अन्यन्तसुखवत्यौ । ८ सुखतृप्तः । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयत्रिंशत्तमं पर्व यद्दिग्भ्रान्तिविमूढेन'महदेनो मयाऽर्जितम् । तत्त्वत्संदर्शनालीनं तमो नैशं रवेर्यथा ॥ १९४॥ स्वपदस्मृतिमात्रेण पुमानेति पवित्रताम् । किमुत त्वद्गुणस्तुत्या भक्त्यैवं सुप्रयुक्तया ॥ १९ ॥ भगवंस्त्वद् गुणस्तोत्राद् यन्मया पुण्यमार्जितम् । तेनास्तु त्वत्पदाम्भोजे परा भक्तिः सदापि मे ॥१९६॥ वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं चराचरगुरुं परमादिदेवं स्तुत्वाऽधिराट धरणिपैः सममिद्धबोधः । आनन्दबाऽपलवसिक्तपुरःप्रदेशो भक्त्या ननाम करकुड्मललग्नमौलिः ॥१६७॥ श्रुत्वा पुराणपुरुषाच्च पुराणधर्मं कर्मारिचक्रजयलब्ध विशुद्धबोधात् । संप्रीतिमाप परमां भरताधिराजः प्रायो धृतिः कृतधियां स्वहितप्रवृत्तौ ॥ १६८ ॥ आपृञ्छ्य च स्वगुरुमादिगुरुं निधीशी व्यालोलमौलितटताडितपादपीठः । भूयोऽनुगम्य च मुनीन् प्रणतेन मूर्ध्ना स्वावासभूमिमभिगन्तुमना बभूव ॥ १६६ ॥ भक्त्यार्पितां त्रजमिवाधिपदं जिनस्य स्वां दृष्टिमन्वितसत्सु मनोविकास शेषास्थयैव च पुनर्विनिवर्त्य कृच्छ्रात् चक्राधिपो जिनसभाभवनात्प्रतस्थे ॥ २००॥ १४९ समस्त लोकको पवित्र करनेवाली आपके चरणोंकी सेवा प्राप्त हुई है || १९३ || हे भगवन्, दिशाभ्रम होनेसे विमूढ़ होकर अथवा दिग्विजयके लिए अनेक दिशाओंमें भ्रमण करने के लिए मुग्ध होकर मैंने जो कुछ पाप उपार्जन किया था वह आपके दर्शन मात्रसे उस प्रकार विलीन हो गया है जिस प्रकार कि सूर्यके दर्शन से रात्रिका अन्धकार विलीन हो जाता है ॥ १९४ ॥ हे देव, आपके चरणोंके स्मरणमात्र से ही जब मनुष्य पवित्रताको प्राप्त हो जाता है तब फिर इस प्रकार भक्ति से की हुई आपके गुणोंकी स्तुतिसे क्यों नहीं पवित्रताको प्राप्त होगा ? अर्थात् अवश्य ही होगा ।। १९५ ।। हे भगवन्, आपके गुणोंकी स्तुति करनेसे जो मैंने पुण्य उपार्जन किया है उससे यही चाहता हूँ कि आपके चरणकमलोंमें मेरी भक्ति सदा बनी रहे । १९६ ॥ इस प्रकार चर अचर जीवोंके गुरु सर्वोत्कृष्ट भगवान् वृषभदेवको नमस्कार कर जिसने आनन्दके आँसुओं की बूँदोंसे सामनेका प्रदेश सींच दिया है, जिसका ज्ञान प्रकाशमान हो रहा है, और जिसने दोनों हाथ जोड़कर अपने मस्तकसे लगा रखे हैं ऐसे चक्रवर्ती भरतने भक्तिपूर्वक भगवान्को नमस्कार किया ॥ १९७ ॥ कर्मरूपी शत्रुओंके समूहको जीतनेसे जिन्हें विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसे पुराण पुरुष भगवान् वृषभदेवसे पुरातन धर्मका स्वरूप सुनकर भरताधिपति महाराज भरत बड़ी प्रसन्नताको प्राप्त हुए सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् पुरुषों को प्रायः अपना हित करने में ही सन्तोष होता है ।।१९८ ।। तदनन्तर अपने चंचल मुकुटके किनारेसे जिन्होंने भगवाके पादपीठका स्पर्श किया है ऐसे निधियोंके स्वामी भरत महाराज अपने पिता आदिनाथ भगवान् से पूछकर तथा वहाँ विराजमान अन्य मुनियोंको नम्र हुए मस्तकसे नमस्कार कर अपनी निवासभूमि अयोध्याको जानेके लिए तत्पर हुए ॥ १९९ ॥ चक्राधिपति भरतने जिसमें अनुक्रमसे खिले हुए सुन्दर फूल गुँधे हुए हैं और जो श्री जिनेन्द्रदेवके चरणों में भक्तिपूर्वक अर्पित की गयी है ऐसी मालाके समान, सुन्दर मनकी प्रसन्नतासे युक्त अपनी दृष्टिको शेषाक्षत समझ बड़ी कठिनाईसे हटाकर भगवान्‌ के सभाभवन अर्थात् समवसरणसे प्रस्थान किया ॥ २०० ॥ १ दिग्विजयभ्रमणमूढेन । २ महत्पापम् । ३ नष्टम् । ४ आदित्यस्य । ५ - मर्जितम् ल० । ६ शोभनमनोविकासाम्, सुपुष्पविकासां च । ७ सिद्धशेषास्थया । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् आलोकयन् जिनसभावनिभूतिमिद्धां विस्फारितेक्षणयुगो युगदीर्घबाहुः । पृथ्वीश्वरैरनुगतः प्रणतोत्तमाङ्गैः प्रत्यावृतत्स्वसदनं मनुवंशकेतुः ॥२०१॥ पुण्योदयानिधिपतिर्विजिताखिलाशस्तनिर्जितौ' गमितषष्टिसमा सहस्रः । प्रीत्याऽभिवन्द्य जिनमाप परं प्रमोदं तत्पुण्यसंग्रह विधौ सुधियो यतध्वम् ॥२०२॥ इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भरतराजकैलासाभिगमनवर्णनं नाम त्रयस्त्रिंशत्तम पर्व ॥३३॥ भगवान्के समवसरणकी प्रकाशमान विभूतिको देखनेसे जिनके दोनों नेत्र खुल रहे हैं, जिनकी भुजाएँ युग ( जुवारी ) के समान लम्बी हैं, मस्तक झुकाये हुए अनेक राजा लोग जिनके पीछेपीछे चल रहे हैं और जो कुलकरोंके वंशकी पताकाके समान जान पड़ते हैं ऐसे भरत महाराज अपने घरकी ओर लौटे ॥२०१।। चूंकि पुण्यके उदयसे ही चक्रवर्तीने समस्त दिशाएँ जीतीं, तथा उनके जीतनेमें साठ हजार वर्ष लगाये और फिर प्रीतिपूर्वक जिनेन्द्रदेवको नमस्कार कर उत्कृष्ट आनन्द प्राप्त किया। इसलिए हे बुद्धिमान् जन, पुण्यके संग्रह करनेमें प्रयत्न करो ॥२०२।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें भरतराजका कैलास पर्वतपर जानेका वर्णन करनेवाला तैंतीसा पर्व समाप्त हुआ। १ निखिलदिग्जये । २ संवत्सर । ३ तस्मात् कारणात् । ४ प्रयत्नं कुरुध्वम् । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तम पर्व अपावरुद्य कैलासादहीन्द्रादिव देवराट् । चक्री प्रयाणमकरोद् विनीताभिमुग्वं कृती ॥१॥ सैन्यैरनुगतो रेजे 'प्रयांश्चक्री निजालयम् । गङ्गौव इव दुर्वारः सरिदोघेरपाम्पतिः ॥२॥ ततः कतिपयरेव प्रयाणैश्चक्रिणो बलम् । अयोध्यां प्रापदाबद्धतोरणां चित्रकेतनाम् ॥३॥ चन्दनद्रवसंसिकसुसंमृष्ट महीतला । पुरी स्नातानुलिप्ते व सा रंजे पत्युरागपे ॥४॥ नातिर निविष्टस्य प्रवेशसमय प्रभोः । चक्रमस्तारि चक्रं च नाक्रस्त पुरगोपुरम् ॥५॥ सा पुरी गोपुरोपान्तस्थितचक्रांशुरञ्जिता । धृतसंध्यातपेवासीत् कुङ्कमापिअरच्छविः ॥६॥ सत्यं भरतराजोऽयं धौरेयश्चक्रिणामिति । धृतदिव्यव सा जज्ञे ज्वलच्चक्रा पुरः पुरी ॥॥ ततः कतिपय देवाश्चक्ररत्नाभिरक्षिणः । स्थितमेकपद चक्रं वीक्ष्य विस्मयमाययुः ॥८॥ सुरा जातरुषः केचिकि किमित्युच्चरगिरः । अलातचक्रवद्रेमुः करवालार्पितैः करैः ॥९॥ किमम्बरमणेबिम्बमम्बरात्परिलम्बते । प्रतिसूर्यः किमुद्भत इत्यन्ये मुमुहुः ॥१०॥ अथानन्तर - सुमेरु पर्वतसे इन्द्रकी तरह कैलास पर्वतसे उतरकर उस बुद्धिमान् चक्रवर्तीने अयोध्याकी ओर प्रस्थान किया ।।१।। सेनाके साथ-साथ अपने घरकी ओर प्रस्थान करता हुआ चक्रवर्ती ऐसा सुशोभित होता था मानो नदियोंके समूहके साथ किसीसे न रुकनेवाला गंगाका प्रवाह समुद्रकी ओर जा रहा हो ॥ २ ॥ तदनन्तर कितने ही मुकाम तय कर चक्रवर्तीकी वह सेना जिसमें तोरण बँधे हुए हैं और अनेक ध्वजाएं फहरा रही हैं ऐसी अयोध्या नगरीके समीप जा पहुँची ॥ ३ ॥ जिसकी बुहारकर साफ की हुई पृथिवी घिसे हुए गीले चन्दनसे सींची गयी है ऐसी वह अयोध्यानगरी उस समय इस प्रकार सुशोभित हो रही थी मानो उसने पतिके आनेपर स्नान कर चन्दनका लेप ही किया हो ॥४॥ महाराज भरत नगरीके समीप ही ठहरे हुए थे वहाँसे नगरीमें प्रवेश करते समय जिसने समस्त शत्रुओंके समूहको नष्ट कर दिया है ऐसा उनका चक्ररत्न नगरके गोपुरद्वारको उल्लंघन कर आगे नहीं जा सका - बाहर ही रुक गया ॥ ५ ॥ गोपुरके समीप रुके हुए चक्रकी किरणोंसे अनुरक्त होनेके कारण जिसकी कान्ति कुंकुमके समान कुछ-कुछ पीली हो रही है ऐसी वह नगरी उस समय इस प्रकार जान पड़ती थी मानो उसने सन्ध्याकी लालिमा ही धारण की हो ।। ६ ॥ जिसके आगे चक्ररत्न देदीप्यमान हो रहा है ऐसी वह नगरी उस समय ऐसी जान पड़ती थी मानो यह भरतराज सचमुच ही सब चक्रवर्तियोंमें मुख्य है, अपनी इस बातकी प्रामाणिकता सिद्ध करनेके लिए उसने तप्त अयोगोलक आदिको ही धारण किया हो ॥ ७ ॥ तदनन्तर चक्ररत्नकी रक्षा करनेवाले कितने ही देव चक्रको एक स्थानपर खड़ा हुआ देखकर आश्चर्यको प्राप्त हुए ॥ ८ ॥ जिन्हें क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे कितने ही देव, क्या है ? क्या है ? इस प्रकार चिल्लाते हुए हाथमें तलवार लेकर अलातचक्रकी तरह चारों ओर घूमने लगे ॥ ९॥ क्या यह आकाशसे सूर्यका बिम्ब लटक पड़ा है ? अथवा कोई दूसरा ही सूर्य उदित हुआ है ? ऐसा विचार कर कितने ही लोग बार-बार मोहित हो रहे थे ॥ १० ॥ १ अवतीर्य । २ मेरोः । ३ गच्छन् । ४ गांगौघ ल०,। ५ सुष्ठुसमाजित । ६ समीपे। ७ विभोः ल०, द० । ८ प्रवेशं नाकरोत् । ९ पुरुगोपुरे र०, ल०। १० शपथ । ११ अग्रभागे। १२ केचन । १३ युगपत् सपदि वा । १४ चक्रवतकाष्ठाग्निभ्रमणवत् । १५ मुहयन्ति स्म । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आदिपुराणम् कस्याप्यकालचक्रेण पतितव्यं विरोधिनः । करेणेव ग्रहेणाद्य यतश्चक्रेण वक्रितम् ॥११॥ अथवाद्यापि जेतव्यः पक्षः कोऽप्यस्ति चक्रिणः । चक्रस्खलनतः कैश्चिदित्थं तज्ज्ञवितर्कितम् ॥१२॥ सेनानीप्रमुखास्तावत् प्रभवेतन्यवेदयन् । तद्वार्ताऽऽकर्णनाच्चक्री किमप्यासीत्सविस्मयः ॥१३॥ अचिन्तयच्च किं नाम चक्रमप्रतिशासने । मयि स्थिते स्खलत्यद्य क्वचिदप्यस्खलद्गति ॥१४॥ संप्रधार्यमिदं तावदित्याहूय पुरोधसम् । धीरो धीरतरां वाचमित्युच्चैराजगौ मनुः ॥१५॥ वदनोऽस्य मुखाम्भोजाद् व्यक्ताकूता सरस्वती । निर्ययौ सदलंकारा शम्फलीव जयश्रियः ॥१६॥ चक्रमाक्रान्तदिक्चक्रमरिचक्रभयंकरम् । कस्मानास्मत्पुरद्वारि क्रमते न्यकृतार्करुक ॥१७॥ विश्वदिग्विजये पूर्वदक्षिणापरवार्द्धिषु । यदासीदस्खलद्वृत्ति रूपयाश्च गुहाद्वये ॥१८॥ चक्रं तदधुना कस्मात् स्खलत्यस्मद्गृहाङ्गणे । प्रायोऽस्माभिर्विरुद्धेन भवितव्यं जिगीषुणा ॥१९॥ किमसाध्यो द्विषत्कश्चिदस्त्यस्मद्भक्तिगोचरे । सनाभिः कोऽपि किं वाऽस्मान् द्वेष्टि दुष्टान्तराशयः॥२०॥ यः कोऽप्यकारणद्वेषी खलोऽस्मान्नाभिनन्दति । प्रायः स्खलन्ति चेतांसि महत्स्वपि दुरात्मनाम् ॥२१॥ विमत्सराणि चेतांसि महतां परवृद्धिषु । मत्सरीणि तु तान्येव क्षुद्राणामन्यवृद्धिषु ॥२२॥ अथवा दुर्मदाविष्टः कश्चिदप्रणतोऽस्ति मे । स्ववय॑स्तन्मदोच्छित्यै नूनं चक्रेण वक्रितम् ॥२३॥ आज यह चक्र क्रूरग्रहके समान वक्र हुआ है इसलिए अकालचक्रके समान किसी विरोधी शत्रपर अवश्य ही पड़ेगा ॥११॥ अथवा अब भी कोई चक्रवर्तीके जेतव्य पक्ष में हैं - जीतने योग्य शत्र विद्यमान है इस प्रकार चक्रके रुक जानेसे चक्रके स्वरूपको जाननेवाले कितने ही लोग विचार कर रहे थे ।।१२।। सेनापति आदि प्रमुख लोगोंने यह बात चक्रवर्तीसे कही और उसके सुनते ही वे कुछ आश्चर्य करने लगे ।। १३ ।। वे विचार करने लगे कि जिसकी आज्ञा कहीं भी नहीं रुकती ऐसे मेरे रहते हुए भी, जिसकी गति कहीं भी नहीं रुको ऐसा यह चक्ररत्न आज क्यों रुक रहा है ? ॥ १४ ॥ इस बातका विचार करना चाहिए यही सोचकर धीर वीर मनुने पुरोहितको बुलाया और उसने नीचे लिखे हुए बहुत ही गम्भीर वचन कहे ॥१५॥ कहते हुए भरत महाराजके मुखकमलसे स्पष्ट अभिप्रायवाली और उत्तम-उत्तम अलंकारोंसे सजी हुई जो वाणी निकल रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो विजयलक्ष्मीकी दूती ही हो ।।१६।। जिसने समस्त दिशाओंके समूहपर आक्रमण किया है जो शत्रुओंके समूहके लिए भयंकर है और जिसने सूर्यकी किरणोंका भी तिरस्कार कर दिया है ऐसा यह चक्र मेरे ही नगरके द्वारमें क्यों नहीं आगे बढ़ रहा है - प्रवेश कर रहा है ? ॥१७॥ जो समस्त दिशाओंको विजय करनेमें पूर्व-दक्षिण और पश्चिम समुद्रमें कहीं नहीं रुका, तथा जो विजयाकी दोनों गुफाओंमें नहीं रुका वही चक्र आज मेरे घरके आँगनमें क्यों रुक रहा है ? प्रायः मेरे साथ विरोध रखनेवाला कोई विजिगीषु (जीतकी इच्छा करनेवाला) ही होना चाहिए ॥१८-१९।। क्या मेरे उपभोगके योग्य क्षेत्र ( राज्य ) में ही कोई असाध्य शत्रु मौजूद है अथवा दुष्ट हृदयवाला मेरे गोत्रका ही कोई पुरुष मुझसे द्वेष करता है ॥२०॥ अथवा बिना कारण ही द्वेष करनेवाला कोई दुष्ट पुरुष मेरा अभिनन्दन नहीं कर रहा है - मेरी वृद्धि नहीं सह रहा है सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट पुरुषोंके हृदय प्रायः कर बड़े आदमियोंपर भी बिगड़ जाते हैं ॥२१॥ महापुरुषोंके हृदय दूसरोंकी वृद्धि होनेपर मात्सर्यसे रहित होते हैं परन्तु क्षुद्र पुरुषोंके हृदय दूसरोंकी वृद्धि होनेपर ईष्योसहित होते हैं ॥२२॥ अथवा दुष्ट अहंकारसे घिरा हुआ कोई मेरे ही घरका १ अपमृत्युना । २ गन्तव्यम् मर्तव्यमित्यर्थः । ३ जेतव्यपक्षः ल०, द०। ४ चक्रिणे । ५ विचार्यम् । ६ व्यक्ताभिप्राया। ७ कुट्टणी। ८ भुक्तिक्षेत्रे । ९ सपिण्डः । 'सपिण्डास्तु सनाभयः' इत्यभिधानात् । नाभिसंबन्धीत्यर्थः । १० आत्मवर्गे भवः । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व खलूपेक्ष्य' लघीया नप्युच्छेद्यो लघु तादृशः । क्षुद्रो रेगुरिवाक्षिस्थो रुजत्यरिरुपेक्षितः ॥२४॥ बलादुद्धरणीयो हि क्षोदीयानपि कण्टकः । अनुद्वतः पदस्थोऽसौ भवेत्पीडाकरो भृशम् ॥२५॥ चक्रं नाम परं देवं रत्नानामिदमनिमम् । गतिस्खलनमतस्य न विना कारणाद् भवेत् ॥२६॥ ततो बाल्यमिदं कार्य यच्चक्रेणार्य सूचितम् । सूचिते खलु राज्याङ्गे विकृति ल्पकारणात् ॥२७॥ तदन कारणं चिस्यं त्वया धीमन्निदन्तयाँ । अनिरूपित कार्याणां नेह नामुत्र सिद्धयः ॥२८॥ त्वयीदं कार्यविज्ञानं तिष्टते दिव्यचक्षुषि । तमसां छेदने कोऽन्यः प्रभवेदंशुमालिनः ॥२९॥ निवेद्य कार्यमित्यस्मै दैवज्ञाय" मिताक्षरैः । विरराम प्रभुः प्रायः प्रभवो मितभाषिणः ॥३०॥ ततः प्रसन्नगम्भीरपदालंकारकोमलाम् । भारती भरतेशस्य प्रबोधायेति सोऽब्रवीत् ॥३१॥ अस्ति माधुर्यमस्त्योजस्तदस्ति पदसौष्टवम् । अस्त्यर्थानुगमोऽन्यत्कियन्नास्ति त्वदचोमये ॥३२॥ शास्त्रज्ञा वयमेकान्तात् नाभिज्ञाः कार्ययुक्तिषु । शास्त्रप्रयोगवित् कोऽन्यस्त्वत्समो राजनीतिषु ॥३३॥ त्वमादिराजो राजर्षिस्तद्विद्यास्त्व"दुपक्रमम् । तद्विदस्तत्प्रयुञ्जाना न जिहीमः कथं वयम् ॥३४॥ मनुष्य नम्र नहीं हो रहा है, जान पड़ता है यह चक्र उसीका अहंकार दूर करनेके लिए वक्र हो रहा है ॥२३॥ शत्रु अत्यन्त छोटा भी हो तो भी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, द्वेष करनेवाला छोटा होनेपर भी शीघ्र ही उच्छेद करने योग्य है क्योंकि आँखमें पड़ी हुई धूलिकी कणिकाके समान उपेक्षा किया हुआ छोटा शत्रु भी पीड़ा देनेवाला हो जाता है ॥२४॥ काँटा दि अत्यन्त छोटा हो तो भी उसे जबरदस्ती निकाल डालना चाहिए क्योंकि पैर में लगा हुआ काँटा यदि निकाला नहीं जायेगा तो वह अत्यन्त दुःखका देनेवाला हो सकता है ॥२५।। यह चक्ररत्न उत्तम देवरूप है और रत्नोंमें मुख्य रत्न है इसकी गतिका स्खलन बिना किसी कारणके नहीं हो सकता है ॥२६।। इसलिए हे आर्य, इस चक्रने जो कार्य सूचित किया है वह कुछ छोटा नहीं है क्योंकि यह राज्यका उत्तम अंग है इसमें किसी अल्पकारणसे विकार नहीं हो सकता है ॥२७।। इसलिए हे बुद्धिमान् पुरोहित, आप इस चक्ररत्नके रुकनेमें क्या कारण है इसका अच्छी तरह विचार कीजिए क्योंकि बिना विचार किये हुए कार्योंकी सिद्धि न तो इस लोकमें होती है और न परलोक ही में होती है ।।२८।। आप दिव्य नेत्र हैं इसलिए इस कार्यका ज्ञान आपमें ही रहता है अर्थात् आप ही चक्ररत्नके रुकनेका कारण जान सकते हैं क्योंकि अन्धकारको नष्ट करने में सूर्यके सिवाय और कौन समर्थ हो सकता है ? ॥२९॥ इस प्रकार महाराज भरत थोड़े हो अक्षरोंके द्वारा इस निमित्तज्ञानीके लिए अपना कार्य निवेदन कर चुप हो रहे सो ठीक ही है क्योंकि प्रभु लोग प्रायः थोड़े ही बोलते हैं ॥३०॥ तदनन्तर निमित्तज्ञानो पुरोहित भरतेश्वरको समझानेके लिए प्रसन्न तथा गम्भीर पद और अलंकारोंसे कोमल वचन कहने लगा ॥३१॥ जो माधुर्य, जो ओज, जो पदोंका सुन्दर विन्यास और जो अर्थकी सरलता आपके वचनोंमें नहीं है वह क्या किसी दूसरी जगह है ? अर्थात् नहीं है ।।३२॥ हम लोग तो केवल शास्त्रको जाननेवाले हैं कार्य करनेको युक्तियोंमें अभिज्ञ नहीं हैं परन्तु राजनीतिमें शास्त्रके प्रयोगको जाननेवाला आपके समान दूसरा कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है ॥३३॥ आप राजाओंमें प्रथम राजा हैं और राजाओंमें ऋषिके समान श्रेष्ठ होनेसे राजर्षि हैं यह राजविद्या केवल आपसे ही उत्पन्न हुई है इसलिए उसे जाननेवाले हम लोग .१ नोपेक्षणीयः । २ अतिशयने लघुः । ३ शीघ्रम् । ४ पीडां करोति । ५ अतिशयेन क्षुद्रः । ६ सुष्ठचिते । ७ चक्रे । ८ प्रतीयमानस्वरूपतया । ९ अविचारित । १० निश्चितं भवति । ११ नैमित्तिकाय । १२ व्यक्तं प०, ल० । १३ तव वचन-प्रपञ्चे । १४ राजविद्याः । १५ त्वदुपक्रमात् ल । त्वया पूर्व प्रवर्तितं कार्यविज्ञानम् । २० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आदिपुराणम् तथापि त्वत्कृतोऽस्मासु सत्कारोऽनन्यगोचरः । तनोति गौरवं लोके ततः स्मो वनमुद्यताः ॥३५॥ इत्यनुश्रुतमस्माभिर्देव दैवज्ञशासनम् । नास्ति चक्रस्य विश्रान्तिः सावशेषे दिशां जये ॥३६॥ ज्वलदर्चिः करालं वो जैत्रमस्त्रमिदं ततः । संस्तम्भितमिवातयं पुरद्वारि विलम्बते ॥३७॥ अरिमित्रममित्रं मित्रमित्रमिति श्रुतिः। श्रतिमात्रे स्थिता देव प्रजास्वय्यनुशासति ॥३८॥ तथाप्यस्त्येव जेतव्यः पक्षः कोऽपि तवाधुना । योऽन्तर्गृहे कृतोत्थानः क्रूरो रोग इवोदरे ॥३६॥ बहिर्मण्डलमेवासीत् परिक्रान्तमिदं त्वया । अन्तर्मण्डलसंशुद्धिर्मनानाद्यापि जायते ॥४०॥ जितजेतव्यपक्षस्य न नम्रा भ्रातरस्तव । व्युत्थिताश्च सजातीया विघाताय न नु प्रभोः ॥४१॥ स्वपक्षैरेव तेजस्वी महानप्युपरुद्धयते । प्रत्यर्कमर्ककान्तेन ज्वलतेदमुदाहृतम् ॥४२॥ विबलोऽपि सजातीयो लब्ध्वा तीक्ष्णं प्रतिष्कसम् । दण्डः परश्वधस्थव निबर्हयति पार्थिवम् ॥४३॥ भ्रातरोऽमी तवाजय्या बलिनो मानशालिनः । "यवीयांस्तेषु धौरेयो धीरो बाहुबली बली ॥४४॥ एकान्नशतसंख्यास्ते सोदा वीर्यशालिनः । प्रभोरादिगुरोर्नान्यं प्रणमाम इति स्थिताः ॥४५॥ आपके ही सामने उसका प्रयोग करते हुए क्यों न लज्जित हों ॥३४॥ तथापि आपके द्वारा किया हुआ हमारा असाधारण सत्कार लोकमें हमारे गौरवको बढ़ा रहा है इसलिए ही मैं कुछ कहनेके लिए तैयार हुआ हूँ ॥३५॥ हे देव, हम लोगोंने निमित्तज्ञानियोंका ऐसा उपदेश सुना है कि जबतक दिग्विजय करना कुछ भी बाकी रहता है तबतक चक्ररत्न विश्राम नहीं लेता अर्थात् चक्रवर्तीकी इच्छाके विरुद्ध कभी भी नहीं रुकता है ॥३६॥ जो जलती हुई ज्वालाओंसे भयंकर है ऐसा वह आपका विजयी शस्त्र नगरके द्वारपर गुप्त रीतिसे रोके हुएके समान अटककर रह गया है ॥३७॥ हे देव, आपके प्रजाका शासन करते हए शत्र, मित्र, शत्रुका मित्र, और मित्रका मित्र ये शब्द केवल शास्त्रमें ही रह गये हैं अर्थात् व्यवहार में न आपका कोई मित्र है और न कोई शत्र ही है सब आपके सेवक हैं ॥३८॥ तथापि अब भी कोई आपके जीतने योग्य रह गया है और वह उदरमें किसी भयंकर रोगके समान आपके घरमें ही प्रकट हुआ है ॥३९।। आपके द्वारा यह बाह्यमण्डल ही आक्रान्त - पराजित हुआ है परन्तु अन्तर्मण्डलकी विशुद्धता तो अब भी कुछ नहीं हुई है। भावार्थ - यद्यपि आपने बाहरके लोगोंको जीत लिया है तथापि आपके घरके लोग अब भी आपके अनुकूल नहीं है ॥४०।। यद्यपि आपने समस्त शत्रु पक्षको जीत लिया है तथापि आपके भाई आपके प्रति नम्र नहीं हैं-उन्होंने आपके लिए नमस्कार नहीं किया है। वे आपके विरुद्ध खड़े हुए हैं और सजातीय होनेके कारण आपके द्वारा विघात करने योग्य भी नहीं हैं ॥४१॥ तेजस्वी पुरुष बड़ा होनेपर भी अपने सजातीय लोगोंके द्वारा रोका जाता है यह बात सूर्यके सम्मुख जलते हुए सूर्यकान्त मणिके उदाहरणसे स्पष्ट है ॥४२॥ सजातीय पुरुष निर्बल होनेपर भी किसी बलवान् पुरुषका आश्रय पाकर राजाको उस प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार निर्बल दण्ड कूल्हाडीका तीक्ष्ण आश्रय पाकर अपने सजातीय वृक्ष आदिको नष्ट कर देता है ।।४३।। ये आपके बलवान् तथा अभिमानी भाई अजेय हैं और इनमें भी अतिशय युवा धीर वीर तथा बलवान् बाहुबली मुख्य है ॥४४॥ आपके ये निन्यानबे भाई बड़े बलशाली हैं, हम लोग भगवान् आदिनाथको छोड़कर और १ विभिन्न शास्त्रम् । २ -मिवात्यर्थ स०, इ०, अ०। -मिवाव्यक्तं प०, ल० । ३ विरुद्धाचरणाः । ४ बाध्यते । ५ सूर्यकान्तपाषाणेन । ६ उदाहरणं कृतम् । ७ प्रतिश्रयम् प०, ल० । सहायम् । ८ परशोः । 'परशुश्च परश्वधः' इत्यभिधानात् । ९ नाशयति ( लूष बह हिंसायाम् )। १० पृथिव्यां भवम् । वृक्षं नृपं च । ११ कनिष्ठः । 'जघन्यजे स्युः कनिष्ठयवीयोऽवरजानुजाः' इत्यभिधानात् । १२ एकोन-ल०, द०, इ०, प० । १३ बाहुबलिना रहितेन सह इयं संख्या, वृषभसेनेन प्रागेव दीक्षावग्रहणात् । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व १५५ तदत्र प्रतिकर्तव्यमाशु चक्रधर त्वया । ऋणवणाग्निशत्रूणां शेषं नोपेक्षते कृती ॥४६॥ राजन् राजन्वती भूयात् त्वयैवेयं वसुंधरा । माभूद्राजवती तेषां भूम्ना द्वैराज्यदुःस्थिता ॥४७॥ स्वयि राजनि राजोतिर्देव नान्यत्र राजते । सिंहे स्थिते मृगेन्द्रोकिं हरिणा बिभृयुः कथम् ॥४८॥ देव त्वामनुवर्तन्तां भ्रातरो धूतमत्सराः । ज्येष्ठस्य कालमुख्यस्य शास्त्रोक्तमनुवर्तनम् ॥४९॥ तच्छासनहरा गत्वा सोपायमुपजप्य तान् । त्वदाज्ञानुवशान् कुर्युर्विगृह्य ब्रूयुरन्यथा ॥५०॥ मिथ्यामदोद्धतः कोऽपि नोपेयाद्यदि ते वशम् । स नाशयेद्वतात्मानमार गृह्यं च राजकम् ॥५१॥ राज्यं कुलकलनं च नेष्टं साधारणं द्वयम् । भुङ्क्ते सार्द्ध पर्यस्तन्न नरः पशुरेव सः ॥५२॥ किमत्र बहुनोक्तेन त्वामेत्य प्रणमन्तु ते । यान्तु वा शरणं देवं त्रातारं जगतां जिनम् ॥५३॥ न तृतीया गतिस्तेषामेवैषां द्वितयी गतिः"। प्रविशन्तु त्वदास्थानं वनं वामी मृगैः समम् ॥५४॥ स्वकुलान्युल मुकानीव दहन्त्यननुवर्तनैः । अनुवर्तीनि तान्येव नेत्रस्यानन्दथुः परम् ॥५५॥ किसीको प्रणाम नहीं करेंगे ऐसा वे निश्चय कर बैठे हैं ॥४५।। इसलिए हे चक्रधर, आपको इस विषयमें शीघ्र ही प्रतिकार करना चाहिए क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष ऋण, घाव, अग्नि और शत्रुके बाकी रहे हुए थोड़े भी अंशकी उपेक्षा नहीं करते हैं ॥४६॥ हे राजन्, यह पृथिवी केवल आपके द्वारा ही राजन्वती अर्थात् उत्तम राजासे पालन की जानेवाली हो, आपके भाइयोंके अधिक होनेसे अनेक राजाओंके सम्बन्धसे जिसकी स्थिति बिगड़ गयी है ऐसी होकर राजवती अर्थात् अनेक साधारण राजाओंसे पालन की जानेवाली न हो। भावार्थ-जिस पृथिवीका शासक उत्तम हो वह राजन्वती कहलाती है और जिसका शासक अच्छा न हो, नाममात्रका ही हो वह राजवती कहलाती है। पृथिवीपर अनेक राजाओंका राज्य होनेसे उसकी स्थिति छिन्न-भिन्न हो जाती है इसलिए एक आप हो इस रत्नमयी वसुन्धराके शासक हों, आपके अनेक भाइयोंमें यह विभक्त न होने पावे ॥४७॥ हे देव, आपके राजा रहते हुए राजा यह शब्द किसी दूसरी जगह सुशोभित नहीं होता सो ठीक ही है क्योंकि सिंहके रहते हुए हरिण मृगेन्द्र शब्दको किस प्रकार धारण कर सकते हैं ? ॥४८।। हे देव, आपके भाई ईर्ष्या छोड़कर आपके अनुकूल रहें क्योंकि आप उन सबमें बड़े हैं और इस कालमें मुख्य हैं इसलिए उनका आपके अनुकूल रहना शास्त्र में कहा हुआ है ॥४९॥ आपके दूत जावें और युक्तिके साथ बातचीत कर उन्हें आपके आज्ञाकारी बनावें, यदि वे इस प्रकार आज्ञाकारी न हों तो विग्रह कर (बिगड़कर) अन्य प्रकार भी बातचीत करें ॥५०॥ मिथ्या अभिमानसे उद्धत होकर यदि कोई आपके वश नहीं होगा तो खेद है कि वह अपने-आपको तथा अपने अधीन रहनेवाले राजाओंके समूहका नाश करावेगा ॥५१॥ राज्य और कुलवती स्त्रियाँ ये दोनों ही पदार्थ साधारण नहीं हैं, इनका उपभोग एक ही पुरुष कर सकता है । जो पुरुष इन दोनोंका अन्य पुरुषोंके साथ उपभोग करता है वह नर नहीं है पशु ही है ॥५२॥ इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ है या तो वे आकर आपको प्रणाम करें या जगत्की रक्षा करनेवाले जिनेन्द्रदेवकी शरणको प्राप्त हों ॥५३।। आपके उन भाइयोंकी तीसरी गति नहीं है, इनके ये ही दो मार्ग हैं कि या तो वे आपके शिबिरमें प्रवेश मगोंके साथ वनमें प्रवेश करें ॥५४॥ सजातीय लोग परस्परके विरुद्ध आचरणसे अंगारेके करें या १ कारणात् । २ कुत्सितराजवती । 'सुराज्ञि देशे राजन्वान् स्यात्ततोऽन्यत्र राजवान्' इत्यभिधानात् । ३ द्वयो राज्ञो राज्येन दुःस्थिताः । ४ स्वच्छाशन-द०, ल० । दूताः। ५ उक्त्वा । ६ विवादं कृत्वा । ७ आत्मना स्वीकरणीयम् । ८ सर्वेषामनुभवनीयम् । ९ द्वयम् । १०-मेषैषां ल०। ११ उपायः । १२ स्वगोत्राणि । तब भ्रातर इत्यर्थः । १३ परः अ०, इ०, स० । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आदिपुराणम् प्रशान्तमत्सराः शान्तास्त्वां नत्वा नम्रमौलयः । सोदर्याः सुखमेधतां वत्प्रसादाभिकाङिक्षणः ॥५६॥ इति शासति शास्त्रज्ञे पुरोधसि सुमंधसि । प्रतिपद्यापि तत्कार्य चक्री चुक्रोध तत्क्षणम् ॥१७॥ आरुष्टकलुषां दृष्टिं क्षिपन्दिश्विव दिग्बलिम् । सधूमामिव कोपाग्नेः शिखां भृकुटिमुक्षिपन् ॥१८॥ भ्रातृभाण्डकृतामविषवेगमिवोहमन् । वाक्छलेनो च्छलन् रोषाद् बभाषे परुषा गिरः ॥५१॥ किं किमान्थ दुरात्मानो भ्रातरः प्रणतांन माम् । पश्य मदण्डचण्डोल्कापातात्तान् शल्कसात्कृतान् ॥६॥ अदृष्टम श्रुतं कृत्यमिदं बैरमकारणम् । अध्याः किल कुल्यत्वादिति तेषां मनीषितम् ॥६१॥ यौवनोन्मादजस्तेषां भटवातोऽस्ति दुर्मदः । ज्वलचक्राभितापेन स्वेदस्तस्य प्रतिक्रिया ॥६॥ अकरां भोकुमिच्छन्ति गुरुदत्तामिमान्तके । तत्कि" भटावलेपेन भुक्ति ते श्रावयन्तु मे ॥६३॥ प्रतिशय्यानिपातेन भुनि ते साधयन्तु वा । शितास्त्रकण्टकोत्संगपतिताङ्गारणाङ्गणे ॥६॥ क्व वयं जितजेतव्या भोक्तव्ये संगताः क्व ते । तथापि' संविभागोऽस्तु तेषां मदनुवर्तने ॥६५॥ समान जलाते रहते हैं और वे ही लोग परस्परमें अनुकूल रहकर नेत्रोंके लिए अतिशय आनन्द रूप होते हैं ॥५५।। इसलिए ये आपके भाई मात्सर्य छोड़कर शान्त हो मस्तक झुकाकर आपको नमस्कार करें और आपकी प्रसन्नताकी इच्छा रखते हुए सुखसे वृद्धिको प्राप्त होते रहें ॥५६॥ इस प्रकार शास्त्रके जाननेवाले बुद्धिमान् पुरोहितके कह चुकनेपर चक्रवर्ती भरतने उसीके कहे अनुसार कार्य करना स्वीकार कर उसी क्षण क्रोध किया ॥५७।। जो क्रोधसे कलुषित हई अपनी दृष्टिको दिशाओंके लिए बलि देते हुएके समान सब दिशाओं में फेंक रहे हैं, क्रोधरूपी अग्निकी धूमसहित शिखाके समान भृकुटियाँ ऊँची चढ़ा रहे हैं, भाईरूपी मूलधनपर किये हुए क्रोधरूपी विषके वेगको जो वचनोंके छलसे उगल रहे हैं और जो क्रोधसे उछल रहे हैं ऐसे महाराज भरत नीचे लिखे अनुसार कठोर वचन कहने लगे ।।५८-५९।। हे पुरोहित, क्या कहा ? क्या कहा ? वे दुष्ट भाई मुझे प्रणाम नहीं करते हैं, अच्छा तो तू उन्हें मेरे दण्डरूपी प्रचण्ड उल्कापातसे टुकड़े किया हुआ देख ।।६०॥ उनका यह कार्य न तो कभी देखा गया है, न सुना गया है, उनका यह वैर बिना कारण ही किया हुआ है, उनका खयाल है कि हम लोग एक कुलमें उत्पन्न होनेके कारण अवध्य हैं ॥६१। उन्हें यौवनके उन्मादसे उत्पन्न हुआ योद्धा होनेका कटिन वायुरोग हो रहा है इसलिए जलते हुए चक्र के सन्तापसे पसीना आना ही उसका प्रतिकार-उपाय है ।।६२।। वे लोग पूज्य पिताजीके द्वारा दी हुई पृथिवीको बिना कर दिये ही भोगना चाहते हैं परन्तु केवल योद्धापनेके अहंकारसे क्या होता है ? अब या तो वे लोगोंको सुनावें कि भरत ही इस पृथिवीका उपभोग करनेवाला है हम सब उसके अधीन हैं या युद्धके मैदानमें तीक्ष्ण शस्त्ररूपी काँटोंके ऊपर जिनका शरीर पड़ा हुआ है ऐसे वे भाई प्रतिशय्यादूसरी शय्या अर्थात् रणशय्यापर पड़कर उसका उपभोग प्राप्त करें । भावार्थ-जीते-जी उन्हें इस पृथिवीका उपभोग प्राप्त नहीं हो सकता ॥६३-६४॥ जिसने जीतने योग्य समस्त लोगोंको जीत लिया है ऐसा कहाँ तो मैं, और मेरे उपभोग करने योग्य क्षेत्र में स्थित कहाँ वे लोग ? तथापि मेरे आज्ञानुसार चलनेपर उनका भी विभाग ( हिस्सा ) १ 'भाण्ड भपणमात्रेऽपि भाण्डमूला वणिग्धने । नदीभात्रे तुरंगाणां भूषणे भाजनेऽपि च'। २ उत्पतन् । ३ बदसि । ४ खण्ड । ५ कुले भवाः कुल्यास्तेषां भावः तस्मात् । ६ वयं भटा इति गर्वः । ७ दुनिवारः । ८ अबलिम् । 'भागधेयः करो बलिः' इत्यभिधानात् । ९ भूमिम् । १० कुसिताः। ११ तहि । १२ भटगर्वेण । १३ साधयन्त्वित्यर्थः । १४ पूर्व शय्यायाः प्रतिशय्या-अन्य शय्यातस्यां निपातेन मरण पाप्या इत्यर्थः । १५ वृत्तिक्षेत्रे । १६ सम्यक्षेत्रादिविभागः । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुत्रिंशत्तमं पर्व न भोकमन्यथाकारं महीं तेभ्यो ददाम्यहम् । कथंकारमिदं चक्र विश्रमं यात्वतज्जय ॥६६॥ इदं महदनाख्येयं यत्प्राज्ञो बन्धुवत्सलः । स वाहबलिसाह्वोऽपि भजते विकृति कृती ॥६॥ अबाहबलिनानेन राजकन नतेन किम् । नगरेण गरेणेव भुकेनापोदनेनं किम् ॥६६॥ किं किंकरः करालास्त्रप्रतिनिर्जित शानवैः । अनाज्ञावशर्मतस्मिन् नवविक्रमशालिनि ॥६६॥ किं वा सुरभटैरभिरुदभटारभटीरसः । मर्यवमसमां स्पद्वा तस्मिन्कुर्वति गर्विते ॥७॥ इति जल्पति संरम्भाच्चक्रपाणावुपक्रमम् । तस्योपचक्रम कत्त पुनरित्थं पुरोहितः ॥७॥ जितजेतव्यतां देव घोषयन्नपि किं मुधा । जितोऽसि क्रोधवेगेन प्राग्जय्यो वशिनां हि सः ॥७२॥ बालास्ते बालभावेन' 'विल सन्त्वपथेऽप्यलम् । देवे जितारिषड्वर्गे न तमः" स्थातुमईति ॥७३॥ क्रोधान्धतमसे मग्नं यो नात्मानं समुद्धरेत् । स कृत्यसंशयद्वैधानी त्तरीतुमलंतराम् ॥७॥ किं तरां स विजानाति कार्याकार्यमनात्मवित् । यः स्वान्तःप्रभवान् जेतुमरीन प्रभवेत्प्रभुः ॥७॥ तद्देव विरमामुप्मात् संरम्भादपकारिणः । जितात्मानो जयन्ति मां क्षमया हि जिगीषवः ॥७६॥ हो सकता है ।।६५।। और किसी तरह उनके उपभोगके लिए मैं उन्हें यह पथिवी नहीं दे सकता हूँ। उन्हें जीते बिना यह चक्ररत्न किस प्रकार विश्राम ले सकता है ? ॥६६।। यह बड़ी निन्दाकी बात है कि जो अतिशय बद्धिमान है. भाइयों में प्रेम रखनेवाला है, और कार्यकुशल है वह बाहुबली भी विकारको प्राप्त हो रहा है ॥६७। बाहबलीको छोड़कर अन्य सब राजपुत्रोंने नमस्कार भी किया तो उससे क्या लाभ है और पोदनपुरके बिना विषके समान इस नगरका उपभोग भी किया तो क्या हुआ ॥६८॥ जो नवीन पराक्रमसे शोभायमान बाहुबली हमारी आज्ञाके वश नहीं हुआ. तो भयंकर शस्त्रोंसे शत्रुओंका तिरस्कार करनेवाले सेवकोंसे क्या प्रयोजन है ? ॥६९।। अथवा अहंकारी वाहबली जब इस प्रकार मेरे साथ अयोग्य ईया कर रहा है तब अतिशय शूरवीरतारूप रसको धारण करनेवाले मेरे इन देवरूप योद्धाओंसे क्या प्रयोजन है ? ॥७०।। इस प्रकार जब चक्रवर्ती क्रोधसे बहुत बढ़-बढ़कर बातचीत करने लगे तब परोहितने उन्हें शान्त कर उपायपर्वक कार्य प्रारम्भ करनेके लिए नीचे लिखे अनसार उद्योग किया ॥७॥ हे देव. मैंने जीतने योग्य सबको जीत लिया है ऐसी घोषणा करते हुए भी आप क्रोधके वेगसे व्यर्थ ही क्यों जीते गये ? जितेन्द्रिय पुरुषोंको तो क्रोधका वेग पहले ही जीतना चाहिए ॥७२॥ वे आपके भाई बालक हैं इसलिए अपने बालस्वभावसे कुमार्गमें भी अपने इच्छानुसार क्रीड़ा कर सकते हैं परन्तु जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छहों अन्तरंग शत्रुओंको जीत लिया है ऐसे आपमें यह अन्धकार ठहरनेके योग्य नहीं है अर्थात् आपको क्रोध नहीं करना चाहिए ॥७३॥ जो मनुष्य क्रोधरूपी गाढ़ अन्धकारमें डूबे हुए अपने आत्माका उद्धार नहीं करता वह कार्यके संशयरूपी द्विविधासे पार होनेके लिए समर्थ नहीं है । भावार्थ - क्रोधसे कार्यकी सिद्धि होनेमें सदा सन्देह बना रहता है ॥७४।। जो राजा अपने अन्तरंगसे उत्पन्न होनेवाले शत्रुओंको जीतनेके लिए समर्थ नहीं है वह अपने आत्माको नहीं जाननेवाला कार्य और अकार्यको कैसे जान सकता है ? ॥७५।। इसलिए हे देव, अपकार करनेवाले इस क्रोधसे दूर रहिए क्योंकि जीतकी इच्छा रखनेवाले जिते १ अन्यथा । २ कथम् । ३ तेषां जयाभावे । ४ अवाच्यम् । ५ बाहुबलिनामा । ६ बाहुबलिकुमाररहितेन । ७ गरलेनेव । ८ पोदनपुररहितेन । ९ तजित - ल०, द०। १० बाहुबलिनि । ११ अधिकभयानकरसैः । १२ क्रोधात् । १३ युद्धारम्भम् । १४ बालत्वेन । १५ गविता भूत्वा वर्तन्त इत्यर्थः । १६ अज्ञानम् । . १७ कार्यसंदेहद्वैविध्यात् । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आदिपुराणम् विजितेन्द्रियवर्गाणां सुश्रुतश्रुतसंपदाम् । परलोकजिगीपूणां क्षमा साधनमुत्तमम् ॥७७॥ लेखसाध्ये च कार्येऽस्मिन् विफलोऽतिपरिश्रमः । तृणाङ्कर नखच्छेद्ये कः 'परश्वधमुद्धरेत् ॥७८॥ ततस्तितिक्षमाणेन साध्यो भ्रातृगणस्त्वया ।सोपचारं प्रयुक्तेन वचोहरगणेन सः ॥७९॥ अयैव च प्रहेतव्याः समं लेखैवंचोहराः । गवा अयुश्च तानेत चक्रिणं भजताग्रजम् ॥८॥ कल्पानोकहसेवेव तत्सेवाऽभीष्टदायिनी । गुरुकल्पोऽग्रजश्चक्री स मान्यः सर्वथापि वः ॥८१॥ विदूरस्थैर्न युष्माभिरैश्वयं तस्य राजते । तारागणैरनासन्नैरिव बिम्ब निशांपतेः ॥४२॥ साम्राज्यं नास्य तोषाय यद्भवद्भिर्विना भवेत् । सहभोग्यं हि बन्धूनामधिराज्यं सतां मुदे ॥८३॥ इदं वाचिकमन्यत्तु लेखार्थादवधार्यताम् । इति सोपायनैलेखैः प्रत्याय्यास्ते मनस्विनः ॥८॥ यशस्य मिदमेवार्य कार्य श्रेयस्यमेव च । चिन्त्यमुत्तरकार्य च साम्ना तेष्ववशेषु वै ॥४५॥ बिभ्यता जननिर्वादादनुष्टेयमिदं त्वया । स्थायुकं हि यशो लोके ''गत्वों ननु संपदः ॥८६॥ इति तद्वचनाच्चक्री वृत्तिमारमटीं जहौ। अनुवर्तनसाध्या हि महतां चित्तवृत्तयः ॥८॥ आस्तां भुजबली तावद् यत्नसाध्यो महाबलः । शेषैरव परीक्षिष्ये भ्रातृभिस्तद् द्विजिह्वताम् ॥८॥ न्द्रिय पुरुष केवल क्षमाके द्वारा ही पृथिवीको जीतते हैं ॥७६॥ जिन्होंने इन्द्रियोंके समूहको जीत लिया है, शास्त्ररूपी सम्पदाका अच्छी तरह श्रवण किया है और जो परलोकको जीतनेकी इच्छा रखते हैं ऐसे पुरुषोंके लिए सबसे उत्कृष्ट साधन क्षमा ही है ।।७७॥ जो लेख लिखकर भी किया जा सकता है ऐसे इस कार्य में अधिक परिश्रम करना व्यर्थ है क्योंकि जो तृणका अंकुर नखसे तोड़ा जा सकता है उसके लिए भला कौन कुल्हाड़ी उठाता है ॥७८। इसलिए आपको शान्त रहकर भेंटसहित भेजे हए दूतोंके द्वारा ही यह भाइयोंका समह वश करना चाहिए ॥७९॥ आज ही आपको पत्रसहित दूत भेजना चाहिए, वे जाकर उनसे कहें कि चलो और अपने बड़े भाईकी सेवा करो ॥८०॥ उनकी सेवा कल्पवृक्षकी सेवाके समान आपके सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली होगी। वह आपका बड़ा भाई पिताके तुल्य है, चक्रवर्ती है और सब तरहसे आप लोगोंके द्वारा पूज्य है ॥८१॥ जिस प्रकार दूर रहनेवाले तारागणोंसे चन्द्रमाका बिम्ब सुशोभित नहीं होता है उसी प्रकार दूर रहनेवाले आप लोगोंसे उनका ऐश्वर्य सुशोभित नहीं होता है ॥८२॥ आप लोगोंके बिना यह राज्य उनके लिए सन्तोष देनेवाल' नहीं हो सकता क्योंकि जिसका उपभोग भाइयोंके साथ-साथ किया जाता है वही साम्राज्य सज्जन पुरुषोंको आनन्द देनेवाला होता है ॥८३॥ 'यह मौखिक सन्देश है, बाकी समाचार पत्रसे मालूम कीजिए' इस प्रकार भेंटसहित पत्रोंके द्वारा उन प्रतापी भाइयोंको विश्वास दिलाना चाहिए ।।८४॥ हे आर्य, आपके लिए यही कार्य यश देनेवाला है और यही कल्याण करनेवाला है यदि वे इस तरह शान्तिसे वश न हों तो फिर आगेके कार्यका विचार करना चाहिए ॥८५॥ आपको लोकापवादसे डरते हुए यही कार्य करना चाहिए क्योंकि लोकमें यश ही स्थिर रहनेवाला है, सम्पत्तियाँ तो नष्ट हो जानेवाली हैं ॥८६॥ इस प्रकार पुरोहितके वचनोंसे चक्रवर्तीने अपनी क्रोधपूर्ण वृत्ति छोड़ दी सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंकी चित्तकी वृत्ति अनुकूल वचन कहनेसे ही ठीक हो जाती है ॥८७॥ इस समय जो प्रयत्नसे वश नहीं किया जा सकता ऐसा महाबलवान् बाहुबली दूर रहे पहले शेष भाइयोंके द्वारा ही १ परशुम् । २ सहमानेन । ३ आगच्छत । ४ पूज्यः । ५ संदेशवाक् । 'संदेशवाग वाचिकं स्याद्' इत्यभिधानात् । ६ विश्वास्याः । ७ यशस्करम् । ८ श्रेयस्करम् । ९ जनापवादात् । १० स्थिरतरम् । ११ गमनशीलाः १२ यत्र साध्या महाभुजः अ०, प०, स०, इ०, ल० । १३ बाहुबलिनः कुटिलताम् । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व १५९ 1 13 इति निर्द्धा कार्यज्ञान् कार्ययुक्तौ विविक्तधीः । प्राहिणोत्स निसृष्टार्थान् दूताननुजसंनिधिम् ॥ ८९ ॥ गत्वा च ते यथोद्देशं दृष्ट्वा तांस्तान्यथोचितम् । जगुः संदेशमीशस्य तेभ्यो दूता यथास्थितम् ॥९०॥ अथ ते सह संभूय कृतकार्यनिवेदनात् । दूतानित्यूचुरारूढप्रभुत्वमदकर्कशाः ॥ ९१ ॥ यदुक्तमादिराजेन तत्सत्यं नोऽभिसंमतम् । गुरोरसं निधौ पूज्यो ज्यायान्भ्राताऽनुजैरिति ॥ ९२॥ प्रत्यक्षो गुरुरस्माकं प्रतपत्येष विश्वदृक् । स नः प्रमाणमैश्वर्यं तद्विर्तीर्णमिदं हि नः ॥९३॥ तदत्र गुरुपादाज्ञा तन्त्रा' न स्वैरिणो वयम् । न देयं भरतेशेन नादेयमिह किंचन ॥ ९४ ॥ यत्तु नः संविभागार्थं मिदमामन्त्रणं कृतम् । चक्रिणा तेन सुप्रीता प्रीणा वयमागलात् ॥ ९५ ॥ इति सत्कृत्य तान्दृतान् सन्मानैः प्रभुवत्प्रभौ । विहितोपायनाः " सद्यः प्रतिलेखैर्व्यसर्जयन् ॥९६॥ दूतसात्कृतसन्मानाः प्रभुसात्कृतवीचिकाः" । गुरुसात्कृत्य तत्कार्यं प्रापुस्ते गुरुसंनिधिम् ॥९७॥ गत्वा च गुरुमद्राक्षुर्मितोचितपरिच्छदाः । महागिरिमिवोत्तुङ्गं कैलासशिखरालयम् ॥९८॥ प्रणिपत्य विधानेन प्रपूज्य च यथाविधि । व्यजिज्ञपन्निदं वाक्यं कुमारा मारविद्विषम् ॥ ९९॥ त्वत्तः स्मो लब्धजन्मानस्त्वत्तः प्राप्ताः परां श्रियम् । त्वत्प्रसादैषिणो देव त्वत्तो नान्यमुपास्महे ॥१००॥ उनकी कुटिलताकी परीक्षा करूँगा । इस प्रकार निश्चय कर कार्य करनेमें जिसकी बुद्धि कभी भी मोहित नहीं होती ऐसे चक्रवर्तीने कार्यके जाननेवाले निःसृष्टार्थ दूतोंको अपने भाइयोंके समीप भेजा ।। ८८-८९ ॥ उन दूतोंने भरतके आज्ञानुसार जाकर उनके योग्यरीतिसे दर्शन किये और उनके लिए चक्रवर्तीका सन्देश सुनाया ॥९०॥ तदनन्तर प्राप्त हुए ऐश्वर्य के मदसे जो कठोर हो रहे हैं ऐसे वे सब भाई दूतोंके द्वारा कार्यका निवेदन हो चुकनेपर परस्पर में मिलकर उनसे इस प्रकार वचन कहने लगे ॥ ९१ ॥ कि जो आदिराजा भरतने कहा है वह सच है और हम लोगोंको स्वीकार है क्योंकि पिताके न होनेपर बड़ा भाई ही छोटे भाइयोंके द्वारा पूज्य होता है ॥९२॥ परन्तु समस्त संसारको जानने-देखनेवाले हमारे पिता प्रत्यक्ष विराजमान हैं। वे ही हमको प्रमाण हैं, यह हमारा ऐश्वर्य उन्हींका दिया हुआ है ॥ ९३ ॥ | इसलिए हम लोग इस विषय में पिताजी के चरणकमलोंकी आज्ञाके अधीन हैं, स्वतन्त्र नहीं हैं । इस संसार में हमें भरतेश्वरसे न तो कुछ लेना है और न कुछ देना है || ९४ ॥ तथा चक्रवर्तीने हिस्सा देनेके लिए जो हम सबको आमन्त्रण दिया है अर्थात् बुलाया उससे हम लोग बहुत सन्तुष्ट हुए हैं और गले तक तृप्त हो गये हैं ।। ९५ ।। इस प्रकार राजाओंकी तरह योग्य सन्मानोंसे उन दूतोंका सत्कार कर तथा भरतके लिए उपहार देकर और बदलेके पत्र लिखकर उन राजकुमारोंने दूतोंको शीघ्र ही बिदा कर दिया ।। ९६ ।। इस प्रकार जिन्होंने दूतोंका सन्मान कर भरतके लिए योग्य उत्तर दिया है ऐसे वे सब राजकुमार, पूज्य पिताजीका दिया हुआ कार्य उन्हींको सौंपने के लिए उनके समीप पहुँचे ||९७|| जिनके पास परिमित तथा योग्य सामग्री है ऐसे उन राजकुमारोंने किसी महापर्वतके समान ऊँचे और कैलासके शिखरपर विद्यमान पूज्य पिता भगवान् वृषभदेवके जाकर दर्शन किये ॥ ९८ ॥ उन राजकुमारोंने विधिपूर्वक प्रणाम किया, विधिपूर्वक पूजा की और फिर कामदेवको नष्ट करनेवाले भगवान् से नीचे लिखे वचन कहे ॥ ९९|| हे देव, हम लोगोंने आपसे ही जन्म पाया है, आपसे ही यह उत्कृष्ट विभूति पायी है और अब भी आपकी प्रसन्नता की इच्छा रखते हैं, हम लोग आपको छोड़कर और किसीकी उपासना नहीं १६ १ न्यस्तार्थान् । असकृत्संपादितप्रयोजनानित्यर्थः । २ कुमाराः । ३ अस्माकम् । ४ प्रकाशते । ५ प्रधानाः । ६ स्वेच्छाचारिणः । ७ संतोषिताः । ८ तृप्ताः । ९ कन्धरपर्यन्तम् । १० कृतप्राभृताः । ११ दूतानामायत्तीकृत : १२ भरतायत्तीकृतसंदेशाः । १३ भरतकृतकार्यम् । १४ परिकराः । १५ कैलासशिखरमालयो यस्य । १६ आराधयामः । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् 3 ५ 1 ८ १६ ३७ ऐसा केवल कहते ही हैं गुरुप्रसाद इत्युच्चैर्जनो वक्त्येष केवलम् । वयं तु तदसाभिज्ञास्त्वत्प्रसादार्जितश्रियः ॥ १०१ ॥ स्वणामानुरक्तानां त्वत्प्रसादाभिकाङ्क्षिणाम् । स्वद्वचः किंकराणां नो यद्वा तद्वाऽस्तु नापरम् ॥ १०२ ॥ इति स्थिते प्रणामार्थं भरतोऽस्मादुपति' । तन्नात्र कारणं विधः किं मदः किन्तु मत्सरः ॥ १०३ ॥ युष्मत्प्रणमनाभ्यासरख दुर्ललितं शिरः नाम्यप्रणमने देव पूर्ति बध्नाति जातु नः ॥ १०७ ॥ किमम्भोजरजःपुञ्जपिञ्जरं वारि मानसे । निषेव्य राजहंसोऽयं रमतेऽन्यसरोजले ॥१०५॥ किमप्सरः शिरोजान्त सुमन लालितः । तुम्बीयनान् मभ्येति प्राणान्तेऽपि मधुव्रतः ॥ १०६ ॥ मुक्ताफलाच्छमापा' गगनाम्बुनवाम्बुदात् । शुष्यव्सरोऽम्बु किं वाच्छेदुदन्यन्नपि चातकः ॥ १०७ ॥ इति युष्मत्पदाब्जन्म' 'रजोरञ्जितमस्तकाः । प्रणन्तुमसदाप्ता' 'नामिहामुत्र च नेश्महे ॥१०८॥ परप्रणामविमुख मय संगविवर्जिताम् । वीरदीक्षां वयं धर्तु भवत्पार्श्वमुपागताः ॥ १०९ ॥ तदेव कथयास्माकं हितं पथ्यं च वर्त्म यत् । येनेहामुत्र च स्याम त्वद्भक्तिदृढवासनाः ॥ ११० ॥ परप्रणामसं जातमानममयातिगाम् पदवीं तावकी देव भवेमहि" भवे भवे ॥११३॥ मानखण्डनसंभूतपरिभूति मयातिगाः । योगिनः सुखमेधन्ते वनेषु हरिभिः समम् ॥ ११२ ॥ करना चाहते ।। १०० ।। इस संसार में लोग यह 'पिताजीका प्रसाद है' परन्तु आपके प्रसादसे जिन्हें उत्तम सम्पत्ति प्राप्त हुई है ऐसे हम लोग इस वाक्यके रसका अनुभव ही कर चुके हैं ॥ १०१ ॥ | आपको प्रणाम करनेमें तत्पर, आपकी प्रसन्नताको चाहने वाले और आपके वचनोंके किंकर हम लोगोंका चाहे जो हो परन्तु हम लोग और किसीकी उपासना नहीं करना चाहते हैं ||१०२ || ऐसा होनेपर भी भरत हम लोगोंको प्रणाम करनेके लिए बुलाता है सो इस विषय में उसका मद कारण है अथवा मात्सर्य यह हम लोग कुछ नहीं जानते ।। १०३।। हे देव, जो आपको प्रणाम करनेके अभ्यासके रससे मस्त हो रहा है ऐसा यह हमारा शिर किसी अन्यको प्रणाम करनेमें सन्तोष प्राप्त नहीं कर रहा है ॥ १०४॥ क्या यह राजहंस मानसरोवरमें कमलोंकी परागकी समूहसे पीले हुए जलकी सेवा कर किसी अन्य तालाब के जलकी सेवा करता है ? अर्थात् नहीं करता है ? ॥ १०५ ॥ क्या अप्सराओंके केशों में लगे हु फूलों की सुगन्धसे सन्तुष्ट हुआ भ्रमर प्राण जानेपर भी बीके वनमें जाता है अर्थात् नहीं जाता है ।। १०६ ।। अथवा जो चातक नवीन मेघसे गिरते हुए मोतोके समान स्वच्छ आकाशगत जलको पी चुका है क्या वह प्यासा होकर भी सूखते हुए सरोवर के जलको पीना चाहेगा ? • अर्थात् नहीं ॥ १०७ ॥ इस प्रकार आपके चरणकमलोंकी परागसे जिनके मस्तक रंग रहे हैं। ऐसे हम लोग इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकोंमें आप्तभिन्न देव और मनुष्यों को प्रणाम करने के लिए समर्थ नहीं हैं || १०८ || जिसमें किसी अन्यको प्रणाम नहीं करना पड़ता, और जो भयके सम्बन्धसे रहित है ऐसी वीरदीक्षाको धारण करनेके लिए हम लोग आपके समीप आये हुए हैं ।। १०९ । । इसलिए हे देव, जो मार्ग हित करनेवाला और सुख पहुँचाने वाला हो वह हम लोगों को कहिए जिससे इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकोंमें हम लोगोंकी वासना आपकी भक्ति में दृढ़ हो जावे ॥११०॥ हे देव, जो दूसरोंको प्रणाम करनेसे उत्पन्न हुए मानभंग भयसे दूर रहती है ऐसी आपकी पदवीको हम लोग भवभव में प्राप्त होते रहें ।। १११ || मानभंगसे उत्पन्न हुए तिरस्कारके भयसे दूर रहनेवाले योगी लोग वनों 1 १६० " गुरुप्रसादामध्ये २ प्रसारोजित द० ० ३ यत्किचिद्भवति तदस्तु । ४ आह्वातुमिच्छति ५ गवितम् ६ वस्त्रो 'केश मध्य पुष्पगन्धलालितः । ७ अलाबुवनमध्यम् । ८ अभिगच्छति । ९-मापीय द०, ल० । आपाय- पीत्वा । १० पिपासन्नपि । ११ पदकमल । १२ नमस्कर्तुम् । १३ अनाप्तानाम् । १४ समर्था न भवामः | १५ भवाम । लोट् । १६ अतिक्रान्ताम् । १७ तव संबन्धिनीम् । १८ प्राप्तुमः । भू प्राप्तावात्मनेपदम् । १९ परिभव । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं ब्रुवाणानिति साक्षेपं स्थापयन्यथि शाश्वते । भगवानिति तानुच्चैरन्वशादनुशासिता ॥११३॥ महामानवपुष्मन्तो वयस्सरत्रगुणान्विताः । कथमन्यस्य संवाह्या यूयं भद्रा द्विपा इव ॥ ११४ ॥ राज्येन जीवितेन चलेन किम् । किं च मो योवनोन्मादै रैश्वर्यबलदूषितैः ॥ ११५ ॥ किं बलैर्बलिनां गम्यैः किं " हा यैर्वस्तुवाहनैः । तृष्णातिबोधनैरेभिः किं धनैरिन्धनैरिव ॥ ११६ ॥ क्वापि सुचिरं कालं यैर्न तृप्तिः क्लमः परम् । विषयैस्तैरलं भुक्तैर्वित्रमित्रैरिवाशनैः ॥ ११७ ॥ किं च भो विषयास्वादः कोऽप्यनास्वादितोऽस्ति वः । स एव पुनरास्वादः किं तेनास्त्याशितंभवः ॥ ११८ ॥ यत्र शस्त्राणि मित्राणि शत्रवः पुत्रबान्धवाः । कलत्रं 'सर्व भोगीणा' धरा राज्यं धिगीदृशम् ॥ ११९ ॥ भुनक्तु नृपशार्दूलो भरतो भरतावनिम् । यावत्पुण्योदयस्तावत्तत्रालं वोऽतितिक्षया ॥१२०॥ तेनापि त्याज्यमेवेदं राज्यं भङ्गि ३ यदा तदा । हेतोरशाश्वतस्यास्य युध्यध्वे वत किं मुधा ॥ १२१ ॥ "तदलं स्पर्द्धया दध्वं यूयं धर्ममहातरोः । दयाकुसुममम्लानि यत्तन्मुक्तिफलप्रदम् ॥१२२॥ पराराधनदैन्यानं परैराराध्यमेव यत् । तद्वो महाभिमानानां तपो मानाभिरक्षणम् ॥ १२३ ॥ दीक्षा रक्षा गुणा भृत्या दयेयं प्राणवल्लभा । इति ज्यायस्तपोराज्यमिदं इलाध्यपरिच्छदम् ॥१२४॥ १ १ .१६१ में सिंहोंके साथ सुखसे बढ़ते रहते हैं ।। ११२ ।। इस प्रकार आक्षेपसहित कहते हुए राजकुमारोंको अविनाशी मोक्षमार्ग में स्थित करते हुए हितोपदेशी भगवान् वृषभदेव इस प्रकार उपदेश देने लगे ॥११३॥ महा अभिमानी और उत्तम शरीरको धारण करनेवाले तथा तारुण्य अवस्था, बल और गुणों सहित तुम लोग उत्तम हाथियोंके समान दूसरोंके संवाह्य अर्थात् सेवक ( पक्ष में वाहन करने योग्य सवारी ) कैसे हो सकते हो ? ॥ ११४ ॥ हे पुत्रो, इस विनाशी राज्यसे क्या हो सकता है ? इस चंचल जीवनसे क्या हो सकता है ? और ऐश्वर्य तथा बलसे दूषित हुए इस यौवन के उन्मादसे क्या हो सकता है ? ।। ११५ ॥ जो बलवान् मनुष्योंके द्वारा जीती जा सकती है ऐसी सेनाओंसे क्या प्रयोजन है ? जिनकी चोरी की जा सकती है ऐसे सोना, चाँदी, हाथी, घोड़ा आदि पदार्थों से क्या प्रयोजन है ? और ई धनके समान तृष्णारूपी अग्निको प्रज्वलित करनेवाले इस धनसे भी क्या प्रयोजन है ? ॥ ११६ ॥ चिरकाल तक भोग कर भी जिनसे तृप्ति नहीं होती, उलटा अत्यन्त परिश्रम ही होता है ऐसे विष मिले हुए भोजनके समान इन विषयोंका उपभोग करना व्यर्थ है ॥ ११७ ॥ हे पुत्रो, तुमने जिसका कभी आस्वादन नहीं किया हो ऐसा भी क्या कोई विषय बाकी है ? यह सब विषयोंका वही आस्वाद है जिसका कि तुम अनेक बार आस्वादन ( अनुभव ) कर चुके हो फिर भला 'तुम्हें इनसे तृप्ति कैसे हो सकती है ? ॥११८॥ जिसमें शस्त्र मित्र हो जाते हैं, पुत्र और भाई वगैरह शत्रु हो जाते तथा सबके भोगने योग्य. पृथिवी ही स्त्री हो जाती है ऐसे राज्यको धिक्कार हो ॥ ११९ ॥ तबतक राजाओं में श्रेष्ठ भरत इस भरत क्षेत्रकी पृथिवीका पालन करें इस विषय में तुम लोगोंका क्रोध करना व्यर्थ ॥१२०॥ यह विनश्वर राज्य भरतके द्वारा भी जब कभी छोड़ा हो जावेगा इसलिए इस अस्थिर राज्यके लिए तुम लोग व्यर्थ ही क्यों लड़ते हो ॥ १२१ ॥ । इसलिए ईर्ष्या करना व्यर्थ है, तुम लोग धर्मरूपी महावृक्षके उस दयारूपी फूलको धारण करो जो कभी भी म्लान नहीं होता और जिसपर मुक्तिरूपी महाफल लगता है ॥ १२२॥ जो दूसरोंको आराधनासे उत्पन्न हुई दीनता से रहित है बल्कि दूसरे पुरुष ही जिसकी आराधना करते हैं ऐसा तपश्चरण मानकी रक्षा करनेवाला है ।। १२३|| जिसमें और यह दया ही प्राणप्यारी स्त्री है इस जबतक पुण्यका उदय है ही महा अभिमान धारण करनेवाले तुम लोगोंके दीक्षा ही रक्षा करनेवाली है, गुण ही सेवक है, १ उपदेशकः । २ महाभिमानिनः प्रमाणाश्च । ३ संवाह्याः । ४ ७ तृप्तिः । ८ राज्ये । ९ सर्वेषां भोगेभ्यो हिता । १० नृपश्रेष्ठः । का विनश्वरमिति । १४ कारणात् । १५ महाफलम् ल० । १६ २१ विनश्वरेण । ५ हर्तुं योग्यैः । ६ ग्लानिः । ११ अक्षमया । १२ भरतेनापि । १३ यस्मिन् श्रेष्ठम् । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आदिपुराणम् इत्याकर्ण्य विभोर्वाक्यं परं निवेदमागताः । महाप्राव्राज्यमास्थाय' निष्क्रान्तास्ते गृहाद्वनम् ॥१२५॥ निर्दिष्टां गुरुणा साक्षादीक्षां नववधूमिव । नवा इव वराः प्राप्य रेजुस्ते युवपार्थिवाः ॥१२६॥ या कचग्रहपूर्वेण प्रणये नातिभूमिगा। तया पाणिगृहीत्येव दीक्षया ते तिं दधुः ॥१२७॥ तपस्तीव्रमथासाद्य ते चकासुर्नुपर्षयः । स्वतेजोरुद्धविश्वासा ग्रीष्ममा शवो यथा ॥१२८॥ तेऽतितीत्रैस्तपोयोगैस्तनूभूतां तनुं दधुः। तपोलक्ष्म्या समुत्कीर्णामिव दीप्तां तपोगुणैः ॥१२९॥ स्थिताः सामयिके वृत्त जिनकल्पविशेषिते । ते तेपिरे तपस्तीव्र ज्ञानशुद्धयुपहितम् ॥१३०॥ वैराग्यस्य पराकोटीमारूढास्ते युगेश्वराः । स्वसाच्चस्तपोलक्ष्मी राज्यलक्ष्म्यामनुत्सुकाः ॥१३१॥ तपोलक्षम्या परिश्वक्ता'मुक्तिलक्ष्यां कृतस्पृहाः । ज्ञानसंपत्प्रसक्तास्ते राजलक्ष्मी विसस्मरुः ॥१३२॥ द्वादशाङ्गश्रुतस्कन्धमधीत्यैते महाधियः । तपो भावनयात्मानमलंचक्रुः प्रकृष्टया ॥१३३॥ स्वाध्यायेन मनोरोधस्ततोऽक्षाणां विनिर्जयः । इत्याकलय्य ते धीराः स्वाध्यायधियमादधुः ॥१३४॥ आचारांगेन निःशेषं साध्वाचारमवेदिषुः । चर्याशुद्धिमतो रेजुरतिक्रम"विवर्जिताम् ॥१३५॥ प्रकार जिसकी सब सामग्री प्रशंसनीय है ऐसा यह तपरूपी राज्य ही उत्कृष्ट राज्य है ॥१२४॥ इस प्रकार भगवान्के वचन सुनकर वे सब राजकुमार परम वैराग्यको प्राप्त हए और महादीक्षा धारण कर घरसे वनके लिए निकल पड़े ।।१२५॥ साक्षात् भगवान् वषभदेवके द्वारा दी हई दीक्षाको नयी स्त्रीके समान पाकर वे तरुण राजकूमार नये वरके समान बहत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे ॥१२६॥ उनकी वह दीक्षा किसी विवाहिता स्त्रीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार विवाहिता स्त्री क चग्रह अर्थात् केश पकड़कर बड़े प्रणय अर्थात् प्रेमसे समीप आती है उसी प्रकार वह दीक्षा भी कचग्रह अर्थात् केशलोंच कर बड़े प्रणय अर्थात् शुद्ध नयोंसे उनके समीप आयी हुई थी इस प्रकार विवाहिता स्त्रोके समान सुशोभित होनेवाली दीक्षासे वे राजकुमार अन्तःकरणमें सुखको प्राप्त हुए थे ॥१२७।। अथानन्तर जिन्होंने अपने तेजसे समस्त दिशाओंको रोक लिया है ऐसे वे राजर्षि तीव्र तपश्चरण धारण कर ग्रीष्म ऋतुके सूर्यकी किरणोंके समान अतिशय देदीप्यमान हो रहे थे ॥१२८।। वे राजर्षि जिस शरीरको धारण किये हुए थे वह तीव्र तपश्चरणसे कृश होनेपर भी तपके गुणोंसे अत्यन्त देदीप्यमान हो रहा था और ऐसा मालूम होता था मानो तपरूपी लक्ष्मीके द्वारा उकेरा ही गया हो ॥१२९।। वे लोग जिनकल्प दिगम्बर मुद्रासे विशिष्ट सामायिक चारित्रमें स्थित हुए और ज्ञानकी विशुद्धिसे बढ़ा हुआ तीव्र तपश्चरण करने लगे ॥१३०॥ वैराग्यकी चरम सीमाको प्राप्त हुए उन तरुण राजर्षियोंने राज्यलक्ष्मीसे इच्छा छोड़कर तपरूपी लक्ष्मीको अपने वश किया था ॥१३१।। वे राजकुमार तपरूपी लक्ष्मीके द्वारा आलिंगित हो रहे थे, मुवितरूपी लक्ष्मीमें उनकी इच्छा लग रही थी और ज्ञानरूपी सम्पदामें आसक्त हो रहे थे। इस प्रकार वे राज्यलक्ष्मीको बिलकुल ही भूल गये थे ।।१३२।। उन महाबुद्धिमानोंने द्वादशांगरूप श्रुतस्कन्धका अध्ययन कर तपकी उत्कृष्ट भावनासे अपने आत्माको अलंकृत किया था ॥१३३॥ स्वाध्याय करनेसे मनका निरोध होता है और मनका निरोध होनेसे इन्द्रियोंका निग्रह होता है यही समझकर उन धीर-वीर मुनियोंने स्वाध्यायमें अपनी बुद्धि लगायी थी ॥१३४।। उन्होंने आचारांगके १ आश्रित्य । २ वनं प्रति गृहान्निष्क्रान्ता:-निर्गताः । ३ प्रकृष्टनयेन स्नेहेन । ४ सीमातिक्रान्ता । ५ तस्याः पाणिद्वयीं प्राप्य सुखमन्तरुपागताः प०, ल०। पत्नी । ६ संतोषम् । ७ सकलदिशः । ८ ग्रीष्मकालं प्राप्य । ९ चारित्रे । १० काष्ठा-म०, अ०, प०, द०, स०, इ०, ल० । ११ आलिङ्गिताः । १२ चारित्रशुद्धिम् । १३ आचाराङ्गपरिज्ञानात् । १४ अतीचार । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं ज्ञाखा सूत्रकृतं सूतं निखिल सूत्रतोऽर्थतः । धर्मक्रियासमाधाने ते दधुः सूत्रधारताम् ॥ १३६॥ स्थानाध्ययन मध्यायशतैर्गम्भीरमब्धिवत् । विगाह्य तत्त्वरत्नानामयुस्ते भेदमञ्जसा ॥ १३७॥ समवायाख्यमङ्गं ते समधीत्य सुमेधसः । द्रव्यादिविषयं सम्यक् समवाय मभुत्सत ॥ १३८ ॥ स्त्रभ्यस्तात्पञ्चमादृङ्गाद् व्याख्याप्रज्ञप्तिसंज्ञितात् । साध्ववादीधरन् धीराः प्रश्नार्थान् विविधानमी ॥ १३९ ॥ "ज्ञातृधर्मकथां सम्यक् बुद्ध्वा बोटनबोधयन् । धर्म्यं कथामसंमोहात्ते यथोक्तं महर्षिणा ॥ १४०॥ तेऽधीत्योपासकाध्यायमङ्गं सप्तममूर्जितम् । निखिलं श्रावकाचारं श्रोतृभ्यः समुपादिशन् ॥१४१॥ तथान्तकृद्दशादङ्गात् मुनीनन्तकृतो दश । तीर्थं प्रति विदामासुः सोढासह्योपसर्गकान् ॥१४२॥ अनुत्तरविमानोपपादिकान्दश तादृशान् । शमिनो नवमादङ्गाद् विदांचक्रुर्विदांवराः ॥ १४३ ॥ प्रश्नव्याकरणात्प्रश्नमुपादाय शरीरिणाम् । सुखदुःखादिसंप्राप्तिं व्याचक्रुस्ते समाहिताः ॥ १४४ ॥ विपाकसूत्रनिर्ज्ञातसदसत्कर्मपङ्क्तयः । बद्धकक्षास्तदुच्छित्तौ तपश्चक्रुरतन्द्रिताः ॥ १४५ ॥ दृष्टिवादेन निर्ज्ञातदृष्टिभेदा जिनागमे । ते तेनुः परमां भक्तिं परं संवेगमाश्रिताः ॥ १४६ ॥ तदन्तर्गत "निःशेषश्रुततत्त्वावधारिणः । चतुर्दशमहाविद्यास्थानाम्यध्यैषत क्रमात् ॥ १४७॥ १६३ ५ द्वारा मुनियोंका समस्त आचरण जान लिया था इसीलिए वे अतिचाररहित चर्याकी विशुद्धताको प्राप्त हुए थे ।। १३५ ।। वे शब्द और अर्थसहित समस्त सूत्रकृतांगको जानकर धर्मक्रियाओंके धारण करनेमें सूत्रधारपना अर्थात् मुख्यताको धारण कर रहे थे ॥ १३६॥ जो सैकड़ों अध्यायोंसे समुद्रके समान गम्भीर है ऐसे स्थानाध्ययन नामके तीसरे अंगका अध्ययन कर उन्होंने तत्त्वरूपी रत्नोंके भेद शीघ्र ही जान लिये थे ॥ १३७ ॥ समीचीन बुद्धिको धारण करनेवाले । उन राजकुमारोंने समवाय नामके चौथे अंगका अच्छी तरह अध्ययन कर द्रव्य आदिके समूहको जान लिया था ॥ १३८|| अच्छी तरह अभ्यास किये हुए व्याख्याप्रज्ञप्ति नामके पाँचवें अंगसे उन धीर-वीर राजकुमारोंने अनेक प्रकारके प्रश्न-उत्तर जान लिये थे || १३९॥ वे धर्मकथा नामके छठे अंगको जानकर और उसका अच्छी तरह अवगम कर महर्षि भगवान् वृषभदेवके द्वारा कही हुई धर्मकथाएँ अज्ञानी लोगोंको बिना किसी त्रुटि ठीक-ठीक बता थे ।। १४० ॥ अतिशय श्रेष्ठ उपासकाध्ययन नामके सातवें अंगका अध्ययन कर उन्होंने श्रोताओं के लिए समस्त श्रावकाचारका उपदेश दिया था ॥ १४१ ॥ उन्होंने अन्तःकृद्दश नामके आठवें अंगसे प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थ में असह्य उपसर्गों को जीतकर मुक्त होनेवाले दश अन्तःकृत मुनियोंका वृत्तान्त जान लिया था ॥ १४२ ॥ जाननेवालोंमें श्रेष्ठ उन राजकुमारोंने अनुत्तरविमानौपपादिक नामके नौवें अंगसे प्रत्येक तीर्थ करके तीर्थ में असह्य उपसर्ग जीतकर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होनेवाले दश दश मुनियोंका हाल जान लिया था ।। १४३ ।। वे स्थिर चित्तवाले मुनिराज प्रश्नव्याकरण नामके दशवें अंगसे प्रश्न समझकर जीवोंके सुख-दुःख आदिका वर्णन करने लगे ।। १४४ ।। विपाकसूत्र नामके ग्यारहवें अंगसे जिन्होंने कर्मोकी शुभ-अशुभ समस्त प्रकृतियाँ जान ली हैं ऐसे वे मुनि कर्मोंका नाश करनेके लिए तत्पर हो प्रमाद छोड़कर तीव्र तपश्चरण करते थे || १४५ || दृष्टिवाद नामके बारहवें अंगसे जिन्होंने समस्त दृष्टि भेद जान लिये हैं ऐसे वे राजकुमार परम संवेगको प्राप्त होकर जैनशास्त्रोंमें उत्कृष्ट भक्ति करने लगे थे ।। १४६ ।। उस बारहवें अंगके अन्तर्गत समस्त श्रुतज्ञानके रहस्यका निश्चय करनेवाले उन मुनियोंने क्रमसे चौदह महाविद्याओंके स्थान अर्थात् चौदह पूर्वोका भी अध्ययन ५ ज्ञात्वा १ अङ्गम् । २ अङ्गम् । ३ समूहम् । 'समवायश्चयो गण' इत्यभिधानात् । ४ अवधारयन्ति स्म । ल० द० । ६ यथोक्तां ल०, द० । ७ संसारविनाशकारिणः । ८ दश प्रकारान् । ९ तीर्थकर प्रवर्तनकालमुद्दिश्य । १० तदुच्छित्यै अ०, इ०, स० । ११ द्वादशाङ्गान्तर्गत । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ततोऽमी श्रुतनिःशेषश्रुतार्थाः श्रुतचक्षुषः । श्रुतार्थभावनोत्कर्षाद दयुः शुद्धिं तपोधिधौ ॥१४८॥ वाग्देव्या सममालापो मया मौनमनारतम् । इतीर्घ्यतीव संतापं व्यधत्तेषु तपःक्रिया ॥१४॥ तनुतापमसह्यं ते सहमाना मनस्विनः । बाह्यमाध्यात्मिकं चोग्रं तपः सुचिरमाचरन् ॥१५०॥ ग्रीप्मेऽर्ककरसंतापं सहमानाः सुदुःसहम् । ते भेजुरातपस्थानमारूडगिरिमस्तकाः ॥१५॥ शिलातलेषु तप्तेषु निवेशितपदद्वयाः । प्रलम्बितभुजास्तस्थुर्गिर्यग्रग्रावगोचरे ॥१५२॥ तप्तपांसुचिता भूमिवदग्धा वनस्थली । याता जलाशयाः शोषं दिशो धूमान्धकारिताः ॥१५३॥ इत्यत्युग्रतरे ग्रीप्मे संप्लुष्ट गिरिकानने । तस्थुरातपयोगेन ते सोढजरठातपा. ॥१५४॥ मेघान्धकारिता शेषदिक्चक्रे जलदागमे । योगिनो गमयन्ति स्म तरुमूलेषु शर्वरीः ॥१५५॥ मुसलस्थूलधाराभिर्वर्पत्सु जलवाहिएं । निशामनैषुर व्यथ्या वार्षिकी ते महर्षयः ॥१५६॥ ध्यानगर्भ गृहा तास्था धृतिप्रावारसंवृताः । सहन्ते स्म महासत्त्वास्ते घनाघनदुर्दिनम् ॥१५७॥ ते हिमानी परिक्लिष्टां तनुयष्टिं हिमागमे । दधुरभ्यवकाशेषु शयाना मौनमास्थिताः ॥१५८॥ "अनन्नमषिता" एव नग्नास्तेऽननिसेविनः। धृतिसंवर्मितैरंगैः सेहिरे हिममारुतान् ॥१५॥ - - - किया था ॥१४७॥ तदनन्तर जिन्होंने समस्त श्रुतके अर्थोंका श्रवण किया है और श्रुतज्ञान ही जिनके नेत्र हैं ऐसे वे मुनि श्रुतज्ञानकी भावनाके उत्कर्षसे तपश्चरणमें विशुद्धता धारण करने लगे ॥१४८॥ ये लोग सरस्वती देवीके साथ तो बातचीत करते हैं और मेरे साथ निरन्तर मौन धारण करते हैं इस प्रकार ईर्ष्या करती हुईके समान तपश्चरणकी क्रिया उन्हें बहुत सन्ताप देती थी ॥१४९।। असह्य कायक्लेश सहन करते हुए वे तेजस्वी मुनि अतिशय कठिन अन्तरंग और बाह्य दोनों प्रकारका तप चिरकाल तक करते रहे ॥१५०।। ग्रीष्मऋतुमें पर्वतोंके शिखरपर आरूढ़ होकर अत्यन्त असह्य सूर्यकी किरणोंके संतापको सहन करते हुए वे आतापन योगको प्राप्त हुए थे अर्थात् धूपमें बैठकर तपस्या करते थे ॥१५१॥ पर्वतोंके अग्रभागकी चट्टानोंकी तपी हुई शिलाओंपर दोनों पैर रखकर तथा दोनों भुजाएँ लटका कर खड़े होते थे ॥१५२।। जिस ग्रोष्मऋतुमें पृथिवी तपी हुई धूलिसे व्याप्त हो रही है, वनके सब प्रदेश दावानलसे जल गये हैं, तालाब सूख गये हैं और दिशाएँ धूएँसे अन्धकारपूर्ण हो रही हैं इस प्रकारके अत्यन्त कठिन और जिसमें पर्वतोंके वन जल गये हैं ऐसी ग्रीष्मऋतुमें तीव्र सन्ताप सहन करते हुए वे मुनिराज आतापन योग धारण कर खड़े होते थे ॥१५३-१५४॥ जिसमें समस्त दिशाओंका समूह बादलोंके छा जानेसे अन्धकारयुक्त हो गया है ऐसी वर्षाऋतुमें वे योगी वृक्षोंके नीचे ही अपनी रात्रियाँ बिता देते थे ॥१५५॥ जब बादल मूसलके समान मोटी-मोटी धाराओंसे पानी बरसाते थे तब वे महर्षि वर्षाऋतुकी उन रात्रियोंको निश्चल होकर व्यतीत करते थे ।।१५६।। ध्यानरूपी गर्भगृहके भीतर स्थित और धैर्यरूपी ओढ़नीको ओढ़े हुए वे महाबलवान् मुनि बादलोंसे ढके हुए दुदिनोंको सहन करते थे ॥१५७।। शीतऋतुके दिनोंमें मौन धारण कर खुले आकाशमें शयन करते हुए वे मुनि बहुत भारी बर्फसे अत्यन्त दुःखी हुई अपने शरीरको लकड़ीके समान निश्चल धारण करते थे ॥१५८॥ वे मुनि नग्न होकर भी कभी अग्निसेवन नहीं करते थे, वस्त्रोंसे सहित हुएके समान सदा निर्द्वन्द्व रहते थे १ पर्वतशिखरपाषाणप्रदेशे। २ संदग्ध । ३ प्रवृद्धातपाः । ४ मेघेषु। ५ नयन्ति स्म । ६ निश्चला निर्भया इत्यर्थः । ७ वर्षाकालसंबन्धिनीम् । ८ वासगृहम् । ९ धैर्य कम्बलपरिवेष्टिताः । १० हिमसंहतिः । ११ -रभाव - प०, ल० । १२ तरुलतागुल्मगुहादिरहितप्रबलवायुसहितप्रदेशेषु । १३ अनग्नं यथा भवति तथा सावरणमिवेत्यर्थः । १४ स्थिताः । १५ धैर्यकवचितैः । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व १६५ हेमनीषु' त्रियामासु स्थगिता हिमोच्चयैः । प्रावारित रिवाङ्गैः स्वैधीराः स्वैरमशेरत ॥१६॥ त्रिकालविषयं योगमास्थायैवं दुरुद्वहम् । सुचिरं धारयन्ति स्म धीरास्ते धृतियोगत: ॥१६१॥ दधानास्ते तपस्तापमन्तदीप्तं दुरासदम् । रंजुस्तरङ्गितैरङ्गैः प्रायोऽनुकृतवार्द्धयः ॥१६२॥ ते स्वभुक्तोज्झितं भूयो नैच्छन् भोगपरिच्छदम् । निर्भुक्तमाल्यनिःसारं मन्यमाना मनीषिणः ॥१६३॥ फेनोमिहिमसन्ध्याचलं जीवितमङ्गिनाम् । मन्वाना दृढमासक्ति भेजुस्ते पथि शाश्वते ॥१६॥ संसारावासनिर्विण्णा गृहावासाद्विनिःसृताः । जैने मार्गे विमुक्त्यङ्गे ते परां तिमादधुः ॥१६५॥ इतोऽन्यदुत्तरं नास्तीत्यारूढदृढभावनाः । तेऽमी मनोवचःकायैः श्रद्दधुर्गुरुशासनम् ॥१६६॥ तेऽनुरक्ता जिनप्रोक्त सूके धर्म सनातने । उत्तिष्टन्ते स्म मुक्त्यर्थ बद्धकक्ष्या मुमुक्षवः ॥१६७॥ संवेगजनितश्रद्धाः शुद्ध वर्त्मन्यनुत्तरे । दुरापां भावयामासुस्ते महाव्रतभावनाम् ॥१६॥ अहिंसा सत्यमस्त्येयं ब्रह्मचर्यं विमुक्तताम् । रात्र्यभोजनषष्टानि व्रतान्येतान्यभावयन् ॥१६९॥ यावजीवं व्रतेष्वेषु ते दृढीकृतसंगराः । त्रिविधेन प्रतिक्रान्तदोषाः शुद्धिं परां दधुः ॥१७॥ सर्वारम्भविनिर्मुक्ता निर्मला'' निष्परिग्रहाः । मार्गमाराधयञ्जनं व्युत्सृष्टतनुयष्टयः ॥१७॥ और धैर्यरूपी कवचसे उके हुए अंगोंसे शीतल पवनको सहन करते थे ॥१५९॥ शीतऋतुकी रात्रियोंमें बर्फके समूहसे ढके हुए वे धीर-वीर मुनिराज स्वतन्त्रतापूर्वक इस प्रकार शयन करते थे मानो उनके अंग वस्त्रसे ही ढके हों ॥१६०॥ इस प्रकार वे धीर-वीर मुनि तीनों कालसम्बन्धी कठिन योग लेकर अपने धैर्यगुणके योगसे उन्हें चिर काल तक धारण करते थे ।।१६१॥ अन्तरंगमें देदीप्यमान और अतिशय कठिन तपके तेजको धारण करते हुए वे मुनि तरंगोंके समान अपने अंगोंसे ऐसे जान पड़ते थे मानो समुद्र का ही अनुकरण कर रहे हों ॥१६२॥ वे बुद्धिमान् अपने-द्वारा उपभोग कर छोड़ी हुई भोगसामग्रीको भोगमें आयी हुई मालाके समान सारहीन मानते हुए फिर उसकी इच्छा नहीं करते थे ॥१६३॥ वे प्राणियोंके जीवनको फेन, ओस अथवा सन्ध्याकालके बादलोंके समान चंचल मानते हुए अविनाशी मोक्षमार्गमें दृढ़ताके साथ आसक्तिको प्राप्त हुए थे ॥१६४॥ संसारके निवाससे विरक्त हुए और घरके आवाससे छूटे हुए वे मुनिराज मोक्षके कारणभूत जिनेन्द्रदेवके मार्गमें परम सन्तोष धारण करते थे ॥१६५।। इससे बढ़कर और कोई शासन नहीं है इस प्रकारकी मजबूत भावनाएं जिन्हें प्राप्त हो रही हैं ऐसे वे राजर्षि मन वचन कायसे भगवान्के शासनका श्रद्धान करते थे ॥१६६॥ जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए और अनादिसे चले आये यथार्थ जैनधर्ममें अनुरक्त हुए वे मोक्षाभिलाषी मुनिराज मोक्षके लिए कमर कसकर खड़े हुए थे ॥१६७॥ संवेग होनेसे जिन्हें शुद्ध और सर्वश्रेष्ठ मोक्षमार्गमें श्रद्धांन उत्पन्न हुआ है ऐसे वे मुनि कठिनाईसे प्राप्त होने योग्य महाव्रतकी भावनाओंका निरन्तर चिन्तवन किया करते थे ॥१६८॥ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग और रात्रिभोजनत्याग इन छह महाव्रतोंका वे निरन्तर पालन करते थे ॥१६९।। जिन्होंने ऊपर कहे हुए छह व्रतोंकी जीवनपर्यन्तके लिए दृढ़प्रतिज्ञा धारण की है और मन, वचन तथा कायसे उन व्रतोंके समस्त दोष दूर कर दिये हैं ऐसे वे मुनिराज परम विशुद्धिको धारण कर रहे थे ॥१७०॥ जिन्होंने सब प्रकारके आरम्भ छोड़ दिये हैं, जो ममतारहित हैं, परिग्रहरहित हैं और शरीररूप लकड़ीसे भी जिन्होंने ममत्व छोड़ दिया है ऐसे वे १ हिमानीषु ल०, प० । हेमन्तसंबन्धिनीषु । २ आच्छादितः। ३ हिमोच्चयस्थगितान्तत्वात् प्रावरणान्वितैरिव । ४ प्रतिज्ञां कृत्वा । ५ गुरुशासनात् । ६ अधिकम् । ७ निःपरिग्रहताम् । ८ दृढ़ीकृतप्रतिज्ञाः । ९ मनोवाक्कायेन । १० प्रतिक्रमणरूपेण निरस्त । ११ निर्ममा ल०, इ०, अ०, स०, १०, द० । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् सर्वोपविधिनिर्मका युक्ता धर्मे जिनोदिते । नैच्छन् बालाग्रमानं च द्विधाम्नातं परिग्रहम् ॥१२॥ निमस्तेि स्वदेहेऽपि धर्मवम॑नि सुस्थिताः। संतोषभावनापास्ततृष्णाः सन्तो विजहिरे ॥१७३॥ वसन्ति स्मानिकतास्त यत्रास्तं भानुमानितः । तत्रैकत्र क्वचिद्देशे नैस्संग्यं परमास्थिताः ॥१७॥ विविक्तकान्तसेवित्वाद ग्रामवेकाहवासिनः" । पुरेष्वपि न पञ्चाहात्परं तस्थु पर्षयः" ॥१७५॥ शून्यागारश्मशानादिविविक्तालयगोचराः । ते वीरवसतीमंजुरुज्झिताः सप्तभिर्मयैः ॥ १७६॥ तेऽभ्यनन्दन्महासत्त्वाः पाकसत्त्वैरधिष्ठिताः। गिर्यग्रकन्दरारंण्यवसतीः प्रतिवासरम् ॥१७७॥ सिंहक्षवृकशालतरक्ष्वादि निषेविते । वनान्ते ते वसन्ति स्म तदारसितभीषणे ॥१७८॥ स्फुरत्पुरुषशार्दूल गर्जितप्रतिनिःस्वनैः। आगुञ्जत्पर्वतप्रान्त ते स्म तिष्ठन्त्यसाध्वसाः ॥१७९॥ कण्ठीरवकिशोराणां कठोरैः कण्ठनिस्वनैः । प्रोन्नादिनि वने ते स्म निवसन्त्यस्तभीतयः ॥१०॥ नृत्यत्कबन्धपर्यन्त संवरद्डाकिनीगगाः । प्रबद्धकौशिकध्वाननिरुद्धो पान्तकाननाः ॥१८१॥ शिवानाम शिवैर्धानरारुद्धाखिलदिङमखा. । महापितृवनोद्देशा निशास्वेभिः सिषेविरे ॥१८२॥ मुनि जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए मोक्षमार्गकी आराधना करते थे ।।१७१॥ सब प्रकारके परिग्रहसे रहित होकर जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे हुए धर्मका आचरण करते हुए वे राजकुमार बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारके कहे हुए परिग्रहोंमें-से बालकी नोकके बराबर भी किसी परिग्रहकी चाह नहीं करते थे ॥१७२॥ जिन्हें अपने शरीरमें भी ममत्व नहीं है, जो धर्मके मार्गमें स्थित हैं और सन्तोषकी भावनासे जिन्होंने तृष्णाको दूर कर दिया है ऐसे वे उत्तम मुनिराज सब जगह विहार करते थे ॥१७३॥ परिग्रह-त्याग व्रतको उत्कृष्ट रूपसे पालन करनेवाले वे गृहरहित मुनिराज जहाँ सूर्य डूब जाता था वहीं किसी एक स्थानमें ठहर जाते थे॥१७४।। वे राजर्षि एकान्त और पवित्र स्थानमें रहना पसन्द करते थे इसलिए गाँवोंमें एक दिन रहते थे और नगरोंमें पाँच दिनसे अधिक नहीं रहते थे ॥१७५॥ वे मुनि सात भयोंसे रहित होकर शून्यगृह अथवा श्मशान आदि एकान्त-स्थानोंमें वीरताके साथ निवास करते थे ।। १७६ ।। वे महाबलवान् राजकुमार सिंह आदि दुष्ट जीवोंसे भरी हुई पर्वतोंकी गुफाओं और जंगलोंमें ही प्रतिदिन निवास करना अच्छा समझते थे ॥१७७॥ सिंह, रीछ, भेड़िया, व्याघ्र, चीता आदिसे भरे हुए और उन्हींके शब्दोंसे भयंकर वनके बीचमें वे मुनिराज निवास करते थे ॥१७८।। चारों ओर फैलते हुए व्याघ्रकी गर्जनाकी प्रतिध्वनियोंसे गंजते हए पर्वतके किनारोंपर वे मुनि निर्भय होकर निवास करते थे ॥१७९।। सिंहोंके बच्चोंकी कठोर कण्ठगर्जनासे शब्दायमान वनमें मुनिराज भयरहित होकर निवास करते थे ॥१८०॥ जहाँ नाचते हुए शिररहित धड़ोंके समीप डाकिनियोंके समूह फिर रहे हैं, जिनके समीपके वन उल्लुओंके प्रचण्ड शब्दोंसे भर रहे हैं और जहाँ शृगालोंके अमंगलरूप शब्दोंसे सब दिशाएं व्याप्त हो रही हैं ऐसी बड़ी-बड़ो श्मशानभूमियोंमें रात्रिके समय वे मुनिराज निवास करते थे ॥१८१-१८२।। १ स्थिता प०, ल० । २ बाह्याभ्यन्तररूपेण द्विधा प्रोक्तम् । ३ निर्मोहाः । ४ विहरन्ति स्म । ५ अनगाराः । ६ आदित्यः । ७ प्रायाः । ८ क्वचिदनियतप्रदेशे । ९ आश्रिताः । १० विशुद्धविजनप्रदेशेषु स्थातुं प्रियत्वादिति भावः । ११ एकदिवसवासिनः । १२ निवसन्ति स्म। १३ एकान्तप्रदेशो गोचरविषयो येषां ते । १४ ऋक्ष-भल्लक-वृक-ईहामृगशार्दूलद्वीपितरक्षमगादि । १५ तेषां सिंहादीनाम आराभयंकरे । १६ ध्वनत्पर्वतसानुमध्ये । १७ सिंहशावानाम् । १८ कठिनैः ५०, ल०, द०। १९ ध्वनि कुर्वति । २० समीप । २१ प्रचण्ड ल०, द०। २२ कृतघूकनिनादब्याप्त । २३ जम्बुकानाम् ! २४ अमङ्गलैः । २५ तपोधनैः । २६ से व्यन्ते स्म । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व १६७ सिंहा इव नृसिंहास्ते तस्थुर्गिरिगुहाश्रयाः । जिनोक्त्यनुगतैः स्वान्तैरनुद्विग्नैः समाहिताः॥१८३॥ पाकसत्त्वं शताकीर्णा वनभूमि भयानकाम् । तेऽध्यवात्सुस्त मिस्रासु निशासु ध्यानमास्थिताः ॥१४॥ न्यपेवन्त वनोद्देशान् निषेब्यान्वनदन्तिभिः । ते तद्दन्ताग्रनिर्मिन्नतरुस्थपुटितान्तरान् ॥१८५॥ वनेषु वनमातङ्गहितप्रतिनादिनीः । दरीस्तेऽध्यूपुरारुष्टैराक्रान्ताः करिशत्रुभिः ॥१८६॥ स्वाध्याययोगसंसक्का न स्वपन्ति स्म रात्रिषु । सूत्रार्थभावनोद्युक्ता जागरूकाः" सदा यमी ॥१८७॥ पल्यङ्कन निषण्णास्ते वीरासनजुषोऽथवा । शयाना चैकपार्श्वन शर्वरीरत्यवाहयन् ॥१८८॥ त्यक्तोपधिभरा धीरा व्युत्सृष्टाङ्गा निरम्बराः । नैष्किंचन्यविशुद्धास्ते मुक्तिमार्गममार्गयन् ॥१८९॥ निर्व्यापेक्षा निराकाङ्क्षा वायुवीथ्यनुगामिनः । व्यहरन् वसुधामेनां सग्रामनगराकराम् ॥१९०॥ विहरन्तो महीं कृत्स्ना ते कस्याप्यनमिद्रुहः" । मातृकल्पा दयालुत्वात्पुत्रकल्पेषु देहिषु ॥१९१॥ जीवाजीवविभागज्ञा ज्ञानोद्योतस्फुरदृशः । सावधं परिजहस्ते प्रासुकावसथाशनाः ॥१९२॥ स्याद्यत्किंचिच्च सावधं तत्सर्व त्रिविधेन ते । रत्नत्रितयशुद्धयर्थं यावजीवमवर्जयन् ॥१९३॥ सान् हरितकायांश्च पृथिव्यप्पवनानलान् । जीवकायानपायेभ्यस्ते स्म रक्षन्ति यत्नतः ॥१९॥ सिंहके समान निर्भय, सब पुरुषोंमें श्रेष्ठ और पर्वतोंकी गुफाओं में ठहरनेवाले वे मुनिराज जिनेन्द्रदेवके उपदेशके अनुसार चलनेवाले खेदरहित चित्तसे शान्त होकर निवास करते थे ।।१८३॥ वे मुनिराज अँधेरी रातोंके समय सैकड़ों दुष्ट जीवोंसे भरी हुई भयंकर वनकी भूमियोंमें ध्यान धारण कर निवास करते थे ॥१८४।। जो जंगली हाथियोंके द्वारा सेवन करने योग्य हैं तथा जिनके मध्यभाग हाथियोंके दाँतोंके अग्रभागसे टूटे हुए वृक्षोंसे ऊँचे नीचे हो रहे हैं ऐसे वनके प्रदेशोंमें वे महामुनि निवास करते थे ॥१८५।। जिनमें जंगली हाथियोंकी गर्जनाकी प्रतिध्वनि हो रही है और उस प्रतिध्वनिसे कुपित हुए सिंहोंसे जो भर रही हैं ऐसी वनकी गुफाओंमें वे मुनि निवास करते थे ॥१८६॥ वे मुनिराज स्वाध्याय और ध्यानमें आसक्त होकर रात्रियोंमें भी नहीं सोते थे, किन्तु सूत्रोंके अर्थके चिन्तवनमें तत्पर होकर सदा जागते रहते थे ॥१८७।। वे मुनिराज पर्यकासनसे बैठकर, वीरासनसे बैठकर अथवा एक करवट ही सोकर रात्रियाँ बिता देते थे॥१८८ जिन्होंने परिग्रहका भार छोड दिया है. शरीरसे ममत्व दूर कर दिया है, जो वस्त्ररहित हैं और परिग्रहत्यागसे जो अत्यन्त विशुद्ध हैं ऐसे वे धीर-वीर मुनि मोक्षका मार्ग ही खोजते रहते थे ॥१८९।। किसीकी अपेक्षा न करनेवाले, आकांक्षाओंसे रहित और आकाशकी तरह निर्लेप वे'मुनिराज गाँव और नगरोंके समूहसे भरी हुई इस पृथिवीपर विहार करते थे ॥१९०॥ समस्त पृथिवीपर विहार करते हुए और किसी भी जीवसे द्रोह नहीं करते हुए वे मुनि दयालु होनेसे समस्त प्राणियोंको पुत्रके तुल्य मानते थे और उनके साथ माताके समान व्यवहार करते थे ।।१९१।। वे जीव और अजीवके विभागको जाननेवाले थे, ज्ञानके प्रकाशसे उनके नेत्र देदीप्यमान हो रहे थे अथवा ज्ञानका प्रकाश ही उनका स्फुरायमान नेत्र था, वे प्रासुक अर्थात् जीवरहित स्थानमें ही निवास करते थे और उनका भोजन भी प्रासुक ही था, इस प्रकार उन्होंने समस्त सावद्य भोगका परिहार कर दिया था ॥१९२।। उन मुनियोंने रत्नत्रयकी विशुद्धिके लिए, संसारमें जितने सावद्य (पापारम्भसहित ) कार्य हैं उनका जीवन पर्यन्तके लिए त्याग कर दिया था ॥१९३।। वे त्रसकाय, वनस्पति १ पुरुषश्रेष्ठाः । २ अखेदितैः । ३ क्रूरमृग । ४ भयंकराम् । ५ निवसन्ति स्म । ६ अन्धकारवतीषु 'तमिस्रा तामसी रात्रिः' इत्यभिधानात् । ७ आश्रिताः । ८ निम्नोन्नतमध्यान् । ९ अधिवसन्ति स्म। १० सिंहः । ११ जागरणशीलाः। १२ वा। १३ नयन्ति स्म। १४-वायुवन्निःपरिग्रहा इत्यर्थः । १५ अघातुकाः । १६ निरवद्यान्तसाहाराः। १७ अपसार्य । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आदिपुराणम् अदीनमनसः शान्ताः परमोपेक्षयान्विताः । 'मुक्तिशाठ्यास्विमिर्गुप्ताः कामभोगेष्वविस्मिताः ॥१९५॥ जिनाज्ञानुगताः शश्वत्संसारोद्विग्नमानसाः । गर्भवास जरामृत्युपरिवर्तनभीरवः ॥१६॥ भ्रतज्ञानदृशो दृष्टपरमार्था विचक्षणाः । ज्ञानदीपिकया साक्षाच्चस्ते पदमक्षरम् ॥१७॥ ते चिरं भावयन्ति स्म सन्मार्ग मुक्तिसाधनम् । परदत्तविशुद्धान्नभोजिनः पाण्यमत्रकाः ॥१८॥ शङ्किताभिहृतो द्दिष्ट क्रयक्रीतादि लक्षणम् । सूत्रे 'निषिद्धमाहारं नैच्छन्प्राणात्ययेऽपि ते ॥११॥ भिक्षा नियतवेलायां गृहपङ्क्त्यनतिक्रमात् । शुद्धामाददिरे धीरा मनिवृत्तौ समाहिताः ॥२०॥ शीतमुणं विरूक्षं च स्निग्धं सलवणं न वा । तनुस्थित्यर्थमाहारमाजहस्ते गतस्पृहाः ॥२०१॥ अक्षम्रक्षणमा त प्राणभृत्य' विषवणुः । धर्मार्थमेव च प्राणान् धारयन्ति स्म केवलम् ॥२०२॥ न तुष्यन्ति स्म ते लब्धौ व्यषीदनायलब्धितः । मन्यमानास्तपोलाममधिकं धुतकल्मषाः ॥२०३॥ काय, पृथिवीकाय, जलकाय, वायुकाय और अग्निकाय इन छह कायके जीवोंकी बड़े यत्नसे रक्षा करते थे ॥१९४॥ उन मुनियोंका हृदय दीनतासे रहित था, वे अत्यन्त शान्त थे, परम उपेक्षासे सहित थे, मोक्ष प्राप्त करना ही उनका उद्देश्य था, तीन गुप्तियोंके धारक थे और काम भोगोंमें कभी आश्चर्य नहीं करते थे ॥१९५।। वे सदा जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाके अनुसार चला करते थे, उनका हृदय संसारसे उदासीन रहा करता था और वे गर्भमें निवास करना, बुढ़ापा और मृत्यु इन तीनोंके परिवर्तनसे सदा भयभीत रहते थे ॥१९६॥ श्रुतज्ञान ही जिनके नेत्र हैं और जो परमार्थको अच्छी तरह जानते हैं ऐसे वे चतर मनिराज ज्ञानरूपी दीपिका के द्वारा अविनाशी परमात्मपदका साक्षात्कार करते थे ॥१९७।। जो दूसरेके द्वारा दिये हुए विशुद्ध अन्नका भोजन करते हैं तथा हाथ ही जिनके पात्र हैं ऐसे वे मुनिराज मोक्षके कारणस्वरूप समीचीन मार्गका निरन्तर चिन्तवन करते रहते थे ।।१९८॥ शंकित अर्थात् जिसमें ऐसी शंका हो जावे कि यह शुद्ध है अथवा अशुद्ध, अभिहृत अर्थात् जो किसी दूसरेके यहाँसे लाया गया हो, उद्दिष्ट अर्थात् जो खासकर अपने लिए तैयार किया गया हो, और क्रयक्रीत अर्थात् जो कीमत देकर बाजारसे खरीदा गया हो इत्यादि आहार जैन शास्त्रोंमें मुनियोंके लिए निषिद्ध बताया है। वे मुनिराज प्राण जानेपर भी ऐसा निषिद्ध आहार लेनेकी इच्छा नहीं करते थे ॥१९९।। मुनियोंकी वृत्तिमें सदा सावधान रहनेवाले वे धीर-वीर मुनि घरोंकी पंक्तियोंका उल्लंघन न करते हुए निश्चित समयमें शुद्ध भिक्षा ग्रहण करते थे ॥२००॥ जिनकी लालसा नष्ट हो चुकी है ऐसे वे मुनिराज शरीरकी स्थितिके लिए ठण्डा, गरम, रूखा, चिकना, नमकसहित अथवा बिना नमकका जैसा कुछ प्राप्त होता था वैसा ही आहार ग्रहण करते थे ॥२०१।। वे मुनि प्राण धारण करनेके लिए अक्षम्रक्षण मात्र ही आहार लेते थे और केवल धर्मसाधन करनेके लिए ही प्राण धारण करते थे। भावार्थ - जिस प्रकार गाड़ी ओंगनेके लिए थोड़ीसी चिकनाईकी आवश्यकता होती है भले ही वह चिकनाई किसी भी पदार्थकी हो इसी प्रकार शरीररूपी गाड़ीको ठीक-ठीक चलानेके लिए कुछ आहारकी आवश्यकता होती है भले ही वह सरस या नीरस कैसा ही हो । अल्प आहार लेकर मुनिराज शरीरको स्थिर रखते हैं और उससे संयम धारण कर मोक्षको प्राप्ति करते हैं वे मुनिराज भी ऐसा ही करते थे ॥२०२।। वे पापरहित मुनिराज, आहार मिल जानेपर सन्तुष्ट नहीं होते थे और नहीं मिलनेपर तपश्चरण १ मुक्तसाध्या अ०, प०, इ०, स० । मुक्तिसाध्या ल०। २ जन्म । ३ पाणिपालकाः द०, ल०, स०, इ० । पाणिपुटभाजनाः । ४ स्थूलतण्डुलाशनादिकं दत्त्वा स्वीकृत कलमौदनादिक । ५ आत्मानमुद्दिश्य । ६ पणादिक दत्वा स्वीकृतम् । ७परमागमे। ८ निषेधितम् । ९ यत्याचारे। १० आददुः । ११ प्राणधारणार्थम् । १२ भुञ्जते स्म । ९३ धर्म-निमित्तम् । १४ लाभे सति । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुखिंशत्तमं 90 स्तुतिं निन्दां सुखं दुःखं तथा मानं' विमाननाम् । सममावेन तेऽपश्यन् सर्वत्र समदर्शिनः ॥२०४॥ वाचंयमत्वमास्थाय चरन्तो गोचरार्थिनः । निर्यान्ति स्माध्यलाभेन नाभञ्जन् मौनसंगरम् ॥२०५॥ महोपवासम्लानाङ्गा यतन्ते स्म तनुस्थितौ । तत्राप्यशुद्धमाहारं 'नैषिषुर्मनसाऽप्यमी ॥ २०६ ॥ गोचराग्रगता ँ योग्यं भुक्त्वान्नमविलम्बितम् । प्रत्याख्याय पुनर्वीरा निर्ययुस्ते तपोवनम् ॥२०७॥ तपस्तापतन्भूततनवोऽपि मुनीश्वराः । अनुबद्धात्तपोयोगान्न 'चेलुईढ संगराः ॥ २०८ ॥ तीव्रं तपस्यतां” तेषां गात्रेषु श्लथताऽभवत् । प्रतिज्ञा या तु सद्ध्यानसिद्धावशिथिलैव सा ॥२०९॥ नाभूत्परिषतैर्भङ्गस्तेषां चिरमुपोषुषाम् । गताः परिषहा एव भङ्गं तान् जेतुमक्षमाः ॥ २१० ॥ तपस्तनूनपात्तापाद" भूत्तेषां पराद्युतिः । निष्टप्तस्य सुवर्णस्य दीप्तिर्नन्वतिरेकिणी ४ ॥२११॥ तपोऽग्नितप्तदीप्ताङ्गास्तेऽन्तः शुद्धिं परां दधुः । तप्तायां तनुमूषायां शुद्धयत्यात्मा हि हेमवत् ॥ २१२॥ वगस्थिमात्रदेहास्ते ध्यानशुद्धिमधुस्तराम् । सर्वं हि परिकर्मेदं बाह्यमध्यात्मशुद्धये ॥ २१३ ॥ योगजाः सिद्धयस्तेषामणिमादिगुणर्द्धयः । प्रादुरासन्विशुद्धं हि तपः सूते महत्फलम् ॥ २१४॥ १५ १६६ रूपी अधिक लाभ समझते हुए विषाद नहीं करते थे || २०३ || सब पदार्थो में समान दृष्टि रखनेवाले वे मुनि स्तुति, निन्दा, सुख, दुःख तथा मान-अपमान सभीको समान रूपसे देखते थे || २०४ ।। वे मुनि मौन धारण करके ईर्यासमिति से गमन करते हुए आहारके लिए जाते थे और आहार न मिलने पर भी मौनव्रतकी प्रतिज्ञा भंग नहीं करते थे || २०५ || अनेक महोपवास करनेसे जिनका शरीर म्लान हो गया है ऐसे वे मुनिराज केवल शरीरकी स्थिति के लिए ही प्रयत्न करते थे परन्तु अशुद्ध आहारकी मनसे भी कभी इच्छा नहीं करते थे || २०६ ।। गोचरीवृत्तिके धारण करनेवालोंमें मुख्य वे धीर-वीर मुनिराज शीघ्र ही योग्य अन्नका भोजन कर तथा आगेके लिए प्रत्याख्यान कर तपोवन के लिए चले जाते थे || २०७|| यद्यपिं तपश्चरणके सन्तापसे उनका शरीर कृश हो गया था तथापि दृढ़प्रतिज्ञाको धारण करनेवाले वे मुनिराज प्रारम्भ किये हुए तपसे विराम नहीं लेते थे || २०८ || तीव्र तपस्या करनेवाले उन मुनियोंके शरीरमें यद्यपि शिथिलता आ गयी थी तथापि समीचीन ध्यानकी सिद्धि के लिए जो उनकी प्रतिज्ञा थी वह शिथिल नहीं हुई थी ॥ २०९ ॥ | चिरकाल तक उपवास करनेवाले उन मुनियोंका परीषहोंके द्वारा पराजय नहीं हो सका था बल्कि परीषह ही उन्हें जीतनेके लिए असमर्थ होकर स्वयं पराजयको प्राप्त हो गये थे ।॥ २१० ॥ तपरूपी अग्निके सन्तापसे उनके शरीरकी कान्ति बहुत ही उत्कृष्ट हो गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि तपे हुए सुवर्णकी दीप्ति बढ़ ही जाती है ॥२११॥ तपश्चरणरूपी अग्निसे तप्त होकर जिनके शरीर अतिशय देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे वे मुनिराज अन्तरंग की परम विशुद्धिको धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि शरीररूपी मूसा (साँचा) तपाये जानेपर आत्मा सुवर्णके समान शुद्ध हो ही जाती है ॥ २१२॥ यद्यपि उनके शरीरमें केवल चमड़ा और हड्डी ही रह गयी थी तथापि वे ध्यानकी उत्कृष्ट विशुद्धता धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि उपवास आदि समस्त बाह्य साधन केवल आत्मशुद्धिके लिए ही हैं ।।२१३।। योगके प्रभावसे उत्पन्न होनेवाली अणिमा महिमा आदि ऋद्धियाँ उन मुनियोंके प्रकट हो गयी थीं सो ठीक ही है क्योंकि विशुद्ध तप बहुत बड़े-बड़े फल उत्पन्न करता है ॥२१४ ॥ १ पूजाम् । २ अवज्ञाम् । ३ मौनित्वम् । ४ गोचार । ५ मौनप्रतिज्ञाम् । ६ इच्छां न चक्रुः । ७ गोचारभिक्षायां मुरूपतां गताः । ८ शीघ्रम् । ९ प्रत्याख्यानं गृहीत्वा । १० - - नारेमु,अ०, स०, इ० प०, द० । ११ दृढप्रतिज्ञाः । १२ तपः कुर्वताम् । १३ तपोऽग्निजनित संतापात् । १४ न व्यतिरेकिणी ल०, द० । १५ अनशनादि । २२ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ६ तपोमयः प्रणीतोऽग्निः कर्माण्याहुतयोऽभवन् । विधिगास्ते सुयज्वानो मन्त्रः स्वायंभुवं वचः ॥ २३५॥ महाध्वर पतिर्देवो वृषभो दक्षिणा दया । फलं कामितसं सिद्धिरपवर्गः क्रियावधिः ॥ २१६ ॥ 'इतीमामार्ष भी मिष्टि मभिसंधाय तेऽञ्जसा । प्रावीवृत न्नन्चाना स्तपोयज्ञमनुत्तरम् ॥२१७॥ इत्यमनगराणां पतं संगीय भावनाम् । ते तथा निर्वहन्ति स्म निसर्गोऽयं महीयसाम् ॥२१८॥ किमत्र बहुना धर्मक्रिया यावव्यविप्लुता । तां कृत्स्नां ते स्वसाच्चक्रुस्त्यक्तराजन्य विक्रियाः ॥२१९॥ १७० वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं पुराणपुरुषादधिगम्य बोधि ये राज्यभूमिमवधूय विधूतमोहाः पारवा" मुनिवराः पुरुधैर्यसारा योगीश्वरानुगतमार्गमनुप्रपन्नाः तत्तीर्थमानससरः प्रियराजहंसाः । אי प्रावाजिपुर्भरतराजमनन्तुकामाः ॥२२०॥ धीरानगारचरितेषु" कृतावधानाः । नो दिशन्त्वखिललोकहितैकतानाः ॥२२१॥ जिसमें तपश्चरण ही संस्कारकी हुई अग्नि थी, कर्म ही आहुति अर्थात् होम करने योग्य द्रव्य थे, विधिविधानको जाननेवाले वे मुनि ही होम करनेवाले थे । श्री जिनेन्द्रदेव के वचन ही मन्त्र थे, भगवान् वृषभदेव ही यज्ञके स्वामी थे, दया ही दक्षिणा थी, इच्छित वस्तुकी प्राप्ति होना ही फल था और मोक्षप्राप्त होना ही कार्यकी अन्तिम अवधि थी । इस प्रकार भगवान् ऋषभदेवके द्वारा कहे हुए यज्ञका संकल्प कर उन तपस्वियोंने तपरूपी श्रेष्ठ यज्ञकी प्रवृत्ति चलायी थी ॥ २१५ - २१७॥ इस तरह वे मुनि, मुनियोंकी उत्कृष्ट भावनाकी प्रतिज्ञा कर उसका अच्छी तरह निर्वाह करते थे सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंका यह स्वभाव ही है || २१८ ॥ इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है उन सब मुनियोंने राज्यअवस्थामें होनेवाले समस्त विकार भावोंको छोड़कर अनादि कालसे जितनी भी वास्तविक क्रियाएं चली आती थीं उन सबको अपने अधीन कर लिया था ॥ २१९ ॥ इस प्रकार पुराणपुरुष भगवान् आदिनाथसे रत्नत्रयकी प्राप्ति कर जो उनके तीर्थरूपी मानससरोवर के प्रिय राजहंस हुए थे, जिन्होंने राज्यभूमिका परित्याग कर सब प्रकार - का मोह छोड़ दिया था, जो भरतराजको नमस्कार नहीं करनेकी इच्छासे ही दीक्षित हुए थे, उत्कृष्ट धैर्य ही जिनका बल था, जो धीर-वीर मुनियोंके आचरण करनेमें सदा सावधान रहते थे, जो योगिराज भगवान् वृषभदेवके द्वारा अंगीकार किये हुए मार्गका पालन करते थे और जो १ संस्कृताग्निः प्रणीतः संस्कृतानलः' इत्यभिधानात् । २ तपोधनाः । ३ महायज्ञ । ४ होमान्ते याचकादीनां देयद्रव्यम् । ५ क्रियावसानः । ६ ऋषभसंबन्धिनीम् । ७ यजनम् । ८ चक्रुः । ९ प्रवचने साङगे अधीतिनः । 'अनूचानः प्रवचने साङ्गेऽधोती' इत्यभिधानात् । १० प्रतिज्ञां कृत्वा । ११ संवहन्ति स्म स०, ल० । १२ त्यक्तराजसमूहविकाराः । १३ त्यक्त्वेत्यर्थः । १४ नमस्कारं न कर्तुकामाः । १५ पुरोः संबन्धिनः । १६ यत्याचारेपू । १७ अक्षीकृत्य । १८ सुखम् । १९ वो प०, स०, ल० । नः अस्माकम् । २० जनहितेऽनन्यवृत्तयः । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व शार्दूलविक्रीडितम् नत्वा विश्वसृजं चराचरगुरुं देवं 'दिवीशाचितं नान्यस्य प्रणतिं व्रजाम इति ये दीक्षां परां संश्रिताः । तं नः सन्तु तपोविभूतिमुचिता स्वीकृत्य मुनिश्रियां बद्धेच्छावृषभात्मजा जिन जुषाम ग्रेसराः श्रेयसे ॥२२२॥ स श्रीमान् भरतेश्वरः प्रणिधिभिर्यान्ग्रहतां नानयत् संभोक्तुं निखिला विभज्य वसुधां साई च यै!ऽशकत् । निर्वाणाय पितृषभं जिनवृषं ये शिश्रियुः श्रेयसे ते नो मानधना हरन्तु दुरितं निर्दग्धकर्मेन्धनाः ॥२२३॥ इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भरतराजानुजदीक्षावर्णनं नाम चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व ॥३४॥ समस्त लोकका हित करनेवाले थे ऐसे वे भगवान् वृषभदेवके पुत्र तुम सबका कल्याण करें ॥२२०-२२१।। त्रस और स्थावर जीवोंके गुरु तथा इन्द्रोंके द्वारा पूज्य भगवान् वृषभदेवको नमस्कार कर अब हम किसी दूसरेको प्रणाम नहीं करेंगे ऐसा विचार कर जिन्होंने उत्कृष्ट दीक्षा धारण की थी. जिन्होंने योग्य तपश्चरणरूपी विभतिको स्वीकार कर मोक्षरूपी लक्ष्मीके प्रति अपनी इच्छा प्रकट की थी और जिनेन्द्र भगवान्की सेवा करनेवालोंमें सबसे मुख्य हैं ऐसे भगवान् वृषभदेवके पुत्र हम सबके कल्याणके लिए हों ।।२२२॥ वह प्रसिद्ध श्रीमान् भरत अपने दूतोंके द्वारा जिन्हें नम्रता प्राप्त नहीं करा सका और न विभाग कर जिनके साथ समस्त पृथिवीका उपभोग ही कर सका तथा जिन्होंने निर्वाणके लिए अपने पिता श्री जिनेन्द्रदेवका आश्रय लिया ऐसे अभिमानरूपी धनको धारण करनेवाले और कर्मरूपी ईंधनको जलानेवाले वे मुनिराज हम सब लोगोंके पापोंका नाश करें ॥२२३॥ इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवादमें भरतराजके छोटे भाइयोंकी दीक्षाका वर्णन करनेवाला चौंतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। १ इन्द्र । २ जिनं जुषन्ते सेवन्त इति जिनजुषः तषाम् । ३ चरैः । 'प्रणिधिः प्रार्थने चरे' इत्यभिधानात् । ४ समर्थो नाभूत् । ५ आश्रयन्ति स्म । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व अथ चक्रधरस्यासीत् किंचित् चिन्ताकुलं मनः । दो बलिन्यनुनेतव्ये यूनि दोर्दर्पशालिनि ॥१॥ अहो भ्रातृगणोऽस्माकं नाभिनन्दति नन्दथुम् । सनाभित्वादवध्यत्वं मन्यमानोऽयमात्मनः ॥२॥ अवध्यं शतमित्यास्था नूनं भ्रातृशतस्य मे । यतः प्रणामविमुखं गतवन्नः प्रतीपताम् ॥३॥ न तथाऽस्मादृशां खेदो भवत्यप्रणते द्विषि । दुर्गर्विते यथा ज्ञातिवर्गेऽन्तर्गेहवर्तिनि ॥४॥ मुखैरनिष्टवाग्वतिदीपितैरतिधूमिताः । दहन्त्यलातवच्च स्वाः"प्रातिकूल्यानिलेरिताः ॥५॥ प्रतीपवृत्तयः काम सन्तु वान्ये कुमारकाः। बाल्यात् प्रभृति येऽस्माभिः स्वातन्त्र्येणोपलालिताः ॥६॥ युवा तु दोर्बली प्राज्ञः क्रमज्ञः प्रश्रयी पटुः । कथं नाम गतोऽस्मासु विक्रिया सुजनोऽपि सन् ॥७॥ कथं च सोऽनुनेतव्यो"बली मानधनोऽधुना । जयाङ्गं यस्य दोर्दपः श्लाध्यते रणमूर्द्धनि ॥८॥ सोऽयं भुजबली बाहुबलशाली मदोद्धतः । महानिव गजो माद्यन् दुर्ग्रहोऽनुनयविना ॥९॥ न स सामान्यसंदेशैः प्रवीभवति दुर्मदी । ग्रहो दुष्ट इवाविष्टो मन्त्रविद्याचर्णविना ॥१०॥ अथानन्तर भुजाओंके गर्वसे शोभायमान युवा बाहुबलीको वश करनेके लिए चक्रवर्तीका मन कुछ चिन्तासे आकुल हुआ ॥१॥ वह विचारने लगा कि यह हमारे भाइयोंका समूह एक ही कुलमें उत्पन्न होनेसे अपने-आपको अवध्य मानता हुआ हमारे आनन्दका अभिनन्दन नहीं करता है अर्थात् हमारे आनन्द-वैभवसे ईर्ष्या रखता है ॥२॥ हमारे भाइयोंके समूहका यह विश्वास है कि हम सौ भाई अवध्य हैं इसीलिए ये प्रणाम करनेसे विमुख होकर मेरे शत्रु हो रहे हैं ॥३॥ किसी शत्रुके प्रणाम न करनेपर मुझे वैसा खेद नहीं होता जैसा कि घरके भीतर रहनेवाले मिथ्याभिमानी भाइयोंके प्रणाम नहीं करनेसे हो रहा है ।।४।। अनिष्ट वचनरूपी अग्निसे उद्दीपित हुए मुखोंसे जो अत्यन्त धूमसहित हो रहे हैं और जो प्रतिकूलतारूपी वायुसे प्रेरित हो रहे हैं ऐसे ये मेरे निजी भाई अलातचक्रकी तरह मुझे जला रहे हैं ॥५॥ जिन्हें हमने बालकपनसे ही स्वतन्त्रतापूर्वक खिला-पिलाकर बड़ा किया है ऐसे अन्य कुमार यदि मेरे विरुद्ध आचरण करनेवाले हों तो खुशीसे हों परन्तु बाहुबली तरुण, बुद्धिमान्, परिपाटीको जाननेवाला, विनयी, चतुर और सज्जन होकर भी मेरे विषयमें विकारको कैसे प्राप्त हो गया ? ॥६-७॥ जो अतिशय बलवान् है, मानरूपी धनसे युक्त है, और विजयका अंग स्वरूप जिसकी भुजाओंका बल युद्धके अग्रभागमें बड़ा प्रशंसनीय गिना जाता है ऐसे इस बाहुबलीको इस समय किस प्रकार अपने अनुकूल बनाना चाहिए ॥८॥ जो भुजाओंके बलसे शोभायमान है और अभिमानरूपी मदसे उद्धत हो रहा है ऐसा यह बाहुबली किसी मदोन्मत्त बड़े हाथीके समान अनुनय अर्थात शान्तिसचक कोमल वचनोंके बिना वश नहीं हो सकता ॥९॥ यह अहंकारी बाहुबली सामान्य सन्देशोंसे वश नहीं हो सकता क्योंकि शरीरमें घुसा हुआ दुष्ट पिशाच १ बाहुबलिकुमारे । २ वशीकर्तुं योग्ये सति । ३ नाभिवर्द्धयति । ४ आनन्दम् । ५ भ्रातृगणः । ६ बहुजन एकपुरुषेणावध्य इति बुद्धया। ७ भ्रातृगणस्य प०, ल०, द०। ८ यस्मात् कारणात् । ९ प्राप्तम् । १० प्रतिकूलत्वम् । ११ बान्धवाः । १२ प्रतिकूलवर्तनाः । १३ विनयवान् । १४ विकारम् । १५ स्वीकार्यः । १६ प्रवेशितः । १७ प्रतीतः । समरित्यर्थः । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व शेषक्षत्रिययूनां च तस्य चास्यन्तरं महत् । मृगसामान्य मानायैर्धतु किं शक्यते हरिः ॥११॥ सोऽभेद्यो नीतिचुञ्चत्वाद् दण्डसाध्यो न विक्री । नैष सामप्रयोगस्य विषयो विकृताशयः॥१२॥ ज्वलत्येव स तेजस्वी स्नेहेनोपकृतोऽपि सन् । घृताहुतिप्रसेकेन यथेद्वाचिमखानिलः ॥१३॥ स्वभावपरुषे चास्मिन् प्रयुक्तं साम नार्थकृत् । वपुषि द्विरदस्येव योजितं त्वच्यमौषधम् ॥१४॥ प्रायो व्याख्यात एवास्य भावः शेषैः कुमारकैः । मदाज्ञाविमुखैस्त्यक्तराज्यभोगैर्वनोन्मुखैः ॥१५॥ भूयोऽप्यनुनयैरस्य परीक्षिप्यामहे मतम् । तथाप्यप्रणते तस्मिन् विधेयं चिन्त्यमुत्तरम् ॥१६॥' ज्ञातिव्याजनिगूढान्तविक्रियो निष्प्रतिक्रियः । सोऽन्तर्ग्रहोत्थितो वह्निरिवाशेषं दहेत् कुलम् ॥१७॥ अन्तःप्रकृतिजः कोपो विघाताय प्रभोर्मतः । तरुशाखाग्रसंघदृजन्मा वह्निर्यथा गिरेः ॥१८॥ तदाशु प्रतिकर्तव्यं स बली वक्रतां श्रितः । क्रूर ग्रह इवामुग्मिन् प्रशान्ते शान्तिरेव नः ॥१९॥ इति निश्चित्य कार्यज्ञं दृतं मन्त्रविशारदम् । तत्प्रान्तं प्राहिणोच्चक्री निसृष्टार्थतयाऽन्वितम् ॥२०॥ मन्त्रविद्यामें चतुर पुरुषोंके बिना वश नहीं हो सकता ॥१०॥ शेष क्षत्रिय युवाओंमें और बाहुबलीमें बड़ा भारी अन्तर है, साधारण हरिण यदि पाशसे पकड़ लिया जाता है तो क्या उससे सिंह भी पकड़ा जा सकता है ? अर्थात् नहीं। भावार्थ-हरिण और सिंहमें जितना अन्तर है उतना ही अन्तर अन्य कुमारों तथा बाहुबलीमें है ।।११॥ वह नीतिमें चतुर होनेसे अभेद्य है, अर्थात् फोड़ा नहीं जा सकता, पराक्रमी है इसलिए युद्ध में भी वश नहीं किया जा सकता और उसका आशय अत्यन्त विकारयुक्त हो रहा है इसलिए उसके साथ शान्तिका भी प्रयोग नहीं किया जा सकता। भावार्थ-उसके साथ भेद, दण्ड और साम तीनों ही उपायोंसे काम लेना व्यर्थ है ।।१२।। जिस प्रकार यज्ञकी अग्नि घीकी आहुति पड़नेसे और भी अधिक प्रज्वलित हो उठती है उसी प्रकार वह तेजस्वी बाहुबली स्नेह अर्थात् प्रेमसे उपकृत होकर और भी अधिक प्रज्वलित हो रहा है - क्रोधित हो रहा है ।।१३।। जिस प्रकार हाथीके शरीरपर लगायी हुई चमडाको कोमल करनेवाली ओषधि कुछ काम नहीं करती उसी प्रकार स्वभावसे ही कठोर रहनेवाले इस बाहुबलीके विषयमें साम उपायका प्रयोग करना भी कुछ काम नहीं देगा ॥१४॥ जो मेरी आज्ञासे विमुख हैं, जिन्होंने राज्यभोग छोड़ दिये हैं और जो वनमें जानेके लिए उन्मुख हैं ऐसे बाकी समस्त राजकुमारोंने इसका अभिप्राय प्रायः प्रकट ही कर दिया है ॥१५॥ यद्यपि यह सब है तथापि फिर भी कोमल वचनोंके द्वारा उसकी परीक्षा करेंगे। यदि ऐसा करनेपर भी नम्रीभत नहीं हुआ तो फिर आगे क्या करना चाहिए इसका विचार करना चाहिए ॥१६॥ भाईपनेके कपटसे जिसके अन्तरंगमें विकार छिपा हुआ है और जिसका कोई प्रतिकार नहीं है ऐसा यह बाहुबली घरके भीतर उठी हुई अग्निके समान समस्त कुलको भस्म कर देगा ॥१७।। जिस प्रकार वृक्षोंकी शाखाओंके अग्रभागकी रगड़से उत्पन्न हुई अग्नि पर्वतका विघात करनेवाली होती है उसी प्रकार भाई आदि अन्तरंग प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ प्रकोप राजाका विघात करनेवाला होता है ॥१८॥ यह बलवान् बाहुबली इस समय प्रतिकूलताको प्राप्त हो रहा है इसलिए इसका शीघ्र ही प्रतिकार करना चाहिए क्योंकि क्रूर ग्रहके समान इसके शान्त हो जानेपर ही मुझे शान्ति हो सकती है ॥१९॥ ऐसा निश्चय कर चक्रवर्तीने कार्यको जाननेवाले, मन्त्र करनेमें चतुर तथा निःसृष्टार्थतासे सहित १ भेदः । 'अन्तरमवकाशावधिपरिधानान्तद्धिभेदतादर्थ्य' इत्यभिधानात् । २ सामान्यं कृत्वा। ३ जालैः । 'आनायं पुंसि जालं स्यात्' इत्यभिधानात् । ४ यज्ञाग्निः । ५ कार्यकारी न। ६ त्वचे हितम् । ७ मम शासनम् । ८ वनाभिमुखैः । ९ अभिप्रायः । १० अन्तगूढ़विकारः। ११ गृहं गोत्रं च । १२ स्ववर्ग जात । १३ असकृत् संपादितप्रयोजनतया । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आदिपुराणम् उचितं युग्यमारूढो वयसा नातिकर्कशः । अनुद्धतेन वेषेण प्रतस्थे स तदन्तिकम् ॥२१॥ आत्मनेव द्वितीयन स्निग्धेनानुगतो द्रुतम् । निजानुजीविलोकेन हस्तशम्बल वाहिना ॥२२॥ सोऽन्वी वक्ति चेदेवमहं ब्रूयामकत्थनः । विगृह्य यदि स ब्रूयाद् विरहं विग्रहे घटे ॥२३॥ संधि च पणबन्धं च कुर्यात् सोऽन्तरमेव नः । विक्रम्य' क्षिप्रमेष्यामि विजिगीषावसंगत ॥२४॥ गुणयन्निति संपत्तिविपत्ती स्वान्यपक्षयोः । स्वयं निगूढमन्त्रत्वादनिर्भेद्योऽन्यमन्त्रिभिः ॥२५॥ मन्त्रभेदभयाद् गृहं स्वपन्नेकः प्रयाणके । युद्धापसारभूमीश्च स पश्यन् दरमत्यगात् ॥२६॥ क्रमेण देशान् सिन्धूंश्च देशसंधींश्च सोऽतियन् । प्रापत् संख्यातरात्रैस्तत् पुरं पोदनसाह्वयम् ॥२७॥ बहिःपुरमथासाद्य रम्याः सस्यवतीर्भुवः । पक्वशालिवनोद्देशान् स पश्यन् प्राप नन्दथुम् ॥२८॥ पश्यन् स्तम्बकरिस्तम्बान प्रभूतफल शालिनः । कृतरक्षान् जनयंत्रात् स मेने रवार्थिन जनम् ॥२९॥ सकुटुम्बिनि रुहात्रैर्नृत्यद्भिरभिनन्दितान् । केदारलाव संघर्षर् र्यघोषान्न्यशामयत् ॥३०॥ दूतको बाहुबलीके समीप भेजा। भावार्थ-जिस दूतके ऊपर कार्य सिद्ध करनेका सब भार सौंप दिया जाता है वह निःसृष्टार्थे दूत कहलाता है। यह दुत स्वामीके उद्देश्यकी रक्षा करता हुआ प्रसंगानुसार कार्य करता है। चक्रवर्ती भरतने ऐसा ही दूत बाहुबलोके पास भेजा था ॥२०॥ जो उमरमें न तो बहुत छोटा था और न बहुत बड़ा ही था ऐसा वह दूत अपने योग्य रथपर सवार होकर नम्रताके वेषसे बाहुबलीके समीप चला ॥२१॥ जिसने मार्गमें काम आनेवाली भोजन आदिकी समस्त सामग्री अपने साथ ले रखी है और जो प्रेम करनेवाला है ऐसे अपने ही समान एक सेवकसे अनुगत होकर वह दूत वहाँसे शीघ्र ही चला ।।२२॥ वह दूत मार्गमें विचार करता जाता था कि यदि वह अनुकूल बोलेगा तो मैं भी अपनी प्रशंसा किये बिना ही अनुकूल बोलूंगा और यदि वह विरुद्ध होकर युद्धकी बात करेगा तो मैं युद्ध नहीं होनेके लिए उद्योग करूंगा ॥२३॥ यदि वह सन्धि अथवा पणबन्ध ( कुछ भेंट देना आदि ) करना चाहेगा तो मेरा यह अन्तरंग ही है अर्थात् मैं भी यही चाहता हूँ, इसके सिवाय यदि वह चक्रवर्तीको जोतनेको इच्छा करेगा तो मैं भी कुछ पराक्रम दिखाकर शीघ्र वापस लौट आऊँगा ॥२४॥ इस प्रकार जो अपने पक्षको सम्पत्ति और दूसरेके पक्षको विपत्तिका विचार करता जाता था, जो अपने मन्त्रको छिपाकर रखनेसे दूसरे मन्त्रियोंके द्वारा कभी फोड़ा नहीं जा सकता था और जो मन्त्रभेदके डरसे पड़ावपर किसी एकान्त स्थानमें गुप्त रीतिसे शयन करता था ऐसा वह दूत युद्ध करने तथा उससे निकलनेकी भूमियोंको देखता हुआ बहुत दूर निकल गया ॥२५-२६॥ क्रम-क्रमसे अनेक देश, नदो और देशोंकी सीमाओंका उल्लंघन करता हुआ वह दूत बाहुबलीके पोदनपुर नामक नगरमें जा पहुँचा ॥२७॥ नगरके बाहर धानोंसे युक्त मनोहर पृथिवीको पाकर और पके हुए चावलोंके खेतोंको देखता हुआ वह दूत बहुत ही आनन्दको प्राप्त हुआ था ॥२८॥ जो बहुत-से फलोंसे शोभायमान हैं और किसानोंके द्वारा बड़े यत्नसे जिनकी रक्षा की जा रही है ऐसे धानके गुच्छोंको देखते हुए दूतने मनुष्योंको बड़ा स्वार्थी समझा था ॥२९॥ जो खेतोंको देखकर आनन्दसे नाच रहे हैं और खेत काटनेके लिए जिन्होंने हँसिया ऊँचे उठा रखे १ वाहनम् । 'सर्वं स्याद् वाहनं धानं युग्यं पत्रं च धोरणम्' इत्यभिधानात् । २ अनुचरजनेन । ३ पाथेय । ४ अनुकूलम् । ५ अनुकूलवृत्त्या। ६ अश्लाघमानः। - मकच्छनः ल०। ७ कलहं कृत्वा । ८ नाशम् । ९ करोमि । १० निष्कग्रन्थिम् । प्राभूतमित्यर्थः । ११ विक्रमं कृत्वा । १२ आगच्छामि। १३ संधिं न गते सति । १४ शयानः । १५ युद्धापसारणयोग्यभूमिः । १६ -मभ्यगात् ल०, १०, अ०, स०। १७ नदीः । १८ देशसोम्नः । १९ अतीत्य गच्छन् । २० आनन्दम । २१ ब्रोहिगुच्छान् । 'धान्यं व्रीहिः स्तम्बकरिः स्तम्बो गुच्छस्तृणादितः ।' इत्यभिधानात् । २२ बहल । २३ निजप्रयोजनवन्तम् । २४ कृषीवलैः । २५ उद्गतलवित्रैः । २६ छेदन । २७ मर्द । २८ अशृणोत् । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व १७५ क्वचिच्छुकमुखाकृष्टकणाः कणिशमञ्जरीः । शालिवप्रेषु सोऽपश्यद् विटैर्भुक्ता इव स्त्रियः ॥३१॥ सुगन्धिकलमामोदसंवादि श्वसि तानिलैः । वासयन्तीर्दिशः शालिकणिशेरवतंसिताः ॥३२॥ पीनस्तनतटोत्सगगलधर्माम्बुबिन्दुभिः । मुक्तालंकारजां लक्ष्मी घटयन्तीनिजोरसि ॥३३॥ सरजोऽजरजःकीर्णसीमन्तरुचिरैः कचैः । चूडामाबध्नतीः स्वैरग्रन्थितोत्पलदामकैः ॥३४॥ दधतीरातपक्लान्तमुखपर्यन्तसंगिनीः । लावण्यस्येव कणिकाः श्रमघर्भाम्बुविग्रुषः ॥३५॥ शुकान् शुकच्छदच्छायैरुचिराङ्गीस्तनांशुकैः । छोत्कुर्वतीः कलक्वाणं सोऽपश्यच्छालिगोपिकाः ॥३६॥ भ्रमद्यानकुटीयन्त्रचीत्कारैरिक्षवाटकान् । फूल्कुर्वत इवाद्वाझीदतिपीडाभयेन सः ॥३७॥ उपक्षेत्रं च गोधेनूमहोधोभरमन्थराः । वात्सकेनोत्सुकाः स्तन्यं क्षरतीर्निचचाय' सः ॥३८॥ इति रम्यान् पुरस्यास्य सीमान्तान् स विलोकयन् । मेने कृतार्थमात्मानं लब्धतदर्शनोत्सवम् ॥३९॥ उपशल्यभुवः कुल्याप्रणालीप्रसृतोदकाः । शालीक्षुजीरकक्षेत्रैवृतास्तस्य मनोहरन् ॥४०॥ वापीकूपत डागैश्च सारामैरम्बुजाकरैः । पुरस्यास्य बहिर्देशास्तेनादृश्यन्त हारिणः ॥४१॥ पुरगोपुरमुल्लङ्घय स निचायन् वणिकपथान् । तत्र पूगीकृतान् मेने रत्नराशीनिधीनिव ॥४२॥ हैं ऐसे कुटुम्बसहित किसानोंके द्वारा प्रशंसनीय, खेत काटनेके संघर्षके लिए बजती हुई तुरईके शब्दोंको भी वह दूत सुन रहा था ॥३०॥ कहीं धानके खेतोंमें वह दूत जिनके कुछ दाने तोताओं ने अपने मुखसे खींच लिये हैं ऐसी बालोंके समूह इस प्रकार देखता था मानो विट पुरुषोंके द्वारा भोगी हुई स्त्रियाँ ही हों ।।३१।। जो सुगन्धित धानको सुगन्धिके समान सुवासित अपनी श्वासकी वायुसे दशों दिशाओंको सुगन्धित कर रही थीं, जिन्होंने धानकी वालोंसे अपने कानोंके आभूपण बनाये थे, जो अपने वक्षःस्थलपर स्थूल स्तनतटके समीपमें गिरती हुई पसीनेकी बूंदोंसे मोतियोंके अलंकारसे उत्पन्न होनेवाली शोभाको धारण कर रही थीं, जो परागसहित कमलोंकी रजसे भरे हुए माँगसे सुन्दर तथा अच्छी तरह गुंथी हुई नीलकमलोंकी मालाओंसे सुशोभित केशोंसे चोटियाँ बाँधे हुई थीं, जो घामसे दुःखी हुए मुखपर लगी हुई सौन्दर्यके छोटेछोटे टुकड़ोंके समान पसीनेकी बूंदोंको धारण कर रही थीं, जिनके शरीर तोतेके पंखोंके समान कान्तिवाली-हरी-हरी चोलियोंसे सुशोभित हो रहे थे, और जो मनोहर शब्द करती हुई छो-छो करके तोतोंको उड़ा रही थीं ऐसी धानकी रक्षा करनेवाली स्त्रियाँ उस दूतने देखीं ॥३२-३६।। जो चलते हुए कोल्हुओंके चीत्कार शब्दोंके बहाने अत्यन्त पीड़ासे मानो रो ही रहे थे ऐसे ईखके खेत उस दूतने देखे ॥३७॥ खेतोंके समीप ही, बड़े भारी स्तनके भारसे जो धीरे-धीरे चल रही हैं, जो बछड़ोंके समूहसे उत्कण्ठित हो रही हैं और जो दूध झरा रही हैं ऐसो नवीन प्रसूता गायें भी उसने देखी ॥३८।। इस प्रकार इस नगरके मनोहर सीमाप्रदेशोंको देखता हुआ और उन्हें देखकर आनन्द प्राप्त करता हुआ वह दूत अपने आपको कृतार्थ मानने लगा ॥३९॥ जिनके चारों ओर नहरकी नालियोंसे पानी फैला हुआ है और जो धान ईख और जीरेके खेतोंसे घिरी हुई हैं ऐसी उस नगरके बाहरकी पृथिवियाँ उस दूतका मन हरण कर रही थीं ॥४०॥ बावड़ी, कुएँ, तालाब, बगीचे और कमलोंके समूहोंसे उस नगरके बाहरके प्रदेश उस दूतको बहुत ही मनोहर दिखाई दे रहे थे ॥४१।। नगरके गोपुरद्वारको १ धान्यांशाः । २ केदारेषु । ३ परिस्पधि । ४ उच्छ्वास । ५ शिखाम् । 'शिखा चुडा केशपाशः' इत्यभिधानात् । ६ इक्षुयन्त्रगृह । ७ क्षेत्रसमोपे । ८ गोनवसुतिकाः । 'धेनु: स्यान्नव प्रमूतिका' इत्यभिधानात् । ९ महापीनभारमन्दगमनाः। १० क्षीरम् । ११ ददर्श। 'चाय पूजानिगामनयोः । १२ ग्रामान्तभूमिः । 'ग्रामान्तमुपशल्यं स्याद्' इत्यभिधानात् । १३ दूतस्य । १४ वृन्दोकृतान् । 'पूगः ऋमुकवृन्दयोः' इत्यभिधानात् । पुजीकृतानित्यर्थः । पुजीकृतान् ल० । पगकृतान् अ०, प०, म०, इ० । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ आदिपुराणम् नृपोपा यनवाजीमलालामदजलाविलम् । कृतच्छटमिवालोक्य सोऽभ्यनन्दन्नपाङ्गणम् ॥४३॥ स. निवेदितवृत्तान्तो महादौवारपालकैः । नृपं नृपासनासीनमुपासी दद् वचोहरः ॥४४॥ पृथुवक्षस्त टं तुङ्गमुकुटोदग्रशृङ्गकम् । जयलक्ष्मीविलासिन्याः क्रीडाशैलमिवैककम् ॥४५॥ ललाटपट्टमारूढपट्टबन्धं सुविस्तृतम् । जयश्रिय इवोद्वाहपर्ट दधतमुच्चकैः ॥४६॥ दधानं तुलिताशेषराजन्यकयशोधनम् । तुलादण्डमिवोदृढभूभारं भुजदण्डकम् ॥४॥ मुखेन पङ्कजच्छायां नेत्राभ्यामुत्पलश्रियम् । दधानमप्यना सन्नविजातिमजलाशयम् ॥४८॥ बिभ्राणमतिविस्तीर्ण मनो वक्षश्च यद्वयम् । वाग्देवीकमलावत्योर्गतं नित्यावकाशताम् ॥४९॥ रक्षावृत्तिपरिक्षेपं गुणग्राम महाफलम् । निवेशयन्तमात्माङ्गे मनःसु च महीयसाम् ॥५०॥ स्फुरदाभरणोद्योतच्छद्मना निखिला दिशः । प्रतापज्वलनेनेव लिम्पन्तमलघीयसा ॥५१॥ मुखेन चन्द्रकान्तेन पद्मरागेण चारुणा । चरणेन विराजन्तं वज्रसारण' वर्मणा ॥५२॥ उल्लंघन कर बाजारके मार्गों को देखता हुआ वह दूत वहाँ इकट्ठी की हुई रत्नोंकी राशियोंको निधियोंके समान मानने लगा ॥४२॥ जो राजाकी भेंटमें आये हुए घोड़े और हाथियोंकी लार तथा मदजलसे कीचड़सहित हो रहा था और उससे ऐसा मालूम होता था मानो उसपर जल ही छींटा गया हो ऐसे राजाके आँगनको देखकर वह दूत बहुत ही प्रसन्न हो रहा था ।।४३।। जिसने मुख्य-मुख्य द्वारपालोंके द्वारा अपना वृत्तान्त कहला भेजा है ऐसा वह दूत राजसिंहासनपर बैठे हुए महाराज बाहुबलीके समीप जा पहुँचा ॥४४।। वहाँ जाकर उसने महाराज बाहुबलीको देखा. उनका वक्षःस्थल किनारेके समान चौड़ा था, वे स्वयं ऊँचे थे और उनका मकूट शिखरके समान उन्नत था इसलिए वे विजयलक्ष्मीरूपी स्त्रीके क्रीड़ा करनेके लिए एक अद्वितीय पर्वतके समान जान पड़ते थे-जिसपर यह बंधा हआ है ऐसे लम्बे-चौड़े ललाटपट्टको धारण करते हए वे ऐसे जान पड़ते थे मानो विजयलक्ष्मीका उत्कृष्ट विवाहपट ही धारण कर रहे हों। वे बाहुबली स्वामी, जिसने समस्त राजाओंका यशरूपी धन तोल लिया है और जिसने समस्त पृथिवीका भार उठा रखा है ऐसे तराजूके दण्डके समान भुजदण्डको धारण कर रहे थे-यद्यपि वे मुखसे कमलकी और नेत्रोंसे उत्पलकी शोभा धारण कर रहे थे तथापि उनके सपीप न तो विजाति अर्थात् पक्षियोंकी जातियाँ थीं और न वे स्वयं जलाशय अर्थात् सरोवर ही थे। भावार्थ-इस श्लोकमें विरोधाभास अलंकार है इसलिए विरोधका परिहार इस प्रकार करना चाहिए कि वे यद्यपि मुख और नेत्रोंसे कमल तथा उत्पलकी शोभा धारण करते थे तथापि उनके पास विजाति अर्थात् वर्णसंकर लोगोंका निवास नहीं था और न वे स्वयं जलाशय अर्थात् जड़ आशयवाले मूर्ख ही थे। वे बाहुबली जिनपर क्रमसे सरस्वती देवी और लक्ष्मीदेवीका निरन्तर निवास रहता था ऐसे अत्यन्त विस्तृत ( उदार और लम्बे चौड़े ) मन और वक्षःस्थलको धारण कर रहे थे-वे, प्रजाकी रक्षाके कारण तथा बड़े-बड़े फल देनेवाले गुणोंके समूहको अपने शरीरमें धारण कर रहे थे और अन्य महापुरुषोंके मनमें धारण कराते थे-वे अपने देदीप्यमान आभूषणोंको कान्तिके छलसे ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने विशाल प्रतापरूपी अग्निसे समस्त दिशाओंको लिप्त ही कर रहे हों। वे चन्द्रकान्त मणिके समान मुखसे, पद्मराग मणिके समान सुन्दर चरणोंसे और वज्रके समान सुदृढ़ अपने १.परनृपः प्राभृतीकृत। २ कर्दमितम् । ३ उपागमत् । ४ सानुम् । ५ अनासनहीनजातिम् । पक्ष पक्षिजातिम् । ६ अमन्दबुद्धिम् । ७ सरस्वतीलक्ष्म्योः । ८ गुणसमूहम् । निगम ( गांव ) मिति ध्वनिः । ९ चन्द्रवत् कान्तेन । १० चन्द्रकान्तशिलयेति ध्वनिः । ११ पद्मवदरुणेन । पद्मरागरत्नेनेति ध्वनिः ११ वववत् स्थिरावयवेन । बज्रान्तःसारेणेति ध्वनिः । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व हरिन्मणिमयस्तम्ममिकं हरितत्विषम् । लोकावष्टम्भमाधातुं सृष्टमायेन वेधसा ॥५३॥ सर्वाङ्गसंगतं तेजो दधानं क्षात्रमूर्जितम् । नूनं तेजोमयैरेव घटितं परमाणुभिः ॥५४॥ तमित्यालोकयन् दूराद् धाम्नः पुञ्जमिवोच्छिखम् । चचाल प्रणिधिः किंचित् प्रणिधाना निधीशितुः॥५५॥ प्रणमंश्चरणावेत्य दधइरानतं शिरः । ससकारं कुमारेण नातिदूरे न्यवेशि सः ॥५६॥ तं शासनहरं जिष्णोनिविष्टमुचितासने । कुमारो निजगादेति स्मितांशून् विष्वगाकिरन् ॥५७॥ चिराच्चक्रधरस्याद्य वयं चिन्त्यत्वमागताः। भद्र भद्रं जगद्भर्तुर्बहुचिन्त्यस्य चक्रिणः ॥५६॥ विश्वावजयोद्योगमद्यापि न समापयन्' । स कच्चिद्भूभुजां भर्तः कुसली दक्षिणो भुजः ॥५६॥ श्रुता विश्वदिशः सिद्धा जिताश्च निखिला नृपाः । कर्तव्यशेषमस्याद्य किमस्ति वद नास्ति वा ॥६॥ इति प्रशान्तमोजस्त्रि वचःसारं मिताक्षरम् । वदन् कुमारो दूतस्य वचनावसरं व्यधात् ॥११॥ अयोपाचक्रमे वक्तं वचो हारि वचोहरः । वागर्थाविव संपिण्ड्य दर्शयन्, दशनांशुभिः ॥६२॥ त्वद्वचः संमुखीनेऽस्मिन् कार्य सुव्यकमीक्ष्यते । असंस्कृतोऽपि यन्नाथ प्रत्मक्षयति मादृशः ॥६३॥ वयं वचोहरा नाम प्रभोः शासनहारिणः । गुणदोषविचारेषु मन्दास्तच्छन्दवर्तिनः ॥६॥ शरीरसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे। उनकी कान्ति हरे रंगकी थी इसलिए वे ऐसे जान पड़ते थे मानो आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेवके द्वारा लोकको सहारा देनेके लिए बनाया हआ हरित मणियोंका एक खम्भा ही हो। समस्त शरीरमें फैले हए अतिशय श्रेष्ठ क्षात्रतेजको धारण करते हुए महाराज बाहुबली ऐसे जान पड़ते थे मानो तेजरूप परमाणुओंसे ही उनकी रचना हुई हो। जिसकी ज्वाला ऊपरकी ओर उठ रही है ऐसे तेजके पुंजके समान महाराज बाहुबलीको दूरसे देखता हुआ वह चक्रवर्तीका दूत अपने ध्यानसे कुछ विचलित-सा हो गया अर्थात् घबड़ा-सा गया ॥४५-५५॥ दूरसे ही झुके हए शिरको धारण करनेवाले उस दूतने जाकर कुमारके चरणोंमें प्रणाम किया और कुमारने भी उसे सत्कारके साथ अपने समीप ही बैठाया ॥५६॥ कुमार बाहुबली अपने मन्द हास्यकी किरणोंको चारों ओर फैलाते हुए योग्य आसनपर बैठे हए उस भरतके दूतसे इस प्रकार कहने लगे ॥५७।। कि आज चक्रवतीने बहुत दिनमें हम लोगोंका स्मरण किया, हे भद्र, जो समस्त पृथिवोके स्वामी हैं और जिन्हें बहुत लोगोंकी चिन्ता रहती है ऐसे चक्रवर्तीकी कुशल तो है न ? ॥५८॥ जिसने समस्त क्षत्रियोंको जीतनेका उद्योग आज तक भी समाप्त नहीं किया है ऐसे राजाधिराज भरतेश्वरकी वह प्रसिद्ध दाहिनी भुजा कुशल है न ? ॥५६॥ सुना है कि भरतने समस्त दिशाएँ वश कर ली हैं और समस्त राजाओंको जीत लिया है । हे दूत, कहो अब भी उनको कुछ कार्य बाकी रहा है या नहीं ? ॥६०। इस प्रकार जो अत्यन्त शान्त हैं, तेजस्वी हैं, साररूप हैं, और जिनमें थोड़े अक्षर हैं ऐसे वचन कहकर कुमारने दूतको कहनेके लिए अवसर दिया ॥६१॥ तदनन्तर दाँतोंकी किरणोंसे शब्द और अर्थ दोनोंको मिलाकर दिखलाता हुआ दूत मनोहर वचन कहनेके लिए तैयार हुआ ।।६२॥ वह कहने लगा कि हे प्रभो, आपके इस वचनरूपी दर्पणमें आगेका कार्य स्पष्ट रूपसे दिखाई देता है क्योंकि उसका अर्थ मुझ-जैसा मूर्ख भी प्रत्यक्ष जान लेता है ॥६३॥ हे नाथ, हम लोग तो दूत हैं केवल स्वामीका समाचार ले जाने १ आधारम् । २ आदिब्रह्मणेत्यर्थः । ३ सप्ताङ्ग अथवा सर्वशरीर। ४ इव । ५ धाम्नां तेजसाम् । ६ चरः । ७ गुणदोषविचारानुस्मरणं प्रणिधानम, तस्मात । अभिप्रायादित्यर्थः । ८ चिन्तितुं योग्याश्चिन्त्याः तेषा भावः चिन्त्यत्वम् । ९ कुशलम् । १० क्षेत्र-इ०। ११ सम्पूर्ण न कुर्वन् । १२ किम् । १३ वचनस्यावसरम् । १४ मनोज्ञम् । १५ पिण्डीकृत्य । १६ दन्तकान्तिभिः। १७ तव वाग्दपणे । १८ संस्काररहितः । १९ प्रत्यक्षं करोति । २० मदविधः । २१ चक्रिवशवर्तिनः । -च्छन्दचारिणः ल०, द०। २३ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आदिपुराणम् ततश्चक्रधरेणायं यदादिष्टं' प्रियोचितम् । प्रयोक्तगौरवादेव तद्ग्राह्यं साध्वसाधु वा ॥६५॥ गुरोर्वचनमादेयमविकल्प्येति या अतिः। तत्प्रामाण्यादमुष्याज्ञा संविधेया त्वयाधुना ॥६६॥ ऐक्ष्वाकः प्रथमो राज्ञां भरतो भवदग्रजः । परिक्रान्ता मही कृत्स्ना येन नामयताऽमरान् ॥६७॥ गङ्गादारं समुल्लङ्घय यो रथेनाप्रतिष्कशः । चलदाविन्द्धकल्लोल मकरोन्मकरालयम् ॥६॥ शरव्याजः प्रतापाग्निवलत्यस्य.जलेऽम्बुधे । पपौ न केवलं वाचि मानं च त्रिदिवौकसाम् ॥६९॥ मा नाम प्रणतिं यस्य ब्राजिषुर्घसदः कथम् । आकृष्टाः शरपाशेन प्राध्वंकृत्य गले बलात् ॥७॥ शरव्यमकरोद्यस्य शरपातो महाम्बुधौ । प्रसभं मगधावासं क्रान्तद्वादशयोजनः ॥७॥ विजयार्धाचले यस्य विजयो घोषितोऽमरैः । जयतो विजयादशं शरेणामोघपातिना ॥७२॥ कृतमालादयो देवा गता यस्य विधेयताम् । कृतमस्योमयश्रेणीन''भोगजयवर्णनैः ॥७३॥ गुहामुखमपध्वान्तं व्यतीत्य जयसाधनैः । उत्तरां विजयादियों व्यगाहत तां महीम् ॥७॥ मेच्छाननिच्छतोऽप्याज्ञां प्रच्छाद्य" जयसाधमैः । सेनान्या यो जयं प्राप बलादाच्छिद्य तद्धनम् ॥७५॥ वाले हैं हम लोग सदा स्वामीके अभिप्रायके अनुसार चलते हैं तथा गुण और दोषोंका विचार करने में भी असमर्थ हैं ॥६४।। इसीलिए हे आर्य, चक्रवर्तीने जो प्रिय और उचित आज्ञा दी है वह अच्छी हो या बुरी, केवल कहनेवालेके गौरवसे ही स्वीकार करने योग्य है ॥६५॥ गुरुके वचन बिना किसी तर्क-वितर्कके मान लेना चाहिए यह जो शास्त्रका वचन है उसे प्रमाण मानकर इस समय आपको चक्रवर्तीकी आजा स्वीकार कर लेनी चाहिए ॥६६॥ वह भरत इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुआ है अथवा इक्ष्वाकु अर्थात् भगवान् वृषभदेवका पुत्र है, राजाओंमें प्रथम है, आपका बड़ा भाई है और इसके सिवाय देवोंसे भी नमस्कार कराते हुए उसने समस्त पृथिवी अपने वश कर ली है ॥६७।। उसने गंगाद्वारको उल्लंघन कर अकेले ही रथपर बैठकर समुद्रको जिसकी चंचल लहरें एक दूसरेसे टकरा रही हैं ऐसा कर दिया ॥६८॥ बाणके बहानेसे इसकी प्रतापरूपी अग्नि समुद्रके जलमें भी प्रज्वलित रहती है, उस अग्निने केवल समुद्रको ही नहीं पिया है किन्तु देवोंका मान भी पी डाला है ॥६९।। भला, देव लोग उसे कैसे न नमस्कार करेंगे ? क्योंकि उसने बाणरूपी जालसे गलेमें बाँधकर उन्हें जबरदस्ती अपनी ओर खींच लिया था ॥७०॥ बारह योजन दूर तक जानेवाले उसके बाणने महासागरमें रहनेवाले मागधदेवके निवासस्थानको भी जबरदस्ती अपना निशाना बनाया था ॥७१।। व्यर्थ न जानेवाले बाणके द्वारा विजयाध पर्वतके स्वामी विजयादेवको जीतनेवाले उस भरतकी विजयघोषणा देवोंने भी की थी ॥७२॥ कृतमाल आदि देव उसकी अधीनता प्राप्त कर चुके हैं और उत्तर दक्षिण दोनों श्रेणियोंके विद्याधरोंने भी उसकी जयघोषणा की है ॥७३॥ जिसका अन्धकार दूर कर दिया गया है ऐसे गुफाके दरवाजेको अपनी विजयी सेनाके साथ उल्लंघन कर उसने विजयार्ध पर्वतकी उत्तर दिशाकी भूमिपर भी अपना अधिकार कर लिया है ॥७॥ ‘म्लेच्छ लोग यद्यपि उसकी आज्ञा नहीं मानना चाहते थे तथापि उसने सेनापतिके द्वारा अपनी १ उपदेशितम् । २ भेदमकृत्वा । ३ इक्ष्वाकोः सकाशात् संजातः । ४ असहायः । ५ परस्परताडित । अथवा कुटिल। 'आविद्धं कुटिलं भुग्नं वेल्लितं वक्रम्' इत्यभिधानात् । ६ अगुः । माङ्योगादडभावः । ७ बन्धनं छत्वा । 'प्राध्वं बन्धे' इति सूत्रेण तिसंज्ञायां 'तिदुस्वत्याक्षन्यस्त तत्पुरुष.' इति समासः, 'समासे को नत्रः प्यः' इति क्त्वाप्रत्ययस्य प्यादेशः । ८ लक्ष्यम् । ९ विनयग्राहिताम् । "विनेयो विनयग्राही' इत्यभिधानात् । १० पर्याप्तम्। ११ श्रेणीनभोगैर्जयवर्णनम् द०, इ० । श्रेणिनभोगैजयवर्णनः ल०। १२ अपगतान्धकार कृत्वा । १३ संवेष्टय । १४ बलादाकृष्य । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ पत्र त्रिंशत्तमं कृतोऽभिषेो यस्यादभ्येत्य सुरसत्तमैः । यस्याचलेन्द्रकूटेषु स्थलपद्मायितं यशः ॥७६॥ पर्युपासात यं स्वन्यधिदेवते । वृषभाद्वितटे येन टङ्गोत्कीर्ण कृतं यशः ॥७७॥ घटदासीकृता लक्ष्मीः सुराः किङ्करतां गताः । यस्य स्वाधीनरत्नस्य निधयः सुवतं धनम् ॥ ८॥ स यस्य जयसैन्यानि निर्जित्य निखिला दिशः । भ्रमन्ति स्माखिलाम्भोधितटान्तवनभूमिषु ॥ ७९ ॥ त्वामायुष्मन् जगन्मान्यो मानयन् कुशलाशिषा । समादिशन्ति चक्राङ्कां ययन्नधिराजताम् ॥ ८० ॥ मदीयं राज्यमाक्रान्तनिखिलद्वीपसागरम् । राजतेऽस्मत्प्रियभ्रात्रा न बाहुबलिना विना ॥८१॥ ताः संपदस्तदैश्वर्यं ते भोगाः स परिच्छदः । ये समं बन्धुभिर्भुक्ताः संविभक्तसुखोदयैः ॥ ८२ ॥ अन्यश्च नमिताशेष नृसुरासुरखेचरम् । नाधिराज्यं विभात्यस्य प्रणामविमुखे त्वयि ॥ ८३ ॥ न दुनोति मनस्तीव्रं रिपुरप्रणतस्तथा । बन्धुरप्रणमन् गर्वाद् दुर्विदग्धो यथा प्रभुम् ॥८४॥ "तदुपेत्य प्रणामेन पूज्यतां प्रभुरशमी । प्रभुप्रणतिरंवेष्टा प्रसूतिर्ननु संपदाम् ॥ ८५ ॥ अवन्ध्यशासनस्यास्य शासनं ये विमन्वते । शासनं द्विषतां तेषां चक्रमप्रतिशासनम् ॥ ८६ ॥ प्रचण्डदण्डनिर्वात निपातपरिखण्डितान् । तदाज्ञाखण्डनव्यग्रान् पश्यैनान् मण्डलाधिपान् ||८७ || सेना से हराकर और जबरदस्ती उनका धन छीनकर उनपर विजय प्राप्त की है ||७५ || अच्छेअच्छे देवोंने आकर उसका अभिषेक किया है और उसका निर्मल यश बड़े-बड़े पर्वतोंके शिखरोंपर स्थलकमलोंके समान सुशोभित हो रहा है || ७६ || गंगा - सिन्धु दोनों नदियोंके देवताओंने रत्नोंके अर्धो के द्वारा उसको पूजा की है तथा वृषभाचलके तटपर उसने अपना यश टांकी से उघेरकर लिखा है ||७७ || उसने लक्ष्मीको घटदासी अर्थात् पानी भरनेवाली दासीके समान किया है, देव उसके सेवक हो रहे हैं, समस्त रत्न उसके स्वाधीन हैं और निधियाँ उसे धन प्रदान करती रहती हैं ॥७८ || और उसकी विजयी सेनाओंने समस्त दिशाओंको जीतकर सब समुद्रोंके किनारे के वनोंको भूमिमें भ्रमण किया है ॥ ७९ ॥ हे आयुष्मन् जगत् में माननीय वही महाराज भरत अपने चक्रवर्तीपनेको प्रसिद्ध करते हुए कल्याण करनेवाले आशीर्वादसे आपका सन्मान कर आज्ञा कर रहे हैं ||८०|| कि समस्त द्वीप और समुद्रों तक फैला हुआ, यह हमारा राज्य हमारे प्रिय भाई बाहुबली के बिना शोभा नहीं देता है || ८१|| सम्पत्तियाँ वही हैं, ऐश्वर्य वही है, भोग वही है और सामग्री वही है जिसे भाई लोग सुखके उदयको बाँटते हुए साथ-साथ उपभोग करें || ८२|| दूसरी एक बात यह है कि आपके प्रणाम करनेसे विमुख रहने पर जिसमें समस्त मनुष्य, देव, धरणेन्द्र और विद्याधर नमस्कार करते हैं ऐसा उनका चक्रवर्तीपना भी सुशोभित नहीं होता है || ८३ ॥ प्रणाम नहीं करनेवाला शत्रु स्वामीके मनको उतना अधिक दुःखी नहीं करता है जितना कि अपनेको झूठमूठ चतुर माननेवाला और अभिमान से प्रणाम नहीं करनेवाला भाई करता ॥ ८४ ॥ | इसलिए आप किसी अपराधकी क्षमा नहीं करनेवाले महाराज भरतके समीप जाकर प्रणामके द्वारा उनका सत्कार कीजिए क्योंकि स्वामीको प्रणाम करना अनेक सम्पदाओंको उत्पन्न करनेवाला है और यही सबको इष्ट है ||८५|| जिसकी आज्ञा कभी व्यर्थ नहीं जाती ऐसे उस भरतकी आज्ञाका जो कोई - भी उल्लंघन करते हैं उन शत्रुओंका शासन करनेवाला उसका वह चक्ररत्न है जिसपर स्वयं किसीका शासन नहीं चल सकता ॥ ८६ ॥ आप भरतकी आज्ञाका खण्डन करनेसे व्याकुल हुए इन मण्डलाधिपति राजाओंको देखिए जो भयंकर दण्डरूपी वज्रके गिरनेसे खण्ड-खण्ड १ अपूजयताम् । २ गंगासिन्धू देव्यौ । ३ पूजयन् । ४ चक्रिणः । ५ तत्कारणात् । ६ आज्ञाम् । ७ अवज्ञां कुर्वन्ति । ८ शिक्षकम् । ९ दण्डरत्नाशनि । १० पश्यैतान् ब०, अ०, प०, ५०, स०, इ० Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० आदिपुराणम् 'तदेत्य द्रुतमायुग्मन् पूरयास्य मनोरथम् । युवयोरस्तु सांगयात् संगतं निखिलं जगत् ।।८।। इति तद्वचनस्यान्ते कृतमन्दस्मितो युवा । धीरं वची गभीरार्थमाचचक्षे विचक्षणः ॥४९॥ साधूक्तं साधुवृत्तत्वं स्वया घटयता प्रभोः । वाचस्पत्यं तदेवेष्टं पोषकं स्वमतस्य यत् ॥९॥ साम दर्शयता नाम भेददण्डी विशेषतः । प्रयुञ्जानेन साध्येऽथे स्वातन्त्र्यं दर्शितं त्वया ॥९॥ स्वतन्त्रस्य प्रभोः सत्यं स त्वमन्तश्चरश्चरः । अन्यथा कथमेवास्य व्यनक्ष्यन्तर्गतं गतम् ॥१२॥ 'निसृष्टार्थतयाऽस्मामु निर्दिष्टस्त्वं निधीशिना । विशिष्टोऽसि न वैशिष्टयं परमर्मस्पृगीदृशम् ॥१३॥ अयं खलु खलाचारो यबलात्कारदर्शनम् । स्वगुणोत्कीर्तनं दोषोद्भावनं च परेषु यत् ।।१४।। विवृणोति खलोऽन्येषां दोषान् स्वांश्च गुणान् स्वयम् । संवृणोति च दोषान् स्वान् परकीयान गुणानपि ॥९५॥ अनिराकृतसंतापां सुमनोभिः समुज्झिताम् । फलहीनां श्रयत्यज्ञः' खलतांखलतामिव ॥९६।। सतामसंमतां विष्वगाचितां विरसः फलैः । मन्ये दुःखलतामेनां खलतां लोकतापिनीम् ॥९७।। सोपप्रदानं सामादौ प्रयुक्तमपि बाध्यते । पराभ्यां भेददण्डाभ्यां न्याय्य विप्रतिषेधिनि ॥९॥ हो रहे हैं ।।८७॥ इसलिए हे दीर्घायु कुमार, आप शीघ्र ही चलकर इसके मनोरथ पूर्ण कीजिए। आप दोनों भाइयोंके मिलापसे यह समस्त संसार मिलकर रहेगा ।।८८। इस प्रकार उस दूतके कह चुकनेके बाद चतुर और जवान बाहुबली कुमार कुछ मन्द-मन्द हँसकर गम्भीर अर्थसे भरे हुए धीर वीर वचन कहने लगे ।।८९॥ वे बोले कि हे दूत, अपने स्वामीकी साधु वृत्तिको प्रकट करते हुए तूने सब सच कहा है क्योंकि जो अपने मतकी पुष्टि करनेवाला हो वही कहना ठीक होता है ॥९०॥ साम अर्थात् शान्ति दिखलाते हुए तूने विशेषकर भेद और दण्ड भी दिखला दिये हैं तथा उनका प्रयोग करते हुए तूने यह भी बतला दिया कि तू अपना अर्थ सिद्ध करने में कितना स्वतन्त्र है ? ॥९१॥ इस प्रकार कहनेवाला तू सचमुच ही अपने स्वतन्त्र स्वामीका अन्तरंग दूत है, यदि ऐसा न होता तो तू उसके हृदयगत अभिप्रायको कैसे प्रकट कर सकता था ॥९॥ चक्रवर्तीने तुझपर समस्त कार्यभार सौंपकर मेरे पास भेजा है, यद्यपि तु चतुर है तथापि इस प्रकार दूसरेका मर्मछेदन करना चतुराई नहीं है ॥९३।। अपनी जबरदस्ती दिखलाना वास्तवमें दुष्टोंका काम है तथा अपने गुणोंका वर्णन करना और दूसरोंमें दोष प्रकट करना भी दुष्टोंका ही काम है ॥९४॥ दुष्ट पुरुष, दूसरेके दोष और अपने गुणोंका स्वयं वर्णन किया करते हैं तथा अपने दोष और दूसरेके गुणोंको छिपाते रहते हैं ॥९५॥ खलता अर्थात् दुष्टता खलता अर्थात् आकाशकी बेलके समान है क्योंकि जिस प्रकार आकाशकी बेलसे किसीका सन्ताप दूर नहीं होता उसी प्रकार दुष्टतासे किसीका सन्ताप दूर नहीं होता, जिस प्रकार आकाशकी बेल सुमन अर्थात् फूलोंसे शून्य होती है उसी प्रकार दुष्टता भी सुमन अर्थात् विद्वान् पुरुषोंसे शून्य होती है और जिस प्रकार आकाशकी बेल फलरहित होती है उसी प्रकार दुष्टता भी फलरहित होती है अर्थात् उससे किसीको कुछ लाभ नहीं होता, ऐसी इस दुष्टताका केवल मूर्ख लोग ही आश्रय लेते हैं ॥९६।। जो सज्जन पुरुषोंको इष्ट नहीं है, जो सब ओरसे विरस अर्थात् नीरस अथवा विद्वेषरूपी फलोंसे व्याप्त है तथा लोगोंको सन्ताप देनेवाली है ऐसी इस खलता-दुष्टताको मैं दुःखलता अर्थात् दुःखकी बेल ही समझता हूँ ॥९७॥ यदि न्यायपूर्ण विरोध करनेवाले पुरुषके विषय १ तत् कारणात् । २ वचः। ३ शान्तिम् । ४ परब्रह्मकरणादिप्रयोजने । ५ हृदये वर्तमानः । ६ व्यक्तं • करोषि । ७ बुद्धिम् । ८ असकृत्संपादितप्रयोजनतया । ९ नियुक्तः । १० कुसुमैः । शोभन हृदयश्च । ११ श्रयन्त्यज्ञाः ल०, द०। १२ दुर्जनत्वम् । १३ आकाशलतामिव । १४ दानसहितम् । १५ न्यायान्विते पुरुषे । १६ भेददण्डाभ्यां विकारं गच्छति सति । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व 3 या विषयामुपायानां नियोजनम् सिद्ध पर्यासः फलिष्यति पराभयम् ||१९|| नैकान्तशमनं साम समाम्नातं सहोमणि । स्निग्धेऽपि हि जने तप्ते सर्पिषीवाम्बु सेचनम् ॥१००॥ उपप्रदानमध्येवं प्रायं मन्ये महौजसि । समित्सहस्वदानेऽपि दीसस्याशेः कुतः शमः ॥१०१॥ लोहस्यैवोपतप्तस्य' मृदुता न मनस्विनः । दण्डोऽप्यनुनयग्राह्ये सामजे न मृगद्विषि ॥ १०२ ॥ ततो व्यत्यासयनेनानुपायाननुपायवित्। स्वयं प्रयोगगुण्यात् सीदत्येव न मारशः ॥ १०३ ॥ १० の 1 १८१ में पहले कुछ देनेके विधानके साथ सामका प्रयोग किया जावे और बादमें भेद तथा दण्ड उपाय काममें लाये जायें तो उनके द्वारा पहले प्रयोग में लाया हुआ साम उपाय बाधित हो जाता है । भावार्थ - यदि न्यायवान् विरोधीके लिए पहले कुछ देनेका प्रलोभन देकर साम अर्थात् शान्तिका प्रयोग किया जावे और बाद में उसीके लिए भेद तथा दण्डकी धमकी दी जावे तो ऐसा करनेसे उसका पहले प्रयोग किया हुआ साम उपाय व्यर्थ हो जाता है क्योंकि न्यायवान् विरोधी उसकी कूटनीतिको सहज ही समझ जाता है || १८ || साम, दाम, दण्ड, भेद इन चारों उपायोंका यथायोग्य स्थान में नियोग करना कार्यसिद्धिका कारण है और विपरीत नियोग करना पराभवका कारण है । भावार्थ जो जिसके योग्य है उसके साथ वही उपाय काम में लानेसे सफलता प्राप्त होती है और विरुद्ध उपाय काम में लानेसे तिरस्कार प्राप्त होता है || ९९|| प्रतापशाली पुरुषके साथ साम अर्थात् शान्तिका प्रयोग करना एकान्तरूपसे शान्ति करनेवाला नहीं माना जा सकता क्योंकि प्रतापशाली मनुष्य स्निग्ध अर्थात् स्नेही होनेपर भी यदि क्रोधसे उत्तप्त हो जावे तो उसके साथ शान्तिका प्रयोग करना स्निग्ध अर्थात् चिकने किन्तु गरम घी में पानी सींचनेके समान है । भावार्थ - जिस प्रकार गरम घीमें पानी डालने से वह शान्त नहीं होता बल्कि और भी अधिक चटपटाने लगता है उसी प्रकार क्रोधी मनुष्य शान्तिके व्यवहारसे शान्त नहीं होता बल्कि और भी अधिक बड़बड़ाने लगता है ॥ १०० ॥ इसी प्रकार अतिशय प्रतापशाली पुरुषको कुछ देनेका विधान करना भी मैं निःसार समझता हूँ क्योंकि हजारों समिधाएँ ( लकड़ियाँ ) देनेपर भी प्रज्वलित अग्नि कैसे शान्त हो सकती है। तेजस्वी मनुष्य कष्ट देनेसे ॥ १०१ ॥ जिस प्रकार लोहा तपानेसे नरम नहीं होता उसी प्रकार नरम नहीं होता इसलिए उसके साथ दण्डका प्रयोग करना निरर्थक है क्योंकि अनुनय विनय कर पकड़ने योग्य हाथीपर ही दण्ड चल सकता है सिंहपर नहीं में नरम हो जाता है इसलिए यहाँ लोहाका उदाहरण व्यतिरेकरूपसे जा सकता है कि जिस प्रकार तपा हुआ लोहा नरम हो जाता है उस प्रकार तेजस्वी मनुष्य कष्टमें पड़कर नरम नहीं होता इसलिए उसपर दण्डका प्रयोग करना व्यर्थ है। अरे, दण्ड भी प्रेम पुचकार कर पकड़ने योग्य हाथीपर ही चल सकता है न कि सिंहपर भी || १०२ | इसलिए इन साम दान आदि उपायोंका विपरीत प्रयोग करनेवाले और इसलिए ही उपाय न जाननेवाले आप जैसे लोग इन चारों उपायोंके प्रयोगका ज्ञान न होनेसे स्वयं दुःखी होते हैं ॥ १०३ ॥ विशेष लोहा गरम अवस्थामानकर ऐसा भी अर्थ किया १ सामभेदादि योग्यपुरुपमनतिक्रम्य । २ वचननियोजनम् । ३ सप्रतापे । ४ एतत्सदृशम् । ५. इन्धनसमूह ६ उपतप्तस्य लोह्स्य यथा मृदुतास्ति तथा उपतप्तस्य मनस्विनो मृदुता नास्तीत्यर्थः । ७ सिंहे । ८ वैपरीत्येन योजन ९ तानु ल० द० अ०, प०, स० समाधीन १० भवादृशः ८० ल० अ०, प०, स०, ६० 1 - , Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आदिपुराणम् साप्राऽपि दुकां साच्या वपमित्युपसंहने । तत्रा लेकं प्रयुञ्जानो व्यक्तं सुग्वायते भवान् ।।१०४।। वपसाधिक इन्यत्र न इलाध्यो भरताधिपः । जरन्नपि गतः कलां गाइत कि हरेः शिशोः ॥१०५।। प्रणयः प्रश्रयश्चेति संगतए सनाभिपु । तेष्वेवासंगतेष्वङ्ग तवयस्य हता गतिः ।।१०६॥ ज्येष्ठः प्रगम्य इत्येत काममस्त्वन्यदा सड़ा । मूशिपितखड्गस्य प्रणाम इति कः क्रमः ।।१०७॥ दृत नो दृयते चित्तभन्यो-सेकानुवर्गनेः' ° । तेजस्वी भानुरेवैकः किमन्योऽप्यस्त्यतः परम् ॥१०८।। राजोतिर्मयि तस्भिश्च' संविभनाऽदिवेधसा । राजराजः स इत्यद्य स्फोटो गण्डस्य मूर्धनि ॥१०९॥ कामं स राजराजोऽस्तु रत्नांतोऽतिगृध्नुताम् । वयं राजान इत्येव सौराज्ये स्वे व्यवस्थिताः ॥११॥ बालानि छलादस्मान् आहृय प्रणमय्य च। पिण्डीखण्ड इवाभाति महीखण्डस्तदर्पितः ।।११।। स्वडोदमफलं श्लाघ्यं यकिचन मनस्विनाम् । न चातुरन्तमप्यैश्यं परभ्रलतिकाफलम् ॥११२॥ हे दूत, हम लोग शान्तिसे भी वश नही किये जा सकते यह निश्चय होनेपर भी आप हमारे साथ अहंकारका प्रयोग कर रहे हैं, इससे स्पष्ट मालूम होता है कि आप मूर्ख हैं ॥१०४।। भरतेश्वर उमरमें बड़े हैं इतने ही से वे प्रशंसनीय नहीं कहे जा सकते क्योंकि हाथी बूढ़ा होनेपर भी क्या सिंहके बच्चेकी बराबरी कर सकता है ? ॥१०५।। हे दूत, प्रेम और विनय ये दोनों परस्पर मिले हुए कुटुम्बी लोगोंमें ही सम्भव हो सकते हैं, यदि उन्हीं कुटुम्बियोंमें विरोध हो जावे तो उन दोनों ही की गति नष्ट हो जाती है। भावार्थ-जबतक कुटुम्बियोंमें परस्पर मेल रहता है तबतक प्रेम और विनय दोनों ही रहते हैं और ज्यों ही उनमें परस्पर विरोध हुआ त्यों ही दोनों नष्ट हो जाते हैं ॥१०६॥ बड़ा भाई नमस्कार करने योग्य है यह बात अन्य समयमें अच्छी तरह हमेशा हो सकती है परन्तु जिसने मस्तकपर तलवार रख छोड़ी है उसको प्रणाम करना यह कौन-सी रीति है ? ॥१०७॥ हे दूत, दूसरेके अहंकारके अनुसार प्रवृत्ति करनेसे हमारा चित्त दुःखी होता है, क्योंकि संसार में एक सूर्य हो तेजस्वी है । क्या उससे अधिक और भी कोई तेजस्वी है ॥१०८॥ आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने 'राजा' यह शब्द मेरे लिए और भरतके लिए-दोनोंके लिए दिया है, परन्तु आज भरत 'राजराज' हो गया है सो यह कपोलके ऊपर उठे हुए गूमड़ेके समान व्यर्थ है ।। १०९।। अथवा रत्नोंके द्वारा अत्यन्त लोभको प्राप्त हुआ वह भरत अपने इच्छानुसार भले ही 'राजराज' रहा आवे, हम अपने धर्मराज्यमें स्थिर रहकर राजा ही बने रहेंगे ॥११०। वह भरत बालकोंके समान छलसे हम लोगोंको बुलाकर और प्रणाम कराकर कुछ पृथिवी देना चाहता है तो उसका दिया हुआ पृथिवीका टुकड़ा खलीके टुकड़ेके समान तुच्छ मालूम होता है ॥१११॥ तेजस्वी मनुष्योंके लिए जो कुछ थोड़ाबहुत अपनी भुजारूपी वृक्षका फल प्राप्त होता है वही प्रशंसनीय है, उनके लिए दूसरेको भौहरूपी लताका फल अर्थात् भौंहके इशारेसे प्राप्त हुआ चार समुद्रपर्यन्त पृथिवीका ऐश्वर्य भी १ विरति गते सति । २ तत्र तूष्णीं स्थिते पुंसि । उत्सेकं साहसम्, गर्वमित्यर्थः । ३ समानताम । ४ प्राप्नोति । ५ स्नेहः । ६ विनयः । ७ भोः । ८ प्रणयप्रश्रयस्य । ९ अस्माकम् । १० वर्तनैः ल०, द०. अ०, १०, स०। ११ भानोः सकाशादन्यः । १२ भरते। १३ आदिब्रह्मणा । १४ भरतेश्वरपक्षे राज्ञां प्रभूणां राजा राजराजः; राज्ञां यक्षाणां राजा राजराजः लोजित इति ध्वनिः । भुजबलिपक्षे तिम्रः शक्तयः षड्गुणाः चतुरुषायाः सप्ताङ्गराज्यानि एतैर्गुण राजन्त इति राजानः । १५ पिटकः । 'विस्फोट. पिटकस्त्रिप' इत्यभिधानात् । १६ गलगण्डस्य । 'गलगण्डो गण्डमाला' इत्यभिधानात् । १७ उपरीत्यर्थः । १८ कुबेर इति ध्वनिः । १९ सुराज्यव्यापारे । २० आत्मीये । २१ बलादिव द० । २२ व्याजात् । २३ नमस्कारयित्वा । २४ पिण्याकशकलः । २५ भरतेन दत्तः । २६ चत्वारो दिगन्तो यस्य तत् । २७. प्रभुत्वम् । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व १८३ पराज्ञोपहतां लक्ष्मी यो वाञ्छेत् पार्थिवोऽपि सन् । सोऽपार्थयति तामुक्ति सोक्तिमिव डुण्डुभः ॥११३॥ परावमानमलिनां भूतिं धत्ते नृपोऽपि यः । नृपशोस्तस्य नन्वेष भारो राज्यपरिच्छदः ॥११॥ मानभङ्गार्जितै गैर्यः प्राणान्धर्तमीहते । तस्य भग्नरदस्येव द्विरदस्य कुतो मिदा ॥११॥ छत्रभङ्गाद्विनाप्यस्य छायामङ्गोऽमिलक्ष्यते । यो मानमगाभारेण बिभर्त्यवनतं शिरः ॥११६॥ मनयोऽपि समानाश्चेत् त्यक्तभोगपरिच्छदाः । को नाम राज्यभोगार्थी पुमानुज्झेत् समानताम् ॥११॥ वरं वनाधिवासोऽपि वरं प्राणविसर्जनम् । कुलाभिमानिनः पुंसो न पराज्ञाविधेयता ॥११॥ मानमवाभिरक्षन्तु धीराः प्राणैः प्रणश्वरैः । नन्वलंकुरुते विश्वं शश्वन्मानार्जितं यशः ॥११॥ ''चारु चक्रधरस्यायं त्वयाऽत्युक्तः पराक्रमः। कुतो यतोऽर्थवादोऽयंस्तुतिनिन्दापरायणः ॥१२०॥ वचोभिः पोषयन्त्येव पण्डिताः परिफ्लावपि प्रक्रान्तायां स्तुताविष्टः सिंहो ग्राममृगो ननु ॥१२१॥ इदं वाचनिकं कृत्स्नं त्वदुनं प्रतिभाति नः । क्वास्य दिग्विजयारम्भः क्व धनोंच्छन चुञ्चता ॥१२२॥ mm प्रशंसनीय नहीं है ॥११२॥ जिस प्रकार पनया साँप 'सर्प' इस शब्दको निरर्थक करता है उसी प्रकार जो मनुष्य राजा होकर भी दूसरेकी आज्ञासे उपहत हुई लक्ष्मीको धारण करता है वह 'राजा' इस शब्दको निरर्थक करता है ॥११३॥ जो पुरुष राजा होकर भी दुसरेके अपमानसे मलिन हुई विभूतिको धारण करता है निश्चयसे उस मनुष्यरूपी पशुके लिए यह राज्यकी समस्त सामग्री भारके समान है ॥११४॥ जिसके दाँत टूट गये हैं ऐसे हाथीके समान जो पुरुष मानभंग होनेपर प्राप्त हुए भोगोपभोगोंसे प्राण धारण करना चाहता है उस पुरुषमें और पशुमें भेद कैसे हो सकता है ? ॥११५।। जो राजा मानभंगके भारसे झुके हुए शिरको धारण करता है उसकी छायाका नाश छत्रभंग होनेके बिना ही हो जाता है। भावार्थ - यहाँ छाया शब्दके दो अर्थ हैं अनातप और कान्ति । जब छत्रभंग होता है तभी छाया अर्थात् अनातपका नाश होता है परन्तु यहाँपर छत्रभंगके बिना ही छायाके नाशका वर्णन किया गया है इसलिए विरोध मालूम होता है परन्तु छत्र भंगके बिना ही उनकी छाया अर्थात् कान्तिका 'नाश हो जाता है, ऐसा अर्थ करनेसे उसका परिहार हो जाता है ॥११६॥ जिन्होंने भोगोपभोगकी सब सामग्री छोड दी है ऐसे मनि भी जब अभिमान (आत्मगौरव) से सहित होते हैं तब फिर राज्य भोगनेकी इच्छा करनेवाला ऐसा कौन पुरुष होगा जो अभिमानको छोड़ देगा ? ॥११७॥ वनमें निवास करना अच्छा है और प्राणोंको छोड़ देना भी अच्छा है किन्तु अपने कुलका अभिमान रखनेवाले पुरुषको दूसरेको आज्ञाके अधीन रहना अच्छा नहीं है ॥११८॥ धीर वीर पुरुषोंको चाहिए कि वे इन नश्वर प्राणोंके द्वारा अभिमानकी ही रक्षा करें क्योंकि अभिमान के साथ कमाया हुआ यश इस संसारको सदा सुशोभित करता रहता है ॥११९॥ तूने जो बहुत कुछ बढ़ाकर चक्रवर्तीके पराक्रमका वर्णन किया है सो ठीक है क्योंकि तेरा यह सब कहना स्तुति निन्दामें तत्पर है अर्थात् स्तुतिरूप होकर भी निन्दाको सूचित करनेवाला है ॥१२०।। पण्डित लोग निःसार वस्तुको भी अपने वचनोंसे पुष्ट किया ही करते हैं सो ठीक ही है क्योंकि स्तुति प्रारम्भ करनेपर कुत्तेको भी सिंह कहना पड़ता है ।।१२१।। हे दूत, तेरे द्वारा कहा १ अपगतार्थ करोति । २ पार्थिवाख्याम् । ३ राजिल: । 'समौ राजिलडुण्डुभी' इत्यभिधानात् । ४ संपदम् । ५ मनुजानडुहः । ६ भेदः । ७ तेजोहानिः। ८ अभिमानान्विताः। ९ साभिमानिताम् । १० अधीनता । ११ वरं ल०. द०. अ०.५०, स०, इ० । १२ अतिक्रम्योक्तः । १३ सत्यवादः अथवा असत्यारोपमर्थवादः । १४ स्तुतिरूपोऽर्थवादो निन्दारूपोऽर्थवादश्चेति द्वये तत्परः । १५ अतिनिस्सारवस्वपि। १६ प्रारम्भितायां सत्याम् । १७ सारमेयः । १८ धनापनयन । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम 90 ។ ។ कुलभृतामपि ॥ १२७ ॥ वा बिना ||१२|| १३ बावरी' वृत्ति बलि मिश्रामिवाहरन्। जतायाः परो कोर्ट प्रभुरारोपितस्त्वया ।। १२३ ।। सत्यं दिग्विजयेची जितवानमरानिति । प्रत्येयमिदमेततु' चिम्यमत्र' ननु स्वया ।।१२४ ।। किं न दर्भशय्यायां नोपोषितोऽधरा प्रवृत्तो जलमायायां शरपातं समाचरन् ।।१२५|| कृत परिभ्रान्ति दण्डेनापतिशालिना । चटयन पायाने संकुलालायते वत ।। १२६ ।। आगः परागमातन्त्रन् स्वयमेष कलंकितः । चिरं कलंकयत्येष कुलं नृपानाको दूरान्मन्त्रैस्तप्रे योजितः । श्राप्यते कियदेतस्य रूपं दुनोतिनो भृशं वृत लाप्यतेऽस्व यदाहवः । दोलावितं जडे यस्य बलं बलैस्तदा ॥१२२॥ यशोधनमसंहार्य क्षत्रपुत्रेण रश्यताम्। निखनन्तीनिधी भूमी बहवो निधनं गताः ॥ १३० ॥ किमस्ति वा कृत्यं याम्यरनिमितां भुवम् । "न यान्ति यकृते पाप्ति केवलं निधनं नृपाः १३१ हुआ यह समस्त कार्य हम लोगोंको केवल वचनाडम्बर ही जान पड़ता है क्योंकि कहाँ तो इसका दिग्विजयका प्रारम्भ करना और कहाँ धन इकट्ठा करनेमें तत्पर होना ? || १२२ || जिस प्रकार भिक्षुक चक्र धारण कर भिक्षा मांगता हुआ अतिशय दीनताको प्राप्त होता है उसी प्रकार चक्रवर्तीको वृत्ति धारण कर भिक्षाके समान कर वसूल करता हुआ तेरा स्वामी भरत तेरे द्वारा दोनताकी परम सीमाको प्राप्त करा दिया गया है ।। १२३|| यह ठीक है कि चक्रवर्तीने दिग्विजयके समय देवोंको भी जीत लिया है परन्तु यह बात केवल विश्वास करने योग्य है अन्यथा तू यहाँ इतना तो विचार कर कि जलस्तम्भन करनेमें प्रवृत्त हुए तेरे स्वामी भरतने जब बाण छोड़ा था तब वह मेधा दर्भकी शय्यापर नहीं सोया था अथवा उसने उपवास नहीं किया था ।। १२४ - १२५ || जिस प्रकार कुम्हार आयति अर्थात् लम्बाईसे शोभायमान डण्डेके द्वारा चक्रको घुमाता हुआ पार्थिव अर्थात् मिट्टीके घट बनाता है उसी प्रकार भरत भी आयति अर्थात् सुन्दर भविष्यसे शोभायमान डण्डे ( दण्डरत्न ) से चक्र ( चक्ररत्न ) को घुमाता हुआ पार्थिव अर्थात् पृथिवीके स्वामी राजाओंको वश करता फिरता है, इसलिए कहना पड़ता है कि तुम्हारा यह राजा कुम्हारके समान आचरण करता है || १२६ ॥ वह भरत पापकी धूलिको उड़ाता हुआ स्वयं कलंकित हुआ है और कुलीन मनुष्योंके कुलको भी सदा के लिए कलंकित कर रहा है || १२७|| हे दूत, प्रयोग में लाये हुए मन्त्र तन्त्रोंके द्वारा दूरसे ही अनेक राजाओं को बुलानेवाले इस भरतका पराक्रम तू लज्जाके बिना कितना वर्णन कर रहा है ? ॥ १२८ ॥ हे दूत, जिस समय तू इसके युद्धको प्रशंसा करता है उस समय हम लोगोंको बहुत दुःख होता है क्योंकि उस समय म्लेच्छोंकी सेनाके द्वारा भरतको सेना पानी में हिंडोले झूल रही थी अर्थात् हिंडोलेके समान कँप रही थी ॥ १२९ ॥ क्षत्रियपुत्रको तो जिसे कोई हरण न कर सके ऐसे यशरूपी धनकी ही रक्षा करनी चाहिए क्योंकि इस पृथिवीमें निधियोंको भावार्थ - अमरता यशसे ही प्राप्त होती है। गाड़कर रखनेवाले अनेक लोग मर चुके हैं । ॥१३०॥ अथवा जो रत्न एक हाथ पृथिवी तक भी साथ नहीं जाते लोग केवल मृत्युको ही प्राप्त होते हैं ऐसे रत्नोंसे क्या निकल - और जिनके लिए राजा सकता है ? ॥ १३१ ॥ १८४ १४ יד १ चक्रस्येयं चाक्री सा चासौ चरी च चाक्रचरी ताम् । चक्रचरसंबन्धिनीम् । चाक्रधरीं ल०, ५०, अ०, प०, सं०, ६० २ करम् ३ परमश्कर्षम् ४ शपथे कृत्वा विश्वास्यम्। ५ वक्ष्यमाणम् ६ अमरजये । । । । । ७ समुद्रजलस्तम्भनरूपमायायाम् । ८ दण्डरत्नेन सैन्येन वा । ९ नृपान् । पृथिवीविकारांश्च । मृत्पिण्डान् । १० परागः । अपराधरेणुम् । 'पापापराधयोरागः' इत्यभिधानात् । । 'पापापराधपरागः इत्यभिधानात् ११ मनूनाम् कुलधूतामपि ८० । १२ निक्षिपन्तः १३ विनाशम् १४ हस्तप्रमिताम् 'अरत्निस्तु निष्कनिष्ठेन मुष्टिना इत्यभिधानात् । १५ गत्यन्तरगमनेन सह न यान्ति । । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व १८५ तुलापुरुष एवायं यो नाम निखिलैर्नृपैः । तुलितो रस्न पुञ्जेन बत नैश्वर्यमीदृशम् ॥१३२॥ ध्रुवं स्वगुरुणा दत्तामाचिच्छिसति नो भुवम् । प्रत्याख्येयत्वमुत्सृज्य गृनोरस्य किमौषधम् ॥१३३॥ दूत तातवितीणां नो महीमेनां कुलोचिताम् । भ्रातृजायामिवाऽऽदित्सोस्य लजा भवत्पतेः ॥१३४॥ देयमन्यत् स्वतन्त्रेण यथाकामं जिगीषुणा । मुक्त्वा कुलकलत्रं च क्ष्मातलं च भुजार्जितम् ॥१३५॥ भूयस्त दलमालप्यं स वा भुतां महीतलम् । चिरमेकातपत्राङकमहं वा भुजविक्रमी ॥१३६॥ कृतं वृथा भटालापैरर्थसिद्धिबहिष्कृतैः । सङनामनिकषे व्यक्तिः पौरुषस्य ममास्य च ॥१३७॥ ततः समरसंबट्टे यद्वा तद्वाऽस्तु नौ द्वयोः । नीरे कमिदमेकं नो वचो हर वचोहर" ॥१३८॥ इत्याविष्कृतमानेन कुमारेण वचोहरः । द्रुतं विसर्जितोऽगच्छत् पतिं सन्नाहयेत् परम् ॥१३९॥ तदा मुकुटसंबट्टादुच्छलत्मणिकोटिमिः । कृतोल मुक शतक्षेपैः इवोत्तस्थे महीशिमिः ॥१४॥ क्षणं समरसंघदृपिशुनो भटसंकटः । श्रूयते स्म भटालापो बले भुजबलीशितुः ॥१४१॥ चिरात् समरसंमर्द. स्वामिनोऽयमभूदिह । किं वयं स्वामिसत्कारादनृणीमवितुं क्षमाः ॥१४२॥ जो समस्त राजाओंके द्वारा रत्नोंकी राशिसे तोला गया है ऐसा यह भरत एक प्रकारका तुलापुरुष है खेद है कि ऐसा ऐश्वर्य नहीं होता ॥१३२। अवश्य ही वह भरत अपने पूज्य पिता श्री भगवान् वृषभदेवके द्वारा दी हुई हमारी पृथिवीको छीनना चाहता है सो इस लोभीका प्रत्याख्यान अर्थात् तिरस्कार करनेके सिवाय और कुछ उपाय नहीं है ॥१३३॥ हे दूत, पिताजीके द्वारा दी हुई यह हमारे ही कुलकी पृथिवी भरतके लिए भाईकी स्त्रीके समान है अब वह उसे ही लेना चाहता है सो तेरे ऐसे स्वामीको क्या लज्जा नहीं आती ? ॥१३४॥ जो मनुष्य स्वतन्त्र हैं और इच्छानुसार शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा रखते हैं वे अपने कुलकी स्त्रियों और भुजाओंसे कमायी हुई पृथिवीको छोड़कर बाकी सब कुछ दे सकते हैं ॥१३५॥ इसलिए बार-बार कहना व्यर्थ है, एक छत्रसे चिह्नित इस पृथिवीको वह भरत ही चिरकाल तक उपभोग करे अथवा भुजाओंमें पराक्रम रखनेवाला मैं ही उपभोग करूँ। भावार्थ-मुझे पराजित किये बिना वह इस पृथिवीका उपभोग नहीं कर सकता ॥१३६।। जो प्रयोजनकी सिद्धि से रहित हैं ऐसे शूरवीरताके इन व्यर्थ वचनोंसे क्या लाभ है ? अब तो युद्धरूपी कसौटीपर ही मेरा और भरतका पराक्रम प्रकट होना चाहिए ॥१३७।। इसलिए हे दूत, तू यह हमारा सन्देहरहित एक वचन ले जा अर्थात् जाकर भरतसे कह दे कि अब तो हम दोनोंका जो कुछ होना होगा वह युद्धकी भीड़में ही होगा ॥१३८॥ इस प्रकार अभिमान प्रकट करनेवाले कुमार बाहुबलीने उस दूतको यह कहकर शीघ्र ही बिदा कर दिया कि जा और अपने स्वामी को युद्ध के लिए. जल्दी तैयार कर ॥१३९।। उस समय जिनके मुकुटोंके संघर्षणसे करोड़ों मणि उछल-उछलकर इधरउधर पड़ रहे हैं और उन मणियोंसे जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो अग्निके सैकड़ों फुलिंगोंको ही इधर-उधर फैला रहे हों ऐसे राजा लोग उठ खड़े हुए ॥१४०॥ उसी क्षण अनेक योद्धाओंसे भरी हुई महाराज बाहुबलीकी सेनामें युद्धकी भीड़को सूचित करनेवाला योद्धा लोगोंका परस्परका आलाप सुनाई देने लगा था ॥१४१॥ इस समय स्वामीके यह युद्ध की तैयारी बहुत दिनमें हुई है, क्या अब हम लोग स्वामीके सत्कारसे उऋण (ऋणमुक्त) हो सकेंगे? भावार्थस्वामीने आजतक पालन-पोषण कर जो हम लोगोंका महान् सत्कार किया है क्या उसका बदला १ रत्नार्थम् । २ छेत्तुमिच्छति ३ निराकरणीयत्वम् । 'प्रत्याख्यातो निराकृतः' इत्यभिधानात् । हेयत्वमित्यर्थः (हेयस्वमेव औषधमित्यर्थः)। ४ लुब्धस्य । ५ अनुजकलत्रम् । ६ आदातुमिच्छोः । ७ तत् कारणात् । ८. बहुप्रलापरलम् । ९ निःसन्देहम् । १० स्वीकुरु । ११ भो दूत । १२ गच्छ पति द०, ल०, । १३ सन्नद्धं कुरु । १४ रत्नसमूहैः । १५ अलातः । १६ भटसमूहैः । २x Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् पोषयन्ति महीपाला भृत्यानवसरं प्रति । न चेदवसरः सार्यः किमेभिस्तृणमानुषैः ॥१४३॥ कलेवरमिदं त्याज्यमर्जनीयं यशोधनम् । जयश्रीविजये लभ्या नाल्पोदकर्को रणोत्सवः ॥१४४॥ मन्दातपशरच्छाये प्रत्यङ्गैर्बाणजर्जरी । लप्स्यामहे कदा नाम विश्रमं रणमण्डपे ॥१४॥ प्रत्यनीककृतानेकव्यूह निर्मिद्य सायकैः । शरशय्यामसंबाधमध्याशिष्ये कदा न्वहम् ॥१४६॥ कर्णतालानिलाधूति विधूतसमरश्रमः । गजस्कन्धे निषीदामि कदाहं क्षणमूर्छितः ॥१४७॥ दन्तिदन्ता र्गलप्रोतोद्गलदन्त्र स्खलद्वचाः । जयलक्ष्मीकटाक्षाणां कदाऽहं लक्ष्यतां भजे ॥१४८॥ गजदन्तान्तरालम्बिस्वान्त्रमालावरत्रया । कहि दोलामिवारोप्य तुलयामि जय श्रियम् ॥१४९॥ ब्रुवाणैरिति सङ्ग्रामरसिकैरुद्भटै टैः । शस्त्राणि सशिरस्त्राणि सजान्यासन् बले बले ॥१५०॥ ततः कृतभयं भूयो भटभृकुटितर्जितैः । पलायितमिव क्वाऽपि परिच्छित्तिमगादहः ॥१५१॥ अथोरुप्यद्भटानीकनेत्रच्छायार्पिता रुचम् । दधान इव तिग्मांशुगसीदारतमण्डलः ॥१५२॥ "क्षणमस्ताचलप्रस्थकाननक्ष्माजपल्लवैः । सहगालोहितच्छायो ददृशेऽकांशुसंस्तरः ॥१५३॥ हम कुछ दे सकेंगे ? ॥१४२॥ राजा लोग किसी खास अवसरके लिए हो सेवक लोगोंका पालनपोषण करते हैं, यदि वह अवसर नहीं साधा गया अर्थात् अवसर पड़नेपर स्वामीका कार्य सिद्ध नहीं किया गया तो फिर तृणसे बने हुए इन पुरुषोंसे क्या लाभ है ? भावार्थ-जो पुरुष अवसर पड़नेपर स्वामीका साथ नहीं देते वे घास-फूसके बने हुए पुरुषोंके समान सर्वथा सारहीन हैं ॥१४३।। अब यह शरीर छोड़ना चाहिए, यशरूपी धन कमाना चाहिए और विजय लाभकर जयलक्ष्मी प्राप्त करनी चाहिए, यह युद्ध का उत्सव कुछ थोड़ा फल देनेवाला नहीं है ॥१४४।। हम लोग, घावोंसे जर्जर हुए शरीरके प्रत्येक अंगोंसे, जिसमें घामको मन्द करनेवाली बाणोंकी छाया पड़ रही है ऐसे युद्धके मण्डपमें कब. विश्राम करेंगे ? ॥१४५॥ कोई कहता था कि मैं कब अपने बाणोंसे शत्रुओंकी सेनाके द्वारा किये हुए अनेक व्यूहोंको छेदकर बिना किसी उपद्रवके बाणोंको शय्यापर शयन करूँगा ॥१४६॥ कोई कहता था कि मैं कब युद्ध में क्षण-भरके लिए मूर्छित होकर हाथीके कानरूपी ताड़पत्रको वायुके चलनेसे जिसके युद्धका सब परिश्रम दूर हो गया है ऐसा होता हुआ हाथीके कन्धेपर बैलूंगा ? ॥१४७॥ हाथीके दाँतरूपी अर्गलोंमें पिरोये जानेसे जिसकी अंतड़ियाँ निकल रही हैं तथा जिसके मुखसे टूटे-फूटे शब्द निकल रहे हैं ऐसा होता हुआ मैं कब जयलक्ष्मीके कटाक्षोंका निशाना बन सकूँगा ? भावार्थ-वह दिन कब होगा जब कि मैं मरता हुआ भी विजय प्राप्त करूँगा ? ॥१४८॥ कोई कहता था कि हाथियोंके दाँतोंके बीचमें लटकती हुई अपनी अंतड़ियोंके समूहरूपी मजबूत रस्सीपर झूलाके समान विजयलक्ष्मीको बैठाकर मैं कब उसे तोलूँगा ? ॥१४९।। इस प्रकार कहते हुए युद्ध के प्रेमी बड़ेबड़े योद्धाओंने प्रत्येक सेनामें अपने-अपने शस्त्र तथा शिरकी रक्षा करनेवाली टोपियाँ संभाल लीं ॥१५॥ तदनन्तर दिन समाप्त हो गया सो ऐसा मालूम होता था मानो योद्धाओंको भौंहोंके तिरस्कारसे भयभीत होकर कहीं भाग ही गया हो ॥१५१॥ अथानन्तर सूर्यका मण्डल लाल हो गया मानो उसने क्रोधित हुए योद्धाओंकी सेनाके नेत्रोंकी छायाके द्वारा दी हुई लाल कान्ति ही धारण को हो ॥१५२॥ उस समय क्षण-भरके लिए सूर्यको किरणोंका समूह अस्ताचल १न गम्यश्चेत् । २ विश्राम ल०, द०, अ०, १०, स०।३ शत्रुकृतसेनारचनाम् । ४ अवधूनन । ५ निषण्णो भवामि । 'कदाकोर्वा' इति भविष्यदर्थे लट् । ६ परिघ । ७-तोदगलदस्र-ट० । निर्यद्रक्तः । ८ निजपुरीतद्मालदूष्यया। 'दूष्या कक्ष्या वरत्रा स्याद्' इत्यभिधानात् । ९ कदा। १० विनाशम् । ११ दिवसः । १२ अथारुष्य-ल० । १३ सानु । १४ रविकिरणसमूहः । गामि दूष्यासानु" Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व करगिर्यग्रसंलग्नः भानुरालक्ष्यत क्षणम् । पातमीत्या करालाः ' करालम्बमिवाश्रयन् ॥१५४॥ पतन्तं वारुणी संगत् परिलुप्तविभावसुम् । नालम्बत बतास्ताविर्भानुं विभ्यदिवैनसः ॥१५५॥ गतो नु दिनमन्वेष्टुं प्रविष्टो नु रसातलम् । तिरोहितो न शृङगारस्ताक्षि भानुमान् ॥१५६॥ विक्टय्य तमो नैशं करतक्रम्य भूभृतः । दिनावसा ने पर्यास्थदहो° रविरनंशुकः ॥१५७॥ तिर्यमण्डलगत्यैव शश्वद् भानुरयं भ्रमन् । ''विप्रकर्षाज्जनैर्मूढेरग्राहीव पतन्नधः ॥१५८॥ व्यसनेऽस्मिन् दिनेशस्य शुचेय परिपीडिताः । विच्छायानि मुखान्यूहु स्तमोरुद्धा दिगगनाः॥१५९॥॥ के शिखरपर लगे हुए वनके वृक्षोंकी कोपलोंके समान कुछ-कुछ लाल रंगका दिखाई दे रहा । उस समय वह सूर्य अस्ताचलके शिखरपर लगे हुए किरणोंसे क्षण-भरके लिए ऐसा जान पड़ता था मानो नीचे गिरनेके भयसे अपने किरणरूपी हाथोंसे किसीके हाथका सहारा ही ले रहा हो ।।१५४।। जो सूर्य वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा ( पक्षमें मदिरा ) के समागमसे पतित हो रहा है और जिसका कान्तिरूपी धन नष्ट हो गया है ऐसे सूर्यको मानो पापसे डरते हुए ही अस्ताचलने आलम्बन नहीं दिया था। भावार्थ - वारुणी शब्दके दो अर्थ होते हैं मदिर और पश्चिम दिशा। पश्चिम दिशामें पहुँचकर सूर्य प्राकृतिक रूपसे नीचेकी ओर ढलने लगता है। यहाँ कविने इसी प्राकृतिक दृश्यमें श्लेषमूलक उत्प्रेक्षा अलंकारको पुट देकर उसे और भी सुन्दर बना दिया है। वारुणी अर्थात् मदिराके समागमसे मनुष्य अपवित्र हो जाता है उसका स्पर्श करना भी पाप समझा जाने लगता है, सूर्य भी वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा ( पक्षमें मदिरा ) के समागमसे मानो अपवित्र हो गया था। उसका स्पर्श करनेसे कहीं मैं भी पापी न हो जाऊँ इस भयसे अस्ताचलने उसे सहारा नहीं दिया – गिरते हुएको हस्तालम्बन देकर गिरनेसे नहीं बचाया । सूर्य डूब गया ।।१५५॥ उस समय सूर्य दिखाई नहीं देता था सो ऐसा जान पड़ता था मानो बीते हुए दिनको खोजनेके लिए गया हो, अथवा पाताललोकमें घुस गया हो अथवा अस्ताचलके शिखरोंके अग्रभागसे छिप गया हो ॥१५६॥ जिस प्रकार कोई वीर पुरुष दारिद्रयरूपी अन्धकारको नष्ट कर और अपने कर अर्थात् टैक्स-द्वारा भूभृत् अर्थात् राजाओंपर आक्रमण कर दिन अर्थात् भाग्यके अन्तमें अनंशुक अर्थात् बिना वस्त्रके यों ही चला जाता है उसी प्रकार सूर्य रात्रिसम्बन्धी अन्धकारको नष्ट कर तथा कर अर्थात् किरणोंसे भूभृत् अर्थात् पर्वतोपर आक्रमण कर दिनके अन्तमें अनंशुक अर्थात् किरणोंके बिना यों ही चला गया - अस्त हो गया, यह कितने दुःखकी बात है। ॥१५७।। यह सूर्य तो मेरु पर्वतके चारों ओर गोलाकार तिरछी गतिसे निरन्तर घूमता रहता है तथापि दूर होनेसे दिखाई नहीं देता इसलिए मूर्ख पुरुषोंको नीचे गिरता हुआ-सा जान पड़ता है ॥१५८॥ सूर्यकी इस विपत्तिके समय मानो शोकसे पीड़ित हुई दिशारूपी स्त्रियाँ अन्धकारसे भर जानेके कारण कान्तिरहित मुख धारण कर रही थीं। भावार्थ - पतिको विपत्तिके समय जिस प्रकार कुलवती स्त्रियोंके मुख शोकसे कान्तिहीन हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्यको विपत्तिके समय दिशारूपी स्त्रियोंके मख शोकसे कान्तिहीन हो गये थे। अन्धकार छा जानेसे दिशाओंकी १ विस्तृताः । 'करालो दन्तुरे तुझं विशाले विकृतेऽपि च' इत्यभिधानात् । २ वरुणसंबन्धिदिक्संगात् । मद्यसंगादिति ध्वनिः । ३ कान्तिरेव धनं यस्य । पक्षे विभा च वसु च विभावसुनो, परिप्लुते विभावसुनी यस्य तम् । ४ न धरति स्म । ५ पापात् । ६ गवेषणाय । ७ निशासंबन्धि । ८ पर्वतानाम् । नूगंश्च । ९ दिवसान्ते । भाग्यावसाने ज। दिवाव - ल०, द०। १० पतितवान् । ११ कान्तिरहितः, वस्त्ररहित इति ध्वनिः । १२ मेरुप्रदक्षिणरूपतिर्यबिम्वगमनेन। १३ दूरात् । १४ स्वीकृतः । १५ विपदि । १६ पन्तः । १२साने न। पापात् ।। पोच' इत्यभि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ आदिपुराणम् पद्मिन्यो म्लानपद्मास्या द्विर फकरणामतः । शोचन्त्य इव संवृत्ता वियोगादहिमविपः ॥१६०॥ संध्यातपततान्यासन वनान्यस्तमहीभृतः । परीतानीव दावाग्निशिग्वयानिकरालया॥१६॥ अनुरक्तापि संध्ययं परित्यक्ता विवस्वता। प्रविष्टेवाग्निमारकच्छविरालश्यताम्ब ॥५६२।। शनैराकाशवाराशिबिमोद्यानराजिवत । रुरुचे दिशि वारुण्यां संध्याम्मिन्दरमच्छविः ॥ १६३॥ चक्रव कीमनस्तापदीपनो' नु हुताशनः । पप्रथे पश्चिमाशान्त संध्यारागी जपारणः ॥१६॥ सांध्या रागः स्फुरन् दिक्षु क्षणमंक्षि प्रियागमे । मानिनीनां मनोरागः कृत्स्ना मूर्छन्निकतः ॥१६५॥ धृतरतांशुकां संध्यामनुयान्ती दिनाधिपम् । बहुमने सती लोकः कृतानुमरामिव ॥१६॥ चक्रशकी तोकण्ठमनुयान्तीं कृतस्वनाम् । विजहावेव चक्राहां नियति को नु लङ्घयेत् ॥१६॥ रवेः किमपराधोऽयं कालस्य नियतः किमु । रथाङ्गमिथुनान्यासन वियुक्तानि यती मिथः ॥१६८॥ घनं तमो विनार्केण व्यानशे निखिला दिशः । विना तेजस्विना प्रायस्तमो रुन्धे नु संततम् ॥१६९॥ तमो ऽवगुण्ठिता रजे रजनी तारकातता । विनीलवसना भास्वन्मोक्केिवाभिसारिका ॥१७॥ शोभा जाती रही थी॥१५९।। कमलिनियोंके कमलरूपी मुख मुरझा गये थे जिससे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो सूर्यका वियोग होनेसे भ्रमरोंके करुणाजनक शब्दोंके बहाने रुदन करती हुई शोक हो कर रही हों ॥१६०।। सायंकालके लाल-लाल प्रकाशसे व्याप्त हुए अस्ताचलके वन ऐसे जान पड़ते थे मानो अत्यन्त भयंकर दावानलकी शिखासे ही घिर गये हों,॥१६१।। यद्यपि यह सन्ध्या अनुरक्त अर्थात् प्रेम करनेवाली ( पक्षमें लाल ) थी तथापि सूर्यने उसे छोड़ दिया था इसलिए ही वह लाल रंगकी सन्ध्या आकाशमें ऐसी जान पड़ती थी मानो उसने अग्निमें ही प्रवेश किया हो। भावार्थ - पतिव्रता स्त्रियाँ पतियोंके द्वारा अपमानित होनेपर अपनी विशुद्धताका परिचय देनेके लिए सीताके समान अग्निमें प्रवेश करती हैं यहाँपर कविने भी समासोक्ति अलंकारका आश्रय लेकर सन्ध्यारूपी स्त्रीको सूर्यरूपी पतिके द्वारा अपमानित होनेपर अपनी विशुद्धता - सच्चरित्रताका परिचय देनेके लिए सन्ध्या कालकी लालिमा रूपी अग्निमें प्रवेश कराया है ॥१६२॥ सिन्दूरके समान श्रेष्ठ कान्तिको धारण करनेवाली वह सन्ध्या धीरे-धीरे पश्चिम दिशामें ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो आकाशरूपी समुद्रमें मँगोंके बगीचोंकी पंक्ति ही हो ॥१६३॥ जवाके फलके समान लाल-लाल वह सन्ध्याकालकी लाली पश्चिम दिशाके अन्तमें ऐसी फैल रही थी मानो चकवियोंके मनके सन्तापको बढ़ानेवाली अग्नि ही हो ॥१६४॥ समस्त दिशाओंमें फैलती हुई सन्ध्याकालकी लाली क्षण-भरके लिए ऐसी दिखाई देती थी मानो पतियोंके आनेपर मान करनेवाली स्त्रियोंके मनका समस्त अनुराग ही एक जगह इकट्ठा हुआ हो ।।१६५॥ लाल किरणरूपी वस्त्र धारण कर सूर्यरूपी पतिके पीछे-पीछे जाती हुई सन्ध्याको लोग पतिके साथ मरनेवाली सतीके समान बहुत कुछ मानते थे ॥१६६॥ चकवाने बड़ी उत्कण्ठासे अपने पीछे-पीछे आती हुई और शब्द करती हुई चकवीको आखिर छोड़ ही दिया था सो ठीक ही है क्योंकि नियति अर्थात दैविक नियमका उल्लंघन कौन कर सकता है ? ॥१६७।। उस समय चकवा चकवियोंके जोड़े परस्परमें बिछुड़ गये थे - अलग-अलग हो गये थे, सो यह क्या सूर्यका अपराध है ? अथवा कालका अपराध है ? अथवा भाग्यका ही अपराध है ? ॥१६८॥ सूर्यके बिना सब दिशाओं में गाढ़ अन्धकार फैल गया था सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वीके बिना प्रायः सब ओर अन्धकार ही भर जाता है ॥१६९।। अन्धकारसे घिरी हुई और ताराओंसे व्याप्त हुई वह रात्रि ऐसी सुशोभित हो रही १ उद्दीपनकारी। २ संध्यारागः ल०, द०। ३ प्रसर्पन् । ४ सममरणाम् । अग्निप्रवेशं कुर्वतीमित्यर्थः । ५ मुमुचे । ६ चक्राङ्को ल०, द०, अ०, स०, इ० । ७ व्याप्नोति । ८ तमसाच्छादिता । ९ वेश्या । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व १८१ ततान्धतमसे लोकं जनैरुन्मीलितक्षणः । नादृश्यत पुरः किंचिन् मिथ्यात्वेनैव दृषितैः ॥१७१॥ प्रसह्य तमसा रुद्वा लोकाऽन्ताकुलीभवन् । दृष्टिवैपाल्य दृष्टर्नु बहु मंने शयालुताम् ॥१७२॥ दीपिका रचिता रेजुः प्रतिवेश्म स्फुरत्विषः । घनान्धतमसो दे प्रकलुप्ता इव सूचिकाः ॥१३॥ तमो विधूय दृरेण जगदानन्दिभिः करः । उदियाय शशी लोकं शीरण क्षालयन्निव ॥१७॥ अखण्डमनुरागंण निजं मण्डलमुहहन् । सुराजेव कृतानन्दमुदगाद् विधुरुत्करः ॥१७५॥ दृष्ट्वाकृष्टहरिणं हरिं हरिणलान्छनम् । तिमिरोघः प्रदुद्राव करियूथसग महान् ॥१७६॥ तततारावली रंजे ज्योत्स्नापूरः सुधाछवेः । सबुबुद इबाकाश सिन्धोरोधः परिक्षरन् ॥१७७॥ हंसपोत इवान्विच्छन् शशी तिमिरशैवलम् । तारा सहचरीक्रान्तं विजगाहे नभःसरः ॥१७८॥ तमा निःशेषमुद्ध्य जगदाप्लावयन् करैः । प्रालेयांशुस्तदा विश्वं सुधामयमिवातनोत् ॥१७६॥ तमो दूरं विधूयाऽपि विधुरासीत् कलङ्कवान् । निसर्गजं तमो नूनं महताऽपि सुदुस्त्यजम् ॥१८०॥ थी मानो नील वस्त्र पहने हुई और चमकीले मोतियोंके आभूषण धारण किये हुई कोई अभिसारिणी स्त्री ही हो ।।१७०॥ जिस प्रकार मिथ्या दर्शनसे दूषित पुरुषोंको कुछ भी दिखाई नहीं देता - पदार्थके स्वरूपका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार गाढ़ अन्धकारसे भरे हुए लोकमें पुरुपोंको आँख खोलनेपर भी सामनेकी कुछ भी वस्तु दिखाई नहीं देती थी ॥१७१॥ जबरदस्ती अन्धकारसे घिरे हुए लोग भीतर ही भीतर व्याकुल हो रहे थे और उनकी दृष्टि भी कुछ काम नहीं देती थी इसलिए उन्होंने सोना ही अच्छा समझा था ।।१७२॥ घर-घरमें लगाये हुए प्रकाशमान दीपक ऐसे अच्छे सुशोभित हो रहे थे मानो अत्यन्त गाढ़ अन्धकारको भेदन करनेके लिए बहुत-सी सुइयाँ ही तैयार की गयी हों ।।१७३।। इतने ही में जगत्को आनन्दित करनेवाली किरणोंसे अन्धकारको दूरसे ही नष्ट कर चन्द्रमा इस प्रकार उदय हुआ मानो लोकको दूधसे नहला ही रहा हो ॥१७४।। वह चन्द्रमा किसी उत्तम राजाके समान संसारको आनन्दित करता हुआ उदय हुआ था, क्योंकि जिस प्रकार उत्तम राजा अनुराग अर्थात् प्रेमसे अपने अखण्ड ( सम्पूर्ण ) मण्डल अर्थात् देशको धारण करता है उसी प्रकार वह चन्द्रमा भी अनुराग अर्थात् लालिमासे अपने अखण्डमण्डल अर्थात् प्रतिबिम्बको धारण कर रहा था और उत्तम राजा जिस प्रकार चारों ओर अपना कर अर्थात् टैक्स फैलाता है उसी प्रकार वह चन्द्रमा भी चारों ओर अपने कर अर्थात् किरणें फैला रहा था ।।१७५॥ हरिणके चिह्नवाले चन्द्रमाको देखकर अन्धकारका समूह बड़ा होनेपर भी इस प्रकार भाग गया था जिस प्रकार कि हरिणको पकड़े हुए सिंहको देखकर हाथियोंका बड़ा भारी झुण्ड भाग जाता है ।।१७६।। जिसमें ताराओंकी पङ्क्ति फैली हुई है ऐसा चन्द्रमाकी चाँदनीका समूह उस समय ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो बुद्दोंसहित ऊपरसे पड़ता हुआ आकाशरूपी समुद्र का प्रवाह ही हो ॥१७७।। हंसके बच्चेके समान वह चन्द्रमा अन्धकाररूपी शैवालको खोजता हुआ तारेरूपी हंसियोंसे भरे हुए आकाशरूपी सरोवरमें अवगाहन कर रहा था - इधर-उधर घूम रहा था ।।१७८।। समस्त अन्धकारको नष्ट कर जगतको किरणोंसे भरते हए चन्द्रमाने उस समय यह समस्त संसार अमृतमय बना दिया था ॥१७९॥ अन्धकारको दूर करके भी वह चन्द्रमा कलंकी बन रहा था सो ठीक ही है क्योंकि स्वाभाविक अन्धकार बड़े पुरुषोंसे छूटना १ हठात् । २ नेत्रविफलत्वदर्शनात् । ३ शयनशीलताम् । ४ घनावतमसोद्देदे ट० । निविडान्धकारभेदने । ५ कृताः । ६ इवान्विष्टान् ल०, द०, प० । ७ विवेश । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आदिपुराणम् भिवजेव करैः स्पृष्टा दिशस्तिमिरभेदिभिः । शनैदृश इवालोकमातेनुः शिशिरत्विषा ॥१८१॥ इति प्रदोषसमये जाते प्रस्पष्टतारके । सौधोत्संगभुवो भेजुः पुरन्ध्र यः सह कामिभिः ॥१८२॥ चन्दनद्रवसिक्ताङ्ग यः स्रग्विण्यः सावतंसिकाः । लसदाभरणा रेजुस्तन्व्यः कल्पलता इव ॥१८३॥ इन्सुपादैः समुत्कर्षमगान्मकरकेतनः । तदोदन्वानिवोढेलो मनोवृत्तिषु कामिनाम् ॥१८४॥ रमणा' रमणीयाश्च चन्द्रपादाः सचन्दनाः । मदांश्च मदनारम्भमातन्वन् रमणीजने ॥१८५॥ शशाङ्ककरजैत्रास्वैस्तर्जयन्निखिलं जगत् । नृपवल्लभिकावासान्मनोभूरभ्यषेणयन् ॥१८६॥ नास्वादि मदिरा स्वैरं नाज न करऽपिता। केवलं मदनावेशात्तरुण्यो भेजुरुकताम् ॥१८७॥ उत्संगसंगिनी भर्तुः काचिन्मदविधूर्णिता । कामिनी मोहनास्त्रेण बतानङ्गेन तर्जिता ॥१८८॥ सखीवचनमुल्लङ्घय भङ्क्त्वा मानं निरर्गला । प्रयान्ती रमणावासं काप्यनङ्गेन धीरिता ॥१८९॥ शंफलीवचनैर्दूना काचित् पर्यश्रुलोचना । चक्राढेव भृशं तेपे नायाति प्राणवल्लभे ॥ १९०॥ शून्यगानस्वनैः स्त्रीणामलिज्याकलझंकृतैः । पूर्वरंगमिवानङ्गो रचयामास कामिनाम् ॥११॥ भी कठिन है ॥१८०॥ जिस प्रकार वैद्यके द्वारा तिमिर रोगको नष्ट करनेवाले हाथोंसे स्पर्श की हुई आँखें धीरे-धीरे अपना प्रकाश फैलाने लगतो हैं उसी प्रकार चन्द्रमाके द्वारा अन्धकारको नष्ट करनेवाली किरणोंसे स्पर्श की हुई दिशाएँ धीरे-धीरे अपना प्रकाश फैलाने लगी थीं ॥१८१॥ इस प्रकार जिसमें तारागण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं ऐसा सायंकालका समय होनेपर सब स्त्रियाँ अपने-अपने पतियोंके साथ महलोंकी छतोंपर जा पहुंचीं ॥१८२॥ जिनके समस्त शरीरपर घिसे हुए चन्दनका लेप लगा हुआ है, जो मालाएँ धारण किये हुई हैं, कानोंमें आभूषण पहने हैं और जिनके समस्त आभरण देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसी वे स्त्रियाँ कल्पलताओंके समान सुशोभित हो रही थीं ॥१८३॥ उस समय चन्द्रमाकी किरणोंसे जिस प्रकार समुद्र लहराता हुआ वृद्धिको प्राप्त होने लगता है उसी प्रकार कामी मनुष्योंके मनमें काम उद्वेलित होता हुआ बढ़ रहा था ॥१८४|| सुन्दर पति, चन्द्रमाकी किरणें और चन्दन सहित मद ये सब मिलकर स्त्रियोंमें कामकी उत्पत्ति कर रहे थे ॥१८५॥ चन्द्रमाकी किरणेंरूपी विजयी शस्त्रोंके द्वारा समस्त जगत्को तिरस्कृत करता हुआ कामदेव राजाकी स्त्रियोंके निवासस्थानमें भी सेनासहित जा पहुँचा था ॥१८६॥ तरुण स्त्रियोंने न तो मदिराका स्वाद लिया, न इच्छानुसार उसे सूंघा और न हाथमें ही लिया, केवल कामदेवके आवेशसे ही उत्कण्ठाको प्राप्त हो गयीं, अर्थात् कामसे विह्वल हो उठीं ॥१८७॥ पतिकी गोदमें बैठी हुई और मदसे झूमती हुई कोई स्त्री कामदेवके द्वारा मोहन अस्त्रसे ताड़ित की गयी थी ॥१८८॥ कामदेवसे प्रेरित हुई कोई स्त्री सखीके वचन उल्लंघन कर तथा मान छोड़कर स्वतन्त्र हो अपने पतिके निवासस्थानको जा रही थी ॥१८९॥ कोई स्त्री पतिके न आनेपर वापस लौटी हुई दूतीके वचनोंसे दुःखी होकर आँखोंसे आँसू छोड़ रही थी और चकवीके समान अत्यन्त विह्वल हो रही थी - तड़प रही थी ॥१९०॥ शून्य हृदयसे गाये हुए स्त्रियोंके सुन्दर गीतोंसे तथा भ्रमरपंक्तिके मनोहर झंकारोंसे कामदेव कामी पुरुषोंके लिए पूर्वरंग अर्थात् नाटकके प्रारम्भमें होनेवाला एक अंग विशेष ही मानो बना रहा था। भावार्थ - उस समय स्त्रियाँ पतियोंकी प्राप्तिके लिए बेसुध होकर गा रही थीं और उड़ते हुए भ्रमरोंकी गुंजार फैल रही थी जिससे ऐसा मालूम होता था मानो कामदेवरूपी नट कामक्रीड़ारूप नाटकके पहले होनेवाले संगीत विशेष ही दिखला रहा हो । नाटकके पहले जो मंगल-संगीत होता है उसे पूर्वरंग कहते हैं ॥१९१॥ १ मालभारिणः । २ प्रियतमाः । ३ मदाश्च ल०। ४ सेनया सहाभ्यगमयन् । ५ उत्कण्ठताम् । ६ प्रतिबन्धरहिता। ७ धैर्य नोता। ८ चित्तसंमोहनहेतुगीतविशेषः। ९ कलध्वनिभेदैः । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तम पर्व 'गोत्रस्खलनसंवृद्ध मन्युमन्यामनन्यजः' । नोपैक्षिष्ट प्रियोत्संगमनयन्नवसंगताम् ॥१९२॥ नेन्दुपादेति लेभे नोशी रैन जलाईया । खण्डिता मानिनी काचिदन्तस्तापे बलीयसि ॥१९३॥ काचिदुत्तापिमिर्बाणैस्तापिताऽपि मनोभुवा । नितम्बिनी प्रतीकारं नैच्छद्धैर्यावलम्बिनी ॥१९४॥ अनुरक्ततया दूरं नीतया प्रणयोचिताम् । भूमि यूनाऽन्यया सोढः संदेशः परुषाक्षरः ॥१९५॥ आलि त्वं नालिक' ब्रूहि गतः किन्नु विलक्षताम् । प्रियानामा क्षरैः क्षीणैः मोहान्मय्यवतारितैः ॥ यथा तव हृतं चेतस्तया लज्जाऽप्यहारि किम् । येन निस्वप भूयोऽपि प्रणयोऽस्मामु तन्यते ॥१९७॥ सैवानुवर्तनीयो ते सुभगं मन्यमानिनी । अस्थाने योजिता प्रीतिर्जायतेऽनुशयाय ते ॥१९८॥ इति प्राणप्रियां कांचित् संदिशन्तीं सखीजने । युवा सादरमभ्येत्य नानुनिन्ये न मानिनीम् ॥१९९॥ चन्द्रपादास्तपन्तीव चन्दनं दहतीव माम् । संधुक्ष्यत इवाऽमीभिः कामाग्नियंजनानिलैः ॥२०॥ गोत्रस्खलन अर्थात् भूलसे किसी दूसरी स्त्रीका नाम ले देनेसे जिसका क्रोध बढ़ रहा है ऐसी किसी अन्य नवीन ब्याही हुई स्त्रीको भी कामदेवने उपेक्षा नहीं की थी किन्तु उसे भी पतिके समीप पहुँचा दिया था। भावार्थ-प्रौढ़ा स्त्रियोंकी अपेक्षा नवोढ़ा स्त्रियों में अधिक मान और लज्जा रहा करती है परन्तु उस चन्द्रोदयके समय वे भी कामसे उन्मत्त हो सब मान और लज्जा भूलकर पतियों के पास जा पहुंची थीं ॥१९२।। जिस किसी स्त्रीका पति वचन देकर भी अन्य स्त्रीके पास चला गया था ऐसी अभिमानिनी खण्डिता स्त्रीके मनका सन्ताप इतना अधिक बढ़ गया था कि उसे न तो चन्द्रमाकी किरणोंसे सन्तोष मिलता था, न उशोर (खस) से और न पंखेसे ही ॥१९३॥ धीरज धारण करनेवाली कोई स्त्री कामदेवके द्वारा अत्यन्त पोड़ा देनेवाले बाणोंसे दुःखी होकर भी उसका प्रतीकार नहीं करना चाहती थी । भावार्थअपने धैर्यगुणसे कामपीड़ाको चुपचाप सहन कर रही थी ॥१९४॥ कोई तरुण पुरुष प्रेमसे भरी हुई अपनी अन्य स्त्रीको प्रेम करने योग्य किसी दूर स्थानमें ले गया था, वहाँ वह उसके कठोर अक्षरोंसे भरे हुए सन्देशको चुपचाप सहन कर रही थी ॥१९५।। कोई स्त्री अपनी सखीसे कह रही थी कि हे सखि, सच कह कि क्या वह भ्रमसे मेरे विषयमें कहे हुए और अत्यन्त क्षीण अपनी प्रियाके नामके अक्षरोंसे कुछ चकित हुआ था ? ॥१९६।। कोई स्त्री अपने अपराधी पतिसे कह रही थी कि हे निर्लज्ज, जिसने तेरा चित्त हरण किया है क्या उसने तेरी लज्जा भी छीन ली है ? क्योंकि तू फिर भी मुझपर प्रेम करना चाहता है ॥१९७॥ कोई स्त्री पतिको ताना दे रही थी कि आप अपने आपको बड़ा सौभाग्यशाली समझते हैं इसलिए जाइए उसी मान करनेवाली स्त्रीकी सेवा कीजिए क्योंकि अयोग्य स्थानमें की गयी प्रीति आपके सन्तापके लिए ही होगी । भावार्थ-मुझसे प्रेम करनेपर आपको सन्ताप होगा इसलिए अपनी उसी प्रेयसीके पास जाइए ॥१९८॥ इस प्रकार सखियोंके लिए सन्देश देती हुई किसी अहंकार करनेवाली प्यारी स्त्रीको उसका तरुण पति आकर बड़े आदरके साथ नहीं मना रहा था क्या ? अर्थात् अवश्य ही मना रहा था ॥१९९॥ कोई स्त्री अपनी सखीसे कह रही थी कि ये चन्द्रमाकी किरणें मुझे सन्ताप दे रही हैं, यह चन्दन जला-सा रहा है और यह पंखोंकी हवा मेरी कामाग्निको बढ़ा १ नामस्खलन । २.प्रवृद्धक्रोधाम् । ३ कामः । ४ नववधूमित्यर्थः । ५ लामज्जकैः । 'मूलेऽस्योशीरमस्त्रियाम् । "अभयं नलदं सेव्यममृणालं जलाशयम् । लामज्जकं लघुलयमवदाहेष्टकापथे।" इत्यभिधानात् । ६ व्यजनेन । ७ वियुक्ता। ८ संधानम् ( शय्यागृहम् ) । ९ वाचिकम् । १० भो सखि । ११ अनृतम् । १२ विस्मयान्विताम् । १३ दिव्यैः । १४ निर्लज्ज । १५ अहं सुभगेति मन्यमाना रामा। १६ पश्चात्तापाय । १७ तव । १८ संजल्पन्तीम । वचनं प्रेषयन्तीम् । १९ न्येऽथ ल०, द.। अनुनय नाकरोदिति न । ( अपि तु करोत्येव)। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ आदिपुराणम् तमानयानुनीयेह नय मां वा तदन्तिकम् । त्वदधीना मम प्राणाः प्राणेशे बहुवल्लभे ॥२०॥ इत्यनङ्गातुरा काचित् संदिशन्ती सखीं मिथः । भुजोपरोधमाश्लेषि पत्या प्रत्याखण्डिता ॥२०॥ राज्ये मनोभवस्यास्मिन् स्वैरं रंरम्यतामिति । कामिनीकलकांचीभिरुदघोषीव घोषणा ॥२०३॥ कर्णोत्पलनिलीनालिकुलकोलाहलस्वनैः । उपजेपे किमु स्त्रीणां कर्णजाहे मनोभुवा ॥२०॥ स्तनाङ्गरागसंमदर्दी परिरम्भोऽतिनिर्दयः । ववृधे कामिवृन्देषु रभसश्च कचग्रहः ॥२०५॥ आरक्तकलुषा दृष्टिमुखमापाटलाधरम् । रतान्ते कामिनामासीत् सीत्कृतं वाऽसकृत्कृतम् ॥२०६॥ पुष्पसंमर्दसुरभीरास्रस्तजघनांशुकाम् । संभोगावसतौ शय्या मिथुनान्यधिशेरत ॥२०७ ॥ कैश्चिद् वीरभटै विरणारम्मकृतोत्सवैः । प्रियोपरोधान्मन्देच्छैरप्यासेवि रतोत्सवः ॥२०॥ केचित् कीर्त्यङ्गनासंगमुखसंगकृतस्पृहाः । प्रियाङ्गनापरिष्वङ्गमङ्गीचक्रुर्न मानिनः ॥२०६॥ निर्जितारिभटै ग्या प्रिया मास्मामि रन्यथा । इति जातिभटाः केचिन्न भेजें शयनान्यपि ॥२०॥ शरतल्पगतानल्पसुखसंकल्पतः परे । नाभ्यनन्दन् प्रियातल्लमनल्पेच्छा भटोत्तमाः ॥२११॥ स्वकामिन भिरारब्धवीरालापैटैः परैः । विभावरी विभाताऽपि सा नावेदि रणोन्मुखैः ॥२२॥ सी रही है ॥२००। इसलिए मनाकर या तो उन्हें यहाँ ले आ या मुझे ही उनके पास ले चल, यह ठीक है कि प्राणपतिके अनेक स्त्रियाँ हैं इसलिए उन्हें मेरी परवाह नहीं है किन्तु मेरे प्राण तो उन्हींके अधीन हैं ॥२०१॥ इस प्रकार कामदेवसे पीड़ित होकर कोई स्त्री अपनी सखीसे सन्देश कह ही रही थी कि इतने में उस नवीन विरहिणी स्त्रीको पास ही छिपे हुए उसके पतिने दोनों भुजाओंसे पकड़कर परस्पर आलिंगन किया ॥२०२॥ उस समय मनोहर शब्द करती हुई स्त्रियोंकी करधनियाँ मानो यही घोषणा कर रही थीं कि आप लोग कामदेवके इस राज्य में इच्छानुसार क्रीड़ा करो ॥२०३।। उन स्त्रियोंके कर्णफूलके कमलोंमें छिपे हुए भ्रमरोंके समूह कोलाहल कर रहे थे और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेव स्त्रियोंके कानोंके समीप लगकर कुछ गुप्त बातें ही कर रहा हो ॥२०४।। उस समय कामी लोगोंके समूहमें स्त्रियोंके स्तनोंपर लगे हुए लेपको मर्दन करनेवाला और अत्यन्त निर्दय आलिंगन बढ़ रहा था तथा वेगपूर्वक केशोंकी पकड़ा-पकड़ी भी बढ़ रही थी ॥२०५॥ सम्भोगके बाद कामी लोगोंके नेत्र कुछ-कुछ लाल और कलुषित हो गये थे, मुख कुछ-कुछ गुलाबी अधरोंसे युक्त हो गया था तथा उससे सी-सी शब्द भी बार-बार हो रहा था ॥२०६॥ सम्भोग-क्रियाके समाप्त होनेपर स्त्री और पुरुष दोनों ही उन शय्याओंपर सो गये जो कि फूलोंके सम्मर्दसे सुगन्धित हो रही थीं और जिनपर खुलकर अधोवस्त्र पड़े हुए थे ॥२०७॥ जिन्हें होनेवाले युद्धके प्रारम्भमें बड़ा आनन्द आ रहा था ऐसे कितने ही शूरवीर योद्धाओंने इच्छा न रहते हुए भी अपनी प्यारी स्त्रियोंके आग्रहसे सम्भोग सुखका अनुभव किया था ॥२०८। कीर्तिरूपी स्त्रीके समागमसे उत्पन्न होनेवाले सुखमें जिनकी इच्छा लग रही है ऐसे कितने ही मानो योद्धाओंने अपनी प्यारी स्त्रियोंका आलिंगन स्वीकार नहीं किया था ॥२०९॥ 'जब हम लोग शत्रुके योद्धाओंको जीत लेंगे तभी प्रियाका उपभोग करेंगे अन्यथा नहीं' ऐसी प्रतिज्ञा कर कितने ही स्वाभाविक शूरवीर शय्याओंपर ही नहीं गये थे ॥२१०॥ बड़ी-बड़ो इच्छाओंको धारण करनेवाले कितने ही उत्तम शूरवीरोंने बाणोंकी शय्यापर सोनेसे प्राप्त हुए भारी सुखका संकल्प किया था इसलिए ही उन्होंने प्यारी स्त्रियोंकी शय्यापर सोना अच्छा नहीं समझा था ॥२११॥ जिन्होंने अपनी स्त्रियोंके साथ अनेक शूरवीरोंकी कथाएँ कहना प्रारम्भ किया है ऐसे युद्धके १ बहुस्त्रीके सति । २ रहसि । ३ नूतनवियुक्ता। ४ रहो बभाषे। भेदकुमन्त्रः सूचितः । ५ कर्णमूले । ६ ईषदरुण । ७ सुरतावसाने । नास्माभि-ल०, द०, अ०, ५०, स०, इ० । ९ प्रभातापि । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व केचिद्रणरसासक्तमनसोऽपि पुरः स्थितम् । कान्तासंगरसं स्वैरं भेजुः समरसा भटाः ॥२१३॥ प्रहारकर्कशो दष्टदशनच्छदनिष्ठुरः । रतारम्भो रणारम्भनिर्विशेषो न्यषेवि तैः ॥२१४॥ रतानुवर्तनै ढपरिरम्भर्मुखार्पणैः । मनांसि कामिनां जहः कामिन्यस्ताः स्मरातुराः ॥२१५॥ गर्द्धवीक्षितैः सान्त समन्मनजल्पितः । अकाण्डरुषितैश्चण्डैर्विवृतैरसमभ्रुभिः ॥२१६॥ तासामकृतकस्नेहगर्भः कृतककैतवैः । रसिकोऽभूद रतारम्भः संभोगान्तेषु कामिनाम् ॥२१७॥ तेषां निधुवनारम्भमतिभू भिगतं तदा । संद्रष्टुमसहन्तीव पर्यवर्तत सा निशा ॥२१८॥ अलं बत चिरं रत्वा दम्पती ताम्यथो युवाम् । लम्बितेन्दुमुखी तस्थौ इतीवापरदिग्वधूः ॥२१॥ विघटय्य रथाङ्गानां मिथुनानि मिथोंऽशुमान् । तापेन तत्कृतेनेव परितोऽभ्युदियाय सः ॥२२०॥ तावदासीद् दिनारम्भो गतं नैशं तमो लयम् । सहस्रांशुर्दिशं प्राची परिरेभे करोस्करैः ॥२२१॥ किरणस्तरुणैरेव तमः शार्वरमुद्धतम् । तरणेः करणीयं तु दिनश्रीपरिरम्भणम् ॥२२२॥ कोककान्तानुरागेण समं पद्माकरे श्रियम् । पुष्णन्नुप्णांशुरुद्यच्छन्न मुष्णात्कौमुदीं श्रियम् ॥२२३॥ सन्मुख हुए अन्य योद्धा लोगोंको सबेरा होते हुए भी वह रात जान नहीं पड़ी थी। भावार्थ - कथाएँ कहते-कहते रात्रि समाप्त हो गयी, सबेरा हो गया फिर भी उन्हें मालूम नहीं हुआ ॥२१२॥ युद्ध और संभोगमें एक-सा आनन्द माननेवाले कितने ही योद्धाओं का चित्त यद्यपि युद्ध-- के रसमें आसक्त हो रहा था तथापि उन्होंने सामने प्राप्त हुए स्त्रीसंभोगके रसका भी इच्छानुसार उपभोग किया था ॥२१३।। उन योद्धाओंने रणके प्रारम्भके समान ही संभोगका प्रारम्भ किया था, क्योंकि जिस प्रकार रणका प्रारम्भ परस्परके प्रहारों ( चोटों ) से कठोर होता है उसी प्रकार संभोगका प्रारम्भ भी परस्परके प्रहारों अर्थात् कचग्रह, नखक्षत आदिसे कठोर था, और जिस प्रकार रणका प्रारम्भ होंठ चबाये जानेसे निर्दय होता है उसी प्रकार संभोगका प्रारम्भ भी होंठोंके चुम्बन आदिसे निर्दय था ॥२१४|| कामसे पीड़ित हई कितनी ही स्त्रियाँ पतियोंका गाढ़ आलिंगन कर, चुम्बनके लिए उन्हें अपना मुख देकर और उनके साथ संभोगकर उनका मन हरण कर रही थीं ॥२१५।। आधी नजरसे देखना, भीतर-ही-भीतर हँसते हुए अव्यक्त शब्द कहना, असमयमें रूस जाना, बड़ी तेजीके साथ करवट बदलना, भौंहोंको आड़ी तिरछी चलाना और स्वाभाविक स्नेहसे भरा हुआ झूठा छल-कपट दिखाना आदि स्त्रियोंके अनेक व्यापारोंसे संभोगका एक दौर समाप्त हो जानेपर भी कामी पुरुषोंका पुनः संभोग प्रारम्भ हो रहा था और बड़ा ही रसीला था ॥२१६-२१७॥ उस समय वह रात्रि पोदनपूरके स्त्री-पुरुषोंके उस बढ़े हए संभोगको देख नहीं सकी थी इसलिए ही मानो उलट पड़ी थी अर्थात् समाप्त हो चुकी थी - प्रातःकालके रूपमें बदल गयी थी ॥२१८॥ जिसका चन्द्रमारूपी मुख नीचेकी ओर लटक रहा है ऐसी पश्चिम दिशारूपी स्त्री मानो यही कहती हुई खड़ी थी कि हे स्त्री पुरुषो, रहने दो, बहुत देर तक क्रीड़ा कर चुके, नहीं तो तुम दोनों ही दुःख पाओगे ॥२१९॥ सूर्यने सायंकालके समय चकवा-चकवियोंको परस्पर अलग-अलग किया था इसी सन्तापसे व्याप्त हुआ मानो वह फिरसे उदय होने लगा ॥२२०॥ इतनेमें ही दिनका प्रारम्भ हआ. रात्रिका अन्धकार विलीन हो गया और सूर्यने अपनी किरणोंके समहसे पूर्वदिशाका आलिंगन किया ॥२२१॥ रात्रिका अन्धकार तो सूर्यको लाल किरणोंसे ही नष्ट हो गया था अब तो सूर्यको केवल दिनरूपी लक्ष्मीका आलिंगन करना बाकी रह गया था ॥२२२॥ सूर्य चकवियोंके अनुरागके साथ-ही-साथ कमलोंकी शोभा बढ़ा रहा था और उदय १ गाढं परि ल० । २ अव्यक्तभाषणः। ३ विषमभ्रुभिः । ४ प्रलयं गता। ५ ताम्यता ल०। ६ विघटनकृतेन । ७ व्याप्तः । ८ आलिङ्गनं चकार । ९ आलिङ्गनम् । १०-रुद्गच्छन् ल०, द०। २५ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् तमः कवाटमुद्राव्य दिङ्मुखानि प्रकाशयन् । जगदुद्घाटिताक्षं वा व्यधादुषणकरः करैः ॥२२॥ प्रातस्तरामथोत्थाय पद्माकरपरिग्रहम् । तन्धन् भानुः प्रतापेन जिगीषोवृत्तिमन्वगात् ॥२२५॥ सुकण्ठा पेठुरत्युच्चैः प्रभोः प्राबोधिकास्तदा। स्वयं प्रबुद्धमप्येनं प्रबोधेनें युयुक्षवः ॥२२६॥ wwwarrrrrrrrrrrorawww. हरिणीच्छन्दः अशिशिरकरो लोकानन्दी जनैरभिनन्दितो बहुमतकरं तेजस्तन्वन्नितोऽयमुदेष्यति । नृवर जगतामुद्योताय स्वमप्युदयोचितं विधिमनुसरन् शय्योत्संगं जहीहि मुदे श्रियः ॥२२७॥ कतरकतम नाक्रान्तास्ते बलैबलशालिनो भुजबलमिदं लोकः प्रायो न वेत्ति तवाल्यकः । भरतपतिना सार्द्ध युद्धे जयाय कृतोद्यमो नृपवर भवान् भूयाद् भर्ता नृवीरजयश्रियः ॥२२८॥ रविरविरलानश्रन् जातानिवाश्रमशाखिनां ___ तुहिनकणिकपाताना* प्रमृज्य करोत्करैः । अयमुदयति प्राप्तानन्दरितोऽम्बुजिनीवनैः ___ उदयसमये प्रत्युद्यातो" कृतार्वमिवाऽम्बुजैः ॥ २२९॥ होते ही चाँदनीकी शोभाको भी चुराता जाता था – नष्ट करता जाता था ॥२२३॥ सूर्यने अपने किरणरूपी हाथोंसे अन्धकाररूपी किवाड़ खोलकर दिशाओंके मुंह प्रकाशित कर दिये थे और समस्त जगत् नेत्र खोल दिये थे ॥२२४॥ वह सूर्य विजयकी इच्छा करनेवाले किसी राजाकी वृत्तिका अनुकरण कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार विजयकी इच्छा करनेवाला राजा बड़े सबेरे उठकर अपने प्रतापसे पद्माकर अर्थात् लक्ष्मीका हाथ स्वीकार करता है उसी प्रकार सूर्य भी बड़े सबेरे उदय होकर अपने प्रतापसे पद्माकर अर्थात् कमलोंके समूहको स्वीकार कर रहा था - अपने तेजसे उन्हें विकसित कर रहा था ॥२२५।। यद्यपि उस समय महाराज बाहुबली स्वयं जाग गये थे तथापि उन्हें जगानेका उद्योग करते हुए सुन्दर कण्ठवाले बन्दीजन जोर-जोरसे नीचे लिखे हुए मंगलपाठ पढ़ रहे थे ॥२२६॥ हे पुरुषोत्तम, जो लोगोंको आनन्द देनेवाला है और लोग जिसकी प्रशंसा कर रहे हैं ऐसा यह सूर्य सब लोगोंको अच्छा लगनेवाले तेजको फैलाता हुआ इधर पूर्व दिशासे उदय हो रहा है इसलिए आप भी जगत्को प्रकाशित और लक्ष्मीको आनन्दित करनेके लिए सूर्योदयके समय होनेवाली योग्य क्रियाओंको करते हुए शय्याका मध्यभाग छोड़िए ॥२२७॥ हे राजाओंमें श्रेष्ठ, आपकी सेनाओंने कितने-कितने बलशाली राजाओंपर आक्रमण नहीं किया है, ये छोटे-छोटे लोग प्रायः आपकी भुजाओंके बलको जानते भी नहीं हैं । हे नरवीर, आपने भरतेश्वरके साथ युद्ध में विजय प्राप्त करनेके लिए उद्यम किया है इसलिए विजयलक्ष्मीके स्वामी आप ही हों ।।२२८॥ हे देव, बगीचेके वृक्षोंपर पड़ी हुई ओसकी बूंदोंको निरन्तर पड़ते हुए आँसुओंके समान अपनी किरणोंके समूहसे शीघ्र ही पोंछता हआ यह सर्य उदय हो रहा है और उदय होते समय ऐसा जान पड़ता है मानो कमलिनियोंके वन जिन्हें आनन्द प्राप्त हो रहा है ऐसे कमलोंके द्वारा अर्घ्य लेकर उसकी १ विवृतनेत्रम् । २ अतिशयप्रात.काले। ३ अनुकरोति स्म । ४ प्रबोधन - द०, ल०। ५ योवतुमिच्छवः । ६ अनुगच्छन् । ७ के के। ८ तव । ९ -नथुवाता-द० । १० -कापाता - ल०, द० । ११ प्रतिगृहीतः । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व अयमनुसरन् कोकः कान्तां तटान्तरशायिनी मविरल गलद्वाष्पव्याजादिवोत्सृजती शुचम् । विशति बिसिनीपत्रच्छन्नां सरोजसरस्तटीं सरसिजरजःकीर्णो पक्षी विध्य शनैः शनैः ॥२३०॥ जस्ठबिसिनीकन्दच्छायामुषस्तरलास्विष स्तुहिनकिरणो दिक्पर्यन्तादयं प्रतिसंहरन् । अनुकुमुदिनीषण्डं तन्वन् करानमृतश्च्युतो दृढयति परिवङ्गासंगं वियोगभयादिव ॥२३॥ तिमिरकरिणां यूथं भित्वा तदनपरिप्लुता मिव तनुमयं बिभ्रच्छोणां निशाकरकसरी । वनमिव नभः क्रान्त्वाऽस्ताद्रेणुहागहनान्यतः श्रयति नियतं 'निद्रासंगाद् विजिमिततारकः ॥२३२॥ सरति सरसीतीरं हंसः ससारसकूजितं झटिति घटते कोकद्वन्द्वं विशापमिवाधुना। पतति पततां वृन्दं विष्वक मंषु कृतारुतं' गतमिव जगत्प्रत्यापत्ति समुद्यति भास्वति ॥२३३॥ उदयशिखरिग्रावश्रेणीसरोरुहरागिणी गगनजलधेरातन्वाना प्रवालवनश्रियम् । दिगिभवदने सिन्दूरश्रीरलक्तकपाटला प्रसरतितरां सम्ध्यादीप्तिदिगाननमण्डनी' ॥२३४॥ अगवानी ही कर रहे हों ॥२२९।। इधर देखिए, जो दूसरे किनारेपर सो रही है और निरन्तर बहते हुए आँसुओंके बहानेसे जो मानो शोक ही छोड़ रही है ऐसी अपनी स्त्री चकवीके 'पीछेपीछे जाता हुआ यह चकवा कमलोंके परागसे भरे हुए अपने दोनों पंखोंको झटकाकर कमलिनियोंके पत्तोंसे ढके हुए कमलसरोवरके तटपर धीरे-धीरे प्रवेश कर रहा है ॥२३०। यह चन्द्रमा पके हुए मृणालकी कान्तिको चुरानेवाली अपनी कान्तिको सब दिशाओंके अन्तसे खींच रहा है तथा अमृत बरसानेवाली अपनी किरणोंको प्रत्येक कुमुदिनियोंके समूहपर फैलाता हुआ वियोगके डरसे ही मानो उनके साथ आलिङ्गनके सम्बन्धको दृढ़ कर रहा है ॥२३१॥ जो अन्धकाररूपी हाथियोंके समूहको भेदन कर उनके | रक्तसे ही तर हुएके समान लाल-लाल दिखनेवाले शरीर ( मण्डल ) को धारण कर रहा है तथा नींद आ जानेसे जिसकी नक्षत्ररूपी आँखोंको पुतलियाँ तिरोहित अथवा कुटिल हो रही हैं ऐसा यह चन्द्रमारूपी सिंह वनके समान आकाशको उल्लंघन कर अब अस्ताचलकी गुहारूप एकान्त स्थानका निश्चित रूपसे आश्रय ले रहा है ।।२३२।। सूर्य उदय होते ही हंस, सारस पक्षियोंकी बोलीसे सहित सरोवरके किनारेपर जा रहे हैं, चकवा चकवियोंके जोड़े परस्पर में इस प्रकार मिल रहे हैं मानो अब उनका शाप ही दूर हो गया हो, पक्षियोंके समूह चारों ओर शब्द करते हुए वृक्षोंपर पड़ रहे हैं और यह जगत् फिरसे अपने पहले रूपको प्राप्त हुआ-सा जान पड़ता है ॥२३३॥ उदयाचलकी चट्टानोंपर पैदा होनेवाले कमलोंके समान लाल तथा आकाशरूपी समुद्रमें मूंगाके वनकी १ अभिनिवेशात् । २ वक्रिततारकः । अक्षःकनीनिकेति ध्वनिः । ३ विगतशापम् । आक्रोशमित्यर्थः । ४ आश्रयति । ५ पक्षिणाम् । ६ कृतसमन्ताद् ध्वनिः । कृतारवं ल० । ७ पूर्वस्थितिम् । ८ उदिते सति । ९ आदित्ये। १० विद्रुमं । ११ मण्डयतीति मण्डनी। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ आदिपुराणम् कमलनलिनी नालं वेष्टुं बत प्रविकस्वरं गतमरुणतां बालार्कस्य प्रसारिभिरंशुभिः । परिगतमिव प्रादुप्यद्भिः कणैरनिलार्चिषां नियतविपदं धिग् व्यामूढिं विवेकपराङ्मुखीम् ॥२३५॥ उपनततरूनाधुन्वाना विलोलितषट्पदाः कृतपरिचया वीची चक्रः सरस्सु सरोरुहाम् । रतिपरिमलानाकर्षन्तः सरोजरजो जडाः प्रतिदिशममी मन्दं वान्ति प्रगतनमारुताः ॥२३६॥ मालिनीच्छन्दः नृपयर जिनभर्तुर्मङ्गलैरेभिरिटैः प्रकटितजयघोषस्त्वं विबुध्यस्व भूयः । भवति निखिलविघ्नप्रप्रशान्तिर्यतस्त रणशिरसि जयश्रीकामिनी कामुकस्य ॥२३७॥ जयति दिविजनाथैः प्राप्तपूजद्धिरहन् धुतदुरितपरागो वीतरागोऽपरागः । कृतनतिशतयज्व प्रज्वलन्मौलिरत्न च्छुरितरुचिररोचिर्मञ्जरी पिञ्जराङ्घ्रिः ॥२३॥ शोभा फैलाती हुई, दिशारूपी हाथियोंके मुखपर सिन्दूरके समान दिखनेवाली, महावरके समान गुलाबी और दिशाओंके मुखोंको अलंकृत करनेवाली यह प्रभात-सन्ध्याकी कान्ति चारों ओर बड़ी तेजीसे फैल रही है ।।२३४॥ हे नाथ, यह खिला हुआ कमल लाल सूर्यकी फैलनेवाली किरणोंसे लाल-लाल हो रहा है और ऐसा मालूम होता है मानो अग्निके फैलते हुए फुलिंगोंसे व्याप्त ही हो रहा हो तथा इसी भयसे यह भ्रमरी उसमें प्रवेश करनेके लिए समर्थ नहीं हो रही है । आचार्य कहते हैं कि जिसमें आपत्ति सदा निश्चित रहती है और जो विवेकसे पराङ्मुख है ऐसी मूर्खताको धिक्कार है ॥२३५।। हे राजन्, जो उपवनके वृक्षोंको हिला रहा है, भ्रमरोंको चंचल कर रहा है, जिसने कमलोंके तालाबमें लहरोंके साथ परिचय प्राप्त किया है, जो स्त्री-पुरुषोंके संभोगकी सुगन्धिको खींच रहा है, और जो कमलोंके परागसे भारी हो रहा है ऐसा यह प्रातःकालका वायु सब दिशाओंमें धीरे-धीरे बह रहा है ।।२३६।। हे राजाओंमें श्रेष्ठ, जिनमें जय-जयकी घोषणा प्रकट रूपसे की गयी है ऐसे जिनेन्द्र भगवान्के इन इष्ट मंगलोंसे आप फिरसे जग जाइए क्योंकि इन्हीं मंगलोंके द्वारा रणके अग्रभागमें विजयलक्ष्मी रूपी स्त्रीको चाहनेवाले आपके समस्त विघ्नोंकी अच्छी तरह शान्ति होगी ॥२३७॥ __ अनेक इन्द्रोंके द्वारा जिन्हें पूजाकी ऋद्धि प्राप्त हुई है, जिन्होंने पापरूपी धूल नष्ट कर डाली है, जो कीतराग हैं - जिन्होंने रागद्वेष नष्ट कर दिये हैं और नमस्कार करते हुए इन्द्रोंके देदीप्यमान मुकुटके रत्नोंसे मिली हुई सुन्दर किरणोंकी मंजरीसे जिनके चरण कुछ-कुछ पीले हो १ असमर्थः। २ प्रवेशाय। ३ व्याप्तम् । ४ सुरतसमये दम्पत्यनुभुक्तकस्तुरीकर्पूरादिपरिमलान् । ५ मन्दाः । ६ प्रातःकाले भव । ७ वीतरागद्वेषः । ८ इन्द्र । ९ व्याप्त । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चत्रिंशत्तम पर्व १६७ जयति जयविलासः सूच्यते यस्य पाष्प ___ रलिकुलतरुगर्भनिर्जितानङ्गमुक्तः । 'अनुपदयुगमस्वैर्भङ्गशोकादियावि ___ कृतकरुणनिनादैः सोऽयमाद्यो जिनेन्द्रः ॥२३९॥ जयति जितमनोभूर्भूरिधामा स्वयम्भू जिनपतिरपरागः क्षालितागः परागः । सुरमुकुटविटङ्कोदृढ पादाम्बुजश्री: जगद जगदगारप्रान्तविश्रान्तबोधः ॥२४॥ जयति मदनबाणैरक्षतात्मापि योऽधात् । त्रिभुवनजयलक्ष्मीकामिनी वक्षसि स्वे । स्वयमवृत च मुक्तिप्रेयसी यं विरूपा प्यनवम सखतातिं तन्वती सोऽयमहन् ॥२४॥ जयति समरभरीभैरवारावभीम बलमरचि न कूजच्चण्डकोदण्डकाण्डम् । भृकुटिकुटिलमास्यं यन नाकारि वोच्चैः मनसिजरिपुधात सोऽयमाद्यो जिनेशः ॥२४२॥ स जयति जिनराजो दुर्विभाव"प्रभावः प्रभुरभिभवितुं यं ''नाशकन्मारवोरः । दिविजविजयदुरारूढगर्वोऽपि गर्व न हृदि हृदिशयोऽधाद् यन्त्र "कुण्ठास्त्रवीर्यः ॥२४३॥ रहे हैं ऐसे श्री अर्हन्तदेव सदा जयवन्त रहें ॥२३८॥ जिनके भीतर भ्रमरोंके समूह गुंजार कर रहे हैं और उनसे जो ऐसे मालूम होते हैं मानो अपनी पराजयके शोकसे रोते हुए कामदेवके करुण क्रन्दनको ही प्रकट कर रहे हों तथा उसी हारे हुए कामदेवने अपने पुष्परूपी शस्त्र भगवान्के चरण-युगलके सामने डाल रखे हों ऐसे पुष्पोंके समूहसे जिनके विजयकी लीला सूचित होती है वे प्रथम जिनेन्द्र श्री वृषभदेव जयवन्त हों ।।२३९।। जिन्होंने कामदेवको जीत लिया है, जिनका तेज अपार है, जो स्वयंभू हैं, जिनपति हैं, वीतराग हैं, जिन्होंने पापरूपी धूलि धो डाली है, जिनके चरणकमलोंकी शोभा देव लोगोंने अपने मुकुटके अग्रभागपर धारण कर रखी है और जिनका ज्ञान लोक-अलोकरूपी घरके अन्त तक फैला हुआ है ऐसे श्री प्रथम जिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें ।।२४०।। जिनकी आत्मा कामदेवके बाणोंसे घायल नहीं हुई है तथापि जिन्होंने तीनों लोकोंकी जयलक्ष्मीरूपी स्त्रीको अपने वक्षःस्थलपर धारण किया है और मुक्तिरूपी स्त्रीने जिन्हें स्वयं वर बनाया इसके सिवाय वह मुक्तिरूपी स्त्री विरूपा अर्थात् कुरूपा (पक्षमें आकाररहित) होकर भी जिनके लिए उत्कृष्ट सुख-समूहको बढ़ा रही है वे अर्हन्तदेव सदा जयवन्त हों ॥२४१।। जिन्होंने जगद्विजयी कामदेवरूपी शत्रुको नष्ट करनेके लिए न तो युद्धके नगाड़ोंके भयंकर शब्दोंसे भीषण तथा शब्द करते हुए धनुषोंसे युक्त सेना ही रची और न अपना मुँह ही भौंहोंसे टेढ़ा किया वे प्रथम जिनेन्द्र भगवान् वृषभदेव सदा जयवन्त रहें ॥२४२।। जो सब जगत्के स्वामी हैं, कामदेवरूपी योद्धा भी जिन्हें जीतने१ पदयुगसमीपे । २ बहलतेजाः । ३ अपगतरागः । ४ बलभ्या वृत । ५ लोकालोकालयप्रान्त । ६ धारयति स्म । ७ अमूर्तापि, कुरूपापीति ध्वनिः । ८ अप्रमितसुखपरम्पराम् । ९ जिनेन्द्रः ल०, द०। १० अचिन्त्य । ११ समर्थो ना भूत् । १२ अत्यर्थ । १३ सर्वज्ञे । १४ मन्द । 'कुण्ठो मन्दः क्रियासु च' इत्यभिधानात् । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ आदिपुराणम् जयति तरुरशोको दुन्दुभिः पुष्पवर्ष चमरिरुहसमेतं विष्टरं सहमुद्धम् । वचनमसममुच्चैरातपत्रं च तेजः ५ त्रिभुवनजयचिह्नं यस्य सार्वो जिनोऽसौ ॥ २४४ ॥ जयति जननतापच्छेदि यस्य क्रमाब्जं विपुलफलदमारान्न नाकीन्द्रभृङ्गम् । समुपनतजनानां प्रीणनं कल्पवृक्ष स्थितिमतनुमहिम्ना सोडवतातीर्थंकृद्वः ॥२४५॥ नृवर भरतराज्योऽप्यूर्जितस्यास्य युष्मद् भुजपरिघयुगस्य प्राप्नुयान्नैव कक्षाम् । भुजबलमिदमास्तां दृष्टिमात्रेऽपि कस्ते रणनिषकगतस्य स्थातुमीशः क्षितीशः ॥ २४६॥ "तदलमधिप कालक्षेपयोगेन निद्रां ६ ७ ागरूक स्त्वमिं 1 सपदि च जयलक्ष्मी प्राप्य भूयोऽपि देवं जिनमवनम भक्त्या शासितारं जयाय ॥ २४७॥ हरिणीच्छन्दः इति समुचितैरुच्चैरुच्चाव'चैर्जयमङ्गलैः सुघटितपदैर्भूयोऽमीभिर्जयाय विबोधितः । शयनममुचनिद्रापायात् स पार्थिवकुञ्जरः सुरगज इवोत्संगं गङ्गाप्रतीरभुवः शनैः ॥ २४८ ॥ के लिए समर्थ नहीं हो सका तथा जिनके सामने, देवोंको जीतनेसे जिसका अहंकार बढ़ गया है। ऐसा कामदेव भी शस्त्र और सामर्थ्यके कुण्ठित हो जानेसे हृदयमें अहंकार धारण नहीं कर सका ऐसे अचिन्त्य प्रभावके धारक वे प्रसिद्ध जिनेन्द्रदेव सदा जयवन्त रहें ।। २४३ || अशोक वृक्ष, दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, चमर, उत्तम सिंहासन, अनुपम वचन, ऊंचा छत्र और भामण्डल ये आठ प्रातिहार्य जिनके तीनों लोकोंको जीतनेके चिह्न वे सबका हित करनेवाले श्री वृषभजिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें || २४४ || जिनके चरणकमल जन्मरूप सन्तापको नष्ट करनेवाले हैं, स्वर्ग मोक्ष आदि बड़े-बड़े फल देनेवाले हैं, दूरसे नमस्कार करते हुए इन्द्र जिनके भ्रमर हैं। और जो शरणमें आये हुए लोगोंको कल्पवृक्षके समान सन्तुष्ट करनेवाले हैं ऐसे वे तीर्थंकर भगवान् सदा विजयी हों और अपने विशाल माहात्म्यसे तुम सबकी रक्षा करें ॥ २४५ ॥ हे पुरुषोत्तम, महाराज भरत भी आपके दोनों भुजारूपी अर्गलदण्डोंकी तुलना नहीं प्राप्त कर सकते हैं, अथवा भुजाओंका बल तो दूर रहे, जब आप युद्धके निकट जा पहुँचते हैं तब आपके देखने मात्र से ही ऐसा कौन राजा है जो आपके सामने खड़ा रहनेके लिए समर्थ हो सके ।। २४६॥ इसलिए हे अधीश्वर, समय व्यतीत करना व्यर्थ है, निद्रा छोड़िए, इस महान् कार्य में सदा जागरूक रहिए और शीघ्र ही विजयलक्ष्मीको पाकर अन्य सब जगह विजय प्राप्त करनेके लिए सबपर शासन करनेवाले देवाधिदेव जिनेन्द्रदेवको भक्तिपूर्वक फिरसे नमस्कार कीजिए || २४७ || इस प्रकार जिनमें अच्छे-अच्छे पदोंकी योजना की गयी है ऐसे अनेक प्रकारके १ प्रशस्तम् । २ प्रभामण्डलम् । ३ सर्वहितः । ४ समानताम् । ५ तत् कारणात् । ६ जागरणशीलः । ७ भव । ८ नमस्कुरु । ९ नानाप्रकारैः । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व जयकरिघटाबन्धै रुन्धन दिशो मदविह्वलै लपरिवृढेरारूढश्रीरुदूढपराक्रमः । नृपकतिपयैरारादेत्य प्रणम्य दिदृक्षितो भुजबलि युवा भेजे सैन्यैर्भुवं समरोचिताम् ॥२४॥ • इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे कुमारबाहुबलिरणोद्योगवर्णनं नाम पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व ॥३५॥ उत्कृष्ट तथा राजाओंके योग्य, विजय करानेवाले मंगल-गीतोंके द्वारा बाहुबली महाराज विजय प्राप्त करनेके लिए जगे और जिस प्रकार ऐरावत हाथी निद्रा छूट जानेसे गंगाके किनारेकी भूमिका साथ धीरे-धीरे छोड़ता है उसी प्रकार उन्होंने भी निद्रा छूट जानेसे धीरे-धीरे शय्याका साथ छोड़ दिया ॥२४८॥ सेनाके मुख्य-मुख्य लोगोंके द्वारा जिसकी शोभा बढ़ रही है, जो स्वयं विशाल पराक्रम धारण किये हुए हैं और कितने ही राजा लोग दूर-दूरसे आकर प्रणाम करते हुए जिसे देखना चाहते हैं ऐसा वह तरुण बाहुबली मदोन्मत्त विजयी हाथियोंकी घटाओंसे दिशाओंको रोकता हुआ सेनाके साथ-साथ युद्धके योग्य भूमिमें जा पहुँचा ॥२४२।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत तिरसठशलाकापुरुषोंका वर्णन करनेवाले महापुराणसंग्रह में कुमार बाहुबलीके युद्धका उद्योग वर्णन करनेवाला पैंतीसवां पर्व समाप्त हुआ। १ समूहः । २ व्याप्नुवन् । ३ सेनामहत्तरैः। ४ कतिपयैर्नृपैः । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तमं पर्व अथ दूतवचश्चण्डमरुदाघातपूर्णितः । प्रचचाल बलाम्भोधिर्जिष्णोरारुध्य रोदसी ॥१॥ साङ्ग्रामिक्यो महाभेर्यस्तदा धीरं प्रदधनुः । यद्ध वानैः साध्वसं भेजुः खड्गव्यग्रा नभश्च राः ॥२॥ बलानि प्रविभक्तानि निधीशस्य विनिर्ययुः । पुरः पादातमश्वीयमारादाराच्च हास्तिकम् ॥३॥ रथकट्यापरिक्षेपो बलस्योभयपक्षयोः । अग्रतः पृष्टतश्चासीदूवं च खचरामराः ॥४॥ षडङ्गबलसामग्रया सम्पन्नः पार्थिवैरमा । प्रतस्थे भरताधीशो निजानुजजिगीषया ॥५॥ महान् गजघटाबन्धो रेजे सजयकेतनः । गिरीणामिव संघातः संचारी सह शाखिभिः ॥६॥ १३च्योतन्मदजलासारसिक्तभूमिर्गदद्विपैः । प्रतस्थे रुद्वदिक्चक्रः शैलैरिव सनिझरैः ॥७॥ जयस्तम्बरमा रेजुस्तुगाः शृङ्गारिताङ्गकाः । सान्द्रसंध्यातपक्रान्ताश्चलन्त इव भूधराः ॥८॥ चमूमतङ्गजा रेजुः सजाः सजयकेतनाः। कुलशैला इवायाताः प्रभोः स्वबलदर्शने ॥९॥ गजस्कन्धगता रेजुबूंर्गता विस्ताङकुशाः । प्रदीप्तोद्भटनेपथ्या दर्पाः संपिण्डिता इव ॥१०॥ अथानन्तर-दूतके वचनरूपी तेज वायुके आघातसे प्रेरित हआ चक्रवर्तीका सेना रूपी समुद्र आकाश और पृथिवीको रोकता हुआ चलने लगा ॥१॥ उस समय युद्धकी सूचना करनेवाले बड़े-बड़े नगाड़े गम्भीर शब्दोंसे बज रहे थे और उनके शब्दोंसे तलवार उठानेमें व्यग्र हुए विद्याधर भयभीत हो रहे थे ॥२॥ चक्रवर्तीकी सेनाएँ अलंग-अलग विभागोंमें विभक्त होकर चल रही थीं, सबसे आगे पैदल सैनिकोंका समूह था, उससे कुछ दूरपर घोड़ोंका समूह था और उससे कुछ दूर हटकर हाथियोंका समूह था ॥३।। सेनाके दोनों ओर रथोंके समूह थे तथा आगे पीछे और ऊपर विद्याधर तथा देव चल रहे थे॥४॥ इस प्रकार छह प्रकारकी सेनासामग्रीसे सम्पन्न हुए महाराज भरतेश्वरने अपने छोटे भाईको जीतनेकी इच्छासे अनेक राजाओंके साथ प्रस्थान किया ॥५॥ उस समय विजय-पताकाओंसे सहित बड़े-बड़े हाथियोंके समूह ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो वृक्षोंके साथ-साथ चलते हुए पर्वतोंके समूह ही हों ॥६॥ जिनसे झरते हुए मदजलकी वृष्टिसे समस्त भूमि सींची गयी है और जिन्होंने सब दिशाएँ रोक ली हैं ऐसे मदोन्मत्त हाथियोंके साथ चक्रवर्ती भरत चल रहे थे, उस समय वे हाथी ऐसे मालूम होते थे मानो झरनोंसे सहित पर्वत ही हों ॥७॥ जिनके समस्त शरीरपर शृंगार किया गया हो और जो बहुत ऊँचे हैं ऐसे वे विजयके हाथी ऐसे सुशोभित होते थे मानो सन्ध्याकालकी सघन धूपसे व्याप्त हुए चलते-फिरते पर्वत ही हों ।।८। जो सब प्रकारसे सजाये गये हैं और जिनपर विजय-पताकाएं फहरा रही हैं ऐसे वे सेनाके हाथी इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो महाराज भरतको अपना बल दिखानेके लिए कुलाचल ही आये हों ॥९॥ जिन्होंने देदीप्यमान तथा वीररसके योग्य वेष धारण किया है, और जिन्होंने अंकुश हाथमें ले रखा है ऐसे हाथियोंके कन्धोंपर बैठे हुए महावत लोग ऐसे जान पड़ते थे मानो एक जगह १ द्यावापृथिव्यो। २ युद्धहेतवः । ३ सुध्वानः ल०। ४ आयुधस्वीकारव्याकुलाः । ५ संकरमकृत्वा प्रविभाजितानि । ६ समीपे । ७ रथसमूहपरिवृत्तिः । ८ उभयपार्श्वयोरित्यर्थः, मौलवैतनिकयोः, मूलं कारणं पुरुष प्राप्ताः । वेतनेन जीवन्तो वैतनिकाः । ९ सह । १० आसमूहः । ११ वृक्षः । १२ स्रवत् । १३ वेगवद्वर्ष । 'धारासंपात आसारः' । १४ सन्नद्धीकृताः । १५ निजबलदर्शने । १६ गजारोहकाः । १७ वीररसालंकाराः । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तमं पर्व २०१ कौक्षेयकैर्निशाता प्रधाराप्रैः सादिनों बभुः । मूर्तीभूय भुजोपाग्रलग्नैर्वा स्वैः पराक्रमैः ॥११॥ धन्विनः शरनाराच संध्तेषुधयों बभुः । वनक्ष्माजा महाशाखाः कोटरस्थैरिवाहिभिः ॥१२॥ रथिनो रथकट्यासु संभृतोचितहतयः । सङग्रामवार्धितरणे प्रस्थिता नाविका इव ॥१३॥ मटा हस्त्युरसं भेजः सशिरस्वतनुत्रकाः । समुत्खातनिशातासिपागयः पादरक्षगे ॥१४॥ पुस्फुरः" स्फुरदस्त्रीवा मटाः संदंशिताः परे । औत्पातिका इवानीलाः सोल्का मेघाः समुत्थिताः॥१५॥ करवालं करालाग्रं करे कृत्वा मटोऽपरः । पश्यन् मुखरसं तस्मिन् “स्वशौर्य परिजज्ञिवान् ॥१६॥ कराग्रविधुतं खड्गं तुलयन् कोऽप्यमाद् मरः । "प्रमिमित्सुरिवानेन स्वामिसत्कारगौरवम् ॥ १ ॥ महामुकुटबद्धानां साधनानि प्रतस्थिरे । पादातहास्तिकाश्वीयरथकव्यापरिच्छदैः ॥१८॥ बभुमुकुटबद्धास्ते रत्नांशूदग्रमौलयः । सलीलालोकपालानामंशा भुवमिवागताः ॥१९॥ परिवेष्ट्य निरैयन्त 'पार्थिवाः पृथिवीश्वरम् । दूरातु स्वबलसामग्री दर्शयन्तो यथायथम् ॥२०॥ २२प्रत्यग्रसमरारम्भसंश्रवोद्धान्तचेतसः । २ मटीराश्वासयामासुर्भटाः प्रत्याय्य धीरितैः ॥२१॥ इकट्ठा हुआ अभिमान ही हो ॥१०॥ घुड़सवार लोग, जिनकी आगेकी धारका अग्रभाग बहुत तेज है ऐसी तलवारोंसे ऐसे जान पड़ते थे मानो उनके पराक्रम ही मूर्तिमान् होकर उनकी भुजाओंके अग्रभाग अर्थात् हाथोंमें आ लगे हों ॥११॥ जिनके तरकस अनेक प्रकारके बाणोंसे भरे हुए हैं ऐसे धनुर्धारो लोग इस प्रकार जान पड़ते थे मानो बड़ी-बड़ी शाखावाले वनके वृक्ष कोटरोंमें रहनेवाले सोसे ही सुशोभित हो रहे हों ॥१२॥ जिन्होंने रथोंके समूहमें युद्धके योग्य सब शस्त्र भर लिये हैं ऐसे रथोंपर बैठनेवाले योद्धा लोग इस प्रकार चल रहे थे मानों युद्धरूपी समुद्रको पार करनेके लिए नाव चलानेवाले खेवटिया ही हों ॥१३॥ जिन्होंने शिरपर टोप और शरीरपर कवच धारण किया है तथा हाथमें पैनी तलवार ऊंची उठा रखी है ऐसे कितने ही योद्धा लोग हाथियोंके पैरोंकी रक्षा करनेके लिए उनके सामने चल रहे थे ॥१४॥ जिनके हाथोंमें शस्त्रोंके समूह चमक रहे हैं और जो लोहेके कवच पहने हुए हैं ऐसे कितने ही योद्धा ऐसे देदीप्यमान हो रहे थे मानो किसी उत्पातको सूचित करनेवाले उल्कासहित काले काले मेघ ही उठ रहे हों ॥१५॥ कोई अन्य योद्धा पैनी धारवाली तलवार हाथमें लेकर उसमें अपने मुखका रंग देखता हुआ अपने पराक्रमका परिज्ञान प्राप्त कर रहा था ॥१६॥ कोई अन्य योद्धा हाथके अग्र भागपर रखी हुई तलवारको तोलता हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो वह उससे अपने स्वामीके आदर-सत्कारका गौरव ही तोलना चाहता हो ॥१७॥ पैदल सेना, हाथियोंके समूह, घुड़सवार और रथोंके समूह आदि सामग्रीके साथ-साथ महामुकुटबद्ध राजाओंकी सेनाएं भी चल रही थीं ॥१८॥ रत्नोंकी किरणोंसे जिनके मुकुट ऊँचे उठ रहे हैं ऐसे वे मुकुटबद्ध राजा इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो लीलासहित लोकपालोंके अंश ही पृथ्वीपर आ गये हों ॥१९॥ अनेक राजा लोग महाराज भरतको घेरकर चल रहे थे और दूरसे ही अपनी सेनाकी सामग्री यथायोग्यरूपसे दिखलाते जाते थे ॥२०॥ नवीन १ निशित । २ अश्वारोहाः । 'अश्वारोहास्तु सादिनः' इत्यभिधानात् । ३ इव । ४ प्रक्ष्वेडनास्तु नाराचाः । ५ इषुधिः तूणीरः । 'तूणोपासङ्गतूणीरनिषगा इषुधियोः । तूण्यामित्यभिधानात् । संभृतेषुवमः ल.,द.. अ०, १०, स०, इ०। ६ समरसमुद्रोत्तरणार्थम् । ७ कर्णधाराः । 'कर्णधारस्तु नाविकः' इत्यभिधानात । ८ हस्तिमुख्यम् । ९ कवच । १० पादरक्षार्थम् । ११ स्फुरन्ति स्म । १२ कवचिताः । 'संनद्धो वर्मितः सज्जो दंशितो व्यूढकण्टकः' इत्यभिधानात् । १३ उत्पातहेतवः । १४ स्वं शौर्यम् ल०। १५ बुबुधे। १६ प्रमातुमिच्छः । प्रतिमित्सु - द०, ल०, ५०, इ०, अ०, स० । १७ खड्गेन सह । १८ बलानि । १९ परिकरैः । २० केचिल्लोकपाला इत्यर्थः । २१ निर्ययुः । २२ नूतनरणाम्भसंश्रवणादुद्भ्रान्तचेतो यासां तास्ताः । २३ भटयोषितः । २४ विश्वास्य । २५ धीरवचनैः । २६ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १२ ४ १७ भूरेणवस्तदाश्वीयखुरोद्धताः खलङ्घिनः । क्षणविघ्नितसंप्रेक्षाः प्रचकुरमराङ्गनाः ॥ २२ ॥ रजः संतमसे रुद्वदिक्चक्रे व्योमलङ्घिनि । चक्रोद्योतो नृणां चक्रे दृशः स्वविषयोन्मुखीः ॥ २३ ॥ समुद्रसप्रायैः भटालापैर्महीश्वराः । प्रयाणके धृतिं प्रापुर्जनजल्पैरपीदृशैः ॥२४॥ रणभूमिं प्रसाध्यात् स्थितो बाहुबली नृपः । अयं च नृपशार्दूलः प्रस्थितो निर्नियन्त्रणः ॥२५॥ नविनः किन्नु न स्याद् भ्रात्रोरनयोरिति । प्रायो न शान्तये युद्धमानयोरनुजीविनाम् ॥२६॥ विरूपकमि युद्धमारब्धं भरतेशिना । ऐश्वर्यमददुर्वाराः स्वैरिणः प्रभवोऽथवा ॥२७॥ इ मुकुद्धाः किं नैनौ वारयितुं क्षमाः । येऽमी समग्रसामग्रया सङ्ग्रामयितुमागताः ॥ २८ ॥ अहो महानुभावोऽयं कुमारो भुजविक्रमी । क्रुद्धे चक्रधरेऽप्येवं यो योद्धं, संमुखं स्थितः ॥ २६ ॥ "अथवा तन्त्रभूयस्त्वं न जया मनस्विनः । ननु सिंहो जयत्येकः संहितानपि " दन्तिनः ॥ ३० ॥ अयं च चक्रभृद् देवो नेष्टः सामान्यमानुषः । योऽभिरक्ष्यः सहस्रेण प्रणत्राणां सुधाभुजाम् ॥३१॥ तन्मा भूदनयोर्युद्धं जनसंक्षयकारणम् । कुर्वन्तु देवताः शान्ति यदि संनिहिता इमाः ॥ ३२ ॥ इति माध्यस्थ्यवृत्त्यैके" जनाः श्लाघ्यं वचो जगुः । पक्षपातहताः केचित् स्वपक्षोत्कर्ष मुज्जगुः ॥ ३३ ॥ युद्धका प्रारम्भ सुनकर जिनके चित्त व्याकुल हो रहे हैं ऐसी स्त्रियोंको वीर योद्धा बड़ी धीरताके साथ समझाकर आश्वासन दे रहे थे || २१ | | उस समय घोड़ोंके खुरोंसे उठी हुई और आकाशको उल्लंघन करनेवाली पृथिवीकी धूल क्षण-भरके लिए देवांगनाओंके देखने में भी बाधा कर रही थी || २२|| समस्त दिशाओंको व्याप्त करनेवाले और आकाशको उल्लंघन करनेवाले उस धूलिसे उत्पन्न हुए अन्धकारमें चक्ररत्नका प्रकाश ही मनुष्योंके नेत्रोंको अपनाअपना विषय ग्रहण करनेके सम्मुख कर रहा था || २३ || राजा लोग रास्ते में अत्यन्त उत्कट वीररससे भरे हुए योद्धाओंके परस्परके वार्तालापसे तथा इसी प्रकारके अन्य लोगोंकी बातचीतसे ही उत्साहित हो रहे थे ||२४|| उधर राजा बाहुबली रणभूमिको दूरसे ही युद्धके योग्य बनाकर ठहरे हुए हैं और इधर राजाओं में सिंहके समान तेजस्वी महाराज भरत भी यन्त्रणा - रहित (उच्छृंखल ) होकर उनके सम्मुख जा रहे हैं ||२५|| नहीं मालूम इस युद्ध में इन दोनों भाइयोंका क्या होगा ? प्रायः कर इनका यह युद्ध सेवकों की शान्तिके लिए नहीं है । भावार्थ इस युद्ध में सेवकों का कल्याण दिखाई नहीं देता है ||२६|| भरतेश्वरने यह युद्ध बहुत ही अयोग्य प्रारम्भ किया है सो ठीक है क्योंकि जो ऐश्वर्यके मदसे रोके नहीं जा सकते ऐसे प्रभु लोग स्वेच्छाचारी ही होते हैं ||२७|| जो ये मुकुटबद्ध राजा समस्त सामग्री के साथ युद्ध करनेके लिए आये हुए हैं वे क्या इन दोनोंको नहीं रोक सकते हैं ? ||२८|| अहो, भुजाओंका पराक्रम रखनेवाला यह कुमार बाहुबली भी महाप्रतापी है जो कि चक्रवर्तीके कुपित होनेपर भी इस प्रकार युद्धके लिए सम्मुख खड़ा हुआ है || २९ ॥ अथवा शूरवीर लोगों को सामग्री की अधिकता विजयका कारण नहीं है क्योंकि एक ही सिंह झुण्डके झुण्ड हाथियों को जीत लेता है। ||३०|| नमस्कार करते हुए हजारों देव जिसकी रक्षा करते हैं ऐसा यह चक्रको धारण करनेवाला भरत भी साधारण पुरुष नहीं है ||३१|| इसलिए जो अनेक लोगोंके विनाशका कारण है ऐसा इन दोनोंका युद्ध नहीं हो तो अच्छा है, यदि देव लोग यहाँ समीपमें हों तो वे इस युद्धकी शान्ति करें ||३२|| इस प्रकार कितने ही लोग मध्यस्थ भावसे प्रशंसनीय वचन कह रहे थे २०२ — १ आकाशलङ्घिनः । २ आलोकनाः । ३ रजोऽन्धकारे । ४ वीररसबहुलै: । ५ अलंकृत्वा । ६ समीपे । ७ नृपश्रेष्ठः भरत इत्यर्थः । ८ निरङ्कुशः । ९ भटानाम् । १० कष्टम् । ११ - वो यतः ल० । १२ युद्धं - कारयितुम् । १३ तथाहि । १४ सेनाबाहुल्यम् । १५ संयुक्तान् । १६ देवानाम् । १७ तत् १८ अन्ये । कारणात् । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रिंशत्तमं पर्व २०३ एवं' प्रायैर्जनालापमहीनाथा विनोदिताः । द्रुतं प्रापुस्तमुद्देशं यत्र वीराग्रणीरसौ ॥३४॥ दोर्दपं विगणय्यास्य दुर्बिलङ्घ यमरातिभिः । त्रेसुः प्रतिभटाः प्रायस्त स्मिन्नासन्नसंनिधौ ॥३५॥ इत्यभ्यणे बले जिष्णो बलं भुजबलीशिनः । जलमब्धेरिवाक्षुभ्यद् वीरध्वाननिरुन्द्वदिक् ॥३६॥ अधीभयबले धीराः संनद्धगजवाजयः । बलान्यारचयामासुरन्योऽन्यं प्रयुयुत्सया” ॥३७॥ तावच्च मन्त्रिणो मुख्याः संप्रधार्यावदन्निति । शान्तये नैनयोयुद्ध" ग्रहयोः क्ररयोरिव ॥३८॥ चरमगात्रधरावेतौ नानयोः काचन क्षतिः । क्षयो जनस्य पक्षस्य ब्याजेनानेन जम्भितः ॥३६॥ इति निश्चित्य मन्त्रज्ञा भीत्वा भूयो जनक्षयात् । तयोरनुमतिं लब्ध्वा धम्यं रणमघोषयन् ॥४०॥ अकारणरणेनालं जनसंहारकारिणा । महानेव' मधर्मश्च गरीयांश्च यशोवधः ॥४१॥ बलोत्कर्षपरीक्षेयमन्यथाऽप्युपपद्यते । तदस्तु युवयोव मिथो युद्धं त्रिधात्मकम् ॥४२॥ भ्रभङ्गेन विना भङ्गः सोढव्यो युवयोरिह । विजयश्च विनोत्सेकात् धर्मो ह्येष सनाभिपु ॥४३॥ इत्युक्ती पार्थिवैः सर्वैः सोपरोधैश्च मन्त्रिभिः । तो कृच्छात् प्रत्यपत्साता तादृशं युद्धमुद्धतौ ॥४४॥ और कितने ही पक्षपातसे प्रेरित होकर अपने ही पक्षकी प्रशंसा कर रहे थे ॥३३॥ प्रायः लोगोंके इसी प्रकारके वचनोंसे मन बहलाते हुए राजा लोग शीघ्र ही उस स्थानपर जा पहुँचे जहाँ वीरशिरोमणि कुमार बाहुबली पहलेसे विराजमान था ॥३४।। बाहुबलीके समीप पहुँचते ही भरतके योद्धा, जिसका शत्रु कभी उल्लंघन नहीं कर सकते ऐसा बाहुबलीकी भुजाओंका दर्प देखकर प्रायः कुछ डर गये ।।३५॥ इस प्रकार चक्रवर्ती भरतकी सेनाके समीप पहुँचनेपर वीरोंके शब्दोंसे दिशाओंको भरनेवाली बाहुबलीकी सेना समुद्र के जलके समान क्षोभको प्राप्त हुई ॥३६॥ अथानन्तर - दोनों ही सेनाओं में जो शूरवीर लोग थे वे परस्पर युद्ध करनेकी इच्छासे अपने हाथी घोड़े आदि सजाकर सेनाकी रचना करने लगे - अनेक प्रकारके व्यूह आदि बनाने लगे ॥३७।। इतनेमें ही दोनों ओरके मुख्य-मुख्य मन्त्री विचारकर इस प्रकार कहने लगे कि क्रूरग्रहोंके समान इन दोनोंका युद्ध शान्तिके लिए नहीं है ॥३८॥ क्योंकि ये दोनों ही चरम शरीरी हैं, इनकी कुछ भी क्षति नहीं होगी, केवल इनके युद्धके बहानेसे दोनों ही पक्षके लोगोंका क्षय होगा ॥३९॥ इस प्रकार निश्चय कर तथा भारी मनुष्योंके संहारसे डरकर मन्त्रियोंने दोनोंकी आज्ञा लेकर धर्मयुद्ध करनेकी घोषणा कर दी ॥४०॥ उन्होंने कहा कि मनुष्योंका संहार करनेवाले इस कारणहीन युद्धसे कोई लाभ नहीं है क्योंकि इसके करनेसे बड़ा भारी अधर्म होगा और यशका भी बहुत विघात होगा ॥४१।। यह बलके उत्कर्षकी परीक्षा अन्य प्रकारसे भी हो सकती है इसलिए तुम दोनोंका ही परस्पर तीन प्रकारका युद्ध हो ॥४२॥ इस युद्ध में जो पराजय हो वह तुम दोनोंको भौंहके चढ़ाये बिना ही - सरलतासे सहन कर लेना चाहिए तथा जो विजय हो वह भी अहंकारके बिना तुम दोनोंको सहन करना चाहिए क्योंकि भाई भाइयोंका यही धर्म है ॥४३।। इस प्रकार जब समस्त राजाओं और मन्त्रियोंने बड़े आग्रहके साथ कहा तब कहीं बड़ी कठिनतासे उद्धत हुए उन दोनों भाइयोंने वैसा युद्ध करना स्वीकार १ एवमाद्यः । २ प्राप्ता ल०, प०, द० । ३ भुजबली स्थितः । ४ विचार्य । ५ बाहुबलिनि । ६ अत्यासन्ने सति। ७ भरतस्य । ८ वीराः ल०, द०, अ०, प०, स०, इ०। ९ वाजिनः अ०, स०, द० । १० प्रकर्षेण योद्धमि. च्छया । ११ नावयो - ल० । १२ सहायस्य । १३ युद्धच्छलेन । १४ एवं सति । युद्धे सतीत्यर्थः । १५ कीतिनाशः । १६ घटते इत्यर्थः । १७ तत् कारणात् । १८ क्रोधाभावेनेत्यर्थः । १९ ग भावादित्यर्थः । २० अनुमेनाते। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् जलदृष्टिनियुद्धेषु योऽनयोजयमाप्स्यति । स जयश्रीविलासिन्याः पतिरस्तु स्वयंवृतः ॥ ४५ ॥ इत्युद्धोप्य कृतानन्दमानन्दिन्या गभीरया | भेर्या चमूप्रधानानां न्यधुरेकत्र संनिधिम् ॥४६॥ नृपा भरतगृह्या ये तानेकत्र न्यवेशयन् । ये बाहुबलिगृह्याश्च पार्थिवांस्तानतोऽन्यतः ॥४७॥ मध्ये महीभृतां तेषां रेजतुस्तौ नृपौ स्थित। । गतौ निषधनीलादी कुतश्चिदिव संनिधिम् ॥४८॥ "तयोर्भुजबली रंजे गडग्रासच्छविः । जम्बूदुम इवोत्तुङ्गः सभृङ्गोऽसित मूर्द्धजः ॥ ४९॥ रराज राजराजोऽपि तिरीटोदग्रविग्रहः । सचूलिक इवाङ्गीन्द्रः तप्तचामीकरच्छविः ॥ १०॥ दधीरतरां दृष्टि निर्निमेषामनुद्भटाम् । दृष्टियुद्धे जयं प्राप प्रसभं भुजविक्रमी ॥ ५१ ॥ विनिवार्य कृतक्षोभमनिवार्य बलार्णवम् । मर्यादया यवीयांसं जयेनायोजयन्नृपाः ॥५२॥ सरसीजलमा गाढ" जलयुद्धे मदोद्धृतौ । दिग्गजाविव तौ दीर्घव्यत्यु' 'क्षीमासतुर्भुजैः ॥ ५३ ॥ अधिवक्षस्तरं जिष्णो रेजुरच्छा जलच्छटाः । शैलभत्तुरिवोत्सङ्गसंगिन्यः स्रुतयोऽम्भसाम् ॥५४॥ जलौघो भरतेशेन मुक्तो दीर्बलशालिनः । प्राशोरप्राप्य दूरेण मुखमारात् समापतत् ॥२५॥ 13 २०४ किया ||४४ || इन दोनोंके बीच जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुमें जो विजय प्राप्त करेगा ant विजय लक्ष्मीका स्वयं स्वीकार किया हुआ पति हो, इस प्रकार सबको आनन्द देनेवाली गम्भीर भेरियोंके द्वारा जिसमें सबको हर्ष हो इस रीति से घोषणा कर मन्त्री लोगोंने सेनाके मुख्य-मुख्य पुरुषोंको एक जगह इकट्ठा किया ।। ४५-४६ ।। जो भरतके पक्षवाले राजा थे उन्हें एक ओर बैठाया और जो बाहुबली के पक्षके थे उन्हें दूसरी ओर बैठाया || ४७|| उन सब राजाओंके बीच में बैठे हुए भरत और बाहुबली ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो किसी कारण से निषध और नीलपर्वत ही पास-पास आ गये हों ॥ ४८ ॥ उन दोनोंमें नीलमणिके समान सुन्दर छविको धारण करता हुआ और काले-काले केशोंसे सुशोभित कुमार बाहुबली ऐसा जान पड़ता था मानो भ्रमरोंसे सहित ऊँचा जम्बूवृक्ष ही हो ॥ ४९ ॥ | इसी प्रकार मुकुटसे जिसका शरीर ऊँचा हो रहा है और जो तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिको धारण करनेवाला है ऐसा राज राजेश्वर भरत भी इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानो चूलिकासहित गिरिराज सुमेरु ही हो ॥५०॥ अत्यन्त धीर तथा पलकों के संचारसे रहित शान्त दृष्टिको धारण करते हुए कुमार बाहुबलीने दृष्टियुद्ध में बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर ली ॥ ५१ ॥ हर्षसे क्षोभ मचाते हुए बाहुबली दुर्निवार सेनारूपी समुद्रको रोककर राजाओंने बड़ी मर्यादाके साथ कुमार बाहुबलीको विजयसे युक्त किया अर्थात् दृष्टियुद्ध में उनकी विजय स्वीकार की ॥ ५२ ॥ तदनन्तर मदोन्मत्त दिग्गजोंके समान अभिमानसे उद्धत हुए वे दोनों भाई जलयुद्ध करनेके लिए सरोवर के जल में प्रविष्ट हुए और अपनो लम्बी-लम्बी भुजाओंसे एक दूसरेपर पानी उछालने लगे ।। ५३ ।। चक्रवर्ती भरतके वक्षःस्थलपर बाहुबलीके द्वारा छोड़ी हुई जलकी उज्ज्वल छटाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो सुमेरुपर्वतके मध्यभागमें जलका प्रवाह ही पड़ रहा हो । ॥ ५४ ॥ भरतेश्वरके द्वारा छोड़ा हुआ जलका प्रवाह अत्यन्त ऊँवे बाहुबलीके मुखको दूर छोड़कर दूरसे ही नीचे जा पड़ा | भवार्थ - भरतेश्वरने भी बाहुबलीके ऊपर पानी फेंका था परन्तु बाहुबलीके ऊँचे होनेके कारण वह पानी उनके मुख तक नहीं पहुँच सका, दूरसे ही नीचे जा पड़ा। भरतका शरीर पाँच सौ धनुष ऊँचा था और बाहुबलीका पाँच सौ पच्चीस - १ जलयुद्धदृष्टियुद्धबाहुयुद्धेषु । 'नियुद्धं बाहुयुद्धे' इत्यभिधानात् । २ चक्रुः । ३ कारणात् । ४ सम्मेलनमित्यर्थः । ५ तयोर्मध्ये | ६ नीलकेशः । ७ शान्ताम् । ८ शीघ्रम् । ९ अनुजम् । 'जघन्यजे स्युः कनिष्ठयवीयोऽवरजानुजाः ' इत्यभिधानात् । १० प्रविष्टौ । ११ परस्परं जलसेचनं चक्रतुः । १२ प्रवाहाः । १३ उन्नतस्य । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ षत्रिंशत्तमं पर्व भरतेशः किलात्रापि न यदाप जयं तदा । बलैर्भुजबलीशस्य भूयोऽप्युद्धोषितो जयः ॥५६॥ नियुद्धमर्थ' संगीर्य नृसिंहो सिंहविक्रमौ । धारावाविष्कृतस्पद्वौं तो रङ्गमवतरतुः ॥५७॥ 'वल्गितास्फोटितैश्विः धरणैर्बन्ध पीलितैः । दोर्दपंशालिनोरासीद बाहुयुद्धं तयोर्महत् ॥१८॥ ज्वलन्मुकुटभाचक्रो हेलयोङ्गमितोऽमुना । लीलामलातचक्रस्य चक्री भैजे क्षणं भ्रमन् ॥१९॥ यवीयान् नृपशार्दूलं ज्यायांसं जितभारतम् । जित्वाऽपि नानयद् भूमि प्रभुरित्यव गौरवात् ॥६॥ 'भुजोपरोधमुत्य स तं धत्ते स्म दोबली । हिमाद्विमिव नीलाद्विमहाकटकभास्वरम् ॥६१॥ तदा कलकलश्चक्रे पश्यैर्भुजबली शिवः । नृपैर्भरतगृह्येस्तु लजया नमितं शिरः ॥६२॥ समक्षमीक्षमाणेपु पार्थिवेपूभयेष्वपि । परां विमानतां'' प्राप्य ययौ चक्री विलक्षताम् ॥६३॥ बद्धभ्रुकुटिरुद्रान्तरुधिरारुणलोचनः । क्षणं दुरीक्षतां भेजे चक्री प्रज्वलितः क्रुधा ॥६४॥ क्रोधान्धेन तदा दध्ये कर्तुमस्य पराजयम् । चक्रमुत्कृत्तनिः शेषद्विषश्चक्र निधीशिना ॥६५॥ आध्यानमात्रमत्याराददः कृत्वा प्रदक्षिणाम् । अवध्यस्यास्य पर्यन्तं तस्थौ मन्दीकृतातपम् ।६६। धनुष । इसलिए बाहुबलीके द्वारा छोड़ा हुआ पानी भरतके मुख तथा वक्षःस्थलपर पड़ता था परन्तु भरतके द्वारा छोड़ा हुआ पानी बीच में ही रह जाता था - बाहुबलीके मुख तक नहीं पहुँच पाता था ।।५५।। इस प्रकार जब भरतेश्वरने इस जलयुद्ध में भी विजय प्राप्त नहीं की तब बाहुबलीकी सेनाओंने फिरसे अपनी विजयकी घोषणा कर दी ।।५६।। अथानन्तर सिंहके समान पराक्रमको धारण करनेवाले धीरवीर तथा परस्पर स्पर्धा करनेवाले वे दोनों नरशार्दूल – श्रेष्ठ पुरुप बाहुयुद्धकी प्रतिज्ञा कर रंगभूमिमें आ उतरे ।।५७॥ अपनी-अपनी भुजाओंके अहंकारसे सुशोभित उन दोनों भाइयोंका, अनेक प्रकारसे हाथ हिलाने, ताल ठोकने, पैंतरा बदलने और भुजाओंके व्यायाम आदिसे बड़ा भारी बाहु युद्ध ( मल्ल युद्ध ) हुआ ॥५८॥ जिसके मुकुटकी दीप्तिका समूह अतिशय देदीप्यमान हो रहा है ऐसे भरतको बाहुबलीने लीला मात्र में ही घुमा दिया और उस समय घूमते हुए चक्रवर्तीने क्षण-भरके लिए अलातचक्रकी लीला धारण की थी ॥५९॥ बाहुबलीने राजाओंमें श्रेष्ठ, बड़े तथा भरत क्षेत्रको जीतनेवाले भरतको जीतकर भी 'ये बड़े हैं'इ सी गौरवसे उन्हें पृथिवीपर नहीं पटका ॥६०॥ किन्तु भुजाओंसे पकड़कर ऊंचा उठाकर कन्धेपर धारण कर लिया। उस समय भरतेश्वरको कन्धेपर धारण करते हए बाहबली ऐसे जान पड़ते थे मानो नीलगिरिने बड़े-बड़े शिखरोंसे देदीप्यमान हिमवान पर्वतको ही धारण कर रखा हो ॥६१।। उस समय बाहुबलीके पक्षवाले राजाओंने बड़ा कोलाहल मचाया और भरतके पक्ष के लोगोंने लज्जासे अपना शिर झुका लिया ॥६२॥ दोनों पक्षके राजाओंके साक्षात् देखते हुए चक्रवर्ती भरतका अत्यन्त अपमान हुआ था इसलिए वे भारी लज्जा और आश्चर्यको प्राप्त हुए ॥६३॥ जिसने भौंहें चढ़ा ली हैं, जिसकी रक्तके समान लाल-लाल आँखें इधर-उधर फिर रही हैं और जो क्रोधसे जल रहा है ऐसा वह चक्रवर्ती क्षणभरके लिए भी दुनिरीक्ष्य हो गया अर्थात् वह क्रोधसे ऐसा जलने लगा कि उसे कोई क्षण-भर नहीं देख सकता था ॥६४॥ उस समय क्रोधसे अन्धे हुए निधियोंके स्वामी भरतने बाहुबलीकी पराजय करनेके लिए समस्त शत्रुओंके समूहको उखाड़कर फेंकनेवाले चक्ररत्नका स्मरण किया ॥६५॥ स्मरण करते ही वह चक्ररत्न भरतके समीप आया, भरतने बाहुबलीपर चलाया १ बाहयुद्धम् । २ प्रतिज्ञां कृत्वा । ३ प्रविष्टावित्यर्थः । ४ वल्गनभुजास्फालनः । वलिता -प०, इ० । ५ पदाचारिभिः । ६ बाहुबन्ध । ७ काष्ठा ग्निभ्रमणस्य। ८ अनुजः । ९ ज्येष्ठम् । १० बाहुपीडनं यथा भवति तथा । ११ परिभवम् । १२ विस्मयान्वितम। १३ उच्छिन्न । - मुक्षिप्त - ल०, द०। १४ स्मृत । १५ एतच्चक्रम् । १६ भुजबलिनः । १७ समीपे । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आदिपुराणम् कृतं' कृतं बतानेन साहसेनेति धिक्कृतः । तदा महत्तमैश्चक्री जगामानुशयं परम् ॥६॥ 'कृतापदान इत्युच्चैः करण तुलयन्नुपम् । सोऽवतीयांसतो धीरोऽनिकृष्टां भूमिमापिपत् ॥६८॥ -सत्कृतः स जयाशंसमभ्येत्य नृपसत्तमैः । मने सोत्कर्षमात्मानं तदा भुजबली प्रभुः ॥६६॥ अचिन्तयच्च किन्नाम कृते राज्यस्य भगिनः । लजाकरी विधिर्भात्रा ज्येष्ठेनायमनुष्टितः ॥७॥ "विपाककटुसाम्राज्यं क्षणध्वंसि धिगस्त्विदम् । दुस्त्यजं त्यजदप्येतदङ्गिभिर्दुष्कलत्रवत् ॥७१॥ अहो विषयसौख्यानां वैरूप्यम पकारिता ।' भङ्गरत्वमरुच्यत्वं सतर्नान्विष्यत जनैः ॥७२॥ को नाम मतिमानीप्सेद् विषयान वेषदारुणान् । येषां वशगतो जन्तुर्यात्यनर्थपरम्पराम् ॥७३॥ वरं विषं यदेकस्मिन् भवे हन्ति न हन्ति वा । विषयास्तु पुनर्नन्ति हन्त जन्तूननन्तशः ॥७४॥ आपातमात्र रम्याणां विपाककटुकात्मनाम् । विषयाणां कृते नाज्ञो यात्यनानपार्थकम् ॥७५॥ परन्तु उनके अवध्य होनेसे वह उनकी प्रदक्षिणा देकर तेजरहित हो उन्हीके पास जा ठहरा । भावार्थ - देवोपनीत शस्त्र कुटुम्बके लोगोंपर सफल नहीं होते, बाहुबली भरतेश्वरके एकपितृक भाई थे इसलिए भरतका चक्र बाहुबलीपर सफल नहीं हो सका, उसका तेज फीका पड़ गया और वह प्रदक्षिणा देकर बाहुबलीके समीप ही ठहर गया ॥६६।। उस समय बड़े-बड़े राजाओंने चक्रवर्तीको विक्कार दिया और दुःखके साथ कहा कि 'बस-बस' 'यह साहस रहने दो' - बन्द करो, यह सुनकर चक्रवर्ती और भी अधिक सन्तापको प्राप्त हुए ॥६७॥ आपने खूब पराक्रम दिखाया, इस प्रकार उच्च स्वरसे कहकर धीर-वीर बाहुबलीने पहले तो भरतराजको हाथोंसे तोला और फिर कन्धेसे उतारकर नीचे जमीनपर रख दिया अथवा ( धीरो अनिकृष्टां ऐसा पदच्छेद करनेपर ) उच्च स्थानपर विराजमान किया ॥६८॥ अनेक अच्छे-अच्छे राजाओंने समीप आकर महाराज बाहुबलीके विजयकी प्रशंसा करते हुए उनका सत्कार किया और बाहबलीने भी उस समय अपने आपको उत्कृष्ट अनुभव किया ॥६९॥ साथ ही साथ वे यह भी चिन्तवन करने लगे कि देखो, हमारे बड़े भाईने इस नश्वर राज्यके लिए यह कैसा लज्जाजनक कार्य किया है ॥७०॥ यह साम्राज्य फलकालमें बहुत दुःख देनेवाला है, और क्षणभंगुर है इसलिए इसे धिक्कार हो, यह व्यभिचारिणी स्त्रीके समान है क्योंकि जिस प्रकार व्यभिचारिणी स्त्री एक पतिको छोड़कर अन्य पतिके पास चली जाती है उसी प्रकार यह साम्राज्य भी एक पतिको छोड़कर अन्य पतिके पास चला जाता है। यह राज्य प्राणियोंको छोड़ देता है परन्तु अविवेकी प्राणी इसे नहीं छोड़ते यह दुःखकी बात है ॥७१॥ अहा, विषयोंमें आसक्त हुए पुरुष, इन विषयजनित सुखोंका निन्द्यपना, अपकार, क्षणभंगुरता और नीरसपनेको कभी नहीं सोचते हैं ॥७२॥ जिनके वशमें पड़े हुए प्राणी अनेक दुःखोंकी परम्पराको प्राप्त होते हैं ऐसे विषके समान भयंकर विषयोंको कौन बुद्धिमान् पुरुष प्राप्त करना चाहेगा ? ॥७३।। विष खा लेना कहीं अच्छा है क्योंकि वह एक ही भवमें प्राणीको मारता है अथवा नहीं भी मारता है परन्तु विषय सेवन करना अच्छा नहीं है क्योंकि ये विषय प्राणियोंको अनन्त बार फिर-फिरसे मारते हैं ॥७४॥ जो प्रारम्भ कालमें तो मनोहर मालूम होते हैं परन्तु फलकाल १ अलमलम् । २ पश्चात्तापम् । ३ कृतपराक्रमस्त्वमिति । कृतोपादान - अ०, ल०। ४ भुजशिखरात् । 'स्कन्धो भुजशिरोंऽसोऽस्त्री' इत्यभिधानात् । ५ अवस्थाम् । ६ - मापपत् प०, ल० । ७ निमित्तम् । ८ विनश्वरस्य। ९ - मधिष्ठितः ५०, ल०। १० परिणमन । ११ कुत्सितत्वम् । १२ विनश्वरत्वम् । १३ आसक्तैः । १४ न मृग्यते। न विचार्यत इत्यर्थः । १५ अनुभवनकाल । १६ निमित्तम् । १७ पुमान् । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व अत्यन्तरसिकानादौ पर्यन्ते प्राणहारिणः । किंपाकपाकविषमान् विषयान् कः कृती भजेत् ॥७६॥ प्रहारदीप्ताग्निवज्राशनि महोरगाः । न तथोद्वेजकाः पुंसां यथाऽमी विषयद्विषः ॥ ७७ ॥ महाब्धिरौद्र संग्राम भीमारण्यसरिद्गिरीन् । भोगार्थिनो भजन्त्यज्ञा धनलाभ धनायया ॥ ७८ ॥ दीर्घदोर्घातनिर्घातनिर्घोषविषमीकृते । यादसां यादसां पत्यौ चरन्ति विषयार्थिनः ॥ ७६ ॥ समापतच्छरवातनिरुद्ध गगनाङ्गणम् । रणाङ्गणं विशन्त्यस्तभियो भोगैर्विलोभिताः ॥८०॥ चरन्ति वनमानुष्या यत्र सन्त्रासलोचनाः । ताः पर्यटन्त्यरण्यानीर्भोगाशोपहता जडाः ॥८१॥ सरितो विषमावर्तभीषणा ग्राहसंकुलाः । तितीर्षन्ति बताविष्टा" विषमैर्विषयग्र हैः ॥८२॥ आरोहन्ति दुरारोहान् गिरीनप्यमियोऽङ्गिनः " । रसायनरसज्ञान बलवादविमोहिताः ॥८३॥ अनिष्टवनितेवेयमालिङ्गति बलाजरा । कुर्वती पलितव्याजाद् रभसेन कचग्रहम् ॥८४॥ 43 १६ भोगेष्वस्युत्सुकः प्रायो न च वेद" हिताहितम् । भुक्तस्य जरसा जन्तोर्मृतस्य च किमन्तरम् ॥८५॥ प्रसह्य पातयन् भूमौ गात्रेषु कृतवेपथुः । जरापातो " नृणां कष्टो ज्वरः शीत इवोद्भवन् ॥८६॥ २०७ कड़वे ( दुःख देनेवाले ) जान पड़ते हैं ऐसे विषयोंके लिए यह अज्ञ प्राणी क्या व्यर्थ ही अनेक दुःखों को प्राप्त नहीं होता है ? ।। ७५ ।। जो प्रारम्भ कालमें तो अत्यन्त आनन्द देनेवाले हैं और अन्तमें प्राणोंका अपहरण करते हैं ऐसे किंपाक फल (विषफल) के समान विषम इन विषयोंको कौन बुद्धिमान् पुरुष सेवन करेगा ? || ७६ ॥ | ये विषयरूपी शत्रु प्राणियोंको जैसा उद्वेग करते हैं वैसा उद्वेग शस्त्रोंका प्रहार, प्रज्वलित अग्नि, वज्र, बिजली और बड़े-बड़े सर्प भी नहीं कर सकते हैं ||७७|| भोगोंको इच्छा करनेवाले मूर्ख पुरुष धन पानेकी इच्छासे बड़े-बड़े समुद्र, प्रचण्ड युद्ध, भयंकर वन, नदी और पर्वतोंमें प्रवेश करते हैं ||७८|| विषयोंकी चाह रखनेवाले पुरुष जलचर जीवोंकी लम्बी-लम्बी भुजाओंके आघातसे उत्पन्न हुए वज्रपात - जैसे कठोर शब्दों से क्षुब्ध हुए समुद्र में भी जाकर संचार करते हैं ॥ ७९ ॥ भोगोंसे लुभाये हुए पुरुष, चारों ओरसे पड़ते हुए बाणोंके समूहसे जहाँ आकाशरूपी आँगन भर गया है ऐसे युद्ध के मैदान में भी निर्भय होकर प्रवेश कर जाते हैं ||८०|| जिनमें वनचर लोग भी भयसहित नेत्रोंसे संचार करते हैं ऐसे भयंकर बड़े-बड़े वनोंमें भी भोगोंकी आशासे पीड़ित हुए मूर्ख मनुष्य घूमा करते हैं ॥ ८१ ॥ कितने दुःखकी बात है कि विषयरूपी विषम ग्रहोंसे जकड़े हुए कितने ही लोग, ऊँची-नीची भँवरोंसे भयंकर और मगरमच्छोंसे भरी हुई नदियोंको भी पार करना चाहते हैं ॥ ८२ ॥ रसायन तथा रस आदिके ज्ञानका उपदेश देनेवाले धूर्तोंके द्वारा मोहित होकर उद्योग करनेवाले कितने ही पुरुष कंठिनाईसे चढ़ने योग्य पर्वतोंपर भी चढ़ जाते हैं || ८३ ॥ | यह जरा सफेदबालोंके बहानेसे वेगपूर्वक केशोंको पकड़ती हुई अनिष्ट स्त्रीके समान जबरदस्ती आलिंगन करती है ॥ ८४ ॥ जो प्राणी भोगोंमें अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहा है वह हित और अहितको नहीं जानता तथा जिसे वृद्धावस्थाने घेर लिया है उसमें और मरे हुए में क्या अन्तर है ? अर्थात् बेकार होनेसे वृद्ध मनुष्य भी मरे हुएके समान है ॥ ८५ ॥ यह बुढापा मनुष्यको शीतज्वरके समान अनेक कष्ट देनेवाला है क्योंकि जिस प्रकार शीतज्वर उत्पन्न होते ही जबरदस्ती जमीनपर १ अम्बीरपक्वफल । २ वज्ररूपाशनि । ३ भयंकराः । ४ धनलाभवाञ्छया । ५ अशनि । ६ जलजन्तूनाम् । 'यादांसि जलजन्तवः' इत्यभिधानात् । यादसां पत्यो समुद्रे । 'रत्नाकरो जलनिधिर्यादः पतिरपां पतिः ' इत्यभिधानात् । ७ वनेचराः । ८ भयसहिताः । ९ तरीतुमिच्छन्ति । १० ग्रस्ता इत्यर्थः । ११ - व्यभियोगिनः ल०, प०, अ०, इ० । १२ पलितस्तम्भौषधसिद्धरसज्ञानाज्जातबलवादान्मोहिताः । १३ भोक्तुं योग्यवस्तुषु । १४ न जानाति । १५ भेदः । १६ बलात्कारेण । १७ कम्पः । ९८ प्राप्तिः । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आदिपुराणम् अङ्गसादं' मतिभ्रषं वाचामस्फुटतामपि । जरा सुरा च निर्विष्टा घटयत्याशु देहिनाम् ॥८७॥ कालव्यालगजेनेदमायुरालानकं बलात् । चाल्यते यदलाधानं जीवितालम्बनं नृणाम् ॥८॥ शरीरबलमेतच्च गजकर्णवदस्थिरम् । रोगा खूपहतं चेदं जरदेहकुटीरकम् ॥८९॥ इत्यशाश्वतमप्येतद् राज्यादि भरतेश्वरः । शाश्वतं मन्यते कष्टं मोहोपहतचेतनः ॥१०॥ चिरमाकलयन्नेवमग्रजस्यानुदात्तताम् । ब्याजहारैनमुद्दिश्य गिरः प्रपरुषाक्षराः ॥११॥ शृणु भो नृपशार्दूल क्षणं बैलक्ष्यमुत्सृज । मुह्यतेदं त्वयाऽलम्बि दुरीहमतिसाहसम् ॥१२॥ अभेद्य मम देहादौ त्वया चक्रं नियोजितम् । विद्धयकिंचित्करं वाजे शैले वज्रमिवापतत् ॥१३॥ अन्यत्र भ्रातृमाण्डानि मङ्क्त्वा राज्यं यदीप्सितम् । त्वया धर्मो यशश्चैव तेन ''पेशलमर्जितम् ॥९॥ चक्रभृद्धरतः स्रष्टुः सूनुराद्यस्य योऽग्रणीः । कुलस्योद्धारकः सोऽभूदिती डाऽस्थायि च त्वया ॥१५॥ जितां च भवतैवाद्य यत्पापोपहतामिमाम् । मन्यसेऽनन्यभोगीनां नृपश्रियमनश्वरीम् ॥१६॥ प्रेयसीयं तवैवास्तु राज्यश्रीर्या त्वयाऽहता । नोक्सैिषा ममायुष्मन् बन्धो न हि सतां मुदे ॥१७॥ पटक देता है उसी प्रकार बुढ़ापा भी जबरदस्ती जमीनपर पटक देता है और जिस प्रकार शीतज्वर शरीरमें कम्पन पैदा कर देता है उसी प्रकार बुढ़ापा भी शरीरमें कम्पन पैदा कर देता है ॥८६॥ शरीरमें प्रविष्ट हुई तथा उपभोममें आयी हुई जरा और मदिरा दोनों ही लोगोंके शरीरको शिथिल कर देती हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट कर देती हैं और वचनोंमें अस्पष्टता ला देती हैं ॥८७॥ जिसके बलका सहारा मनुष्योंके जोक्नका आलम्बन है ऐसा यह आयुरूपी खम्भा कालरूपी दुष्ट हाथीके द्वारा जबरदस्ती उखाड़ दिया जाता है ।।८८॥ यह शरीरका बल हाथीके कानके समान चंचल है और यह जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी झोंपड़ा रोगरूपी चूहोंके द्वारा नष्ट किया हुआ है ।।८९।। इस प्रकार यह राज्यादि सब बिनश्वर हैं फिर भी मोहके उदयसे जिसकी चेतना नष्ट हो गयी है ऐसा भरत इन्हें नित्य मानता है यह कितने दुःखकी बात है ? ॥९०॥ इस प्रकार बड़े भाईको नीचताका चिरकाल तक विचार करते हुए बाहुबलीने भरतको उद्देश्य कर नीचे लिखे अनुसार कठोर अक्षरोंवाली वाणी कही ॥९१॥ हे राजाओंमें श्रेष्ठ, क्षण-भरके लिए अपनी लज्जा या झेंप छोड़, मैं कहता हूँ सो सुन । तूने मोहित होकर ही इस न करने योग्य बड़े भारी साहसका सहारा लिया है ॥९२॥ जो कभी भिद नहीं सकता। ऐसे मेरे शरीररूपी पर्वतपर तूने चक्र चलाया है सो तेरा यह चक्र वज्रके बने हुए पर्वतपर पड़ते हुए वज्रके समान व्यर्थ है ऐसा निश्चयसे समझ ॥९॥ दूसरी बात यह है कि जो तूने भाईरूप बरतनोंको तोड़कर राज्य प्राप्त करना चाहा है सो उससे तूने बहुत हो अच्छा धर्म और यशका उपार्जन किया है ॥९४॥ तूने अपनी यह स्तुति भी स्थापित कर दी कि चक्रवर्ती भरत आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवका ज्येष्ठ पुत्र था तथा वह अपने कुलका उद्धारक हुआ था ॥९५॥ हे भरत, आज तूने जिसे जीता है और जो पापसे भरी हुई है ऐसी इस राज्यलक्ष्मीको तू एक अपने ही द्वारा उपभोग करने योग्य तथा अविनाशी समझता है ।।९६।। जिसका तूने आदर किया है ऐसी यह राज्यलक्ष्मी अब तुझे ही प्रिय रहे, हे आयुष्मन्, अब यह मेरे योग्य नहीं है क्योंकि बन्धन सज्जन पुरुषोंके आनन्दके लिए नहीं होता है । भावार्थ - यह लक्ष्मी स्वयं एक प्रकारका बन्धन है अथवा कर्म बन्धका कारण है इसलिए सज्जन पुरुष इसे १ श्रमम् । २ भ्रंशम् । ३ अनुभुक्ता । ४ मूषिक । ५ जीर्ण । ६ निकृष्टताम् । ७ विस्मयान्वितत्वम् । ८ मुह्य तीति मुह्यन् तेन । ९ न किंचिकृत । किमपि कर्तुमसमर्थ इत्यर्थः । १० राज्याभिलाषेण । ११ प्रशस्तम् । । १२ स्तुति । १३ यस्मात् कारणात् । १४ अनन्यभोगायिताम् । १५ कधकारणपरिग्रहः । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षत्रिंशत्तमं पर्व दूषितां करकोनां फलिनीमपि ते श्रियम् । करेणापि स्पृशेद् धीमान् लतां कण्टकिनी च कः ॥९॥ विषक एकजालीव त्याज्यैषा सर्वथाऽपि नः । निष्कण्टकां तपोलक्ष्मी स्वाधीनां कर्तुमिच्छताम् ॥१९॥ मृष्यतां च तदस्माभिः कृतमागो यदीदृशम् । प्रच्युतो विनयात् सोऽहं स्वं चापलमदीदृशम् ॥१०॥ इत्युच्चरद् गिरामोधो मुखाद् बाहुबलीशितुः । ध्वनिरब्दादिवाऽऽततं "जिष्णोरालादयन्मनः ॥१०१॥ हा दुष्टं कृतमित्युच्चैरात्मानं स विगर्हयन् । अन्ववातप्त पापेन कर्मणा स्वेन चक्रराट् ॥१०२॥ प्रयुक्तानुनयं भूयो मनुमन्त्यं स धीरयन् । न्यवृतन्न स्वसंकल्पाद हो स्थैर्य मनस्विनाम् ॥१०३॥ महाबलिनि निक्षिप्तराज्यर्द्धिः स स्वनन्दने । दीक्षामुपादधे जैनी गुरोराराधयन् पदम् ॥१०॥ दीक्षावल्ल्या परिष्वक्त स्त्यकाशेषपरिच्छदः । स रेजे सलतः पत्रमोक्षक्षाम° इव द्रुमः ॥१०५॥ गुरोरनुमतेऽधीती' दधदेकविहारिताम् । प्रतिमायोगमावर्ष मातस्थे किल संवृतः ॥१०६॥ सशंसितव्रतोऽनाश्वान् वनवल्लीततान्तिकः । वल्मीकरन्ध्रनिःसर्पत् सरासीद् मयानकः ॥१०७॥ १ श्वसदाविर्भवद्भोग भुजङ्गशिशुजृम्मितैः । विषाङ्कुरैरिवोपाङ्घ्रि स रेजे वेष्टितोऽमितः ॥१०८॥ कभी नहीं चाहते ॥९७॥ यद्यपि यह तेरी लक्ष्मी फलवती है तथापि अनेक प्रकारके काँटोंसे - विपत्तियोंसे दूषित है। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो काँटेवाली लताको हाथसे छुयेगा भी ॥९८॥ अब हम कण्टकरहित तपरूपी लक्ष्मीको अपने अधीन करना चाहते हैं इसलिए यह राज्यलक्ष्मी हम लोगोंके लिए विषके काँटोंकी श्रेणीके समान सर्वथा त्याज्य है ॥९९।। अतएव जो मैंने यह ऐसा अपराध किया है उसे क्षमा कर दीजिए। मैं विनयसे च्युत हो गया था अर्थात् मैंने आपकी विनय नहीं की सो इसे मैं अपनी चंचलता ही समझता हूँ ॥१००॥ जिस प्रकार मेघसे निकलती हुई गर्जना सन्तप्त मनुष्योंको आनन्दित कर देती है उसी प्रकार महाराज बाहुबलीके मुखसे निकलते हुए वाणीके समूहने चक्रवर्ती भरतके सन्तप्त मनको कुछ-कुछ आनन्दित कर दिया था ॥१०१॥ 'हा मैंने बहत ही दृष्टताका कार्य किया है। इस प्रकार जोर-जोरसे अपनी निन्दा करता हुआ चक्रवर्ती अपने पाप कर्मसे बहुत ही सन्तप्त हुआ ॥१०२।। जिसमें अनेक प्रकारके अनुनय-विनयका प्रयोग किया गया है इस रीतिसे अन्तिम कुलकर महाराज भरतको बार-बार प्रसन्न करता हुआ बाहुबली अपने संकल्पसे पीछे नहीं हटा सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी पुरुषोंकी स्थिरता भी आश्चर्यजनक होती है ॥१०३॥ उसने अपने पुत्र महाबलीको राज्यलक्ष्मी सौंप दी और स्वयं गुरुदेवके चरणोंकी आराधना करते हुए जैनी दीक्षा धारण कर ली ॥१०४॥ जिसने समस्त परिग्रह छोड़ दिया है तथा जो दीक्षा रूपी लतासे आलिंगित हो रहा है ऐसा वह बाहुबली उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो पत्तोंके गिर जानेसे कृश लतायुक्त कोई वृक्ष ही हो ॥१०५॥ गुरुकी आज्ञामें रहकर शास्त्रोंका अध्ययन करनेमें कुशल तथा एक विहारीपन धारण करनेवाले जितेन्द्रिय बाहुबलीने एक वर्ष तक प्रतिमा योग धारण किया अर्थात् एक ही जगह एक ही आसनसे खड़े रहनेका नियम लिया ॥१०६॥ जिन्होंने प्रशंसनीय व्रत धारण किये हैं, जो कभी भोजन नहीं करते, और जिनके समीपका प्रदेश वनकी लताओंसे व्याप्त हो रहा है ऐसे वे बाहुबली वामीके छिद्रोंसे निकलते हुए सोसे बहुत ही भयानक हो रहे थे ॥१०७॥ जिनके फणा प्रकट हो रहे हैं ऐसे फुकारते हुए सर्पके बच्चोंकी उछल-कूदसे चारों ओरसे घिरे हुए वे बाहुबली ऐसे सुशोभित १ क्षम्यताम् । २ अपराधः । ३ भृशमपश्यम् । ४ प्रवाहः । ५ भरतस्य । ६ दुष्ठु ट० । निन्दा । 'निन्दायों दुष्ठु सुष्ठ प्रशंसने ।' इत्यभिधानात् । ७ निजवैराग्यादित्यर्थः। ८ आलिङ्गितः । ९ लतया सहितः । १० पर्णमोचनकृशः । ११ अधीतवान् । १२ वर्षावधि । १३ निभृतः । १४ स्तुत ।१५ उपवासी। १६ भयंकरः । १७.उच्छ्व सत् । १८ फण । १९ अङिघ्रसमीपे । २७ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १० Care: स्कन्ध पर्यन्तलम्बिनी: केशवलरीः । सोऽन्वगाढकृष्णाहिमण्डलं हरिचन्दनम् ॥ १०६ ॥ माधवीलतया गाढमुपगूढः प्रफुल्लया । शाखावाहुभिरावेष्ट्य सधीच्येव सहासया ॥११०॥ विद्याधरी करालून पलवा सा किलाशुषत् । पादयोः कामिनीवास्य सामि नम्राऽनुनेध्यत ॥ १११ ॥ रेजेस तदवस्थोऽपि तपो दुश्चरमाचरन् । कामीव मुक्तिकामिन्यां स्पृहयालुः कृशीभवन् ॥ ११२ ॥ तपस्तनृनपात्ताप संतप्तस्यास्य केवलम् । शरीरमशुषन्नोर्ध्व शोषं कर्माप्यशमंदम् ॥ ११३ ॥ तीव्रं तपस्यतोऽप्यस्य नासीत् काश्चिदुपप्लवः । अचिन्त्यं महतां धैर्यं येनायान्ति न विक्रियाम् ॥ ११४ ॥ सर्वसहः क्षमाभारं प्रशान्तः शीतलं जलम् । निःसंगः पवनं दीप्तः स जिगाय हुताशनम् ॥ ११५ ॥ क्षुधं पिपासां शीतोष्णं सदंशमशकद्वयम् । मार्गाच्यवनसंसिद्धयै द्वन्द्वानि सहते स्म सः ॥ ११६ ॥ २१६ परमं विनाभेदीन्द्रियधूर्तकैः । ब्रह्मचर्यस्य "सा" गुप्तिर्नाग्न्यं नाम परं तपः ॥ ११७ ॥ रति चारतिमध्येष द्वितयं स्म तितिक्षते " । न रत्यरतिबाधा हि विषयानमिषङ्गिणः ॥ ११८ ॥ १२११ २१० हो रहे थे मानो उनके चरणोंके समीप विषके अंकूरे ही लग रहे हों ॥ १०८ ॥ कन्धों पर्यन्त लटकती हुई केशरूपी लताओंको धारण करनेवाले वे बाहुबली मुनिराज अनेक काले सर्पोके समूहको धारण करनेवाले हरिचन्दन वृक्षका अनुकरण कर रहे थे || १०९ || फूली हुई वासन्ती - लता अपनी शाखारूपी भुजाओंके द्वारा उनका गाढ आलिंगन कर रही थी और उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो हार लिये हुए कोई सखी ही अपनी भुजाओंसे उनका आलिंगन कर रही हो ॥। ११० ।। जिसके कोमल पत्ते विद्याधरियोंने अपने हाथसे तोड़ लिये हैं ऐसी वह वासन्ती लता उनके चरणोंपर पड़कर सूख गयी थी और ऐसी मालूम होती थी मानो कुछ नम्र होकर अनुनय करती हुई कोई स्त्री ही पैरोंपर पड़ी हो ॥ १११ ॥ ऐसी अवस्था होनेपर भी वे कठिन तपश्चरण करते जिससे उनका शरीर कृश हो गया था और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो मुक्तिरूपी स्त्रीकी इच्छा करता हुआ कोई कामी ही हो ॥ ११२ ॥ तपरूपी अग्नि के सन्तापसे सन्तप्त हुए बाहुबलीका केवल शरीर ही खड़े-खड़े नहीं सूख गया था किन्तु दुःख देनेवाले कर्म भी सूख गये थे अर्थात् नष्ट हो गये थे ।। ११३ ।। तीव्र तपस्या करते हुए बाहुबलीके कभी कोई उपद्रव नहीं हुआ था सो ठीक है क्योंकि बड़े पुरुषोंका धैर्य अचिन्त्य होता है जिससे कि वे कभी विकारको प्राप्त नहीं होते ।। ११४ । । वे सब बाधाओंको सहन कर लेते थे, अत्यन्त शान्त थे, परिग्रहरहित थे और अतिशय देदीप्यमान थे इसलिए उन्होंने अपने गुणोंसे पृथ्वी, जल, वायु, और अग्निको जीत लिया था ॥ ११५ ॥ | वे मार्गसे च्युत न होनेके लिए भूख, प्यास, शीत, गरमी, तथा डांस, मच्छर आदि परीषहोंके दुःख सहन करते थे ॥ ११६ ॥ उत्कृष्ट नाग्न्य व्रतको धारण करते हुए बाहुबली इन्द्रियरूपी धूर्तोंके द्वारा नहीं भेदन किये जा सके थे । ब्रह्मचर्यकी उत्कृष्ट रूपसे रक्षा करना ही नाग्न्य व्रत है और यही उत्तम तप है । भावार्थ - वे यद्यपि नग्न रहते थे तथापि इन्द्रियरूप धूर्त उन्हें विकृत नहीं कर सके थे ॥११७॥ वे रति और अरति इन दोनों परिषहों को भी सहन करते थे अर्थात् रागके कारण उपस्थित होनेपर किसीसे राग नहीं करते थे और द्वेषके कारण उपस्थित होनेपर किसीसे द्वेष नहीं करते थे सो ठीक ही है क्योंकि विषयों १ भुजशिखर । २ अनुकरोति स्म । ३ आलिङ्गितः । ४ सख्या । ५ सहारया अ०, स०, इ०, ल० । ६ छेदित । ७ ईषद् । ८ अनुनयं कुर्वती । ९ अग्नि । १० ऊधवत् पूः / शुषः' इति णम्प्रत्ययान्तः । ऊर्ध्वभूतं शरीरमित्यर्थः । ११ धैर्येण । १२ सकलपरीषहोपसर्गं सहमान: । १३ भूभारमित्यर्थः । १४ तपोविशेषेण दीप्तः । १५ परीषहान् । १६ नग्नत्वम् । १७ प्रसिद्धा । १८ रक्षा । १९ सहते स्म । २० विषयवाञ्छारहितस्य । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटत्रिंशत्तमं पव २१.१ नास्यासीत् स्त्रीकृता बाधा मोगनिर्वेदमायुषः । शरीरमशुचि स्त्रैणं पश्यतश्चर्मपुत्रिकाम् ॥११९॥ स्थितश्चयां निषद्यां च शय्यां चासोढ हेलया । मनसाऽनमि संधिस्सनुपानच्छयनासनम् ॥१२०॥ स सेहे वधमाक्रोशं परमार्थविदां वरः । शरीरके स्वयं त्याज्ये निःस्पृहोऽनभिनन्दथुः ॥१२१॥ 'याचित्रियेण नास्येष्टा विष्वाणेन तनुस्थितिः । तेन वाचंयमो भूत्वा याञ्चाबाधामसोढ सः ॥१२२॥ जल्लं मलं तृणस्पर्श सोऽसोढो ढोत्तमक्षमः । व्युत्सृष्टतनुसंस्कारो निर्विशेषसुखासुखः'' ॥१३॥ रोगस्यायतनं देहमाध्यायन्धीरधीरसौ । विविधातका बाधां सहते स्म सुदुःसहाम् ॥१२४॥ प्रज्ञापरिषहं प्राज्ञो ज्ञानजं गर्वमुत्सृजन् । आसर्वज्ञं तदुत्कर्षात् स ससाह ससाहसः ॥१२५॥ स सत्कारपुरस्कारे नासीजातु समुत्सुकः । पुरस्कृतो मुदं नागात् सत्कृतो न स्म तुष्यति ॥१२६॥ परीषहमलामं च संतुष्टो जयति स्म सः । अज्ञानादर्शनोद्भता बाधासीमास्य योगिनः॥१२७॥ की इच्छा न रखनेवाले पुरुषको रति तथा अरतिकी बाधा नहीं होती ॥११८॥ भोगोंसे विरक्त हुए तथा स्त्रियोंके अपवित्र शरीरको चमड़ेको पुतलीके समान देखते हुए उन बाहुबली महाराजको स्त्रियोंके द्वारा की हुई कोई बाधा नहीं हुई थी अर्थात् वे अच्छी तरह स्त्रीपरिषह सहन करते थे ॥११९।। वे हमेशा खड़े रहते थे और जूता तथा शयन आदिकी मनसे भी इच्छा नहीं करते थे इसलिए उन्होंने चर्या, निषद्या और शय्या परिषहको लीला मात्रमें ही जीत लिया था ॥१२०॥ जो स्वयं नष्ट हो जानेवाले शरीरमें निःस्पृह रहते हैं और न उसमें कोई आनन्द ही मानते हैं ऐसे परमार्थके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ बाहुबली महाराज वध और आक्रोश परिषहको भी सहन करते थे ॥१२१।। याचनासे प्राप्त हुए भोजनके द्वारा शरीरकी स्थिति रखना उन्हें इष्ट नहीं था इसलिए वे मौन रहकर याचना परिषहकी बाधाको सहन करते थे ॥१२२॥ जिन्होंने उत्तम क्षमा धारण की है, शरीरका संस्कार छोड़ दिया है और जिन्हें सुख तथा दुःख दोनों ही समान हैं ऐसे उन मुनिराजने स्वेद मल तथा तृण स्पर्श परिषहको भी सहन किया था ॥१२३॥ 'यह शरीर रोगोंका घर है' इस प्रकार चिन्तवन करते ही वे धीर-वीर बुद्धिके धारक बाहुबली बड़ी कठिनतासे सहन करनेके योग्य रोगोंसे उत्पन्न हुई बाधाको भी सहन करते थे ॥१२४॥ ज्ञानका उत्कर्ष सर्वज्ञ होने तक है अर्थात् जबतक सर्वज्ञ न हो जावे तबतक ज्ञान घटता बढ़ता रहता है इसलिए ज्ञानसे उत्पन्न हुए अहंकारका त्याग करते हुए अतिशय बुद्धिमान् और साहसी वे मुनिराज प्रज्ञा परिषहको सहन करते थे । भावार्थ - केवलज्ञान होनेके पहले सभीका ज्ञान अपूर्ण रहता है ऐसा विचार कर वे कभी ज्ञानका गर्व नहीं करते थे ॥१२५।। वे अपने सत्कार पुरस्कारमें कभी उत्कण्ठित नहीं होते थे । यदि किसीने उन्हें अपने कार्यमें अगुआ बनाया तो वे हर्षित नहीं होते थे और किसीने उनका सत्कार किया तो सन्तुष्ट नहीं होते थे । भावार्थ - अपने कार्य में किसीको अगुआ बनाना पुरस्कार कहलाता है तथा स्वयं आये हुएका सम्मान करना सत्कार कहलाता है। वे मुनिराज सत्कार पुरस्कार दोनोंमें ही निरुत्सुक रहते थे - उन्होंने सत्कार पुरस्कार परिषह अच्छी तरह सहन किया था ॥१२६॥ सदा सन्तुष्ट रहनेवाले बाहुबलीजीने अलाभ परिषहको जीता था तथा अज्ञान और अदर्शनसे उत्पन्न होनेवाली बाधाएँ भी उन मुनिराजको नहीं हुई थीं ॥१२७।। १ निर्वेदं गतस्य । -मीयुषः प०, इ०, द०। २ स्त्रीसंबन्धि । ३ अभिसंधानमकुर्वन् । ४ पादत्राणः । 'पादूरुपानत् स्त्री' इत्यभिधानात् । ५ आनन्दरहितः । ६ यात्रनया निवृत्तेन । ७ भोजनेन । ८ तेन कारणेन । ९ मौनी भूत्वा । १० धृतः । ११ समानसुखदुःखः । १२ गृहम् । १३ स्मरन् । १४ ज्ञानोत्कर्षात् । उपर्युपरि केवलज्ञानादित्यर्थः । १५ सहते स्म । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आदिपुराणम् परीषहजयादस्य विपुला निर्जराऽभवत् । कर्मणां निर्जरोपायः परीषहजयः परः ॥१२८॥ क्रोधं तितिक्षया'मानमुत्सेक परिवर्जनैः । मायामृजुतया लोमं संतोषेण जिगाय सः ॥१२६॥ पञ्चेन्द्रियाण्यनायासात् सोऽजयजितमन्मथः । विषयेन्धनदीप्तस्य कामाग्नेः शमनं तपः ॥१३०॥ आहारमयसंज्ञे च समैथुनपरिग्रहे । अनङ्गविजयादेताः संज्ञाः क्षपयति स्म सः॥१३१॥ इत्यन्तरङ्गशत्रूणां स भअन् प्रसरं मुहुः । जयति स्माऽऽत्मनाऽऽत्मानमात्मविद् विदिताखिलः ॥१३२॥ व्रतं च समितीः सर्वाः सम्यगिन्द्रियरोधनम् । अचेलतां च केशानां प्रतिलुञ्चनसंग रम् ॥१३॥ आवश्यकेष्वसंबाधमस्नानं झितिशायिताम् । अदन्तधावनं स्थित्वा भुक्ति भक्तं च नासकृत् ॥१३॥ प्राहुर्मूलगुणानेतान् तथोत्तरगुणाः परे। तेषां माराधने यत्रं सोऽतनिष्टातनुर्मुनिः ॥१३५॥ "एतेष्वहापयन्" कांचिद् व्रतशुद्धिं परां श्रितः । सोऽदीपि किरण स्वानिव दीप्तैस्तपोंऽशुमिः ॥१३६॥ गौरवैस्विभिरुन्मुक्तः परां निःशल्यतां गतः ।' धर्मेर्दशमिरारुढदायोऽभून्मुक्तिवर्त्मनि ॥१३७॥ ___ गुप्तित्रयमयीं गुप्तिं श्रितो ज्ञानासिमासुरः । संवर्मितः समितिमिः स भेजे विजिगीषुताम् ॥१३८॥ इस प्रकार परिषहोंके जीतनेसे उनके बहुत बड़ी कर्मोकी निर्जरा हो गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि परिषहोंको जीतना ही कर्मोकी निर्जरा करनेका श्रेष्ठ उपाय है ॥१२८। उन्होंने क्षमासे क्रोधको, अहंकारके त्यागसे मानको, सरलतासे मायाको और सन्तोषसे लोभको जीता था ॥१२९।। कामदेवको जीतनेवाले उन मुनिराजने पाँच इन्द्रियोंको अनायास ही जीत लिया था सो ठीक ही है क्योंकि विषयरूपी ईधनसे जलती हुई कामरूपी अग्निको शमन करनेवाला तपश्चरण ही है। भावार्थ-इन्द्रियोंको वश करना तप है और यह तभी हो सकता है जब कामरूपी अग्निको जीत लिया जावे ॥१३०॥ उन्होंने कामको जीत लेनेसे आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन संज्ञाओंको नष्ट किया था ॥१३१॥ इस प्रकार अन्तरंग शत्रुओंके प्रसारको बारबार नष्ट करते हुए उन आत्मज्ञानी तथा समस्त पदार्थोंको जाननेवाले मुनिराजने अपने आत्माके द्वारा ही अपने आत्माको जीत लिया था ॥१३२॥ पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रियदमन, वस्त्र परित्याग, केशोंका लोंच करना, छह आवश्यकोंमें कभी बाधा नहीं होना, स्नान नहीं करना, पृथिवीपर सोना, दाँतौन नहीं करना, खड़े होकर भोजन करना और दिनमें एक बार आहार लेना, इन्हें अट्ठाईस मूलगुण कहते हैं। इनके सिवाय चौरासी लाख उत्तर गुण भी हैं, वे महामुनि उन सबके पालन करनेमें प्रयत्न करते थे ॥१३३-१३५॥ इनमें कुछ भी नहीं छोड़ते हुए अर्थात् सबका पूर्ण रीतिसे पालन करते हुए वे मुनिराज व्रतोंकी उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुए थे तथा जिस प्रकार देदीप्यमान किरणोंसे सूर्य प्रकाशमान होता है उसी प्रकार वे भी तपकी देदीप्यमान किरणोंसे प्रकाशमान हो रहे थे ॥१३६।। वे रसगौरव, शब्द गौरव, और ऋद्धिगौरव इन तीनोंसे सहित थे, अत्यन्त नि.शल्य थे और दशधर्मोके द्वारा उन्हें मोक्षमार्ग में अत्यन्त दृढ़ता प्राप्त हो गयी थी ॥१३७।। वे मुनिराज किसी विजिगीषु अर्थात् शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा करनेवाले राजाके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार विजिगीषु राजा किसी दुर्ग आदि सुरक्षित स्थानका आश्रय लेता है, तलवारसे देदीप्यमान होता है और कवच पहने रहता है उसी प्रकार उन मुनिराजने भी तीन गुप्तियोंरूपी दुर्गोका आश्रय ले रखा था, वे भी ज्ञानरूपी तलवारसे देदीप्यमान हो रहे थे और पाँच समितियाँरूप कवच पहन रखा था। भावार्थ - यथार्थमें वे कर्मरूप शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा रखते थे १ क्षमया । २ गर्ग। ३ त०, ब०, अ०, स०, इ०, ५०, द० पुस्तकसंमतोऽयं क्रमः । ल० पुस्तके १२९-१३० श्लोकयोय॑तिक्रमोऽस्ति । ४ समूहम् । ५ ज्ञातसकलपदार्थः । ६ प्रतिज्ञाम् । ७ एकभुक्तमित्यर्थः । ८ मूलोत्तरगुणानाम् ।९ महान् । १० प्रोक्तगुणेषु । ११ हानिमकुर्वन् । १२ उत्तमक्षमादिभिः । १३ रक्षाम् । १४ कवचितः। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तमं पर्व कषायतस्करेनास्य हृतं रत्नत्रयं धनम् । सततं जागरूकस्य भूयो भूयोऽप्रमाद्यतः ॥१३॥ वाचंयमस्य' तस्वासीन्न जातु विकथादरः । नामिद्यतेन्द्रियैरस्य मनोदुर्ग सुसंवृतम् ॥१४॥ मनोऽगारे भहत्यस्य बोधिता ज्ञानदीपिका । व्यदीपि तत एवासन् विश्वेऽर्था ध्येयतापदे ॥१४१॥ मतिश्रुताभ्यां निःशेषमर्थतत्त्वं विचिन्वतः । करामलकवद् विश्वं तस्य विस्पष्टतामगात् ॥१४२॥ परीषहजयैदीप्तो विजितेन्द्रियशात्रवः । कषायशत्रूनुच्छेद्य स तपो राज्यमन्वभूत् ॥१४३॥ योगजाश्च यस्तस्य प्रादुरासंस्तपोबलात् । यतोऽस्याविरभूच्छक्तिस्त्रैलोक्यक्षोभणं प्रति ॥१४४॥ चतुर्भेदेऽपि बोधेऽस्य समुत्कर्षस्तदोदभूत् । तत्तदावरणीयानां क्षयोपशमजृम्भितः ॥१४५॥ मतिज्ञानसमुत्कर्षात् कोष्टबुद्धयादयोऽभवन् । श्रुतज्ञानेन विश्वाङ्गपूर्ववित्वादिविस्तरः ॥१४६॥ परमावधिमुल्लङ्घय स सर्वावधिमासदत् । मनःपर्ययबोधे च संप्रापद् विपुलां मतिम् ॥१४॥ ज्ञानशुद्धया तपःशुद्धिरस्यासीदतिरेकिणी । ज्ञानं हि तपसो मूलं यद्वन्मूलं महातरोः ॥१८॥ ॥१३८॥ कषायरूपी चोरोंके द्वारा उनका रत्नत्रयरूपी धन नहीं चुराया गया था क्योंकि वे सदा जागते रहते थे और बार-बार प्रमादरहित होते रहते थे। भावार्थ - लोकमें भी देखा जाता है कि जो मनुष्य सदा जागता रहता है और कभी प्रमाद नहीं करता उसकी चोरी नहीं होती। भगवान् बाहुबली अपने परिणामोंके शोधमें निरन्तर लवलीन रहते थे और प्रमादको पासमें भी नहीं आने देते थे इसलिए कषायरूपी चोर उनके रत्नत्रयरूपो धनको नहीं चुरा सके थे ॥१३९॥ वे सदा मौन रहते थे इसलिए कभी उनका विकथाओंमें आदर नहीं होता था । और उनका मनरूपी दुर्ग अत्यन्त सुरक्षित था इसलिए वह इन्द्रियोंके द्वारा नहीं तोड़ा जा सका था। भावार्थ - वे कभी विकथाएँ नहीं करते थे और पाँचों इन्द्रियों तथा मनको वशमें रखते थे ॥१४०॥ उनके मनरूपी विशाल घरमें सदा ज्ञानरूपी दीपक प्रकाशमान रहता था इसलिए ही समस्त पदार्थ उनके ध्येयकोटिमें थे अर्थात् ध्यान करने योग्य थे। भावार्थ - पदार्थोंका ध्यान करनेके लिए उनका ज्ञान होना आवश्यक है, मुनिराज बाहुबलीको सब पदार्थोंका ज्ञान था इसलिए सभी पदार्थ उनके ध्यान करने योग्य थे ॥१४१।। वे मति और श्रुत ज्ञानके द्वारा संसारके समस्त पदार्थोंका चिन्तवन करते रहते थे इसलिए उन्हें यह जगत् हाथपर रखे हुए आँवलेके समान अत्यन्त स्पष्ट था ॥१४२॥ जो परिषहोंको जीत लेनेसे देदीप्यमान हो रहे हैं और जिन्होंने इन्द्रियरूपी शत्रुओंको जीत लिया है ऐसे वे बाहुबली कषायरूपी शत्रुओंको छेदकर तपरूपी राज्यका अनुभव कर रहे थे ॥१४३॥ तपश्चरणका बल पाकर उन मुनिराजके योगके निमित्तसे होनेवाली ऐसी अनेक ऋद्धियाँ प्रकट हुई थीं जिनसे कि उनके तीनों लोकोंमें क्षोभ पैदा करनेकी शक्ति प्रकट हो गयी थी ॥१४४॥ उस समय उनके मतिज्ञानावरण आदि कर्मोके क्षमोपशमसे मतिज्ञान आदि चारों प्रकारके ज्ञानोंमें वृद्धि हो गयी थी॥१४५।। मतिज्ञानको वृद्धि होनेसे उनके कोष्ठबुद्धि आदि ऋद्धियाँ प्रकट हो गयी थीं और श्रुत ज्ञानके बढ़नेसे समस्त अंगों तथा पूर्वोके जानने आदिकी शक्तिका विस्तार हो गया था ॥१४६।। वे अवधिज्ञानमें परमावधिको उल्लंघन कर सर्वावधिको प्राप्त हुए थे तथा मनःपर्यय ज्ञानमें विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानको प्राप्त हुए थे ॥१४७। उन मुनिराजके ज्ञानकी शुद्धि होनेसे तपकी शुद्धि भी बहुत अधिक हो गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार किसी बड़े वृक्षके ठहरनेमें मूल कारण उसकी जड़ है उसी प्रकार तपके ठहरने आदिमें मूल कारण ज्ञान है ॥१४८॥ १ मौनप्रतिनः । २ ज्ञानदीपिकायाः सकाशात् । ३ चिन्तयतः । ४ उदेति स्म । ५ द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्ववेदित्वतन्निरूपणादिविस्तरः । ६ बोधि प०, ल०। ७ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानम् । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ आदिपुराणम् तपसोऽग्रेण चोप्रोग्रतपसा चातिकर्शितः। स दीप्ततपसाऽस्यन्तं दिदीपे दीप्तिमानिव ॥१५९॥ सोऽतप्यत तपस्तप्तं तपो घोरं महच यत् । तथोत्तराण्यपि प्राप्तसमुत्कर्षाप्यनुक्रमात् ॥१५०॥ तपोभिरकृशैरेभिः स बभौ मुनिसत्तमः । धनोपरोधनिर्मुक्तः करिव गमस्तिमान् ॥१५१॥ विक्रियाऽष्टतयी चित्रं प्रादुरासीत्तपोबलात् । 'विक्रियां निखिलां हित्वा तीव्रमस्य तपस्यतः ॥१५२॥ प्राप्तौषधढेरस्यासीत् संनिधिर्जगते हितः। आमर्शवेल जल्लाचैः प्राणिनामुपकारिणः ॥१५३॥ "अनाशुषोऽपि तस्यासीद्र सर्द्धिः शक्तिमात्रतः । तपोबलसमुद्भता बलर्द्धिरपि पप्रथे ॥१५॥ अक्षीणावसथः सोऽभूत्तथाऽक्षीण महाशनः (नसः) । सूते हि फलमक्षीणं तपोऽषणमुपासितम् ।१५५। निर्द्वन्द्ववृत्तिरध्यात्ममिति निर्जित्य जित्वरः । ध्यानाभ्यासे मनश्चक्रे योगी योगविदां वरः ॥१५६॥ क्षमामथोत्तमां भेजे परं मार्दवमार्जवम् । सत्यं शौचं तपस्त्यागावाकिंचन्यं च संयमम् ॥१५॥ ब्रह्मचर्य च धर्म्यस्य ध्यानस्यैता हि भावनाः। "योगसिद्धौ परां"सिद्धिमामनन्तीह योगिनः॥१५८॥ वे महामुनि उग्र, और महाउग्र तपसे अत्यन्त कृश हो गये थे तथा दीप्त नामक तपसे सूर्यके समान अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे थे ॥१४९॥ उन्होंने तप्तघोर और महाघोर नामके तपश्चरण किये थे तथा इनके सिवाय उत्तर तप भी उनके खूब बढ़ गये थे ॥१५॥ इन बड़े-बड़े तपोंसे वे उत्तम मनिराज ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो मेघोंके आवरणसे निकला हआ सूर्य ही अपनी किरणोंसे सुशोभित हो रहा हो ॥१५१॥ यद्यपि वे मुनिराज समस्त प्रकारकी विक्रिया अर्थात् विकार भावोंको छोड़कर कठिन तपस्या करते थे तथापि आश्चर्यकी बात है कि उनके तपके बलसे आठ प्रकारकी विक्रिया प्रकट हो गयी थी। भावार्थ-रागद्वेष आदि विकार भावोंको छोड़कर कठिन तपस्या करनेवाले उन बाहुबली महाराजके अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, और वशित्व यह आठ प्रकारकी विक्रिया ऋद्धि प्रकट हुई थीं॥१५२।। जिन्हें अनेक प्रकारकी औषध ऋद्धि प्राप्त है और जो आमर्श, श्वेल तथा जल्ल आदिके द्वारा प्राणियोंका उपकार करते हैं ऐसे उन मुनिराजकी समीपता जगत्का कल्याण करनेवाली थी। भावार्थ - उनके समीप रहनेवाले लोगोंके समस्त रोग नष्ट हो जाते थे ॥१५३॥ यद्यपि वे आहार नहीं लेते थे तथापि शक्ति मात्रसे ही उनके रसऋद्धि प्रकट हुई थी और तपश्चरणके बलसे प्रकट हुई उनकी बल ऋद्धि भी विस्तार पा रही थी। भावार्थ - भोजन करनेवाले मुनिराजके ही रसऋद्धिका उपयोग हो सकता है परन्तु वे भोजन नहीं करते थे इसलिए उनके शक्तिमात्रसे रसऋद्धिका सद्भाव बतलाया है ॥१५४॥ वे मुनिराज अक्षीणसंवास तथा अक्षोणमहानस ऋद्धिको भी धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि पूर्ण रीतिसे पालन किया हुआ तप अक्षीण फल उत्पन्न करता है ॥१५५। विकल्परहित चित्तकी वृत्ति धारण करना ही अध्यात्म है ऐसा निश्चय कर योगके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ उन जितेन्द्रिय योगिराजने मनको जीतकर उसे ध्यानके अभ्यासमें लगाया ॥१५६॥ उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, उत्तमआर्जव, उत्तमसत्य, उत्तमशौच, उत्तमसंयम, उत्तमतप, उत्तमत्याग, उत्तमआकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये दश धर्मध्यानकी भावनाएं हैं। इस लोकमें योगकी सिद्धि होनेपर ही उत्कृष्ट सिद्धि - सफलता - मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है ऐसा योगी लोग मानते हैं ॥१५७-१५८॥ १ कृशीकृतः । २ रविः । ३ मेघ । ४ तरणिः । ५ अष्टप्रकारा। ६ विकारम् । ७ तपः कुर्वतः । ८ छदिः । ९ निष्ठीवन । १०'स्वेदोत्थमलायैः । ११ अनशनप्रतिनः । १२ अमृतस्रवादि । १३ आलय । १४ महत् । १५ 'त०' पुस्तके 'महानसः पाठः सुपाठः इति टिप्पणे लिखितम् । १६ बन्योन्यम् । १७ ध्याननिष्पन्ने सति । १८ मुक्तिम् । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं अनित्यान्राणसंसारैकत्वाऽन्यत्वान्यशौचताम् । निर्जरात्रवसंरो' धलोकस्थित्यनुचिन्तनम् ॥१५९॥ धर्मस्याख्याततां बोधेर्दुर्लभत्वं च लक्षयन् । सोऽनुप्रेक्षाविधि 'दध्यौ विशुद्धं द्वादशात्मकम् ॥ १६०॥ आज्ञा पायौ विपाकं च संस्थानं चानुचिन्तयन् । सध्यानमभजद् धर्म्यं कर्माशान् परिशातयन् ॥ १६१॥ दीपिकायामिवामुष्यां ध्यानदीप्तौ निरीक्षिताः । क्षणं विशीर्णाः कर्माशाः कजलांशा इवाभितः ॥ १६२ ॥ प्रस दिखेषु परिस्फुरन् । तद्वनं गारुडग्रावच्छायातत मिवातनोत् ॥ १६३ ॥ तत्पदान्तविश्रान्ता विन्धा मृगजातयः । वाधिरे मृगैर्नान्यैः क्रूरैरक्रूरतां श्रितैः ॥ १६४ ॥ विरोधिनोऽप्यमी मुक्तविरोध स्वैरमासिताः । तस्योपाङ्ङ्घीभसिंहाद्याः शशंसुर्वैभवं मुनेः ॥ १६५॥ 'जरजम्बूकमाघ्राय मस्तके व्याघ्रधेनुका । स्वशावनिर्विशेषं तामपीष्यत् "स्तन्यमात्मनः ॥ १६६॥ करिणो हरिणारातीनन्त्रीयुः सह यूथपैः । स्तनपानोत्सुका भेजुः करिणीः सिंहपोतकाः ॥ १६७ ॥ कलभान् "कलभाङ्कार मुखरान् नखरैः खरैः । कण्ठीरवः स्पृशन् कण्ठे नाभ्यनन्दिन यूथपैः ॥ १६८ ॥ करिण्यो विसिनीपत्रपुटैः पानीयमानयत् । तद्योगपीठपर्यन्तभुवः सम्मार्जनेच्छया ॥ १६९॥ १ १२ 12 १६ "पुष्करैः पुष्करोदस्तै यस्तैरधिपदद्वयम् । स्तम्बेरमा मुनिं भेजुरहो शमकरं तपः ॥ १७० ॥ १७ उपाधि भोगिनां भोगैर्विनीलैर्व्यरुवन्मुनिः । विन्यस्तैरर्चनायेव नीलैरुत्पलदामकैः ॥ १७१ ॥ २१५ अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आसूव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्माख्यातत्व इन बारह भावनाओंका उन्होंने विशुद्ध चित्तसे चिन्तवन किया था ॥१५९–१६०।। वे आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानका चिन्तवन करते हुए तथा कर्मोंके अंशोंको क्षीण करते हुए धर्मध्यान धारण करते थे ॥ १६९ ॥ जिस प्रकार दीपिकाके प्रज्वलित होनेपर उसके चारों ओर कज्जलके अंश दिखाई देते हैं उसी प्रकार उनकी ध्यानरूपी दीपिका के प्रज्वलित होनेपर उसके चारों ओर क्षणभर नष्ट हुए ।। १६२ || सब दिशाओं में फैलता हुआ उनके शरीरकी दीप्तिका की कान्तिसे व्याप्त हुआ-सा बना रहा था ॥ १६३ ॥ | उनके चरणोंके समीप विश्राम करनेवाले मृग आदि पशु सदा विश्वस्त अर्थात् निर्भय रहते थे, उन्हें सिंह आदि दुष्ट जीव कभी बाधा नहीं पहुँचाते थे क्योंकि वे स्वयं वहाँ आकर अक्रूर अर्थात् शान्त हो जाते थे ।। १६४।। उनके चरणोंके समीप हाथी, सिंह आदि विरोधी जीव भी परस्परका वैर-भाव छोड़कर इच्छानुसार उठतेबैठते थे और इस प्रकार वे मुनिराजके ऐश्वर्यको सूचित करते थे ।। १६५ || हालकी ब्यायी हुई सिंही भैंसेके बच्चेका मस्तक सूँघकर उसे अपने बच्चे के समान अपना दूध पिला रही थी ॥ १६६ ॥ हाथी अपने झुण्डके मुखियोंके साथ-साथ सिंहोंके पीछे-पीछे जा रहे थे और स्तन - के पीनेमें उत्सुक हुए सिंहके बच्चे हथिनियोंके समीप पहुँच रहे थे ।। १६७॥ बालकपनके कारण मधुर शब्द करते हुए हाथियोंके बच्चोंको सिंह अपने पैने नाखूनोंसे उनकी गरदनपर स्पर्श कर रहा था और ऐसा करते हुए उस सिंहको हाथियोंके सरदार बहुत ही अच्छा समझ रहे थे उसका अभिनन्दन कर रहे थे ॥ १६८ ॥ उन मुनिराजके ध्यान करनेके आसन के समीपकी भूमिको साफ करनेकी इच्छासे हथिनियाँ कमलिनीके पत्तोंका दोना बनाकर उनमें भर-भरकर पानी ला रही थीं ॥ १६९ ॥ हाथी अपने सूँड़के अग्रभागसे उठाकर लाये हुए कमल उनके दोनों चरणोंपर रख देते थे और इस तरह वे उनकी उपासना करते थे । अहा, — कर्मोंके अंश दिखाई देते थे समूह उस वनको नीलमणि १ संवर । २ ध्यायति स्म । ३ आज्ञाविचयापायविचयौ । ४ कृशीकुर्वन् । ५ व्याप्तम् । ६ निश्चलाः । ७ विरोधाः ल०, प०, अ०, स० द०, ८ जरज्जन्तुक ल०, इ० । जरत् वृद्ध । ९ नवप्रसूतव्याघ्री । १० समानम् । ११ पाययति स्म । १२ स्तनक्षीरम् । १३ मनोज्ञ ध्वनि निविशेषान् । १४ द्वौ नत्री पूर्वमर्थं गमयतः, अभ्यनन्दीदित्यर्थः । १५ कमलैः । १६ कराग्रोद्धतः । १७ सर्पाणां शरीरैः । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ७ .११ 93 'फणमात्रोद्गता रन्ध्रात्' फणिनः शितयोऽयुतन् । कृताः कुवलयैरर्घा मुनेरिव पदान्तिके ॥ १७२ ॥ रेजुवनलता नम्रैः शाखाग्रैः कुसुमोज्ज्वलैः । मुनिं मजन्स्यो भक्त्येव पुष्पार्धेर्नतिपूर्वकम् ॥१७३॥ शश्वद्विकासिकुसुमैः शाखाद्यैरनिलाहतैः । बभुर्वनद्रुमास्तोषान्निनृत्सव इवासकृत् ॥१७४॥ कलैरलिरुतोद्गानैः फणिनो ननृतुः किल । उत्फणाः फणरत्रांशुदीप्रै मोंगे विवर्तितैः ॥ १५५॥ पुंस्कोकिलकलालापडिण्डिमानुगतैर्लयैः । 'चक्षुःश्रवस्तु पश्यत्सु तद्विषोऽनटिषु र्मुहुः ॥ १७६ ॥ महिम्ना शमिनः” शान्तमित्यभूत्तच्च काननम् । धत्ते हि महतां योगः शममप्यशमात्मसु ॥ १७७॥ शान्तस्वनैर्नदन्ति स्म वनान्तेऽस्मिन् शकुन्तयः । घोषयन्त इवात्यन्तं शान्तमेतत्तपोवनम् ॥१७८॥ तपोनुभावादस्यैवं प्रशान्तेऽस्मिन् वनाश्रये । विनिपातः " कुतोऽध्यासीत् कस्यापि न कथञ्चन ॥ १७६ ॥ "महसास्य तपोयोगजृम्भितेन महीयसा । बभूवुर्हतहृदूध्वान्ताः तिर्यञ्चोऽप्यनमिद्रुहः ॥ १८० ॥ गतिस्खलनतो ज्ञात्वा योगस्थं तं मुनीश्वरम् । असकृत्पूजयामासुंरवतीर्य नभश्चराः ॥ १८१ ॥ महिम्नाऽस्य तपोवीर्यजनितेनालघीयसा । मुहुरासनकम्पोऽभूनतमूर्ध्ना सुधाशिनाम् ॥ १८२ ॥ २१६ 7 1४ तपश्चरण कैसी शान्ति उत्पन्न करनेवाला है, ॥ १७० ॥ वे मुनिराज चरणोंके समीप आये हुए सर्पों के काले फणाओंसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पूजाके लिए नीलकमलोंकी मालाएँ ही बनाकर रखी हों ॥ १७१ ॥ बामीके छिद्रोंसे जिन्होंने केवल फणा ही बाहर निकाले हैं ऐसे काले सर्प उस समय ऐसे जान पड़ते थे मानो मुनिराजके चरणोंके समीप किसीने नील-कमलोंका अर्घ ही बनाकर रखा हो ॥ १७२ ॥ वनकी लताएँ फूलोंसे उज्ज्वल तथा नीचेको झुकी हुई छोटी छोटी डालियोंसे ऐसी अच्छी सुशोभित हो रही थीं मानो फूलोंका अर्घं लेकर भक्ति से नमस्कार करती हुई मुनिराजकी सेवा ही कर रही हों ।। १७३ ।। वनके वृक्ष, जिनपर सदा फूल खिले रहते हैं और जो वायुसे हिल रहे हैं ऐसे शाखाओं के अग्रभागोंसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो सन्तोषसे बार-बार नृत्य ही करना चाहते हों ॥ १७४॥ जिनके फणा ऊँचे उठ रहे हैं ऐसे सर्प, भ्रमरोंके शब्दरूपी सुन्दर गानेके साथ-साथ फणाओंपर लगे हुए रत्नोंकी किरणोंसे देदीप्यमान अपने फणाओंको घुमा घुमाकर नृत्य कर रहे थे ॥ १७५॥ मोर, कोकिलोंके सुन्दर शब्दरूपी डिण्डिम बाजेके अनुसार होनेवाले लयके साथ-साथ सपके देखते रहते भी बार-बार नृत्य कर रहे थे || १७६ || इस प्रकार अतिशय शान्त रहनेवाले उन मुनिराज माहात्म्यसे वह वन भी शान्त हो गया था सो ठीक ही है, क्योंकि महापुरुषों का संयोग क्रूर जीवोंमें भी शान्ति उत्पन्न कर देता है || १७७ || इस वनमें अनेक पक्षी शान्त शब्दोंसे चहक रहे थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो इस बात की घोषणा ही कर रहे हों कि यह तपोवन अत्यन्त शान्त है ॥१७८॥ उन मुनिराजके तपके प्रभावसे यह वनका आश्रम ऐसा शान्त हो गया था कि यहाँ के किसी भी जीवको किसीके भी द्वारा कुछ भी उपद्रव नहीं होता था ॥ १७९ ॥ तप सम्बन्धसे बढ़े हुए मुनिराज के बढ़े भारी तेजसे तियंचोंके भी हृदयका अन्धकार दूर हो गया था और अब वे परस्पर में किसीसे द्रोह नहीं करते थे - अहिंसक हो गये थे || १८० ॥ विद्याधर लोग गति भंग हो जानेसे उनका सद्भाव जान लेते थे और विमानसे उतरकर ध्यान - में बैठे हुए उन मुनिराजकी बार-बार पूजा करते थे || १८१ ॥ तपकी शक्ति से उत्पन्न हुए मुनिराजके बड़े भारी माहात्म्यसे जिनके मस्तक झुके हुए हैं ऐसे देवोंके आसन भी बार-बार कम्पाय १ वल्मीकविलात् । २ कृष्णाः । ३ नर्तितुमिच्छवः । ४ - दुगीतैः ल० । ५ दीप्तै - ६०, ल० । ६ शरीरैः । ७ तालनिबद्धैः । ८ सर्पेषु । 'कुण्डली गूढपाच्चक्षुःश्रवाः काकोदरः फणी' इत्यभिधानात् । ९ सर्पद्विषः । मयूरा इत्यर्थः । १० नन्ति स्म । ११ यतेः । १२ संयोगः । १३ क्रूरस्वरूपेषु । १४ अत्यन्तं प्रसन्नम् । १५ बाधेत्यर्थः । १६ तेजसा । १७ अहिंसकाः । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तम पर्व २१७ विद्याधर्यः कदाचिच्च क्रीडाहेतोरुपागताः । वल्लीरुद्वेष्टयामासु'मुनेः सर्वाङ्गसंगिनीः ॥१८३॥ इत्युपारूढ सद्ध्यानबलोद्भूततपोबलः । स लेश्याशुद्धिमास्कन्दन शुक्लध्यानोन्मुखोऽभवत् ॥१८॥ वत्सरानशनस्यान्ते भरतेशेन पूजितः । स भेजे परमज्योतिः केवलाख्यं यदक्षरम् ॥१८॥ संक्किष्टो भरताधीशः सोऽस्मत इति यत्किल । हृद्यस्य हार्द तेनासीत् तत्पूजाऽपेक्षि केवलम् ॥१८६ केवलार्कोदयात् प्राक्च पश्चाच्च विधिवद् व्यधात् । सपर्या भरताधीशो योगिनोऽस्य प्रसमधीः ॥१८७॥ "स्वागःप्रमार्जनार्थेज्या''प्राक्तनी भरतेशिनः । 'पाश्चात्त्याऽत्यायताऽपीज्या केवलोत्पत्तिमन्वभूत् ॥ या कृता भरतेशेन महेज्या स्वानुजन्मनः । प्राप्तकेवलबोधस्य को हि तवर्णने क्षमः ॥१८९॥ "स्वजन्मानुगमोऽस्त्येको धर्मरागस्तथाऽपरः । जन्मान्तरानुबन्धश्च प्रेमबन्धोऽतिनिर्भरः ॥१०॥ " इत्येकशोऽप्यमी मतिप्रकर्षस्य प्रयोजकाः। तेषां नु सर्वसामग्री का न पुष्णाति सक्रियाम् ॥१९॥ सामात्यः समहीपाल सान्तःपुरपुरोहितः। तं बाहुबलियोगीन्द्र प्रणनामाधिराट् मुदा ॥१९॥ मान होने लगते थे ॥१८२॥ कभी-कभी क्रीड़ाके हेतुसे आयी हुई विद्याधरियाँ उनके सर्व शरीरपर लगी हुई लताओंको हटा जाती थीं ॥१८३॥ इस प्रकार धारण किये हुए समीचीनधर्मध्यानके बलसे जिनके तपकी शक्ति उत्पन्न हुई है ऐसे वे मुनि लेश्याकी विशुद्धिको प्राप्त होते हुए शुक्लध्यानके सम्मुख हुए ॥१८४॥ एक वर्षका उपवास समाप्त होनेपर भरतेश्वरने आकर जिनकी पूजा की है ऐसे महामुनि बाहुबली कभी नष्ट नहीं होनेवाली केवलज्ञानरूपी उत्कृष्ट ज्योतिको प्राप्त हुए । भावार्थ - दीक्षा लेते समय बाहुबलीने एक वर्षका उपवास किया था। जिस दिन उनका वह उपवास पूर्ण हुआ उसी दिन भरतने आकर उनकी पूजा की और पूजा करते ही उन्हें अविनाशी उत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त हो गया ॥१८५॥ वह भरतेश्वर मुझसे संक्लेशको प्राप्त हुआ है अर्थात् मेरे निमित्तसे उसे दुःख पहुँचा है यह विचार बाहुबलीके हृदयमें विद्यमान रहता था, इसलिए केवलज्ञानने भरतकी पूजाकी अपेक्षा की थी। भावार्थ - भरतके पूजा करते ही बाहुबलीका हृदय निश्चिन्त हो गया और उसी समय उन्हें केवलज्ञान भी प्राप्त हो गया ॥१८६।। प्रसन्न है बुद्धि जिसकी ऐसे सम्राट भरतने केवलज्ञानरूपी सूर्यके उदय होनेके पहले और पीछे-दोनों ही समय विधिपूर्वक उन मुनिराजकी पूजा की थी ॥१८७॥ भरतेश्वरने केवलज्ञान उत्पन्न होनेके पहले जो पूजा की थी वह अपना अपराध नष्ट करनेके लिए की थी और केवलज्ञान होनेके बाद जो बड़ी भारी पूजा की थी वह केवलज्ञानकी उत्पत्तिका अनुभव करनेके लिए की थी ॥१८८॥ जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे अपने छोटे भाई बाहुबलीकी भरतेश्वरने जो बड़ी भारी पूजा की थी उसका वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है ? ॥१८९।। प्रथम तो बाहुबली भरतके छोटे भाई थे, दूसरे भरतको धर्मका प्रेम बहुत था, तीसरे उन दोनोंका अन्य अनेक जन्मोंसे सम्बन्ध था, और चौथे उन दोनोंमें बड़ा भारी प्रेम था इस प्रकार इन चारों में से एक-एक भी भक्तिकी अधिकताको बढ़ानेवाले हैं, यदि यह सब सामग्रो एक साथ मिल जाये तो वह कौन-सी उत्तम क्रियाको पुष्ट नहीं कर सकती अर्थात् उससे कौन-सा अच्छा कार्य नहीं हो सकता ? ॥१९०-१९१॥ सम्राट भरतेश्वरने १ मोचयामासुः । २ प्रकटीभूत । ३ गच्छन् । ४ मत् । ५ भुजबलिनः । ६ स्नेहः । 'प्रेमा ना प्रियता हार्द प्रेम स्नेहः' इत्यभिधानात् । ७ हार्दैन। ८ भरतपूजापेक्षि। ९ केवलज्ञानम् । १० निजापराधनिवारणार्था । ११ प्राग्भवा । १२ पश्चाद्भवा । १३ अत्यधिका । १४ निजजननेन । १५ अनुगमनम् । सहोत्पत्ति रित्यर्थः । ९६ - नुबद्धश्च ब०, अ०, स०, ५०,०। १७ एकैकमपि । १८ महीपालैः सहितः । २८ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ आदिपुराणम् किमत्र बहुना रत्नैः कृतोऽर्धः स्वर्णदीजलम् । पाद्यं रत्रार्चिषो दीपास्तण्डुलेज्या च मौक्तिकैः ॥१९३॥ हविः पीयूषपिण्डेन धूपो देवद्रुमांशकैः । पुष्पार्चा पारिजातादिसुरागसुमनश्चयैः ॥१९॥ सरत्ना निधयः सर्वे फलस्थाने नियोजिताः । पूजां रत्नमयीमित्थं रत्नेशो निरवर्तयत् ॥१६५॥ सुराश्वासन कम्पेन ज्ञाततत्केवलोदयाः । चक्रुरस्य परामिज्यां शतावरपुरःसराः ॥१९६॥ ववुर्मन्दं स्वरुद्यानतरुधूननचुञ्चवः । तदा सुगन्धयो वाताः स्वधुनीशीकराहराः ॥१९७॥ मन्द्रं पयोमुचा मार्ग दध्वनुश्च सुरानकाः । पुष्पोत्करो दिवोऽपतत् कल्पानोकहसंभवः ॥१९८॥ रत्नातपत्रमस्योच्चैर्निर्मितं सुरशिल्पिभिः । परायमणिनिर्माणमभाद. दिव्यं च विष्टरम् ॥१९९॥ स्वयं व्यधूयतास्योच्चैः प्रान्तयोश्चामरोत्करः । सभावनिश्च तद्योग्या पप्रथे प्रथितोदया ॥२०॥ सुरैरित्यर्चितः प्राप्तकेवलर्द्धिः स योगिराट् । व्यारान्मुनिभिर्जुष्टः शशीवोडुभिराश्रितः ॥२०१॥ घातिकर्मक्षयोद्भतामुद्वहन् परमेष्ठिताम् । विजहार महीं कृत्स्नां सोऽभिगम्यः सुधाशिनाम् ॥२०२॥ इत्थं स विश्वविद्विश्वं प्रीणयन् स्ववचोऽमृतैः । कैलासमचलं प्रापत् पूतं संनिधिना गुरोः ॥२०३॥ मन्त्रियोंके साथ, राजाओंके साथ और अन्तःपुरकी समस्त स्त्रियों तथा पुरोहितके साथ उन बाहुबली मुनिराजको बड़े हर्षसे नमस्कार किया था ॥१९२॥ इस विषयमें अधिक कहाँतक कहा जावे, संक्षेपमें इतना ही कहा जा सकता है कि उसने रत्नोंका अर्घ बनाया था, गंगाके जलकी जलधारा दी थी, रत्नोंकी ज्योतिके दीपक चढ़ाये थे, मोतियोंसे अक्षतकी पूजा की थी, अमृतके पिण्डसे नैवेद्य अर्पित किया था, कल्पवृक्षके टुकड़ों ( चूर्णो ) से धूपकी पूजा की थी, पारिजात आदि देववृक्षोंके फूलोंके समूहसे पुष्पोंकी अर्चा की थी, और फलोंके स्थानपर रत्नोंसहित समस्त निधियाँ चढ़ा दी थीं इस प्रकार उसने रत्नमयी पूजा की थी ॥१९३-१९५।। आसन कम्पायमान होनेसे जिन्हें बाहुबलीके केवलज्ञान उत्पन्न होनेका बोध हुआ है ऐसे इन्द्र आदि देवोंने आकर उनकी उत्कृष्ट पूजा की ।।१९६॥ उस समय स्वर्गके बगीचेके वृक्षोंको हिलानेमें चतुर तथा गंगा नदीकी बूंदोंको हरण करनेवाला सुगन्धित वायु धीरे-धीरे बह रहा था ॥१९७।। देवोंके नगाड़े आकाशमें गम्भीरतासे बज रहे थे और कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुआ फूलोंका समूह आकाशमें पड़ रहा था ॥१९८॥ उनके ऊपर देवरूपी कारीगरोंके द्वारा बनाया हुआ रत्नोंका छत्र सुशोभित हो रहा था और नीचे बहुमूल्य मणियोंका बना हुआ दिव्य सिंहासन देदीप्यमान हो रहा था ॥१९९॥ उनके दोनों ओर ऊँचाईपर चमरोंका समूह स्वयं दुल रहा था तथा जिसका ऐश्वर्य प्रसिद्ध है ऐसी उनके योग्य सभाभूमि अर्थात् गन्धकुटी भी बनायी गयी थी ॥२००॥ इस प्रकार देवोंने जिनकी पूजा की है और जिन्हें केवलज्ञानरूपी ऋद्धि प्राप्त हुई है ऐसे वे योगिराज अनेक मुनियोंसे घिरे हुए इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो नक्षत्रोंसे घिरा हुआ चन्द्रमा ही हो ॥२०१॥ जो घातियाकर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुई अर्हन्त परमेष्ठीकी अवस्थाको धारण कर रहे हैं तथा इसीलिए देव लोग जिनकी उपासना करते हैं ऐसे भगवान् बाहुबलीने समस्त पृथिवीमें विहार किया ॥२०२॥ इस प्रकार समस्त पदार्थोंको जाननेवाले बाहुबली अपने वचनरूपी अमृतके द्वारा समस्त संसारको सन्तुष्ट करते हुए, पूज्य पिता भगवान् वृषभदेवके सामीप्यसे पवित्र हुए कैलास पर्वतपर जा पहुँचे ॥२०३॥ १चरुः । २ हरिचन्दनशकलः । ३ इन्द्र । ४ उभयपाश्वयोः । ५ सेवितः । ६ आराध्यः । ७ वृषभस्य । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तम पर्व मालिनी सकलनृपसमाजे दृष्टिमल्लाम्बुयुद्ध विजितभरतकीर्तिर्यः प्रवव्राज मुक्त्यै । तृणमिव विगणय्य प्राज्यसाम्राज्यभारं चरमतनुधराणामग्रणीः सोऽवताद् वः ॥२०॥ भरतविजयलक्ष्मीर्जाज्वलच्चक्रमूर्त्या यमिनमभिसरन्ती क्षत्रियाणां समक्षम् । चिरतरमवधूतापत्रपापात्रमासी दधिगतगुरुमार्गः सोऽवताद् दोर्बली वः ॥२०॥ स जयति जयलक्ष्मीसंग माशामवन्ध्यां विदधदधिकधामा संनिधौ पार्थिवानाम् । सकलजगदगारव्यातकीर्तिस्तपस्या मभजत यशसे यः सूनुराधस्य धातुः ॥२०६॥ जयति भुजबलीशो बाहुवीर्य स यस्य प्रथितमभवदने क्षत्रियाणां नियुद्धे । भरतनृपतिनामा यस्य नामाक्षराणि स्मृतिपथमुपयान्ति प्राणिवृन्दं पुनन्ति ॥२०७॥ जयति भुजगवस्त्रोद्वान्तनिर्यद्गराग्निः प्रशममसकृदापत् प्राप्य पादौ यदीयौ। सकलभुवनमान्यः खेचरस्त्रीकराग्री द्रथितविततवीरुद्वेष्टितो दोबलीशः ॥२०॥ जिन्होंने समस्त राजाओंकी सभामें दृष्टियुद्ध, मल्लयुद्ध और जलयुद्धके द्वारा भरतको समस्त कीर्ति जीत ली थी, जिन्होंने बड़े भारी राज्यके भारको तृणके समान तुच्छ समझकर मुक्ति प्राप्त करनेके लिए दीक्षा धारण की थी और जो चरमशरीरियोंमें सबसे मुख्य थे ऐसे भगवान् बाहुबली तुम सबकी रक्षा करें ॥२०४॥ सब क्षत्रियोंके सामने भरतकी विजयलक्ष्मी देदीप्यमान चक्रकी मूर्तिके बहानेसे जिन बाहुबलीके समीप गयी थी परन्तु जिनके द्वारा सदाके लिए तिरस्कृत होकर लज्जाका पात्र हुई थी और जिन्होंने अपने पिताका मार्ग (मुनिमार्ग) स्वीकृत किया था वे भगवान् बाहबली तुम सबकी रक्षा करें॥२०५॥ जो अनेक राजाओंके सामने सफल हई जयलक्ष्मीके समागमकी आशाको धारण कर रहे थे. सबसे अधिक तेजस्वी थे, जिनकी कीर्ति समस्त जगत्रूपी घरमें व्याप्त थी और जिन्होंने वास्तविक यशके लिए तप धारण किया था वे आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवके पुत्र सदा जयवन्त हों ॥२०६॥ जिनकी भुजाओंका बल क्षत्रियोंके सामने भरतराजके साथ हुए मल्लयुद्धमें प्रसिद्ध हुआ था, और जिनके नामके अक्षर स्मरणमें आते ही प्राणियोंके समूहको पवित्र कर देते हैं वे बाहबली स्वामी सदा जयवन्त हों ॥२०७॥ जिनके चरणोंको पाकर सर्पोके मुंहके उच्छ्वाससे निकलती हुई विषकी अग्नि बार-बार शान्त हो जाती थी, जो समस्त लोकमें मान्य हैं, और जिनके शरीरपर फैली हुई लताओंको विद्याधरियाँ अपने हाथोंके अग्रभागसे हटा देती थीं वे बाहुबली स्वामी १ समझे । २ भृशं ज्वलत् । ३ भुजबलिना अवधीरता। ४ लज्जाभाजनम् । ५ संगवाञ्छाम् । ६ तप इत्यर्थः । ७ सह । ८ उपगतानि भूत्वा । ९ विषाग्निः । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० आदिपुराणम् जयति भरतराजप्रांशुमल्यग्ररत्नो पललुलितनखेन्दुः स्रष्टुराद्यस्य सूनुः । भुजगकुलकलापैराकुलैर्नाकुलत्वं धृतिबलकलितो यो योगभृन्नैव भेजे ॥२०१॥ 'शितिभिरलिकुलाभैराभुजं लम्बमानः *पिहितभुजविटङ्को मूर्धजिल्लि ताः । जलधरपरिरोधध्याममूर्द्धव भूध्रः श्रियमपुषदनूनां दोर्बली यः स नोऽव्यात् ॥२१०॥ स जयति हिमकाले यो हिमानीपरीतं' वपुरचल इवोच्चैर्बिभ्रदाविर्वभूव । नवघनसलिलोधैर्यश्च धौतोऽन्दकाले खरघृणि किरणानप्युष्णकाले विषेहे ॥२११॥ जगति जयिनमेनं योगिनं योगिवर्यै रधिगतमहिमानं मानितं माननीयैः । स्मरति हृदि नितान्तं यः स शान्तान्तरात्मा भजति विजयलक्ष्मीमाशु जैनीमजय्याम् ॥२१२॥ इत्या भगवन्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भुजबलिजलमल्लदृष्टियुद्धविजयदीक्षाकेवलोत्पत्तिवर्णनं नाम षट्त्रिंशत्तमं पर्व ॥३६॥ सदा जयवन्त हों ॥२०८॥ भरतराजके ऊँचे मुकुटके अग्र भागमें लगे हुए रत्नोंसे जिनके चरणके नखरूपी चन्द्रमा अत्यन्त चमक रहे थे, जो धैर्य और बलसे सहित थे तथा जो इसलिए ही क्षोभको प्राप्त हुए सोंके समूहसे कभी आकुलताको प्राप्त नहीं हुए थे वे आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेवके पुत्र बाहुबली योगिराज सदा जयवन्त रहें ॥२०९॥ भ्रमरोंके समूहके समान काले, भुजाओं तक लटकते हुए तथा जिनका अग्रभाग टेढ़ा हो रहा है ऐसे मस्तकके बालोंसे जिनकी भुजाओंका अग्रभाग ढक गया है और इसलिए ही जो मेघोंके आवरणसे मलिन शिखरवाले पर्वतकी पूर्ण शोभाको पुष्ट कर रहे हैं वे भगवान् बाहुबली हम सबकी रक्षा करें ॥२१०॥ जो शीतकालमें बर्फसे ढके हुए ऊँचे शरीरको धारण करते हुए पर्वतके समान प्रकट होते थे, वर्षाऋतुमें नवीन मेघोंके जलके समूहसे प्रक्षालित होते थे - भीगते रहते थे और ग्रीष्मकालमें सूर्यको किरणोंको सहन करते थे वे बाहुबली स्वामी सदा जयवन्त हों ॥२११॥ जिन्होंने अन्तरंग-बहिरंग शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली है, बड़े-बड़े योगिराज ही जिनकी महिमा जान सकते हैं, और जो पूज्य पुरुषोंके द्वारा भी पूजनीय हैं ऐसे इन योगिराज बाहुबलीको जो पुरुष अपने हृदयमें स्मरण करता है उसका अन्तरात्मा शान्त हो जाता है और वह शीघ्र ही जिनेन्द्रभगवान्की अजय्य ( जिसे कोई जीत न सके ) विजयलक्ष्मी - मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त होता है ॥२१२।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें बाहुबलीका जल-युद्ध, मल्ल-युद्ध और नेत्र-युद्ध में विजय प्राप्त करना, दीक्षा धारण करना, और केवलज्ञान उत्पन्न होनेका वर्णन करनेवाला छत्तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। १ कृष्णः । २ आच्छादितबाहवलभीः । ३ वक्र । 'अविरुद्धं कुटिलं भुग्नं वेल्लितं वक्रमित्यपि' इत्यभिधानात् । ४ हिमसंहतिवेष्टितम् । 'हिमानी हिमसंहतिः' इत्यभिधानात् । ५ प्रावृट्काले । ६ सूर्यः । ७ सहति स्म । ८ जयशीलम् । ९ पूजितम् । १० उपशान्तचित्तः । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व अय निर्वर्तिताशेषदिग्जयो भरतेश्वरः । पुरं साकेतमुत्केतु प्राविक्षत् परया श्रिया ॥१॥ तत्रास्य नृपशार्दूलैरमिषेकः कृतो मुदा। चातुरन्तजयश्रीस्ते प्रथतां भुवनेविति ॥२॥ तमभ्यषिञ्चन् पौराश्च सान्तःपुरपुरोधसः । चिरायुः पृथिवीराज्यं क्रियाद् देव भवानिति ॥३॥ राज्याभिषेचने भर्तयों विधिवृषभेशिनः । स सर्वोऽत्रापि तीर्थाम्बुसं मारादिः कृतो नृपैः ॥४॥ 'तथाऽभिषिक्तस्तेनैव विधिनाऽलंकृतोऽधिराट् । तथैव जयघोषादिः प्रयुक्तः सामरैर्नृपैः ॥५॥ तथैव सत्कृता विश्वे पार्थिवाः ससनाभयः । तथैव तर्पितो लोकः परया दानसंपदा ॥६॥ तथाध्वनन् महाघोषा नान्दीघोषा महानकाः । प्रक्षुभ्यदब्धिनिर्घोषो येषां घोषैरधः कृतः ॥७॥ आनन्दिन्यो महाभेर्यस्तथैवामिहता मुहः । संगीतविधिरारब्धः तथा प्रमदमण्डपे ॥८॥ मूर्धाभिषिक्तः प्राप्ताभिषेकस्यास्याजनि तिः । मेराविवाभिषिक्तस्य नाकीन्द्ररादिवेधसः ॥९॥ गङ्गासिन्धू सरिदेव्यौ साक्षतैस्तीर्थवारिभिः। अभ्यौशिष्टां तमभ्येत्य रखभृङ्गारसंभृतः ॥१०॥ कृतामिषेकमेनं च नृपासनमधिष्ठितम् ।' गणबद्धामरा भेजुः प्रणनैर्मणिमौलिभिः ॥११॥ अथानन्तर जिसने समस्त दिग्विजय समाप्त कर लिया है ऐसे भरतेश्वरने जिसमें अनेक ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसे अयोध्यानगरमें बड़े वैभवके साथ प्रवेश किया ॥१॥ चतुरंग विजयसे उत्पन्न हुई आपकी लक्ष्मी संसारमें अतिशय वृद्धि और प्रसिद्धिको प्राप्त होती रहे यही विचार कर बड़े-बड़े राजाओंने उस अयोध्या नगरमें हर्षके साथ महाराज भरतका अभिषेक किया था ॥२॥ हे देव, आप दीर्घजीवी होते हुए चिरकाल तक पृथिवीका राज्य करें, इस प्रकार कहते हुए अन्तःपुर तथा पुरोहितोंके साथ नगरके लोगोंने उनका अभिषेक किया था ॥३॥ जो विधि भगवान् वृषभदेवके राज्याभिषेकके समय हुई थी, तीर्थों का जल इकट्ठा करना आदि वह सब विधि महाराज भरतके अभिषेकके समय भी राजाओंने की थी ॥४॥ देवोंके साथ-साथ राजाओंने भगवान वषभदेवके समान ही भरतेश्वरका अभिषेक किया था, उसी प्रकार आभूषण पहनाये थे और उसी प्रकार जयघोषणा आदि की ॥५॥ उसी प्रकार परिवारक लोगोंके साथ-साथ राजाओंका सत्कार किया गया था. और उसी प्रकार दान दा हु२ सम्पत्तिसे सब लोग सन्तुष्ट किये गये थे ॥६॥ जिनके शब्दोंने क्षोभित हुए समुद्रके शब्दको भी तिरस्कृत कर दिया था ऐसे बड़े-बड़े शब्दोंवाले मांगलिक नगाड़े उसी प्रकार बजाये गये थे ॥७॥ उसी प्रकार आनन्दकी महाभेरियाँ बार-बार बजायी जा रही थीं और आनन्दमण्डपमें संगीतकी विधि भी उसी प्रकार प्रारम्भ की गयी थी ॥८॥ मेरु पर्वतपर इन्द्रोंके द्वारा अभिषेक किये हुए आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवकी जैसी कान्ति हुई थी उसी प्रकार राजाओंके द्वारा अभिषेकको प्राप्त हुए महाराज भरतकी भी हई थी ॥९॥ गंगा-सिन्धु नदियोंकी अधिष्ठात्री गंगा-सिन्धु नामकी देवियोंने आकर रत्नोंके भंगारोंमें भरे हुए अक्षत सहित तीर्थजलसे भरतका अभिषेक किया था ॥१०॥ जिनका अभिषेक समाप्त हो चुका और जो राजसिंहासनपर बैठे हुए हैं ऐसे महाराज भरतकी अनेक गणबद्धदेव अपने मणिमयी मुकुटोंको नवा-नवाकर १ साकेतपुर्याम् । २ चक्रिणः । ३ चतुर्दिक्ष भवा जयलक्ष्मीः । चातुरङ्ग-ल०, अ०, १०, स०, ३० । ५ समूह। ६ यथा वृषभोऽभिषिक्तः। एवमत्तरत्रापि योज्यम् । ७ प्रथममङ्गलरवाः । ८ बाम ९ अङ्गरक्षदेवाः । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आदिपुराणम् हिमवद्विजयार्धेशौ मागधाद्याश्च देवताः । खेचराश्चोभयश्रेण्योस्त नेमुर्नम्रमौलयः ॥१२॥ सोऽभिषिक्तोऽपि नोस्सिको बभूव नृपसत्तमैः । महतां हि मनोवृत्ति!त्सेक परिरम्भिणी ॥१३॥ चामरैवींज्यमानोऽपि न निवृतिमगाद् विभुः । भ्रातृप्वसंविभक्ता श्रीरितीहानुशयानुगः ॥१४॥ दोर्बलिभ्रातृसंघर्षात् नास्य तेजो विकर्षितम् । प्रत्युतोत्कर्षिहेम्नो वा घृष्टस्य निकषोपले ॥१५॥ निष्कण्टकमिति प्राप्य साम्राज्यं भरताधिपः । बभौ भास्वानिवोद्रिक्तप्रतापः शुद्धमण्डलः ॥१६॥ क्षेमैकतानतां भेजुः प्रजास्तस्मिन् सुराजनि । योगक्षेमौ वितन्वाने मन्वानाः स्वां सनाथताम् ॥१७॥ यथास्वं संविमज्यामी संभुक्ता निधयोऽमुना । संभोगः संविभागश्च फलमर्थार्जने द्वयम् ॥१८॥ रत्नान्यपि यथाकामं निर्विष्टानि निधीशिना । रत्नानि ननु तान्येव यानि यान्त्युपयोगिताम् ॥१९॥ मनुश्चक्रभृतामाद्यः षट्खण्डमरताधिपः । राजराजोऽधिराट् सम्राडित्यस्योद्घोषितं यशः ॥२०॥ नन्दनो वृषभेशस्य भरतः शातमातुरः । इत्यस्य रोदसी व्याप शुभ्रा कीर्तिरनश्वरी ॥२१॥ कीहक परिच्छदस्तस्य विभवचक्रवर्तिनः । इति प्रश्नवशादस्य विभवोदेशकीर्तनम् ॥२२॥ गलन्मदजलास्तस्य गजाः सुरगजोपमाः । लक्षाश्चतुरशीतिस्ते रदैर्बद्धैः सुकरिपतैः ॥२३॥ सेवा कर रहे थे ॥११॥ हिमवान् और विजयार्ध पर्वतके अधीश्वर हिमवान् तथा विजयाधदेव, मागध आदि अन्य अनेक देव, और उत्तर-दक्षिण श्रेणीके विद्याधर अपने मस्तक झकाझुकाकर उन्हें नमस्कार कर रहे थे ॥१२॥ अनेक अच्छे-अच्छे राजाओंके द्वारा अभिषिक्त होनेपर भी उन्हें कुछ भी अहंकार नहीं हुआ था सो ठोक ही है क्योंकि महापुरुषोंकी मनोवृत्ति अहंकारका स्पर्श नहीं करती ॥१३॥ यद्यपि उनके ऊपर चमर ढुलाये जा रहे थे तथापि वे उससे सन्तोषको प्राप्त नहीं हुए थे क्योंकि उन्हें निरन्तर इस बातका पछतावा हो रहा था कि मैंने अपनी विभूति भाइयोंको नहीं बाँट पायी ॥१४॥ भाई बाहुबलीके संघर्षसे उनका तेज कुछ कम नहीं हुआ था किन्तु कसौटीपर घिसे हुए सोनेके समान अधिक ही हो गया था ॥१५॥ इस प्रकार निष्कण्टक राज्यको पाकर महाराज भरत उस सूर्यके समान देदीप्यमान हो रहे थे जिसका कि प्रताप बढ़ रहा है और मण्डल अत्यन्त शुद्ध है ॥१६।। योग ( अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करना ) और क्षेम ( प्राप्त हुई वस्तुकी रक्षा करना ) को फैलानेवाले उन उत्तम राजा भरतके विद्यमान रहते हुए प्रजा अपने आपको सनाथ समझती हुई कुशल मंगलको प्राप्त होती रहती थी ॥१७॥ महाराज भरतने निधियोंका यथायोग्य विभाग कर उनका उपभोग किया था सो ठीक ही है क्योंकि स्वयं सम्भोग करना और दूसरेको विभाग कर देना ये दो ही धन कमानेके मुख्य फल हैं ॥१८॥ निधियोंके स्वामी भरतने रत्नोंका भी इच्छानुसार उपभोग किया था सो ठीक ही है क्योंकि वास्तवमें रत्न वही हैं जो उपयोगमें आवें ॥१९॥ यह सोलहवाँ मनु है, चक्रवतियों में प्रथम चक्रवर्ती है, षट् खण्ड भरतका स्वामी है, राजराजेश्वर है, अधिराट् है और सम्राट् है इस प्रकार उसका यश उद्घोषित हो रहा था ॥२०॥ यह भरत भगवान् वृषभदेवका पुत्र है और इसकी माताके सौ पुत्र हैं इस प्रकार इसकी कभी नष्ट नहीं होनेवाली उज्ज्वल कीर्ति आकाश तथा पृथिवीमें व्याप्त हो रही थी ॥२१॥ उस चक्रवर्तीका परिवार कितना था ? और विभूति कितनी थी? राजा श्रेणिकके इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिए गौतमस्वामी उसकी विभूतिका इस प्रकार वर्णन करने लगे ॥२२॥ महाराज भरतके, जिनके गण्डस्थलसे मदरूपी जल झर रहा है, और जो जड़े हुए सुसज्जित दाँतोंसे सुशो १ उत्सेकः अहंकारवान् । गर्वालिङ्गिनी। २ सुखम् । ३ अनुभुक्तानि । ४ श्रेणिप्रश्नवशात् । ५ रदैः उपलक्षिताः । ६ स्वर्णकटकखण्डः । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व I दिव्यरत्नविनिर्माणरथास्तावन्त एव हि । मनोवायुजवाः सूर्यरथप्रस्पर्धिरंहसः ॥ २४ ॥ कोयोऽष्टादशाश्वानां भूजलाम्बरचारिणाम् । यत्खुरामाणि धौतानि पूतैस्त्रिपथगा जलैः ॥२५॥ चतुर्भिरधिकाशीतिः कोटयोऽस्य पदातयः । येषां सुभटसंमर्दे निरूढं पुरुषव्रतम् ॥ २६ ॥ वज्रास्थिबन्धनं वाजैर्वलयैर्वेष्टितं वपुः । वज्रनाराचनिर्भिन्नम भेद्यमभवत् प्रभोः ॥२७॥ समसुप्रविभक्ताङ्गं चतुरस्रं सुसंहति । वपुः सुन्दरमस्यासीत् संस्थानेनादिना विभोः ॥२८॥ निष्टप्त कनकच्छायं सच्चतुःषष्टिलक्षणम् । रुरुचे व्यञ्जनैस्तस्य निसर्गसुभगं वपुः ॥ २९ ॥ शारीरं यच्च यावच्च बलं षट्खण्डभूभुजाम् । ततोऽधिकतरं तस्य बलमासीद् बलीयसः ॥३०॥ शासनं तस्य चक्राङ्कमासिन्धोरनिवारितम् । शिरोभिरूढमारूढविक्रमैः पृथिवीश्वरैः ॥३१॥ द्वात्रिंशन्मौलिबद्धानां सहस्राणि महीक्षिताम् । कुलाचलैरिवाद्रीन्द्रः स रेजे यैः परिष्कृतः ॥३२॥ तावन्त्येव सहस्राणि देशानां सुनिवेशिनाम् । यैरलंकृतमाभाति चक्रभृत्क्षेत्रमायतम् ॥३३॥ 19. 'कलाभिजात्यसंपन्ना देव्यस्तावत्प्रमास्स्मृताः । रूपलावण्यकान्तीनां याः शुद्धाकरभूमयः ॥ ३४ ॥ म्लेच्छराजादिभिर्दन्तास्तावन्त्यो नृपवल्लभाः । अप्सरः संकथाः क्षोणीं यकाभिरवतारिताः ॥ ३५ ॥ अवरुद्धाश्च तावन्त्यस्तन्व्यः कोमलविग्रहाः । मदनोद्दीपनैर्यासां दृष्टिबाणैर्जितं जगत् ॥३६॥ भित हैं ऐसे ऐरावत हाथीके समान चौरासी लाख हाथी थे | २३ || जिनका वेग मन और वायु के समान है अथवा जिनकी तेज चाल सूर्यके साथ स्पर्धा करनेवाली है ऐसे दिव्य रत्नों के बने हुए उतने ही अर्थात् चौरासी लाख ही रथ थे || २४|| जिनके खुरोंके अग्रभाग पवित्र गंगाजलसे धुले हुए हैं और जो पृथिवी, जल तथा आकाशमें समान रूपसे चल सकते हैं ऐसे अठारह करोड़ घोड़े हैं ।।२५।। अनेक योद्धाओंके मर्दन करने में जिनका पुरुषार्थं प्रसिद्ध है ऐसे चौरासी करोड़ पैदल सिपाही थे ||२६|| महाराज भरतका शरीर वज्रकी हड्डियों के बन्धन और वज्रके ही dai वेष्टित था, वज्रमय कीलोंसे कीलित था और अभेद्य अर्थात् भेदन करने योग्य नहीं था । भावार्थ उनका शरीर वज्रवृषभनाराचसंहननका धारक था ||२७|| उनका शरीर चतुरसू था - चारों ओरसे मनोहर था, उसके अंगोपांगों का विभाग समानरूपसे हुआ था, अंगों की मिलावट भी ठीक थी और समचतुरस्र नामके प्रथम संहननसे अत्यन्त सुन्दर था || २८|| जिसकी कान्ति तपाये हुए सुवर्णके समान थी और जिसपर चौंसठ लक्षण थे ऐसा उसका स्वभावसे ही सुन्दर शरीर तिल आदि व्यंजनोंसे बहुत ही सुशोभित हो रहा था || २९ || छहों खण्डके राजाओंका जो और जितना कुछ शारीरिक बल था उससे कहीं अधिक बल उस बलवान् भरतके शरीर में था ||३०|| जिसका चक्र हो चिह्न है और समुद्रपर्यन्त जिसे कोई नहीं रोक सकता ऐसे उसके शासनको बड़े-बड़े पराक्रमको धारण करनेवाले राजालोग अपने शिरपर धारण करते थे ॥३१ ॥ उनके बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा थे, उन राजाओंसे वेष्टित हुए महाराज भरत कुलाचलोंसे घिरे हुए सुमेरु पर्वत के समान सुशोभित होते थे ||३२|| महाराज भरतके अच्छीअच्छी रचनावाले बत्तीस हजार ही देश थे और उन सबसे सुशोभित हुआ चक्रवर्तीका लम्बाचौड़ा क्षेत्र बहुत ही अच्छा जान पड़ता था ||३३|| उनके उतनी ही अर्थात् बत्तीस हजार ही देवियाँ थीं जो कि उच्च कुल और जातिसे सम्पन्न थीं तथा रूप लावण्य और कान्तिकी शुद्ध खानिके समान जान पड़ती थीं ॥ ३४ ॥ इनके सिवाय जिन्होंने पृथिवीपर अप्सराओं की कथाओंको उतार लिया था ऐसी म्लेच्छ राजा आदिकोंके द्वारा दी हुई बत्तीस हजार प्रिय रानियाँ थीं ||३५|| इसी प्रकार जिनका शरीर अत्यन्त कोमल था और कामको उत्तेजित करने - २२३ १ चतुरशीतिलक्षा एव । २ वेगाः । ३ गङ्गा । ४ प्रसिद्धम् । ५ पौरुषम् । ६ बन्धनैर्वा -ल० । ७ कीलितम् । ८ मनोज्ञम् । ९ सुसंबद्धम् । १० भूभुजाम् । ११ कुलजात्यभि-ल० । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १४ नखांशु कुसुमोद्भेदेरारकैः पाणिपल्लवैः । तास्तन्थ्यो भुजशाखाभिर्भेजुः कल्पलताश्रियम् ॥३७॥ स्तनाब्जकुट्मलैरास्यपङ्कजैश्व विकासिभिः । अब्जिन्य इव ता रेजुर्मदनावासभूमिकाः ॥ ३८ ॥ मन्ये पात्राणि गात्राणि तासां कामग्रहोच्छितौ । पदावेश्वशादेष' दशां प्राप्तोऽतिवर्तिनीम् ॥ ३६ ॥ शङ्के' निशातपाषाणानखानासां मनोभुवः । यत्रोपारूढ तैक्ष्ण्यैः स्वैरविध्यत् कामिनः शरैः ॥ ४० ॥ सत्यं महेषुधी जतासां मदनधन्विनः । कामस्यारोह निःश्रेणी स्थानीयावूरुदण्डकौ ॥४१॥ कटी कुटी मनोजस्य काञ्चीसालकृतावृतिः । नाभिरासां गभीरैका कूपिका चित्तजन्मनः ॥४२॥ मनोभुवोऽतिवृद्धस्य मन्येऽवष्टम्भ यष्टिका । रोमराजिः स्तनौ चासां कामरत्नकरण्डकौ ॥४३॥ कामपाशातौ बाहू शिरीषोद्गमकोमलौ । कामस्योच्छ्वसितं कण्ठः सुकण्ठीनां मनोहरः ॥ ४४ ॥ मुखं रतिसुखागारप्रमुखं मुखबन्धनम् । बैराग्य रससंगस्य तासां च दशनच्छदः ॥४५॥ दृग्विलासाः शरास्तासां कर्णान्तौ लक्ष्यतां गतौ । भ्रूवल्लरी धनुर्यष्टिजिगीषोः पुष्पधन्विनः ॥४६॥ ललाटाभोगमेतासां मन्ये बाह्यालिका स्थलम् । अनङ्गनृपतेरिष्ट' ' भोगकन्दुकचारिणः ॥४७॥ 'अलकाः कामकृष्णाहेः शिशवः परिपुञ्जिताः । कुञ्चिताः केशवलय मंदनस्येव वागुराः 118211 वाले जिनके नेत्ररूपी बाणोंसे यह समस्त संसार जीता गया था ऐसी बत्तीस हजार रानियाँ और भी उनके अन्तःपुरमें थीं ॥ ३६ ॥ वे छियानबे हजार रानियाँ नखोंकी किरणरूपी फूलोंके खिलनेसे, कुछ-कुछ लाल हथेलीरूपी पल्लवोंसे और भुजारूपी शाखाओंसे कल्पलताकी शोभा धारण कर रहीं थीं ||३७|| कामदेवके निवास करनेकी भूमिस्वरूप वे रानियाँ स्तनरूपी कमलों की बोड़ियोंसे और खिले हुए मुखरूपी कमलोंसे कमलिनियोंके समान सुशोभित हो रही थीं ||३८|| मैं समझता हूँ कि उन रानियोंके शरीर कामरूपी पिशाचकी उन्नतिके पात्र थे क्योंकि उनके आवेशके वशसे ही यह कामदेव सबको उल्लंघन करनेवाली विशाल अवस्थाको कामदेव के प्राप्त हुआ था ||३९|| अथवा मुझे यह भी शंका होती है कि उन रानियोंके नख, पैने करने के पाषाण थे क्योंकि वह उन्हींपर घिसकर पैने किये हुए बाणोंसे कामी लोगोंपर प्रहार किया करता था ||४०|| यह भी सच है कि उनकी जंघाएँ कामदेवरूपी धनुर्धारीके बड़े-बड़े तरकस थे और ऊरुदण्ड ( घुटनोंसे ऊपरका भाग ) कामदेवके चढ़नेकी नसैनीके समान थे ।।४१।। करधनीरूपी कोटसे घिरी हुई उनकी कमर कामदेवकी कुटोके समान थी और उनकी नाभि कामदेवकी गहरी कूपिका ( कुइयाँ) के समान जान पड़ती थी ॥ ४२ ॥ मैं मानता हूँ कि उनकी रोमराजि कामदेवरूपी अत्यन्त वृद्ध पुरुषके सहारेकी लकड़ी थी और उनके स्तन कामदेव के रत्न रखनेके पिटारे थे ॥ ४३ ॥ शिरीषके फूलके समान कोमल उनकी दोनों भुजाएँ कामदेव पाशके समान लम्बी थीं और अच्छे कण्ठवाली उन रानियों का मनोहर कण्ठ कामदेवके उच्छ्वासके समान था || ४४ || उनका मुख रति ( प्रीति ) रूपी सुखका प्रधान भवन था और उनके होंठ वैराग्यरसकी प्राप्तिके मुखबन्धन अर्थात् द्वार बन्द करनेवाले कपाट थे ।। ४५ ।। उन रानियोंके नेत्रोंके कटाक्ष विजयको इच्छा करनेवाले कामदेवके बाणोंके समान थे, कानके अन्तभाग उसके लक्ष्य अर्थात् निशानोंके समान थे और भौंहरूपी लता धनुषकी लकड़ी के समान थी || ४६ || मैं समझता हूँ कि उन रानियोंके ललाटका विस्तार इष्टभोग रूपी गेंदसे खेलनेवाले कामदेवरूपी राजाके खेलनेका मानो मैदान ही हो ||४७ || उनके २२४ 97 १ चक्री । २ शङ्कां करोमि । ३ प्राप्त । ४ सदृशौ इत्यर्थः । ५ आधार । ६ जीवितम् । ७ प्रकृष्टद्वारम् । ८ पीनाहः । 'पीनाहो मुखबन्धनमस्य यत्' इत्यभिधानात् । ९ रदनच्छदः -ल० । १० 'सेतुः । 'सेतुराली स्त्रियां पुमान्' । ९१ इष्टभोगा एव कन्दुक । १२ चूर्णकुन्तला । 'अलका चूर्णकुन्तला' इत्यभिधानात् । १३ शावकाः । 'पृथुकः शावकः शिशुः' इत्यभिधानात् । १४ मृगबन्धनी । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व इत्यनङ्गमयों सृष्टिं तन्वानाः स्वाङ्गसंगिनीम् । मनोऽस्य' जगृहः कान्ताः कान्तः स्वैः कामचेष्टितः॥४॥ तासां मृदुकरस्पर्शः प्रेमस्निग्धैश्च वीक्षितैः । महती तिरस्यासीजल्पितैरपि मन्मनः ॥५०॥ स्मितेप्चासां दरोद्भिन्नो हसितेषु विकस्वरः । फलितः परिरम्भेषु रसिकोऽभूतदुमः ॥५१॥ भ्रक्षेपयन्त्रपाषाणैः हकक्षेपक्षेपणीकृतैः । बहुदुर्गरणस्तासां स्मरोऽभूत् सकचप्रहः ॥५२॥ खरः प्रणयगर्भेषु कोपेष्वनुनये मृदुः । स्तब्धो ब्यलोकमानेषु मुग्धः प्रणयकैतवे ॥५३॥ निर्दयः परिरम्भेषु सानुज्ञानो मुखार्पणे । प्रतिपत्तिषु संमूढः पटुः करणचेष्टिते ॥५४॥ संकल्पेष्वाहितोत्कर्षों मन्दः प्रत्यग्रसंगमे । प्रारम्भे रसिको दीप्तः प्रान्ते करुणकातरः ॥५५॥ इत्युच्चावचतां भेजे तासां दीप्तः स मन्मथः । प्रायो मिन्नरसः कामः कामिनां हृदयंगमः ॥५६॥ प्रकाममधुरानित्थं कामान् कामातिरेकिणः । स ताभिर्निर्विशन् रेमे "वपुष्मानिव मन्मथः ॥५७॥ ताश्च तच्चित्तहारिण्यस्तरुण्यः प्रणयोद्धराः । बभूवुः प्राप्तसाम्राज्या इव'रत्युत्सवश्रियः ॥१८॥ इकट्ठे हुए आगेके सुन्दर बाल कामदेवरूपी काले सर्पके बच्चोंके समान जान पड़ते थे तथा कुछ-कुछ टेढ़ी हुई केशरूपी लताएँ कामदेवके जालके समान जान पड़ती थीं ॥४८॥ इस प्रकार अपने शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाली काममयी रचनाको प्रकट करती हुई वे रानियाँ अपनी सुन्दर कामकी चेष्टाओंसे महाराज भरतका मन हरण करती थीं ॥४९॥ उनके कोमल हाथोंके स्पर्शसे, प्रेमपूर्ण सरस अवलोकनसे, और अव्यक्त मधुर शब्दोंसे इसे बहुत ही सन्तोष होतो था ॥५०॥ रससे भरा हुआ सुरतरूपी वृक्ष इन रानियोंके मन्द-मन्द हँसनेपर कुछ खिल जाता था, जोरसे हँसनेपर पूर्णरूपसे खिल जाता था और आलिंगन करनेपर फलोंसे युक्त हो जाता है था ॥५१।। भौंहोंके चलानेरूप यन्त्रोंसे फेंके हुए पत्थरोंके द्वारा तथा दृष्टियोंके फेंकनेरूपी यन्त्र विशेषों ( गुथनों ) के द्वारा उन स्त्रियोंका बहुत प्रकारका किलेबन्दीका युद्ध होता था और कामदेव उसमें सबकी चोटी पकड़नेवाला था। भावार्थ - कामदेव उन स्त्रियोंसे अनेक प्रकारको चेष्टा कराता था ॥५२॥ कामदेव इनके प्रेमपूर्ण क्रोधके समय कठोर हो जाता था, अनुनय करने अर्थात् पतिके द्वारा मनाये जानेपर कोमल हो जाता था, झूठा अभिमान करनेपर उद्दण्ड हो जाता था, प्रेमपूर्ण कपट करते समय भोला या अनजान हो जाता था, आलिंगनके समय निर्दय हो जाता था, चुम्बनके लिए मुख प्रदान करते समय आज्ञा देनेवाला हो जाता था, स्वीकार करते समय विचार मूढ़ हो जाता था, हाव-भाव आदि चेष्टाओंके समय अत्यन्त चतुर हो जाता था, संकल्प करते समय उत्कर्षको धारण करनेवाला हो जाता था, नवीन समागमके समय लज्जासे कुछ मन्द हो जाता था, सम्भोग प्रारम्भ करते समय अत्यन्त रसिक हो जाता था और सम्भोगके अन्तमें करुणासे कातर हो जाता था। इस प्रकार उन रानियोंका अत्यन्त प्रज्वलित हुआ कामदेव ऊँच-नीची अवस्थाको प्राप्त होता था अर्थात् घटता-बढ़ता रहता था सो ठीक ही है जो काम प्रायः भिन्न-भिन्न रसोंसे भरा रहता है वही कामी पुरुषोंको सुन्दर मालूम होता है ॥५३-५६॥ इस प्रकार वह चक्रवर्ती उन रानियोंके साथ अत्यन्त मधुर तथा इच्छाओंसे भी अधिक भोगोंको भोगता हुआ शरीरधारी कामदेवके समान क्रीड़ा करता था ॥५७॥ भरतके चित्तको हरण करनेवाली और प्रेमसे भरी हुई वे तरुण स्त्रियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो साम्राज्यको प्राप्त हुई रत्युत्सवरूपी लक्ष्मी ही हों ॥५८॥ उनकी १ भरतस्य । २ अव्यक्तः । ३ ईषद्विकसित । ४ फलिनः ल० । ५ आलिङ्गनेषु । ६ दुर्गयुद्धसदृशः। ७ नव । ८ करुणरसातुरः । ९ नानालंकारताम् । १० मनोरथवृद्धिकरान् । ११ मूर्तिमान् । १२ रत्युत्सवे श्रियः ल० । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आदिपुराणम् 1 नाटकानां सहस्वाणि द्वात्रिंशन्धमितानि ये सातोयानि सगेयानि यानि रम्याणि भूमिभिः ॥ ५९॥ सप्ततिः सहस्राणि पुरामिन्द्रपुरश्रियम् । स्वर्गलोक इवाभाति नृलोको यैरलंकृतः ॥ ६०॥ ग्रामकोच विज्ञेया विभोः षण्णवतिप्रमाः । नन्दनोद्देश जित्वर्यो यासामारामभूमयः ॥ ६१॥ द्रोणामुखसहस्राणि नवतिर्नव चैव हि। धनधान्यसमृद्धीनामधिष्ठानानि यानि वै ॥ ६२ ॥ पतनानां सहस्राणि चत्वारिंशसा खाकरा इवाभान्ति येषामुखा वणिश्याः ॥ ६३ ॥ पीय सहस्राणि खेानां पुरिमा मता । प्राकारगोपुराहाल खातवप्रादिशोमिनाम् ॥ ६४ ॥ भवेयुरन्तरदीपाः षट्पञ्चाशत्प्रमामिताः । कुमानुषजनाकीर्णा येऽर्णवस्य खिलायिताः ॥ ६५ ॥ वाहनां सहस्राणि संख्यातानि चतुर्दश । वहन्ति यानि लोकस्य योगक्षेमविद्याविधिम् ॥६६॥ स्थालीन कोटिकोका रन्धने या नियोजिता "पस्त्री स्थालीबिलीयानां तण्डुलानां महानसे ॥ ६७ ॥ कोटीशतसहखं स्पाइलानां कुटि: " समम् । "कर्मान्तकपणे यस्य विनियोगी निरन्तरः ॥ ६८ ॥ तिस्रोऽस्य वज्रकोपः स्युर्गाकुलैः शश्वदाकुलाः । यत्र मन्धरवाकृष्टास्तिष्ठन्ति स्माध्यगाः क्षणम् ॥ ६९ ॥ "प्रत्यन्तवासिनो यत्र न्यवात्सुः कृतसंक्षयाः ॥ ७० ॥ I 10 १२ । १३ ४ १.५ 1.9 'कुक्षिवासशतान्यस्य सप्तैवोक्तानि कोविदैः । १८ ५० विभूति में बत्तीस हजार नाटक थे जो कि भूमियोंसे मनोहर थे और अच्छे-अच्छे बाजों तथा गानों सहित थे || ५९ ।। इन्द्रके नगर समान शोभा धारण करनेवाले ऐसे बहत्तर हजार नगर थे जिनसे अलंकृत हुआ यह नरलोक स्वर्गलोकके समान जान पड़ता था ।। ६० ।। उस चक्रवर्तीके ऐसे छियानवे करोड़ गाँव थे कि जिनके बगीचोंको शोभा नन्दन वनको भी जीत रही थी । ।। ६१ ।। जो धन-धान्यकी समृद्धियोंके स्थान थे ऐसे निन्यानबे हजार द्रोणामुख अर्थात् बन्दरगाह थे ।। ६२ ।। जिनके प्रशंसनीय बाजार रत्नाकर अर्थात् समुद्रोंके समान सुशोभित हो रहे थे ऐसे अड़तालीस हजार पत्तन थे ॥ ६३॥ जो कोट, कोटके प्रमुख दरवाजे अटारियाँ, परिखाएँ और परकोटा आदिसे शोभायमान हैं ऐसे सोलह हजार खेट थे ।। ६४ ।। जो कुभोगभूमि या मनुष्योंसे व्याप्त थे तथा समुद्रके सारभूत पदार्थके समान जान पड़ते थे ऐसे छप्पन अन्तरद्वीप थे ||६५|| जो लोगों के योग अर्थात् नवीन वस्तुओंकी प्राप्ति और क्षेम अर्थात् प्राप्त हुई वस्तुओंकी रक्षा करना आदि की समस्त व्यवस्थाओंको धारण करते थे तथा जिनके चारों ओर परिखा थी ऐसे चौदह हजार संवाह थे ।। ६६ ।। पकानेके काम आनेवाले एक करोड़ हुण्डे थे जो कि पाकशालामें अपने भीतर डाले हुए बहुत-से चावलोंको पकानेवाले थे ॥ ६७ ॥ फसल आनेके बाद जो निरन्तर खेतोंको जोतनेमें लगाये जाते हैं और जिनके साथ बोज वोनेकी नाली लगी हुई है ऐसे एक लाख करोड़ हल थे ।। ६८ ।। दही मथनेके शब्दोंसे आकर्षित हुए पथिक लोग जहाँ क्षण भरके लिए ठहर जाते हैं और जो निरन्तर गायोंके समूहसे भरी रहती हैं सी तीन करोड़ व्रज अर्थात् गौशालाएं थीं ।। ६९ ।। जहां आश्रय पाकर समीपवर्ती लोग आकर ठहरते थे ऐसे कुक्षिवासों की संख्या पण्डित लोगोंने सात सौ । । १ वेपैः । २ पुराणाम् । ३ जयशीलाः । ४ नवाधिकनवतिः । ५ प्रशस्ताः । ६ धूलिकुट्टिम । ७ अप्रतिहतस्थानाविताः 'हे खिलाप्रहते समे' इत्यभिधानात् ८ सखतानि ० ९ विधानप्रकारम् । १० पचने । । । ११ पचनकरी । १२ स्थालीबिल महन्तीति स्थालीबिलीयास्तेषाम् । पचनार्हताम् इत्यर्थः । १३ कोटीनां लक्षम् १४० अ०, प०, स० इ० कुलिभैः ल० कुटिभैः ८० १५ आसनफलविष - १६ गोस्थानकम् 'जो गोछाध्ववृन्देषु' इत्यभिधानात् १७ रत्नानां क्रयविक्रयस्थान १८ छ । १९ निवसन्ति स्म । पहाड़ोंपर बसनेवाले नगर संवाह कहलाते हैं । जहाँ रत्नोंका व्यापार होता है उन्हें कुक्षिवास कहते है। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ प् दुर्गा' सहस्राणि तस्याष्टाविंशतिर्मता । वनधन्वाननिम्नादिविभागैर्या विभागिताः ॥ ७१ ॥ म्लेच्छराजसहस्राणि तस्याष्टदश संख्यया । रत्नानामुद्भवक्षेत्रं यैः समन्तादधिष्टितम् ॥ ७२ ॥ कालाख्यश्च महाकालो नैस्सः पाण्डुकाह्वया । पद्ममाणवपिङ्गाब्ज सर्वरत्नपदादिकाः ॥ ७३ ॥ निधयो नव तस्यासन् प्रतीतैरिति नामभिः । यैरयं गृहवार्तायां निश्विन्तोऽभून्निधीश्वरः ॥७४॥ निधिः पुण्यनिधेरस्य कालाख्यः प्रथमो मतः । यतो लौकिकशब्दादिवार्तानां प्रभवोऽन्वहम् ॥ ७५ ॥ इन्द्रियार्थी मनोज्ञा ये वीणावंशानकादयः । तान् प्रसूते यथाकालं निधिरेष विशेषतः ॥ ७६ ॥ असिमष्यादिषट्कर्मसाधनद्रव्यसंपदः । यतः शश्वत् प्रसूयन्ते महाकालो निधिः स वै ॥७७॥ शय्यासनालयादीनां नैःसर्थ्यात् प्रभवो निधेः । पाण्डुकाद्धान्यसंभूतिः षड्रसोत्पत्तिरप्यतः ॥ ७८ ॥ पांशुकदुकूल दिवस्त्राणां प्रभवो यतः । स पद्माख्यो निधिः पद्मागर्भाविर्भावितोऽद्युतत् ॥ ७९ ॥ दिव्याभरणभेदानामुद्भवः पिङ्गलान्निधेः । माणवानीतिशास्त्राणां शस्त्राणां च समुद्भवः ॥ ८० ॥ शङ्खात् प्रदक्षिणावर्तात् सौवर्णी सृष्टिमुत्सृजन् । सशङ्खनिधिरुत्प्रेङ्ख दुक्मरोचिर्जितार्करुक् ॥ ८१ ॥ सर्वरत्नान्महानीलनीलस्थूलो' पलादयः । प्रादुःसन्ति ' मणिच्छायारचितेन्द्रायुधत्विषः ॥ ८२ ॥ रत्नानि द्वितयाम्यस्य जीवाजीवविभागतः । क्ष्मात्राणैश्वर्य संभोगसाधनानि चतुर्दश ॥ ८३ ॥ बतलायी है || ७० ॥ अट्ठाईस हजार ऐसे सघन वन थे जो कि निर्जल प्रदेश और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ी विभागों में विभक्त थे ॥ ७१ ॥ जिनके चारों ओर रत्नोंके उत्पन्न होनेके क्षेत्र अर्थात् खानें विद्यमान हैं ऐसे अठारह हजार म्लेच्छ राजा थे ||७२ || महाराज भरतके काल, महाकाल, नैस्सर्प्य, पाण्डुक, पद्म, माणव, पिंग, शंख और सर्वरत्न इन प्रसिद्ध नामोंसे युक्त ऐसी नौ निधियाँ थीं कि जिनसे चक्रवर्ती घरकी आजीविकाके विषयमें बिलकुल निश्चिन्त रहते थे ||७३-७४ ॥ पुण्यकी निधिस्वरूप महाराज भरतके पहली काल नामकी निधि थी जिससे प्रत्येक दिन लौकिक शब्द अर्थात् व्याकरण आदिके शास्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती थी ॥ ७५ ॥ तथा बीणा, बाँसुरी, नगाड़े आदि जो-जो इन्द्रियोंके मनोज्ञ विषय थे उन्हें भी यह निधि समयानुसार विशेष रीति से उत्पन्न करती रहती थी ॥ ७६ ॥ जिससे असि, मषी आदि छह कर्मों के साधनभूत द्रव्य और संपदाएँ निरन्तर उत्पन्न होती रहती थीं वह महाकाल नामकी दूसरी निधि थी ॥७७॥ शय्या, आसन तथा मकान आदिकी उत्पत्ति नैसर्प्य नामकी निधि से होती थी । पाण्डुकं निधि से धान्यों की उत्पत्ति होती थी । इसके सिवाय छह रसोंकी उत्पत्ति भी इसी निधिसे होती थी || ७८ || जिससे रेशमी सूती आदि सब तरहके वस्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती है और जो कमलके भीतरी भागों से उत्पन्न हुए के समान प्रकाशमान है ऐसी पद्म नामकी निधि अत्यन्त देदीप्यमान थी ||७९ || पिंगल नामकी निधिसे अनेक प्रकारके दिव्य आभरण उत्पन्न होते रहते थे और माणव नामकी निधिसे नीतिशास्त्र तथा अनेक प्रकारके शस्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती थी ॥८०॥ जो अपने प्रदक्षिणावर्त नामके शंखसे सुवर्णकी सृष्टि उत्पन्न करती थी औरं जिसने उछलती हुई सुवर्ण-जैसी कान्तिसे सूर्यकी किरणोंको जीत लिया है ऐसी शंख नामकी निधि थी || ८१ ॥ जिसके मणियोंकी कान्तिसे इन्द्रधनुषकी शोभा प्रकट हो रही है ऐसी. सर्वरत्न नामकी निधि से महानील, नील तथा पद्मरांग आदि अनेक तरहके रत्न प्रकट होते थे ॥८२॥ इनके सिवाय भरत महाराजके जीव और अजीवके भेदसे दो विभागोंमें बँटे हुए चौदह रत्न भी थे जो कि पृथिवीकी रक्षा और ऐश्वर्यके / उपभोग करनेके साधन थे ॥८३॥ १ मरुभूमि । 'समानो मरुधन्वानी' इत्यभिधानात् । २ धन्वन्निम्नानिम्नाद्रि - द० । वनधन्वननम्रादि-ल० । ३ कुक्षिवासम् । ४ म्लेच्छराजैः । ५ पिङ्ग पिङ्गल । अब्ज कमल । ६ व्यापारे । ७ कालनिधेः । ८ जनयन् । ९ उच्चलत् । १० पद्मरागः | ११ प्रकटीभवन्ति । १२ पृथ्वीरक्षा | Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ । आदिपुराणम् चक्रातपत्रदण्डासिमणयश्चर्म काकिणी । चमूगृहपतीभाश्वयोषित्तक्षपुरोधसः ॥४४॥ 'चक्रासिदण्डरनानि सच्छन्नाण्यायुधालयात् । जातानि मणिचर्माभ्यां काकिणी श्रीगृहोदर ॥४५॥ स्त्रीरत्न गजवाजीनां प्रभवो रोप्यशैलतः। रत्नान्यन्यानि साकेताज ज्ञिरे निधिभिः समम् ॥८६॥ निधीनां सह रत्नानां गुणान् को नाम वर्णयेत् । यैरावर्जितमूर्जस्वि हृदयं चक्रवर्तिनः ॥८७॥ भेजे षटऋतुजानिष्टान् भोगान् पञ्चेन्द्रियोचितान् । स्त्रीरत्नसार थिस्तद्धि निधानं सुखसंपदाम् ॥१८॥ कान्तारत्नमभूत्तस्य सुभद्रेत्यनुपद्रुतम् । भद्रिकाऽसौ प्रकृत्यैव' जात्या विद्याधरान्वया ॥८९॥ शिरीषसुकुमाराङ्गी चम्पकच्छदसच्छविः । बकुलामोदनिःश्वासा पाटला पाटलाधराः ॥२०॥ प्रबुद्धपद्मसौम्यास्या नीलोत्पलदलेक्षणा । सुभ्रलिकुलानीलमृदुकुञ्चितमूर्द्धजा ॥९१॥ तनूदरी वरारोहा "वामोरूनिविडस्तनी । मृदुबाहलता साऽभून्मदनाग्नेरिवारणिः ॥१२॥ तत्क्रमौ नृपुराम गुञ्जितैर्मुखरीकृतौ । मदनद्विरदस्येव तेनतुर्जयडिण्डिमम् ॥९३॥ निःश्रेगीकृत्य तजङ्घ सदूरुद्वारवन्धनाम् । वासगेहास्थयाऽनङ्गस्तच्छोणी नूनमासदत् ॥९४॥ चक्र, छत्र, दण्ड, असि, मणि, चर्म और काकिणी ये सात अजीव रत्न थे और सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्रो, सिलावट और पुरोहित ये सात सजोव रत्न थे ॥८४॥ चक्र, दण्ड, असि और छत्र ये चार रत्न आयुधशालामें उत्पन्न हए थे तथा मणि, चर्म और काकिणी ये तीन रत्न श्रीगृहमें प्रकट हुए थे ।।८५।। स्त्री, हाथी और घोडाको उत्पत्ति विजयार्ध शैलपर हुई थी तथा अन्य रत्न निधियोंके साथ-साथ अयोध्यामें ही उत्पन्न हुए थे ॥८६।। जिनके द्वारा सेवन किया हुआ चक्रवर्तीका हृदय अतिशय बलिष्ठ हो रहा था उन निधियों और रत्नोंका वर्णन कौन कर सकता है ? ॥८७।। वह चक्रवर्ती स्त्रीरत्नके साथ-साथ छहों ऋतुओंमें उत्पन्न होनेवाले पंचेन्द्रियोंके योग्य भोगोंका उपभोग करता था सो ठीक ही है क्योंकि स्त्री ही समस्त सुख सम्पदाओंका भण्डार है ।।८८।। महाराज भरतके रोगादि उपद्रवोंसे रहित सुभद्रा नामकी स्त्रीरत्न थी, वह सुभद्रा स्वभावसे ही भद्रा अर्थात् कल्याणरूप थी और जातिसे विद्याधरोंके वंशकी थी ।।८९॥ उसके समस्त अंग शिरीषके फूलके समान कोमल थे, कान्ति चम्पाकी कलाके समान थी, श्वासोच्छवास बकौली ( मौलश्री ) के फलके समान सुगन्धित था, अधर गुलाबके फूलके समान कुछ-कुछ लाल थे, मुख प्रफुल्लित कमलके समान सुन्दर था, नेत्र नील कमलके दलके समान थे, भौंहें अच्छी थीं, केश भ्रमरोंके समूहके समान काले, कोमल और कुछ-कुछ टेढ़े थे, उदर कृश था, नितम्ब सुन्दर थे, जाँघे मनोहर थीं, स्तन कठोर थे और भुजारूपी लताएँ कोमल थीं. इस प्रकार वह सभद्रा कामरूपी अग्निको उत्पन्न करनेके लिए अरणिके समान थी। भावार्थ - जिस प्रकार अरणि नामकी लकड़ीसे अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार उस सभद्रासे दर्शकोंके मन में कामाग्नि उत्पन्न हो उठती थी॥९०-९२।। नुपूरोंको मनोहर झंकारसे वाचालित हए उसके दोनों चरण ऐसे जान पड़ते थे मानो कामदेवरूपी हाथीके विजयके नगाड़े ही बजा रहे हों ।।९३॥ ऐसा मालूम होता था मानो कामदेव अपने निवासगृहपर पहुँचनेकी इच्छासे उस सुभद्राकी दोनों जंघाओंको नसैनी बनाकर जिसमें उत्तम ऊरु ही १ चक्रदण्डासि-ल०, द०, अ०, प०, स०, इ० । २ उत्पत्तिः । ३ रत्नसहितानाम् । ४ रत्ननिधिभिः । ५ वशीकृतम् । ६ सहायः । ७ स्त्रीरत्नम् । ८ स्थानम् । ९ रोगादिभिरपीडितम् । १० मङ्गलमूर्तिः । ११ स्वभावेन । १२ चम्पककुसुमदल। १३ कुबेराक्षी। १४ ईषदरुण। १५ उत्तमनितम्बा। "वरारोहा मत्तकाशिन्युत्तमा वरणिनी" इत्यभिधानात् । १६ मनोहर । १७ अग्निमन्थनकाष्ठम् । १८ सुभद्राचरणौ। १९ कटिम् । 'कटो ना श्रोणिफलकं कटिः श्रोणिः ककुद्मती' इत्यभिधानात् । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तम पर्व २२६ निःसृत्य नाभिवल्मीकात् कामकृष्णभुजंगमः। रोमावलीछलेनास्या ययौ कुचकरण्डको' ॥१५॥ निर्मोकमिव कामाहेः दधानोद्धं स्तनांशुकम् । भुजगामिव तद्धत्यै "सैकामेकावलीमधात् ॥९६॥ बभ्रे हारलतां कण्ठलग्नां सा नाभिलम्बिनीम् । मन्त्ररक्षामिवानङ्गग्रथितां कामदीपिनीम् ॥१७॥ हाराक्रान्तस्तनाभोगा सा स्म धत्ते परां श्रियम् । सीतेव यमकाद्रिस्पृकप्रवाहा सरिदुत्तमा ॥९८॥ बाहू तस्या जितानङ्गपाशौ लक्ष्मीमुदृहतुः । कामकल्पद्रुमस्येव प्ररोहौ दोप्तभूषणौ ॥१९॥ रंजे करतलं तस्याः सूक्ष्मरेखाभिराततम् । जयरेखा इवाबिभ्रदन्यस्त्री निर्जयार्जिताः ॥१०॥ मुखमुद्र तन्दर्यास्तरलापाङ्गमाबभौ । सशरं समहेष्वासं जयागारमिवातनोः ॥१.१॥ वक्त्रमस्याः शशाङ्कस्य कान्ति जित्वा स्वशोभया । दधे न भूपताकात कर्णाभ्यां जयपत्रकम् ॥१०२॥ "हेमपत्राङ्कितौ तव्याः कौँ लीलामवापतुः । स्वर्वधूनिर्जयायव कृतपत्रावलम्बनौ ॥१०३॥ कपोलावुज्ज्वलौ तस्या दधतुर्दर्पणश्रियम् । दृष्टकामस्य कामस्य स्वा दशा दशधा स्थिताः ॥१०४॥ मध्येचक्षुरधीराक्ष्या नासिकाऽभान्मुखोन्मुखी । तदामोदमिवाघ्रातुं कृतयत्ना कुतूहलात् ॥१०५॥ कृत्वा श्रोतृपदे कणों तन्ने बिभ्रमैमिथः । कृतस्पर्धे इवाभातां पुष्पबाणे" सभापतौ ॥१०६॥ दरवाजेके बन्धन हैं ऐसे उसके नितम्बोंपर जा पहँचा हो ॥९४॥ रोमावलीके छलसे कामदेवरूपी काला सर्प उसकी नाभिरूपी बामीसे निकलकर उसके स्तनरूपी पिटारोंके समीप जा पहुँचा था ।।९५।। वह सुभद्रा कामरूपो सर्पकी काँचलीके समान सुन्दर स्तनवस्त्र ( चोली ) धारण करती थी और उस कामरूप सर्पको सन्तुष्ट करनेके लिए सर्पिणीके समान श्रेष्ठ एकावली हारको धारण करती थी ॥९६॥ वह कण्ठमें पड़ी हुई, नाभि तक लटकती हुई और कामको उद्दीपित करनेवाली जिस हाररूपी लताको धारण कर रही थी वह ऐसी मालूम होती थी मानो कामदेवके द्वारा गूंथा हुआ और मन्त्रोंसे मन्त्रित हुआ रक्षाका डोरा ही हो । ॥९७॥ जिसके स्तनोंका मध्यभाग हारसे व्याप्त हो रहा है ऐसी वह सुभद्रा इस प्रकारकी उत्कृष्ट शोभा धारण कर रही थी मानो जिसका प्रवाह दोनों ओरके यमक पर्वतोंको स्पर्श कर रहा है ऐसी उत्तम सीता नदी ही हो ॥९८॥ कामदेवके पाशको जीतनेवाली तथा देदीप्यमान आभूषणोंसे सुशोभित उसकी दोनों भुजाएँ ऐसी शोभा धारण कर रही थीं मानो कामरूपी कल्पवृक्षके दो अंकुरे ही हों ।।९९।। सूक्ष्म रेखाओंसे व्याप्त हआ उसका करतल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अन्य स्त्रियोंके पराजयसे उत्पन्न हई विजयकी रेखाएं ही धारण कर रहा हो ।।१००। जिसकी भौंहें ऊपरको उठी हुई हैं और जिसमें चंचल कटाक्ष हो रहे हैं ऐसा उस कृशोदरीका मुख ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बाण और महाधनुषसे सहित कामदेवकी आयधशाला ही हो ॥१०१॥ उसका मख अपनी शोभाके द्वारा चन्द्रमाकी कान्तिको जीतकर क्या कानोंके बहानेसे भौंहरूपी पताकाके चिह्नसहित विजयपत्र ( जीतका प्रमाणपत्र) ही धारण कर रहा था ।।१०२।। सोनेके पत्रोंसे चिह्नित उसके दोनों कान ऐसी शोभा धारण कर रहे थे मानो उन्होंने देवांगनाओंको जीतनेके लिए कागज-पत्र ही ले रखे हों ।।१०३।। उसके दोनों उज्ज्वल कपोल ऐसे जान पड़ते थे मानो अपनी दश प्रकारकी अवस्थाओंको देखनेको इच्छा करनेवाले कामदेवके दर्पणकी शोभा ही धारण कर रहे हों ॥१०४॥ उस चंचल लोचनवाली सुभद्राकी नाक आँखोंके बीच में मुँहकी ओर झुकी हुई थी और उससे १-करण्डकम् द०, ल०, इ०, अ० १०, स० । २ प्रशस्तम् । ३ कामाहेः संतोषाय । ४ मुख्याम् । ५ सीतानदी। ६ ददाते स्म । ७ महाचापसहितम् । ८ शस्त्रशालाम् ।९ अनङ्गस्य । १० इव । ११ कर्णपत्र । १२ तस्याः ल०, द०। १३ आत्मीयाः । १४ चक्षुषोर्मध्ये । १५ मुखस्याभिमुखी। १६ श्रोतृजनस्थाने । १७ कामे सभापतौ सति । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १२ अभूत् कान्तिश्वकोराक्ष्या ललाटे लुलितालके । हेमपान्तसंलग्ननीलोत्पलविडम्बिनी ॥१०७॥ तस्या विनीलविस्रस्तकवरीबन्धबन्धुरम् । केशपाशमनङ्गस्य मन्ये पाशं प्रसारितम् ॥ १०८ ॥ इत्यस्या रूपमुद्भूतसौष्ठवं त्रिजगज्जयि । मत्वानङ्गस्तदङ्गेषु संनिधानं व्यधात् ध्रुवम् ॥ १०९ ॥ तपालोकनोच्चक्षुस्तद्गात्रस्पर्शनोत्सुकः । तन्मुखामोदमाजिघ्रन् रसयंश्वासकृन्मुखम् ॥ ११०॥ तद्गय कलनिक्वाणश्रुतिसंसक्त कर्णकः । तद्गात्रविपुलाराम स रेमे सुखनिर्वृतः ॥ १११ ॥ पञ्च वाणाननङ्गस्य वदन्त्येतान कुण्ठितान् । पुष्पेषुसंकथालोके प्रसिद्धचैव गता प्रथाम् ॥ १३२ ॥ धनुर्लतां मनोजस्य प्राहुः पुष्पमयीं जडाः । सुकुमारतरं स्त्रैणं वपुरंवातनोर्धनुः ॥ ११३ ॥ पञ्चवाणाननङ्गस्य नियच्छन्ति कुतो जडाः । यदेव कामिनां हारि तदस्त्रं कामदीपनम् ॥ ११४ ॥ स्मितमालोकितं हासो जलितं मदमन्मनम् । कामाङ्गमिदमेवान्यत् कैतवं तस्य पोषकम् ॥ ११५ ॥ आरूढयौवनोष्माण स्तनावस्या हिमागमे । रोम्णां हृषितमस्याङ्गे शिशिरोत्थं विनिन्यतुः ॥ ११६ ॥ हिमानिलैः कुचोत्कम्पमाहितं सा हृतक्लमैः । प्रेयस्करतलस्परौर पनिन्ये ऽङ्कशायिनी ॥ ११७ ॥ वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कौतूहलसे मुँहका सुगन्ध सुँघनेके लिए प्रयत्न ही कर रही हो ॥ १०५ ॥ उसके दोनों नेत्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो कामदेव के सभापति रहते हुए कानोंको साक्षी बनाकर परस्पर में हाव-भावके द्वारा स्पर्धा ही कर रहे हों ॥ १०६ ॥ जिसपर कालीकाली अलकें बिखर रही हैं ऐसे चकोरके समान नेत्रवाली उस सुभद्राके ललाटपर जो कान्ति थी वह सुवर्णके पटियेपर लटकती हुई नीलकमलकी मालाके समान बहुत ही सुन्दर जान पड़ती थी ॥ १०७ ॥ अत्यन्त काले और नीचेकी ओर लटकते हुए कबरीके बन्धन से सुशोभित उसके केशपाश ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो फैला हुआ कामदेवका पाश ही हो ॥ १०८ ॥ इस प्रकार जिसकी उत्तमता प्रकट है ऐसे उस सुभद्राके रूपको तीनों जगत्का जीतनेवाला जानकर ही मानो कामदेवने उसके प्रत्येक अंगों में अपना निवासस्थान बनाया था ॥ १०९ ॥ | उसका रूप देखने के लिए जो सदा चक्षुओंको ऊपर उठाये रहता है, उसके शरीरका स्पर्श करनेके लिए जो सदा उत्कण्ठित बना रहता है, जो बार-बार उसके मुखकी बार उसके मुखका स्वाद लिया करता है और उसके संगीतके कान सदा तल्लीन रहते हैं ऐसा वह चक्रवर्ती उस सुभद्रा के शरीररूपी बड़े बगीचे में सुख से सन्तुष्ट होकर क्रीड़ा किया करता था ।११०-१११ ।। कविलोग, जिनका कहीं प्रतिबन्ध नहीं होता ऐसा सुभद्राका रूप, कोमल स्पर्श, मुखको सुगन्ध, ओठोंका रस और संगीतमय सुन्दर शब्द इन पाँचको ही कामदेवके पाँच बाण बतलाते हैं । लोकमें जो कामदेव के पाँचों बाणोंकी चर्चा है वह रूढ़ि मात्र से ही प्रसिद्ध हो गयी है ।। ११२ ।। मूर्ख लोग कहते हैं कि कामदेवका धनुष फूलोंका है परन्तु वास्तवमें स्त्रियोंका अत्यन्त कोमल शरीर ही उसका धनुष है ।। ११३ ।। न जाने क्यों मूर्ख लोग कामदेवको पाँच बाण ही प्रदान करते हैं अर्थात् उसके पाँच बाण बतलाते हैं क्योंकि जो कुछ भी कामी लोगोंके चित्तको हरण करनेवाला है वह सभी कामको उत्तेजित करनेवाला कामदेवका बाण है । भावार्थ - कामदेव के अनेक बाण हैं ।। ११४ ।। स्त्रियोंका मन्द हास्य, तिरछी चितवन, जोरसे हँसना और कामके आवेशसे अस्पष्ट बोलना यही सब कामदेव अंग हैं इनके सिवाय जो उनका कपट है वह इन्हीं सबका पोषण करनेवाला है ।। ११५ ।। जो जवानीके कारण गर्म हो रहे हैं ऐसे सुभद्राके दोनों स्तन हेमन्तऋतुमें ठण्डसे उठे हुए भरत के शरीर के रोमांचोंको दूर करते थे ॥ ११६ ॥ । गोदमें शयन करनेवाली सुभद्रा शीतलवायुके २३० सुगन्ध सुँघा करता है, बारसुन्दर शब्दों के सुननेमें जिसके : गलित । २ सुखतृप्तः । ३ तद्रूपादीन् । ४ अमन्दान् । ५ स्त्रिया इदम् । ६ नियमयन्ति । ७ किं कारणम् । ८ मनाव्यक्तभाषिणम् । ९ कामस्य । १० रोमाञ्चम् । 'रोमाञ्चो रोमहर्षणम्' इत्यभिधानात् । ११ नाशं चक्रतुरित्यर्थः । १२ कृतम् । १३ प्रियतमहस्ततल । १४ अपहरति स्म । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं १ १४ 13 २३१ साशोककलिकां चूतमञ्जरीं कर्णसंगिनीम् । दधती' चम्पकप्रोतेः केशान्तैः साऽरुचन्मधौ ॥ १३८ ॥ मध मधुमदारक्तलोचनामारखलद्गतिम् । बहु मेने प्रियः कान्तां मूर्तामिव मदृश्रियम् ॥ ११९ ॥ कलैरलि कुलक्वाणैः सान्यपुष्टविकूजितैः । मधुरं मधुरम्यष्टोत तुष्टयेवामुं विशाम्पतिम् ॥१२०॥ 'कल कण्टी कलक्काण मूर्छितैरलिझङ्कृतैः । व्यज्यते स्म स्मराकाण्डावस्कन्दो' डिण्डिमायितैः ॥१२१॥ " पुष्यच्चूतवनोद्गन्धितत्फुल्लकमलाकरः । पप्रथे सुरभिर्मासः " सुरभीकृतदिग्मुखः ॥ १२२॥ हृतालिकुलशंकारः संचरन्मलयानिलः । अनङ्गनृपतेरासीद् घोषयन्निव शासनम् ॥ १२३ ॥ संध्यारुणां कलामिन्दोमेंने लोको जगइसः' | करालामिव रक्तातां दंष्टां मदनरक्षसः ॥ १२४॥ उन्मत्तकोकिले काले तस्मिन्नुन्मत्तषट्पदे । नानुन्मत्तो जनः कोऽपि मुक्वानङ्ग "दुो मुनीन् ॥ १२५ ॥ सायमुदगाहनिर्णितै रङ्गैस्तुहिनशीतलैः । ग्रीष्मं मदनतापात सास्याङ्गं निश्वापयत् ॥ १२६॥ चन्दनद्रवसिक्त सुन्दराङ्गलतां प्रियाम् । परिरभ्य " दृई दोभ्यां स लेभे गात्रनिर्वृतिम् ॥ १२७ ॥ मदनज्वरतापात तीव्रग्रीष्मोत्मनिःसहाम् । स तां निर्वापयामास स्वाङ्गस्पर्शसुखाम्बुभिः ॥ १२८ ॥ द्वारा उत्पन्न हुई स्तनोंकी कँपकँपीको क्लेश दूर करनेवाले प्रिय पतिके करतलके स्पर्शसे दूर करती थी ॥११७॥ अशोकवृक्षकी कलीके साथ-साथ कानोंमें लगी हुई आमकी मंजरीको धारण करती हुई वह सुभद्रा वसन्तऋतु में चम्पाके फूलोंसे गुँथी हुई चोटी से बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थी ।। ११८ ॥ वसन्तऋतु में मधुके मदसे जिसकी आँखें कुछ-कुछ लाल हो रही हैं और जिसकी गति कुछ-कुछ लड़खड़ा रही है - स्खलित हो रही है ऐसी उस सुभद्राको भरत महाराज मूर्तिमती मदकी शोभाके समान बहुत कुछ मानते थे ॥ ११९ ॥ | वह वसन्तऋतु सन्तुष्ट होकर भ्रमरोंकी सुन्दर झंकार और कोकिलाओंकी कमनीय कूकसे मानो राजा भरतकी सुन्दर स्तुति ही करता था || १२० ॥ कोयलोंके सुन्दर शब्दोंसे मिली हुई भ्रमरोंकी झंकारसे ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवने नगाड़ोंके साथ अकस्मात् आक्रमण ही किया हो छापा ही मारा हो ॥ १२१ ॥ फूले हुए आमके वनोंसे जो अत्यन्त सुगन्धित हो रहा है, जिसमें कमलोंके समूह फूले हुए हैं और जिसने समस्त दिशाएँ सुगन्धित कर दी हैं ऐसा वह वसन्तका चैत्र मास चारों ओर फैल रहा था ।। १२२ ।। भ्रमरसमूहकी झंकारको हरण करनेवाला, चारों ओर फिरता हुआ मलयसमीर ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवरूपी राजाके शासनकी घोषणा ही कर रहा हो ।। १२३ ।। उस समय सन्ध्याकालकी लालीसे कुछ लाल हुई चन्द्रमाकी कलाको लोग ऐसा मानते थे मानो जगत्को निगलनेवाले कामदेवरूपी राक्षसकी रक्त से भीगी हुई भयंकर डाँढ़ ही हो || १२४ || जिसमें कोयल और भ्रमर सभी उन्मत्त हो जाते हैं ऐसे उस वसन्तके समय कामदेवके साथ द्रोह करनेवाले मुनियोंको छोड़कर और कोई ऐसा मनुष्य नहीं था जो उन्मत्त न हुआ हो ।। १२५ ।। सायंकाल के समय जलमें अवगाहन करनेसे जो स्वच्छ किये गये हैं और जो बर्फके समान शीतल हैं ऐसे अपने समस्त अंगों से वह सुभद्रा ग्रीष्मकालमें कामके सन्तापसे सन्तप्त हुए भरतके शरीरको शान्त करती थी ॥ १२६ ॥ जिसकी शरीररूपी सुन्दर लतापर घिसे हुए चन्दनका लेप किया गया है ऐसी अपनी प्रिया सुभद्राको भरत महाराज दोनों हाथोंसे गाढ़ आलिंगन कर अपना शरीर शान्त करते थे ।। १२७ ।। जो कामज्वर के सन्तापसे पीड़ित हो रही है और जिसे ग्रीष्मकालकी तोत्र गरमी बिलकुल ही सहन १ बध्नन्ती ल० । २ खचितैः । ३ वसन्ते । ४ स्तौति स्म । ५ तोपेणैव । ६ कोकिला । ७ मिश्रितैः । ८ प्रकटीक्रियते स्म । ९ कामकालघाटीः । १० पुष्पीभवत् । पुष्पचूत - ३० अ०, प०, स०, ५०, ल० । ११ वसन्तः । १२ आज्ञाम् । १३ लोकभक्षकस्य । १४ रुधिरलिप्ताम् । १५ कामघातकान् । १६ संध्याकालजलप्रवेशशद्धैः । १७ उष्णं परिहृत्य शैत्यं चकारेत्यर्थः । १८ आलिङ्ग्य । १९ शरीरसुखम् । २० असहमानाम् । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् उत्फुलमल्लिकामोदवाहिभिर्गन्ध वाहिभिः । स सायंप्रातिकैर्भेजे धृतिं रतिसुखाहरैः ॥१२९॥ उत्फुल्लपाटलोद्गन्धि मल्लिकामालभारिणीम् । उपगृह्य प्रियां प्रेम्ण नैदावीं सोऽनयन्निशाम् ॥१३०॥ सा घस्तनितव्याजात् तर्जितेव मनोभुवा || भुजोपपीडमाश्लिष्य शिश्ये पत्या तपात्ययें ॥१३१॥ नवाम्बुकलुषाः पूरा ध्वनिरुन्मदकेकिनाम् । कदम्बामोदिनो वाताः कामिनां धृतयेऽभवन् ॥ १३२॥ 93 कालिकां पश्यन् बलाकामालभारिणीम् । घनालीं पथिकः साश्रुर्दिशो मेनेऽन्धकारिताः ॥ १३३॥ धारारज्जुभिरानद्धा वागुरेव प्रसारिता । रोधाय पथिकणानां "लुब्धकेनेव हृद्भुवा ॥१३४॥ कृतावधिः प्रियो नागादगाच्च जलदागमः । इत्युदीक्ष्य घनात् काचिद् हृदि शून्याऽभवत् सती ॥ १३५ ॥ विभिन्दन् केतकी सूची स्तत्पांसूनाकिरन्मरुत् । पान्थानां दृष्टि रोधाय धूलिक्षेपमिवाकरोत् ॥ १३६॥ इत्यभ्यर्णतमं तस्मिन् काले जलदमालिनि । स वासभवने रम्ये प्रियामरमयन्मुहुः ॥१३७॥ आकृष्टनिचुलामोदं तद्वक्त्रामोदमाहरन् । तस्याः स्तनतटोत्संगे सोऽनैषीद् वार्षिकीं निशाम् ॥ १३८ ॥ स रेमे शरदारम्भे विहरन् कान्तया समम् । वनेष्वभिनवोद्भिन्नसप्तच्छद सुगन्धिषु ॥ १३९ ॥ ५ २३२ नहीं हो सकती ऐसी उस सुभद्राको महाराज भरत अपने शरीर के स्पर्शसे उत्पन्न हुए सुखरूपी जलसे शान्त करते थे || १२८ || खिली हुई मालतीकी सुगन्धको धारण करनेवाले तथा रतिसमय में सुख पहुँचानेवाले सायंकाल और प्रातःकालकी वायुके द्वारा चक्रवर्ती भरत बहुत ही अधिक सन्तोष प्राप्त करते थे ।। १२९|| फूले हुए गुलाबकी सुगन्धयुक्त मालतीकी मालाओंको धारण करनेवाली उस सुभद्राको आलिंगन कर महाराज भरत बड़े प्रेमसे ग्रीष्मकालकी रात व्यतीत करते थे ॥ १३० ॥ वर्षाऋतु में मेघोंकी गर्जनाके बहानेसे मानो कामदेवने जिसे घुड़की दिखाकर भयभीत किया है ऐसी वह सुभद्रा भुजाओंसे आलिंगन कर पति के साथ शयन करती थी || १३१ ।। उस वर्षाऋतुमें नये जलसे मलिन हुए नदियोंके प्रवाह, उन्मत्त मयूरोंके शब्द और कदम्बके फूलोंकी सुगन्धिसे युक्त वायु ये सब कामी लोगोंके सन्तोषके लिए थे ॥ १३२ ॥ जिसपर कालिमा छायी हुई है और जो बगुलाओंकी पंक्तिको धारण कर रही है ऐसी मेघमालाको देखते हुए पथिक आँसू डालते हुए दिशाओंको अन्धकारपूर्ण मानते थे ।। १३३ ।। उस वर्षाऋतुमें जो जलकी धाराएँ पड़ती थीं उनसे रस्सियोंके समान व्याप्त हुई यह पृथिवी ऐसी जान पड़ती थी मानो कामदेवरूपी शिकारीने पथिकरूपी हिरणोंको रोकने के लिए जाल ही फैलाया हो || १३४ ।। जो आनेकी अवधि करके गया था ऐसा पति अबतक नहीं आया और यह वर्षा ऋतु आ गयी इस प्रकार बादलोंको देखकर कोई पतिव्रता स्त्री अपने हृदयमें शून्य हो रही थी अर्थात् चिन्तासे उसकी विचारशक्ति नष्ट हो गयी थी ।। १३५ ॥ केतकीकी बौड़ियोंको भेदन करता हुआ और उनकी धूलको चारों ओर बिखेरता हुआ वायु ऐसा जान पड़ता था मानो पथिकों की इस प्रकार उस वर्षाकालमें जब बादलों दृष्टि रोकने के लिए धूलि ही उड़ा रहा हो ।। १३६ ।। के समूह अत्यन्त निकट आ जाते थे तब चक्रवर्ती भरत अपने मनोहर महल में प्रिया सुभद्राको बार-बार प्रसन्न करता था उसके साथ क्रीड़ा करता था || १३७ || जिसने पानी में उत्पन्न होनेवाले बेंतकी सुगन्धि खींच ली है ऐसे उस सुभद्राके मुखकी सुगन्धको ग्रहण करता हुआ चक्रवर्ती उसके स्तनतटके समीप हीं वर्षाऋतुकी रात्रि व्यतीत करता था ॥ १३८ ॥ शरऋतु १ पवनैः २ संध्याकालप्रभात कालभेदैः । ३ रतिसुखकरैरित्यर्थः । ४ बिभ्रतीम् । ५ आलिङ्गय । उपगुह्य ब०, प० द० । उपगृह्य अ०, ल०, स० । ६ निदाघसंबन्धिनीम् । ७ भुजाभ्यां पीडयित्वा । ८ वर्षाकाले । ९ संतोषाय । १० मृगबन्धितो । ११ पान्यमृगाणाम् । १२ आलोक्य । १३ घनानन्तस्तेपे प्रोषितभर्तृका द० । १४ अग्रान् । १५ हिज्जुल । 'निचुलो हिज्जुलोऽम्बुजः' इत्यभिधानात् । १६ वर्षाकालसंबन्धिनीम् । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं २३३ १३ स कान्तां रमयामास हारज्योत्स्नाञ्चितस्तनीम् । शारदीं निर्विशन् ज्योत्स्नां सौधोत्सङ्गेषु हारिषु ॥१४०॥ सोत्पलां 'कुब्जकैर्दृब्धां' मालां चूडान्तलम्बिनीम् । बाला पत्युरुरःसंगान्मेने बहुरतिश्रियम् ॥ १४१ ॥ इति सोत्कर्षमेवास्यां प्रथयन् प्रेमनिनताम् । स रेसे रतिसाद्भूतो' भोगाङ्गैर्दशधोदितैः ॥१४२॥ सरला निधयो दिव्याः पुरं शय्यासने चमूः । नाट्यं सभाजनं भोज्यं वाहनं चेति तानि वै ॥ १४३॥ दशाङ्गमिति भोगाङ्गं निर्विशन् स्वाशितं ' भवम् । स चिरं पालयामास भुवमे कोणवारणाम् ॥ १४४॥ षोडशास्य सहस्राणि गणबद्धामराः प्रभोः । ये युक्ता धृतनिस्त्रिंशा निधिरत्नात्मरक्षणे ॥१४५॥ क्षितिसार" इति ख्यातः प्रकारोऽस्य गृहावृतिः । गोपुरं सर्वतोभद्रं प्रोल्लसद्रवतोरणम् ॥१४६॥ नन्द्यावर्तो निवेशोऽस्य शिबिरस्थालघीयसः । प्रासादो वैजयन्ताख्यो यः सर्वत्र सुखावहः ॥ १४१ ॥ दिक्स्वस्तिका सभाभूमिः परार्घ्यमणिकुट्टिमा । तस्य चङ्क्रमणी २ यष्टिः सुविधिर्मणिनिर्मिता ॥ १४८ ॥ गिरिकूटकमित्यासीत् सौधं दिगवलोकने ' ' । वर्धमानकमित्यन्यत् "प्रेक्षागृहमभूद् विभोः ॥ १४९ ॥ घर्मान्तोऽस्य'' महानासीद् धारागृहसमाह्वयः । गृहकूटकमित्युच्चैर्वर्षावासः प्रभोरभूत् ॥ १५०॥ पुष्करावर्त्यभिख्यं च हर्म्यमस्य सुधासितम् । कुबेरू तमित्यासीद् माण्डागारं यदक्षयम् ॥१५१॥ के प्रारम्भमें वह चक्रवर्ती, जिनमें नवीन खिले हुए सप्तच्छद वृक्षोंकी सुगन्ध फैल रही है ऐसे वनोंमें अपनी स्त्रीके साथ विहार करता हुआ क्रीडा करता था ।। १३९ || राजभवनकी मनोहर छतोंपर शरदऋतुकी चाँदनीका उपभोग करता हुआ वह चक्रवर्ती हारकी कान्तिसे जिसके स्तन सुशोभित हो रहे हैं ऐसी प्रिया सुभद्राको प्रसन्न करता था उसके साथ क्रीडा करता था ॥ १४० ॥। जब कभी रानी सुभद्रा पतिके वक्षःस्थलपर लेट जाती थी उस समय उसकी चोटीके अन्त भागसे लटकती हुई नील कमलयुक्त भद्रतरणीके फूलोंसे गुम्फित मालाको वह रतिकी लक्ष्मीके समान मानती थी ।।१४१ ।। इस प्रकार इस सुभद्रादेवीमें प्रेमकी परवशताको अच्छी तरह प्रकट करता हुआ और रतिसुखके अधीन हुआ वह चक्रवर्ती दश प्रकारके कहे हुए भोगोंके साधनोंसे क्रीडा करता था || १४२ ॥ रत्नसहित नौ निधियाँ, रानियाँ, नगर, शय्या, आसन, सेना, नाट्यशाला, बरतन, भोजन और सवारी ये दश भोगके साधन कहलाते हैं ।। १४३ ।। इस प्रकार अपने तृप्त करनेवाले दश प्रकारके भोगके साधनोंका उपभोग करते हुए महाराज भरतने चिरकाल तक जिसपर एक ही छत्र है ऐसी पृथिवीका पालन किया || १४४ ॥ चक्रवर्ती भरतके ऐसे सोलह हजार गणबद्ध देव थे जो कि तलवार धारण कर निधि, रत्न और स्वयं उनकी रक्षा करनेमें सदा तत्पर रहते थे || १४५ ।। उनके घरको घेरे हुए क्षितिसार नामका कोट था और देदीप्यमान रत्नोंके तोरणोंसे युक्त सर्वतोभद्र नामका गोपुर था || १४६ ॥ उनकी बड़ी भारी छावनी के ठहरनेका स्थान नन्द्यावर्त नामका था और जो सब ऋतुओंमें सुख देनेवाला है ऐसा वैजयन्त नामका महल था || १४७ || बहुमूल्य मणियोंसे जड़ी हुई दिकस्वस्तिका नामकी सभाभूमि थी और टहलनेके समय हाथमें लेनेके लिए मणियोंकी बनी हुई सुविधि नामकी लकड़ी थी ।। १४८।। सब दिशाएँ देखनेके लिए गिरिकूटक नामका राजमहल था और उन्हीं चक्रवर्तीके नृत्य देखनेके लिए वर्धमानक नामकी नृत्यशाला थी || १४९|| उन चक्रवर्तीके गरमीको नष्ट करनेवाला धारागृह नामका बड़ा भारी स्थान था और वर्षाऋतुमें निवास करने के लिए बहुत ऊँचा गृहकूटक नामक महल था ॥ १५० ॥ चूनासे सफेद हुआ पुष्करावर्त नामका - १ 'कुब्जिका भद्रतरणी बृहत्पत्रातिकेशरा | महासहा' इति धन्वन्तरिः । २ रचिताम् । ३ रतिश्री समानामिति । 'पत्युरुरस्यस्य स्थिता संजिघ्रति स्म सा' प०, ल० । ४ स्नेहाधीनताम् । ५ रत्यधीनः । ६ देव्यः द०, ल०, प० । ७ भाजनसहितम् । ८ स्वस्य तृप्तिजनकम् । ९ सुचिरं ल० । १० एकच्छत्राम् । ११ क्षितिसार इति नामा । १२ आलिङ्गभूमिः, आन्दोलनभूमिरित्यर्थः । दर्शनगृहम् । १६ घर्मान्तसंज्ञाम् । १३ सुविधिनामा । १४ दिशा लोकार्थम् । १५ नृत्त ३० Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आदिपुराणम् वसुधारकमिन्यासीत् कोष्टागारं महाव्य यम् । जीमूतनामधेयं च मजनागारमूर्जितम् ॥१५२॥ रत्नमालाऽतिरोचिष्णुर्बभूवास्यावतंसिका । देवरम्यति रम्या सा मता दृष्यकुटी' पृथः ॥१५३॥ सिंहवाहिन्यभूच्छय्या सिंहैरू हा भयानकैः । सिंहासनमोऽस्योच्चैर्गुणैर्नाम्नाऽप्यनुत्तरम् ॥१५॥ चामराण्युपमामानं व्यतीन्यानुपमान्यमान् । विजयाईकुमारेण वितीर्णानि निधीशिने ॥१५५॥ भास्वतसूर्यप्रभं तस्य बभूवातपवारणम् । परायरत्ननिर्माणं जितसूर्यशतप्रभम् ॥१५६॥ नाना विद्युत्प्रभ चास्य रुचिरे मणिकुण्डले । जित्वा ये वैद्युतीं दीप्तिं रुरुचाते स्फुरत्त्विषी ॥१५७॥ रत्रांशुजटिलास्तस्य पादुका विषमोचिकाः । परेषां पदसंस्पर्शाद मुञ्चन्त्यो विषमुल्वणम् ॥१५॥ अभेद्याश्यमभूत्तस्य तनुत्राणं प्रभास्वरम् । द्विषतां शरनाराचैर्यदभेद्यं महाहवे ॥१५९॥ रथोऽजितञ्जयो नाम्ना जयलक्ष्मीभरोद्वहः । यत्र शस्त्राणि जैत्राणि दिव्यान्यासन्ननेकशः ॥१६॥ चण्याकाण्डाशनिप्रख्यज्याघाताऽकम्पिताखिलम् । जितदत्यामरं तस्य वज्रकाण्डमभूद्धनुः ॥१६१॥ अमोघपातास्तस्यासन नामोघाख्या महषवः । यैरसाध्यजये चक्री कृतश्लाघो रणाङ्गणे ॥१६२॥ प्रचण्डा वज्रतुण्डारख्या शकिरस्यारिखण्डिनी । बभूव वज्र निर्माणाश्लाघ्या वज्रिजयेऽपि या ॥१६३॥ कुन्तः सिंहाको नाम यः सिंहनखरांकुरैः । स्पर्धते स्म निशाताग्रो मणिदण्डायमण्डनः ॥१६॥ खास महल था और कुबेरकान्त नामका भाण्डारगृह था जो कभी खाली नहीं होता था॥१५१॥ वसुधारक नामका बड़ा भारी अटूट कोठार था और जीमूत नामका बड़ा भारी स्नानगृह था ॥१५२।। उस चक्रवर्तीके अवतंसिका नामकी अत्यन्त देदीप्यमान रत्नोंकी माला थी और देवरम्या नामकी बहुत बड़ी सुन्दर चाँदनी थी ॥१५३॥ भयंकर सिंहोंके द्वारा धारण की हुई सिंहवाहिनी नामकी शय्या थी और गुण तथा नाम दोनोंसे अनुत्तर अर्थात् उत्कृष्ट बहुत ऊँचा सिंहासन था ॥१५४।। जो विजयार्धकुमारके द्वारा निधियोंके स्वामी चक्रवर्तीके लिए समर्पित किये गये थे ऐसे अनुपमान नामके उनके चमर उपमाको उल्लंघन कर अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ॥१५५॥ उस चक्रवर्तीके बहुमूल्य रत्नोंसे बना हुआ और सैकड़ों सूर्यको प्रभाको जीतनेवाला सूर्यप्रभ नामका अतिशय देदीप्यमान छत्र था ॥१५६॥ उनके देदीप्यमान कान्तिके धारक विद्युत्प्रभ नामके दो ऐसे सुन्दर कुण्डल थे जो कि बिजलीकी दीप्तिको पराजित कर सुशोभित हो रहे थे ।।१५७॥ महाराज भरतके रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त हुई विषमोचिका नामकी ऐसी खड़ाऊँ थीं जो कि दूसरेके पैरका स्पर्श होते ही भयंकर विष छोड़ने लगती थीं। ॥१५८॥ उनके अभेद्य नामका कवच था जो कि अत्यन्त देदीप्यमान था और महायुद्ध में शत्रुओंके तीक्ष्ण बाणोंसे भी भेदन नहीं किया जा सकता था ॥१५९|| विजयलक्ष्मीके भारको धारण करनेवाला अजितंजय नामका रथ था जिसपर शत्रओंको जीतनेवाले अनेक दिव्य शस्त्र रखे रहते थे ॥१६०॥ असमय में होनेवाले प्रचण्ड वज्रपातके समान जिसकी प्रत्यंचाके आघातसे समस्त संसारका कँप जाता था और जिसने देव, दानव -सभीको जीत लिया था ऐसा वनकाण्ड नामका धनुष उस चक्रवर्तीके पास था ।।१६।। जो कभी व्यर्थ नहीं पड़ते ऐसे उसके अमोघ नामके बड़े-बड़े बाण थे। इन बाणोंके द्वारा ही चक्रवर्ती जिसमें विजय पाना असाध्य हो ऐसे युद्धस्थलमें प्रशंसा प्राप्त करता था ॥१६२॥ राजा भरतके शत्रुओंको खण्डित करनेवाली वज्रतुण्डा नामकी शक्ति थी, जो कि वज्रकी बनी हुई थी और इन्द्रको भी जीतनेमें प्रशंसनीय थी ॥१६३॥ जिसकी नोक बहुत तेज थी, जो मणियोंके बने हुए डण्डेके अग्रभागपर सुशोभित १ पटकुटी। २ उपमाप्रमाणम् । ३ भान्ति स्म । ४ कुण्डले। ५ विद्यतमंबन्धिनीम् । ६. विषमोचिकासंज्ञाः । ७ महाशरैः। - मणिमयदण्डाग्रं मण्डनम् अलंकारो यस्य । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तम पर्व २३५ तस्यासि पुत्रिका दीप्रा रत्नानद्धस्फुरत्सरुः । लोहवाहिन्यभून्नाम्ना जयश्रीदर्पणायिता ॥१६५॥ कपोऽस्य मनोवेगो जयश्रीप्रणयावहः । द्विषत्कुलकुलक्ष्मा ध्रदलने योऽशनायितः ॥१६६॥ सौनन्दकाख्यमस्याभूदसिरनं स्फुरद्युति । यस्मिन् करतलारूढे दोलारूढमिवाखिलम् ॥१६७॥ 'प्राभूतमुख खे विभोर्भूतमुखाङ्कितम् । स्फुरताऽऽजीमुखे येन द्विषां मृत्युमुखायितम् ॥१६८॥ चक्ररत्नम भूजिष्णो देवचक्राक्रमणक्षमम् । नाम्ना सुदर्शनं दीनं यदुर्दर्शमरातिभिः ॥१६६॥ प्रचण्डचण्डवेगाख्यो दण्डोऽभूच्चक्रिणः पृथुः । स यस्य विनियोगोऽभूद् बिलकण्टकशोधने ॥१७॥ नाम्ना वमयं दिव्यं चर्मरत्नमभूद् विभोः । तद्बलं यद्बलाधानान्निस्तीर्ण जलविप्लवात् ॥१७१॥ मणिचूडामणिनाम चिन्तारत्नमनुत्तरम् । जगचुडामणेरस्य चित्तं येनानुरञ्जितम् ॥१७२॥ सा चिन्ताजननीत्यस्य काकिणी भास्वराऽभवत् । या रूप्यादिगुहाध्वान्तविनिर्भेदकदीपिका ॥१७३।। चमूपतिरयोध्याख्यो नृरत्नमभवत् प्रभोः । समरेऽरिजयाद्यस्य रोदसी व्यानशे यशः ॥१७४॥ बुद्धिसागरनामास्य पुरोधाः पुरुधीरभूत् । धा क्रिया यदायत्ता प्रतीकारीऽपि दैविके ॥१७५॥ सुधीहपतिर्नाम्ना कामवृष्टिरभीष्टदः । व्ययोप व्ययचिन्तायां नियुक्तो यो निधीशिनः ॥१७६॥ हो रहा था और जो सिंहके नाखूनोंके साथ स्पर्धा करता था ऐसा उनका सिंहाटक नामका भाला था ॥१६४॥ जो अत्यन्त देदीप्यमान थी, जिसकी रत्नोंसे जड़ी हुई मूठ बहुत ही चमक रही थी, और जो विजयलक्ष्मीके दर्पणके समान जान पड़ती थी ऐसी लोहवाहिनी नामकी उनकी छुरी थी ॥१६५।। मनोवेग नामका एक कणप (अस्त्रविशेष) था जो कि विजयलक्ष्मीपर प्रेम करनेवाला था और शत्रुओंके वंशरूपी कुलाचलोंको खण्डित करनेके लिए वज्रके समान था ॥१६६।। भरतके सौनन्दक नामकी श्रेष्ठ तलवार थी जिसकी कान्ति अत्यन्त देदीप्यमान हो रही थी और जिसे हाथमें लेते ही यह समस्त जगत् झूलामें बैठे हुएके समान काँप उठता था ॥१६७॥ उनके भूतोंके मुखोंसे चिह्नित भूतमुख नामका खेट ( अस्त्रविशेष ) था, जो कि युद्धके प्रारम्भमें चमकता हुआ शत्रुओंके लिए मृत्युके मुखके समान जान पड़ता था ॥१६८॥ उन विजयी चक्रवर्तीके सुदर्शन नामका चक्र था, जो कि समस्त दिशाओंपर आक्रमण करने में समर्थ था, देदीप्यमान था और जो शत्रुओंके द्वारा देखा भी नहीं जा सकता था ।।१६९।। जिसका नियोग गुफाके काँटे वगैरह शोधनेमें था ऐसा चण्डवेग नामका बहुत भारी प्रचण्ड (भयंकर ) दण्ड उस चक्रवर्तीके था ॥१७०॥ भरतेश्वर महाराजके वज्रमय चर्मरत्न था, वह चर्मरत्न, कि जिसके बलसे उनकी सेना जलके उपद्रवसे पार हुई थी - बची थी ॥१७१।। उनके चडामणि नामका वह उत्तम चिन्तामणि रत्न था जिसने कि जगत्के चड़ामणि-स्वरूप महाराज भरतका चित्त अनुरक्त कर लिया था ॥१७२।। चिन्ताजननी नामकी वह काकिणी थी जो कि अत्यन्त देदीप्यमान हो रही थी और जो विजया पर्वतकी गुफाओंका अन्धकार दूर करने के लिए मुख्य दीपिकाके समान थी ।।१७३।। उन प्रभुके अयोध्य नामका सेनापति था जो कि मनुष्योंमें रत्न था और युद्ध में शत्रुओंको जीतनेसे जिसका यश आकाश और पृथिवीके बीच व्याप्त हो गया था ॥१७४|| समस्त धार्मिक क्रियाएँ जिसके अधीन थीं और दैविक उपद्रव होनेपर उनका प्रतिकार करना भी जिसके आश्रित था ऐसा बुद्धिसागर नामका महाबुद्धिमान् पुरोहित था ॥१७५॥ उनके कामवृष्टि नामका गृहपति रत्न था, जो कि अत्यन्त बुद्धिमान् था, इच्छानुसार सामग्री देनेवाला था तथा जो चक्रवर्तीके छोटे-बड़े सभी खर्चांकी १ क्षुरिका । 'स्याच्छस्त्री चासिपुत्री च क्षुरिका चासिधेनुका।' इत्यभिधानात् । २ मुष्टिः । 'त्सरुः खड्गादिमुष्टिः स्याद्' इत्यभिधानात् । ३ कणवोऽस्य ल० । ४ पर्वत । ५ निस्तरणमकरोत् । ६ आय । ७ चक्रिणः । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ आदिपुराणम् रत्नं स्थपतिरप्यस्य वास्तु विद्यापदातधीः । नाम्ना भद्रमुखोऽनेकप्रासादघटने पटुः ॥१७॥ शैलोदग्रो महानस्य यागहस्तीक्षरन्मदः । भद्रो गिरिचरः शुभ्रो नाम्ना विजयपर्वतः ॥ १७८॥ पवनस्य जयन् वेगं हयोऽस्य पवनंजयः । विजयार्द्धगुहोत्सङ्गं हेलया यो व्यलङ्घयत् ॥१७९।। प्रागुक्तवर्णनं चास्य स्त्रीरत्नं रूढनामकम् । स्वभावमधुरं हृद्यं रसायनमिवापरम् ॥१८॥ रत्नान्येतानि दिव्यानि बभूवुश्चक्रवर्तिनः । देवताकृतरक्षाणि यान्यलथानि विद्विषाम् ॥१८१॥ आनन्दिन्योऽब्धिनि?षा भोऽस्य द्वादशाभवन् । द्विषड्योजनमापूर्य स्वैर्वानर्याः प्रदध्वनुः ॥१८२॥ आसन् विजयघोषाख्याः पटहा द्वादशापरे । गृहकेकिभिरुद्रीवैः सानन्दं श्रुतनिःस्वनाः ॥१८३।। गम्भीरावर्तनामानः शङ्खा गम्भीरनिःस्वनाः । चतुर्विंशतिरस्यासन् शुभाः पुण्याब्धिसंभवाः ।।१८४॥ कटका रत्ननिर्माणा विभी/राङ्गदाह्वयाः । रेजुः प्रकोष्टमावेष्टय तडिद्वलयविभ्रमाः ॥१८॥ पताकाकोटयोऽस्याष्टचत्वारिंशत्प्रमा मताः । मरुत्प्रेङ्खोलि तोत्प्रेङ्खदंशुकोन्मृष्टखाङ्गणाः ॥१८६॥ महाकल्याणकं नाम दिव्याशनमभूद् विभोः । कल्याणाङ्गस्य येनास्य तृप्तिपुष्टीबलान्विते ॥१८॥ भक्षावामृतगर्भाख्या रुच्यास्वादाः सुगन्धयः । नान्ये जरयितुं शक्ता यान् गरिष्ठरसोत्कटान् ॥१८८॥ स्वायं चामृतकल्पाख्यं हृद्यास्वादं सुसंस्कृतम् । रसायनरसं दिव्यं पानकं चामृताह्वयम् ॥१८६।। चिन्तामें नियुक्त था ।।१७६॥ मकान बनानेकी विद्यामें जिसकी बुद्धि प्रवेश पाये हुई है और जो अनेक राजभवनोंके बनानेमें चतुर है ऐसा भद्रमुख नामका उनका शिलावटरत्न ( इंजीनियर ) था ।।१७७।। जो पर्वतके समान ऊँचा था, बहुत बड़ा था, पूज्य था, जिससे मद झर रहा था, भद्र जातिका था और जिसका गर्जन उत्तम था ऐसा विजयपर्वत नामका सफेद हाथी था ॥१७८॥ जिसने विजयार्धपर्वतकी गुफाके मध्यभागको लीलामात्रमें उल्लंघन कर दिया था ऐसा वायके वेगको जीतनेवाला पवनंजय नामका घोडा था ॥१७९॥ और जिसका वर्णन पहले कर चके हैं. जिसका नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है. जो स्वभावसे ही मधर है और जो किसी अन्य रसायनके समान हृदयको आनन्द देनेवाला है ऐसा सुभद्रा नामका स्त्रीरत्न था ॥१८०॥ इस प्रकार चक्रवर्तीके ये दिव्य रत्न थे जिनकी देव लोग रक्षा किया करते थे, और जिन्हें शत्रु कभी उल्लंघन नहीं कर सकते थे ॥१८१॥ उस चक्रवर्तीके समुद्रके समान गम्भीर आवाजवाली आनन्दिनी नामकी बारह भेरियाँ थीं जो अपनी आवाजको बारह योजन दर तक फैलाकर बजती थीं ॥१८२।। इनके सिवाय बारह नगाड़े और थे जिनकी आवाज घरके मयूर ऊँची गरदन कर बड़े आनन्दके साथ सुना करते थे ॥१८३॥ जिनकी अवाज अतिशय गम्भोर है. जो शभ हैं. और पुण्यरूपी समद्रसे उत्पन्न हए हैं ऐसे गम्भीरावर्त नामके चौबीस शंख थे ॥१८४॥ उस प्रभके रत्नोंके बने हए वीरांगद नामके कड़े थे जो कि हाथकी कलाईको घेरकर सुशोभित हो रहे थे और जिनको कान्ति बिजलीके कड़ोंके समान थी ॥१८५।। वायुके ऑकोरेसे उड़ते हुए कपड़ोंसे जिन्होंने आकाशरूपी आँगनको झाड़कर साफ कर दिया है ऐसी उसकी अड़तालीस करोड़ पताकाएँ थीं ।।१८६।। महाराज भरतके महाकल्याण नामका दिव्य भोजन था जिससे कि कल्याणमय शरीरको धारण करनेवाले उनके बलसहित तृप्ति और पुष्टि दोनों ही होती थीं ॥१८७।। जो अत्यन्त गरिष्ठ रससे उत्कट हैं, जिन्हें कोई अन्य पचा नहीं सकता तथा जो रुचिकर, स्वादिष्ट और सुगन्धित है ऐसे उसके अमृतगर्भ नामके भक्ष्य अर्थात् खाने योग्य मोदक आदि पदार्थ थे ॥१८८।। जिनका स्वाद हृदयको अच्छा १ वास्तुविद्यास्थाने स्वीकृतबुद्धिः । २ पूज्य । ३ गिरिवरः ल०, प० । ४ चलनेनोच्चलत् । ५ आहारेण । ६ पुरुषाः। ७ जीर्णीकर्तुम् । ८ अतिगुरु । ९ क्रमुकदाडिमादि। "ओदनाद्यशनं, स्वाद्यं ताम्बूलादि, जलादिकम् । पेयं, स्वाद्यमपूपाद्यं, त्याज्यान्येतानि शक्तिकैः ।" Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तम पर्व २३७ पुण्यकल्पतरोरासन् फलान्येतानि चक्रिणः । यान्यनन्योपभोग्यानि भोगाङ्गान्यतुलानि वै ॥१६॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृगरूपसंपदनीदृशी । पुण्याद् विना कुतस्ताहगभेचं गात्रबन्धनम् ॥१९॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृनिधिरत्नर्द्धिरूर्जिता । पुण्याद् विना कुतस्तादृगिभाश्वादिपरिच्छदः ॥१९२॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृगन्तःपुरमहोदयः । पुण्याद् विना कुतस्तादृग दशाङ्गो भोगसंभवः ॥१९३॥ पुण्याद् विना कुतस्ताहगाज्ञाद्वीपाब्धिलचिनी । पुण्याद् विना कुतस्तागजयश्रीर्जित्वरी दिशाम् ॥१९४॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृक्प्रतापः प्रणतामरः । पुण्याद् विना कुतस्ताहगुद्योगो लचितार्णवः ॥१९५॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृक् प्राभवं त्रिजगज्जयि । पुण्याद् विना कुतस्तादृक् 'नगराजजयोत्सवः ॥ १९६॥ पुण्याद् विना कुतस्ताहक सत्कार स्तत्कृतोऽधिकः । पुण्याद् विना कुतस्ताहक "सरिदेव्यभिषेचनम् ॥ १९७॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृक् खचराचलनिर्जयः। पुण्याद् विना कुतस्तादृग्रनलाभोऽन्यदुर्लभः ॥१९८॥ पुण्याद् विना कुतस्ताहगा यतिर्भरतेऽखिले । पुण्याद् विना कुतस्ताहक कीर्तिर्दिक्तटलचिनी ॥१९९॥ ततः पुण्योदयोद्भूतां मत्वा चक्रभृतः श्रियम् । चिनुध्वं मो बुधाः पुण्यं यत्पुण्यं सुखसंपदाम् ॥२०॥ लगनेवाला है और मसाले वगैरहसे जिनका संस्कार किया गया है ऐसे अमृतकल्प नामके उनके स्वाद्य पदार्थ थे तथा रसायनके समान रसीला अमृत नामका दिव्य पानक अर्थात् पीने योग्य पदार्थ था ।।१८९।। चक्रवर्तीके ये सब भोगोपभोगके साधन उसके पुण्यरूपी कल्पवृक्षके फल थे, उन्हें अन्य कोई नहीं भोग सकता था और वे संसारमें अपनी बराबरी नहीं रखते थे ॥१९॥ पुण्यके बिना चक्रवर्तीके समान अनुपम रूपसम्पदा कैसे मिल सकती है ? पुण्यके बिना वैसा अभेद्य शरीरका बन्धन कैसे मिल सकता है ? पूण्यके बिना अतिशय उत्कृष्ट निधि और रत्नोंकी ऋद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ? पुण्यके बिना वैसे हाथी, घोड़े आदिका परिवार कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना वैसे अन्तःपुरका वैभव कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना दस प्रकारके भोगोपभोग कहाँ मिल सकते हैं? पुण्यके बिना द्वीप और समद्रोंको उल्लंघन करनेवाली वैसी आज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ? पुण्यके बिना दिशाओंको जीतनेवाली वैसी विजयलक्ष्मी कहाँ मिल सकती है ? पुण्यके बिना देवताओंको भी नम्र करनेवाला वैसा प्रताप कहाँ प्राप्त हो सकता है ? पुण्यके बिना समुद्रको उल्लंघन करनेवाला वैसा उद्योग कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना तीनों लोकोंको जीतनेवाला वैसा प्रभाव कहाँ हो सकता है ? पुण्यके बिना वैसा हिमवान् पर्वतको विजय करनेका उत्सव कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना हिमवान् देवके द्वारा किया हुआ वैसा अधिक सत्कार कहाँ मिल सकता है ? बिना पुण्यके नदियोंकी अधिष्ठात्री देवियोंके द्वारा किया हुआ वैसा अभिषेक कहाँ हो सकता है ? पुण्यके बिना विजयार्ध पर्वतको जीतना कैसे हो सकता है ? पुण्यके बिना अन्य मनुष्योंको दुर्लभ वैसे रत्नोंका लाभ कहाँ हो सकता है ? पुण्यके बिना समस्त भरतक्षेत्रमें वैसा सुन्दर विस्तार कैसे हो सकता है ? और पुण्यके बिना दिशाओंके किनारेको उल्लंघन करनेवाली वैसी कीर्ति कैसे हो सकती है ? इसलिए हे पण्डित जन, चक्रवर्तीकी विभूतिको पुण्यके उदयसे उत्पन्न हुई मानकर उस पुण्यका संचय करो जो कि समस्त सुख और सम्पदाओंकी दुकानके समान १ हिमवगिरि । २ हिमवन्नगस्थ सुरकृतः । ३ गङ्गासिन्धदेवी। ४ धनागमः प्रभावो वा । ५ लम्भिनी इ० । ६ ततः कारणात् । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ आदिपुराणम् शार्दूलविक्रीडितम् इत्याविष्कृतसंपदो विजयिनस्तस्याखिलक्ष्माभृतां स्फीतामप्रतिशासनां प्रथयतः षटखण्डराज्यश्रियम् । कालोऽनल्पतरोऽप्यगात आण इव प्राक पुण्यकर्मोदया __दुद्भूतैः प्रमदावहैः षट्टतुजै गैरतिस्वादुभिः ॥२०१॥ नानारत्न निधानदेशविलसत्संपत्तिगुर्वीमिमा साम्राज्यश्रियमेकमोगनियतां कृत्वाऽखिलां पालयन् । योऽभूत्व किलाकुलः कुलवधूमेकामिवाङ्कस्थितां . सोऽयं चक्रधरोऽभुनक भुवममूमेकातपत्रां चिरम् ॥२०२॥ यन्नाम्ना भरतावनित्वमगमत् षटखण्डभूषा मही येना सेतुहिमाद्विरक्षितमिदं क्षेत्रं कृतारिक्षयम् । यस्याविनिधिरत्नसंपदुचिता लक्ष्मीरुरःशायिनी स श्रीमान् भरतेश्वरो निधिभुजामग्रेसरोऽभूत् प्रभुः ॥२०३॥ यः स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुनः स्तोता स्वयं कस्यचिद् ध्येयो योगिजनस्य यश्च न तरां ध्याता स्वयं कस्यचित् । यो नन्तनपि नेतुमुन्नतिमलं नन्तव्यपः स्थितः स श्रीमान् जयताजगत्त्रयगुरुर्देवः पुरुः पावनः ॥२०४॥ है ॥१९१-२००। इस प्रकार जिसने सम्पदाएं प्रकट की हैं, जिसने समस्त राजाओंको जीत लिया है, और जो दसरेके शासनसे रहित अपने छह खण्डकी विस्तत राज्यलक्ष्मीको निरन्तर फैलाता रहता है ऐसे उस चक्रवर्ती भरतका बड़ा भारी समय पर्व पण्यकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए, सब तरहका आनन्द देनेवाले और अत्यन्त स्वादिष्ट छहों ऋतुओंके भोगोंके द्वारा क्षणभरके समान व्यतीत हो गया था ॥२०१।। अनेकों रत्नों, निधियों और देशोंसे सुशोभित हुई सम्पत्तिके द्वारा जो भारी गौरवको प्राप्त हो रही है ऐसी इस समस्त साम्राज्यलक्ष्मीको एक अपने ही उपभोग करनेके योग्य बनाकर उसका पालन करता हुआ जो चक्रवर्ती गोदमें बैठी हुई कुलवधूकी रक्षा करते हुएके समान कभी व्याकुल नहीं हुआ वह भरत एक छत्रवाली इस पृथिवीका चिरकाल तक पालन करता रहा था ।।२०२॥ छह खण्डोंसे विभूषित पृथिवी जिसके नामसे भरतभूमि नामको प्राप्त हुई, जिसने दक्षिण समुद्रसे लेकर हिमवान् पर्वत तकके इस क्षेत्र में शत्रुओंका क्षय कर उसकी रक्षा की, तथा प्रकट हुई निधि और रत्न आदि सम्पदाओंसे योग्य लक्ष्मी जिसके वक्षःस्थलपर शयन करती थी वह प्रभु - श्रीमान् भरतेश्वर निधियों के स्वामी अर्थात् चक्रवतियोंमें प्रथम और मुख्य चक्रवर्ती हुआ था ।२०३॥ जो तीनों जगत्के जीवोंके द्वारा स्तुति करनेके योग्य हैं परन्तु जो स्वयं किसीकी स्तुति नहीं करते, बड़े-बड़े योगी लोग जिनका ध्यान करते हैं परन्तु जो किसीका ध्यान नहीं करते, जो नमस्कार करनेवालोंको भी उन्नत स्थानपर ले जानेके लिए समर्थ हैं परन्तु स्वयं नमस्कार करने योग्य पक्षमें स्थित हैं अर्थात् किसोको नमस्कार नहीं करते, वे तीनों जगत्के गुरु अत्यन्त पवित्र श्रीमान् भगवान् १ निधि । २ आत्मनः एकस्यैव भोगनियताम् । ३ पालयति स्म । ४ षट्खण्डालंकारा। ५ दक्षिणसमुद्रात् प्रारभ्य हिमवगिरिपर्यन्तम् । ६ नमनशीलान् । ७ समर्थः । ८ नमनयोग्यपक्षे । स्वयं कस्यापि नन्ता नेत्यर्थः । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व यं नत्वा पुनरानमन्ति न परं स्तुत्वा च यं नापरं भव्याः संस्तुवते श्रयन्ति न परं यं संश्रिताः श्रेयसे । य सत्कृत्य कृतादरं कृतधियः सत्कुर्वते नापरं . स श्रीमान् वृषभो जिनो भवभयान्नस्त्रायतां तीर्थकृत ॥२०५॥ इत्यार्षे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भरतेश्वराभ्युदयवर्णनं नाम सप्तत्रिंशत्तमं पर्व ॥३७॥ वृषभदेव सदा जयवन्त रहें ॥२०४॥ भव्य लोग जिन्हें नमस्कार कर फिर किसी अन्यको नमस्कार नहीं करते, जिनकी स्तुति कर फिर किसी अन्यकी स्तुति नहीं करते, जिनका आश्रय लेकर कल्याणके लिए फिर किसी अन्यका आश्रय नहीं लेते, और बुद्धिमान् लोग जिनका सबने आदर किया है ऐसे जिनका सत्कार कर फिर किसी अन्यका सत्कार नहीं करते वे श्रीमान् वृषभ जिनेन्द्र तीर्थंकर हम सबकी संसारके भयसे रक्षा करें ।।२०५।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें भरतेश्वरके वैभवका वर्णन करनेवाला यह सैतीसव पर्व समाप्त हुआ। १ संसारभीतेरपसार्य। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व जयन्स्यखिल वाङमार्गगामिन्यः सूक्तयोऽर्हताम् । धूतान्धतमसा दीप्रा यास्त्विषोंऽशुमतामिव ॥१॥ स जीयात् वृषभो मोहविषसुप्तमिदं जवात् । पटविद्येव यद्विद्या सद्यः समुदतिष्टपत् ॥२॥ तं नत्वा परमं ज्योतिर्वृषमं वीरमन्वतः । द्विजन्मनामथोत्पत्तिं वक्ष्ये श्रेणिक भोः शृणु ॥३॥ भरतो भारतं वर्ष निर्जित्य सह पार्थिवैः । षष्टया वर्षसहस्रेस्तु दिशां निववृते जयात् ॥४॥ कृतकृत्यस्य तस्यान्तश्चिन्तेयमुदपद्यत । परार्थे संपदास्माकी सोपयोगा कथं भवेत् ॥५॥ महामहमहं कृत्वा जिनेन्द्रस्य महोदयम् । प्रीणयामि जगद्विश्वं विष्वग विश्राणयन् धनम् ॥६॥ नानगारा वसून्यस्मत् प्रतिगृह्णन्ति निःस्पृहाः । सागारः कतमः पूज्यो धनधान्यसमृद्धिभिः ॥७॥ येऽणुव्रतधरा धीरा धौरेयाँ गृहमेधिनाम् । तर्पणीया हि तेऽस्मामिरीप्सितैर्वसुवाहनैः ॥८॥ इति निश्चित्य राजेन्द्रः सत्कर्तुमुचितानिमान् । परीचिक्षिषुरादास्त तदा सर्वान् महीभुजः ॥९॥ सदाचारैर्निजैरिष्टैरनुजीविमि रन्विताः। अद्यास्मदुत्सवे यूयमायातेति' पृथक् पृथक् ॥१०॥ हरितैरङ्करैः पुष्पैः फलैचाकीर्णमङ्गणम् । संम्राडचीकरतेषां परीक्षायै स्ववेश्मनि ॥११॥ तेष्वव्रता विना संगात् 'प्राविक्षन् नृपमन्दिरम् । तानेकतः समुत्सायं शेषानाह्वययत् प्रभुः ॥१२॥ जो समस्त भाषाओंमें परिणत होनेवाली है, जिसने अज्ञानरूपी गाढ़ अन्धकारको नष्ट कर दिया है और जो सूर्यको किरणोंके समान देदीप्यमान है वह अरहन्त भगवान्की सुन्दर वाणी सदा जयवन्त हो ॥१॥ गारुड़ी विद्याके समान जिनकी विद्याने मोहरूपी विषसे सोये हए इस समस्त संसारको बहुत शीघ्र जगा दिया वे भगवान् वृषभदेव सदा जयवन्त रहें ॥२॥ गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे श्रेणिक, मैं उन परमज्योति-स्वरूप भगवान् वृषभदेव तथा भगवान् महावीर स्वामीको नमस्कार कर अब यहाँसे द्विजोंकी उत्पत्ति कहता हूँ सो सुनो ॥३॥ भरत चक्रवर्ती अनेक राजाओंके साथ भारतवर्षको जीतकर साठ हजार वर्षमें दिग्विजयसे वापस लौटे ॥४॥ जब वे सब कार्य कर चुके तब उनके चित्तमें यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि दूसरेके उपकारमें मेरी इस सम्पदाका उपयोग किस प्रकार हो सकता है ? ॥५॥ मैं श्री जिनेन्द्रदेवका बड़े ऐश्वर्यके साथ महामह नामका यज्ञ कर धन वितरण करता हुआ समस्त संसारको सन्तुष्ट करूँ ? ॥६॥ सदा निःस्पृह रहनेवाले मुनि तो हम लोगोंसे धन लेते नहीं हैं परन्तु ऐसा गृहस्थ भी कौन है जो धन-धान्य आदि सम्पत्तिके द्वारा पूजा करनेके योग्य है ॥७॥ जो अणुव्रतको धारण करनेवाले हैं, धीर वीर हैं और गृहस्थों में मुख्य हैं ऐसे पुरुष ही हम लोगोंके द्वारा इच्छित धन तथा सवारी आदिक वाहनोंके द्वारा तर्पण करनेके योग्य हैं ॥८॥ इस प्रकार निश्चय कर सत्कार करनेके योग्य व्यक्तियोंकी परीक्षा करनेकी इच्छासे राजराजेश्वर भरतने उस समय समस्त राजाओंको बुलाया ॥९॥ और सबके पास खबर भेज दी कि आप लोग अपने-अपने सदाचारी इष्ट मित्र तथा नौकर-चाकर आदिके साथ आज हमारे उत्सवमें अलग-अलग आवें ॥१०॥ इधर चक्रवर्तीने उन सबकी परीक्षा करनेके लिए अपने घरके आँगनमें हरे-हरे अंकुर, पुष्प और फल खूब भरवा दिये ॥११॥ उन लोगोंमें जो अव्रती थे वे १ सर्वभावात्मिका इत्यर्थः । २ गारुडविद्या। ३ क्षेत्रम् । ४ वितरन् । ५ कश्चन । ६ अणव्रता. ल.। ७ धुरीणाः । ८ परीक्षितुमिच्छुः । ९ भृत्यैः। १० आगच्छत । ११ विचारात् प्रतिबन्धाद् वा। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशसमं पर्व २४१ ते तु स्वव्रतसिद्धयर्थमीहमाना' महान्वयाः । नैपुः प्रवेशनं तावद् यावदाङ्कुिराः पथि ॥१३॥ सधान्यैर्हरितैः कीर्णमनाक्रम्य नृपाङ्गणम् । निश्चक्रमुः कृपालुत्वात् केचित् सावद्यभीरवः ॥१४॥ कृतानुबन्धना भूयश्चक्रिणः किल तेऽन्तिकम् । प्रासुकेन पथाऽन्येन भेजुः क्रान्त्वा नृपाङ्गणम् ॥१५॥ प्राक केन हेतुना यूयं नायाताः पुनरागताः । केन तेति पृष्टास्ते प्रत्यभाषन्त चक्रिणम् ॥१६॥ प्रवालपत्रपुष्पादेः पर्वणि व्यपरोपणम् । न कल्पतेऽद्य तज्जानां जन्तूनां नो ऽनभिद्रुहाम् ॥१७॥ सन्त्येवानन्तशो जीवा हरितेष्वङ्करादिषु । निगोता इति सार्वज्ञ देवास्माभिः श्रुतं वचः ॥१॥ तस्मान्नास्मामिराक्रान्तमद्यत्वे त्वद्गृहाङ्गणम् । कृतोपहारमाद्रेि: फलपुष्पाकुरादिभिः ॥११॥ इति तद्वचनात् सर्वान् सोऽभिनन्द्य दृढव्रतान् । पूजयामास लक्ष्मीमान्दानमानादिसत्कृतैः ॥२०॥ तेषां कृतानि चिह्नानि सूत्रैः पद्मावयानिधेः । "उपात्तैर्ब्रह्मसूत्राद्वैरेकायकादशान्तकैः ॥२१॥ गुणभूमिकृताद भेदात् क्लप्तयज्ञोपवीतिनाम् । सत्कारः क्रियते स्मैषामव्रताश्च बहिः कृताः ॥२२॥ अथ ते कृतसन्मानाः चक्रिणा व्रतधारिणः । भजन्ति स्म परं दान्य लोकश्चैनानपूजयत् ॥२३॥ इज्यां वार्ता च दत्तिं च स्वाध्यायं संयमं तपः । श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥२४॥ बिना किसी सोच-विचारके राजमन्दिरमें घुस आये। राजा भरतने उन्हें -एक ओर हटाकर बाकी बचे हुए लोगोंको बुलाया ॥१२॥ परन्तु बड़े-बड़े कुलमें उत्पन्न हुए और अपने व्रतकी सिद्धिके लिए चेष्टा करनेवाले उन लोगोंने जबतक मार्गमें हरे अंकूरे हैं तबतक उसमें प्रवेश करनेकी इच्छा नहीं की ॥१३॥ पापसे डरनेवाले कितने ही लोग दयालु होनेके कारण हरे धान्योंसे भरे हुए राजाके आँगनका उल्लंघन किये बिना ही वापस लौटने लगे ॥१४॥ परन्तु जब चक्रवर्तीने उनसे बहुत ही आग्रह किया तब वे दूसरे प्रासुक मार्गसे राजाके आँगनको लाँघकर उनके पास पहुँचे ॥१५॥ आप लोग पहले किस कारणसे नहीं आये थे, और अब किस कारणसे आये हैं ? ऐसा जब चक्रवर्तीने उनसे पूछा तब उन्होंने नीचे लिखे अनुसार उत्तर दिया ॥१६॥ आज पर्वके दिन कोंपल, पत्ते तथा पुष्प आदिका विधात नहीं किया जाता और जो अपना कुछ बिगाड़ करते हैं ऐसे उन कोंपल आदिमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका भी विनाश किया जाता है ॥१७।। हे देव, हरे अंकुर आदिमें अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं, ऐसे सर्वज्ञदेवके वचन हमलोगोंने सुने हैं ॥१८॥ इसलिए जिसमें गीले-गीले फल, पुष्प और अंकुर आदिसे शोभा की गयी है ऐसा आपके घरका आँगन आज हम लोगोंने नहीं खूदा है ॥१९।। इस प्रकार उनके वचनोंसे प्रभावित हुए सम्पत्तिशाली भरतने व्रतोंमें दृढ़ रहनेवाले उन सबको प्रशंसा कर उन्हें दान मान आदि सत्कारसे सन्मानित किया ॥२०॥ पद्म नामकी निधिसे प्राप्त हुए एकसे लेकर ग्यारह तककी संख्यावाले ब्रह्मसूत्र नामके सूत्रसे (व्रतसूत्रसे) उन सबके चिह्न किये ।।२१।। प्रतिमाओंके द्वारा किये हुए भेदके अनुसार जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण. किये हैं ऐसे इन सबका भरतने सत्कार किया तथा जो व्रती नहीं थे उन्हें वैसे ही जाने दिया ॥२२॥ अथानन्तर चक्रवर्तीने जिनका सन्मान किया है ऐसे व्रत धारण करनेवाले वे लोग अपने-अपने व्रतोंमें और भी दृढ़ताको प्राप्त हो गये तथा अन्य लोग भी उनकी पूजा आदि करने लगे ॥२३॥ भरतने उन्हें उपासकाध्ययनांगसे इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और १ चेष्टमानाः । २ नेच्छन्ति स्म । ३ निर्गताः । ४ निबन्धाः । ५ मार्गेण । ६ हिंसनम् । ७ प्रवालपत्रपुष्पादिजातानाम् । ८ अस्माकम् । ९ अहिंसकानाम् । १० सर्वज्ञस्येदम् । ११ इदानीम् । १२ नितरामाः । १३ वस्त्रादिदानसद्वचनादिपूजासत्कारैः। १४ स्वीकृतैः । १५ दार्शनिकादिगुणनिलयविहितात । १६ कृत । १७ जनः । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् कुलधर्मोऽयमित्येषामत्पूजादिवर्णनम् । तदा भरतराजर्षिरन्ववोचदनुक्रमात् ॥ २५ ॥ प्रोक्ता पूजार्हता मिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुखमहः कामश्चाष्टाह्निकोऽपि च ॥ २६ ॥ तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनगृहं प्रति । स्वगृहान्नीर्यमानाऽर्चा गन्धपुष्पाक्षतादिका ॥२७॥ चैत्य चैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मार्पणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम् ॥ २८ ॥ या च पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी । स च नित्यमहो ज्ञेयो यथा शक्त्युपकल्पितः ॥ २९ ॥ महामुकुटवन्द्वैश्च क्रियमाणो महामहः । चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि ॥ ३० ॥ दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राभिर्य: प्रवर्त्यते । कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः ॥३१॥ आष्टाह्निको महः सार्वजनिक रूढ एव सः । महानैन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरगजैः कृतो महः ॥ ३२॥ बलिस्रपनमित्यन्यस्त्रिसंन्ध्यासेवया समम् । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम् ॥३३॥ एवंविधविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम् । विधिज्ञास्तामुशन्तीज्यां वृत्तिं प्राथमकल्पिकीम् ॥३४॥ वार्ता विशुद्धवृत्या स्यात् कृप्यादीनामनुष्ठितिः । चतुर्धा वर्णिता दत्तिर्दयापात्रसमान्वयैः ॥ ३५ ॥ सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवृन्देऽभयप्रदा । त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः ॥३६॥ महातपोधनायार्चाप्रतिग्रहपुरःसरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते ॥३७॥ २४२ तपका उपदेश दिया || २४|| यह इनका कुलधर्म है ऐसा विचार कर राजर्षि भरतने उस समय अनुक्रमसे अर्हत्पूजा आदिका वर्णन किया || २५ || वे कहने लगे कि अर्हन्त भगवान् की पूजा नित्य करनी चाहिए, वह पूजा चार प्रकारकी है सदार्चन, चतुर्मुख, कल्पद्रुप और आष्टा ॥२६॥ इन चारों पूजाओं में से प्रतिदिन अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत इत्यादि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह कहलाता है ||२७|| अथवा भक्तिपूर्वक अर्हन्तदेवकी प्रतिमा और मन्दिरका निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम खेत आदिका दान देना भी सदार्चन ( नित्यमह ) कहलाता है || २८ ॥ इसके सिवाय • अपनी शक्ति के अनुसार नित्य दान देते हुए महामुनियोंकी जो पूजा की जाती है उसे भी नित्यमह समझना चाहिए ||२९|| महामुकुटबद्ध राजाओंके द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए । इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है ||३०|| जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छ ( मुँहमाँगा ) दान देकर किया जाता है और जिसमें की आशाएँ पूर्ण की जाती हैं वह कल्पद्रुप नामका यज्ञ कहलाता है । कल्पवृक्षके समान सबकी इच्छाएँ पूर्ण की जावें उसे कल्पद्रुम यज्ञ कहते हैं, यह यज्ञ चक्रवर्ती ही कर सकते हैं ॥ ३१ ॥ चौथा आष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते हैं और जो जगत् में अत्यन्त प्रसिद्ध है । इसके सिवाय एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इन्द्र किया करता है ॥ ३२॥ बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीनों सन्ध्याओंमें उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजाके प्रकार हैं वे सब उन्हीं भेदोंमें अन्तर्भूत हैं ||३३|| इस प्रकारकी विधिसे जो जिनेन्द्रदेवकी महापूजा की जाती है उसे विधिके जाननेवाले आचार्य इज्या नामकी प्रथम वृत्ति कहते हैं ||३४|| विशुद्ध आचरणपूर्वक खेती आदिका करना वार्ता कहलाती है तथा दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति ये चार प्रकारकी दत्ति कही गयी हैं ||३५|| अनुग्रह करने योग्य प्राणियोंके समूहपर दयापूर्वक मन वचन कायकी शुद्धिके साथ उनके भय दूर करनेको पण्डित लोग दयादत्ति मानते हैं ॥ ३६ ॥ महातपस्वी मुनियोंके लिए जगत् के समस्त जीवोंभावार्थ - जिस यज्ञ में १ - तां नित्या सा ल० । २ नित्यमहः । 'अर्चा पूजा च नित्यमहः' । ३ भवतः किमिष्टमिति प्रश्नपूर्वकं तदभिवाञ्छितस्य दानम् । ४ सर्वजने भवः । ५ प्रथमकल्पे भवाम् । षट्कर्मसु प्रथमोक्तामित्यर्थः । ६ अनुष्ठानम् । ७ पूजास्थानविधिपूर्वकम् । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व समानायात्मनान्यस्मै क्रियामन्त्रवतादिभिः । 'निस्तारकोत्तमायह भूहमायतिसर्जनम् ॥३८॥ समानदत्तिरेषा स्यान पात्रे मध्यमतामिते । समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयाऽन्विता ॥३९॥ आत्मान्वयप्रतिष्टार्थं सूनवे यदशेषतः । सम समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ॥४०॥' सेषा सकलदत्ति: स्यात् स्वाध्यायः श्रुतभावना । तपोऽनशनवृत्त्यादि संयमो व्रतधारणम् ॥४१॥ विशुद्धा वृत्तिरेषेषां षट्तयाष्टा द्विजन्मनाम् । योऽतिक्रामंदिमां सोऽज्ञो नाम्नेव न गुणद्धिजः ॥४२॥ तपः श्रुतं च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्यकारणम् । तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः ॥४३॥ अपापोपहतां वृत्तिः स्यादेषां जातिरुत्तमा । दत्तीज्याधीति मुख्यत्वाद् व्रतशुद्धया सुसंस्कृता ॥४४॥ मनुष्यजातिरकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताझेदाचातुर्विध्यमिहाश्नुत ॥४५॥ ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रा "न्यग्वृत्तिसंश्रयात ४६ तप:श्रुताभ्यामेवातो' जातिसंस्कार इश्यते । असंस्कृतस्तु यस्ताभ्यां जातिमात्रेण स द्विजः ॥४७॥ द्विर्जातो हि द्विजन्मष्टः क्रियातो गर्भतश्च यः । क्रियामन्त्रविहीनस्तु कंवलं नामधारकः ॥४८॥ तदेषां जातिसंस्कारं दृढयन्निति सोऽधिराट् । स प्रोवाच द्विजन्मभ्यः क्रियाभेदानशेषतः ॥४९॥ सत्कारपूर्वक पड़गाह कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्रदान कहते हैं ।।३७।। क्रिया, मन्त्र और व्रत आदिसे जो अपने समान है तथा जो संसारसमुद्रसे पार कर देनेवाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है उसके लिए पृथिवी सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्रके लिए समान बुद्धिसे श्रद्धाके साथ जो दान दिया जाता है वह समानदत्ति कहलाता है ।।३८-३९।। अपने वंशकी प्रतिष्ठाके लिए पुत्र को समस्त कुलपद्धति तथा धनके साथ अपना कुटुम्ब समर्पण करनेको सकलदत्ति कहते हैं। शास्त्रोंकी भावना ( चिन्तवन ) करना स्वाध्याय है, उपवास आदि करना तप है और व्रत धारण करना संयम है ।। ४०-४१।। यह ऊपर कही हुई छह प्रकारकी विशुद्ध वृत्ति इन द्विजोंके करने योग्य है । जो इनका उल्लंधन करता है वह मूर्ख नाममात्रसे ही द्विज है, गुणसे द्विज नहीं है ।।४२।। तप, शास्त्रज्ञान और जाति ये तीन ब्राह्मण होनेके कारण हैं, जो मनुष्य तप और शास्त्रज्ञानसे रहित है वह केवल जातिसे ही ब्राह्मण है ॥४३॥ इन लोगोंकी आजीविका पापरहित है इसलिए इनकी जाति उत्तम कहलाती है तथा दान, पूजा, अध्ययन आदि कार्य मख्य होनेके कारण व्रतोंकी शद्धि होनेसे बह उत्तम जाति और भी सुसंस्कृत हो है ॥४४॥ यद्यपि जाति नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हई मनुष्य जाति एक ही है तथापि आजीविकाके भेदसे होनेवाले भेदके कारण वह चार प्रकारकी हो गयी है ॥४५।। व्रतोंके संस्कारस ब्राह्मण, शस्त्र धारण करनेसे क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमानेसे वैश्य और नीच वृत्तिका आश्रय लेनेसे मनुष्य शूद्र कहलाते हैं ॥४६॥ इसलिए द्विज जातिका संस्कार तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे ही माना जाता है परन्तु तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे जिसका संस्कार नहीं हुआ है वह जातिमात्रसे द्विज कहलाता है ।। ४७।। जो एक बार गर्भसे और दूसरी बार क्रियासे इस प्रकार दो बार उत्पन्न हुआ हो उसे द्विजन्मा अथवा द्विज कहते हैं परन्तु जो क्रिया और मन्त्र दोनोंसे ही रहित है वह केवल नामको धारण करनेवाला द्विज है ।।४८॥ इसलिए इन द्विजोंकी जातिके संस्कारको दृढ़ करते हुए सम्राट भरतेश्वरने द्विजोंके लिए नीचे लिखे अनुसार क्रियाओंके समस्त भेद कहे ॥४९॥ १ संसारसागरोत्तारक । २ दानम् । ३ मध्यमत्वं गते । ४ प्रवृत्त्या ल० । ५ सद्धर्मधनाभ्याम् । ६ गुणद्विजः ल०, अ०, ५०, स०, इ० । ७ स्वाध्याय । ८ सुसंस्कृता सती। ९ वर्तन । १० नीचवृत्ति । ११ अतः कारणात् । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ आदिपुराणम् ताश्च क्रियास्त्रिधाऽऽनाताः श्रावकाध्याय संग्रहे । सदृष्टिभिरनुष्टया महोदर्काः शुभावहाः ॥५०॥ गर्भान्वषक्रियाश्चैव तथा दीक्षान्वयक्रियाः। कन्वयक्रियाश्चेति तास्त्रिधैवं बुधैर्मताः ॥५१॥ आधानाचास्त्रिपञ्चाशज ज्ञेया गर्भान्वयक्रियाः । चत्वारिंशदथाष्टौ च स्मृता दीक्षान्वयक्रियाः ॥५२॥ कन्वयक्रियाश्चैव सप्त तज्ज्ञैः समुच्चिताः । तासां यथाक्रमं 'नामनिर्देशोऽयमनूयते ॥५३॥ अङ्गानां सप्तमादङ्गाद् दुस्तरादर्णवादपि । श्लोकैरष्टाभिरुन्नेभ्ये प्राप्त ज्ञानलवं मया ॥५४॥ आधानं प्रीतिसुप्रीती तिर्मोदः प्रियोद्भवः । नामकर्मबहिर्याननिषद्याः प्राशनं तथा ॥५५॥ व्युष्टिश्च केशवापश्च लिपिसंख्यानसंग्रहः । उपनातिव्रतं चर्या व्रतावतरणं तथा ॥५६॥ विवाहो वर्णलामश्च कुलचर्या गृहीशिता । प्रशान्तिश्च गृह त्यागो दीक्षाद्यं जिनरूपता ॥५७॥ मौनाध्ययनवृत्तत्वं तीर्थकृत्वस्य भावना । गुरुस्थानाभ्युपगमो गोपग्रहणं तथा ॥५८॥ स्वगुरुस्थानसंक्रान्तिनिस्संगत्वात्मभावना । योगनिर्वाणसंप्राप्तिोगनिर्वाणसाधनम् ॥५१॥ इन्द्रोपपादाभिषेकी विधिदानं सुखोदयः । इन्द्रत्यागावतारौ च हिरण्योत्कृष्टजन्मता ॥६०॥ मन्दरेन्द्राभिषेकश्च गुरुपूजोपलम्भनम् । यौवराज्यं स्वराज्यं च चक्रलाभो दिशां जयः॥६१॥ चक्राभिषेकसाम्राज्ये निष्क्रान्तियोगसंमहः । आर्हन्त्यं तद्विहारश्च योगत्यागोऽग्रनिर्वृतिः ॥१२॥ त्रयः पञ्चाशदेता हि मता गर्भान्वयक्रियाः । गर्भाधानादिनिर्वाणपर्यन्ताः परमागमे ॥६३॥ अवतारो वृत्तलाभः स्थानलाभो गणग्रहः। पूजाराध्यपुण्ययज्ञो दृढयोपयोगिता ॥६॥ इत्युदिष्टाभिरष्टाभिरुपनीत्यादयः क्रियाः । चत्वारिंशत्प्रमायुक्तास्ताः स्युदीक्षान्वयक्रियाः ॥६५॥ . उन्होंने कहा कि श्रावकाध्याय संग्रहमें वे क्रियाएँ तीन प्रकारको कही गयी हैं, सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको उन क्रियाओंका पालन अवश्य करना चाहिए क्योंकि वे सभी उत्तम फल देनेवाली और शुभ करनेवाली हैं ॥५०॥ गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कन्वय क्रिया इस प्रकार विद्वान् लोगोंने तीन प्रकारकी क्रियाएँ मानी हैं ॥५१॥ गर्भान्वय क्रियाएँ, आधान आदि तिरेपन जानना चाहिए और दीक्षान्वय क्रियाएँ अड़तालीस समझना चाहिए ॥५२॥ इनके सिवाय उस विषयके जानकार विद्वानोंने कन्वय क्रियाएँ सात संग्रह की हैं। अब आगे यथाक्रमसे उन क्रियाओंका नाम निर्देश किया जाता है ॥५३॥ जो समुद्रसे भी दुस्तर है ऐसे बारह अंगोंमें सातवें अंग (उपासकाध्ययनांग) से जो कुछ मुझे ज्ञानका अंश प्राप्त हुआ है उसे मैं नीचे लिखे हुए आठ इलोकोंसे प्रकट करता हूँ ॥५४॥ १ आधान, २ प्रीति, ३ सुप्रीति, ४ धृति, ५ मोद, ६ प्रियोद्भव, ७ नामकम, ८ बहिर्यान, ९ निषद्या, १० प्राशन, ११ व्युष्टि, १२ केशवाप, १३ लिपि संख्यानसंग्रह, १४ उपनीति, १५ व्रतचर्या, १६ व्रतावतरण, १७ विवाह, १८ वर्णलाभ, १९ कुलचर्या, २० गृहीशिता, २१ प्रशान्ति, २२ गृहत्याग, २३ दीक्षाद्य, २४ जिनरूपता, २५ मौनाध्ययनवृनत्व, २६ तीर्थकृत्भावना, २७ गुरुस्थानाभ्युपगम, २८ गणोपग्रहण, २९ स्वगुरुस्थानसंक्रान्ति, ३० निःसंगत्वात्मभावना, ३१ योगनिर्वाणसंप्राप्ति, ३२ योगनिर्वाणसाधन, ३३ इन्द्रोपपाद, ३८ अभिषेक, ३५ विधिदान, ३६ सुखोदय, ३७ इन्द्रत्याग, ३८ अवतार, ३९ हिरण्योत्कृष्टजन्मता, ४० मन्दरेन्द्राभिषेक, ४१ गुरुपूजोपलम्भन, ४२ यौवराज्य, ४३ स्वराज्य, ४४ चक्रलाभ, ४५ दिग्विजय, ४६ चक्राभिषेक, ४७ साम्राज्य, ४८ निष्क्रान्ति, ४९ योगसन्मह, ५० आर्हन्त्य, ५१ तद्विहार, ५२ योगत्याग और ५३ अग्रनिर्वृत्ति । परमागममें ये गर्भसे लेकर निर्वाणपर्यन्त तिरपन क्रियाएँ मानी गयी हैं ॥५५-६३॥ १ अवतार, २ वृत्तलाभ, ३ स्थानलाभ, ४ गणग्रह, ५ पूजाराध्य, ६ पुण्ययज्ञ, ७ दृढचर्या और ८ उपयोगिता १ नामसंकीर्तन । २ अनुवादयते । ३ -द्वादशाङ्गानाम् मध्ये। ४ उपासकाध्ययनात् । ५ उद्देशं करिष्ये इत्यर्थः । ६ अभ्युपगमः । ७ गर्भान्वयक्रियासु आदौ त्रयोदशक्रियाः मुक्त्वा शेषा उपनीत्यादयः । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व २४५ तास्तु कन्वया ज्ञेया याः प्राप्याः पुण्यकर्तृभिः । फलरूपतया वृत्ताः' सन्मार्गाराधनस्य वै ॥६६॥ सजातिः सद्गृहित्वं च पारिवाज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमार्हन्त्यं परनिर्वाणमित्यपि ॥६॥ स्थानान्येतानि सप्त स्युः परमाणि जगत्त्रये । अर्हद्वागमृतास्वादात् प्रतिलभ्यानि देहिनाम् ॥६८॥ क्रियाकल्पोऽयमाम्नातो बहुभेदो महर्षिभिः । संक्षेपतस्तु तलक्ष्म वक्ष्ये संचक्ष्य विस्तरम् ॥६९॥ आधानं नाम गर्भादौ संस्कारो मन्त्रपूर्वकः । पत्रीमृतुमती स्नातां पुरस्कृत्याईदिज्यया ॥७॥ तत्रार्चनाविधौ चक्रत्रयं छत्रत्रयान्वितम् । जिना मभितः स्थाप्यं समं पुण्याग्निभिस्त्रिभिः ॥७॥ त्रयोऽग्नयोऽहंद्गणभृच्छेषकेवलिनिवृतौ । ये हुतास्ते प्रणेतव्याः सिद्धार्चावेद्युपाश्रयाः ॥७२॥ 'तेष्वह दिज्याशेषांशैराहुतिमन्त्रपूर्विका । विधेया शुचिभिव्यैः पुंस्पुत्रोत्पत्तिकाम्यया ॥७३॥ तन्मन्त्रास्तु यथाम्नायं वक्ष्यन्तेऽन्यत्र पर्वणि° । सप्तधा पीठिकाजातिमन्त्रादिप्रविभागतः ॥७॥ विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां' मतो जिनैः । अव्यामोहादतस्तज्ज्ञैः प्रयोज्यास्त उपासकैः ॥७५॥ गर्भाधानक्रियामेनां प्रयुज्यादौ यथाविधि । सन्तानार्थं विना रागाद् दम्पतिभ्यां न्यवेयताम् ॥७६॥ इति गर्भाधानम् । जिनाच मतास्त्रातील पक्वलिनि इन कहो हुई आठ क्रियाओंके साथ उपनीति नामकी चौदहवीं क्रियासे तिरपनवीं निर्वाण ( अग्रनिर्वृति ) क्रिया तककी चालीस क्रियाएं मिलाकर कुल अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ कहलाती हैं ॥ ६४-६५ ॥ कन्वय क्रियाएँ वे हैं जो कि पुण्य करनेवाले लोगोंको प्राप्त हो सकती हैं और जो समीचीन मार्गकी आराधना करनेके फलस्वरूप प्रवृत्त होती हैं ॥ ६६ ॥ १ सज्जाति, २ सद्गृहित्व, ३ पारिव्राज्य, ४ सुरेन्द्रता, ५ साम्राज्य, ६ परमार्हन्त्य और ७ परमनिर्वाण ये सात स्थान तीनों लोकोंमें उत्कृष्ट माने गये हैं और ये सातों ही अर्हन्त भगवानके वचनरूपी अमृतके आस्वादनसे जीवोंको प्राप्त हो सकते हैं ॥ ६७-६८ ॥ महर्षियोंने इन क्रियाओंका समूह अनेक प्रकारका माना - अनेक प्रकारसे क्रियाओंका वर्णन किया है परन्तु मैं यहाँ विस्तार छोड़कर संक्षेपसे ही उनके लक्षण कहता हूँ ॥ ६९ ॥ चतुर्थ स्नानके द्वारा शुद्ध हुई रजस्वला पत्नीको आगे कर गर्भाधानके पहले अर्हन्तदेवकी पूजाके द्वारा मन्त्रपूर्वक जो संस्कार किया जाता है उसे आधान क्रिया कहते हैं ॥ ७० ॥ इस आधान क्रियाको पूजामें जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमाके दाहिनी ओर तीन चक्र, बायीं ओर तीन छत्र और सामने तीन पवित्र अग्नि स्थापित करे॥७१।। अर्हन्त भगवान् ( तीर्थंकर ) के निर्वाणके समय, गणधरदेवोंके निर्वाणके समय और सामान्य केवलियोंके निर्वाणके समय जिन अग्नियोंमें होम किया गया था ऐसी तीन प्रकारकी पवित्र अग्नियाँ सिद्ध प्रतिमाको वेदीके समीप ही तैयार करनी चाहिए ॥७२॥ प्रथम ही अर्हन्त देवकी पूजा कर चुकनेके बाद शेष बचे हुए पवित्र द्रव्यसे पुत्र उत्पन्न होनेकी इच्छा कर मन्त्रपूर्वक उन तोन अग्नियोंमें आहुति करनी चाहिए ॥ ७३ ॥ उन आहुतियोंके मन्त्र आगेके पर्वमें शास्त्रानुसार कहे जावेंगे। वे पीठिका मन्त्र, जातिमन्त्र आदिके भेदसे सात प्रकारके हैं ॥ ७४ ॥ श्रीजिनेन्द्र देवने इन्हीं मन्त्रोंका प्रयोग समस्त क्रियाओंमें बतलाया है इसलिए उस विषयके जानकार श्रावकोंको व्यामोह ( प्रमाद ) छोड़कर उन मन्त्रोंका प्रयोग करना चाहिए ॥ ७५ ।। इस प्रकार कही हुई इस गर्भाधानको क्रियाको पहले विधिपूर्वक करके फिर स्त्री-पुरुष दोनोंको विषयानुरागके बिना केवल सन्तानके लिए समागम करना चाहिए ॥ ७६ ॥ इस प्रकार यह गर्भाधान क्रियाकी विधि समाप्त हुई। १ प्रवर्तिताः । २ क्रियालक्षणम् । ३ वर्जयित्बा। ४ तत्र आदानक्रियायाम् । तत्रार्चन विधौ ल० । '५ जिनबिम्बस्य समन्ततः । ६ संस्कार्याः।७ सिद्धप्रतिमाश्रिततिर्यग्वेदिसमीपाश्रिताः। ८ अग्निषु। ९ वाञ्छया। १० सर्गे। ११ मन्त्राणाम् । १२ मन्त्राः । १३ विधीयताम् ल० । व्यवीयताम् द० । अभिगम्यताम् । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् गर्भाधानात् परं मासे तृतीये संप्रवर्तते । प्रीति म क्रिया प्रीतैर्याऽनुष्ठेया द्विजन्मभिः ॥७॥ तत्रापि पूर्ववन्मन्त्रपूर्वा पूजा जिनेशिनाम् । द्वारि तोरणविन्यासः पूर्णकुम्भौ च संमतौ ॥७८॥ तदादि प्रत्यहं भेरीशब्दो घण्टाध्वनान्वितः । यथाविभवमवतैः प्रयोज्यो गृहमेधिमिः ॥७९॥ इति प्रीतिः । आधानात् पञ्चम मासि क्रिया सुप्रीतिरिष्यते । या सुप्रीतः प्रयोक्तव्या परमोपासकव्रतैः ॥८॥ तत्राप्युको विधिः पूर्वः सोऽहंद्विम्बसन्निधौ । कार्यो मन्त्रविधानज्ञैः साक्षीकृत्याग्निदेवताः ॥८१॥ इति सुप्रीतिः। धृतिस्तु सप्तमे मासि कार्या तद्वक्रियादरैः । गृहमंधिभिरव्यग्रमनोभिर्गर्भवृद्धये ॥८२॥ ___ इति धृतिः । नवमं मास्यतोऽभ्यणे मांदो नाम क्रियाविधिः । तद्वदेवाहतैः कार्यो गर्भपुष्टय द्विजोत्तमैः ॥८३॥ तष्टो गात्रिकाबन्धी मङ्गल्यं च प्रसाधनम् । रक्षासूत्रविधानं च गर्भिण्या द्विजसत्तमैः ॥४॥ इति मोदः। प्रियोद्भवः प्रसूतायां जातकर्म विधिः स्मृतः । जिनजातकमाध्याय प्रवयो यो यथाविधि ॥४५॥ अवान्तरविशेषोऽत्र क्रियामन्त्रादिलक्षणः । भूयान् समस्त्यसौ ज्ञेयो मूलोपासकसूत्रतः ॥८६॥ इति प्रियोद्भवः। गर्भाधानके बाद तीसरे माहमें प्रीति नामकी क्रिया होती है जिसे सन्तुष्ट हुए द्विज लोग करते हैं ।। ७७ ॥ इस क्रियामें भी पहलेकी क्रियाके समान मन्त्रपूर्वक जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनी चाहिए, दरवाजेपर तोरण बाँधना चाहिए तथा दो पूर्ण कलश स्थापना करना चाहिए ॥ ७८ ॥ उस दिनसे लेकर गृहस्थोंको प्रतिदिन अपने वैभवके अनुसार घण्टा और नगाड़े बजवाने चाहिए ।। ७२ ।। यह दूसरी प्रीति क्रिया है। गर्भाधानसे पाँचवें माहमें सुप्रीति क्रिया की जाती है जो कि प्रसन्न हुए उत्तम श्रावकोंके द्वारा की जाती है ।। ८० ॥ इस क्रियामें भी मन्त्र और क्रियाओंको जाननेवाले श्रावकोंको अग्नि तथा देवताकी साक्षी कर अर्हन्त भगवान्की प्रतिमाके समीप पहले कही हुई समस्त विधि करनी चाहिए ॥ ८१ ।। यह तीसरी सुप्रीति नामकी क्रिया है। ___जिनका आदर किया गया है और जिनका चित्त व्याकुल नहीं है ऐसे गृहस्थोंको गर्भकी वृद्धिके लिए गर्भसे सातवें महीनेमें पिछली क्रियाओंके समान ही धृति नामकी क्रिया करनी चाहिए ॥८२।। यह चौथी धृति नामकी क्रिया है। तदनन्तर नौवें महीनेके निकट रहनेपर मोद नामकी क्रिया की जाती है यह क्रिया भी पिछली क्रियाओंके समान आदरयुक्त उत्तम द्विजोंके द्वारा गर्भकी पुष्टिके लिए की जाती है ॥८३॥ इस क्रियामें उत्तम द्विजोंको गभिणीके शरीरपर गात्रिकाबन्ध करना चाहिए अर्थात् मन्त्रपूर्वक बीजाक्षर लिखना चाहिए, मंगलमय आभूषणादि पहनाना चाहिए और रक्षाके लिए कंकणसूत्र आदि बाँधनेकी विधि करनी चाहिए ॥८४॥ यह पाँचवीं मोदक्रिया है। ___तदनन्तर प्रसूति होनेपर प्रियोद्भव नामकी क्रिया की जाती है, इसका दूसरा नाम जातकर्म विधि भी है। यह क्रिया जिनेन्द्र भगवान्का स्मरण कर विधिपूर्वक करनी चाहिए ॥८५॥ इस क्रियामें क्रिया मन्त्र आदि अवान्तर विशेष कार्य बहुत भारी हैं इसलिए इसका पूर्ण ज्ञान मूलभूत उपासकाध्ययनाङ्गसे प्राप्त करना चाहिए ॥८६॥ यह छठवीं प्रियोद्भव क्रिया है। १ स्वनान्वितः ल० । २ गात्रेषु बीजाक्षराणां मन्त्रपूर्वक न्यासः । ३ शोभनम् । ४ अलङ्कारः । ५ रक्षार्थ कङ्कणमूत्रबन्धनविधानम् । ६ प्रसूतायां सत्याम् । ७ महान् । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व द्वादशाहात् परं नामकर्म जन्मदिनान्मतम् । अनुकूले सुतस्यास्य पित्रोरपि सुखावहे ॥८७।। यथाविभवमवेष्टं देवर्षिद्विजपूजनम् । शस्तं च नामधेयं तत् स्थाप्यमन्वयवृद्धिकृत् ।।८।। अष्टोत्तरसहस्राद् वा जिननामकदम्बकान् । घटपत्रविधानेन ग्राह्यमन्यतमं शुभम् ।।८।। इति नामकर्म। बहिर्यानं ततो 'द्वित्रैर्मासैस्त्रिचतुरैरुत । यथानुकूलमिष्टेऽह्नि कार्य तूर्यादिमङ्गलैः ॥१०॥ ततः प्रभृत्यभीष्टं हि शिशोः प्रसववेश्मनः । बहिःप्रणयनं मात्रा धाव्युत्सङ्गगतस्य वा ॥११॥ तत्र बन्धुजनादर्थलाभो यः पारितोषिकः । स तस्योत्तरकालेऽप्यो धनं पित्र्यं यदाप्स्यति ॥१२॥ इति बहिर्यानम् । ततः परं निषद्यास्य क्रिया बालस्य कल्प्यते । तद्योग्ये तल्प आस्तीणे कृतमङ्गलसन्निधौ ॥१३॥ सिद्धार्चनादिकः सर्वो विधिः पूर्ववदत्रं च । यतो दिव्यासनाहत्वमस्य स्यादुत्तरोत्तरम् ॥१४॥ इति निषद्या। जन्मदिनसे बारह दिनके बाद, जो दिन माता पिता और पुत्रके अनुकूल हो, सुख देनेवाला हो उस दिन नामकर्मकी क्रिया की जाती है ॥८७।। इस क्रिया में अपने वैभवके अनुसार अर्हन्तदेव और ऋषियोंकी पूजा करनी चाहिए, द्विजोंका भी यथायोग्य सत्कार करना चाहिए तथा जो वंशकी वृद्धि करनेवाला हो ऐसा कोई उत्तम नाम बालकका रखना चाहिए ॥८८॥ अथवा जिनेन्द्रदेवके एक हजार आठ नामोंके समूहसे घटपत्रकी विधिसे कोई एक शुभ नाम ग्रहण कर लेना चाहिए। भावार्थ - भगवान्के एक हजार आठ नामोंके एक हजार आठ कागजके टुकड़ोंपर अष्टगन्धसे सुवर्ण अथवा अनारकी कलमसे लिखकर उनकी गोली बना लेवे और पीले वस्त्र तथा मारियल आदिसे ढके हुए एक घड़ेमें भर देवे, कागजके एक टुकड़ेपर 'नाम' ऐसा शब्द लिखकर उसकी गोली बना लेवे इसी प्रकार एक हजार सात कोरे टुकड़ोंकी गोलियां बनाकर इन सबको एक दूसरे घड़ेमें भर देवे, अनन्तर किसी अबोध कन्या या बालकसे दोनों घड़ोंमें-से एक-एक गोली निकलवाता जावे। जिस नामकी गोलीके साथ नाम ऐसा लिखी हुई गोली निकले वही नाम बालकका रखना चाहिए। यह घटपत्र विधि कहलाती है ॥८९॥ यह सातवीं नामकर्म क्रिया है । तदनन्तर दो-तीन अथवा तीन-चार माहके बाद किसी शुभ दिन तुरही आदि मांगलिक बाजोंके साथ-साथ अपनी अनुकूलताके अनुसार बहिर्यान क्रिया करनी चाहिए ॥९०॥ जिस दिन यह क्रिया की जावे उसी दिनसे माता अथवा धायकी गोदमें बैठे हुए बालकका प्रसूतिगृहसे बाहर ले जाना शास्त्रसम्मत है ॥९१॥ उस क्रियाके करते समय बालकको भाई बान्धव आदिसे पारितोषिक - भेंटरूपसे जो कुछ धनकी प्राप्ति हो उसे इकट्ठा कर, जब वह पूत्र पिताके धनका अधिकारी हो तब उसके लिए सौंप देवे ।।९२॥ यह आठवीं बहिर्यान क्रिया है। ___ तदनन्तर, जिसके समीप मङ्गलद्रव्य रखे हुए हैं और जो बालकके योग्य हैं ऐसे बिछाये हए आसनपर उस बालककी निषद्या क्रिया की जाती है अर्थात् उसे उत्तम आसनपर बैठा लेते हैं ॥९३॥ इस क्रियामें सिद्ध भगवान्की पूजा करना आदि सब विधि पहलेके समान ही करनी चाहिए जिससे इस बालककी उत्तरोत्तर दिव्य आसनपर बैठनेकी योग्यता होती रहे ॥९४॥ यह नौंवी निषद्या क्रिया है। १ द्वौ वा त्रयो वा द्विवास्तैः । २ अथवा । ३ प्रसववेश्मनः सकाशात् । ४ परितोष भवः । ५ शय्यायाम् । ६ विस्तीर्णे । ७ निषद्याक्रियायाम् । ८ निषद्याक्रियायाः । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आदिपुराणम् गते मासपृथक्त्वे' च जन्माद्यस्य यथाक्रमम् । अन्नप्राशनमाम्नातं पूजाविधिपुरःसरम् ॥१५॥ इति अन्नप्राशनम् । ततोऽस्य हायने पूर्ण व्युष्टि म क्रिया मता । वर्षवर्धनपर्यायशब्दवाच्या यथाश्रतम् ॥१६॥ अत्रापि पूर्ववहानं जैनी पूजा च पूर्ववत् । इष्टबन्धसमाह्वानं समाशादिश्च लक्ष्यताम् ॥१७॥ इति व्युष्टिः। केशवापस्तु केशानां शुभेऽह्नि व्यपरोपणम् । क्षौरेण कर्मणा देवगुरुपूजापुरःसरम् ॥९॥ गन्धोदकादिवान् कृत्वा केशान् शेषाक्षतोचितान् । मौण्ड्यमस्य विधेयं स्यात् सचूलं स्वाऽन्वयोचितम् स्नपनोदकधौताङ्गमनुलिप्तं सभूषणम् । प्रणमय्य' मुनीन् पश्चाद् योजयेद् बन्धुनाशिषा ॥१०॥ चौलाख्यया प्रतीतेयं कृतपुण्याहमङ्गला । क्रियास्यामाहतो लोको यतते परया मुदा ॥१०१॥ इति केशवापः । ततोऽस्य पञ्चमे वर्षे प्रथमाक्षरदर्शने । ज्ञेयः क्रियाविधिर्नाम्ना लिपिसंख्यानसंग्रहः ॥१०॥ यथाविभवमन्त्रापि ज्ञयः पूजापरिच्छदः । उपाध्यायपदे चास्य मतोऽधीती" गृहव्रती ॥१०॥ इति लिपिसंख्यानसंग्रहः । क्रियोपनीति मास्य वर्षे गर्भाष्टमे मता । यत्रापनीतकेशस्य मौजी सव्रतबन्धना ॥१०॥ जब क्रम-क्रमसे सात-आठ माह व्यतीत हो जायें तब अर्हन्त भगवान्की पूजा आदि कर बालकको अन्न खिलाना चाहिए ॥९५।। यह दसवीं अन्नप्राशन क्रिया है। तदनन्तर एक वर्ष पूर्ण होनेपर व्युष्टि नामकी क्रिया की जाती है इस क्रियाका दूसरा नाम शास्त्रानुसार वर्षवर्धन है ॥९६॥ इस क्रियामें भी पहले ही के समान दान देना चाहिए, जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करनी चाहिए, इष्टबन्धुओंको बुलाना चाहिए और सबको भोजन कराना चाहिए ॥९७॥ यह ग्यारहवीं व्युष्टि क्रिया है । तदनन्तर, किसी शुभ दिन देव और गुरुको पूजाके साथ-साथ क्षौरकर्म अर्थात् उस्तरासे बालकके बाल बनवाना केशवाप क्रिया कहलाती है ।।९८॥ प्रथम ही बालोंको गन्धोदकसे गीला कर उनपर पूजाके बचे हुए शेष अक्षत रखे और फिर चोटी सहित अथवा अपनी कुलपद्धतिके अनुसार उसका मुण्डन करना चाहिए ॥९९।। फिर स्नान करानेके लिए लाये हुए जलसे जिसका समस्त शरीर साफ कर दिया गया है, जिसपर लेप लगाया गया है और जिसे उत्तम आभूषण पहनाये गये हैं ऐसे उस बालकसे मुनियोंको नमस्कार करावें, पश्चात् सब भाई, बन्धु उसे आशीर्वादसे युक्त करें ॥१०॥ इस क्रियामें पुण्याहमंगल किया जाता है और यह चौल क्रिया नामसे प्रसिद्ध है इस क्रियामें आदरको प्राप्त हुए लोग बड़े हर्षसे प्रवृत्त होते हैं ॥१०१॥ यह केशवाप नामकी बारहवीं किया है। तदनन्तर पाँचवें वर्ष में बालकको सर्वप्रथम अक्षरोंका दर्शन करानेके लिए लिपिसंख्यान नामकी क्रियाकी विधि की जाती है ॥१०२।। इस क्रियामें भी अपने वैभवके अनुसार पूजा आदिकी सामग्री जुटानी चाहिए और अध्ययन करानेमें कुशल व्रती गृहस्थको ही उस बालकके अध्यापकके पदपर नियुक्त करना चाहिए ॥१०३।। यह तेरहवीं लिपिसंख्यान क्रिया है। ___गर्भसे आठवें वर्षमें बालककी उपनीति ( यज्ञोपवीत धारण ) क्रिया होती है । इस क्रियामें केशोंका मुण्डन, व्रतबन्धन तथा मौजीबन्धनको क्रियाएं की १ सप्ताष्टमासे । २ जन्मदिनात् प्रारभ्य । ३ संवत्सरे। 'संवत्सरो वत्सरोऽब्दो हायनोऽस्त्री शरत समा' इत्यभिधानात् । ४ शास्त्रानुसारेण । ५ तत्रापि ल० । ६ सहभोजनादिः । ७ अपनयनम् । ८ चूडासहितम् । शिखासहितमित्यर्थः । ९ वान्वयोचितम् ल० । चान्वयोचितम् द० । १० अलंकारयुक्तशिशुम् । ११ मुनिभ्यो नमनं कारयित्वा । १२ बन्धुममूहकृताशीर्वचनेन । १३ अधीतवान् । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व २४२ कृतार्हत्पूजनस्यास्य मौजीबन्धो जिनालये । गुरुसाक्षिविधातव्यो व्रतार्पणपुरस्सरम् ॥१०५॥ शिखी सितांशुकः सान्तर्वासा निषविक्रियः । व्रतचिह्न दधत्सूत्रं तदोको ब्रह्मचार्यसौ ॥१०६॥ चरणोचितमन्यच नामधेयं तदस्य वै । वृत्तिश्च भिक्षयाऽन्यत्र राजन्यादुद्धवैभवात् ॥१७॥ सोऽन्तःपुरे चरेत् पाच्या नियोग इति केवलम् । तदनं देवसात्कृत्य ततोऽन्नं योग्यमाहरेत् ॥१०॥ इत्युपनीतिः । व्रतचर्यामतो वक्ष्ये क्रियामस्योपबिभ्रतः । कट्यरूर:शिरोलिङ्गमनूचानव्रतोचितम् ॥१०२॥ कटीलिङ्गं भवेदस्य मौञ्जीबन्धानिमिर्गुणैः । रत्नत्रितयशुद्धयङ्गं तद्धि चिह्न द्विजात्मनाम् ॥११॥ तस्येष्टमूरुलिङ्गं च सुधौतसितशाटकम् । आर्हतानां कुलं पूतं विशालं चेति सूचने ॥१११॥ उरोलिङ्गमथास्य स्याद् ग्रथितं सप्तमिर्गुणैः । यज्ञोपवीतकं सप्तपरमस्थानसूचकम् ॥११२॥ शिरोलिङ्गं च तस्येष्टं परं मौण्ड्यमनाविलम् । मौण्डयं मनोवचःकायगतमस्योपबृहयत् ॥११३॥ एवंप्रायेण लिङ्गेन विशुद्धं धारयेद् व्रतम् । स्थूलहिंसाविरत्यादि ब्रह्मचर्योपबृहितम् ॥११४॥ दन्तकाष्टग्रहो नास्य न ताम्बूलं न चाअनम् । न हरिद्रादिभिः स्नानं शुद्धम्मानं दिनं प्रति ॥११५॥ जाती हैं ॥१०४॥ प्रथम ही जिनालयमें जाकर जिसने अर्हन्तदेवकी पूजा की है ऐसे उस बालकको व्रत देकर उसका मौजीबन्धन करना चाहिए अर्थात् उसकी कमरमें मँजकी रस्सी बाँधनी चाहिए ॥१०५॥ जो चोटी रखाये हए है, जिसकी सफेद धोती और सफेद दुपट्टा है, जो वेष और विकारोंसे रहित है, तथा जो व्रतके चिह्नस्वरूप यज्ञोपवीत सूत्रको धारण कर रहा है ऐसा वह बालक उस समय ब्रह्मचारी कहलाता है ॥१०६॥ उस समय उसके आचरणके योग्य और भी नाम रखे जा सकते हैं। उस समय बडे वैभवशाली राजपुत्रको छोड़कर सबको भिक्षावृत्तिसे ही निर्वाह करना चाहिए और राजपुत्रको भी अन्तःपुरमें जाकर माता आदिसे किसी पात्रमें भिक्षा मांगनी चाहिए, क्योंकि उस समय भिक्षा लेनेका यह नियोग ही है । भिक्षामें जो कुछ प्राप्त हो उसका अग्रभाग श्री अरहन्तदेवको समर्पण कर बाकी बचे हुए योग्य अन्नका स्वयं भोजन करना चाहिए ॥१०७-१०८॥ यह चौदहवीं उपनीति क्रिया है। ___ अथानन्तर ब्रह्मचर्य व्रतके योग्य कमर, जाँघ, वक्षःस्थल और शिरके चिह्नको धारण करनेवाले इस ब्रह्मचारी बालककी व्रतचर्या नामकी क्रियाका वर्णन करते हैं ॥१०९॥ तीन लरकी मूंजको रस्सी बाँधनेसे कमरका चिह्न होता है, यह मौंजीबन्धन रत्नत्रयकी विशुद्धिका अंग हैं और द्विज़ लोगोंका एक चिह्न है ॥११०॥ अत्यन्त धुली हुई सफेद धोती उसकी जाँघका चिह्न है, वह धोती यह सूचित करती है कि अरहन्त भगवान्का कुल पवित्र और विशाल है ।।१११।। उसके वक्षःस्थलका चिह्न सात लरका गुंथा हुआ यज्ञोपवीत है, यह यज्ञोपवीत सात परमस्थानोंका सूचक है ॥११२॥ उसके शिरका चिह्न स्वच्छ और उत्कृष्ट मुण्डन है जो कि उसके मन, वचन, कायके मुण्डनको बढ़ानेवाला है। भावार्थ - शिर मुण्डनसे मन, वचन, काय पवित्र रहते हैं ॥११३॥ प्रायः इस प्रकारके चिह्नोंसे विशद्ध और ब्रह्मचर्यसे बढ़े हुए स्थूल हिंसाका त्याग (अहिंसाणु व्रत) आदि व्रत उसे धारण करना चाहिए ॥११४॥ इस ब्रह्मचारीको वृक्षको दातौन नहीं करनी चाहिए, न पान खाना चाहिए, न अंजन लगाना चाहिए और न हल्दी आदि लगाकर स्नान करना चाहिए, उसे प्रतिदिन केवल १ अन्तर्वस्त्रेण सहितः । २ वेषविकाररहितः । ३ यज्ञसूत्रम् । ४ वर्तनायोग्यम् । ५ तदास्य ल० । ६ राजन्यः । ७ पात्र भिक्षां प्रार्थयेदित्यर्थः । ८ भिक्षान्नम्। ९ देवस्य चरुं समर्प्य । १० शेषान्नं भुञ्जीत । ११ -महं ल. । १२ ब्रह्मचर्यव्रत । १३ धवलवस्त्रम् । १४ उष्णीषादिरहितम् । १५ एवं प्रकारेण । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आदिपुराणम् न'खटवाशवनं तस्य नान्याङ्गपरिघट्टनम् । भूमो केवलमेकाकी शयीत व्रतशुद्धये ॥११६॥ यावद विद्यासमाप्तिः स्यात् तावदस्यदृशं व्रतम् । ततोऽप्यूचं व्रतं तत् स्याद् तन्मूलं गृहमधिनाम् ११७ सूत्रमौपासिकं चास्य स्यादध्येयं गुरोर्मुखात् । विनयेन ततोऽन्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ॥११॥ शब्दविद्याऽर्थशास्त्रादि चाध्येयं नास्य दुप्यति । सुसंस्कारप्रबोधाय वयात्यख्यातयेऽपि च ॥११६॥ ज्योतिर्ज्ञानमथच्छन्दोज्ञानं ज्ञानं च शाकुनम् । संख्याज्ञानमितीदं च तेनाध्ययं विशेषतः ॥१२०॥ इति व्रतचर्या । ततोऽस्याधीतविद्यस्य व्रतवृत्त्यवतारणम् । विशेषविषयं तच्च स्थितस्यान्सर्गिक व्रत ॥१२१॥ मधुमांसपरित्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । हिंसादिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वकालिकम् ॥१२२॥ व्रतावतरणं चेदं गुरुसाक्षिकृतार्चनम् । वत्सराद् द्वादशादूर्ध्वमथवा षोडशान परम् ॥१२३॥ कृतद्विजार्चनस्यास्य व्रतावतरणोचितम् । वस्त्राभरणमाल्यादिग्रहणं गुर्वनुज्ञया ॥१२४॥ शस्रोपजीविवर्यश्चेद् धारयेच्छरमप्यदः। 'स्ववृत्तिपरिरक्षार्थं शोभार्थं चास्य तदग्रहः ॥१२५॥ भोगब्रह्मव्रतादेवमवतीर्णो भवेत्तदा । कामब्रह्मव्रतं त्वस्य तावद्यावस्क्रियोत्तरा ॥१२६॥ इति व्रतावतरणम् । जलसे शुद्ध स्नान करना चाहिए ॥११५।। उसे खाट अथवा पलँगपर नहीं सोना चाहिए, दुसरेके शरीरसे अपना शरीर नहीं रगड़ना चाहिए, और व्रतोंको विशुद्ध रखनेके लिए अकेला पृथिवीपर सोना चाहिए ॥११६।। जबतक विद्या समाप्त न हो तबतक उसे यह व्रत धारण करना चाहिए और विद्या समाप्त होनेपर वे व्रत धारण करना चाहिए जो कि गृहस्थोंके मूलगुण कहलाते हैं ॥११७।। सबसे पहले इस ब्रह्मचारीको गुरुके मुखसे श्रावकाचार पढ़ना चाहिए और फिर विनयपूर्वक अध्यात्मशास्त्र पढ़ना चाहिए ।।११८॥ उत्तम संस्कारोंको जागृत करने के लिए और विद्वत्ता प्राप्त करनेके लिए इसे व्याकरण आदि शब्दशास्त्र और न्याय आदि अर्थशास्त्रका भी अभ्यास करना चाहिए क्योंकि आचार-विषयक ज्ञान होनेपर इनके अध्ययन करने में कोई दोष नहीं है ।।११९।। इसके बाद ज्योतिषशास्त्र , छन्दशास्त्र, शकुनशास्त्र और गणितशास्त्र आदिका भी उसे विशेषरूपसे अध्ययन करना चाहिए ।।१२०॥ यह पन्द्रहवीं व्रतचर्या क्रिया है। तदनन्तर जिसने समस्त विद्याओंका अध्ययन कर लिया है ऐसे उस ब्रह्मचारीकी व्रतावतरण क्रिया होती है। इस क्रिया में वह साधारण व्रतोंका तो पालन करता ही है परन्तु अध्ययनके समय जो विशेष व्रत ले रखे थे उनका परित्याग कर देता है। ॥१२१॥ इस क्रियाके बाद उसके मधत्याग, मांसत्याग, पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग और हिंसा आदि पाँच स्थल पापोंका त्याग, ये सदा काल अर्थात् जीवन पर्यन्त रहनेवाले व्रत रह जाते है ॥१२२।। यह व्रतावतरण क्रिया गुरुकी साक्षीपूर्वक जिनेन्द्र भगवान्की पूजा कर बारह अथवा सोलह वर्ष बाद करनी चाहिए ॥१२३॥ पहले द्विजोंका सत्कार कर फिर व्रतावतरण करना उचित है और व्रतावतरणके बाद गुरुकी आज्ञासे वस्त्र, आभूषण और माला आदिका ग्रहण करना उचित है ॥१२४।। इसके बाद यदि वह शस्त्रोपजीवी अर्थात् क्षत्रिय वर्गका है तो वह अपनी आजीविकाकी रक्षाके लिए शस्त्र भी धारण कर सकता है अथवा केवल शोभाके लिए भी शस्त्र ग्रहण किया जा सकता है ॥१२५॥ इस प्रकार इस क्रियामें यद्यपि वह भोगोपभोगोंके ब्रह्मव्रतका अर्थात् ताम्बूल आदिके त्यागका अवतरण (परित्याग) कर देता है तथापि १ मञ्चक । २ नीतिशास्त्र । ३ दूष्यते ल०, द०। ४ धाष्टर्य। ५ ज्योतिःशास्त्रम् । ६ छन्दःशास्त्रम् । ७ गणितशास्त्रम् । ८ वृत्ति जीवन । ९ साधारणे । १० कृताराधनम् । ११ वगै भवः । १२ निजजीवन । १३ चास्य ल० । १४ वक्ष्यमाणा, वैवाहिकी । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व aist ज्ञानादिष्टा वैवाहिकी क्रिया । वैवाहिक कुले कन्यामुचितां परिणेष्यतः ।। १२७।। सिद्धानविधिं सम्यक् निर्वत्यं द्विजसत्तमाः । कृताग्नित्रयसंपूजाः कुर्युस्तत्साक्षितां क्रियाम् ॥ १२८ ॥ पुण्याश्रम कचित् सिद्धप्रतिमाभिमुखं तयोः । दम्पत्योः परया भूत्या कार्यः पाणिग्रहोत्सवः ॥ १२९॥ वेद्यां प्रणीतमनीनां त्रयं द्वयमथैककम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रसज्य विनिवेशनम् ॥१३०॥ पाणिग्रहणदीक्षायां नियुक्तं तद्वध्रुवरम् । आसप्ताहं चरेद् ब्रह्मव्रतं देवाग्निसाक्षिकम् ॥ १३१ ॥ क्रान्त्वा स्वस्याचितां भूमिं तीर्थभूमविहृत्य च । स्वगृहं प्रविशेद् भूत्या परया तद्वधूवरम् ॥ १३२ ॥ विमुक्तकङ्कणं पश्चात् स्वगृहे शयनीयकम् । अधिशय्य यथाकालं भोगाङ्गैरुपलालितम् ॥१३३॥ सन्तानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो भजेत् । शक्तिकालव्यपेक्षोऽयं क्रमोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा ॥ १३४॥ इति विवाह क्रिया । एवं कृतविवाहस्य गार्हस्थ्यमनुतिष्ठतः । स्वधर्मानतिवृत्त्यर्थं वर्णलाभमथो ब्रुवे ॥ १३५ ॥ "ऊढभार्योऽप्ययं तावदस्वतन्त्री गुरोर्गृहे । ततः स्वातन्त्र्यसिद्ध्यर्थं वर्णला मोऽस्य वर्णितः ॥ १३६ ॥ गुरोरनुज्ञया लब्धधनधान्यादिसंपदः । पृथवकृतालयस्यास्यै वृत्तिर्वर्णाप्तिरिष्यते ॥ १३७॥ तदापि पूर्ववसिद्ध प्रतिमानचंमग्रतः । कृत्वाऽस्योपासकान् मुख्यान् साक्षीकृत्यार्पयेद् धनम् ॥ १३८ ॥ जब तक उसके आगेकी क्रिया नहीं होती तब तक वह कामपरित्यागरूप ब्रह्मव्रतका पालन करता रहता है ||१२६|| यह सोलहवीं व्रतावतरण क्रिया है । तदनन्तर विवाह के योग्य कुलमें उत्पन्न हुई कन्या के साथ जो विवाह करना चाहता है ऐसे उस पुरुषकी गुरुकी आज्ञासे वैवाहिकी क्रिया की जाती है ॥ १२७॥ उत्तम द्विजोंको चाहिए कि वे सबसे पहले अच्छी तरह सिद्ध भगवान्‌की पूजा करें और फिर तीनों अग्नियों की पूजा कर उनकी साक्षीपूर्वक उस वैवाहिको ( विवाह सम्बन्धी ) कियाको करें ।। १२८ || किसी पवित्र स्थानमें बड़ी विभूति के साथ सिद्ध भगवान्‌की प्रतिमा के सामने वधू-वरका विवाहोत्सव करना चाहिए ।। १२९|| वेदीमें जो तीन, दो अथवा एक अग्नि उत्पन्न की थी उसकी प्रदक्षिणाएँ देकर वधू-वरको समीप ही बैठना चाहिए ॥१३०॥ विवाहको दीक्षा में नियुक्त हुए वधू और वरको देव और अग्निकी साक्षीपूर्वक सात दिन तक ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिए || १३१|| फिर अपने योग्य किसी देश में भ्रमण कर अथवा तीर्थभूमि में विहारकर वर और वधू बड़ी विभूति के साथ अपने घरमें प्रवेश करें ।। १३२ ।। तदनन्तर जिनका कंकण छोड़ दिया है, ऐसे वर और वधू अपने चरमें समयानुसार भोगोपभोग के साधनोंसे सुशोभित शय्या पर शयन कर केवल सन्तान उत्पन्न करनेकी इच्छासे ऋतुकालमें ही परस्पर काम सेवन करें। काम-सेवनका यह कूम काल तथा शक्तिकी अपेक्षा रखता है इसलिए शक्तिहीन पुरुषोंके लिए इससे विपरीत क्रम समझना चाहिए अर्थात् उन्हें ब्रह्मचर्यसे रहना चाहिए ।।१३३-१३४।। यह सत्रहवीं विवाह किया है । इस प्रकार जिसका विवाह किया जा चुका है और जो गार्हस्थ्यधर्मका पालन कर रहा है ऐसा पुरुष अपने धर्मका उल्लंघन न करे इसलिए उसके अर्थ वर्णलाभ कियाको कहते हैं ।। १३५ ।। यद्यपि उसका विवाह हो चुका है तथापि वह जबतक पिताके घर रहता है तबतक अस्वतन्त्र ही है इसलिए उसको स्वतन्त्रता प्राप्त करनेके लिए यह वर्णलाभकी किया कही गयी है ।। १३६ ।। पिताकी आज्ञासे जिसे धनधान्य आदि सम्पदाएँ प्राप्त हो चुकी हैं और मकान भी जिसे अलग मिल चुका है ऐसे पुरुषकी स्वतन्त्र आजीविका करने लगनेको वर्णलाभ कहते हैं ।। १३७ ।। इस क्रियाके समय भी पहले के समान सिद्ध प्रतिमाओं का पूजन २५१ १रिनुमतात् । २ विवाहोचिते । ३ साक्षि तां ल० । ४ पवित्र प्रदेशे । ५ संस्कृतम् । ६ सप्तदिवसपर्यन्तम् । ७ सन्तानार्थम् ऋतुकाले कामसेवाक्रमः । ८ -मतो ल० । ९ विवाहित । १० आदौ । ११ कृत्वान्योप-ल० । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् धनमेतदुपादाय स्थित्वाऽस्मिन् स्वगृहे पृथक् । गृहिधर्मस्त्वया धार्यः कृत्स्नो दानादिलक्षणः ॥ १३९॥ यथाऽस्मत्पितृदत्तेन धनेनास्माभिरर्जितम् । यशो धर्मश्च तद्वत्वं यशोधर्मानुपार्जय ॥ १४०॥ इत्येवमनुशिष्यैनं' वर्णलाभे नियोजयेत् । सदारः सोऽपि तं धर्मं तथानुष्ठातुमर्हति ॥ १४१ ॥ इति वर्णलाभक्रिया । लब्धवर्णस्य तस्येति कुलचर्याऽनुकीर्त्यते । सा विज्यादत्तिवार्तादिलक्षणा प्राक् प्रपञ्चिता ॥ १४२ ॥ विशुद्धा वृत्तिरस्यार्यषट्कर्मानुप्रवर्तनम् । गृहिणां कुलचर्येष्टा कुलधर्मोऽप्यसौ मतः ॥ १४३॥ इति कुलचर्याक्रिया । २५२ कुलचर्यामनुप्राप्तो धर्मे दाढर्थमथोद्वहन् । गृहस्थाचार्यभावेन संश्रयेत् स गृही शिनाम् ॥ १४४॥ ततो वर्णोत्तमत्वेन स्थापयेत् स्वां गृहीशिताम् । शुभवृत्ति क्रियामन्त्र विवाहैः सोत्तरक्रियैः ॥ १४५ ॥ अनन्यसदृशैरेभिः श्रुतवृत्तिक्रियादिभिः । स्वमुन्नतिं नयन्नेष तदाऽर्हति गृहीशिताम् ॥१४६॥ वर्णोत्तमो महादेवः सुश्रुतो द्विजसत्तमः । निस्तारको ग्रामयतिः मानार्हश्चेति मानितः ॥ १४७ ॥ ' इति गृहीशिता । सोऽनुरूपं ततो लब्ध्वा सूनुमात्मभरक्षमम् । तत्रारोपितगार्हस्थ्यः सन् प्रशान्तिमतः श्रयेत् ॥ ११८ ॥ कर पिता अन्य मुख्य श्रावकोंको साक्षी कर उनके सामने पुत्रको धन अर्पण करे तथा यह कहे कि यह धन लेकर तुम इस अपने घरमें पृथक् रूपसे रहो । तुम्हें दान पूजा आदि समस्त गृहस्थधर्म पालन करते रहना चाहिए। जिस प्रकार हमारे पिताके द्वारा दिये हुए धनसे मैंने यश और धर्मका अर्जन किया है उसी प्रकार तुम भी यश और धर्मका अर्जन करो। इस • प्रकार पुत्र को समझाकर पिता उसे वर्णलाभमें नियुक्त करे और सदाचारका पालन करता हुआ वह पुत्र भी पिताके धर्मका पालन करनेके लिए समर्थ होता है || १३८ - १४१ ॥ यह अठारहवीं वर्णलाभ क्रिया है । जिसे वर्णलाभ प्राप्त हो चुका है ऐसे पुत्रके लिए कुलचर्या किया कही जाती है और पूजा, दत्ति तथा आजीविका करना आदि सब जिसके लक्षण हैं ऐसी कुलचर्या क्रियाका पहले विस्तार के साथ वर्णन कर चुके हैं || १४२ ॥ निर्दोषरूपसे आजीविका करना तथा आर्य पुरुषोंके करने योग्य देवपूजा आदि छह कार्य करना यही गृहस्थोंकी कुलचर्या कहलाती है और यही उनका कुलधर्म माना जाता है || १४३|| यह उन्नीसवीं कुलचर्या किया है । तदनन्तर कुलचर्याको प्राप्त हुआ वह पुरुष धर्ममें दृढ़ताको धारण करता हुआ गृहस्थाचार्यरूपसे गृहीशिताको स्वीकार करे अर्थात् गृहस्थोंका स्वामी बने । १४४ || फिर उसे आपको उत्तम वर्ण मानकर आपमें गृहीशिता स्थापित करनी चाहिए । जो दूसरे गृहस्थों में न पायी जावे ऐसी शुभ वृत्ति, किया, मन्त्र, विवाह तथा आगे कही जानेवाली क्रियाएँ, शास्त्रज्ञान और चारित्र आदिकी क्रियाओंसे अपने-आपको उन्नत करता हुआ वह गृहीश अर्थात् गृहस्थोंके स्वामी होनेके योग्य होता है ।। १४५ - १४६ ॥ । उस समय वर्णोत्तम, महीदेव, सुश्रुत, द्विजसत्तम, निस्तारक, ग्रामपति और मानार्ह इत्यादि कहकर लोगोंको उसका सत्कार करन । चाहिए || १४७ || यह बीसवीं गृहीशिता किया है । तदनन्तर वह गृहस्थाचार्य अपना भार सँभालने में समर्थ योग्य पुत्रको पाकर उसे अपनी १ उपशिष्य । २ सदाचारः स तद्धमं ल० द० । ३ गृहस्थाचार्यरूपेण । ४ ग्रामपतिः प०, ल० । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व २५३ विषयध्वनभिष्वङ्गो' नित्यस्वाध्यायशीलता। नानाविधोपवासैश्च वृत्तिरिष्टा प्रशान्तता ॥१४९॥ इति प्रशान्तिः । ततः कृतार्थमात्मानं मन्यमानो गृहाश्रमे । यदोद्यतो गृहत्यागे तदाऽस्यैष क्रियाविधिः ॥१५॥ सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य सर्वानाहूय संमतान् । तत्साक्षि सूनवे सर्व निवेद्यातो गृहं त्यजेत् ॥१५१॥ कुलक्रमरत्वया तात संपाल्योऽस्मत्परोक्षतः । विधा कृतं च नो द्रव्यं स्वयेत्थं विनियोज्यताम् ॥१२॥ एकोऽशो धर्मकार्येऽतो द्वितीयः स्वगृहव्यये । तृतीयः संविभागाय भवेत्वत्सहजन्मनाम् ॥१५३॥ पुयश्च संविभागार्हाः समं पुत्रैः समांशकैः । त्वं तु भूत्वा कुलज्येष्ठः सन्ततिं नोऽनुपालय ॥१५४॥ श्रुतवृत्तक्रियामन्त्रविधिज्ञस्त्वमतन्द्रितः। प्रपालय कुलाम्नायं गुरुं देवांश्च पूजयन् ॥१५॥ इत्येवमनुशिष्य स्वं ज्येष्ठं सूनुमनाकुलः । ततो दीक्षामुपादातुं द्विजः स्वं गृहमुत्सृजेत् ॥१५६॥ इति गृहत्यागः। त्यक्तागारस्य सदृष्टेः प्रशान्तस्य गृहीशिनः । प्राग्दीक्षौपयिकात् कालादेकशाटकधारिणः ॥१५७॥ यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहणं प्रति धार्यते । दीक्षाद्यं नाम तज्ज्ञेयं क्रियाजातं द्विजन्मनः ॥१५॥ इति दीक्षाद्यम् । त्यक्तचेलादिसंगस्य जैनी दीक्षामुपेयुषः । धारणं जातरूपस्य यत्तत् स्याजिनरूपता ॥१५॥ गृहस्थीका भार सौंप दे और आप स्वयं उत्तम शान्तिका आश्रय ले ॥१४८॥ विषयोंमें आसक्त नहीं होना, नित्य स्वाध्याय करनेमें तत्पर रहना तथा नाना प्रकारके उपवास आदि करते रहना प्रशान्त वृत्ति कहलाती है ॥१४९॥ यह इक्कीसवीं प्रशान्ति क्रिया है।। तदनन्तर गृहस्थाश्रममें अपने-आपको कृतार्थ मानता हुआ जब वह गृहत्याग करनेके लिए उद्यत होता है तब उसके यह गृहत्याग नामकी क्रियाकी विधि की जाती है ॥१५०॥ इस क्रियामें सबसे पहले सिद्ध भगवान्का पूजन कर समस्त इष्टजनोंको बुलाना चाहिए और फिर उनकी साक्षीपूर्वक पुत्रके लिए सब कुछ सौंपकर गृहत्याग कर देना चाहिए ॥१५१॥ गृहत्याग करते समय ज्येष्ठ पुत्रको बुलाकर उससे इस प्रकार कहना चाहिए कि पुत्र, हमारे पीछे यह कुलकम तुम्हारे द्वारा पालन करने योग्य है। मैंने जो अपने धनके तोन भाग किये हैं उनका तुम्हें इस प्रकार विनियोग करना चाहिए कि उनमें से एक भाग तो धर्मकार्यमें खर्च करना चाहिए, दूसरा भाग अपने घर खर्चके लिए रखना चाहिए और तीसरा भाग अपने भाइयोंमें बाँट देनेके लिए हैं । पुत्रोंके समान पुत्रियोंके लिए भी बराबर भाग देना चाहिए । हे पुत्र, तू कुलका बड़ा होकर मेरी सब सन्तानका पालन कर । तू शास्त्र, सदाचार, किया, मन्त्र और विधिको जाननेवाला है इसलिए आलस्यरहित होकर देव और गुरुओंकी पूजा करता हुआ अपने कुलधर्मका पालन कर । इस प्रकार ज्येष्ठ पुत्रको उपदेश देकर वह द्विज निराकुल होवे और फिर दीक्षा ग्रहण करनेके लिए अपना घर छोड़ दे ॥१५२-१५६॥ यह बाईसवीं गृहत्याग नामकी किया है। ___जिसने घर छोड़ दिया है, जो सम्यग्दृष्टि है, प्रशान्त है, गृहस्थोंका स्वामी है और दीक्षाधारण करनेके समयके कुछ पहले जिसने एक वस्त्र धारण किया है उसके दीक्षाग्रहण करनेके पहले जो कुछ आचरण किये जाते हैं उन आचरणों अथवा कियाओंके समूहको द्विजकी दीक्षाद्य किया कहते हैं ॥१५७-१५८॥ यह तेईसवीं दीक्षाद्य किया है। जिसने वस्त्र आदि सब परिग्रह छोड़ दिये हैं और जो जिनदीक्षाको प्राप्त करना चाहता है ऐसे पुरुषका दिगम्बररूप धारण करना जिनरूपता नामकी किया कहलाती है ॥१५९|| १ निष्प्रभः । २ अस्माकम् । ३ कुलपरम्पराम् । ४ दीक्षास्वीकारात् प्राक् । ५ क्रियासमूहः । ६ गतस्य । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ आदिपुराणम् अशक्यधारणं चेदं जन्तूनां कातरात्मनाम् । जैनं निस्संगतामुख्यं रूपं धीरनिपेव्यते ॥१६॥ इति जिनरूपता ।। कृतदीक्षोपवासस्य प्रवृत्तः पारणाविधौ । मौनाध्ययनवृत्तत्वमिष्टमाश्रतनिष्टितेः ॥१६१॥ वाचंयमो विनीतात्मा विशुद्धकरणत्रयः । सोऽधीयीत श्रुतं कृत्स्नमामूला गुरुसन्निधौ ॥१६२।। श्रुतं हि विधिनानेन भव्यात्मभिरुपासितम् । योग्यतामिह पुष्णाति परत्रापि प्रसीदति ॥१६३।। इति मौनाध्ययनवृत्तत्वम् । ततोऽधीताखिलाचारः शास्त्रादिश्रुतविस्तरः । विशुद्धाचरणोऽभ्यस्येत् तीर्थकृत्त्वस्य भावनाम् ॥१६॥ सा तु षोडशधाऽऽन्नाता महाभ्युदयसाधिनी । सम्यग्दर्शनशुद्धयादिलक्षणा प्राक्प्रपञ्चिता ।।१६५।। इति तीर्थकृद्भावना । ततोऽस्य विदिताशेषवेद्यस्य विजितात्मनः । गुरुस्थानाभ्युपगमः मतो गुर्वनुग्रहात् ।।१६६॥ ज्ञानविज्ञानसंपन्नः स्वगुरोरभिसंमतः । विनीतो धर्मशीलश्च यः सोऽर्हति गुरोः पदम् ।।१६७॥ गुरुस्थानाभ्युपगमः ।। ततः सुविहित युक्तस्य गणपोषणः । गणोपग्रहणं नाम प्रियाम्नाता महर्षिभिः ।।१६८।। जिनका आत्मा कातर है ऐसे पुरुषोंको जिनरूप ( दिगम्बररूप ) का धारण करना कठिन है इसलिए जिसमें परिग्रह त्यागकी मुख्यता है ऐसा यह जिनेन्द्रदेवका रूप धीरवीर मनुष्योंके द्वारा ही धारण किया जाता है ॥१६०|| यह चौबीसवीं जिनरूपता किया है। जिसने दीक्षा लेकर उपवास किया है और जो पारणकी विधिमें अर्थात् विधिपूर्वक आहार लेनेमें प्रवृत्त होता है ऐसे साधुका शास्त्रकी समाप्ति पर्यन्त जो मौन रहकर अध्ययन करने में प्रवृत्ति होती है उसे मौनाध्ययनवृत्तत्व कहते हैं ॥१६१॥ जिसने मौन धारण किया है, जिसका आत्मा विनय युक्त है, और मन, वचन, काय शुद्ध हैं ऐसे साधुको गुरुके समीपमें प्रारम्भसे लेकर समस्त शास्त्रोंका अध्ययन करना चाहिए ॥१६२॥ क्योंकि इस विधिसे भव्यजीवोंके द्वारा उपासना किया हुआ शास्त्र इस लोकमें उनकी योग्यता बढ़ाता है और परलोकमें प्रसन्न रखता है ।।१६३।। यह पच्चीसवीं मौनाध्ययनवृत्तित्व किया है। तदनन्तर जिसने समस्त आचार शास्त्रका अध्ययन किया है तथा अन्य शास्त्रोके अध्ययनसे जिसने समस्त श्रुतज्ञानका विस्तार प्राप्त किया है और जिसका आचरण विशुद्ध है ऐसा साधु तीर्थकर पदकी भावनाओंका अभ्यास करे ॥१६४॥ सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि रखना आदि जिसके लक्षण हैं, जो महान् ऐश्वर्यको देनेवाली हैं तथा पहले जिनका विस्तारके साथ वर्णन किया जा चुका है ऐसी भावनाएँ सोलह मानी गयी हैं ॥१६५॥ यह छब्बीसवीं तीर्थकृद्धावना नामकी क्रिया है। ___ तदनन्तर जिसने समस्त विद्याएं जान ली हैं और जिसने अपने अन्तःकरणको वश कर लिया है ऐसे साधुका गुरुके अनुग्रहसे गुरुका स्थान स्वीकार करना शास्त्रसम्मत है ॥१६६।। जो ज्ञान विज्ञान करके सम्पन्न है, अपने गुरुको इष्ट है अर्थात् जिसे गुरु अपना पद प्रदान करना योग्य समझते हैं, जो विनयवान् और धर्मात्मा है वह साधु गुरुका पद प्राप्त करनेके योग्य है ।।१६७। यह सत्ताईसवीं गुरुस्थानाभ्युपगम क्रिया है ॥ तदनन्तर जो सदाचारका पालन करता है गण अर्थात् समस्त मुनिसंघके पोषण १ श्रुतसमाप्तिपर्यन्तम् । २ मौनी । ३ अध्ययनं कुर्यात् । लिङ् । ४ -विद्यस्य ल०, द०, ५० । ५ ज्ञान मोक्षशास्त्र । विज्ञान शिल्पशास्त्र । ६ सदाचारस्य । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व श्रावकानार्यिकासवं श्राविकाः संयतानपि । सन्मार्ग वर्तयन्नेष गणपोषणमाचरेत ॥१६९।। श्रतार्थिभ्यः श्रुतं दद्याद् दीक्षार्थिभ्यश्च दीक्षणम् । धर्मार्थिभ्योऽपि सद्धर्म स शश्वत प्रतिपादयत ॥१७०।। सवृत्तान् धारयन् सूरिस्सद्वृत्तान्निवारयन् । शोधयंश्च कृतादागोमलात सविभृयाद् गणम् ॥१७१।। इति गणोपग्रहणम् । गणपोषणमिन्याविष्कुर्वन्नाचार्यसत्तमः । ततोऽयं स्वगुरुस्थानसंक्रान्तो यत्नवान् भवेत् ।।१७२।। अधीतविद्यं तद्विचैराहतं मुनिसत्तमैः । योग्यं शिष्यमथाय तस्मै स्वं भारमर्पयत् ।।१७३।। गुरोरनुमतात् सोऽपि गुरुस्थानमधिष्ठितः । गुरुवृत्तौ स्वयं तिष्टन् वर्तयेदखिलं गणम् ॥१७४।। इति स्वगुरुस्थानावाप्तिः । तत्रारोप्य भरं कृत्स्नं काले कस्मिंश्चिदव्यथः । कुर्यादेकविहारी स निःसंगत्वान्मभावनाम् ॥१७५।। निःसगवृत्तिरेकाकी विहरन् स महातपाः । चिकीर्षुरात्मसंस्कारं नान्यं संस्कर्तुमर्हति ॥१७६।। अपि रागं समुत्सृज्य शिष्यप्रवचनादिपु । निर्ममत्वैकतानः संश्चर्याशुद्धिं तदाऽश्रयेत् ॥१७७।। इति निःसंगत्वात्मभावना । कृत्वैवमात्मसंस्कारं ततः सल्लेखनोद्यतः । कृतात्मशुद्धिरध्यात्म योगनिर्वाणमाप्नुयात् ।।१७८।। करने में जो तत्पर रहता है उसको महर्षियोंने गणोपग्रहण नामकी किया मानी है ॥१६८।। इस आचार्यको चाहिए कि वह मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओंको समीचीन मार्गमें लगाता हुआ अच्छी तरह संघका पोषण करे ॥१६९॥ उसे यह भी चाहिए कि वह शास्त्र अध्ययनकी इच्छा करनेवालोंको दीक्षा देवे और धर्मात्मा जीवोंके लिए धर्मका प्रतिपादन करे ।।१७०॥ वह आचार्य सदाचार धारण करनेवालोंको प्रेरित करे, दुराचारियोंको दूर हटावे और किये हुए स्वकीय अपराधरूपी मलको शोधता हुआ अपने आश्रित गणकी रक्षा करे ॥१७१॥ यह अट्ठाईसवीं गणोपग्रहण किया है । तदनन्तर इस प्रकार संघका पालन करता हुआ वह उत्तम आचार्य अपने गुरुका स्थान प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न सहित हो ॥१७२॥ जिसने समस्त विद्याएँ पढ़ ली हैं और उन विद्याओंके जानकार उत्तम-उत्तम मुनि जिसका आदर करते हैं ऐसे योग्य शिष्यको बुलाकर उसके लिए अपना भार सौंप दे ॥१७३॥ गुरुको अनुमतिसे वह शिष्य भी गुरुके स्थानपर अधिष्ठित होता हुआ उनके समस्त आचरणोंका स्वयं पालन करे और समस्त संघको पालन करावे ॥१७४॥ यह उन्तीसवीं स्वगरु-स्थानावाप्ति क्रिया है। इस प्रकार सुयोग्य शिष्यपर समस्त भार सौंपकर जो किसी कालमें दुःखी नहीं होता है ऐसा साधु अकेला विहार करता हुआ 'मेरा आत्मा सब प्रकारके परिग्रहसे रहित है' इस प्रकारकी भावना करे ॥१७५॥ जिसकी वृत्ति समस्त परिग्रहसे रहित है, जो अकेला ही विहार करता है, महातपस्वी है और जो केवल अपने आत्माका ही संस्कार करना चाहता है उसे किसी अन्य पदार्थका संस्कार नहीं करना चाहिए अर्थात् अपने आत्माको छोड़कर किसी अन्य साधु या गृहस्थके सुधारको चिन्तामें नहीं पड़ना चाहिए ।।१७६॥ शिष्य पुस्तक आदि सब पदार्थोंमें राग छोड़कर और निर्ममत्वभावनामें एकाग्र बुद्धि लगाकर उस समय उसे चारित्रकी शुद्धि धारण करनी चाहिए ॥१७७॥ यह तीसवीं निःसङ्गत्वात्मभावना क्रिया है। तदनन्तर इस प्रकार अपने आत्माका संस्कार कर जो सल्लेखना धारण करनेके लिए उद्यत हुआ है और जिसने सब प्रकारसे आत्माकी शुद्धि कर ली है ऐसा १ सारयन् अ०, प०, इ०, स०, ल०, द० । २ पोषयेद् । ३ तिष्ठेद् वर्तयेत् सकलं गणम् ल । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् योगो ध्यानं तदर्थो यो यत्रः संवेगपूर्वकः । तमाहुर्योगनिर्वाणसंप्राप्तं परमं तपः ॥१७६।। कृत्वा परिकर योग्यं तनुशोधनपूर्वकम् । शरीरं कर्शयेदोषैः समं रागादिभिस्तदा ॥१८॥ तदेतद्योगनिर्वाणं संन्यासे पूर्वभावना। जीविताशां मृतीच्छां च हित्वा भव्यात्मलब्धये ॥१८१।। रागद्वेषौ समुत्सृज्य श्रेयोऽवाप्तौ च संशयम् । अनात्मीयेषु चात्मीयसंकल्पाद् विरमत्तदा ॥१८२।। नाहं देहो मनो नास्मि न वाणी न च कारणम् । तत्त्रयस्येत्यनुद्विग्नो भजेदन्यत्वभावनाम् ॥१८३॥ अहमेको न मे कश्चिन्नैवाहमपि कस्यचित् । इत्यदीनमनाः सम्यगेकत्वमपि भावयेत् ॥१८॥ यतिमाधाय लोकाग्रे नित्यानन्तसुखास्पदे । भावयेद् योगनिर्वाणं स योगी योगसिद्धये ॥१८॥ इति निवार्णसंप्राप्तिः । ततो निःशेषमाहारं शरीरं च समुत्सृजन् । योगीन्द्रो योगनिर्वाणसाधनायोद्यतो भवेत् ॥१८६।। उत्तमार्थे कृतास्थानः संन्यस्ततनुरुद्धधीः। ध्यायन् मनोवचः कायान् बहिर्भूतान् स्वकान् स्वतः॥१८॥ प्रणिधार्य मनोवृत्ति पदेषु परमेष्टिनाम् । जीवितान्ते स्वसाकुर्याद् योगनिर्वाणसाधनम् ॥१८॥ योगः समाधिनिर्वाणं तत्कृता चित्तनिर्वृतिः । तेनेष्टं साधनं यत्तद् योगनिर्वाणसाधनम् ॥१८६॥ . इति योगनिर्वाणसाधनम् । पुरुष योगनिर्वाण क्रियाको प्राप्त हो ॥१७८॥ योग नाम ध्यानका है उसके लिए जो संवेगपूर्वक प्रयत्न किया जाता है उस परम तपको योगनिर्वाण संप्राप्ति कहते हैं ॥१७९॥ प्रथम ही शरीरको शुद्ध कर सल्लेखनाके योग्य आचरण करना चाहिए और फिर रागादि दोषोंके साथ शरीरको कृश करना चाहिए ॥१८०॥ जीवित रहनेकी आशा और मरनेकी इच्छा छोड़कर 'यह भव्य है' इस प्रकारका सुयश प्राप्त करनेके लिए संन्यास धारण करनेके पहले भावना की जाती है वह योगनिर्वाण कहलाता है ॥१८१।। उस समय रागद्वेष छोड़कर कल्याणकी प्राप्तिमें प्रयत्न करना चाहिए और जो पदार्थ आत्माके नहीं हैं, उनमें 'यह मेरे हैं' इस संकल्पका त्याग कर देना चाहिए ॥१८२।। न मैं शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न इन तीनोंका कारण ही हूँ। इस प्रकार तीनोंके विषयमें उद्विग्न न होकर अन्यत्व भावनाका चिन्तवन करना चाहिए ॥१८३॥ इस संसार में मैं अकेला हूँ न मेरा कोई है और न मैं भी किसीका हूँ, इस प्रकार उदार चित्त होकर एकत्वभावनाका अच्छी तरह चिन्तवन करना चाहिए ॥१८४॥ जो नित्य और अनन्त सुखका स्थान है ऐसे लोकके अग्रभाग अर्थात् मोक्षस्थानमें बुद्धि लगाकर उस योगीको योग ( ध्यान ) को सिद्धि के लिए योग निर्वाण क्रियाकी भावना करनी चाहिए। भावार्थसल्लेखनामें बैठे हुए साधुको संसारके अन्य पदार्थोंका चिन्तवन न कर एक मोक्षका ही चिन्तवन करना चाहिए ॥१८५।। यह इकतीसवीं योगनिर्वाणसंप्राप्ति क्रिया है। तदनन्तर - समस्त आहार और शरीरको छोड़ता हुआ वह योगिराज योगनिर्वाण साधनके लिए उद्यत हो ।।१८६।। जिसने उत्तम अर्थात् मोक्षपदार्थमें आदर बुद्धि की है, शरीरसे ममत्व छोड़ दिया है और जिसकी बुद्धि उत्तम है ऐसा वह साधु अपने मन, वचन, कायको अपने आत्मासे भिन्न अनुभव करता हुआ अपने मनकी प्रवृत्ति पंचपरमेष्ठियोंके चरणोंमें लगावे और इस प्रकार जीवनके अन्तमें योगनिर्वाण साधनको अपने अधीन करे - स्वीकार करे ॥१८७-१८८।। योग नाम समाधिका है उस समाधिके द्वारा चित्तको जो आनन्द होता है उसे निर्वाण कहते हैं, चूंकि यह योगनिर्वाण इष्ट पदार्थोंका साधन है - इसलिए इसे योगनिर्वाण साधन कहते हैं ॥१८९।। यह बत्तीसवीं योगनिर्वाण साधन किया है। "१ तद् ध्यानम् अर्थः प्रयोजनं यस्य । २ प्रथमभावना। ३ भव्याकल-ल०, द० । ४ संश्रयेद् अ०, ५०, स०। देहमनोवाक्त्रयस्य । ५ संन्यासे । ६ कृतादरः । ७ हिरुग्भूतात्मकान् स्वतः ट० । पृथग्भूतस्वरूपकान् । ८ एकाग्रं कृत्वा । ९ पञ्चपदेषु । १० चित्तालादः । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व २५७।। तथा योगं समाधाय कृतप्राणविसर्जनः । इन्द्रोपपादमाप्नोति गते पुण्ये पुरोगताम् ॥१९॥ इन्द्राः स्युस्त्रिदशाधीशास्तेपूत्पादस्तपोबलात् । यः स इन्द्रोपपादः स्यात् क्रियाऽर्हन्मार्गसेविनाम् ॥१११॥ ततोऽसौ दिव्यशय्यायां क्षणादापूर्णयौवनः । परमानन्दसा तो दीप्तो दिव्येन तेजसा ॥१६२॥ अणिमादिभिरष्टाभिर्युतोऽसाधारणैर्गुणैः । सहजाम्बरदिव्यस्रङ्मणिभूषणभूषितः ॥१६३॥ दिव्यानुभावसं भूतप्रभावं परमुद्वहन् । बोबुध्यते तदाऽत्मीयमैन्, दिव्यावधित्विषा ॥१६४॥ इति इन्द्रोपपादक्रिया । पर्याप्तमात्र एवायं प्राप्तजन्मावबोधनः । पुनरिन्द्रामिषेकेण योज्यतेऽमरसत्तमैः ॥१६५॥ दिव्यसंगीतवादित्रमङ्गलोद्गीतिनिःस्वनैः । विचित्रैश्चाप्सरोनृत्तनिवृत्तेन्द्राभिपेचनः ॥११६॥ ति (कि)रीटमुद्वहन् दीप्रं स्वसाम्राज्यैकलाञ्छनम् । 'सुरकोटिभिरारूढप्रमदैर्जयकारितः ॥१७॥ स्रग्बी सदंशुको दीपो भूषितो दिव्यभूषणः । ऐन्द्रविष्टरमारूढो महानेष महीपते ॥१८॥ इति इन्द्राभिषेकः। ततोऽयमानतानेतान् सत्कृत्य सुरसत्तमान् । पदेषु स्थापयन् स्वेषु विधिदाने प्रवर्तते ॥१६॥ स्वविमानद्धिदानेन प्रीणितैर्विबुधैर्वृतः । सोऽनुभुङ्क्ते चिरं कालं सुकृती सुखमामरम् ॥२०॥ तदेतद्विधिदानेन्द्रसुखोदयविकल्पितम् । क्रियाद्वयं समाम्नातं स्वर्लोकप्रभवोचितम् ॥२०१॥ इति विधिदानसुखोदयो। ऊपर लिखे अनुसार योगोंका समाधान कर अर्थात् मन, वचन, कायको स्थिर कर जिसने प्राणोंका परित्याग किया है ऐसा साधु पुण्यके आगे-आगे चलनेपर इन्द्रोपपाद क्रियाको प्राप्त होता है ॥१९०।। देवोंके स्वामी इन्द्र कहलाते हैं, तपश्चरणके बलसे उन इन्द्रोंमें जन्म लेना इन्द्रोपपाद कहलाता है। वह इन्द्रोपपादक्रिया. अर्हत्प्रणीत मोक्षमार्गका सेवन करनेवाले जीवोंके ही होती है ॥१९१॥ तदनन्तर वह इन्द्र उसी उपपाद शय्यापर क्षण-भरमें पूर्णयौवन हो जाता है और दिव्य तेजसे देदीप्यमान होता हुआ परमानन्दमें निमग्न हो जाता है ॥१९२॥' वह अणिमा महिमा आदि आठ असाधारण गुणोंसे सहित होता है और साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र, दिव्यमाला, तथा मणिमय आभूषणोंसे सुशोभित होता है। दिव्य माहात्म्यसे उत्पन्न हुए उत्कृष्ट प्रभावको धारण करता हुआ वह इन्द्र दिव्य अवधिज्ञानरूपी ज्योतिके द्वारा जान लेता है कि मैं इन्द्रपदमें उत्पन्न हुआ हूँ॥१९३-१९४॥ यह इन्द्रोपपाद नामकी तैतीसवीं किया है। पर्याप्तक होते ही जिसे अपने जन्मका ज्ञान हो गया है ऐसे इन्द्रका फिर उत्तमदेव लोग इन्द्राभिषेक करते हैं ॥१९५।। दिव्य संगीत, दिव्य बाजे, दिव्य मंगलगीतोंके शब्द और अप्सराओंके विचित्र नृत्योंसे जिसका इन्द्राभिषेक सम्पन्न हुआ है, जो अपने साम्राज्यके मुख्य चिह्नस्वरूप देदीप्यमान मुकुटको धारण कर रहा है, हर्षको प्राप्त हुए करोड़ों देव जिसका जयजयकार कर रहे हैं, जो उत्तम मालाएं और वस्त्र धारण किये हुए है तथा देदीप्यमान वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित है ऐसा वह इन्द्र इन्द्रके पदपर आरूढ़ होकर अत्यन्त पूजाको प्राप्त होता है ॥१९६-१९८॥ यह चौंतीसवीं इन्द्राभिषेक किया है। तदनन्तर नम्रीभूत हुए इन उत्तम-उत्तम देवोंको अपने-अपने पदपर नियुक्त करता हुआ वह इन्द्र विधिदान कियामें प्रवृत्त होता है ॥१९९॥ अपने-अपने विमानोंकी ऋद्धि देनेसे सन्तुष्ट हुए देवोंसे घिरा हुआ वह पुण्यात्मा इन्द्र चिरकाल तक देवोंके सुखोंका अनुभव करता है ।।२००॥ १ गते सति । २ अग्रेसरत्वम् । ३ संभूतं ल०, द०। ४ इन्द्रः। ५ निजविमानैश्वर्यवितरणेन । ६ अमरसंबन्धि । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् प्रोक्तास्त्वि द्रोपपादाभिषेकदान सुखोदयाः । इन्द्रत्यागाख्यमधुना संप्रवक्ष्ये क्रियान्तरम् ॥२०२॥ किंचिन्मात्रावशिष्ट यां स्वस्यामायुःस्थितौ सुरेट । बुद्ध्वा स्वर्गावतारं स्वं सोऽनुशास्त्यमरानिति २०३ भो भोः सुधाशना यूयमस्माभिः पालिताश्चिरम् । केचित् पिग्रीयिताः केचित् पुत्रप्रीत्योपलालिताः ॥२०४॥ पुरोधोमन्थ्यमात्यानां पदे केचिनियोजिताः । वयस्यपीठ मदीयस्थाने दृष्टाश्च केचन ॥२०५॥ स्वप्राणनिर्विशेषं च केचित् त्रागाय संमताः । केचिन्मान्यपदे दृष्टाः पालकाः स्वनिवासिनाम् ॥२०६॥ केचिच्चमूचरस्थाने केचिच्च स्वजनास्थया । प्रजासामान्यमन्ये च केचिच्चानुचराः पृथक् ॥२०॥ केचित् परिजनस्थाने केचिच्चान्तःपुरे चराः । काश्चिद् वल्लमिका देव्यो महादेव्यश्च काश्चन ॥२०॥ इत्यसाधारणा प्रीतिर्मया युष्मासु दर्शिता । स्वामिमक्तिश्च युष्माभिर्मय्यसाधारणी धृता ॥२०॥ साम्प्रतं स्वर्गभोगेषु गतो मन्देच्छतामहम् । प्रत्यासना हि मे लक्ष्मीरद्य भूलोकगोचरा ॥२१०॥ युष्मत्साक्षि ततः कृत्स्नं स्वःसाम्राज्यं मयोज्झितम् । यश्चान्यो मत्समो भावी तस्मै सर्वसमर्पितम् ॥२११॥ इत्यनुस्सुकतां तेषु भावयन्ननुशिष्य तान् । कुर्वन्निन्द्रपदत्यागं स व्यथां नैति धीरधीः ॥२१२॥ इन्द्रस्यागक्रिया सैषा तत्स्व गातिसर्जनम् । धीरास्त्यजन्त्यनायासादैश्यं तादृशमप्यहो ॥२१॥ इति इन्द्रत्यागः। इस प्रकार स्वर्गलोकमें उत्पन्न होनेके योग्य ये विधिदान और इन्द्र सुखोदय नामकी दो कियाएँ मानी गयी हैं ॥२०१॥ ये पैंतीसवीं और छत्तीसवीं विधिदान तथा सुखोदय कियाएँ हैं । इस प्रकार इन्द्रोपपाद, इन्द्राभिषेक, विधिदान और सुखोदय ये इन्द्र सम्बन्धी चार क्रियाएं कहीं। अब इन्द्रत्याग नामकी पृथक् क्रियाका निरूपण करता हूँ ॥२०२॥ इन्द्र जब अपनी आयुकी स्थिति थोड़ी रहनेपर अपना स्वर्गसे च्युत होना जान लेता है तब वह देवोंको इस प्रकार उपदेश देता है ॥२०३॥ कि भो देवो, मैंने चिरकालसे आपका पालन किया है, कितने ही देवोंको मैंने पिताके समान माना है, कितने ही देवोको पुत्रके समान बड़े प्रेमसे खिलाया है, कितने ही को पुरोहित, मन्त्री और अमात्यके स्थानपर नियुक्त किया है, कितने ही को मैंने मित्र और पीठमर्दके समान देखा है। कितने ही देवोंको अपने प्राणोंके समान मानकर उन्हें अपनी रक्षाके लिए नियुक्त किया है, कितने ही को देवोंकी रक्षाके लिए सम्मानयोग्य पद पर देखा है, कितने ही को सेनापतिके स्थानपर नियुक्त किया है, कितने ही को अपने परिवारके लोग समझा है, कितने ही को सामान्य प्रजाजन माना है, कितने हीको सेवक माना है, कितने हीको परिजनके स्थानपर और कितने ही को अन्तःपुरमें रहनेवाले प्रतीहारी आदिके स्थानपर नियुक्त किया है। कितनी ही देवियोंको वल्लभिका बनाया है और कितनी ही देवियोंको महादेवी पदपर नियुक्त किया है, इस प्रकार मैंने आप लोगोंपर असाधारण प्रेम दिखलाया है और आप लोगोंने भी हमपर असाधारण प्रेम धारण किया है ॥२०४-२०९॥ इस समय स्वर्गके भोगोंमें मेरी इच्छा मन्द हो गयी है और निश्चय ही पृथिवी लोककी लक्ष्मी आज मेरे निकट आ रही है ॥२१०॥ इसलिए आज तुम सबकी साक्षीपूर्वक मैं स्वर्गका यह समस्त साम्राज्य छोड़ रहा हूँ और मेरे पीछे मेरे समान जो दूसरा इन्द्र होनेवाला है उसके लिए यह समस्त सामग्री समर्पित करता हूँ ॥२११॥ इस प्रकार उन सब देवोंमें अपनी अनुत्कण्ठा अर्थात् उदासीनताका अनुभव करता हुआ इन्द्र उन सबके लिए शिक्षा दे और धीरवीर बुद्धिका धारक हो, इन्द्र पदका त्याग कर दुःखी न हो ॥२१२॥ इस तरह जो स्वर्गके भोगोंका त्याग करता है वह इन्द्रत्याग किया है। यह भी एक १ विधिदान । २ स्वराट् प०, ल०। ३ पिता इवाचरिताः । ४ कामाचार्य । ५ समानं यथा भवति तथा । ६ लोकपाला इत्यर्थः । ७ सेनापति । ८ ततः कारणात् । ९ उपशिष्य । १० न गच्छति । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व अवतारक्रियाऽस्य:न्या ततः संपरिवर्तते । कृतार्हत्यू जनस्यान्ते स्वर्गादवतरिष्यतः ॥ २१४॥ 'सोऽयं नृजन्मसंप्राप्त्या सिद्धि द्रागभिलाषुकः । चेतः सिद्धनमस्यायां समाधत्ते सुराधिराट् ॥ २१५॥ - शुभैः षोडशभिः स्वनैः संसूचितमहोदयः । तदा स्वर्गावताराख्यां कल्याणीमश्नुते क्रियाम् ॥ २१६ ॥ इति इन्द्रावतारः । 19 ર ततोऽवतीर्णो गर्भेऽसौ रत्नगर्भगृहोपमे । जनयित्र्या महादेव्या श्रीदेवीभिर्विशोधिते ॥२१७॥ हिरण्यवृष्टिं धनदे प्राक् षण्मासान् प्रवर्षति । 'अन्वायान्यामिवानन्दात् स्वर्गसंपदि भूतलम् ॥२१८॥ अमृतश्वसने मन्दमावाति व्याप्तसौरभ" । भूदेव्या इव निःश्वासे प्रक्लृप्ते पवनामरैः ॥२१९॥ दुन्दुभिध्वनि मन्द्रमुत्थिते पथि वार्मुचाम् । अकालस्तनिताशङ्कामातन्वति शिखण्डिनाम् ॥ २२० ॥ मन्दारत्रजमम्लानिमामोदाहृतषट्पदाम् । मुञ्चत्सु गुह्यकाख्येषु निकायेष्वमृताशिनाम् ॥ २२१ ॥ देवीपूपचरन्तीषु देवीं भुवनमातरम् । लक्ष्म्या समं समागत्य श्रीहीधीष्टतिकीर्तिषु ॥ २२२ ॥ कस्मिंश्चित् सुकृतावासे” पुण्ये राजर्षिमन्विरे । हिरण्यगर्भो धत्तेऽसौ हिरण्योत्कृष्टजन्मताम् ॥२२३॥ हिरण्यसूचितोत्कृष्टजन्यत्वात् स तथा श्रुतिम् " । विभ्राणां तां क्रियां धत्ते गर्भस्थोऽपि त्रिबोधभृत् ॥ २२४॥ इति हिरण्यजन्मता । 13 -२५९ आश्चर्यकी बात है कि धीरवीर पुरुष स्वर्गके वैसे ऐश्वर्यको भी बिना किसी कष्ट छोड़ देते हैं ||२१३ || इस प्रकार यह सैंतीसवीं इन्द्रत्याग क्रिया है । तदनन्तर-जो इन्द्र आयुके अन्त में अरहन्तदेवका पूजन कर स्वर्गसे अवतार लेना चाहता मैं मनुष्य जन्म पाकर बहुत अपना चित्त सिद्ध भगवान्को है उसके आगेकी अवतार नामकी क्रिया होती है || २१४ || शीघ्र मोक्ष प्राप्त किया चाहता हूँ यही विचार कर वह इन्द्र नमस्कार करनेमें लगाता है || २१५ || शुभ सोलह स्वप्नोंके द्वारा जिसने अभ्युदय माहात्म्य सूचित किया है ऐसा वह इन्द्र उस समय कल्याण करनेवाली स्वर्गावतार नामकी क्रियाको प्राप्त होता है || २१६ ॥ | यह अड़तीसवीं इन्द्रावतार क्रिया है । अपना बड़ा भारी तदनन्तर वे माता महादेवीके श्री आदि देवियोंके द्वारा शुद्ध किये हुए रत्नमय गर्भागार के समान गर्भ में अवतार लेते हैं ॥ २१७ || गर्भ में आनेके छह महीने पहलेसे जब कुबेर घरपर रत्नोंकी वर्षा करने लगता है और वह रत्नोंकी वर्षा ऐसी जान पड़ती है मानो आनन्दसे स्वर्गकी सम्पदा ही भगवान् के साथ-साथ पृथिवीतलपर आ रही हो, जब अमृत समान सुख देनेवाली वायु मन्द मन्द बहकर सब दिशाओं में फैल रही हो तथा ऐसी जान पड़ती हो मानो पत्रनकुमार देवोंके द्वारा निर्माण किया हुआ पृथिवीरूपी देवीका निःश्वास ही हो, जब आकाशमें उठी हुई - फैली हुई दुन्दुभि बाजोंकी गम्भीर आवाज मयूरोंको असमय में होनेवाली मेघगर्जनाकी शंका उत्पन्न कर रही हो, जब गुह्यक नामके देवोंके समूह कभी म्लान न होनेवाली और सुगन्धिके कारण भ्रमरोंको अपनी ओर खींचनेवाली कल्पवृक्ष के फूलोंकी मालाओं को बरसा रहे हों। और जब श्री, ह्री, बुद्धि, धृति और कीर्ति नामकी देवियाँ लक्ष्मीके साथ आकर स्वयं जगन्माता महादेवीकी सेवा कर रही हों उस समय पुण्यके निवासभूत किसी पवित्र राजमन्दिर में वे हिरण्यगर्भ भगवान् हिरण्योत्कृष्ट जन्म धारण करते हैं ||२१८२२३॥ जो गर्भमें स्थित रहते हुए भी तीन ज्ञानको धारण करनेवाले हैं ऐसे भगवान्, हिरण्य - १ सोऽहं ल० । २ झटिति । ३ नमस्कारे । ४ समाहितं प्रसूर्माता जननी' इत्यभिधानात् । ७ श्रीह्रोधृत्यादिभिः । १० व्याप्तमारुते ल० । ११ वायुकुमारैः । १३ देवभेदेषु त्कृष्टजन्मताभिधानम् । । कुरुते । ५ गच्छति । ६ जनन्याः । ' जनयित्री ८ सहागच्छन्त्याम् । ९ अमृतवदाह्लादकर मारुते । १३ स्वयं ल० । १४ पुण्यस्थाने । १५ हिरण्यो Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ आदिपुराणम् 'विश्वेश्वरा जगन्माता महादेवी महासती । पूज्या सुमङ्गला चेति धत्ते रूढिं जिनाम्बिका ॥२२५॥ कुलादिनिलया देव्यः श्रीहीधीतिकीर्तयः । समं लक्ष्म्या षडेताश्च संमता जिनमातृकाः ॥२२६॥ जन्मानन्तरमायातैः सुरेन्द्र मरुमूर्द्धनि । योऽभिषेकविधिः क्षीरपयोधेः शुचिभिर्जलैः ॥२२७॥ मन्दरेन्द्राभिषेकोऽसौ क्रियाऽस्य परमेष्टिनः । सा पुनः सुप्रतीतत्वाद् भूयो नेह प्रतन्यते ॥२२८॥ इति मन्दरेन्द्राभिषेकः । ततो विद्योपदेशोऽस्य स्वतन्त्रस्य स्वयंभुवः । शिष्यभावग्यतिक्रान्ति गुरुपूजोपलम्भनम् ॥२२९॥ तदेन्द्राः पूजयन्त्येनं त्रातारं त्रिजगद्गुरुम् । अशिक्षितोऽपि देवत्वं संमतोऽसीति विस्मिताः ॥२३०॥ इति गुरुपूजनम् । ततः कुमारकालेऽस्य यौवराज्योपलम्भनम् । पबन्धोऽभिषेकश्च तदास्य स्यान्महौजसः ॥२३॥ इति यौवराज्यम् । स्वराज्यमधि राज्येऽभिषिक्तस्यास्य क्षितीश्वरैः । शासतः सार्णवामेनां क्षितिमप्रतिशासनाम् ॥२३२॥ इति स्वराज्यम् । चक्रलामो भवेदस्य निधिरत्नसमुद्भवे । निजप्रकृतिभिः पूजा सामिषेकाऽधिराडिति ॥२३३॥ इति चक्रलाभः। अर्थात् सुवर्णकी वर्षासे जन्मकी उत्कृष्टता सूचित होनेके कारण हिरण्योत्कृष्ट जन्म इस सार्थक नामको धारण करनेवाली क्रियाको धारण करते हैं ॥२२४।। यह उनतालीसवीं हिरण्योत्कृष्टजन्मता क्रिया है। उस समय वह भगवान्की माता विश्वेश्वरी, जगन्माता, महादेवी, महासती, पूज्या और सुमंगला इत्यादि नामोंको धारण करती है ॥२२५॥ कुलाचलोंपर रहनेवाली श्री, ह्री, बुद्धि, धृति, कीर्ति और लक्ष्मी ये छह देवियाँ जिनमातृका अर्थात् जिनमाताकी सेवा करनेवाली कहलाती हैं ॥२२६॥ जन्मके अनन्तर आये हुए इन्द्रोंके द्वारा मेरु पर्वतके मस्तक पर क्षीरसागरके पवित्र जलसे भगवान्का जो अभिषेक किया जाता है वह उन परमेष्ठीकी मन्दराभिषेक किया है। वह किया अत्यन्त प्रसिद्ध है इसलिए यहाँ उसका फिरसे विस्तार नहीं किया जाता है ॥२२७-२२८॥ यह चालीसवीं मन्दराभिषेक किया है। तदनन्तर स्वतन्त्र और स्वयम्भू रहनेवाले भगवान्के विद्याओंको उपदेश होता है । वे शिष्यभावके बिना ही गुरुकी पूजाको प्राप्त होते हैं अर्थात् किसीके शिष्य हुए बिना ही सबके गुरु कहलाने लगते हैं ॥२२९। उस समय इन्द्र लोग आकर हे देव, आप अशिक्षित होनेपर भी सबको मान्य हैं इस प्रकार आश्चर्यको प्राप्त होते हुए सबकी रक्षा करनेवाले और तीनों जगत्के गुरु भगवान्की पूजा करते हैं ।।२३०॥ यह इकतालीसवीं गुरुपूजन किया है। तदनन्तर कुमारकाल आनेपर उन्हें युवराजपदकी प्राप्ति होती है, उस समय महाप्रतापवान् उन भगवान्के राज्यपट्ट बाँधा जाता है और अभिषेक किया जाता है ॥२३१॥ यह बयालीसवीं यौवराज्य किया है। । तत्पश्चात् समस्त राजाओंने राजाधिराज (सम्राट) के पदपर जिनका अभिषेक किया है और जो दूसरेके शासनसे रहित इस समुद्र पर्यन्तकी पृथिवीका शासन करते हैं ऐसे उन भगवान्के स्वराज्यकी प्राप्ति होती है ॥२३२॥ यह तैतालीसवीं स्वराज्य किया है। इसके बाद निधियों और रत्नोंकी प्राप्ति होनेपर उन्हें चकको प्राप्ति होती है उस समय १ विश्वेश्वरी ल० । २ शिष्यत्वाभावः । ३ गुरुपूजाप्राप्तिः । स्वस्य स्वयमेव गुरुरिति भावः । ४ पूजयन्त्येतं ल०, द०। ५ रक्षतः । ६ आत्मीयप्रजापरिवारैः । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व २६१ दिशांजयः स विज्ञेयो योऽस्य दिग्विजयोद्यमः । चक्ररत्नं पुरस्कृत्य जयतः सार्णवां महीम् ॥२३॥ इति दिशांजयः । सिद्धदिग्विजयस्यास्य स्वपुरानुप्रवेशने । क्रिया चक्राभिषेकाह्वा साऽधुना संप्रकीर्त्यते ॥२३५॥ चक्ररत्नं पुरोधाय प्रविष्टः स्वं निकेतनम् । परायविभवोपेतं स्वर्विमानापहासि यत् ॥२३६॥ तत्र क्षणमिवासीने' रम्ये प्रमदमण्डपं । चामरैर्वीज्यमानोऽयं सनिर्झर इवाद्रिराट् ॥२३७॥ संपूज्य निधिरत्नानि कृतच्चक्रमहोत्सवः । दत्वा किमिच्छकं दानं मान्यान् संमान्य पार्थिवान् ॥२३॥ ततोऽभिषेकमामोति पार्थिवैर्महितान्वयैः । नान्दीतूर्येषु गम्भीरं प्रध्वनत्सु सहस्रशः ॥२३९॥ यथावदभिषिक्तस्य तिरीटारोपणं ततः । क्रियते पार्थिवैर्मुख्यैश्चतुर्भिः प्रथितान्वयैः ॥२४॥ महाभिषेकसामग्रया कृतचक्राभिषेचनः । कृतमङ्गल नेपथ्यः पार्थिवैः प्रणतोऽभितः ॥२४१॥ तिरीटं स्फुटरत्नांशु जटिलीकृतदिमुलम् । दधानश्चक्रसाम्राज्यककुदं नृपपुङ्गवाः ॥२४२॥ रत्नांशुच्छुरितं बिभ्रत् कर्णाभ्यां कुण्डलद्वयम् । यद्वाग्देव्याः समाक्रीडारथ चक्रद्वयायितम् ॥२३॥ तारालितरलस्थूलमुक्ताफलमुरोगृहे । धारयन् हारमाबद्धमिव मङ्गलतोरणम् ॥२४॥ समस्त प्रजा उन्हें राजाधिराज मानकर उनकी अभिषेकसहित पूजा करती है ।।२३३॥ यह चक्रलाभ नामकी चौवालीसंवी क्रिया है। तदनन्तर चक्ररत्नको आगे कर समुद्रसहित समस्त पृथिवीको जीतनेवाले उन भगवान्का जो दिशाओंको जीतनेके लिए उद्योग करना है वह दिशांजय कहलाता है ॥२३४॥ यह दिशांजय नामकी पैंतालीसवीं किया है। जब भगवान् दिग्विजय पूर्ण कर अपने नगरमें प्रवेश करने लगते हैं तब उनके चक्राभिषेक नामकी क्रिया होती है। अब इस समय उसी क्रियाका वर्णन किया जाता है ॥२३५।। वे भगवान् चक्ररत्नको आगे कर अपने उस राजभवन में प्रवेश करते हैं जो कि बहुमूल्य वैभवसे सहित होता है और स्वर्गके विमानोंकी हँसो करता है ।।२३६॥ वहाँपर वे मनोहर आनन्दमण्डपमें क्षण-भर विराजमान होते हैं। उस समय उनपर चमर ढलाये जाते हैं जिससे वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो निर्झरनोंसहित सुमेरु पर्वत ही हो ॥२३७।। उस समय वे निधियों और रत्नोंकी पूजा कर चक्र प्राप्त होनेका बड़ा भारी उत्सव करते हैं, किमिच्छक दान देते हैं और माननीय राजाओंका सन्मान करते हैं ॥ २३८॥ तदनन्तर तुरही आदि हजारों मांगलिक बाजोंके गम्भीर शब्द करते रहनेपर वे उत्तम-उत्तम कुलमें उत्पन्न हए राजाओंके द्वारा अभिषेकको प्राप्त होते हैं ॥२३९।। तदनन्तर – विधिपूर्वक जिनका अभिषेक किया गया है ऐसे उन भगवान्के मस्तकपर प्रसिद्ध प्रसिद्ध कुलमें उत्पन्न हुए मुख्य चार राजाओंके द्वारा मुकुट रखा जाता है ।।२४०॥ इस प्रकार महाभिषेककी सामग्रीसे जिनका चक्राभिषेक किया गया है, जिन्होंने मांगलिक वेष धारण किया है, जिन्हें चारों ओरसे राजा लोग नमस्कार कर रहे हैं, जो देदीप्यमान रत्नोंकी किरणोंसे समस्त दिशाओंको व्याप्त करनेवाले तथा चक्रवर्तीके साम्राज्यके चिह्नस्वरूप मुकुटको धारण कर रहे हैं, राजाओंमें श्रेष्ठ हैं, जो अपने दोनों कानोंमें रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त तथा सरस्वतीके क्रीड़ारथके पहियोंकी शोभा देनेवाले दो कुण्डलोंको धारण कर रहे हैं, जो वक्षःस्थलरूपी घरके सामने खड़े किये हुए मांगलिकतोरणके समान सुशोभित होनेवाले और ताराओंकी १ क्षणपर्यन्तमेव । २ विहितचक्रपूजनः । ३ संपूज्य । ४ अलंकारः । ५ चिह्न प्रधानं वा । 'प्राधाने राजलिङ्गे च वृषागे ककुदोऽस्त्रियामि'त्यभिधानात् । ६ मिश्रितम् । ७ क्रीडानिमित्तस्पन्दन । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आदिपुराणम् विलसद्बह्मसूत्रेण प्रविभक्ततनून्नतिः । तटनिर्झरसंपातरम्यमूर्तिरिवाद्रिपः ॥२४५॥ सदनकटकं प्रोच्चैः शिखरं भुजयोयुगम् । द्वाधिमश्लाघि बिभ्राणः' कुलक्ष्माध्रद्वयायितम् ॥२४६॥ कटिमण्डलसंसक्तलसत्काञ्चीपरिच्छदः । महाद्वीप इवोपान्तरत्रवेदीपरिष्कृतः ॥२४॥ मन्दारकुसुमामोदलग्नालिकुलझंकृतः । किमप्यारब्धसंगीतमित्र शेखरमुद्वहन् ॥२४८॥ तत्कालोचितमन्यच्च दधन्मङ्गलभूषणम् । स तदा लक्ष्यते साक्षालक्ष्म्याः पुञ्ज इवोच्छिखः ॥ ४९॥ प्रीताश्चाभिष्टुवन्त्येनं तदामी नृपसत्तमाः। विश्वंजयो दिशां जेता दिव्यमूर्तिमवानिति ॥२५०॥ पौराः प्रकृतिमुख्याश्च कृतपादाभिषेचनाः । तत्क्रमार्चनमादाय कुर्वन्ति स्वशिरोधतम् ॥२५१॥ श्रीदेव्यश्च सरिदेव्यो देव्यो विश्वेश्वरा अपि । समुपेत्य नियोगः स्वैस्तदनं पर्युपासते ॥२५२॥ इति चक्राभिषेकः । चक्राभिषेक इत्येकः समाख्यातः क्रियाविधिः । तदनन्तरमस्य स्यात् साम्राज्याख्यं क्रियान्तरम् ॥२५३॥ अपरेर्दिनारम्भे त पुण्यप्रसाधनः । मध्ये महानृपसमं नृपासनमधिष्टितः ॥२५॥ दीप्रैः प्रकीर्णकवातैः स्वधुनीसीकरोज्ज्वलैः । वारनारीकराधूतैर्वीज्यमानः समन्ततः ॥२५५॥ सेवागतैः पृथिव्यादिदेवतांशः परिष्कृतः । तिप्रशान्तदीप्त्योजी निर्मलत्वोपमा दिभिः ॥२५६॥ पंक्तिके समान चंचल तथा बड़े-बड़े मोतियोंसे युक्त हार धारण किये हुए हैं, शोभायमान यज्ञोपवीतसे जिनके शरीरकी उच्चता प्रकट हो रही है और इसी कारण जो तटपर पड़ते हुए निर्झरनोंसे सुन्दर आकारवाले सुमेरु पर्वतके समान जान पड़ते हैं, जो रत्नोंके कटक अर्थात् कड़ों ( पक्षमें रत्नमय मध्यभागों ) से सहित, ऊँचे-ऊँचे शिखरों अर्थात् कन्धों ( पक्षमें चोटियों ) से युक्त, लम्बाईसे सुशोभित और इसलिए ही दो कुलाचलोंके समान आचरण करनेवाली दो भुजाओंको धारण कर रहे हैं, जिनकी कमरपर देदीप्यमान करधनी सटी हुई है और उससे जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो चारों ओरसे रत्नमयी वेदीके द्वारा घिरा हुआ कोई महाद्वीप ही हो, जो मन्दार वृक्षके फूलोंकी सुगन्धिके कारण आकर लगे हुए भ्रमरोंके समूहकी झंकारोंसे कुछ गाते हएके समान सुशोभित होनेवाले शेखरको धारण कर रहे हैं तथा उस कालके योग्य अन्य-अन्य मांगलिक आभूषण धारण किये हुए हैं ऐसे वे भगवान् उस समय ऐसे जान पड़ते हैं मानो जिसकी शिखा ऊँची उठ रही है ऐसा साक्षात् लक्ष्मीका पुंज ही हो ॥२४१-२४९॥ उस समय अन्य उत्तम-उत्तम राजा लोग सन्तष्ट होकर उनको इस प्रकार स्तति करते हैं कि आपने समस्त संसारको जीत लिया है, आप दिशाओंको जीतनेवाले हैं और दिव्यमूर्ति हैं ॥२५०॥ नगरनिवासी लोग तथा मन्त्री आदि मुख्य-मुख्य पुरुष उनके चरणोके अभिषेक करते हैं और उनका चरणोदक लेकर अपने-अपने मस्तकपर धारण करते हैं ॥२५१॥ श्री ह्री आदि देवियाँ, गंगा सिन्धु आदि देवियाँ तथा विश्वेश्वरा आदि देवियाँ अपने-अपने नियोगोंके अनुसार आकर उस समय उनकी उपासना करती हैं ॥२५२॥ यह चक्राभिषेक नामकी छियालीसवीं क्रिया है। इस प्रकार उनकी यह एक चक्राभिषेक नामकी क्रिया कही। अब इसके बाद साम्राज्य नामकी दूसरी क्रिया कहते हैं ।।२५३।। दूसरे दिन प्रातःकालके समय जिन्होंने पवित्र आभूषण धारण किये हैं, जो बड़े-बड़े राजाओंकी सभाके बीचमें राजसिंहासनपर विराजमान हैं, जिनपर देदीप्यमान गंगा नदीके जलके छींटोंके समान उज्ज्वल और गणिकाओंके हाथसे हिलाये हुए चमर चारों ओरसे ढुलाये जा रहे हैं, जो धृति, शान्ति, दीप्ति, ओज और निर्मलताको उत्पन्न करनेवाले १ दैर्घन श्लाघि । २ परिवेष्टितः । ३ ईषद् । ४ गङ्गादेव्यादयः । ५ पवित्रालंकारः । ६ महानृपसभायाः मध्ये । ७ पृथिव्यप्तेजोवायुगगनाधिदेवताविक्रियाशरीरैः इत्यर्थः । ८ भूषितः । ९ बलम् । 'ओजो दीप्ती बले' इत्यभिधानात् । १० उत्पादकैः । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व २६३ तान्' प्रजानुग्रहे नित्यं समाधानेन योजयन् । संमानदानविश्रम्भैः प्रकृतीरनुरक्षयन् ॥२५७॥ पार्थिवान् प्रणतान् यूयं न्यायैः पालयत प्रजाः । अन्यायेषु प्रवृत्ताश्चेद् वृत्तिलोपो ध्रुवं हि वः ॥२५८॥ न्यायश्च द्वितयो दुष्टनिग्रहः शिष्टपालनम् । सोऽयं सनातनः क्षानो धर्मो रक्ष्यः प्रजेश्वरैः ॥२५९॥ दिव्यास्त्रदेवताश्चामूराराध्याः स्युर्विधानतः । ताभिस्तु सुप्रसन्नाभिरवश्यं भावुको जयः ॥२६॥ राजवृत्तिमिमां सम्यक् पालयद्भिरतन्द्रितैः । प्रजासु वर्तितव्यं भो भवद्भिायवर्त्मना ॥२६॥ पालयेद्य इमं धर्म स धर्मविजयी भवेत् । क्षमा जयेद् विजितात्मा हि क्षत्रियो न्यायजीविकः ॥२६॥ इहैव स्याद् यशोलाभो भूलाभश्च महोदयः । अमुत्राभ्युदयावाप्तिः क्रमात् त्रैलोक्यनिर्जयः ॥२६३॥ इति भूयोऽनु शिष्यैतान् प्रजापालनसंविधौ । स्वयं च पालयत्येनान् योगक्षेमानुचिन्तनैः ॥२६॥ तदिदं तस्य साम्राज्यं नाम धयं क्रियान्तरम् । येनानुपालितेनायमिहामुत्र च नन्दति ॥२६५॥ इति साम्राज्यम् । एवं प्रजाः प्रजापालानपि पालयतश्चिरम् । काले कस्मिंश्चिदुत्पन्नबोधे दीक्षोद्यमो भवेत् ॥२६६॥ पृथिवी आदि देवताओंके अंशोंसे अर्थात् उनके वैक्रियिक शरीरोंसे हैं, जो उन देवताओंको समाधानपूर्वक निरन्तर प्रजाके उपकार करनेमें लगा रहे हैं और आदर सत्कार, दान तथा विश्वास आदिसे जो मन्त्री आदि प्रमुख कार्यकर्ताओंको आनन्दित कर रहे हैं ऐसे वे महाराज नमस्कार करते हुए राजाओंको इस प्रकार शिक्षा देते हैं कि तुम लोम न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करो, यदि अन्यायमें प्रवृत्ति रखोगे तो अवश्य ही तुम्हारी वृत्तिका लोप हो जावेगा ॥२५४२५८।। न्याय दो प्रकारका है - एक दुष्टोंका निग्रह करना और दूसरा शिष्ट पुरुषोंका पालन करना । यह क्षत्रियोंका सनातन धर्म है। राजाओंको इसकी रक्षा अच्छी तरह करनी चाहिए ॥२५९॥ ये दिव्य अस्त्रोंके अधिष्ठाता देव भी विधिपूर्वक आराधना करने योग्य हैं क्योंकि इनके प्रसन्न होनेपर युद्ध में विजय अवश्य ही होती है ॥२६०॥ इस राजवृत्तिका अच्छी तरह पालन करते हुए आप लोग आलस्य छोड़कर प्रजाके साथ न्याय-मार्गसे बर्ताव करो ॥२६१।। जो राजा इस धर्मका पालन करता है वह धर्मविजयी होता है क्योंकि जिसने अपना आत्मा जीत लिया है तथा न्यायपूर्वक जिसकी आजीविका है ऐसा क्षत्रिय ही पृथिवीको जीत सकता है ॥२६२॥ इस प्रकार न्यायपूर्वक बर्ताव करनेसे इस संसार में यशका लाभ होता है, महान् वैभवके साथ साथ पृथिवीकी प्राप्ति होती है, और परलोकमें अभ्युदय अर्थात् स्वर्गकी प्राप्ति होती है और अनुक्रमसे वह तीनों लोकोंको जीत लेता है अर्थात् मोक्ष अवस्था प्राप्त कर लेता है ॥२६३॥ इस प्रकार वे महाराज प्रजापालनकी रीतियोंके विषयमें उन राजाओंको बार-बार शिक्षा देते हैं तथा योग और क्षेमका बार-बार चिन्तवन करते हुए उनका स्वयं पालन करते हैं ॥२६॥ इस प्रकार यह उनकी धर्मसहित साम्राज्य नामकी वह क्रिया है जिसके कि पालन करनेसे यह जीव इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकोंमें समृद्धिको प्राप्त होता है ॥२६५॥ यह सैंतालीसवीं साम्राज्य क्रिया है। इस प्रकार बहुत दिन तक प्रजा और राजाओंका पालन करते हुए उन महाराजके किसी समय भेदविज्ञान उत्पन्न होनेपर दीक्षा ग्रहण करनेके लिए उद्यम होने लगता है ॥२६६॥ १ पृथिव्यादिदेवतांशान् । २ स्नेहै: विश्वासर्वा। ३ प्रवृत्तिश्चेत् प०, ल०, द० . ४ निजनिजराज्यलोपो भवति । ५ नियमेन भवति । ६ एवं सति । ७ शिक्षां कृत्वा । ८ पालयत्येतान् ल०, ५०, द०।९ साम्राज्यनामक्रियान्तरेण । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आदिपुराणम सैषा निक्रान्तिरस्येष्टा क्रिया राज्याद विरज्यतः । लौकान्तिकामरैर्भूयो बोधितस्य समागतः ॥२६॥ कृतराज्यार्पणो ज्येप्ठे सूनौ' पार्थिवसाक्षिकम् । संतानपालने चास्य करोतीत्यनुशासनम् ॥२६॥ त्वया न्यायधनेनाङ्ग भवितव्यं प्रजातौ । प्रजा कामदुधा धेनुर्मता न्यायेन योजिता ॥२६१॥ राजवृत्तमिदं विन्द्वि यन्न्यायेन धनार्जनम् । वर्धनं रक्षणं चास्य 'तीर्थे च प्रतिपादनम् ॥२७॥ प्रजानां पालनार्थं च मतं मत्यनुपालनम् । मतिर्हिताहितज्ञानमात्रिकामुत्रिकायोः ॥२७१॥ ततः कृतेन्द्रियजयो वृद्धसंयोगसंपदा । धर्मार्थ शास्त्रविज्ञानात् प्रज्ञा संस्कर्तुमर्हसि ॥२७॥ अन्यथा विमतिर्भूपो युक्तायुक्तानभिज्ञकः । अन्यथाऽन्यः प्रणेयः स्यान्मिध्याज्ञानलवोद्धतैः ॥२३॥ कुलानुपालने चायं महान्तं यत्नमाचरेत् । अज्ञातकुलधर्मो हि दुर्वृत्तैर्दूषयेत् कुलम् ॥२७४॥ तथायमात्मरक्षायां सदा यत्नपरो भवेत् । रक्षितं हि भवेत् सर्व नृपणात्मनि रक्षिते ॥२५॥ अपायो हि सपत्नेभ्यो नृपस्यारक्षितात्मनः । आत्मानुजीविवर्गाच्च क्रुद्धलुब्धविमानितात्" ॥२७६॥ "तस्माद रसदतीक्ष्णादीनपायानरियोजितान् । परिहत्य निरिष्टे: स्वं प्रयत्नेन पालयेत् ॥२७॥ स्यात् समञ्जसवृत्तित्वमप्यस्यात्माभिरक्षणे । असमञ्जसवृत्तौ हि निजैरप्यभिभूयते ॥२७८॥ जो राज्यसे विरक्त हो रहे हैं और आये हुए लौकान्तिक देव जिन्हें बार-बार प्रबोधित कर रहे हैं ऐसे उन भगवान्को यह निष्क्रान्त नामकी क्रिया कही जाती है ॥२६७॥ वे समस्त राजाओंकी साक्षीपूर्वक अपने बड़े पुत्रके लिए राज्य सौंप देते हैं और सन्तान-पालन करनेके लिए उसे इस प्रकार शिक्षा देते हैं ॥२६८॥ हे पुत्र, तुझे प्रजाके पालन करनेमें न्यायरूप धनसे मुक्त होना चाहिए अर्थात् तू न्यायको ही धन समझ, क्योंकि न्यायपूर्वक पालन की हुई प्रजा मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली कामधेनु गायके समान मानी गयी है ॥२६९।। हे पुत्र, तू इसे ही राजवृत्त अर्थात् राजाओंका कर्तव्य समझ कि न्यायपूर्वक धन कमाना, उसकी वृद्धि करना, रक्षा करना तथा तीर्थस्थान अथवा योग्य पात्रोंका देना ॥२७०॥ प्रजाका पालन करनेके लिए सबसे अपनी बुद्धिकी रक्षा करनी चाहिए, इस लोक और परलोक दोनों लोकसम्बन्धी पदार्थों के विषयमें हित तथा अहितका ज्ञान होना ही मति कहलाती है ॥२७१। इसलिए वृद्ध मनुष्योंकी संगतिरूपी सम्पदासे इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर तुम धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्रके ज्ञानसे अपनी बुद्धि को सुसंस्कृत बनानेके योग्य हो अर्थात् बुद्धिके अच्छे संस्कार बनाओ ॥२७२॥ यदि राजा इससे विपरीत प्रवृत्ति करेगा तो वह हित तथा अहितका जानकार न होनेसे बुद्धिभ्रष्ट हो जावेगा और ऐसी दशामें वह मिथ्याज्ञानके अंश मात्रसे उद्धत हुए अन्य कुमार्गगामियोंके वश हो जावेगा ॥२७३॥ राजाओंको अपने कुलकी मर्यादा पालन करने के लिए बहुत भारी प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि जिसे अपनी कुलमर्यादाका ज्ञान नहीं है वह अपने दुराचारोंसे कुलको दूषित कर सकता है ॥२७४॥ इसके सिवाय राजाको अपनी रक्षा करनेमें भी सदा यत्न करते रहना चाहिए क्योंकि अपने आपके सुरक्षित रहनेपर हो अन्य सब कुछ सुरक्षित रह सकता है ।।२७५॥ जिसने अपने आपकी रक्षा नहीं की है ऐसे राजाका शत्रुओंसे तथा क्रोधी, लोभी और अपमानित हुए अपने ही सेवकोंसे विनाश हो जाता है ॥२७६।। इसलिए शत्रुओंके द्वारा किये हुए प्रारम्भमें सरल किन्तु फलकालमें कठिन अपायोंका परिहार कर अपने इष्ट वर्गोके द्वारा प्रयत्नपूर्वक अपनी रक्षा करनी चाहिए ॥२७७॥ इसके सिवाय १ प्रजापती निमित्तम् । २ धनस्य । ३ पात्रे। ४ निजबुद्धिरक्षणम् । ५ ततः कारणात् । ६ नीतिशास्त्र । ७ भूयो इ०, ५०, स०। ८ वश्यः । ९ दायादेभ्यः शत्रुभ्यो वा। १० तिरस्कृतात् । ११ तस्मात् कारणात् । १२ रसतामास्वादं कुर्वतामकटुकादीन् रसनकाले अनुभवनकाले स्वादुरसप्रदान् विपाककाले कटुकानित्यर्थः । १३ आत्मरक्षानिमित्तम् । - त्मादिरक्षणे अ०, ५०, द० । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व २६५ समञ्जसत्वमस्येष्टं प्रजास्वविषमेक्षिता। आनृशंस्यमवाग्दण्डपारुष्यादिविशेषितम् ॥२७९॥ ततो जितारिषड्वर्गः स्वां वृत्ति पालयनिमाम् । स्वराज्ये सुस्थितो राजा प्रेत्य चेह च नन्दति ॥२८०॥ समं समञ्जसत्वेन कुलमत्यात्मपालनम् । प्रजानुपालनं चेति प्रोक्ता वृत्तिर्महीक्षिताम् ॥२८॥ 'ततः क्षात्रमिमं धर्म यथोक्तमनुपालयन् । स्थितो राज्ये यशो धर्म विजयं च त्वमाप्नुहि ॥२८२॥ प्रशान्तधीः समुत्पन्नबोधिरित्यनुशिष्य तम् । परिनिष्क्रान्तिकल्याणे सुरेन्द्ररमिपूजितः ॥२८३॥ महादानमथो दत्वा साम्राज्यपदमुत्सृजन् । स राजराजो राजर्षिनिष्क्रामति गृहाद् वनम् ॥२८॥ धौरेयैः पार्थिवैः किंचित् समुक्षिप्तां महीतलात् । स्कन्धाधिरोपितां भूयः सुरेन्द्र तिनिर्भरैः ॥२५॥ आरूढः शिबिकां दिव्यां दीप्तरत्नविनिर्मिताम् । विमानवसति भानोरिवाऽऽयातां महीतलम् ॥२८६॥ पुरस्सरेषु निःशेषनिरुद्धव्योमवीथिषु । सुरासुरेषु तन्वत्सु संदिग्धार्कप्रभ नभः ॥२७॥ अनूत्थितेषु संप्रीत्या पार्थिवेषु ससंभ्रमम् । कुमारमग्रतः कृत्वा प्राप्त राज्यं नवोदयम् ॥२८॥ अनुयायिनि तत्त्यागादिव मन्दीमवद्युतौ । निधीनां सह रत्नानां संदोहेऽभ्यर्णसंक्षये ॥२८९॥ राजाको अपनी तथा प्रजाको रक्षा करनेमें समंजसवृत्ति अर्थात् पक्षपातरहित होना चाहिए क्योंकि जो राजा असमंजसवृत्ति होता है, वह अपने ही लोगोंके द्वारा अपमानित होने लगता है ॥२७८॥ समस्त प्रजाको समान रूपसे देखना अर्थात् किसीके साथ पक्षपात नहीं करना ही राजाका समंजसत्व गुण कहलाता है। उस समंजसत्व गुणमें क्रूरता या घातकपना नहीं होना चाहिए और न कठोर वचन तथा दण्डकी कठिनता ही होनी चाहिए ॥२७९॥ इस प्रकार जो राजा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह अन्तरंग शत्रुओंको जीतकर अपनी इस वृत्तिका पालन करता हुआ स्वकीय राज्यमें स्थिर रहता है वह इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकोंमें समृद्धिवान् होता है ॥२८०॥ पक्षपातरहित होकर सबको एक समान देखना, कुलकी समर्यादाकी रक्षा करना, बुद्धिकी रक्षा करना, अपनी रक्षा करना और प्रजाका पालन करना यह सब राजाओंकी वृत्ति कहलाती है ॥२८१॥ इसलिए हे पुत्र, ऊपर कहे हुए इस क्षात्रधर्मकी रक्षा करता हुआ तू राज्यमें स्थिर रहकर अपना यश, धर्म और विजय प्राप्त कर ॥२८२॥ जिनकी बुद्धि अत्यन्त शान्त है और जिन्हें भेदविज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे वे भगवान् ऊपर लिखे अनुसार पुत्रको शिक्षा देकर दीक्षाकल्याणके लिए इन्द्रोंके द्वारा पूजित होते हैं ॥२८३॥ अथानन्तर महादान देकर साम्राज्यपदको छोड़ते हुए वे राजाधिराज राजर्षि घरसे वनके लिए निकलते हैं ॥२८४॥ प्रथम ही मुख्य-मुख्य राजा लोग जिसे पृथिवीतलसे उठाकर कन्धेपर रखकर कुछ दूर ले जाते हैं और फिर भक्तिसे भरे हुए देव लोग जिसे अपने कन्धोंपर रखते हैं, जो देदीप्यमान रत्नोंसे बनी हुई है और जो पृथिवीतलपर आये हुए सूर्यके विमानके समान जान पड़ती है ऐसी दिव्य पालकीपर वे भगवान् सवार होते हैं ॥२८५-२८६॥ जिस समय समस्त आकाश-मार्गको रोकते हुए और अपनी कान्तिसे आकाशमें सूर्यकी प्रभाका सन्देह फैलाते हुए सुर और असुर आगे चलते हैं, जिसे राज्य प्राप्त हुआ है और जिसका नवीन उदय प्रकट हुआ है ऐसे कुमारको आगे कर बड़े प्रेम और सम्भ्रमके साथ जब समस्त राजा लोग भगवान्के समीप खड़े होते हैं, जिनका भगवान्के समीप रहना छूट चुका है और भगवान्के छोड़ देनेसे ही मानो जिनकी कान्ति मन्द पड़ गयी है ऐसे निधि और रत्नोंका समूह जब उनके पीछे-पीछे आता है, जिसने वायुके वेगसे उड़ती हुई ध्वजाओंके समूहसे आकाशको व्याप्त १ समदशित्वम् । २ अनृशंसस्य भावः । अघातुकत्वमित्यर्थः । ३ भवान्तरे । ४ ततः कारणात् । ५ स्वमाप्नुहि प०, इ० । ६ पुत्रम् । ७ दीक्षावनम् । ८ अन्तःस्थितेषु ल.1 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आदिपुराणम् सैन्ये च कृतसन्नाहे शनैः समनुगच्छति । मरुद्धतध्वजवातनिरुद्धपवनाध्वनि ॥२०॥ धनत्सु सुरतूर्येषु नृत्यत्यप्परसां गगे। गायन्तीषु कलवाणं किंनरीषु च मङ्गलम् ॥२९१॥ भगवानभिनिष्क्रान्तः पुण्ये' कस्मिंश्चिदाश्रम । स्थितः शिलातले स्वस्मिश्चेतसीवातिविस्तृते ॥२६२॥ निर्वाणदीक्षयात्मानं योजयन्नद्भुतोदयः । सुराधिपैः कृतानन्दमर्चितः परयेज्यया ॥२९३॥ योऽत्र गोषो विधियुक्तः केशपूजादिलक्षणः । प्रागेव स तु निर्णीतो निष्क्रान्तौ वृषभेशिनः ॥२९४॥ इति निष्क्रान्तिः। परिनिष्क्रान्तिरेषा स्यात् क्रिया निर्वाणदायिनी । अतः परं भवेदस्य मुमुक्षोर्योगसंमहः ॥२६॥ यदायं त्यक्तबाह्यान्तस्संगो 'निःसंगमाचरेत् । सुदुश्चरं तपोयोगं जिनकल्पमनुत्तरम् ॥२६६॥ तदाऽस्य क्षपकश्रेणीमारूढस्योचिते पदे । शुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धघातिकर्मघनाटवेः ॥२९७॥ प्रादुर्भवति निःशेषबहिरन्तर्मलक्षयात । केवलाख्यं परं ज्योतिर्लोकालोकप्रकाशकम् ॥२९८॥ तदेतसिद्धसाध्यस्य प्रापुषः परमं महः । योगसंमह इत्याख्यामनुधत्ते क्रियान्तरम् ॥२६॥ ज्ञानध्यानसमायोगो योगो यस्तत्कृतो महः । महिमातिशयः सोऽयमाम्नातो योगसंमहः ॥३०॥ इति योगसंमहः । ततोऽस्य केवलोत्पत्तौ पूजितस्यामरेश्वरैः । बहिविभूतिरुद्धता प्रातिहार्यादिलक्षणा ॥३०१॥ कर लिया है ऐसी सेना अपनी विशेष रचना बनाकर जिस समय धीरे-धीरे उनके पीछे चलने लगती है तथा जिस समय देवोंके तुरही आदि बाजे बजते हैं, अप्सराओंका समूह नृत्य करता है और किन्नरी देवियाँ मनोहर शब्दोंसे मंगलगीत गाती हैं, उस समय वे भगवान् किसी पवित्र आश्रममें अपने चित्तके समान विस्तृत शिलातलपर विराजमान होकर दीक्षा लेते हैं। इस प्रकार जिनका उदय आश्चर्य करनेवाला है और जो निर्वाणदीक्षाके द्वारा अपने आपको युक्त कर रहे हैं ऐसे भगवान्की इन्द्र लोग उत्कृष्ट सामग्रीके द्वारा आनन्दके साथ पूजा करते हैं ॥२८७-२९३॥ इस क्रियामें केश लोंच करना, भगवान्की पूजा करना आदि जो भी कार्य अवशिष्ट रह गया है उस सबका भगवान् वृषभदेवकी दीक्षाके समय वर्णन किया जा चुका है ॥२९४। इस प्रकार यह अड़तालीसवीं निष्क्रान्ति क्रिया है । यह निर्वाणको देनेवाली परिनिष्क्रान्ति नामकी क्रिया है। अब इसके आगे मोक्षकी इच्छा करनेवाले उन भगवान्के योगसंमह नामकी क्रिया होती है ॥२९५॥ जब वे भगवान् बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहको छोड़कर निष्परिग्रह अवस्थाको प्राप्त होते हैं और अत्यन्त कठिन तथा सर्वश्रेष्ठ जिनकल्प नामके तपोयोगको धारण करते हैं तब क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ हुए और योग्य पद अर्थात् गुणस्थानमें जाकर शुक्लध्यानरूपी अग्निसे घातियाकर्मरूपी सघन वनको जला देनेवाले उन भगवान्के समस्त बाह्य और अन्तरंग मलके नष्ट हो जानेसे लोक तथा अलोकको प्रकाशित करनेवाली केवलज्ञान नामकी उत्कृष्ट ज्योति प्रकट होती है ॥२९६२९८॥ इस प्रकार जिनके समस्त कार्य सिद्ध हो चुके हैं और जिन्हें उत्कृष्ट तेज प्राप्त हुआ है ऐसे भगवान्के यह एक भिन्न किया होती है जो कि 'योगसम्मह' इस नामको धारण करती है ॥२९९|| ज्ञान और ध्यानके संयोगको योग कहते हैं और उस योगसे जो अतिशय तेज उत्पन्न होता है वह योगसम्मह कहलाता है ॥३००॥ यह योगसम्मह नामकी उनचासवीं किया है । ___ तदनन्तर केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर इन्द्रोंने जिनकी पूजा की है ऐसे उन भगवान्के १ पवित्रे। २ प्रदेशे। ३ विधिर्मुक्त-द०, ल०। ४ नैःसंग्य-द०, ल०, प०। ५ सुदुर्धरं प०, ल०, ८०। ६ गुणस्थाने । ७ गतवतः । प्राप्तुषः द० । प्रायुषः ल०। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व २६७ प्रातिहार्याष्टकं दिव्यं गगो द्वादशधोदितः । स्तूपहावली सालवलयः केतुमालिका ॥३०२॥ इत्यादिकामिमां भूतिमद्भुतामुपबिभ्रतः । स्यादाहन्त्यमिति ख्यातं क्रियान्तरमनन्तरम् ॥३०३॥ ___ इति आर्हन्त्यक्रिया। विहारस्तु प्रतीतार्थो धर्मचक्रपुरस्सरः । प्रपञ्चितश्च प्रागेव ततो न पुनरुच्यते ॥३०॥ इति विहारक्रिया। ततः परार्थसम्पत्त्यै धर्ममार्गोपदेशने । कृततीर्थविहारस्य योगत्यागः परा क्रिया ॥३०५॥ विहारस्योपसंहारः संहृतिश्च सभावनेः । वृत्तिश्च योगरोधार्था योगत्यागः स उच्यते ॥३०६॥ यच्च दण्डकपाटादिप्रतीतार्थ क्रियान्तरम् । तदन्तर्भूतमेवादस्ततो न पृथगुच्यते ॥३०७॥ इति योगत्यागक्रिया। ततो निरुद्धनिःशेषयोगस्यास्य जिनेशिनः । प्राप्तशैलेश्यवस्थस्य प्रक्षीणा घातिकर्मणः ॥३०८॥ क्रियामनिवृतिर्नाम परनिर्वाणमापुषः । स्वभावजनितामूर्ध्व व्रज्यामास्कन्दतो मता ॥३०९॥ इति अग्रनिर्वृतिः । इति निर्वाणपर्यन्ताः क्रिया गर्भादिकाः सदा । मव्यात्मभिरनुष्ठेयास्त्रिपञ्चाशत्समुच्चयात् ॥३१०॥ यथोक्तविधिनैताः स्युरनुष्ठेया द्विजन्ममिः । योऽप्यत्रान्तर्गतो भेदस्तं वच्म्युत्तरपर्वणि ॥३११॥ प्रातिहार्य आदि बाह्य विभूति प्रकट होती है ।।३०१॥ इस प्रकार आठ प्रातिहार्य, बारह दिव्य सभा, स्तूप, मकानोंकी पंक्तियाँ, कोटका घेरा और पताकाओंकी पंक्ति इत्यादि अद्भुत विभूतिको धारण करनेवाले उन भगवान्के आर्हन्त्य नामकी एक भिन्न क्रिया कही गयी है ॥३०२३०३।। यह आर्हन्त्य नामकी पचासवीं क्रिया है । धर्मचक्रको आगे कर जो भगवान्का विहार होता है वह विहार नामकी क्रिया है। यह किया अत्यन्त प्रसिद्ध है और पहले ही इसका विस्तारके साथ निरूपण किया जा चुका है इसलिए फिरसे यहाँ नहीं कहते हैं ॥३०४॥ यह इक्यावनवीं विहार किया है। .. तदनन्तर धर्ममार्गके उपदेशके द्वारा परोपकार करनेके लिए जिन्होंने तीर्थ विहार किया है ऐसे भगवान्के योगत्याग नामकी उत्कृष्ट किया होती है ॥३०५॥ जिसमें विहार करना समाप्त हो जावे, सभाभूमि ( समवसरण ) विघट जावे, और योगनिरोध करनेके लिए अपनी वृत्ति करनी पड़े उसे योगत्याग कहते हैं ॥३०६॥ दण्ड, कपाट आदि रूपसे प्रसिद्ध जो केवलिसमुद्घात नामकी किया है वह इसो योगत्याग कियामें अन्तर्भूत हो जाती है इसलिए अलगसे उसका वर्णन नहीं किया है ।।३०७।। यह बावनवीं योगत्याग नामकी किया है । तदनन्तर जिनके समस्त योगोंका निरोध हो चुका है, जो जिनोंके स्वामी हैं, जिन्हें शीलके ईश्वरपनेकी अवस्था प्राप्त हुई है, जिनके अघातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं जो स्वभावसे उत्पन्न हुई ऊर्ध्वगतिको प्राप्त हुए हैं और जो उत्कृष्ट मोक्षस्थानपर पहुँच गये हैं ऐसे भगवान्के अग्रनिर्वृति नामकी किया मानी गयी है ॥३०८-३०९॥ यह तिरेपनवीं अग्रनिर्वृति नामकी किया है। इस प्रकार गर्भसे लेकर निर्वाण पर्यन्त जो सब मिलाकर तिरेपन क्रियाएँ हैं भव्य पुरुषोंको सदा उनका पालन करना चाहिए ॥३१०॥ द्विज लोगोंको ऊपर कही हुई विधिके अनुसार इन क्रियाओंका पालन करना चाहिए। इन क्रियाओंके जो भी अन्तर्गत भेद १ धृतमार्गोप-प० । २ यत्र दण्ड-प०, ल०। ३ योगत्यागानन्तर्भूतम् । ४ शैलेशितावस्थस्य । ५ -मायुषः अ०, इ०, ५०, स०, द० । ६ ऊर्ध्वगमनम् । ७ गच्छतः ८ समुच्चयाः ल० । ९ त्रिपञ्चाशक्रियासु । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् शार्दूलविक्रीडितम् इत्युच्चैर्भरताधिपः स्वसमये संस्थापयन् तान् द्विजान् संप्रोवाच कृती सतां बहुमता गर्भान्वयोत्थाः क्रियाः । गर्भाद्याः परिनिर्वृतिप्रगमनप्रान्तास्त्रिपञ्चाशतं प्रारंभेऽथ पुनः प्रवक्तमुचिता दीक्षान्वयाख्याः क्रियाः ॥३१२॥ यस्वताः द्विजसत्तमैरभिमता गर्भादिकाः सक्रियाः श्रुत्वा सम्यगधीत्यभावितमतिजैनेश्वरे दर्शने । सामग्रीमुचितां स्वतश्च परतः सम्पादयन्नाचरेद् भव्यात्मा स समग्रवास्त्रिजगति चूडामणित्वं मजेत् ॥३१३॥ इत्याचे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे द्विजोत्पत्ति-गर्भान्वयवर्णनं नाम अष्टत्रिंशत्तमं पर्व ॥३८॥ हैं उनका आगेके पर्वमें निरूपण करेंगे ॥३११॥ इस प्रकार पुण्यवान् भरत महाराजने उन द्विजोंको अपने धर्ममें स्थापित करते हुए गर्भसे लेकर निर्वाणगमन पर्यन्तकी तिरेपन गर्भान्वय कियाएँ कहीं और उनके बाद कहने योग्य जो दीक्षान्वय कियाएँ थीं उनका कहना प्रारम्भ किया ॥३१२॥ उत्तम-उत्तम द्विजोंको माननीय इन गर्भाधानादि समीचीन क्रियाओंको सुनकर तथा अच्छी तरह पढ़कर जो जिनेन्द्र भगवान्के दर्शनमें अपनी बुद्धि लगाता है और योग्य सामग्री प्राप्त कर दूसरोंसे आचरण कराता हुआ स्वयं भी इनका आचरण करता है वह भव्य पुरुष पूर्ण ज्ञानी होकर तीनों लोकोंके चूड़ामणिपनेको प्राप्त होता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर तीनों लोकोंके अग्रभागपर विराजमान होता है ॥३१३।।। इस प्रकार आप नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें द्विजोंको उत्पत्ति तथा गर्भान्वय क्रियाओंका वर्णन करनेवाला अड़तीसवां पर्व समाप्त हुआ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व अथाब्रवीद् द्विजन्मेभ्यो 'मनुदीक्षान्त्रयक्रियाः । यास्ता निःश्रेयसोदर्काश्चित्वारिंशदयाष्ट च ॥ १ ॥ श्रूयतां भो द्विजन्मानो वक्ष्ये नैःश्रेयसीः क्रियाः । अवतारादिनिर्वाणपर्यन्ता दीक्षितोचिताः ॥२॥ "ताविष्करणं दीक्षा द्विधाम्नातं व तद्व्रतम् । महच्चाणु च दोषाणां " कृत्स्नदेशनिवृत्तितः ॥३॥ महाव्रतं भवेत् कृत्स्नहिंसाद्यागोविवर्जितम् । विरतिः स्थूलहिंसादिदोषेभ्योऽणुव्रतं मतम् ॥४॥ दुन्मुखस्य या वृत्तिः पुंसो दीक्षेव्यसौ मता । तामन्वित क्रिया या तु सा स्याद् दीक्षान्वया क्रिया ॥ ५॥ तस्यास्तु भेदसङ्ख्यानं प्राग्निर्णीतं षडष्टकम् । क्रियते तद्विकल्पानामधुना लक्ष्मवर्णनम् ॥६॥ तत्रावतारसंज्ञा स्यादाद्या दीक्षान्वयक्रिया । मिथ्यात्वदूषिते मन्ये सन्मार्गग्रहणोन्मुखे ॥७॥ स तु संसृत्य योगीन्द्रं युक्ताचारं महाधियम् । गृहस्थाचार्यमथवा पृच्छतीति विचक्षणः ॥ ८ ॥ ब्रूत यूयं महाप्रज्ञा " मह्यं धर्ममनाविलम् " । प्रायो मतानि तीर्थ्यानां हेयानि प्रतिभान्ति में ॥ ९ ॥ श्रतान्यपि हि वाक्यानि संमतानि क्रियाविधौ । न विचारसहिष्णूनि दुःप्रणीतानि तान्यपि ॥१०॥ 93 ५ अथानन्तर - सोलहवें मनु महाराज भरत उन द्विजोंके लिए मोक्ष - फल देनेवाली अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ कहने लगे || १ || वे बोले कि हे द्विजो, मैं अवतारसे लेकर निर्वाण पर्यन्तकी मोक्ष देनेवाली दीक्षान्वय क्रियाओंको कहता हूँ सो तुम लोग सुनो ॥२॥ व्रतोंका धारण करना दीक्षा है और वे व्रत हिंसादि दोषोंके पूर्ण तथा एकदेश त्याग करनेकी अपेक्षा महाव्रत और अणुव्रतके भेदसे दो प्रकारके माने गये हैं || ३ || सूक्ष्म अथवा स्थूल - सभी प्रकारके हिंसादि पापोंका त्याग करना महाव्रत कहलाता है और स्थूल हिंसादि दोषोंसे निवृत्त होनेको अणुव्रत कहते हैं ||४|| उन व्रतोंके ग्रहण करनेके लिए सन्मुख पुरुषकी जो प्रवृत्ति है उसे दीक्षा कहते हैं और उस दीक्षासे सम्बन्ध रखनेवाली जो क्रियाएँ हैं वे दीक्षान्वय क्रियाएँ कहलाती हैं || ५ | उस दीक्षान्वय कियाके भेद अड़तालीस हैं जिनका कि निर्णय पहले किया जा चुका है । अब इस समय उन भेदोंके लक्षणोंका वर्णन किया जाता है || ६ || उन दीक्षान्वय क्रियाओं में पहली अवतार नामकी क्रिया है जब मिथ्यात्वसे दूषित हुआ कोई भव्य पुरुष समीचीन मार्गको ग्रहण करनेके सन्मुख होता है तब यह क्रिया की जाती है ॥७॥ प्रथम ही वह चतुर भव्य पुरुष योग्य आचरणवाले महाबुद्धिमान् मुनिराजके समीप जाकर अथवा किसी गृहस्थाचा के समीप पहुँचकर उनसे इस प्रकार पूछता है कि ||८|| महाबुद्धिमन् आप मेरे लिए निर्दोष धर्म कहिए क्योंकि मुझे अन्य लोगोंके मत प्रायः दुष्ट मालूम होते हैं ॥ ९ ॥ धार्मिक क्रियाओंके करनेमें जो वेदोंके वाक्य माने गये हैं वे भी विचारको सहन नहीं कर सकते अर्थात् विचार करनेपर वे निःसार जान पड़ते हैं, वास्तव में वे वाक्य दुष्ट पुरुषोंके बनाये हुए १ भरतः । २ निःश्रेयसं मोक्ष उदर्कम् उत्तरफलं यासु ताः । ३ मोक्षहेतून् । निःश्रेयसीः ल० । ४ व्रताधिकरणं प०, द०, ल० । ५ सकलनिवृत्त्येकदेशनिवृत्तितः । ६ तन्महाणुव्रताभिमुखस्य । ७ दीक्षाम् । ८ अनुगता । ९ षण्णामष्टकं षडष्टकम् अष्टोत्तरचत्वारिंशत् इत्यर्थः । १० महाप्राज्ञा ल० द० । ११ निर्दोषम् । १२ हेयानि प्रतिभाति माम् इ०, स० अ० । हतानि प्रतिभाति माम् ल०, ६० । १३ वेदसम्बन्धीनि । 'श्रुतिः स्त्री वेद आम्नातः' इत्यभिधानात् । १४ दुष्टैः कथितानि । १५ प्रसिद्धान्यपि । तानि वै ल० । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० आदिपुराणम् * इति पृष्टवते तस्मै व्याचष्टे स' विदांवरः । तथ्यं मुक्तिपथं धर्म विचारपरिनिष्ठितम् ॥११॥ विद्धि सत्योद्यमाप्तीयं वचः श्रेयोऽनुशासनम् । अनाप्तोपज्ञमन्यत्तु वची वाङ्मलमेव तत् ॥१२॥ विरागः सर्ववित् सार्वः सूक्तसूनृतपूतवाक् । आप्तः सन्मार्गदेशी यस्तदाभासास्ततोऽपरे ॥१३॥ रूपतेजोगुणस्थानध्यानलक्ष्यनुवर्तिभिः । काङक्ष्यता विजयज्ञानदृष्टिवीर्यसुखामृतैः ॥१४॥ प्रकृष्टो यो गुणैरेभिश्चक्रिकल्पा धिपादिषु । स आप्तः स च सर्वज्ञः स लोकपरमेश्वरः ॥१५॥ ततः श्रेयोऽर्थिना श्रेयं मतमाप्तप्रणेतृकम् । अव्याहतमनालोढपूर्व सर्वज्ञमानिभिः ॥१६॥ हेत्वाज्ञायुक्तमद्वैत दीतं गम्भीरशासनम् । अल्पाक्षरमसन्दिग्धं वाक्यं स्वायम्भुवं विदुः ॥१॥ "इतश्च तत्प्रमाणं स्यात् श्रुतमन्त्रक्रियादयः । पदार्थाः सुस्थितास्तत्र” यतो नान्यमतोचिता ।।१८॥ यथाक्रममतो मस्तान्पदार्थान् प्रपञ्चतः । यैः सनिःकृष्यमाणाः स्युर्दुःस्थिताः परसूनयः ॥१६॥ वेदः पुराणं स्मृतयः चारित्रं च क्रियाविधिः । मन्त्राश्च देवतालिङ्गमाहाराद्याश्च शुद्धयः ॥२०॥ एतेऽर्था" यत्र तत्वेन प्रणीताः परमर्षिणा । स धर्मः स च सन्मार्गः तदाभासाः स्युरन्यथा ॥२१॥ ११ हैं ॥१०॥ इस प्रकार पूछनेवाले उस भव्य पुरुषके लिए महाज्ञानी मुनिराज अथवा गृहस्थाचार्य सत्य, विचारसे परिपूर्ण तथा मोक्षके मार्गस्वरूप धर्मका व्याख्यान करते हैं ॥११॥ वे कहते हैं - हे भव्य, मोक्षका उपदेश देनेवाले आप्तके वचनको ही तू सत्य वचन मान और इसके विपरोत जो वचन आप्तका कहा हुआ नहीं है उसे केवल वाणीका मल ही समझ ॥१२॥ जो वीतराग है, सर्वज्ञ है, सबका कल्याण करनेवाला है, जिसके वचन समीचीन, सत्य और पवित्र हैं, तथा जो उत्कृष्ट – मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाला है वह आप्त कहलाता है, इनसे भिन्न सभी आप्ताभास हैं अर्थात् आप्त न होनेपर भी आप्तके समान मालूम होते हैं ॥१३॥ जो रूप, तेज, गुणस्थान, ध्यान, लक्षण, ऋद्धि, दान, सुन्दरता, विजय, ज्ञान, दृष्टि, वीर्य और सुखामृत इन गुणोंसे चक्रवर्ती तथा इन्द्रादिकोंसे भी उत्कृष्ट है वही आप्त है, सर्वज्ञ है और समस्त लोकोंका परमेश्वर है ॥१४-१५।। इसलिए जो आप्तका कहा हुआ है, जिसका कोई खण्डन नहीं कर सकता और अपने-आपको सर्वज्ञ माननेवाले पुरुष जिसका स्पर्श भी नहीं कर सके हैं ऐसा जैन मत है। कल्याणकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंके लिए कल्याणकारण है ।१६।। जो युक्ति तथा आगमसे युक्त है, अनुपम है, देदीप्यमान है, जिसका शासन गम्भीर है, जो अल्पाक्षरवाला है और जिसके पढ़नेसे किसी प्रकारका सन्देह नहीं होता ऐसा वाक्य ही अरहन्त भगवान्का कहा हुआ कहलाता है ।।१७।। चूंकि अरहन्तदेवके मतमें अन्य मतोंमें नहीं पाये जानेवाले शास्त्र, मन्त्र तथा क्रिया आदि पदार्थों का अच्छी तरह निरूपण किया गया है इसलिए वह प्रमाणभूत हैं ॥१८॥ हे वत्स, मैं यथाक्रमसे विस्तारके साथ अपदार्थोंका निरूपण करता हूँ क्योंकि उन पदार्थों के समीप आनेपर अन्य मतोंके वचन दुष्ट जान पड़ते हैं ॥१९।। जिसमें वेद, पुराण, स्मृति, चारित्र, क्रियाओंकी विधि, मन्त्र, देवता, लिंग और आहार आदिकी शुद्धि इन पदार्थोंका यथार्थ रीतिसे परमर्षियोंने निरूपण किया है वही धर्म है और वही समीचीन मार्ग है । इसके १ योगीन्द्रः । २ सत्यवचनम् । ३ एवंविधलक्षणादन्ये । ४ लक्ष्मद्धिदत्तिभिः अ०, प०, द०, स०, इ०, ल० । ५ कान्तता अ०, ५०, इ०, स०, द०, ल०। आदरणीयता। ६ इन्द्र। ७ ततः कारणात् । ८ पूर्वस्मिन्ननालीढमस्पृष्टम् । ९ युक्त्यागमपरमागमाभ्यां कलितः । १० अद्वितीयम् । ११ आप्तवचनतः । १२ मतम् । १३ मते । १४ विस्तरतः। १५ पदार्थः । १६ निघर्षणं क्रियमाणाः । समीपं गम्यमाना बा। १७ कुतीर्थ्यसूचकाः । १८ पदार्थाः । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व २७१ श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशाङ्गमकल्मषम् । हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तवाक् ॥२२॥ पुराणं धर्मशास्त्रं च तत्स्याद् वधनिषेधि यत् । वधोपदेशि यत्तत्तु ज्ञेय धूर्तप्रणेतृकम् ॥२३॥ सावद्यविरतिवृत्तमार्यषट्कर्मलक्षणम् । चातुराश्रम्यवृत्तं तु परोक्तमसदासा ॥२४॥ क्रियागर्भादिका यास्ता निर्वाणान्ताः परोदिताः । आधानादिश्मशानान्ता न ताः सम्यक्रिया मताः॥२५॥ मन्त्रास्त एव धाः स्युर्य क्रियासु नियोजिताः । दुर्मन्त्रास्तेऽत्र विज्ञेया ये युक्ताः प्राणिमारणे ॥२६॥ विश्वेश्वरादयो ज्ञेया देवताः शान्तिहेतवः । ऋरास्तु देवता हेया यासां स्याद् वृत्तिरामिषैः ॥२७॥ निर्वाणसाधनं यत् स्यात्तल्लिङ्गं जिनदेशितम् । एणाजिनादिचिहूं तु कुलिङ्गं तद्धि वैकृतम् ॥२८॥ स्यान्निरामिषमोजिस्वं शुद्धिराहारगोचरा । सर्वकषास्तु ते ज्ञेया ये स्युरामिषभोजिनः ॥२६॥ अहिंसाशुद्धिरेषां स्याद् ये निःसङ्गा दयालवः । रताः पशुवधे ये तु न ते शुद्धा दुराशयाः ॥३०॥ कामशुद्धिर्मता तेषां विकामा ये जितेन्द्रियाः । संतुष्टाश्च स्वदारेषु शेषाः सर्वे विडम्बकाः ॥३१॥ इति शुद्धं मतं यस्य विचारपरिनिष्टितम् । स एवाप्तस्तदुन्नीतो धर्मः श्रेयो हितार्थिनाम् ॥३२॥ सिवाय सब धर्माभास तथा मार्गाभास हैं ।।२०-२१॥ जिसके बारह अंग हैं, जो निर्दोष है और जिसमें श्रेष्ठ आचरणोंका विधान है ऐसा शास्त्र हो वेद कहलाता है, जो हिंसाका उपदेश देनेवाला वाक्य है वह वेद नहीं है उसे तो यमराजका वाक्य ही समझना चाहिए ॥२२॥ पुराण और धर्मशास्त्र भी वही हो सकता है जो हिंसाका निषेध करनेवाला है। इसके विपरीत जो पुराण अथवा धर्मशास्त्र हिंसाका उपदेश देते हैं उन्हें धूर्तीका बनाया हुआ समझना चाहिए ।।२३।। पापारम्भके कार्योंसे विरक्त होना चारित्र कहलाता है। वह चारित्र आर्य पुरुषोंके करने योग्य देवपूजा आदि छह कर्मरूप है। इसके सिवाय अन्य लोगोंने जो ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमोंका चारित्र निरूपण किया है वह वास्तवमें बुरा है ॥२४॥ कियाएं जो गर्भाधानसे लेकर निर्वाणपर्यन्त पहले कही जा चुकी हैं वे ही समझनी चाहिए, इनके सिवाय गर्भसे मरणपर्यन्त जो कियाएं अन्य लोगोंने कही हैं वे ठोक नहीं मानी जा सकतीं ॥२५॥ जो गर्भाधानादि कियाओंमें उपयुक्त होते हैं वे ही मन्त्र धार्मिक मन्त्र कहलाते हैं किन्तु जो प्राणियोंकी हिंसा करने में प्रयुक्त होते हैं उन्हें यहाँ दुर्मन्त्र अर्थात् खोटे मन्त्र समझना चाहिए ॥२६॥ शान्तिको करनेवाले तीर्थकर आदि ही देवता हैं। इनके सिवाय जिनकी मांससे वृत्ति है वे दुष्ट देवता छोड़ने योग्य हैं ॥२७।। जो साक्षात् मोक्षका कारण है ऐसा जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ निर्ग्रन्थपना ही सच्चा लिङ्ग है । इसके सिवाय मृगचर्म आदिको चिह्न बनाना यह कुलिङ्गियोंका बनाया हुआ कुलिङ्ग है ॥२८॥ मांसरहित भोजन करना आहार-विषयक शुद्धि कहलाती है । जो मांसभोजी हैं उन्हें सर्वघाती समझना चाहिए ॥२९॥ अहिंसा शुद्धि उनके होती है जो परिग्रहरहित हैं और दयालु हैं, परन्तु जो पशुओंकी हिंसा करनेमें तत्पर रहते हैं वे दुष्ट अभिप्रायवाले शुद्ध नहीं हैं ॥३०॥ जो कामरहित जितेन्द्रिय मुनि हैं उन्हींके कामशुद्धि मानी जाती है अथवा जो गृहस्थ अपनी स्त्रियोंमें सन्तोष रखते हैं उनके भी कामशुद्धि मानी जाती है परन्तु इनके सिवाय जो अन्य लोग हैं वे केवल विडम्बना करनेवाले हैं ॥३१॥ इस प्रकार विचार करनेपर जिसका मत शद्ध हो वही आप्त कहला सकता है और उसीके द्वारा कहा हुआ धर्म हित चाहनेवाले लोगोंको कल्याणकारी हो सकता है ॥३२॥ वह भव्य उन उत्तम उपदेशकसे इस प्रकारका उपदेश १ यमस्य वचनम् । २ धर्मशास्त्रम् । ३ इज्यावार्तादत्तिस्वाध्यायसंयमतपोरूप। ४ ब्रह्मचर्यादिचतराशने भव। ५ निश्चयेन । ६ पुरोदिताः द०, ल०, अ०, ५०, इ० । ७ कृष्णाजिन । ८ तद्विधः क्रतम प० ल द०। ९ सकलविनाशका इत्यर्थः। १० तत्प्रोक्तः । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ आदिपुराणम् श्रुवेति देशनां तस्माद् भव्योऽसौ देशिकोत्तमात् । सन्मार्गे मतिमाधत्ते दुर्मागरतिमुत्सृजन् ॥३३॥ गुरुर्जनयिता तत्त्वज्ञानं गर्भः सुसंस्कृतः । तदा तत्रावतीर्णोऽसौ भव्यात्मा धर्मजन्मना ॥३४॥ अवतारकियाऽस्यैषा गर्भाधानवदिप्यते । यतो जन्मपरिप्राप्तिः उभयत्र न विद्यते ॥३५॥ इत्यवतारक्रिया । ततोऽस्य वृत्तलामः स्यात् तदैव गुरुपादयोः। प्रणतस्य व्रतवातं"विधानेनोपदुषः ॥३६॥ इति वृत्तलामः । ततः कृतोपवासस्य पूजाविधिपुरःसरः । स्थानलाभो भवेदस्य तत्रायमुचितो विधिः ॥३७॥ जिनालये शुचौ रङ्गे पद्ममष्टदलं लिखेत् । विलिखेद् वा जिनास्थानमण्डलं समवृत्तकम् ॥३८॥ इलक्षेण पिष्टचूणेन सलिलालोडितेन वा । वर्तनं मण्डलस्येष्टं चन्दनादिद्ववेण वा ॥३६॥ तस्मिन्नष्टदले पद्मे जैने वाऽऽस्थानमण्डले । विधिना लिखिते तज्जैविध्वग्विरचितार्चने ॥४०॥ जिनार्चाभिमुखं सूरिविधिनैनं निवेशयेत् । तवोपासकदीक्षेयमिति मूर्ध्नि मुहुः स्पृशन् ॥४१॥ "पञ्चमुष्टिविधानेन स्पृष्टबैनमधिमस्तकम्। पूतोऽसि दीक्षयेत्युकृत्वा सिद्धशेषा च लम्भयेत्॥४२॥ ततः पञ्चनमस्कारपदान्यस्मा उपादिशेत् । मन्त्रोऽयमखिलात् "पापात्त्वां पुनीतादितीरयन् ॥४३॥ कृत्वा विधिमिमं पश्चात् पारणाय विसर्जयेत् । गुरोरनुग्रहात् सोऽपि संप्रीतः स्वगृहं व्रजेत् ॥४४॥ इति स्थानलामः । सुनकर मिथ्यामार्गमें प्रेम छोड़ता हुआ समीचीन मार्गमें अपनी बुद्धि लगाता है ॥३३॥ उस समय गुरु ही उसका पिता है और तत्त्वज्ञान ही संस्कार किया हुआ गर्भ है । वह भव्य पुरुष धर्म रूप जन्मके द्वारा उस तत्त्वज्ञानरूपी गर्भमें अवतीर्ण होता है ॥३४॥ इसकी यह क्रिया गर्भाधानक्रियाके समान मानी जाती है क्योंकि जन्मकी प्राप्ति दोनों ही क्रियाओंमें नहीं है ॥३५।। इस प्रकार यह पहली अवतारक्रिया है। तदनन्तर-उसी समय गुरुके चरणकमलोंको नमस्कार करते हुए और विधिपूर्वक व्रतोंके समूहको प्राप्त होते हुए उस भव्यके वृत्तलाभ नामकी दूसरी क्रिया होती है ॥३६॥ यह वृत्तलाभ नामकी दूसरी क्रिया है। तत्पश्चात् जिसने उपवास किया है ऐसे उस भव्यके पूजाकी विधिपूर्वक स्थानलाभ नामकी तीसरी क्रिया होती है । इस क्रियामें यह विधि करना उचित है ॥३७॥ जिनालयमें किसी पवित्र स्थानपर आठ पांखरीका कमल बनावे अथवा गोलाकार समवसरणके मण्डलकी रचना करे ॥३८॥ इस कमल अथवा समवसरणके मण्डलकी रचना पानी मिले हुए महीन चूर्णसे अथवा घिसे हुए चन्दन आदिसे करनी चाहिए ॥३९॥ उस विषयके जानकार विद्वानोंके द्वारा लिखे हुए उस अष्टदलकमल अथवा जिनेन्द्र भगवान्के समवसरणमण्डलकी जब सम्पूर्ण पूजा हो चुके तब आचार्य उस भव्य पुरुषको जिनेन्द्रदेवको प्रतिमाके सन्मुख बैठावे और बार-बार उसके मस्तकको स्पर्श करता हुआ कहे कि यह तेरी श्रावककी दीक्षा है ॥४०-४१॥ पञ्चमुष्टिकी रीतिसे उसके मस्तकका स्पर्श करे तथा 'तू इस दीक्षासे पवित्र हुआ' इस प्रकार कहकर उससे पूजाके बचे हुए शेषाक्षत ग्रहण करावे ॥४२॥ तत्पश्चात् 'यह मन्त्र तुझे समस्त पापोंसे पवित्र करे' इस प्रकार कहता हुआ उसे पञ्च नमस्कार मन्त्रका उपदेश करे ॥४३॥ यह विधि करके आचार्य उसे १ पिता । २ धर्म एव जन्म तेन । ३ यस्मात् कारणात् । ४ गर्भाधानावतारयोः। ५ व्रतविचरणशास्त्रोक्तविधिना । ६ उपगतस्य । ७ स्थानलाभे।८ जलमिश्रितेन वा। ९ उद्धरणम् । १० पञ्चगुरुमुद्राविधानेन । ११ मूनि । १२ प्रापयेत् । १३ अस्मै उपदेशं कुर्यात् । १४ दुष्कृतात् अपसार्य । १५ पवित्रं कुर्यात् । १६ ब्रुवन् । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व २७३ 'निर्दिष्टस्थानलाभस्य पुनरस्य गणग्रहः । स्यान्मिथ्यादेवताः स्वस्माद् विनिःसारयतो गृहात् ॥४५॥ इयन्तं कालमज्ञानात् पूजिताः स्थ कृतादरम् । पूज्यास्त्विदानीमस्माभिरस्मत्समयदेवताः ॥४६॥ ततोऽपम षितेनालमन्यत्र स्वैरमास्यताम् । इति प्रकाशमेवैतान् नीत्वाऽन्यत्र क्वचित्त्यजेत् ॥४७॥ गणग्रहः स एष स्यात् प्राक्तनं देवताङ्गणम् । विसृज्यार्चयतः शान्ता देवताः समयोचिताः ॥४८॥ इति ग्रहणक्रिया। पूजाराध्याख्यया ख्याता क्रियाऽस्य स्यादतः परा । पूजोपवाससंपत्त्या शृण्वतोऽङ्गार्थसंग्रहम् ॥४९॥ इति पूजाराध्यक्रिया । ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुबन्धिनी । शृण्वतः पूर्व विद्यानामथं संब्रह्मचारिणः ॥५०॥ इति पुण्ययज्ञक्रिया। तथाऽस्य दृढचर्या स्यात् क्रिया स्वसमयश्रुतम् । निष्टाप्य' शृण्वतो ग्रन्यान् बाह्यानन्यांश्च कांश्चन ॥५१॥ इति दृढचर्याक्रिया। दृढव्रतस्य तस्यान्या क्रिया स्यादुपयोगिता। "पर्वोपवासपर्यन्ते प्रतिमायोगधारणम् ॥५२॥ इति उपयोगिताक्रिया। पारणाके लिए विदा करे और वह भव्य भी गुरुके अनुग्रहसे सन्तुष्ट होता हुआ अपने घर जावे ॥४४॥ यह तीसरी स्थानलाभ क्रिया है। जिसके लिए स्थानलाभकी क्रियाका वर्णन ऊपर किया जा चुका है ऐसा भव्य पुरुष जब मिथ्यादेवताओंको अपने घरसे बाहर निकालता है तब उसके गणग्रह नामकी क्रिया होती है ॥४५॥ उस समय वह उन देवताओंसे कहता है कि 'मैंने अपने अज्ञानसे इतने दिन तक आदरके साथ आपकी पूजा की परन्तु अब अपने ही मतके देवताओंकी पूजा करूँगा इसलिए क्रोध करना व्यर्थ है। आप अपनी इच्छानुसार किसी दूसरी जगह रहिए।' इस प्रकार प्रकट रूपसे उन देवताओंको ले जाकर किसी अन्य स्थानपर छोड़ दे ॥४६-४७॥ इस प्रकार पहले देवताओंका विसर्जन कर अपने मतके शान्त देवताओंकी पूजा करते हुए उस भव्यके यह गणग्रह नामकी चौथी क्रिया होती है ॥४८॥ यह चौथी गणग्रह क्रिया है। तदनन्तर पूजा और उपवासरूप सम्पत्तिके साथ-साथ अंगोंके अर्थसमहको सननेवाले उस भव्यके पूजाराध्या नामकी प्रसिद्ध क्रिया होती है । भावार्थ-जिनेन्द्रदेवकी पूजा तथा उपवास आदि करते हुए द्वादशांगका अर्थ सुनना पूजाराध्य क्रिया कहलाती है ॥४९।। यह पाँचवीं पूजाराध्य क्रिया है। तदनन्तर साधर्मी पुरुषोंके साथ-साथ चौदह पूर्वविद्याओंका अर्थ सुननेवाले उस भव्यके पुण्यको बढ़ानेवाली पूण्ययज्ञा नामकी भिन्न क्रिया होती है ॥५०॥ यह छठी पुण्ययज्ञा क्रिया है। __ इस प्रकार अपने मतके शास्त्र समाप्त कर अन्य मतके ग्रन्थों अथवा अन्य किन्हीं दूसरे विषयोंको सननेवाले उस भव्यके दढचर्या नामकी क्रिया होती है ॥५१॥ यह दढचर्या नामकी सातवीं क्रिया है। तदनन्तर जिसके व्रत दृढ़ हो चुके हैं ऐसे पुरुषके उपयोगिता नामकी क्रिया होती है। १ उपदेशित । २ भवथ । ३ ततः कारणात् । ४ ईर्षया क्रोधेन वा । ५ प्रकटं यथा भवति तथा । ६ निजमत । ७ द्वादशाङ्गसंबन्धिद्रव्यसंग्रहादिकम् । ८ चतुर्दशविद्यानां संबन्धिनम् । ९ सहाध्यापिसहितस्य । 'एकब्रह्मव्रताचारा मियः सब्रह्मचारिणः ।' इत्यभिधानात् । १० संपूर्णमधीत्य । ११ पर्वोपवासरात्रावित्यर्थः । ३५ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ आदिपुराणम् क्रियाकलापेनोक्नेन शुद्धिमस्योपबिभ्रतः । उपनीतिरन् चानयोग्यलिङ्गग्रहो भवेत् ॥५३॥ उपनीतिर्हि वेषस्य वृत्तस्य समयस्य च । देवतागुरुसाक्षि स्याद् विधिवत्प्रतिपालनम् ॥५४॥ शुक्लवस्त्रोपवीतादिधारणं वेष उच्यते । आर्यषटकर्मजीवित्वं वृत्तमस्य प्रचक्ष्यते ॥५५॥ जैनोपासकदीक्षा स्यात् समयः समयोचितम् । दधतो गोबजात्यादि नामान्तरमतः परम् ॥५६॥ - इत्युपनीतिक्रिया । ततोऽयमुपनीतः सन् व्रतचर्या समाश्रयेत् । सूत्रमोपासकं सम्यगभ्यस्य ग्रन्थतोऽर्थतः ॥५७॥ इति व्रतचर्याक्रिया। व्रतावतारणं तस्य भूयो भूषादिसंग्रहः । भवेदधीतविद्यस्य यथावदगुरुसंनिधौ ॥५८॥ इति व्रतावतरणक्रिया। विवाहस्तु भवेदस्य नियुञानस्य दीक्षया । सुव्रतोचितया सम्यक स्वां धर्मसहचारिणीम् ॥५९॥ पुनर्विवाहसंस्कारः पूर्वः सर्वोऽस्य संमतः । सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य पत्न्याः संस्कारमिच्छतः ॥६॥ इति विवाहक्रिया । पर्वके दिन उपवासके अन्तमें अर्थात् रात्रिके समय प्रतिमायोग धारण करना उपयोगिता किया कहलाती है ॥५२।। यह उपयोगिता नामकी आठवीं किया है । ऊपर कहे हुए कियाओंके समूहसे शुद्धिको धारण करनेवाले उस भव्यके उत्कृष्ट पुरुषोंके योग्य चिह्नको धारण करनेरूप उपनीति किया होती है ॥५३॥ देवता और गुरुकी साक्षीपूर्वक विधिके अनुसार अपने वेष, सदाचार और समयकी रक्षा करना उपनीति किया कहलाती है ।।५४॥ सफेद वस्त्र और यज्ञोपवीत आदि धारण करना वेष कहलाता है, आर्योंके करने योग्य देवपूजा आदि छह कर्मोके करनेको वृत्त कहते हैं और इसके बाद अपने शास्त्रके अनुसार गोत्र जाति आदिके दूसरे नाम धारण करनेवाले पुरुषके जो जैन श्रावककी दीक्षा है उसे समय कहते हैं ॥५५-५६॥ यह उपनीति नामकी नौवीं किया है । ... तदनन्तर यज्ञोपवीतसे युक्त हुआ भव्य पुरुष शब्द और अर्थ दोनोंसे अच्छी तरह उपासकाध्ययनके सूत्रोंका अभ्यास कर व्रतवर्या नामकी क्रियाको धारण करे। भावार्थ-यज्ञोपवीत धारण कर उपासकाध्ययनांग ( श्रावकाचार ) का अच्छी तरहसे अभ्यास करते हुए व्रतादि धारण करना व्रतचर्या नामकी किया है ॥५७। यह दसवीं व्रतचर्या किया है। जिसने समस्त विद्याएँ पढ़ ली हैं ऐसा श्रावक जब गुरुके समीप विधिके अनुसार फिरसे आभूषण आदि ग्रहण करता है तब उसके व्रतावतरण नामकी क्रिया होती है ॥५८॥ यह व्रतावतरण नामकी ग्यारहवीं किया है। जब वह भव्य अपनी पत्नीको उत्तम व्रतोंके योग्य श्रावककी दीक्षासे युक्त करता है तब उसके विवाह नामकी क्रिया होती है ॥५९॥ अपनी पत्नीके संस्कार चाहनेवाले उस भव्यके उसी स्त्रीके साथ फिरसे विवाह संस्कार होता है और उस संस्कारमें सिद्ध भगवान्की पूजाको आदि लेकर पहले कही हुई समस्त विधि करनी चाहिए ॥६०॥ यह बारहवीं विवाहकिया है। १ क्रियासमूहेन । २ प्रवचने साङ्गेऽधीती। ३ यज्ञोपवीत । 'उपवीतं यज्ञसूत्रं प्रोदधृतं दक्षिणे करें' । ४ बना. वतरणम ल० । ५ धर्मपत्नीम् । ६. गर्भान्वयक्रियासु प्रोक्तः । ७ जिनदर्शनस्वीकारात् प्रागविवाहितभार्यायाः । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पव २७५ वर्णलाभस्ततोऽस्य स्यात् संबन्धं' संविधित्सतः। समानाजीविभिलब्ध वणरन्यैरुपासकैः ॥६१॥ चतुरः श्रावकज्येष्ठानाहूय कृतसक्कियान् । तान् ज्यादसम्यनुप्रायो मवद्भिः स्वसमीकृतः ॥६॥ यूयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकपूजिताः । अहं च कृतदीक्षोऽस्मि गृहीतोपासकवतः ॥६३॥ मया तु चरितो धर्मः पुष्कलो गृहमेधिनाम् । दत्तान्यपि च दानानि कृतं च गुरुपूजनम् ॥६४॥ अयोनिसंभवं जन्म लब्ध्वाहं गुर्वनुग्रहात् । चिरभावितमुत्सृज्य प्राप्तो वृत्तमभावितम् ॥६५॥ व्रतसिद्धयर्थमेवाहमुपनीतोऽस्मि साम्प्रतम् । कृतविद्यश्च जातोऽस्मि स्वधीतोपासकश्रुतः ॥६६॥ व्रतावतरणस्यान्ते स्वीकृताभरणोऽस्म्यहम् । पत्नी च संस्कृताऽऽत्मीया कृतपाणिग्रहा पुनः ॥६७॥ एवं कृतव्रतस्याद्य वर्णलाभो ममोचितः । सुलभः सोऽपि युष्माकमनुज्ञानात् सधर्मणाम् ॥६८॥ इत्युक्तास्ते च तं सत्यमेवमस्तु समञ्जसम् । त्वयोक्तं इलाध्यमेवैतत् कोऽन्यस्त्वत्सदृशो द्विजः ॥६९॥ युष्मादृशामलाभे तु मिथ्यादृष्टिभिरप्यमा। समानाजीविभिः कर्तुं संबन्धोऽभिमतो हि नः ॥७॥ इत्युक्त्वैनं समाश्वास्य वर्णलाभेन युञ्जते । विधिवत् सोऽपि तं लब्ध्वा याति तत्समकक्षताम् ॥७१॥ इति वर्णलाभक्रिया। वर्णलामोऽयमुद्दिष्टः कुल चर्याऽधुनोच्यते । आर्यषट्कर्मवृत्तिः स्यात् कुलचर्याऽस्य पुष्कला ॥७२॥ इति कुलचर्या । तदनन्तर – जिन्हें वर्णलाभ हो चुका है और जो अपने समान ही आजीविका करते . हैं ऐसे अन्य श्रावकोंके साथ सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छा करनेवाले उस भव्य पुरुषके वर्णलाभ नामको किया होती है ॥६१॥ इस क्रियाके करते समय वह भव्य चार बड़े-बड़े श्रावकोंको आदर-सत्कार कर बुलावे और उनसे कहे कि आप लोग मुझे अपने समान बनाकर मेरा अनुग्रह कीजिए ॥६२॥ आप लोग संसारसे पार करनेवाले देव ब्राह्मण हैं, संसारमें पूज्य हैं और मैंने भी दीक्षा लेकर श्रावकके व्रत ग्रहण किये हैं ॥६३।। मैंने गृहस्थोंके सम्पूर्ण धर्मका आचरण किया है, दान भी दिये हैं और गुरुओंका पूजन भी किया है ॥६४॥ मैंने गुरुके अनुग्रहसे योनिके बिना ही उत्पन्न होनेवाला जन्म धारण किया है, और चिरकालसे पालन किये हए मिथ्याधर्मको छोड़कर जिसका पहले कभी चिन्तवन भी नहीं किया था ऐसा सम्यक् . चारित्र धारण किया है ॥६५॥ व्रतोंकी सिद्धिके लिए ही मैंने इस समय यज्ञोपवीत धारण किया है और श्रावकाचारके प्ररूपंक श्रुतका अच्छी तरह अध्ययन कर विद्वान् भी हो गया हूँ ॥६६॥ व्रतावतरण कियाके बाद ही मैंने आभूषण स्वीकार किये हुए हैं, मैंने अपनी पत्नीके भी संस्कार किये हैं और उसके साथ दुबारा विवाहसंस्कार भी किया है ॥६७॥ इस प्रकार व्रत धारण करनेवाले मुझको वर्णलाभकी प्राप्ति होना उचित है और वह भी आप साधर्मी पुरुषोंकी आज्ञासे सहज ही प्राप्त हो सकती है ॥६८॥ इस प्रकार कह चुकनेपर वे श्रावक कहें कि ठीक है, ऐसा ही होगा, तुमने जो कुछ कहा है वह सब प्रशंसनीय है, तुम्हारे समान और दूसरा द्विज कौन है ? ॥६९।। आप-जैसे पुरुषोंके न मिलनेपर हम लोगोंको समान जीविका करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंके साथ भी सम्बन्ध करना पड़ता है ॥७०॥ इस प्रकार कहकर वे श्रावक उसे आश्वासन दें और वर्णलाभसे युक्त करावें तथा वह भव्य भी विधिपूर्वक वर्णलाभको पाकर उन सब श्रावकोंकी समानताको प्राप्त होता है ॥७१॥ यह तेरहवीं वर्णलाभ नामकी किया है । _यह वर्णलाभ किया कह चुके । अब कुलचर्या किया कही जाती है । आर्य पुरुषोंके करने १ कन्याप्रदानादानादिसंबन्धम् । २ संविधातुमिच्छतः । ३ सदृशार्यषट्कर्मादिवृत्तिभिः। ४ विचक्षणः । ५ चतुःसंख्यान्। ६ युष्मत्सदृशीकृतः । ७ चिरकालसंस्कारितम् । मिथ्यात्ववृत्तमित्यर्थः । ८ पूर्वस्मिन्नभावितम् । सद्वत्तमित्यर्थः । ९ संपूर्णविद्यः । १० सुष्ठवधीतः । ११-सकवतः ल०, द०। १२ सावधीकृतकतिचिद्वतावतारणावसाने । १३ इष्टम् । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् विशुद्धस्तेन वृत्तेन ततोऽभ्येति गृहीशिताम् । वृत्ताध्ययनसंपस्या परानुग्रहणक्षमः ॥७३॥ प्रायश्चित्तविधानज्ञः श्रुतिस्मृति पुराणवित् । गृहस्थाचार्यतां प्राप्तः तदा धत्ते गृही शिताम् ॥७४॥ इति गृहीशिताक्रिया । २७६ ततः पूर्ववदेवास्य मवेदिष्टा प्रशान्तता । नानाविधोपवासादिभावनाः समुपेयुषः ॥ ७५ ॥ इति प्रशान्तताक्रिया । गृहत्यागस्ततोऽस्य स्याद् गृहवासाद् विरज्यतः । योग्यं सूनुं यथान्यायमनुशिष्य गृहोज्झनम् ॥ ७६ ॥ इति गृहत्यागक्रिया । त्यक्तागारस्य तस्यातस्तपोवनमुपेयुषः । एकशाटकधारित्वं प्राग्वदीक्षाद्यमिष्यते ॥ ७७ ॥ इति दीक्षाद्यक्रिया | ततोऽस्य जिनरूपत्वमिष्यते व्यक्तवाससः । धारणं जातरूपस्य युक्ताचाराद् गणेशिनः ॥ ७८ ॥ इति जिनरूपता । क्रियाशेषास्तु निःशेषा. प्रोक्ता गर्भान्वये यथा । तथैव प्रतिपाद्याः स्युर्न भेदोऽस्त्यत्र कश्चन ॥ ७९ ॥ यस्त्वेतास्तवतो ज्ञात्वा भव्यः समनुतिष्ठति । सोऽधिगच्छति निर्वाणमचिरात्सुखसाद्भवन् ॥८०॥ इति दीक्षान्वयक्रिया | योग्य देवपूजा आदि छह कार्यों में पूर्ण प्रवृत्ति रखना कुलचर्या कहलाती है ॥७२॥ यह कुलचर्या नामकी चौदहवीं किया है । ऊपर कहे हुए चारित्र से विशुद्ध हुआ श्रावक गृहीशिता कियाको प्राप्त होता है । जो सम्यक् चारित्र और अध्ययनरूपी सम्पत्ति से परपुरुषोंका उपकार करनेमें समर्थ है, जो प्रायश्चित्तकी विधिका जानकार हैं, श्रुति, स्मृति और पुराणका जाननेवाला है ऐसा भव्य गृहस्थाचार्य पदको प्राप्त होकर गृहोशिता नामकी क्रियाको धारण करता है ॥७३-७४ ॥ यह गृहीशिता नामकी पन्द्रहवीं किया है । तदनन्तर नाना प्रकारके उपवास आदिकी भावनाओंको प्राप्त होनेवाले उस भव्यके पहले के समान ही प्रशान्तता नामकी किया मानी जाती है ॥७५॥ यह सोलहवीं प्रशान्तता किया है । तत्पश्चात् जब वह घरके निवाससे विरक्त होकर योग्य पुत्रको नीतिके अनुसार शिक्षा देकर घर छोड़ देता है तब उसके गृहत्याग नामकी क्रिया होती है || ७६ ॥ | यह सत्रहवीं गृहत्याग किया है । तदनन्तर जो घर छोड़कर तपोवनमें चला गया है वस्त्र धारण करना यह दीक्षाद्य नामकी क्रिया मानी अठारहवीं किया है । इसके बाद जब वह गृहस्थ वस्त्र छोड़कर किन्हीं योग्य आचरणवाले मुनिराजसे दिगम्बर रूप धारण करता है तब उसके जिनरूपता नामकी क्रिया कही जाती है ॥७८॥ यह उन्नीसवीं जिनरूपता किया है । ऐसे भव्य पुरुषका पहलेके समान एक जाती है ॥ ७७ ॥ | यह दीक्षाद्य नामकी इनके सिवाय जो कुछ क्रियाएँ बाकी रह गयी हैं वे सब जिस प्रकार गर्भान्वय क्रियाओं में कही गयी हैं उसी प्रकार प्रतिपादन करने योग्य हैं। इनमें और उनमें कोई भेद नहीं है ।। ७९ ॥ जो भव्य इन क्रियाओं को यथार्थरूपसे जानकर उनका पालन करता है वह सुखके अधीन होता हुआ बहुत शीघ्र निर्वाणको प्राप्त होता है ||८०|| इस प्रकार यह दीक्षान्वय क्रियाओंका वर्णन पूर्ण हुआ । १ द्वादशाङ्गश्रुतिरूपवेदः । २ धर्मशास्त्रम् । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व अथातः संप्रवक्ष्यामि द्विजाः कन्वयक्रियाः । याः प्रत्यासननिष्ठस्य भवेयुभव्यदेहिनः॥१॥ तत्र सजातिरित्याद्या क्रिया श्रेयोऽनुबन्धिनी । या सा वासन्नमव्यस्य नृजन्मोपगमे भवेत् ॥२॥ स नृजन्मपरिप्राप्तौ दीक्षायोग्ये सदन्वये । विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते ॥८३॥ विशुद्धकुलजात्यादिसंपत्सजातिरुच्यते । 'उदितोदितवंशत्वं यतोऽभ्येति पुमान् कृती ॥८॥ पितुरन्वयशुद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते । मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते ॥४५॥ विशुद्धिरुभयस्यास्य सजातिरनुवर्णिता । यत्प्राप्तौ सुलमा बोधिरयत्नोप नतैर्गुणैः ॥८६॥ 'सजन्मप्रतिलम्भोऽयमार्यावर्त विशेषतः । सत्यां देहादिसामग्रयां श्रेयः सूते हि देहिनाम् ॥८७॥ शरीरजन्मना सैषा सजातिरुपवर्णिता। एतन्मूला यतः सर्वाः पुंसामिष्टार्थसिद्धयः ॥८॥ संस्कारजन्मना चान्या सजातिरनुकीर्त्यते । यामासाद्य द्विजन्मत्वं भव्यात्मा समुपाश्नुते ॥८९॥ विशुद्धाकरसंभूतो मणिः संस्कारयोगतः । यात्युत्कर्ष यथाऽऽत्मैवं क्रियामन्त्रैः सुसंस्कृतः ॥१०॥ "सुवर्णधातुरथवा शुद्धयेदासाद्य संस्क्रियाम् । यथा तथैव भव्यात्मा शुद्धयत्यासादितक्रियः ॥११॥ ज्ञानजः स तु संस्कारः सम्यग्ज्ञानमनुत्तरम् । यदाथ लभते साक्षात् सर्वविन्मुखतः कृती ॥१२॥ अथानन्तर-हे द्विजो, मैं आगे उन कन्वय कियाओंको कहता हूँ जो कि अल्पसंसारी भव्य प्राणी ही के हो सकती हैं ॥८१॥ उन कर्ज़न्वय कियाओंमें कल्याण करनेवाली सबसे पहली किया सज्जाति है जो कि किसी निकट भव्यको मनुष्यजन्मकी प्राप्ति होनेपर होती है ॥८२॥ मनुष्यजन्मकी प्राप्ति होनेपर जब वह दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंशमें विशुद्ध जन्म धारण करता है तब उसके यह सज्जाति नामकी क्रिया होती है ॥८३॥ विशुद्ध कुल और विशुद्ध जातिरूपी सम्पदा सज्जाति कहलाती है। इस सज्जातिसे ही पुण्यवान् मनुष्य उत्त रोत्तर उत्तम उत्तम वंशोंको प्राप्त होता है ।।८४॥ पिताके वंशको जो शुद्धि है उसे कुल कहते हैं और माताके वंशको शुद्धि जाति कहलाती है ॥८५॥ कुल और जाति इन दोनोंकी विशुद्धिको सज्जाति कहते हैं, इस सज्जातिके प्राप्त होनेपर बिना प्रयत्नके सहज ही प्राप्त हुए गुणोंसे रत्नत्रयकी प्राप्ति सुलभ हो जाती है ॥८६।। आर्यखण्डकी विशेषतासे सज्जातित्वकी प्राप्ति शरीर आदि योग्य सामग्री मिलनेपर प्राणियोंके अनेक प्रकारके कल्याण उत्पन्न करती है । भावार्थ-यदि आर्यखण्डके विशुद्ध वंशोंमें जन्म हो और शरीर आदि योग्य सामग्रीका सुयोग प्राप्त हो तो अनेक कल्याणोंकी प्राप्ति सहज ही हो जाती है ।।८७॥ यह सज्जाति उत्तम शरीरके जन्मसे ही वर्णन की गयी है क्योंकि पुरुषोंके समस्त इष्ट पदार्थोंकी सिद्धिका मूलकारण यही एक सज्जाति है ।।८८॥ संस्काररूप जन्मसे जो सज्जातिका वर्णन किया जाता है वह दूसरी ही सज्जाति है उसे पाकर भव्य जीव द्विजन्मपनेको प्राप्त होता है ।।८९।। जिस प्रकार विशुद्ध खानमें उत्पन्न हुआ रत्न संस्कारके योगसे उत्कर्षको प्राप्त होता है उसी प्रकार कियाओं और मन्त्रोंसे सुसंस्कारको प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यन्त उत्कर्षको प्राप्त हो जाता है ॥९०॥ अथवा जिस प्रकार सुवर्ण पाषाण उत्तम संस्कारको पाकर शद्ध हो जाता है उसी प्रकार भव्य जीव उत्तम कियाओंको पाकर शद्ध हो जाता है ॥९॥ वह संस्कार ज्ञानसे उत्पन्न होता है, सबसे उत्कृष्ट ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, जिस समय वह पुण्यवान् भव्य साक्षात् सर्वज्ञ देवके मुखसे उस उत्तम ज्ञान १ भो विप्राः । २ प्रत्यासन्नमोक्षस्य । ३ सा चासन्न - ल०। ४ उत्तरोत्तराभ्युदयवदन्वयत्वम् । ५ यत् सज्जाती प्राप्ती सत्याम् । ६ रत्नत्रयप्राप्तिः । ७ उपागतः । ८ सज्जातिपरिप्राप्तिः । ९ आर्याखण्ड । 'आर्यावर्तः पुण्यभूमिः' इत्यभिधानात् । १० एषा सज्जातिमूल कारणं यासां ताः । ११ यतः करणात् । १२ संस्कारजन्मसज्जातिम् । १३ उत्कर्ष याति । १४ सुवर्णपाषाणः । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ आदिपुराणम् - तदैष परमज्ञानगर्भात् संस्कारजन्मना । जातो भवेद् द्विजन्मेति व्रतैः शीलैश्च भूषितः ॥१३॥ व्रतचिह्नं भवेदस्थ सूत्रं' मन्त्रपुरःसरम् । सर्वज्ञाज्ञाप्रधानस्य द्रव्यमावविकल्पितम् ॥९॥ यज्ञोपवीतमस्य स्याद् द्रव्यतस्त्रिगुणात्मकम् । सूत्रमौपासिकं तु स्याद् भावारूढ स्त्रिभिर्गुणैः ॥१५॥ यदैव लब्धसंस्कारः परं ब्रह्माधिगच्छति । तदैनमभिनन्द्याशीर्वचोभिर्गणनायकाः ॥१६॥ लम्भयन्त्युचितां शेषां जैनी पुष्पैरथाक्षतैः । स्थिरीकरणमेतद्धि धर्मप्रोत्साहनं परम् ॥९७॥ अयोनिसंभवं दिव्यज्ञानगर्भसमुद्भवम् । सोऽधिगम्य परं जन्म तदा सजातिभाग्भवेत् ॥९८॥ ततोऽधिगतसजातिः सद्गृहिस्वमसौ भजेत् । गृहमेधीभवन्नार्यषट्कर्माण्यनुपालयन् ॥९९॥ यदुक्तं गृहचर्यायामनुष्टानं विशुद्धिमत् । तदाप्तविहितं कृत्स्नमतन्द्रालुः समाचरेत् ॥१०॥ जिनेन्द्रालब्धसजन्मा गणेन्द्ररनुशिक्षितः । स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तमः ॥१०॥ तमेनं धर्मसाद्भुतं श्लाघन्ते धार्मिका जनाः । परं तेज "इव ब्राह्ममवतीणं महीतलम् ॥१०॥ स यजन्याजयन् धीमान् यजमानरुपासितः। अध्यापयन्नधीयानो "वेदवेदाङ्गविस्तरम् ॥ को प्राप्त करता है उस समय वह उत्कष्ट ज्ञानरूपी गर्भसे संस्काररूपी जन्म लेकर उत्पन्न होता है और व्रत तथा शीलसे विभूषित होकर द्विज कहलाता है ॥९२-९३॥ सर्वज्ञ देवकी आज्ञाको प्रधान माननेवाला वह द्विज जो मन्त्रपूर्वक सूत्र धारण करता है वही उसके व्रतोंका चिह्न है, वह सूत्र द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है ।।९४॥ तीन लरका जो यज्ञोपवीत है वह उसका द्रव्यसूत्र है और हृदयमें उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी गुणोंसे बना हुआ जो श्रावकका सूत्र है वह उसका भावसूत्र है ।।९५॥ जिस समय वह भव्य जीव संस्कारोंको पाकर परम ब्रह्मको प्राप्त होता है उस समय आचार्य लोग आशीर्वादरूप वचनोंसे उसकी प्रशंसा कर उसे पुष्प अथवा अक्षतोंसे जिनेन्द्र भगवान्की आशिषिका ग्रहण कराते हैं अर्थात् जिनेन्द्रदेवकी पूजासे बचे हुए पुष्प अथवा अक्षत उसके शिर आदि अंगोंपर रखवाते हैं क्योंकि यह एक प्रकारका स्थिरीकरण है और धर्ममें अत्यन्त उत्साह बढ़ानेवाला है ॥९६-९७॥ इस प्रकार जब यह भव्य जीव बिना योनिके प्राप्त हुए दिव्यज्ञानरूपी गर्भसे उत्पन्न होनेवाले उत्कष्ट जन्मको प्राप्त होता है तब वह सज्जातिको धारण करनेवाला समझा जाता है ॥९८॥ यह सज्जाति मामकी पहली किया है। तदनन्तर जिसे सज्जाति किया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सद्गृहित्व कियाको प्राप्त होता है इस प्रकार जो सद्गृहस्थ होता हुआ आर्य पुरुषोंके करने योग्य छह कर्मोका पालन करता है, गृहस्थ अवस्थामें करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं अरहन्त भगवान्के द्वारा कहे हुए उन उन समस्त आचरणोंका जो आलस्य-रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्रदेवसे उत्तम जन्म प्राप्त किया है और गणधरदेवने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज - आत्मतेजको धारण करता है ॥९९-१०१।। उस समय धर्मस्वरूप हुए उस भव्यकी अन्य धर्मात्मा लोग यह कहते हुए प्रशंसा करते हैं कि तू पृथिवीतलपर अवतीर्ण हुआ उत्कृष्ट ब्रह्मतेजके समान है ॥१०२॥ पूजा करनेवाले यजमान जिसकी पूजा करते हैं, जो स्वयं पूजन करता है, और दूसरोंसे भी कराता १ यज्ञसूत्रम् । २ उपासकाचारसंबन्धि । ३ मनसा विकल्पितः। ४ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रः। उपलब्धिउपयोगसंस्कारैर्वा । ५ परमज्ञानम्, परमतपो वा । ६ आचार्याः । ७ प्रापयन्ति । ८ प्रवर्तनम् । ९ समाचरन् द०, अ०, ल०, ५०, इ०, स०। १० वृत्ताध्ययनसंपत्तिम् । 'स्याद् ब्रह्मवर्चसं वृत्ताध्ययनद्धिः' इत्यभिधानात् । ११ ज्ञानसंबन्ध्युत्कृष्टतेज इव । १२ यजनं कुर्वन् । १३ यजनं कारयन् । १४ पूजाकारकैः । १५ आराधितः । १६ अध्ययनं कारयन् । १७ आगम - आगमाङ्ग। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व २७६ स्पृशन्नपि महीं नैव स्पृष्टो दोषैर्महीगतैः । देवत्वमात्मसात्कुर्यादिहैवाभ्यर्चितैर्गुणैः ॥१०॥ नाणिमा महिमैवास्य गरिमैव न लाघवम् । 'प्राप्तिः प्राकाम्यमीशिवं वशित्वं चेति तद्गुणाः ॥१०५॥ गुणैरेभिरुपारूढमहिमा देवसाद्भवम् । बिभ्रल्लोकातिगं. धाम मह्यामेष महीयते ॥१०६॥ धम्यराचरितैः सत्यशौचक्षान्तिदमादिभिः । देवब्राह्मणतां श्लाघ्यां स्वस्मिन् संभावयत्यसौ ॥१७॥ अथ जातिमदावेशात् कश्चिदेनं द्विजब्रुवः । ब्रूयादेवं किमद्यैव देवभूयं गतो भवान् ॥१०८॥ त्वमामुष्यायणः किन्न किन्तेऽम्बाऽमुष्य पुत्रिका । येनैवमुन्नसो भूत्वा यास्यसत्कृत्य मद्विधान् ॥१०॥ जातिः सैव कुलं तच्च सोऽसि योऽसि प्रगेतनः । तथापि देवतात्मानमात्मानं मन्यते भवान् ॥११०॥ देवतातिथिपित्रग्निकार्येवप्रयतो' भवान् । गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामाच्च पराजयखः ॥११॥ दीक्षां जैनी प्रपन्नस्य जांतः कोऽतिशयस्तव । यतोऽद्यापि मनुष्यस्त्वं पादचारी महीं स्पृशन् ॥११२॥ इत्युपारूढसंरम्भमुपालब्धः स केनचित् । ददात्युत्तरमित्यस्मै वचोभियुक्तिपेशलैः ॥११३॥ श्रूयतां भो द्विजंमन्य त्वयाऽस्मद्दिव्यसंभवः । जिनो जनयिताऽस्माकं ज्ञानं गर्मोऽतिनिर्मलः ॥११॥ है, जो वेद और वेदांगके विस्तारको स्वयं पढ़ता है तथा दूसरोंको भी पढ़ाता है, जो यद्यपि पृथिवीका स्पर्श करता है तथापि पृथिवीसम्बन्धी दोष जिसका स्पर्श नहीं कर सकते हैं, जो अपने प्रशंसनीय गुणोंसे इसी पर्यायमें देवपर्यायको प्राप्त होता है, जिसके अणिमा ऋद्धि अर्थात् छोटापन नहीं है किन्तु महिमा अर्थात् बड़प्पन है, जिसके गरिमा ऋद्धि है परन्तु लघिमा नहीं है, जिसमें प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आदि देवताओंके गुण विद्यमान हैं, उपर्युक्त गुणोंसे जिसकी महिमा बढ़ रही है, जो देवरूप हो रहा है और लोकको उल्लंघन करनेवाला उत्कृष्ट तेज धारण करता है ऐसा यह भव्य पृथिवीपर पूजित होता है ॥१०३-१०६॥ सत्य, शौच, क्षमा और दम आदि धर्मसम्बन्धी आचरणोंसे वह अपने में प्रशंसनीय देवब्राह्मणपनेकी सम्भावना करता है अर्थात् उत्तम आचरणोंसे अपने आपको देवब्राह्मणके समान उत्तम बना देता है ॥१०७॥ यदि अपनेको झूठमूठ ही द्विज माननेवाला कोई पुरुष अपनी जातिके अहंकारके आवेशसे इस देवब्राह्मणसे कहे कि आप क्या आज ही देवपनेको प्राप्त हो गये हैं ? ॥१०८॥ क्या तू अमुक पुरुषका पुत्र नहीं है ? और क्या तेरी माता अमुक पुरुषकी पुत्री नहीं है ? जिससे । कि तू इस तरह नाक ऊँची कर मेरे ऐसे पुरुषोंका सत्कार किये बिना हो जाता है ? ॥१०९।। यद्यपि तेरी जाति वही है, कुल वही है और तू भी वही है जो कि सबेरेके समय था तथापि तू अपने आपको देवतारूप मानता है ।।११०॥ यद्यपि तू देवता, अतिथि, पितृगण और अग्निके कार्यों में निपुण है तथापि गुरु, द्विज और देवोंको प्रणाम करनेसे विमुख है ॥१११॥ जैनी दीक्षा धारण करनेसे तुझे कौन-सा अतिशय प्राप्त हो गया है ? क्योंकि तू अब भी मनुष्य ही है और पृथिवीको स्पर्श करता हुआ पैरोंसे ही चलता है ॥११२।। इस प्रकार कोध धारण कर यदि कोई उलाहना दे तो उसके लिए युक्तिसे भरे हुए वचनोंसे इस प्रकार उत्तर दे ॥११३।। हे अपने आपको द्विज माननेवाले, तू मेरा दिव्य जन्म सुन, श्री जिनेन्द्र देव ही मेरा पिता है और १ रत्नत्रयादिगुणलाभः । २ प्रकर्षणासमन्तात् सकलाभिलषणीयत्वम् । ३ देवाधीनम् । देव साद्भवन् ल०, द०, इ० । देवसाद्भवेत् अ०, ५०, स० । ४ देवत्वम् । ५ कुलीनः । 'प्रसिद्धपितुरुत्पन्न आमुष्यायण उच्यते।' ६ तव । ७ कुलीना पुत्री। ८ येन कारणेन । ९ उद्गतनासिकः । १. प्राग्भवः । ११ -प्राकृतो ल०, द०) १२ स्वीकृतक्रोधं यथा भवति तथा। १३ दूषितः । १४ पटुभिः । १५ अस्माकं देवोत्पत्तिः। १६ पिता। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आदिपुराणम् तवाहती विधा मिना शक्ति चैगुण्यसंश्रिताम् । स्वसास्कृत्य समुद्धता वयं संस्कारजन्मना ॥११५॥ अयोनिसंभवास्तेन देवा एव न मानुषाः । वयं वयमिवान्येऽपि सन्ति चेद् ब्रूहि तद्विधान् ॥११६॥ स्वायम्भुवान्मुखाजातास्ततो देवद्विजा वयम् । व्रतचिह्नं च नः सूत्रं पवित्रं सूत्रदर्शितम् ॥११७॥ पापसूत्रानुगा यूयं न द्विजा सूत्रकण्ठकाः । सन्मार्गकण्टकास्तीक्ष्णाः केवलं मलदूषिताः ॥११८॥ शरीरजन्म संस्कारजन्म चेति द्विधा मतम् । जन्माङ्गिनां मृतिश्चैवं द्विधाम्नाता जिनागमे ॥११९॥ देहान्तरपरिप्राप्तिः पूर्वदेहपरिक्षयात् । शरीरजन्म विज्ञेयं देहभाजां भवान्तरे ॥१२०॥ तथालब्धात्मलामस्य पुनः संस्कारयोगतः । द्विजन्मतापरिप्राप्तिर्जन्म संस्कारजं स्मृतम् ॥१२१॥ शरीरमरणं स्वायुरन्ते देह विसर्जनम् । संस्कारमरणं प्राप्तव्रतस्यागःसमुज्झनम् ॥१२२॥ "यतोऽयं लब्धसंस्कारो विजहाति प्रगेतनम् । मिथ्यादर्शनपर्यायं ततस्तेन मृतो भवेत् ॥१२३॥ तत्र संस्कारजन्मेदमपापोपहतं परम् । जातं नो' गुर्वनुज्ञानादतो देवद्विजा वयम् ॥१२॥ इत्यात्मनो गुणोत्कर्ष ख्यापयन्न्यायवर्त्मना । गृहमेधी भवेत् प्राप्य सद्गृहित्वमनुत्तरम् ॥१२५॥ भूयोऽपि संप्रवक्ष्यामि ब्राह्मणान् सक्रियोचितान् । जातिवादावलेपस्य "निरासार्थमतः परम् ॥१२६॥ ज्ञान ही अत्यन्त निर्मल गर्भ है ।।११४॥ उस गर्भ में उपलब्धि, उपयोग और संस्कार इन तीन गुणोंके आश्रित रहनेवाली जो अरहन्तदेवसम्बन्धिनी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीन भिन्न-भिन्न शक्तियाँ हैं उन्हें अपने अधीन कर हम संस्काररूपी जन्मसे उत्पन्न हुए हैं ॥११५॥ हम लोग बिना योनिसे उत्पन्न हुए हैं इसलिए देव ही हैं मनुष्य नहीं हैं, हमारे समान जो और भी हैं उन्हें भी तू देवब्राह्मण कह ॥११६।। हम लोग स्वयम्भूके मुखसे उत्पन्न हुए हैं इसलिए देवब्राह्मण हैं और हमारे व्रतोंका चिह्न शास्त्रोंमें कहा यह पवित्र सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत है ॥११७॥ आप लोग तो गलेमें सूत्र धारण कर समीचीन मार्गमें तीक्ष्ण कण्टक बनते हुए पापरूप सूत्रके अनुसार चलनेवाले हैं, केवल मलसे दूषित हैं, द्विज नहीं हैं ॥११८॥ जीवोंका जन्म दो प्रकारका है एक तो शरीरजन्म और दूसरा संस्कार-जन्म । इसी प्रकार जैनशास्त्रोंमें जीवोंका मरण भी दो प्रकारका माना गया है ॥११९।। पहले शरीरका क्षय हो जानेसे दूसरी पर्यायमें जो दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है उसे जीवोंका शरीरजन्म जानना चाहिए। ॥१२०॥ इसी प्रकार संस्कारयोगसे जिसे पुनः आत्मलाभ प्राप्त हुआ है ऐसे पुरुषको जो द्विजपनेकी प्राप्ति होना है वह संस्कारज अर्थात् संस्कारसे उत्पन्न हुआ जन्म कहलाता है ॥१२१॥ अपनी आयुके अन्तमें शरीरका परित्याग करना शरीरमरण है तथा व्रती पुरुषका पापोंका परित्याग करना संस्कारमरण है ।।१२२॥ इस प्रकार जिसे सब संस्कार प्राप्त हुए हैं ऐसा जोव मिथ्यादर्शनरूप पहलेके पर्यायको छोड़ देता है इसलिए वह एक तरहसे मरा हुआ ही कहलाता है ॥१२३॥ उन दोनों जन्मोंमें-से जो पापसे दूषित नहीं है ऐसा संस्कारसे उत्पन्न हुआ यह उत्कृष्ट जन्म गुरुकी आज्ञानुसार मुझे प्राप्त हुआ है इसलिए मैं देवद्विज या देवब्राह्मण कहलाता हूँ ॥१२४। इस प्रकार न्यायमार्गसे अपने आत्माके गुणोंका उत्कर्ष प्रकट करता हुआ बह पुरुष सर्वश्रेष्ठ सद्गृहित्व अवस्थाको पाकर सद्गृहस्थ होता है ।।१२५।। उत्तम कियाओंके करने योग्य ब्राह्मणोंसे उनके जातिवादका अहंकार दूर करनेके लिए इसके १ ज्ञानगर्थे। २ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणीति त्रिप्रकारैः । ३ उपलब्ध्युपयोगसंस्कारात्मतां गताम् । ४ अयोनिसंभवप्रकारान् । अयोनिसंभवसदृशानित्यर्थः । ५ आगमप्रोक्तम् । ६ सूत्रमात्रमेव कण्ठे येषां ते । ७ यस्मात् कारणात् । ८ प्राक्तनम् । ९ मिथ्यादर्शनत्यजनरूपेणेत्यर्थः । १० शरीरजन्मसंस्कारजन्मनोः । ११ अस्माकम् । १२ गुरोरनुज्ञायाः। १३ गर्वस्य । १४ निराकरणाय । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व २८१ ब्रमणोऽपत्यमित्येवं ब्राह्म गाः समुदाहृताः । ब्रह्मा स्वयंभूर्भगवान् परमेष्टी जिनोत्तमः ॥१२७॥ सादिपरमब्रह्मा जिनेन्द्रो गुणबृंहणात् । परं ब्रह्म यदायत्तमामनन्ति मुनीश्वराः ॥१२॥ नै गाजिनधरो ब्रह्मा जटाकूर्चादिलक्षणः । यः कामगर्दभो भूत्वा प्रच्युतो ब्रह्मवर्चसात् ॥१२९॥ दिव्यमूर्जिनेन्द्रस्य ज्ञानगर्भादनाविलात् । समासादितजन्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ॥१३०॥ वर्णान्तःपातिनो नैते मन्तव्या द्विजसत्तमाः । व्रतमन्त्रादिसंस्कारसमारोपितगौरवाः ॥१३१॥ वर्णोत्तमानिमान् विद्मः क्षान्तिशौचपरायणान् । संतुष्टान प्राप्तवैशिष्टयानक्लिष्टाचारभूषणान् ॥३२॥ 'क्लिष्टाचाराः परे नैव ब्राह्मणा द्विजमानिनः । पापारम्भरता शश्वदाहत्य पशुपातिनः ॥१३३॥ सर्वमेधमयं धर्ममभ्युपेत्य पशुघ्नताम् । का नाम गतिरेषां स्यात् पापशास्त्रोपजीविनाम् ॥१३॥ चोदनालक्षणं धर्ममधर्म प्रतिजानते'। ये तेभ्यः कर्मचाण्डालान् पश्यामो नापरान् भुवि ॥१३५॥ पार्थिवैर्दण्डनीयाश्च लुण्टाकाः पापपण्डिताः । तेऽमी धर्मजुषां बाह्या ये निघ्नन्त्यघृणाः पशुन् ॥१३६॥ "पशुहत्यासमारम्भात् क्रव्यादेभ्योऽपि निष्कृपाः । यद्यच्छुिति मुशन्त्येते हन्तैवं धार्मिका हताः ॥१३७ आगे फिर भी कुछ कहता हूँ ॥१२६॥ जो ब्रह्माको सन्तान हैं, उन्हें ब्राह्मण कहते हैं और - स्वयम्भू , भगवान्, परमेष्ठी तथा जिनेन्द्रदेव ब्रह्मा कहलाते हैं। भावार्थ - जो जिनेन्द्र भगवान्का उपदेश सुनकर उनकी शिष्य-परम्परामें प्रविष्ट हुए हैं वे ब्राह्मण कहलाते हैं ।।१२७।। श्रीजिनेन्द्रदेव ही आदि परम ब्रह्मा हैं क्योंकि वे ही गुणोंको बढ़ानेवाले हैं और उत्कृष्ट ब्रह्म अर्थात् ज्ञान भी उन्हींके अधीन है ऐसा मुनियोंके ईश्वर मानते हैं ॥१२८॥ जो मृगचर्म धारण करता है, जटा, दाढ़ी आदि चिह्नोंसे युक्त है तथा कामके वश गधा होकर जो ब्रह्मतेज अर्थात् ब्रह्मचर्यसे भ्रष्ट हुआ वह कभी ब्रह्मा नहीं हो सकता ।।१२६। इसलिए जिन्होंने दिव्य मूर्तिके धारक श्री जिनेन्द्रदेवके निर्मल ज्ञानरूपी गर्भसे जन्म प्राप्त किया है वे ही द्विज कहलाते हैं ।।१३०॥ व्रत, मन्त्र तथा संस्कारोंसे जिन्हें गौरव प्राप्त हुआ है ऐसे इन उत्तम द्विजोंको वर्णों के अन्तर्गत नहीं मानना चाहिए अर्थात् ये वर्णोत्तम हैं ॥१३१॥ जो क्षमा और शौच गुणके धारण करने में सदा तत्पर हैं, सन्तुष्ट रहते हैं, जिन्हें विशेषता प्राप्त हुई है और निर्दोष आचरण हो जिनका आभूषण है ऐसे इन द्विजोंको सब वर्गों में उत्तम मानते हैं ॥१३२॥ इनके सिवाय जो मलिन आचारके धारक है, अपनेको झूठमूठ द्विज मानते हैं, पापका आरम्भ करने में सदा तत्पर रहते हैं और हठपूर्वक पशुओंका घात करते हैं वे ब्राह्मण नहीं हो सकते ॥१३३॥ जो समस्त हिंसामय धर्म स्वीकार कर पशुओंका घात करते हैं ऐसे पापशास्त्रोंसे आजीविका करनेवाले इन ब्राह्मणोंकी न जाने कौन-सी गति होगी ? ॥१३४॥ जो अधर्म स्वरूप वेदमें कहे हुए प्रेरणात्मक धर्मको धर्म मानते हैं मैं उनके सिवाय इस पृथिवीपर और किसीको कर्म चाण्डाल नहीं देखता हूँ अर्थात् वेदमें कहे हुए धर्मको माननेवाले सबसे बढ़कर कर्म चाण्डाल हैं ॥१३५।। जो निर्दय होकर पशुओंका घात करते हैं वे पापरूप कार्यों में पण्डित हैं, लुटेरे हैं, और धर्मात्मा लोगोंसे बाह्य हैं; ऐसे पुरुष राजाओंके द्वारा दण्डनीय होते हैं ॥१३६॥ पशुओंकी हिंसा करनेके उद्योगसे जो राक्षसोंसे भी अधिक निर्दय हैं यदि ऐसे पुरुष ही उत्कृष्टताको प्राप्त होते हों तब १ परमपदे स्थितः । '२ कामाद् गर्दभाकारमुख इत्यर्थः । ३ अध्ययनसंपत्तेः । ४ अकलुषात् । ५ वर्णमात्रवर्तिन इत्यर्थः । ६ दुष्ट । ७ हात्, साक्षात् वा। ८ हिंसामयम् । ९ हिंसां कुर्वताम् । १० वेदोक्तलक्षणम् । ११ प्रतिज्ञां कुर्वते । १२ चौराः । १३ निःकृपा । १४ पशुहननप्रारम्भात् । १५ राक्षसेभ्यः । 'राक्षसः कोणप: क्रव्यात् क्रव्यादोऽस्रप आशरः' इत्यभिधानात् । १६ उन्नलिम् । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ आदिपुराणम् मलिनाचरिता ह्येते कृष्णवर्गे द्विजब्रुवाः । जैनास्तु निर्मलाचाराः शुक्लवर्गे मता बुधैः ॥१३८॥ श्रुतिस्मृति पुरावृत्त वृत्तमन्त्रक्रियाश्रिता । देवतालिङ्गकामान्तकृता शुद्धिर्द्विजन्मनाम् ॥१३९॥ ये विशुद्धतरां वृत्तिं तत्कृतां समुपाश्रिताः । ते शुक्लवर्गे बोधव्याः शेषाः शुद्धेः बहिः कृता ॥१०॥ तच्छुद्ध यशुद्धी बोधव्ये न्यायान्यायप्रवृत्तितः । न्यायो दयावृत्तित्वमन्यायः प्राणिमारणम् ॥१४१॥ विशुद्धवृत्तयस्तस्माजना वर्णोत्तमा द्विजाः । वर्णान्तःयातिनो नेते जगन्मान्या इति स्थितम् ॥ १४२॥ स्यादारेका च षटकर्मजीविनां गृहमधिनाम् । हिंसादोषोऽनुसंगी स्याजैनानां च द्विजन्मनाम् ॥१४३॥ इत्यत्र महे सत्य मल्पसावद्यसंगतिः । तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धिः शास्त्रदर्शिता ॥१४॥ अपि चैषां विशुद्धयङ्गं पक्षश्चर्या च साधनम् । इति त्रितयमस्त्येव तदिदानी विवृण्महे ॥१४५॥ तत्र पक्षो हि जैनानां कृत्स्नहिंसाविवर्जनम् । मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपबृंहितम् ॥ ४६॥ चर्या तु देवतार्थं वा मन्त्रसिद्धयर्थमेव वा । औषधाहारक्लपत्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ॥१४७॥ तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चित्तैर्विधीयते । पश्चाच्चात्मालयं सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ॥१४॥ तो दुःखके साथ कहना पड़ेगा कि बेचारे धर्मात्मा लोग व्यर्थ ही नष्ट हुए ॥१३७॥ ये द्विज लोग मलिन आचारका पालन करते हैं और झूठमूठ ही अपनेको द्विज कहते हैं इसलिए विद्वान् लोग इन्हें कृष्णवर्ग अर्थात् पापियोंके समूहमें गर्भित करते हैं और जैन लोग निर्मल आचारका पालन करते हैं इसलिए इन्हें शक्लवर्ग अर्थात् पुण्यवानोंके समूहमें शामिल करते हैं ॥१३८।। द्विज लोगोंकी शुद्धि श्रुति, स्मृति, पुराण, सदाचार, मन्त्र और क्रियाओंके आश्रित है तथा देवताओंके चिद धारण करने और कामका नाश करनेसे भी होती है ।।१३।। जो श्रति स्मृति आदिके द्वारा की हुई अत्यन्त विशुद्ध वृत्तिको धारण करते हैं उन्हें शुक्लवर्ग अर्थात् पुण्यवानोंके समूहमें समझना चाहिए और जो इनसे शेष बचते हैं उन्हें शुद्धिसे बाहर समझना चाहिए अर्थात् वे महा अशुद्ध हैं ॥१४०॥ उनकी शुद्धि और अशुद्धि, न्याय और अन्यायरूप प्रवृत्तिसे जाननी चाहिए। 'दयासे कोमल परिणाम होना न्याय है और प्राणियोंका मारना अन्याय है ॥१४१॥ इससे यह बात निश्चित हो चुकी कि विशुद्ध वृत्तिको धारण करनेवाले जैन लोग ही सब वर्गों में उत्तम हैं । वे ही द्विज हैं। ये ब्राह्मण आदि वर्गों के अन्तर्गत न होकर वर्णोत्तम हैं और जगत्पूज्य हैं ॥१४२॥ ___. अब यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो असि मषी आदि छह कर्मोसे आजीविका करनेवाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसाका दोष लग सकता है परन्तु इस विषयमें हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है, आजीविकाके लिए छह कर्म करनेवाले जैन गृहस्थोंके थोड़ी-सी हिंसाकी संगति अवश्य होती है परन्तु शास्त्रोंमें उन दोषोंकी शुद्धि भी तो दिखलायी गयी है ॥१४३-१४४।। उनकी विशुद्धिके अंग तीन हैं पक्ष, चर्या और साधन । अब मैं यहाँ इन्हीं तीनका वर्णन करता हूँ ॥१४५॥ उन तीनोंमें-से मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभावसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिंसाका त्याग करना जैनियोंका पक्ष कहलाता है ॥१४६॥ किसी देवताके लिए, किसी मन्त्रकी सिद्धिके लिए अथवा किसी औषध या भोजन बनवाने के लिए मैं किसी जीवकी हिंसा नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है ॥१४७।। इस प्रतिज्ञामें यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमादसे दोष लग जावे तो प्रायश्चित्तसे उसकी शुद्धि १ पाप। २ पुण्य । ३ आगम । ४ धर्मसंहिता। ५ पुराण । ६ श्रुतिस्मृत्यादिकृताम् । ७ जैनद्विजोत्तरयोः शयशुद्धिः । ८ वर्णमात्रवर्तिनः । ९ शङ्का । १० "हिंसादोषोऽनुसंगो स्यात्' इत्यत्र । ११ सत्यमित्यङ्गीकारे । १२ चेष्टिते । व्यापारे इत्यर्थः । १३ प्रमादजनिते दोषे। १४ - चात्मान्वयं द०,ल०, इ०,०,प०, स०।। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व २८३ चर्येषा गृहिणां प्रोक्का जीवितान्ते तु साधनम् । देहाहारहित यागाद ध्यानशुद्धात्मशोधनम् ॥१४९॥ त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शो वधेनाहद्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यान्निराकृतिः ॥१५०॥ चतुर्णामाश्रमाणां च शुद्धिः स्यादाहते मते । चातुराश्रम्यमन्येषामविचारितसुन्दरम् ॥१५१॥ ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ॥१५२॥ ज्ञातव्याः स्युः प्रपञ्चेन सान्तछंदाः पृथग्विधाः । ग्रन्थगौरवमीत्या तु नात्रैतेषां प्रपञ्चना ॥१५३॥ सद्गृहित्वमिदं ज्ञेयं गुणरात्मोपबृंहणम् । पारिवाज्यमितो वक्ष्ये सुविशुद्धं क्रियान्तरम् ॥१४॥ इति सद्गृहित्वम् । गार्हस्थ्यमनुपाल्यैवं गृहवासाद विरज्यतः । यहीक्षाग्रहणं तद्धि पारिवाज्यं प्रचक्ष्यते ॥१५५॥ पारिवाज्यं परिबाजी भावो निर्वाणदीक्षणम् । तन्त्र निर्ममता वृत्त्या जातरूपस्य धारणम् ॥१५६॥ प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगलग्न ग्रहांशके । निर्ग्रन्थाचार्यमाश्रित्य दीक्षा ग्राह्या मुमुक्षुणा ॥१७॥ विशुद्धकुलगोत्रस्य सद्वृत्तस्य दपुष्मतः । दीक्षायोग्यत्वमाम्नातं सुमुखस्य सुमेधसः ॥१५॥ ग्रहोपरागग्रहणे परिवेषेन्द्र चापयोः । वक्रग्रहोदये मेघपटलस्थगितेऽम्बरे ॥१५९॥ की जाती है तथा अन्तमें अपना सब कुटुम्ब पुत्रके लिए सौंपकर घरका परित्याग किया जाता है ॥१४८॥ यह गृहस्थ लोगोंकी चर्या कही, अब आगे साधन कहते हैं। आयुके अन्त समयमें शरीर आहार और समस्त प्रकारकी चेष्टाओंका परित्याग कर ध्यानकी शुद्धिसे जो आत्माको शुद्ध करना है उसे साधन कहते हैं ।।१४९।। अरहन्तदेवको माननेवाले द्विजोंका पक्ष, चर्या और साधन इन तीनोंमें हिंसाके साथ स्पर्श भी नहीं होता, इस प्रकार अपने ऊपर ठहराये हुए दोषोंका निराकरण हो सकता है ॥१५०॥ चारों आश्रमोंकी शुद्धता भी श्री अर्हन्तदेवके मतमें ही है । अन्य लोगोंने जो चार आश्रम माने हैं वे विचार किये बिना ही सुन्दर हैं अर्थात् जबतक उनका विचार नहीं किया गया है तभीतक सुन्दर हैं ॥१५१॥ ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियोंके चार आश्रम हैं जो कि उत्तरोत्तर अधिक विशुद्धि होनेसे प्राप्त होते हैं ॥१५२॥ ये चारों हो आश्रम अपने-अपने अन्तर्भदोंसे सहित होकर अनेक प्रकारके हो जाते हैं, उनका विस्तारके साथ ज्ञान प्राप्त करना चाहिए परन्तु ग्रन्थ बढ़ जानेके भयसे यहाँ उनका विस्तार नहीं लिखा है ॥१५३॥ इस प्रकार गुणोंके द्वारा अपने आत्माकी वृद्धि करना यह सद्गृहित्व क्रिया है । अब इसके आगे अत्यन्त विशुद्ध पारिव्रज्य नामकी तीसरी क्रियाका निरूपण करेंगे ॥१५४॥ यह दूसरी सद्गृहित्व क्रिया है। इस प्रकार गृहस्थधर्मका पालन कर घरके निवाससे विरक्त होते हुए पुरुषका जो दीक्षा ग्रहण करना है उसे पारिव्रज्य कहते हैं ॥१५५॥ परिव्राटका जो निर्वाणदीक्षारूप भाव है उसे पारिव्रज्य कहते हैं, इस पारिव्रज्य क्रियामें ममत्व भाव छोड़कर दिगम्बररूप धारण करना पड़ता है ॥१५६॥ मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषको शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहोंके अंशमें निर्ग्रन्थ आचार्यके पास जाकर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए ॥१५७॥ जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चरित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभा अच्छी है ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करनेके योग्य माना गया है ।।१५८॥ जिस दिन ग्रहोंका उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य-चन्द्रमापर परिवेष ( मण्डल ) हो, इन्द्रधनुष उठा हो, दुष्ट ग्रहोंका उदय हो, आकाश मेघपटलसे ढका हुआ हो, नष्ट मास अथवा अधिक १ चेष्टा । २ चतुराश्रमत्वम् । ३ नानाप्रकाराः। ४ विरक्ति गच्छतः। ५ मुहूर्तः । ६ ग्रहांशकैः ल०, द०, अ०, ५०, इ०, स०। ७ चन्द्रादिग्रहणे । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ૬ ७ 'नष्टाधिमा सदिनये. : संक्रान्ती हानिमत्तियौ । दीक्षाविधिं मुमुक्षूणां नेच्छन्ति कृतबुद्धयः ॥ १६०॥ संप्रदायमनादृत्य यस्त्विमं दीक्षयेदधीः । स साधुभिर्बहिः कार्यों वृद्वात्यासादनारतः ॥ १६१ ॥ तत्र सूत्रपदान्याहुर्योगीन्द्राः सप्तविंशतिम् । यैर्निगीतै मवेत्साक्षात पारिव्राज्यस्य लक्षणम् ॥ १६२॥ जातिर्मूर्तिश्च तत्रस्थं लक्षणं सुन्दराङ्गता । प्रभामण्डलचक्राणि तथाभिषवनाथते" ॥ १६३॥ सिंहासनोपधाने च छत्रचामरघोषणः । अशोकवृक्षनिधयो गृहशोभावगाहने ॥ १६४ ॥ २८४ क्षेत्रज्ञाऽऽज्ञा सभाः कीर्तिर्वन्द्यता वाहनानि च । भाषाहारसुखानीति जात्यादिः सप्तविंशतिः ॥ १६५॥ जात्यादिकानिमान् सप्तविंशतिं परमेष्ठिनाम् । गुणानाहु जेद्दीक्षां स्वेषु तेष्वकृतादरः ॥ १६६॥ जातिमानप्यनुत्सिक्तः संभजेदर्हतां क्रम" । यतो जात्यन्तरे' जात्यां" याति जाति' चतुष्टयम् ॥ जातिरैन्द्री भवेद्दिव्या चक्रिणां विजयाश्रिता । परमा जातिरार्हन्त्ये स्वात्मोत्था सिद्धिमीयुषाम् ॥ १६८ ॥ १४ १९: मासका दिन हो, संक्रान्ति हो अथवा क्षयतिथिका दिन हो उस दिन बुद्धिमान् आचार्य मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्योंके लिए दीक्षाकी विधि नहीं करना चाहते हैं अर्थात् उस दिन किसी शिष्यको नवीन दीक्षा नहीं देते हैं ॥१५९ - १६० ॥ जो मन्दबुद्धि आचार्य इस सम्प्रदायका अनादर कर नवीन शिष्यको दीक्षा दे देता है वह वृद्ध पुरुषों के उल्लंघन करनेमें तत्पर होनेसे अन्य साधुओं द्वारा बहिष्कार कर देने योग्य है । भावार्थ - जो आचार्य असमय में ही शिष्योंको दीक्षा दे देता है वह वृद्ध आचार्योंकी मान्यताका उल्लंघन करता है इसलिए साधुओं को चाहिए कि वे ऐसे आचार्यको अपने संघसे बाहर कर दें ॥ १६९ ॥ मुनिराज इस पारिव्रज्य क्रियामें उन सताईस सूत्र पदोंका निरूपण करते हैं जिनका कि निर्णय होनेपर पारिव्रज्यका साक्षात् लक्षण प्रकट होता है ॥ १६२ ॥ जाति, मूर्ति, उसमें रहनेवाले लक्षण, शरीरकी सुन्दरता, प्रभा, मण्डल, चक्र, अभिषेक, नाथता, सिंहासन, उपधान, छत्र, चामर, घोषणा, अशोक वृक्ष, निधि, गृहशोभा, अवगाहन, क्षेत्रज्ञ, आज्ञा, सभा, कीर्ति, वन्दनीयता, वाहन, भाषा, आहार और सुख ये जाति आदि सत्ताईस सूत्रपद कहलाते हैं ।। १६३ - १६५ ॥ ये जाति आदि सत्ताईस सूत्रपद परमेष्ठियोंके गुण कहलाते हैं । उस भव्य पुरुषको अपने जाति आदि आदर न करते हुए दीक्षा धारण करना चाहिए । भावार्थ - जाति आदि गुण जिस प्रकार परमेष्ठियों में होते हैं उसी प्रकार दीक्षा लेनेवाले शिष्यमें भी यथासम्भव रूपसे होते हैं परन्तु शिष्यको अपने जाति आदि गुणोंका सन्मान नहीं कर परमेष्ठियोंके हो जाति आदि गुणका सन्मान करना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से वह शिष्य अहंकार आदि दुर्गुणोंसे बचकर अपने आपका उत्थान शीघ्र ही कर सकता है || १६६ ।। स्वयं उत्तम जातिवाला होनेपर भी अहंकाररहित होकर अरहन्तदेवके चरणोंकी सेवा करनी चाहिए क्योंकि ऐसा करनेसे वह भव्य दूसरे जन्म में उत्पन्न होनेपर दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार जातियोंको प्राप्त होता है ॥ १६७ ॥ इन्द्रके दिव्या जाति होती है, चक्रवर्तियोंके विजयाश्रिता, अरहन्तदेव परमा और मोक्षको प्राप्त हुए जीवोंके अपने आत्मासे उत्पन्न होनेवाली स्वा १ नष्टमासस्याधिकमासस्य दिनयोः । २ असंपूर्ण तिथौ । १३ संपूर्णमतयः । ४ आम्नायम् ( परम्परा ) । ५ स्वीकुर्यात् । ६ वृद्धातिक्रमणे तत्परः । ७ पारिव्राज्ये । ८ निश्चितैः । ९ प्रत्यक्षम् । १० मूत्तिस्थितम् । तत्रत्यं ल० | ११ अभिषवश्च अभिषेको नाथता च स्वामित्वं च । १२ आत्मीयेषु । १३ जात्यादिषु । १४ अगवत । १५ चरणौ । १६ जन्मान्तरे । १७ उत्पत्ती सत्याम् । १८ दिव्यजातिर्विजयजातिः परमजातिः स्वामोत्थजातिरिति । १९ इन्द्रस्य - इयम् । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व २८५ मूादिष्वपि नेतव्या कल्पनेयं चतुष्टयी । पुराण रसंमोहात् क्वचिच्च नितयी मता ॥१६९॥ कर्शयेन्मूर्त्तिमात्मीयां रक्षन्मूर्तीः शरीरिणाम् । तपोऽधितिष्ठेद् दिव्यादिमूर्तीराप्तमना मुनिः ॥१७॥ स्वलक्षणमनिर्देश्यं मन्यमानो जिनेशिनाम् । लक्षणान्यभिसंधार्य तपस्येत् कृतलक्षणः ॥१७१॥ म्लापयन् स्वाङ्गसौन्दर्य मुनिरुग्रं तपश्चरेत् । वाञ्छन्दिव्यादिसौन्दर्यमनिवार्यपरम्परम् ॥१७२॥ मलीमसाङ्गो व्युत्सृष्टस्वकायप्रभवप्रभः । प्रभोः प्रभां मुनिायन् भवेत् क्षिप्रं प्रभास्वरः ॥१३॥ स्वं मणिस्नेह दीपादितेजोपास्य जिनं भजन् । तेजोमयमयं योगी स्यात्तेजोवलयोज्ज्वलः ॥१७॥ त्यक्त्वाऽस्त्र वस्त्र शस्त्राणि 'प्राक्तनानि प्रशान्तिभाक् । जिनमाराध्य योगीन्द्रो धर्मचक्राधिपो भवेत् । त्यनस्नानादिसंस्कारः संश्रित्य स्नातकं जिनम् । मूनि मेरोरवाप्नोति परं जन्माभिषेचनम् ॥१७६॥ स्वं स्वाम्यमैहिकं त्यक्त्वा परमस्वामिनं जिनम् । सेवित्वा सेवनीयत्वमेष्यत्येष जगजनैः ॥१७७॥ स्वोचितासनभेदानां त्यागात्त्यक्ताम्बरो मुनिः । सैंह विष्टरमध्यास्य तीर्थप्रख्यापको भवेत् ॥१८॥ 'स्वोपधानाद्यनादृत्य योऽभूनिरुप धिर्भुवि । शयानः स्थण्डिले बाहुमात्रार्पितशिरस्तटः॥७९॥ जाति होती है ॥१६८॥ इन चारोंकी कल्पना मूर्ति आदिमें कर लेनी चाहिए, अर्थात् जिस प्रकार जातिके दिव्या आदि चार भेद हैं उसी प्रकार मूर्ति आदिके भी समझ लेना चाहिए। परन्तु पुराणोंको जाननेवाले आचार्य मोहरहित होनेसे किसी-किसी जगह तीन ही भेदोंको कल्पना करते हैं । भावार्थ - सिद्धों में स्वा मूर्ति नहीं मानते हैं ॥१६९।। जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियोंको प्राप्त करना चाहता है उसे अपना शरीर कृश करना चाहिए तथा अन्य जीवोंके शरीरोंकी रक्षा करते हए तपश्चरण करना चाहिए ॥१७०॥ इसी प्रकार अनेक लक्षण धारण करनेवाला वह पुरुष अपने लक्षणोंको निर्देश करनेके अयोग्य मानता हुआ जिनेन्द्रदेवके लक्षणोंका चिन्तवन कर तपश्चरण करे ॥१७१॥ जिनकी परम्परा अनिवार्य है ऐसे दिव्य आदि सौन्दर्यो - की इच्छा करता हुआ वह मुनि अपने शरीरके सौन्दर्यको मलिन करता हुआ कठिन तपश्चरण करे ॥१७२।। जिसका शरीर मलिन हो गया है, जिसने अपने शरीरसे उत्पन्न होनेवाली प्रभाका त्याग कर दिया है और जो अर्हन्तदेवकी प्रभाका ध्यान करता है ऐसा साधु शीघ्र ही देदीप्यमान हो जाता है अर्थात दिव्यप्रभा आदि प्रभाओंको प्राप्त करता है॥१७३॥ जो मनि अपने मणि और तेलके दोपक आदिका तेज छोड़कर तेजोमय जिनेन्द्र भगवान्की आराधना करता है वह प्रभामण्डलसे उज्ज्वल हो उठता है ॥१७४॥ जो पहलेके अस्त्र, वस्त्र और शस्त्र आदिको छोड़कर अत्यन्त शान्त होता हुआ जिनेन्द्र भगवान्की आराधना करता है वह योगिराज धर्मचक्रका अधिपति होता है ॥१७५॥ जो मुनि स्नान आदिका संस्कार छोड़ कर केवली जिनेन्द्र का आश्रय लेता है अर्थात् उनका चिन्तवन करता है वह मेरुपर्वतके मस्तकपर उत्कृष्ट जन्माभिषेकको प्राप्त होता है ॥१७६।। जो मुनि अपने इस लोक-सम्बन्धी स्वामीपनेको छोड़कर परमस्वामी श्रीजिनेन्द्र देवकी सेवा करता है वह जगत्के जीवोंके द्वारा सेवनीय होता है अर्थात् जगत्के सब जीव उसकी सेवा करते हैं ॥१७७।। जो मुनि अपने योग्य अनेक आसनोंके भेदोंका त्याग कर दिगम्बर हो जाता है वह सिंहासनपर आरूढ़ होकर तीर्थको प्रसिद्ध करनेवाला अर्थात् तीर्थ कर होता है ।।१७८॥ जो मुनि अपने तकिया आदिका अनादर कर परिग्रह१ दिव्यमूर्तिविजयमूर्तिः परममूर्तिः स्वात्मोत्थमूर्तिरिति एवमुत्तरत्रापि योजनीयम्। २ सिद्धादौ । ३ नामसंकीर्तनं कर्तुमयोग्यमिति । ४ ध्यात्वा । ५ गुणः प्रतीतः । 'गुणैः प्रतीते तु कृतलक्षणाहितलक्षणो' इत्यभिधानात् । ६ म्लानि कुर्वन् । ७ जिनस्य । ८ तेलाम्यङ्गन । ९ दिव्यास्त्र । १० -व्यस्त्र-ट० । करमुक्तः । ११ सामान्यास्त्र । १२ प्रकृष्टज्ञानातिशयम् । १३ स्वामित्वम् । १४ निजोपवर्हासनादि । 'उपधानं तूपवहम्' . इत्यभिधानात् । १५ निःपरिग्रहः ।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आदिपुराणम् स महाभ्युदयं प्राप्य जिनो भूत्वाऽऽप्तसक्रियः । देवैर्विरचितं दीप्रमास्कन्दत्युपधानकम् ॥१०॥ त्यक्तशीतातपत्राण सकलात्मपरिच्छदः । त्रिभिश्छत्रैः समुद्भासिरौद्भासते स्वयम् ॥१८॥ विविधव्यजन त्यागादनुष्टिततपोविधिः । चामराणां चतुःषष्ट्या वीज्यते जिनपर्यये ॥१२॥ उज्झितानकसंगीतघोषः कृत्वा तपोविधिम् । स्याद् द्यदुन्दुभिनिर्घोषैर्युष्यमाणजयोदयः ॥१८३॥ उद्यानादिकृतां छायामपास्य स्वां तपो व्यधात् । यतोऽयमत एवास्य स्यादशोकमहाद्रुमः ॥१८४॥ स्वं स्वापतेयमुचितं त्यक्त्वा निर्ममतामितः । स्वयं निधिमिरभ्येत्य सेव्यते द्वारि दरतः ॥१८५॥ गृहशोभा कृतारक्षां दूरीकृत्य तपस्यतः । श्रीमण्डपादिशोभास्य स्वतोऽभ्येति पुरोगताम् ॥१८६॥ तपोऽवगाहनादस्य गहनान्यधितिष्ठतः । त्रिजगजनतास्थानसह स्यादवगाहनम् ॥१८७॥ क्षेत्रवास्तुसमुत्सर्गात् ' क्षेत्रज्ञत्वमुपेयुषः । स्वाधीनत्रिजगत्क्षेत्रमैश्यसस्योपजायते ॥१८॥ आज्ञाभिमानमुत्सृज्य मौनमास्थितवानयम् । प्राप्नोति परमामाज्ञां सुरासुरशिरोताम् ॥१८९॥ स्वामिष्टभृत्यबन्ध्वादिसभामुत्सृष्टवानयम् । परमाप्तपदप्राप्ता वध्यास्ते त्रिजगत्सभाम् ॥१९॥ रहित हो जाता है और केवल अपनी भुजापर शिरका किनारा रखकर पृथिवीके ऊँचे-नीचे प्रदेशपर शयन करता है वह महाअभ्युदय ( स्वर्गादिको विभूति ) को पाकर जिन हो जाता है, उस समय सब लोग उसका आदर-सत्कार करते हैं और वह देवोंके द्वारा बने हुए देदीप्यमान तकियाको प्राप्त होता है ।।१७९-१८०॥ जो मनि शीतल छत्र आदि अपने समस्त परिग्रहका त्याग कर देता है वह स्वयं देदीप्यमान रत्नोंसे युक्त तीन छत्रोंसे सुशोभित होता है ॥१८१॥ अनेक प्रकारके पंखाओंके त्यागसे जिसने तपश्चरणकी विधिका पालन किया है ऐसा मनि जिनेन्द्रपर्यायमें चौंसठ चमरोंसे वीजित होता है अर्थात उसपर चौंसठ चमर ढलाये जाते हैं ॥१८२॥ जो मनि नगाड़े तथा संगीत आदिकी घोषणाका त्याग कर तपश्चरण करता है उसके विजयका उदय स्वर्गके दुन्दुभियोंके गम्भीर शब्दोंसे घोषित किया जाता है ॥१८३॥ चूंकि पहले उसने अपने उद्यान आदिके द्वारा की हुई छायाका परित्याग कर तपश्चरण किया था इसलिए ही अब उसे ( अरहन्त अवस्थामें ) महाअशोक वृक्षकी प्राप्ति होती है ॥१८४॥ जो अपना योग्य धन छोड़कर निर्ममत्वभावको प्राप्त होता है वह स्वयं आकर दूर दरवाजेपर खड़ी हुई निधियोंसे सेवित होता है अर्थात् समवसरण भूमिमें निधियाँ दरवाजेपर खड़े रहकर उसकी सेवा करती हैं ॥१८५॥ जिसकी रक्षा सब ओरसे की गयी थी ऐसी घरकी शोभाको छोड़कर इसने तपश्चरण किया था इसीलिए श्रीमण्डपकी शोभा अपने-आप इसके सामने आती है ॥१८६॥ जो तप करनेके लिए सघन वनमें निवास करता है उसे तीनों जगत्के जीवोंके लिए स्थान दे सकनेवाली अवगाहन शक्ति प्राप्त हो जाती है अर्थात् उसका ऐसा समवसरण रचा जाता है जिसमें तीनों लोकोंके समस्त जीव सुखसे स्थान पा सकते हैं ॥१८७।। जो क्षेत्र मकान आदिका परित्याग कर शुद्ध आत्माको प्राप्त होता है उसे तीनों जगत्के क्षेत्रको अपने अधीन रखनेवाला ऐश्वर्य प्राप्त होता है ॥१८८॥ जो मुनि आज्ञा देनेका अभिमान छोड़कर मौन धारण करता है उसे सुर और असुरोंके द्वारा शिरपर धारण की हुई उत्कृष्ट आज्ञा प्राप्त होती है अर्थात उसकी आज्ञा सब जीव मानते हैं ॥१८९॥ जो यह मुनि अपने इष्ट सेवक तथा भाई आदिकी सभाका परित्याग करता है इसलिए उत्कृष्ट अरहन्त पदकी प्राप्ति होनेपर १ उपवहम् । २ छत्र । ३ चामर । ४ अर्हत्पर्याये सति । ५ स्वदुन्दुभिः । ६ धनम् । 'द्रव्यं वृत्तं स्वापतेयं रिक्थं दृक्थं धनं वसु' इत्यभिधानात् । ७ निर्गमत्वं गतः । ८ अग्रेसरताम् । ९ प्रवेशनात् । १० आत्मस्वरूपत्वम् । 'क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषः' इत्यभिधानात् । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व ७ taraadit त्यक्तकामो महातपाः । स्तुतिनिन्दासमो भूयः कीर्त्यते भुवनेश्वरैः ॥ ६१॥ वन्दित्वा वन्द्यमर्हन्तं 'यतोऽनुष्टितवांस्तपः । ततोऽयं वन्द्यते वन्धेर निन्द्यगुणसं निधिः ॥ १९२॥ तपोऽयमनुपानस्कः पादचारी विवाहनः । कृतवान् पद्मगर्भेषु चरणन्यासमर्हति ॥ १९३॥ वाग्गुप्तो हितवाग्वृत्त्या यतोऽयं तपसि स्थितः । ततोऽस्य दिव्यभाषा स्यात् प्रीणयन्त्यखिलां सभाम् ॥ "अनाश्वान्नियताहारपारणो यत्तपः । तदस्य दिव्यविजय परमामृततृप्तयः ॥ १६५ ॥ त्यक्तकामसुखो भूत्वा तपस्यस्थाच्चिरं यतः । ततोऽयं सुखसाद्भूत्वा परमानन्दधुं मजेत् ॥ १६६॥ किमत्र बहुनोफेन यद्यदिष्टं यथाविधम् । त्यजेन्मुनिरसंकल्पः तत्तत्सूतेऽस्य तत्तपः ॥१९७॥ प्रोत्कर्षं तदस्य स्यात्तपश्चिन्तामणेः फलम् । यतोऽर्हजातिमूर्त्यादिप्राप्तिः सैषाऽनुवर्णिता ॥ १९८॥ जैनेश्वरीं परामाज्ञां सूत्रोद्दिष्टां प्रमाणयन् । तपस्यां यदुपाधत्ते पारिव्राज्यं तदाञ्जसम् ॥ १६९ ॥ अन्यच्च बहुवाग्जाले निबद्धं युक्तिबाधितम् । पारिव्राज्य परित्यज्य ग्राह्यं चेदमनुत्तरम् ॥ २००॥ इति परिव्राज्यम् । १२ २८७ वह तीनों लोकोंकी सभा अर्थात् समवसरण भूमिमें विराजमान होता है ॥ १९० ॥ जो सब प्रकारकी इच्छाओं का परित्याग कर अपने गुणोंकी प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चरण करता हुआ स्तुति तथा निन्दामें समान भाव रखता है वह तीनों लोकोंके इन्द्रोंके द्वारा प्रशंसित होता है अर्थात् सब लोग उसकी स्तुति करते हैं । १९१ || इस मुनिने वन्दना करने योग्य अर्हन्तदेवकी वन्दना कर तपश्चरण किया था इसीलिए यह वन्दना करने योग्य पूज्य पुरुषोंके द्वारा वन्दना किया जाता है तथा प्रशंसनीय उत्तम गुणों का भाण्डार हुआ है ॥१९२॥ जो जूता और सवारीका परित्याग कर पैदल चलता हुआ तपश्चरण करता है वह कमलोंके मध्यमें चरण रखनेके योग्य होता है अर्थात् अर्हन्त अवस्थामें देव लोग उसके चरणोंके नीचे कमलोंकी रचना करते हैं ॥ १९३ || चूँकि यह मुनि वचनगुप्तिको धारण कर अथवा हित मित वचनरूप भाषा समितिका पालन कर तपश्चरणमें स्थित हुआ था इसलिए ही इसे समस्त सभाको सन्तुष्ट करनेवाली दिव्य ध्वनि प्राप्त हुई है || १९४ || इस मुनिने पहले उपवास धारण कर अथवा नियमित आहार और पारणाएँ कर तप तपा था इसलिए ही इसे दिव्यतृप्ति, विजयतृप्ति, परमतृप्ति और अमृततृप्ति ये चारों ही तृप्तियाँ प्राप्त हुई हैं ।। १९५ ॥ | यह मुनि काम जनित सुखको छोड़कर चिरकाल तक तपश्चरणमें स्थिर रहा था इसलिए ही यह सुखस्वरूप होकर परमानन्दको प्राप्त हुआ है ॥ १९६ ॥ इसे विषयमें बहुत कहने से क्या लाभ है ? संक्षेप में इतना ही कह देना ठीक है कि मुनि संकल्परहित होकर जिस प्रकारकी जिस-जिस वस्तुका परित्याग करता है उसका तपश्चरण उसके लिए वही वही वस्तु उत्पन्न कर देता है ॥ १९७॥ जिस तपश्चरणरूपी चिन्तामणिका फल उत्कृष्ट पदकी प्राप्ति आदि मिलता है और जिससे अर्हन्तदेवी जाति तथा मूर्ति आदिकी प्राप्ति होती है ऐसी इस पारिव्रज्य नामकी क्रियाका वर्णन किया || १९८ ॥ जो आगममें कही हुई जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको प्रमाण मानता हुआ तपस्या धारण करता है अर्थात् दीक्षा ग्रहण करता है उसीके वास्तविक पारिव्रज्य होता है ॥ १९९ ।। अनेक प्रकारके वचनोंके जालमें निबद्ध तथा युक्तिसे बाधित अन्य लोगोंके पारिव्रज्य १ यस्मात् कारणात् । २ गणधरादिभिः । ३ पादत्राणरहितः । ४ पादन्यासस्य योग्यो भवति । ५ अनशनव्रती । ६ अकरोत् । ७ यत् कारणात् । ८ दिव्यतृप्ति विजयतृप्तिपरमतृप्त्यमृततृप्तयः । ९ आनन्दम् । १० प्रसिद्धं तपः । ११ पारमार्थिकम् । १२ अर्हत्संबन्धि पारिव्राज्यम् । १३ -मनुत्तमम् ल० । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ आदिपुराणम् . या सुरेन्द्रपदप्राप्तिः पारिवाज्यफलोदयात् । सैषा सुरेन्द्रता नाम क्रिया प्रागनुवर्णिता ॥२०१॥ इति सुरेन्द्रता। साम्राज्यमाधिराज्यं स्याच्चक्ररत्नपुरःसरम् । निधिरत्नसमुद्भूतं भोगसंपत्परम्परम् ॥२०२॥ इति साम्राज्यम् । आर्हन्त्यमहतो भावो कर्म वेति परा क्रिया । यत्र स्वर्गावतारादिमहाकल्याणसंपदः ॥२०३॥ याऽसौ दिवोऽवतीर्णस्य प्राप्तिः कल्याण संपदाम् । तदाहन्स्यमिति ज्ञेयं त्रैलोक्यक्षोभकारणम् ॥२०॥ इत्यान्त्यिम् । भवबन्धनमुक्तस्य यावस्था परमात्मनः । परिनिर्वृत्तिरिष्टा सा परं निर्वाणमित्यपि ॥२०५॥ कृत्स्नकर्ममलापायात् संशुद्धिर्याऽन्तरात्मनः । सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः सानाभावो न गुणोच्छिदाँ ॥ इति निर्वृतिः। इत्यागमानुसारेण प्रोक्ताः कन्वयक्रियाः । सप्तैताः परमस्थानसंगतियत्र योगिनाम् ॥२०७॥ योऽनुतिष्टत्यतन्द्रालुः क्रिया ह्येतास्त्रिधोदिताः । सोऽधिगच्छेत् परं धाम यत्संप्राप्ती परं शिवम् ॥२०॥ पुष्पिताग्रावृत्तम् जिनमतविहितं पुराणधर्म य इममनुस्मरति क्रियानिबद्धम् । अनुचरति च पुण्यधीः स भन्यो भवभयबन्धनमाशु निर्धनाति ॥२०९॥ को छोड़कर इसी सर्वोत्कृष्ट पारिव्रज्यको ग्रहण करना चाहिए ॥२००॥ यह तीसरी पारिव्रज्य क्रिया है। पारिव्रज्यके फलका उदय होनेसे जो सुरेन्द्र पदकी प्राप्ति होती है वही यह सुरेन्द्रता नामकी क्रिया है इसका वर्णन पहले किया जा चुका है ॥२०१॥ यह चौथी सुरेन्द्रता क्रिया है । __ जिसमें चक्र रत्नके साथ-साथ निधियों और रत्नोंसे उत्पन्न हुए भोगोपभोगरूपी सम्पदाओंकी परम्परा प्राप्त होती है ऐसा चक्रवर्तीका बड़ा भारी राज्य साम्राज्य कहलाता है ॥२०२॥ यह पाँचवीं साम्राज्यक्रिया है। . अर्हत् परमेष्ठीका भाव अथवा कर्मरूप जो उत्कृष्ट किया है उसे आर्हन्त्य क्रिया कहते हैं । इस क्रिया में स्वर्गावतार आदि महाकल्याणकरूप सम्पदाओंकी प्राप्ति होती है ॥२०३।। स्वर्गसे अवतीर्ण हुए अर्हन्त परमेष्ठीको जो पंचकल्याणकरूप सम्पदाओंकी प्राप्ति होती है उसे आर्हन्त्य किया जानना चाहिए, यह आर्हन्त्यक्रिया तीनों लोकोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाली है ॥२०४।। यह छठी आर्हन्त्यक्रिया है । संसारके बन्धनसे मुक्त हुए परमात्माकी जो अवस्था होती है उसे परिनिर्वृति कहते हैं । इसका दूसरा नाम परनिर्वाण भी है ।।२०५।। समस्त कर्मरूपी मलके नष्ट हो जानेसे जो अन्तरात्माकी शुद्धि होती है उसे सिद्धि कहते हैं, यह सिद्धि अपने आत्मतत्त्वकी प्राप्तिरूप है अभावरूप नहीं है और न ज्ञान आदि गुणोंके नाशरूप ही है ॥२०६।। यह सातवीं परिनिर्वृति क्रिया है। - इस प्रकार आगमके अनुसार ये सात कर्जन्वय क्रियाएँ कही गयी हैं, इन क्रियाओंका पालन करनेसे योगियोंको परम स्थानकी प्राप्ति होती है ॥२०७॥ जो भव्य आलस्य छोड़कर निरूपण की हुई इन तीन प्रकारको क्रियाओंका अनुष्ठान करता है वह उस परमधाम (मोक्ष) को प्राप्त होता है जिसके प्राप्त होनेपर उसे उत्कृष्ट सुख मिल जाता है ॥२०८।। पवित्र बुद्धिको धारण करने १ फलोदये प० । २ तुच्छाभावरूपो न। ३ 'बुद्धिसुखदुःखादिनयानामात्मगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्ष' इति मतप्रोक्तो मोक्षो न । ४ सुखम् । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व परम जिनपदानुरक्तधी स धुतनिखिलकर्मबन्धनो जति पुमान् य इमं क्रियाविधिम् । जननजरामरणान्तकृद् भवेत् ॥२१०॥ शादूलविक्रीडितम् भव्यात्मा समवाप्य जातिमुचितां जातस्ततः सद्गृही पारिव्राज्यमनुत्तरं गुरुमतादासाद्य यातो दिवम् । द्रश्रियमाप्तवान् पुनरत च्युत्वा गतश्चक्रितां प्राप्तान्त्यपदः समग्र महिमा प्राप्नोत्यतो निर्वृतिम् ॥ २११ ॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहे दीक्षान्यक्रियावर्णनं नाम एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व ॥ ३६ ॥ १ विनाशकारी । २ स्वर्गात् । ३७ वाला जो भव्य पुरुष उक्त क्रियाओं सहित जिनमतमें कहे हुए इस पुराणके धर्मका अथवा ' प्राचीन धर्मका स्मरण करता है और उसीके अनुसार आचरण करता है वह संसारसम्बन्धी भयके बन्धनको शीघ्र ही तोड़ देता है- नष्ट कर देता है || २०६ || जिसकी बुद्धि अत्यन्त उत्कृष्ट जिनेन्द्रभगवान् के चरणकमलों में अनुरागको प्राप्त हो रही है ऐसा जो पुरुष इन क्रियाओंकी विधिका सेवन करता है वह समस्त कर्मबन्धनको नष्ट करता हुआ जन्म, बुढ़ापा और मरणका अन्त करनेवाला होता है || २१० || यह भव्य पुरुष प्रथम ही योग्य जातिको पाकर सद्गृहस्थ होता है फिर गुरुकी आज्ञासे उत्कृष्ट पारिव्रज्यको प्राप्त कर स्वर्ग जाता है, वहाँ उसे इन्द्रकी लक्ष्मी प्राप्त होती है, तदनन्तर वहाँसे च्युत होकर चक्रवर्ती पदको प्राप्त होता है, फिर अरहन्त पदको प्राप्त होकर उत्कृष्ट महिमाका धारक होता है और इसके बाद निर्वाणको प्राप्त होता है ॥२११॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवाद में दीक्षान्वय और कर्त्रन्वय क्रियाओंका वर्णन करनेवाला उनतालीसवां पर्व समाप्त हुआ । २८९ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तम पर्व अथातः संग्रवश्यामि क्रियासूत्तरचूलिकाम् । विशेषनिर्णयो यत्र क्रियाणां तिमृणामपि ॥१॥ तत्रादौ तावदुम्नेष्ये क्रियाकल्पप्रक्लाये । मन्त्रोद्धारं क्रियासिद्धिर्मन्त्राधीना हि योगिनाम् ॥२॥ आधानादि क्रियारम्भे पूर्वमेव निवेशयेत् । त्रीणिच्छत्राणि चक्राणां त्रयं त्रींश्च हविर्भुजः ॥३॥ मध्येवेदि जिनेन्द्रार्चाः स्थापयेच्च यथाविधि । मन्त्रकल्पोऽयमाम्नातस्तत्र तत्पूजनाविधौ ॥४॥ नमोऽन्तो नीरजश्शब्दश्चतुर्थ्यन्तोऽत्र पठ्यताम् । जलेन भूमिबन्धार्थ परा शुद्विस्तु तत्फलम् ॥५॥ (नीरजसे नमः ). दर्भास्तरणसंबन्धस्ततः पश्चादुदीर्यताम् । विघ्नोपशान्तये दर्पमथनाय नमः पदम् ॥६॥ (दर्पमथनाय नमः) गन्धप्रदानमन्त्रश्च शीलगन्धाय वै नमः । ( शीलगन्धाय नमः) पुष्पप्रदानमन्त्रोऽपि विमलाय नमः पदम् ॥७॥ (विमलाय नमः ) अथानन्तर-आगे इन क्रियाओंकी उत्तरचूलिकाका कथन करेंगे जिससे कि इन तीनों क्रियाओंका विशेष निर्णय किया गया है ।।१।। इस उत्तरचूलिकामें भी सबसे पहले क्रियाकल्प अर्थात् क्रियाओंके समूहकी सिद्धि के लिए मन्त्रोंका उद्धार करूंगा अर्थात् मन्त्रोंकी रचना आदिका निरूपण करूँगा सो ठीक ही है क्योंकि मुनियोंके कार्यकी सिद्धि भी मन्त्रोंके हो अधीन होती है ॥२॥ आधानादि क्रियाओंके प्रारम्भमें सबसे पहले तीन छत्र, तीन चक्र और तीन अग्नियाँ स्थापित करना चाहिए ॥३॥ और वेदीके मध्य भागमें विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमा विराजमान करनी चाहिए । उक्त क्रियाओंके प्रारम्भमें उन छत्र, चक्र, अग्नि तथा जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाकी जो पूजा की जाती है वह मन्त्रकल्प कहलाता है ॥४॥ इन क्रियाओंके करते समय जलसे भूमि शुद्ध करनेके लिए जिसके अन्तमें नमः शब्द लगा हुआ है ऐसे नीरजस् शब्दको चतुर्थीके एकवचनका रूप पढ़ना चाहिए अर्थात् 'नीरजसे नमः' ( कर्मरूप धूलिसे रहित जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार हो ) यह मन्त्र बोलना चाहिए । इस मन्त्रका फल उत्कृष्ट विशुद्धि होना है ।।५।। तदनन्तर डाभका आसन ग्रहण करना चाहिए और उसके बाद विघ्नोंको शान्त करने के लिए 'दर्पमथनाय नमः' ( अहंकारको नष्ट करनेवाले भगवान्को नमस्कार हो) इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए ॥६॥ गन्ध समर्पण करनेका मन्त्र है 'शीलगन्धाय नमः' ( शील रूप सुगन्ध धारण करनेवाले जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो ) । तथा पुष्प देनेका मन्त्र है 'विमलाय १ उपरितनांशं यत् चुलिकायाम् । २ गर्भान्वयादीनाम् । ३ वक्ष्ये । ४ क्रियाकलापकरणार्थम् । ५ अग्नीन् । ६ वेदिमध्ये । ७ गर्भाधानादिक्रियारम्भे । ८ छत्रत्रयादिपूजन। ९ भूमिसंयोगार्थं भूमिसे चनार्थमित्यर्थः । १० जलसेचनफलम् । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व प कुर्यातपूजार्थमताय नमः पदम् । पाय नमः परमुदाहरेत् ॥८॥ ज्ञानद्योतत्य पूर्वं च दीपदाने नमः पदम् । मन्त्रः परमसिवाय नमः ॥६॥ ד मन्त्रैरभिस्तु संस्कृत्य यथावज्जगतीतलम् । ततोऽन्व पीटिकामा ( अक्षताय नमः ) ( श्रुतवूपाय नमः ) ( ज्ञानोद्यताय नमः ) ( परमसिद्धाय नमः ) पीठिकामन्त्रः पठनीयो द्विजोत्तमैः ॥ १० ॥ सत्यजातपपूर्वचतं नमः परम् । ततोऽजातशब्द तद्न्तस्तत्परो मतः ॥११॥ ततः परमजाताय नम इत्यपरं पदम् । ततोऽनुपमजाताय नम इत्युत्तरं पदम् ॥ १२ ॥ ततश्च स्वप्रधानाय नम इत्युत्तरो ध्वनिः । अचलाय नमः शब्दादक्षयाय नमः परम् ॥ १३ ॥ अव्यावाचदं चान्यदनन्तज्ञानशब्दनम् । अनन्तदर्शनानन्तवीर्यशब्द ततः पृथक् ॥१५॥ अनन्तसुरशब्द नीरजःशब्द एव च निर्मलायशब्द तथाऽमेधाजरती ॥ १५ ॥ २२.१ - , नमः' ( कर्ममलसे रहित जिनेन्द्र भगवान् के लिए नमस्कार हो ) ||७|| अक्षतसे पूजा करनेके लिए 'अक्षताय नम:' ( क्षयरहित जिनेन्द्रभगवान्‌को नमस्कार हो ) यह मन्त्र बोले और धूपसे पूजा करते समय 'श्रुतधूपाय नमः' ( प्रसिद्ध वासनावाले भगवान्‌को नमस्कार हो ) इस मन्त्र - का उच्चारण करें ||८|| दीप चढ़ाते समय 'ज्ञानोद्योताय नमः' ( ज्ञानरूप उद्योत प्रकाश ) को धारण करनेवाले जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार हो ) यह मन्त्र पढ़े और अमृत अर्थात् नैवेद्य चढ़ाते समय 'परमसिद्धाय नमः' ( उत्कृष्ट सिद्ध भगवान्‌को नमस्कार हो ) ऐसा मन्त्र बोले ॥६॥ इस प्रकार इन मन्त्रोंसे विधिपूर्वक भूमिका संस्कार कर उसके बाद उन उत्तम द्विजोंको पीठिका मन्त्र पढ़ना चाहिए ||१०|| पीठिका मन्त्र इस प्रकार है सबसे पहले जिसके आगे 'नमः' शब्द लगा हुआ है और चतुर्थी विभक्ति अन्त में है ऐसे सत्यजात शब्दका उच्चारण करना चाहिए अर्थात् 'सत्यजाताय नमः ' ( सत्यरूप जन्मको धारण करनेवाले जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार हो ) बोलना चाहिए, उसके बाद चतुर्थ्यन्त अर्हज्जात शब्दके आगे 'नमः' पद लगाकर 'अहंज्जाताय नमः' ( प्रशंसनीय जन्मको धारण करनेवाले जिनेन्द्रभगवान्‌को नमस्कार हो ) यह मन्त्र बोले ||११|| तदनन्तर 'परमजाताय नमः ( उत्कृष्ट जन्मग्रहण करनेवाले अर्हन्तदेवको नमस्कार हो ) बोलना चाहिए और उसके बाद 'अनुपमजाताय नमः' ( उपमारहित जन्म धारण करनेवाले जिनेन्द्रको नमस्कार हो ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिए ||१२|| इसके बाद 'स्वप्रधानाय नमः' ( अपने आप ही प्रधान अवस्थाको प्राप्त होनेवाले जिनराजको नमस्कार हो ) यह मन्त्र बोले और उसके पश्चात् 'अचलाय नमः' ( स्वरूप में निश्चल रहनेवाले वीतरागको नमस्कार हो ) तथा 'अक्षयाय नमः' ( कभी नष्ट न होनेवाले भगवान्को नमस्कार हो ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिए || १३ | इसी प्रकार 'अव्याबाधाय नमः' ( बाधाओंसे रहित परमेश्वरको नमस्कार हो ), 'अनन्तज्ञानाय नमः' ( अनन्तज्ञानको धारण करनेवाले जिनराजको नमस्कार हो ), 'अनन्तदर्शनाय नमः' ( अनन्तदर्शन- केवल दर्शनको धारण करनेवाले जिनेन्द्र'देवको नमस्कार हो ), 'अनन्तवीर्याय नम:' ( अनन्त बलके धारक अर्हन्तदेवको नमस्कार हो ) 'अनन्तसुखाय नमः ' ( अनन्तसुखके भाण्डार जिनेन्द्र भगवान्‌को नमस्कार हो), 'नीरजसे १ धूपार्थने । २ चरुसमर्पणं । ३ तस्मात् परम् । ४ चतुर्थ्यन्तः । ५ नमः परः ६ शब्दः ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ आदिपुराणम् ततोऽमराप्रमेयोक्ती सागर्भावासशब्दने । ततोऽक्षोभ्याविलीनोक्ती परमादिर्घनध्वनिः ॥१६॥ पृथक्पृथगिमे शब्दास्तदन्तास्तत्परा मताः । उत्तराण्यनुसंधाय, पदान्येभिः पदैर्वदेत् ॥१७॥ आदौ परमकाष्टेति योगरूपाय वाक्परम् । नमःशब्दमुदीर्यान्ते मन्त्रविन्मन्त्रमुद्धरेत् ॥१८॥ लोकाग्रवासिनेशब्दात्परः कार्यो नमो नमः। एवं परमसिद्धेभ्योऽर्हसिद्धभ्य इत्यपि ॥१९॥ एवं केवलिसिद्धेभ्यः पदाद् भूयोऽन्तकृत्पदात् । सिद्धेभ्य इत्यमुष्माच्च परम्परपदादपि ॥२०॥ अनादिपदपूर्वाच्च तस्मादेव पदात्परम् । अनाद्यनुपमादिभ्यः सिद्धेभ्यश्च नमो नमः ॥२१॥ नमः' ( कर्मरूपी धूलिसे रहित जिनराजको नमस्कार हो ), 'निर्मलाय नमः' ( कर्मरूप मलसे रहित जिनेन्द्रभगवान्को नमस्कार हो ) 'अच्छेद्याय नमः' ( जिनका कोई छेदन नहीं कर सके ऐसे जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो ), 'अभेद्याय नमः' ( जो किसी तरह भिद नहीं सके ऐसे अरहन्त'को नमस्कार हो ), 'अजराय नमः' (जो बुढ़ापासे रहित है उसे नमस्कार हो), 'अमराय नमः' ( जो मरणसे रहित है उसे नमस्कार हो ), 'अप्रमेयाय नमः' ( जो प्रमाणसे रहित है-छद्मस्थ पुरुषके ज्ञानसे अगम्य है, उसे नमस्कार हो ), 'अगर्भवासाय नमः' ( जो जन्म-मरणसे रहित होनेके कारण किसीके गर्भ में निवास नहीं करते ऐसे जिनराजको नमस्कार हो ), अक्षोभ्याय नमः' ( जिन्हें कोई क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकता ऐसे भगवान्को नमस्कार हो ), 'अविलीनाय नमः' ( जो कभी विलीन-नष्ट नहीं होते उन परमात्माको नमस्कार हो) और 'परमघनाय नमः' ( जो उत्कृष्ट घनरूप हैं-उन्हें नमस्कार हो ) इन अव्याबाध आदि शब्दोंके आगे चतुर्थीविभक्ति तथा नमः शब्द लगाकर ऊपर लिखे अनुसार अव्याबाधाय नमः आदि मन्त्र पदोंका उच्चारण करना चाहिए ॥१४-१७॥ तदनन्तर मन्त्रको जाननेवाला द्विज जिसके आदिमें 'परमकाष्ठ' है और अन्तमें योगरूपाय है ऐसे शब्दका उच्चारण कर उसके आगे 'नमः' पद लगाता हुआ 'परमकाष्ठयोगाय नमः' ( जिनका योग उत्कृष्ट सीमाको प्राप्त हो रहा है ऐसे जिनेन्द्रको नमस्कार हो ) इस मन्त्रका उद्धार करे ॥१८॥ फिर लोकाग्रवासिने शब्दके आगे 'नमो नमः' लगाना चाहिए इसी प्रकार परम सिद्धेभ्यः और अर्हत्सिद्धेभ्यः शब्दोंके आगे भी नमो नमः शब्दका प्रयोग करना चाहिए अर्थात् क्रमसे 'लोकाग्रवासिने नमो नमः' ( लोकके अग्रभागपर निवास करनेवाले सिद्ध परमेष्ठीको बार-बार नमस्कार हो ) 'परमसिद्धेभ्यो नमो नमः' ( परम सिद्धभगवान्को बार-बार नमस्कार हो ) और 'अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नमः' ( जिन्होंने अरहन्त अवस्थाके बाद सिद्ध अवस्था प्राप्त की है ऐसे सिद्ध महाराजको बार-बार नमस्कार हो ) इन मन्त्रोंका उच्चारण करना चाहिए ॥१९॥ इसी प्रकार 'केवलिसिद्धेभ्यो नमो नमः' ( केवली सिद्धोंको नमस्कार हो ) 'अन्तःकृत्सिद्धेभ्यो नमो नमः' ( अन्तकृत् केवली होकर सिद्ध होनेवालोंको नमस्कार हो ), 'परम्परसिद्धेभ्यो नमः' ( परम्परासे हुए सिद्धोंको नमस्कार हो ) 'अनादिपरम्परसिद्धेभ्यो नमः' ( अनादि कालसे हुए परम सिद्धोंको नमस्कार हो, ) और 'अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमो नमः' ( अनादिकालसे हुए उपमारहित सिद्धोंको नमस्कार हो ) इन मन्त्र पदोंका उच्चारण कर नीचे लिखे पद पढ़ना चाहिए। इन नीचे लिखे शब्दोंको सम्बोधनरूपसे दो-दो बार बोलना चाहिए । प्रथम ही हे सम्यग्दृष्टे हे सम्यग्दृष्टे, हे आसन्नभव्य १ अमराप्रमेयशब्दौ । २ सागर्भावासशब्दसहिते। ३ परमघनशब्दः । ४ अव्याबाधपदमित्यादयः । ५ चतुर्थ्यन्ताः । ६.नमःशब्दपराः । ७ परम्परशब्दात् । ८ सिद्धेभ्य इति पदात् । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तम पर्व २९३ इति मन्त्रपदान्युक्त्वा पदानीभान्यतः पठेत् । द्विरुक्त्वाऽऽमन्त्र्य वक्तव्यं सम्यग्दृष्टिपदं ततः ॥२२॥ आसन्नभव्यशब्दश्च द्विर्वाच्यस्तद्वदेव हि । निर्वाणादिश्च पूजाहः स्वाहान्तोऽग्नीन्द्र इत्यपि ॥२३॥ काम्यमन्त्रः ततः स्त्रकाम्यसिद्ध्यर्थमिदं पदमुदाहरेत् । सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु तत्परम् ॥२४॥ अपमृत्युविनाशनं भवत्वन्तं पदं भवेत् । भवत्वन्तमतो वाच्यं समाधिमरणाक्षरम् ॥२५॥ चूर्णिः 'सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, परमजाताय नमः, अनुपमजाताय नमः, स्वप्रधानाय नमः, अचलाय नमः, अझयाय नमः, अध्याबाधाय नमः, अनन्तज्ञानाय नमः, अनन्तदर्शनाय नमः, अनन्तवीर्याय नमः, अनन्त सुखाय नमः, नीरजसे नमः, निर्मलाय नमः, अच्छे द्याय नमः, अभेद्याय नमः, अजराय नमः, अमराय नमः, अप्रमेयाय नमः, गर्भवासाय नमः, अक्षोभ्याय नमः, अविलीनाय नमः परमघनाय नमः, परमकाष्टयोगरूपाय नमः, लोकाग्रवासिने नमो नमः, परमसिद्धेभ्यो नमो नमः, अईसिद्धेभ्यो नमो नमः, केवलिसिद्धेभ्यो नमो नमः, अन्तकृसिद्धेभ्यो नमो नमः, परम्परसिद्धेभ्यो नमः, अनादिपरम्परसिद्धेभ्यो नमो नमः, अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नमव्य आसन्नभव्य निर्वाणपूजार्ह निर्वाणपूजाह अग्नीन्द्र स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । पीठिकामन्त्र एष स्यात् पदैरेभिः समुच्चितैः । जातिमन्त्रमितो वक्ष्ये यथाश्रुतमनुक्रमात् ॥२६॥ सत्यजन्मपदं तान्तमादौ शरणमप्यतः । प्रपद्यामीति वाच्यं स्यादर्हजन्मपदं तथा ॥२७॥ हे आसन्नभव्य, हे निर्वाणपूजाह, हे निर्वाणपूजार्ह, और फिर अग्नीन्द्र स्वाहा इस प्रकार उच्चारण करना चाहिए ( इन सबका अर्थ यह है कि हे सम्यग्दृष्टि, हे निकट भव्य, हे निर्वाण कल्याणकी पूजा करने योग्य, अग्निकुमार देवोंके इन्द्र, तेरे लिए यह हवि समर्पित करता हूँ ) ॥२०-२३॥ ( अब इसके आगे काम्य मन्त्र लिखते हैं )। तदनन्तर अपनी इष्टसिद्धिके लिए नीचे लिखे पदका उच्चारण करना चाहिए 'सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु' अर्थात् मुझे सेवाके फलस्वरूप छह परम स्थानोंकी प्राप्ति हो, अपमृत्युका नाश हो और समाधिमरण प्राप्त हो ॥२४-२५॥ ऊपर कहे हुए सब मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है : सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, परमजाताय नमः, अनुपमजाताय नमः, स्वप्रधानाय नमः, अचलाय नमः, अक्षयाय नमः, अव्याबाधाय नमः, अनन्तज्ञानाय नमः, अनन्तदर्शनाय नमः, अनन्तवीर्याय नमः, अनन्तसुखाय नमः, नीरजसे नमः, निर्मलाय नमः, अच्छेद्याय नमः, अभेद्याय नमः, अजराय नमः, अमराय नमः, अप्रमेयाय नमः, अगर्भवासाय नमः, अक्षो. भ्याय नमः, अविलीनाय नमः, परमघनाय नमः, परमकाष्ठायोगरूपाय नमः, लोकाग्रवासिने नमो नमः, परमसिद्धेभ्यो नमो नमः, अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नमः, केवलिसिद्धेभ्यो नमो नमः, अन कृत्सिद्धेभ्यो नमो नमः, परम्परसिद्धेभ्यो नमो नमः, अनादिपरम्परसिद्धेभ्यो नमो नमः, अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्य 'आसन्नभव्य निर्वाणपूजार्ह निर्वाणपूजार्ह अग्नीन्द्र स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु विनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । . इस प्रकार इन समस्त पदोंके द्वारा यह पीठिका मन्त्र कहा, अब इसके आगे शास्त्रोंके अनुसार अनुक्रमसे जातिमन्त्र कहते हैं ॥२६॥ तान्त अर्थात् षष्ठीविभक्त्यन्त सत्यजन्म पदके आगे शरण और उसके आगे प्रपद्यामि शब्द कहना अर्थात 'सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि' ( मैं १ संबोधनं कृत्वा । २ आमन्त्रणं कृत्वेत्यर्थः । ३ अभीष्टम् । ४ तस्मादुपरि । ५ भवतुशब्दोऽन्ते यस्य तत् । ६ पठेत् द०, ल०, अ०, ५०, स०, इ०। ७ समाधिपरणपदम् । ८ आगमानतिक्रमेण । ९ नान्तमिति पाठः, नकारः अन्ते यस्य तत् । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आदिपुराणम् अईनमातृपदं तद्वत्वन्तमर्हत्सुताक्षरम् । अनादिगमनस्येति तथाऽनुपमजन्मनः ॥२८॥ रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामीत्यतः परम् । बोद्ध्यन्तं च ततः सम्यग्दृष्टिं द्वित्वेन योजयेत् ॥२५॥ ज्ञानमूर्तिपदं तद्वत्सरस्वतिपदं तथा । स्वाहान्तमन्ते वक्तव्यं काम्यमन्त्रश्च पूर्ववत् ॥३०॥ __ चूर्णिः - सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अईजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अन्मातुः शरणं प्रपयामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि, अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्थ शरणं प्रपद्यामि, हें सम्यग्दृष्टे हैं सम्यग्दृष्टे, हे ज्ञानमूत, ज्ञान. हे सरस्वति, हे सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवन, अपमृत्युविनाशनं भवतु । जातिमन्त्रीऽयमाम्नातो जाति संस्कारकारणम् । मन्त्रं निस्तारकादि च यथाम्नायमिनो वे ॥३१॥ निस्तारकमन्त्रः स्वाहान्तं सत्यजाताय पदमादावनुस्मृतम् । तदन्तमह जातायपदं स्यात्तदनन्तरम् ॥३२॥ ततः षटकर्मणे स्वाहा पदमुच्चारयेद् द्विजः । स्याग्रामयतये स्वाहा पदं तस्मादनन्तरम् ॥३३॥ अनादिश्रोत्रियायेति ब्रूयात् स्वाहापदं ततः । तद्वच्च स्नातकायति श्रावकायेति च द्वयम् ॥३४॥ सत्यरूप जन्मको धारण करनेवाले जिनेन्द्रदेवका शरण लेता हूँ ), इस प्रकार कहना चाहिए । इसके बाद 'अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि' ( मैं अरहन्त पदके योग्य जन्म धारण करनेवालका शरण लेता हूँ ) 'अर्हन्मातुः शरणं प्रपद्यामि' ( अर्हन्तदेवकी माताका शरण लेता हूँ, ) 'अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि' ( अरहन्तदेवके पुत्रका शरण लेता हूँ ), 'अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि' ( अनादि ज्ञानको धारण करनेवालेका शरण लेता हूँ ), अनुपमजन्मन : शरणं प्रपद्यामि' (उपमारहित जन्मको धारण करनेवालेका शरण लेता है ) और 'रत्नत्रयस्य शरण प्रपद्यामि' ( रत्नत्रयका शरण ग्रहण करता है ) ये मन्त्र बोलना चाहिए। तदनन्तर सम्बोधन विभक्त्यन्त सम्यग्दृष्टि, ज्ञानमूर्ति और सरस्वती पदका दो-दो बार उच्चारण कर अन्तमें स्वाहा शब्द बोलना चाहिए अर्थात् सम्यग्दृष्टे, सम्यग्दृष्टे, ज्ञानमूर्ते, ज्ञानमूर्ते, सरस्वति, सरस्वति, स्वाहा ( हे सम्यग्दृष्टे हे सम्यग्दृष्टे, हे ज्ञानमूर्ते हे ज्ञानमूर्ते, हे सरस्वति, हे सरस्वति, मैं तेरे लिए हवि समर्पण करता है) यह मन्त्र कहना चाहिए और फिर काम्य मन्त्र पहलेके समान ही पढ़ना चाहिए ।।२७-३०।। ऊपर कहे हुए पीठिका मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है : 'सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हन्मातु: शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि, अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, ज्ञानमूर्ते ज्ञानमूर्ते, सरस्वति सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु ।' ये मन्त्र जातिसंस्कारका कारण होनेसे जाति मन्त्र कहलाते हैं अब इसके आगे निस्तारक मन्त्र कहते हैं ॥३१।। सबसे पहले 'सत्यजाताय स्वाहा' ( सत्यरूप जन्मको धारण करने वालेके लिए मैं हवि समर्पण करता हूँ ) इस मन्त्रका स्मरण किया गया है फिर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' ( अरहन्तरूप जन्मको धारण करनेवालेके लिए मैं हवि समर्पित करता हूँ ) यह मन्त्र बोलना चाहिए और इसके बाद षट्कर्मणे स्वाहा ( देवपूजा आदि छह कम करनेवालेके लिए हवि समर्पित करता हूँ ), इस मन्त्रका द्विजको उच्चारण करना चाहिए। फिर 'ग्रामयतये स्वाहा' ( ग्रामयतिके लिए समर्पण करता हूँ ), यह मन्त्र वोलना चाहिए ॥३२-३३॥ फिर १ तु शब्दः अन्ते यस्य तत् । २ संबुद्धयन्तम् । ३ सम्यग्दृष्टिपदम् । ४ दिः कृत्वा योजयेदित्यर्थः । ५ पटपर. मस्थानेत्यादि । ६ प्रोक्तः ।७ स्वाहान्तम् । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व २९५ स्वादेवब्राह्म गायेति स्वाहेत्यन्तमतः पदम् । सुब्राह्मणाय स्वाहान्तः स्वाहान्ताऽनुपमाय गीः ॥ ३५ ॥ ॥ सम्यग्दृष्टिपदं चैव तथा निधिपतिश्रुतिम् । ब्रूयाद् वैश्रवणोकिं च द्विः स्वाहेति ततः परम् ॥३६॥ काम्यमन्त्रमतो ब्रूयात् पूर्ववन्मन्त्रविद् द्विजः । ऋषिमन्त्रमितो वक्ष्ये यथाऽऽहोपासकश्रुतिः ॥३१॥ चूर्णिः - सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, पट्कर्मगे स्वाहा, ग्रामयतये स्वाहा, अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा, स्नातकाय स्वाहा, श्रावकाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते श्रवण वैश्रवण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । ऋषिमन्त्रः प्रथमं सत्यजाताय नमः पदमुदीरयेत् । गृह्णीयादर्हज्जाताय नमः शब्दं ततः परम् ॥ ३८ ॥ निर्ग्रन्थाय नमो वीतरागाय नम इत्यपि । महाव्रताय पूर्व च नमः पदमनन्तरम् ॥३९॥ त्रिगुप्ताय नमो महायोगाय नम इत्यतः । ततो विविधयोगाय नम इत्यनुपव्यताम् ॥४०॥ विविधर्द्धिपदं चास्मान्नमः शब्देन योजितम् । ततोऽङ्गधरपूर्वं च पठेत् पूर्वधरध्वनिम् ॥ ४१ ॥ 'अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा' ( अनादिकालीन श्रुतके अध्येताको समर्पण करता हूँ ), यह मन्त्रपद बोलना चाहिए । तदनन्तर इसी प्रकार 'स्नातकाय स्वाहा' और 'श्रावकाय स्वाहा' ये दो मन्त्र पढ़ना चाहिए ( केवली अरहन्त और श्रावकके लिए समर्पण करता हूँ ) ||३४|| इसके बाद 'देवब्राह्मणाय स्वाहा' ( देवब्राह्मणके लिए समर्पण करता हूँ), 'सुब्राह्मणाय स्वाहा' ( सुब्राह्मणके लिए समर्पण करता हूँ ), और 'अनुपमाय स्वाहा' ( उपमारहित भगवान् के लिए हवि समर्पित करता हूँ ), ये शब्द बोलना चाहिए ||३५|| तदनन्तर सम्यग्दृष्टि, निधि - पति और वैश्रवण शब्दको दो-दो बार कहकर अन्तमें स्वाहा शब्दका प्रयोग करना चाहिए अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा' ( हे सम्यग्दृष्टि निधियों के अधिपति, हे कुबेर, मैं तुम्हें हवि समर्पित करता यह मन्त्र बोलना चाहिए || ३६ || इसके बाद मन्त्रोंको जाननेवाला द्विज पहले के समान काम्यमन्त्र बोले । अब इसके आगे उपासकाध्ययन-शास्त्र के अनुसार ऋषिमन्त्र कहता हूँ ||३७|| जातिमन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है : 'सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, षट्कर्मणे स्वाहा, ग्रामयतये स्वाहा, अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा, स्नातकाय स्वाहा, श्रावकाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । ऋषिमन्त्र - प्रथम ही 'सत्यजाताय नमः' ( सत्यजन्मको धारण करनेवालेको नमस्कार हो ) यह पद बोलना चाहिए और उसके बाद 'अर्हज्जाताय नमः' ( अरहन्त रूप जन्मको धारण करनेवाले के लिए नमस्कार हो ) इस पदका उच्चारण करना चाहिए ||३८|| तदनन्तर 'निर्ग्रन्थाय नमः' (परिग्रहरहितके लिए नमस्कार हो), 'वीतरागाय नम:' ( रागद्वेषरहित जिनेन्द्र देवको नमस्कार हो ), 'महाव्रताय नमः' ( महाव्रत धारण करनेवालोंके लिए नमस्कार हो ), 'त्रिगुप्ताय नमः ' ( तीनों गुप्तियोंको धारण करनेवालेके लिए नमस्कार हो, ) 'महायोगाय नमः' ( महायोगको धारण करनेवाले ध्वनियोंको नमस्कार हो) और 'विविधयोगाय नमः' ( अनेक प्रकारके योगोंको धारण करनेवालोंके लिए नमस्कार हो ) ये मन्त्र पढ़ना चाहिए ||३९-४०॥ फिर नमः शब्दके साथ चतुर्थी विभक्त्यन्त विविधद्ध शब्दका पाठ करना चाहिए अर्थात् ' विवि १ पदम् ल० । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आदिपुराणम् नमः शब्दपरौ चेतौ चतुर्थ्यन्त्या व नुस्मृतौ । ततो गणधरायेति पदं युक्तनमः पदम् ॥४२॥ परमर्षिभ्य इत्यस्मात्परं वाच्यं नमो नमः । ततोऽनुपमजाताय नमो नम इतीरयेत् ॥ ४३ ॥ सम्यग्दष्टिपदं चान्ते बोध्यन्तं द्विरुदाहरेत् । ततो भूपतिशब्दश्च नगरोपपदः पतिः ॥४४॥ द्विर्वाच्यताविमौ शब्दौ बोध्यन्तौ मन्त्रवेदिभिः । मन्त्रशेषोऽप्ययं तस्मादनन्तरमुदीर्यताम् ॥ ४५॥ कालश्रमणशब्दं च द्विरुक्त्वाऽऽमन्त्रणे ततः । स्वाहेति पदमुच्चार्य प्राग्वरकाम्यानि चोद्धरेत् ॥ ४६॥ चूर्णि: - सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, निर्ग्रन्धाय नमः, वीतरागाय नमः, महाव्रताय नमः, त्रिगुप्ताय नमः, महायोगाय नमः, , विविधयोगाय नमः, विविधर्द्धये नमः, अङ्गवराय नमः, पूर्वधराय नमः, गणधराय नमः, परमर्षिभ्यो नमो नमः, अनुपमजाताय नमो नमः, सम्यग् सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते नगरप कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । मुनिमन्त्रोऽयमाम्नातो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । वक्ष्ये सुरेन्द्रमन्त्रं च यथा स्माहार्ष भी श्रुतिः ॥ ४७ ॥ प्रथमं सत्यजाताय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् । ततः स्यादर्हज्जाताय स्वाहेत्येतत्परं पदम् ॥ ४८ ॥ धर्द्धये नमः' ( अनेक ऋद्धियोंको धारण करनेवालेके लिए नमस्कार हो ) ऐसा उच्चारण करना चाहिए । इसी प्रकार जिनके आगे नमः शब्द लगा हुआ है ऐसे चतुर्थ्यन्त अंगधर और पूर्वधर शब्दोंका पाठ करना चाहिए अर्थात् 'अङ्गधराय नमः' अंगोंके जाननेवालेको नमस्कार हो) और पूर्वधराय नमः' ( पूर्वोके जाननेवालों को नमस्कार हो ) ये मन्त्र बोलना चाहिए । तदनन्तर 'गणधराय नमः' ( गणधरको नमस्कार हो ) इस पदका उच्चारण करना चाहिए ॥ ४१-४२ ॥ फिर परमर्षिभ्यः शब्दके आगे नमो नमः का उच्चारण करना चाहिए अर्थात् 'परमर्षिभ्यो नमो नमः' ( परम ऋषियोंको बार-बार नमस्कार हो ) यह मन्त्र बोलना चाहिए और इसके बाद 'अनुपमजाताय नमो नमः' ( उपमारहित जन्मधारण करनेवालेको बार-बार नमस्कार हो ) इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिए ||४३|| फिर अन्त में सम्बोधन विभक्त्यन्त सम्यग्दृष्टि पदका दो बार उच्चारण करना चाहिए। और इसी प्रकार मन्त्रोंको जाननेवाले द्विजोंको सम्बोधनान्त भूपति और नगरपति शब्दका भी दो-दो बार उच्चारण करना चाहिए । तदनन्तर आगे कहा जानेवाला मन्त्रका अवशिष्ट अंश भी बोलना चाहिए । कालश्रमण शब्दको सम्बोधन विभक्ति में दो बार कहकर उसके आगे स्वाहा शब्दका उच्चारण करना चाहिए और फिर यह सब कह चुकनेके बाद पहले के समान काम्यमन्त्र पढ़ना चाहिए ॥ ४४-४६ ॥ इन सब ऋषिमन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है : 'सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, निर्ग्रन्थाय नमः' वीतरागाय नमः, महाव्रताय नमः, त्रिगुप्ताय नमः, महायोगाय नमः, विविधयोगाय नमः, विविधर्द्धये नमः, अङ्गधराय नमः पूर्वधराय नमः, गणधराय नमः, परमर्षिभ्यो नमो नमः, अनुपमजाताय नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते नगरपते कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । तत्त्वोंके जाननेवाले मुनियोंके द्वारा ये ऊपर लिखे हुए मन्त्र मुनिमन्त्र अथवा ऋषिमन्त्र माने गये हैं । अब इनके आगे भगवान् ऋषभदेवको श्रुतिने जिस प्रकार कहा है उसी प्रकार में सुरेन्द्र मन्त्रोंको कहता हूँ ॥४७॥ प्रथम ही मैं 'सत्यजाताय स्वाहा' ( सत्यजन्म लेनेवालेको हवि समर्पण करता हूँ ) यह पद पढ़ना चाहिए, फिर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' ( अरहन्त के योग्य जन्म लेनेवालेको हवि १ वदन्ति स्म । २ ऋषभप्रोक्ता । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व ततश्व दिव्यजाताय स्वाहेत्येवमुदाहरेत् । ततो दिव्यार्घ्यजाताय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् ॥ ४९ ॥ याच्वनेमिनाथाय स्वाहेत्येतदनन्तरम् । सौधर्माय पदं चास्मात्स्वाहोक्त्यन्तमनुस्मरेत् ॥५०॥ कल्पाधिपतये स्वाहापदं वाच्यमतः परम् । भूयोऽप्यनुचरायादिं स्वाहाशब्दमुदीरयेत् ॥ ५१ ॥ ततः परम्परेन्द्राय स्वाहेत्युच्चारयेत्पदम् | संपठेदहमिन्द्राय स्वाहेत्येतदनन्तरम् ॥ ५२ ॥ ततः परमार्हताय स्वाहेत्येत पदं पठेत् । ततोऽप्यनुपमायेति पदं स्वाहापदान्वितम् ॥ ५३॥ सम्यग्दष्टिपदं चास्माद् बोध्यन्तं द्विरुदीरयेत् । तथा कल्ापतिं चापि दिव्यमूर्ति च संपठेत् ॥ ५४॥ द्विर्वाच्यं वज्रनामेति ततः स्वाहेति संहरेत्' । पूर्ववत् काम्यमन्त्रोऽपि पाठ्योऽस्यान्ते त्रिभिः पदैः ॥५५॥ चूर्णि:- सत्यजाताय स्वाहा, अर्हजाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, दिव्यार्घ्यजाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परम्परेन्द्राय स्वाहा, अहमिन्द्राय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कलपते कल्पपते दिव्य मूर्ते दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन् स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । २९७ समर्पण करता हूँ ) यह उत्कृष्ट पद पढ़ना चाहिए ||४८ || फिर 'दिव्यजाताय स्वाहा' (जिसका जन्म दिव्यरूप है उसे हवि समर्पण करता हूँ ) ऐसा उच्चारण करना चाहिए और फिर 'दिव्या जाताय स्वाहा' ( दिव्य तेजःस्वरूप जन्म धारण करनेवालेके लिए हवि समर्पण करता हूँ ) यह पद पढ़ना चाहिए ।।४९ ॥ तदनन्तर 'नेमिनाथाय स्वाहा' ( धर्मचक्रकी धुरी के स्वामी जिनेन्द्रदेवको समर्पण करता हूँ) यह पद बोलना चाहिए और इसके बाद 'सौधर्माय स्वाहा' ( सौधर्मेन्द्र - के लिए समर्पण करता हूँ ) इस मन्त्रका स्मरण करना चाहिए ॥ ५० ॥ फिर 'कल्पाधिपतये स्वाहा ( स्वर्गके अधिपतिके लिए समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र कहना चाहिए और उसके बाद 'अनुचराय स्वाहा' ( इन्द्रके अनुचरोंके लिए समर्पण करता हूँ ) यह शब्द बोलना चाहिए ॥ ५१ ॥ फिर 'परम्परेन्द्राय स्वाहा' ( परम्परासे होनेवाले इन्द्रोंके लिए समर्पण करता हूँ ) इस पदका उच्चारण करे और उसके अनन्तर 'अहमिन्द्राय स्वाहा' ( अहमिन्द्रके लिए समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र अच्छी तरह पढ़े || ५२ ॥ फिर 'परार्हताय स्वाहा' ( अरहन्तदेवके परमउत्कृष्ट उपासकको समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिए और उसके पश्चात् 'अनुपमाय स्वाहा' ( उपमारहित के लिए समर्पण करता हूँ ) यह पद बोलना चाहिए || ५३ ॥ तदनन्तर सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पदका दो बार उच्चारण करना चाहिए तथा सम्बोधनान्त कल्पपति और दिव्यमूर्ति शब्दको भी दो-दो बार पढ़ना चाहिए इसी प्रकार सम्बोधनान्त वज्रनामन् शब्दको भी दो बार बोलकर स्वाहा शब्दका उच्चारण करना चाहिए और अन्त में तीन-तीन पदोंके द्वारा पहले समान काम्य मन्त्र पढ़ना चाहिए अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन् स्वाहा ( हे सम्यग्दृष्टि, हे स्वर्गके अधिपति, हे दिव्यमूर्तिको धारण करनेवाले, हे वज्रनाम, मैं तेरे लिए हवि समर्पण करता हूँ ) यह बोलकर का य मन्त्र पढ़ना चाहिए ॥ ५४-५५।। ऊपर कहे हुए सुरेन्द्र मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है, 'सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, दिव्यार्च्यजाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परम्परेन्द्राय स्वाहा, अहमिन्द्राय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन् स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु १ सम्यग् ब्रूयात् । २ षट्परमस्थानेत्यादिभिः । ३८ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ मरण भवतु । आदिपुराणम् सुरेन्द्रमन्त्र एषः स्यात् सुरेन्द्रस्यानुतर्पणम् । मन्त्रं परमराजादि वक्ष्यामीतो यथाश्रतम् ॥५६॥ प्रागन' सत्यजाताय स्वाहेत्येतत् पदं पठेत् । ततः स्यादर्हज्जाताय स्वाहेत्येतत्परं पदम् ॥५७॥ ततश्चानुपमेन्द्राय स्वाहेत्येतत्पदं मतम् । विजयाादिजाताय पदं स्वाहान्तमन्वतः ॥५॥ ततोऽपि नेमिनाथाय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् । ततः परमराजाय स्वाहेत्येतदुदाहरेत् ॥५६॥ परमार्हताय स्वाहा पदमस्मात्परं पठेत् । स्वाहान्तमनुपायोक्तिरतो वाच्या द्विजन्ममिः ॥६॥ सम्यग्दृष्टिपदं चास्माद् बोध्यन्तं द्विरुदीरयेत् । उग्रतेजः पदं चैव दिशाञ्जयपदं तथा ॥६१॥ नेम्यादिविजयं चैव कुर्यात् स्वाहापदोत्तरम् । काम्यमन्त्रं च तं ब्रूयात् प्राग्वदन्ते पदैस्त्रिभिः ॥६॥ चूर्णिः-सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय स्वाहा, विजयाय॑जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमराजाय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दष्टे उग्रतेजः उग्रतेजः दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा, सेवाफलं षटपरमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । मन्त्रः परमराजादिर्मतोऽयं परमेष्ठिनाम् । परं मन्त्रमितो वक्ष्ये यथाऽऽह परमा श्रुतिः ॥६३॥ अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । यह सुरेन्द्रको सन्तुष्ट करनेवाला सुरेन्द्र मन्त्र कहा । अब आगे शास्त्रोंके अनुसार परमराजादि मन्त्र कहते हैं ॥५६।। इन मन्त्रोंमें सर्वप्रथम 'सत्यजाताय स्वाहा' ( सत्य जन्म धारण करनेवालेको हवि समर्पण करता हूँ ) यह पद पढ़ना चाहिए, फिर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' ( अरहन्त पदके योग्य जन्म लेनेवालेको समर्पण करता हूँ ) यह उत्कृष्ट पद पढ़ना चाहिए ॥५७। इसके बाद 'अनुपमेन्द्राय स्वाहा' ( उपमारहित इन्द्र अर्थात् चक्रवर्तीके लिए समर्पण करता हूँ ) यह पद कहना चाहिए। तदनन्तर 'विजयाय॑जाताय स्वाहा' ( विजयरूप तथा तेजःपूर्ण जन्मको धारण करनेवालेके लिए समर्पण करता हूँ ) इस पदका उच्चारण करना चाहिए ॥५८।। इसके पश्चात् 'नेमिनाथाय स्वाहा' (धर्मरूप रथके प्रवर्तकको समर्पण करता हूँ ) यह पद पढ़ना चाहिए और उसके बाद 'परमजाताय स्वाहा' ( उत्कृष्ट जन्म लेनेवालेको समर्पण करता हूँ ) यह पद बोलना चाहिए ॥५९॥ फिर 'परमार्हताय स्वाहा' ( उत्कृष्ट उपासकको समर्पण करता हूँ ) यह पद पढ़ना चाहिए और इसके बाद द्विजोंको 'अनुपमाय स्वाहा' ( उपमारहितके लिए समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र बोलना चाहिए ॥६०॥ तदनन्तर सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पदका दो बार उच्चारण करना चाहिए तथा इसी प्रकार सम्बोधनान्त उग्रतेजः पद, दिशांजय पद और नेमिविजय पदको दो बार बोलकर अन्तमें स्वाहा शब्दका उच्चारण करना चाहिए और अन्तमें पहलेके समान तीन-तीन पदोंसे काम्य मन्त्र बोलना चाहिए अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेजः उग्रतेजः दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा ( हे सम्यग्दृष्टि, हे प्रचण्ड प्रतापके धारक, हे दिशाओंको जीतनेवाले, हे नेमिविजय, मैं तुम्हें हवि समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र बोलकर काम्यमन्त्र पढ़ना चाहिए ॥६१-६२॥ परमराजादि मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है : __'सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय स्वाहा, विजयाय॑जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमजाताय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, उग्रतेजः उग्रतेजः, दिशांजय दिशांजय, नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । ये मन्त्र परमराजादि मन्त्र माने गये हैं। अब यहाँसे आगे जिस प्रकार परम शास्त्र में १ परमराजादिमन्त्र । २ परमजाताय प०, ल०, अ०, प०, स० । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तम पर्व २६६ तत्रादौ सत्यजाताय नमः पदमुदीरयेत् । वाच्यं ततोऽर्हज्जाताय नम इत्युत्तरं पदम् ॥६॥ ततः परमजाताय नमः पदमुदाहरेत् । परमार्हतशब्दं च चतुर्यन्तं नमः परम् ॥६५॥ ततः परमरूपाय नमः परमतेजसे । नम इत्युभयं वाच्यं पदमध्यात्मदर्शिभिः ॥६६॥ परमादिगुणायेति पदं चान्यन्नमोयुतम् । परमस्थानशब्दश्च चतुर्थ्यन्तो नमोऽन्वितः ॥६७॥ उदाहार्य क्रम ज्ञात्वा ततः परमयोगिने । नमः परमभाग्याय नम इत्युभयं पदम् ॥६८॥ परमर्द्विपदं चान्यच्चतुर्थ्यन्तं नमः परम् । स्यात्परमप्रसादाय नम इत्युत्तरं पदम् ॥६९॥ स्यात्परमकाङ्किताय नम इत्यत उत्तरम् । स्यात्परमविजयाय नमः इत्युत्तरं वचः ॥७॥ स्यात्परमविज्ञानाय नमो वाक्तदनन्तरम् । स्यात्परमदर्शनाय नमः पदमतः परम् ॥७॥ ततः परमवीर्याय पदं चास्मान्नमः परम् । परमादिसुखायेति पदमस्मादनन्तरम् ॥७२॥ सर्वज्ञाय नमोवाक्यमर्हते नम इत्यपि । नमो नमः पदं चास्मात्स्यात्परं परमेष्टिने ॥७३॥ परमादिपदान्नेत्र इत्यस्माच्च नमो नमः । सम्यग्दृष्टिपदं चान्ते बोध्यन्तं द्विः प्रयुज्यताम् ॥७४॥ कहा है उसी प्रकार परमेष्ठियोंके उत्कृष्ट मन्त्र कहता हूँ ॥६३॥ उन परमेष्ठी मन्त्रोंमें सबसे पहले 'सत्यजाताय नमः' (सत्यरूप जन्म लेनेवालेके लिए नमस्कार हो) यह पद बोलना चाहिए और उसके बाद 'अर्हज्जाताय नमः' (अरहन्तके योग्य जन्म लेनेवालेके लिए नमस्कार हो) यह पद पढ़ना चाहिए ॥६४॥ तदनन्तर 'परमजाताय नमः' ( उत्कृष्ट जन्म लेनेवाले.. के लिए नमस्कार हो ) यह पद कहना चाहिए और इसके बाद चतुर्थी विभक्त्यन्त परमाईत शब्दके आगे नमः पद लगाकर 'परमार्हताय नमः' ( उत्कृष्ट जिनधर्मके धारकके लिए नमस्कार हो ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिए ॥६५॥ तत्पश्चात् अध्यात्म शास्त्रको जाननेवाले द्विजोंको 'परमरूपाय नमः' ( उत्कृष्ट निर्ग्रन्थरूपको धारण करनेवालेके लिए नमस्कार हो) और 'परमतेजसे नमः' ( उत्तम तेजको धारण करनेवालेके लिए नमस्कार हो ) ये दो मन्त्र बोलना चाहिए ॥६६॥ फिर नमः शब्दके साथ परमगुणाय यह पद अर्थात् 'परमगुणाय नमः' ( उत्कृष्ट गुणवालेके लिए नमस्कार हो ) यह मन्त्र बोलना चाहिए और उसके अनन्तर नमः शब्दसे सहित चतुर्थी विभक्त्यन्त परमस्थान शब्द अर्थात् 'परमस्थानाय नमः' (मोक्षरूप उत्तमस्थानवालेके लिए नमस्कार हो ) यह पद पढ़ना चाहिए ॥६७॥ इसके पश्चात् क्रमको जानकर 'परमयोगिने नमः' ( परम योगीके लिए नमस्कार हो ) और 'परमभाग्याय नमः' ( उत्कृष्ट भाग्यशालीको नमस्कार हो ) ये दोनों पद बोलना चाहिए ॥६८॥ तदनन्तर जिसके आगे नमः शब्द लगा हुआ है और चतुर्थी विभक्ति जिसके अन्त में है ऐसा परमद्धि पद अर्थात् 'परमर्द्धये नमः,' ( उत्तम ऋद्धियोंके धारकके लिए नमस्कार हो ) और 'परमप्रसादाय नमः' ( उत्कृष्ट प्रसन्नताको धारण करनेवालेके लिए नमस्कार हो ) ये दो मन्त्र पढ़ना चाहिए ॥६९|| फिर 'परमकांक्षिताय नमः' [ उत्कृष्ट आत्मानन्दकी इच्छा करनेवालेके लिए नमस्कार हो ] और 'परमविजयाय नमः' [ कर्मरूप शत्रओंपर उत्कृष्ट विजय पानेवालेके लिए नमस्कार हो ] ये दो मन्त्र बोलना चाहिए ॥७०॥ तदनन्तर 'परमविज्ञानाय नमः' [ उत्कृष्ट ज्ञानवाले के लिए नमस्कार हो ] और उसके बाद 'परमदर्शनाय नमः' [ परम दर्शनके धारकके लिए नमस्कार हो ] यह पद पढ़ना चाहिए ॥७१॥ इसके पश्चात् 'परमवीर्याय नमः' ( अनन्त बलशालीके लिए नमस्कार हो ] और फिर 'परमसुखाय नमः' [ परम सुखके धारकको नमस्कार हो | ये मन्त्र कहना चाहिए ॥७२॥ इसके अनन्तर 'सर्वज्ञाय नमः' [ संसारके समस्त पदार्थोंको जाननेवालेके लिए नमस्कार हो ] 'अर्हते नमः' [ अरहन्तदेवके लिए नमस्कार हो ], और फिर 'परमेष्ठिने नमो नमः' ( परमेष्ठीके लिए बार-बार नमस्कार हो ) ये मन्त्र बोलना चाहिए ॥७३॥ तदनन्तर 'परमनेत्रे नमो नमः' ( उत्कृष्ट नेताके लिए नमस्कार हो ) यह मन्त्र Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् स्तां' त्रिलोकविजयधर्ममूर्त्तिपदे ततः । धर्मनेमिपदं वाच्यं द्विः स्वाहेति ततः परम् ॥७५॥ काम्यमन्त्रमतो ब्रूयात्पूर्ववद्विधिवद्विजः । काम्यसिद्धिप्रधाना हि सर्वे मन्त्राः स्मृता बुधैः ॥७६॥ चूर्णि :- सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, परमजाताय नमः, परमार्हताय नमः, परमरूपाय नमः परमतेजसे नमः, परमगुणाय नमः, परमस्थानाय नमः, परमयोगिने नमः, परमभाग्याय नमः, परमर्द्धये नमः, परमप्रसादाय नमः परमकाङ्क्षिताय नमः, परमविजयाय नमः, परमविज्ञानाय नमः, परमदर्शनाय नमः परमवीर्याय नमः, परमसुखाय नमः, सर्वज्ञाय नमः, अर्हते नमः, परमेष्ठिने नमो नमः, परमनेत्रे नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । एते तु पीठिकामन्त्राः सप्त ज्ञेया द्विजोत्तमैः । एतैः सिद्धार्चनं कुर्यादाधानादिक्रियाविधौ ॥७७॥ क्रियामन्त्रस्त एते स्युराधानादिक्रियाविधौ । सूत्रे गणधरोद्धायें यान्ति साधनमन्त्रताम् ॥७८॥ संध्याग्निये देवपूजने नित्यकर्मणि । भवन्त्याहुतिमन्त्राश्च त एते विधिसाधिताः ॥ ७९॥ सिद्धार्थ्यासंनिधौ मन्त्रान् जपेदष्टोत्तरं शतम् । गन्धपुष्पाश्नतार्वादि निवेदनपुरःसरम् ॥८०॥ सिद्धविद्यस्ततो मन्त्रैरेभिः कर्म समाचरेत् । शुक्लवासाः शुचिर्यज्ञोपवीत्यव्यग्रमानसः ॥८१॥ कहना चाहिए और उसके बाद सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पदका दो बार प्रयोग करना चाहिए ||७४ || तथा इसी प्रकार त्रिलोकविजय, धर्ममूर्ति और धर्मनेमि शब्दको भी दो-दो बार उच्चारण कर अन्तमें स्वाहा पद बोलना चाहिए अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय, धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा ( हे सम्यग्दृष्टि, हे तीनों लोकों को विजय करनेवाले, हे धर्ममूर्ति और हे धर्मके प्रवर्तक, मैं तेरे लिए हवि समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र बोलना चाहिए ॥७५॥ तत्पश्चात् द्विजोंको पहलेके समान विधिपूर्वक काम्यमन्त्र पढ़ना चाहिए क्योंकि विद्वान् लोग सब मन्त्रोंसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होना ही मुख्य फल मानते हैं ॥ ७६ ॥ 1 परमजाताय नमः परमार्हताय नमः, परमपरमस्थानाय नमः, परमयोगिने नमः, परमपरमकांक्षिताय नमः, परमविजयाय नमः, 1 परमेष्ठी मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार हैं : सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः रूपाय नमः, परमतेजसे नमः, परमगुणाय नमः भाग्याय नमः, परमर्द्धये नमः, परमप्रसादाय नमः, परमविज्ञानाय नमः, परमदर्शनाय नमः, परमवीर्याय नमः परमसुखाय नमः सर्वज्ञाय नमः, अर्हते नमः, परमेष्ठिने नमो नमः, परमनेत्रे नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय, धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते, धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । ब्राह्मणोंको ये ऊपर लिखे हुए सात पीठिका मन्त्र जानना चाहिए और गर्भाधानादि क्रियाओं की विधि करनेमें इनसे सिद्धपूजन करना चाहिए ॥७७॥ गर्भाधानादि क्रियाओंकी विधि करनेमें ये मन्त्र क्रियामन्त्र कहलाते हैं और गणधरोंके द्वारा कहे हुए सूत्र में ये ही साधन मन्त्रपनेको प्राप्त हो जाते हैं || ७८ || विधिपूर्वक सिद्ध किये हुए ये ही मन्त्र सन्ध्याओंके समय तीनों अग्नियोंमें देवपूजनरूप नित्य कर्म करते समय आहुति मन्त्र कहलाते हैं ||७९ || सिद्ध भगवान्को प्रतिमाके सामने पहले गन्ध, पुष्प, अक्षत और अर्घ आदि समर्पण कर एक सौ आठ बार उक्त मन्त्रोंका जप करना चाहिए ॥ ८० ॥ तदनन्तर जिसे विद्याएँ सिद्ध हो गयी हैं, जो १ द्वौ वारी । २ भवेताम् । ३ सत्यजातायेत्यादयः । ४ गर्भाधानादि । ५ समर्पण । ३०० Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व ३०१ त्रयोऽग्नयः प्रगेयाः स्युः कर्मारम्भे द्विजोत्तमैः । रत्नत्रितयसंकल्लादग्नीन्द्र मुकुटोद्भवाः ॥८२॥ तीर्थकृद्गणभृच्छे षकेवल्यन्तमहोत्सवे । पूजाङ्गत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागताः ॥३॥ कुण्डत्ये प्रगेतव्यास्त्रय एते महाप्नयः । गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निप्रसिद्धयः ॥८४॥ अस्मिन्नग्नित्रये पूजा मन्त्रैः कुर्वन् द्विजोत्तमः । आहिताग्निरिति ज्ञेयो नित्येज्या यस्य सद्मनि ॥८५॥ हविष्पाके च धूपे च दीपोद्बोधनसंविधौ । वह्नीनां विनियोगः स्यादमीषां नित्यपूजने ॥८६॥॥ प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्यादिदमग्नित्रयं गृहे । नैव दातव्यमन्येभ्योऽन्ये ये स्युरसंस्कृताः ॥८७॥ न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा । किन्त्वहदिव्यमूर्तीज्यासंबन्धात् पावनोऽनलः ॥८॥ ततः पूजाङ्गतामस्य मत्वान्ति द्विजोत्तमाः। निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजा तो न दुष्यति ॥८९॥ व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः । जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मनः ॥९॥ साधारणास्त्विमे मन्त्राः सर्वत्रैव क्रियाविधौ । यथा संभवमुन्नेष्ये विशेषविषयाश्च तान् ॥११॥ सफेद वस्त्र पहने हुए हैं, पवित्र हैं, यज्ञोपवीत धारण किये हुए हैं और जिसका चित्त आकुलतासे रहित है ऐसा द्विज इन मन्त्रोंके द्वारा समस्त क्रियाएँ करें ॥८१॥ क्रियाओंके प्रारम्भमें उत्तम द्विजोंको रत्नत्रयका संकल्प कर अग्निकुमार देवोंके इन्द्रके मुकुटसे उत्पन्न हुई तीन प्रकारकी अग्नियाँ प्राप्त करनी चाहिए ॥८२॥ ये तीनों ही अग्नियाँ तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवलीके अन्तिम अर्थात् निर्वाणमहोत्सवमें पूजाका अंग होकर अत्यन्त पवित्रताको प्राप्त हुई मानी जाती हैं ।।८३॥ गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नामसे प्रसिद्ध इन तीनों महाअग्नियोंको तीन कुण्डोंमें स्थापित करना चाहिए ॥८४॥ इन तीनों प्रकारकी अग्नियोंमें मन्त्रोंके द्वारा पूजा करनेवाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है और जिसके घर इस प्रकारकी पूजा नित्य होती रहती है वह आहिताग्नि अथवा अग्निहोत्री कहलाता है ॥८५॥ नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकारको अग्नियोंका विनियोग नैवेद्यके पकाने में, धूप खेनेमें और दीपक जलानेमें होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्निसे नैवेद्य पकाया जाता है, आहवनीय अग्निमें धूप खेई जाती है और दक्षिणाग्निसे दीपक जलाया जाता है ॥८६॥ घरमें बड़े प्रयत्नके साथ इन तीनों अग्नियोंकी रक्षा करनी चाहिए और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे अन्य लोगोंको कभी नहीं देनी चाहिए ॥८७॥ अग्निमें स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवतारूप ही है - किन्तु अरहन्तदेवकी दिव्य मूर्तिकी पूजाके सम्बन्धसे वह अग्नि पवित्र हो जाती है ॥८८॥ इसलिए ही द्विजोत्तम लोग इसे पूजाका अंग मानकर इसकी पूजा करते हैं अतएव निर्वाणक्षेत्रकी पूजाके समान अग्निकी पूजा करने में कोई दोष नहीं है । भावार्थ- जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवके सम्बन्धसे क्षेत्र भी पूज्य हो जाते हैं उसी प्रकार उनके सम्बन्धसे अग्नि भी पूज्य हो जाती है अतएव जिस प्रकार निर्वाण आदि क्षेत्रोंकी पूजा करने में दोष नहीं है उसी प्रकार अग्निकी पूजा करने में भी कोई दोष नहीं है ।।८९॥ ब्राह्मणोंको व्यवहार नयकी अपेक्षा ही अग्निकी पूज्यता इष्ट है इसलिए जैन ब्राह्मणोंको भी आज यह व्यवहारनय उपयोगमें लाना चाहिए ।।९०॥ ये ऊपर कहे हुए मन्त्र साधारण मन्त्र हैं, सभी क्रियाओंमें काम आते हैं । अब विशेष क्रियाओंसे सम्बन्ध रखनेवाले विशेष मन्त्रोंको यथासम्भव कहता हूँ ॥११॥ १ संस्कार्याः । २ केवली । ३ परिनिर्वाणमहोत्सवे। ४ कारणत्वम् । ५ चरुपचने । ६ गार्हपत्यादीनाम् अग्नित्रयाणम्। यथासंख्येन हविःपाकादिषु त्रिषु विनियोगः स्यात् । ७ गर्भाधानादिसंस्काररहिताः । ८ अग्नित्रयपूजा। ९ कारणात् । १० व्यवहर्तुं योग्यः । ११ विप्रस्य । - जन्मभिः द०, ल०, अ०, प०, स०, इ.। १२ लृट् । वक्ष्ये । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ आदिपुराणम् गर्भाधानमन्त्रः सज्जातिभागी भव सद्गृहिभागी भवेति च । पदद्वयमुदीर्यादौ पदानीमान्यतः पठेत् ॥ ९२ ॥ आदौ मुनीन्द्रभागीति भवेत्यन्ते पदं वदेत् । सुरेन्द्रभागी परमराज्यभागीति च द्वयम् ॥९३॥ आर्हन्त्यभागी भवेति पदमस्मादनन्तरम् । ततः परमनिर्वाणभागी भव पदं भवेत् ॥ ९४ ॥ आधा मन्त्र एष स्यात् पूर्वमन्त्रपुरःसरः । विनियोगश्च मन्त्राणां यथाम्नायं प्रदर्शितः ॥ ९५ ॥ चूर्णि:-सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीन्द्रभागो भव, सुरेन्द्रभागी भत्र, परमराज्यभागी भव, आर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाणभागी भव, ( आधानमन्त्रः ) स्यात्प्रीतिमन्त्रस्त्रैलोक्यनाथो भवपदादिकः । त्रैकाल्पज्ञानी भव त्रिरत्नस्वामी भवेत्ययम् ॥९६॥ चूर्णिः - त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैलोक्यज्ञानी भव; त्रिरत्नस्वामी भव, ( प्रीतिमन्त्रः ) ? मन्त्रोऽवतार कल्याणभागी भवपदादिकः । सुप्रीती मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणवाक्परः ॥ ९७ ॥ भागीभव पदोपेतस्ततो निष्क्रान्तिवाक्परः । कल्याणमध्यमो भागी भवेत्येतेन योजितः ॥ ९८ ॥ ततश्चार्हन्त्यकल्याणभागी भव पदान्वितः । ततः परमनिर्वाणकल्याणपदसंगतः ॥९९॥ 3 गर्भाधान के मन्त्र - प्रथम ही 'सज्जातिभागी भव' ( उत्तम जातिको धारण करनेवाला हो) और सद्गृहिभागी भव' ( उत्तम गृहस्थ अवस्थाको प्राप्त होओ) इन दो पदोंका उच्चारण कर पश्चात् नीचे लिखे पद पढ़ना चाहिए ॥ ९२ ॥ पहले 'मुनीन्द्रभागी भव' ( महामुनिका पद प्राप्त करनेवाला हो ) यह पद बोलना चाहिए और फिर 'सुरेन्द्रभागी भव' ( इन्द्र पदका भोक्ता हो ) तथा 'परमराज्यभागी भव' ( उत्कृष्ट राज्यका उपभोग करनेवाला हो ) इन दो पदों का उच्चारण करना चाहिए || १३|| तदनन्तर 'आर्हन्त्यभागी भव' ( अरहन्त पदका प्राप्त करनेवाला हो ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिए और फिर 'परमनिर्वाणभागी भव' ( परम निर्वाण पदको प्राप्त करनेवाला हो ), यह पद कहना चाहिए || ९४ || गर्भाधानकी क्रियामें पहले के मन्त्रोंके साथ-साथ यह मन्त्र काममें लाना चाहिए इस प्रकार यह आम्नायके अनुसार मन्त्रोंका विनियोगका क्रम दिखलाया है ||२५|| गर्भाधान के समय काम आनेवाले विशेष मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है : सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीद्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भव, आर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाणभागी भव । अब प्रीतिमन्त्र कहते हैं - ' त्रैलोक्यनाथो भव' ( तीनों लोकोंके अधिपति होओ ) 'काल्यज्ञानी भव' ( तीनों कालका जाननेवाला हो ) और 'त्रिरत्नस्वामी भव' ( रत्नत्रयका स्वामी हो ) ये तीन प्रीतिक्रिया के मन्त्र हैं ॥ ९६ ॥ संग्रह - ' त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव त्रिरत्नस्वामी भव' । 1 अप सुप्रीति क्रियाके मंत्र कहते हैं- सुप्रीति क्रियामें 'अवतार कल्याणभागी भव' ( गर्भकल्याणकको प्राप्त करनेवाला हो ), 'मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव' ( सुमेरु पर्वतपर इन्द्रके द्वारा जन्माभिषेकके कल्याणको प्राप्त हो ), 'निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव' (निष्क्रमण कल्याणको प्राप्त करनेवाला हो ), 'आर्हन्त्य कल्याणभागी भव' ( अरहन्त अवस्था – केवलज्ञानकल्याणक प्राप्त करनेवाला हो ), और 'परमनिर्वाणकल्याणभागी भव' [ उत्कृष्ट निर्वाण कल्याणकको १ गर्भाधाने । २ पीठिकामन्त्रादिपुरःसरः । ३ अवतारादिकल्याणादिपरमनिर्वाणपदान्तानां सर्वपदानाम् । मन्त्र इति पदं विशेष्यपदं भवति । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व ३०३ भागी भवपदान्तश्च क्रमाद्वाच्यो मनीषिभिः । तिमन्त्रमितो वक्ष्ये प्रीत्या शृणुत भो द्विजाः ॥१०॥ __ चूर्णि:-अवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव, निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव, परमनिर्वाणकल्याणमागी भव, ( सुप्रीतिमन्त्रः )। प्रतिक्रियामन्त्रःआधानमन्त्र एवात्र सर्वत्राहितदातृवाक् । मध्ये यथाक्रमं वाच्यो नान्यो भेदोऽत्र कश्चन ॥१०१॥ चूर्णि:-सजातिदातृभागी मव, सद्गृहिदातृभागी भव, मुनीन्द्र दातृभागी भव, सुरेन्द्रदातृभागी भव, परमराज्यदातृभागी भव, आर्हन्त्यपददातृभागी भव, परमनिर्वाणदातृभागी भव, (प्रतिक्रियामन्त्रः) । मोदक्रियामन्त्रःमन्त्री मोदक्रियायां च मतोऽयं मुनिसत्तमैः । पूर्व सज्जातिकल्यागभागी भव पदं वदेत् ॥१०२॥ ततः सद्गृहिकल्याणभागी भव पदं पठेत् । ततो वैवाहकल्याणभागी भव पदं मतम् ॥१०॥ ततो मुनीन्द्रकल्याणभागी भव पदं स्मृतम् । पुनः सुरेन्द्रकल्याणभागी भव पदात्परम् ॥१०॥ मन्दराभिषेककल्याणमागीति च भवेति च । तस्माच्च यौवराज्यादिकल्याणपदसंयुतम् ॥१०५॥ प्राप्त करनेवाला हो ) ये मन्त्र विद्वानोंको अनुक्रमसे बोलना चाहिए। अब आगे धृतिमन्त्र कहते हैं सो हे द्विजो, उन्हें तुम प्रीतिपूर्वक सुनो ॥९७-१००॥ संग्रह-'अवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव, निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव, परमनिर्वाणकल्याणभागी भव' ।। धृतिक्रियाके मन्त्र-गर्भाधान क्रियाके मन्त्रोंमें सब जगह दातृ शब्द लगा देनेसे धृति क्रियाके मन्त्र हो जाते हैं, विद्वानोंको अनुक्रमसे उन्हींका प्रयोग करना चाहिए, आधान क्रियाके मन्त्रोंसे इन मन्त्रोंमें और कुछ भेद नहीं है। भावार्थ-'सज्जातिदातृभागी भव' ( सज्जाति-उत्तम जातिको देनेवाला हो ), 'सद्गृहिदातृभागी भव' ( सद्गृहस्थपदका देनेवाला हो ), 'मुनीन्द्रदातृभागी भव' ( महामुनिपदका देनेवाला हो ), 'सुरेन्द्र दातृ भागी भव' ( सुरेन्द्रपदको देनेवाला हो ), 'परमराज्यदातृभागी भव' ( उत्तमराज्य-चक्रवर्तीके पदका देनेवाला हो), आर्हन्त्यदातभागी भव' ( अरहन्त पदका देनेवाला हो ) तथा 'परमनिर्वाणदातृभागी भव ( उत्कृष्ट निर्वाण पदका देनेवाला हो ) धति क्रियामें इन मन्त्रोंका पाठ करना चाहिए ॥१०॥ संग्रह-'सज्जातिदातृभागी भव, सद्गृहिदातृभागी भव, मुनीन्द्रदातृभागी भव, सुरेन्द्रदातृभागी भव, परमराज्यदातृभागी भव, आर्हन्त्यदातृभागी भव, परमनिर्वाणदातृभागी भव' । __ अब मोदक्रियाके मन्त्र कहते हैं - उत्तम मुनियोंने मोदक्रियाके मन्त्र इस प्रकार माने हैं सबसे पहले 'सज्जातिकल्याणभागी भव' ( सज्जातिके कल्याणको धारण करनेवाला हो) यह पद बोलना चाहिए, फिर सद्गृहिकल्याणभागी भव उत्तम गृहस्थके कुल्याणका धारण करनेवाला हो ) यह पद पढ़ना चाहिए, तदनन्तर 'वैवाहकल्याणभागी भव' ( विवाहके कल्याणको प्राप्त करनेवाला हो) इस पदका उच्चारण करना चाहिए, फिर 'मुनीन्द्रकल्याणभागी भव' ( महामुनि पदके कल्याणको प्राप्त करनेवाला हो ) यह मन्त्र बोलना चाहिए, इसके बाद 'सुरेन्द्रकल्याणभागी भव' ॥१०२॥ [ इन्द्र पदके कल्याणका उपभोग करनेवाला हो ], यह पद कहना चाहिए, फिर 'मन्दराभिषेककल्याणभागी भव' [सुमेरु पर्वतपर अभिषेकके कल्याणको प्राप्त हो] यह मन्त्र पढ़ना चाहिए, अनन्तर 'यौवराज्यकल्याणभागी भव' [ युवराज पदके कल्याणका उपभोग करनेवाला हो ] यह पद कहना चाहिए, तत्पश्चात् मन्त्रोंके प्रयोग करने में विद्वान् लोगोंको 'महाराज्यकल्याणभागी भव' [ महाराज पदके कल्याणका उपभोक्ता हो ] यह १ मतो ल० । मथो द० । २ धृतिक्रियायाम् । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ आदिपुराणम् भागीभवपदं वाच्यं मन्त्रयोगविशारदैः । स्यान्महाराज्यकल्याणभागी भव पदं परम् ॥१०६॥ भूयः परमराज्यादिकल्याणोपहितं' मतम् । मागी भवेत्यथार्हन्त्यकल्याणेन च योजितम् ॥१०॥ चूर्णिः-सज्जातिकल्याणभागी भव, सद्गृहिकल्याणभागी भव, वैवाहकल्याणभागी भव, मुनीन्द्र कल्याणभागी भव, सुरेन्द्र कल्याणभागी भव, मन्दराभिषेककल्याणभागी भव, यौवराज्यकल्याणभागी भव, महाराज्यकल्याणभागी भव, परमराज्यकल्याणमागी भत्र, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव, (मोदक्रिया मन्त्रः) । प्रियोद्भवमन्त्रः-- प्रियोद्भवे च मन्त्रोऽयं सिद्धार्चनपुरःसरम् । दिव्यनेमिविजयाय पदात्परमनेमिवाक् ॥१०॥ विजयायेत्यथार्हन्त्यनेम्यादिविजयाय च । युक्तो मन्त्राक्षरैरेभिः स्वाहान्तः संमतो द्विजैः ॥१०९॥ चूर्णि:-दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा, परमनेमिविजयाय स्वाहा, आर्हन्त्यनेमिविजयाय स्वाहा। (प्रियोद्भवमन्त्रः)। जन्मसंस्कारमन्त्रोऽयमेतेनार्मकमादितः । सिद्धाभिषेकगन्धाम्बुसंसिक्तं शिरसि स्थितम् ॥११०॥ कुलजातिवयोरूपगुणैः शीलप्रजान्वयैः । भाग्याविधवतासौम्यमूर्तित्वैः समधिष्टिता ॥१११॥ सम्यग्दृष्टिस्तवाम्बेयमतस्त्वमपि पुत्रकः । संप्रीतिमा नुहि त्रीणि प्राप्य चक्राण्यनुक्रमात् ॥१२॥ इत्यङ्गानि स्पृशेदस्य प्रायः सारूप्ययोगतः । तत्राधा यात्मसंकल्पं ततः सूक्तमिदं पठेत् ॥११३॥ मन्त्र बोलना चाहिए, फिर 'परमराज्यकल्याणभागी भव' ( परमराज्यके कल्याणको प्राप्त हो ) यह पद पढ़ना चाहिए और उसके बाद 'आर्हन्त्यकल्याणभागी भव' ( अरहन्त पदके कल्याणका उपभोग करनेवाला हो) यह मन्त्र बोलना चाहिए ॥१०३-१०७॥ संग्रह-'सज्जातिकल्याणभागी भव, सद्गृहिकल्याणभागी भव, वैवाहकल्याणभागी भव, मुनीन्द्रकल्याणभागी भव, सुरेन्द्रकल्याणभागी भव, मन्दराभिषेककल्याणभागी भव, यौवराज्यकल्याणभागी भव, महाराज्यकल्याणभागी भव, परमराज्यकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव'। अब प्रियोद्धव मन्त्र कहते हैं - प्रियोद्भव क्रियामें सिद्ध भगवान की पूजा करनेके बाद नीचे लिखे मन्त्रोंका पाठ करना चाहिए - 'दिव्यनेमिविजयाय', 'परमनेमिविजयाय', और 'आर्हन्त्यनेमिविजयाय' इन मन्त्राक्षरोंके साथ द्विजोंको अन्तमें स्वाहा शब्दका प्रयोग करना अभीष्ट है अर्थात् 'दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा' ( दिव्यनेमिके द्वारा कर्मरूप शत्रओंपर विजय प्राप्त करनेवालेके लिए हवि समर्पण करता हूँ), परमनेमिविजयाय स्वाहा' (परमनेमिके द्वारा विजय प्राप्त करनेवालेके लिए समर्पण करता हूँ) और 'आर्हन्त्यनेमिविजयाय स्वाहा' ( अरहन्त अवस्थारूप नेमिके द्वारा कर्म शत्रुओंको जीतनेवाले जिनेन्द्रदेवके लिए समर्पण करता हूँ ) ये तीन मन्त्र बोलना चाहिए ॥१०८-१०९॥ संग्रह-'दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा, परमनेमिविजयाय स्वाहा, आर्हन्त्यनेमिविजयाय स्वाहा'। अब जन्म संस्कारके मन्त्र कहते हैं - प्रथम ही सिद्ध भगवानके अभिषेकके गन्धोदकसे सिंचन किये हुए बालकको यह मन्त्र पढ़कर शिरपर स्पर्श करना चाहिए और कहना चाहिए कि यह तेरी माता कुल, जाति, अवस्था, रूप आदि गुणोंसे सहित है, शीलवती है, सन्तानवती है, भाग्यवती है, अवैधव्यसे युक्त है, सौम्यशान्तमूर्तिसे सहित है और सम्यग्दृष्टि है इसलिए हे पुत्र, इस माताके सम्बन्धसे तू भो अनुक्रमसे दिव्य चक्र, विजयचक्र और परमचक्र तीनों चक्रोंको पाकर सत्प्रीतिको प्राप्त हो ॥११०-११२॥ इस प्रकार आशीर्वाद देकर पिता १ सहितम् । २ कुलजात्यादियथायोग्यगुणैरधिष्ठितः । ३ दिव्यचक्रविजयचक्रपरमचक्राणि । ४ समानरूपत्वसंबन्धात् । ५ बालके । ६ विधाय । ७ निजसंकल्पम् । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व अङ्गादङ्गात्संभवसि हृदयादपि जायसे । आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम् ॥११॥ क्षीराज्यममृतं पूतं नामावावयं युक्तिभिः । घातिंजयो भवेत्यस्य ह्रासयेनामिनालकम् ॥११॥ श्रीदेव्यो जात ते जात क्रियां कुर्वन्विति ब्रुवन् । तत्तनुं चूर्णवासेन शनैरुद्वत्यं यत्नतः ॥११६॥ त्वं मन्दराभिषेका) भवेति स्नपयेत्ततः । गन्धाम्बुभिश्चिरं जीव्या इत्याशास्याक्षतं क्षिपेत् ॥११७॥ नश्यात्कर्ममलं कृत्स्नमित्यास्येऽस्य" सनासिके । घृतमौषधसंसिद्धमाव पेन्मात्रया द्विजः ॥११८॥ ततो विश्वेश्वरास्तन्यभागी" भूया इतोरयन् । मातुस्तनमुपामन्त्र्य वदनेऽस्य समासजेत् ॥११॥ प्रागवर्णितमथानन्दं प्रीतिदानपुरःसरम् । विधाय विधिवत्तस्य जातकर्म समापयेत् ॥१२०॥ जरायुपटलं चास्य नाभिनालसमायुतम् । शुचौ भूमौ निखातायां विक्षिपेन्मन्त्रमापठन् ॥१२१॥ सम्यग्दृष्टिपदं बोध्ये सर्वमातेति चापरम् । वसुंधरापदं चैव स्वाहान्तं द्विरुदाहरेत् ॥१२२॥ चूर्णिः-सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमातः सर्वमातः वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा। मन्त्रेणानेन संमन्व्य भूमौ सोदकमक्षतम् । क्षिप्त्वा गर्भमलं न्यस्तपञ्चरत्नतले क्षिपेत् ॥१२३॥ उसके समस्त अंगोंका स्पर्श करे और फिर प्रायः अपने समान होनेसे उसमें अपना संकल्प कर अर्थात यह मैं ही है ऐसा आरोप कर नीचे लिखे हए सभाषित पढे ॥११३॥ हे पूत्र, त मेरे अंग अंगसे उत्पन्न हुआ है और मेरे हृदयसे भी उत्पन्न हुआ है इसलिए तू पुत्र नामको धारण करनेवाला मेरा आत्मा ही है। तू सैकड़ों वर्षों तक जीवित रह ॥११४॥ तदनन्तर दूध और घीरूपी पवित्र अमृत उसकी नाभिपर डालकर 'घातिजयो भव' (तू घातिया कर्मोको जीतनेवाला हो) यह मन्त्र पढ़कर युक्तिसे उसकी नाभिका नाल काटना चाहिए ॥११५॥ तत्पश्चात् 'हे जात, श्रीदेव्यः ते जातक्रियां कुर्वन्तु' अर्थात् हे पुत्र, श्री, ही आदि देवियाँ तेरी जन्मक्रियाका उत्सव करें यह कहते हुए धीरे-धीरे' यत्नपूर्वक सुगन्धित चूर्णसे उस बालकके शरीरपर उबटन करे । फिर 'त्वं मन्दराभिषेकाो भव' अर्थात् तू मेरु पर्वतपर अभिषेक करने योग्य हो यह मन्त्र पढ़कर सुगन्धित जलसे उसे स्नान करावे और फिर 'चिरं जीव्याः' अर्थात् तू चिरकाल तक जीवित रह इस प्रकार आशीर्वाद देकर उसपर अक्षत डाले ॥११६-११७॥ इसके अनन्तर द्विज, 'नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नम्'-अर्थात् तेरे समस्त कर्ममल नष्ट हो जावें यह मन्त्र पढ़कर उसके मुख और नाकमें, औपधि मिलाकर तैयार किया हुआ घी मात्राके अनुसार छोड़े ॥११८॥ तत्पश्चात् 'विश्वेश्वरीस्तन्यभागी भूयाः' अर्थात् तू तीर्थंकरकी माताके स्तनका पान करनेवाला हो ऐसा कहता हुआ माताके स्तनको मन्त्रित कर उसे बालकके मुहमें लगा दे ॥११६॥ तदनन्तर जिस प्रकार पहले वर्णन कर चुके हैं उसी प्रकार प्रीतिपूर्वक दान देते हुए उत्सव कर विधिपूर्वक जातकर्म अथवा जन्मकालकी क्रिया समाप्त करनी चाहिए ॥१२०॥ उसके पटलको नाभिकी नालके साथ-साथ किसी पवित्र जमीनको खोदकर मन्त्र पढ़ते हुए गाड़ देनाचाहिए ।।१२१॥ उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है कि सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद, सर्वमातापद और वसुन्धरा पदको दो-दो बार कहकर अन्त में स्वाहा शब्द कहना चाहिए । अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमातः सर्वमातः वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा ( सम्यग्दृष्टि, सर्वकी माता पृथ्वीमें यह समर्पण करतो हूँ ) इस मन्त्रसे मन्त्रित कर उस भूमिमें जल और अक्षत डालकर पाँच प्रकारके रत्नोंके नीचे गर्भका वह मल रख देना चाहिए और फिर कभी 'त्वत्पुत्रा इव १ बहुसंवत्सरमित्यर्थः । २ क्षीराज्यरूपममतम् । ३ सिक्त्वा । '४ युक्तितः ल०। भक्तितः द०। ५ बालस्य । ६ स्वं कुर्यात् । छिन्द्यादित्यर्थः । ७ पुत्र ८ जातकर्म । ९ परिमलचूर्णेन । १० जीव । ११ वक्त्रे। १२ आवज वेद, क्षिपेद् वा। १३ किचित् परिमाणेन। १४ जिनजननीस्तन्यपानभागी भव। १५ त्रुवन् । १६ संयोजयेत् । १७ संप्रापयेत् । १८ जरायुपटलम् ।। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ आदिपुराणम् त्वरपुत्रा' इव मत्पुत्रा भूयासुश्चिरजीविनः । इत्युदाहृत्य सस्याहे तत्क्षेप्तव्यं महीतले ॥१२४॥ क्षीरवृक्षोपशाखाभिरुपहृत्य च भूतलम् । स्नाप्पा तत्रास्य मानाऽसौ सुखोष्णमन्त्रितैर्जलैः ॥१२५॥ सम्यग्दृष्टिपदं बोध्यविषयं द्विरुदीरयेत् । पदमासन्नभव्येति तद्वद् विश्वेश्वरेत्यपि ॥१२६॥ . तत ऊर्जितपुण्येति जिनमातृपदं तथा । स्वाहान्तो मन्त्र एष स्यान्मातुः सुस्नानसंविधौ ॥१२७॥ चूर्णिः-सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्ये आसन्नभव्ये विश्वेश्वरे विश्वेश्वरे ऊर्जितपुण्ये अर्जितपुण्ये जिनमातः जिनमातः स्वाहा । यथा जिनाम्बिका पुनकल्याणान्यभिपश्यति । तथेयमपि मत्पत्नीत्यास्थयेयं विधिं भजेत् ॥१२८॥ तृतीयेऽहनि चानन्तज्ञानदी भवेत्यमुम् । आलोकयेत्समुक्षिप्य निशि ताराङ्कितं नमः ॥२९॥ पुण्याहघोषणापूर्व कुर्याद् दानं च शक्तितः । यथायोग्यं विदध्याञ्च सर्वस्याभयबोषणाम् ॥१३०॥ जातकर्मविधिः सोऽयमाम्नातः पूर्वसूरिभिः। यथायोगमनुष्ठेयः सोऽद्यत्वेऽपि द्विजोत्तमैः ॥१३१॥ नामकर्मविधाने च मन्त्रोऽयमनुकीय॑ते । सिद्धार्चनविधौ सत मन्त्राः प्रागनुवर्णिताः ॥१३२॥ ततो दिव्याष्टसहस्रनामभागी भवादिकम् । पदत्रितयमुच्चार्य मन्त्रोऽत्र परिवर्त्यताम् ॥१३३॥ .. चूर्णिः-'दिव्यास्त्रसहस्रनाममागी भव, विजयाष्टसहस्रनामभागी भव, परमाष्टसहस्रनामभागी मव'। मत्पुत्राः चिरंजीविनो भूयासुः' (हे पृथ्वी तेरे पुत्र-कुलपर्वतोंके समान मेरे पुत्र भी चिरंजीवी हों) यह कहकर धान्य उत्पन्न होनेके योग्य खेतमें जमीनपर वह मल डाल देना चाहिए ॥१२२-१२४॥ तदनन्तर क्षीर वृक्षको डालियोंसे पृथिवीको सुशोभित कर उसपर उस पुत्र की माताको बिठाकर मन्त्रित किये हुए सुहाते गरम जलसे स्नान कराना चाहिए ॥१२५॥ माताको स्नान करानेका मन्त्र यह है - प्रथम ही सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पदको दो बार कहना चाहिए फिर आसन्नभव्या, विश्वेश्वरी, अजितपुण्या, और जिनमाता इन पदोंको भी सम्बोधनान्त कर दो-दो बार बोलना चाहिए और अन्तमें स्वाहा शब्द पढ़ना चाहिए। भावार्थ - सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्ये आसन्नभव्ये विश्वेश्वरि विश्वेश्वरि जितपुण्ये जितपुण्ये जिनमातः जिनमातः स्वाहा (हे सम्यग्दृष्टि, हे निकटभव्य, हे सबको स्वामिनी, हे अत्यन्त पुण्य संचय करनेवाली, जिनमाता तू कल्याण करनेवाली हो) यह मन्त्र पुत्रकी माताको स्नान कराते समय बोलना चाहिए ॥१२६-१२७॥ जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवको माता पुत्रके कल्याणोंको देखती है उसी प्रकार यह मेरी पत्नी भी देखे ऐसी श्रद्धासे यह स्नानकी विधि करनी चाहिए ॥ १२८॥ तीसरे दिन रातके समय 'अनन्तज्ञानदी भव' (तू अनन्तज्ञानको देखनेवाला हो) यह मन्त्र पढ़कर उस पुत्रको गोदीमें उठाकर ताराओंसे सुशोभित आकाश दिखाना चाहिए ॥ १२९ ॥ उसी दिन पुण्याहवाचनके साथ-साथ शक्तिके अनुसार दान करना चाहिए और जितना बन सके उतना सब जीवोंके अभयकी घोषणा करनी चाहिए ॥ १३० ॥ इस प्रकार पूर्वाचार्योंने यह जन्मोत्सवकी विधि मानी है - कही है । उत्तम द्विजको आज भी इसका यथायोग्य रीतिसे अनुष्ठान करना चाहिए ॥ १३१ ॥ अब आगे नामकर्म करते समय जिन मन्त्रोंका प्रयोग होता है उन्हें कहते हैं-इस विधिमें सिद्ध भगवान्को पूजा करनेके लिए जिन सात पोठिका मन्त्रोंका प्रयोग होता है उन्हें पहले ही 'कह चुके हैं। उनके आगे 'दिव्याष्टसहसनामभागी भव' आदि तीनों पदोंका उच्चारण कर मन्त्र परिवर्तित कर लेना चाहिए अर्थात् 'दिव्याष्टसहसूनामभागी भव' (एक हजार आठ दिव्य नामोंका पानेवाला हो), "विजयाष्टसहसूनामभागी भव' (विजयरूप एक हजार आठ १ कुलपर्वता इव । २ अलंकृत्येत्यर्थः । ३. विश्वेश्वरीत्यपि ल० । ४ एवं बुद्ध्या । ५ पुत्रम् । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तम पर्व शेषो विधिस्तु निःशेषः प्रागुतो नोच्यते पुनः । बहिर्यानक्रियामन्त्रः ततोऽयमनु गम्यताम् ।। १३४॥ बहिर्यानक्रिया - तत्रोपनयनिष्क्रान्तिभागी भव पदात्परम् । भवेद् वैवाहनिप्क्रान्तिभागी भव पदं ततः ॥ १३५॥ . क्रमान्मुनीन्द्र निष्क्रान्तिमागी भव पदं वदेत् । ततः सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव पदं स्मृतम् ॥ १३६॥ मन्दराभिवेकनिष्क्रान्तिभागीभव पदं ततः । यौवराज्यमहाराज्यपदे भागी भवान्विते ॥१३७॥ निष्कान्तिपदमध्ये स्तां परराज्यपदं तथा । आईत्यराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव शिखापदम् ॥१३८॥ पदैरेभित्यं मन्त्रस्तद्विद्भिरनुजप्यताम् । प्रागुतो विधिरन्यस्तु निषद्यामन्त्र उत्तरः ॥१३९॥ चूर्णिः-उपनयनिष्क्रान्तिभागीभव, वैवाहनिक्रान्तिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागीभव, मन्दराभिषेकनिक्रान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, परमराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, आर्हन्त्यनिष्क्रान्तिभागी झव, ( बहिर्यानमन्त्रः) . निषद्या - दिव्यसिंहासनपदाद् भागी भव पदं भवेत् । एवं विजयपरमसिंहासनपदद्वयात् ॥१४०॥ नामोंका धारक हो और ‘परमाष्टसहसनामभागी भव' ( अत्यन्त उत्तम एक हजार आठ नामोंका पानेवाला हो ) ये मन्त्र पढ़ना चहिए । संग्रह-'दिव्याष्टसहसनामभागी भव, विजयाष्टसहसनामभागी भव, परमाष्टसहसनामभागी भव' ॥१३२-१३३।। बाकीकी समस्त विधि पहले कही जा चुकी है इसलिए दुबारा नहीं कहते हैं । अब आगे बहिर्यान क्रियाके मन्त्र नीचे लिखे अनुसार जानना चाहिए ॥१३४।। सबसे पहले 'उपनयनिष्क्रान्तिभागी भव', (तू यज्ञोपवीतके लिए निकल्नेशाला हो ) यह पद बोलना चाहिए और फिर 'वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव' ( विवाहके लिए बाहर निकलनेवाला हो ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिए ॥१३५॥ तदनन्तर अनुक्रमसे 'मुनीन्द्रनिष्कान्तिभागी' भव' ( मुनिपदके लिए निकलनेवाला हो ) यह मन्त्र कहना चाहिए और उसके बाद 'सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव' ( सुरेन्द्र पदकी प्राप्तिके लिए निकलनेवाला हो ) यह पद बोलना चाहिए ॥१३६।। तत्पश्चात् 'मन्दरेन्द्राभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव' ( सुमेरुपर्वतपर अभिषेकके लिए निकलनेवाला हो) इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिए और फिर 'यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' (युवराज पदके लिए निकलनेवाला हो) यह मन्त्र कहना चाहिए ।।१३७।। तदनन्तर 'महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' ( महाराज पदकी प्राप्तिके लिए निकलनेवाला हो ) यह पद बोलना चाहिए और उसके बाद 'परमराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' ( चक्रवर्तीका उत्कृष्ट राज्य पानेके लिए निकलनेवाला हो ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिए और इसके अनन्तर 'आर्हन्त्यराज्यभागी भव' ( अरहन्त पदकी प्राप्तिके लिए निकलनेवाला हो ) यह मन्त्र कहना चाहिए ॥१३८॥. इस प्रकार मन्त्रोंको जानेवाले द्विजोंको इन उपर्युक्त पदोंके द्वारा मन्त्रोंका जाप करना चाहिए । बाकी समस्त विधि पहले कह चुके हैं। अब आगे निषा मन्त्र कहते हैं ॥१३९॥ संग्रह-'उपनयनिष्क्रान्तिभागी भव, वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, सुरेन्द्रनिष्कान्तिभागी भव, मन्दराभिषेकनिष्कान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्कान्तिभागी भव, महाराज्यनिष्कान्तिभागी भव, परमराज्यनिष्कान्तिभागी भव, आर्हन्त्यनिष्कान्तिभागी भव। निषद्यामन्त्र :-'दिव्यसिंहासनभागी भव' (दिव्य सिंहासनका भोक्ता हो - इन्द्रके १ ज्ञायताम् । २ स्याताम् । ३ अन्त्यपदम् । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आदिपुराणम् । चूर्णिः-दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी भव ( इति निषद्यामन्त्रः)। अन्नप्राशनक्रिया- . प्राशनेऽपि तथा मन्त्रं पदैस्त्रिमिरुदाहरेत् । तानि स्युर्दिव्यविजयाक्षीणामृतपदानि वै ॥१४१॥ भागी भव पदेनान्ते युक्तनानुगतानि तु । परैरेभिरयं मन्त्रः प्रयोज्यः प्राशने बुधैः ॥१४२॥ - चूर्णिः-दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतमागी भव, अक्षीणामृतभागी भव । व्युष्टिः व्युष्टि क्रियाश्रितं मन्त्रमितो वक्ष्ये यथाश्रुतम् । तत्रोपनयनं जन्मवर्षवर्द्धनवाग्युतम् ॥१४३॥ भागी भव पर ज्ञेयमादौ शेषपदाष्टके । वैवाहनिष्ठशब्देन मुनिजन्मपदेन च ॥१४४॥ सुरेन्द्रजन्मना मन्दरामिषेकपदेन च । यौवराज्यमहाराज्यपदाभ्यामप्यनुक्रमात् ॥१४५॥ परमार्हन्त्यराज्याभ्यां वर्षवर्धनसंयुतम् । भागी भव पदं योज्यं ततो मन्त्रोऽयमुद्भवेत् ॥१६॥ चूर्णिः-उपनयनजन्मवर्षवर्द्धनमागी भव, वैवाहनिष्टवर्षवर्द्धमभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्द्धनमागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्द्धनमागी भव, ( व्युष्टिक्रियामन्त्रः) आसनपर बैठनेवाला हो ) 'विजयसिंहासनभागी भव' ( चक्रवर्तीके विजयोल्लसित सिंहासनपर बैठनेवाला हो ) और 'परमसिंहासनभागी भव' ( तीर्थ करके उत्कृष्ट सिंहासनपर बैठनेवाला हो ) ये तीन मन्त्र कहना चाहिए ॥१४०॥ संग्रह-'दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी भव' । अब अन्नप्राशन कियाके मन्त्र कहते हैं - अन्नप्राशन कियाके समय तीन पदोंके द्वारा मन्त्र कहने चाहिए और वे पद दिव्यामृत, विजयामृत और अक्षीणामृत इनके अन्तमें भागी भव ये योग्य पद लगाकर बनाने चाहिए। विद्वानोंको अन्नप्राशन कियामें इन पदोंके द्वारा मन्त्रका प्रयोग करना चाहिए । भावार्थ - इस क्रियामें निम्नलिखित मन्त्र पढ़ने चाहिए-'दिव्यामृतभागी भव' (दिव्य अमृतका भोग करनेवाला हो ), 'विजयामृतभागी भव' (विजयरूप अमृतका उपभोक्ता हो ) और 'अक्षोणामृतभागी भव' ( अक्षीण अमृतका भोक्ता हो ) ॥१४१-१४२॥ संग्रह - 'दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव, अक्षोणामृतभागी भव' । ___ अब यहाँसे आगे शास्त्रानुसार व्युष्टि कियाके मन्त्र कहते हैं - सबसे पहले 'उपनयन' के आगे 'जन्मवर्षवर्द्धन' पद लगाकर 'भागी भव' पद लगाना चाहिए और फिर अनुकमसे वैवाहनिष्ठ, मुनीन्द्रजन्म, सुरेन्द्रजन्म, मन्दराभिषेक, यौवराज्य, महाराज्य, परमराज्य और आर्हन्त्यराज्य इन शेष आठ पदोंके साथ 'वर्षवर्द्धन' पद लगाकर 'भागी भव' यह पद लगाना चाहिए । ऐसा करनेसे व्युष्टिकियाके सब मन्त्र बन जावेंगे । भावार्थ - व्युष्टिकियामें निम्नलिखित मन्त्रोंका प्रयोग करना चाहिए - 'उपनयनजन्मवर्षवर्धनभागी भव' ( यज्ञोपवीतरूप जन्मके वर्षका बढ़ानेवाला हो) 'वैवाहिनिष्ठवर्षवर्धनभागी भव' (विवाह कियाके वर्षका वर्धक हो), 'मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्धनभागी' (मुनि पद धारण करनेवाले वर्षकी वृद्धिसे युक्त हो ), 'सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्धनभागी भव' (इन्द्र जन्मके वर्षका बढ़ानेवाला हो ), 'मन्दराभिषेकवर्षवर्धनभागी भव' (सुमेरु पर्वतपर होनेवाले अभिषेककी वर्ष वृद्धि करनेवाला हो), यौवराज्यवर्षवर्धनभागी भव' ( युवराज पदको वर्ष वृद्धि करनेवाला हो ), 'महाराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (महाराज पदको वर्षवृद्धिका उपभोक्ता हो) 'परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव' ( चक्रवर्तीके उत्कृष्ट राज्य १ अन्नप्राशने । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व ३०६ चौलकर्म - * चौलकर्मण्यथो मन्त्रः स्याञ्चोपनयनादिकम् । मुण्डभागी भवान्तं च पदमादावनुस्मृतम् ॥१४॥ ततो निर्ग्रन्थमुण्डादिभागी भवपदं परम् । ततो निष्क्रान्तिमुण्डादिभागी भव पदं परम् ॥१४८॥ स्यात्परमनिस्तारककेशभागी भवेत्यतः । परमेन्द्र पदादिश्च केशमागी मवध्वनिः।।१४६॥ परमार्हन्त्यराज्यादिकेशभागीति वारद्वयम् । भवेत्यन्तपदोपेतं मन्त्रोऽस्मिम्स्याच्छिखापदम् ॥१५०॥ शिखानेतेन मन्त्रेण स्थापयेद्विधिवद् द्विजः । ततो मन्त्रोऽयमानातो लिपिसंख्यानसंग्रहे ॥१५॥ चूर्णिः-उपनयनमुण्डभागी भव, निर्ग्रन्थमुण्डभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, परमेन्द्रकेशभावी भव, परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव । (इति चौलक्रियामन्त्रः) . शब्दपारभागी भव अर्थपारभागी भव । पदं शब्दार्थसंबन्धपाएमागी भवेत्यपि ॥१५॥ चूर्णिः-शब्दपारगामी ( भागी ) भव, अर्थपारगामी (भागी ) भव, शब्दार्थपारगामी ( भागी) भव, (लिपिसंख्यानमन्त्रः) उपनीतिक्रियामन्त्रं स्मरन्तीम द्विजोत्तमाः । परमनिस्तारकादिलिङ्गभागी भवेत्यतः ॥१५३॥ की वर्षवृद्धि करनेवाला हो ) और 'आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (अरहन्त पदवीरूपी राज्यके बर्षका बढ़ानेवाला हो) ॥१४३-१४६॥ संग्रह - 'उपनयनजन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्षवर्द्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्धनभागी भव. सरेन्द्रजन्मवर्षवर्धनभागी भव. मन्दराभिषेकवर्षवर्धनभागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव' । अब चौलकियाके मन्त्र कहते हैं - जिसके आदिमें उपनयन शब्द है और अन्तमें 'मण्डभागी भव' शब्द है ऐसा पहला मन्त्र जानना चाहिए अर्थात् 'उपनयनमुण्डभागी भव' ( उपनयन कियामें मुण्डन करनेवाला हो ) यह चौलकियाका पहला मन्त्र है ॥१४७॥ फिर 'निर्ग्रन्थमुण्डभागी भव' (निर्ग्रन्थ दीक्षा लेते समय मुण्डन करनेवाला हो ) यह दूसरा मन्त्र है और उसके बाद 'निष्क्रान्तिमण्डभागी भव'- ( मुनि अवस्थामें केशलोंच करनेवाला हो) यह तीसरा मन्त्र है ॥१४८॥ तदनन्तर 'परमनिस्तारककेशभागी भव' ( संसारसे पार उतारनेवाले आचार्यके केशोंको प्राप्त हो) यह चौथा मन्त्र है और उसके पश्चात् 'परमेन्द्रकेशभागी भव' ( इन्द्र पदके केशोंको धारण करनेवाला हो ) यह पाँचवाँ मन्त्र बोलना चाहिए ॥१४९|| इसके बाद 'परमराज्यकेशभागी भव' (चक्रवर्तीके केशोंको प्राप्त हो) यह छठा मन्त्र है और 'आईन्त्यराज्यकेशभागी भव' ( अरहन्त अवस्थाके केशोंको धारण करनेवाला हो ) यह सातवाँ मन्त्र बोलना चाहिए। द्विजोंको इन मन्त्रोंसे विधिपूर्वक चोटी रखवाना चाहिए। अब आगे लिपिसंख्यानके मन्त्र कहते हैं ।।१५०-१५१॥ संग्रह-'उपनयनमुण्डभागी भव, निर्ग्रन्थमुण्डभागी भव, निष्क्रान्तिमुण्डभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, परमेन्द्रकेशभागी भव, परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव' । लिपिसंख्यानके मन्त्र-'शब्दपारभागी भव' (शब्दोंका पारगामी हो), 'अर्थपारगामी भागी भव' ( सम्पूर्ण अर्थका जाननेवाला हो) और 'शब्दार्थसंबन्धपारभागी भव' ( शब्द तथा अर्थ दोनोंके सम्बन्धका पारगामी हो ) ये पद लिपिसंख्यानके समय कहने चाहिए ॥१५२॥ संग्रह-'शब्दपारगामी भव, अर्थपारगामी भव, शब्दार्थपारगामी भव' ।। उत्तम द्विज नीचे लिखे हुए मन्त्रोंको उपनीति क्रियाके मन्त्ररूपसे स्मरण करते हैं - Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० आदिपुराणम् युक्तं परमर्षिलिङ्गेन नागीभवपदं भवेत् । परमन्द्रादिलिङ्गादिभागी भवपदं परम् ॥१५॥ एवं परमराज्यादि परमार्हन्त्यादि च क्रमात । युक्तं परमनिर्वाणपदेन च शिखापदम् ॥१५५॥ चूर्णिः-परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परमर्षिलिङ्गभागी भव, परमेन्द्र लिङ्गभागी भव, परमराज्यलिङ्गभागी भव, परमाईन्स्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव ( इत्युपनीतिक्रियामन्त्रः) मन्त्रेणानेन शिप्यस्य कृत्वा संस्कारमादितः । निर्विकारेण वस्त्रेण कुर्यादेनं सवाससम् ॥१५६॥ कोपीनाच्छादनं चैनमन्तर्वासन कारयेत् । मौनीबन्धमतः कुर्यादनुबद्धत्रिमेलकम् ॥१५७॥ सूत्रं गणधरईब्धं व्रतचिह्न नियोजयेत् । मन्त्रपूतमतो यज्ञोपवीती स्यादसौ द्विजः ॥१८॥ जात्येव ब्राह्मणः पूर्वमिदानों व्रतसंस्कृतः । द्विर्जातो द्विज इत्येवं रूढिमास्तिघ्नुते गुणैः ॥१५॥ दयान्यणुव्रतान्यस्मै गुरुसाक्षि यथाविधिः । गुणीलानुगैश्चैनं संस्कुर्याद् व्रतजातकैः ॥१६०॥ ततोऽतिबालविद्यादीनि योगादस्य निर्दिशेत् । दत्वोपासकाध्ययनं नामापि चरणोचितम् ॥१६१॥ ततोऽयं कृत पंस्कारः सिद्धार्चनपुरःसरम् । यथाविधानमाचार्य पूजां कुर्यादतः परम् ॥१६२ ॥ तस्मिन्दिने प्रविष्टस्य भिक्षार्थं जातिवेश्मसु । योऽर्थलामः स देयः स्यादुपाध्यायाय सादरम् ॥१६३॥ सबसे पहले ‘परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव' (तू उत्कृष्ट आचार्यके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो), फिर 'परमर्षिलिङ्गभागी भव' ( परमऋषियोंके चिह्नको धारण करनेवाला हो ) और 'परमेन्द्रलिंगभागी भव' (परम इन्द्रपदके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो) ये मन्त्र बोलना चाहिए । इसी प्रकार अनुक्रमसे परम राज्य, परमार्हन्त्य और परम निर्वाण पदको 'लिङ्गभागी भव' पदसे युक्त कर 'परमराज्यलिङ्गभागी भव' ( परमराज्यके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो), 'परमार्हन्त्यलिंगभाग भव' (उत्कृष्ट अरहन्तदेवके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो) और 'परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव' (परमनिर्वाणके चिह्नोंका धारक हो ) ये मन्त्र बना लेना चाहिए ॥१५३-१५५॥ संग्रह-'परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परमर्षिलिङ्गभागी भव, परमेन्द्रलिंगभागी भव, परमराज्यलिङ्गभागी भव, परमार्हन्त्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिंगभागी भव' । ___इन मन्त्रोंसे प्रथम ही शिष्यका संस्कार कर उसे विकाररहित वस्त्र के द्वारा वस्त्रसहित करना चाहिए अर्थात् साधारण वस्त्र पहनाना चाहिए ॥१५६॥ इसे वस्त्रके भीतर लँगोटी देनी चाहिए और उसपर तीन लड़की बनी हुई |जकी रस्सी बाँधनी चाहिए ॥१५७॥ तदनन्तर गणधरदेवके द्वारा कहा हुआ, व्रतोंका चिह्नस्वरूप और मन्त्रोंसे पवित्र किया हुआ सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत धारण कराना चाहिए। यज्ञोपवीत धारण करनेपर वह बालक द्विज कहलाने लगता है ॥१५८। पहले तो वह केवल जन्मसे ही ब्राह्मण था और अब व्रतोंसे संस्कृत होकर दूसरी बार उत्पन्न हुआ है इसलिए दो बार उत्पन्न होनेरूप गुणोंसे वह द्विज ऐसी रूढिको प्राप्त होता है ॥१५६॥ उस समय उस पुत्रके लिए विधिके अनुसार गुरुकी साक्षीपूर्वक अणुव्रत देना चाहिए और गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत रूपशीलसे सहित व्रतोंके समूहसे उसका संस्कार करना चाहिए । भावार्थ - उसे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार व्रत और शील देकर उसके संस्कार अच्छे बनाना चाहिए ॥१६०॥ तदनन्तर गुरु उसे उपासकाध्ययन पढ़ाकर और चारित्रके योग्य उसका नाम रखकर अतिबाल विद्या आदिका नियोगरूपसे उपदेश दे ॥१६१॥ इसके बाद जिसका संस्कार किया जा चुका है ऐसा वह पुत्र सिद्ध भगवान्की पूजा कर फिर विधिके अनुसार अपने आचार्यकी पूजा करे ॥१६२॥ उस दिन उस पुत्रको १ वस्त्रस्यान्तः । २ त्रिगुणात्मकम् । ३ ब्रह्मसूत्रम् । ४ प्राप्नोति । ५ समूहैः । ६ वक्ष्यमाणान् । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तम पर्व शेषो विधिस्तु प्राक्प्रोक्तः तमनूनं समाचरेत् । यावत्सोऽधीतविद्यः सन् मजेत् सब्रह्मचारिताम् ॥१६॥ अथातोऽस्य प्रवक्ष्यामि व्रतचर्यामनुक्रमात् । स्याद्यत्रोपासकाध्यायः समासेनानुसंहृतः ॥१६॥ शिरोलिङ्गमुरोलिङ्ग लिङ्गकट्यूरुसंश्रितम् । लिङ्गमस्योपनीतस्य प्रागनिणीतं चतुर्विधम् ॥१६॥ तत्त स्यादसिवृत्त्या वा मष्या कृप्या वणिज्यया । यथास्वं वर्तमानानां सदृष्टीनां द्विजन्मनाम् ॥१६॥ कुतश्चित् कारणाद् यस्य कुलं संप्राप्तदूषणम् ।सोऽपि राजादिसंमत्या शोधयेत् स्वं यदा कुलम् ॥१६॥ तदास्योपनयाहत्वं पुत्रपौत्रादिसन्तती। न निषिद्धं हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजाः ॥१६॥ अदीक्षा कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः । एतेषामुपनीत्यादिसंस्कारो नाभिसंमतः ॥१७॥ तेषां स्यादुचितं लिङ्ग स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । एकशाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि ॥१७॥ स्यान्निरामिषमोजित्वं कुलस्त्रीसेवनव्रतम् । अनारम्भवधोत्स? ह्यभक्ष्यापेयवर्जनम् ॥१७२॥ इति शुद्धतरां वृत्तिं व्रतपूतामुपेयिवान् । यो द्विजस्तस्य संपूर्णो व्रतचर्याविधिः स्मृतः ॥१७३॥ दशाधिकारास्तस्योक्ताः सूत्रेणौपासिकेन हि । तान्यथाक्रममुद्देशमात्रेणानुप्रचक्ष्महे ॥१७॥ अपनी जाति या कुटुम्बके लोगोंके घरमें प्रवेश कर भिक्षा मांगना चाहिए और उस भिक्षामें जो कुछ अर्थका लाभ हो उसे आदर सहित उपाध्यायके लिए सौंप देना चाहिए ॥१६३॥ बार्कीको सब विधि पहले कही जा चुकी है। उसे पूर्णरूपसे करना चाहिए। इसके सिवाय वह जबतक विद्या पढ़ता रहे तबतक उसे ब्रह्मचर्यव्रत पालन करना चाहिए ॥१६४॥ अथानन्तर जिसमें उपासकाध्ययनका संक्षेपसे संग्रह किया है ऐसी इसकी व्रतचर्याको अनुक्रमसे कहता हूँ ॥१६५॥ जिसका यज्ञोपवीत हो चुका है ऐसे बालकके लिए शिरका चिह्न ( मुण्डन ), वक्षःस्थलका चिह्न-यज्ञोपवीत, कमरका चिह्न - मूंजकी रस्सी और जाँघका चिह्न - सफेद धोती ये चार प्रकारके चिह्न धारण करना चाहिए । इनका निर्णय पहले हो चुका है ॥१६६॥ जो लोग अपनी योग्यताके अनुसार तलवार आदि शस्त्रोंके द्वारा, स्याही अर्थात् लेखनकलाके द्वारा, खेती और व्यापारके द्वारा अपनी आजीविका करते हैं ऐसे सदृष्टि द्विजोंको वह यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए ॥१६७॥ जिसके कुलमें किसी कारणसे दोष लग गया हो ऐसा पुरुष भी जब राजा आदिकी सम्मतिसे अपने कुलको शुद्ध कर लेता है तब यदि उसके पूर्वज दीक्षा धारण करनेके योग्य कुलमें उत्पन्न हुए हों तो उसके पुत्र पौत्र आदि सन्ततिके लिए यज्ञोपवीत धारण करनेकी योग्यताका कहीं निषेध नहीं है। भावार्थ-यदि दीक्षा धारण करने योग्य कुलमें किसी कारणसे दोष लग जावे तो राजा आदिकी सम्मतिसे उसकी शुद्धि हो सकती है और उस कुलके पुरुषको यज्ञोपवीत भी दिया जा सकता है। न केवल उसी पुरुषको किन्तु उसके पुत्र पौत्र आदि सन्तानके लिए भी यज्ञोपवीत देनेका कहीं निषेध नहीं है ॥१६८-१६९॥ जो दीक्षाके अयोग्य कुल में उत्पन्न हुए हैं तथा नाचना गाना आदि विद्या और शिल्पसे अपनी आजीविका करते हैं ऐसे पुरुषोंको यज्ञोपवीत आदि संस्कारोंकी आज्ञा नहीं है ॥१७०॥ किन्तु ऐसे लोग यदि अपनी योग्यतानुसार व्रत धारण करें तो उनके योग्य यह चिह्न हो सकता है कि वे संन्यासमरण पर्यन्त एक धोती पहनें ॥१७१॥ यज्ञोपवीत धारण करनेवाले पुरुषोंको मांसरहित भोजन करना चाहिए, अपनी विवाहिता कुलस्त्रीका सेवन करना चाहिए, अनारम्भी हिंसाका त्याग करना चाहिए और अभक्ष्य तथा अपेय पदार्थका परित्याग करना चाहिए॥१७२।। इस प्रकार जो द्विज, व्रतोंसे पवित्र हुई अत्यन्त शुद्ध वृत्तिको धारण करता है ,उसके व्रतचर्याको पूर्ण विधि समझनी चाहिए ॥१७३॥ अब उन द्विजोंके लिए उपासकाध्ययन सूत्र में जो दश १ संगृहीतः। २ जीवताम् । ३ मांसरहितभोजित्वम् । ४ आरम्भजनितवधं विहायान्यवधत्या । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२. आदिपुराणम् ... तत्रातिबालविद्याऽद्या कुलावधिरनन्तरम् । वर्गोत्तमत्वपात्रत्वे तथा सृष्ट यधिकारिणा ॥१७५॥ व्यवहारेशिताऽन्या स्यादवध्यत्वमदण्ड्यता) मानार्हता प्रजासंबन्धान्तरं चेत्यनुक्रमात् ॥१७६॥ दशाधिकारिवस्तूनि स्युरुपासकसंग्रहे । तानीमानि यथोद्देशं संक्षेपेण विवृन्महे ॥१७७॥ बाल्यात्प्रभृति या विद्याशिक्षोद्योगाद् द्विजन्मनः। प्रोक्तातिबालविद्येति सा क्रिया द्विजसंमता ॥१७८॥ तस्यामसत्यां मूढात्मा हेयादेयानमिज्ञकः । मिथ्याश्रति प्रपद्येत 'द्विजन्मान्यैः प्रतारितः ॥१७॥ बाल्प एव ततोऽभ्यस्येद् द्विजन्मौपासिकों श्रुतिम् । स तया प्राप्तसंस्कारः स्वपरोत्तारको भवेत् ॥१८॥ कुलावधिः कुलाचाररक्षण स्यात् द्विजन्मनः । तस्मिन्नसत्यसौ नष्टक्रियोऽन्यकुलतां मजेत् ॥१८१॥ वर्णोत्तमत्वं वर्णेषु सर्वेष्वाधिक्यमस्य वै । तेनायं इलाध्यतामेति स्वपरोद्धारणक्षमः ॥१८२॥ वर्णोत्तमत्वं यद्यस्य न स्यान्न स्यात्प्रकृष्टता । अप्रकृष्टश्च नात्मानं शोधयेन परानपि ॥१८३॥ ततोऽयं शुद्धिकामः सन् सेवेतान्यं कुलिङ्गिनम् । कुब्रह्म वा ततस्तजान् दोषान् प्राप्नोत्यसंशयम् ॥१८॥ प्रदानाहत्वमस्येष्टं पात्रत्वं गुणगौरवात् । गुणाधिकोऽहि लोकेऽस्मिन् पूज्यः स्याल्लोकपूजितैः ॥१८५॥ ततो गुणकृतां स्वस्मिन् पात्रतां द्रढयेद्विजः । तदभावे विमान्यत्वाद् ह्रियतेऽस्य धनं नृपः ॥१६॥ अधिकार कहे हैं उन्हें यथाक्रमसे नामके अनुसार कहता हूँ ॥१७४॥ उन दश अधिकारों में पहला अतिबाल विद्या, दूसरा कुलावधि, तीसरा वर्णोत्तमत्व, चौथा पात्रत्व, पाँचवाँ सृष्ट्यधिकारिता, छठा व्यवहारेशिता, सातवां अवध्यत्व, आठवाँ अदण्डयता, नौवाँ मानार्हता और दशवाँ प्रजासम्बन्धान्तर है। उपासकसंग्रहमें अनुक्रमसे ये दश अधिकारवस्तुएं बतलायी गयी हैं। उन्हीं अधिकार वस्तुओंका उनके नामके अनुसार यहाँ संक्षेपसे कुछ विवरण करता हूँ। ॥१७५-१७७।। द्विजोंको जो बाल्य अवस्थासे ही लेकर विद्या सिखलानेका उद्योग किया जाता है उसे अतिबालविद्या कहते हैं, यह विद्या द्विजोंको अत्यन्त इष्ट है ॥१७८।। इस अतिबाल विद्याके अभावमें द्विज मूर्ख रह जाता है उसे हेय उपादेयका ज्ञान नहीं हो पाता और वह अपनेको झूठमूठ द्विज माननेवाले पुरुषोंके द्वारा ठगाया जाकर मिथ्या शास्त्रके अध्ययनमें लग जाता है ॥१७६।। इसलिए द्विजोंको उचित है कि वे बाल्य अवस्थामें ही श्रावकाचारके शास्त्रोंका अभ्यास करें क्योंकि उपासकाचारके शास्त्रोंके द्वारा जिसे अच्छे संस्कार प्राप्त हो जाते हैं वह निज और परको तारनेवाला हो जाता है ॥१८०॥ अपने कुलके आचारको रक्षा करना द्विजोंकी कुलावधि क्रिया कहलाती है। कुलके आचारकी रक्षा न होनेपर पुरुषकी समस्त क्रियाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह अन्य कुलको प्राप्त हो जाता है ॥१८१॥ समस्त वर्गों में श्रेष्ठ होना ही इसकी वर्णोत्तम क्रिया है, इस वर्णोत्तम क्रियासे ही यह प्रशंसाको प्राप्त होता है और निज तथा परका उद्धार करने में समर्थ होता है ॥१८२॥ यदि इसके वर्णोत्तम क्रिया नहीं है अर्थात् इसका वर्ण उत्तम नहीं है तो इसके उत्कृष्टता नहीं हो सकती और जो उत्कृष्ट नहीं है वह न तो अपने-आपको शुद्ध कर सकता है और न दूसरेको ही शुद्ध कर सकता है ॥१८३।। जो स्वयं उत्कृष्ट नहीं है ऐसे द्विजको अपनी शुद्धिकी इच्छासे अन्य कुलिंगियों अथवा कुब्रह्मकी सेवा करनी पड़ती है और ऐसी दशामें वह निःसन्देह उन लोगोंमें उत्पन्न हुए दोषोंको प्राप्त होता है। भावार्थ-सदा ऐसे ही कार्य करना चाहिए जिससे वर्णकी उत्तमतामें बाधा न आवे ॥१८४।। गुणोंका गौरव होनेसे दान देनेके योग्य पात्रता भी इन्हीं द्विजोंमें होती है क्योंकि जो गणोंसे अधिक होता है वह संसारमें सब लोगोंके द्वारा पूजित होनेवाले लोगोंके द्वारा भी पूजा जाता है ॥१८५।। इसलिए द्विजोंको चाहिए कि वे अपने-आपमें गुणों१ यो विद्याशिक्षोद्योगो द्विजन्मनः द०,,ल०, अ०, स०, इ० । २ द्विजम्मन्यैः द०। ३ व्रजेत् द०, ल० । ४ कुत्सितब्रह्माणम् । ५ कुलिंगकुब्रह्मसेवनात् । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तम पर्व ३१३ रक्ष्यः सृष्टयधिकारोऽपि द्विजैरुत्तमसृष्टिमिः । असदृष्टिकृतां सृष्टिं परिहृत्य विदूरतः ॥१८७॥ अन्यथा सृष्टिवादेन दुर्दष्टेन' कुदृष्टयः । लोकं नृपांश्च संमोह्य नयन्त्युत्पथगामिताम् ॥१८॥ सृष्टयन्तरमतो दूरमपास्य नयतत्त्ववित् । अनादिक्षत्रियैः सृष्टां धर्मसृष्टिं प्रभावयेत् ॥१८९॥ तीर्थकृद्भिरियं सृष्टा धर्मसृष्टिः सनातनी । तां संश्रितानपानेव सृष्टि हेतून् प्रकाशयेत् ॥१९०॥ अन्यथाऽन्यकृतां सृष्टिं प्रपन्नाः स्युनृपोत्तमाः । ततो नैश्वर्यमेषां स्यात्तत्रस्थाश्च स्युराहताः ॥१९१॥ व्यवहारेशितां प्राहुः प्रायश्चित्तादिकर्मणि । स्वतन्त्रतां द्विजस्यास्य श्रितस्य परमां श्रुतिम् ॥१६॥ तदभावे स्वमन्यांश्च न शोधयितुमर्हति । अशुद्धः परतः शुद्धिमभीप्सन्न्यकृतो भवेत् ॥१९३॥ स्यादवध्याधिकारेऽपि स्थिराल्मा द्विजसत्तमः। ब्राह्मणो हि गुणोत्कर्षान्नान्यतो वधमर्हति ॥१९४॥ सर्वः प्राणी न हन्तव्यो ब्राह्मणस्तु विशेषतः । गुणोत्कर्षापकर्षाभ्यां वधेऽपि द्वयात्मता मता ॥१९५॥ तस्मादवध्यतामेष पोषयेद् धार्मिके जने। धर्मस्य तद्धि माहात्म्यं तत्स्थो यन्नाभिभूयते ॥१६॥ तदमावे च वध्यत्वमयमृच्छति सर्वतः । एवं च सति धर्मस्य नश्येत् प्रामाण्यमहताम् ॥१७॥ के द्वारा की हई पात्रताको दृढ़ करें अर्थात् गुणी पात्र बनें क्योंकि पात्रताके अभावमें मान्यता नहीं रहती और मान्यताके न होनेसे राजा लोग भी धन हरण कर लेते हैं ॥१८६॥ जिनकी सृष्टि उत्तम है ऐसे द्विजोंको मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा की हुई सृष्टिको दूरसे ही छोड़कर अपनी सृष्टिके अधिकारोंकी रक्षा करनी चाहिए ॥१८७॥ अन्यथा मिथ्यादृष्टि लोग अपने दूषित सृष्टिवादसे लोगोंको और राजाओंको मोहित कर कुमार्गगामी बना देंगे ॥१८८॥ इसलिए नय और तत्त्वोंको जाननेवाले द्विजको चाहिए कि मिथ्यादृष्टियोंकी अन्यसृष्टिको दूरसे ही छोड़कर अनादिक्षत्रियोंके द्वारा रची हुई धर्मसृष्टिकी ही प्रभावना करे ॥१८९॥ तथा इस धर्मसृष्टिका आश्रय लेनेवाले राजाओंसे ऐसा कहे कि तीर्थंकरोंके द्वारा रची हुई यह सृष्टि अनादिकालसे चली आयी है । भावार्थ - यह धर्मसृष्टि तीर्थकरोंके द्वारा रची हुई है और अनादि कालसे चली आ रही है इसलिए आप भी इसकी रक्षा कीजिए ॥१९०।। यदि द्विज राजाओंसे ऐसा नहीं कहेंगे तो वे अन्य लोगोंके द्वारा की हुई सृष्टिको मानने लगेंगे जिससे उनका ऐश्वर्य नहीं रह सकेगा तथा अरहन्तके मतको माननेवाले लोग भी उसी धर्मको मानने लगेंगे ॥११॥ परमागमका आश्रय लेनेवाले द्विजोंको जो प्रायश्चित्त आदि कार्यों में स्वतन्त्रता है उसे ही व्यवहारेशिता कहते हैं ॥१९२।। व्यवहारेशिताके अभावमें द्विज न अपने आपको शुद्ध कर सकेगा और न दूसरेको ही शुद्ध कर सकेगा तथा स्वयं अशुद्ध होनेपर यदि दूसरेसे अपनी शुद्धि करना चाहे तो वह कभी कृती नहीं हो सकेगा ॥१९३॥ जिसका अन्तःकरण स्थिर है ऐसा उत्तम द्विज अवध्याधिकारमें भी स्थित रहता है अर्थात् अवध्य है क्योंकि ब्राह्मण गुणोंकी अधिकताके कारण किसी दूसरेके द्वारा वध करने योग्य नहीं होता ॥१९४॥ सब प्राणियोंको नहीं मारना चाहिए और विशेषकर ब्राह्मणोंको नहीं मारना चाहिए। इस प्रकार गुणोंकी अधिकता और हीनतासे हिंसामें भी दो भेद माने गये हैं ॥१९५॥ इसलिए यह धार्मिक जनोंमें अपनी अवथ्यताको पुष्ट करे। यथार्थमें वह धर्मका ही माहात्म्य है कि जो इस धर्म में स्थित रहकर किसीसे तिरस्कृत नहीं हो पाता ॥१६६॥ यदि वह अपनो अवध्यताको पुष्ट न करेगा तो सब लोगोंसे वध्य हो जावेगा अर्थात् सब लोग उसे मारने लगेंगे और ऐसा होनेपर अर्हन्तदेवके धर्मको १ असमीक्षितेन कुदृष्टान्तेन वा । २ तां धर्मसृष्टि प्रकाशयेदित्यर्थः। ३ आत्मानमाश्रिता। अथवा पूर्व तां संश्रितां बोधयेत् तद्वक्त्यर्थम् । ४ -प्रकृतो ल०। -न्नकृती द०। ५ नृपादेः सकाशात् । ६ द्विरूपता (दुष्टनिग्रहशिष्ट प्रतिपालनता )। .४० Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ आदिपुराणम् तत: सर्वप्रयत्नेन रक्ष्यो धर्मः सनातनः । स हि संरक्षितो रक्षा करोति सचराचरे ॥१९८॥ स्यादण्ड्यत्वमप्येवमस्य धर्म स्थिरात्मनः । धर्मस्थो हि जनोऽन्यस्य दण्डप्रस्थापने प्रभुः ॥१९॥ तद्धर्मस्थी यमाम्नायं भावयन् धर्मदर्शिभिः । अधर्मस्थेषु दण्डस्य प्रणेता धार्मिको नृपः ॥२०॥ परिहार्य यथा देवगुरुद्रव्यं हितार्थिमिः । ब्रह्मस्वं च तथाभूतं न दण्डार्हस्ततो द्विजः ॥२०१॥ युक्त्यानया गुणाधिक्यमात्मन्यारोपयन् वशी। अदण्ड्यपक्षे स्वात्मानं स्थापयेद्दण्डधारिणाम् ॥२०२॥ अधिकारे ह्यसत्यस्मिन् स्याद्दण्डयोऽयं यथेतरः । ततश्च निस्स्वतां प्राप्तो नेहामुत्र च नन्दति ॥२०३॥ मान्यत्वमस्य संधत्ते मानार्हत्वं सुभावितम् । गुणाधिको हि मान्यः स्याद् वन्द्यः पूज्यश्च सत्तमैः ॥२०४॥ असत्यस्मिन्नमान्यत्वमस्य स्यात् संमतैजनैः । ततश्च स्थानमानादिलाभाभावात पदच्युतिः ॥२०५॥ तस्मादयं 'गुणैर्यनादात्मन्यारोप्यतां द्विजैः । यत्नश्च ज्ञानवृत्तादिसंपत्तिः सोऽयंतां नृपैः ॥२०६॥ स्यात् प्रजान्तरसंबन्धे' स्त्रोन्नतेरपरिच्युतिः । याऽस्य सोक्ता प्रजासंबन्धान्तरं नामतो गुणः ॥२०७॥ यथा कालायसाविद्धं स्वर्णं याति विवर्णताम् । न तथाऽस्यान्यसंबन्धे स्वगुणोत्कर्षविप्लवः ॥२०८॥ प्रामाणिकता नष्ट हो जावेगी ॥१९७॥ इसलिए सब प्रकारके प्रयत्नोंसे सनातनधर्मकी रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि अच्छी तरह रक्षा किया हुआ धर्म ही चराचर पदार्थोंसे भरे हुए संसारमें उसकी रक्षा कर सकता है ॥१६८॥ इसी प्रकार धर्ममें जिसका अन्तःकरण स्थिर है ऐसे इस द्विजको अपने अदण्डयत्वका भी अधिकार है क्योंकि धर्ममें स्थिर रहनेवाला मनुष्य ही दूसरेके लिए दण्ड देने में समर्थ हो सकता है ॥१९९।। इसलिए धर्मदर्शी लोगोंके द्वारा दिखलायी हुई धर्मात्मा जनोंकी आम्नायका विचार करता हुआ ही धार्मिक राजा अधर्मी जनोंको दण्ड देता है॥२००। जिस प्रकार अपना हित चाहनेवाले पुरुषोंके द्वारा देवद्रव्य और गरुद्रव्य त्याग करने योग्य है उसी प्रकार ब्राह्मणका धन भी त्याग करने योग्य है। इसलिए ही द्विज दण्ड देनेके योग्य नहीं है ॥२०१॥ इस युक्तिसे अपने में अधिक गुणोंका आरोप करता हुआ वह जितेन्द्रिय दण्ड देनेवाले राजा आदिके समक्ष अपने आपको अदण्ड्य अर्थात् दण्ड न देने योग्य पक्षमें ही स्थापित करता है। भावार्थ-वह अपने आपमें इतने अधिक गुण प्राप्त कर लेता है कि जिससे उसे कोई दण्ड नहीं दे सकते ॥२०२॥ इस अधिकारके अभावमें अन्य पुरुषोंके समान ब्राह्मण भी दण्डित किया जाने लगेगा जिससे वह दरिद्र हो जावेगा और दरिद्र होनेसे न तो इस लोकमें सुखी हो सकेगा और न परलोकमें हो ॥२०३॥ यह ब्राह्मण जो अच्छी तरह सन्मानके योग्य होता है वही इसका मान्यत्व अधिकार है सो ठीक ही है क्योंकि जो गुणोंसे अधिक होता है अर्थात् जिसमें अधिक गुण पाये जाते हैं वही पुरुषोंके द्वारा सन्मान करने योग्य, वन्दना करने योग्य और पूजा करने योग्य होता है ॥२०४|| इस अधिकारके न होनेसे उत्तम पुरुष इसका सन्मान नहीं करेंगे और उसके स्थान मान लाभ आदिका अभाव होनेके कारण वह अपने पदसे च्युत हो जावेगा। इसलिए द्विजको चाहिए कि वह यह गुण ( मान्यत्व गुण) बड़े यत्नसे अपने आपमें आरोपित करे क्योंकि ज्ञान चारित्र आदि सम्पदाएँ ही उसका यत्न है इसलिए राजाओंको उसकी पूजा करनी चाहिए ॥२०५-२०६।। प्रजान्तर अर्थात् अन्य धर्मावलम्बियोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी जो अपनी उन्नतिसे च्युत नहीं होना है वह इसका प्रजासम्बन्धान्तर नामका गुण है ।।२०७॥ जिस प्रकार काले लोहके साथ मिला हुआ सुवर्ण १ तत्कारणात् । २ धर्मसंबन्धिनम् । ३ आगमम् । ४ धर्माचार्यमतात् दण्डं करोतीति तात्पर्यम् । ५ धारिणम् अ०, ५०, इ०, स०। ६ अमान्यत्वात् । ७ पूर्वस्थितस्य स्थानमानादिलाभस्याभावात् । ८ गुणो द० । ९ द्विजः ल० । १० सोज्झतां न तैः द० । ११ संबन्धे सति । १२ अयोयुक्तम् । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व किन्तु प्रजान्तरं स्वेन संबद्धं स्वगुणानयम् । प्रापयत्यचिरादेव लोहधातुं यथा रसः ॥२०६॥ ततो महानयं धर्मप्रभावोद्योतको गुणः । येनायं स्वगुणैरन्यानात्मसात्कर्तुमर्हति ॥२१०॥ असत्यस्मिन् गुणेऽन्यस्मात् प्राप्नुयात् स्वगुणच्युतिम् । सत्येवंगुणवत्तास्य निष्कृष्येत द्विजन्मनः ॥२१॥ अतोऽतिबालविद्यादीनियोगान् दशधोदितान् । यथार्थमात्मसात्कुर्वन् द्विजः स्याल्लोकसंमतः ॥२१२॥ गुणेष्वेष विशेषोऽन्यो यो वाच्यो बहुविस्तरः । स उपासकसिद्धान्तादधिगम्यः प्रपञ्चतः ॥२१३॥ क्रियामन्त्रानुषङ्गेण व्रतचर्याक्रियाविधौ । दशाधिकारा व्याख्याताः सद्वृत्तैराहृता द्विजैः ॥२१४॥ क्रियामन्त्रास्त्विह ज्ञेया ये पूर्वमनुवर्णिताः। सामान्यविषयाः सप्त पीठिकामन्त्ररूढयः ॥२१५॥ ते हि साधारणाः सर्वक्रियासु विनियोगिनः । तत: औत्सर्गिकानेतान् मन्त्रान् मन्त्रविदो विदुः ॥२१६॥ विशेषविषया मन्त्राः क्रियासूक्तासु दर्शिताः। इतः प्रभृति चाभ्यूह्यास्ते यथाम्नायमग्रजैः ॥२१७॥ मन्त्रानिमान् यथा योगं यःक्रियासु नियोजयेत् । स लोके संमतिं याति युक्ताचारो द्विजोत्तमः ॥२१८॥ क्रियामन्त्रविहीनास्तु प्रयोक्तृणां न सिद्धये । यथा सुकृतसंनाहाः सेनाध्यक्षा विनायकाः ॥२१६॥ विवर्णताको प्राप्त हो जाता है उस प्रकार अन्य पुरुषोंके साथ सम्बन्ध होनेपर इस ब्राह्मणके अपने गुणोंके उत्कर्षमें कुछ बाधा नहीं आती है। भावार्थ-लोहेके सम्बन्धसे सुवर्णमें तो खराबी आ जाती है परन्तु उत्तम द्विजमें अन्य लोगोंके सम्बन्धसे खराबी नहीं आती ॥२०८॥ किन्तु जिस प्रकार रसायन अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले लोहेको शीघ्र ही अपने गुण प्राप्त करा देता है उसी प्रकार यह ब्राह्मण भी अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले पुरुषोंको शीघ्र ही अपने गुण प्राप्त करा देता है ॥२०९॥ इसलिए कहना चाहिए कि यह प्रजासम्बन्धान्तर गुण, धर्मकी प्रभावनाको बढ़ानेवाला सबसे बड़ा गुण है क्योंकि इसीके द्वारा यह द्विज अपने गुणोंसे अन्य लोगोंको अपने आधीन कर सकता है ॥२१०॥ इस गुणके न रहनेपर ब्राह्मण अन्य लोगोंके सम्बन्धसे अपने गुणोंकी हानि कर सकता है और ऐसा होनेपर इसकी गुणवत्ता ही नष्ट हो जावेगी ॥२११॥ इसलिए जो अतिबालविद्या आदि दश प्रकारके नियोग निरूपण किये हैं उन्हें यथायोग्य रीतिसे स्वीकार करनेवाला द्विज ही सब लोगोंको मान्य हो सकता है ॥२१२।। इन गुणोंमें अन्य विशेष गुण बहुत विस्तारके साथ विवेचन करनेके योग्य हैं उन्हें उपासकाध्ययनशास्त्र विस्तारपूर्वक समझ लेना चाहिए ॥२१३॥ इस प्रकार व्रतचर्या क्रियाकी विधिका 'वर्णन करते समय उस क्रियाके योग्य मन्त्रोंके प्रसंगसे उत्तम आचरणवाले द्विजोंके द्वारा माननीय दश अधिकारोंका निरूपण किया ॥२१४॥ इस प्रकरणमें जिनका वर्णन पहले कर चुके हैं उन्हें क्रियामन्त्र जानना चाहिए और जो सात पीठिकामन्त्र इस नामसे प्रसिद्ध हैं उन्हें सामान्यविषयक समझना चाहिए अर्थात् वे मन्त्र सभी क्रियाओंमें काम आते हैं ॥२१५॥ वे साधारण मन्त्र सभी क्रियाओंमें काम आते हैं इसलिए मन्त्रोंके जाननेवाले विद्वान् उन्हें औत्सगिक अर्थात् सामान्य मन्त्र कहते हैं ॥२१६॥ इनके सिवाय जो विशेष मन्त्र हैं वे ऊपर कही हुई क्रियाओंमें दिखला दिये गये हैं। अब व्रतचर्यासे आगेके जो मन्त्र हैं वे द्विजोंको अपनी आम्नाय (शास्त्र परम्परा ) के अनुसार समझ लेना चाहिए ॥२१७।। जो इन मन्त्रोंको क्रियाओंमें यथायोग्य रूपसे काममें लाता है वह योग्य आचरण करनेवाला उत्तम द्विज लोकमें सन्मानको प्राप्त होता है ॥२१८॥ जिस प्रकार अस्त्र-शस्त्र धारण कर तैयार हुए मुख्य-मुख्य योद्धा १ प्रजान्तरसंबन्धेन । २ द्विजः । ३ संबन्ध्येत । नश्येदित्यर्थः । ४ अधिकारान् । ५ क्रियाणां मन्त्राः क्रियामन्त्रास्तेषामनुषङ्गो योगस्तेन । ६ पूर्वोक्तवतचर्याक्रियाविधाने । ७ साधारणान् । ८ यथायुक्ति । 'योगस्सन्नहनोपायध्यानसंगतियुक्तिषु' इत्यभिधानात् । ९ सुविहितकवचाः । १० स्वामिरहिताः । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ततो विधिममुं सम्यगवगम्य कृतागमः । विधानेन प्रयोक्तव्याः क्रियामन्त्रपुरस्कृताः ॥२२०॥ वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं स धर्मविजयी भरताधिराजो धर्मक्रियासु कृतधीनृपलोकसाक्षि ।। तान् सुव्रतान् द्विजवरान विनियम्य सम्यक धर्मप्रियः समसृजत् द्विजलोकसर्गम् ॥२२१॥ मालिनी इति भरतनरंन्द्रात् प्राप्तसत्कारयोगा व्रतपरिचयचारूदारवृत्ताः श्रुताढ्याः । जिनवृषभमतानुव्रज्यया पूज्यमानाः - जगति बहुमतास्ते ब्राह्मणाः ख्यातिमीयुः ॥२२२॥ - शार्दूलविक्रीडितम् । वृत्तस्थान थ तान् विधाय सभवानिक्ष्वाकुचूडामणिः । जैने वर्मनि सुस्थितान् द्विजवरान् संमानयन् प्रत्यहम् । स्वमने कृतिनं मुदा परिगतां स्वां सृष्टिमुच्चैः कृतां पश्यन् कः सुकृती कृतार्थपदवीं नात्मानमारोपयेत् ॥२२३॥ इत्या भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे द्विजोत्पत्तौ-क्रियामन्त्रानुवर्णनं नाम चत्वारिंशत्तम पर्व ॥४०॥ aurwanix सेनापतिके बिना कुछ भी नहीं कर सकते उसी प्रकार मन्त्रोंसे रहित क्रियाएँ भी प्रयोग करनेवाले पुरुषोंकी कुछ भी सिद्धि नहीं कर सकतीं ॥२१९।। इसलिए शास्त्रोंका अभ्यास करनेवाले द्विजोंको यह सब विधि अच्छी तरह जानकर मन्त्रोच्चारणके साथ-साथ सब क्रियाएँ विधिपूर्वक करनी चाहए ॥२२०॥ इस प्रकार जिसने धर्मके द्वारा विजय प्राप्त की है, जो धार्मिक क्रियाओंमें निपुण है और जिसे धर्म प्रिय है. ऐसे भरतक्षेत्रके अधिपति महाराज भरतने राजा लोगोंकी साक्षीपूर्वक अच्छे-अच्छे व्रत धारण करनेवाले उन उत्तम द्विजोंको अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मणवर्णकी सृष्टि की अर्थात् ब्राह्मणवर्णकी स्थापना की ॥२२१॥ इस प्रकार महाराज भरतसे जिन्हें सत्कारका योग प्राप्त हुआ है, व्रतोंके परिचयसे जिनका चारित्र सुन्दर और उदार हो गया है, जो शास्त्रोंके अर्थों को जाननेवाले हैं और श्री वृषभ जिनेन्द्रके मतानुसार धारण की हुई दोक्षासे जो पूजित हो रहे हैं ऐसे वे ब्राह्मण संसारमें बहुत ही प्रसिद्धिको प्राप्त हुए और खूब ही उनका आदर-सन्मान किया गया ॥२२२॥ तदनन्तर इक्ष्वाकुकुलचूड़ामणि महाराज भरत जैनमार्गमें अच्छी तरह स्थित रहनेवाले उन ब्राह्मणोंको सदाचारमें स्थिर कर प्रतिदिन उनका सन्मान करते हुए अपने आपको धन्य मानने लगे सो ठीक ही है क्योंकि आनन्दसे युक्त तथा उत्कृष्टताको प्राप्त हुई अपनी सृष्टिको देखता हुआ ऐसा कौन पुण्यवान् पुरुष है जो अपने आपको कृतकृत्य न माने ॥२२३॥ इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें द्विजोंकी उत्पत्तिमें क्रियामन्त्रोंका वर्णन करनेवाला यह चालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। १ संपूर्णशास्त्रैः । २ संपूर्णबुद्धिः । ३ वताभ्यास । ४ श्रुतार्थाः द०, ल० । ५ मतानुगमनेन । ६ चारित्रपदं गतान् । ७ पूज्यः । ८ संतोषेण सह । ९ समन्वितामित्यर्थः । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तमं पर्व अथ चक्रधरः काले व्यतिक्रान्ते कियत्यपि। स्वप्नान्न्यशामयत्' कांश्चिदेकदाऽद्भुतदर्शनान् ॥१॥ तत्स्वमदर्शनात् किंचिदुत्वस्त इव चेतसा । प्रबुद्धः सहसा तेषां फलानीति व्यतर्कयन् ॥२॥ असत्फला इमे स्वप्नाः प्रायेण प्रतिभान्ति माम् । मन्ये दूरफलांश्चैतान् पुराकल्पे फलप्रदान् ॥३॥ कुतश्चिद् भगवत्यद्य प्रतपत्यादिभर्तरि । प्रजानां कथमेवैवंविधोपप्लवसंभवः ॥४॥ ततः कृतयुगस्यास्य व्यतिक्रान्तौ कदाचन । फलमेते प्रदास्यन्ति नूनमेनःप्रकर्षतः ॥५॥ युगान्तविप्लवोदर्कास्त एतेऽनिष्टशंसिनः । स्वनाः प्रजाप्रजापालसाधारणफलोदयाः ॥६॥ यद्वच्चन्द्रार्कविम्बोत्थविक्रियाजनितं फलम् । जगत्साधारणं तद्वत् सदसच्चास्मदीक्षितम् ॥७॥ इतीदमनुमानं नः स्थूलार्थानुप्रचिन्तनम् । सूक्ष्मतत्त्वप्रतीतिस्तु प्रत्यक्षज्ञानगोचरा ॥८॥ केवलार्काढते नान्यः संशयध्वान्तभेदकृत् । को हि नाम तमो''नैशं हन्यादन्यत्र भास्करात् ॥६॥ तत्त्वादर्श स्थिते देवे को नामास्मन्मतिभ्रमः। सत्याद” करामर्शात् कः पश्यन्मुखसौष्ठवम् ॥१०॥ "तदत्र भगवद्वक्त्रमङ्गलादर्शदर्शनात् । युक्ता नस्तत्त्वनिर्णीतिः स्वप्नानां शान्तिकर्म च ॥११॥ अपि चास्मदुपझं यद् द्विजलोकस्य सर्जनम् । गत्वा तदपि विज्ञाप्यं भगवत्पादसंनिधौ ॥१२॥ अथानन्तर-कितना ही काल बीत जानेपर एक दिन चक्रवर्ती भरतने अद्भ त फल दिखानेवाले कुछ स्वप्न देखे ॥ १ ॥ उन स्वप्नोंके देखनेसे जिन्हें चित्तमें कुछ खेद-सा उत्पन्न हुआ है ऐसे वे भरत अचानक जाग पड़े और उन स्वप्नोंके फलका इस प्रकार विचार करने लगे ॥ २ ॥ कि ये स्वप्न मुझे प्रायः बुरे फल देनेवाले जान पड़ते हैं तथा साथमें यह भी जान पड़ता है कि ये स्वप्न कुछ दूर आगेके पंचम कालमें फल देनेवाले होंगे ॥३॥ क्योंकि इस समय भगवान् वृषभदेवके प्रकाशमान रहते हुए प्रजाको इस प्रकारका उपद्रव होना कैसे सम्भव हो सकता है ? ॥४॥ इसलिए कदाचित् इस कृतयुग ( चतुर्थकाल ) के व्यतीत हो जानेपर जब पापकी अधिकता होने लगेगी तब ये स्वप्न अपना फल देंगे ॥५॥ युगके अन्तमें विप्लव फैलाना ही जिनका फल है ऐसे ये स्वप्न अनिष्टको सूचित करनेवाले हैं और राजा तथा प्रजा दोनोंको मान फल देनेवाले हैं ॥६॥ जिस प्रकार चन्द्रमा और सूर्यके बिम्बसे उत्पन्न होनेवाली विक्रियासे प्रकट हुआ फल जगत्के जीवोंको समानरूपसे उठाने पड़ते हैं उसी प्रकार मेरे द्वारा देखे स्वप्नोंके फल भी समस्त जीवोंको सामान्यरूपसे उठाने पड़ेंगे ॥७॥ इस प्रकार हमारा यह अनुमान केवल स्थूल पदार्थका चिन्तवन करनेवाला है, सूक्ष्म तत्त्वकी प्रतीति प्रत्यक्ष ज्ञानसे ही हो सकती है ॥८॥ केवलज्ञानरूपी सूर्यको छोड़कर और कोई पदार्थ संशयरूपी अन्धकार को भेदन करनेवाला नहीं है सो ठीक ही है क्योंकि सूर्यको छोड़कर ऐसा कोन है जो रात्रिका अन्धकार नष्ट कर सके ॥९॥ तत्त्वोंका वास्तविक स्वरूप दिखलानेवाले भगवान् वृषभदेवके रहते हुए मुझे बुद्धिका भ्रम क्यों होना चाहिए, भला दर्पणके रहते हुए ऐसा कौन पुरुष है जो हाथके स्पर्शसे मुखकी सुन्दरता देखे ?॥१०-११॥ इसलिए इस विषयमें भगवान्के मुखरूपी मंगल १. ददर्श । २ मम प्रकाशन्ते । ३ पश्चाद्भाविकाले। पञ्चमकाले इत्यर्थः । ४ प्रकाशमाने सति । ५ तस्मात् कारणात । ६ चतुर्थकालस्य । ७ पाप। ८ यगस्य चतर्थकालस्यान्ते विप्लव एव उदर्क उत्तरफलं येषां ते। ९ मयेक्षितम् । १० केवलज्ञानविषया। ११ निशासंबन्धि । १२-दर्पणे विद्यमाने सति । १३ तत् कारणात् । १४ स्वरूपनिर्णयः । १५ मया प्रथमोपक्रान्तम् । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् द्रष्टव्या गुरवो नित्यं प्रष्टव्याश्च हिताहितम् । महेज्यया च यष्टव्याः शिष्टानामिष्टमाद्दशम् ॥१३॥ इत्यात्मगतमालोच्य शय्योत्संगात् परार्द्धयतः । प्रातस्तरां समुत्थाय कृतप्राभातिकक्रियः ॥ १४ ॥ ततः क्षणमित्र स्थित्वा महास्थाने नृपैर्वृतः । वन्दनाभक्तये गन्तुमुद्यतोऽभूद् विशांपतिः ॥ १५ ॥ वृतः परिमितैरेव मौलिबगैर नृस्थितैः । प्रतस्थे वन्दना हेतोर्विभूत्या परयान्वितः ॥ १६ ॥ ३१८ ततः क्षेपीय एवासौ गत्वा सैन्यैः परिष्कृतः । सम्राट् प्राप तमुद्देशं यत्रास्ते स्म जगद्गुरुः ॥ १७ ॥ दूरादेव जिनास्थानभूमिं पश्यन्निधीश्वरः । प्रणनाम चलन्मौलिघटिताञ्जलिकुड्मलः ॥ १८ ॥ सांप्रदक्षिणीकृत्य वहिर्भागे सर्दोऽवनिम् । प्रविवेश विशामीशः क्रान्त्वा कक्षाः पृथग्विधाः ॥ १९ ॥ मानस्तम्भमहाचैत्यद् मसिद्धार्थपादपान् । प्रेक्षमाणो व्यतीयाय स्तूपांश्चाचिंतपूजितान् ॥ २० ॥ चतुष्टय वनश्रेणी ध्वजान् हर्म्याधलीमपि । तत्र तत्रेक्षमाणोऽसौ तां तां कक्षामलङ्घयत् ॥२१॥ प्रतिकक्षं सुरस्त्रीणां गीतैर्नृत्तैश्च हारिभिः । रज्यमानमनोवृत्तिस्तत्रास्यासीत् परा धृतिः ॥२२॥ ततः प्राविशदुत्तुङ्गगोपुरद्वारवर्त्मना । गणैरध्युषितां भूमिं श्रीमण्डपपरिष्कृताम् ॥ २३ ॥ त्रिमेखलस्य पीरस्य प्रथमां मेखलामतः । सोऽधिरुह्य परीयाय धर्मचक्राणि पूजयन् ॥ २४ ॥ दर्पणको देखकर ही मुझे स्वप्नोंके यथार्थ रहस्यका निर्णय करना उचित है और वहीं खोटे स्वप्नोंका शान्तिकर्म करना भी उचित है ॥ १२ ॥ इसके सिवाय मैंने जो ब्राह्मण लोगोंकी नवीन सृष्टि की है उसे भी भगवान्के चरणोंके समीप जाकर निवेदन करना चाहिए ।। १३ ।। फिर अच्छे पुरुषों का यह कर्तव्य भी है कि वे प्रतिदिन गुरुओंके दर्शन करें, उनसे अपना हितअहित पूछा करें और बड़े वैभवसे उनकी पूजा किया करें || १४ || इस प्रकार मनमें विचारकर महाराज भरतने बड़े सबेरे बहुमूल्य शय्यासे उठकर प्रातःकालकी समस्त क्रियाएँ कीं और फिर थोड़ी देर तक सभा में बैठकर अनेक राजाओंके साथ भगवान् की वन्दना की तथा भक्ति के अर्थ जानेके लिए उद्यम किया ।। १५ ।। जो साथ ही साथ उठकर खड़े हुए कुछ परिमित मुकुटबद्ध राजाओंसे घिरे हुए हैं और उत्कृष्ट विभूति से सहित हैं ऐसे महाराज भरतने वन्दना के लिए प्रस्थान किया ।। १६ ।। तदनन्तर सेना सहित सम्राट् भरत शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये जहाँ जगद्गुरु भगवान् विराजमान थे ॥ १७ ॥ दूरसे ही भगवान् के समवसरणकी भूमिको देखते हुए निधियोंके स्वामी भरतने नम्रीभूत मस्तकपर कमलकी बौंड़ीके समान जोड़े हुए दोनों हाथ रखकर नमस्कार किया ।। १८ ।। उन महाराजने पहले उस समवसरण भूमिके बाहरी भागकी प्रदक्षिणा दी और फिर अनेक प्रकारकी कक्षाओंका उल्लंघन कर भीतर प्रवेश किया ॥ १६ ॥ मानस्तम्भ, महाचैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष और पूजाकी सामग्रीसे पूजित स्तूपोंको देखते हुए उन सबका उल्लंघन करते गये ॥ २० ॥ अपने-अपने निश्चित स्थानोंपर चारों प्रकारकी वनकी पंक्तियों, ध्वजाओं और हर्म्यावलीको देखते हुए उन्होंने उन कक्षाओं का उल्लंघन किया ॥ २१ ॥ समवसरण की प्रत्येक कक्षा में होनेवाले देवांगनाओंके मनोहर गीत और नृत्योंसे जिनके चित्तकी वृत्ति अनुरक्त हो रही है ऐसे महाराज भरतको बहुत ही सन्तोष हो रहा था ||२२|| तदनन्तर बहुत ऊँचे गोपुर दरवाजोंके मार्गसे उन्होंने जहाँ गणधरदेव विराजमान थे और जो श्री मण्डपसे सुशोभित हो रही थी ऐसी सभाभूमिमें प्रवेश किया ॥ २३ ॥ वहाँपर तीन कटनीवाले पीठकी प्रथम कटनीपर चढ़कर धर्मचक्रकी पूजा करते हुए प्रदक्षिणा दी || २४ ॥ तदनन्तर चक्रवर्ती दूसरी कटनीपर महाध्वजाओंकी पूजा कर तीनों जगत्को लक्ष्मीको तिरस्कृत करनेवाली गन्ध १ यजनीयाः । २ क्षणपर्यन्तम् । ३ सहोत्थितैः । ४ अतिशयेन क्षिप्रम् । ५ प्रदेशम् । ६ सभाभूमिम् । ७ नानाप्रकाराः । ८ - पार्थिवान् ल० म० ।९ प्रदक्षिणां चक्रे । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तमं पर्व ३१६ ॥२७॥ 3 १४ मेखलायां द्वितीयस्यां 'वरिवस्यन् महाध्वजाम् । प्रापद् गन्धकुटीं चक्री न्यक्कृतत्रिजगच्छ्रियम् ॥ २५ ॥ देवदानवगन्धर्वसिद्धविद्याधरेडितम् । भगवन्तमथालोक्य प्राणमद् भक्तिनिर्भरः ॥ २६ ॥ स्तुत्वा स्तुतिभिरीशानमभ्यर्च्य च यथाविधि । निषसाद यथास्थानं धर्मामृतपिपासितः " भक्त्या प्रणमतस्तस्य भगवत्पादपङ्कजे । विशुद्धिपरिणामाङ्ग मवधिज्ञानमुभौ ॥२८॥ पीत्वाऽथो धर्मपीयूषं परां तृप्तिमवापिवान् । स्त्रमनोगतमित्युच्चैर्भगवन्तं व्यजिज्ञपत् ॥ २९ ॥ मया सृष्टा द्विजन्मानः श्रावकाचारचुञ्चवः । त्वद्गीतोपासकाध्यायसूत्रमार्गानुगामिनः ॥ ३० ॥ एकायेकादशान्ता दत्तान्येभ्यो मया विभो । व्रतचिह्नानि सूत्राणि गुणभूमिविभागतः ॥ ३१ ॥ विश्वस्य धर्मस्य त्वयि साक्षात्प्रयेतरि । स्थिते मयातिवालिश्यादि दमाचरितं विभो ॥ ३२ ॥ दोषः कोऽत्र गुणः कोऽत्र किमेतत् साम्प्रतं न वा । दोलायमानमिति मे मनः स्थापय निश्चितौ ॥३३॥ अपि चाद्य मया स्वप्ना निशान्ते षोडशेक्षिताः । प्रायोऽनिष्टफलाश्चैते मया देवाभिलक्षिताः ॥ ३४ ॥ यथामुपन्यस्येतानिमान् परमेश्वरः । यथास्वं तत्फलान्यस्मत्प्रतीतिविषयं ४ नय ॥ ३५ ॥ सिंहो मृगेन्द्र पोतश्च तुरगः करिभारभृत्" । छागा वृक्षलतागुल्मशुष्कपत्रोपभोगिनः ॥३६॥ शाखामृगा द्विपस्कन्धमारूढाः कौशिकाः खगैः । विहितोपद्रवा ध्वाङ्क्षैः प्रमथाच प्रमोदिनः ॥३७॥ कुटीके पास जा पहुँचे ॥ २५ ॥ वहाँपर भक्तिसे भरे हुए भरतने देव, दानव, गन्धर्व, सिद्ध और विद्याधर आदिके द्वारा पूज्य भगवान् वृषभदेवको देखकर उन्हें नमस्कार किया ||२६|| महाराज भरत उन भगवान्की अनेक स्तोत्रोंके द्वारा स्तुति कर और विधिपूर्वक पूजा कर धर्मरूप अमृतके पीनेकी इच्छा करते हुए योग्य स्थानपर जा बैठे ||२७|| भक्तिपूर्वक भगवान्‌के चरणकमलोंको प्रणाम करते हुए भरतके परिणाम इतने अधिक विशुद्ध हो गये थे कि उनके उसी समय अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया ||२८|| तदनन्तर धर्मरूपी अमृतका पान कर वे बहुत ही सन्तुष्ट हुए और उच्च स्वरसे अपने हृदयका अभिप्राय भगवान् से इस प्रकार निवेदन करने लगे ॥ २६ ॥ कि हे भगवन्, मैंने आपके द्वारा कहे हुए उपासकाध्याय सूत्रके मार्गपर चलनेवाले तथा श्रावकाचार में निपुण ब्राह्मण निर्माण किये हैं अर्थात् ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की है ||३०|| हे विभो, मैंने इन्हें ग्यारह प्रतिमाओके विभागसे व्रतोंके चिह्न स्वरूप एकसे लेकर ग्यारह तक यज्ञोपवीत दिये हैं ||३१|| हे प्रभो, समस्त धर्मरूपी सृष्टिको साक्षात् उत्पन्न करनेवाले आपके विद्यमान रहते हुए भी मैंने अपनी बड़ी मूर्खतासे यह काम किया है || ३२ || हे देव, इन ब्राह्मणोंकी रचना में दोष क्या है ? गुण क्या है ? और इनकी यह रचना योग्य हुई अथवा नहीं ? इस प्रकारै झूलाके समान झूलते हुए मेरे चित्तको किसी निश्चयमें स्थिर कीजिए अर्थात् गुण, दोष, योग्य अथवा अयोग्यका निश्चय कर मेरा मन स्थिर कीजिए ||३३|| इसके सिवाय हे देव, आज मैंने रात्रिके अन्तिमभाग में सोलह स्वप्न देखे हैं और मुझे ऐसा जान पड़ता है कि स्वप्न प्रायः अनिष्ट फल देनेवाले हैं ||३४|| हे परमेश्वर, वे स्वप्न मैंने जिस प्रकार देखे हैं उसी प्रकार उपस्थित करता हूँ । उनका जैसा कुछ फल हो उसे मेरी प्रतीतिका विषय करा दीजिए ॥ ३५॥ (१) सिंह, (२) ' सिंहका बच्चा, (३) हाथीके भारको धारण करनेवाला घोड़ा (४) वृक्ष, लता और झाड़ियोंके सूखे पत्ते खानेवाले बकरे, (५) हाथी के स्कन्धपर बैठे हुए १ पूजयन् । २ अधः कृत । ३ नमस्करीति स्म । ४ निविष्टवान् । ५ पातुमिच्छामितः सन् । ६ कारणम् । ७ प्रतीताः । ८ - दशाङ्गानि ल० म० । ९ सृष्टेः । १० मूर्खत्वेन । 'अज्ञे मूढयथाजातमूर्खवैधेयबालिशा : ' इत्यमरः । ११ युक्तम् । १२ निश्चये । १३ विज्ञापयामि । १४ ज्ञानम् । १५ करिणो भारं बिभत । १६ भक्षिणः । १७ उलूकाः । १८ काकैः । 'काके तु करटारिष्टबलिपुष्टसकृत्प्रजाः । ध्वाङ्क्षात्मघोषपरभृद्बलिभुग्वायसा अपि ॥' इत्यभिधानात् । १९ भूताः । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ११ १४ शुष्कमध्यं तडागं च पर्यन्तप्रचुरोदकम् । पांशुधूसरितो' रत्नराशिः श्वार्थ भुगर्हितः ॥३८॥ तारुण्यशाली वृषभः शीतांशुः परिवेषयुक् । मिथोऽङ्गीकृतसाङ्गयौ पुङ्गवौ सङ्गलच्छियौ ॥३९॥ रविराशा वधूरनवतंसोऽब्दस्तिरोहितः । संशुष्कस्तरुरच्छायो जीर्णपर्णसमुच्चयः ॥४०॥ षोडशैतेऽद्य यामिन्यां दृष्टाः स्वप्ना विदां वर । फलविप्रतिपत्ति मे तद्गतां त्वमपाकुरु ॥४१॥ इति तत्फलविज्ञाननिपुणोऽप्यवधिस्विषा । सभाजनप्रबोधार्थं पप्रच्छ निधिराट् जिनम् ॥४२॥ "तत्प्रश्नावसिताविरथं व्याचष्टे स्म जगद्गुरुः । वचनामृतसंसेकैः प्रीणयन्निखिलं सदः ॥ ४३ ॥ भगवद्दिव्यवागर्थंशुश्रूषावहितं तदा । ध्यानोपगमिवाभूत्तत्सदश्चित्रगतं नु वा ॥ ४४॥ साधु वत्स कृतं साधु धार्मिकद्विजपूजनम् । किन्तु दोषानुषङ्गोऽत्र कोऽप्यस्ति स निशम्यताम् ॥४५ ॥ आयुष्मन् भवता सृष्टा य एते गृहमेधिनः । ते तावदुचिताचारा यावत्कृत युगस्थितिः ॥४६॥ ततः 'कलियुगेऽभ्यर्णे" जातिनादावलेपतः " । भ्रष्टाचाराः प्रपत्स्यन्ते सन्मार्गप्रत्यनीकताम् ॥४७॥ तेऽमी जातिमदाविष्टा वयं लोकाधिका इति । पुरा दुरागमैर्लोकं मोहयन्ति ॥ ४८ ॥ सरकारलाभसंवृद्धगर्वा मिथ्यामदोद्वताः । जनान् प्रतारयिष्यन्ति' ' स्वयमुत्पाद्य दुःश्रुतीः ॥ ४९ ॥ वानर, (६) कौआ आदि पक्षियोंके द्वारा उपद्रव किये हुए उलूक, (७) आनन्द करते हुए भूत, (८) जिसका मध्यभाग सूखा हुआ है और किनारोंपर खूब पानी भरा हुआ है ऐसा तालाब, (९) धूलिसे धूसरित रत्नोंको राशि, (१०) जिसकी पूजा की जा रही है ऐसा नैवेद्यको खानेवाला कुत्ता, (११) जवान बैल, (१२) मण्डलसे युक्त चन्द्रमा, (१३) जो परस्पर में मिल रहे हैं। और जिनकी शोभा नष्ट हो रही है ऐसे दो बैल, (१४) जो दिशारूपी स्त्रीरत्नोंके - से बने हुए आभूषण के समान है तथा जो मेघोंसे आच्छादित हो रहा है ऐसा सूर्य, (१५) छायारहित सूखा वृक्ष और (१६) पुराने पत्तोंका समूह । हे ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ, आज मैंने रात्रि के समय ये सोलह स्वप्न देखे हैं। हे नाथ, इनके फलके विषयमें जो मुझे सन्देह है, उसे दूर कर दीजिए ।। ३६-४१ ।। यद्यपि निधियों के अधिपति महाराज भरत अपने अवधिज्ञानके द्वारा उन स्वप्नोंका फल जाननेमें निपुण थे तथापि सभाके लोगोंको समझानेके लिए उन्होंने भगवान् से इस प्रकार पूछा था ॥ ४२ ॥ भरतका प्रश्न समाप्त होनेपर जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव अपने वचनरूपी अमृतके सिंचनसे समस्त सभाको सन्तुष्ट करते हुए इस प्रकार व्याख्यान करने लगे ||४३|| उस समय भगवान्को दिव्य ध्वनिके अर्थको सुनने की इच्छासे सावधान हुई वह सभा ऐसी जान पड़ती थी मानो ध्यान में मग्न हो रही हो अथवा चित्रकी बनी हुई हो ||४४|| वे कहने लगे कि हे वत्स, तूने जो धर्मात्मा द्विजोंकी पूजा की है सो बहुत अच्छा किया है परन्तु इसमें कुछ दोष है उसे तू सुन || ४५ || हे आयुष्मन्, तूने जो गृहस्थोंकी रचना को है सो जबतक कृतयुग अर्थात् चतुर्थकालकी स्थिति रहेगी तबतक तो ये उचित आचारका पालन करते रहेंगे परन्तु जब कलियुग free आ जायगा तब ये जातिवाद के अभिमानसे सदाचारसे भ्रष्ट होकर समीचीन मोक्ष मार्ग के विरोधी बन जायेंगे ||४६ || पंचम कालमें ये लोग, हम सब लोगों में बड़े हैं, इस प्रकार जातिके मदसे युक्त होकर केवल धनकी आशासे खोटे-खोटे शास्त्रोंके द्वारा लोगोंको मोहित करते रहेंगे ||४७।। सत्कारके लाभसे जिनका गर्व बढ़ रहा है और जो मिथ्या मदसे उद्धत हो रहे हैं ऐसे ये ब्राह्मण लोग स्वयं मिथ्या शास्त्रोंको बना-बनाकर लोगोंको ठगा करेंगे ॥ ४८ ॥ जिनकी चेतना पापसे दूषित हो रही है ऐसे ये मिथ्यादृष्टि लोग इतने समय ३२० १ ईषत्पाण्डुरितः । २ ब्ररुभुक् । ३ पूजितः । ४ संदेहम् । ५ तस्य प्रश्नावसाने । ६ अवधानपरम् । ७ योगः । ८ चतुर्थकाल । ९ पञ्चमका १० समीपे सति । ११ गर्वतः । १२ यास्यन्ति । १३ प्रतिकूलताम् । १४ पञ्चमकाले । १५ ' पुरायावतोर्लेडिति भविष्यत्यर्थे लड् । १६ वञ्चयिष्यन्ति । १७ दुःशास्त्राणि । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ । एकचत्वारिंशत्तमं पर्व त इमे कालपर्यन्ते विक्रियां प्राप्य दुईशः । धर्मद्र हो भविष्यन्ति पापोपहतचेतनाः ॥५०॥ सत्त्वोपघातनिरता मधुमांसाशनप्रियाः । प्रवृत्तिलक्षणं धर्म घोषयिष्यन्त्यधार्मिकाः ॥५१॥ अहिंसालक्षणं धर्म दूषयित्वा दुराशयाः । चोदनालक्षणं धर्म पोषयिष्यन्त्यमी बत ॥१२॥ पापसूत्रधरा धूर्ताः प्राणिमारणतत्पराः । वय॑द्युगे प्रवय॑न्ति सन्मार्गपरिपन्थिनः ॥५३॥ द्विजातिसर्जन तस्मान्नाद्य यद्यपि दोषकृत् । स्याहोषबीजमायत्या कुपाखण्डप्रवर्तनात् ॥५४॥ इति कालान्तरे दोपबीजमध्येतदासा । नाधुना परिहर्तव्यं धर्मसृष्टयनतिक्रमात् ॥५५॥ यथानमुपयुक्तं सत् क्वचित्कस्यापि दोषकृत् । तथाऽप्यपरिहार्य तद् बुधैर्बहुगुणास्थया ॥५६॥ तथेदमपि मन्तव्यमद्यत्वे गुणवत्तया । पुंसामाशयवैषम्यात् पश्चाद् यद्यपि दोषकृत् ॥५॥ इदमेवं गतं हन्त यच्च ते स्वमदर्शनम् । तदप्येप्यद् युगे धर्मस्थितिहासस्य सूचनम् ॥५४॥ ते च स्वप्मा द्विधाऽऽन्नालाः स्वस्थास्वस्थात्मगोचराः। समैस्तु धातुभिः स्वस्था विषमैरितो मताः॥५१॥ तथ्याः स्युः स्वस्य संदृष्टाः मिथ्यास्वमा विपयर्यात् । जगप्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम् ॥६॥ स्वमान द्वैतमस्त्यन्यदोषदेवसमुद्भवम् । दोषप्रकोपजा मिथ्यातथ्याः स्युर्दैवसम्भवाः ॥६१॥ .. तक विकारभावको प्राप्त होकर धर्मके द्रोही बन जायेंगे ॥५०।। जो प्राणियोंकी हिंसा करनेमें तत्पर हैं तथा मधु और मांसका भोजन जिन्हें प्रिय हैं ऐसे ये अधर्मी ब्राह्मण हिंसारूप धर्मकी घोषणा करेंगे ॥५१॥ खेद है कि दुष्ट आशयवाले ये ब्राह्मण अहिंसारूप धर्मको दूषित कर वेदमें कहे हुए हिसारूप धर्मको पुष्ट करेंगे ॥५२॥ पापका समर्थन करनेवाले, शास्त्रको जानने-' वाले अथवा पापके चिह्नस्वरूप यज्ञोपवीतको धारण करनेवाले और प्राणियोंके मारनेमें सदाः तत्पर रहनेवाले ये धूर्तब्राह्मण आगामी युग अर्थात् पंचम कालमें समीचीन मार्गके विरोधी हो जावेंगे ॥५३।। इसलिए यह ब्राह्मणोंकी रचना यद्यपि आज दोष उत्पन्न करनेवाली नहीं है तथापि आगामी कालमें खोटे पाखण्ड मतोंकी प्रवृत्ति करनेसे दोषका बीजरूप है ॥५४॥ इस प्रकार यद्यपि यह ब्राह्मणोंकी सृष्टि कालान्तरमें दोषका बीजरूप है तथापि धर्म सृष्टिका उल्लंघन न हो इसलिए इस समय इसका परिहार करना भी अच्छा नहीं है ॥५५॥ जिस प्रकार खाया हुआ अन्न यद्यपि कहीं किसीको दोष उत्पन्न कर देता है तथापि अनेक गुणोंकी आस्थासे विद्वान् लोग उसे छोड़ नहीं सकते उसी प्रकार यद्यपि ये पुरुषोंके अभिप्रायोंकी विषमतासे आगामी कालमें दोष उत्पन्न करनेवाले हो जावेंगे तथापि इस समय इन्हें गुणवान् ही मानना चाहिए ॥५६-५७।। इस प्रकार यह तेरी ब्राह्मण रचनाका उत्तर तो हो चुका, अब तुने जो स्वप्न देखे हैं, खेद है, कि वे भी आगामी युग ( पंचम काल ) में धर्मकी स्थितिके ह्रासको सूचित करनेवाले हैं ॥५८॥ वे स्वप्न दो प्रकारके माने गये हैं एक अपनी स्वस्थ अवस्थामें दिखनेवाले और दूसरे अस्वस्थ अवस्थामें दिखनेवाले। जो धातुओंकी समानता रहते हुए दिखते हैं वे स्वस्थ अवस्थाके कहलाते हैं और जो धातुओंकी विषमता-न्यूनाधिकता रहते हुए दिखते हैं वे अस्वस्थ अवस्थाके कहलाते हैं ॥५९॥ स्वस्थ अवस्थामें दिखनेवाले स्वप्न सत्य होते हैं और अस्वस्थ अवस्थामें दिखनेवाले स्वप्न असत्य हुआ करते हैं इस प्रकार स्वप्नोंके फलका विचार करनेमें यह जगत्प्रसिद्ध बात है ऐसा तू समझ ॥६०॥ स्वप्नोंके और भी. दो भेद हैं एक दोषसे उत्पन्न होनेवाले और दूसरे दैवसे उत्पन्न होनेवाले । उनमें दोषोंके प्रकोप १ धर्मघातिनः । २ चोदनालक्षणम् । ३ भावि। ४ प्रतिकूले। ५ सृष्टिः । ६ उत्तरकाले। 'उत्तरः काल आयतिः' इत्यभिधानात् । ७ भविष्यधुगे। ८ विचारणम् । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ आदिपुराणम् कल्याणाङ्गस्त्वमेकान्ताद् देवताधिष्टितश्च यत् । न मिथ्या तदिमे स्वप्नाः फलमेषां निबोध में ॥६२॥ दृष्टाः स्वप्ने मृगाधीशा ये प्रयोविंशतिप्रमाः। निस्सपत्नां विहृत्येमां मां क्ष्माभृत्कूटमाश्रिताः ॥६३॥ तत्फलं सन्मतिं मुक्त्वा शेषतीर्थकरोदये । दुर्नयानामनुभूतिख्यापनं लक्ष्यतां स्फुटम् ॥६॥ पुनरेकाकिनः सिंहपोतस्यान्वक् मृगेक्षणात् । भवेयुः सन्मतेस्तीर्थे सानुषङ्गाः कुलिङ्गिनः ॥६५॥ करीन्द्रभारनिर्भुग्नपृष्टस्याश्वस्य वीक्षणात् । कृत्स्नान् तपोगुणान्वोढुं नालं दुष्षमसाधवः ॥६६॥ मूलोत्तरगुणेष्वात्तसङ्गराः केचनालसाः । भक्ष्यन्ते मूलतः केचित्तेषु यास्यन्ति मन्दताम् ॥६७॥ "निध्यानादजयूथस्य शुष्कपत्रोपयोगिनः । यान्त्यसद्वृत्ततां त्यक्तसदाचाराः पुरा नराः ॥६॥ - करीन्द्रकन्धरारूढशाखामृगविलोकनात् । आदिक्षत्रान्वयोच्छित्तौ क्ष्मां पास्यन्त्यकुलीनकाः ॥६९॥ काकैरुलूकसंबाधदर्शनाद्धर्मकाम्यया । मुक्त्वा जैनान्मुनीनन्यमतस्थानन्वियुर्जनाः ॥७॥ प्रनृत्यतां प्रभूतानां भूतानामीक्षणात् प्रजाः । मजेयुर्नामकर्माद्यैर्व्यन्तरान् देवतास्थया ॥७॥ शुष्कमध्यतडागस्य पर्यन्तेऽम्बुस्थितीक्षणात् । प्रच्युत्यायनिवासात् स्याद्धर्मः प्रत्यन्तवासिषु॥७२॥ पांसुधूसररत्नौघनिध्यानादृद्धिसत्तमाः । नैव प्रादुर्मविष्यन्ति मुनयः पञ्चमे युगे ॥७३॥ शुनोऽर्चितस्य सत्कारैश्चरुभाजनदर्शनात् । गुणवत्पात्रसत्कारमापस्यन्त्यवतिनो द्विजाः ॥७॥ से उत्पन्न होनेवाले झूठ होते हैं और दैवसे उत्पन्न होनेवाले सच्चे होते हैं ॥६१॥ हे कल्याणरूप, चूंकि तू अवश्य ही देवताओंसे अधिष्ठित है इसलिए तेरे ये स्वप्न मिथ्या नहीं हैं । तू इनका फल मुझसे समझ ॥६२॥ तूने जो स्वप्नमें इस पृथ्वीपर अकेले विहार कर पर्वतके शिखरपर चढ़े हुए तेईस सिंह देखे हैं उसका स्पष्ट फल यही समझ कि श्रीमहावीर स्वामीको छोड़कर शेष तेईस तीर्थ करोंके समयमें दुष्ट नयोंकी उत्पत्ति नहीं होगी। इस स्वप्नका फल यही बतलाता है ॥६३-६४॥ तदनन्तर दूसरे स्वप्नमें अकेले सिंहके बच्चेके पीछे चलते हुए हरिणोंका समूह देखनेसे यह प्रकट होता है कि श्री महावीर स्वामीके तीर्थमें परिग्रहको धारण करनेवाले बहुत-से कुलिंगी हो जावेंगे ॥६५॥ बड़े हाथीके उठाने योग्य बोझसे जिसकी पीठ झुक गयी है ऐसे घोड़ेके देखनेसे यह मालूम होता है कि पंचम कालके साधु तपश्चरणके समस्त गुणोंको धारण करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे ॥६६॥ कोई मूलगुण और उत्तरगुणोंके पालन करनेकी प्रतिज्ञा लेकर उनके पालन करने में आलसी हो जायेंगे, कोई उन्हें मूलसे ही भंग कर देंगे और- कोई उनमें मन्दता या उदासीनताको प्राप्त हो जायेंगे ॥६७॥ सूखे पत्ते खानेवाले बकरोंका समूह देखनेसे यह मालूम होता है कि आगामी कालमें मनुष्य सदाचारको छोड़कर दुराचारी हो जायेंगे ॥६८॥ गजेन्द्रके कन्धेपर चढ़े हुए वानरोंके देखनेसे जान पड़ता है कि आगे चलकर प्राचीन क्षत्रिय वंश नष्ट हो जायेंगे और नीच कुलवाले पृथ्वीका पालन करेंगे ॥६९।। कौवोंके द्वारा उलुकको त्रास दिया जाना देखनेसे प्रकट होता है कि मनुष्य धर्मकी इच्छासे जैनमनियोंको छोड़कर अन्य मतके साधुओंके समीप जायेंगे ॥७० ॥ नाचते हुए बहुत-से भूतोंके देखनेसे मालूम होता है कि प्रजाके लोग नामकर्म आदि कारणोंसे व्यन्तरोंको देव समझकर उनकी उपासना करने लगेंगे ॥७१। जिसका मध्यभाग सूखा हुआ है ऐसे तालाबके चारों ओर पानी भरा हुआ देखनेसे प्रकट होता है कि धर्म आर्यखण्डसे हटकर प्रत्यन्तवासी-म्लेच्छ खण्डोंमें ही रह जायेगा ॥७२॥ धूलिसे मलिन हुए रत्नोंको राशिके देखनेसे यह जान पड़ता है कि पंचमकालमें ऋद्धिधारी उत्तम मुनि नहीं होंगे ॥७३॥ आदर-सत्कारसे जिसकी पूजा की १ यस्मात् कारणात् । २ जानीहि । ३ मम सकाशात् । ४ -मास्थिताः ट० । ५ अनुगच्छत् । ६ सपरिग्रहाः । ७ दर्शनात् । ८ पालयिष्यन्ति । ९ भूरीणाम् । १० देवबुद्ध्या । ११ म्लेच्छदेशेषु 'प्रत्यन्तो म्लेच्छदेशः स्यात् ।' Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तमं पर्व १२३ तरुणस्य वृषस्योच्चैर्नदतो' 'विहृतीक्षणात् । तारुण्य एवं श्रामण्ये स्थास्यन्ति न दशान्तरे ॥७५॥ परिवेषोपरक्तस्य श्वेतभानोनिशामनात् । नोत्पत्स्यते तपोभृत्सु समनःपर्ययोऽवधिः ॥७६॥ अन्योन्यं सह संभूय वृषयोर्गमनेक्षणात् । वय॑न्ति मुनयः साहचर्यान्नकविहारिणः ॥७७॥ घनावरणरुद्धस्य दर्शनादंशुमालिनः । केवलार्कोदयः प्रायो न भवेत् पञ्चमे युगे ॥७॥ पुंसां स्त्रीणां च चारित्रच्युतिः शुष्कद्र मेक्षणात् । महौषधिरसोच्छेदो जीर्णपर्णावलोकनात् ॥७॥ स्वप्नानेवंफलानेतान् विद्धि दूरविपाकिनः । नाद्य दोषस्ततः कोऽपि फलमेषां युगान्तरे ॥८॥ इति स्वप्नफलान्यस्माद् बुध्वा वत्स यथा तथा । धर्मे मति दृढं धत्स्व विश्वविघ्नोपशान्तये ॥१॥ इत्याकर्ण्य गुरोर्वाक्यं स वर्णाश्रमपालकः । सन्देहकर्दमापायात् स प्रसन्नमधान्मनः ॥२॥ भूयो भूयः प्रणम्येशं समापृच्छय पुनः पुनः । पुनराववृते कृच्छात् स प्रीतो गुर्वनुग्रहात् ॥३॥ ततः प्रविश्य साकेतपुरमाबद्धतोरणम् । केतुमालाकुलं पौरः सानन्दमभिनन्दिनः ॥८॥ शान्तिक्रियामतश्चक्रे दुःस्वमानिष्टशान्तये । जिनाभिषेकसत्पात्रदानायैः पुण्यचेष्टितैः ॥८५॥ गोदोहै: प्लाविता धात्री पूजिताश्च महर्षयः । महादानानि दत्तानि प्रीणितः प्रणयी जनः ॥६॥ निर्मापितास्ततो घण्टा जिनबिम्बैरलंकृताः । परार्ध्यरत्ननिर्माणाः संबद्धा हेमरज्जुमिः ॥८॥ गयी है ऐसे कुत्तेको नैवेद्य खाते हुए देखनेसे मालूम होता है कि व्रतरहित ब्राह्मण गुणी पात्रोंके समान सत्कार पायेंगे ॥७४। ऊँचे स्वरसे शब्द करते हुए तरुण बैलका विहार देखनेसे सूचित होता है कि लोग तरुण अवस्थामें ही मुनिपदमें ठहर सकेंगे, अन्य अवस्थामें नहीं ॥७५।। परिमण्डलसे घिरे हुए चन्द्रमाके देखनेसे यह जान पड़ता है कि पंचमकालके मुनियोंमें अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान नहीं होगा ॥७६॥ परस्पर मिलकर जाते हुए दो बैलोंके देखनेसे यह सूचित - होता है कि पंचमकाल में मुनिजन साथ-साथ रहेंगे, अकेले विहार करनेवाले नहीं होंगे ॥७७॥ मेघोंके आवरणसे रुके हुए सूर्यके देखनेसे यह मालूम होता है कि पंचमकालमें प्रायः केवलज्ञानरूपी सूर्यका उदय नहीं होगा ॥७८॥ सूखा वृक्ष देखनेसे सूचित होता है कि स्त्री-पुरुषोंका चारित्र भ्रष्ट हो जायेगा और जीर्ण पत्तोंके देखनेसे मालूम होता है कि महाऔषधियोंका रस नष्ट हो जायेगा ॥७६।। ऐसा फल देनेवाले इन स्वप्नोंको तू दूरविपाकी अर्थात् बहुत समय बाद फल देनेवाले समझ इसलिए इनसे इस समय कोई दोष नहीं होगा, इनका फल पंचमकालमें होगा ॥८०॥ हे वत्स, इस प्रकार मुझसे इन स्वप्नोंका यथार्थ फल जानकर तू समस्त विघ्नोंकी शान्तिके लिए धर्म में अपनी बुद्धि कर ॥८१॥ वर्णाश्रमकी रक्षा करनेवाले भरतने गुरुदेवके उपर्युक्त वचन सुनकर सन्देहरूपी कीचड़के नाश होनेसे अपना चित्त निर्मल किया ॥८२॥ वे भगवान्को बार-बार प्रणाग कर तथा बार-बार उनसे पूछकर गुरुदेवके अनुग्रहसे प्रसन्न होते हुए बड़ी कठिनाईसे वहाँसे लौटे ॥८३॥ तदनन्तर नगरके लोग आनन्दके साथ जिनका अभिनन्दन कर रहे हैं ऐसे उन महाराज भरतने जिसमें जगह-जगह तोरण बाँधे गये हैं और जो पताकाओंकी पंक्तियों से भरा हुआ है ऐसे अयोध्या नगरमें प्रवेश कर खोटे स्वप्नोंसे होनेवाले अनिष्टकी शान्तिके लिए जिनेन्द्रदेवका अभिषेक करना, उत्तम पात्रको दान देना आदि पुण्य क्रियाओंसे शान्ति कर्म किया ॥८४-८५।। उन्होंने गायके दूधसे पृथिवीका सिंचन किया, महर्षियोंकी पूजा की, बड़े-बड़े दान दिये और प्रेमीजनोंको सन्तुष्ट किया ॥८६॥ तदनन्तर उन्होंने बहुमूल्य रत्नोंसे बने हुए, सुवर्णकी रस्सियोंसे बँधे हुए और जिनेन्द्रदेवकी प्रति १ ध्वनतः । २ विहरण । ३ चन्द्रस्य । ४ दर्शनात् । ५ नोदेष्यति । ६ भृशम् । ७ दूरोदयात् । ८ गोक्षीरैः । ९ बन्धुः । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आदिपुराणम् लम्बिताश्च पुरद्वारि ताश्चतुर्विंशतिप्रमाः। राजवेश्ममहाद्वारगोपुरेष्वप्यनुक्रमात् ॥८॥ यदा किल विनिर्याति प्रविशत्यप्ययं प्रभुः । तदा मौल्यग्रलग्नाभिरस्य स्यादहतां स्मृतिः ॥८९॥ स्मृत्वा ततोऽहंदर्चानां भक्त्या कृत्वामिनन्दनाम् । पूजयत्यभिनिष्क्रामन् प्रविशंश्च स पुण्यधीः ॥१०॥ रेजुःसूत्रेषु संप्रोक्ता घण्टास्ताः परमेष्टिनाम् । सदर्थघटिताष्टीका ग्रन्थानामिव पेशलाः ॥११॥ लोकचूडामणेस्तस्य मौलिलग्ना विरेजिरे। पादच्छाया जिनस्येव घण्टास्ता लोकसंमताः ॥१२॥ रत्नतोरणविन्यासे स्थापितास्ता निधीशिना । दृष्टवाहद्वन्दनाहतोलोकोऽप्यासीत्तदादरः ॥१३॥ पौरैर्जनैरतः स्वेषु वेश्मतोरणदामसु । यथाविमवमाबद्धा घण्टास्ता सपरिच्छदाः ॥६॥ आदिराजकृतां सृष्टिं प्रजास्तां बहुमेमिरे । प्रत्यगारं यतोऽद्यापि लक्ष्या वन्दनमालिकाः ॥९॥ वन्दनार्थ कृता माला यतस्ता भरतेशिना । ततो बन्दनमालाख्यां प्राप्य रूढिं गताः क्षितौ ॥१६॥ धर्मशीले महीपाले यान्ति तच्छीलता प्रजाः। अताच्छील्यमतच्छीले यथा राजा तथा प्रजाः ॥१७॥ तदा कालानुभावेन प्रायो धर्मप्रिया नराः। साधीयः साधुवृत्तेऽस्मिन् स्वामिन्यासन् हिते रताः ॥१८॥ सुकालश्च सुराजा च समं सन्निहितं द्वयम् । ततो धर्मप्रिया जाताः प्रजास्तदनुरोधतः ॥९॥ माओंसे सजे हुए बहुत-से घण्टे बनवाये तथा ऐसे-ऐसे चौबीस घण्टे बाहरके दरवाजेपर, राजभवनके महाद्वारपर और गोपुर दरवाजोंपर अनुक्रमसे टॅगवा दिये ॥८७-८८॥ जब वे चक्रवर्ती उन दरवाजोंसे बाहर निकलते अथवा भीतर प्रवेश करते तब मुकुटके अग्रभागपर लगे हुए घण्टाओंसे उन्हें चौबीस तीर्थकरोंका स्मरण हो आता था। तदनन्तर स्मरण कर उन अरहन्तदेवको प्रतिमाओंको वे नमस्कार करते थे इस प्रकार पुण्यरूप बुद्धिको धारण करनेवाले महाराज भरत निकलते और प्रवेश करते समय अरहन्तदेवकी पूजा करते थे ॥८९-९०॥ सूत्र अर्थात् रस्सियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले वे परमेष्ठियोंके घण्टा ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो उत्तम-उत्तम अर्थोसे भरी हुई और सूत्र अर्थात् आगम वाक्योंसे सम्बन्ध रखनेवाली ग्रन्थोंकी सुन्दर टीकाएँ ही हों ॥११॥ महाराज भरत स्वयं तीनों लोकोंके चूड़ामणि थे उनके मस्तकपर लगे हुए वे लोकप्रिय घण्टा ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनेन्द्र देवके चरणोंकी छाया ही हो ॥९२॥ निधियोंके स्वामी भरतने अर्हन्तदेवकी वन्दनाके लिए जो घण्टा रत्नोंके तोरणोंकी रचनामें स्थापित किये थे उन्हें देखकर अन्य लोग भी उनका आदर करने लगे थे अर्थात् अपने-अपने दरवाजेके तोरणोंकी रचनामें घण्टा लगवाने लगे थे। उसी समयसे नगरवासी लोगोंने भी अपने-अपने घरकी तोरणमालाओंमें अपने-अपने वैभवके अनुसार जिनप्रतिमा आदि सामग्रीसे युक्त घण्टा बाँधे थे ॥९३-९४॥ उस समय प्रथम राजा भरतकी बनायी हुई इस सृष्टिको प्रजाके लोगोंने बहुत माना था, यही कारण है कि आज भी प्रत्येक घरपर वन्दन मालाएँ दिखाई देती हैं ॥९५॥ चूंकि भरतेश्वरने वे मालाएँ अरहन्तदेवकी वन्दनाके लिए बनवायी थी इसलिए ही वे वन्दनमाला नाम पाकर पृथिवीमें प्रसिद्धिको प्राप्त हुई हैं ॥६६॥ यदि राजा धर्मात्मा होता है तो प्रजा भी धर्मात्मा होती है और राजा धर्मात्मा नहीं होता है तो प्रजा भी धर्मात्मा नहीं होती है, यह नियम है कि जैसा. राजा होता है वैसी ही प्रजा होती है ॥१७॥ उस समय कालके प्रभावसे प्रायः सभी लोग धर्मप्रिय थे सो ठीक ही है क्योंकि सदाचारी भरतके राजा रहते हुए सब लोग अपना हित करने में लगे हुए थे ॥६८॥ उस समय अच्छा राजा और अच्छी प्रजा दोनों ही एक साथ मिल गये थे इसलिए राजाके अनुरोधसे प्रजा १ बहिरि ल०, म०, द०। २ रत्नादिसम्यगर्थः। ३ तोरणमालासु । ४ जिनबिम्बादिपरिकरसहिताः । ५ धर्मशीलताम् । ६ अधर्मत्वम् । ७ अधर्मशीले सति । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तम पर्व ३२५ एष धर्मप्रियः सम्राट् धर्मस्थानभिनन्दति । मत्वेति निखिलो लोकस्तदा धर्मे रतिं ज्यधात् ॥१०॥ स धर्मविजयी सम्राट् सद्वृत्तः शुचिरूर्जितः । 'प्रकृतिष्वनुरक्तोसु व्यधाद् धर्मक्रियादरम् ॥१०१॥ भरतो मिरतो धर्म वयं तदनुजीविनः । इति तद्वृत्तमन्वीयुमौलिबद्धा महीक्षितः ॥१०२॥ सोऽयं साधितकामार्थश्चक्री चक्रानुभावतः । चरितार्थद्वये तस्मिन् भेजे धमकतानताम् ॥१०३।। दानं पूजां च शीलं च दिने पर्वण्युपोषितम् । धर्मश्चतुर्विधः सोऽयमाम्नातो गृहमेधिनाम् ॥१०॥ ददौ दानमसौ सद्भ्यो मुनिभ्यो विहितादरम् । समेतो नवमिः पुण्यैः गुणैः सप्तभिरन्वितः ॥१०॥ सोऽदाद् विशुद्धमाहारं यथायोगं च भेषजम् । प्राणिभ्योऽभयदानं च दानस्यैतावती गतिः ॥१०६॥ जिनेषु भक्तिमातन्वंस्तत्पूजायां तिं दधौ । पूज्यानां पूजनाल्लोके पूज्यत्वमिति भावयन् ॥१०७॥ चैत्यचैत्यालयादीनां निर्मापणपुरस्सरम् । स चक्र परमामिज्यां कल्पवृक्षपृथुप्रथाम् ॥१०८॥ शीलानुपालने यत्रो मनस्यस्य विभोरभूत् । शीलं हि रक्षितं यत्नादात्मानमनुरक्षति ॥१०॥ व्रतानुपालनं शीलव्रतान्युक्तान्यगारिणाम् । स्थूल हिंसाविरत्यादिलक्षणानि च लक्षणः ॥११०॥ 'सभावनानि तान्येष यथायोगं प्रपालयन् । प्रजानां पालकः सोऽभूद् धौरेयो गृहमेधिनाम् ॥१११॥ पर्वोपवासमास्थाय” जिनागारे समाहितः । कुर्वन् सामयिकं सोऽधान्मुनिवृत्तं च तत्क्षणम् ॥१२॥ धर्मप्रिय हो गयी थी ॥९९।। यह सम्राट् स्वयं धर्मप्रिय है और धर्मात्मा लोगोंका सन्मान करता है यही मानकर उस समय लोग धर्म में प्रीति करने लगे थे ॥१००। वह चक्रवर्ती धर्मविजयी था, सदाचारी था, पवित्र था और बलिष्ठ था इसलिए ही वह अपनेपर प्रेम रखनेवाली प्रजामें धार्मिक क्रियाओंका आदर करता था अर्थात् प्रजाको धार्मिक क्रियाएँ करनेका उपदेश देता था ॥१०१॥ 'भरत धर्ममें तत्पर है और हम लोग उसके सेवक हैं' यही समझकर मुकुटबद्ध राजा उनके आचरणका अनुसरण करते थे । भावार्थ-अपने राजाको धर्मात्मा जानकर आश्रित राजा भी धर्मात्मा बन गये थे ॥१०२।। चक्रके प्रभावसे अर्थ और काम दोनों ही जिनके स्वाधीन हो रहे हैं ऐसे चक्रवर्ती भरत अर्थ और कामकी सफलता होनेपर केवल धर्ममें ही एकाग्रताको प्राप्त हो रहे थे ॥१०३।। दान देना, पूजा करना, शील पालन करना और पर्वके दिन उपवास करना यह गृहस्थोंका चार प्रकारका धर्म माना गया है ॥१०४।। नव प्रकारके पुण्य और सात गुणोंसे सहित भरत उत्तम मुनियोंके लिए बड़े आदरके साथ दान देते थे ॥१०५॥ वे विशुद्ध आहार, योग्यतानुसार औषधि और समस्त प्राणियोंके लिए अभय दान देते थे सो ठीक ही है क्योंकि दानकी यही तीन गति हैं ॥१०६।। संसारमें पूज्य पुरुषोंकी पूजा करनेसे पूज्यपना स्वयं प्राप्त हो जाता है ऐसा विचार करते हुए महाराज भरत जिनेन्द्रदेवमें अपनी भक्ति बढ़ाते हुए उनकी पूजा करने में बहुत ही संतोष धारण करते थे ॥१०७॥ उन्होंने अनेक जिनबिम्ब और जिनमन्दिरोंकी रचना कराकर कल्पवृक्ष नामका बहुत बड़ा यज्ञ ( पूजन ) किया था ॥१०८।। उनके मनमें शीलकी रक्षा करनेका प्रयत्न सदा विद्यमान रहता था सो ठीक ही है क्योंकि प्रयत्नपूर्वक रक्षा किया हुआ शील आत्माकी रक्षा करता है ॥१०९॥ व्रतोंका पालन करना शील कहलाता है और स्थूलहिंसाका त्याग करना ( अहिंसाणु व्रत ) आदि जो गृहस्थोंके व्रत हैं वे लक्षणोंके साथ पहले कहे जा चुके हैं ॥११०॥ उन व्रतोंको भावनाओं सहित यथायोग्य रीतिसे पालन करते हुए प्रजापालक महाराज भरत गृहस्थोंमें मुख्य गिने जाते थे ॥१११॥ वे पर्वके दिन उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर चित्तको स्थिर कर सामायिक करते १ प्रजापरिवारेषु । २ भरतो निरतो ल०, म० । ईशनोऽभिरतो अ०, स०। ३ अनुगच्छन्ति स्म । ४ नृपाः । ५ स्वाधीन -ल०, म०, स०, अ०, प०। ६ धर्मे अनन्यतिताम् । 'एकतान अनन्यवृत्तिः' इत्यभिधानात् । ७ उपवासः । ८ कथितः । ९ मैत्रीप्रमोदादिभावनासहितानि । १० प्रतिज्ञां कृत्वा। -माध्याय ल०, प० । ११ सामायिककालपर्यन्तम् । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ आदिपुराणम् जिनानुस्मरणे तस्य समाधानमुपेयुषः । शैथिल्या गात्रबन्धस्य स्रस्तान्याभरणान्यहो ॥११३॥ तथापि बहुचिन्तस्य धर्मचिन्ताऽभवद् दृढा । धर्मेहि चिन्तिते सर्व चिन्त्यं स्यादनुचिन्तितम् ।।१२४॥ तस्याखिलाः क्रियारम्भा धर्मचिन्तापुरस्सराः। जाता जातमहोदकपुण्यपाकोत्थसंपदः ॥११५॥ प्रातरुन्मीलिताक्षः सन् सन्ध्यारागारुणा दिशः । स मेनेऽहत्पदाम्भोजरागेणेवानुरञ्जिताः ॥११६।। प्रातरुद्यन्तमुद्धतनैशान्धतमसं रविम् । भगवत्केवलार्कस्य प्रतिबिम्बममस्त सः ॥११७॥ प्रभातमरुतोद्धतप्रबुद्ध कमलाकरात् । हृदि सोऽधाजिनालापकलापानिव शीतलान् ।।११८।। धार्मिकस्यास्य कामार्थचिन्ताऽभूदानुषङ्गिकी । तात्पर्य त्वभवद्धमें कृत्स्नश्रेयोऽनुबन्धिनि ॥ ११९॥ प्रातरुत्थाय धर्मस्थैः कृतधर्मानुचिन्तनः । ततोऽर्थकामसंपत्तिं सहामात्यैयरूपयत् ॥१२०॥ तल्पादुत्थितमात्रोऽसौ संपूज्य गुरुदैवतम् । कृतमङ्गलनेपथ्यौ धर्मासनमधिष्ठितः ॥१२१॥ प्रजानां सदसद्वृत्तचिन्तनैः क्षणमासितः । तत आयुक्तकान् स्वेषु नियोगेष्वन्धशाद् विभुः ॥१२२॥ नृपासनमथाध्यास्य महादर्शनमध्यगः । नृपान् संभावयामास सेवावसरकाक्षिणः ॥१२३॥ कांश्चिदालोकनैः कांश्चिस्मितैराभाषणैः परान् । कांश्चित्समानदानाद्येस्तर्पयामास पार्थिवान् ॥१२॥ हुए जिनमन्दिरमें ही रहते थे और उस समय ठीक मुनियोंका आचरण धारण करते थे ॥११२॥ जिनेन्द्रदेवका स्मरण करने में वे समाधानको प्राप्त हो रहे थे - उनका चित्त स्थिर हो रहा था और आश्चर्य है कि शरीरके बन्धन शिथिल होनेसे उनके आभूषण भी निकल पड़े थे ॥११३।। यद्यपि उन्हें बहुत पदार्थों की चिन्ता करनी पड़ती थी तथापि उनके . धर्मकी चिन्ता अत्यन्त दृढ़ थी सो ठीक ही है क्योंकि धर्मकी चिन्ता करनेपर चिन्ता करने योग्य समस्त पदार्थोंका चिन्तवन अपने आप हो जाता है ॥११४॥ बड़े भारी फल देनेवाले पुण्यकर्मके उदयसे जिन्हें अनेक सम्पदाएँ प्राप्त हुई हैं ऐसे भरतकी समस्त क्रियाओंका प्रारम्भ धर्मके चिन्तवनपूर्वक ही होता था अर्थात् महाराज भरत समस्त कार्योंके प्रारम्भमें धर्मका चिन्तवन करते थे ॥११५॥ वे प्रातःकाल आँख खोलकर जब समस्त दिशाओंको सबेरेकी लालिमासे लाल-लाल देखते थे तब ऐसा मानते थे मानो ये दिशाएँ जिनेन्द्रदेवके चरणकमलोंकी लालिमासे ही लाल-लाल हो गयो हैं ॥११६॥ जिसने रात्रिका गाढ़ अन्धकार नष्ट कर दिया है ऐसे सूर्यको प्रातःकालके समय उदय होता हुआ देखकर वे ऐसा समझकर उठते थे मानो यह भगवान्के केवलज्ञानका प्रतिबिम्ब ही हो ॥११७॥ प्रातःकालकी वायुके चलनेसे खिले हुए कमलोंके समूहको वे अपने हृदयमें जिनेन्द्र भगवान्की दिव्यध्वनिके समूहके समान शीतल समझते थे ॥११८॥ वे बहुत ही धर्मात्मा थे, उनके काम और अर्थको चिन्ता गौण रहती थी तथा उनका मुख्य तात्पर्य सब प्रकारका कल्याण करनेवाले धर्म में ही रहता था ॥११९॥ वे सबेरे उठकर पहले धर्मात्मा पुरुषोंके साथ धर्मका चिन्तवन करते थे और फिर मन्त्रियोंके साथ अर्थ तथा कामरूप सम्पदाओंका विचार करते थे ॥१२०॥ वे शय्यासे उठते ही देव और गुरुओंकी पूजा करते थे और फिर मांगलिक वेष धारण कर धर्मासनपर आरूढ़ होते थे ॥१२१॥ वहाँ प्रजाके सदाचार और असदाचारका विचार -करते हए वे क्षण-भर ठहरते थे तदनन्तर अधिकारियोंको अपने-अपने कामपर नियुक्त करते थे अर्थात् अपना-अपना कार्य करनेकी आज्ञा देते थे ॥१२२।। इसके बाद सभाभवनके बीचमें जाकर राजसिंहासनपर विराजमान होते तथा सेवाके लिए अवसर चाहनेवाले राजाओंका सन्मान करते थे ॥ १२३ ॥ वे कितने ही राजाओंको दर्शनसे, कितनों ही को मुसकानसे, १ गलितानि। २ निशासंबन्धि । ३ विकसित । ४ अमुख्या। ५ धर्मस्थैः सह । ६ विजारमकरोत् । .७ मङ्गलालंकारः। ८ आसनमण्डलविशेषम् । ९ तत्परान् । १० सभादर्शन-अ०, स० । सभासदन-प०, ल०, म० । महदर्शनं येषां ते महादर्शनास्तेषां मध्यगः । सभ्यजनमध्यवर्ती सन्नित्यर्थः । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तमं पर्व ३२७ तत्रोपायनसंपत्त्या समायातान् महत्तमान्' । वचोहरांश्च संमान्य कृतकार्यान् व्यसर्जयत् ॥१२५॥ कलाविदश्च नृत्यादिदर्शनैः समुपस्थितान् । पारितोषिकदानेन महता समतर्पयत् ॥१२६॥ ततो विसर्जितास्थानः प्रोत्थाय नृपविष्टरात् । स्वेच्छाविहारमकरोद् विनोदैः सुकुमारकैः ॥१२७॥ ततो मध्यंदिनेऽभ्यणे कृतमजनसंविधिः । तनुस्थितिं स निवर्त्य निरविक्षत् प्रसाधनम् ॥१२८॥ चामरोत्क्षेपताम्बूलदानसं वाहनादिमिः। परिचेरुरुपेत्यैनं परिवाराङ्गनाः स्वतः ॥१२६॥ ततो"भुक्तोत्तरास्थाने स्थितः कतिपयैर्नृपैः । समं 'विदग्धमण्डल्या विद्यागोष्टीरभावयत् ॥१३०॥ तत्र वारविलासिन्यो नृपवल्लभिकाश्च तम् । परिवQरुपारूढतारुण्यमदकर्कशाः ॥१३१॥ तासामालापसंल्लापपरिहासकथादिभिः। सुखासिकामसौ भेजे भोगाङ्गैश्च मुहूर्तकम् ॥१३२॥ ततस्तुर्यावशेषेऽह्नि पर्यटन्मणिकुट्टिमे । वीक्षते स्म परां शोभामभितो राजवेश्मनः ॥१३३॥ सनर्मसचिव कंचित् समालम्ब्यांसपीठके । परिक्रामन्नितश्चेतो रेजे सुरकुमारवत् ॥१३॥ रजन्यामपि यत्कृत्यमुचितं चक्रवर्तिनः । तदाचरन् सुखेनैष त्रियामामत्यवाहयत् ॥१३५॥ कदाचिदुचितां वेलां नियोग इति केवलम् । मन्त्रयामास मन्त्रज्ञैः कृतकार्योऽपि चक्रभृत् ॥१३६॥ तन्त्रावायगता चिन्ता नास्यासीद् विजितक्षितेः। तन्त्र चिन्तैव नन्वस्य स्वतन्त्रस्येह भारते ॥१३७॥ कितनों ही को वार्तालापसे, कितनों ही को सम्मानसे और कितनों ही को दान आदिसे सन्तुष्ट करते थे-॥१२४॥ वे वहाँपर भेंट ले-लेकर आये हुए बड़े-बड़े पुरुषों तथा दूतोंको सम्मानित कर और उनका कार्य पूरा कर उन्हें बिदा करते थे॥१२५।। नृत्य आदि दिखानेके लिए आये हुए कलाओंके जाननेवाले पुरुषोंको बड़े-बड़े पारितोषिक देकर सन्तुष्ट करते थे ॥१२६॥ तदनन्तर सभा विसर्जन करते और राजसिंहासनसे उठकर कोमल क्रीड़ाओंके साथ-साथ अपनी इच्छानुसार विहार करते थे ॥१२७॥ तत्पश्चात् दोपहरका समय निकट आनेपर स्नान आदि करके भोजन करते और फिर अलंकार धारण करते थे ॥१२६।। उस समय परिवारकी स्त्रियाँ स्वयं आकर चमर ढोलना, पान देना और पैर दाबना आदिके द्वारा उनको सेवा करती थीं। ॥१२९।। तदनन्तर भोजनके बाद बैठने योग्य भवनमें कुछ राजाओंके साथ बैठकर चतुर लोगोंर्की मण्डलीके साथ-साथ विद्याकी चर्चा करते थे ।।१३०॥ वहाँ जवानीके मदसे जिन्हें उद्दण्डता प्राप्त हो रही है ऐसी वेश्याएं और प्रियरानियाँ आकर उन्हें चारों ओरसे घेर लेती थीं ॥१३१।। उनके आभाषण, परस्परकी बातचीत और हास्यपूर्ण कथा आदि भोगोंके साधनोंसे वे वहाँ कुछ देर तक सुखसे बैठते थे ॥१३२।। इसके बाद जब दिनका चौथाई भाग शेष रह जाता था तब मणियोंसे जड़ी हुई जमीनपर टहलते हुए वे चारों ओर राजमहलकी उत्तम शोभा देखते थे ॥१३३॥ कभी वे क्रोडासचिव अर्थात् क्रीडामें सहायता देनेवाले लोगोंके कन्धोंपर हाथ रखकर इधर-उधर घूमते हुए देवकुमारोंके समान सुशोभित होते थे ॥१३४॥ रातमें भी चक्रवर्तीके योग्य जो कार्य थे उन्हें करते हुए वे सुखसे रात्रि व्यतीत करते थे ॥१३५॥ यद्यपि वे चक्रवर्ती कृतकृत्य हो चुके थे अर्थात् विजय आदिका समस्त कार्य पूर्ण कर चके थे तथापि केवल नियोग समझकर कभी-कभी उचित समयपर मन्त्रियोंके साथ सलाह करते थे ॥१३६॥ जिन्होंने १ महत्तरान् । २ दूतान् । ३ परितोषे भवः । ४ मृदुभिः । ५ मध्याह्न। ६ अन्वभवत् । ७ अनुलेपनम् । वस्त्रमाल्याभरणादि । 'आकल्पवेशौ नेपथ्यं प्रतिकर्म प्रसाधनम्'। ८ पादमर्दन । ९ परिचर्यां चक्रिरे। १० भोजनान्ते स्थातुं योग्यास्थाने । ११ विद्वत्समूहेन । १२ मिथोभाषण । 'संलापो भाषणं मिथः' इत्यभिधानात् । १३ सुखस्थलम् । १४ क्रीडासहाय । 'कोडा लीला च नर्म च' इत्यभिधानात् । १५ अंसो भुजशिर एव पीठस्तस्मिन् । १६ इतस्ततः । १७ रात्रि नयति स्म। १८ उचितकालपर्यन्तम् । १९ स्वराष्ट्रचिन्ताम् । अथवा शस्त्रचिन्ताम् । 'तन्त्रः प्रधाने सिद्धान्ते सत्रवाये परिच्छदे' इत्यभिधानात् । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् sored परिज्ञानहानये । शासतोऽस्याविपक्षां क्ष्मां कृतं संध्यादिचया ॥ १३८ ॥ राजविद्याश्वतत्रोऽभूः कदाचिच्च कृतक्षणः" । व्याचख्यौ राजपुत्रेभ्यः ख्यातये स विचक्षणः ॥ १३६ ॥ कदाचिन्निधिरत्नानामकरोत्स निरीक्षणम् । भाण्डागारपदे तानि तस्य तन्त्र पदेऽपि च ॥ १४० ॥ कदाचिद्धर्मशास्त्रेषु या: स्युर्विप्रतिपत्तयः । निराचकार ताः कृत्स्नाः ख्यापयन् विश्वविन्मतम् ।१४१| आसोपज्ञेषु तत्त्वेषु कश्चित् संजातसंशयान् । ततोऽपाकृत्य संशोतेस्तत्तत्त्वं निरणीनयत् ॥ १४२॥ तथाऽसावर्यशास्त्रार्थे ४ कामनीतौ च पुष्कलम् । प्रावीण्यं प्रथयामास यथात्र न परः कृती ॥ १४३ ॥ 'हस्तितन्त्रेऽश्वतन्त्रे च दृष्ट्वा स्वातन्त्र्य मीशितुः । मूलतन्त्रस्य कर्ताऽयमित्यास्था" तद्विदामभूत् ॥ 'आयुर्वेदे स दीर्घायुरायुर्वेदो नु मूर्तिमान् । इति लोको निरारेकं श्लाघते स्म निधीशिनम् ॥ १४५ ॥ sa" विद्यायां स कृती २ वागलंकृतौ । स छन्दसांप्रतिच्छन्द" इत्यासीत् संमतः सताम्॥ १४६ ॥ "तदुपज्ञं निमित्तानि शाकुनं तदुपक्रमम् । तत्सर्गो"ज्योतिषां ज्ञानं तन्मतं तेन तत्त्रयम् ॥३४७॥ १४ १७ १२ २१ २५ ૨૬ २७ : ९ ३२८ ५६ प्रसिद्धि के लिए ही कभी समस्त पृथिवी जीत ली है और जो इस भरतक्षेत्र में स्वतन्त्र हैं ऐसे उन भरतको अपने तथा परराष्ट्र की कुछ भी चिन्ता थी, यदि चिन्ता नहीं थी, तो केवल तन्त्र अर्थात् स्वराष्ट्रकी ही चिन्ता थी ॥ १३७ ॥। उन्होंने अपना अज्ञान नष्ट करनेके लिए ही छह गुणोंका अभ्यास किया था क्योंकि जब वे शत्रुरहित पृथिवीका पालन करते थे तब उन्हें सन्धि विग्रह आदिकी चर्चा क्या प्रयोजन था ।। १३८ || अतिशय विद्वान् महाराज भरत केवल कभी बड़े उत्साह के साथ राजपुत्रोंके लिए आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति इन चार राजविद्याओं का व्याख्यान करते थे || १३९ || वे कभी - कभी निधियों और रत्नोंका भी निरीक्षण करते थे। क्योंकि निधियों और रत्नोंमें से कुछ तो उनके भाण्डार में थे और कुछ उनकी सेनामें थे ।।१४०॥ कभी-कभी वे सर्वज्ञदेवका मत प्रकट करते हुए धर्मशास्त्र में जो कुछ विवाद थे उन सबका निराकरण करते थे || १४१ || भगवान् अरहन्तदेवके कहे हुए तत्त्वों में जिन किन्हीं को सन्देह उत्पन्न होता था उन्हें वे उस सन्देहसे हटाकर तत्त्वोंका यथार्थ निर्णय कराते थे ॥ १४२ ॥ इसी प्रकार वे अर्थशास्त्र के अर्थ में और कामशास्त्रमें अपना पूर्ण चातुर्य इस तरह प्रकट करते थे कि फिर इस संसार में उनके समान दूसरा चतुर नहीं रह जाता था || १४३ ॥ हस्तितन्त्र और अश्वतन्त्र में महाराज भरतकी स्वतन्त्रता देखकर उन शास्त्रोंके जाननेवाले लोगोंको यही विश्वास हो जाता था कि इन सबके मूल शास्त्रोंके कर्ता यही हैं ।। १४४ || आयुर्वेद के विषय में तो सब लोग निधियोंके स्वामी भरतकी बिना किसी शंकाके यही प्रशंसा करते थे कि यह दीर्घायु क्या मूर्तिमान् आयुर्वेद ही है अर्थात् आयुर्वेदने हो क्या भरतका शरीर धारण किया है || १४५ ।। इसी प्रकार सज्जन लोग यह भी मानते थे कि वे व्याकरण - विद्या में कुशल हैं, शब्दालंकार में निपुण हैं, और छन्दशास्त्रके प्रतिबिम्बं हैं ॥ १४६ ॥ निमित्तशास्त्र सबसे पहले उन्हीं के बनाये हुए हैं, शकुनशास्त्र उन्हींके कहे हुए हैं और ज्योतिष शास्त्रका ज्ञान उन्हीं १ चक्रिणा । २ पर्याप्तम् । अलमित्यर्थः । ३ सन्धिविग्रहभावादिविचारेण । ४ आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चतस्रो राजविद्याः । ५ कृतोत्साहः । ६ वदति स्म । ७ सैन्यस्थाने परिग्रहे बभूवुरित्यर्थः । ८ विसंवादाः । ९ निराकृतवान् । १० प्रकटीकुर्वन् । ११ सर्वज्ञमतम् । १२ संशयात् । १३ निर्णयमकारयत् । १४ नीतिशास्त्रार्थे । १५ कुशलः । १६ गंजशास्त्रे । १७ मूलशास्त्रस्य । १८ इति बुद्धिः । १९ वैद्यशास्त्रे । २० निःशङ्कम् । २१ व्याकरणशास्त्रमधीतवान् । २२ - कुशलः । २३ शब्दालंकारे । २४ प्रतिनिधिः । २५ तदुपज्ञनिमित्तानि ल०, म० । तेन प्रथमोक्तम् । २६ शकुनशास्त्रम् । २७ तेन प्रथममुपक्रान्तम् । २८ तस्य भरतस्य सृष्टि: । २९ ज्योतिषशास्त्रम् । ३० तेन कारणेन । ३१ निमित्तादित्रयम् । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ एकचत्वारिंशत्तमं पर्व स निमित्तं निमित्तानां तन्ने मन्त्रे सशाकुने । दैवज्ञाने परं देवमित्यभूसंमतोऽधिकम् ॥१८॥ तत्संभूतौ : 'मुद्भूतमभूत् पुरुषलक्षणम् । उदाहरणमन्यत्र लक्षितं येन तत्तनोः ॥१४९॥ अन्येप्वपि कलाशास्त्रसंग्रहेषु कृतागमाः । तमेवादर्श मालोक्य संशयांशाद् व्यरंसिपुः ॥१५॥ येनास्य सहजा प्रज्ञा पूर्वजन्मानुषङ्गिणी । तेनैषा विश्वविद्यासु जाता परिणतिः परा ॥१५१॥ इत्थं सर्वेषु शास्त्रेषु कलासु सकलासु च । लोके स संमति प्राप्य तद्विद्यानां मतोऽभवत् ॥१५२॥ किमत्र बहुनोतन प्रज्ञापारमितो मनुः । कृत्स्य लोकवृत्तस्य स भेजे सूत्रधारताम् ॥१५३॥ राजगिद्वान्ततचतो धर्मशास्त्रार्थतत्त्ववित् । परिख्यातः कलाज्ञाने सोऽभून्मूर्ध्नि सुमेधाम् । १५४॥ इत्यादिराज" तत्सम्राडहो राजर्षिनायकम्। तत्सार्वभौममित्यस्य दिशासूच्छलितं यशः ॥१५॥ मालिनी इति सकलकलानामेकमोकः स चक्री कृतमतिभिरजर्य'. संगतं संविधित्सन् । बुधसदसि सदस्यान् बोधयन् विश्वविद्या व्यवृणुत" बुधचक्रीत्युच्छलत्कीर्तिकेतुः ॥१५६॥ की सृष्टि है इसलिए उक्त तीनों शास्त्र उन्हींके मत हैं ऐसा समझना चाहिए ॥१४७॥ वे निमित्त शास्त्रोंके निमित्त हैं, और तन्त्र, मन्त्र, शकुन तथा ज्योतिष शास्त्रमें उत्तम अधिष्ठाता देव हैं इस प्रकार सब लोगोंमें अधिक मान्यताको प्राप्त हुए थे ॥१४८॥ महाराज भरतके उत्पन्न होनेपर पुरुषके सब लक्षण उत्पन्न हुए थे इसलिए दूसरी जगह उनके शरीरके उदाहरण ही देखे जाते थे ॥१४९।। शास्त्रोंके जाननेवाले पुरुष ऊपर कहे हुए शास्त्रोंके सिवाय अन्य कलाशास्त्रोंके संग्रहमें भी भरतको ही दर्पणके समान देखकर संशयके अंशोंसे विरत होते थे अर्थात् अपने-अपने संशय दूर करते थे ॥१५०॥ चूंकि उनकी स्वाभाविक बुद्धि पूर्वजन्मसे सम्पर्क रखनेवाली थी इसलिए ही उनकी समस्त विद्याओं में उत्तम प्रगति हई थी ॥१५१।। इस प्रकार समस्त शास्त्र और समस्त कलाओं में प्रतिष्ठा पाकर वे भरत उन विद्याओंके जाननेवालोंमें मान्य हुए थे ॥१५२।। इस विषय में बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? इतना कहना ही पर्याप्त है कि बुद्धिके पारगामी कुलकर भरत समस्त लोकाचारके सूत्रधार हो रहे थे ॥१५३।। वे राजशास्त्रके तत्त्वोंको जानते थे, धर्मशास्त्रके जानकार थे, और कलाओंके ज्ञानमें प्रसिद्ध थे। इस प्रकार उत्तम विद्वानोंके मस्तकपर सुशोभित हो रहे थे अर्थात् सबमें श्रेष्ठ थे ॥१५४।। अहो, इनका प्रथम राज्य कैसा आश्चर्य करनेवाला है, यह सम्राट हैं, राजर्षियोंमें मुख्य हैं, इनका सार्वभौम पद भी आश्चर्यजनक है इस प्रकार उनका यश समस्त दिशाओंमें उछल रहा था ॥१५५।। इस प्रकार जो समस्त कलाओंका एकमात्र स्थान है, जो बुद्धिमान् पुरुषोंके साथ अविनाशी मित्रता करना चाहता है और यह विद्वानोंमें चक्रवर्ती है अथवा विद्वान् चक्रवर्ती है' इस प्रकार जिसकी कीर्तिरूपी पताका फहरा रही हैं ऐसा वह चक्रवर्ती भरत विद्वानोंकी सभामें समस्त विद्याओंका उपदेश देता हुआ समस्त विद्याओंका व्याख्यान करता था ।।१५६ १ कारणम् । २ निमित्तशास्त्राणाम् । ३ ज्योतिःशास्त्रे । ४ स मतोऽधिकम् इ० । स गतोऽधिकम् ल०, म । ५ संपूर्णशास्त्रम । ६ मुकुरम् । ७ विरमन्ति स्म । ८ कारणेन । ९ अनुसंबन्धिनी । १० नृपविद्यास्वरूपज्ञः । ११ आदिराजस्य प्रथा। १२ राजर्षिनायकस्य प्रथा। १३ सर्वभूमीशस्य प्रकाश । १४ मुख्यः । १५ गृहः । १६ अविनाशी । १७ सदसि योग्यान् । १८ विवरणमकरोत् । १९ विद्वज्जन । ४२ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० आदिपुराणम् जिनविहितमनूनं संस्मरन् धर्ममार्ग स्वयमधिगततत्त्वो बोधयन् मार्गमन्यान् । कृतमतिरखिलां मां पालयनिःसपनां। चिरमरमत भोगैर्भूरिसारैः स सम्राट् ॥१५७॥ शार्दूलविक्रीडितम् लक्ष्मीवाग्वनितासमागमसुखस्यैकाधिपत्यं दधत् दूरोत्सारितदुर्णयः प्रशमिनी तेजस्वितामुद्वहन् । न्यायोपार्जितवित्तकामघटनः शस्त्रे च शास्त्रे कृती राजर्षिः परमोदयो जिनजुषा'मग्रसरः सोऽभवत् ॥१५॥ इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भरतराजस्वप्नदर्शनतत्फलोपर्णनं नाम एकचत्वारिंशत्तम पर्व ॥४१॥ जिसने समस्त तत्त्वोंको जान लिया है और जिसकी बुद्धि परिपक्व है ऐसा सम्राट भरत, जिनेन्द्रदेवके कहे हुए न्यूनतारहित धर्ममार्गका स्मरण करता हुआ तथा वही मार्ग अन्य लोगोंको समझाता हुआ और शत्रुरहित सम्पूर्ण पृथिवीका पालन करता हुआ सारपूर्ण भोगोंके द्वारा चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा था ॥१५७॥ जो लक्ष्मी और सरस्वतीके समागमसे उत्पन्न हुए सुखके एक स्वामित्वको धारण कर रहा है, जिसने समस्त दुष्ट नय दूर हटा दिये हैं, जो शान्तियुक्त तेजस्वीपनेको धारण कर रहा है, जिसने न्यायपूर्वक कमाये हुए धनसे कामका संयोग प्राप्त किया है, जो शस्त्र और शास्त्र दोनोंमें ही निपुण है, राजर्षि है और जिसका अभ्युदय अतिशय उत्कृष्ट है ऐसा वह भरत जिनेन्द्रदेवकी सेवा करनेवालोंमें अग्रेसर अर्थात् सबसे श्रेष्ठ था ।।१५८।। इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें भरतराजके स्वप्न तथा उनके फलका वर्णन करनेवाला इकतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। १ जिनसेवकानाम् । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तम पर्व 'मध्येसभमथान्येयुनिविष्टो हरिविष्टरे । क्षात्रं वृत्तमुपादिक्षत्संहितान् पार्थिवान् प्रति ॥१॥ श्रयतां भो महामानः सर्वे क्षत्रियपुङ्गवाः । क्षतत्राणे नियुक्ताः स्थ यूयमायेन वेधसा ॥२॥ तत्त्राणे च नियुक्तानां वृत्तं वः पञ्चधोदितम् । तन्निशम्य यथाम्नायं प्रवर्तध्वं प्रजाहिते ॥३॥ तच्चेदं कुलमत्यात्मप्रजानामनुपालनम् । समञ्जसत्वं चेत्येवमुद्दिष्टं पञ्चभेदभाक् ॥४॥ कुलानुपालनं तत्र कुलाम्नायानुरक्षणम् । कुलोचितसमाचारपरिरक्षणलक्षणम् ॥५॥ क्षत्रियाणां कुलाम्नायः कीदृशश्चेनिशम्यताम् । आयेन वेधसा सृष्टः सर्गोऽयं क्षत्रपूर्वकः ॥६॥ स चैष मारतं वर्षमवतीर्णो दिवोऽग्रतः । पुरा भवे समाराध्य रत्नत्रितयमूर्जितम् ॥७॥ द्विरष्टौ भावनास्तत्र तीर्थकृत्वोपपादिनीः । भावयित्वा शुभोदर्का धुलोकाग्रमधिष्टितः॥८॥ तेनास्मिन् भारते वर्षे धर्मतीर्थप्रवर्तने । ततः कृतावतारेण क्षात्रसर्गः प्रवर्तितः ॥९॥ तत्कथं कर्मभूमित्वादद्यत्वे द्वितयी प्रजा । कर्तव्या रक्षणीयका प्रजान्या रक्षणोद्यता ॥१०॥ रक्षणाभ्युद्यता येऽत्र क्षत्रियाः स्युस्तदन्वयाः । सोऽन्वयोऽनादिसंतत्या बीजवृक्षवदिप्यते ॥११॥ अथानन्तर-किसी एक दिन सभाके बीच में सिंहासनपर बैठे हुए भरत इकट्ठे हुए राजाओंके प्रति क्षात्रधर्मका उपदेश देने लगे ॥१॥ वे कहने लगे कि हे समस्त क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ महात्माओ, आप लोगोंको आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने दुःखी प्रजाकी रक्षा करने में नियुक्त किया है ॥२॥ दुःखी प्रजाकी रक्षा करनेमें नियुक्त हुए आप लोगोंका धर्म पाँच प्रकारका कहा है उसे सुनकर तुम लोग शास्त्रके अनुसार प्रजाका हित करने में प्रवृत्त होओ ॥३॥ वह तुम्हारा धर्म कुलका पालन करना, बुद्धिका पालन करना, अपनी रक्षा करना, प्रजाकी रक्षा करना और समंजसपना इस प्रकार पाँच भेदवाला कहा गया है ॥४॥ उनमें से अपने कुलाम्नायकी रक्षा करना और कुलके योग्य आचरणकी रक्षा करना कुल-पालन कहलाता है ।।५॥ अब क्षत्रियोंका कुलाम्नाय कैसा है ? सो सुनिए । आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने क्षत्रपूर्वक ही इस सृष्टिकी रचना की है अर्थात् सबसे पहले क्षत्रियवर्णकी रचना की है ॥६॥ जिन्होंने पहले भवमें अतिशय श्रेष्ठ रत्नत्रयकी आराधना कर तथा तीर्थ कर पद प्राप्त करानेवाली और शुभ फल देनेवाली सोलह भावनाओंका चिन्तवन कर स्वर्गलोकके सबसे ऊपर अर्थात् सर्वार्थसिद्धि में निवास किया था वे ही भगवान् सर्वार्थसिद्धिसे आकर इस भारतवर्षमें अवतीर्ण हुए हैं ॥७-८॥ जिसमें धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करनी है ऐसे इस भारतवर्ष में सर्वार्थसिद्धिसे अवतार लेकर उन्होंने क्षत्रियोंकी सृष्टि प्रवृत्त की है ॥९॥ वह क्षत्रियोंकी सृष्टि किस प्रकार प्रवृत्त हुई थी ? इसका समाधान यह है कि आज कर्मभूमि होनेसे प्रजा दो प्रकारकी पायी जाती है। उनमें एक प्रजा तो वह है जिसकी रक्षा करनी चाहिए और दूसरी वह है जो रक्षा करने में तत्पर है ॥१०॥ जो प्रजाको रक्षा करनेमें तत्पर है उसीकी वंशपरम्पराको क्षत्रिय कहते हैं यद्यपि यह वंश अनादिकालको सन्ततिसे बीज वृक्षके समान अनादि कालका है तथापि १ सभामध्ये । २ निविष्टो ल०, म०। ३ क्षत्रियसंबन्धि । ४ मिलितान् । ५ सर्व-प०, ल०, म०। ६ भव प० । ७ श्रुत्वा । ८ श्रूयताम् । ९ क्षत्रशब्द । १० क्षेत्रम् । ११ पूर्वस्मिन् । १२ आश्रितः । १३ कृतावतारेण इ०, स०, अ० । १४ रक्षितुं योग्या। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ आदिपुराणम् विशेषतस्तु तत्सर्गः क्षेत्रकालव्यपेक्षया । तेषां समुचिताचारः प्रजार्थे न्यायवृत्तिता ॥१२॥ स तु न्यायोऽनतिक्रान्त्या धर्मस्यार्थसमर्जनम् । रक्षणं वर्धनं चास्य पात्रे च विनियोजनम् ॥१३॥ सैषा चतुष्टयी वृत्तिायः सद्भिरुदीरितः । जैनधर्मानुवृत्तिश्च न्यायो लोकोत्तरो मतः ॥१४॥ दिव्यमूत्तेरुदुत्पद्य जिनादुत्पादयजिनान् । रत्नत्रयं तु तद्योनि पास्त स्मादयोनिजाः ॥१५॥ ततो महान्वयोत्पन्ना नृपा लोकोत्तमा मताः । पथिस्थिताः स्वयं धर्ये स्थापयन्तः परानपि ॥१६॥ तैस्तु सर्वप्रयत्नेन कार्य स्वान्वयरक्षणम् । तत्पालनं कथं कार्यमिति चेत्तदनूद्यते ॥१७॥ स्वयं महान्धयत्वेन महिनि क्षत्रियाः स्थिताः । धर्मास्थया न शेषादि ग्राह्यं तैः परलिङ्गिनाम् ॥१८॥ तच्छेषादिग्रहे दोषः कश्चेन्माहात्म्यविच्युतिः । अपाया बहवश्चास्मिन्नतस्तत्परिवर्जनम् ॥१९॥ माहात्म्यप्रच्युतिस्तावत् कृत्वाऽन्यस्य शिरोनतिम् । ततः शेषाद्युपादाने स्थानिकृष्टत्वमात्मनः ॥२०॥ प्रद्विषन् परपाषण्डी विषपुष्पाणि निक्षिपेत् । यद्यस्य मूनि नन्वेवं स्यादपायो महीपतेः ॥२१॥ वशीकरणपुष्पाणि निक्षिपद्यदि मोहने । ततोऽयं मूढवद्वृत्तिरुपेयादन्यवश्यताम् ॥२२॥ तच्छेषाशीर्वचः शान्तिवचनाद्यन्यलिङ्गिनाम् । पार्थिवैः परिहर्तव्यं भवेन्न्यक कुलताऽन्यथा ॥२३॥ विशेषता इतनी है कि क्षेत्र और कालकी अपेक्षासे उसकी सृष्टि होती है । तथा प्रजाके लिए न्यायपूर्वक वृत्ति रखना ही उनका योग्य आचरण है ॥११-१२॥ धर्मका उल्लंघन न कर धनका कमाना, रक्षा करना, बढ़ाना और योग्य पात्रमें दान देना ही उन क्षत्रियोंका न्याय कहलाता है ॥१३॥ इस चार प्रकारकी प्रवत्तिको सज्जन पुरुषोंने क्षत्रियोंका न्याय कहा है तथा जैनधर्मके अनुसार प्रवृत्ति करना संसार में सबसे उत्तम न्याय माना गया है|१४|| दिव्यमूर्तिको धारण करनेवाले श्री जिनेन्द्रदेवसे उत्पन्न होकर तीर्थ करोंको उत्पन्न करनेवाला जो रत्नत्रय है वही क्षत्रियोंकी योनि है अर्थात् क्षत्रिय पदकी प्राप्ति रत्नत्रयके प्रतापसे ही होती है। यही कारण है कि क्षत्रिय लोग अयोनिज अर्थात् बिना योनिके उत्पन्न हुए कहलाते हैं ॥१५॥ इसलिए बड़े-बड़े वंशोंमें उत्पन्न हुए राजा लोग लोकोत्तम पुरुष माने गये हैं। ये लोग स्वयं धर्ममार्गमें स्थित रहते हैं तथा अन्य लोगोंको भी स्थित रखते हैं ॥१६॥ उन क्षत्रियोंको सर्वप्रकारके प्रयत्नोंसे अपने वंशकी रक्षा करनी चाहिए। वह वंशकी रक्षा किस प्रकार करनी चाहिए यदि तुम लोग यह जानना चाहते हो तो मैं आगे कहता हूँ ॥१७॥ बड़े-बड़े वंशोंमें उत्पन्न होनेसे क्षत्रिय लोग स्वयं बड़प्पन में स्थिर हैं इसलिए उन्हें अन्यमतियोंके धर्ममें श्रद्धा रखकर उनके शेषाक्षत आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥१८॥ उनके शेषाक्षत आदिके ग्रहण करनेमें क्या दोष है ? कदाचित् कोई यह कहे तो उसका उत्तर यह है कि उससे अपने महत्त्वका नाश होता है और अनेक विघ्न या अनिष्ट आते हैं इसलिए उनका परित्याग हो कर देना चाहिए ॥१९॥ अन्य मतावलम्बियोंको शिरोनति करनेसे अपने महत्त्वका नाश हो जाता है इसलिए उनके शेषाक्षत आदि लेनेसे अपनी निकृष्टता हो सकती है ॥२०॥ सम्भव है द्वेष करनेवाला कोई पाखण्डी राजाके शिरपर विषपुष्प रख दे तो इस प्रकार भी उसका नाश हो सकता है ॥२१॥ यह भी हो सकता है कि कोई वशीकरण करनेके लिए इसके शिरपर वशीकरण पूष्प रख दे तो फिर यह राजा पागलके समान आचरण करता हुआ दूसरोंकी वश्यताको प्राप्त हो जावेगा ॥२२॥ इसलिए राजाओंको अन्यमतियोंके शेषाक्षत, आशीर्वाद और शान्तिवचन १ भरतक्षेत्रावसपिण्युत्सपिणीकाल । २-रुदाहृतः ब०, ल०, म । ३ क्षत्रियाणामुत्पत्तिस्थानम् । ४ तस्मात् कारणात् । ५ अनुकथ्यते ।-दनूच्यते प०, ल०, म०। ६ शेषाक्षतस्नानोदकादिकम् । ८ अन्यलिङ्गिनः । ९ शेषादिदातुः सकाशात् । १० मोहने निमित्त । ११ तत् कारणात् । १२ शान्तिमन्त्रपुण्याहवाचनादि । १३ नीचकूलता । १४ तच्छेषादिस्वीकारप्रकारेण । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व ३३३ 'जैनास्तु पार्थिवास्तेषामहत्पादोपसेविनाम् । तच्छेषानुमतिया॑य्या यतः पापक्षयो भवेत् ॥२४॥ रत्नत्रितयमूर्तित्वादादिक्षत्रियवंशजाः । जिनाः सनामयोऽमीषाम तस्तच्छेषधारणम् ॥२५॥ यथा हि कुलपुत्राणां माल्यं गुरुशिरोद्धतम् । मान्यमेवं जिनेन्द्राधिस्पर्शान्माल्यादिभूषितम् ॥२६॥ कथं मुनिजनादेषां शेषोपादानमित्यपि । नाशङ्कयं तत्सजातीयास्ते' राजपरमर्षयः ॥२७॥ अक्षत्रियाश्च वृत्तस्थाः क्षत्रिया एव दीक्षिताः । यतो रत्नत्रयायत्तजन्मना तेऽपि तद्गुणाः ॥२८॥ ततः स्थितमिदं जैनान्मतादन्यमतस्थिताः । क्षत्रियाणां न शेषादिप्रदानेऽधिकृता इति ॥२९॥ कुलानुपालने यत्नमतः कुर्वन्तु पार्थिवाः । अन्यथाऽन्यैः प्रतापूरन् पुराणाभासदेशनात् ॥३०॥ कुलानुपालनं प्रोक्तं वक्ष्ये मत्यनुपालनम् । मतिर्हिताहितज्ञानमात्रिकामुत्रिकार्थयोः ॥३१॥ तपालनं कथं स्याचेदविद्यापरिवर्जनात् । मिथ्याज्ञानमषिया स्यादतरवे तत्वभावना ॥३२॥ आप्तोपझं भवेत्तस्वमाप्तो दोषावृति क्षयात् । तस्मात्तम्मतमभ्यस्येन्मनोमलमपासितुम् ॥३३॥ आदिका परित्याग कर देना चाहिए अन्यथा उनके कुलमें हीनता हो सकती है ॥२३॥ राजा लोग जैन हैं इसलिए अरहन्तदेवके चरणोंकी- सेवा करनेवाले उन राजाओंको अरहन्तदेवके शेषाक्षत आदि ग्रहण करनेकी अनुमति देना न्याययुक्त हो है क्योंकि उससे उनके पापका क्षय होता है ॥२४॥ रत्नत्रयकी मूर्तिरूप होनेसे आदि क्षत्रिय श्री वृषभदेवके वंशमें उत्पन्न हुए जिनेन्द्रदेव इन राजाओंके एक ही गोत्रके भाई-बन्धु हैं इसलिए भी इन्हें उनके शेषाक्षत आदि धारण करना चाहिए । भावार्थ-रत्नत्रयकी मूर्ति होनेसे जिस प्रकार अन्य तीर्थकर भगवान् वृषभदेवके वंशज कहलाते हैं उसी प्रकार ये राजा लोग भी रत्नत्रयकी मूर्ति होनेसे भगवान वृषभदेवके वंशज कहलाते हैं । एक वंशमें उत्पन्न होनेसे ये सब परस्परमें एक गोत्रवाले भाईबन्धु ठहरते हैं इसलिए राजाओंको अपने एकगोत्री जिनेन्द्रदेवके शेषाक्षत आदिका ग्रहण करना उचित ही है ॥२५॥ जिस प्रकार कुलपुत्रोंको गुरुदेवके शिरपर धारण की हुई माला मान्य होती है उसी प्रकार जिनेन्द्रदेवके चरणोंके स्पर्शसे सुशोभित हुई माला आदि भी राजाओंको मान्य होनी चाहिए ॥२६॥ कदाचित् कोई यह कहे कि राजाओंको मुनियोंसे शेषाक्षत आदि किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए तो उनकी यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि राजर्षि और परमर्षि दोनों ही सजातीय हैं ॥२७॥ जो क्षत्रिय नहीं हैं वे भी दीक्षा लेकर यदि सम्यक्चारित्र धारण कर लेते हैं तो क्षत्रिय ही हो जाते हैं इसलिए रत्नत्रयके अधीन जन्म होनेसे मुनिराज भी राजाओंके समान क्षत्रिय माने जाते हैं ॥२८॥ उपर्युक्त उल्लेखसे यह बात निश्चित हो चुकी कि जैन मतसे भिन्न मतवाले लोग क्षत्रियोंको शेषाक्षत आदि देनेके अधिकारी नहीं हैं ॥२९।। इसलिए राजा लोगोंको अपने कुलकी रक्षा करनेमें सदा यत्न करते रहना चाहिए अन्यथा अन्य मतावलम्बी लोग झूठे पुराणोंका उपदेश देकर उन्हें ठग लेंगे ॥३०॥ इस प्रकार क्षत्रियोंका कुलानुपालन ( कुलके आम्नायकी रक्षा करना ) नामका पहला धर्म कह चुके अब दूसरा मत्यनुपालन ( बुद्धि की रक्षा करना ) नामका धर्म कहते हैं। इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी पदार्थोंके हित-अहितका ज्ञान होना बुद्धि कहलाती है ॥३१॥ उस बुद्धिका पालन किस प्रकार हो सकता है ? यदि यह जानना चाहो तो उसका उत्तर यह है कि अविद्याका नाश करनेसे ही उसका पालन होता है । मिथ्या ज्ञानको अविद्या कहते हैं और अतत्त्वोंमें तत्त्ववृद्धि होना मिथ्या ज्ञान कहलाता है ॥३२॥ जो अरहंतदेवका कहा हुआ हो वही तत्त्व १ ततः ल०, म० । २ क्षत्रियाणाम् । ३ भूषणम् । ४ क्षत्रियाणाम् । ५ तत्समानजातिभवाः । ६ मुनयः । ७ जिनगुणाः । ८ प्रतिष्ठितम् । ९ वञ्चेरन् । १० आवरण । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ आदिपुराणम् राजविद्यापरिज्ञानादैहिकेऽर्थे दृढा मतिः । धर्मशास्त्रपरिज्ञानान्मतिर्लोकद्वयाश्रिता ॥ ३४ ॥ क्षत्रियास्तीर्थमुत्पाद्य येsभूवन् परमर्षयः । ते महादेवशब्दाभिधेया माहात्म्ययोगतः ॥ ३५ ॥ आदिक्षत्रिय वृत्तस्थाः पार्थिवा ये महान्वयाः । महत्त्वानुगतास्तेऽपि महादेव प्रथां गताः ॥ ३६ ॥ तद्देव्यश्च महादेव्यो महाभिजन योगतः । महद्भिः परिणीतत्वात् प्रसूतेश्च महात्मनाम् ॥३७॥ इत्येवमस्थ पक्षे जैनैरन्यमताश्रयी । यदि कश्चित् प्रतिब्रूयान्मिथ्यात्वोपहताशयः ॥ ३८ ॥ षयमेव महादेवा जगन्निस्तारका वयम् । नास्मदाप्तात् परोऽस्त्याप्तो मतं नास्मन्मतात्परम् ॥३६॥ इत्यत्र ब्रूमहे नैतत्सारं संसारवारिधेः । यः समुत्तरणोपायः स मार्गो जिनदेशितः ॥४०॥ आप्तोऽन्वीत दोषत्वादाप्तम्मन्यास्ततोऽपरे । तेषु वागात्मभाग्यातिशयानामविभावनात् ॥४१॥ वागाद्यतिशयोपेतः सार्वः सर्वार्थदग्जिनः । स्यादाप्तः परमेष्ठी' च परमात्मा सनातनः ॥४२॥ स वागतिशयो ज्ञेयो येनायं विभुरक्रमात् । वचसैकेन दिव्येन प्रीणयत्यखिलां सभाम् ॥४३॥ . तथाssत्मातिशयोऽप्यस्य दोषावरणसंक्षयात् । अनन्तज्ञानदृग्वीर्यसुखातिशयसंनिधिः ॥ ४४ ॥ प्रातिहार्यमयी भूतिरुद्भूतिश्च सभावनेः । गणाश्च द्वादशेत्येष स्याद्भाग्यातिशयोऽर्हतः ॥ ४५ ॥ · हो सकता है और अरहन्त भी वही हो सकता है जो ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय कर्मका क्षय कर चुका हो। इसलिए अपने मनका मल दूर करनेके लिए अरहन्तदेवके मतका अभ्यास करना चाहिए ||३३|| राजविद्याका परिज्ञान होनेसे इस लोक सम्बन्धी पदार्थोंमें बुद्धि दृढ़ हो जाती है और धर्मशास्त्रका परिज्ञान होनेसे इस लोक तथा परलोक दोनों लोक सम्बन्धी पदार्थोंमें दृढ़ हो जाती है ||३४|| जो क्षत्रिय तीर्थ उत्पन्न कर परमर्षि हो गये हैं वे अपने माहात्म्यके योगसे महादेव कहलाते हैं ||३५|| बड़े - बड़े वंशों में उत्पन्न हुए जो राजा लोग आदिक्षत्रिय - भगवान् वृषभदेवके चारित्रमें स्थिर रहते हैं वे भी माहात्म्यके योगसे महादेव इस प्रसिद्धिको प्राप्त हुए हैं || ३६ | ऐसे पुरुषों की स्त्रियाँ भी बड़े पुरुषोंके साथ सम्बन्ध होनेसे, बड़े पुरुषोंके द्वारा विवाहित होनेसे और महापुरुषोंको उत्पन्न करनेसे महादेवियाँ कहलाती हैं ||३७|| इस प्रकार जैनियोंके द्वारा अपना पक्ष स्थिर कर लेनेपर मिथ्यादर्शनसे जिसका हृदय नष्ट हो रहा है ऐसा कोई अन्यमतावलम्बी पुरुष यदि कहे कि हम ही महादेव हैं, संसारसे तारनेवाले भी हम ही हैं, हमारे देवके सिवाय अन्य कोई देव नहीं है और हमारे धर्मके सिवाय अन्य कोई धर्म नहीं है || ३८ - ३९ || परन्तु इस विषय में हम यही कहते हैं कि उसका यह कहना सारपूर्ण नहीं है क्योंकि संसारसमुद्रसे तिरनेका जो उपाय है वह जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ मार्ग ही है ॥ ४० ॥ रागद्वेष आदि दोषोंसे रहित होनेके कारण एक अर्हन्तदेव ही आप्त हैं उनके सिवाय जो अन्य देव हैं वे सब आप्तम्मन्य हैं अर्थात् झूठमूठ ही अपनेको आप्त मानते हैं क्योंकि उनमें वाणी, आत्मा और भाग्यके अतिशयका कुछ भी निश्चय नहीं है ॥ ४१ ॥ जिनेन्द्र भगवान् वाणी आदिके अतिशयसे सहित हैं, सबका हित करनेवाले हैं, समस्त पदार्थोंको इसलिए वे ही आप्त हो सकते साक्षात् देखनेवाले हैं, परमेष्ठी, हैं, परमात्मा हैं और सनातन हैं हैं ॥४२॥ भगवान् अरहन्तदेव अपनी जिस एक दिव्य वाणीके द्वारा समस्त सभाको सन्तुष्ट करते हैं वही उनकी वाणीका अतिशय जानना चाहिए ||४३|| इसी प्रकार ज्ञानावरण, नावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मके अत्यन्त क्षयै हो जानेसे जो उनके अनन्त ज्ञान, दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बलकी समीपता प्रकट होती है वही उनके आत्माका अतिशय है ।। ४४ ।। तथा आठ प्रातिहार्यरूप विभूति प्राप्त होना, समवसरणभूमिकी रचना होना दर्शअनन्त १ प्रवचनम् । २ नुगमास्तेऽपि प० अ०, स०, इ०, ल०, म० । ३ महाकुल । ४ विवाहितत्वात् । ५ प्रतिज्ञाते । ६ अस्माकमाप्तात् । ७ न्याय्यम् । ८ अनिश्चयात् । ९ परमपदस्थ: । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व वागायतिशयैरेमिरन्वितोऽनन्यगोचरैः । भगवानिष्ठितार्थोऽर्हन् परमेष्ठी जगद्गुरुः ॥४६॥ न च तादृग्विधः कश्चित् पुमानस्ति मतान्तरे । ततोऽन्ययोग व्यावृत्त्या सिद्धमाप्तत्वमर्हति ॥४७॥ इत्याप्तानुमतं क्षात्रमिमं धर्ममनुस्मरन् । मतान्तरादनातीयात् स्वान्वयं विनिवर्तयेत् ॥४८॥ वृत्तादनात्मनीनाद्वीः स्यादेवमनुरक्षिता । तद्रक्षणाच्च संरक्षेत् क्षत्रियः क्षितिमक्षताम् ॥४६॥ उक्तस्यैवार्थतत्त्वस्य भूयोऽप्याविश्चिकीर्षया । निदर्शनानि वीण्यत्र वक्ष्यामस्तान्यनुक्रमात् ॥५०॥ व्यक्तये पुरुषार्थस्य स्यात् पूरुषनिदर्शनम् । तथा निगलदृष्टान्तः स संसारिनिदर्शनः ॥५१॥ ज्ञेयः पुरुषदृष्टान्तो नाम मुक्ततरात्मनोः। यन्निदर्शनभावेन मुक्त्यमुक्त्योः समर्थनम् ॥५२॥ संसारीन्द्रियविज्ञान ग्वीर्यसुखचारुताः । तन्वावासौ च निर्वेष्टुं यतते सुखलिप्सया ॥५३॥ मुक्तस्तु न तथा किन्तु गुणैरुक्कैरतीन्द्रियैः । परं सौख्यं स्वसाद्भूतमनुभुत निरन्तरम् ॥५४॥ "तत्रैन्द्रियकविज्ञानः स्वल्पज्ञानतया स्वयम् । परं शास्त्रोपयोगाय श्रयति ज्ञानवित्तकम् ॥१५॥ तथैन्द्रियकहकशक्तिः आत्माग्भिागदर्शनः । अर्थानां विप्रकृष्टानां" भवेत् संदर्शनोत्सुकः ॥५६॥ तथैन्द्रियिकवीर्यश्च सहायापेक्षयेप्सितम् । कार्य घटयितुं वान्छेत् स्वयं तत्साधनाक्षमः ॥५७॥ तत्रैन्द्रियसुखी कामभोगैरत्यन्तमुन्मनाः । वान्छेत् सुखं पराधीनमिन्द्रियार्थानुतर्षतः ॥५८॥ और बारह सभाएं होना यह सब अरहन्तदेवके भाग्यका अतिशय है ॥४५॥ जो किन्हीं दूसरोंमें न पाये जानेवाले इन वाणी आदिके अतिशयोंसे सहित हैं तथा कृतकृत्य हैं ऐसे भगवान् अरहन्त परमेष्ठी ही जगत्के गुरु हैं ॥४६।। अन्य किसी भी मतमें ऐसा-अरहन्तदेवके समान कोई पुरुष नहीं है इसलिए अन्य योगको व्यावृत्ति होनेसे अरहन्तदेवमें ही आप्तपना सिद्ध होता है ॥४७॥ इस प्रकार आप्तके द्वारा कहे हुए इस क्षात्रधर्मका स्मरण करते हुए क्षत्रियोंको अनाप्त पुरुषोंके द्वारा कहे हुए अन्य मतोंसे अपने वंशको पृथक् करना चाहिए ॥४८॥ इस प्रकार जिनमें आत्माका हित नहीं है ऐसे आचरणसे अपनी बुद्धिकी रक्षा की जा सकती है और बुद्धिकी रक्षासे ही क्षत्रिय अखण्ड पृथिवीकी रक्षा कर सकता है ॥४६॥ ऊपर जो पदार्थका स्वरूप कहा है उसीको फिर भी प्रकट करनेकी इच्छासे यहाँपर क्रमानुसार तीन उदाहरण कहते हैं ॥५०॥ अपना पुरुषार्थ प्रकट करनेके लिए पहला पुरुषका दृष्टान्त है, दूसरा निगल अर्थात् बेड़ीका दृष्टान्त है और तीसरा संसारी जीवोंका दृष्टान्त है ॥५१।। जिस उदाहरणसे मुक्त और कर्मबन्ध सहित जीवोंके मोक्ष और बन्ध दोनों अवस्थाओंका समर्थन किया जावे उसे पुरुषका दृष्टान्त अथवा उदाहरण जानना चाहिए ॥५२॥ यह संसारी जीव सुख प्राप्त करनेकी इच्छासे इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख और सुन्दरताको शरीररूपी घरमें हो अनुभव करनेका प्रयत्न करता है ॥५३॥ परन्तु मुवत जीव ऐसा नहीं करता वह तो ऊपर कहे हुए अतीन्द्रिय गुणोंसे अपने स्वाधीन हुए परम सुखका निरन्तर अनुभव करता रहता है ॥५४।। इनमें-से ऐन्द्रियिक ज्ञानवाला संसारी जीव स्वयं अल्पज्ञानी होनेसे शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए ज्ञानका चिन्तवन करनेवाले अन्य पुरुषोंका आश्रय लेता है ॥५५।। इसी प्रकार जिसके इन्द्रियोंसे देखनेकी शक्ति है ऐसा पुरुष अपने समीपवर्ती कुछ पदार्थों को ही देख सकता है इसलिए वह दूरवर्ती पदार्थों को देखनेके लिए सदा उत्कण्ठित होता रहता है ॥५६॥ जिसके इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ वीर्य है वह किसी इष्ट कार्यको स्वयं करनेमें असमर्थ होकर उसे दूसरेकी सहायताकी अपेक्षासे करना चाहता है ॥५७॥ तथा जिसके इन्द्रियजनित सुख है ऐसा पुरुष काम भोगादिकोंसे १ अन्येषु वागाद्यतिशययोगाभावात् । २ जिने । ३ आप्ताभावप्रोक्तात् । ४ अनात्महितादपसार्य । ५ देहालयो। ६ अनुभवितुम् । ७ इन्द्रियानिन्द्रियज्ञानिनोर्मध्ये । ८-चित्तकम् प० । चिन्तकम् ल०, म० । ९ इन्द्रियजनितदर्शनशक्तिमान् । १० वस्तुनि द्विधाप्रविभक्ते आसन्नभागदर्दनः । ११ दूरवर्तिनाम् । १२ समुत्कण्ठः । १३ विषयवाञ्छया। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ आदिपुराणम् तथैन्द्रियिकसौन्दर्यः स्नानमाल्यानुलेपनैः । विभूषणैश्च सौन्दर्य संस्कर्तुमभिलष्यति ॥७९॥ दोषधातुमलस्थानं देहमैन्द्रियिकं वहन् । पुमान्विष्वाण भैषज्यतदक्षास्वाकुलो भवेत् ॥६०॥ दोषान्पश्यश्च जात्यादीन् देहातस्त ज्जिहासया । प्रेक्षाकारी तपः कर्तुं प्रयस्यति यदा कदा ॥६॥ स्वीकुर्वन्निन्द्रियावासं सुखमायुश्च तद्गतम् । आवासान्तरमन्विच्छेत् प्रेक्षमाणः प्रणश्वरम् ॥६२॥ यस्त्वतीन्द्रियविज्ञानदृग्वीर्यसुखसंततिः । शरीरावाससौन्दर्यैः स्वात्मभूतैरधिष्टितः ॥६३॥ तस्योक्तदोषसंस्पर्शी भवेन्नैव कदाचन । 'तद्वानाप्तस्ततो ज्ञेयः स्यादनाप्तस्त्वतद्गुणः ॥६॥ रफुटीकरणमस्यैव वाक्यार्थस्याधुनोच्यते । यतोऽनाविष्कृतं तत्त्वं तत्त्वता नावबुध्यते ॥६५॥ तद्यथाऽतीन्द्रियज्ञानः शास्त्रार्थ न परं श्रयेत् । शास्ता स्वयं त्रिकालज्ञः केवलामललोचनः ॥६६॥ तथाऽतीन्द्रियहगार्थी स्यादपूर्वार्थदर्शने । तेनादृष्टं न वै किंचिगपद्विश्वदृश्वना ॥६७॥ नायिकानन्तवीर्यश्च नान्यसाचि न्यमीक्षते । कृतकृत्यः स्वयं प्राप्तलोकानशिखरालयः ॥६॥ अत्यन्त उत्कण्ठित होता हुआ इन्द्रियोंके विषयोंकी तृष्णासे पराधीन सुखकी इच्छा करता है ॥५८।। इसी प्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाली सुन्दरतासे युक्त पुरुष स्नान, माला, विलेपन और आभूषण आदिसे अपनी सुन्दरताका संस्कार करना चाहता है। भावार्थ-आभूषण आदि 'धारण कर अपने शरीरकी सुन्दरता बढ़ाना चाहता है ॥५६॥ दोष, धातु और मलके स्थान स्वरूप इस इन्द्रिजनित शरीरको धारण करता हुआ पुरुष भोजन और औषधि आदिके द्वारा उसकी रक्षा करनेमें सदा व्याकुल रहता है ॥६०॥ जन्म मरण आदि अनेक दोषोंको देखता हुआ और शरीरसे दुःखी हुआ कोई विचारवान् पुरुष जब उसे छोड़नेकी इच्छासे तप करनेका प्रयास करता है तब वह इन्द्रियोंके निवास स्वरूप शरीरको, उससे सम्बन्ध रखनेवाले सुख और आयुको भी स्वीकार करता है और अन्त में उसे भी नष्ट होता हुआ देखकर दुसरे ऐन्द्रियिक निवासकी इच्छा करता है । भावार्थ-तपश्चरण करनेका इच्छुक पुरुष यद्यपि शरीरको हेय समझकर छोड़ना चाहता है परन्तु साधन समझकर उसे स्वीकार करता है और जबतक इष्टमोक्षकी प्राप्ति नहीं हो जाती तबतक प्रथम शरीरके जर्जर हो जानेपर द्वितीय शरीरकी इच्छा करता रहता है ॥६१-६२॥ परन्तु जिसके अतीन्द्रिय ज्ञान, अतीन्द्रिय दर्शन, अतीन्द्रिय बल और अतीन्द्रिय सुखकी सन्तान है और जो अपने आत्मस्वरूप शरीर, आवास तथा सुन्दरता आदिसे सहित है उसके ऊपर कहे हुए दोषोंका स्पर्श कभी नहीं होता है, इसलिए जिसके अतीन्द्रिय ज्ञान, वीर्य और सुखको सन्तान है उसे ही आप्त जानना चाहिए और जिसके उक्त गुण नहीं हैं उसे अनाप्त समझना चाहिए ॥६३-६४॥ अब आगे इसी वाक्यार्थका स्पष्टीकरण करते हैं क्योंकि जबतक किसी पदार्थका स्पष्टीकरण नहीं हो जाता है तबतक उसका ठीकठोक ज्ञान नहीं होता है ॥६५॥ जिसके अतीन्द्रिय ज्ञान है ऐसा पुरुष किसी दूसरे शास्त्रके अर्थका आश्रय नहीं लेता, किन्तु केवलज्ञानरूपी निर्मल नेत्रोंको धारण करनेवाला और तीनों कालोंके सब पदार्थोंको जाननेवाला वह स्वयं सबको उपदेश देता है ॥६६।। इसी प्रकार जिसके अतीन्द्रिय दर्शन हैं ऐसा जीव कभी अपूर्व पदार्थके देखनेकी इच्छा नहीं करता क्योंकि जो एक साथ समस्त पदार्थोंको देखता है उसका न देखा हुआ कोई पदार्थ भी तो नहीं है ॥६७॥ जिसके क्षायिक अनन्तवीर्य है वह पुरुष भी किसी अन्य जीवकी सहायता नहीं चाहता किन्तु १ आहार । २ देहरक्षणम् । ३ उत्पत्त्यादीन् । ४ शरीरपीडितः । ५ तत्त्यागेच्छया। ६ समीक्ष्यकारी । ७ प्रयत्नं करोति । ८ इन्द्रियसुखहेतुप्रासादिकम् । ९ विचास्यन् । १० स्पर्शनम् । ११ अतीन्द्रियविज्ञानादिमान् । १२ ततः कारणात् । १३ अतीन्द्रियेत्यादिश्लोकद्वयार्थस्य । १४ निश्चयेन । १५ शास्त्रनिमित्तम् । १६ अन्यसहायत्वम् । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व ३३७ । अतीन्द्रियसुखोऽप्यात्मा स्याद्भोगैरुत्सुको न वै । भोग्यवस्तुगता चिन्ता जायते नास्य जात्वतः ॥ ६६ ॥ प्राप्तातीन्द्रिय सौन्दर्यो नेच्छेत्स्नानादिसत्क्रियाम् । स्नातको नित्यशुद्धात्मा वहिरन्तमलक्षयात् ॥७०॥ 'अतीन्द्रियात्मदेहश्च नाहारादीनपेक्षते । क्षुद्व्याधिविषशस्त्रादिबाधातीततनुः स वै ॥ ७१ ॥ भवेच्च न तपःकामो वीतजातिजरामृतिः । नावासान्तरमन्विच्छेदात्मवासे च सुस्थितः ॥ ७२ ॥ स एवमखिलैर्मुक्तो युक्तोऽखिलैर्गुणैः । परमात्मा परं ज्योतिः परमेष्ठीति गीयते ॥ ७३ ॥ कामरूपित्वमाप्तस्य लक्षणं चेन्न साम्प्रतम् । सरागः कामरूपी स्यादकृतार्थश्च सोऽञ्जसा ॥७४॥ प्रकृतिस्थेन रूपेण प्राप्तुं यो नालमीप्सितम् । स बैकृतेन रूपेण कामरूपी कथं सुखी ॥ ७५ ॥ इति पुरुषनिदर्शनम् । निगलस्थो' यथानेष्टं गन्तुं देशमलंतराम् । कर्मबन्धनबद्धोऽपि नेष्टं धाम तथेयात् ॥७६॥ यथेह बन्धनान्मुक्तः परं स्वातन्त्र्यमृच्छति । कर्मबन्धनमुक्तोऽपि तथोपाच्छेत् स्वतन्त्रताम् ॥ ७७ ॥ निगलस्थो विपाशश्च स एवैकः पुमान्यथा । कर्मबद्धो विमुक्तश्च स एवात्मा मतस्तथा ॥७८॥ इति निगलनिदर्शनम् । मुक्तरात्मनोर्व्यक्त्यै द्वयमेतन्निदर्शितम् । तद्दृढीकरणायेष्टं सत्संसारिनिदर्शनम् ॥७९॥ वह स्वयं कृतकृत्य होकर लोकके अग्र शिखरपर सिद्धालय में जा पहुँचता है ||६८ || इसी - प्रकार अतीन्द्रिय सुखको धारण करनेवाला पुरुष भी भोगोंसे उत्कण्ठित नहीं होता, क्योंकि उसे भोग करने योग्य वस्तुओंकी चिन्ता ही कभी नहीं होती है || ६९ || जिसे अतीन्द्रिय सौन्दर्य प्राप्त हुआ है वह भी कभी स्नान आदि क्रियाओंको इच्छा नहीं करता, क्योंकि बहिरंग और अन्तरंग मलका क्षय हो जानेसे वह स्वयं स्नातक कहलाता है और उसका आत्मा निरन्तर शुद्ध रहता है || ७० ॥ इसी प्रकार जिसके अतीन्द्रिय आत्मा ही शरीर है वह आहार आदिकी अपेक्षा नहीं करता क्योंकि उसका आत्मारूप शरीर क्षुधा, व्याधि, विष और शस्त्र आदिकी बाधा रहित होता है ॥ ७१ ॥ जिसके जन्म, जरा और मरण नष्ट हो चुके हैं वह कभी तपकी इच्छा नहीं करता तथा जो आत्मारूपी घरमें सुखसे स्थित रहता है इच्छा नहीं करता ॥ ७२ ॥ इस प्रकार जो समस्त दोषोंसे रहित है, समस्त गुणोंसे सहित है, परमात्मा है और उत्कृष्ट ज्योति स्वरूप है वही परमेष्ठी कहलाता है || ७३ || कदाचित् आप यह कहें कि कामरूपित्व अर्थात् इच्छानुसार अनेक अवतार धारण करना आप्तका लक्षण है तो आपका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो कामरूपी होता है वह अवश्य ही रागसहित = तथा अकृतकृत्य होता है ||७४ || जो स्वाभाविक रूपसे अपना इष्ट प्राप्त करने के लिए समर्थ - नहीं है वह कामरूपी विकृत रूपसे कैसे सुखी हो सकता है ? ||७५ || यह पुरुषका उदाहरण कहा, अब निगलका उदाहरण कहते हैं । वह कभी दूसरे आवासकी अपने इष्ट स्थानपर नहीं जिस प्रकार निगल अर्थात् बेड़ीमें बँधा हुआ जीव अपने इष्ट स्थानपुर जानेके लिए समर्थ नहीं होता है उसी प्रकार कर्मरूप बन्धनसे बँधा हुआ जीव भी पहुँच सकता ॥ ७६ ॥ जिस प्रकार इस लोकमें बन्धनसे छूटा हुआ पुरुष परम स्वतन्त्रताको प्राप्त होता है उसी प्रकार कर्मबन्धनसे छूटा हुआ पुरुष भी स्वतन्त्रताको प्राप्त होता है ||७७ || और जिस प्रकार बेड़ी से बँधा हुआ तथा बेड़ीसे छूटा हुआ पुरुष एक ही माना जाता है उसी प्रकार कर्मोंसे बँधा हुआ तथा कर्मोंसे छूटा हुआ पुरुष भी एक ही माना जाता है ॥ ७८ ॥ यह निगलका उदाहरण है, इस प्रकार मुक्त और संसारी आत्माओं को प्रकट करने के लिए ये दो १ युक्तम् । २ स्वभावस्थेन । ३ अशक्तः । ४ विकारजेन । ५ शृङ्खलाबन्धनस्थ: । ६ स्थानम् । ७ गच्छेत् । ८ गच्छेत् । ९ - दर्शनम् प०, ल० म० । १० पुरुषार्थ वृद्धिकरणाय । ४३ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ आदिपुराणम् यत्संसारिणमात्मानमूरीकृत्यान्यतन्त्रताम् । तस्योपदेशे मुक्तस्य स्वातन्त्र्योपनिदर्शनम् ॥८॥ मतः संसारिदृष्टान्तः सोऽयमाप्तीयदर्शने । मुक्तात्मनां भवेदेवं स्वातन्त्र्यं प्रकटीकृतम् ॥८१॥ तद्यथा संसृतौ देही न स्वतन्त्रः कथंचन । कर्मबन्धवशीभावाजीवत्यन्याश्रितश्च यत् ॥४२॥ ततः परप्रधानत्वमस्यैनत् प्रतिपादितम् । स्याच्चलत्वं च पुंसोऽस्य वेदनासहनादिभिः ॥३॥ वेदनाव्याकुलीभावश्चलत्वमिति लक्ष्यताम् । क्षयवत्वं च देवादिभवे लब्धद्धिसंक्षयात् ॥८॥ बाध्यत्वं ताडनानिष्टवचनप्राप्तिरस्य वै । अन्तवञ्चास्य' विज्ञानमक्षबोधः परिक्षयी” ॥४५॥ अन्तवदर्शनं चास्य स्यादेन्द्रियिकदर्शनम् । वीर्य च तद्विधं तस्य शरीरबलमल्पकम् ॥८६॥ स्यादस्य "सुखमप्येवम्प्रायमिन्द्रियगोचरम् । 'रजस्वलत्वमप्यस्य स्यात्काशैः कलङ्कनम् ।।८७।। भवेत् कर्ममलावेशादत एव मलीमसः । छेद्यत्वं चास्य गात्राणां द्विधाभावेन खण्डनम् ।।८८।। मुद्गराद्यमिघातेन भेद्यत्वं स्याद् विदारणम् । जरावत्त्वं वयोहानिः प्राणत्यागो मृतिर्मता ।।८९॥ प्रमेयत्वं "परिच्छिन्नदेहमात्रावरुद्धता । गर्भवासोऽर्भकत्वेन जनन्युदरदुःस्थितिः ॥९०।। उदाहरण कहे, अब उक्त कथनको दृढ़ करनेके लिए संसारी जीवोंका उदाहरण कहना चाहिए ॥७९॥ संसारी जीवोंको लेकर जो उनकी परतन्त्रताका कथन करना है उनकी उसी परतन्त्रताके. उपदेशमें मुक्त जीवोंको स्वतन्त्रताका उदाहरण हो जाता है। भावार्थ-संसारी जीवोंकी परतन्त्रताका वर्णन करनेसे मुक्त जीवोंकी स्वतन्त्रताका वर्णन अपने आप हो जाता है क्योंकि संसारी जीवोंकी परतन्त्रताका अभाव होना ही मुक्त जीवोंकी स्वतन्त्रता है ।।८०॥ अरहन्त देवके मतमें संसारीका उदाहरण वही माना गया है कि जिसमें मुक्त जीवोंकी स्वतन्त्रता प्रकट हो सके ॥८१।। आगे इसी उदाहरणको स्पष्ट करते हैं-संसारमें यह जीव किसी प्रकार स्वतन्त्र नहीं है क्योंकि कर्मबन्धनके वश होनेसे यह जीव अन्यके आश्रित होकर जीवित रहता है ॥८२॥ यह संसारी जीवकी परतन्त्रता बतलायी, इसी प्रकार सुख-दुःख आदिकी वेदनाओंके सहनेसे इस पुरुषमें चंचलता भी होती है ॥८३॥ सुख-दुःख आदिकी वेदनाओंसे जो व्याकुलता उत्पन्न होती है उसे चंचलता समझना चाहिए और देव आदिकी पर्यायमें प्राप्त हुई ऋद्धियोंका जो क्षय होता है उससे इस जीवके क्षयपना ( नश्वरता ) जानना चाहिए ॥८४।। इस जीवको जो ताड़ना तथा अनिष्ट वचनोंकी प्राप्ति होती है वही इसकी बाध्यता है और इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान क्षय होनेवाला है इसलिए वह अन्तसहित है ॥८५। इसका दर्शन भी इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है इसलिए वह भी अन्तसहित है और इसका वीर्य भी वैसा ही है अर्थात् अन्तसहित है क्योंकि इसके शरीरका बल अत्यन्त अल्प है ॥८६॥ इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला इसका सुख भी प्रायः ऐसा ही है तथा कर्मोके अंशोंसे जो कलंकित हो रहा है वही इसका मैलापन है ॥८७॥ कर्मरूपी मलके सम्बन्धसे मलिन भी है और शरीरके दो-दो टुकड़े होनेसे इसमें छेद्यत्व अर्थात् छिन्न-भिन्न होनेकी शक्ति भी है ॥८॥ मुद्गर आदिके प्रहारसे इसका शरीर विदीर्ण हो जाता है इसलिए इसमें भेद्यत्व भी है, जो इसकी अवस्था कम होती जाती है वही इसका बुढ़ापा है, और जो प्राणोंका परित्याग होता है वह इसकी मृत्यु है ॥८६॥ यह जो परिमित १ पराधीनत्वमिति यत् । २ परतन्त्रस्य । ३ सर्वज्ञमते । ४ एव च सति । ५ यत् कारणात् । ६ संसारिणः । ७ वेदनाभवनादिभिः । ८ लक्षणम् इ० । ९ क्षयोऽस्यास्तीति क्षयवान् तस्य भावः क्षयवत्त्वम् । १० देवाधिभवे ट० । देवाधित्वे । ११ अन्तोऽस्यास्तीति अन्तवत् । १२ इन्द्रियज्ञानम् । १३ स्वयं परिक्षयित्वादिति हेतुर्भितविशेषणमेतत् । एवमुत्तरोत्तराऽपि योज्यम् । १४ एवंविधम् । अन्तवदित्यर्थः । १५ धूलिधूसरत्वम् । १६ प्रमातुं योग्यत्वम् । १७ परिमित । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व अथवा कर्मनोकर्मगर्मेऽस्य परिवर्तनम् । गर्भवासो विलीनत्वं स्याद् देहान्तरसंक्रमः ॥९१॥ क्षुभितत्वं च संक्षोभः क्रोधाद्याविष्टचेतसः । भवेद् विविधयोगोऽस्य नानायोनिषु संक्रमः ॥१२॥ संसारावास एषोऽस्य चतुर्गतिविवर्तनम् । प्रतिजन्मान्यथाभावो ज्ञानादीनामसिद्धता ॥१३॥ सुखासुखं बलाहारौ देहावासौ च देहिनाम् । विवर्तन्ते तथा ज्ञानं दृकशक्ती च रजोजुषाम् ॥१४॥ एवंप्रायास्तु ये भावाः संसारिषु विनश्वराः । मुक्तात्मनां न सन्त्येते भावास्तेषां ह्यनश्वराः ॥१५॥ मुक्तात्मनां भवेद् भावः स्वप्रधानत्वमग्रिमम् । प्रतिलब्धात्मलाभत्वात् परद्रव्यानपेक्षणम् ॥१६॥ वेदनाभिभवाभावादचलत्वं गभीरता । स्यादक्षयत्वमक्षय्यं क्षायिकातिशयोदयः ॥९७॥ अन्याबाधत्वमस्येष्टं जीवाजीवैर बाध्यता । भवेदनन्तज्ञानत्वं विश्वार्थाक्रमबोधनम् ॥९॥ अनन्तदर्शनत्वं च विश्वतत्त्वा क्रमेक्षणम् । योऽन्यैरप्रतिघातोऽस्य सा मतानन्तवीर्यता ॥१९॥ भोग्येप्वर्थेष्वनौत्सुक्यमनन्तसुखता मता । नीरजस्त्वं भवेदस्य व्यपायः पुण्यपापयोः ॥१०॥ निर्मलत्वं तु तस्येष्टं बहिरन्तर्मलच्युतिः । स्वभावविमलोऽनादिसिद्धो नास्तीह कश्चन ॥१०॥ योऽस्य जीवघनाकारपरिणामो मलक्षयात् । तदच्छेद्यत्वमाम्नातमभेद्यत्वं च तत्कृतम् ॥१०२॥ अक्षरत्वं च मुक्तस्य क्षरणामावतो मतम् । अप्रमेयत्वमात्मोत्थैर्गुणैरुद्धरमेयता ॥१०३।। शरीरमें रुका रहता है वह इसका प्रमेयपना है और जो बालक होकर माताके पेटमें दुःखसे रहता है वह इसका गर्भवास है ॥६०॥ अथवा कर्म नोकर्मरूपी गर्भमें जो इसका परिवर्तन होता रहता है इसका गर्भवास है और एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जो संक्रमण करना है वह विलीनता है ॥९१॥ क्रोध आदिसे आक्रान्त चित्तमें जो क्षोभ उत्पन्न होता है वह इसका क्षुभितपना है, और नाना योनियोंमें परिभ्रमण करना इसका विविध योग कहलाता है ॥१२॥ चारों गतियोंमें परिवर्तन करते रहना इस जीवका संसारावास कहलाता है और प्रत्येक जन्ममें ज्ञानादि गुणोंका अन्य-अन्य रूप होते रहना असिद्धता कहलाती है ॥९३॥ कर्मरूपी रजसे युक्त रहनेवाले इन संसारी जीवोंके जिस प्रकार सुख-दुःख, बल, आहार, शरीर और घर बदलते रहते हैं उसी प्रकार उनके ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य भी बदलते रहते हैं ॥१४॥ इस प्रकार संसारी जीवोंके जो विनश्वरभाव हैं वे मुक्त जीवोंके नहीं हैं, उनके सब भाव अविनश्वर हैं ॥६५॥ मुक्त जीवोंके उन भावोंमें आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होनेसे परद्रव्यकी अपेक्षासे रहित जो सर्वश्रेष्ठ स्वतन्त्रपना है वही पहला भाव है ॥६६॥ सुख दुःख आदिकी वेदनासे होनेवाले परभावका अभाव होनेसे जो अचंचलता होती है वही उनकी गम्भीरता है और कर्मों के क्षयसे जो अति- : शयोंकी प्राप्ति होती है वही उनका अविनाशी अक्षयपना है ॥९७॥ किसी भी जीव अथवा अजीवसे इन्हें बाधा नहीं पहुँचती यही इनका अव्याबाधपना है और संसारके समस्त पदार्थोंको एक साथ जानते हैं यही इनका अनन्तज्ञानीपन है ॥१८॥ समस्त तत्त्वोंको एक साथ देखना ही इनका अनन्तदर्शनपन है और अन्य पदार्थोंके द्वारा प्रतिघातका न होना अनन्तवीर्यपना है ॥६६॥ भोग करने योग्य पदार्थों में उत्कण्ठा न होना अनन्तसुखपना माना जाता है और पुण्य तथा पापका अभाव हो जाना नीरजसपन कहलाता है ॥१००॥ बहिरंग और अन्तरंग मलका नाश होना ही इसका निर्मलपना कहलाता है क्योंकि इस संसारमें ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जो स्वभावसे ही निर्मल हो और अनादि कालसे सिद्ध हो ॥१०१॥ कर्मरूपी मलके नाश होनेसे जो जीवके प्रदेशोंका घनाकार परिणमन होता है वही इसका अच्छेद्यपना है और उसी कर्मरूपी मलके नाश होनेसे इसके अभेद्यपना माना जाता है ॥१०२।। मुक्त जीवका १ दृक् च शक्तिश्च दृकशक्ती। २ कर्मफलभाजाम् । ३ एवमादयः । ४ स्वभावः । ५ चेतनाचेतनैः । ६ युगपत् । ७ परिणमनम्। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० आदिपुराणम् बहिरन्तर्मलापायादगर्भवसतिर्मता । कर्मनोकर्मविश्लेषात् स्यादगौरवलाघवम् ॥१०॥ तादवस्थ्यं गुणैरुदै रक्षोभ्य त्वमतो भवेत् । अविलीनत्वमात्मीयैर्गुणैरप्यवपृकता ॥१०॥ प्राग्देहाकारमूर्तित्वं यदस्याहेयमक्षरम् । साऽभीष्टा परमा काष्टा योगरूपत्वमात्मनः ॥१०६॥ लोकापवासस्त्रैलोक्यशिखरे शाश्वती स्थितिः । अशेषपुरुषार्थानां निष्टा परमसिद्धता ॥१०७॥ यः समग्रैर्गुणैरेमिर्ज्ञानादिमिरलंकृतः । किं तस्य कृतकृत्यस्य परद्रव्योपसर्पणैः ॥१०॥ एष संसारिदृष्टान्तो व्यतिरेकेण साधयेत् । परमात्मानमात्मानं प्रभुमप्रतिशासनम् ॥१०९॥ त्रिभिनिदर्शनैरेमिराविष्कृतमहोदयः । स आप्तस्तन्मते धीरैराधेया मतिरात्मनः ॥११०॥ "एवं हि क्षत्रियश्रेष्ठो भवेद् दृष्टपरम्परः । मतान्तरेषु दौःस्थित्यं भावयन्नपपत्तिभिः ॥१११॥ दिगन्तरेभ्यो ब्यावर्त्य प्रबुद्धां मतिमात्मनः । सन्मार्ग स्थापयन्नेवं कुर्यान्मत्यनुपालनम् ॥११२॥ आत्रिकामुत्रिकापायात् परिरक्षणमात्मनः । आत्मानुपालनं नाम तदिदानी विवृण्महे ॥११३॥ आधिकापायसंरक्षा सुप्रतीतैव धीमताम् । विषशस्त्राद्यपायानां परिरक्षणलक्षणा ॥११॥ कभी क्षरण अर्थात् विनाश नहीं होता इसलिए इसमें अक्षरता अर्थात् अविनाशीपन है और आत्मासे उत्पन्न हुए श्रेष्ठ युगोंसे इसका प्रमाण नहीं किया जा सकता इसलिए इसमें अप्रमेयपना है ॥१०३॥ बहिरंग और अन्तरंग मलका नाश हो जानेसे इसका गर्भावास नहीं माना जाता है और कर्म तथा नोकर्मका नाश हो जानेसे इसमें गुरुता और लघुता भी नहीं होती है ॥१०४॥ यह आत्मासे उत्पन्न हुए प्रशंसनीय गुणोंसे अपने स्वरूप में अवस्थित रहता है इसलिए इसमें अक्षोम्यपना है और आत्माके गुणोंसे कभी रहित नहीं होता इसलिए अविलीनपना है ॥१०५॥ जो कभी न छूटने योग्य और कभी न नष्ट होने योग्य पहलेके शरीरके आकार इसकी मूर्ति रहती है वही इसकी परम हद्द है और वही इसकी योगरूपता है ॥१०६॥ तीनों लोकोंके शिखरपर जो इसकी सदा रहनेवाली स्थिति है वही इसका लोकाग्रवास गुण है और जो समस्त पुरुषार्थोकी पूर्णता है वही इसकी परमसिद्धता है ॥१०७॥ इस प्रकार जो इन ज्ञान आदि समस्त गुणोंसे अलंकृत है उस कृतकृत्य हुए मुक्त जीवको अन्य द्रव्योंकी प्राप्तिसे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥१०८॥ यह संसारो जीवका दृष्टान्न व्यतिरेक रूपसे आत्माको, जिसपर किसीका शासन नहीं है और जो प्रभुरूप है ऐसा परमात्मा सिद्ध करता है । भावार्थइस संसारी जीवके उदाहरणसे यह सिद्ध होता है कि यह आत्मा ही परमात्मा हो जाता है ॥१०९।। इस प्रकार इन तीन उदाहरणोंसे जिसका महोदय प्रकट हो रहा है वही आप्त है, उसी आप्तके मतमें धीर-वीर पुरुषोंको अपनी बुद्धि लगानी चाहिए ॥११०॥ इस तरह जिसने सब परम्परा देख ली है, और जो अन्य मतोंमें युक्तियोंसे दुष्टताका चिन्तवन करता है वही सब क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ कहलाता है ॥१११॥ क्षत्रियको चाहिए कि वह अपनी जागृत बुद्धिको अन्य दिशाओं अर्थात् मतोंसे हटाकर समीचीन मार्गमें लगाता हुआ उसकी रक्षा करे ॥११२॥ इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी अपायोंसे आत्माकी रक्षा करना आत्माका पालन करना कहलाता है । अब आगे इसी आत्माके पालनका वर्णन करते हैं ॥११३॥ विष शस्त्र आदि अपायोंसे अपनी रक्षा करना ही जिसका लक्षण है ऐसी इस लोकसम्बन्धी अपायोंसे १ अगुरुलघुत्वम् । २ स्वरूपावस्थानम् । ३ न केवलं देहादिभिः । ज्ञानादिगुणैरपि । ४ अत्यक्तता। -रप्यपवृत्तता। 'अपवृत्तता' इति पाठे अपवर्तनत्वं गुणगुणीभावरहित्यम् । ५ निष्पत्तिः । परिसमाप्तिरित्यर्थः । ६ व्यतिरेकिदृष्टान्तेन । ७ एवं कृते सति । ८-न्नेव इ०, ल०, म० । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व . ३४१ 'तत आमुत्रिकापायरक्षाविधिरनूद्यते । तद्रक्षणं च धर्मेण धर्मो ह्यापत्प्रतिक्रिया ॥११५॥ धर्मो रक्षत्यपायेभ्यो धर्माऽभीष्टफलप्रदः । धर्मः श्रेयस्करोऽमुत्र धर्मेणेहाभिनन्दथुः ॥११६॥ तस्माद्धमैकतानः सन् कुर्यादेष्यत्प्रतिक्रियाम् । एवं हि रक्षितोऽपायाद् भवेदात्मा भवान्तरे ॥११७॥ .. बह्वपायमिदं राज्यं त्याज्यमंव मनस्विनाम् । यत्र पुत्राः ससोदर्या वैरायन्ते निरन्तरम् ॥११८॥ अपि चात्र मनःखेदबहुले का सुखासिका । मनसो निर्वृतिं सौख्यमुशन्तीह विचक्षणाः ॥११९॥ राज्ये न सुखलेशोऽपि दुरन्ते दुरितावहे । सर्वतः शङ्कमानस्य प्रत्युतानासुखं महत् ॥१२०॥ ततो राज्यमिदं हेयमपथ्यमिव भेषजम् । उपादेयं तु विद्वद्भिस्तपः पथ्यमिवाशनम् ॥१२॥ इति प्रागेव निर्विद्य राज्ये भोगं त्यजेत् सुधीः । तथा त्यक्तुमशक्तोऽन्ते त्यजेद् राज्यपरिच्छदम् ॥१२२॥ कालज्ञानिभिरादिष्टे निर्णीत स्वयमेव वा । जीवितान्ते तनुत्यागमतिं दध्यादतः सुधीः ॥१२३॥ त्यागो हि परमो धर्मस्त्याग एव परं तपः । त्यागादिह यशोलाभः परत्राभ्युदयो महान् ॥१२॥ मत्वेति तनुमाहारं राज्यं च सपरिच्छदम् । त्यजेदायतने पुण्ये पूजाविधिपुरस्सरम् ॥१२५॥ . होनेवाली रक्षा तो विद्वान् पुरुषोंको विदित ही है। ॥११४।। इसलिए अब परलोक सम्बन्धी अपायोंसे होनेवाली रक्षाकी विधि कहते हैं। परलोक सम्बन्धी अपायोंसे रक्षा धर्मके द्वारा ही हो सकती है क्योंकि धर्म ही समस्त आपत्तियोंका प्रतिकार है-उनसे 'बचनेका उपाय है ॥११५।। धर्म ही अपायोंसे रक्षा करता है, धर्म ही मनचाहा फल देनेवाला है, धर्म ही परलोकमें कल्याण करनेवाला है और धर्मसे ही इस लोकमें आनन्द प्राप्त होता है ।।११६॥ इसलिए धर्ममें एकचित्त होकर भविष्यत् कालमें आनेवाली विपत्तियोंका प्रतिकार करना चाहिए क्योंकि ऐसा करनेसे ही आत्माकी दूसरे भवमें विपत्तिसे रक्षा हो सकती है ॥११७॥ जिस राज्यके लिए पुत्र तथा सगे भाई आदि भी निरन्तर शत्रुता किया करते हैं और जिसमें बहुत अपाय हैं ऐसा यह राज्य बुद्धिमान् पुरुषोंको अवश्य ही छोड़ देना चाहिए ॥११८॥ एक बात यह भी है कि जिसमें मानसिक खेदकी बहुलता है ऐसे इस राज्यमें सुखपूर्वक कैसे रहा जा सकता है क्योंकि इस संसार में पण्डितजन मनकी निराकुलताको ही सुख कहते हैं ॥११९॥ जिसका अन्त अच्छा नहीं है और जिसमें निरन्तर पाप उत्पन्न होते रहते हैं ऐसे इस राज्यमें सुखका लेश भी नहीं है बल्कि सब ओरसे शंकित रहनेवाले पुरुषको इस राज्यमें बड़ा भारी दुःख बना रहता है ।।१२०।। इसलिए विद्वान् पुरुषोंको अपथ्य औषधिके समान इस राज्यका त्याग कर देना चाहिए और पथ्य भोजनके समान तप ग्रहण करना चाहिए ॥१२१॥ इस तरह बुद्धिमान् पुरुषको चाहिए कि वह राज्यके विषयमें पहलेसे ही विरक्त होकर भोगोपभोगका त्याग कर दे, यदि वह इस प्रकार त्याग करनेके लिए समर्थ न हो तो कमसे कम अन्त समय उसे राज्यके आडम्बरका अवश्य ही त्याग कर देना चाहिए ॥१२२।। इसलिए यदि कालको जाननेवाला निमित्तज्ञानी अपने जीवनका अन्त समय बतला दे अथवा अपने आप ही उसका निर्णय हो जावे तो बुद्धिमान् क्षत्रियको चाहिए कि वह उस समयसे शरीर परित्यागकी बुद्धि धारण करे अर्थात् सल्लेखना धारण करने में बुद्धि लगावे ॥१२३॥ क्योंकि त्याग ही परम धर्म है, त्याग ही परम तप है, त्यागसे ही इस लोकमें कीतिकी प्राप्ति होती है और त्यागसे ही परलोकमें महान् ऐश्वर्य प्राप्त होता है ॥१२४॥ ऐसा मानकर क्षत्रियको किसी पवित्र स्थानमें रहकर पूजा आदिकी विधि करके शरीर आहार और चमर छत्र आदि उपकरणोंसे सहित राज्यका परित्याग कर देना १ अत अ० स०, म०, ल० । २ एकोदरे जाता । ३ वरं कुर्वन्ति । ४ सुखास्थता । ५ पुनः किमिति चेत् । ६ वैराग्यपरो भूत्वा । ७ आवासे । ८ पवित्रे । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ आदिपुराणम् गुरुसाक्षि तथा त्यक्तदेहाहारस्य तस्य वै। परीषहजयायत्ता सिद्धिरिष्टा महात्मनः ॥१२६॥ ततो ध्यायेदनुप्रेक्षाः कृती जेतुं परीषहान् । विनाऽनुप्रेक्षणेश्चित्तसमाधानं हि दुर्लभम् ॥१२७॥ 'प्रागभावितमेवाहं भावयामि न भावितम् । मावयामीति भावेन भावयेत्तत्त्वभावनाम् ॥१२८॥ समुत्सृजेदनात्मीयं शरीरादिपरिग्रहम् । आत्मीयं तु स्वसात्कुर्याद रत्नत्रयमनुत्तरम् ॥१२९॥ मनोव्याक्षेपरक्षार्थं ध्यायन्निति स धीरधीः । प्राणान् विसर्जयेदन्ते संस्मरन् परमेष्टिनाम् ॥१३०॥ तथा विसर्जितप्राणः प्रणिधानपरायणः । शिथिलिकृत्य कर्माणि शुभां गतिमथाश्नुते ॥१३॥ तस्मिन्नेव भवे शक्तः कृत्वा कर्मपरिक्षयम् । सिद्धिमाप्नोत्यशक्तस्तु त्रिदिवाग्रमवाप्नुयात् ॥१३२॥ ततश्च्युतः परिप्राप्तमानुष्यः परमं तपः । कृत्वान्ते निवृतिं याति निर्द्ध ताखिलबन्धनः ॥१३३॥ क्षत्रियो यस्त्वनात्मज्ञः कुर्यान्नात्मानुपालनम् । विषशस्त्रादिमिस्तस्य दुमृति,वभाविनी ॥१३४॥ दुम॒तश्च दुरन्तेऽस्मिन् भवावर्ते दुरुत्तरे । पतित्वाऽमुत्र दुःखानां दुर्गतौ भाजनं भवेत् ।।१३।। ततो मतिमताऽऽत्मीयविनिपातानुरक्षणे । विधेयोऽस्मिन् महायत्नो लोकद्वयहितावहे ॥१३६॥ कृतात्मरक्षणश्चैव प्रजानामनुपालने । राजा यत्नं प्रकुर्वांत राज्ञां मौलो ह्ययं गुगः ॥१३७॥ चाहिए ॥१२५।। इस प्रकार जिसने गुरुकी साक्षीपूर्वक शरीर और आहारका त्याग कर दिया है ऐसे महात्मा पुरुषको इष्टसिद्धि परीषहोंके विजय करनेके अधीन होती है अर्थात् जो परीषह सहन करता है उसीके इष्टकी सिद्धि होती है ॥१२६॥ इसलिए निपुण पुरुषको परीषह जीतनेके लिए अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करना चाहिए क्योंकि अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवन किये बिना चित्तका समाधान कठिन है ॥१२७॥ जिसका पहले कभी चिन्तवन नहीं किया था ऐसे सम्यक्त्व आदिका चिन्तवन करता हूँ और जिसका पहले चिन्तवन किया था ऐसे मिथ्यात्व आदिका चिन्तवन नहीं करता इस प्रकारके भावोंसे तत्त्वोंकी भावनाओंका चिन्तवन करना चाहिए ॥१२८|| जो आत्माके नहीं है ऐसे शरीर आदि परिग्रहका त्याग कर देना चाहिए और जो आत्माके हैं ऐसे सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रयका ग्रहण करना चाहिए ॥१२९॥ धीर वीर बुद्धिको धारण करनेवाले पुरुषको मनकी चंचलता नष्ट करनेके लिए इस प्रकार ध्यान करते हुए और पंचपरमेष्ठियोंका स्मरण करते हुए आयुके अन्त में प्राणत्याग करना चाहिए ॥१३०।। जो पुरुष ध्यानमें तत्पर रहकर ऊपर लिखे अनुसार प्राणत्याग करता है वह कर्मोको शिथिल कर शुभ गतिको प्राप्त होता है ।।१३१॥ जो समर्थ है वह उसो भवमें कर्मोका क्षय कर मोक्षको प्राप्त होता है और जो असमर्थ है वह स्वर्गके अग्रभाग अर्थात् सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त होता है ।।१३२॥ वह वहाँसे च्युत हो मनुष्यपर्याय प्राप्त कर और परम तपश्चरण कर आयुके अन्तर्मे समस्त कर्मबन्धनको नष्ट करता हुआ निर्वाणको प्राप्त होता है ॥१३३॥ आत्माका स्वरूप न जाननेवाला जो क्षत्रिय अपने आत्माको रक्षा नहीं करता है उसकी विष, शस्त्र आदिसे अवश्य ही अपमृत्यु होती है ॥१३४॥ और अपमृत्युसे मरा हुआ प्राणी दुःखदायी तथा कठिनाईसे पार होने योग्य इस संसाररूप आवर्तमें पड़कर परलोकमें दुर्गतियोंके दुःखका पात्र होता है ॥१३५॥ इसलिए बुद्धिमान् क्षत्रियको दोनों लोकोंमें हित करनेवाले, आत्माके इस विघ्नबाधाओंसे रक्षा करनेमें महाप्रयत्न करना चाहिए ॥१३६॥ इस प्रकार जिसने आत्माकी रक्षाकी है ऐसे राजाको प्रजाका पालन करनेमें प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि यह राजाओंका मौलिक गुण है ॥१३७॥ १ मध्यक्त्वादिकम् । २ मिथ्यात्वादिकम् । ३ मानसबाधाया नाशार्थम् । ४ एकाग्रतां गतः । ५-मुपाश्नुते अ, प०, स०, इ०, ल०, म० । ६ प्रजापालनयत्नः । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व ११ १४ १७ १९ कथं च पालनीयास्ताः प्रजाश्चेत्तत्प्रपञ्चतः । पुष्टं गोपालदृष्टान्त मूरीकृत्य विवृण्महे ॥ १३८॥ गोपालको यथा यत्त्राद् गाः संरक्षत्यतन्द्रितः । क्ष्मापालश्च प्रयत्नेन तथा रक्षेन्निजाः प्रजाः ॥ १३९॥ तद्यथा यदि गौः कश्चिदपराधी' स्वगोकुले । तमङ्गच्छेदनायुदण्डस्तीबमयोजयन् ॥ ११०॥ पालयेदनुरूपेण दण्डेनैव नियन्त्रयन् यथा गोपस्तथा भूपः प्रजाः स्वाः प्रतिपालयेत् ॥ १४१ ॥ तीक्ष्णदण्डो हि नृपतिस्तीचमुजयेत्प्रजाः। ततो विरक्तप्रकृति जारेनमभूः प्रजाः ॥ १४२ ॥ यथा गोपालको मील पशुवर्ग स्वगोकुले पोषयमेव पुष्टः स्याद् गोपोषं प्राज्यगोधनः ॥१४३॥ तथैष नृपतिमीले "तन्त्रमात्मीयमेकतः पोषयन्पुष्टिमाप्नोति स्वे परस्मिंश्च मण्डले ॥ १४४॥ पुष्टो मॉलेन सम्ब्रेण यो हि पार्थिवकुञ्जरः स जयेत् पृथिवीमेनां सागरान्तामयत्रतः ॥ ४५॥ प्रभग्नचरणं किंचिद् गोङ्गव्यं चेत् प्रमादतः । गोपालस्तस्य संधानं कुर्याद् बन्धाद्युपक्रमैः ॥ १४६ ॥ बद्धाय च तृणाद्यस्मै दत्वा दाढये नियोजयेत् । उपद्रवान्तरेऽप्येवमाशु कुर्यात् प्रतिक्रियाम् ॥ १४७॥ यथा तथा नरेन्द्रोऽपि स्वयले प्राणितं मटम् । प्रतिकुर्याद्" "मिषम्बर्यातियोज्यौषधसंपदा ॥ १४८ ॥ कृतस्य चास्य जीवनादि प्रचिन्तयेत् । सत्येवं भृत्यवर्गोऽस्य शश्वदाप्नोति नन्दथुम् ॥ १४९ ॥ उस प्रजाका किस प्रकार पालन करना चाहिए यदि आप यह जानना चाहते हैं तो हम ग्वालियेका सुदृढ़ उदाहरण लेकर विस्तारके साथ उसका वर्णन करते हैं || १३८ || जिस प्रकार ग्वालिया आलस्यरहित होकर बड़े प्रयत्नसे अपनी गायोंकी रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको बड़े प्रयत्नसे अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिए || १३९|| आगे इसीका खुलासा करते हैं- यदि अपनी गायोंके समूहमें कोई गाय अपराध करती है तो वह ग्वालिया उसे अंगछेदन आदि कठोर दण्ड नहीं देता हुआ अनुरूप दण्डसे नियन्त्रण कर जिस प्रकार उसकी रक्षा करता है उसी प्रकार राजा को भी अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिए । १४० - १४१ ॥ यह निश्चय है कि कठोर दण्ड देनेवाला राजा अपनी प्रजाको अधिक उद्विग्न कर देता है इसलिए प्रजा ऐसे राजाको छोड़ देती है तथा मन्त्री आदि प्रकृतिजन भी ऐसे राजासे विरक्त हो जाते हैं ॥ १४२ ॥ | जिस प्रकार ग्वालिया अपनी गायोंके समूहमें मुख्य पशुओंके समूहकी रक्षा करता हुआ पुष्ट अर्थात् सम्पत्तिशाली होता है क्योंकि गायोंकी रक्षा करके ही यह मनुष्य विशाल गोधनका स्वामी हो सकता है, उसी प्रकार राजा भी अपने मुख्य वर्गकी मुख्य रूपसे रक्षा करता हुआ अपने और दूसरे राज्य में पुष्टिको प्राप्त होता है ।। १४३ - १४४ ॥ जो श्रेष्ठ राजा अपने-अप मुख्य बलसे पुष्ट होता है वह इस समुद्रान्त पृथिवीको बिना किसी यत्नके जीत लेता है || १४५ || यदि कदाचित् प्रमादसे किसी गायका पैर टूट जाय तो ग्वालिया उसे बाँधना आदि उपायोंसे उस पैरको जोड़ता है, गायको बाँधकर रखता है-बंधी हुई गायके लिए घास देता है और उसके पैरको मजबूत करनेमें प्रयत्न करता है तथा इसी प्रकार उन भी वह शीघ्र ही उनका प्रतिकार करता है || १४६ - १४७। की रक्षा करनेके लिए ग्वालिया प्रयत्न करता है उसी प्रकार राजाको भी चाहिए कि वह अपनी सेनामें घायल हुए योद्धाको उत्तम वैद्यसे औषधिरूप सम्पदा दिलाकर उसकी विपत्तिका प्रतिकार करे अर्थात् उसकी रक्षा करे || १४८ || और वह वीर जब अच्छा हो जावे तो राजाको उसकी उत्तम आजीविका कर देनेका विचार करना चाहिए क्योंकि ऐसा करनेसे भृत्यवर्ग सदा पशुओंपर अन्य उपद्रवोंके आनेपर जिस प्रकार अपने आश्रित गायों 93 | १० ३४३ १ प्रपञ्चनम् ल० म० । प्रपञ्चते अ०, स० । २ समृद्धम् । ३ स्वीकृत्य । ४ अनालस्यः । ५ दोषी । ६ संयोजनमकुर्वन् । ७ नियमयन् । ८ उद्वेगं कुर्यात् । ९ त्यक्तानुरागप्रजापरिवारवन्तम् । १० गाः पोषयन्तीति गोपोषस्तम् । ११ बहुगोव्रजः । १२ बलम् । १३ एकस्मिन् स्थाने । १४ गोधनम् । १५ प्रतिकारं कुर्यात् । १६ वैद्यश्रेष्ठात् । १७ अधिकम् । १८ जीवितादिकम् । १९ आनन्दम् । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ आदिपुराणम् यथैव खलु गोपालो संध्यस्थिचलने गवाम् । तदस्थि स्थापयन् प्राग्वत् कुर्यायोग्यां प्रतिक्रियाम् ॥१५०॥ तथा नृपोऽपि संग्रामे भृत्यमुख्ये व्यसौ सति । तत्पदे पुत्रमेवास्य भ्रातरं वा नियोजयेत् ॥१५१॥ सति चैवं कृतज्ञोऽयं नृप इत्यनुरक्तताम् । उपैति भृत्यवर्गोऽस्मिन् भवेच्च ध्रुवयोधनः ॥१५२॥ यथा खल्वपि गोपालः कृमिदष्टे गवाङ्गणे । तद्योग्यमौषधं दत्वा करोत्यस्य प्रतिक्रियाम् ॥१५३॥ तथैव पृथिवीपालो दुर्विधं स्वानुजीविनम् । विमनस्कं विदित्यैनं सौचित्य संनियोजयेत् ॥१५४॥ विरको ह्यानुजीवी स्यादलब्धोचितजीवनः । प्रभोर्विमान नाच्चैवं तस्मानं विरुक्षयेत् ॥१५५॥ "तोगत्यं व्रणस्थानकृमिसंभवसन्निभम् । विदित्वा तत्प्रतीकारमाशु कुर्याद्विशां पतिः ॥१५६॥ बहुनापि न दत्तेन सौचित्यमनुजीविनाम् । उचितात स्वामिसन्मानाद् यथैषां जायते तिः ॥१५॥ गोपालको यथा यूथे स्वे महोक्षं भरक्षमम् । ज्ञात्वास्य नस्यकर्मादि विदध्याद् गात्रपुष्टये ॥१५॥ तथा नृपोऽपि सैन्य स्बे योद्धारं भटसत्तमम् । ज्ञात्वैनं जीवनं प्राज्यं दत्वा संमानयेत् कृती ॥१५९॥ कृतापदानं तद्योग्यैः सत्कारैः प्रीणयन् प्रभुः । न मुच्यतेऽनुरक्तः स्वैरनुजीविमिरवहम् ॥१६॥ 'यथा च गोपो गोयूथं कण्टकोपलवर्जिते । शीतातपादिबाधाभिरुज्झिते चारयन् वने ॥१६१॥ . आनन्दको प्राप्त होते रहते हैं-सन्तुष्ट बने रहते हैं ॥१४९॥ जिस प्रकार ग्वालिया सन्धिस्थानसे गायोंकी हड्डीके विचलित हो जानेपर उस हड्डीको वहीं पैठालता हुआ उसका योग्य प्रतिकार करता है उसी प्रकार राजाको भी युद्ध में किसी मुख्य भृत्युके मर जानेपर उसके पदपर उसके पुत्र अथवा भाईको नियुक्त करना चाहिए ॥१५०-१५१॥ ऐसा करनेसे भृत्य लोग 'यह राजा बड़ा कृतज्ञ है' ऐसा मानकर उसपर अनुराग करने लगेंगे और अवसर पड़नेपर निरन्तर युद्ध करनेवाले बन जायेंगे ॥१५२॥ कदाचित् गायोंके समूहको कोई कीड़ा काट लेता है तो जिस प्रकार ग्वालिया योग्य औषधि देकर उसका प्रतिकार करता है उसी प्रकार राजाको भी चाहिए कि वह अपने सेवकको दरिद्र अथवा खेदखिन्न जानकर उसके चित्तको सन्तुष्ट करे ॥१५३-१५४॥ क्योंकि जिस सेवकको उचित आजीविका प्राप्त नहीं है वह अपने स्वामीके इस प्रकारके अपमानसे विरक्त हो जायेगा इसलिये राजाको चाहिए कि वह कभी अपने सेवकको विरक्त न करे । ॥१५५॥ सेवककी दरिद्रताको घावके स्थानमें कीड़े उत्पन्न होनेके समान जानकर राजाको शीघ्र ही उसका प्रतिकार करना चाहिए ॥१५६॥ सेवकोंको अपने स्वामीसे उचित सन्मान पाकर जैसा सन्तोष होता है वैसा सन्तोष बहुत धन देनेपर भी नहीं होता है ।।१५७॥ जिस प्रकार ग्वाला अपने पशुओंके झुण्डमें किसी बड़े बैलको अधिक भार धारण करनेमें समर्थ जानकर उसके शरीरकी पुष्टि के लिए नस्य कर्म आदि करता है अर्थात् उसकी नाकमें तेल डालता है और उसे खली आदि खिलाता है उसी प्रकार चतुर राजाको भी चाहिए कि वह अपनी सेनामें किसी योद्धाको अत्यन्त उत्तम जानकर उसे अच्छी आजीविका देकर सन्मानित करे ॥१५८-१५९॥ जो राजा अपना पराक्रम प्रकट करनेवाले वीर पुरुषको उसके योग्य सत्कारोंसे सन्तुष्ट रखता है उसके भृत्य उसपर सदा अनुरक्त रहते हैं और कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ते हैं ।।१६०॥ जिस प्रकार ग्वाला अपने पशुओंके समूहको काँटे और पत्थरोंसे रहित तथा शीत और गरमी आदिकी बाधासे शून्य वनमें चराता हुआ बड़े प्रयत्नसे उसका १ विगतप्राणे। २ नृपे। ३ योद्धा। युद्धकारीत्यर्थः। ४ दरिद्रम् । ५ निजभृत्यम् । ६ शोभनचित्तत्वे। ७ विरक्तोऽस्यानुजीवी। ८ जीवित । ९ अवमाननात् । १० कर्कशं न कुर्यात् । स्नेहरहितमित्यर्थः । ११ विमनस्कत्वम् । १२ महान्तमनड्वाहम् । १३ कृतपराक्रमम् । १४ भक्षणं कारयन् । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व ३४५ पोषयत्यतियनेन तया भूपोऽप्यविप्लवे । देशे स्वानुगतं लोकं स्थापयित्वाऽमिरक्षतु ॥१६॥ राज्यादिपरिवर्तेपु जनोऽयं पीड्यतेऽन्यथा । चौरैडमिरकैरन्यैरपि प्रत्यन्तनायकैः ॥१६३॥ "प्रसह्य च तथाभूतान् वृत्तिच्छेदेन योजयेत् । कण्टकोद्धरणेनैव प्रजानां क्षेमधारणम् ॥१६॥ यथैव गोपः संजातं वत्सं मात्रासहामुकम्(नुगम् ) । दिनमैकमवस्थाप्य ततोऽन्येद्यर्दयाईधीः ॥१६॥ विधाय चरणे तस्य शनैर्बन्धनसन्निधिम् । नामिनालं पुनर्गर्भनाले नापास्य यत्नतः ॥१६६॥ जन्तुसंभवशङ्कायां प्रतीकारं विधाय च । क्षीरोपयोगदानाद्यर्वईयेत् प्रतिवासरम् ॥१६७।। भूपोऽप्येवमुपासन्नं वृत्तये स्वमुपासितुम्' । यथाऽनुरूपैः संमानैः स्वीकुर्यादनुजीविनम् ॥१६८।। स्वीकृतस्य च तस्योद्धजीवनादिप्रचिन्तया । योगक्षेमं प्रयुञ्जीत कृतक्लेशस्य सादरम् ।।१६९॥ यथैव खलु गोपालः पशून् क्रेतुं समुद्यतः । क्षीरावलोकनाद्यैस्तान् परीक्ष्य गुणवत्तमान् ॥१७॥ क्रीणाति शकुनादीनामवधारणतत्परः । कुलपुत्रान्नपोऽप्येवं क्रीणीयात् सुपरीक्षितान् ॥११॥ क्रीतांश्च वृत्तिमूल्येन तान् यथावसरं प्रभुः । कृत्येषु विनियुञ्जीत भृत्यैः साध्यं फलं हि तत् ॥१७२॥ "यद्वच्च प्रतिभूः कश्चिद् यो क्रये प्रतिगृह्यते । बलवान् प्रतिभूस्त द्वग्राह्यो भृत्योपसंग्रहे ॥१७३॥ "याममात्रावशिष्टायां रात्रावुत्थाय यत्नतः । चारयित्वोचिते देशे गाः प्रभूततृणोदके ॥१७॥ पोषण करता है उसी प्रकार राजाको भी अपने सेवक लोगोंको किसी उपद्रवहीन स्थान में रखकर उनकी रक्षा करनी चाहिए ।।१६१-१६२॥ यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो राज्य आदिका परिवर्तन होनेपर चोर, डाकू तथा समीपवर्ती अन्य राजा लोग उसके इन सेवकों को पीड़ा देने लगेंगे ॥१६३।। राजाको चाहिए कि वह ऐसे चोर डाकू आदिकी आजीविका जबरन नष्ट कर दे क्योंकि काँटोंको दूर कर देनेसे ही प्रजाका कल्याण हो सकता है ।।१६४।। जिस प्रकार ग्वाला हालके उत्पन्न हुए बच्चेको एक दिन तक माताके साथ रखता है, दूसरे दिन दयाबुद्धिसे मुक्त हो उसके पैर में धीरेसे रस्सी बाँधकर खूटीसे बाँधता है, उसकी जरायु तथा नाभिके नालको बड़े यत्नसे दूर करता है, कीड़े उत्पन्न होनेकी शंका होनेपर उसका प्रतीकार करता है, और दूध पिलाना आदि उपायोंसे उसे प्रतिदिन बढ़ाता है ॥१६५-१६७।। उसी प्रकार राजाको भी चाहिए कि वह आजीविकाके अर्थ अपनी सेवा करनेके लिए आये हुए सेवकको उसके योग्य आदर सन्मानसे स्वीकृत करे और जिन्हें स्वीकृत कर लिया है तथा जो अपने लिए क्लेश सहन करते हैं ऐसे उन सेवकोंकी प्रशस्त आजीविका आदिका विचार कर उनके साथ योग और क्षेमका प्रयोग करना चाहिए अर्थात् जो वस्तु उनके पास नहीं है वह उन्हें देनी चाहिए और जो वस्तु उनके पास है उसकी रक्षा करनी चाहिए ॥१६८-१६९।। जिस प्रकार शकुन आदि के निश्चय करने में तत्पर रहनेवाला ग्वाला जब पशुओंको खरीदनेके लिए तैयार होता है तब वह दूध देखना आदि उपायोंसे परीक्षा कर उनमें-से अत्यन्त गुणी पशुओंको खरीदता है उसी प्रकार राजाको भी परीक्षा किये हुए उच्चकुलीन पुत्रोंको खरीदना चाहिए ॥१७०-१७१॥ और आजीविकाके मूल्यसे खरीदे हुए उन सेवकोंको समयानुसार योग्य कार्य में लगा देना चाहिए क्योंकि वह कार्यरूपी फल सेवकोंके द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है ॥१७२॥ जिस प्रकार पशुओंके खरीदने में किसीको जामिनदार बनाया जाता है उसी प्रकार सेवकोंका संग्रह करने में भी किसी बलवान् पुरुषको जामिनदार बनाना चाहिए ॥१७३।। जिस प्रकार ग्वाला रात्रिके १ मूलबलम् । २-रक्षयेत् ल०, म० । ३ परिवर्तेऽस्य ल०, म० । राज्यादि मुक्त्वा राज्यान्तरप्राप्तिष । ४ अरक्षणप्रकारेण । ५ घाटोकारैः युद्धकारिभिर्वा । ६ म्लेच्छनायकैः । ७ हठात्कारेण । ८ वत्सस्य । ९ जरायुना। १० जोवनाय । ११ सेवां कर्तुम् । १२ क्रयणाय । १३ अतिशयेन गुणवतः । १४ कार्येषु । १५ यथैव ल०, म० । १६ घरकः । १७ प्रहर । १८ भक्षयित्वा । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् प्रातस्तरामथानीय वत्सपीतावशिष्टकम् । पयो दोग्धि यथा गोपो नवनीतादिलिप्सया ॥१७५॥ तथा भूपोऽप्यतन्द्रालुभक्तग्रामेषु कारयेत् । कृषि कर्मान्तिकैर्बीजप्रदानाद्यैरुपक्रमैः ॥१७६॥ देशेऽपि कारयेत् कृत्स्ने कृषि सम्यक्कृषीबलैः । धान्यानां संग्रहार्थं च न्याय्यमंशं ततो हरेत् ॥१७७॥ सत्येवं पुष्टतन्त्रः स्याद् भाण्डागारदिसंपदा । पुष्टो देशश्च तस्यैवं स्याद धान्यैराशितम्भवैः ॥१७८॥ स्वदेशे वाक्षरम्लेच्छान् प्रजाबाधाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानायैः स्वसाकुर्यादुपक्रमैः ॥१७९॥ विक्रियां न भजन्त्येते प्रभुणा कृतसक्रियाः । प्रभोरलब्धसमाना विक्रियन्ते हि तेऽन्वहम् ॥१८०॥ ये केचिच्चाक्षरम्लेच्छाः स्वदेशे प्रचरिष्णवः । तेऽपि कर्षकसामान्यं कर्तव्याः करदा नृपैः ॥१८॥ तान्प्राहरक्षरम्लेच्छाः येऽमी वेदोपजीविनः । अधर्माक्षरसंपाठोंकव्यामोहकारिणः ॥१८२॥ यतोऽक्षरकृतं गर्वमविद्यामलतस्तके । वहन्त्यतोऽक्षरम्लेच्छाः पापंसूत्रोपजीविनः ॥१८३॥ म्लेच्छाचारो हि हिंसायां रतिर्मासाशनेऽपि च । बलात्परस्वहरणं निर्द्ध तत्वमिति स्मृतम् ॥१४॥ सोऽस्त्यमीषां च "यद्वेदशास्त्रार्थमधमद्विजाः । तादृशं बहुमन्यन्ते जातिवादावलेपतः ॥१८५॥ "प्रजासामान्यतै वैषां मतावास्यान्निकृष्टता। ततो न मान्यताऽस्त्येषां द्विजा मान्याः स्युराहताः॥१८६॥ प्रहरमात्र शेष रहनेपर उठकर जहाँ बहुत-सा घास और पानी होता है ऐसे किसी योग्य स्थानमें गायोंको बड़े प्रयत्नसे चराता है तथा बड़े सबेरे ही वापिस लाकर बछड़ेके पीनेसे बाकी बचे हुए दूधको मक्खन आदि प्राप्त करनेकी इच्छासे दुह लेता है उसी प्रकार राजाको भी आलस्यरहित होकर अपने आधीन ग्रामोंमें बीज देना आदि साधनों-द्वारा किसानोंसे खेती कराना चाहिए ॥१७४-१७६॥ राजाको चाहिए कि वह अपने समस्त देशमें किसानों द्वारा भली भाँति खेती करावे और धान्यका संग्रह करनेके लिए उनसे न्यायपूर्ण उचित अंश लेवे ॥१७७॥ ऐसा होनेसे उसके भांडार आदिमें बहुत सी सम्पत्ति इकट्ठी हो जावेगी और उससे उसका बल बढ़ जावेगा तथा सन्तुष्ट करनेवाले उन धान्योंसे उसका देश भी पुष्ट अथवा समृद्धिशाली हो जावेगा ॥१७८॥ अपने आश्रित स्थानोंमें प्रजाको दुःख देनेवाले जो अक्षरम्लेच्छ अर्थात् वेदसे आजीविका करनेवाले हों उन्हें कुलशुद्धि प्रदान करना आदि उपायोंसे अपने आधीन करना चाहिए ॥१७९॥ अपने राजासे सत्कार पाकर वे अक्षरम्लेच्छ फिर उपद्रव नहीं करेंगे। यदि राजाओंसे उन्हें सन्मान प्राप्त नहीं होगा तो वे प्रतिदिन कुछ-न-कुछ उपद्रव करते ही रहेंगे ॥१८०॥ और जो कितने ही अक्षरम्लेच्छ अपने ही देशमें संचार करते हों उनसे भी राजाओं को सामान्य किसानोंकी तरह कर अवश्य लेना चाहिए ॥१८१॥ जो वेद पढ़कर अपनी आजीविका करते हैं और अधर्म करनेवाले अक्षरोंके पाठसे लोगोंको ठगा करते हैं उन्हें अक्षरम्लेच्छ कहते हैं ॥१८२॥ चूँकि वे अज्ञानके बलसे अक्षरों-द्वारा उत्पन्न हुए अहंकारको धारण करते हैं इसलिए पापसूत्रोंसे आजीविका करनेवाले वे अक्षरम्लेच्छ कहलाते हैं ॥१८३॥ हिंसा और मांस खाने में प्रेम करना, बलपूर्वक दूसरेका धन हरण करना और धूर्तता करना ( स्वेच्छाचार करना ) यही म्लेच्छोंका आचार माना गया है ॥१८४॥ चूँकि यह सब आचरण इनमें हैं और जातिके अभिमानसे ये नीच द्विज हिंसा आदिको प्ररूपित करनेवाले वेद शास्त्रके अर्थको बहुत कुछ मानते हैं इसलिए इन्हें सामान्य प्रजाके समान ही मानना चाहिए अथवा उससे भी कुछ निकृष्ट मानना चाहिए। इन सब कारणोंसे इनकी कुछ भी मान्यता नहीं रह जाती १ आरम्भग्रामेष्वित्यर्थः । २ कृषीबलभृत्यैः । ३ कृषीबलेभ्यः । ४ स्वीकुर्यात् । ५ तृप्तिकरैः । ६ प्रदेशे अ०, सं०,ल०म० । ७ कृषीबलसामान्यं यथा भवति तथा । ८ अज्ञानबलात् । ९ कुत्सितास्ते । १० यत् कारणात् । ११ हिंसनादिप्रकारम् । १२ गर्वतः । १३ प्रजासामान्यत्वमेव । १४ प्रजाभ्यः । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व वयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकसंमताः । धान्यभागमतो राजे न दद्म इति चेन्मतम् ॥१८७॥ वैशिष्टयं किङकृतं शेषवणेभ्यो मवतामिह । न जातिमात्राद वैशिष्ट्यं जातिभेदाप्रतीतितः ॥१८८॥ गुणतोऽपि न वैशिष्टयमस्ति वो नामधारकाः । व्रतिनो ब्राह्मणा जैना ये त एव गुणाधिकाः ॥१८९॥ निर्वता निर्नमस्कारा निघृणाः पशुघातिनः । म्लेच्छाचारपरा यूयं न स्थाने धार्मिका द्विजाः॥१९०॥ तस्मादन्ते कुरु म्लेच्छा इव तेऽमी महीभुजाम् । प्रजासामान्यधान्यांशदानाद्यरविशेषिताः ॥१९॥ किमत्र बहुनोतन जैनान्मुक्त्वा द्विजोत्तमान् । नान्ये मान्या नरेन्द्राणां प्रजासामान्यजीविकाः ॥१९॥ अन्यञ्च गोधनं गोपो व्याघ्रचोराद्युपक्रमात् । यथा रक्षत्यतन्द्रालुभूपोऽप्येवं निजाः प्रजाः ॥१६३॥ यथा च गोकुलं गोमिन्यायाते संदिदृक्षया । सोपचारमुपेत्यैनं तोषयेद् धनसम्पदा ॥१६॥ भूपोऽप्येवं बली कश्चित् स्वराष्ट्रं यद्यमिद्रवेत् । तदा वृद्धः समालोच्य संदध्यात् पणबन्धतः ॥१५॥ जनक्षयाय संग्रामो बह्वपायो दुरुत्तरः । तस्मादुपप्रदानाद्यः संधेयोऽरिबलाधिकः ॥१९६॥ इति गोपालदृष्टान्तमूरीकृत्य नरेश्वरः । प्रजानां पालने यत्नं विदध्यान्नयवर्मना ॥१७॥ है, जो द्विज अरहन्त भगवान्के भक्त हैं वही मान्य गिने जाते हैं ॥१८५-१८६॥ "हम ही लोगोंको संसार-सागरसे तारनेवाले हैं, हम ही देव ब्राह्मण हैं और हम ही लोकसम्मत हैं अर्थात् सभी लोग हम ही को मानते हैं इसलिए हम राजाको धान्यका उचित अंश नहीं देते'' इस प्रकार यदि वे द्विज कहें तो उनसे पूछना चाहिए कि आप लोगोंमें अन्य वर्णवालोंसे विशेषतन क्यों है ? कदाचित् यह कहो कि हम जातिकी अपेक्षा विशिष्ट हैं तो आपका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि जातिकी अपेक्षा विशिष्टता अनुभवमें नहीं आती है, कदाचित् यह कहो कि गुणकी अपेक्षा विशिष्टता है सो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि आपलोग केवल नामके धारण करनेवाले हो, जो व्रतोंको धारण करनेवाले जैन ब्राह्मण हैं वे ही गुणोंसे अधिक हैं। आप लोग व्रतरहित, नमस्कार करनेके अयोग्य, दयाहीन, पशुओंका घात करनेवाले और म्लेच्छोंके आचरण करने में तत्पर हो इसलिए आप लोग धर्मात्मा द्विज नहीं हो सकते । इन सब कारणोंसे राजाओंको चाहिए कि वे इन द्विजोंको म्लेच्छोंके समान समझें और उनसे सामान्य प्रजाकी तरह ही धान्यका योग्य अंश ग्रहण करें। अथवा इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ है ? जैनधर्मको धारण करनेवाले उत्तम द्विजोंको छोडकर प्रजाके समान आजीविका करनेवाले अन्य द्विज राजाओंके पूज्य नहीं हैं ॥१८७-१६२।। जिस प्रकार ग्वाला आलस्यरहित होकर अपने गोधनकी व्याघ्र चोर आदि उपद्रवोंसे रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको भी अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिए ॥१९३॥ जिस प्रकार ग्वाला उन पशुओंके देखनेकी इच्छासे राजाके आनेपर भेंट लेकर उसके समीप' जाता है और धन सम्पदाके द्वारा उसे संतुष्ट करता है उसी प्रकार यदि कोई बलवान् राजा अपने राज्यके सन्मुख आवे तो वृद्ध लोगोंके साथ विचार कर उसे कुछ देकर उसके साथ सन्धि कर लेना चाहिए । चूंकि युद्ध बहुत-से लोगोंके विनाशका कारण है, उसमें बहुत-सी हानियाँ होती हैं और उसका भविष्य भी बुरा होता है अतः कुछ देकर बलवान् शत्रुके साथ सन्धि कर लेना ही ठीक है ॥१९४-१९६॥ इस प्रकार राजाको ग्वालाका दृष्टान्त स्वीकार कर नीतिमार्गसे १ न भवथ । २ -धुपद्रवात् ल०, म०, प० । ३ गोमती। गोमान् गोमीस्यभिधानात् । गोमत्या- म०, ल०, प० । ४ क्षीरघृतादिविक्रयाज्जातधनसमद्ध्या। ५ अभिगच्छेत् । ६ सन्धानं कुर्यात् । ७ निष्कप्रदानादित्यर्थः। ८ उचितवस्तुवाहनप्रदानाद्यः । ९ सन्धि कर्तुं योग्यः । १० कुर्यात् । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ आदिपुराणम् प्रजानुपालनं प्रोक्तं पार्थिवस्य जितात्मनः । समञ्जसस्त्वमधुना वक्ष्यामस्तद्गुणान्तरम् ॥१६८॥ राजा चित्तं समाधाय यत्कुर्याद् दुष्टनिग्रहम् । शिष्टानुपालनं चैव तत्सामञ्जस्यमुच्यते ॥१९९॥ द्विषन्तमथवा पुत्रं निगृह्णन्निग्रहोचितम् । अपक्षपतितो दुष्टमिष्टं चेच्छन्ननागसम् ॥२०॥ मध्यस्थवृत्तिरेवं यः समदी समञ्जसः । समञ्जसत्वं तद्भावः प्रजास्वविषमेक्षिता ॥२०॥ गुणेनैतेन शिष्टानां पालनं न्यायाविनाम् । दुष्टानां निग्रहं चैव नृपः कुर्यात् कृतागसाम् ॥२०२॥ दुष्टा हिंसादिदोषेषु निरताः पापकारिणः । शिष्टास्तु शान्तिशौचादिगुणधर्मपरा नराः ॥२०३॥ वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं मनुः सकलचक्रभृदादिराजः तान् क्षत्रियान् नियमयन् पथि सुप्रणीत । उच्चावचैर्गुरुमतैरुचितैर्वचोभिः शास्ति स्म वृत्तमखिलं पृथिवीश्वराणाम् ॥२०४॥ शार्दूलविक्रीडितम् इत्युच्चभरतशिनानुकथितं सर्वीयमुश्विराः क्षात्रं धर्ममनुप्रवद्य मुदिताः स्वां वृत्तिमन्वैयरः । योगक्षेमपथेपु तपु सहिताः सर्वे च वर्णाश्रमाः स्वे स्वे वर्त्मनि सुस्थिता पृतिमधुर्धर्मोत्सवैः प्रत्यहम् ।।२०५॥ प्रजाका पालन करने में प्रयत्न करना चाहिए ।।१६७।। इस प्रकार इन्द्रियोंको जीतनेवाले राजाका प्रजापालन नामका गुण कहा । अब समंजसत्व नामका अन्य गुण कहते हैं ।।१६८।। राजा अपने चित्तका समाधान कर जो दुष्ट पुरुषोंका निग्रह और शिष्ट पुरुषोंका पालन करता है वही उसका समंजसत्व गुण कहलाता है ॥१६६। जो राजा निग्रह करने योग्य शत्रु अथवा पुत्र दोनोंका निग्रह करता है, जिसे किसीका पक्षपात नहीं है, जो दुष्ट और मित्र, सभीको निरपराध बनानेकी इच्छा करता है और इस प्रकार मध्यस्थ रहकर जो सबपर समान दृष्टि रखता है वह समंजस कहलाता है तथा प्रजाओंको विषम दृष्टिसे नहीं देखना अर्थात् सबपर समान दृष्टि रखना ही राजाका समंजसत्व गुण है ॥२००-२०१॥ इस समंजसत्व गुणसे ही राजाको न्यायपूर्वक आजीविका करनेवाले शिष्ट पुरुपोंका पालन और अपराध करनेवाले दुष्ट पुरुषोंका निग्रह करना चाहिए ॥२०२।। जो पुरुष हिंसा आदि दोषोंमें तत्पर रहकर पाप करते हैं वे दुष्ट कहलाते हैं और जो क्षमा, संतोष आदि गुणोंके द्वारा धर्म धारण करने में तत्पर रहते हैं वे शिष्ट कहलाते हैं ।।२०३। इस प्रकार सोलहवें मनु तथा समस्त चक्रवतियोंमें प्रथम राजा महाराज भरतने उन क्षत्रियोंको भगवत्प्रणीत मार्गमें नियुक्त करते हुए, अपने पिता श्री वृषभदेवको इष्ट ऊंचे नीचे योग्य वचनोंसे राजाओंके समस्त आचारका उपदेश दिया ॥२०४॥ इस प्रकार भरतेश्वरने जिसका अच्छी तरह प्रतिपादन किया है ऐसे सबका हित करनेवाले, क्षत्रियोंके उत्कृष्ट धर्मको स्वीकार कर सब राजा लोग प्रसन्न हो अपने अपने आचरणोंका पालन करने लगे और उन र जाओंके योग ( नवीन वस्तुकी प्राप्ति ) तथा क्षेम ( प्राप्त हुई वस्तुकी रक्षा ) में प्रवृत्त रहनेपर अपना हित चाहनेवाले सब वर्णाश्रमोंके लोग अपने-अपने १ पक्षपातरहितः। २ अपराधरहितम् । ३ समञ्जसत्वसद्भाव: अ०, १०, स०, ल०, म० । ४ सुष्टु प्रोक्ते । ५ सर्वेभ्यो हितम् । ६ अनुजग्मुः । 'ऋ गतौ लुङि । ह्वादित्वात् शपः श्लुपि द्विर्भावे, झेर्जुसिति उत्तरऋकारस्य अकारादेशे, पूर्वऋकारस्य इत्वे, पुनर्यादेशेऽपि च कृते, 'एयरुः' इति सिद्धिः । ७ उर्वीश्वरेषु । ८ हितेन सहिताः । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व ३४९ जातिक्षत्रियवत्तमर्जिततरं रत्नत्रयाविष्कृतं तीर्थक्षत्रियवृत्तमप्यनुजगौ यच्चक्रिणामग्रणीः । तत्सर्व मगधाधिपाय भगवान् वाचस्पतिौतमो 'व्याचख्यावखिलार्थतत्त्वविषयां जैनी अति ख्यापयन् ॥२०६॥ वन्दारोर्भरताधिपस्य जगतां भर्तुः क्रमौ वेधसः _ तस्यानुस्मरतो गुणान् प्रणमतस्तं देवमाद्यं जिनम् । तस्यैवोपचितिं सुरासुरगुरोर्भक्त्या मुहुस्तन्वतः कालोऽनल्पतरः सुखाद् व्यतिगतो नित्योत्सवैः संभृतः ॥२०७॥ मन्दाक्रान्ता जैनीमिज्यां वितन्वन्नियतमनुदिनं प्रीणयन्नथिसाथ शश्वद्विश्वम्भरेशैरवनितलसन्मौलिभिः सेव्यमानः । क्ष्मां कृत्स्नामापयोधेरपि च हिमवतः पालयनिस्सपत्नां रम्यैः स्वेच्छाविनोदैनिरविश दधिराड् भोगसारं दशाङ्गम् ॥२०॥ इत्यार्षे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रह भरतराजवर्णाश्रमस्थितिप्रतिपादनं नाम द्विचत्वारिंशत्तम पर्व ॥१२॥ मार्गमें स्थिर रहकर प्रतिदिन धर्मोत्सव करते हुए सन्तोष धारण करने लगे ॥२०५।। चक्रवतियोंमें अग्रेसर महाराज भरतने जो अत्यन्त उत्कृष्ट जातिक्षत्रियोंका चरित्र तथा रत्नत्रयसे प्रकट हुआ तीर्थक्षत्रियोंका चरित्र कहा था वह सब, समस्त पदार्थोंके स्वरूपको विषय करनेवाले जैन शास्त्रोंको प्रकट करते हुए वाचस्पति ( श्रुतकेवली ) भगवान् गौतम गणधरने मगध देशके अधिपति श्रेणिकके लिए निरूपण किया ॥२०६॥ तीनों लोकोंके स्वामी भगवान् वृषभदेवके चरणोंकी वन्दना करनेवाले, उन्हीं परब्रह्मके गुणोंका स्मरण करनेवाले, उन्हीं प्रथम जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करनेवाले और सुर तथा असुरोंके गुरु उन्हीं भगवान् वृषभदेवकी भक्तिपूर्वक बार-बार पूजा करनेवाले भरतेश्वरका निरन्तर होनेवाले उत्सवोंसे भरा हुआ भारी समय सुखसे व्यतीत हो गया ॥२०७॥ जो नियमित रूपसे प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करता है, जो प्रतिदिन याचकोंके समहको सन्तुष्ट करता है. पथिवीपर झुके हए मकूटोंसे सुशोभित होनेवाले राजा लोग जिसकी निरन्तर सेवा करते हैं और जो हिमवान् पर्वतसे लेकर समुद्रपर्यन्तकी शत्रुरहित समस्त पृथिवीका पालन करता है ऐसा वह सम्राट भरत अपनी इच्छानुसार क्रीड़ाओंके द्वारा दश प्रकारके उत्तम भोगोंका उपभोग करता था ॥२०८॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें भरतराजको वर्णाश्रमकी रीतिका प्रतिपादन करनेवाला बयालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥४२।। १ उवाच । २ प्रकटीकुर्वन् । ३ पूजाम् । ४ व्यतिक्रान्तः । ५ सम्पोषितः । ६ समुद्रादारभ्य हिमवत्पर्यन्तम् । ७ अन्वभूत् । ८ दिव्यपुररत्ननिधिसेनाभाजनशयनासनवाहननाटयादीनि दशाङ्गानि यस्य स तम्। * ल० म० इ०प० पुस्तकेषु निम्नांकितः पाठोऽधिको दृश्यते । त० ब० अ० स० पुस्तकेष्वेष पाठो न दृश्यते । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० आदिपुराणम् अनुष्टुप् वृषभाय नमोऽशेषस्थितिप्रभवहेतवे । त्रिकाल गोचरानन्तप्रमेयाक्रान्तमूर्तये ॥ १ ॥ सकलकल्याणपथ निर्माणहेतवे । आदिदेवाय संसारसागरोत्तारसेतवे ॥ २॥ नमः पृथ्वीच्छन्दः जयन्ति जितमृत्यat विपुलवीर्यभाजो जिना जगत्प्रमदहेतवो विपदमन्दकन्दच्छिदः ॥ सुरासुरशिरःस्फुरितरागरत्नावलीविलम्बिकिरणोत्करारुणित चारुपादद्वयाः ॥३॥ कृतिर्महाकवेर्भगवतः श्री जिनसेनाचार्यस्येति । वसन्ततिलका धर्मो मुक्तिपदमत्र कवित्वमत्र तीर्थेशिनश्चरितमत्र महापुराणे । कवीन्द्र जिनसेनमुखारविन्दनिर्यद्वचांसि न हरन्ति मनांसि केषाम् ॥ ४ ॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत महापुराणे आद्यं खण्डं समाप्तिमगमत् । जो समस्त मर्यादाकी उत्पत्तिके कारण हैं और जिनकी केवलज्ञानरूपी मूर्ति त्रिकाल - विषयक अनन्त पदार्थोंसे व्याप्त है उन वृषभदेवके लिए नमस्कार हो ॥ १ ॥ जो सब कल्याणोंकें मार्गकी रचना में कारण हैं और जो संसाररूपी समुद्रसे पार करनेके लिए पुलके समान हैं ऐसे प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेवको नमस्कार हो ॥ २॥ जिन्होंने मृत्युको जीत लिया है, जो अनन्त बलको धारण करनेवाले हैं, जो जगत्के आनन्दके बहुत भारी जड़ को काटनेवाले हैं, मणियोंकी पंक्तिसे निकलती हुई कारण हैं, जो विपत्तियोंकी और सुर तथा असुरोंके मस्तकपर चमकते हुए पद्मरागकिरणोंके समूहसे जिनके दोनों सुन्दर चरणकमल कुछ-कुछ लाल हो रहे हैं ऐसे जिनेन्द्रदेव सदा जयवन्त हों ॥३॥ ( इस प्रकार महाकवि भगवान् जिनसेनाचार्यकी कृति समाप्त हुई ) इस महापुराण में धर्मका निरूपण है, मोक्ष पद अथवा मोक्षमार्गका कथन है, उत्तम कविता है और तीर्थंकर भगवान्का चरित है अथवा इस प्रकार समझना चाहिए कि कवियों में श्रेष्ठ श्री जिनसेन के मुखकमलसे निकले हुए वचन किसके मनको हरण नहीं करते हैं ? ||४|| ( इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत महापुराणका प्रथम खण्ड समाप्त हुआ ) 10 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् [उत्तरखण्डम् ] त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व श्रियं तनोतु स श्रीमान् वृषभो वृषभध्वजः । यस्यैकस्य गतेमुक्तमार्गश्चित्रं महानभूत् ॥१॥ विक्रमं कर्मचक्रस्य यश्शक्राभ्यर्चितक्रमः । आक्रम्य धर्मचक्रेण चक्रे त्रैलोक्यचक्रिताम् ॥२॥ योऽस्मिश्चतुर्थकालादौ दिनादौ वा दिवाकरः । जगदुद्योतयामास प्रोद्गच्छद्वारगमस्तिमिः ॥३॥ नष्टमष्टादशाम्भोधिकोटीकोटीषु कालयोः । निर्वाणमार्ग निर्दिश्य येन सिद्धाश्च वर्द्धिताः ॥४॥ तीर्थकृत्सु स्वतः प्राग्यो'' नामादानपराभवः । यमस्मि नस्पृशन्नासौ स्वसूनुमिव चक्रिषु ॥५॥ येन प्रकाशिते' मुक्तार्गेऽस्मिन्नपरेषु तत्' । प्रकाशितप्रकाशोतवैयर्थ्य तीर्थकृत्स्वभूत् ॥६॥ ___ अथानन्तर, जिनकी ध्वजामें वृषभका चिह्न है और सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि जिन एकके जानेसे ही बहुत बड़ा मोक्षका मार्ग बन गया ऐसे अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मीको धारण करनेवाले श्री वृषभदेव सबका कल्याण करें ॥१॥ जिनके चरणकमलकी इन्द्र स्वयं पूजा करता है और जिन्होंने धर्मचक्रके द्वारा कर्मसमूहके पराक्रमपर आक्रमण कर तीनों लोकोंका चक्रवर्तीपना प्राप्त किया है ॥२॥ दिनके प्रारम्भमें सूर्यको तरह इस * चतुर्थकालके प्रारम्भमें उदय होकर जिन्होंने फैलती हुई अपनी वाणीरूपी किरणोंसे समस्त जगत्को प्रकाशित किया है अर्थात् दिव्य ध्वनिके द्वारा समस्त तत्त्वोंका उपदेश दिया है ॥३॥ उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी कालके अठारह कोड़ी सागर तक जो मोक्षका मार्ग नष्ट हो रहा था उसका निर्देश कर जिन्होंने सिद्धोंकी संख्या बढ़ायी है। ॥४॥ जिस प्रकार चक्रवर्तियोंमें अपने पुत्र भरत चक्रवर्तीको उसके पहले किसी अन्य चक्रवर्तीका नाम लेनेसे उत्पन्न हुआ पराभव नहीं छू सका था उसी प्रकार तीर्थकरोंमें अपने पहले किसी अन्य तीर्थ करका नाम लेनेसे उत्पन्न हुआ पराभव जिन्हें छू भी नहीं सका था। भावार्थ-जिस प्रकार भरत इस युगके समस्त चक्रवतियोंमें पहले चक्रवर्ती थे उसी प्रकार जो इस युगके समस्त तीर्थ करोंमें पहले तीर्थ कर थे ॥५॥ जिनके द्वारा इस मोक्षमार्गके प्रकाशित किये जानेपर अन्य तीर्थ करोंमें प्रकाशित हुए मोक्षमार्गको प्रकाशित करनेके कारण उपदेशकी व्यर्थता हुई थी। भावार्थ-इस समय जो मोक्षका मार्ग चल रहा है उसका उपदेश सबसे पहले भगवान् वृषभदेवने ही दिया था उनके पीछे होनेवाले अन्य तीर्थ करोंने भी उसी मार्गका उपदेश दिया है इसलिए उनका उपदेश पुनरुक्त होनेके कारण व्यर्थ-सा जान पड़ता १ गमनात् । २ मुक्तिमार्ग-प०, ल०, म० । ३ कर्मराजसैन्यस्य । ४ जित्वा । ५ चतुर्थकालस्यादौ । ६ इव । ७ उत्सपिण्यवसपिण्योः । ८ उपदेशं कृत्वा । ९ अजितादिषु । १० आत्मनः पुरुजिनात् । ११ पूर्वस्मिन् काले । १२ सामदानपराभवः इति पाठस्य-ल० पुस्तके संकेतः । नामदानपराभवः इति पाठस्य 'द०' पुस्तके संकेतः । अदानपराभव:-आहारादिदानाभाव इति पराभवः । नामदानपराभव इति पाठे कीर्तिदानयोरभाव इति पराभवः । १३ चतुर्थकालस्यादौ। १४ वृषभेण । १५ चतुर्थकालादौ। १६ मोक्षमार्गप्रकाशनम् । १७ प्रकाशितस्य प्रकाशने प्रोक्तव्यर्थत्वम् ।। * भगवान् वृषभदेव तृतीय कालके अन्तमें उत्पन्न हुए और तृतीय कालमें ही मोक्ष पधारे हैं इसलिए आचार्य गुणभद्रने चतुर्थकालके आदिमें होना किस दृष्टिसे लिखा है यह विचारणीय है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ आदिपुराणम् युगभारं' वहन्नेकश्चिरं धर्मरथं पृथुम् । व्रतशीलगुणापूर्ण चित्रं वर्तयति स्म यः ॥७॥ तमेकमक्षरं ध्यात्वा व्यकर्मकमिवाक्षरम् । वक्ष्ये समीक्ष्य लक्ष्याणि तत्पुराणस्य चूलिकाम् ॥८॥ स्वोक्त प्रयुक्ताः सर्वे नों रसागुरुभिरेव ते । 'स्नेहादिह तदुत्सृष्टान्" भक्त्या "तानुपयुंज्महे ॥९॥ - रागादीन् दूरतस्त्यक्त्वा शृङ्गारादिरसोनिभिः । पुराणकारकाः शुद्धबोधाः शुद्धा मुमुक्षवः ॥१०॥ निर्मितोऽस्य पुराणस्य सर्वसारो महात्मभिः । तच्छेपे यतमानानां प्रासादस्यव"नः श्रमः ॥११॥ पुराणे प्रौढशब्दार्थे सत्पत्रफलशालिनि । वचांसि पल्लवानीव कर्ण कुर्वन्तु में बुधाः ॥१२॥ अर्धं गुरुभिरेवास्य' पूर्व निष्पादित परैः । परं' निप्पाद्यमानं सच्छन्दोवन्नातिसुन्दरम् ॥१३॥ इशोरिखास्य पूर्वार्दमेवाभावि रसावहम् । यथा तथास्तु'निष्पत्तिरिति प्रारभ्यते मया ॥१४॥ अनन्विष्य मयि प्रौढिं धर्मोऽयमिति गृह्यताम् । चाटुके स्वादु मच्छन्ति न भोकारस्तु भोजनम् ॥१५॥ है ॥६॥ और आश्चर्य है कि जिन्होंने अकेले ही बहुत काल तक इस अवसर्पिणी युगके भारको ( पक्षमें जुवारीके बोझको ) धारण करते हुए व्रत, शील आदि गुणोंसे भरे हुए बड़े भारी धर्मरथको चलाया था ॥७॥ ऐसे उन अद्वितीय अविनाशी भगवान् वृषभदेवको एक प्रसिद्ध ओम् अक्षरके समान ध्यान कर तथा पूर्वशास्त्रोंका विचार कर इस महापुराणकी चूलिका कहता हूँ॥८॥ हमारे गुरु जिनसेनाचार्यने हमारे स्नेहसे अपने द्वारा कहे हुए पुराणमें सब रस कहे हैं इसलिए उनकी भक्तिसे छोड़े गये रसोंका ही हम आगे इस ग्रन्थमें उपयोग करेंगे ॥९॥ राग आदिको दूरसे ही छोड़कर शृंगार आदि रसोंका निरूपण कर पुराणोंकी रचना करनेवाले शुद्ध ज्ञानी, पवित्र और मोक्षकी इच्छा करनेवाले होते हैं ॥१०॥ इस पुराणका समस्त सार तो महात्मा जिनसेनाचार्यने पूर्ण ही कर दिया है अब उसके वाकी बचे हुए अंशमें प्रयत्न करनेवाले हम लोगोंका परिश्रम ऐसा समझना चाहिए जैसा कि किसी मकानके किसी बचे हुए भागको पूर्ण करनेके लिए थोड़ा-सा परिश्रम करना पड़ा हो ॥११॥ यह पुराणरूपी वृक्ष शब्द और अर्थसे प्रौढ़ है तथा उत्तम-उत्तम पत्ते और फलोंसे सुशोभित हो रहा है इसमें मेरे वचन नवीन पत्तोंके समान हैं इसलिए विद्वान् लोग उन्हें अवश्य ही अपने कर्णोपर धारण करें। भावार्थ-जिस प्रकार वृक्षके नये पत्तोंको लोग अपने कानोंपर धारण करते हैं उसी प्रकार विद्वान् लोग हमारे इन वचनोंको भी अपने कानोंमें धारण करें अर्थात् स्नेहसे श्रवण करें ॥१२॥ इस पुराणका पूर्व भाग गुरु अर्थात् जिनसेनाचार्य अथवा दीर्घ वर्गों से बना हुआ है और उत्तर भाग पर अर्थात् गुरुसे भिन्न शिष्य (गुणभद्र) अथवा लघु वर्गों के द्वारा बनाया जाता है इसलिए क्या वह छन्दके समान सुन्दर नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य होगा। भावार्थ-जिस प्रकार गुरु और लघु वर्गों से बना हुआ छन्द अत्यन्त सुन्दर होता है उसी प्रकार गुरु और शिष्यके द्वारा बना हआ यह पूराण भी अत्यन्त सुन्दर होगा ॥१३॥ 'जिस प्रकार ईखका पूर्वार्ध भाग ही रसीला होता है उसी प्रकार इस पुराणका भी पूर्वार्ध भाग ही रसीला हो' यह विचार कर मैं इसके उत्तरभागकी रचना प्रारम्भ करता हूँ ॥१४॥ मुझमें प्रौढ़ता ( योग्यता ) की खोज न कर इसे केवल धर्म समझकर ही ग्रहण करना चाहिए क्योंकि भोजन करनेवाले प्रिय वचन १ चतुर्थकालधुरम् । दण्डभेदं च । २ अविनश्वरम् । ३ ओङ्कारमिव । ४ पूर्वोक्तशास्त्राणि । ५ पुरुनाथपुराणस्य । ६ अग्रम् । ७ आत्मना प्रणीते पुराणे । ८ अस्माकम् । ९ मयि प्रेम्णः । १० उत्तरपुराणे । ११ तज्जिनसेनाचार्येणावशेषितान् (प्रणीतानेव)। १२ रसान् । १३ महात्मकः ब० । १४ निमितप्रासादावशेषे यतमानानामिव । १५ जिनसेनाचार्यः । छन्दः पक्षे गुर्वक्षरैः । १६ पुराणस्य । १७ अस्मदादिभिः । पक्ष लध्वक्षरैः अल्पाक्षरैः । १८ अपरार्द्धम् । १९ उक्तात्युक्तादिछन्दोभेदवत् । २० निश्चितम् । २१ निष्ठा । २२ अविमृग्य । २३ प्रियवचने । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं अथवा ' भवेदस्य विरसं नेति निश्चयः । धर्माग्रं ननु केनापि नादर्शि विरसं क्वचित् ॥ १६॥ गुरूणामेव माहात्म्यं यद्यपि स्वादु मद्वचः । तरूणां हि प्रभावेण यत्फलं स्वादु जायते ॥ १७॥ निर्यान्ति हृदयाद् वाचो हृदि मे गुरवः स्थिताः । ते तत्र सँस्करिष्यन्ते तन्न मेऽत्र परिश्रमः ॥ १८ ॥ इदं शुश्रूषवो मन्याः कथितोऽर्थो जिनेश्वरैः । तस्याभिधायकाः शब्दास्तन्न निन्दास्त्र वर्तते ॥१९॥ दोषान् गुणान् गुणी गृह्णन् गुणान् दोषांस्तु दोषवान् । सदसज्ज्ञानयोश्वित्रमत्र माहात्म्यमीदृशम् ॥ २० ॥ गुणिनां गुणमादाय गुणी भवतु सज्जनः । असद्दोषसमादानाद् दोषवान् दुर्जनोऽद्भुतम् ॥२१॥ सज्जने दुर्जनः कोपं कामं कर्तुमिहार्हति । तद्वैरिणामनाथानां गुणानामाश्रय यतः ॥२२॥ यथास्वानुगमर्हन्ति सदा स्तोतुं कवीश्वराः । तथा निन्दितुमस्वानुवृत्तं कुकवयोऽपि माम् ॥ २३ ॥ कविरेव कवेत्ति कामं काव्यपरिश्रमम् । वन्ध्या स्तनंधयोत्पत्तिवेदनामिव नाकविः ॥ २४॥ गृहाणेहास्ति चेोषं स्वं धनं न निषिध्यते । खलासि प्रार्थितो भूयस्त्वं गुणान्न ममाग्रहीः ॥ २५ ॥ ३५३ कहने पर ही स्वादिष्ट भोजनकी इच्छा नहीं करते । भावार्थ - जिस प्रकार भोजन करनेवाले पुरुष प्रिय वचनों की अपेक्षा न कर स्वादिष्ट भोजनका ही विचार करते हैं उसी प्रकार धर्मात्मा लोग मेरी योग्यताकी अपेक्षा न कर केवल धर्मका ही विचार करें - धर्म समझकर ही इसे ग्रहण करें ।। १५ ।। अथवा इस पुराणका अग्रभाग भी नीरस नहीं होगा यह निश्चय है क्योंकि धर्मका अग्रभाग कहीं किसी पुरुषने नीरस नहीं देखा ॥ १६ ॥ यदि मेरे वचन स्वादिष्ट हों तो इसमें गुरुओं का ही माहात्म्य समझना चाहिए क्योंकि जो फल मीठे होते हैं वह वृक्षोंका ही प्रभाव समझना चाहिए ॥ १७ ॥ चूंकि वचन हृदयसे निकलते हैं और मेरे हृदय में गुरु विद्यमान हैं इसलिए वे मेरे वचनों में अवश्य ही संस्कार करेंगे अर्थात् उन्हें सुधार लेंगे अतः मुझे इस ग्रन्थके बनाने में कुछ भी परिश्रम नहीं होगा || १८ || इस पुराणको सुननेकी इच्छा करनेवाले भव्य जीव हैं, इसका अर्थ जिनेन्द्रदेवने कहा है और उसके कहनेवाले शब्द हैं इसलिए इसमें निन्दा ( दोष ) नहीं है ॥ १९ ॥ गुणी लोग दोषोंको भी गुणरूपसे ग्रहण करते हैं और दोषी लोग गुणों को भी दोषरूपसे ग्रहण करते हैं, इस संसार में सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानका यह ऐसा ही विचित्र माहात्म्य है || २० | सज्जन पुरुष गुणी लोगोंके गुण ग्रहण कर गुणी हों यह ठीक है। परन्तु दुष्ट पुरुष अविद्यमान दोषोंको ग्रहण कर दोषी हो जाते हैं यह आश्चर्यकी बात है ॥ २१ ॥ इस संसारमें दुर्जन पुरुष सज्जनोंपर इच्छानुसार क्रोध करनेके योग्य हैं क्योंकि वे उन दुष्टों के शत्रु स्वरूप, अनाथ गुणोंके आश्रयभूत हैं । भावार्थ - चूँकि सज्जनोंने दुर्जनोंके शत्रुभूत, अनाथ दिया है इसलिए वे सज्जनोंपर यदि क्रोध करते हैं तो उचित ही है ॥ २२ ॥ जिस प्रकार कवीश्वर लोग अपने अनुकूल चलनेवालेकी सदा स्तुति करनेके योग्य होते हैं उसी प्रकार कवि भी अपने अनुकूल नहीं चलनेवाले मेरी निन्दा करनेके योग्य हैं । भावार्थ उत्तम कवियों के मार्गपर चलने के कारण जहाँ वे मेरो प्रशंसा करेंगे वहाँ कुकवियों के मार्गपर न चलने के कारण वे मेरी निन्दा भी करेंगे || २३ || कवि ही कविके काव्य करनेके परिश्रमको अच्छी तरह जान सकता है, जिस प्रकार वन्ध्या स्त्री पुत्र उत्पन्न करनेकी वेदनाको नहीं जानती उसी प्रकार अकवि कविके परिश्रमको नहीं जान सकता ॥ २४ ॥ रे दुष्ट, यदि मेरे इस ग्रन्थ में दोष हों तो उन्हें तू ग्रहण कर क्योंकि वह तेरा ही धन है उसके लिए तुझे रुकावट नहीं है, परन्तु १ उत्तरार्द्धम् । २ यदपि प०, ल० म० । ३ प्रभावोऽसौ अ०, प०, इ०, स०, ल० ५ श्रोतुमिच्छवः । ६ तत् कारणात् । ७ दुर्जनद्वेषिणाम् । ८ सज्जनः । आधारः । १० निजानुवर्तिनम् । ४५ म० । ४ गुरवः । ९ यतः कारणात् । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ आदिपुराणम् गुणागुणानभिज्ञेन कृता निन्दाऽथवा स्तुतिः । जात्यन्धस्येव धृष्टस्य रूपे हासाय केवलम् ॥२६॥ अथवा सोऽनभिज्ञऽपि निन्दतु स्तोतु वा कृतिम् । विदग्धपरिहासानामन्यथा वास्तु विश्रमः ॥२७॥ गणयन्ति महान्तः किं क्षुद्रोपद्रवमल्पवत् । दाह्यं तृणाग्निना तूलं पत्युस्तापोऽपि नाम्भसाम् ॥२८॥ काष्ठजोऽपि दहत्यग्निः काष्ठं तं तत्तु' वर्द्धयेत् । प्रदीपायितमेताभ्यां सदसद्भावभासने ॥२९॥ स्तुतिनिन्द कृतिं श्रुत्वा करोतु गुणदोषयोः । ते तस्य कुरुतः कीर्तिमकर्तुरपि सत्कृतेः ॥३०॥ सत्कवेरर्जुनस्येव शराः शब्दास्तु योजिताः । कर्ण दुस्संस्कृतं प्राप्य तुदन्ति हृदयं भृशम् ॥३१॥ प्रवृत्तेयं कृतिः कृत्वा गुरून् पूर्वकवीश्वरान् । भाविनोद्यतनाश्चास्या विदध्युः शुद्ध्यनुग्रहम् ॥३२॥ मतिमें केवलं सूते कृतिं राजीव तत्सुताम् । धियस्ता वर्तयिष्यन्ति धात्रीकल्पाः कवीशिनाम् ॥३३॥ इदं बुधा ग्रहीष्यन्ति मा गृहीषुः पृथग्जनाः। किमतौल्यानि रखानि क्रीणन्त्यकृतपुश्यकाः ॥३४॥ हृदि धर्ममहारत्नमागमाग्भोधिसंभवम् । कौस्तुभादधिकं मत्वा दधातु पुरुषोत्तमः ॥३५॥ मैं तुझसे यह फिर भी प्रार्थना करता हूँ कि तू मेरे गुणोंका ग्रहण मत कर । भावार्थ - दुर्जनोंके द्वारा दोष ग्रहण किये जानेपर रचना निर्दोष हो जावेगी और निर्दोष होनेसे सबको रुचिकर होगी परन्तु गुण ग्रहण किये जानेपर वह निर्गुण हो जानेसे किसीको रुचिकर नहीं होगी अतः यहाँ आचार्यने दुर्जन पुरुषसे कहा है कि तू मेरी इस रचनाके दोष ग्रहण कर क्योंकि वह तेरा धन है परन्तु गुणोंपर हाथ नहीं लगाना ॥ २५ ॥ जिस प्रकार जन्मके अन्धे किसी धृष्ट पुरुषके द्वारा की हुई किसीके रूपकी स्तुति या निन्दा उसकी हंसीके लिए होतो है उसी प्रकार गुण और दोषोंके विषयमें अजानकार पुरुषके द्वारा की हुई स्तुति या निन्दा केवल उसकी हँसीके लिए होती है ॥ २६ ॥ अथवा वह अजानकार मनुष्य भी मेरी रचनाकी निन्दा या स्तुति करे क्योंकि ऐसा न करनेसे चतुर पुरुषोंको हास्यका स्थान कहाँ प्राप्त होगा। भावार्थ - जो मनुष्य उस विषयका जानकार न होकर भी किसीकी निन्दा या स्तुति करता है चतुर मनुष्य उसकी हँसी ही करते हैं ।। २७ ॥ महापुरुष क्या तुच्छ मनुष्योंके समान छोटे-छोटे उपद्रवोंको गिना करते हैं ? अर्थात् नहीं। तृणकी आगसे रुई जल सकती है परन्तु उससे समुद्रके जलको सन्ताप नहीं हो सकता ॥२८॥ काठसे उत्पन्न हुई अग्नि काठको जला देती है परन्तु काठ उसे बढ़ाता ही है, ये दोनों उदाहरण अच्छे और बुरे भावोंको प्रकट करनेके विषयमें दीपकके समान आचरण करते हैं ।।२९॥ दुष्ट पुरुष मेरी रचनाको सुनकर गुणोंकी स्तुति और दोषोंकी निन्दा करें क्योंकि यद्यपि वे उत्तम रचना करना नहीं जानते तथापि मेरी रचनाकी स्तुति अथवा निन्दा ही उनकी कीर्तिको करनेवाली होगी ॥ ३० ॥ उत्तम कविके वचन ठीक अर्जुनके बाणोंके समान होते हैं क्योंकि जिस प्रकार अर्जुनके बाण काममें लानेपर खोटे संस्कारवाले कर्ण ( कर्ण नामका राजा) को पाकर उसके हृदयको दुःख पहुँचाते थे उसी प्रकार उत्तम कविके वचन काममें लानेपर खोटे संस्कारवाले कर्ण (श्रवण इन्द्रिय) को पाकर हृदयको अत्यन्त दुःख पहँचाते हैं ॥३१॥ पहलेके कवीश्वरोंको गुरु मानकर ही यह रचना की गयी है इसलिए जो कवि आज विद्यमान हैं अथवा आगे होंगे वे सब इसे शुद्ध करनेकी कृपा करें ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार रानी किसी उत्तम कन्याको केवल उत्पन्न करती है उसका पालन-पोषण धाय करती है उसी प्रकार मेरी बुद्धि इस रचनाको केवल उत्पन्न कर रही है इसका पालन-पोषण धायके समान कवीश्वरोंकी बुद्धि ही करेगी ॥ ३३ ॥ मेरे इस काव्यको पण्डितजन ही ग्रहण करेंगे अन्य मूर्ख लोग भले ही ग्रहण न करें क्योंकि जिन्होंने पुण्य नहीं किया है ऐसे दरिद्र पुरुष क्या अमूल्य रत्नोंको खरीद सकते हैं ? अर्थात् नहीं ॥ ३४ ॥ पुरुषोत्तम ( नारायण अथवा उत्तम मनुष्य ) आगमरूपी १ काष्ठम् । २ अग्निकाष्ठाभ्याम् । ३ स्तुतिनिन्दे । ४ कृतेः । ५ आददति । ६ कृष्ण इति ध्वनिः । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ३५५ श्रोत्रपात्राञ्जलिं कृत्वा पीत्वा धर्मरसायनम् । अजरामरतां प्राप्तुमुपयुध्वमिदं' बुधाः ॥३६॥ नूनं पुण्यं पुराणाब्धेमध्यमध्यासितं मया । तत्सुभाषितरत्नानि संचितानीति निश्चितिः ॥३७॥ सुदूरपारगम्भीरमिति नात्र भयं मम । पुरोगा गुरवः सन्ति प्रष्टाः सर्वत्र दुर्लभाः ॥३८॥ पुराणस्यास्य संसिद्धिर्नाम्ना स्वेनैव सुचिता। निर्वक्ष्याम्यत्र नो वेत्ति ततो नास्म्यहमाकुलः ॥३९॥ पुराणं मार्गमासाद्य जिनसेनानुगा ध्रुवम् । भवाब्धेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमुच्यते ॥४०॥ अर्थो मनसि जिह्वाग्रे शब्दः सालंकृति स्तयोः । अतः पुराणसंसिद्धर्नास्ति कालविलम्बनम् ॥४१॥ आकरेष्विव रखानामूहानां नाशये क्षयः । विचित्रालंकृतीः कर्तुं दौर्गत्यं किं कवेः कृतीः ॥४२॥ विचित्रपदविन्यासा रसिका सर्वसुन्दरा । कृतिः सालंकृतिर्न स्यात् कस्येयं कामसिद्धये ॥४३॥ संचितस्यैनसो हन्त्री नियन्त्री चागमिष्यतः । आमन्त्रिणी° च पुण्यानां ध्यातव्येयं कृतिः शुभा ॥४४॥ समुद्रसे उत्पन्न हुए इस धर्मरूपी महारत्नको कौस्तुभ मणिसे भी अधिक मानकर अपने हृदयमें धारण करें ॥३५॥ पण्डितजन कामरूपी पात्रकी अंजलि बना इस धर्मरूपी रसायनको पीकर अजर अमरपना प्राप्त करनेके लिए उद्यम करें ॥३६॥ मुझे यह निश्चय है कि मैंने अवश्य ही इस पुराणरूपी समुद्रके पवित्र मध्यभागमें अधिष्ठान किया है और उससे सुभाषितरूपी रत्नोंका संचय किया है ॥३७॥ यह पुराणरूपी समुद्र अत्यन्त गम्भीर है, इसका किनारा बहुत दूर है इस विषयका मुझे कुछ भी भय नहीं है क्योंकि सब जगह दुर्लभ और सबमें श्रेष्ठ गुरु जिनसेनाचार्य मेरे आगे हैं ॥३८॥ इस पुराणकी सिद्धि अपने महापुराण इस नामसे ही सूचित है इसलिए मैं इसे कह सकूँगा अथवा इसमें निर्वाह पा सकूँगा या नहीं इसकी मुझे कुछ भी आकुलता नहीं है ॥३९॥ जिनसेनाचार्यके अनुगामी शिष्य प्रशस्त मार्गका आलम्बन कर अवश्य ही संसाररूपी समुद्रसे पार होनेकी इच्छा करते हैं फिर इस पुराणके पार होनेकी बात तो कहना ही क्या है ? भावार्थ-जिनसेनाचार्यके द्वारा बतलाये हुए मार्गका अनुसरण करनेसे जब संसाररूपी समुद्रका पार भी प्राप्त किया जा सकता है तब पुराणका पार (अन्त) प्राप्त करना क्या कठिन है ? ॥४०॥ अर्थ मनमें हैं, शब्द जिह्वाके अग्रभागपर हैं और उन दोनोंके अलंकार प्रसिद्ध हैं ही अतः इस पुराणकी सिद्धि (पूर्ति) होनेमें समयका विलम्ब नहीं है अर्थात् इसकी रचना शीघ्र ही पूर्ण होगी ॥४१॥ जिस प्रकार खानिमें रत्नोंकी कमी नहीं है उसी प्रकार जिसके मनमें तर्क अथवा पदार्थों की कमी नहीं है फिर भला जिसमें अनेक प्रकारके अलंकार हैं ऐसे काव्यके बनानेवाले कविको दरिद्रता किस बातकी है ? ॥४२॥ मेरी यह रचना अत्यन्त सुन्दरी स्त्रीके समान है क्योंकि जिस प्रकार सुन्दर स्त्री विचित्र पदन्यासा अर्थात् अनेक प्रकारसे चरण रखनेवाली होती है उसी प्रकार यह रचना भी विचित्र पदन्यासा अर्थात् अनेक प्रकारके सुबन्त तिङन्त रूप पद, रखनेवाली है, जिस प्रकार सुन्दर स्त्री रसिका अर्थात् रसीली होती है उसी प्रकार यह रचना भी रसिका अर्थात् अनेक रसोंसे भरी हुई है, और जिस प्रकार सुन्दर स्त्री सालंकारा अर्थात् कटक कुण्डल आदि आभूषणोंसे सहित होती है उसी प्रकार यह रचना भी सालंकारा अर्थात् उपमा रूपक आदि अलंकारोंसे सहित है। इस प्रकार मेरी यह रचना सुन्दरी स्त्रीके समान भला किसके मनोरथकी सिद्धिके लिए न होगी ? भावार्थइसके पढ़नेसे सबके मनोरथ पूर्ण होंगे ॥४३॥ यह शुभ रचना पहलेके संचित पापोंको नष्ट १ उपयुञ्जीध्वम् । २ प्रसिद्धा । ३ अलङ्कारश्च जिह्वाग्रे वर्तते । ४ शब्दार्थयोः । ५ -लङ्कृतेः कर्तुर्दोर्गत्यं अ०, ५०, ल०, म०। -लङ्कृतेः कर्तुं दौर्गत्यं इ०, स०। ६ कृतेः अ०, प०, ल०, म०, इ०, स०। ७ -सुन्दरी ल०, म० । ८ विनाशिनी । ९ प्रतिषेद्धी । १० आमन्त्रणी स० । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ आदिपुराणम् संस्कृतानां हिते प्रीतिः प्राकृतानां प्रियं प्रियम् । एतद्धितं प्रियं चातः सर्वान् सन्तोषयत्यलम् ॥४॥ इदं निष्पन्नमवान स्थितमवायुगान्तरम् । इत्याविर्भावितोत्साहः प्रस्तुवे प्रस्तुतां कथाम् ॥४६॥ इति पीठिका । अथातः श्रेणिकः पीत्वा पुरोः सुचरितामृतम् । आसिरवादयिपुः शेष 'हस्तलग्नमिवोन्सुकः ॥४७॥ समुत्थाय सभामध्ये प्राञ्जलिः प्रणतो मनाक । पुनर्विज्ञापयामास गौतमं गणनायकम् ॥४॥ त्वत्प्रसादाच्छुतं सम्यकपुराणं परमं पुरोः । निवृत्तोऽसौ यथास्यान्ते तथाहं चातिनिवृतः ॥४९॥ किल तस्मिन् जयो नाम तीर्थेऽभूत् पार्थिवाग्रणीः ।' यस्याद्यापि जितार्कस्य प्रतापः प्रथत क्षिती ॥५० यस्य दिग्विजये मेघकुमारविजये स्वयम् । वीरपटं समुद्धत्य बबन्ध भरतेश्वरः ॥५१॥ पुरस्तीर्थकृतां पूर्वश्चक्रिणां भरतेश्वरः । दानतीर्थकृतां श्रेयान किलासौ च स्वयंवरे ॥५२॥ अर्ककीर्ति पुरोः पौत्रं" संगरे कृतसंगरः। जित्वा निगलयामास" किलैकाकी सहेलया ॥५३॥ सेनान्तो वृषभः कुम्भो रथान्तो दृढसंज्ञकः । धनुरन्तः शतो देवशर्मा भावान्तदेवभाक् ॥५४॥ नन्दनः सोमदत्ताह्वः सूरदत्तो गुणैर्गुरुः । वायुशर्मा यशोबाहुर्देवाग्निश्चाग्निदेववाक ॥५५॥ अग्निगुप्तोऽथ मित्राग्निहलभृत् समहीधरः । महेन्द्रो वसुदेवश्च ततः पश्चाद्वसुन्धरः ॥५६॥ करनेवाली है, आनेवाले पापोंको रोकनेवाली है और पुण्योंको बुलानेवाली है इसलिए इसका सदा ध्यान करते रहना चाहिए ॥४४॥ उत्तम मनुष्योंकी हितमें प्रीति होती है और साधारण मनुष्यको जो इष्ट है वही प्रिय होता है, यह पुराण हितरूप भी है और प्रिय भी है अतः सभीको अच्छी तरह सन्तुष्ट करता है ॥४५॥ यह तैयार हुआ पुराण अवश्य ही इस संसार में युगान्तर तक स्थिर रहेगा इस प्रकार जिसे उत्साह प्रकट हुआ है ऐसा मैं अब प्रकृत कथाका प्रारम्भ करता हूँ ॥४६॥ ( इस प्रकार पीठिका समाप्त हुई। ) अथानन्तर-राजा श्रेणिक भगवान् वृषभदेयके उत्तम चरितरूपी अमृतको पीकर हाथमें लगे हुए की तरह उसके शेष भागको भी आस्वादन करनेकी इच्छा करता हुआ अत्यन्त उत्कण्ठित हो उठा ॥४७॥ उसने सभाके बीच में खड़े होकर हाथ जोड़े, कुछ शिर झुकाकर नमस्कार किया और फिर गौतम गणधरसे इस प्रकार प्रार्थना की कि हे भगवान्, मैंने आपके प्रसादसे श्री वृषभदेवका यह उत्कृष्ट पुराण अच्छी तरह श्रवण किया है। जिस प्रकार भगवन् वृषभदेव इस पुराणके अन्त में निर्वाणको प्राप्त होकर सुखी हुए हैं उसी प्रकार में भी इसे सुनकर अत्यन्त सुखी हुआ हूँ। ऐसा सुना जाता है कि भगवान् वृषभदेवके तीर्थमें सब राजाओंमें श्रेष्ठ जयकुमार नामका वह राजा हुआ था, जिसने अर्ककीतिको भी जीता था और जिसका प्रताप आज भी पृथिवीपर प्रसिद्ध है। दिग्विजयके समय मेघकुमारको जीत लेनेपर जिसके लिए स्वयं महाराज भरतने वीरपट्ट निकालकर बाँधा था, जिस प्रकार तीर्थ करोंमें वृषभदेव, चक्रवतियोंमें सम्राट् भरत और दान तीर्थकी प्रवृत्ति करनेवालोंमें राजा श्रेयांस सर्वप्रथम हुए हैं उसी प्रकार जो स्वयंवरकी विधि चलाने में सर्वप्रथम हुआ है, जिसने युद्ध में प्रतिज्ञा कर श्री वृषभदेवके पोते अर्ककीतिको अकेले ही लीलामात्रमें जीतकर बाँध लिया था तथा वृषभसेन १, कुम्भ २, दृढरथ ३, शतधनु ४, देवशर्मा ५, देवभाव ६, नन्दन ७, सोमदत्त ८, गुणोंसे श्रेष्ठ सूरदत्त ९, वायुशर्मा १०, यशोबाहु ११, देवाग्नि १२, अग्निदेव १३, अग्निगुप्त १४, मित्राग्नि १५, हलभृत् १६, १ उत्तमपुरुषाणाम् । २ परिणमनसुखावधे । ३ साधारणानाम् । ४ आपातरमणीयम् । अनुभवनकाले सुन्दरमित्यर्थः । ५ इष्टम् । ६ पुराणम् । ७ प्रारम्भ। ८ वृषभस्य । ९ आस्वादयितुमिच्छुः । १० हस्तालग्न-अ० प०, ल०, म० । ११ ईषत् । १२ अतिसुंखी। १३ जयस्य । १४ जयकुमारः। १५ नप्तारम् । १६ कृतप्रतिज्ञः । १७ बबन्ध । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व अचलो मेरुसंज्ञश्च ततो मेरुधनाह्वयः । मरुभूतिर्यशोयज्ञप्रान्तसर्वाभिधानको ॥५७॥ सर्वगुप्तः प्रियप्रान्तसो देवान्तसर्ववाक् । सर्वादिविजयो गुप्तो विजयादिस्ततः परः ॥८॥ विजयमित्रो विजयिलोऽपराजितसंज्ञकः । वसुमित्रः सविश्वादिसेनः सेनान्तसाधुवाक् ॥५९॥ देवान्तसत्यः सत्यान्तदेवो गुप्तान्तसत्यवाक । सत्यमित्रः सतां ज्येष्ठः संमितो निर्मलो गुणैः ॥६॥ विनीतः संवरो गुप्तो मुन्यादिमुनिदत्तवाक् । मुनियज्ञो मुनिर्देवप्रान्तो यज्ञान्तगुप्त वाक् ॥६॥ मित्रयज्ञः स्वयम्भूश्च देवदत्तान्तगो भगौ । भगादिफल्गुः फल्लवन्तगुप्तो मित्रादिफल्कः ॥६२॥ प्रजापतिः सर्वसन्धो वरुणो धनपालकः । मघवान् राश्यन्ततेजो महावीरो महारथः ॥६३॥ विशालाक्षो महाबालः शुचिसालस्ततः परः । वज्रश्च वज्रसारश्च चन्द्रचूलसमाह्वयः ॥६४॥ जयो महारसः कच्छमहाकच्छावतुच्छकौ । नमिर्विनमिरन्यौ च बलातिबलसंज्ञको ॥६५॥ बलान्तभद्रो नन्दी च महाभागी परस्ततः । मित्रान्तनन्दी देवान्तकामोऽनुपमलक्षणः ॥६६॥ चतुर्मिरधिकाशीतिरिति स्रष्टुर्गणाधिपाः । एते सप्तद्धिसंयुक्ताः सर्वे वेद्य नुवादिनः ॥६७॥ स एवासीद् गृहत्यागादेतेष्वप्युदितोदितः । एकसप्तति संख्यानसंप्राप्तगणनो गणी ॥६॥ पुराणं तस्य में ब्रूहि महत्तत्रास्ति कौतुकम् । भव्यचातकवृन्दस्य प्रघणो भगवानिति ॥६९॥ ततः स्वस्य समालक्ष्य गणाधीशादनुग्रहम् । अलञ्चकार स्वस्थानमिङ्गितज्ञा हि धीधनाः ॥७०॥ यत्प्रष्टुमिष्टमस्माभिः पृष्टं शिष्टं त्वयैव तत् । चेतो जिह्वा त्वमस्माकमित्यस्तावीत् सभा च तम् ॥७॥ प्रसिद्ध महीधर १७, महेन्द्र १८, वसुदेव १९, उसके अनन्तर वसुन्धर २०, अचल २१, मेरु २२, तदनन्तर मेरुधन २३, मेरुभूति २४, सर्वयश २५, सर्वयज्ञ २६, सर्वगुप्त २७, सर्वप्रिय २८, सर्वदेव २९, सर्वविजय ३०, विजयगुप्त ३१, फिर विजयमित्र ३२, विजयिल ३३, अपराजित ३४, वसुमित्र ३५, प्रसिद्ध विश्वसेन ३६, साधुसेन ३७, सत्यदेव ३८, देवसत्य ३६, सत्यगुप्त ४०, सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ सत्यमित्र ४१, गुणोंसे युक्त निर्मल ४२, विनीत ४३, संवर ४४, मुनिगुप्त ४५, मुनिदत्त ४६, मुनियज्ञ ४७, मुनिदेव ४८, गुप्तयज्ञ ४९, मित्रयज्ञ ५०, स्वयंभू ५१, भगदेव ५२, भगदत्त ५३, भगफल्गु ५४, गुप्तफल्गु ५५, मित्रफल्गु ५६, प्रजापति ५७, सर्वसंघ ५८, वरुण ५६, धनपालक ६०, मघवान् ६१, तेजोराशि ६२, महावीर ६३, महारथ ६४, विशालाक्ष ६५, महाबाल ६६, शुचिशाल ६७, फिर वज्र ६८, वज्रसार ६९, चन्द्रचूल ७०, जय ७१, महारस ७२, अतिशय श्रेष्ठ कच्छ ७३, महाकच्छ ५४, नमि ७५, विनमि ७६, बल ७७, अतिबल ७८, भद्रबल ७६, नन्दी ८०, फिर महाभागी ८१, नन्दिमित्र ८२, कामदेव ८३ और अनुपम ८४ । इस प्रकार भगवान् वृषभदेवके ये ८४ गणधर थे, ये सभी सातों ऋद्धियोंसे सहित थे और सर्वज्ञ देवके अनुरूप थे। इन चौरासी गणधरोंमें जो घरका त्याग कर अत्यन्त प्रभावशाली, गुणवान् और इकहत्तरवीं संख्याको प्राप्त करनेवाला अर्थात् इकहत्तरवाँ गणधर हुआ था, उन्हीं जयकुमारका पुराण मुझे कहिए क्योंकि उसमें बहुत भारी कौतुक है। आप भव्यजीवरूपी चातक पक्षियोंके समूहके लिए उत्तम मेघके समान तदनन्तर गणधरदेवसे अपना अनुग्रह जानकर राजा श्रेणिक अपने स्थानको अलंकृत करने लगा अर्थात् अपने स्थानपर जा बैठा सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष संकेतको जाननेवाले होते हैं ॥ ७० ॥ 'हे शिष्ट' जिसे हम लोग पूछना चाहते थे वही तूने पूछा है इसलिए १ सर्वयशाः सर्वयज्ञाः । २ देवदत्तभगदत्तौ। ३ सर्वज्ञसुदशः । ४ पर्यभ्युदयवान् । प्रतिख्यात इत्यर्थः । ५ एतेषु चतुरशीतिगणधरदेवेष्वेकसप्ततिसंख्यां प्राप्तगणनाः । ६ गुणी ल०, म०। ७ जयस्य । ८ प्रकृष्टमेघ इति विज्ञापयामास । ९ ज्ञात्वेत्यर्थः । १० स्तुतिमकरोत् । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ आदिपुराणम् गणी तेनेति संपृष्टः प्रवृत्तस्तदनुग्रहे । नार्थिनो विमुखान् सन्तः कुर्वन्ते तद्धि तद्वतम् ॥७२॥ शृणु श्रेणिक संप्रश्नस्त्वयात्रावसरे कृतः । नाराधयन्ति कान्वाते सन्तोऽवसरवेदिनः ॥७३॥ कथामुखम् इह जम्बूमति द्वीपे दक्षिणे भरते महान् । वर्णाश्रमसमाकीर्णो देशोऽस्ति कुरुजाङ्गलः ॥७॥ धर्मार्थकाममोक्षाणामेको लोकेऽयमाकरः । भाति स्वर्ग इव स्वर्गे विमानं वाऽमरेशितुः ॥७५॥ हास्तिनाख्यं पुरं तत्र विचित्रं सर्वसंपदा । संभवं मृषयद्वाद्धौं लक्ष्याः कुलगृहायितम् ॥४६॥ पतिः पतिर्वा ताराणामस्य सोमप्रभोऽभवत् । कुर्वन् कुवलयाह्लादं सत्करैः स्वैर्बुधाश्रयः ॥७७॥ तस्य लक्ष्मीमनाक्षिप्य वक्षःस्थलनिवासिनी । लक्ष्मीरियं द्वितीयेति प्रेक्ष्या लक्ष्मीवती सती ॥८॥ तयोर्जयोऽभवत् सूनुः प्रज्ञाविक्रमयोरिव । तन्वन्नाजन्मनः कीर्ति लक्ष्मीमिव गुणार्जिताम् ॥७९॥ सुताश्चतुर्दशास्यान्ये जज्ञिरे विजयादयः । गुणैर्मनून् व्यतिक्रान्ताः संख्यया "सदृशोऽपि ते ॥८॥ प्रवृद्धनिजचेतोभिस्तैः पञ्चदशभिर्भृशम् । कान्तैः कलाविशेषैर्वा राजराजो रराज सः ॥८१॥ तू ही हमारा मन है और तू ही मेरी जीभ है' इस प्रकार समस्त सभाने उसकी प्रशंसा की थी ॥ ७१ ॥ राजा श्रेणिकके द्वारा इस प्रकार पूछे गये गौतम गणधर उसका अनुग्रह करनेके लिए तत्पर हए सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पूरुष याचकोंको विमख नहीं करते, निश्चयसे यही उनका व्रत है ।। ७२ ॥ गौतम स्वामी कहने लगे कि हे श्रेणिक ! सून, तुने यह प्रश्न अच्छे अवसरपर किया है अथवा यह ठीक है कि अवसरको जाननेवाले सत्पुरुष अन्तमें किसको वश नहीं कर लेते ॥ ७३ ॥ . इस जम्बू द्वीपके दक्षिण भरतक्षेत्रमें वर्ण और आश्रमोंसे भरा हुआ कुरुजांगल नामका बड़ा भारी देश है ।। ७४ ॥ संसारमें यह देश धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोकी एक खान है। तथा यह देश स्वर्गके समान है अथवा स्वर्गमें भी इन्द्रके विमानके समान है ॥ ७५ ।। उस देशमें हस्तिनापुर नामका एक नगर है जो कि सब प्रकारको सम्पदाओंसे बड़ा ही विचित्र है तथा जो समुद्र में लक्ष्मीकी उत्पत्तिको झूठा सिद्ध करता हुआ उसके कुलगृहके समान जान पड़ता है ॥ ७६ ॥ उस नगरका राजा सोमप्रभ था जो कि ठीक चन्द्रमाके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा अपने उत्तम कर अर्थात् किरणोंसे कुवलय अर्थात् कुमुदोंको आनन्दित-विकसित करता हुआ बुध अर्थात् बुध ग्रहके आश्रित रहता है उसी प्रकार वह राजा भी अपने उत्तम कर अर्थात् टैक्ससे कुवलय अर्थात् महीमण्डलको आनन्दित करता हुआ बुध अर्थात् विद्वानोंके आश्रयमें रहता था ॥७७॥ उस राजाकी लक्ष्मीवती नामकी अत्यन्त सुन्दरी पतिव्रता स्त्री थी जो कि ऐसी जान पड़ती थी मानो उसकी लक्ष्मीका तिरस्कार न कर वक्षःस्थलपर निवास करनेवाली दूसरी ही लक्ष्मी हो ।। ७८ ॥ जिस प्रकार बुद्धि और पराक्रमसे जय अर्थात् विजय उत्पन्न होती है उसी प्रकार उन लक्ष्मीमती और सोमप्रभके जय अर्थात् जयकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ जो कि जन्मसे ही गुणों-द्वारा उपार्जन की हुई लक्ष्मी और कोतिको विस्तृत कर रहा था ॥ ७९ ॥ राजा सोमप्रभके विजयको आदि लेकर और भी चौदह पुत्र उत्पन्न हुए थे जो कि संख्यामें समान होनेपर भी गुणोंके द्वारा कुलकरोंको उल्लंघन कर रहे थे ॥ ८० ॥ जिस प्रकार अतिशय सुन्दर विशेष कलाओंसे चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी १ स्वाधीनान् कुर्वन्ति । २ कान्वैते अ०, स० । कान्वान्ते ल०, म० । ३ इव । ४ उत्पत्तिम् । ५ अनृतं कुर्वत् । ६ अयं लक्ष्मीशब्दः सम्भवं कुलगृहायितमित्युभत्रापि योजनीयः । ७ कुवलयानन्दं करवानन्दं च। ८ विद्वज्जनाश्रयः । सोमसुताश्रयश्च । ९ तिरस्कारमकृत्वा । १० दर्शनीया । ११ पतिव्रता । १२ जननकालात् प्रारभ्य । - जन्मतः ल०, म० । १३ मनुभिः समाना अपि । १४ बा राजा राजा इत्यपि पाठः । चन्द्र इव । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व राजा राजप्रभो लक्ष्मीमती देवी प्रियानुजः । श्रेयान् ज्यायान् जयः पुत्रस्तद्राज्यं पूज्यते न कैः ॥२॥ स पुत्रविटपाटोपः सोमकल्पाघ्रिपश्चिरम् । भोग्यः संभृतपुण्यानां स्वस्य चाभूत्तदभुतम् ॥३॥ अथान्यदा जगत्कामभोगबन्धून् विथुप्रभः । अनित्याशुचिदुःखान्यान्मत्वा याथात्म्यवीक्षणः ॥४॥ विरज्य राज्यं संयोज्य धुयें शौर्योर्जिते जये । अजयौदार्यवी र्यादिप्राज्यराज्यसमुत्सुकः ॥४५॥ अभ्येत्य वृषभाभ्याशं दीक्षित्वा मोक्षमन्वभूत् । श्रेयसा सह 'नार्पत्यमनुजेन यथा पुरा॥८६॥ पितुः पदमधिष्टाय” जयोऽतापि महीं महान् । महतोऽनुभवन् भोगान् संविमज्यानुजैः समम् ॥७॥ एकदाऽयं विहारार्थं बाह्योद्यानमुपागतः । तत्रासीनं समालोक्य शीलगुप्तं महामुनिम् ॥८८॥ त्रिःपरीत्य नमस्कृत्य नुत्वा भक्तिमरान्वितः । श्रुत्वा धर्म तमापृच्छ य प्रीत्या प्रत्यविशत् पुरीम् ॥८९॥ तस्मिन् वने वसन्नागमिथुनं सह भूभुजा । श्रुत्वा धर्म सुधां मत्वा पपौ प्रीत्या दयारसम् ॥१०॥ कदाचित् प्रावृडारम्भे प्रचण्डाशनिताडितः । मृत्वाऽसौ शान्तिमादाय नागो नागामरोऽभवत् ॥११॥ प्रकार अपने तेजको बढ़ानेवाले, अतिशय सुन्दर और विशेष कलाओंको धारण करनेवाले उन पन्द्रह पुत्रोंसे राजाधिराज सोमप्रभ सुशोभित हो रहे थे ॥८१॥ जिस राज्यका राजा सोमप्रभ था, लक्ष्मीमती रानी थी, प्रिय छोटा भाई श्रेयांस था और बड़ा राजपुत्र जयकुमार था भला वह राज्य किसके द्वारा पूज्य नहीं होता ? ॥८२॥ जिसपर पुत्ररूपी शाखाओंका विस्तार है ऐसा वह राजा सोमप्रभरूपी कल्पवृक्ष, पुण्य संचय करनेवाले अन्य पुरुषोंको तथा स्वयं अपने-आपको भोग्य था यह आश्चर्यकी बात है। भावार्थ-पुत्रों-द्वारा वह स्वयं सुखी था तथा अन्य सब लोग भी उनसे सुख पाते थे ।।८३॥ अथानन्तर किसी समय पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले राजा सोमप्रभ संसार, शरीर, भोग और भाइयोंको क्रमशः अनित्य, अपवित्र, दुःखस्वरूप और अपनेसे भिन्न मानकर विरक्त हुए तथा कभी नष्ट न होनेवाले अनन्त वीर्य आदि गुणोंसे श्रेष्ठ मोक्षरूपी राज्यके पानेमें उत्सुक हो, शूरवीर तथा धुरन्धर जयकुमारको राज्य सौंपकर भगवान् वृषभदेवके समीप गये और वहाँ अपने छोटे भाई श्रेयांसके साथ दीक्षा लेकर मोक्षसुखका अनुभव करने लगे। जिस प्रकार वे पहिले यहाँ अपने छोटे भाईके साथ राज्यसुखका उपभोग करते थे उसी प्रकार मोक्षमें भी अपने छोटे भाईके साथ वहाँका सुख उपभोग करने लगे। भावार्थ-दोनों भाई मोक्षको प्राप्त हुए ॥८४-८६॥ इधर श्रेष्ठ जयकुमार पिताके पदपर आसीन होकर पृथिवीका पालन करने लगा। और अपने बड़े भारी भोगोपभोगोंको बाँटकर छोटे भाइयोंके साथ-साथ उनका अनुभव करने लगा ॥८७।। एक दिन वह जयकुमार क्रीड़ा करनेके लिए नगरके बाहर किसी उद्यानमें गया । उसने वहाँ विराजमान शीलगुप्त नामके महामुनिके दर्शन कर उनकी तीन प्रदक्षिणाएं दीं, बड़ी भारी भक्तिके साथ-साथ नमस्कार किया, स्तुति की, प्रीतिपूर्वक धर्म सुना और फिर उनसे आज्ञा लेकर नगरको वापिस लौटा ॥८८-८९॥ उसी वनमें साँपोंका एक जोड़ा रहता था उसने भी राजाके साथ-साथ धर्म श्रवणकर उसे अमत मान बड़े प्रेमसे दयारूपी रसका पान किया था ॥९०॥ किसी समय वर्षाऋतुके प्रारम्भमें प्रचण्ड वज्रके पड़नेसे उस जोड़ेमें-का वह सर्प शान्तिधारण कर मरा जिससे नागकुमार जातिका देव हुआ ॥९१।। १ सोमप्रभः । २ शाखातिशयः । ३ सोमप्रभः । ४ यथात्मस्वरूपदर्शी। ५ धुरन्धरे । ६ अक्षय्य । ७ महत्त्व । ८ प्रकृष्टराज्योत्कण्ठित इत्यर्थः । ९ समीपम् । १० निजानुजेन । ११ नृपतित्वम् । १२ राज्यकाले यथा । १३ आश्रित्य । १४ पालयति स्म । १५ सह ल०, म० । १६ -गुप्तमहा-ल०, म०। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १२ १३ अन्वेयरिभमा पुनस्तद्वनमापतत्। नागी श्रुतवती धर्म राजाऽत्रैव सहात्मना ॥ ६२ ॥ ater काकोदरेणामा जातकोपो विजातिना । लीलानीलोत्पलेनाहन् दम्पती तौ धिगित्यसौ ॥ ९३॥ पलायमानौ पाषाणैः काष्ठैर्लोष्ठैः पदातयः । अघ्नन् सर्वे न को वाऽत्र दुश्चरित्राय कुप्यति ॥१४॥ पापः स तया वेदना कुलधीस्तदा । नाम्नाऽजायत गङ्गायां कालीति जलदेवता ॥९५॥ संजातानुशया साऽपि धृत्वा धर्मं हृदि स्थिरम् । भूत्वा प्रिया स्वनागस्य राज्ञा स्वमृतिमब्रवीत् ॥ १६ ॥ नागमपि तां पश्यन् कोपादेवममन्यत । दर्पात्तेन खलेनैषा वराकी" हा हता वृथा ॥ ९७ ॥ विधवेति विवेदाधीनेदृक्षं मामिमं धवम् । न तत्प्राणान् हरे यावद् भुजङ्गा केन वाऽस्म्यहम् ॥ ९८ ॥ इत्यतोऽसौ "दिदस्तं जयं तद्गृहमासदत् । न सहन्ते ननु स्त्रीणां नियोऽपि पराभवम् ॥ ९९ ॥ "वासगेहे जयो रात्री श्रीमत्याः "कौतुकं प्रिये । शृण्वेकं दृष्टमित्यख्य जङ्गीविचेष्टितम् ॥ १०० ॥ आमजात्यं वयो रूपं विद्यां वृत्तं यशः श्रियम् । विभुत्वं विक्रमं कान्तिमैहिकं पारलौकिकम् ॥ १०१ ॥ प्रीतिमप्रीतिमादेयमनादेयं कृपां त्रपाम् । हानिं वृद्धिं गुणान् दोषान् गणयन्ति न योषितः ॥ १०२ ॥ धर्मः कामश्च सज्ञेयो वित्तेनायं तु सत्ययः क्रीत्यर्थं स्त्रियस्ताभ्यां धिक् तासां वृद्धगृध्नुताम् ॥ १०३ ॥ किसी दूसरे दिन वही राजा जयकुमार हाथीपर सवार होकर फिर उसी वनमें गया और वहाँ अपने साथ-साथ मुनिराजसे धर्म श्रवण करनेवाली सर्पिणीको काकोदर नामके किसी विजातीय सर्पके साथ देखकर बहुत ही कुपित हुआ तथा उन दोनों सर्प सर्पिणीको धिक्कार देकर क्रीड़ाके नील कमलसे उन दोनोंका ताड़न किया ।। ९२-९३ ॥ वे दोनों वहाँसे भागे किन्तु पैदल चलनेवाले सेनाके सभी लोग भागते हुए उन दोनोंको लकड़ी तथा ढेलोंसे मारने लगे सो उचित ही करता है ? || ९४ || उन घावोंके गंगा नदीमें काली नामका जल है क्योंकि इस संसार में दुराचारी पुरुषोंपर कौन क्रोध नहीं द्वारा दुःखसे व्याकुल हुआ वह पापी सर्प उसी समय मरकर देवता हुआ ।। ९५ ।। जिसे भारी पश्चात्ताप हो रहा है ऐसी वह सर्पिणी हृदयमें निश्चल धर्मको धारण कर मरी और मरकर अपने पहलेके पति नागकुमारदेवकी स्त्री हुई । वहाँ जाकर उसने उसे राजाके द्वारा अपने मरणकी सूचना दी ||९६ ॥ | वह नागकुमार देव भी उसे देखकर क्रोधसे ऐसा मानने लगा कि इस दुष्ट राजाने अहंकारसे इस बेचारी सर्पिणीको व्यर्थ ही मार दिया ॥९७॥ उस मूर्खने इसे विधवा जाना, यह न जाना कि इसका मेरा जैसा पति है इसलिए मैं जबतक उसका प्राण हरण न करूँ तबतक सर्प ( नागकुमार ) कैसे कहला सकता हूँ ? ऐसा सोचता हुआ वह नागकुमार जयकुमारको काटनेकी इच्छासे शीघ्र ही उसके घर आया सो ठीक ही है क्योंकि तिर्यञ्च भी स्त्रियोंका पराभव सहन नहीं कर सकते हैं ॥ ९८-९९ ।। जयकुमार रात्रि के समय शयनागार में अपनी रानी श्रीमती से कह रहा था कि हे प्रिये, आज मैने एक कौतुक देखा है उसे सुन, ऐसा कहकर उसने उस सर्पिणीको सब कुचेष्टाएँ कहीं ॥१००॥ इसी प्रकरणमें वह कहने लगा कि देखो, स्त्रियाँ कुलीनता, अवस्था, रूप विद्या, चारित्र, यश, लक्ष्मी प्रभुता, पराक्रम, कान्ति, इहलोक - परलोक, प्रीति, अप्रीति, ग्रहण करने योग्य ग्रहण न करने योग्य, दया, लज्जा, हानि, नहीं गिनती हैं ।। १०१-१०२ ।। धनके द्वारा धर्म और कामका 1 1 ३६० १७ の वृद्धि, गुण और दोषको कुछ भी संचय करना चाहिए यह तो १ आगच्छत् । २ सर्पिणीम् । ३ आकणितवतीम् । ४ अन्यजातिसर्पेण सह कामक्रीडां कुर्वतीम् । ५ ताडयति स्म ६ घ्नन्ति स्म । ७ को करोति ८ निजभर्तृचरनागामरस्य ९ नृपेण जातनिजमरणम् १० जयेन ११ अगतिका १२ पतिम् १३ सत्प्राणान्न हरे ल० म० अ० १४ दंशितुमिडुः । १५ शय्यागृहे । 'ऊषन्ति शयनस्थानं वासागारं विशारदः' इति हलायुधः । १६ निजप्रियायाः । १७ कुलजत्वम् । १८ संचेतुं योग्यः | १९ धर्मकामाभ्याम् । २० समृद्धाभिलाषिताम् । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व ३६१ वृश्चिकस्य विषं पश्चात् पन्नगस्य विषं पुरः । योषितां दूषितेच्छानां विश्वतो विषमं विषम् ॥ १०४ ॥ सत्याभासैर्नतैः स्त्रीणां वञ्चिता ये न धीधनाः । दुःश्रुतीनामिवैताभ्यो मुक्तास्ते मुक्तिवल्लभाः ॥ १०५ ॥ तासां किमुच्यते कोपः प्रसादोऽपि भयंकरः । हन्त्यधीकान् प्रविश्यान्तरगाधसरितां यथा ॥ १०६ ॥ "जालकैरिन्द्रजालेन वच्या ग्राम्या' हि मायया । ताभिः सेन्द्रो' 'गुरुर्वञ्च्यस्तन्मायामातरः स्त्रियः ॥ ताः श्रयन्ते गुणान्नैव नाशभीत्या यदि श्रिताः । तिष्ठन्ति न चिरं प्रान्ते नश्यन्त्यपि च ते स्थिताः ॥ १०८ ॥ दोषाः किं तन्मयास्तासु दोषाणां किं समुद्भवः । तासां दोषेभ्य इत्यत्र न कस्यापि विनिश्चयः ॥ १०६ ॥ निर्गुणान् गुणिनो मन्तुं गुणिनः खलु निर्गुणान् । नाशकत् परमात्माऽपि मन्यन्ते ता हि हेलया ॥ मोक्षगुणमयो नित्यो दोषमय्यः स्त्रियश्चलाः । तासां नेच्छन्ति निर्वाणमत एवाप्तसूक्तिषु ॥ १११ ॥ लक्ष्मीः सरस्वती कीर्तिर्मुक्तिस्त्वमिति विश्रुताः । दुर्लभास्तासु वल्लीषु कल्पवरस्य इव प्रिये ॥ १३२ ॥ इत्येतच्चाह तच्छ्रुत्वा तं जिघांसुर हिस्तदा । पापिना चिन्तितं पापं मया पापापलापतः " ॥११३॥ 9 ५२ १३ १५ समीचीन मार्ग है परन्तु स्त्रियाँ धर्म और कामसे धन खरीदती हैं अतः उनकी इस बढ़ी हुई लोलुपताको धिक्कार हो ॥ १०३ ॥ विष बिच्छूके पीछे ( पूँछपर) और साँपके आगे (मुँह में ) रहता है परन्तु जिनकी इच्छाएँ दुष्ट हैं ऐसी स्त्रियोंके सभी ओर विषम विष भरा रहता है ॥ १०४॥ खोटी श्रुतियोंके समान इन स्त्रियोंके सत्याभास ( ऊपरसे सत्य दिखानेवाले परन्तु वास्तवमें झूठे ) नमस्कारोंसे जो बुद्धिमान् नहीं ठगे जाते हैं- इनसे बचे रहते हैं वे ही मुक्तिरूपी - स्त्रीके वल्लभ होते हैं । भावार्थ - जिस प्रकार कुशास्त्रोंसे न ठगाये जाकर उनसे सदा बचे रहनेवाले पुरुष मुक्त होते हैं उसी प्रकार इन स्त्रियोंके हावभाव आदिसे ठगाये जाकर उनसे बचे रहनेवाले - दूर रहनेवाले पुरुष ही मुक्त होते हैं || १०५ || जिन स्त्रियोंकी प्रसन्नता ही भयंकर है उनके क्रोधका क्या कहना है। जिस प्रकार गहरी नदियोंकी निर्मलता मूर्ख लोगोंको भीतर प्रविष्ट कर मार देती है उसी प्रकार स्त्रियोंकी प्रसन्नता भी मूर्ख पुरुषोंको अपने अधीन कर नष्ट कर देती है ॥१०६॥ इन्द्रजाल करनेवाले अपने इन्द्रजाल अथवा मायासे मूर्ख ग्रामीण पुरुषोंको ही ठगा करते हैं परन्तु स्त्रियाँ इन्द्र सहित बृहस्पतिको भी ठग लेती हैं इसलिए स्त्रियाँ मायाचारकी माताएँ कही जाती हैं ॥ १०७॥ प्रथम तो गुण स्त्रियोंका आश्रय लेते ही नहीं हैं यदि कदाचित् आश्रयके अभाव में अपना नाश होनेके भयसे आश्रय लेते भी हैं तो अधिक समय तक नहीं ठहरते और कदाचित् कुछ समयके लिए ठहर भी जाते हैं तो अन्तमें अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं || १०८ ॥ दोषोंका तो पूछना ही क्या है ? वे तो स्त्रीस्वरूप ही हैं अथवा दोषोंकी उत्पत्ति स्त्रियों में है अथवा दोषोंसे स्त्रियोंकी उत्पत्ति होती है इस बातका निश्चय इस संसारमें किसीको भी नहीं हुआ है ॥ १०६ ॥ निर्गुणोंको गुणी और गुणियोंको निर्गुण माननेके लिए परमात्मा भी समर्थ नहीं है परन्तु स्त्रियाँ ऐसा अनायास हो मान लेती हैं ॥ ११०॥ मोक्ष गुण स्वरूप और नित्य है परन्तु स्त्रियाँ दोषस्वरूप और चंचल हैं मानो इसीलिए अरहन्तदेवके शास्त्रोंमें उनका मोक्ष होना नहीं माना गया है ।। १११ ॥ हे प्रिये, जिस प्रकार लताओं में कल्पलता दुर्लभ है उसी प्रकार स्त्रियोंमें लक्ष्मी, सरस्वती, कीर्ति, मुक्ति और तू ये प्रसिद्ध स्त्रियाँ अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ ११२ ॥ यह सब जयकुमारने अपनी स्त्रीसे कहा, उसे सुनकर जयकुमारको १ दुष्टवाञ्छानाम् । २ दुष्टशास्त्राणाम् । ३ प्रवेशं कारयित्वा । ४ वञ्चकैः । ५ इन्द्रजालसंजातया माययेति संबन्धः । ६ परीक्षाशास्त्रबहिर्भूताः । ७ स्त्रीभिः । ८ इन्द्रजालादिदेवताभूतेन्द्रसहितः । ९ तदिन्द्रमन्त्री बृहस्पतिः । १० तत् कारणात् । ११ नाभवत् । १२ स्त्रियः । १३ दोषवत्य - ल०, म० । १४ हन्तुमिच्छः । १५ पापिष्ठायाः निह्नवात् । 'अपलापस्तु निह्नवः' इत्यभिधानात् । ४६ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ आदिपुराणम् आर्याणामपि वाग्भूयो विचार्या कार्यवेदिभिः । वायाः किं पुनर्नार्याः कामिनां का विचारणा ॥११॥ भवेऽस्मिन्नेव भव्योऽयं भविष्यति भवान्तकः । तन्नास्य भयमन्येभ्यो भयमेतदयषिणाम् ॥११५॥ अहं कुतः कुतो धर्मः संसर्गादस्य सोऽप्यभूत् । ममेह मुक्तिपर्यन्तो नान्यत् सत्संगमाद्वितम् ॥११६॥ इत्यनुध्याय निःकोपः कृतवेदी जयं स्वयम् । रत्नरनध्यः संपूज्य स्वप्रपञ्चं निगद्य च ॥११७॥ मां स्वकार्य स्मरेत्युक्त्वा स्वावासं प्रत्यसो गतः । हन्ताऽत्यूर्जितपुण्यानां भवत्यभ्युदयावहः ।।११८॥ स चक्रिणा सहाक्रम्य दिक्चक्र व्यक्तविक्रमः । क्रमान्नियम्य व्यायाम संयमीव शमं श्रितः ॥११९॥ ज्वलत्प्रतापः सौम्योऽपि निर्गुणोऽपि गुणाकरः । सुसर्वाङ्गोऽप्यनङ्गाभः सुखेन स्वपुरे स्थितः ॥१२०॥ अथ देशोऽस्ति विस्तीर्णः काशिस्तत्रैव विश्रुतः । पिण्डीभूता भयात्काललुण्टाकादिव भोगभूः ॥१२॥ तदापि खलु विद्यन्ते कल्पवल्लीपरिष्कृताः । द्रुमाः कल्पद्रुमाभासाश्चित्रास्तन क्वचित् क्वचित् ॥१२२॥ तत्रैवामीष्टमावयं यत्तत्रैवानुभूयते । से तजेतेति निःशवं शङ्क स्वर्गापवर्गयोः ॥१२३॥ मारनेकी इच्छा करनेवाला वह नागकुमार अपने मनमें कहने लगा कि देखो उस स्त्रीके पाप छिपानेसे ही मुझ पापीने इस पापका चिन्तवन किया है ॥११३॥ कार्यके जाननेवाले पुरुषोंको सज्जनोंके वचनोंपर भी एक बार पुनः विचार करना चाहिए फिर त्याग करने योग्य स्त्रियोंके वचनोंकी तो बात ही क्या है ? उनपर तो अवश्य ही विचार करना चाहिए परन्तु कामी जनोंको यह विचार कहाँ हो सकता है ? ॥११४॥ यह भव्य जीव इसी भवमें संसारका नाश करनेवाला होगा, इसलिए इसे अन्य लोगोंसे कुछ भय होनेवाला नहीं है बल्कि जो इसे भय देना चाहते हैं उन्हें ही यह भय है ॥११५॥ मैं कहाँ ? और यह धर्म कहाँ ? यह धर्म भी मुझे इसीके संसर्गसे प्राप्त हुआ है इसलिए इस संसारमें मुझे मोक्ष प्राप्त होने तक सज्जनोंके समागमके सिवाय अन्य कुछ कल्याण करनेवाला नहीं है ।।११६॥ ऐसा विचारकर वह नागकुमार क्रोधरहित हुआ, उपकारको जानकर उसने अमूल्य रत्नोंसे स्वयं जयकुमारकी पूजा की, उसे मारने आदिके जो विचार हुए थे वे सब उससे कहे और अपने कार्यमें मुझे स्मरण करना इस प्रकार कहकर वह अपने स्थानको लौट गया सो ठीक ही है क्योंकि जिसका पुण्य तेज है उसका मारनेवाला भी कल्याण करनेवाला हो जाता है ॥११७-११८॥ व्यक्त पराक्रमको धारण करनेवाला वह जयकुमार चक्रवर्ती भरत महाराजके साथ-साथ सब दिशाओंपर आक्रमण कर और अनुक्रमसे इधर-उधरका फिरना बन्द कर संयमीके समान शान्तभावका आश्रय करने लगा ॥११६।। जो सौम्य होनेपर भी प्रज्वलित प्रतापका धारक था, निर्गुण ( गुणरहित, पक्षमें सबमें मख्य ) होकर भी गणाकर ( गणोंकी खानि ) था और ससर्वांग ( जिसके सब अंग सुन्दर हैं ऐसा ) होकर भी अनंगाभ , ( शरीररहित, पक्षमें कामदेवके समान कान्तिवाला ) था ऐसा वह जयकुमार सुखसे अपने नगरमें निवास करता था ।।१२०॥ अथानन्तर-इसी भरतक्षेत्रमें एक प्रसिद्ध और बहत बड़ा काशी नामका देश है जो कि ऐसा विदित होता है मानो कालरूपी लुटेरेके भयसे भोगभूमि ही आकर एक जगह एकत्रित हो गयी हो ॥१२१॥ वहाँपर कहीं-कहीं उस समय भी कल्पलताओंसे घिरे हुए कल्पवृक्षोंके समान अनेक प्रकारके वृक्ष विद्यमान थे ॥१२२।। चूँकि अपनी अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर उनका उपभोग उसी देशमें किया जाता था इसलिए मैं ऐसा समझता हूँ कि वह काशी देश १ कृतज्ञः । २ घातकः । ३ निरुद्ध्य । विविधव्यापारमिति शेषः । त्यक्त्वा विविधव्यापारमित्यर्थः । ४ विविधगमनम् । ५ अप्रधानरहितोऽपि । “गुणोऽप्रधाने रूपादौ मौल् शके वृकोदरे । शुभे सत्त्वादिसन्ध्यादिविद्यादिहरितादिषु". इत्यभिधानात् । ६ भरतक्षेत्र । ७ दुःकालचोरात् सजातात्। ८ स्वीकृत्य । ९ यस्मात् कारणात्। १० देशे । ११ देशः । १२ तस्मात् कारणात् । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ३६३ वाराणसी पुरी तत्र जिवा तामामरी पुरीम् । 'अमानैस्त द्विमानानि स्वीचैरिव 'साहसीत् ॥ १२४ ॥ प्राक् समुच्चितदुष्कर्मा न तत्रोत्पतुमर्हति । प्रमादादपि तजोऽपि स्यात् किं पापी मनस्यपि ॥ १२५ ॥ एवं भवत्रयश्रेषः सूचनी धर्मवत्र्मनि । विनेयान् जिनविशेव' 'साम्यस्थान प्यवीवृतत् ॥ १२६ ॥ नाम्नैव कम्पितारातिस्तस्याः पतिरकम्पनः । विनीत' इव विद्यायाः स्वाभिप्रेतार्थसंपदः ॥१२७॥ पुरोपार्जितपुण्यस्य वर्द्धने रक्षणे श्रियः। न नीतिः " कि कामे च धर्मे चास्योपयोगिनी ॥ १२८ ॥ न हर्ता केवलं दाता न हन्ता पाति केवलम् । सर्वास्तत्पालयामास स धर्मविजयी प्रजाः ॥ १२९ ॥ पारमात्म्ये पदे पूज्यो भरतेन यथा पुरुः गृहाश्रमे तथा सोऽपि सा तस्य कुलवृद्धता ॥ १३० ॥ तस्यासीत्सुप्रभादेवी शीतांशोर्वा प्रभा तया । मुमुदे कुमुदाबोधं विदधत् स कलाश्रयः ॥१३१॥ न लक्ष्मीरपि तत्प्रीत्यै सती सा सुप्रजा" यथा । सरफला इव सङ्कल्यः पुत्रवत्यः खियः प्रियाः ॥ १३२ ॥ ११ । 1 निःसन्देह स्वर्ग और मोक्षको जीतनेवाला था ।। १२३ ।। उस काशीदेशमें एक वाराणसी (बनारस) नामकी नगरी थी जो कि अपने अपरिमित राजभवनोंसे अमरपुरीको जीतकर उसके विमानोंकी हँसी करती हुई-सी जान पड़ती थी ॥ १२४ ॥ जिसने पूर्वजन्म में पापकमोंका संचय किया है ऐसा जीव उस वाराणसी नगरीमें उत्पन्न होने योग्य नही था । तथा उसमें उत्पन्न हुआ जीव प्रमादसे भी क्या कभी मन में भी पापी हो सकता था ? अर्थात् नहीं || १२५ ।। इस तरह भूत, भविष्यत् और वर्तमानसम्बन्धी तीनों भवोंके कल्याणको सूचित करनेवाली वह नगरी जिनवाणीके समान दूसरी जगह रहनेवाले शिष्य लोगोंको भी धर्ममार्ग में प्रवृत्त कराती थी || १२६|| जिस प्रकार विनयी मनुष्य विद्याका स्वामी होता है उसी प्रकार अपने नामसे ही शत्रुओंको कम्पित कर देनेवाला राजा अकम्पन उस नगरीका स्वामी था । जिस प्रकार विद्या अपने अभिलपित पदार्थों को देनेवाली होती है उसी प्रकार वह नगरी भी अभिलषित पदार्थोंको देनेवाली थी ।। १२७ ।। पूर्व जन्म में पुण्य उपार्जन करनेवाले उस राजाकी नीति केवल लक्ष्मी के बढ़ाने और उसकी रक्षा करने में ही काम नहीं आती थी किन्तु धर्म और कामके विषय में भी उसका उपयोग होता था ।। १२८ || वह राजा केवल प्रजासे कर वसूल ही नहीं करता था किन्तु उसे कुछ देता भी था और केवल दण्ड ही नहीं देता था किन्तु रक्षा भी करता था। इस प्रकार धर्म-द्वारा विजय प्राप्त करनेवाला वह राजा समस्त प्रजाका पालन करता था || १२ || राजा अकम्पनके कुलका बड़प्पन यही था कि भरतमहाराज परमात्मपदमें जिस प्रकार भगवान् वृषभदेवको पूज्य मानते थे उसी प्रकार गृहस्थाश्रम में उसे पूज्य मानते थे ।। १३० ॥ उसके सुप्रभा नामकी देवी थी जो कि चन्द्रमाकी प्रभाके समान थी । जिस प्रकार चन्द्रमा अनेक कलाओंका आश्रय हो अपनी प्रभासे कुमुदाबोध अर्थात् कुमुदिनियोंका विकास करता हुआ प्रसन्न ( निर्मल ) रहता है उसी प्रकार वह राजा भी अनेक कलाओंविद्याओंका आश्रय हो अपनी सुप्रभा देवीसे कुमुदाबोध अर्थात् पृथिवीके समस्त जीवोंके आनन्दका विकास करता हुआ प्रसन्न रहता था ॥ १३१ ॥ उत्तम सन्तान उत्पन्न करनेवाली वह पतिव्रता सुप्रभादेवी जिस प्रकार राजाको आनन्दित करती थी उस प्रकार लक्ष्मी भी उसे आनन्दित नहीं कर सकी थी सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार अच्छे फल देनेवाली उत्तम लताएँ प्रिय १ प्रमाणातीतैः । २ पुरी । ३ हसति स्म । ४ नगर्याम् । ५ दिव्यभाषेव । ६ नगरी । । ८ वर्तयति स्म । ९ विनेयपरः । १० निजाभीष्टार्थसम्पद् यस्यां सा तस्याः । कारणात्। १३ अकम्पनः १४ शोभनाः प्रजा अपत्यानि यस्याः सा सुप्रजाः ७ देशान्तरस्थान् । ११ नयनं करणम् । १२ तत् सत्पुत्रवतीस्वर्थः । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ आदिपुराणम् तस्यां तन्नाथवंशाग्रगण्यस्येवांशवो रवेः । प्राच्यां 'दीपव्याप्तदिक्चक्राः सहस्रमभवन् सुताः ॥ १३३॥ हेमाङ्गदसुकेतुश्रीसुकान्ताद्याह्वयैः स तैः । वेष्टितः संव्यदीपिष्ट शक्रः सामानिकैरिव ॥ १३४ ॥ हिमवत्पद्मयोगंङ्गासिन्धू इव ततस्तयोः । सुते सुलोचना लक्ष्मीमती चास्तां सुलक्षणे ॥ १३५ ॥ सुलोचनाऽसौ बालेव लक्ष्मीः सर्वमनोरमा । कलागुणैरभासिष्ट चन्द्रिकेव प्रवर्द्धिता ॥ १३६ ॥ सुमत्याख्याऽमलाः शुक्लनिशेवावर्द्धयत् कलाः । धात्री शशाङ्करेखायास्तस्याः सातिमनोहराः ॥ १३७ ॥ अभूद्रागी स्वयं रागस्त क्रमाब्जं समाश्रितः । रागाय कस्य वा न स्यात् स्वोचितस्थानसंश्रयः ॥ १३८ ॥ नखेन्दुचन्द्रिका तस्याः शश्वत्कुवलयं किल । विश्वमाह्लादय चित्रमनुवृत्या क्रमाब्जयोः ॥ १३९ ॥ रेजुरंगुलयस्तस्याः क्रमयोर्नखरोचिषा । इयन्त इति मद्वेगाः स्मरेणेव निवेशिताः ॥ १४०॥ नताशेषो जयः स्नेहाद मसीत्ते " ततस्तयोः । या श्रीः क्रमाब्जयोस्तस्याः सा किमस्ति सरोरुहं ॥ १४१ ॥ होती हैं उसी प्रकार उत्तम पुत्र उत्पन्न करनेवाली स्त्रियाँ भी प्रिय होती हैं ।। १३२ ।। जिस प्रकार पूर्व दिशा से अपनी कान्तिके द्वारा समस्त दिशाओंको प्रकाशित करनेवाली सूर्यकी किरणें उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार उस सुप्रभादेवीसे नाथवंशके अग्रगण्य राजा अकम्पन के अपनी अथवा तेज द्वारा दिशाओंको वश करनेवाले हजार पुत्र उत्पन्न हुए थे || १३३ ।। हेमांगद, सुकेतुश्री और सुकान्त आदि उन पुत्रोंसे घिरा हुआ वह राजा ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि सामानिक देवोंसे घिरा हुआ इन्द्र सुशोभित होता है || १३४|| जिस प्रकार हिमवान् पर्वत और पद्म नामकी सरसीसे गंगा और सिन्धु ये दो नदियाँ निकलती हैं उसी प्रकार राजा अकम्पन और रानी सुप्रभाके सुलोचना तथा लक्ष्मीमती ये उत्तम लक्षणोंवाली कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं ।। १३५ ।। वह बालिका सुलोचना लक्ष्मी के समान सबके मनको आनन्दित करनेवाली थी और अपने कलारूपी गुणोंके द्वारा चाँदनीके समान वृद्धिको प्राप्त होती हुई सुशोभित हो रही थी || १३६ || जिस प्रकार शुक्ल पक्षकी रात्रि चन्द्रमाकी रेखाओंकी अत्यन्त मनोहर कलाओंको बढ़ाती है उसी प्रकार सुमित्रा नामकी धाय उस सुलोचनाकी अतिशय मनोहर कलाओंको बढ़ाती थी- उसके शरीरका लालन-पालन करती थी ।। १३७।। राग अर्थात् लालिमा उस सुलोचनाके चरण-कमलोंका आश्रय पाकर स्वयं रागी अर्थात् राग करनेवाला अथवा लाल गुणसे युक्त हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि अपने योग्य स्थानका आश्रय किसके रागके लिए नहीं होता ? || १३८ || आश्चर्य है कि उसके नखरूपी चन्द्रमाकी चाँदनी दोनों चरणकमलोंके अनुकूल रहकर भी समस्त कुवलय अर्थात् कुमुदिनियोंको अथवा पृथ्वीमण्डलके आनन्दको निरन्तर विकसित करती रहती थी । भावार्थ - चाँदनी कभी कमलोंके अनुकूल नहीं रहती, वह उन्हें निमीलित कर देती है परन्तु सुलोचनाके नखरूपी चन्द्रमाकी चाँदनी उसके चरणकमलों के अनुकूल रहकर भी कुवलय - नीलकमल ( पक्षमें महीमण्डल ) को विकसित करती थी यह आश्चर्य की बात थी ॥ १३६ ॥ उसके दोनों पैरोंकी अँगुलियाँ नखोंकी किरणोंसे ऐसी अच्छी जान पड़ती थीं मानो मेरे वेग इतने हैं यही समझकर कामदेवने ही स्थापन की हों । भावार्थ - अभिलाषा, चिन्ता आदि कामके दश वेग हैं और दोनों पैरोंकी अँगुलियाँ भी दश हैं इसलिए वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो कामदेवने अपने वेगोंकी संख्या बतलाने के लिए ही उन्हें स्थापित किया हो || १४०|| जिसे सब लोग नमस्कार करते हैं ऐसा जयकुमार भी जिन्हें १ तेजसा । २ अकम्पनसुप्रभयोः । ३ अरुणगुणः । ४ सुलोचनाचरण । ५ मोदति स्म । ६ अनुकूलवृत्त्या । ७ मम सदृशावस्थाः । ८ जयकुमारः । ९ नमस्करोति स्म । १० क्रमाब्जे । ★ " अभिलाषश्चिन्तास्मृतिगुणकथनोद्वेगसंप्रलापाश्च । उन्मादोऽथ व्याधिर्जडता मृर्तिरिति दशात्र कामदशाः ।। " - साहित्यदर्पणे । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व ३६५ न स्थूले न कृशे नर्ज् न वक्रे न च सङ्कटे' । विकटे' न च तज्जङ्घे शोभाऽन्यैवैनयोरसौ ॥१४२॥ काञ्चीस्थानं" "तदालोच्येवोरू स्थूले सुसङ्गते । कायगर्भगृहद्वारस्तम्भयष्ट्याकृती कृते ॥१४३॥ वेदिकेव मनोजस्य शिरो वा स्मरदन्तिनः । सानुर्वाऽनङ्गशैलस्य शुशुभेऽस्याः कटीतटम् ॥ १४४॥ कृत्वा कृशं भृशं मध्यं बद्धं भङ्गभयादिव । रज्जुभिस्तिसृभिर्धात्रा' वलिभिर्गाढमाबभौ ॥ १४५॥ नाभिकूपप्रवृत्ता 'रसमार्गसमुद्गता । श्यामा शाड्वलमालेव' रोमराजिर्व्यराजत ॥ १४६ ॥ भिन्नौ युक्तौ मृदूस्तब्धौ" उगौ सन्तापहारिणौ । स्तनौ विरुद्धधर्माणौ स्याद्वादस्थितिमूहतुः ॥ १४७॥ सहवक्षोनिवासिन्या समाश्लिष्य जयः श्रिया । स्वीकृतो यदि चेत्ताभ्यां वर्ण्यते तदद्भुजौ कथम् ॥१४८ ।। वीरलक्ष्मीपरिष्वजयदक्षिणबाहुना । सवामेन” परिष्वक्त स्तत्कण्टस्तस्य कोपमा ॥ १४९ ॥ निःकृपौ" पेशलौ " श्लक्ष्णौ तत्कपोलौ विलेसतुः " । कान्तौ कलभदन्ताभौ जयवक्त्राब्जदर्पण' ॥ १५० ॥ वटत्रिस्त्रप्रवालादिनोपमेयमपीष्यते । अधरस्यातिदूरत्वाद् वर्णाकाररसादिभिः ॥ १५१ ॥ १७ बड़े स्नेहसे नमस्कार करेगा ऐसे उसके दोनों चरणकमलोंमें जो शोभा थी वह क्या कमलों में हो सकती है ? अर्थात् नहीं ॥ १४१ ॥ उसकी दोनों जंघाएँ न स्थूल थीं, न कृश थीं, न सीधी थीं, न टेढ़ी थीं, न मिली हुई थीं और न दूर-दूर ही थीं। उसकी दोनों जंघाओंकी शोभा निराली ही थी || १४२ ॥ उसके करधनी पहननेके स्थान - नितम्बस्थलको देखकर ही मानो स्थूल, परस्परमें मिले हुए और कामदेवके गर्भगृहंसम्बन्धी दरवाजेसे खम्भोंकी लकड़ीके समान दोनों ऊरु बनाये गये ॥ १४३ ॥ उसका नितम्ब प्रदेश ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो कामदेवकी वेदी ही हो अथवा कामदेवरूपी हाथीका शिर ही हो अथवा कामदेवरूपी पर्वतका शिखर ही हो || १४४ ।। उसका मध्यभाग ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो विधाताने उसे पहले तो अत्यन्त कृश बनाया हो और फिर टूट जानेके भयसे त्रिवलीरूपी तीन रस्सियोंसे मजबूत बाँध दिया हो ॥ १४५ ॥ नाभिरूपी कुएँसे निकली हुई उसकी रोमराजि ऐसी अच्छी सुशोभित हो रही थी मानो जलमार्ग से निकली हुई हरी-हरी छोटी घासकी पङ्क्ति ही हो ।। १४६ ।। उसके स्तन भिन्न-भिन्न होकर भी ( स्थूल होनेके कारण ) एक दूसरेसे मिले हुए थे, कोमल होकर भी ( उन्नत होने के कारण ) कठोर थे, और उष्ण होकर भी ( आह्लादजनक होनेके कारण ) संतापको दूर करनेवाले थे, इस प्रकार विरुद्ध धर्मोंको धारण करनेवाले उसके दोनों स्तन स्याद्वादकी स्थितिको धारण कर रहे थे || १४७|| चूँकि उसकी दोनों भुजाओंने वक्षस्थलपर निवास करनेवाली लक्ष्मीके साथ आलिङ्गन कर जयकुमारको स्वीकृत किया है इसलिए उनका वर्णन भला कैसे किया जा सकता है ? ॥ १४८ ॥ उसका कष्ठ वीर लक्ष्मीसे सुशोभित जयकुमारके दायें और बायें दोनों हाथोंसे आलिंगनको प्राप्त हुआ था अतः उसकी उपमा क्या हो सकती है । भावार्थ-उसकी उपमा किसके साथ दी जा सकती है ? अर्थात् किसी के साथ नहींवह अनुपम था ।। १४९|| हाथी के बच्चेके दाँतकी आभाको धारण करनेवाले उसके निष्कृप, कोमल और चिकने दोनों कपोल ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो जयकुमारका मुखकमल देखने के लिए सुन्दर दर्पण ही हों ।। १५० ।। वटकी कोंपल, बिम्बी फल और मूँगा आदि पदार्थ, वर्ण, आकार और रस आदिमें ओठोंसे बहुत दूर हैं अर्थात् उसके ओठोंके समान न तो १ सङ्कीर्णे । २ विशाले । ३ विलक्षणैव । ४ कटितटम् । ५ आलोक्य । ६ इव । ७ ब्रह्मणा । ८ सुलोचनायाः । ९ जलमार्ग । १० हरितपङ्क्तिः । ' शाबल: शादहरिते' इत्यभिधानात् । आद्बलल०, म० अ० । ११ कहिनी । १२ सुलोचनाभुजाभ्याम् । १३ वामभुजसहितेन । १४ आलिङ्गितः । १५ जनसन्तापहेतुत्वात् । १६ कोमलौ । १७ रेजतुः । १८ जयकुमारमुख । १९ अपिशब्दात् केवलमुपमानं न । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ आदिपुराणम् 'चिताः सिताः समाः स्निग्धा दन्ताःकान्ताःप्रभान्विताः। अन्तःकरोति तद्वक्त्रं तानेव कथमन्यथा ॥१५२॥ कुतः कृता समुत्तङ्गा स्वादमानास्यसौरभम् । मध्येवक्त्रं किमध्यास्ते न सती यदि नासिका ॥१५३॥ कर्णान्तगामिनी नेत्रे वृद्धे नरशरोपमे। सोमवंश्यस्य कः क्षेपः पद्मोत्पलजये तयोः ॥१५॥ तत्कर्णावेव कर्णेषु कृतपुण्यौ प्रियाज्ञया । तत्प्रेमालापगीतानां" पात्रं प्रागेव तौ यतः ॥१५५॥ तद्ब्रशरासनः कामस्तत्कटाक्षशरावलिः । स्वरूपेणाजितं', मत्वा जयं मन्ये व्यजेष्ट सः ॥१५६॥ तस्या लालाटिको नैकः कामो वीराग्रणीः स्वयम् । जयोऽपि नोन्नतिः कस्माल्ललाटस्य श्रितश्रियः ॥१५७॥ मृदवस्तनवः स्निग्धाः कृष्णास्तस्याः सकुञ्चिताः। कामिनां केवलं कालबालव्यालाः शिरोरुहाः॥१५॥ भाति तस्याः पुरोभागो भूषितो नयनादिभिः । सुरूप इव पाश्चात्यो वाभाति स्वयमेव सः ॥१५९॥ ये तस्यास्तनुनिर्माणं वेधसां साधनीकृताः । "अणवस्तृणवच्छेषास्त एव परमाणवः ॥१६॥ इनका वर्ण है, न आकार है और न रस हो है इसलिए ही उसके ओठोंको इनमें से किसीकी भी उपमा नहीं दी सकती थी ॥१५१॥ अवश्य ही उसके दाँत एक दूसरेसे मिले हुए थे-छिद्ररहित थे, सफेद थे, समान थे, चिकने थे, सुन्दर थे, और चमकीले थे, यदि ऐसा न होता तो सुलोचनाका मुख उन्हें भीतर ही क्यों करता? ॥१५२॥ मुखकी सुगन्धिका स्वाद लेती हुई उसकी नाक यदि इतनी अच्छी नहीं होती तो वह इतनी ऊंची क्यों बनाई जाती ? तथा मुखके बीच में कैसे ठहर सकती ? ॥१५३।। अर्जुनके बाणके समान कर्णके ( राजा कर्ण अथवा कानके ) समीप तक जानेवाले उसके दोनों नेत्र अत्यन्त विशाल थे, उन्होंने लाल कमल और नीलकमल दोनोंको जीत लिया था फिर भला सोमवंश अर्थात् चन्द्रमापर कौन-सा आक्षेप बाकी रह गया था अथवा सोमवंश अर्थात् जयकुमारपर कौन-सा क्षेप अर्थात् कटाक्ष करना बाकी रह गया था ? ॥१.५४॥ उसके कान ही सब कानों में अधिक पुण्यवान् थे क्योंकि वे पहलेसे ही अपने प्रिय-जयकुमारको आज्ञासे उनके प्रेमसम्भाषण और गीतोंके पात्र हो गये थे ॥१५५।। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि कामदेवने जयकुमारको अपने रूपसे अजेय मानकर सुलोचनाकी भौंहरूपी धनुष और उसीके कटाक्षरूपी बाणोंके समूहसे ही उसे जीता था ॥१५६॥ उस सुलोचनाका सेवक अकेला कामदेव ही नहीं था किन्तु वीरशिरोमणि जयकुमार भी स्वयं उसका सेवक था, फिर भला शोभाको धारण करनेवाले उसके ललाटकी उन्नति-उच्चता अथवा उत्तमता क्यों न होती ? ॥१५७॥ कोमल, बारीक, चिकने, काले और कुछ-कुछ टेढ़े उसके शिरके बाल कामी पुरुषोंको केवल काले साँपोंके बच्चोंके समान जान पड़ते थे ॥१५८॥ उस सुलोचनाका आगेका भाग नेत्र आदिसे विभूषित होकर सुशोभित हो रहा था और पिछला भाग किसी सुन्दर वस्तुके समान अपने-आप ही सुशोभित हो रहा था ।।१५९।। विधाताने उसका शरीर बनाने में जिन अणुओंको साधन बनाया था यथार्थमें वे ही अणु परमाणु अर्थात् १ निश्छिद्रा इत्यर्थः । २ उक्तगुणा न सन्ति चेत् । ३ किन्निमित्तं निर्मिता इत्येवं पृच्छति । ४ यदि सती प्रशस्ता नासिका न स्यात् तर्हि मध्येवक्त्रं मुखमध्ये कि वस्तु अध्यास्ते । नासिकां मुक्त्वा न किमपि अधिवसितुं योग्यमित्यर्थः । ५ ध्वनी कर्णराजस्य विनाशे वर्तमाने । ६ वृद्धे किं न भवतः, भवत एव । ७ वंशस्य ल०, म०, अ० । जयकुमारस्य । ध्वनौ अर्जुनस्य । ८ तिरस्कारः । ९ नेत्रयोः । १० जयकुमारप्रसिद्ध्या । ११ -लापनीतानां अ०, म०, ल०। १२ भाजनम् । १३ तस्या भ्रुवावेव शरासनं यस्य । १४-टाक्षाशुगावलिः ल० । बाणसमूहः । १५ आत्मीयस्वरूपेण। १६ भावदर्शी सेवकः । 'लालाटिकः प्रभोर्भावदर्शी कार्याक्षमश्च यः।' इत्यभिधानात् । न सेवको भवति चेत् । १७ कृष्णबालभुजङ्गाः । १८ मनोज्ञपदार्थ इव । १९ पृष्ठभावः । २०. उपादानकारणीकृताः । २१ व्यर्था इत्यर्थः । २२ उत्कृष्टाणवः । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व ३६७ अतिवृद्धः क्षयासन्नः स्पष्टलक्ष्माहिगोचरः । पूर्णः शेषोऽप्यसंपूर्णो न तद्वक्त्रोपमो विधुः ॥ १६१ ॥ न पश्चान्न पुरा लक्ष्मीर्बोधी पद्मे क्षणे क्षणे । वक्त्यन्यां गृह्णती शोभां सा स्याद्वादं तदानने ॥ १६२॥ .तद्रे तीव्रकरोत्सना पद्मे शीतकराहता । लक्ष्मीः साऽन्यैव तद्वक्त्रे 'जयलक्ष्मीकरग्रहात् ॥ १६३॥ रात्राविन्दुर्दिवाम्भोजं क्षयीन्दुग्लनिवारिजम् । पूर्णमेव त्रिकास्येव तद्वक्त्रं भात्यहर्दिवम् ॥ १६४ ॥ लक्ष्मीस्त स्येक्षितस्तेन वीक्षितस्यापि निश्चिता । किं पद्मे तादृशं येन तद्वक्त्रमुपमीयते ॥१६५॥ कुमार्या त्रिजगज्जेता जितः पुष्पशरासनः । स वीरः कः परो लोके यो न जय्योऽग्रतोऽनया ।।१६६॥ कुमायैव जितः कामो वीरः पश्चाज्जयो जितः । स्त्रीसृष्टिः कियती नाम विजयेऽस्याः सहश्रिया ।। १६७ ।। १२ उत्कृष्ट अणु थे और उनसे बाकी बचे हुए अणु तृणके समान तुच्छ थे ॥ १६० ॥ चन्द्रमा उसके मुखकी उपमाके योग्य नहीं था क्योंकि यदि पूर्ण चन्द्रमाकी उपमा देते हैं तो वह बहुत वृद्ध अर्थात् बड़ा है, उसका क्षय निकट है, कलंक उसका स्पष्ट दिखलाई देता है और राहु उसे दबा देता है । यदि अपूर्ण चन्द्रमाकी उपमा देते हैं तो वह स्वयं अपूर्ण है-अधूरा है । भावार्थ - उसका मुख तरुण, अविनश्वर, निष्कलंक और पूर्ण था इसलिए पूर्ण अथवा अपूर्ण कोई भी चन्द्रमा उसके मुखकी उपमाके योग्य नहीं था । १६१ ।। यदि कमलकी उपमा दी जावे सो भी ठीक नहीं है क्योंकि कमलमें विकसित होनेके पहले लक्ष्मी नहीं थी और न पीछे रहती है वह तो क्षण-क्षण में विकसित होती रहती है परन्तु उसके मुखपर की लक्ष्मी एक विलक्षण शोभाको ग्रहण करती हुई स्याद्वादका स्वरूप प्रकट करती थी । भावार्थ - उसके मुखकी शोभा सदा एकसी रहकर भी क्षण-क्षण में विलक्षण शोभा धारण करती थी इसलिए कमलकी शोभासे कहीं अच्छी थी और इस प्रकार स्याद्वादका स्वरूप प्रकट करती थी क्योंकि जिस प्रकार स्याद्वाद द्रव्यार्थिक नयसे एकरूप रहकर भी पर्यायार्थिक नयसे नवीन नवीन रूपको प्रकट करता है उसी प्रकार उसके मुखकी लक्ष्मी भी सामान्यतया एकरूप रहकर भी प्रतिक्षण विलक्षण शोभा धारण करती हुई अनेकरूप प्रकट करती थी ।। १६२ || चन्द्रमाको शोभा सूर्यसे नष्ट हो जाती है और कमलकी शोभा चन्द्रमासे नष्ट हो जाती है परन्तु उसके मुखकी शोभा जयकुमारकी लक्ष्मीका हस्त ग्रहण करनेसे विलक्षण ही हो रही थी ॥ १६३ ॥ चन्द्रमा रात में सुशोभित होता है और कमल दिन में प्रफुल्लित रहता है, चन्द्रमाका क्षय हो जाता है और कमल मुरझा जाता है परन्तु उसका मुख पूर्ण ही था, विकसित ही था और रात-दिन सुशोभित ही रहता था ।। १६४॥ सुलोचनाके मुखको जो देखता था उसकी शोभा बढ़ जाती थी और सुलोचनाका मुख जिसे देखता था उसकी शोभा भी निश्चित रूपसे बढ़ जाती थी । कमलमें क्या ऐसा गुण है जिससे कि उसे सुलोचनाके मुखकी उपमा दी जा सके ? || १६५ | | उसने कुमारी अवस्था में ही तीनों जगत्को जीतनेवाला कामदेव जीत लिया था फिर भला संसारमें ऐसा दूसरा कौन वीर था जो आगे युवावस्थामें उसके द्वारा न जीता जाये ? ॥ १६६ ॥ इसने कुमारी अवस्था में कामदेवको जीत लिया था और तरुण अवस्थामें जयकुमारको जोता था फिर भला इसके जीतने के लिए १ राहुगोचरः । ( विषयः । २ कलाशेषोऽपि । कलाहीन इत्यर्थः । बालचन्द्रोऽपि । ३ विकासशीला | ४ लक्ष्मीः । ५ हता । ६ जयस्य लक्ष्मीः । ७ - त्यहर्निशम् अ०, प०, स०, इ०, ल०, म० । ८ धर्मस्य । ९ वक्त्रेण । १० येन धर्मेण सह । ११ तादृशं धर्मं पक्षे किमस्ति ? नास्तीत्यर्थः । वीक्षितस्यापि अपिशब्दात् तद्धर्मो न दृष्टोऽस्ति । यद्यपि दृष्टस्य तस्य पद्मस्थितधर्मस्य लक्ष्मीः शोभा तेन सह तद्वक्त्रेण सह ईक्षितुः वीक्षमाणस्य जनस्य निश्चिता स्यात् । १२ पुष्पशरासनो जितः इत्यनेन कमपि पुरुषं नेच्छति इत्यर्थः । १३ यौवने । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १० १२ मृगाङ्कस्य कलङ्कोऽयं मन्येऽहं कन्ययाऽनया । स्वकान्त्या निर्जितस्याभूद् रोगराजश्च चिन्तया ॥ १६८ ॥ सार्धं कुवलयेनेन्दुः सह लक्ष्म्या सरोरुहम् । तद्वक्त्रेण जितं व्यक्तं किमन्यन्नेह जीयते ॥ १६६ ॥ जलाब्जं जलवासेन स्थलाब्जं सूर्यरश्मिभिः । प्राप्तुं तद्वक्त्रजां शोभां मन्येऽद्यापि तपस्यति ॥ १७० ॥ शनैर्बालेन्दुरेखेव सा कलामिवर्द्धत । वृद्धास्तस्याः प्रवृद्धाया विधुभिः स्पर्धिनो गुणाः ॥ १७१ ॥ इति संपूर्णसर्वाङ्गशोभां शुद्धान्ववायजाम् । स्मरो जयभयाद्वैतां न 'तदाऽप्यकरोत् करे ॥ १७२ ॥ कारयन्ती जिनेन्द्रार्चाश्चित्रा" मणिमयीर्बहूः । तासां हिरण्मयान्येव विश्वोपकरणान्यपि ।।१७३ ।। तत्प्रतिष्टाभिषेकान्ते महापूजाः प्रकुर्वती । मुहुः स्तुतिभिरर्थ्याभिः स्तुवती भक्तितोऽर्हतः ॥१७४॥ ददती पात्रदानानि मानयन्ती' महामुनीन् । शृण्वती धर्ममाकर्ण्य भावयन्ती मुहुर्मुहुः ॥ १७५ ॥ आप्तागमपदार्थांश्च प्राप्तसम्यक्त्वशुद्धिका । अथ फाल्गुननन्दीश्वरेऽसौ भक्त्या जिनेशिनाम् ॥ १७६॥ विधायाष्टाहिक पूजामभ्यर्च्याच यथाविधि । कृतोपवासा तन्वङ्गी शेषां दातुमुपागता ॥ १७७॥ नृपं सिंहासनासीनं सोऽप्युत्थाय कृताञ्जलिः । तत्तशेषामादाय निधाय शिरसि स्वयम् ॥१७८॥ १७ ३६८ लक्ष्मी के साथ-साथ कितनी-सी स्त्रियोंकी सृष्टि बाकी रही थी ? भावार्थ - इसने लक्ष्मी आदि उत्तम उत्तम स्त्रियों को जीत लिया था ॥ १६७ ॥ चन्द्रमाके बीच जो यह कलंक दिखता है उसे मैं ऐसा मानता हूँ कि इस कन्याने अपनी कान्तिसे चन्द्रमाको जीत लिया है इसीलिए मानो उसे चिन्ताके कारण क्षयरोग हो गया हो ।। १६८ ।। उस सुलोचनाके मुखने चन्द्रमाके साथ कुवलय अर्थात् कुमुदको जीत लिया था और लक्ष्मी के साथ-साथ कमलको भी जीत लिया था फिर भला इस संसार में और रह ही क्या जाता है जो उसके मुखके द्वारा जीता न जा सके ।। १६९ ॥ मैं तो ऐसा मानता हूँ कि उसके मुखकी शोभा प्राप्त करनेके लिए जलकमल जलमें रहकर और स्थलकमल सूर्य की किरणोंके द्वारा आजतक तपस्या कर रहा है ॥ १७० ॥ वह सुलोचना द्वितीयाके चन्द्रमाकी रेखाके समान कलाओंके द्वारा धीरे-धीरे बढ़ती थी और ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती थी त्यों-त्यों चन्द्रमाकी कान्तिके साथ स्पर्धा करनेवाले उसके गुण भी बढ़ते जाते थे || १७१ ॥ इस प्रकार जो समस्त अंगों की शोभासे परिपूर्ण है और शुद्ध वंशमें जिसकी उत्पत्ति हुई है ऐसी उस सुलोचनाको कामदेव जयकुमारके भयसे युवावस्था में भी अपने हाथमें नहीं कर सका था ।। १७२॥ उस सुलोचनाने श्री जिनेन्द्रदेवकी अनेक प्रकारकी रत्नमयी बहुत-सी प्रतिमाएँ बनवायी थीं और उनके सब उपकरण भी सुवर्ण हीके बनवाये थे । प्रतिष्ठा तथा तत्सम्बन्धी अभिषेक हो जाने के बाद वह उन प्रतिमाओंकी महापूजा करती थी, अर्थपूर्ण स्तुतियोंके द्वारा श्री अर्हन्तदेवकी भक्तिपूर्वक स्तुति करती थी, पात्र दान देती थी, महामुनियोंका सन्मान करती थी, धर्मको सुनती थी तथा धर्मको सुनकर आप्त आगम और पदार्थोंका बार-बार चिन्तवन करती हुई सम्यग्दर्शनकी शुद्धताको प्राप्त करती थी । अथानन्तर - फाल्गुन महीनेकी अष्टकामें उसने भक्तिपूर्वक श्री जिनेन्द्रदेवकी अष्टाह्निकी पूजा की विधिपूर्वक प्रतिमाओं की पूजा की, उपवास किया और वह कृशांगी पूजाके शेषाक्षत देनेके लिए सिंहासनपर बैठे हुए राजा अकम्पन के १ क्षयव्याधिः । २ मनोदुःखेन । ३ तपश्चरति । ४ अवयवैः । ५ विधुभास्पर्द्धिनो ल०, म० अ०, प०, इ०, स० । ६ शुद्धवंशजातात् । ७ जयकुमारभयादिव । नाकरोत् । तस्याः कामविकारो नाभूदित्यर्थः । १४ अर्हद्देवान् । १५ पूजयन्ती । १६ शेषान् ल०, म० ११ ८ सुलोचनाम् । ९ यौवनकालेऽपि । १० करग्रहणं प्रतिमाः । १२ प्रतिमानाम् । १३ सदर्थयुक्ताभिः । । १७ - नादाय ल०, म० । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व उपवासपरिश्रान्ता पुत्रिके स्वं प्रयाहि ते । शरणं पारणाकाल इति कन्यां व्यसर्जयत् ॥१७९॥ . तां विलोक्य महीपालो बालामापूर्णयौवनाम् । निर्विकारां सचिन्तः सन् तस्याः परिणयोत्सवे ॥१८॥ शुभे श्रुतार्थसिद्धार्थसर्वार्थ सुमतिश्रुतीन् । कोष्टादिमतिभेदान्वा दिने व्याहूय मन्त्रिणः ॥११॥ वृणते सर्वभूपालाः कन्यां नः कुलजीवितम् । ब्रत कस्मै प्रदास्यामो विमृश्येमां सुलोचनाम् ॥१८॥ इत्यप्राशीत्तदा प्राह श्रृतार्थः श्रुतसागरः । अत्र सद्वन्धुसंबन्धो जामाताऽत्र महान्वयः ॥१८३॥ "सर्वस्वस्य व्ययोऽत्राथ'जन्मराज्यफलं च नः । ततः संचित्यमेवैतत् कार्य नयविशारदः ॥१८४॥ बन्धवः स्युनृपाः सर्वे संबन्धश्चक्रवर्तिना । इक्ष्वाकुवंशवत्पूज्यो मववंशश्च जायते ॥१८५॥ कुलरूपवयोविद्यावृत्त श्रीपौरुषादिकम् । यद्वरेषु समन्वेष्यं सर्व तत्तत्र पिण्डितम् ॥ १८६॥ ततो नास्त्यत्र नश्चय दिगन्तव्याप्तकीर्तये । जितार्कमूर्तये देया कन्ये घेत्यर्ककीर्तये ॥१८७॥ सिद्वार्थोऽत्राह तत्सर्वमस्ति किं च पुराविदः । कनीयसोऽपि संबन्धं नेच्छन्ति ज्यायसा सह। ततः प्रतीतभूपालपुत्रा वरगुणान्विताः । प्रभञ्जनो रथवरो बलिर्वज्रायुधाह्वयः ॥१८९ ॥ पास गयी। राजाने भी उठकर और हाथ जोड़कर उसके दिये हुए शेषाक्षत लेकर स्वयं अपने मस्तकपर रखे तथा यह कहकर कन्याको विदा किया कि हे पुत्रि, तू उपवाससे खिन्न हो रही है, अब घर जा, यह तेरे पारणाका समय है ॥१७३-१७९॥ राजा पूर्ण यौवनको प्राप्त हुई उस विकारशून्य कन्याको देखकर उसके विवाहोत्सवको चिन्ता करने लगा ॥१८०॥ उसने किसी शुभ दिनको कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी और सम्भिन्नश्रोतृ इन चारों बुद्धि ऋद्धियोंके समान श्रुतार्थ, सिद्धार्थ, सर्वार्थ और सुमति नामके मन्त्रियोंको बुलाया ॥ १८१ । और पूछा कि हमारे कुलके प्राणस्वरूप इस कन्याके लिए सभी राजा लोग प्रार्थना करते हैं इसलिए तुम लोग विचार कर कहो कि यह कन्या किसको दो जाय ? ॥१८२॥ इस प्रकार पूछनेपर शास्त्रोंका समुद्र श्रुतार्थ नामका मन्त्री बोला कि इस विवाहमें सज्जन बन्धुओंका समागम होना चाहिए, जमाई बड़े कुलका होना चाहिए, इस विवाहमें बहुत-सा धन खर्च होगा और हम लोगोंको अपने जन्म तथा राज्यका फल मिलेगा इसलिए नीतिनिपुण पुरुषोंको इस कार्यका अच्छी तरह विचार करना चाहिए ॥१८३-१८४।। यदि यह सम्बन्ध चक्रवर्तीके साथ किया जाय तो सब राजा अपने बन्ध हो सकते हैं और आपका वंश भी इक्ष्वाकु वंशकी तरह पूज्य हो सकता है ।। १८५ ॥ कुल, रूप, वय, विद्या, चारित्र, शोभा और पौरुष आदि जो जो गण वरोंमें खोजना चाहिए वे उसमें इकटे हो गये हैं। इसलिए इसमें कुछ चर्चाकी आवश्यकता नहीं है जिसकी कीर्ति सब दिशाओं में फैल रही है और जिसने अपने तेजसे सूर्यके प्रतिबिम्बको भी जीत लिया है ऐसे चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिके लिए यह कन्या दी जाय ।। १८६१८७ ॥ इसी समय सिद्धार्थ मन्त्री कहने लगा कि आपका यह सब कहना ठोक है परन्तु पूर्व व्यवहारको जाननेवाले छोटे लोगोंका बड़ोंके साथ सम्बन्ध होना भी अच्छा नहीं समझते हैं ॥ १८८ ॥ इसलिए वरके गुणोंसे सहित प्रभंजन, रथवर, बलि, वज्रायुध, मेघेश्वर (जयकुमार) और भीमभुज आदि अनेक प्रसिद्ध राजपुत्र हैं जो एकसे एक बढ़कर वैभवशाली हैं तथा चतुर १ गच्छ । २ तव । ३ गृहम् । 'शरणं गृहरक्षित्रोः' इत्यभिधानात् । ४ विवाह । ५ नामधेयान् । ६ कोष्ठबुद्धिबीजबुद्धिपदानुसारिसंभिन्नश्रोतृभेदानिव । ७ वृण्वते ल०, म०, प०, स०, इ०। प्रार्थयन्ते । ८ विचार्य । ९ पृच्छति स्म। १० धनस्य । ११ अथ वा जन्मनः फलं राज्यस्य फलम् । १२ मृग्यम् । १३ अर्ककोौं । १४ विचार्यम् । १५ इति प्राहेति संबन्धः । १६ -मस्तु ल०, म०, प० । १७ पूर्ववेदिनः । १८ अल्पस्य । १६ महता सह । ज्यायसां ल०, ब०। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० आदिपुराणम् मेघस्वरो भीमभुजस्तथाऽन्येऽप्युदितोदिताः । कृतिनो बहवः सन्ति तेषु यत्राशयोत्सवः ॥१९॥ शिष्टान् पृष्टा च दैवज्ञान्निरीक्ष्य शकुनानि च । स हितः समसंबन्धस्तस्मै कन्येति दीयताम् ॥१९॥ श्रुत्वा सर्वार्थवित्सर्वं सर्वार्थः प्रत्युवाच तत् । भूमिगोचरसंबन्धः स नः प्रागपि विद्यते ॥१९२॥ अपूर्वलाभः श्लाघ्यश्च विद्याधरसमाश्रयः । विचार्य तत्र कस्मैचिद्देयेयमिति निश्चितम् ॥ १६३॥ सुमतिस्तं निशम्याथ युक्तानामाह युक्तवित् । न युक्तं वमप्येतत्स र्ववैरानुबन्धकृत् ॥१६४॥ किं भूमिगोचरेप्वस्या वरो नास्तीति चेतसि । चक्रिणोऽपि भवेत्किंचिद् वैरस्यं प्रस्तुतश्रुतेः'' ॥१९५॥ दृष्टः सम्यगुपायोऽयं मयाऽत्रैकोऽविरोधकः । श्रुतः पूर्वपुराणेषु स्वयंवरविधिर्वरः ॥१६६॥ संप्रत्यकम्पनोपक्रम तदस्त्वायुगावधि"। "पुरुतत्पुत्रवत्सृष्टि"ख्यातिरस्यापि जायताम् ॥१७॥ दीयतां कृतपुण्याय कस्मैचित् कन्यका स्वयम् । वेधसा विप्रियं नोऽमा माभूद्भूभृत्सु केनचित् ॥ इत्येवमुक्त तत्सर्वैः संमतं सहभूभुजा.। नहि मत्सरिणः सन्तो न्यायमार्गानुसारिणः ॥१९९॥ तान् संपूज्य विसाभूद भू तत्कार्यतत्परः । स्वयमेव गृहं गत्वा सर्व तत्संविधानकम् २०० हैं उनमें जिसके लिए अपना चित्त प्रसन्न हो उसके लिए शिष्ट जन तथा ज्योतिषियोंसे पूछकर और उत्तम शकुन देखकर कन्या देनी चाहिए क्योंकि बराबरीवालोंके साथ सम्बन्ध करना ही कल्याणकारी हो सकता है ॥१८६-१९१॥ यह सब सुनकर समस्त विषयोंको जाननेवाला सर्वार्थ नामका मन्त्री बोला कि भूमिगोचरियोंके साथ तो हम लोगोंका सम्बन्ध पहलेसे ही विद्यमान है, हाँ, विद्याधरोंके साथ सम्बन्ध करना हम लोगोंके लिए अपूर्व लाभ है तथा प्रशंसनीय भी है इसलिए विचारकर विद्याधरोंमें ही किसीको यह कन्या देनी चाहिए ऐसा मेरा निश्चित मत है ॥१६२-१९३॥ तदनन्तर वहाँपर एकत्रित हुए सब लोगोंका अभिप्राय जानकर योग्य बातको जाननेवाला सुमति नामका मन्त्री बोला कि यह सब कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ये सभी बातें शत्रुता उत्पन्न करनेवाली हैं ॥ १९४ ॥ विद्याधरको कन्या दी है यह सुननेसे चक्रवर्तीके चित्तमें भी 'क्या भूमिगोचरियोंमें इसके योग्य कोई वर नहीं है' यह सोचकर कुछ बुरा लगेगा ॥ १९५ ।। इस विषयमें किसीसे विरोध नहीं करनेवाला एक अच्छा उपाय मैंने सोचा है और वह यह है कि प्राचीन पुराणोंमें स्वयंवरकी उत्तम विधि सुनी जाती है। यदि इस समय सर्वप्रथम् अकम्पन महाराजके द्वारा उस विधिका प्रारम्भ किया जाय तो भगवान् वृषभदेव और उनके पुत्र सम्राट भरतके समान संसारमें इनकी प्रसिद्धि भी युगके अन्त तक हो जाय ॥ १६६-१६७ ॥ इसलिए यह कन्या स्वयंवरमें जिसे स्वीकार करे ऐसे किसी पुण्यशाली राजकुमारको देनी चाहिए । ऐसा करनेसे हम लोगोंका आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेव अथवा युगव्यवस्थापक सम्राट भरतसे कुछ विरोध नहीं होगा, और न राजाओंका भी परस्परमें किसीके साथ कुछ वैर होगा ॥ १९८ ॥ इस प्रकार सुमति नामके मन्त्रीके द्वारा कही सब बातें राजाके साथ-साथ सबने स्वीकृत की सो ठीक ही है क्योंकि नीतिमार्गपर चलनेवाले पुरुष मात्सर्य नहीं करते ॥ १९९ ॥ तदनन्तर राजाने सन्मान कर मन्त्रियोंको विदा किया और स्वयं १ उपर्युपर्यभ्युदयवन्तः । २ पुंसि । ३ चित्तोत्सवोऽस्ति । ४ ज्योतिष्कान् । ५ अस्माभिः सह संबन्धः संबन्धवान् वा । ६ तम् अ०, ५०, स०, इ०, ल०, म०। ७ भूचर । ८ अभिप्रायम् । ९ मिलितानाम् । श्रुतादीनाम् । १० सर्व वैरा-१०, ल० । ११ विवाहवार्ताश्रवणात् । १२ पूर्वस्मिन् श्रुत: १३ अकम्पनेन प्रक्रमोपक्रान्तम् । १४ स्वयंवरनिर्माणम् । १५ पुरुजित्भरतराजवत् । १६ स्रष्टुः ट० । स्वयंवरस्य स्रष्टा इति प्रसिद्धिः । सृष्टिरिति पाठे स्वयंवरस्य सृष्टिप्रसिद्धिः । १७ ब्रह्मणा । 'स्रष्टा प्रजापतिर्वेधा विधाता विश्वसृविधिः' इत्यभिधानात् । १८ विरुद्धम् । अप्रियमित्यर्थः । १९ नृपेषु । २० मन्त्रिणः । २१ अकम्पनः । २२ स्वयंवरकार्य । २३ प्रस्तुतं कृत्य । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व । ३७१ निवेद्य सुप्रभायाश्च हृष्टो हेमाङ्गदस्य च । वृद्धैः कुलक्रमायातैरालोच्य च सनामिभिः ॥२०१॥ अत्रैकेषां निसृष्टार्थान् मितार्थानपरान् प्रति । परेषां प्राभृतान्तःस्थपत्रान् शासनहारिणः ॥२०२॥ सदानमानैः संपूज्य निवेद्यैतत्प्रयोजनम् । समानेतुं महीपालाद् सर्वदिकं समादिशत् ॥२०३॥ ज्ञात्वा तदाशु तद्वन्धुर्विचित्राङ्गदसंज्ञकः । सौधर्मकल्पादागत्य देवोऽवधिविलोचनः ॥२०४॥ अकम्पनमहाराजमालोक्य वयमागताः । सुलोचनायाः पुण्यायाः'' स्वयंवरमवेक्षितुम् ॥२०५॥ इत्युक्त्वोपपुर योग्य रम्य राजाभिसंमतः । ब्रह्मस्थानोत्तर भागे प्रधीरे वरवास्तुनि ॥२०६॥ प्राङ्मुखं सर्वतोभद्रं मङ्गलद्रव्यसंभृतम् । विवाहमण्डपोपेतं प्रासादं बहुभूमिकम् ॥२०७॥ *चित्रप्रतोलीप्राकारपरिकर्मगृहावृतम् । भास्वरं मणिभर्माभ्यां विधाय विधिवत् सुधीः ॥२०८॥ "तं परीत्य विशुद्धोरु सुविभक्तमहीतलम् । चतुरस्रं चतुर्दारशालगोपुरसंयुतम् ॥२०९॥ रत्नतोरणसंकीर्णकेतुमालाविलासितम् । हटत्कूटाग्रनिर्भासि भमकुम्माभिशोभितम् ॥२१०॥ स्थूलनीलोत्पलाबद्धस्फुरद्दीप्तिधरातलम् । विचित्रनेत्रविस्तीर्णवितानाति विराजितम् ॥२११॥ कार्य करने में जुट गया। उसने सबसे पहले घर जाकर ऊपर लिखे हुए समाचार सुप्रभादेवी और हेमांगद नामके ज्येष्ठ पुत्रको कह सुनाये तथा कुलपरम्परासे आये हुए वृद्ध पुरुषों और सगोत्री बन्धुओंके साथ पूर्वापर विचार किया ॥२००-२०१॥ कितने ही राजाओंके पास निसृष्टार्थ अर्थात् स्वयं विचार कर कार्य करनेवाले दूत भेजे, कितनों ही के पास मितार्थ अर्थात् कहे हुए परिमित समाचार सुनानेवाले दूत भेजे और कितनों ही के पास उपहारके भीतर रखे हुए पत्रको ले जानेवाले दूत भेजे । इस प्रकार दान और सन्मानके द्वारा पूजित कर तथा स्वयंवरका प्रयोजन बतलाकर राजाने भूपालोंको बुलानेके लिए सभी दिशाओं में अपने दूत भेजे ||२०२-२०३॥ यह सब समाचार जानकर अवधिज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाला विचित्रांगद नामका देव जो कि पूर्वभवमें राजा अकम्पनका भाई था सौधर्म स्वर्गसे आया और अकम्पन महाराजके दर्शन कर कहने लगा कि मैं पूण्यवती सुलोचनाका स्वयंवर देखनेके लिए आया हूँ ॥२०४-२०५॥ ऐसा कहकर उसने राजाकी आज्ञानुसार नगरके समीप ब्रह्मस्थानसे उत्तरदिशाको ओर अत्यन्त शान्त, उत्कृष्ट, योग्य और रमणीय स्थानमें एक सर्वतोभद्र नामका राजभवन बनाया जिसका मुख पूर्व दिशाकी ओर था, जो मंगलद्रव्योंसे भरा हुआ था, विनाहमण्डपसे सहित तथा कई खण्डका था ॥२०६-२०७॥ वह राजभवन अनेक प्रकारकी गलियों, कोटों तथा शृंगार करनेके घरोंसे घिरा हुआ था, देदीप्यमान था और मणियों तथा सुवर्णसे बना हुआ था। इस प्रकार उस बुद्धिमान् देवने विधिपूर्वक राजभवनकी रचना कर उसके चारों ओर स्वयंवरका महाभवन बनाया था जो कि विशुद्ध था, बड़ा था, जिसका पृथ्वीभाग अलग-अलग विभागोंमें विभक्त था, जो चौकोर था, जिसमें चार दरवाजे थे, जो कोट तथा गोपुरद्वारोंसे सुशोभित था, रत्नोंके तोरणोंसे मिली हुई पताकाओंकी पंक्तियोंसे शोभायमान हो रहा था, देदीप्यमान शिखरोंके अग्रभागपर चमकते हुए सुवर्णके कलशोंसे अलंकृत १ सुप्रजायाश्च अ०, प०। २ निजज्येष्ठपुत्रस्य। ३ केषांचिन्नृपाणाम् । ४ स्वयमेव विचारितकार्यान् । ५ परिमितकार्यार्थान् । ६ उपायन । ७ वचोहरान् । -पत्रशासन-ल०। ८ स्वयंवरकार्यम् । ९ स्वयंवरदिशाम् । १० अकम्पनस्य मित्रम् । ११ पवित्रायाः । १२ पुरसमीपे । १३ पदविन्यासान्निश्चितमध्यभागस्योत्तरे । १४ अतिगम्भीरे । १५ वरवास्तुदेशे। 'वेश्म भूस्तुिरस्त्रियाम्' इत्यभिधानात् । १६ -भूमिपम् ल०, म० । १७ गोपुररथ्या वा। १८ शृङ्गारगृह। १९ 'भर्म रुक्मं हाटकं शातकुम्भम्' इत्यभिधानपाठाददन्तः । २० सर्वतोभद्रं परिवेष्ट्य । २१ द्वारं शाल-ल०, म०,१०, प०, स०, इ० । २२ कनककलश। २३ वस्त्रविशेष। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ आदिपुराणम् मोगोपभोगयोग्योरुसर्ववस्तुसमाचितम् । यथास्थानगताशेषरत्नकाञ्चननिर्मितम् ॥२१॥ मुदा निष्पादयामास स्वयंवरमहागृहम् । न साधयन्ति केऽभीष्टं पुंसां शुभविपाकतः ॥२३॥ तं निरीक्ष्य क्षितेमर्त्ता लक्ष्मीलीलागृहायितम् । नासीत् स्वाङ्गे स संतोषात् सन्मित्रात् किन्न जायते ॥ अथ प्रादुरभूत् काल: सुरमिर्मत्तमन्मथः । मुदं मदं च संचिन्वन् कामिषु भ्रमरेषु च ॥२१५॥ ववौ मन्दं गजोधृष्टचन्दनद्रवसारभृत् । एलालवङ्गसंसर्गपङ्गलो मलयानिलः ॥२१६॥ मलयानिल माश्लेष्टुं संबन्धिनमुपागतम् । लताद्रुमाः सुशाखानां प्रसारणमिवादधुः ॥२१७।। यमसंबन्धिदिक्त्यागं रविभीत इवाकरोत् । मदेन कोकिलाः काले कूजन्ति स्म निरंकुशम् ॥२१॥ पुष्पमार्तवमाता नः शाखा न स्पृशतेति तान् । अलीन् वासं निषिध्यन्तश्चम्पकाश्चलपल्लवैः ॥२१९॥ वसन्तश्रीवियोगो वा सशोकोऽशोकभूरुहः । सपुष्पपल्लवो नाम साधं तत्संगमाद् व्यधात् ॥२२०॥ मूलस्कन्धानमध्येषु चूतायैरिव मत्सरात् । सुरभीणि प्रसूनानि सुरभिश्च तदा दधे ॥२२१॥ था, जिसका धरातल बड़े-बड़े नीलमणियोंसे जड़ा हुआ होनेके कारण जगमगा रहा था, जो नेत्र जातिके वस्त्रोंसे बने हुए बड़े-बड़े चन्दोवोंसे सुशोभित था, भोग उपभोगके योग्य समस्त बड़ी-बड़ी वस्तुओंसे भरा हुआ था और योग्य स्थानपर लगाये हुए सब प्रकारके रत्नों तथा सुवर्णसे बना हुआ था। इस प्रकारका स्वयंवरका यह महाभवन उस देवने बड़ी प्रसन्नतासे बनाया था सो ठीक ही है क्योंकि पूण्योदयसे पुरुषोंके अभीष्ट अर्थको कौन-कौन सिद्ध नहीं करते हैं अर्थात् सभी करते हैं ॥२०८-२१३।। लक्ष्मीके लीलागृहके समान उस स्वयंवर भवनको देखकर राजा अकम्पन सन्तोषसे अपने शरीरमें नहीं समा रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम मित्रोंसे क्या नहीं होता है ?. अर्थात् सभी कुछ होता है ।।२१४॥ अथानन्तर-कामको उन्मत्त करनेवाले तथा कामी लोगों और भ्रमरोंसे क्रमशः आनन्द और मदको बढ़ानेवाले वसन्तऋतुका प्रारम्भ हुआ ॥२१५॥ हाथियोंके द्वारा घिसे हुए चन्दनवृक्षोंके निष्यन्दरूपी सारको धारण करनेवाला तथा इलायची और लवंगके संसर्गसे कुछ-कुछ पीला हुआ मलयपर्वतका वायु धीरे-धीरे बहने लगा ॥२१६॥ उस समय लताओं और वृक्षोंकी जो शाखाएँ फैल रही थीं उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो समीप आये हुए अपने सम्बन्धी मलयानिलका आलिंगन करनेके लिए ही भुजारूप शाखाएँ फैला रहे हों ।।२१७॥ उस समय सूर्यने मानो डरकर ही यम सम्बन्धी-दक्षिण दिशाका त्याग कर दिया था अर्थात् उत्तरायण हो गया था और कोयलें मदसे निरंकुश होकर मधुर शब्द कर रही थीं ॥२१८॥ 'ये हमारी शाखाएँ आर्तव अर्थात् वसन्त ऋतुमें उत्पन्न होनेवाले अथवा रजस्वला अवस्थामें प्रकट होनेवाले पुष्पको प्राप्त हो रही हैं-धारण कर रही हैं इसलिए इन्हें मत छुओ' यही कहते हुए मानो चम्पाके वृक्ष अपने हिलते हए पल्लवोंके द्वारा भ्रमरोंको वहाँपर निवास करनेका निषेध कर रहे थे ॥२१६।। जो वसन्त ऋतुरूपी लक्ष्मीके वियोगमें सशोक था अर्थात् शोक धारण कर रहा था ऐसा अशोकका वृक्ष उस वसन्त ऋतुके सम्बन्धसे फूल और पल्लवोंसे सहित हो अपना अशोक नाम सार्थक कर रहा था ॥२२०।। उस समय चमेलीने आम आदि वृक्षोंके साथ ईर्ष्या १ संभृतम् । २ प्रदेशमनतिक्रम्य । ३ शुभकर्मोदयात् । ४ हर्षेण निजशरीरे न ममावित्यर्थः । नामात् ल०, म०, अ०, स०, ५०, इ०। ५ वसन्तः । 'वसन्ते पुष्पसमयः सुरभिीष्म उष्मकः ।' इत्यभिधानात् । ६ पदवैकल्यवान् । ७ आलिङ्गनाय । ८ करप्रसारणमिव । ९ क्रिरे । १० ऋतुं पुष्पोत्पत्तिनिमित्तभूतकालविशेष रजोत्पत्तिनिमितं कालविशेषं च । ११ अस्माकम् । १२ वियोगे ल०। १३ सल्लकोतरुः । “गन्धिनी गजभक्ष्या तु सुवहा सुरभी रसा । महेरुणा कुन्दुरुको सल्लकी ह्लादिनीति च" इत्यभिधानात् । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व ३७३ आकृष्टदिग्गजालीनि बकुलानि वने वने । हानो' गुणाधिकान्यासंस्तुलितानि कुलोद्गतैः ॥२२२॥ क्रीडनासक्तकान्ताभिर्बाध्यमानाः सगीतिभिः । आन्दोलाः स्तम्भसंभूतैः समाक्रोशन्निव स्वनैः ॥२२३॥ सुन्दरेष्वपि कुन्देषु मधुपा मन्दतृप्तयः । माधवीमधुपानेन मुदा मधुरमारुवन् ॥२२४॥ भवेदन्यत्र कामस्य रूपवित्तादि साधनम् । कालैकसाधनः सोऽस्मिन्ना वनस्पति *॥२२॥ नरविद्याधराधीशान् गत्वा तत्कालसाधनात् । दूताः स्वयंवरालापं सर्वांस्तान समबोधयन् ॥२२६॥ ततो नानानकध्वानप्रोत्कीकृतदिग्द्विपाः । निजाङ्गनाननाम्भोजपरिम्लानिविधायिनः ॥२७॥ "वियद्विभूतिमाक्रम्य विमानैर्गतमानकैः । सद्यो विद्याधराधीशा द्योतमानदिगाननाः ॥२२॥ सुलोचनाभिधाकृष्टि "विद्याकृष्टाः समापतन् । कामिनां न पराकृष्टि विद्यामुक्त्वप्सितस्त्रियः ॥२२९॥ होनेके कारण ही मानो जड़, स्कन्ध, मध्यभाग और ऊपर-सभी जगह सुगन्धित फूल धारण किये थे ॥२२१।। जिन्होंने दिग्गजोंके भ्रमरोंको भी अपनी ओर खींच लिया है और जो उच्चकूलमें उत्पन्न हए बडे पुरुषोंके समान हैं ऐसे मौलश्रीके वक्ष प्रत्येक वनमें अपनी हानि होनेपर भी गणोंकी अधिकता ही धारण कर रहे थे। भावार्थ-जिस प्रकार कलीन मनुष्य हानि होने भी अपना गुण नहीं छोड़ते हैं उसी प्रकार मौलश्रीके वृक्ष भी भ्रमरों-द्वारा रसका पान किया जाना रूप हानिके होनेपर भी अपना सुगन्धिरूप गण नहीं छोड़ रहे थे ॥२२२।। जो गीत गा रही हैं तथा खेलनेमें लगी हुई हैं ऐसी सुन्दर स्त्रियाँ जो झूला झूल रही थी और उनके झूलनेसे जो उनके खम्भोंसे चूँ – शब्द हो रहा था उनसे वे झूले ऐसे जान पड़ते थे मानो उन स्त्रियोंके द्वारा पीड़ित होकर ही चिल्ला रहे हों ॥२२३॥ जिन्हें कुन्दके सुन्दर फूलोंपर अच्छी तृप्ति नहीं हुई है ऐसे भ्रमर माधवी ( मधुकामिनी ) लताका रस पीकर आनन्दसे मधुर शब्द कर रहे थे ।।२२४।। वसन्तको छोड़कर अन्य ऋतुओंमें अच्छा रूप होना आदि भी कामदेवके साधन हो सकते हैं परन्तु इस वसन्तऋतु में एक समय ही जिसका साधन है ऐसा यह काम वनस्पतियों तक फैल जाता है। भावार्थ-अन्य ऋतुओंमें सौन्दर्य आदिसे भी कामकी उद्भूति हो सकती है परन्तु वसन्तऋतुमें कामकी उद्भूतिका कारण समय ही है। उस समय सौन्दर्य आदिका अभाव होनेपर भी केवल समयकी उत्तेजनासे कामकी उद्भूति देखी जाती है और उसका क्षेत्र केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं रहता किन्तु वनस्पतियों तकमें फैल जाता है ॥२२५।। उस वसन्तऋतुकी सहायतासे उन दूतोंने भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंके पास जाकर उन सबको स्वयंवरके समाचार बतलाये ।।२२६॥ ___ तदनन्तर अनेक नगाड़ोंके शब्दोंसे दिग्गजोके कान खड़े करनेवाले, अपनी स्त्रियों के मुखरूपी कमलोंको म्लान करनेवाले, सब दिशाओंके मुखको प्रकाशित करनेवाले और सुलोचना इस नामरूपी आकर्षिणी विद्यासे आकर्षित हुए अनेक विद्याधरोंके अधिपति अपने अनेक विमानोंसे आकाशके विस्तारको कम करते हुए बहुत शीघ्र आ पहुँचे सो ठीक ही है क्योंकि कामी लोगोंको अपनी अभीष्ट स्त्रियोंको छोड़कर और कोई उत्तम आकर्षिणी विद्या नहीं है ।।२२७-२२९॥ १ आकृष्टा दिग्गजगण्डवयंलयो यस्तानि । २ पुष्पामोदत्यागे सति । ३ गन्धगुणाधिकानि । उपकारादिगुणाधिकानि । ४ सदृशीकृतानि । ५ विशुद्धवंशोद्भूतैः । ६ आक्रोशं चक्रिरे । ७ ध्वनन्ति स्म । ८ अन्यस्मिन् काले । ९ स्त्रीपुंसां रूपधनभूषणादि । १० काल एक एव साधनं यस्य सः । ११ वसन्तकाले । १२ वनस्पतिपर्यन्तम् । १३ वर्धते । १४ वसन्तकाल। १५ आकाशविस्तृतिम् । १६ अपरिच्छिन्नप्रमाणकः । अपरिमितरित्यर्थः ।। -ततमानकैः ल०, म० । १७ सुलोचनानामैव आकर्षणविद्या तया आकृष्टा आकर्षिता। १८ आगच्छन्ति स्म । १९ आकर्षणविद्या। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् अभिगम्य नृपः क्षिप्रं स्वयमाविष्कृतोत्सवः । चेतः सौलोचनं वैतान् प्रीतान् प्रावेशयत्पुरम् ॥ २३०॥ स्वगेहादिपु संप्रीत्या समुहदोत्सवध्वजः । 'आकम्पनिभित्राविष्कृतादरैः परिवारितः ॥ २३३ ॥ सांशुकर्ममिवोद्यन्तमर्ककीर्ति सहानुजम् । अकम्पननृपोऽभ्येत्य भरतं वाऽनयत्पुरम् ॥ २३२ ॥ स्वादरेणैव' संसिद्धिं भाविनीं तस्य सूचयन् । नाथवंशाग्रणीर्मेघस्वरं चानेतुमभ्ययात् ॥ २३३॥ ततो महीभृतः सर्वे त्रिसमुद्रान्तरस्थिताः । पूरा इव पयोराशिं प्रापुः स्फीतीकृतप्रियः ॥ २३४ ॥ स्वयमर्धपथं गत्वा केपांचित् सर्वसंपदा । केषांचिद् गमयित्वाऽन्यान् मान्यान् हेमाङ्गदादिकान् ॥ २३५॥ ये ये यथा यथा प्राप्ताः पुरींस्तां स्तांस्तथा तथा । आह्वयन्तीं पताकाभिर्वोच्छ्रिताभिरवीविशत् ॥ २३६॥ तदा तं राजगेहस्थं नरविद्याधरःधिपैः । वृत्तं सुलोचनाऽकार्षीत् पितरं जितचक्रिणम् ॥ २३७॥ वाराणसी जितायोध्या "स्वनाम्नस्तां " निराकरोत् । कन्यारत्वात् परं नान्यदित्यत्राहुः प्रभृत्यतः २३८ तान् स्वयंवराला नामक कीर्तिपुरस्सरान् । निवेश्य प्रीणयामास कृताभ्यागतसत्क्रियः ॥२३९॥ ३७४ अनेक उत्सवों को प्रकट करनेवाले राजा अकम्पनने स्वयं ही बहुत शीघ्र उन राजाओंकी अगवानी की और प्रसन्न हुए उन राजाओं को सुलोचनाके चित्तके समान वाराणसी नगरी में प्रवेश कराया ॥ २३० ॥ जिसने बड़े प्रेमसे अपने घर आदिमें उत्सवकी ध्वजाएं बँधायी हैं और आदरको प्रकट करनेवाले हेमांगद आदि पुत्र जिसके साथ हैं ऐसे राजा अकम्पनने किरणों सहित उदय होते हुए सूर्य के समान अपने छोटे भाइयों सहित आये हुए अर्ककीर्तिकी अगवानी कर उसे महाराज भरतके समान नगरमें प्रवेश कराया ||२३१-२३२ || इसी प्रकार अपने आदरसे ही मानो उसकी आगे होनेवाली सिद्धिको सूचित करता हुआ नाथवंशका अग्रणी राजा अकम्पन जयकुमारको लेने के लिए उसके सामने गया || २३३|| तदनन्तर जिस प्रकार पूर समुद्रकी ओर जाता है उसी प्रकार तीनों (पूर्व, पश्चिम, दक्षिण ) समुद्रोंके बीच के रहनेवाले सब राजा लोग अपनी अपनी शोभा बढ़ाते हुए वाराणसी आ पहुँचे || २३४|| राजा अकम्पन कितने ही राजाओं के सामने तो अपनी सब विभूतिके साथ स्वयं आधी दूर तक गया था और कितनों ही के सामने उसने मान्य हेमांगद आदिको भेजा था || २३५ || जो राजा जिस-जिस प्रकारसे आ रहे थे उन्हें उसीउसी प्रकारसे उसने अपनी फहराती हुई पताकाओंसें जो मानो बुला ही रही हों ऐसी बनारस नगरी में प्रवेश कराया था || २३६ | | उस समय सुलोचनाने राजमहल में विराजमान तथा भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंसे घिरे हुए अपने पिताको चक्रवर्तीको भी जीतनेवाला बना दिया था । भावार्थ - महल में इकट्ठे हुए अनेक राजाओंसे राजा अकम्पन चक्रवर्तीके समान जान पड़ता था ।।२३७।। उस समय अयोध्याको भी जीतनेवाली वाराणसी नगरी अपने नामसे ही उसका तिरस्कार कर रही थी। क्योंकि उस स्वयंवर के समयसे ही लेकर इस संसारमें कन्यारत्नके सिवाय और कोई उत्तम रत्न नहीं है, यह बात प्रसिद्ध हुई है । भावार्थ - कदाचित् कोई कहे कि चक्रवर्तीकी राजधानी होनेसे चौदह रत्न अयोध्या में ही रहते हैं इसलिए वही उत्कृष्ट नगरी हो सकती है न कि वाराणसी भी; तो इसका उत्तर यह है कि संसार में सर्वोत्कृष्ट रत्न कन्यारत्न है जो कि उस समय वाराणसी में ही रह रहा था अतः उत्कृष्ट रत्नका निवास होनेसें वाराणसीने अयोध्याका तिरस्कार कर दिया था || २३८ ।। अतिथियोंका सत्कार १ अभिमुखं गत्वा । २ अकम्पनः । ३ सुलोचनाचित्तमिव । ४ अकम्पनस्यापत्यैः । ५ अभिमुखं गत्वा । ६ भरतमिव । ७ अकम्पनस्यादरेण । ८ वृद्धीकृत । ९ प्रावेशयत् । १० अयोध्याभिधानात् । ११ अयोध्योक्तिम् । अथवा योद्धुमशक्या अयोध्या एतल्लक्षणं तदा तस्या अयोध्याया नास्तीति भावः । १२ उत्कृष्टम् । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व पुरोपार्जितसद्धर्मात् सर्वमेतत्ततः पुरा । धर्म एव समभ्यर्च्य इति संचित्य विद्वरः ॥२४॥ कृत्वा जैनेश्वरी पूजां दीनानाथवनीपकान् । अनर्थिनः समांशु सर्वत्यागोत्सवोद्यतः ॥२४॥ . तां लक्ष्मीमक्षयां मत्वा सफलां चाप्तसव्ययाम् । स तदाभूत् क्षतेरेकभोग्यः क्षितिरिवात्मनः ॥२२॥ एवं विहिततत्पूजः प्रकृतार्थं प्रचक्रमे । प्रारम्भाः सिद्धिमायान्ति पूज्यपूजापुरस्सराः॥२४३॥ आस्फालिता तदा भेरी विवाहोत्सवशंसिनी । व्याप्नोत् 'प्रमोदः प्राक चेतः पश्चात् कर्णषु तद्ध्वनिः॥ पुष्पोपहारिभूभागानृत्यकेतुनभस्तला । निर्जिताब्धिमहातूर्यध्वानाध्मातदिगन्तरा ॥२४५॥ विशोधितमहावीथिदेशा प्रोद्बद्ध तोरणा । पुनर्नवसुधाक्षोदधवलीकृतसौधिका ॥२४६॥ रञ्जिताञ्जनसन्नेत्रा मालाभारिशिरोरुहा । संस्कृतभ्रलतोपेता सविशेषललाटिका ॥२७॥ "मणिकुण्डलभारेण प्रलम्बश्रवणोज्ज्वला । सचित्रकरविन्यस्तपत्रचित्रकपोलिका ॥२८॥ ताम्बूलरससंसर्गाद् द्विगुणारुणितांधरा । मुक्ताभरणभाभारभासिबन्धुरकण्टिका ॥२४॥ सचन्दनरसस्फारहारवक्षःकुचाञ्चिता । महामणिमयूखातिभास्वद्भुजलतातता ॥२०॥ करनेवाले राजा अकम्पनने उन अर्ककीति आदि राजाओंको स्वयंवरशालामें ठहराकर प्रसन्न किया था ॥२३९।। यह सब पहले उपार्जन किये हए समीचीन धर्मसे ही होता है इसलिए सबसे पहले धर्म ही पूजा करनेके योग्य है ऐसा विचार कर विद्वानोंमें श्रेष्ठ राजा अकम्पन श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा कर तथा दीन, अनाथ और याचकोंको अयाचक बनाकर सबका त्याग करनेरूप उत्सवके लिए शीघ्र ही तैयार हो गया। वह अच्छे कामोंमें खर्च की हई लक्ष्मीको क्षयरहित और सफल मानने लगा तथा जिस प्रकार उसकी पृथिवी उसके उपभोग करनेके योग्य थी उसी प्रकार उस समय वह समस्त पृथिवीके उपभोग करने योग्य हो गया था। भावार्थ-पृथिवीके सब लोग उसके राज्यका उपभोग करने लगे थे ॥२४०-२४२॥ इस प्रकार उसने जिनेन्द्रदेवकी पूजा कर अपना प्रकृत कार्य प्रारम्भ किया सो ठीक ही है क्योंकि पूज्य पुरुषोंकी पूजापूर्वक किये हुए कार्य अवश्य ही सफलताको प्राप्त होते हैं ॥२४३॥ उसी समय विवाहके उत्सवको सूचित करनेवाली भेरी बज उठी सो पहले सबके चित्तमें आनन्द छा गया और पीछे भेरीकी आवाज कानोंमें व्याप्त हुई ॥२४४॥ उस समय वहाँ पृथिवीपर जहाँ-तहाँ फूलोंके उपहार पड़े हुए थे, आकाशमें पताकाएँ नृत्य कर रही थीं, समुद्रकी गर्जनाको जीतनेवाले बड़े-बड़े नगाड़ोंसे दिशाएँ शब्दायमान हो रही थीं, वहाँकी बड़ी-बड़ी गलियाँ शुद्ध की गयी थीं, उनमें तोरण बाँधे गये थे और बड़े-बड़े महल नये चूनाके चूर्णसे पुनः सफेद किये गये थे ॥२४५-२४६॥ वहाँकी स्त्रियोंके उत्तम नेत्र कज्जलसे रंगे हुए थे, शिरके केश मालाओंको धारण कर रहे थे, भौंहरूपी लताएँ संस्कार की हुई थीं, उनके ललाटपर सुन्दर तिलक लगा हुआ था, उज्ज्वल कर्ण मणियोंके बने हुए कुण्डलोंके भारसे कुछ-कुछ नीचेकी ओर झुक रहे थे, कपोलोंपर हाथसे बनायी हुई पत्ररचनाके चित्र बने हुए थे, पानके रसके सम्बन्धसे उनके ओठोंकी लाली दूनी हो गयी थी, उनके कण्ठ मोतियोंके आभूषणोंकी कान्तिके भारसे बहुत ही सुशोभित हो रहे थे, उनका वक्षःस्थल चन्दनका लेप, बड़ा हार और स्तनोंसे शोभायमान हो रहा था, उनकी भुजारूपी लताएं बड़े-बड़े मणियोंकी किरणोंसे देदीप्यमान हो रही थीं, उनका विशाल नितम्बस्थल १ ततः कारणात् । २ पूर्वम् । ३ विदां वरः। ४ याचकान् । ५ अनिच्छन् । ६ प्रकाश्य। ७ सर्वजनस्य । ८ कृतजिनपूजः । ९ प्रकृतकार्यम् । १० पूज्यानां पूजा पुरस्सरा येषु ते । ११ प्रसरति स्म । १२ नूतनसुधालेपधवलीकृतहा । १३ तिलकसहितभालस्थला । १४ रत्नकर्णवेष्टन । १५ प्रशस्तचित्रिकाजनचित्रितमकरिकापत्रादिविविधरचनावद्गण्डमण्डला । १६ मनोज्ञग्रीवा। १७ प्रशस्तश्रीखण्डकर्दमकलितवक्षसास्फुरणहारान्वितकुचाभ्यां च पूजिता । १८ मयूखाभा 'त०' पुस्तकं विहाय सर्वत्र । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ आदिपुराणम् रशनारज्जुविभ्राजिसुविशालकटीतटी। मणिनूपुरनि?षभसिताब्जक्रमाब्जिका ॥२५॥ जितामरपुरोशोभा सौन्दर्यात् सा पुरी तदा । प्रसाधनमयं' कायम धिताचिन्त्यवैभवम् ॥२५२॥ उत्सवो राजगेहस्य नगरेणैव वर्णितः । अगाधो यदि पर्यन्तो मध्यमब्धेः किमुच्यते ॥२५३॥ न चित्रं तत्र मच्चित्ती सोत्सवोऽन्त बहिश्च तत् । तद्वत्स्वभूवया यस्मात् कुड्याद्यपि विचेतनम् ॥२५॥ भोक्तृशून्यं न भोगाङ्गं न भोक्ता भोगवर्जितः । तत्र सन्निहितोऽनङ्गो लक्ष्मीश्चाविष्कृतोदया ॥२५५॥ पश्य पुण्यस्य माहात्म्यमिहापीति तदुत्सवम् विलोक्य कृतधर्माणः पुरस्थान् बहु मेनिरे॥२५६॥ "उदसुन्वन् फलं मत्वा धर्मस्य मुनयोऽपि तत् । धर्माधर्मफलालोकात् स्वभावः स हि तादृशाम् ।२५७। कन्यागृहात्तदा कन्यामन्यां वा कमलालयाम् । पुरोभूय" पुरन्ध्यस्तामीषल्लज्जात्तसाध्वसाम्॥ विवाह विधिवेदिन्यः कृततत्कालसक्रियाम् । समानीय सदैवज्ञा महातूर्यरवान्विताम् ॥२५६ ।। सर्वमङ्गलसंपूर्ण मुक्तालम्बू षभूषिते । चतुःकाञ्चनसुस्तम्भे भूरिरत्नस्फुरत्त्विषि ॥२६०॥ प्रमोदात् सुप्रभादेशाद् विवाहोत्सवमण्डपे । कलधौतमये प? ' निवेश्य प्राङ्मुखीं सुखम् ॥२६॥ करधनीरूपी रज्जुसे सुशोभित हो रहा था, और उनके चरणकमल मणिमयी नूपुरोंकी झनकारसे कमलोंका तिरस्कार कर रहे थे ।।२४७-२५१॥ इस प्रकार अपनी सुन्दरतासे स्वर्गपुरोकी शोभाको जीतनेवाली वह नगरी उस समय अचिन्त्य वैभवशाली अलंकारमय शरीरको धारण कर रही थी ॥२५२॥ राजमहलका उत्सव तो नगर ही कह रहा था क्योंकि समुद्रके किनारेका भाग ही जब अगाध है तब उसके बोचका क्या पूछना है ? भावार्थ-जब नगरमें ही भारी उत्सव हो रहा था तब राजमहलके उत्सवका क्या पूछना था ? ||२५३॥ वहाँके सचेतन प्राणी अन्तरंग और बहिरंग सब जगह उत्सव मना रहे थे इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है क्योंकि वहाँकी दोवालें आदि अचेतन पदार्थ भी तो अपने अलंकारों-द्वारा सचेतन प्राणियोंके समान हो उत्सव मना रहे थे । भावार्थ-दीवाले आदि अचेतन पदार्थ भी अलंकारोंसे सुशोभित किये गये थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो उल्लाससे अलंकार धारण कर स्वयं ही उत्सव मना रहे हों॥२५४॥ वहाँपर भोगोपभोगका कोई भी पदार्थ भोक्तासे रहित नहीं था और न कोई भोक्ता भी भोगोपभोगके पदार्थसे रहित था, वहाँपर कामदेव सदा समीप ही रहता था और लक्ष्मी उदयरूप रहती थीं ॥२५५|| इस जन्ममें ही पुण्यका माहात्म्य देखो ऐसा सोचते हए कितने ही धर्मात्मा लोग वहाँका उत्सव देखकर उस नगरके रहनेवाले लोगोंको बड़े आदरको दृष्टिसे देख रहे थे ॥२५६॥ मुनि लोग भी उसे धर्मका फल मानकर प्रसन्न हुए थे सो ठीक है क्योंकि धर्मका फल देखकर प्रसन्न होना धर्मात्मा लोगोंका स्वभाव है और अधर्मका फल देखकर प्रसन्न होना अधर्मात्मा लोगोंका स्वभाव है ॥२५७।। उसी समय विवाहकी विधिको जाननेवाली सौभाग्यवती स्त्रियाँ, जिसने तात्कालिक सत्क्रियाएँ की हैं, जो लज्जासे कुछ भयभीत हो रही हैं, जिसके आगे बड़े-बड़े नगाड़ोंके शब्द हो रहे हैं, ज्योतिष शास्त्रको जाननेवाले अनेक विद्वान् जिसके साथ हैं और जो दूसरी लक्ष्मीके समान जान पड़ती है ऐसी उस कन्याको उसके सामने जाकर उसके घरसे सब प्रकारके मंगल द्रव्योंसे भरे हुए, मोतियोंके आभूषणोंसे सुशोभित, सुवर्णके बने हुए चार उत्तम खम्भोंसे युक्त और अनेक रत्नोंकी कान्तिसे जगमगाते हुए १ अलंकारस्वरूपम् । २ बिभर्ति स्म । ३-मब्धौ ल० । ४ पुर्याम् । ५ चेतनवान् । ६ उत्सववत् । ७ यस्मात कारणात् । ८ स्रक्चन्दनादि । ९ नगरे । १० अस्मिन् जन्मन्यपि । किं पुनरुत्तरजन्मनीत्यपि शब्दार्थः । ११ तत्परोत्सवम् । १२ कृतपण्याः । १३ उत्सवं प्राप्ताः । उदास्तन्वत् ल० । १४ लक्ष्मीम् । १५परस्कृत्य । १६ कुटुम्बिन्यः। 'स्यात्तु कुटुम्बिनी पुरन्ध्रो' इत्यभिधानात् । पुरं पोष्यबहुजनसमूहं धत्त इति पुरन्ध्री । पुत्रादिपोष्यवर्गशालिन्याः स्त्रिया नाम । १७ लज्जया स्वीकृत । १८ ज्योतिष्कसहिताः । १९ माला । २० सुप्रभामहादेवीनिरूपणात् । २१ फलके । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पव कलशैर्मुखविन्यस्तविलसत्पल्लवाधरैः । अभिषिच्य विशुद्धाम्बुपूण: स्वर्णमयैः शनैः ॥२२॥ कृतमङ्गलनेपथ्यां नीत्वा नित्यमनोहरम् । पूजयित्वाऽर्हतो भक्त्या सर्वकल्याणकारिणः ॥२६३॥ सिद्धशेषां समादाय क्षिप्त्वा शिरसि साशिषम् । स्थिताः प्रतीक्ष्य सल्लग्नं तत्रावृत्याहितादरम् ।२६४। इतो महशसन्देशान् नरखेचरनायकाः । श्वास्ते प्रसाधितान् कृत्वा प्रसाधनविदस्तदा ॥२६५॥ निजोचितासनारूढाः प्ररूढ श्रीसमुज्ज्वलाः । चलच्चामरसंपत्त्या कान्त्या चामरसन्निभाः ॥२६६॥ कुमार्या निर्जितः कामः प्राक् स्वमेव विकृत्य' किम् । समागंस्त पुनर्जेतुमिति शङ्काविधायिनः ॥ कंचिदेकं वृणीतेऽसाविति ज्ञात्वाऽप्यहंयवः । जेतुं सर्वेऽपि तां तस्थुः आशा हि महती नृणाम् ॥ केरलीकठिनोत्तङ्गकुचकोटिविलङ्घन । श्रमापानीतसामर्थ्यात् परिक्षीणपरिक्रमम् ॥२६॥ माद्यन्मलयमातङ्गकटकण्डूविनोदनात् । क्षतचन्दननिष्यन्दसान्द्र सौगन्ध्यबन्धुरम् ॥२७॥ कावेरीवारिजास्वादप्रहृष्टाण्डजनिर्भर-। क्रीडोच्छलजलस्थूलकणमुक्तातिभूषणम् ॥२७१॥ दक्षिणानिलमापल्ल कोत्कटानलदीपनम् । कोकिलाकिकलालापर्वाचालमनुकूलयन् ॥२७२॥ विवाहोत्सव मण्डपमें बड़े हर्षके साथ महारानी सुप्रभाकी आज्ञासे आयीं और पूर्व दिशाको ओर मुख कर सुखपूर्वक सोनेके पाटपर बिठा दिया। तदनन्तर मुखपर रखे हुए शोभायमान पल्लवोंको धारण करनेवाले तथा विशुद्ध जलसे भरे हुए सुवर्णमय शुभ कलशोंसे उसका अभिषेक किया। फिर मांगलिक. वस्त्राभूषणोंको धारण करनेवाली कन्याको नित्यमनोहर नामक चैत्यालयमें ले जाकर वहाँ उससे सबका कल्याण करनेवाले श्री अर्हन्तदेवकी पूजा करायी। उसके बाद सिद्ध शेषाक्षत लेकर आशीर्वादपूर्वक उसके शिरपर रखे और इतना सब कर चुकनेके बाद वे स्त्रियाँ उसका आदर-सत्कार करती हुई शुभ लग्नकी प्रतीक्षामें उसे घेरकर वहीं ठहर गयीं ॥२५८-२६४॥ इधर महाराज अकम्पनके सन्देशसे, सजावटको जाननेवाले वे सब भूमिगोचरी और विद्याधरोंके अधिपति अपने-आपको सजाकर अपने-अपने योग्य आसनोंपर जा बैठे। वे प्रकृष्ट शोभासे उज्ज्वल थे, ढुलते हुए चमरोंकी सम्पत्ति और कान्तिसे देवोंके समान जान पड़ते थे और ऐसी शंका उत्पन्न कर रहे थे मानो इस कुमारीने पहले ही कामदेवको जीत लिया था इसलिए वह कामदेव ही अपने बहुत-से रूप धारण कर उसे जीतनेके लिए पुनः आया हो ॥२६५-२६७। यह सुलोचना किसी एकको ही स्वीकार करेगी, ऐसा जानकर भी वे सब राजा लोग अहंकार करते हुए उसे जीतनेके लिए वहाँ बैठे थे सो ठीक ही है क्योंकि मनुष्योंकी आशा बहुत ही बड़ी होती है ॥२६८॥ जो स्त्रियोंके मद्यके कुरलों तथा नूपुरोंकी झनकारसे सुशोभित बायें पैरोंके द्वारा वृक्षोंको भी कामी बना रहा है, जो बाँयें हाथमें फूलोंका धनुष धारण कर दूसरे हाथसे आमकी मंजरीको खूब फिरा रहा है, जिसका पराक्रम प्रसिद्ध है और जिसने वसन्त ऋतुरूपी सेवकके द्वारा फूलरूपी सनस्त शस्त्र बुला लिये हैं, ऐसा कामदेव, केरल देशकी स्त्रियोंके कठिन और ऊँचे करोड़ों कुचोंको उल्लंघन करनेसे उत्पन्न हुई थकावटके कारण जिसकी घूमनेकी शक्ति क्षीण हो गयो है अर्थात् जो धीरे-धीरे चल रहा है, मलय पर्वतके १ शुभैः अ०, ५०, स०, म०, ल०, इ०। २ नित्यमनोहरनाम चैत्यालयम् । ३ -शेपं ल०। ४ प्रतीक्षा कृत्वा । ५ चैत्यालये । ६ कृतादरं यथा भवति तथा । ७ अकम्पनवाचिकात् । ८ अलङ कृतान् । ९ प्रसिद्ध । १० आत्मानम् । ११ राजकुमाररूपेण वैकुणिं कृत्वा । १२ सङगतवान् । १३ सुलोचनां जेतुम् । १४ प्रेक्षकाणां शङका कुर्वाणाः । १५ अनिर्दिष्टं कंचिदेकं पुरुषम् । १६ स्वीकरोति । १७ अहंकारवन्तः । 'अहंकारवानईय। इत्यभिधानात् । १८ निजोचितासनारूढाः सन्तस्तस्थुरिति सम्बन्धः । १९ केरलस्त्री। २० श्रमापनीतसामर्श २१ लङ्घनाज्जातश्रमेणापसारितसामर्थ्यन परिक्षोणगमनम् । २२ मलयाचलोत्पन्न करिकपोलकण्ड्यापनयनात । २३ द्रवप्रस्रवण । २४ विरहतीवाग्निसमुत्पादनम् । ४८ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १२ १३ योषितां मधूगण्डूषैर्नृपुरारावरञ्जितैः । कुर्वन् वामाङ्घ्रिभिश्चालमङ्घ्रिपानपि कामुकान् ॥ २७३॥ कौसुमं धनुरादाय वामेनारूढविक्रमः । चूतसूनं करेणोश्चैः परेण परिवर्तयन् ॥ २७४॥ वसन्तानुचरानीतनिःशेषकुसुमायुधः । जित्वा तदाखिलान् देशानध्यायात् कुसुमायुधः ॥ २७५॥ तदा पुरात् समागत्य कृती जितपुरन्दरः । समाविर्भूतसाम्राज्यो राज्य चिह्नपुरस्सरः ॥२७६॥ स्वलक्ष्मीव्याप्त सर्वांशः सुप्रभासहितः पतिः । स्वस्थात् " स्वयंवरागारं स्वोचितं " स्त्रजनैर्वृतः ॥ २७७ ॥ चित्रं महेन्द्रदत्ताख्यो देवदत्तं रथं पृथुम् । सज्जीकृतं समारोप्य कन्यामायात्तु कचुकी ॥ २७८ ॥ समस्तबलसन्दोहं सम्यक् सन्नाह्य" सानुजः । हेमाङ्गदो जितानङ्गः प्रीत्याऽयात् परितो रथम् ॥२७९॥ तूर्यध्वानाहतिप्रेङ्ख "हिक्कन्याकर्णपूरिका । संछन्नच्छत्र निश्छिद्रच्छायाच्छादितभास्करा ॥ २८०॥ लक्ष्मीः पुरीमिवायोध्यां चक्रिदिग्विजयागमे । शालां ' ' प्रविश्य राजन्यलोचनार्च्या सुलोचना ॥२८१ ॥ सर्वतोभद्रमारुह्य कञ्चुकीप्रेरिता नृपान् । न्यषिञ्चलोचनैर्लोलिनीलोत्पलदलैरिव ॥ २८२ ॥ चातका 'वादवृष्ट्या ते तद्दृष्ट्या तुष्टिमागमन् । आह्लादः कस्य वा न स्यादीप्सितार्थसमागमे । २८३ । १७_ १२ ३७८ मदोन्मत्त हाथियोंके गण्डस्थलोंकी खाज खुजलानेसे टूटे हुए चन्दन वृक्षोंके निष्यन्दकी घनी सुगन्धिसे जो व्याप्त हो रहा है, कावेरी नदीके कमलोंके आस्वाद से हर्षित हुए पक्षियोंकी अल्हड़ क्रीड़ासे उछलती हुई जलकी बड़ी-बड़ी बूँदें ही जिसके मोतियोंके आभूषण हैं, जो विरहरूपी तीव्र अग्निको प्रज्वलित करनेवाला है और कोयल तथा भ्रमरोंके मनोहर शब्दोंसे जो वाचालित हो रहा है ऐसे दक्षिणके वायुको अनुकूल करता हुआ सब देशोंको जीतकर उस समय वहाँ आ पहुँचा था || २६९ - २७५ ।। उसी समय, जिसने अपनी शोभासे इन्द्रको भी जीत लिया है, जिसका साम्राज्य प्रकट है, ध्वजा आदि राज्यके चिह्न जिसके आगे-आगे चल रहे हैं, अपनी शोभासे जिसने समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली हैं, सुप्रभा रानी जिसके साथ हैं, और जो अपने कुटुम्बीजनों से घिरा हुआ अर्थात् परिवार के लोग जिसके साथ-साथ चल रहे हैं ऐसा पुण्यवान् राजा अकम्पन नगरसे आकर स्वयंवर मण्डप में अपने योग्य स्थानपर आ विराजमान हुआ ।।२७६ - २७७ ।। उसी समय महेन्द्रदत्त नामका कञ्चुकी चित्रांगददेवके द्वारा दिये हुए, आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले बहुत बड़े अलंकृत रथपर कन्याको बैठाकर लाया ||२७८|| कामको जीतनेवाला हेमांगद अपने छोटे भाइयोंसहित समस्त सेनाके समूहको अच्छी तरह सजाकर बड़े प्रेमसे कन्याके रथके चारों ओर चल रहा था || २७९ || जिसके आगे-आगे बजने - वाले नगाड़ोंके शब्दोंके आघातसे दिशारूपी कन्याओं के कर्णपूर हिल रहे थे, जिसपर अच्छी तरह लगे हुए छत्रकी छिद्ररहित छायासे सूर्य भी ढँक गया था, और जो राजाओंके नेत्रोंसे पूजी जा रही थी अर्थात् समस्त राजा लोग जिसे अपने नेत्रोंसे देख रहे थे ऐसी सुलोचनाने, चक्रवर्तीके दिग्विजयसे लौटनेपर जिस प्रकार लक्ष्मी अयोध्या में प्रवेश करती हैं उसी प्रकार स्वयंवर - शाला में प्रवेश किया और वहाँ वह सर्वतोभद्र नामक महलपर चढ़कर कंचुकीके द्वारा प्रेरित हो नीलकमलके दलके समान अपने चंचल नेत्रोंके द्वारा राजाओं को सींचने लगी ||२८०२८२।। जिस प्रकार चातक पक्षी मेघोंके बरसने से सन्तुष्ट होत े. उसी प्रकार सब राजा लोग सुलोचनाके देखनेसे ही सन्तुष्ट हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि अपने अभीष्ट पदार्थ के समागम , १ अत्यर्थम् । : २ कुसुमनिर्मितम् । ३ वामहस्तेन । ४ माकन्दप्रसूनम् । ५ दक्षिणकरेण । ६ परिभ्रमयन् । ७ वसन्त एवानुचरो भृत्यस्तेन समानीत । ८ आजगाम ।९ अकम्पनः । १० सुखेन स्थितवतः । ११ निजोचितस्थाने । १२ आश्चर्ययुक्तम् । १३ विचित्राङ्गददेवेन वितीर्यम् । १४ सन्नद्धं कृत्वा । १५ चलत् । १६ स्वयंवरशालाम् । १७ सिञ्चति स्म । अयोजयदित्यर्थः । १८ इव । १९ नृपाः । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ३७६ २ 43 ९ २० स्वसौभाग्यवशात् सर्वान् साऽप्यालोक्यातुषतराम् । श्लाध्यं तद्योषितां पुंसां शौर्य वा निर्जितद्विषाम् ॥ ततः कञ्चुकिनिर्देशाद् बाला लीलाविलोकितैः । आकृष्य हृदयं तेषां तत्सौधात् समवातरत् ॥२८५॥ यस्य यन्न गता स्याद्द्दक् सा तत्रैवेव कीलिता । तत्तेऽस्यामवरूढायां खिन्ना वा तदनीक्षकाः ॥ २८६॥ किङ्किणीकृतझव्कारारावरम्यं रथं ततः । व्यूढं रूढँ र्हयैः स्वर्णकर्णचामरशोभिभिः ॥ २८७ ॥ उत्पतन्निपतत्केतुबाहुं नीरूपरूपिणाम् । साक्षादपह्नवाह्नाने' कुर्वन्तमिव सन्ततम् ॥ २८८ ॥ पुनरध्यास्य" हज्जन्मविद्येव हृदयप्रिया । मुक्ता भूषाप्रभामध्ये शारदीव तडिल्लता ॥ २८६ ॥ वीज्यमाना विधुस्पर्द्धिहंसासामलचामरैः । जनानां दृष्टिदोषान् वा धुन्वद्भिरतो मुहुः ॥ २९०॥ अवधूतः पुरानङ्गः सम्प्रति स्वीकृतोऽनया । प्रयोजनवशात् प्राज्ञैः प्रास्तोऽपि " परिगृह्यते ॥२९१॥ अस्याग्रह इव।नङ्गः सद्यः सर्वाङ्गसङ्गतः । विकारमकरोत् स्वैरं भूयो नेववन्त्रजम् ॥ २९२॥ साङ्गो यद्येतयाऽयैवमेकीभावं व्रजामि किम् । इत्यनङ्गोऽप्यनङ्गत्वं स्वं मन्ये साध्वबुध्यत ॥ २९३॥ लक्ष्मीः सा सर्वभोग्याऽभूद् रतिर्व्यङ्गेन" भुज्यते । जितानङ्गानिभानेषा न्यक्कृत्य' 'जयमाप्स्यति । २९४ । होनेपर किसे आनन्द नहीं होता है ? ।। २८३ ।। वह सुलोचना भी अपने सौभाग्यवश हुए समस्त राजाओंको देखकर अत्यन्त संतुष्ट हुई थी सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार शत्रुओंको जीतनेवाले पुरुषोंका शूरवीरपना प्रशंसनीय होता है उसी प्रकार स्त्रियोंका सौभाग्य भी प्रशंसनीय होता है || २८४ ।। तदनन्तर वह सुलोचना लीलापूर्वक अवलोकनके द्वारा उन राजाओं का हृदय अपनी ओर आकर्षित कर कंचुकीके कहनेसे उस महलसे नीचे उतरी ॥ २८५ ॥ जिसकी दृष्टि उसके शरीरपर जहाँ पड़ गयी थी वह मानो वहीं कीलित सी हो गयी थी तथा उसके नीचे उतर आनेपर वे राजा लोग उसे न देखकर बहुत ही खेदखिन्न हुए थे || २८६ ॥ तदनन्तर, जो कामदेवकी विद्या के समान सबके हृदयको प्रिय है, जो मोतियोंके आभूषणोंकी कान्तिके बीच में शरदऋतुकी बिजलीकी लताके समान जान पड़ती है और जिसपर मानो मनुष्योंकी दृष्टिके दोषोंको दूरसे ही दूर करते हुए, तथा चन्द्रमा के साथ स्पर्धा करनेवाले और हंसों के पंखोंके समान निर्मल चमर बार-बार दुराये जा रहे हैं ऐसी वह सुलोचना, जो छोटी-छोटी घंटियोंके रुणझुण शब्दोंसे रमणीय है, कानोंके समीप लगे हुए सोनेके चमरोंसे शोभायमान बड़ेऊँचे घोड़े जिसमें जुते हुए हैं, नीचे-ऊपरको उड़ती हुई ध्वजाएँ ही जिसकी भुजाएँ हैं और जो उन उड़ती हुई ध्वजाओंसे ऐसा जान पड़ता है मानो कुरूप मनुष्यका साक्षात् निरन्तर निराकरण ही कर रहा हो और सुरूप ( सुन्दर ) मनुष्योंको साक्षात् बुला रहा ही हो' ऐसे रथपर सवार हुई ।। २८७-२९० || सुलोचनाने कामदेवका पहले तो तिरस्कार किया था परन्तु अब उसे स्वीकृत किया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष हटाये हुएको भी अपने प्रयोजनके वश फिर स्वीकार कर लेते हैं ।। २९१ ।। पिशाचके समान शीघ्र ही इसके सब अंगोंमें प्रविष्ट हुआ कामदेव अपनी इच्छानुसार बार-बार भौंह नेत्र और मुखमें उत्पन्न होनेवाले विकारोंको प्रकट कर रहा था || २९२ ।। यदि मैं शरीरसहित होता तो क्या इस तरह इस सुलोचनोंके साथ एकीभावको प्राप्त हो सकता ? अर्थात् इसके शरीरमें प्रवेश कर पाता ? ऐसा विचार करता हुआ कामदेव मानो अपने शरीररहितपनेको हो अच्छा समझता था ॥ २९३ ।। वह १ अवलोकनैः । २ अवतरति स्म । ३ यस्मिन्नवयवे । ४ ते तस्या-ल० । तत् कारणात् । ५ अवतरणं कुर्वन्त्यां सत्याम् । ६ तां कन्यकामीक्षमाणाः न बभूवुरित्यर्थः । ७ धृतम् । ८ प्रसिद्धः । ९ रूपहीनानां रूपवतां च । १० क्रमेण निराकरणं चाह्वानं च । ११ एवंविधं रथमध्यास्येति सम्बन्धः । १२ कामविद्या । १३ मरालपक्ष । १४ निराकृतः । १५ प्रतिक्षिप्तः । १६ सशरीरः । १७ शिष्टमिति । १८ अनङ्गेन विकलाङ्गेनेति ध्वनिः । १९ निराकृत्य । २० विजयं जयकुमारं च । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० आदिपुराणम करग्रहण लक्ष्मीवान् स्यान्न वा वारिधेर्भुवः । अस्याः करग्रहो यस्य तस्य लक्ष्मीः करे स्थिता ॥२९५॥ लावण्यमम्बुधौ पुंसु स्त्रीवस्यामेव संभृतम् । यत्प्राप्ताः सरितः सर्वास्तमेतां सर्वपार्थिवाः ॥२९६॥ समस्तनेत्रसंपीतमप्यस्या वर्धतेतराम् । लावण्यमम्बुधिस्त्यक्तः श्रिया वहतु तत्कथम् ॥२९॥ रत्नाकरत्वदुर्गर्वमम्बुधिः श्रयते वृथा। कन्यारत्नमिदं यत्र तयोरेतद विराजते ॥२९८॥ प्रसिद्ध लक्ष्मी सबके द्वारा उपभोग करने योग्य है और रति शरीररहित कामदेवके द्वारा भोगी जाती है परन्तु यह सुलोचना कामदेवको जीतनेवाले इन सभी राजाओंका तिरस्कार कर जय अर्थात् विजय अथवा जयकुमारको प्राप्त होगी। भावार्थ – संसारमें दो ही प्रसिद्ध स्त्रियाँ हैं एक लक्ष्मी और दूसरी रति । इनमें-से लक्ष्मी तो सर्वपुरुषोंके द्वारा उपभोग योग्य होनेके कारण पश्चलीके समान निन्द्य है और रति शरीररहित पिशाच ( पक्षमें कामदेव ) के द्वारा उपभोग योग्य होनेसे दूषित है परन्तु यह सुलोचना अपनी शोभासे कामदेवको जीतनेवाले इन सभी राजाओंका तिरस्कार कर जय-जीत ( पक्षमें जयकुमार ) को प्राप्त होगी अर्थात यह सुलोचना लक्ष्मी और रतिसे भी श्रेष्ठ है ॥ २९४ ॥ समद्रपर्यन्त इस पथिवीका करग्रह अर्थात् टैक्स वसूल करनेसे कोई पुरुष लक्ष्मीवान् हो अथवा नहीं भी हो परन्तु जिसके इस सुलोचनाका करग्रह अर्थात् पाणिग्रहण होगा लक्ष्मी उसके हाथमें ही स्थित समझनी चाहिए ॥ २९५ ॥ पुरुषोंमें लावण्य ( खारापन ) समुद्र में है और स्त्रियोंमें लावण्य ( सौन्दर्य ) इसी सुलोचनामें भरा हुआ है यही कारण है कि सब नदियाँ समुद्रके पास पहुँची हैं और सब राजा लोग इसके समीप आ पहुंचे हैं । भावार्थ-लावण्य शब्दके दो अर्थ हैं - एक खारापन और दूसरा सौन्दर्य । यहाँ कविने दोनोंमें शाब्दिक अभेद मानकर निरूपण किया है । श्लोकका भाव यह है - लावण्य पुरुषोंमें भी होता है और स्त्रियों में भी परन्तु उसके स्थान दोनोंमें नियत हैं। पुरुषका लावण्य समुद्रमें नियत है और स्त्रीका लावण्य सुलोचनामें । पुरुषके लावण्यके प्रति स्त्रियोंका आकर्षण रहता है और स्त्रियोंके लावण्यके प्रति पुरुषका आकर्षण रहता है । यही कारण है कि नदीरूपी स्त्रियाँ आकर्षित होकर समुद्रके पास पहुंची हैं और सब राजा लोग ( पुरुष ) सुलोचनाके प्रति आकर्षित होकर उसके समीप आ पहुँचे हैं ॥ २६६ ॥ इसका लावण्य सबके नेत्रोंके द्वारा पिया जानेपर भी बढ़ता ही जाता है परन्तु समुद्रको तो लक्ष्मीने छोड़ दिया है इसलिए वह उसे कैसे धारण कर सकता है ? भावार्थ - ऊपरके श्लोकमें लावण्यके दो स्थान बतलाये थे - एक समुद्र और दूसरा सुलोचना । परन्तु यहाँ लावण्य शब्दका केवल सौन्दर्य अर्थ हृदयमें रखकर कवि समुद्र में उसका अभाव बतला रहे हैं। यहाँ कवि लावण्य उस पदार्थको कह रहे हैं जिसकी निरन्तर वृद्धि ही होती रहे और जिसे देखकर दर्शक उसे कभी छोड़ना न चाहे । कविका मनोगत लावण्य सलोचनामें ही था क्योंकि उसे देखकर नेत्र कभी उसे छोड़ना नहीं चाहते थे और निरन्तर उसकी वृद्धि होती रहती थी। समुद्र में लावण्यका होना कविको इष्ट नहीं है क्योंकि उसे लक्ष्मीने छोड़ दिया है यदि उसमें वास्तवमें लावण्य होता तो उसे लक्ष्मी क्यों छोड़ती? ( लक्ष्मी-द्वारा समुद्र का छोड़ा जाना कविसम्प्रदायमें प्रसिद्ध है । ) ॥२९७॥ समुद्र अपने रत्नाकरपनेका खोटा अहंकार व्यर्थ ही धारण करता है क्योंकि जिनके यह कन्यारूपी रत्न है उन्हीं राजा अकम्पन और रानी सुप्रभाके यह रत्नाकरपना सुशोभित होता है ॥२९८॥ १ लक्ष्म्याः । २ सुलोचनायाः । ३ पुरुषेषु । ४ परिपूर्णम् । ५ यत् कारणात् । ६ तं समुद्रम् । एताम् सुलोचनाम् । ७ लावण्यम् । ८ ययोः । ९ अकम्पनसुप्रभयोः । १० रत्नाकरत्वम् । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व ३८१ इति स्तुतात्मसौभाग्यभाग्यरूपादिसंभृता । जनैः स्वयंवरागारमागमद् गोमिनीव सा ॥२९९॥ परिभूतिर्द्विधा सा भाविनी केति वा तदा । प्रीतिशोकान्तरे केचिद् रसं राजकमन्वभूत् ॥३०॥ स्थित्वा महेन्द्र दत्तोऽपि रत्नमालाधरो धुरि । रथं प्रचोदयामास प्रतिविद्याधराधिपान् ॥३०१॥ दक्षिणोत्तरयोः श्रेण्योर्नमेश्च विनमः सुतौ । पतिः सुमतिरेषोऽयमितः सुविनमिः श्रियः ॥३०२॥ अन्येऽमी च खगाधीशा विद्याविक्रमशालिनः । पतिं वृणीष्व त्वं चैषु स्वेच्छामेकन पूरय ॥३०३॥ इति कञ्चुकिनिर्दिष्टं नामादाय पृथक पृथक् । कर्णेकृत्यात्ययात् सर्वान् रुचिश्चित्रा हि देहिनाम् ॥३०४॥ पश्चात् सर्वानिरीक्ष्यैषा कञ्चित्त विवरीषते । तथैवेति खगास्तस्थुः किं वाशानावलम्बते ॥३०॥ पश्चाज 'ग्लुर्मुखाब्जानि तद्रथाद् व्यकसन्पुरः । वेरिवोदये राज्ञां संसृतेः स्थितिरीदृशी ॥३०६॥ उच्चाद्वाऽदुवनिम्नममिभूमि'चरं रथः । कञ्चकी कथयामास नामभिस्तान्नुपस्तिदा ॥३०७॥ निराकृत्यार्ककादीन् साजेया जयमागमत् । हित्वा शेषान् द्वमांश्चतं मधौ मधुकरी यथा ॥३०॥ गृहीतप्रग्रहस्तन कञ्जुकीचित्तवित्तदा । वचो व्यापारयामास जयव्यावर्णनं प्रति ॥३०९ ॥ इस प्रकार लोग जिसकी स्तुति कर रहे हैं ऐसे अपने सौभाग्य, भाग्य और रूप आदिसे भरो हुई वह सुलोचना लक्ष्मीके समान स्वयंवर भवनमें आ पहुँची ॥२६६॥ इस संसारमें पराभूति दो प्रकारकी है-एक पराभूति अर्थात् उत्कृष्ट सम्पद् और दूसरी पराभूति अर्थात् पराभवतिरस्कार, सो इन' दोनोंमें न जाने कौन सी पराभूति अथवा परा-भूति होनेवाली है ऐसा विचार करता हुआ राजाओंका समूह उस समय प्रेम और शोकके बीच किसी अव्यक्त रसका अनुभव कर रहा था ॥३०॥ रत्नोंकी मालाको धारण करनेवाला महेन्द्रदत्त नामका कंचुकी भी धुरापर बैठकर विद्याधर राजाओंकी ओर रथ चलाने लगा ।।३०१॥ और सुलोचनासे कहने लगा कि ये विजयार्धकी दक्षिण तथा उत्तर श्रेणीके राजा नमि और विनमिके पुत्र हैं। यह लक्ष्मीका स्वामी सुनमि हैं और यह इस ओर सुविनमि हैं ॥३०२॥ विद्या और पराक्रमसे शोभायमान ये और भी अनेक विद्याधरोंके अधिपति विराजमान हैं इनमें से त किसी एकको वर अर्थात पतिरूपसे स्वीकार कर और एक ही में अपनी इच्छा पूर्ण कर ॥३०३।। इस प्रकार कंचुकीने अलग-अलग नाम लेकर कुछ कहा था उसे कानमें डालकर-सुनकर वह सबको छोड़ती हुई आगे चली सो ठीक ही है क्योंकि प्राणियोंकी रुचि अनेक प्रकारकी होती है।३०४।। यह कन्या सबको देखकर बादमें किसीको वरना चाहती है यह विचारकर विद्याधर लोग ज्योंके त्यों बैठे रहें सो ठीक ही है क्योंकि आशा किसका आश्रय नहीं लेती है ? ॥३०५॥ जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेसे कमल विकसित हो जाते हैं और अस्त होनेसे मुरझा जाते हैं उसी प्रकार राजाओंके मुखरूपी कमल सुलोचनाके रथ सामने आनेसे पहले तो प्रफुल्लित हुए किन्तु रथके चले जानेपर बादमें मरझा गये थे सो ठीक ही है क्योंकि संसारकी स्थिति ही ऐसी है ॥३०६॥ तदनन्तर वह रथ विद्याधरोंकी ऊँची भूमिसे नीचे भूमिगोचरियोंकी ओर उतरा, उस समय वह कंचुकी नाम ले लेकर राजाओंका निरूपण करता जाता था।॥३०७। जिस प्रकार वसन्तऋतमें कोयल सब वृक्षोंको छोड़कर आमके पास पहुँचती है उसी प्रकार वह अजेय सुलोचना अर्ककीर्ति आदि राजाओंको छोड़कर जयकुमारके पास जा पहुँची ॥३०८॥ उसी समय चित्तकी १ पुण्य । २ लक्ष्मीः । ३ अवज्ञा सम्पच्च । पराभूति-ल०, म०, अ०, प०, स०, इ० । ४ अवज्ञासम्पदोः । ५ भविष्यत् । ६ कञ्चुको । ७ रथमुखे । ८ निजवाञ्छाम् । ९ अतिक्रान्तवती । १० वरितुमिच्छति । ११ म्लानान्यभवन् । १२ उन्नतप्रदेशात्तु । १३ अगमत् । १४ भूचराणामभिमुखम् । १५ धताश्वरज्जुः । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ आदिपुराणम् प्रदीपः स्वकुलस्यायं प्रभुः सोमप्रभात्मजः । श्रीमानुत्साहभदा' जयोऽयमनुजैर्वृतः ॥३१०॥ न रूपमस्य व्यावयं तदेतदति म-मथम् । स दर्पणोऽर्पणीयः किं करकङ्कणदर्शने ॥३११॥ जित्वा मंघकुमाराख्यानुत्तरे भरते सुरान् । सिंहनादः कृतोऽनेन जिततन्मघनिस्स्वनः ॥३१२॥ वीरपटं प्रबध्यास्य स्वभुजाभ्यां समुद्धतम् । न्यधायि निधिनाथेन हृष्टा मेघस्वरामिधा ॥३१३॥ आत्मसम्यग्गुणैर्युतः समंतश्चाभिगामिकैः । प्रज्ञोत्साहविशेषैश्च ततोऽयमुदितोदितः ॥३१४॥ चित्रं जगत्त्रयस्यास्य गुणाः संरज्य सांप्रतम् । व्यावृताः" सर्वभावेन तव भावानुरञ्जने ॥३१५॥ अयमकोऽस्ति दोषोऽस्य चतस्रः सन्ति योषितः । श्रीः कीर्तिर्वीरलक्ष्मीश्च वाग्देवी चातिवल्लभाः ॥३१६॥ जितमंघकुमारोऽयमकः प्राक त्वजयेऽधुना । च्युतधैर्य इवालक्ष्य' 'यत्सहायीकृतः स्मरः ॥३१७॥ बलिनोर्युवयोर्मध्ये वर्तमानो जिगीषतोः । द्वैधीभावं" समापन्नः पाड्गुण्यनिपुणः स्मरः ॥३१८॥ कोतिः कुवलयालादी पद्माह्लादी प्रभाऽस्य हि । सूर्याचन्द्रमसौ तस्मादनेन हतशक्तिको ॥३१६॥ बातको जाननेवाला कंचुकी घोड़ोंकी रास पकड़कर जयकुमारका वर्णन करनेके लिए अपने वचनोंको व्याप्त करने लगा अर्थात् जयकुमारके गुणोंका वर्णन करने लगा ॥३०६।। उसने कहा कि यह श्रीमान् स्वामी जयकुमार है, यह अपने कुलका दीपक है, महाराज सोमप्रभका पुत्र है और उत्साहके भेदोंके समान अपने छोटे भाइयोंसे आवृत है-घिरा हुआ है ॥३१०॥ कामदेवको तिरस्कृत करनेवाला इसका यह रूप तो वर्णन करने योग्य ही नहीं है क्योंकि हाथका कंकण देखनेके लिए क्या दर्पण दिया जाता है ? ॥३११।। इसने उत्तर भरतक्षेत्रमें मेघकुमार नामके देवोंको जीतकर उन देवोंके कृत्रिम बादलोंकी गर्जनाको जीतनेवाला सिंहनाद किया था।।३१२।। उस समय निधियों के स्वामी महाराज भरतने हर्षित होकर अपनी भजाओं-द्वारा धारण किया जानेवाला वीरपट इसे बाँधा था और मेघस्वर इसका नाम रखा था ।।३१३।। यह आत्माके समीचीन गुणोंसे युक्त है तथा आदरणीय उत्तम पुरुषोंके साथ सदा संगति रखता है इसलिए बुद्धि और विशेष उत्साहोंके द्वारा यह श्रेष्ठोंमें भी श्रेष्ठ गिना जाता है ॥३१४॥ यह भी आश्चर्यकी बात है कि इसके गण तीनों लोकोंको प्रसन्न कर अब तेरे अन्त:करणको अनुरक्त करनेके लिए पूर्ण रूपसे लौटे हैं । भावार्थ-इसने अपने गुणोंसे तीनों लोकोंके जीवोंको प्रसन्न किया है और अब तुझे भी प्रसन्न करना चाहता है ॥३१५।। यदि इसमें दोष है तो यही एक. कि इसके निम्नलिखित चार स्त्रियाँ हैं. श्री.कीर्ति. वीरलक्ष्मी और सरस्वती। ये चारों ही स्त्रियाँ इसे अत्यन्त प्रिय हैं ।।३१६॥ जिसने पहले अकेले ही मेघकुमारको जीत लिया था ऐसा यह जयकुमार इस समय तुझे जीतनेके लिए धैर्यरहित-सा हो रहा है अर्थात् ऐसा जान पड़ता है मानो इसका धैर्य छूट रहा हो यही कारण है अब इसने कामदेवको अपना सहायक बनाया है ॥३१७।। एक दूसरेको जीतनेकी इच्छा करनेवाले तुम दोनों बलवानोंके बीच में पडा आ यह सन्धि विग्रह आदि छहों गणोंमें निपुण कामदेव द्वैधीभावको प्राप्त हो रहा है अर्थात् कभी उसका आश्रय लेता है और कभी तेरा ॥३१८॥ इसकी कीर्ति तो कुवलय अर्थात् रात्रिमें खिलनेवाले कमलोंको ( पक्षमें महीमण्डलको ) आनन्दित करती है और प्रभा पद्म अर्थात् दिन में खिलनेवाले कमलोंको ( पक्ष में पद्मा-लक्ष्मीको ) विकसित १ शक्तिविशेपैः । २ दृश्यमानम् । ३ अतिक्रान्तमन्मथम् । ४ प्रसिद्धः । ५ निजितमेघकुमारघनध्वनिः । ६ ऽयुध्वास्य ल०। ७ अभिगमाईः । आदरणीयरित्यर्थः । ८ ततः कारणात् । ९ आत्मन्यनुरक्तं विधाय । १० अधुना। ११ व्यापारमकुर्वन् । १२ सकलस्वरूपेण । १३ चित्तानुरजने । 'भावः सत्ता स्वभावाभिप्रायचेष्टात्मजन्मसु' इत्यभिधानात् । १४ दर्शनीयः । १५ यत् कारणात् । १६ परस्परं जेतुमिच्छतोः । १७ उभयावलम्बनत्वम् । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व १२ कीर्तिश्चिरा लक्ष्मीरतिवृद्धा सरस्वती । जीर्णेतरापि शान्तेव' लक्ष्यते क्षतविद्विषः ॥ ३२० ॥ ततस्त्वयि वयोरूपशीलादिगुणभाज्यलम् । प्रीतिर्लतेव हक पुष्पा प्रवृद्धास्य फलिप्यति ॥ ३२१ ॥ युवाभ्यां निर्जितः कामः संप्रत्यभ्यन्तरीकृतः । स वामपजयायाभूदरिर्विश्रम्भितोऽप्यरिः ॥ ३२२ ॥ निष्ठुरं जृम्भते मुष्मिन्नु भयारिरपि स्मरः । मध्वेव त्वां स्त्रियं भूयो मटेषु भटमत्सरः ॥ ३२३ ॥ विख्यातविजयः श्रीमान् यानमात्रेण निर्जितः । त्वयाऽयमत एवात्र जयो न्यायागतस्तव ॥ ३२४ ॥ प्राध्वं कृत्य गले रत्नमालया हक्शरैर्जितम् । जयलक्ष्मीस्तवैवास्तु तत्त्वमेनं करे कुरु ॥ ३२५ ॥ इति तस्य वचः श्रुत्वा स्मरषाड्गुण्यवेदिनः । शनैर्विगलितव्रीडा लोललीलावलोकनः ॥३२६॥ तदा जन्मान्तरस्नेहश्चाक्षुषी" सुन्दराकृतिः । कुन्दमासा" गुणास्तस्य श्रावणाः पुष्प सायकः ॥ ३२७॥ करती है इसलिए इसने सूर्य और चन्द्रमा दोनोंको शक्तिरहित कर दिया ||३१६ ॥ समस्त शत्रुओं को नष्ट करनेवाले इस जयकुमारकी कीर्ति तो सदा बाहर रहती है, लक्ष्मी अत्यन्त वृद्ध है, सरस्वती जीर्ण है और वीर लक्ष्मी शान्त-सी दिखती है इसलिए दृष्टिरूपी पुष्पोंसे युक्त और खूब बढ़ी हुई इसकी प्रीतिरूपी लता वय, रूप, शील आदि गुणोंसे सहित तुझमें ही अच्छी तरह फलीभूत होगी । भावार्थ - ३१६ वें श्लोक में बतलाया था कि इसके चार प्रिय स्त्रियाँ हैं कीर्ति, लक्ष्मी, सरस्वती और वीरलक्ष्मी परन्तु उनसे तुझे सपत्नीजन्य दुःखका अनुभव नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि कीर्ति नामकी स्त्री तो सदा बाहर ही घूमती रहती है-- अन्तःपुरमें उसका प्रवेश नहीं हो पाता ( पक्ष में उसकी कीर्ति समस्त संसारमें फैली हुई है ), लक्ष्मी अत्यन्त वृद्ध हैवृद्धावस्था युक्त पक्ष में बढ़ी हुई है ), सरस्वती भी जीर्ण अर्थात् वृद्धावस्था के कारण शिथिल शरीर हो रही है ( पक्ष में परिपक्व है ) इसलिए इन तीनोंपर उसका खास प्रेम नहीं रहता । अब रह जाती है वीरलक्ष्मी, यद्यपि वह तरुण है और सदा उसके पास रहती है परन्तु अत्यन्त शान्त है--शृंगार आदिकी ओर उसका आकर्षण नहीं है ( पक्षमें क्षमायुक्त शूरवीरता है ) इसलिए इन चारोंसे राजाकी प्रीति हटकर तुझपर ही आरूढ़ होगी क्योंकि तू वय, रूप, शील आदि गुणों सहित है ।। ३२० - ३२१|| तुम दोनोंने पहले जिस कामदेवको जीतकर दूर हटाया था उसे अब अपने अन्तःकरणमें बैठा लिया है, अथवा खास विश्वासपात्र बना लिया है परन्तु अब वही कामदेव तुम दोनोंका पराजय करनेके लिए तैयार हो रहा है सो ठीक ही है क्योंकि शत्रुका कितना ही विश्वास क्यों न किया जाय वह अन्तमें शत्रु ही रहता है || ३२२ ॥ यद्यपि यह कामदेव तुम दोनोंका शत्रु है तथापि तुझे स्त्री मानकर इसी एकपर बड़ी निष्ठुरताके साथ अपना प्रभाव बढ़ा रहा है सो ठीक ही है क्योंकि योद्धाओं की ईर्ष्या योद्धाओंपर ही होती है । भावार्थ-वह तुझे स्त्री समझ कायर मानकर अधिक दुःखी नहीं करता है परन्तु जयकुमार र अपना पूरा प्रभाव डाल रहा है || ३२३ || जिसका विजय सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्रीमान् जयकुमारको तूने यान अर्थात् आगमन ( पक्षमें युद्धके लिए किये हुए प्रस्थान ) मात्र के द्वारा जीत लिया है इसलिए इस जगह न्यायसे तेरी ही विजय हुई है || ३२४|| तू अपने दृष्टिरूपी बाणोंके द्वारा जीते हुए इस जयकुमारको रत्नोंकी मालासे गलेमें बाँधकर अपने हाथमें कर, विजय - लक्ष्मी तेरी ही हो ।। ३२५ ।। इस प्रकार कामदेवके सन्धि विग्रह आदि छह गुणोंको जाननेवाले कंचुकीके वचन सुनकर धीरे-धीरे जिसकी लज्जा छूटती जा रही है, जिसकी लीलापूर्ण दृष्टि बड़ी चंचल है तथा उस समय जन्मान्तरका स्नेह नेत्रोंके द्वारा देखी ३८३ १ वीरलक्ष्मीः । जयकुमारस्य । ३ वां युवयोः वामवजमाया - ल० । ४ विश्वासितः । ५ जये । ६ गमनमात्रेण । ७ बन्धहेतुकमानुकूल्यं कृत्वा, बद्ध्वेत्यर्थः । ८ तत् कारणात् । ९ लज्जा । १० चक्षुषा कृष्यमाणा । ११ कुन्दवद् भासमानाः । १२ श्रवणज्ञानविषयाः । श्रवणहिता वा । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ आदिपुराणम् इत्यभिः स्यन्दनादेषा समुक्षिप्यावरोपिता । रत्नमालां समादाय कन्या कञ्चकिनः करात् ॥३२८॥ अवन्नाद् बन्धुरां तस्य कण्ठेऽतिप्रेमनिर्भरा । सा वाचकात् समध्यास्य वक्षोलक्ष्मीरिवापरा ॥३२९॥ सहसा सर्वतूर्याणामुदतिष्टन्महाध्वनिः । श्रावयन्निव दिक्कन्याः कन्यासामान्यमुत्सवम् ॥३३०॥ वक्त्रवारिजवासिन्या नरविद्याधरेशिनाम् । श्रिया जयमुखाम्भोजमाश्रितं वा तदात्यभात् ॥३३१॥ गताशा वारयो म्लानमुखाब्जाक्ष्युत्पलश्रियः । खभूचरनृपाः कष्टमासन् शुष्कसरस्समाः ॥३३२॥ मालिनीच्छन्दः अभिमतफलसिद्ध्या वर्द्धमानप्रमोदो निजदुहि तृसमेतं प्राक पुरोधाय पूज्यम् । जयममरतरुं वा कल्पवल्लीसनाथं नगरमविशदुच्चै थवंशाधिनाथः ॥३३३॥ शादूलविक्रीडितम् । आद्योऽयं महिते स्वयंवरविधौ यद्भोग्यसौभाग्यभाग "यस्माद्राजखगेन्द्रवक्त्रवनजश्रीवारयोषितः । मालामानगुणा यतोऽस्य "शरणे मन्दारमालायते "तत्कल्पावधिवी ध्रमस्य विपुलं विश्वं यशो व्यश्नुते ॥३३॥ वसन्ततिलका भास्वत्प्रभाप्रसरणप्रतिबुद्धपमः"प्राप्तोदयः प्रतिविधाय° परप्रभावम् । बन्धुप्रजाकुमुदबन्धुरचिन्त्यकान्तिांति स्म भानुशशिनोविजयी जयोऽयम् ॥३३॥ हुई जयकुमारकी सुन्दर आकृति, कुन्दके फूलके समान सुने हुए उसके गुण और कामदेव इन सबने उठाकर जिसे रथसे नीचे उतारा है ऐसी कन्या सुलोचनाने कंचुकीके हाथसे रत्नमाला लेकर तथा अतिशय प्रेममें निमग्न होकर, वह मनोहरमाला उस जयकुमारके गले में डाल दी। उस समय वह माला जपकुमारके वक्षःस्थलपर अधिरूढ़ हो दूसरी लक्ष्मीके समान सुशोभित हो रही थी ।।३२६-३२९।। उस समय अकस्मात् सब बाजोंकी बड़ी भारी आवाज ऐसी उठी थी मानो दिशारूपी कन्याओंके लिए सुलोचनाका असाधारण उत्सव ही सूना रही हो ॥३३०॥ उस समय जयकुमारका मुखरूपी कमल बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था और ऐसा जान पड़ता था मानो भूमिगोचरी तथा विद्याधर राजाओंके मुखरूपी कमलोंपर निवास करनेवाली लक्ष्मी उसी एकके मुखपर आ गयी हो ॥३३१॥ जिनका आशारूपी जल नष्ट हो गया है और जिनके मुखरूपी कमल तथा नेत्ररूपी उत्पलोंकी शोभा म्लान हो गयी है ऐसे भूमिगोचरी और विद्याधर राजा सूखे सरोवरके समान बड़े ही दुःखी हो रहे थे ॥३३२॥ अभीष्ट फलकी सिद्धि होनेसे जिसका आनन्द बढ़ रहा है ऐसा उत्कृष्ट नाथवंशका अधिपति राजा अकम्पन, कल्पलतासे सहित कल्पवृक्षके समान पुत्रीसे युक्त पूज्य जयकुमारको आगे कर अपने उत्कृष्ट नगरमें प्रविष्ट हुआ ॥३३३।। चूंकि भाग्य और सौभाग्यको प्राप्त होनेवाला यह जयकुमार स्वयंवरकी सम्माननीय विधिमें सबसे पहला था. भमिगोचरी और विद्याधर राजाओंके मुखकमलोंकी शोभारूपी वीरांगनाओंसे घिरा हुआ था और अम्लानगुणोंवाली माला उसकी शरणमें आकर कल्पवृक्षोंकी मालाके समान आचरण करने लगी थी, अतएव उसका बहुत बड़ा निर्मल यश कल्पान्तकाल तक समस्त संसारमें व्याप्त रहेगा ॥३३४॥ जिसकी देदीप्यमान प्रभाके प्रसारसे कमल खिल उठते थे, दूसरों ( शत्रुओं अथवा नक्षत्र आदिकों ) के प्रभावका तिरस्कार कर जिसका उदय हुआ था और जो भाईबन्धु तथा प्रजारूपी कुमुदोंको १ समुद्धत्य । २ मुखकमलनिवासिन्या । ३ गतास्यवारणः ट० । विगतमुखरसाः । ४ पुत्री। ५ अग्रे कृत्वा । ६ इव । ७ सहितम् । ८ आद्येऽयं इ०, प्र०, अ०, स०। ९ यत् कारणात् । भाग्य पुण्य । १० यस्मात् कारणात । ११ यस्मात् कारणात् । १२ जयस्य । १३ परित्राणे, गृहे। १४ तस्मात् कारणात् । १५ कल्पपर्यन्तम् । १६ निर्मलम् । १७ जगत् । १८ व्याप्नोति। १९ प्रबुद्धलक्ष्मीः । विकसितकमलः । २० निराकृत्य। २१ शत्रुसामर्थ्यम् । नक्षत्रादिसमृद्ध्यर्थं च । २२ बन्धवश्च प्रजाश्च बन्धुप्रजाः, बन्धुप्रजा एव कुमुदानि तेषां बन्धुश्चन्द्रः । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व ३८५ मालिनी प्रियदुहितरमेनां नाथवंशाम्बरेन्दोरमुमु पनयति स्म स्पष्टसौभाग्यलक्ष्मीः । ज्वलितमहसमन्यां वीरलक्ष्मों च कीर्ति कथयति नयतीति प्रातिभज्ञानमुच्चैः ॥३३६॥ शार्दूलविक्रीडितम् एतत्पुण्यमयं सुरूपमहिमा सौभाग्यलक्ष्मीरियं जातोऽस्मिन् जनकः स योऽस्य जनिका सैवास्य या सुप्रजा ॥ पूज्योऽयं जगदेकमङ्गलमणिश्चडामणिः श्रीभृतामित्युक्तिर्जयमागजयं प्रति जनैर्जातोत्सवैर्जल्पिता ॥३३७॥ मालिनी कुवलयपरिबोधं संदधानः समन्तात् संततविततदीप्तिः सुप्रतिष्टः प्रसन्नः । परिणतिनिजशौर्येणार्कमाक्रम्य दिक्षु प्रथितपृथुलकीर्त्या वर्द्धमानो जयः स्तात् ॥३३८॥ इति समुपगता श्रीः सर्वकल्याणभाजं जिनपतिमतमाक्त्वात्पुण्यमाज जयं तम् । तदुरुकृतमुपाध्वं हे बुधाः श्रद्दधानाः परमजिनपदाजद्वन्द्वमद्वन्द्ववृत्त्या ॥ ३३१ ॥ इत्यार्षे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रह स्वयंवरमालारोपण कल्याणकं नाम त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ॥४३॥ प्रफुल्लित करनेके लिए बन्धुके समान था और जिसकी कान्ति अचिन्त्य थी ऐसा सूर्य और चन्द्रमाको जीतनेवाला वह जयकुमार अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥३३५।। जिसकी सौभाग्यरूपी लक्ष्मी स्पष्ट प्रकट हो रही है ऐसे उस जयकुमारने नाथवंशरूपी आकाशके चन्द्रमा स्वरूप राजा अकम्पनकी प्रिय पुत्री सुलोचनाको विवाहा था सो ठीक ही है क्योंकि प्रतिभाशाली मनुष्योंका उत्कृष्ट ज्ञान यही कहता है कि देदीप्यमान प्रतापके धारक पुरुषको ही अनोखी वोरलक्ष्मी और कीर्ति प्राप्त होती है ॥३३६॥ उस समय जिन्हें आनन्द प्राप्त हो रहा है ऐसे लोगोंके द्वारा, जयकुमारके प्रति उसकी विजयको सूचित करनेवाली निम्नप्रकार बातचीत हो रही थी कि इस संसारमें यही पुण्य है, यही उत्तम रूपकी महिमा है, यही सौभाग्यकी लक्ष्मी है, जिसके यह उत्पन्न हुआ है वही पिता है, जिसने इसे उत्पन्न किया है वही उत्तम सन्तानवती माता है. यही लक्ष्मीवान् पूरुषोंमें चूड़ामणि स्वरूप है और संसारका कल्याण करनेवाले रत्नके समान यही एक पूज्य हैं ॥३३७॥ जो चारों ओरसे कुवलय अर्थात् पृथ्वीमण्डल ( पक्षमें रात्रि विकासी कमलों ) को प्रसन्न अथवा प्रफुल्लित करता रहता है, जिसकी कान्ति सदा फैली रहती है, जिसकी प्रतिष्ठा उत्तम है और जो सदा प्रसन्न रहता है ऐसा यह ( चन्द्रमाका सादृश्य धारण करनेवाला ) जयकुमार अपने परिपक्व प्रतापसे सूर्यपर भी आक्रमण कर दिशाओं में फैली हुई बड़ी भारी कीर्तिसे सदा बढ़ता रहे ॥३३८॥ इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के मतकी उपासना करनेसे बहुत भारी पुण्यका उपार्जन करनेवाले और सब प्रकारके कल्याणोंको प्राप्त होनेवाले जयकुमारको लक्ष्मी प्राप्त हुई थी इसलिए हे श्रद्धावन्त विद्वान् पुरुषो, तुम लोग भी निराकुल होकर परम दयालु सर्वोत्कृष्ट जिनेन्द्रदेवके दोनों चरणकमलोंकी उपासना करो ॥३३॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके . हिन्दी भाषानुवादमें सुलोचनाके स्वयंवरका वर्णन करनेवाला यह तैतालीसवाँ पर्व पूर्ण हुआ। १ पुत्रीम्। २ अयमुप-त०, इ०, अ०, ५०, स०१ ३ जयकुमारम् । ४ प्रतिभव प्रातिभं तच्च तद्ज्ञानं च । प्रतिपुरुषसमुद्भूतप्रतिभाज्ञानमित्यर्थः । ५ लोके । ६-माता। ७ सुपुत्रवतो। ८ मङ्गलदर्पणः । ९ सुस्थैर्यवान् । १० भूयात् । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व अथ दुर्मर्षणो नाम दुष्टस्तस्या' सहिष्णुकः । सर्वानुद्दीपयन् पापी सोऽर्ककीर्त्त्यनुजीवकः ॥ १॥ अकम्पनः खलः क्षुद्रो वृथैश्वर्यमदोद्धतः । मृषा युष्मान् समाहूय श्लाघमानः स्वसंपदम् ॥२॥ पूर्वमंत्र समालोच्य मालामासञ्जयजये । पराभूतिं विधित्सुर्वः स्थायिनीमायुगान्तरम् ॥३॥ इति ब्रुवाणः संप्राप्य सव्रीडं चक्रिणः सुतम् । इह षट्खण्डतानां स्वामिनौ त्वं पिता च ते ॥४॥ र ने कन्यैव तत्राप्येषैव कन्यका । 'तत्त्वां स्वगृहमानीय दौष्टर्य पश्यास्य दुर्मतेः ॥ ५ ॥ जयो नामात्र कस्तस्मै दत्तवान् मृत्युचोदितः । तेनागतोऽस्मि दौर्वृत्यं तदेतत् सोढुमक्षमः ॥६॥ 'प्राकृतोऽपि न सोढव्यः प्राकृतैरपि किं पुनः । स्वादृशैः स्त्रीसमुद्भूतो मानभङ्गो मनस्विभिः ॥७॥ १० ११५२ 'तदादिश' 'दिशाम्यस्मैपदं वैवस्वतास्पदम् । दिशाम्यादेशमात्रेण समालां तेऽपि कन्यकाम् ॥ ८ ॥ इत्यसाध्वीं'' क्रुधं मर्त्तुः स्ववाचैवासृजत् खलः । सदसत्कार्यनिर्वृत्तौ ' शक्तिः सदसतोः समा ॥१॥ तद्वचःपवन प्रौढक्रोधधूमध्वजारुणः " । भ्रमद्विलोचनाङ्गारः क्रुद्धाग्निसुरसन्निभः ॥ १०॥ अथानन्तर- दुर्मर्षण नामका एक दुष्ट पुरुष राजकुमार अर्ककीर्तिका सेवक था । वह जयकुमारके उस वैभवको नहीं सहन कर सका इसलिए उस पापीने सब राजाओं को इस प्रकार उत्तेजित किया । वह कहने लगा कि अकम्पन दुष्ट है, नीच है, झूठमूठके ऐश्वर्य के मदसे उद्धत हो रहा है, अपनी सम्पदाओंकी प्रशंसा करते हुए उसने व्यर्थ ही आप लोगों को बुलाया है । वह तुम लोगोंका दूसरे युग तक स्थिर रहनेवाला अपमान करना चाहता है इसलिए उसने पहलेसे सोच-विचारकर जयकुमारके गलेमें माला डलवायी है, इस प्रकार कहता हुआ वह दुर्मर्षण लज्जित हुए चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्ति के पास आया और कहने लगा कि इन छहों खण्डों में उत्पन्न हुए रत्नों के दो ही स्वामी हैं एक तू और दूसरा तेरा पिता ॥ १-४ ॥ रत्नोंमें कन्या ही रत्न है और कन्याओं में भी यह सुलोचना ही उत्तम रत्न है इसलिए ही अकम्पनने तुझे अपने घर बुलाकर तेरा तिरस्कार किया है, जरा इस दुष्टकी दुष्टताको तो देखो || ५ ॥ भला, जयकुमार है कौन ? जिसके लिए मृत्युसे प्रेरित हुए अकम्पनने अपनी पुत्री दी है । यह दुराचार सहन करने के लिए असमर्थ हूँ इसलिए ही आपके पास आया हूँ || ६ || जब कि नीच लोग भी छोटे-छोटे मानभंगको नहीं सहन कर पाते हैं तब भला आप जैसे तेजस्वी पुरुष स्त्रीसे उत्पन्न हुआ मानभंग कैसे सहन कर सकेंगे ? ॥ || इसलिए मुझे आज्ञा दीजिए मैं आपकी आज्ञामात्र से ही इस अकम्पनको यमराजका स्थान दे सकता हूँ और माला सहित वह कन्या आपके लिए दे सकता हूँ ||८|| इस प्रकार उस दुष्टने अपने वचनोंसे ही अपने स्वामीको दुष्ट क्रोध उत्पन्न करा दिया सो ठीक ही है क्योंकि अच्छा और बुरा कार्य करनेके लिए सज्जन तथा दुर्जनों - एक-सी शक्ति रहती है ॥ ९ ॥ उस दुर्मर्षणके वचनरूपी वायुसे बढ़ी हुई क्रोधरूपी अग्नि १ तमसहमान: । २ कोपाग्नि प्रज्वलयन् । ३ परिभूतिम् । ४ कन्यारत्नेष्वपि । ५ तां त्वां त०, ब० । ६ दुष्टत्वम् । ७ तेन कारणेन । ८ प्रकृते भवः पराभवोऽपि । अथवा तुच्छकार्यमपि । ९ नीचैरपि । नष्टान्वयप्रभवरित्यर्थः । १० तत् कारणात् । ११ आदेशं देहि । १२ ददामि । १३ यमपुरम् । 'कालो दण्डधरः श्राद्धदेवो वैवस्वतोऽन्तकः' इत्यभिधानात् । १४ निरूपणमात्रेण । १५ अशुभाम् । १६ निष्पत्तौ । १७ सज्जनदुर्जनयोः । १८ प्रबुद्ध । 'प्रवृद्धप्रौढमेधितमित्यभिधानात् । १९ अग्निः । २० कुपिताग्निकुमारसदृशः । क्रुधा - ल०, म० । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व 10 93 १८ २५ उज्जगार' ज्वलत्स्थूलविस्फुलिङ्गोपमा गिरः । अर्ककीर्तिर्द्विषोऽशेषान् दिधक्षुरिव वाचया ॥ ११॥ मामधिक्षिप्य कन्येयं येन दत्ता दुरात्मना । तेन प्रागेव मूढेन दत्तः स्वस्मै जलाञ्जलिः ॥१२॥ अतिक्रान्ते रथे "तस्मिन् प्रोत्थितः क्रोधपावकः । तदैव किन्नु को दाह्य इत्यजानन्नहं स्थितः ॥ १३ ॥ "नाम्नातिसन्धितो मूढो मन्यते स्वमकम्पनम् । 'क्रुद्धे मयि न वेतीति कम्पते सधरा धरा ॥५४॥ "म खड्गवारिवा राशि रास्तां तावदगोचरः । संहरन्त्यखिलान् शत्रून् बलवेलैव " हेलया ॥१५॥ प्ररूढशुष्कनाथेन्दुदुर्वंश विपुलाटवी । मत्क्रोधप्रस्फुरद्वह्निमस्मिताऽस्मिन्न रोक्ष्यति ॥ १६ ॥ वीरस्तदा सोढो भुवो भर्तुर्भयान्मया । कथमद्य सहे मालां सर्वसौभाग्यलोपिनीम् ॥१७॥ 'मद्यशः कुसुमाम्लानमाले वास्त्वायुगावधि । जयलक्ष्म्या सहायैतां" हरेयं जयवक्षसः ॥ ३८ ॥ जलदानू पेलवान् जित्वा मरुन्मात्रविलायिनः । अद्य पश्यामि दृप्तस्य जयस्य जयमाहवे ॥ १९ ॥ इति निर्मिन्नमर्यादः कार्याकार्यविमूढधीः । अनिवार्यो विनिर्जित्य कालान्तजलधिध्वनिम् ॥२०॥ अनलस्यानिलो वाऽस्य साहाय्यमगमंस्तदा । केऽपि पापक्रियारम्भे सुलभाः सामवायिकाः जो लाल-लाल हो रहा है, जिसके नेत्ररूपी अंगारे घूम रहे हैं, और क्रोधसे जो अग्निकुमार देवोंके समान जान पड़ता है ऐसा वह अर्ककीर्ति अपने वचनोंसे ही समस्त शत्रुओंको जलानेकी इच्छा करता हुआ ही मानो जलते हुए बड़े-बड़े फुलिंगोंके समान वचन उगलने लगा ।। १०-११॥ वह बोला जिस दुष्टने मेरा अपमान कर यह कन्या दी है उस मूर्खने अपने लिए पहले ही जलांदे रखी है ||१२|| उस समय कन्याका रथ आगे निकलते ही मेरी क्रोधरूपी अग्नि भड़क उठी थी परन्तु जलने योग्य कौन है ? यह नहीं जानता हुआ मैं चुप बैठा रहा था || १३ ॥ केवल नामसे ठगाया हुआ वह मूर्ख अपने आपको अकम्पन मानता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि मेरे कुपित होनेपर पर्वतों सहित पृथिवी भी कँपने लगती है || १४ || मेरी तलदाररूपी जलकी धाराका विषय तो दूर ही रहे मेरी सेनारूपी लहर हो समस्त शत्रुओंको ॥२१॥ अनायास ही कर देती है ||१५|| बहुत बढ़े और सूखे हुए नाथवंश तथा चन्द्रवंशरूपी दुष्ट बाँसोंकी बड़ी भारी अटवी मेरे क्रोधरूपी प्रज्वलित अग्निसे भस्म हो जायगी और फिर इस संसार में कभी नहीं उग सकेगी ॥ १६ ॥ उस समय पृथिवीके अधिपति चक्रवर्ती महाराजने जयकुमारको जो वीरपट्ट बाँधा था उसे तो मैंने उनके डरसे सह लिया था परन्तु आज अपने सब सौभाग्यको नष्ट करनेवाली इस चरमालाको कैसे सह सकता हूँ ? ||१७|| मेरे यशरूपी फूलोंकी अम्लान माला ही इस युगके अन्त तक विद्यमान रहे। इस मालाको तो मैं जयलक्ष्मीके साथ-साथ जयकुमारके वक्षःस्थलसे आज ही हरण किये लेता हूँ || १८ || केवल वायुमात्रसे विलीन हो जानेवाले कोमल मेघोंको जीतकर अहंकारको प्राप्त हुए जयकुमारकी जीत आज मैं युद्धमें देखूँगा ॥ १६ ॥ इस प्रकार जिसने मर्यादा तोड़ दी है, कार्य अकार्यके करनेमें जिसकी बुद्धि विचाररहित हो रही है और जो किसीसे निवारण नहीं किया जा सकता ऐसे अर्ककीर्तिने उस समय अपने शब्दोंसे प्रलयकालके समुद्रकी गर्जनाको भी जीत लिया था और जिस प्रकार अग्निat भड़काने के लिए वायु सहायक होता है उसी प्रकार उसका क्रोध भड़कानेके लिए कितने १ उवाच । २ दग्धुमिच्छुः । ३ तिरस्कृत्य । ४ मामुल्लङ्घ्य गते । ५ कन्यारूढस्यन्दने । ६ अकम्पन इति नाम्ना । ७ वञ्चितः । ८ क्रुधे ल० । ९ पर्वतसहिता भूमिः । 'महीने शिखरिक्ष्माभृदहार्यधरपर्वताः' इत्यभिधानात् । १० अस्मदायुधधाराजल । ११ वारिधारासि प०, ल० । १२ सेनाबेला । १३ प्रवृद्ध निस्सारदुष्टनाथवंशसोमवंशविशालविपिन इत्यर्थः । १४ अस्मिन् लोके । १५ न जनिष्यते । १६ चक्रिणः । १७ सहामि । १८ अस्मत्कीर्तिः | १९ मालाम् । २० स्वीकुर्याम् । २१ मृदून् । २२ विनाशिनः । २३ इति उज्जगारेति सम्बन्धः । २४ सहायता । २५ समवायं सहायतां प्राप्ताः । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् तदा सर्वोपाशुद्ध' मन्त्री जानपदादिभिः । अनवद्यमतिर्नाम लक्षितो मन्त्रिलक्षणैः ॥ २२ ॥ म यशस्सारं ससौष्ठवमनिष्ठुरम् । सुविचार्य वचो न्याय्यं पथ्यं प्रोक्तुं प्रचक्रमं ॥ २३॥ नही व्योम शशी सूर्यः सरिदीशोऽनिलोऽनलः । त्वं त्वत्पिता घनाः कालो जगक्षेमविधायिनः ॥ २४॥ विपर्यासे विपर्येति भवतामनुवर्तनात् । वर्तते सृष्टिरेषा हि व्यक्तं युष्मासु तिष्ठते ॥ २५॥ गुणाः क्षमादयः सर्वे ‘व्यस्तास्तेषु क्षमादिषु । समस्तास्ते जगद्वृद्धयै चक्रिणि त्वयि च स्थिताः २६ च्यवन्ते" स्वस्थितेः काले क्वचित्तेऽपिक्षमादयः । न स कालोऽस्ति यः कर्ता प्रच्युतेर्युवयोः स्थितेः ॥ २७ ॥ सृष्टिः पितामहनेयं सृष्टैनां " तत्समर्पिताम्" । पाति सम्राट् पिता तेऽद्य तस्यास्वमनुपालकः २८ दैवमानुषबाधाभ्यः क्षतिः कस्यापि या क्षितौ । ममैवेयमिति स्मृत्वा समाधेया" त्वयैव सा ॥२९॥ क्षतात् त्रायत इत्यासीत् क्षत्त्रोऽयं भरतेश्वरः । सुतस्तस्यौरसो ज्येष्टः क्षत्रियस्त्वं तदादिमः ॥३०॥ त्वत्तो न्यायाः प्रवर्तन्ते नूतना ये पुरातनाः । तेऽपि त्वत्पालिता एव भवन्त्यत्र पुरातनाः ॥३१ ॥ 93 १४ ९ ही राजा लोग उसके सहायक हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि पापक्रियाओंके प्रारम्भमें सहायता देनेवाले सुलभ होते हैं ॥२० - २१ ॥ उस समय जो सब उपधाओंसे शुद्ध हैं तथा जनपद आदि मन्त्रियों के लक्षणोंसे सहित हैं ऐसा निर्दोषबुद्धिका धारक अनवद्यमति नामका मन्त्री अच्छी तरह विचारकर धर्मयुक्त, अर्थपूर्ण, यशके सारभूत, उत्तम, कठोरतारहित, न्यायरूप और हितकारी वचन कहने लगा ||२२ - २३ ।। उसने कहा कि पृथिवी, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, समुद्र, वायु, अग्नि, तू, तेरा पिता, मेघ और काल ये सब पदार्थ संसार में कल्याण करनेवाले हैं ॥२४॥ आप लोगोंमें उलट-पुलट होनेसे यह संसार की सृष्टि उलट-पुलट हो जाती है और आपके अनुकूल रहनेसे अच्छी तरह विद्यमान रहती है इससे स्पष्ट है कि यह सृष्टि आप लोगों पर अवलम्बित है ||२५|| क्षमा आदि गुण अलग-अलग तो पृथिवी आदिमें भी रहते हैं परन्तु इकट्ठे होकर संसारका कल्याण करनेके लिए चक्रवर्तीमें और तुझमें ही रहते हैं ||२६|| पृथिवी आदि पदार्थ किसी समय अपनी मर्यादासे च्युत भी हो जाते हैं परन्तु ऐसा कोई समय नहीं है जो तुम दोनोंको अपनी मर्यादासे च्युत कर सके ||२७|| तुम्हारे पितामह भगवान् वृषभदेवने इस कर्मभूमिरूपी सृष्टिकी रचना की थी, उनके द्वारा सौंपी हुई इस पृथिवीका पालन इस समय तुम्हारे पिता भरत महाराज कर रहे हैं और उनके बाद इसका पालन करनेवाले तुम ही हो ||२८|| इस पृथिवी में यदि किसीकी भी दैव या मनुष्यकृत उपद्रवोंसे कुछ हानि होती हो तो 'यह मेरी' ही है ऐसा समझकर आपको ही उसका समाधान करना चाहिए ||२६|| जो क्षत अर्थात् संकटसे रक्षा करे उसे क्षत्र कहते हैं, क्षत्र हैं और तुम उनके सबसे बड़े औरस पुत्र हो इस संसारमें नवीन न्याय तुमसे ही प्रवृत्त होते हैं द्वारा पालित होकर ही पुरातन कहलाते हैं । भरतेश्वर सबकी रक्षा करते हैं इसलिए वे इसलिए तुम सबसे पहले क्षत्रिय हो ||३०|| और जो पुरातन अर्थात् प्राचीन हैं वे तुम्हारे भावार्थ- आपसे नवीन न्याय मार्गकी प्रवृत्ति १ धर्मार्थ कामभयेषु व्याजेन परचित्तपरीक्षणमुपधा तया शुद्धः । 'उपधा धर्माद्यैर्यत्परीक्षणम्' इत्यभिधानात् । २ जनपदभवनृपपुरजनादिभिः । ३ लोकस्य क्षेमकारिणः । ४ विपर्यासमेति । ५ जगत्सृष्टिः । ६ युष्मासु महाप्रभृतिषु प्रकाशते । ७ क्षान्त्यवगाहनसंहानसंतापहरण प्रकाशनादिगुणाः । ८ विकलाः । एकैकस्मिन्नेकैकश एवेत्यर्थः । ९ पृथिव्याकाशादिषु । १० जगद्वृद्धौ प०, ल० म० । ११ प्रच्युता भवन्ति । १२ भरतार्ककः । १३ पितृपित्रा आदिब्रह्मणा । 'पितामहः पितृपिता' इत्यभिधानात् । १४ सृष्टा तां अ०, स० ॥ सृष्टयैतां इ०, प०, ल० | १५ आदिब्रह्मणा विस्तीर्णाम् । १६ चक्री | १७ सृष्टे । १८ निवर्तनीया । १९ क्षतिः । २० उरसि भवः । साक्षात्सुतः न दत्तपुत्रः । २१ क्षत्राज्जातः । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ३८९ सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रतिस्मृतिषु भाषितः । विवाह विधिभेदषु वरिष्टोहि स्वयंवरः ॥३२॥ यदि स्यात् सर्वसंप्रार्थ्या कन्यका पुण्यभाजनम् । अविरोधो व्यधाय्यत्र देवायत्तो विधिबुधैः ॥३३॥ मध्ये महाकुलीनेपु कंचिदेकमभीप्सितम् । सलक्ष्मीकमलक्ष्मीकं गुणितं गुणदुर्गतम् ॥३४॥ विरूपं रूपिणं चापि वृणीतेऽसौ विधेर्वशात् । न तत्र मत्सरः कार्यः शेषैायोऽयमीदृशः ॥३५॥ लभ्यते यदि केनापि न्यायो रक्ष्यस्त्वयैव सः । नेदं तवोचितं क्वापि पाता स्यात्पारिपान्थिकः ॥३६॥ भवत्कुलाचलस्योभौ नाथसोमान्वयौ पुरा । मेरोनिषधनीलो वा सत्पक्षौ पुरुणा कृतौ ॥३७॥ सकलक्षत्रियज्येष्टः पूज्योऽयं राजराजवत् । अकम्पनमहाराजो राजेव ज्योतिषां गणैः ॥३८॥ निर्विशेषं पुरोरेनं मन्यते भरतेश्वरः । पूज्यातिलङ्घनं प्राहुरुभय बाशुभावहम् ॥३९॥ पश्य तादृश एवान सोमवंशोऽपि कथ्यते । धर्मतीर्थ भवद्वंशाद दानतीर्थ'ततो यतः॥४०॥ पुरस्सरणमात्रेण श्लाघ्यं चक्रं विशां विभोः" । प्रायो दुस्साधसंसिद्धौ श्लाघते जयमेव सः ॥११॥ 'एतस्य दिग्जये सर्वेष्टमेवेह पौरुषम् । अनेनवः कृतः प्रेषः स्मर्तव्यो ननु स त्वया ॥४२॥ ज्ञात्वा "संभाव्यशौर्योऽपि स मान्यो भर्तृभिर्भटः । दृष्टसारः स्वसाध्येऽर्थे साधितार्थः किमुच्यते ॥४३॥ चलती है और पुराने न्यायमार्गकी रक्षा होती है ॥ ३१ ॥ विवाहविधिके सब भेदोंमें यह स्वयंवर ही श्रेष्ठ है । श्रुतियों और स्मृतियोंमें कहा गया यह स्वयंवर ही सनातन ( प्राचीन ) मार्ग है ॥ ३२ ।। यदि पुण्यके पात्र स्वरूप किसी एक कन्याकी याचना सब मनुष्य करने लग जायें तो उस समय परस्परका विरोध दूर करने के लिए विद्वानोंने केवल भाग्यके अधीन होनेवाली इस स्वयंवर विधिका विधान किया है ॥ ३३ ॥ बड़े-बड़े कुलोंमें उत्पन्न हुए पुरुषोंके मध्य में वह कन्या भाग्यवश अपनी इच्छानुसार किसी एकको स्वीकार करती है चाहे वह लक्ष्मीसहित हो या लक्ष्मीरहित, गुणवान् हो या निर्गुण, सुरूप हो या कुरूप । अन्य लोगोंको इसमें ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह ऐसा ही न्याय है ॥ ३४-३५ ॥ यदि किसीके द्वारा इस न्यायका उल्लंघन किया जाय तो तुम्हें ही इसकी रक्षा करनी चाहिए इसलिए यह सब तुम्हारे लिए उचित नहीं है । क्या कभी रक्षक भी चोर या शत्रु होता है ॥ ३६ ॥ जिस प्रकार निषध और नील कुलाचल मेरुपर्वतके उत्तम पक्ष हैं, उसी प्रकार भगवान् आदिनाथने पहले नाथवंश और चन्द्रवंश दोनों ही आपके कुलरूपी पर्वतके उत्तम पक्ष अर्थात् सहायक बनाये थे ॥ ३७ ॥ जिस प्रकार चन्द्रमा समस्त ज्योतिषी देवोंके समूहके द्वारा पूज्य है उसी प्रकार समस्त क्षत्रियोंमें बड़े महाराज अकम्पन भी भरत चक्रवर्तीके समान सबके द्वारा पूज्य हैं ॥ ३८ ॥ महाराज भरत इन अकम्पनको भगवान् वृषभदेवके समान ही मानते हैं इसलिए तुम्हें भी इनके प्रति नम्रताका व्यवहार करना चाहिए क्योंकि पूज्य पुरुषोंका उल्लंघन करना दोनों लोकोंमें अकल्याण करनेवाला कहा गया है ॥ ३९ ॥ और देखो यह सोमवंश भी नाथवंशके समान ही कहा जाता है । क्योंकि जिस प्रकार तुम्हारे वंशसे धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति हुई है उसी प्रकार सोमवंशसे दानतीर्थकी प्रवृत्ति हुई है ॥ ४० ॥ चक्रवर्तीका चक्र रत्न आगे-आगे चलने मात्रसे प्रशंसनीय अवश्य है परन्तु कठिनाईसे सिद्ध होने योग्य कार्योंमें वे प्रायः जयकुमारकी ही प्रशंसा करते हैं ।। ४१ ॥ दिग्विजयके समय इसका पुरुषार्थ संसारमें सबने देखा था। उस समय इसने जो पराक्रम दिखाया था वह भी तुम्हें याद रखना चाहिए ।।४२॥ जिस योद्धामें शूरवीरपनेकी सम्भावना हो १ अतिशयेन वरः । २ कृतः । ३ - देकं समीप्सितम् ल०, म०, अ०, ५०, इ०, स० । ४ गुणदरिद्रम् । ५ रक्षकः । ६ सत्सहायौ। सत्पक्षती च । ७ चक्रिवत् । ८ चन्द्र इव । ९ समानम् । १० इहामुत्र च । ११ सोमवंशात् । १२ यतः कारणात् । १३ चक्रिणः । १४ चक्री । १५ जयस्य । १६ यः ल० । १७ बलानियोगः । १८ भाविशौर्य इत्यर्थः । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् विना चक्राद् विना रत्न ग्येयं श्रीस्त्वया तदा । जथाले मानुषी सिद्धिदैवी पुण्योदयाद्यथा ॥४४॥ तृणकल्पोऽपि संवाह्यस्तव नीतिरियं कथम् । नाथेन्दुवंशावुच्छेद्यो लक्ष्म्याः साक्षाद जायितौ ॥४५॥ बन्धुभृत्यक्षयाभूयस्तुभ्यं चयपि कुप्यति । अधर्मश्चायुगस्थायी त्वया स्यात् संप्रवर्तितम् ॥४६॥ परदाराभिलाषस्य प्राथम्यं मा वृथा कृथाः । अवश्यमाहृताप्येषा न कन्या ते भविष्यति ॥४७॥ सप्रतापं यशः स्थास्नु जयस्य स्यादहर्यथा। तब रात्रिरिवाकीर्तिः स्थायिन्यत्र मलीमसा ॥४८॥ सर्वमेतन्ममैवेति मा मस्था साधनं युधः । बहवोऽप्यन्त्र भूपालाः सन्ति तत्पक्षपातिनः ॥४९॥ पुरुषार्थत्रयं पुम्भिर्दुष्प्रापं तत्त्वयाऽर्जितम् । न्यायमार्ग समुल्लध्य वृथा तत्किं विनाशयः ॥५०॥ अकम्पनस्य सेनेशो जयः प्रागिव चक्रिणः । वीरलक्ष्यास्तुलारोह मुधा त्वं किं विधास्यसि ॥५१॥ ननु न्यायेन बन्धोस्ते बन्धुपुत्री समर्पिता । उत्सवे का पराभूतिरक्षमात्र पराभवः ॥५२॥ कन्यारत्नानि सन्त्येव बहन्यन्यानि भूभुजाम् । इह तानि सरत्नानि सर्वाण्यद्यन यामि ते ॥५३॥ इति नीतिलतावृद्धिविधाय्यपि वचः पयः । 'व्यधात् तच्चेतसः क्षोभं तप्ततैलस्य वा भृशम् ॥५४॥ राजाओंको जानकर उसका भी सन्मान करना चाहिए फिर भला जिसका पराक्रम देखा जा चुका है और जिसने अत्यन्त असाध्य कार्यको भी सिद्ध कर दिया है उसकी तो बात ही क्या है ? ॥४३। आगे चलकर जिस समय बिना चक्र और बिना रत्नोंके यह लक्ष्मी तुम्हारे उपभोग करने योग्य होगी उस समय तुम्हारी दैवी सिद्धि जिस प्रकार पुण्य कर्मके उदयसे होगी उसी प्रकार तुम्हारी मानुषी अर्थात् मनुष्योंसे होनेवाली सिद्धि जयकुमारसे ही होगी ॥ ४४ ।। जब कि तृणके समान तुच्छ पुरुषकी भी रक्षा करनी चाहिए यह आपकी नीति है तब राज्य लक्ष्मीके साक्षात् भुजाओंके समान आचरण करनेवाले नाथ वंश और सोम वंश उच्छेद करने योग्य कैसे हो सकते हैं ? ॥४५।। इन भाइयोंके समान सेवकोंका नाश करनेसे चक्रवर्ती भी तुमपर अधिक क्रोध करेंगे और युगके अन्त तक टिकनेवाला यह अधर्म भी तुम्हारे-द्वारा चलाया हुआ समझा जायगा ॥४६।। तुम्हें व्यर्थ ही परस्त्रीकी अभिलाषाका प्रारम्भ नहीं करना चाहिए क्योंकि यह निश्चय है, यह कन्या जबरदस्ती हरी जाकर भी तुम्हारी नहीं होगी ।। ४७ ।। जयकुमारका प्रताप सहित यश दिनके समान सदा विद्यमान रहेगा और तुम्हारी मलिन अकीति रात्रिके समान सदा विद्यमान रहेगी ।। ४८ ॥ ये सब राजा लोग युद्ध में मेरी सहायता करेंगे ऐसा मत समझिए क्योंकि इनमें भी बहुत-से राजा लोग उनके पक्षपाती हैं ॥ ४९ ॥ जो धर्म अर्थ और कामरूप तीन पुरुषार्थ पुरुषोंको अत्यन्त दुर्लभ हैं वे तुझे प्राप्त हो गये हैं इसलिए अब न्यायमार्गका उल्लंघन कर उन्हें व्यर्थ ही क्यों नष्ट कर रहे हो ॥ ५० ॥ यह जयकुमार जिस प्रकार पहले चक्रवर्तीका सेनापति बना था उसी प्रकार अब अकम्पनका सेनापति बना है तुम व्यर्थ ही वीरलक्ष्मीको तुलापर आरूढ़ क्यों कर रहे हो । भावार्थ - वीरलक्ष्मीको संशयमें क्यों डाल रहे हो ॥ ५१॥ निश्चयसे तेरे एक भाईकी पुत्री तेरे दूसरे भाईके लिए न्यायपूर्वक समर्पण की गयी है, ऐसे उत्सवमें तुम्हारा क्या तिरस्कार हुआ ? हाँ, तुम्हारी असहनशीलता ही तिरस्कार हो सकती है ? भावार्थ - हितकारी होनेसे जिस प्रकार जयकुमार तुम्हारा भाई है उसी प्रकार अकम्पन भी तुम्हारा भाई है। एक भाईकी पुत्री दूसरे भाईके लिए न्यायपूर्वक दी गयी है इसमें तुम्हारा क्या अपमान हुआ? हाँ, यदि तुम इस बातको सहन नहीं कर सकते हो तो यह तुम्हारा अपमान हो सकता है ॥ ५२ ।। सुलोचना सिवाय राजाओंके और भी तो बहुत-से कन्यारत्न हैं, रत्नालंकार सहित उन सभी कन्याओंको मैं आज तुम्हारे लिए यहाँ ला देता हूँ ।। ५३ ।। इस प्रकार १ तव। २ पुरुषकृता। ३ रक्षणीयः । ४ संप्रवर्तितः स०, ल०, अ०, ५०, इ०। ५ प्रथमत्वम् । ६ मा कार्षीः । ७ युद्धस्य । ८ तव । ९ असहमानता । १० प्रापयामि । ११ व्याधात् ल० । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व ३९१ सर्वमेतत् समाकर्ण्य बुद्धिं कर्मानुसारिणीम् । स्पष्टयन्निव दुर्बद्धिरिति प्रत्याह भारतीम् ॥१५॥ अस्ति स्वयंवरः पन्थाः परिणीती चिरन्तनः । पितामह कृतो मान्यो वयोज्येष्टस्त्वकम्पनः ॥ ६॥ किन्तु सोऽयं जयस्नेहात्तस्योत्कर्ष चिकीर्षुकः । स्वसुतायाश्च सौभाग्यप्रतीतिप्रविधित्सुकः ॥५७॥ सर्वभूपालसंदोहसमाविर्भावितोदयात् । स्वयं चक्रीयितुं चैव व्यधत्त कपटं शठः ॥१८॥ प्राक्समर्थितमन्त्रेण प्रदायास्मै स्वचेतसा । कृतसंकेतया माला सुतयाऽऽरोपिता मृषा ॥५॥ युगादौ कुलवृद्धन मायेयं संप्रवतिता । मयाद्य यापेक्ष्येत कल्पान्ते नैव वार्यते ॥६॥ न चक्रिणोऽपि कोपाय स्यादन्यायनिषेधनम् । प्रवर्तयत्यसौ दण्डं मय्यप्यन्यायवर्तिनि ॥६१॥ जयोऽप्येवं समुत्सितस्तत्पटेन च मालया। प्रतिस्वं लब्धरन्ध्रो मां करोत्या रम्भकम्पुरा ॥६॥ "समूलतूलमुच्छिद्य सर्वद्विषममुं युधि । अनुरागं जनिष्यामि राजन्यानां मयि स्थिरम् ॥६३॥ द्विधा भवतु वा मा वा बलं ते न किमाशुगाः । माला प्रत्यानयिष्यन्ति जयवक्षो विभिद्य मे ॥६॥ नाहं सुलोचनार्थ्यस्मि मत्सरी मच्छरैरयम् । परासुरधुनैव स्यात् किं में विधवया त्वया ॥६॥ अनवद्यमति मन्त्रीका वचनरूपी जल यद्यपि नीतिरूपी लताको बढ़ानेवाला था तथापि उसने तपे हुए तेलके समान अर्ककीतिके चित्तको और भी अधिक क्षोभित कर दिया था ॥५४॥ यह सब सुनकर 'बुद्धि कर्मों के अनुसार ही होती है,' इस बातको स्पष्ट करता हुआ वह दुर्बुद्धि इस प्रकार वचन कहने लगा ॥५५॥ मैं मानता हूँ कि विवाहकी विधियों में स्वयंवर ही पुरातन मार्ग है और यह भी स्वीकार करता हूँ कि हमारे पितामह भगवान् वृषभदेवके द्वारा स्थापित होने तथा वयमें ज्येष्ठ होनेके कारण अकम्पन महाराज मेरे मान्य हैं परन्तु वह जयकुमारपर स्नेह होनेसे उसीका उत्कर्ष करना चाहता है और सबपर अपनी पुत्रीके सौभाग्यकी प्रतीति करना चाहता है। समस्त राजाओंके समहके द्वारा प्रकट हए बड़प्पनसे अपने आपको चक्रवर्ती बनानेके लिए ही उस मूर्खने यह कपट किया है ॥ ५६-५८॥ 'यह कन्या जयकुमारको ही देनी है' ऐसी सलाह अकम्पन पहले ही कर चका था और उसी सलाहके अनुसार अपने जयकुमारके लिए कन्या दे भी चका था परन्तु यह सब छिपाने के लिए जिसे पहले ही संकेत किया गया है ऐसी पूत्रीके द्वारा उसने यह माला झठमठ ही डलवायी है ॥५९।। यगके आदिमें उच्चकुलीन अकम्पनके द्वारा की हुई इस मायाकी यदि आज मैं उपेक्षा कर दूं तो फिर कल्पकालके अन्त तक भी इसका निवारण नहीं हो सकेगा ।। ६० ॥ अन्यायका निराकरण करना चक्रवर्तीके भी क्रोधके लिए नहीं हो सकता क्योंकि जब मैं अन्याय में प्रवत्ति कर बैठता है तब वे मुझे भी तो दण्ड देते हैं । भावार्थ-चक्रवर्ती अन्यायको पसन्द नहीं करते हैं, और मैं भी अन्यायका ही निराकरण कर रहा हूँ इसलिए वे मेरे इस कार्यपर क्रोध नहीं करेंगे ॥६१।। यह जयकुमार भी पहले वीरपट्ट बाँधनेसे और अव मालाके पड़ जानेसे बहुत ही अभिमानी हो रहा है । यह छिद्र पाकर पहलेसे ही मेरे लिए कुछ-न-कुछ आरभ्भ करता ही रहता है ॥६२॥ यह सबका शत्रु है इसलिए युद्ध में इसे आमूलचूल नष्ट कर सब राजाओंका स्थिर प्रेम अपने में ही उत्पन्न करूँगा ॥६३॥ सेना फूटकर दो भागोंमें विभक्त हो जाय अथवा न भी हो, उससे मुझे क्या ? मेरे बाण ही जयकुमारका वक्षःस्थल भेदन कर वरमालाको ले आवेंगे ।।६४।। मैं सुलोचनाको भी नहीं चाहता क्योंकि सबसे ईर्ष्या करनेवाला यह जयकुमार मेरे बाणोंसे अभी १ विवाहे। २ अभ्युदयं प्राप्यमाश्रित्य । ३ चक्रीवाचरितुम् ।। ४ मायावी। ५ दत्त्वा। ६ अकम्पनेन । ७-पेक्षेत ल०। ८ -प्येनं ल० । ९ गर्वितः । १० वीरपट्टेन । ११ प्राप्तावसरः । १२ व्यापारम् । १३ कारणसहितम् । १४ शराः । १५ मत्सरवान् । १६ मम बाणैः । १७ गतप्राणः । 'परासुप्राप्तपंचत्वपरेतप्रेत. संस्थिताः ।' इत्यभिधानात् । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् दुराचारनिषेधेन त्रयं धर्मादि वर्धते । कारणे सति कार्यस्य किं हानिर्दृश्यते क्वचित् ॥ ६६॥ व्ययो में विक्रमस्यास्तां' शरस्याप्यत्र न व्ययः । वधे प्रत्युत धर्मः स्याद् दुष्टस्यांहः कुतो भवेत् ॥ ६७ ॥ कीर्तिर्विख्यातकीर्त नार्क कीर्ते विनङ्क्षयति । अकीर्तिरनिवार्या स्यादन्यायस्यानिषेधनात् ॥ ६८ ॥ तस्य' मेऽयशसः कीर्तेर्भवद्भिर्यदुदाहृतम् । भवेत्तत्सत्य संवादि शीतकोऽस्म्यत्र यद्यहम् ॥ ६६ ॥ यूयमाध्वं ततस्तूष्णीमुष्णकोऽहमिदं प्रति । धर्म्यमर्थ्यं यशस्यं च मा निषेधि हितैषिभिः ॥७०॥ एवं मन्त्रिणमुल्लङ्घय कुधीर्वा दुर्ग्रहाहितः । सेनापतिं समाहूय प्रत्यासन्नपराभवः ॥७१॥ कथयित्वा महीशानां सर्वेषां रणनिश्चयम् । भेरीमास्फालयामास जगत्त्रय भयप्रदाम् ॥७२॥ अनुभेरीवं सद्यः सत्यावास" महीभुजाम् । "नटद्भटभुजा स्फोटचटुलाराव " निष्ठुरः ॥ ७३ ॥ करिकण्डस्फुटोद्घोषघण्टाटङ्कारभैरवः । जितकण्ठीरवारावहय हेषाविभीषणः ॥७४॥ चलद्धरिखुरोद्घट्टकठोरध्वाननिर्भरः । पदातिपद्धति प्रोद्यद्भूरिभूरख भीवहः " ॥७५॥ "स्पन्दरस्यन्दनचक्रोत्थ पृथुचीत्कार भीकरः । धनुः सज्जीक्रियासक्तगुणास्फालनकर्कशः ॥ ७६ ॥ प्रतिध्वनित दिग्भित्तिस्सर्वानिकभयानकः । बलकोलाहलः कालमिवाह्नातुं समुद्यतः ॥ ७७ ॥ १४ ३९२ १६ ही मर जावेगा तब उस विधवासे मुझे क्या प्रयोजन रह जावेगा ॥ ६५ ॥ दुराचारका निषेध करनेसे धर्म आदि तीनों बढ़ते हैं, क्योंकि कारणके रहते हुए क्या कहीं कार्यकी हानि देखी जाती है ? ।। ६६ ।। इस काम में मेरे पराक्रमका नाश होना तो दूर रहा मेरा एक बाण भी खर्च नहीं होगा बल्कि दुष्टके मारनेमें धर्म ही होगा, पाप कहाँसे होगा ? ॥ ६७ || ऐसा करनेसे प्रसिद्ध कीर्तिवाले मुझ अर्ककीर्तिकी कीर्ति भी नष्ट नहीं होगी परन्तु हाँ, यदि इस अन्यायका निषेध नहीं करता हूँ तो किसीसे निवारण न करने योग्य मेरी अपकीर्ति अवश्य होगी || ६८ || तुमने जो मेरी अपकीर्ति और उसकी कीर्ति होनेका उदाहरण किया है सो यदि मैं इस विषय में मन्दोद्योगी हो जाऊँ तो यह आपका निरूपण सत्य हो सकता है || ६६ ॥ इसलिए तुम लोग चुप बैठो, मैं इस कार्य में उष्ण हूँ - क्रोधसे उत्तेजित हूँ । हित चाहनेवालोंको धर्म, अर्थ तथा यश बढ़ाने वाले कार्यों का कभी निषेध नहीं करना चाहिए ॥ ७०॥ इस प्रकार जिसका पराभव निकट है और जो खोटे हठसे युक्त है ऐसे दुर्बुद्धि अर्ककीर्तिने मन्त्रीका उल्लंघन कर सेनापतिको बुलाया और सब राजाओंसे युद्धका निश्चय कहकर तीनों लोकोंको भय उत्पन्न करनेवाली भेरी बजवायी ॥७१-७२ ॥ जो राजाओंके प्रत्येक डेरेमें भेरीके शब्दोंके साथ ही साथ बहुत शीघ्र नाचते हुए योद्धाओं भुजाओं की ताड़नासे उत्पन्न होनेवाले चंचल शब्दोंसे कठोर है, जो हाथियोंके गलों में स्पष्ट रूपसे जोर जोरका शब्द करनेवाले घण्टाओंकी टंकारसे भयंकर है, जो सिंहोंकी गर्जनाको जीतनेवाले घोड़ोंकी हिनहिनाहटसे भीषण है, जो चलते हुए घोड़ोंके खुरोंके संघटनसे उठनेवाले कठोर शब्दोंसे भरा हुआ है, जो पैदल सेनाके पैरोंकी चोटसे उत्पन्न हुए पृथिवीके बहुत भारी शब्दोंसे भयंकर है, जो चलते हुए रथोंके पहियोंसे उत्पन्न होनेवाले बहुत भारी चीत्कार शब्दोंसे भय पैदा करनेवाला है, जो धनुष तैयार करनेके लिए लगायी हुई डोरीके आस्फालनसे कठोर है, जिसने दिशारूपी दीवालोंको प्रतिध्वनिसे युक्त कर दिया है और जो सब प्रकारके नगाड़ोंसे भयानक हो रहा है ऐसा बहुत भारी सेनाका कोलाहल उठा सो ऐसा जान पड़ता १ आस्तां तावदित्यध्याहारः । २ पापः । ३ विनाशमेष्यति । ४ जयस्य । ५ यदुदाहरणम् । ६ सत्येन अविपरीतप्रतिपत्तिकम् । सत्येन एकवादोपेतं वा । ७ मन्दः | ८ पटुः । 'दक्षे तु चतुरपेशलपटवः सुत्थान ओष्णश्च' इत्यभिधानात् । ९ न निषिध्यते स्म । १० स्वीकृतः । १९ शिबिरं प्रति शिबिरं प्रति । १२ नवस्थिता । १३ ध्वनि: । १४ पादहति । १५ भूमिध्वनिना भयंकरः । १६ चलत् । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व शिक्षिताः बलिनः शूराः शूरारूढाः सकेतवः। गजाः समन्तात् सन्नाह्याः प्राक्चेलुरचलोपमाः ॥७॥ तुरङ्गमास्तरङ्गामाः सङ्नामाब्धेः सवर्मकाः । अनुदन्ति नदन्तोऽयान् विक्रामन्तः समन्ततः ॥७॥ सचक्रं धेहि संयोज्य सधुरं प्राज वाजिनः । इति "संभ्रमिणोऽपप्तन् रथास्तदनु सधजाः ॥४०॥ चहाः कोदण्डकुन्तासिप्रासचक्रादिभीकराः । यान्ति स्मानुरथं क्रुद्धा रुद्ध दिक्काः पदातयः ॥८॥ गजं गजस्तदोदव्य वाहो वाहं रथं रथः । पदातयश्च पादान्तं संभ्रमान्निर्थयुयुधे ॥ ८२॥ आरूढानेकपानेकभूपालपरिवारितः । भेरीनिष्ठुरनिर्घोषमीषिताशेषदिग्द्विपः ॥८३॥ चक्रध्वजं समुत्थाप्य सम्यगाविष्कृतोन्नतिः । गजं विजयघोषाख्यमारुह्यादिवरोत्तमम् ॥८४॥ अर्ककीर्तिर्बहिर्मास्वदस्यु द्यतभटावृतः। ज्योतिःकुलाचलैर्किश्च वालाभ्यचलाधिपम् ॥५५॥ किंवदन्ती विदित्वैतां भूपो भूत्वा कुलाकुलः । स्वालोचितं च कर्तव्यं विधिना क्रियतेऽन्यथा॥८६॥ इति स्वसचिवैः सार्धमालोच्य च जयादिमिः । प्रत्यर्ककीय॑था दिक्षद् दूतं संप्राप्य सत्वरम् ॥१७॥ कुमार तव किं युक्तमेवं सीमातिलङ्घनम् । प्रसीद प्रलयो दूरं तन्मा कार्षीषागमम् ॥८॥ था मानो कालको बुलानेके लिए ही उठा हो ॥ ७३-७७ ॥ उस समय जो शिक्षित हैं, बलवान् हैं, शूरवीर हैं, जिनपर योद्धा बैठे हुए हैं, पताकाएं फहरा रही हैं, जो सब तरहसे तैयार हैं और पर्वतोंके समान ऊँचे हैं ऐसे हाथी सब ओरसे आगे-आगे चल रहे थे ॥ ७८ ॥ जो संग्रामरूपी समुद्रकी लहरोंके समान हैं, कवच पहने हुए हैं, . हींस रहे हैं और कूद रहे हैं ऐसे घोड़े उन हाथियोंके पीछे-पीछे चारों ओर जा रहे थे ॥७९॥ पहिये जल्दी लगाओ, धुराको ठीक कर जल्दी लगाओ, इस प्रकार कुछ जल्दी करनेवाले, तथा जिनमें शीघ्रगामी घोड़े जुते हुए हैं और ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसे रथ उन घोड़ोंके पीछे-पीछे जा रहे थे ।।८०॥ उन रथोंके पीछे धनुष, भाला, तलवार, प्रास और चक्र आदि शस्त्रोंसे भयंकर, फैलकर सब दिशाओंको रोकनेवाले, क्रोधी और बलवान् पैदल सेनाके लोग जा रहे थे ॥ ८१ ॥ उस समय हाथी हाथीको, घोड़ा घोड़ाको, रथ रथको और पैदल पैदलको धक्का देकर युद्धके लिए जल्दी-जल्दी जा रहे थे । ८२ ॥ तदनन्तर - हाथियोंपर चढ़े हुए अनेक राजाओंसे घिरा हुआ, नगाड़ोंके कठोर शब्दोंसे समस्त दिग्गजोंको भयभीत करनेवाला, चक्रके चिह्नवाली ध्वजाको ऊँचा उठाकर अपनी ऊँचाईको अच्छी तरह प्रकट करनेवाला और चमकीली तलवार हाथमें लिये हुए योद्धाओंसे आवृत अर्ककीति, मेरु पर्वतके समान उत्तम विजयघोष नामक हाथीपर सवार हो अचलाधिप ( अचला अधिप ) अर्थात् पृथ्वीके अधिपति राजा अकम्पनकी ओर इस प्रकार चला मानो ज्योतिर्मण्डल और कुलाचलोंके साथ-साथ सूर्य ही अचलाधिप ( अचल अधिप ) अर्थात् सुमेरुकी ओर चला हो ।।८३-८५।। महाराज अकम्पन यह बात जानकर बहुत ही व्याकुल हुए और सोचने लगे कि अच्छी तरह विचारकर किया हुआ कार्य भी दैवके द्वारा उलटा कर दिया जाता है। इस प्रकार उन्होंने अपने मन्त्री तथा जयकुमार आदिके साथ विचारकर अर्ककीतिके प्रति शीघ्र ही एक शीघ्रगामी दूत भेजा ॥८६-८७॥ दूतने जाकर कहा कि हे कुमार, क्या तुम्हें इस प्रकार सीमाका उल्लंघन करना उचित है ? प्रलयकाल अभी दूर है इसलिए प्रसन्न हूजिए १ संनद्धाः कृताः । २ तनुत्रसहिताः । ३ दन्तिनां पश्चात् । ४ ध्वनन्तः । ५ अगच्छन् । ६ लङ्घनं कुर्वन्तः । ७ चक्रेण सह किंचिद् धेहि धारय । ८ धुरा सह किंचिद् धेहि । ९. प्रेरय । १० आशुप्रधावने प्रयुक्ताः । त्वरावन्त.। ११ अगच्छन् । १२ अश्वः । 'वाहोऽश्वस्तुरगो वाजी हयो धुर्यग्तुरंगमः' इति धनंजयः । १३ संग्रामनिमित्तम् । १४ उद्धृतासि । १५ अकम्पनं महाराज प्रति । मेरुं च । १६ जनवार्ताम् । १७ अधिकाकुलः । .१८ सुष्ट्वालोचितम् । १९ कार्यम् । २० अर्ककीर्ति प्रति । २१ प्राहिणोत् । २२ प्रलयः षष्ठकालान्तें भवतीत्यागमम् । मृषा मा कुरु । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ आदिपुराणम् इति सामादिभिः स्वोकरशान्तमवगम्य तम् । प्रत्यत्य तत्तथा सर्वमाश्ववाजी गमनपम् ॥८॥ काशिराजसदाकर्ण्य विषादचलिताशयः । महामोहाहितो वाऽऽसीद् दुष्कार्य को न मुह्यति ॥१०॥ अब चिन्त्यं न वः किंचिन्न्यायस्तेनैव लडितः। तिष्ठतेहैव संरक्ष्य सुनियुक्ताः सुलोचनाम् ॥११॥ इदानोमेव दुर्वृत्तं शृङ्खलालिङ्गनोत्सुकम् । शाखामृगमिवानेप्ये बध्वा दाराततायिनम् ॥१२॥ इत्युदीर्य जयो मंघकुमारविजयार्जिताम् । मेघवोषाभिधां भेरी 'प्रष्ठेनास्फोटयद्रु षा ॥१३॥ "द्रोणादिप्रक्षयारम्भघनाघनघनध्वनिम् । तद्ध्वनिर्व्याप निर्जित्य निर्भिद्य हृदयं द्विषाम् ॥१४॥ तद्रवाकर्णनाद् घूर्णितार्णवप्रतिम''बले । ''अतिवेलोत्सवोऽत्रासीदुत्सवो विजये यथा ॥९५॥ तदोद्भिन्नकटपान्तप्रक्षरन्मदपायिनः । स्वमदेनेव मातङ्गाः प्रोत्तङ्गाः प्रोन्मदिष्णवः ॥६६॥ सुस्वनन्तः खनन्तः खं वाजिनो वायुरंहसः । कृतोत्साहाँ रणोत्साहाद् रेजुस्तेजस्विता हि सा ॥१७॥ और आगमको झुठा मत कीजिए। भावार्थ-लड़कर असमय में ही प्रलय काल न ला दीजिए। दूतने इस प्रकार बहुत-से साम, दान आदिके वचन कहे परन्तु तो भी उसे अशान्त जानकर वह लौट आया और शीघ्र ही ज्योंके त्यों सब समाचार अकम्पनसे कह दिये ।। ८८-८६ ।। उन समाचारोंको सुनकर काशीराज अकम्पनका चित्त विषादसे विचलित हो उठा और वे स्वयं महामोहसे मूच्छित हो गये सो ठीक ही है क्योंकि बुरे कामोंमें कौन मूच्छित नहीं होता ॥६॥ जयकुमारने अकम्पनको चिन्तित देखकर कहा कि इस विषयमें हम लोगोंको कुछ भी चिन्ता नहीं करनी चाहिए क्योंकि न्यायका उल्लंघन उसीने किया है, आप सावधान होकर सुलोचनाकी रक्षा करते हुए यहीं रहिए। दुराचारी, स्त्रियोंपर उपद्रव करनेवाले और इसलिए ही साँकलोंसे आलिंगन करनेकी इच्छा करनेवाले उस अर्ककोतिको बन्दरके समान बाँधकर मैं अभी लाता हूँ ॥९१-९२॥ इस प्रकार कहकर जयकुमारने क्रोधमें आकर, युद्ध में आगे जानेवाले पुरुषके द्वारा मेघकुमारोंको जीतनेसे प्राप्त हुई मेघघोषा नामकी भेरी बजवायी ॥१३॥ प्रलयकालके प्रारम्भमें प्रकट होनेवाले द्रोण आदि मेघोंकी घोर गर्जनाको जीतकर तथा शत्रुओंका हृदय विदारण कर वह भेरीकी आवाज सब ओर फैल गयी ॥ ९४ ।। जिस प्रकार शत्रुके विजय करनेपर उत्सव होता है उसी प्रकार उस भेरीका शब्द सुनकर लहराते हुए समुद्रके समान चंचल जयकुमारकी सेनामें माला डालनेके उत्सवसे भी कहीं अधिक उत्सव होने लगा ॥६५॥ उस समय फटे हुए गण्डस्थलके समीपसे झरते हुए मदका पान करनेवाले और अपने उसी मदसे ही मानो उन्मत्त हुए ऊँचे-ऊँचे हाथी युद्धके उत्साहसे सुशोभित हो रहे थे। तथा इसी प्रकार अच्छी तरह हींसते हुए, पैरोंसे आकाशको खोदते हुए और वायुके समान वेगवाले उत्साही घोड़े भी युद्ध के उत्साहसे सुशोभित हो रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि उनका तेजस्वीपना १ सोक्तः ट० । वचनसहितैः । २ शीघ्र ज्ञापितवान् । ३ अकम्पनः । ४ महामू गृहीत इव । ५ अत्र कार्य । ६ अर्ककीतिनैव । ७ निवसत । ८ राजभवने । ९ सावधाना: भूत्वा । १० दाराततायनम् ट० । दारेषु कृतागमनम् । स्त्रीनिमित्तमागतमर्ककीर्तिमित्यर्थः । दाराततायिनमिति पाठे दारार्थं वधोद्यतम् । 'आत. तायी वधोद्यतः' इत्यभिधानात् । ११ अग्रगामिना पुरुषेण । १२ आस्फालनं कारयति स्म । प्रष्ठेनास्फालयद् ल०, अ०, प०, इ०, स०। १३ द्रोणादि द्रोणकालपुष्करादि । प्रक्षयारम्भ प्रलयकालप्रारम्भ । द्रोणादयश्च ते प्रक्षयारम्भघनाघनास्तेषां ध्वनिम् । १४ व्याप्नोति स्म। १५ समाने । “प्रतिमानं प्रतिबिम्ब प्रतिमा प्रतिमानना प्रतिच्छाया। प्रतिकृतिरर्चा पुंसि प्रतिनिधिरुपमोपमानं स्यात् ।" १६ अधिकोत्सवः । 'अतिवेलभृशात्यतिमात्रं गाढ़निर्भरम्' इत्यभिधानात् । अतिमालोत्सवो ल०, अ०, प०, इ० । १७ दिग्विजये । १८ पवनवेगाः । १९ कृतोद्योगाः । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ३६५ रथाः प्रागिव' पर्याप्ताः पूर्णसर्वायुधायुधः । महावाहसमायुक्ताः प्रनृत्यत्केतुबाहवः ॥९८॥ योषितोऽप्यभटायन्त पाय्वात् संयुगं प्रति । ततः प्रतिबलात्तत्र भूयांसो वा पदातयः ॥९॥ वर्द्धमानो ध्वनिस्तूर्य रणरङ्गे भविष्यतः । वीरलक्ष्मीप्रवृत्तस्य प्रोद्ययौ गुणयन्निव ॥१०॥ बनान्वयं वयश्शिक्षालक्षणैर्वीक्ष्य विग्रहम्'।'सुवर्माणं सुधर्माण कामवन्तं क्षरम्मदम् ॥१०१॥ सामजं विजया ख्यं विजयाईमिवापरम् । बहुशो दृष्टसंग्राम' गजवजविराजितम् ॥१०२॥ अधिष्ठाय जयः सर्वसाधनेन सहानुजः । निर्जगाम युगप्रान्तकाललीलां विलयन् ॥१०३॥ कुर्वन्ती शान्तिपूजां त्वं तिष्ठ मात्रेति सादरम् । प्रवेश्य चैत्यधामाग्रयं सुतां नित्यमनोहरम् ॥१०॥ समग्रबलसंपत्त्या चचाल चलयन्निलाम् । अझम्पः कम्पिताराति: "साकम्पनिरकम्पनः ॥१०॥ सुकेतुः सूर्यमित्राख्यः श्रीधरो जयवर्मणा । देवकीर्तिजयं जग्मुरिति भूपाः ससाधनाः ॥१०६।। इमे मुकुटबद्धषु पञ्च विख्यातकीर्तयः । परे च शूरा नाथेन्दुवंशगृह्याः 'समाययुः ।।१०७।। मंघप्रभश्च चण्डासिप्रभाव्याप्तवियत्तलः । विद्याबलोद्धतः सार्द्धमर्दू विद्याधरैरगात् ॥१०८॥ वही था ॥९६-९७॥ जो सब प्रकारके शस्त्रोंसे पूर्ण हैं, जिनमें बड़े-बड़े घोड़े जुते हुए हैं, और जिनकी ध्वजारूपी भुजाएं नृत्य कर रही हैं ऐसे युद्धके रथ पहलेके समान ही सब ओर फैल रहे थे ॥९८॥ जयकुमारकी सेनामें युद्ध में चतुर होनेके कारण स्त्रियाँ भी योद्धाओंके समान आचरण करती थीं इसलिए अन्य राजाओंकी अपेक्षा उसकी पैदल सेनाकी संख्या अधिक थी ||१९|| उस समय जो बाजोंका शब्द बढ़ रहा था वह ऐसा जान पड़ता था मानो रणके मैदानमें जो वीरलक्ष्मीका उत्तम नृत्य होनेवाला है उसे कई गुना करता हुआ ही बढ़ रहा हो ॥१०॥ तदनन्तर-जो वनमें उत्पन्न हुआ है, वय, शिक्षा और अच्छे-अच्छे लक्षणोंसे जिसका शरीर देखने योग्य है, जिसका स्वभाव अच्छा है, शरीर अच्छा है, जो कामवान् है, जिसके मद झर रहा है, जिसने अनेक बार युद्ध देखे हैं, जो हाथीके चिह्नवाली ध्वजाओंसे सुशोभित है और दूसरे विजयाध पर्वतके समान जान पड़ता है ऐसे विजयार्ध नामके हाथीपर सवार होकर वह जयकुमार सब सेना और सब छोटे भाइयोंके साथ-साथ युगके अन्त कालकी लीलाको उल्लंघन करता हुआ निकला ॥१०१-१०३॥ इधर शत्रुओंको कम्पित करनेवाले और स्वयं अकम्प ( निश्चल ) रहनेवाले महाराज अकम्पनने भी 'तू अपनी माताके साथ आदरपूर्वक शान्तिपूजा करती हुई बैठ' इस प्रकार कहकर पुत्री सुलोचनाको नित्यमनोहर नामके उत्तम चैत्यालयमें पहुँचाया और स्वयं अपने पुत्रोंको साथ लेकर समस्त सेनारूपी सम्पत्तिके द्वारा पृथिवीको कॅपाते हुए निकले ।।१०४-१०५।। सुकेतु, सूर्यमित्र, श्रीधर, जयवर्मा और देवकीर्ति ये सब राजा अपनी-अपनी सेनाओंके साथ जयकुमारसे जा मिले ॥ १०६ ॥ मुकुटबद्ध राजाओंमें जिनकी कीति अत्यन्त प्रसिद्ध है ऐसे ऊपर कहे हुए सुकेतु आदि पाँच राजा तथा नाथवंश और सोमवंशके आश्रित रहनेवाले अन्य शूरवीर लोग, सभी जयकुमारसे आ मिले ॥१०७॥ जिसने अपनी तीक्ष्ण तलवारकी प्रभासे आकाशतलको व्याप्त कर लिया है और जो विद्याके बलसे १ दिग्विजये यथा । २ समन्तात् प्राप्ताः । पर्यस्ताः ल०। ३ रणस्य । पूर्णसर्वायुधायुध इति समस्तपदपक्षे पूर्णसर्वायुधानि च भटाश्च येषु ते । ४ भटा इवाचरिताः । ५ युद्ध प्रति । ६ ततः कारणात् । ७ प्रतिबले विलोक्यमाने सतीत्यर्थः । ८ जयकुमारबले । ९ इव । १० अतिशयं कुर्वन्निव । ११ दर्शनीयमूर्तिम् । १२ सुवर्माणं सुवणिं अ०, ५०, स०, इ० । सुधर्माणं सुवर्माणं ल० । १३ शोभनस्वभावम् । १४ आरोहकस्य वशवतिगमनवन्तम् । १५ गजरूपध्वज । १६ आरुह्य । १७ जनन्या सह । १८ श्रेष्टम् । १९ भूमिम् । २० अफम्पनस्यापत्यानि आकम्पनयस्तैः सहितः । २१ नाथवंशसोमवंशश्रिताः । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ आदिपुराणम् बलं विभज्य भूभाग विशाले सकलं समे । प्रकृत्य मकरव्यहं विरोधिबलघस्मरः ॥१०॥ उच्चैरूजिततूयोवनियन्निषभीषणः । जितमेघस्वरो गर्जन रंजे मेघस्वरस्तदा ।।११०॥ चक्रव्यूह विभक्तामभरिसाधनमध्यगः । अर्ककीर्तिश्च भाति स्म परिवेषाहि तावत् ॥११॥ क्रुद्वाः खे खेचराधीशाः सुनमिप्रमुखाः पृथक् । गरुडव्यूहमापाद्य तस्थुश्चक्रिसुताज्ञया ॥१२॥ अष्टचन्द्राः खगाः ख्याताश्चक्रिणः परितः सुतम् । शरीररक्षकत्वेन भेजुर्विद्यामदाद्धताः ॥११३॥ अकालप्रलयारम्भ जम्भिताम्भोदगर्जितम् । निर्जित्य तूर्णं तूर्याणि दध्वनुः सेनयोः समम् ॥११४॥ धानुष्कर्मार्ग जैर्मार्गः समरस्य पुरस्सरैः । प्रवर्तयितुमारेभे घोरघोषैः सबल्गितम् ॥११॥ संग्रामनाटकारम्भसूत्रधारा धनुर्धराः। रणरङ्ग विशन्ति स्म गर्जत्तूर्यपुरस्परम् ॥११६॥ आबध्य स्थानकं पूर्व रणरङ्गे धनुधं रैः । पुष्पाञ्जलिरिव व्यस्नो' मुक्तः शितशरोत्करः ॥११७ ॥ तीक्ष्णा मर्माण्यभिघ्नन्तः पूर्व कलहकारिणः । पश्चात्प्रवेशिनः शश्वत् खलकल्या धनुर्धतः ॥१८॥ उद्धत हो रहा है ऐसा मेघप्रभ नामका विद्याधर भी अपने आधे विद्याधरोंके साथ निकला ॥१०८।। जो शत्रुओंकी सेनाको नष्ट करनेवाला है, बड़े-बड़े बाजोंके समूहसे निकलती हुई आवाजके समान भयंकर है और जिसने अपनी आवाजसे मेघोंकी गर्जनाको भी जीत लिया है ऐसा जयकुमार उस समय विशाल और सम ( ऊँची-नीची रहित ) पृथ्वीपर अपनी समस्त सेनाका विभाग कर तथा मकरव्यूहको रचना कर गर्जता हुआ बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था ।।१०६-११०।। उधर चक्रव्यूहकी रचना कर अपनी बहुत भारी सेनाके बीच खड़ा हुआ अर्ककीर्ति भी परिवेषसे युक्त सूर्यके समान सुशोभित हो रहा था ।। १११ ॥ क्रोधित हुए सुनमि आदि विद्याधरोंके अधिपति भी गरुड़व्यूहकी रचना कर चक्रवर्तीके पुत्र--अर्ककीतिको आज्ञासे आकाशमें अलग ही खड़े थे ॥११२।। विद्याके मदसे उद्धत हुए आठ चन्द्र नामके प्रसिद्ध विद्याधर शरीररक्षकके रूप में चारों ओरसे अर्ककीर्तिकी सेवा कर रहे थे ॥ ११३ ॥ उन दोनों सेनाओंमें असामयिक प्रलयकालके प्रारम्भमें बढ़ती हुई मेघोंकी गर्जनाको जीतकर शीघ्रशीघ्र एक साथ बहुत-से बाजे बज रहे थे ।।११४॥ युद्धके आगे-आगे जानेवाले और भयंकर गर्जना करनेवाले धनुर्धारी योद्धाओंने बाणों-द्वारा अपना मार्ग बनाना प्रारम्भ किया था। भावार्थ-धनुष चलानेवाले योद्धा बाण चलाकर भीड़को तितर-बितर कर अपना मार्ग बना रहे थे ॥११५।। जो संग्रामरूपी नाटकके प्रारम्भमें सूत्रधारके समान जान पड़ते थे ऐसे धनुषको धारण करनेवाले वीर पुरुष गर्जते हुए बाजोंको आगे कर युद्धरूपी रंगभूमिमें प्रवेश कर रहे थे ।।११६।। धनुष धारण करनेवाले पुरुषोंने रणरूपी रंगभूमिमें सबसे पहले अपना स्थान जमाकर जो तीक्ष्ण बाणोंका समूह छोड़ा था वह ऐसा जान पड़ता था मानो उन्होंने पुष्पांजलि ही बिखेरी हो ॥११७॥ वे धनुषपर चढ़ाये हुए बाण सदा दुष्टोंके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार दुष्ट तीक्ष्ण अर्थात् क्रूर स्वभाववाले होते हैं उसी प्रकार वे बाण भी तीक्ष्ण अर्थात् पैने थे, जिस प्रकार दुष्ट मर्मभेदन करते हैं उसी प्रकार बाण भी मर्मभेदन करते थे, जिस प्रकार दुष्ट कलह करनेवाले होते हैं उसी प्रकार बाण भी कलह करनेवाले थे और जिस प्रकार दुष्ट पहले मधुर वचन कहकर फिर भीतर घुस जाते हैं उसी प्रकार वे बाण भी मनोहर शब्द १ कृत्वा । २ मकरसमूहरचनाविशेषम् । ३ विनाशक इत्यर्थः । ४ निर्घोष भीषणं यथा भवति तथा । ५ विभक्त्यात्म-प०, ल०। ६ प्राप्त । ७ अष्टचन्द्राख्याः । ८ बाणैः । ९ क्रियाविशेषणम् । उत्प्लवनसहितं यथा । १० आली ढप्रत्याल ढादि । ११ क्षिप्तः। १२. निशात । १३ शरीरं प्रवेशिनः । १४ बाणः । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व उभयोः 'पार्श्वयोर्बध्वा बाणधी कृतबलानाः । धन्विनः खेचराकारा रेजुराजौ जितश्रमाः ॥११६॥ ऋजुत्वाद दरदर्शित्वात् सद्यः कार्यप्रसाधनात् । शास्त्रमार्गानुसारित्वात् शराः सुसचिवैः समाः॥१२०॥ क्रव्यास्रपायिनःः पत्रवाहिनो दूरपातिनः । लक्ष्येषड्डीय तीक्ष्णास्याः खगाः पेतुः खगोपमाः ॥१२॥ धर्मेण गुणयुक्तेन प्रेरिता हृदयं गता । शूरान् शुद्धिरिवानषीद" गतिं पत्रिपरम्परा' ॥१२२॥ पुंसां संस्पर्शमात्रेण हृद्गता रक्तवाहिनी । क्षिप्रं न्यमीलयनेने वेश्येव विशिखावली ॥१२३॥ त्यक्त्वेशं खेचरातातिवृष्टौ' गृधृतमस्ततौ । परोऽन्विष्य शराबल्या जारयेव वशीकृतः ॥५२४॥ करते हुए पीछेसे भीतर घुस जाते थे ॥११८॥ जो दोनों बगलोंमें तरकस वाँधकर उछल-कूद कर रहे हैं तथा जिन्होंने परिश्रमको जीत लिया है ऐसे धनुषधारी लोग उस युद्ध में पक्षियोंके समान सुशोभित हो रहे थे ॥११९॥ और बाण अच्छे मन्त्रियोंके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार अच्छे मन्त्री ऋजु अर्थात् सरल ( मायाचाररहित ) होते हैं उसी प्रकार बाण भी सरल अर्थात् सीधे थे, जिस प्रकार अच्छे मन्त्री दूरदर्शी होते हैं अर्थात् दूरतककी बातको सोचते हैं उसी प्रकार बाण भी दूरदर्शी थे अर्थात् दूर तक जाकर लक्ष्यभेदन करते थे, जिस प्रकार अच्छे मन्त्री शीघ्र ही कार्य सिद्ध करनेवाले होते हैं उसी प्रकार बाण भी शीघ्र करनेवाले थे अर्थात् जल्दीसे शत्रुको मारनेवाले थे और जिस प्रकार अच्छे मन्त्री शास्त्रमार्ग अर्थात् नीतिशास्त्रके अनुसार चलते हैं उसी प्रकार बाण भी शास्त्रमार्ग अर्थात् धनुषशास्त्रके अनुसार चलते थे । १।१२०॥ मांस और खूनको पीनेवाले, पंख धारण करनेवाले, दूर तक जाकर पड़नेवाले और पैने मुखवाले वे बाण पक्षियोंके समान उड़कर अपने निशानोंपर जाकर पड़ते थे। भावार्थ-वे बाण पक्षियोंके समान मालूम होते थे, क्योंकि जिस प्रकार पक्षी मांस और खून पीते हैं उसी प्रकार बाण भी शत्रुओंका मांस और खून पीते थे, जिस प्रकार पक्षियोंके पंख लगे होते हैं उसी प्रकार बाणोंके भी पंख लगे थे, जिस प्रकार पक्षी दूर जाकर पड़ते हैं उसी प्रकार बाण भी दूर जाकर पड़ते थे और जिस प्रकार पक्षियोंका मुख तीक्ष्ण होता है उसी प्रकार बाणोंका मुख ( अग्रभाग ) भी तीक्ष्ण था। इस प्रकार पक्षियोंकी समानता धारण करनेवाले बाण उड़-उड़कर अपने निशानोंपर पड़ रहे थे ॥१२१॥ जिस प्रकार गुणयुक्त धर्मके द्वारा प्रेरणा की हुई और हृदयमें प्राप्त हुई विशुद्धि पुरुषोंको मोक्ष प्राप्त करा देती है उसी प्रकार गुणयुक्त ( डोरी सहित ) धर्म ( धनुष ) के द्वारा प्रेरणा की हई और हृदयमें चुभी हुई बाणोंकी पंक्ति शूरवीर पुरुषोंको परलोक पहुँचा रही थी ॥१२२॥ जिस प्रकार हृदयमें प्राप्त हुई और रक्तव अर्थात् अनुराग धारण करनेवाली अथवा रागी पुरुषोंको वश करनेवाली वेश्या स्पर्शमात्रसे ही पुरुषोंके नेत्र बन्द कर देती है उसी प्रकार हृदयमें लगी हुई और रक्तवाहिनी अर्थात् रुधिरको बहानेवाली बाणोंकी पंक्ति स्पर्शमात्रसे शीघ्र ही पुरुषोंके नेत्र बन्द कर देती थी - उन्हें मार डालती थी ॥१२३॥ जिस प्रकार बहुत वर्षा होने और अन्धकारका समूह छा जानेपर १ निजशरीरपाययोः । २ इषुधी द्वौ। ३ पक्षे सदृशाः । ४ युद्धे । ५ चापशास्त्रोक्तक्रमेण । प्रयोक्तृमार्गशरणत्वात् । ६ बाणाः । ७ मन्त्रिभिः । ८ क्रव्यासक्पायिनः ट० । आममांसरक्तभोजिनः । ९ पत्रवहन्ति गच्छन्तीति पत्रवाहिनः । १० बाणाः । 'शरार्कविहगाः खगाः'। ११ पक्षिसदृशाः । १२ धनुषा । १३ ज्यासहितेन । अतिशययुक्तेन च । १४ विशुद्धिपरिणाम इव । १५ आनयति स्म। १६ शरसन्तति । १७ रक्तं प्रापयन्ती । आत्मन्यनुरवतं प्रापयन्ती च । १८ इतोऽग्रे पुनः 'आरा' नगरात् समायातटिप्पणपुस्तकात टिप्पणसमुद्धारः क्रियते । १९ उपरिस्थितखेचररुधिरवर्षे । -२० दाक्षाय्यतमसमहे । 'आतापिचिल्लो दाक्षाय्यगृद्धी' इत्यभिधानात् । *भावे क्तः । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ आदिपुराणम् प्रगुणा मुष्टि संवाह्या दूरं दृष्टयनुवर्तिनः । गवेष्टं साधयन्ति स्म सद्भुत्या इव सायकाः ॥१२५॥ प्रयोज्याभिमुखं तीक्षणान् बाणान् परशरान्प्रति । तत्रैव पातयन्ति स्म धानुष्काः सा हि धार्धियाम् ॥ जाताश्चापताः केचिदन्योन्यशरखण्डने । ब्यापृताः श्लाषिताः पूर्व रणे किंचित्करोपमाः ॥१२॥ हस्त्यश्वरथपत्त्यौवमुद्भिद्यास्पष्टलक्ष्यवत् । शराः पेतुः स्वपातमवास्ता दृढमुष्टिभिः ॥१२८॥ पूर्व विहितसन्धानाः स्थित्वा किंचिच्छरासने । यानमध्यास्य मध्यस्था १ द्वैधीभावमुपागता ॥ विग्रह हतशक्तित्वादगत्या शत्रुसंश्रयाः। बाणा गुणितषाड्गुण्या इव सिद्धि प्रपेदिरे ॥१३०॥ व्यभिचारिणी स्त्री अपना पति छोड़ किसी परपुरुषको खोजकर वश कर लेती है उसी प्रकार विद्याधरोंके खूनको बहुत वर्षा होने और गृद्ध, पक्षीरूपी अन्धकारका समूह फैल जानेपर बाणोंकी पंक्ति अपने स्वामीको छोड़ खोज-खोजकर शत्रुओंको वश कर रही थी ॥१२४॥ अथवा वे बाण अच्छे नौकरों के समान दूर-दरतक जाकर इष्ट कार्योंको सिद्ध करते थे क्योंकि जिस प्रकार अच्छे नौकर प्रगण अर्थात् श्रेष्ठ गणोंके धारक अथवा सीधे होते हैं उसी प्रकार बाण भी प्रगुण अर्थात् सीधे अथवा श्रेष्ठ डोरीसे सहित थे, अच्छे नौकर जिस प्रकार मुट्ठियोंसे दिये हुए अन्नपर निर्वाह करते हैं उसी प्रकार वे बाण भी मुट्ठियों-द्वारा चलाये जाते थे और अच्छे नौकर जिस प्रकार मालिककी दृष्टिके अनुसार चलते हैं उसी प्रकार वे बाण भी मालिककी दृष्टिके अनुसार चल रहे थे ॥१२५॥ धनुषको धारण करनेवाले योद्धा जहाँ-जहाँ शत्रुओंके बाण थे वहीं-वहीं देखकर अपने पैने बाण फेंक रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि शत्रुओंकी वैसी ही बुद्धि होती है ।।१२६॥ जो बाण एक दूसरेके बाणोंको तोड़नेके लिए चलाये गये थे, धारण किये गये थे अथवा उस व्यापार में लगाये गये थे वे युद्ध में नौकरोंके समान सबसे पहले प्रशंसाको प्राप्त हुए थे ॥१२७॥ मजबूत मुट्टियोंवाले योद्धाओंके द्वारा छोड़े हुए बाण अस्पष्ट लक्ष्यके समान दिखाई नहीं पड़ते थे और हाथी. घोडे. रथ तथा पियादोंके समहको भेदन कर अपने पड़नेसे स्थानपर ही जाकर पड़ते थे ।।१२८॥ जिस प्रकार सन्धि विग्रह आदि छह गुणोंको धारण करनेवाले राजा सिद्धिको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार वे बाण भी सन्धि आदि छह गुणोंको धारण कर सिद्धि को प्राप्त हो रहे थे क्योंकि जिस प्रकार राजा पहले सन्धि करते हैं उसी प्रकार वे बाण भी पहले डोरीके साथ सन्धि अर्थात् मेल करते थे, जिस प्रकार राजा लोग अपनी परिस्थिति देखकर कुछ समय तक ठहरे रहते हैं उसी प्रकार वे बाण भी धनुषपर कुछ देर तक ठहरे रहते थे, जिस प्रकार राजा लोग युद्धके लिए अपने स्थानसे चल पड़ते हैं उसी प्रकार वे बाण भी शत्रुको मारनेके लिए धनुषसे चल पड़ते थे, जिस प्रकार राजा लोग मध्यस्थ बनकर द्वैधीभावको प्राप्त होते हैं अर्थात् भेदनीति-द्वारा शत्रुके संगठनको छिन्नभिन्न कर डालते हैं उसी प्रकार वे बाण भी मध्यस्थ ( शत्रुके शरीरके मध्य में स्थित ) हो द्वैधीभावको प्राप्त होते थ अथात् शत्रुकं टुकड़े-टुकड़े कर डालते थे और अन्तमें राजा लोग जिस प्रकार युद्ध करनेकी १ अवक्राः । २ मुष्टिना संवाह्यन्ते गम्यन्तै मुष्टिसंवाह्याः । आज्ञावशवतिनश्च । ३ नयनरनुवर्तमानाः आलोकनमात्रेण प्रभोरभिप्रायं ज्ञात्वा कार्यकराश्च । ४ यत्र शत्रुशराः स्थितास्तत्रैव । ५ सैव परशरखण्डनरूपा । ६ बुद्धीनां मध्ये । धीद्विषाम् ल० । ७ बाणाः । ८ किङ्करसमानाः । ९ अस्पृष्टलक्ष्यवत् । १० स्वयोग्यपतनस्थानं गत्ववेत्यर्थः । ११ क्षिप्ताः । १२ कृतसंयोजनाः कृतसन्धयश्च । १३ चापे क्षेत्रे च । १४ गमनमध्यास्य । १५ मध्यस्थाः सन्तः । १६ द्विधाखण्डनत्वम्, पक्षे उभयत्राश्रयत्वम् । १७ वविक्रमभावे। अथवा शरीरे । १८ अभ्यस्त । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ३९९ धारा वीररसस्येव रेजे रक्तस्य कस्यचित् । पतन्ती सततं धैर्यादाश्वनूत्पाटिताशुगम् ॥१३१॥ 'सायकोद्मिनमालोक्य कान्तस्य हृदयं प्रिया । परासुरासीच्चित्तेऽस्य वदन्तीवात्मनः स्थितिम् ॥१३२॥ छिन्नदण्डैः फलैः कश्चित् सर्वाङ्गीणैर्मटाग्रणीः । कीलितासुरिवाकम्प्रस्तथैव युयुधे चिरम् ॥१३३॥ विलोक्य विलयज्वालि ज्वालालोलशिखोपमैः । शिलीमुखैबलं छिन्नं स्वं विपक्षधनुर्धरैः ॥१३४॥ गृहीत्वा वज्रकाण्डाख्यं सज्जीकृत्य शरासनम् । स्वयं योद्धं समारब्धं सक्रोधः सानुजो जयः ॥१३५॥ 'कर्णाभ्यीकृतास्तस्य गुणयुक्ताः सुयोजिताः । पत्रैलघुसमुस्थानाः कालक्षेपाविधायिनः ॥१३॥ मार्गे प्रगुणसञ्चाराः प्रविश्य हृदयं द्विषाम् । कृच्छ्रार्थं साधयन्ति स्म 'निस्सृष्टार्थसमाः शराः ॥१३७॥ पत्रवन्तः प्रतापोग्राः समग्रा विग्रहे द्रुताः । अज्ञातपातिनश्चक्रुः कूटयुद्धं शिलीमुखाः ॥१३८॥ सामर्थ्यसे रहित शत्रुको वश कर लेते हैं उसी प्रकार वे बाण भी शत्रुको वश कर लेते थे॥१२९१३०॥ निकाले हुए बाणके पीछे बहुत शीघ्र धीरतासे निरन्तर पड़ती हुई किसी पुरुषके रुधिरको धारा वीररसकी धाराके समान सुशोभित हो रही थी ॥१३१।। कोई स्त्री अपने पतिका हृदय बाणसे विदीर्ण हआ देखकर प्राणरहित हो गयी थी मानो वह कह रही थी कि मेरा निवास इसीके हदय में है ॥१३२।। जिनके दण्ड टूट गये हैं और जो सब शरीर में घुस गये हैं ऐसे बाणोंकी नोकोंसे जिसके प्राण मानो कीलित कर दिये गये हैं ऐसा कोई योद्धा पहलेकी तरह ही निश्चल हो बहुत देर तक लड़ता रहा था ॥१३३।। शत्रुओंके धनुषधारी योद्धाओंने प्रलयकालकी जलती हुई अग्निकी चंचल शिखाओंके समान तेजस्वी बाणोंके द्वारा मेरी सेनाको छिन्नभिन्न कर दिया है यह देख जयकुमारने अपने छोटे भाइयों सहित क्रोधित हो वजूकाण्ड नामका धनुष लिया और उसे सजाकर स्वयं युद्ध करना प्रारम्भ किया ॥१३४-१३५।। उस समय जयकुमारके बाण निःसृष्टार्थ ( उत्तम ) दूतके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार उत्तम दूत स्वामीके कानके पास रहते हैं अर्थात् कानसे लगकर बातचीत करते हैं उसी प्रकार बाण भी जयकुमारके कानके पास रहते थे अर्थात् कान तक खींचकर छोड़े जाते थे, जिस प्रकार उत्तम दूत गुण अर्थात् रहस्य रक्षा आदिसे युक्त होते हैं उसी प्रकार बाण भी गुण अर्थात् डोरीसे युक्त थे, जिस प्रकार उत्तम दूतकी योजना अच्छी तरह की जाती है उसी प्रकार बाणोंकी योजना भी अच्छी तरह की गयी थी, जिस प्रकार उत्तम दूत पत्र लेकर जल्दी उठ खडे होते हैं उसी प्रकार बाण भी अपने पंखोंसे जल्दी-जल्दी उठ रहे थे-जा रहे थे, जिस प्रकार उत्तम दत व्यर्थ समय नहीं खोते हैं उसी प्रकार बाण भी व्यर्थ समय नहीं खोते थे. जिस प्रकार उत्तम दूत मार्गमें सीधे जाते हैं उसी प्रकार बाण भी मार्गमें सीधे जा रहे थे और जिस प्रकार उत्तम दूत शत्रुओंके हृदयमें प्रवेश कर कठिनसे कठिन कार्यको सिद्ध कर लेते हैं उसी प्रकार बाण भी शत्रुओंके हृदयमें घुसकर कठिनसे कठिन कार्य सिद्ध कर लेते थे ॥१३६-१३७॥ अथवा ऐसा १ सायिकोद्भिन्न-ल० । २ सर्वाङ्गव्यापिभिः । ३ प्रलयाग्नि । ४ छन्नमित्यपि पाठः । छादितं खण्डितं वा। ५ आत्मीयम् । ६ आकर्णमाकृष्टाः । कर्णसमीपे कृताश्च । ७ पक्षैः सन्देशपत्र: । ८ आशुविधायिन इत्यर्थः । ९ हृदयम् अभिप्रायं च । १० असाध्यार्थम् । ११ असकृत् सम्पादितप्रयोजनदूतसमाः । १२ प्रकृष्टसन्तापभीकराः। भयङ्कराः । राजाओंके छह गुण ये हैं-"सन्धिविग्रहयानानि संस्थाप्यासन मेव च । द्वैधीभावश्च विज्ञेयः षड्गुणा नीतिवेदिनाम् ।" + जो दोनोंका अभिप्राय लेकर स्वयं उत्तर-प्रत्युत्तर करता हुआ कार्य सिद्ध करता है। उसे निःसृष्टार्थ दूत कहते हैं । यह दूत उत्तम दूत कहलाता है। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् प्रस्फुरद्भिः फलोपेतैः सुप्रमाणैः सुकल्पितैः । विरोधोद्भाविना विश्वगोचरैर्विजयावहैः ॥ १३९ ॥ वादिनेव जयेनोच्चैः कीर्ति क्षिप्रं जिघृक्षुणा । प्रतिपक्षः प्रतिक्षिप्तः ' शस्त्रैः शास्त्रैर्जिगीषुणा ॥१४०॥ खगाः खगान्प्रति प्रास्ताः प्रोद्भिद्य गगनं गताः । निवर्तन्ते न यावत्ते ते भियेवापतन्मृताः ॥१४१॥ सुतीक्ष्णा वीक्षणाभीलाः प्रज्वलन्तः समन्ततः । मूर्द्धस्वशनिवत्पेतुः खाद् विमुखाः खगैः शराः ॥ १४२॥ शरसङ्घातसञ्छन्नान् गृध्रपक्षान्धकारितान् । अदृष्टमुद्गरापात नभोगा नमसो व्यधुः ॥ १४३ ॥ ४०० 13 काण्डमृत्युश्च'' काण्डैरापाद्यतादिमें" । युगेऽस्मिन् किं किमस्तांशुभासिभिर्नाशुभं भवेत् ॥ १४४॥ दूरपाताय नो किन्तु दृढपाताय खेचरैः । खगाः कर्णान्तमाकृष्य मुक्ता " हन्युद्विपादिकान् ॥ १४५ ॥ अधोमुखाः खगैर्मुक्ता रक्तपानात् पलाशनात् ' | पृषत्काः सहसो वेयुर्नरकं वाऽवनेरधः " ॥ १४६॥ १५ १६ जान पड़ता था मानो वे बाण कपट युद्ध कर रहे हों क्योंकि जिस प्रकार कपट युद्ध करनेवाले पत्रवंत अर्थात् सवारी सहित और प्रतापसे उग्र होते हैं उसी प्रकार वे बाण भी पत्रवंत अर्थात् पंखों सहित और अधिक सन्तापसे उग्र थे, जिस प्रकार कपटयुद्ध करनेवाले युद्ध में शीघ्र जाते हैं और सबसे आगे रहते हैं उसी प्रकार वे बाण भी युद्ध में शीघ्र जा रहे थे और सबसे आगे थे तथा कपट युद्ध करनेवाले जिस प्रकार बिना जाने सहसा आ पड़ते हैं उसी प्रकार वे बाण भी बिना जाने सहसा आ पड़ते थे ।। १३८ || जिस प्रकार विजयके द्वारा उत्तम कीर्तिको शीघ्र प्राप्त करनेवाला और जीतने की इच्छा रखनेवाला वादी प्रकाशमान, अज्ञाननाशाद्रि फलोंसे युक्त, उत्तम प्रमाणोंसे सहित अच्छी तरह रचना किये हुए, संसारमें प्रसिद्ध और विजय प्राप्त करानेवाले शास्त्रोंसे विरोधी प्रतिवादीको हराता है उसी प्रकार विजयके द्वारा शीघ्र ही उत्तम कीर्ति सम्पादन करनेवाले, जीतनेकी इच्छा रखनेवाले तथा विरोध प्रकट करनेवाले जयकुमारने देदीप्यमान, नुकीले, प्रमाणसे बने हुए, अच्छी तरह चलाये हुए, संसार में प्रसिद्ध और विजय प्राप्त करानेवाले शस्त्रोंसे शत्रुओंकी सेना पीछे हटा दी थी १३९- १४० ।। जयकुमारने विद्याधरोंके प्रति जो बाण चलाये थे वे आकाशको भेदन कर आगे चले गये थे और वहाँसे वे जबतक लौटे भी नहीं थे तबतक वे विद्याधर मानो भयसे ही डरकर गिर पड़े थे ॥ १४१ ॥ जो अत्यन्त तीक्ष्ण हैं, देखने में भयंकर हैं, और चारों ओरसे जल रहे हैं आकाशसे छोड़े हुए बाण योद्धाओंके मस्तकोंपर वज्रके समान पड़ रहे || १४२|| जो बाणोंके समूहसे ढक गये हैं, गीधके पंखोंसे अन्धकारमय हो रहे हैं और जिन्हें मुद्गरोंके आघात तक दिखाई नहीं पड़ते हैं ऐसे योद्धाओंको विद्याधर लोग आकाशसे घायल कर रहे थे || १४३ || इस युगमें उन तीक्ष्ण बाणोंने सबसे पहले अकालमृत्यु उत्पन्न की थी सो ठीक ही है क्योंकि जिन्होंने सूर्यका प्रताप भी कम दिया है ऐसे लोगोंसे क्या-क्या अशुभ काम नहीं होते हैं ? || १४४ || दूर जानेके लिए नहीं किन्तु मजबूती के साथ पड़नेके लिए विद्याधरोंने जो बाण कान तक खींचकर छोड़े थे उन्होंने बहुत-से हाथी आदिको मार डाला था ।। १४५ || जिस प्रकार रक्त पीने और मांस खानेसे पापी जीव नीचा मुख कर नरकमें जाते हैं उसी प्रकार विद्याधरों ।। ऐसे विद्याधरोंके द्वारा थे १ निराकृतः । २ बाणाः । ३ विद्याधरान् । ४ मुक्ताः । ५ विद्याधराः । ६ दर्शने भयावहाः । ७ मुद्गराघातान् ल०, म० । ८ गगनमाश्रित्य । ९ अकाल । १० बाणैः । ११ उत्पादित । १२ 'अस्त्राशुगाशिभिः' इति पाठे अस्त्राण्ये - वाशिनः पवनाशनाः तैः सरित्यर्थः । 'आशुगो वायुविशिखो' इत्यभिधानात् । १३ न । १४ घ्नन्ति स्म । १५ मांसाशनात् । १६ सपापाः । १७ वा इव । ईयुः गच्छन्ति स्म । १८ भूमेरधः स्थितम् । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पव 'भूमिष्ठैर्निष्ठुरं क्षिप्ताद्विष्टानुत्कृष्य यष्टयः । ययुर्दूरं दिवं दूतीदेशीया दिव्ययोषिताम् ॥ १४७ ॥ चक्रिणश्चक्रमे 'तन ततः कस्यचित्क्षतिः । 'चरकालचक्राभैर्बहवस्तत्र जघ्निरे ॥ १४८ ॥ ४०१ .११ समवेगैः” समं” मुक्तैः शरैः खचरभूचरैः । व्योम्न्यन्योन्यमुखालग्नैः स्थितं कतिपयक्षणे ॥ १४३ ॥ खभूचरशरैश्च्छने खे परस्पररोधिभिः । अन्योन्यावीभणात्तेषामभूद् रणनिषेधनम् ॥ १५० ॥ स्त्रास्त्रै:" शस्त्रैर्नभोगानां शरैश्चाबाधितं भृशम् । स्वसैन्यं वीक्ष्य खोत्क्षिप्त वीक्षणोप्रा शुशुक्षणिः " ॥ १५१ ॥ सद्यः संहारसंक्रुद्धसमवर्तिसमो जयः । प्रारब्ध' योद्धुं वज्रेण वज्रकाण्डेन वज्रिवत् ॥ १५२ ॥ निर्जिताशनिनिर्घोषजयज्याघोषभीलुकाः" । चीपसायकचेतांसि प्राक्षिपन् सह शत्रवः ॥ १५३ ॥ चापमाकर्णमाकृष्य ज्यानिवेशितसायकः । लघुसंधानमोक्षः सोऽवेक्ष्य विध्यशिव क्षणम् ॥ १५४ ॥ न मध्ये न शरीरेषु दृष्टास्तयोजिताः शराः । दृष्टास्ते केवलं भूमौ सत्रणाः पतिताः परे ॥ १५५ ॥ निमीलयन्तश्चक्षूंषि ज्वलयन्तः शिलीमुखाः । मुखानि ककुभां वभ्रुः "खादुल्कालीविभीषणाः ॥१५६॥ २३ २४ पापी हो नीचा मुख कर पृथिवीभूमिगोचरियों द्वारा निर्दयता के के द्वारा छोड़े हुए बाण शत्रुओंका रक्त पीने और मांस खानेसे के नीचे जा रहे थे - जमीनमें गड़ रहे थे || १४६ | इसी प्रकार साथ छोड़े हुए बाण शत्रुओंको भेद कर आकाशमें बहुत दूर तक इस प्रकार जा रहे थे मानो देवांगनाओं की दासियाँ ही हों ॥ १४७ ॥ चक्रवर्तीका चक्र तो एक ही होता है उससे किसीकी हानि नहीं होती परन्तु उस युद्ध में अकाल चक्रके समान बहुत-से चक्रोंसे अनेक जीव मारे गये थे ।। १४८ ॥ विद्याधर और भूमिगोचरियोंके द्वारा एक साथ छोड़े हुए समान वेगवाले बाण आकाशमें एक दूसरेके मुखसे मुख लगाकर कुछ देर तक ठहर गये थे || १४९ ॥ परस्पर एक दूसरेको रोकनेवाले विद्याधर और भूमिगोचरियोंके बाणोंसे आकाश ढक गया था और इसीलिए एक दूसरेके न दिख सकनेके कारण उनका युद्ध बन्द हो गया था ।। १५० ।। अपने और शत्रुओंके शस्त्रों तथा विद्याधरोंके बाणोंसे अपनी सेनाको बहुत कुछ घायल हुआ देखकर नेत्ररूपी भयंकर अग्निको आकाशकी ओर फेंकनेवाला और संहार करनेके लिए कुपित हुए यमराजकी समानता धारण करनेवाला जयकुमार इन्द्रकी तरह वज्रकाण्ड नामके धनुषसे युद्ध करनेके लिए तैयार हुआ ।। १५१ - १५२ ॥ वज्रकी गर्जनाको जीतनेवाले जयकुमारके धनुषकी डोरीके शब्द मात्रसे डरे हुए कितने ही शत्रुओंने धनुष, बाण और हृदय - सब फेंक दिये । भावार्थं-भयसे उनके धनुष-बाण गिर गये थे और हृदय विक्षिप्त हो गये थे ।। १५३ ॥ ॥ कान तक धनुष खींचकर जिसने डोरीपर बाण रखा है और जो बड़ी शीघ्रतासे बाणोंको रखता तथा छोड़ता है ऐसा जयकुमार क्षण भरके लिए ऐसा जान पड़ता था मानो प्रहार ही नहीं कर रहा हो अर्थात् बाण चला ही नहीं रहा हो ॥ १५४ ॥ जयकुमारके द्वारा चलाये हुए बाण न बीचमें दिखते थे, और न शरीरमें ही दिखाई देते थे, केवल घावसहित जमीनपर पड़े हुए शत्रु ही दिखाई देते थे ॥ १५५ ॥ जो देखनेवालोंके नेत्र बन्द कर रहे हैं, सबको जला रहे हैं और उल्काओंके समूहके समान भयंकर हैं ऐसे जयकुमारके बाणोंने दिशाओंके मुख ढक लिये थे 1 १ भूमौ स्थितैः । २ शत्रून् । ३ उद्भिद्य । ४ बाणाः । ५ दूतीसदृशाः । ६ - मेकान्तं न ल० । ७ चक्रात् । ८ समन्तात् कृतान्तसमूहसमानैः । ९ हताः । १० उभयत्रापि समानजवैः । ११ युगपत् । १२ खेचर-ल०, अ०, प०, स०, इ० । १३ - क्षणात् ल०, अ०, प०, स०, इ० । १४ परस्परावलोकनाभावात् । १५ आत्मीयानात्मीयैः । स्वास्त्रः अ० । १६ अग्निः । १७ संहारार्थं कुपितयमसदृश: । १८ उपक्रान्तवान् । १९ भीरवः । २० त्यक्तवन्तः । २१ दृष्टः । २२ शरान्नमुच्चन्निव । २३ वेष्टयन्ति स्म । २४ गगनान्निर्गच्छन्त इत्यर्थः । २५ उल्कासमूहभीकराः । ५१ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १२ तिर्यग्गोफणपाषाणैर' दृष्ट्वाज्यजिरा बहिः । पातितान् खचरानृचुः सतन्न् स्वर्गतान् जडाः ॥ १५७ ॥ शरसंरुग्ण विद्यान्मुकुटेभ्योऽगलन् सुरैः । मणयो गुणगृह्यैर्वा जयस्योपायनीकृताः ॥ १५८ ॥ पतन्मृतखगान्वीत प्रियाभिः स्वाश्रुवारिणा । 'वारिदानमिवाचर्य कृपामासादितो जयः ॥ १५६ ॥ अन्तकः समवर्तीति" तद्वाव न चेत्तथा । कथं चक्रिसुतस्यैव बले प्रेताधिपो " भवेत् ॥ १६० ॥ वधं विधाय न्यायेन जयेनान्यायवर्तिनाम् । यमस्तीक्ष्णोऽप्यभूद्धर्मस्तत्र दिव्यानलोपमः ॥ १६१ ॥ "तावद्वेषित निर्घोषैमीपयन्तो द्विषो हयाः । बलमाश्वासयन्तः स्वं स्वीचक्रुश्चाक्रिसूनवः ॥ १६२ ॥ प्रासान्प्रस्फुरतस्तीक्ष्णानभीक्ष्णं वाहवाहिनः | आवर्तयन्तः संप्रापन् यमस्येवाग्रगा भटाः ॥ १६३॥ जयोऽपि स्वयमारुह्य जय जयतुरङ्गमम् । क्रुद्धः प्रासान् समुद्धृत्य योद्मश्वीयमादिकान् ॥ १६४ ॥ ॥ अभूत् प्रहतगम्भीरभम्भा" दिध्वनिभीषणः । बलार्णवश्चलत्स्थूलकल्लोल इव वाजिभिः ॥ १६५ ॥ १५ ५६ १७ ४०२ ॥१५६॥ तिरछे जानेवाले गोष्फण रूप पत्थरोंके द्वारा युद्ध के आँगन से बाहर गिराये हुए विद्याधको न देखकर मूर्ख लोग कहने लगे थे कि देखो विद्याधर शरीर सहित ही स्वर्ग चले गये हैं। ॥ १५७ ॥ बाणोंकी चोटसे छिन्न-भिन्न हुए विद्याधरोंके मुकुटोंसे जो मणि गिर रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो गुणोंसे वश होनेवाले देवोंने जयकुमारको भेंट ही किये हों ।। १५८ ।। गिर - गिरकर मरे हुए विद्याधरोंके साथ आयी हुई स्त्रियाँ अपने अश्रुरूपी जलसे जो उन्हें जलांजलि -सी दे रही थीं उसे देखकर जयकुमारको दया आ गयी थी || १५९ || यमराज समवर्ती है अर्थात् सबको समान दृष्टिसे देखता है यह केवल कहावत ही है यदि ऐसा न होता तो वह केवल चक्रके पुत्र अर्ककीर्तिकी सेनामें ही क्यों प्रेतोंका राजा होता ? अर्थात् उसीकी सेनाको क्यों मा ? || १६० ॥ जयकुमारके द्वारा अन्यायमें प्रवृत्ति करनेवाले लोगोंको वध कराकर वह तीक्ष्ण यमराज भी उस युद्धमें दिव्य अग्निके समान धर्मस्वरूप हो गया था । भावार्थ- पूर्वकालमें साक्षी आदिके न मिलनेपर अपराधीकी परीक्षा करनेके लिए उसे अग्निमें प्रविष्ट कराया जाता था, अथवा जलते हुए अंगार उसके हाथपर रखाये जाते थे । अपराधी मनुष्य उस अग्नि जल जाते थे परन्तु अपराधरहित मनुष्य सीता आदिके समान नहीं जलते थे । उसी आगको दिव्य अग्नि कहते हैं सो जिस प्रकार दिव्य अग्नि दुष्ट होनेपर भी अपराधीको ही जलाती है अपराधरहितको नहीं जलाती उसी प्रकार यमराजने दुष्ट होकर भी अन्यायी मनुष्यों का ही वध कराया न कि न्यायी मनुष्योंका भो, इसलिए वह यमराज दुष्ट होनेपर भी मानो उस समय दिव्य अग्निके समान धर्मस्वरूप हो गया था ।। १६१ ॥ इतनेमें ही हिनहिनाहटके शब्दोंसे शत्रुओंको डराते हुए और अपनी सेनाको धीरज बँधाते हुए चक्रवर्तीके पुत्र - अर्क कीर्तिके घोड़े सामने आये ॥ १६२ ॥ यमराजके अग्रगामी योद्धाओंके समान देदीप्यमान और पैने भालोंको बार-बार घुमाते हुए घुड़सवार भी सामने आये ॥ १६३ ॥ विजय करनेवाले जयकुमारने भी क्रोधित हो, जयतुरंगम नामके घोड़ेपर सवार होकर अपनी घुड़सवार सेनाको भाला लेकर युद्ध करनेकी आज्ञा दी || १६४ || घोड़ोंके द्वारा जिसमें चंचल और बड़ी-बड़ी लहरें -सी उठ रही हैं ऐसा वह सेनारूपी समुद्र बजते हुए गम्भीर नगाड़े आदिके शब्दों १ शस्त्रविशेषः । २ रणाङ्गणात् । ३ पतितान् ल०, स० अ० म० । ४ स्वर्गं गतान् । ५ भुग्न । ६ गलन्ति स्म । ७ गतप्राणविद्याधरानुगत । ८ जलाञ्जलिम् । ९ विधाय । १० बालवृद्धादिपु हननक्रियायां समानेन वर्तमानः ॥ ११ यमः । १२ अन्तकः । १३ जये । १४ शपथाग्निसमः । १५ अश्वनिनाद | १६ चक्रिसूनोः संबन्धिनः । १७ अश्वारोहाः । १८ भम्भेत्यनुकरणम् । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व असिसंघनिष्ठ्यतविस्फुलिङ्गो रणेऽनलः । भीषणे शरसंवाते व्यदीपिष्ट' धराचिते ॥१६६॥ . वाजिनः प्राक्कशाघातादधावन्ताभिसायकम् । नियन्ते न सहन्ते हि परिभूतिं सतेजसः ॥१६७॥ स्थिताः पश्चिमपादाभ्यां बद्धामर्षाः परस्परम् । पति केचिदिवावन्तो युध्यन्ते स्म चिरं हयाः॥१६८॥ समुद्धतास्र संपृक्तलसल्लोलासितकैः । नमस्तरुरमाद् भूयस्तदा पल्लवितो यथा ॥१६९॥ पतितान्यसिनिर्घातात् सुदूरं स्वामिनां क्वचित् । शून्यासनाः शिरांस्युच्चैरन्वेष्टुं वा भ्रमन्हयाः ॥१७॥ पन् विशृङ्गान्मत्वाऽश्वान् कृपया कोऽपि नावधीत् । ते "स्वदन्तखुरैरेव क्रुद्धाः प्रानन्'पररपस्म् ॥ १२वंशमात्रावशिष्टाङ्गै मण्डलागैश्चिरं क्रुधा । लोहदण्डैरिवाखण्डैध/रा युयुधिरे धुरि ॥१७॥ 1"शिरःप्रहरगेनान्यो "पश्यन्नान्ध्यं प्रकुर्वता । सर्वरोगसिराविद्धो दृष्ट्वा पश्चादयुद्ध सः ॥१७३॥ हयान् प्रतिष्कशीकृत्य धनुस्तकपिशीर्षकम् । अवुध्यत पुनः सुष्टु तदा द्विगुणयद्रणम् ॥१७४॥ जयोऽयात् सानुजस्तावदाविष्कृत्य यमाकृतिः । कण्ठीरवमिवारुह्य हयमस्युद्यतः क्रुधा ॥१५॥ वाहयन्तं तमालोक्य कल्पान्तज्वालिभीषणम् । विवेश विद्विडश्वाली वेलेव स्वबलाम्बुधिम् ॥ से भयंकर हो रहा था ॥१६३॥ उस युद्ध में पृथिवीपर जो भयंकर बाणोंका समूह पड़ा हुआ था उसमें तलवारोंकी परस्परकी चोटसे निकले हुए फुलिंगोंसे अग्नि प्रज्वलित हो उठी थी ॥१६६॥ घोड़े कोड़ोंकी चोटके पहले हो बाणोंके सामने दौड़ रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी पुरुष मर जाते हैं परन्तु पराभव सहन नहीं करते ॥१६७।। परस्पर एक दूसरेपर क्रोधित हो पिछले पैरोंसे खड़े हुए कितने ही घोड़े चिरकाल तक इस प्रकार युद्ध कर रहे थे मानो अपने स्वामीकी रक्षा ही कर रहे हों ।।१६८॥ उस समय ऊपर उठायी हुई और रुधिरसे रंगी हुई तलवाररूपी चंचल पत्तोंसे आकाशरूपी वृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उसपर फिरसे नवीन पत्ते निकल आये हों ॥१६६॥ कहींपर खाली पीठ लिये घोड़े इस प्रकार दौड़ रहे थे मानो तलवारकी चोटसे बहुत दूर पड़े हुए अपने स्वामियोंके शिर ही खोज रहे हों ॥१७०॥ घोड़ोंको बिना सींगके पशु मानकर दयासे कोई नहीं मारता था परन्तु वे क्रोधित होकर दाँत और खुरोंसे एक दूसरको मारते थे ॥१७१॥ उस युद्ध में कितने ही योद्धा क्रोधित होकर अखण्ड लोहेके डण्डेके समान जिनमें बाँसमात्र ही शेष रह गया है ऐसी तलवारोंसे चिरकाल तक युद्ध करते रहे थे ॥१७२।। अन्य कोई योद्धा, अन्धा करनेवाली 'शिरकी चोटसे यद्यपि कुछ देख नहीं सक रहा था तथापि गलेकी पीछेकी नसोंसे शिरको जुड़ा हुआ देखकर वह फिर भी युद्ध कर रहा था ॥१७३।। उस समय कितने ही योद्धा घोड़ोंकी सहायता ले कपिशीर्षक नामक धनुषोंसे युद्धको द्विगुणित करते हुए अच्छी तरह लड़ रहे थे ॥१७४।। इतनेमें ही तलवार हाथमें लिये हुए जयकुमार अपने छोटे भाइयोंके साथ-साथ यमराज सरीखा आकार प्रकट कर और सिंहके समान घोड़ेपर सवार होकर क्रोधसे आगे बढ़ा ॥१७५॥ कल्पान्त कालकी अग्निके समान भयंकर जयकुमारको घोड़ेपर सवार हुआ देखकर शत्रुके घोड़ोंकी पंक्ति लहरके समान अपने सेनारूपी समुद्रमें जा घुसी ॥१७६॥ जिनपर पताकाएँ नृत्य कर रही हैं और वेगशाली घोड़े १ ज्वलति स्म । २ भूमावुपचिते । ३ आयुधस्याभिमुखम् । ४ बद्धक्रुधः । ५ रक्षन्तः । ६ युद्धन्ते - ल० । ७ तास्त्रस-ल०। ८ स्वामिरहितपृष्ठाः । ९ न हन्ति स्म । १० ते च दत्त-ल० । ११ घ्नन्ति स्म । १२ वेणु मात्रावशिष्टस्वरूपैः । १३ कौक्षेयक: 'कौक्षेयको मण्डलायः करवाल: कृपाणवत्' इत्यभिधानात् । १४ मस्तकघातेन । १५ किंचिदपि नालोकयन् । १६ गलस्य पश्चिमसिरान्तितः । १७ गलपश्चिमभागं करस्पर्शनालोक्य । १८ युयुधे । १९ सहायीकृत्य । 'प्रतिष्कश सहाये स्याद् वार्ताहरपरागयोः' इत्यभिधानात । २० चापविशेषः । धन्विन इत्यर्थः । २१ यमाकृतिम् ल । २२ उद्यतासिः सन् । २३ अश्वमारोहयन्तम् । २४ प्रलयाग्निवद्भयंकरम् । २५ शत्र वाजिसमूहः । २६ स्वसैन्यसोगरम् । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ आदिपुराणम् " १० चर्या नृत्यत्केतवो रथाः । जविभिर्व्याजिभिर्व्यूढा प्राधावन् विद्विषः प्रति ॥ १७७॥ निश्शेष हे तिपूर्णेषु रथेषु रथनायकाः । तुलां" "जगर्जुरारुह्य पिन्जरैः कुञ्जरारिभिः ॥ १७८ ॥ 'चक्रसंघट्टसंपिष्टशवासृग्मांसकर्दमे । रथकट्य (श्चरन्ति स्म 'तत्राब्धौ मन्दपोतवत् ॥१७६॥ कुन्ता सिप्रासचक्रादिसंकीर्णे वणितक्रमाः । अक्रामन् कृच्छ्रकृच्छ्रेण रणे रथतुरङ्गमाः ॥ १८० ॥ ता संनद्धसंयुक्तसर्वायुधभृतं रथम् । संक्रम्य २ वृषभं वाऽर्कः समारूढपराक्रमः ॥ १८१॥ पुरोश्चलत्ल मुस्स पंच्छरतीक्ष्णशुसंततिः । शत्रुसन्तमसं भिन्दन् बालार्कमजयज्जयः ॥ १८२॥ मण्डलासमुत्सृष्टदुष्टात्रः शस्त्रकर्मवित् । जयो भिषजमम्बैर्यः शत्रुशल्यं समुद्धरन् ॥ १८३॥ ध्वजस्योपरि धूमो वा तेनाकृष्टो " नु सायकः । पपात तापमापाच सूचयन्नशुभं द्विषाम् ॥ १८४ ॥ `वजदण्डान् समाखण्ड्य“विद्विषोऽन्वीतपौरुषान् । कुर्वन् सर्वान् स" निवंशान् सोमवंशध्वजायते ॥ १८५ ॥ विच्छिनकेतवः केचित् क्षणं तस्थुर्मृता इव । प्राणैर्न प्राणिनः किन्नु मानप्राणा हि मानिनः ॥ १८६॥ प्रज्वलन्तं "जयन्तं ते जयं तं सोदुमक्षमाः । सह सर्वेऽपि संपेतुरभ्यग्नि शलभा यथा ॥ १८७॥ १७ ** १४ १५ जिनमें जुते हैं ऐसे रथ चिरकाल में अपना नम्बर ( बारी ) पाकर शत्रुओंके प्रति दौड़ने लगे ॥ १७७॥ रथोंके स्वामी, सम्पूर्ण शस्त्रोंसे भरे हुए रथोंपर सवार हो पिंजरोंमें बन्द हुए सिंहों की तुलना धारण करते हुए गरज रहे थे || १७८ ।। उस युद्ध में पहियों के संघट्टनसे पिसे हुए मुरदों के खून और मांसकी कीचड़ में रथोंके समूह ऐसे चल रहे थे मानो किसी समुद्र में छोटी-छोटी नावें ही चल रही हों ।।१७६।। बरछा, तलवार, भाले और चक्र आदिसे भरे हुए युद्धक्षेत्र में घाय पैरोंवाले रथके घोड़े बड़े कष्टसे चल रहे थे ॥ १८० ॥ उसी समय तैयार हुए तथा जुड़े हुए सब' प्रकारके शस्त्रोंसे व्याप्त रथपर आरूढ़ होनेसे जिसका पराक्रम वृषभ राशिपर आरूढ़ हुए सूर्य के समान बढ़ रहा है, जिसके आगे चलते हुए बाणरूपी तीक्ष्ण किरणों का समूह प्रकाशमान हो रहा है और जो शत्रुरूपी अन्धकारका भेदन कर रहा है ऐसे उस जयकुमारने उदय होता हुआ बाल-सूर्य भी जीत लिया था ॥ १८१ - १८२ ॥ अथवा वह जयकुमार किसी अच्छे वैद्य या डाक्टरका अनुकरण कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार वैद्य शस्त्रकी नोंकसे बिगड़ा हुआ खून निकाल देता है उसी प्रकार वह जयकुमार भी तलवारकी नोंकसे दुष्ट - शत्रुओं का खून निकाल रहा था, जिस प्रकार वैद्य शस्त्र चलानेकी क्रियाको जानता है उसी प्रकार वह जयकुमार भी शस्त्र चलानेकी क्रिया जानता था और वैद्य जिस प्रकार शल्यको निकाल देता है, उसी प्रकार जयकुमार भी शत्रुरूपी शल्यको निकाल रहा था ॥ १८३ ।। उसके द्वारा चलाये हुए बाण शत्रुओं को सन्ताप उत्पन्न कर अशुभकी सूचना देते हुए धूमकेतुके समान उनकी ध्वजाओं पर पड़ रहे थे || १८४ ॥ उस समय शत्रुओंकी ध्वजाओंके दण्डों को खण्ड-खण्ड कर सब शत्रुओंको पौरुषहीन तथा वंशरहित करता हुआ जयकुमार सोमवंशकी ध्वजाके समान आचरण कर रहा था || १८५ || जिनकी पताकाएँ छिन्न-भिन्न हो गयी हैं ऐसे कितने ही शत्रु क्षणभरके लिए मरे हुए समान खड़े थे सो ठीक ही है क्योंकि प्राणोंसे ही प्राणी नहीं गिने जाते किन्तु अभिमानी मनुष्य अभिमानको ही प्राण समझते हैं || १८६ | अच्छी तरह जलते हुए १ अवसरम् | 'पर्यायोऽवसरे क्रमे ' इत्यभिधानात् । २ प्राप्य । ३ विद्विषं प्रति ल० । ४ आयुध । ५ साम्यम् । ६ गर्जन्ति स्म । ७ पञ्जरः ल० । ८ रणे । ९ मन्दनौरिव । १० क्षतपादाः | ११ सज्जीकृतं । १२ संप्राप्य । १३ वृंपभराशिमिव । १४ करवालेन समुत्सृष्टदुष्टात्रः । १५ अनुगतवान् । ऋ गतौ लङि रूपम् । मन्वीयः ल० । १६ समुत्सृष्टः । १७ इव । १८ अनुगत । १९ जयः । २० न जीवन्ति । २१ जयतीति जयन् तम् । २२ 'अभिमुखमागताः । २३ अग्निमभि पतङ्गाः । २४ शलभा इव ल० । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व - ४०५ संनद्धस्यन्दनाश्चण्डास्तदा हेमाङ्गदादयः । कोदण्डास्फालनवाननिरुद्ध हरितः कुधा ॥१८॥ पत्रषुर्वहिवृष्टिं वा बाणवृष्टिं प्रति द्विषः । यावत्ते लक्ष्यता नेयुस्तावदाविष्कृतोयसाः ॥१६॥ निरुध्यानन्तसेनादिशरजालं रणाणवे । स्यन्दनाश्चोदयामासुः पोतान्या वातरंहसः ॥१९॥ बलद्वयास्त्रसंघट्टसमुत्पन्नाशुशुक्षणिम् । पेतुर्वाहाः परं तेजस्तेजस्वी सहते कथम् ॥१६॥ भन्योऽन्यं खण्डयन्ति स्म तेषां शस्त्राणि तद्रणे । नैकमप्यपरान्प्रापुश्चिन्न मस्त्रेषु कौशलम् ॥१९२॥ न मृता व्रणिता नैव न जयो न पराजयः । युद्धमानेवहो तेषु नाहवोऽप्याहवायते ॥१३॥ युद्ध्वाऽप्येवं चिरं शेकुर्न जेतुं ते परस्परम् । जयः सेनाद्वये तस्मिन्"जयादन्येन दुर्लभः ॥१४॥ अन्तर्हासो जयः सर्व तत्तदाऽऽलोक्य लीलया । शरैः संच्छादयामास सैन्यं पुत्रस्य चक्रिणः ॥१५॥ निष्पन्दीभूतमालोक्य चक्रिसूनुः स्वसाधनम् । रक्तोत्पलदलच्छायामुच्छिद्यनयनत्विषा ॥१९६॥ जयः परस्यनो मेऽद्य जयो"जयमहं रणे। विध्वस्य 'भुवने शुद्धमकल्पं स्थापये यशः ॥१७॥ विदध्यामद्य नाथेन्दुसरदशवर्द्धनम् ।' जयलक्ष्मीर्वशीकृत्य विधेयान्मेऽधुना सुखम् ॥१८॥ और सबको जीतते हुए उस जयकुमारको सहन करनेके लिए असमर्थ होकर वे सब शत्रु उसपर इस प्रकार टूट पड़े मानो अग्निपर पतंगे ही पड़ रहे हों ।।१८७॥ इतनेमें ही जिनके रथ तैयार हैं, जो बड़े क्रोधी हैं, जिन्होंने क्रोधसे धनुष खींचकर उनके शब्दोंसे सब दिशाएँ भर दी हैं और शत्रु जबतक अपने लक्ष्य तक पहुँचने भी न पाये थे कि तबतक ही जिन्होंने अपना सब उद्यम प्रकट कर दिखाया है ऐसे हेमांगद आदि राजकुमार शत्रुओंपर अग्नि वर्षाके समान बाणोंकी वर्षा करने लगे ॥१८८-१८६॥ वे अनन्तसेन आदिके बाणोंका समूह रोककर वायुके समान वेगवाले रथोंको रणरूपी समुद्रमें जहाजोंके समान दौड़ाने लगे ॥१९०॥ वे रथोंके घोड़े दोनों सेनाओं सम्बन्धी शस्त्रोंके संघट्टनसे उत्पन्न हुई अग्निपर पड़ रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी मनुष्य दूसरेका तेज कैसे सह सकता है ? ॥ १९१॥ उस युद्ध में दोनों सेनाओंके शस्त्र एक दूसरेको खण्ड-खण्ड कर देते थे, एक भी शस्त्र शत्रुओं तक नहीं पहुँचने पाता था सो ठीक ही है क्योंकि उनकी अस्त्रोंके चलानेकी कुशलता आश्चर्य करनेवाली थी ॥१९२॥ आश्चर्य है कि उन योद्धाओंके युद्ध करते हुए न तो कोई मरा था, न किसीको घाव लगा था न किसीकी जीत हुई थी और न किसीकी हार ही हुई थी, और तो क्या उनका वह युद्ध भी युद्ध-सा- नहीं मालूम होता था ।।१९३॥ इस प्रकार बहुत समय तक युद्ध करके भी वे एक दूसरेको जीत नहीं सके थे सो ठीक ही है क्योंकि उन दोनों सेनाओंमें जयकुमारके सिवाय और किसीको विजय प्राप्त होना दुर्लभ था ॥१९४॥ उस समय यह सब देखकर मन ही मन हँसते हुए जयकुमारने चक्रवर्तीके पुत्र-अर्ककीर्तिकी सब सेनाको लीलापूर्वक ही बाणोंसे ढक दी ॥१९५॥ अपनी सेनाको चेष्टारहित देखकर चक्रवर्तीका पुत्र-अर्ककीर्ति अपने नेत्रोंकी कान्तिसे लाल कमलके दलको कान्तिको जीतता हुआ अर्थात् क्रोधसे लाल-लाल आँखें करता हुआ कहने लगा कि आज शत्रुकी जीत नहीं हो सकती, मेरी ही जीत होगी, मैं युद्ध में जयकुमारको मारकर संसारमें कल्पान्त काल तक टिकनेवाला शद्ध यश स्थापित करूंगा तथा आज ही बढ़ते हए नाथ १ दिशः । 'दिशस्तु ककुभः काष्ठा आशाश्च हरितश्च ताः'। इत्यभिधानात् । २ रथिनः । ३ रणाङ्गणे अभिमुखं समागत्य मुख्यताम् । ४ न गच्छन्ति स्म। ५ वायुवेगिनः । ६ अग्निम् । ७ जग्मुः । ८ अश्वाः । ९ अन्यत् । १० एकं शस्त्रमपि । ११ जयकुमारात् । १२ अभिशय्येत्यर्थः । १३ न । मे नो जयः इति दुनिः । १४ जयकुमारम् । १५ विनाश्य । अविनाश्येति दुर्ध्वनिः । १६ जयस्य लक्ष्मीः इति दुर्ध्वनिः । १७ सुखमिति दुर्ध्वनिः । 'आ०' प्रती असुखमिति दुर्ध्वनिः । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १ १११२ कल्पनादुष्टमिति 'स्वानिष्टसूचनम् । द्विपं प्रचोदयामास कुधेवा जयमात्मनः ॥ १९६ ॥ 'प्रतिवातसमुद्भूतपश्चाद्गतपताकिकाः । मन्दं मन्दं क्वणद्घण्टाः कुण्ठितस्वबलोत्सवाः ॥ २००॥ संशुदान निष्यन्दकरदीनाननश्रियः । निर्वाणालातनिर्भासनि. शेषास्त्र भराक्षमाः ॥ २०१ ॥ 'आधोरणैः कृतोत्सा है: ' कृच्छकृच्छ्रेण चोदिताः । आक्रन्दमिव कुर्वन्तः कुण्ठितैः कण्ठगर्जितैः ॥ २०२ ॥ भीतभीता "युधोऽन्यैश्च चिरशुभसूचिमिः । गजा गताजवाश्चेलुरचला इव जङ्गमाः ॥ २०३॥ मन्दमन्दं प्रकृत्यैव मन्दा युद्धमयान्मृगाः । जग्मुर्निर्हेतुकं मद्रास्तदा शुभसूचनम् ॥२०४॥ विजिगीषर्विपुण्यस्य वृथा प्रणिधयो यथा । तथाऽर्ककीर्तयन्नृणां " ते " गजेषु नियोजिताः ॥ २०५ ॥ लङ्घन्ने त्रयोदा पारिभद्रोद्गमच्छविम् । प्रकटभ्रुकुटी बन्धसंधानितशरासनः ॥ २०६॥ रिपुं कुपितभोगीन्द्रस्फुटाटोपभयंकरः । कुर्वन्विलोक नातप्ततीव्र नाराचगोचरम् ॥२०७॥ गिरीन्द्रशिखराकारमारुह्य हरिविक्रमः । गजेन्द्र विजयार्द्धाख्यं गर्जन्मेधस्वरस्तदा ॥ २०८ ॥ 3 २ ४०६ वंश और सोमवंशका छेदन करूँगा, विजयलक्ष्मी मुझे अभी वश कर सुखी करेगी, इस प्रकार अभिप्रायसे तथा अपना ही अनिष्ट सूचित करनेवाला वचन कहते हुए अर्ककीर्तिने क्रोधसे अपने पराजय के समान अपना हाथी आगे बढ़ाया ॥। १९६-१९९ ॥ प्रतिकूल वायु चलने से जिनकी ध्वजाएँ पीछे की ओर उड़ रही हैं, जिनके घण्टा धीरे-धीरे बज रहे हैं, जिन्होंने अपनी सेना के उत्सवको कुण्ठित कर दिया है, गण्डस्थलके मदका निष्यन्द सूख जानेसे जिनके मुखकी शोभा मलिन हो गयी है, जिनकी शोभा बुझे हुए अलातचक्र के समान है, जो सम्पूर्ण शस्त्रोंका भार धारण करने में असमर्थ है, उत्साह दिलाते हुए महावत जिन्हें बड़ी कठिनाईसे ले जा रहे हैं, जो कुण्ठित हुई कण्ठकी गर्जनासे मानो रुदन ही कर रहे हैं, जो युद्ध से तथा अशुभको सूचित करनेवाले अन्य अनेक चिह्नोंसे अत्यन्त भयभीत हो रहे हैं और जिनका वेग नष्ट हो गया है ऐसे हाथी चलते फिरते पर्वतोंके समान चल रहे थे ||२०० - २०३ || मन्द जातिके स्वभाव ही मन्द मन्द चल रहे थे, मृग जातिके हाथी युद्धके भयसे धीरे-धीरे जा रहे थे और भद्र जातिके हाथी बिना ही कारण धीरे-धीरे चल रहे थे परन्तु युद्ध में उनका धीरे-धीरे चलना अशुभको सूचित करनेवाला था || २०४ || जिस प्रकार विजयकी इच्छा करनेवाले किन्तु पुण्यहीन मनुष्यके गुप्त सेवक व्यर्थ हो जाते हैं-- अपना काम करनेमें सफल नहीं हो पाते हैं उसी प्रकार अर्ककीर्ति के लिए उन हाथियोंसे कही हुई महावत लोगोंकी प्रार्थनाएँ व्यर्थ हो रही थीं ॥ २०५ ॥ उधर जो अपने दोनों नेत्रोंकी कान्तिसे कल्पवृक्षके फूलकी कान्तिको जीत रहा है, जिसने अपनी भौंहों की रचनाके समान ही प्रकटरूप से बाण चढ़े धनुषका आकार बनाया है, क्रोधित हुए महा सर्प के समान जिसका शरीर कुछ ऊपर उठा हुआ है और इसीलिए जो भयंकर है, जो अपने शत्रुको अपनी दृष्टि तथा तपे हुए बाणोंका निशाना बना रहा है, एवं सिंहके समान जिसका पराक्रम है ऐसा मेघस्वर जयकुमार उस समय गर्जता हुआ मेरुके शिखरके समान आकारवाले विजयार्ध नामके उत्तम हाथीपर सवार होकर, अनुकूल वायु चलने से १ अभिप्रायदुष्टम् । . २ निजानिष्ट । ३ अपजयम् । ४ प्रतिकूलवायुः । ५ मन्दमन्द - अ०, प०, स०, इ०, ल० । ६. मदस्रवण । नष्टोल्मुकसदृशः । ८ हस्तिपकैः । ९ कृतोद्योगः | १० रोदनम् । ११ अधिकभीताः । १२ सङग्रामात् । १३ स्वभावेनैव जडाः । मन्दा इति जातिभेदाश्च । १४ मृगसदृशाः मृगजातयश्च । १५ भद्रजातयः । १६ मन्दगमनम् । १७ वाञ्छा चराश्च । 'प्रणिधिः प्रार्थने चरे' इत्यभिधानात् । १८ गजारोहकाणाम् । - कीर्तये नृणां ल० | १९ मनोरथाः । २० मन्दारकुसुमच्छविम् । 'पारिभद्रो निम्वतरुर्मन्दारः पारिजातकः ।' इत्यभिधानात् । २१ - टोपो भयंकरः ल० म० । २२ निजालोकनान्येव अतप्ततीक्ष्णबाणास्तेषां विषयम् । २३ जयकुमारः । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४०७ अनुकूलानिलोरिक्षप्तपुरःसर्पद्ध्वजांशुकैः । क्रान्तद्विपारिविक्रान्तविख्यातारूढयोधनैः ॥२०९॥ प्रस्फुरच्छस्त्रसंघातदीप्तिापितदिङ्मुग्वैः । धूतदुन्दुभिसद्ध्वानबृहद्वृहितभीषणैः ॥२१०॥ घण्टामधुरनिर्घोषनिभिन्न भुवनत्रयः । सद्यः समुत्सरहरपि सिंहान् जिगीषुभिः ॥२११॥ प्रापद्यु-द्वोत्सुकः साई गर्विजयसूचिभिः । क्षयवेलानिलोद्धतसिन्धुवेलां विडम्बयन् ॥२१२॥ महाहास्तिक विस्तारस्थूलनीलवलाहकः । समन्तात् संपतच्छकुं समूहसहसानकः ॥२१३॥ प्रोत्खातासिलताविद्युत्समुल्लसितमासुरः । नानानकमहाध्वानगम्भीरघनगर्जितः ॥२१॥ "नवलोहितपूराम्बुनिरुद्धधरणीतलः । नितान्तनिष्ठुरापातमुद्गराशनिसंततिः ॥२१५॥ चलत्सितपताकालिवलाको च्छादिताम्बरः । सङग्रामः प्रावृषो लक्ष्मीमशेषामपुषत्तदा ॥२१६॥ सुचिरं सर्वसंदोहसंवृत्तसमराङ्गणे । सेनयोः सर्वशास्त्राणां व्यत्ययो बहुशोऽभवत् ॥२७॥ निरुद्धमूवं गृधौधैर्मध्यमुयध्वजांशुकैः । सेनाद्वयविनिर्मुक्तः शस्त्रैर्धात्री च सा तता" ॥२१॥ जयलक्ष्मी नवोढायाः सपत्नीमिच्छता नवाम् । तदार्ककीर्तिमुद्दिश्य जयेनाचोद्यत" द्विपः ॥२११॥ अष्टचन्द्राः पुरोभूयः भूयः प्राग्दृष्टशक्तयः । क्षपकं १२ वाऽहसा भेदा न्यरु,स्तं निनङ्क्षवः२॥ जिनकी ध्वजाओंके वस्त्र उड़कर आगेकी ओर जा रहे हैं, आक्रमण करते हुए सिंहके समान प्रसिद्ध पराक्रमवाले योद्धा जिनपर बैठे हैं, देदीप्यमान शस्त्रोंके समूहकी दीप्तिसे जिन्होंने समस्त दिशाओंके मुख प्रकाशित कर दिये हैं, बजते हुए नगाड़ोंके बड़े-बड़े शब्दोंसे बढ़ती हुई गर्जनाओंसे जो भयंकर हैं, घण्टाओंके मधुर शब्दोंसे जिन्होंने तीनों लोक भर दिये हैं, तत्काल उठते हुए अहंकारसे जो सिंहोंको भी जीतना चाहते हैं और जो विजयकी सूचना करनेवाले हैं ऐसे हाथियोंके साथ, प्रलय कालकी वायुसे उठी हुई समुद्रकी लहरोंको विडम्बित करता हुआ युद्धकी उत्कण्ठा से आ पहुँचा ॥२०६-२१२॥ जिसमें बड़े-बड़े हाथियोंके समूहका विस्तार ही बड़े-बड़े काले बादल हैं, चारों ओरसे पड़ते हुए बाणोंके समूह ही मयूर हैं, ऊपर उठायी हुई तलवाररूपी बिजलियोंकी चमकसे जो प्रकाशमान हो रहा है, अनेक नगाड़ोंके बड़े-बड़े शब्द ही जिसमें मेघोंकी गम्भीर गर्जनाएँ हैं, नवीन रुधिरके प्रवाहरूपी जलसे जिसमें पृथ्वीतल भर गया है, बड़ी निर्दयताके साथ पड़ते हुए मुद्गर ही जिसमें वज्रोंका समूह है और फहराती हुई सफेद पताकाओंके समूहरूप बगलाओंसे जिसमें समस्त आकाश आच्छादित हो रहा है ऐसा वह युद्ध उस समय वर्षाऋतुकी सम्पूर्ण शोभाको पुष्ट कर रहा था ॥२१३-२१६॥ बहुत देर तक सब योद्धाओंके समूहसे घिरे हुए युद्ध के मैदानमें दोनों सेनाओंके सब शस्त्रोंका अनेक बार व्यत्यय (अदला-बदली) हुआ था ॥२१७॥ उस समय ऊपरका आकाश गीधोंके समूहसे भर गया था, मध्य भाग फहराती हुई ध्वजाओंके वस्त्रोंसे भर गया था और पृथिवी दोनों सेनाओंके द्वारा छोड़े हुए शस्त्रोंसे भर गयी थी ॥२१८॥ उसी समय जयलक्ष्मीको नवीन विवाहिता सुलोचनाकी नयी सौत बनानेकी इच्छा करते हुए जयकुमारने अर्ककीर्तिको उद्देश्य कर अपना हाथी आगे बढ़ाया ॥२१६॥ जिस प्रकार कर्मोके भेद क्षपकश्रेणीवाले मुनिको रोकते हैं उसी प्रकार अष्टचन्द्र नामके विद्याधर जिनकी कि शक्ति पहले देखने में आयी थी फिरसे सामने आकर १ आक्रान्तसिंहपराक्रमप्रसिद्धाकारणाधोरणः । २ ताडित । ३ व्याप्त । ४ प्रलयकाल । ५ विलङ्घयन् ल०, म०, अ०, १०, इ०, स० । ६ गजसमूह । ७ कालमेघ । ८ शय्यायुधसमूहमयूरकः । ९ स्फुरण । १० नूतनरक्त । ११ द्रुघण । १२ विषकण्ठिका । १३ पुष्णाति स्म । १४ व्यत्यय इति संबन्धिनः इतरेण हरणम् । ( 'ता०' प्रतौ व्यत्ययः इतरसंबन्धिनः इतरेण हरणम् )। १५ व्याप्ता। तदा ल० । १६ नूतनविवाहितायाः सुलोचनायाः । १७ प्रेरितः। १८ अग्रे भूत्वा । १९ पुनः पुनः । २० पूर्व दृष्टपराक्रमाः । २१ क्षपकश्रेण्यारूढम् । २२ इव । २३ कर्मणाम् । २४ जयम् । २५ नाशितुमिच्छवः । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् եւ जयोsपि सुचिरात्प्राप्तप्रतिपक्षो व्यदीप्यलम् । लब्धेव रम्धनं वह्निः उत्साहाग्निस खोच्छ्रितः ॥२२१॥ तदो भयबलख्यातगजाद्रिशिखर स्थिताः । योद्धमारेभिरे राजराजसिंहाः परस्परम् ॥२२२॥ अन्योन्यरदनोद्भिनौ तत्र कौचिद् व्यसू' गजौ । चिरं परस्पराधारावाभातां यमलानिवत् ॥ २२३ ॥ समन्ततः शरैश्च्छन्ना रेजुराजौ गजाधिपाः । क्षुद्रवेणुगणाकीर्ण संचर गिरिसन्निभाः ॥ २२४ ॥ दानिनो मानिनस्तुंगाः 'कामवन्तोऽन्तकोपमाः । महान्तः सर्वसत्त्वेभ्यो न युद्धयन्तां कथं गजाः ॥ २२५ ॥ "मृगैर्मृ "गैरिवापात " मात्रभग्नैर्भयाद् द्विपैः । स्वसैन्यमेव संक्षुण्णं धिक् स्थौल्यं भीतचेतसाम् ॥ २२६ ॥ निःशक्तीन् शक्तिभिः शक्ताः' शक्तांवरशतकान् । १६ १७ "शक्तियुक्तानशक्तांश्च निःशक्तीन्" धिग्धिगूनताम् ॥२२७॥ ४०८ शस्त्रनिर्भिन्नसर्वाङ्गा निमीलितविलोचनाः । सम्यक संहृतसंरम्भाः संभावितपराक्रमाः ॥ २२८ ॥ बुद्ध्यैव बद्धपल्यङ्कास्त्यक्तसर्वपरिच्छदाः । समस्याक्षुरसूच्छूरा ४ निधाय हृदयेऽर्हतः ॥ २२६॥ २३ जयकुमारको रोकने लगे || २२० ॥ जिस प्रकार बहुत-से इन्धनको पाकर वायुसे उद्दीपित हुई अग्नि देदीप्यमान हो उठती है उसी प्रकार उत्साहरूपी वायुसे बढ़ा हुआ वह जयकुमार भी बहुत 'देर में शत्रुको पाकर अत्यन्त देदीप्यमान हो रहा था || २२१ | उस समय दोनों सेनाओंमें प्रसिद्ध हाथीरूपी पर्वतोंके शिखरपर बैठे हुए अनेक राजारूपी सिंहोंने भी परस्पर युद्ध करना आरम्भ कर दिया था ॥ २२२ ॥ उस युद्ध में एक दूसरेके दाँतों के प्रहारसे विदीर्ण होकर मरे कोई दो हाथी मिले हु दो पर्वतोंके समान एक दूसरेके आधारपर ही चिरकाल तक हुए खड़े रहे थे ॥२२३॥ चारों ओरसे बाणोंसे ढके हुए बड़े-बड़े हाथी उस युद्ध में छोटे-छोटे बाँसोंसे व्याप्त और चलते हुए पर्वतोंके समान सुशोभित हो रहे थे || २२४ || जो दानी हैं - जिनसे मद झर रहा है, मानी हैं, ऊंचे हैं, यमराजके समान हैं और सब जीवोंसे बड़े हैं ऐसे भद्र जातिके हाथी भला क्यों न युद्ध करते ? ॥ २२५ ॥ जिस प्रकार हरिण भयभीत होकर भागते हैं उसी प्रकार मृगजातिके हाथी भी प्रारम्भमें ही पराजित होकर भयसे भागने लगे थे और उससे उन्होंने अपनी ही सेनाका चूर्ण कर दिया था इससे कहना पड़ता है कि भीरु हृदयवाले मनुष्योंके स्थूलपनको धिक्कार हो ॥ २२६ ॥ शक्तिशाली ( सामर्थ्यवान् ) योद्धा अपने शक्ति नामक शस्त्र से, जिनके पास शक्ति नामक शस्त्र नहीं है ऐसे शक्तिशाली ( सामर्थ्यवान् ) योद्धाओं को शक्तिरहित - सामर्थ्यहीन कर रहे थे और जिनके पास शक्ति नामक शस्त्र था किन्तु स्वयं अशक्त सामर्थ्यरहित थे उन्हें भी शक्तिरहित - शक्ति नामक शस्त्रसे रहित कर रहे थे- उनका शस्त्र छुड़ा रहे थे इसलिए आचार्य कहते हैं कि ऊनता अर्थात् आवश्यक सामग्रीको कमीको धिक्कार हो ॥ २२७॥ जिनके समस्त अंग शस्त्रोंसे छिन्न-भिन्न हो गये हैं, नेत्र बन्द हो गये हैं, जिन्होंने युद्धकी इच्छाका अच्छी तरह संकोच कर लिया है, जो अपना पराक्रम दिखा चुके हैं, जिन्होंने बुद्धिसे ही पल्यंकासन बाँध लिया है और सब परिग्रह छोड़ दिये हैं ऐसे कितने ही १ रन्धनम् इन्धनम् । लब्धेर्बद्धेन्धनं ल०, म० अ०, प०, स०, इ० द० । २ उत्साहवायुना समृद्धः । ३ राजराजमुख्याः । सिंहाः इति ध्वनिः । ४ विगतप्राणौ । ५ अन्योन्यावलम्बनो । ६ यमकगिरिवत् । ७ संचल गिरिल०, अ०, प०, स०, इ० म० । ८ आरोहकानुकूला इत्यर्थः । ९ युध्यन्ते ल० । १० मृगजातिभिः । भक्त्यान्वेषणीयैर्वा । ११ हरिणैरिव । १२ प्रथम दिशायामेव । १३ संचूर्णमभवत् । १४ शक्त्या युधरहितम् । १५ शक्त्यायुधैः । १६ समर्थाः । १७ समर्थान् । १८ शक्त्यायुधयुक्तान् । १९ शक्त्यायुध र हितान् । २० सामग्री विकलताम् । २१ सम्यगुत्सृष्टसमारम्भाः । २२ मनसैव कृतपर्यङ्कासनाः । २३ सम्यक् त्यक्तवन्तः । २४ प्राणान् । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व ४०६ कस्यचिद् क्रोधसंहारः स्मृतिश्च परमेष्ठिनि । 'निष्ठायामायुषोऽ त्रासीदभ्यासात् किं न जायते ॥२३०॥ हृदि नाराचनिर्मिज्ञा वक्त्रात् सवदसृक प्लवाः । शिवाकृष्टान्त्रतन्त्रान्ताः पर्यन्तव्यस्तपस्कराः ॥ २३.१ ॥ गृद्धपक्षानिलोच्छिन्नमूर्च्छाः संप्राप्तसंज्ञकाः । समाधाय हि ते. शुद्धां श्रद्धां शूरगतिं गताः ॥ २३२ ॥ छिन्नैश्चक्रेण शूराणां शिरोऽम्भोजैवैिकासिभिः । रणाङ्गणोऽर्चितो बामात् नृश्यै" जयजयश्रियः "॥२३३॥ स्वामिसंमानदानादिमहोप' कृति निर्भराः । प्राप्याधमर्णतां प्राणैः सेवां संपाद्य सेवकाः ॥२३४॥ स्वप्राणव्ययसंतुष्टैस्तद्भूभृद्भिः स्वभूभृतः " । लब्धपूजान् विधायान्ये धन्या "नैर्ऋण्यमागमन् ॥ मुक्ता दुतं पेतुरविमुक्तजयाः शराः । अष्टचन्द्रान् प्रति प्रोच्चैः प्रदीप्योल्कोपमाः समम् ॥ २३६॥ " जयप्रहितशस्त्राली २ तैर्निषिद्धा च विद्यया । ज्वलन्ती परितश्चन्द्रान् परिवेषाकृतिर्बभौ ॥२३७॥ विश्वविद्याधराधीशमादिराजात्मजस्तदा । २५४ 'द्विषो "निःशेषयाशेषानिश्याह सुनमिं रुषा ॥ २३८॥ सोऽपि सर्वैः खगैः सार्द्धं निर्द्धं तारातिविक्रमः । वह्निवृष्टिमिवाकाशे ववर्ष शरसंततिम् ॥२३९॥ ។ २०_ 61 3 शूरवीरोंने हृदय में अर्हन्त भगवान्को स्थापन कर प्राण छोड़े थे || २२८ - २२९ ।। किसी योद्धाके आयुकी समाप्ति के समय क्रोध शान्त हो गया था और परमेष्ठियोंका स्मरण होने लगा था सो ठीक है क्योंकि अभ्याससे क्या-क्या सिद्ध नहीं होता ? || २३० ॥ जिनके हृदय बाणोंसे छिन्नभिन्न हो गये हैं, मुँहसे रुधिरका प्रवाह बह रहा है, सियारोंने जिनकी अंतड़ियोंकी ताँतों अन्तभाग तकको खींच लिया है और जिनके हाथ-पैर फट गये हैं ऐसे कितने ही योद्धा गोधों के पंखोंकी हवासे मूर्च्छारहित होकर कुछ-कुछ सचेत हो गये थे और शुद्ध श्रद्धा धारण कर शूरगतिस्वर्गं गतिको प्राप्त हुए थे ||२३१ - २३२।। चक्र नामक शस्त्रसे कटे हुए शूरवीरोंके प्रफुल्लित मुखरूपी कमलोंसे भरी हुई वह युद्धकी भूमि ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जयकुमारकी विजयलक्ष्मीके नृत्योंसे ही सुशोभित हो रही हो || २३३|| स्वामीके द्वारा पाये हुए आदर सत्कार आदि बड़े-बड़े उपकारोंसे दबे हुए कितने ही सेवक लोग अपने प्राणों द्वारा स्वामीकी सेवा कर ऊॠण अवस्थाको प्राप्त हुए थे और कितने ही धन्य सेवक, अपने-अपने प्राण देकर सन्तुष्ट हुए शत्रु राजाओंसे अपने स्वामियोंकी पूजा-प्रतिष्ठा कराकर कर्जरहित हुए थे । भावार्थ-- कितने ही सेवक लड़ते-लड़ते मर गये थे और कितने ही शत्रुओंको मारकर कृतार्थं हुए थे || २३४ - २३५ ।। जिन्होंने विजय प्राप्त करना छोड़ा नहीं है और जो अपनी बड़ी भारी कान्तिसे उल्काके समान जान पड़ते हैं ऐसे जयकुमारके छोड़े हुए बाण अष्टचन्द्र विद्याधरोंके पास बहुत शीघ्र एक साथ पड़ रहे थे || २३६ ॥ जयकुमारके द्वारा छोड़ी हुई शस्त्रोंकी पंक्तियोंको उन विद्याधरोंने अपने विद्या बलसे रोक दिया था । इसलिए वे उनके चारों ओर जलती हुई खड़ी थीं और ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो चन्द्रमाओंके चारों ओर गोल परिधि ही लग रही हो ॥ २३७॥ | उसी समय आदि सम्राट् - भरत पुत्र अर्ककीर्तिने बड़े क्रोधसे सब विद्याधरोके अधिपति सुनमिसे कहा कि तुम समस्त शत्रुओं को नष्ट करो || २३८ || और शत्रुओंके पराक्रमको नष्ट करनेवाला सुनमिकुमार भी अग्नि वर्षाके समान आकाशमें बाणोंके समूहकी वर्षा करने लगा ||२३९॥ जो अत्यन्त अन्त्रगतशस्याग्रा १ परिसमाप्ती सत्याम् । २ रणे । ३ साध्यते ल० । ४ जम्बुकाकृष्टपुरीतत्समूहाग्रा । वा । ५ तन्त्राग्रा-ट० । ६ विक्षिप्तपादपाणयः । ७ स्पृहाम् । ८ स्वर्गम् । इन्द्रियजयवतां गतिमित्यर्थः । ९ रणरङ्गोऽन्विते -ल० । १० नर्तनाय । ११ जयकुमारस्य जयलक्ष्म्याः । १२ महोपकारातिशयाः । १३ ऋण प्राप्तिताम् । १४ शत्रुभूपालैः । १५ निजनृपतीन् । १६ ऋणवृद्धधनम् । ऋणान्निष्क्रान्तत्वम् । १७ जयकुमारेणोत्सृष्टाः । १८ अत्यक्तजयाः । १९ प्रदीप्त्योल्कोपमाः ल० । २० युगपत् । २१ जयकुमारेणाविद्ध । २२ शत्रुभिः । २३ अष्टचन्द्रान् परितः, मृगाङ्कान् परितः । २४ अर्ककीर्तिः । २५ शत्रून् । २६ विनाशय । २७ सुनमिः । ५२ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १३१४ 73 atar fasaara वन्तो रुद्धदिङ्मुखाः । कांस्कान् शृणाम नेतीव सुतीक्ष्णाः शरवोऽपतन् ॥ २४०॥ "प्रभो जयादेशादिभेन्द्र" वा मृगाधिपः । आक्रम्य विक्रमी शस्त्र ररौत्सीत्तं विहायसि ॥ २४१॥ तमोऽग्निगजमेघादिविद्याः सुनमियोजिताः । तुच्छीकृत्य स स विच्छिद्य (?) सहसा भास्करादिभिः ॥२४२॥ जयपुण्योदयात्सद्यो विजिग्ये खचराधिपम् । संग्रामेऽनुगुणे देवे " क्षोदिमा बंहिमेति" न ॥ २४३॥ प्रवृद्धप्रावृडारम्भसम्भृताम्भोधरावलिम् । "विलङ्घ्यानेकपानीकं " कौमारं " जयमारुणत् ॥ २४४ ॥ जयोऽप्यभिमुखीकृत्य विजयार्द्धं गजाधिपम् । धीरोद्धतं रुषा प्राप्तं "धीरोदात्तोऽब्रवीदिदम् ॥२४५॥ न्यायमार्गाः प्रवर्त्यन्ते सम्यक् सर्वेऽपि चक्रिणा । तेषामेभिर्दुराचारैः कृतस्त्वं पारिपन्थिकः ॥२४६॥ बुद्धिमत्वं तत्राहार्यबुद्धित्वमपि दूषणम्। कुमार नीयसे "पापैस्तृतीय २७ तद्विगर्हितम् ॥२४७॥ अन्तःकोपोऽप्ययं पापैर्महानुत्थापितो पृथा । सर्वतन्त्रक्षयो मतुः सहसा येन तादृशः ॥ २४८ ॥ २९ ४१० भयंकर हैं, किंकरोंके समान काम करनेवाले हैं, वेगके कारण शब्द कर रहे हैं और जिन्होंने सब दिशाएँ रोक ली है ऐसे वे तीक्ष्ण बाण हम किस किसको नष्ट नहीं करें ? अर्थात् सभीको नष्ट करें यही सोचकर मानो सब सेनापर पड़ रहे थे || २४० || जिस प्रकार सिंह हाथीपर आक्रमण करता है उसी प्रकार खूब पराक्रमी मेघप्रभ नामके विद्याधरने जयकुमारकी आज्ञासे उस सुनमपर आक्रमण कर उसे शस्त्रोंके द्वारा आकाशमें ही रोक लिया || २४१ ॥ मेघप्रभने सुनके द्वारा चलाये हुए तमोबाण, अग्निबाण, गजबाण और मेघबाण आदि विद्यामयी बाणोंको सूर्यबाण, जलबाण, सिंहबाण और पवनबाण आदि अनेक विद्यामयी बाणोंसे तुच्छ समझकर बहुत शीघ्र नष्ट कर दिया || २४२ || इस प्रकार मेघप्रभने उस युद्ध में जयकुमारके पुण्योदयसे विद्याधरोंके अधिपति सुनमिको शीघ्र ही जीत लिया सो ठीक ही है क्योंकि देवके अनुकूल रहनेपर छोटापन और बड़प्पनका व्यवहार नहीं होता है । भावार्थ - भाग्य के अनुकूल होनेपर छोटा भी जीत जाता है और बड़ा भी हार जाता है || २४३ || बढ़ी हुई वर्षाऋतुके प्रारम्भमें इकट्ठी हुई मेघमालाके समान हाथियोंकी सेनाको उल्लंघन कर अर्ककीर्ति पक्षके जयकुमार को रोक लिया ॥ २४४ ॥ इधर धीर और उदात्त जयकुमारने भी अपना विजयार्ध नामका श्रेष्ठ हाथी क्रोधसे प्राप्त हुए धीर तथा उद्धत अर्ककीर्ति के सामने चलाकर उससे इस प्रकार कहना शुरू किया ||२४५ || वह कहने लगा कि चक्रवर्तीके द्वारा सभी न्यायमार्ग अच्छी तरह चलाये जाते हैं परन्तु इन दुराचारी लोगोंने तुझे उन न्यायमार्गों का शत्रु बना दिया हैः ॥ २४६ ॥ हे कुमार, यद्यपि तू बुद्धिमान् है परन्तु आहार्य बुद्धिवाला होना अर्थात् दूसरेके कहे अनुसार कार्य करना यह तेरा दोष भी है । इसके सिवाय तू पाप या पापी पुरुषोंके अनुकूल हो रहा है सो यह भी तेरा तीसरा दूषण है || २४७॥ इन पापी लोगोंने तेरे अन्तःकरणमें यह बड़ा भारी क्रोध व्यर्थ ही उत्पन्न कर दिया है जिससे भरत महाराजकी सब सेनाका ऐसा एक साथ क्षय हो रहा है ॥ २४८॥ १ किङ्करस्वभावाः । २ ध्वनन्तः । ३ कान् शत्रन् शृणाम काम् शत्रून् न शृणाम न हन्म इति इव । शृ कृ मृ हिंसायाम् । लोट् । ४ बाणाः । ५ विद्याधरः । ६ गजाधिपम् । अनेन समबलत्वं सूचितम् । ७ रुरोध । ८ सुनमिम् । ९ असाराः कृत्वा । १० चिच्छेद त०, ब०, पुस्तके विहाय सर्वत्र । ११ सूर्यजलसिंहवाय्वादिभिः । १२ अजयत् । १३ दैवे सहाये सति । १४ क्षुद्रत्वम् । १५ महत्त्वम् । १६ अतिशय्य । १७ गजबलम् । १८ अर्ककीर्तिसम्बन्धि | १९ जयकुमारं रुरोध । २० अर्ककीर्तिम् । २१ जयकुमारः । २२ मार्गाणाम् । २३ प्रतीयमानैः । २४ विरोधी भूत्वा । २५ प्रेरकोपनीतबुद्धित्वम् । २६ पापोपेतैः । २७ मोहनीयं कामं वा । २८ सद्भिः निन्दितम् । २९ पापिष्ठैः । ३० कोपेन । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व 3 १ आहवोऽपरिहार्योऽयं ममाद्य भवता सह । अकीर्तिश्चावयों रस्मिन्नाकल्पस्थायिनी ध्रुवम् ॥ २४६॥ चक्री सुतेषु राज्यस्य योग्यं त्वामेव मन्यते । स्यात्तस्यापि मनःपीडा न वेत्यन्यायवर्तनात् ॥ २५० ॥ ● द्रोग्न्न्यायस्य भूभर्तुस्तव चैतांस्ततः क्षणात् । दुष्टान् सखेचरान् सर्वान् बध्वाद्य भवतोऽर्पये ॥२५१॥ नागमारुह्य तिष्ठत्वं काष्ठान्तं" प्रार्थितो मया । अन्यायो हि पराभूतिर्न तत्यागो महीयसः ॥ २५२ ॥ कुमार, समरे हानिस्तबैव महती मया । हन्त्यात्मानमनुन्मत्तः कः स तीक्ष्णासिना स्वयम् ॥ २५३ ॥ अभव्य इव सद्धर्ममपकयेत्युदीरितम् । "आघातयितुमारेभे गजेन स गजाधिपम् ॥ २५४ ॥ तदा जयोऽध्यतिक्रुद्धो गजयुद्धविशारदः । नवभिर्विजयार्द्धेन दन्तघातैरपातयत् ? ॥२५५॥ नवापि कुपितेभेन्नवदन्ताहतिक्षताः । अष्टचन्द्रार्क कीर्तीनां प्रपेतुर्हतदन्तिनः ॥ २५६ ॥ चक्रिसूनोः पुनः सेनापरितोऽयाद् युयुत्सया । "तदा तदायुर्वा "रक्षदहः क्षयमपद्यत ॥ २५७ ॥ सोढुमर्कः खलस्तेजो "जयस्याशक्नुवन्निव । जयन् जयोद्गमच्छायां संहृताशेषदीधितिः ॥ २५८॥ " शरैरिवोखैरारतेर्विमुक्तैः खचरान् प्रति । जयीयैः २ स्वाङ्गसंलग्नैः २क्षरत्क्षतंजरन्जितैः ॥ २५६॥ गतप्रतापः 'कृच्छात्मा सर्वनेत्राप्रियस्तदा । पपात कातरीभूय करालम्बितभूधरः ॥ २६० ॥ १५ १६१७ .૧૮ २४ ४११ मेरा आपके साथ जो युद्ध चल रहा है वह आज ही बन्द कर देने योग्य है क्योंकि इससे हम दोनोंकी कल्पान्तकाल तक टिकनेवाली अपकीर्ति अवश्य होगी ॥ २४९ ॥ चक्रवर्ती सब पुत्रों में राज्यके योग्य आपको ही मानता है, क्या आपके इस अन्यायमें प्रवृत्ति करनेसे उसके मनको पीड़ा नहीं होगी ? ॥ २५० ॥ भरत महाराजके न्यायमार्गका द्रोह करनेवाले तुम्हारे इन सभी दुष्ट पुरुषों को विद्याधरोंके साथ-साथ बांधकर आज क्षणभरमें ही तुम्हें सौंप देता हूँ ॥२५१ ॥ मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप हाथीपर चढ़े हुए यहाँ क्षण भर ठहरिए क्योंकि महापुरुषोंका अन्याय करना ही तिरस्कार करना है, अन्यायका त्याग करना तिरस्कार नहीं है ॥२५२॥ हे कुमार, मेरे साथ युद्ध करनेमें तुम्हारी ही सबसे बड़ी हानि है क्योंकि ऐसा कौन सावधान है जो पैनी तलवारसे अपनी आत्माका स्वयं घात करे || २५३ || जिस प्रकार अभव्य जीव समीचीन धर्मको नहीं सुनता उसी प्रकार जयकुमारके कहे हुए वचन अर्ककीर्तिने नहीं सुने और अपने हाथीसे जयकुमारके उत्तम हाथीपर प्रहार करवाना शुरू कर दिया || २५४ ॥ उस समय हाथियों के साथ युद्ध करनेमें अत्यन्त निपुण जयकुमार भी अधिक क्रोधित हो उठा, उसने अपने विजयार्धं हाथीके द्वारा दाँतोंके नौ प्रहारोंसे अर्ककीर्ति तथा अष्टचन्द्र विद्याधरों के नौ हाथियोंको घायल करवा दिया ॥ २५५ ॥ अर्ककीर्ति तथा अष्टचन्द्र विद्याधरोंके नौके ही हाथी क्रोधित हुए विजयार्ध हाथीके दाँतोंके नौ प्रहारोंसे घायल होकर जमीनपर गिर पड़े || २५६ ॥ जिस समय जयकुमारने युद्धकी इच्छासे अर्ककीर्तिकी सेनाको चारों ओर से घेरा उसी समय मानो उसकी आयुकी रक्षा करता हुआ ही दिन अस्त हो गया ॥ २५७॥ जो अपनी कान्तिसे जासीनके फूलकी कान्तिको जीत रहा है, जिसने अपनी सब किरणें संकोच ली हैं, जो लाल-लाल किरणोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो जयकुमारने विद्याधरोंके प्रति जो बाण छोड़े थे वे सब ही विद्याधरोंके निकलते हुए रुधिरसे अनुरंजित होकर उसके शरीरमें जा लगे हों, जिसका सब प्रताप नष्ट हो गया है, जो क्रूर है और सबके नेत्रोंको अप्रिय है ऐसा वह दुष्ट ४तिष्ठात्र ल०, इ०, प०, अ०, स० । ५ क्षणपर्य९ एवमुक्तवचनं श्रुत्वा । १० मारयितुम् । ११ अर्क १ आहवः परि-ल० । २ युद्धे सति । ३ हन्तुमिच्छून् । न्तम् । ६ अन्यायत्यागः । ७ महात्मनः । ८ बुद्धिमान् । कीर्तिः । १२ - रघातयत् ल०, अ०, प०, स०, इ० । १३ अगमत् । १४ योद्धुमिच्छया । १५ यदा इ० अ०, प० । १६ इव । १७ रक्षतीति रक्षत् । १८ दिवसः । १९ जयकुमारस्य । २० कुसुम । २१ किरणैः । २२ जयकुमारसम्बन्धिभिः । २३ स्रवत् । २४ दुःखकारिस्वभावः । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् 3 95 अर्ककीर्तिं स्वकीर्ति' वा मत्वा रोषेण भास्करः । अस्तं जयजयस्यायात् कुर्वन् कालविलम्बनम् ॥२६१॥ "स्फुटालोकोऽपि सद्वृत्तोऽभ्यगादस्तमहर्पतिः । आश्रित्य वारुणीं रक्तः को न गच्छत्यधोगतिम् ॥ २६६ ॥ उदये वर्धितच्छायां व्याप्य विश्वं प्रतापवान् । "दिनेनेनोऽध्यनश्यत् कस्तिष्ठेत्तीकरः परः ॥२६३॥ स्वच्छ विच्छा तापहारीणि वा भृशम्। द्रष्टुं सरांस्यनिच्छन्ति "कआक्षीणि शुचा "व्यधुः २६४ "जयनिस्त्रिंशनिस्त्रिशनिपातपतितान् खगान् । " प्राविशन्निजनीडानि" वीक्षितुं विक्षमाः खगाः २६५ स प्रतापः प्रभा साऽस्य सा हि सर्वैक पूज्यता । पातः प्रत्यहमर्कस्याप्यतयः कर्कशो विधिः ॥ २६६॥ कीर्योपमानतां यातो यातोऽर्कश्चेददृश्यताम् । उपमेयस्य का वातेत्यवादीद्विदुषां गणः ॥ २६७ ॥ २१ २२. ४१२ उसी प्रकार सूर्य सूर्य मानो जयकुमारके तेजको न सह सकनेके कारण ही कातर हो अपने करों-किरणोंसे (हाथोंसे) अस्ताचलको पकड़कर नीचे गिर पड़ा ।। २५८ - २६० ।। वह सूर्य अर्ककीर्तिको अपनी कीर्ति मानकर क्रोध से जयकुमारके जीत में विलम्ब करता हुआ अस्त हो गया || २६१ || जिसका आलोक प्रकाश ( ज्ञान ) स्पष्ट है और जो सद्वृत्त - गोल ( सदाचारी ) है ऐसे सूर्यको भी अस्त होना पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा अथवा मद्यका सेवन करनेवाला ऐसा कौन है जो नीचेको न जाता हो - अस्त न होता हो- नरक न जाता हो । भावार्थ- जिस प्रकार मद्य पोनेवाला ज्ञानी और सदाचारी होकर भी नीच गतिको जाता है भी प्रकाशमान और गोल होकर भी पश्चिम दिशामें जाकर अस्त हो जाता है ।। २६२ ।। उदय कालसे लेकर निरन्तर जिसकी कान्ति बढ़ती रहती है और जो संसारमें व्याप्त होकर तपता रहता है ऐसा तीव्रकर अर्थात् तीव्र किरणोंवाला सूर्य भी जब एक ही दिन में नष्ट हो गया तब फिर भला तीव्रकर अर्थात् अधिक टैक्स लगानेवाला और सन्ताप देनेवाला अन्य कौन है जो संसारमें ठहर सके ।।२६३|| सन्तापको दूर करनेवाले स्वच्छ सरोवर अतिशय कान्तिरहित सूर्यको देखना नहीं चाहते थे इसलिए ही मानो उन्होंने शोकसे अपने कमलरूपी नेत्र बन्द कर लिये थे ।। २६४ || सब पक्षी अपने-अपने घोंसलोंमें इस प्रकार चले गये थे मानो वे जयकुमारकी तीक्ष्ण तलवारकी चोटसे गिरे हुए विद्याधरोंको देखनेके लिए समर्थ नहीं हो सके हों ।। २६५ ॥ सूर्यका असाधारण प्रताप है, असाधारण कान्ति है और असाधारण रूपसे ही सब उसकी पूजा करते हैं फिर भी प्रतिदिन उसका पतन हो जाता इससे जान पड़ता है कि निष्ठुर देव तर्कका विषय नहीं है । भावार्थ - ऐसा क्यों करता है इस प्रकारका प्रश्न दैवके विषयमें नहीं हो सकता है ।। २६६ ।। उस समय विद्वानों का समूह यह कह रहा था कि जब अर्ककीर्ति के साथ उपमानताप्राप्त हुआ सूर्य भी अदृश्य हो गया तब उपमेयकी क्या बात है ? भावार्थ - अर्क कीर्ति लिए सूर्य की उपमा दी जाती है परन्तु जब सूर्य ही अस्त हो गया तब अर्ककीर्तिकी तो बात ही १ निजनामधेयमिव । २ पीडया । ३ जयकुमारस्य । ४ व्यक्तोद्योतोऽपि । व्यक्तदर्शनोऽपीति ध्वनिः । 'आलोको दर्शनोद्योती' इत्यभिधानात् । ५ सद्वर्तुलमण्डलेऽपीति । सच्चारित्रोऽपीति ध्वनिः । ६ रविः । ७ पश्चिमाशाम् । मद्यमिति ध्वनिः । ८ अरुण अनुरक्तश्च । उद्गमे अभ्युदये च । १० कान्तिः पक्षे उत्कोचः । "छाया स्यादातपाभावे प्रतिबिम्बार्कयोषितोः । पालनोत्कोचयोः कान्तिसच्छोभापंक्तिषु स्मृता" इत्यभिधानात् । ११ दिवसेन च । इनः सूर्यः प्रभुश्च । 'इनः सूर्ये प्रभौ' इत्यभिधानात् । १२ अदृश्योऽभूत् । १३ सूर्यम् । १४ विगतकान्तिम् । १५ अनिच्छूनि । १६ दधति स्म । १७ जयकुमारस्य निशितास्त्रघातेन पतितान् । १८प्रविष्टाः । १९ आत्मीयकुलायान् । 'कुलायो नीडमस्त्रियाम् ।' इत्यभिधानात् । २० पक्षिणः । २१ पतनम् । २२ क्रूरः । २३ नियतिः कर्म च । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व दुर्निरीक्ष्यः 'करैस्तीक्ष्णैः संतप्तनिजमण्डलः । अलं कुवलयध्वंसी दुस्सुतो दुर्मतिस्तुतः ॥२६॥ निस्सहायो निरालम्बोऽत्यसोढा परतेजसाम् । "सिंहराशिश्चलः क्रूरः सहसोच्छित्य मूर्द्धगः ॥२६९॥ पापरोगी परप्रेयों रविविषममागंगः । रक्तरुक सकलद्वेषी ० "वर्धिताशोऽक्रमाग्रगः ॥२७॥ "सता बुधेन मित्रेण "गुरुणाऽप्यस्तमाश्रयत् । बहुदोषो' भिषग्वर्यैर्दुश्चिकित्स्य इधातुरः ॥२७॥ तदा बलयामाल्याः श्रित्वा बद्धरुषो नृपौ । इत्यधयं निशायुद्धमनुव" न्यषेधयन् ॥२७२॥ ताभ्यां तत्रैव सा रात्रिनेत्तुमिष्टा रणागणे । भटतीप्रवणासहयवेदनारावभीषणे ॥२७३॥ क्या है ? ॥ २६७ ॥ जो बड़ी कठिनतासे देखा जाता है, अपनी किरणोंसे तीक्ष्ण-ऊष्ण है, जिसने अपना मण्डल भी सन्तप्त कर लिया है, जो कुवलय अर्थात् कुमुदोंका ध्वंस करनेवाला है, बड़े कष्टसे जिसका उदय होता है अथवा जिसका पुत्र - शनि दुष्ट है, दुर्बुद्धि लोग ही जिसकी स्तुति करते हैं, जो सहायरहित है, आधाररहित है, जो चन्द्र आदि ज्योतिषियोंका तेज सह नहीं सकता, सिंह राशिपर है, चंचल है, क्रूर है, सहसा उछलकर मस्तकपर चलता है, पाप रोगी है, दूसरेके सहारेसे चलता है, विषममार्ग - आकाशमें चलता है, रक्तरुक्-लाल किरणोंवाला है, सकल - कलासहित-चन्द्रमाके साथ द्वेष करनेवाला है, दिशाओंको बढ़ानेवाला है और पैररहित-अरुण नामका सारथि जिसके आगे चलता है, ऐसा सूर्य, बुधग्रह और गुरु ( बृहस्पति ग्रह ) नामके सज्जन मित्रोंके साथ होनेपर भी अच्छे-अच्छे वैद्य भी जिसका इलाज नहीं कर सकते ऐसे बहुदोषी-अनेक दोषवाले ( पक्षमें रात्रिवाले ) रोगीके समान अस्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट होनेके कारण जिसकी ओर कोई देख भी नहीं सकता है, जो अधिक टैक्स वसूल करनेके कारण तीक्ष्ण है, जो अपने परिवारके लोगोंको भी सन्ताप देनेवाला है। कुवलय अर्थात् पृथिवीमण्डलका खूब नाश करनेवाला है, जिसका पुत्र खराब है, मूर्ख ही जिसकी स्तुति करते हैं, जो सहायक मित्रोंसे रहित है, दुर्ग आदि आधारोंसे रहित है, अन्य प्रतापी राजाओंके प्रतापको सहन नहीं करता है, सिंह राशिमें जिसका जन्म हुआ है, चञ्चल है, निर्दय है, जराजरा सी बातोंमें उछलकर शिरपर सवार होता है - असहनशील है, बरे रोगोंसे घिरा हुआ है, दूसरेके कहे अनुसार चलता है, विषम मार्ग-अन्याय मार्गमें चलता है, रक्तरुक्-जिसे खूनकी बीमारी है, जो सबके साथ द्वेष करता है, जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है और बिना क्रमके प्रत्येक कार्यमें आगे आगे आता है, ऐसे अनेक दोषवाले राजाका लाइलाज रोगीकी तरह बुद्धिमान् मित्र और सज्जन गुरुके साथ होनेपर भी नाश होता ही है ॥२६८-२७१॥ उस समय दोनों सेनाओंके मन्त्रियोंने क्रोधित हुए उन दोनों राजाओंके पास जाकर रात्रिमें युद्ध करना अधर्म है ऐसा नियम कर उन्हें युद्ध करनेसे रोका ॥ २७२ ॥ उन दोनोंने योद्धाओंके तीव्र घावोंकी असह्य वेदनाजनित चिल्लाहटसे भयंकर उसी रणके मैदानमें रात्रि व्यतीत करना अच्छा समझा १-स्तीक्ष्णाः अ०, ५०, स०, इ०, ल०। २ कष्टोत्पत्तिः अशोभनपुत्रश्च । ३ व्यसोढा ट० । ४ प्रदोपानां शत्रूणां च तेजसाम् । ५ सिहराशिस्थितः। ६ ऊर्ध्वगो भूत्वा । ७ शिरसा गच्छन् । ८ कुष्ठरोगी। ९ रक्तकिरणः । रक्तरोगी च रक्तानां घातको वा। १० चन्द्रद्वेषी सकलजनद्वेषी च । ११ वद्धितदिक् वद्धिताभिलाषश्च । १२ अनूर्वग्रगामी। 'सूरसूतोऽरुणोऽनुरुः' इत्यभिधानात् । अक्रमाग्रगामी च । १३ उत्कृष्टेन विद्यमानेनेति च । १४ सोमसुतेन । विदुषा च । १५ बहस्पतिना, उपदेशकेन सहितोऽपीत्यर्थः । १६ प्रचुरराशिः । वातदोषवांश्च । १७ व्याधिपीडित । १८ निर्बन्धं कृत्वा । १९ अर्ककी तिजयकुमाराभ्याम् । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ आदिपुराणम् प्रतीची 'येन जायेऽहमगिल हस्करम् । इति सन्ध्याच्छलेना हस्तत्र कोपमिवागतम् ॥२७॥ लज्जे संपर्कमर्केण कतुं लोचनगोचरे । इयं वेलेति वा सन्ध्याऽप्यन्वगादात्तविग्रहा ॥२७५॥ अगादहः' पुरस्कृत्य मामर्को रात्रिगामिना । तेन 'पश्चात्कृतेऽतीव शोकात् सन्ध्या न्यलीयत ॥२७६॥ तमः सर्वं तदा व्यापत् क्वचिल्लीनं गुहादिपु । शत्रुशेषं न कुर्वन्ति तत एव विचक्षणाः ॥२७७॥ अवकाशं प्रकाशस्य यथात्मानमधात् पुरा । तथैव तमसः पश्चाद् धिङमहत्त्वं विहायसः ॥२७॥ ''तमोबलान् प्रदीपादिप्रकाशाः प्रदिदीपिरे । जिनेनेव विनेनेन कलौ कष्टं कुलिङगिनः ॥२७९॥ तमोविमोहितं विश्वं प्रबोधयितुमुद्धतः । विधिनेव सुधाकुम्भो दौर्वर्णो विधुरुद्ययौ ॥२०॥ चन्द्रमाःकरनालीभिरपिबद् बहलं तमः । वृद्धकासं २ क्षयं हातुं धूमपानमिवाचरन् ॥२१॥ निःशेष नाशकद्वन्तुं ध्वान्तं हरिणलाञ्च्छनः । अशुद्धमण्डलो हन्यानिष्प्रतापः कथं रिपून् ॥२८॥ विधुं तत्करसंस्पर्शाद भृशमासन् विकासिभिः । सरस्यो ह्रादयन्त्यो वा मुदा कुमुदलोचनैः ॥२८॥ ॥२७३॥ सन्ध्याके बहानेसे दिन लाल लाल हो गया, मानो जिससे मैं पैदा हुआ हूँ उस सूर्यको यह पश्चिम दिशा निगल रही है यही समझकर उसे क्रोध आ गया हो । २७४ ॥ मैं सबके देखते हुए सूर्य के साथ सम्बन्ध करनेके लिए लज्जित होती हूँ यही समझकर मानो सन्ध्याकी वेला भी शरीर धारण कर सूर्यके पीछे पीछे चली गयी ॥२७५॥ सूर्य जब दिनके पास गया था तब मुझे आगे कर गया था परन्तु अब रात्रिके पास जाते समय उसने मुझे पीछे छोड़ दिया है इस शोकसे ही मानो सन्ध्या वहीं विलीन हो गयी थी ।। २७६ ।। दिनके समय जो अन्धकार किन्हीं गुफा आदि स्थानोंमें छिप गया था उस समय वह सबका सब आकर फैल गया था सो ठीक ही है क्योंकि चतुर लोग इसलिए ही शत्रुको बाकी नहीं छोड़ते हैं - उसे समूल नष्ट कर देते हैं ॥ २७७ ॥ आकाशने जिस प्रकार पहले प्रकाशके लिए अपने में स्थान दिया था उसी प्रकार पीछेसे अन्धकारके लिए भी स्थान दे दिया इसलिए आचार्य कहते हैं कि आकाशके इस बड़प्पनको धिक्कार हो । भावार्थ - बड़ा होनेपर भी यदि योग्य-अयोग्यका ज्ञान न हुआ तो उसका बड़प्पन किस कामका है ? ॥ २७८ ॥ जिस प्रकार कलिकालमें जिनेन्द्रदेवके न होनेसे अज्ञानके कारण अनेक कुलिङ्गियोंका प्रभाव फैलने लगता है उसी प्रकार उस समय सूर्यके न होनेसे अन्धकारके कारण अनेक दीपक आदिका प्रकाश फैलने लगा था ॥ २७९।। __ इतनेमें चन्द्रमाका उदय हुआ जो ऐसा जान पड़ता था मानो अन्धकारसे मोहित हुए समस्त संसारको जगानेके लिए विधाताने अमृतसे भरा हुआ चाँदीका कलश ही उठाया हो ॥२८०॥ उस समय चन्द्रमा अपनी किरणरूपी नालियोंके द्वारा गाढ अन्धकारको पी रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो जिसमें खाँसी बढ़ी हुई है ऐसे क्षय रोगका नाश करनेके लिए धूम्रपान ही कर रहा हो ॥ २८१ ॥ चन्द्रमा सम्पूर्ण अन्धकारको नष्ट करनेके लिए समर्थ नहीं हो सका था सो ठीक ही है क्योंकि जिसका मण्डल अशुद्ध है और जो प्रतापरहित है वह शत्रुओंको कैसे नष्ट कर सकता है ? ॥ २८२ ॥ तालाबोंमें चन्द्रमाके किरणोंके स्पर्शसे कुमुद खूब फूल रहे थे और उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो खिले हुए कुमुदरूपी नेत्रोंके द्वारा चन्द्रमा १ अहस्करेण । २ प्रादुर्भवामि । ३ गिलति स्म । ४ दिवसः । ५ प्रतीच्याम् । ६ ह्रीवती भवानि । ७ दृष्टिविषये प्रदेशे । बहजनप्रदेशे इत्यर्थः । ८ स्वीकृतशरीराः । ९ आगच्छति स्म । १० दिवसम् । ११ पृष्ठे कृताहमिति । १२ विलयं गता। १३ सर्वत्र विश्वं जगत् । १४ आकाशस्य । १५ तिमिरप्राबल्यात् । पक्षे आकाशसामथ्योत् । १६ प्रकाशन्ते स्म । १७ रविणा। १८ मूढीकृतम्। १९ जगद् । २० राजतः । २१ किरणनालीभिः । २२ कुत्सितगतिम् वृद्धप्रकाशं वा । २३ क्षयव्याधिम् । २४ कलंकयुतमण्डलः । शत्रुसहितमण्डलश्च । २५ मुदं नयन्ति वा। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४१५ उस्थितः 'पिलकोऽस्माकं विधुर्गण्डस्य वोपरि । का जीविकेति निर्विण्णाः प्रायः "प्रोषितयोषितः २८४ ॥ लब्धचन्द्रबलस्योच्चैः स्मरस्य परितोषिणः । अट्टहास इवाशेषं साक्रश्चन्द्रातपोऽतत ॥ २८५ ॥ रूढो रागाङ्कुरश्चित्ते प्रम्लानो भानुभानुभिः । तदा चन्द्रिका प्राच्यवृष्टये वावर्द्धताङगिनाम् ॥ २८६ ॥ 'खण्डितानां तथा तापो नाभूद् भास्कररश्मिभिः । यथांशुभिस्तु षारांशोर्विचित्रा द्रव्यशक्तयः ॥ २८७ ॥ खण्डनादेव॰ कान्तानां" ज्वलितो मदनानलः । जाज्वलीत्ययमेतेने 'त्यत्यजन्मधु "काश्चन ॥२८८॥ वृथाभिमानविध्वंसी नापरं मधुना विना । कलहान्तरिताः काश्चित्सखीभिरतिपायिताः ॥ २८६ ॥ प्रेमनः कृत्रिमं नैतत् किमनेनेति' 'काश्चन । दूरादेवात्यजन् स्निग्धाः श्राविका वाssसवादिकम् ' ॥ २९० ॥ मधु द्विगुणितस्वादु पीतं कान्तकरार्पितम्" । कान्ताभिः कामदुर्वारमातङ्गमदवर्द्धनम् ॥ २९१ ॥ इत्याविर्भावितानङ्गरसास्ताः प्रियसङ्गमात् । प्रीतिं वाग्गोचरातीतां स्वीचक्रर्वक्रवीक्षणाः ॥ २९२ ॥ १६ ९ ० ૨૧ ૨૨ को हर्षसे प्रसन्न ही कर रहे हों । विशेष - इस श्लोक में सरसी शब्दके स्त्रीलिंग होने तथा कर शब्दके श्लिष्ट हो जानेसे यह अर्थ ध्वनित होता है कि जिस प्रकार स्त्रियाँ अपने पतियों के हाथका स्पर्श पाकर प्रसन्न हुए नेत्रोंसे उन्हें हर्षपूर्वक आनन्दित करती हैं उसी प्रकार सरसियाँ भी चन्द्रमाके कर अर्थात् किरणोंका स्पर्श पाकर प्रफुल्लित हुए कुमुदरूपी नेत्रोंसे उसे हर्षपूर्वक आनन्दित कर रही थीं ॥ २८३ ॥ प्रायः विरहिणी स्त्रियाँ यह सोच-सोचकर विरक्त हो रही थीं कि यह चन्द्रमा हमारे गालपर फोड़ेके समान उठा है अथात् फोड़ेके समान दुःख देनेवाला इसीलिए अब जीवित रहनेसे क्या लाभ है ? ॥ २८४ ॥ जिसे चन्द्रमाका बल प्राप्त हुआ है और इसीलिए जो जोरसे संतोष मना रहा है ऐसे कामदेव के अट्टहासके समान चन्द्रमाका गाढ़ प्रकाश सब ओर फैल गया था ।। २८५ ।। मनुष्योंके हृदयमें उत्पन्न हुआ जो रागका अंकूरा सूर्यकी किरणोंसे मुरझा गया था वह भारी अथवा पूर्व दिशासे आनेवाली वर्षाके समान फैली हुई चाँदनीसे उस समय खूब बढ़ने लगा था ।। २८६ ॥ खण्डिता स्त्रियोंको सूर्यकी किरणोंसे वैसा संताप नहीं हुआ था जैसा कि चन्द्रमाकी किरणोंके स्पर्शसे हो रहा था सो ठीक ही है क्योंकि पदार्थोंकी शक्तियाँ विचित्र प्रकारकी होती हैं ।। २८७ ॥ प्रिय पतिके विरहसे ही जो कामरूपी अग्नि जल रही थी वह इस मद्यसे ही जल रही है ऐसा समझकर कितनी ही विरहिणी स्त्रियोंने मद्य पीना छोड़ दिया था ॥ २८८ ॥ मद्यके सिवाय व्यर्थके अभिमानको नष्ट करनेवाला और कोई पदार्थ नहीं है यही सोचकर कितनी ही कलहान्तरिता स्त्रियोंको उनकी सखियोंने खूब मद्य पिलाया था ॥ २८९ ॥ हमारा यह प्रेम बनावटी नहीं है इसलिए इस मद्यके पीने से क्या होगा ? यही समझकर कितनी ही प्रेमिकाओंने श्राविकाओंके समान मद्य आदिको दूर से ही छोड़ दिया था ॥ २६० ॥ कितनी ही स्त्रियाँ कामदेवरूपी दुर्निवार हाथीके मदको बढ़ानेवाले स्वादिष्ट मद्यको पतिके हाथसे दिया जानेके कारण दूना पी गयी थीं ।। २९१ ।। इस प्रकार जिनके कामका रस प्रकट हुआ है और जिनकी दृष्टि कुछ-कुछ तिरछी हो रही है ऐसी स्त्रियाँ १ पिटको ल०, अ०, इ०, स०, प० । पिटक: स्फोटक: । 'विस्फोट: पिटकस्त्रिषु' इत्यभिधानात् । २ गलगण्डस्य । 'गलगण्डो गण्डमाला' इत्यभिधानात् । ३ जीवितम् । ४ उद्वेगपराः । दुःखे तत्परा इत्यर्थः । ५ विमुक्तभर्तृकाः स्त्रियः । ६ व्याप्नोति स्म । ७ प्रथमवृष्टया । ८ विरहिणीनां योषिताम् । ९ चन्द्रस्य । १० वियोगात् । ११ प्रियतमानां पुंसाम् । १२ भृशं ज्वलति । १३ दावाग्निः । १४ मध्येन । १५ मद्यम् । १६ मद्यपानं कारिताः । १७ अस्माकम् । १८ मध्येन । १९ मद्यादिकम् । २० त्रिगुणितं स्वादु इत्यपि पाठः । २१ प्रियतमकरेण दत्तम् । २२ कामदुःपूरः - ट० । पूरयितुमशक्यः । २३ वामलोकनाः । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ आदिपुराणम् 3 तत्र काचिद् प्रियं वीक्ष्य कथाशेषं द्विषच्छरैः । स्वयं कामशरैरक्षताङ्गी चित्रमभूद् व्यसुः ॥२९३॥ `क्षतैरनुपलक्ष्याङ्गं वीक्ष्य कान्तमजानती । परा परासुतां " " प्रापज्ज्ञात्वाऽऽत्मविहितव्रणैः ॥ २९४॥ मया निवारितोऽध्यार्या वीरलक्ष्मीप्रियः प्रिय । तत्कठोरवणैरेवं जातोऽसीति मृता परा ॥ २९५ ॥ मां निवार्य सहायान्तीं कीर्तिं स्वीकर्तुमागमः " । निर्मलेति विपर्यस्तो ? जानन्नपि बहिश्चम् ॥ २९६ ॥ स्थिता तत्रैव सा कीर्तिः किं वदन्ति' 'नरोऽन्तरम् । इतिसासू' "यमुक्वाऽन्या' 'प्रायासीत् प्रियपद्धतिम् । न किं निवारिताऽध्यायां' ' त्वया सार्द्धं विचेतना" । सन्निधौ मे किमेवं त्वां नयन्ति गणिकाधमाः | २९८ | 'अस्तु किं २२ यात मद्यापि तत्र स्वान हराणि 'किम् । विलप्येवं कलालापा काचित् "कान्तानुगाऽभवत् २९९ शरनिर्भिन्नसर्वाङ्गः कीलितासुरिवापरः । कान्तागमं प्रतीक्ष्यास्त लोचनस्थितजीवितः ॥ ३००॥ कोपदष्टविष्टं कान्तमालोक्य कामिनी । वीरलक्ष्म्या कृतासूया क्षणकोपाऽसुमत्यजत् ॥ ३०१ ॥ हृदि निर्भिन्ननाराचो मत्वा कान्तां हृदि स्थिताम् | हा मृतेयं वराकीति प्राणान् कश्चिद् व्यसर्जयत् । ३०२ । . २१ पति के समागम होनेसे वचनातीत आनन्दका अनुभव कर रही थीं ॥ २९२ ॥ उन स्त्रियोंमें से कोई स्त्री अपने पतिको शत्रुओंके बाणोंसे मरा हुआ देखकर आश्चर्य है कि काम के बाणोंसे शरीर क्षत न होनेपर भी स्वयं मर गयी थी || २९३ || अन्य कोई अजान स्त्री घावोंसे जिसके अंग उपांग ठीक-ठीक नहीं दिखाई देते ऐसे अपने प्रिय पतिको देखकर और उन्हें अपने द्वारा ही किये हुए घाव समझकर प्राणरहित हो गयी थीं ।। २९४ ॥ हे प्रिय, तुम्हें वीर लक्ष्मी बहुत ही प्यारी थी इसीलिए मेरे रोकनेपर भी तुम उसके पास आये थे अब उसी वीरलक्ष्मीके कठोर घावोंसे तुम्हारी यह दशा हो रही है यह कहती हुई कोई अन्य स्त्री मर गयी थी ।। २९५ ।। प्रिय, मैं उसी समय आपके साथ आ रही थी परन्तु आप मुझे रोककर कीर्ति को स्वीकार करनेके लिए यहाँ आये थे, यद्यपि आप यह जानते थे कि कीर्ति सदा बाहर घूमनेवाली (स्वैरिणी - व्यभिचारिणी) है तथापि यह शुद्ध है ऐसा आपको भ्रम हो गया, अब देखिए, वह कीर्ति वहीं रह गयी, हाय, क्या मनुष्य हृदय अथवा विरहको जानते हैं ? इस प्रकार ईर्ष्या के साथ कहकर अन्य कोई स्त्री अपने पतिके मार्गपर जा पहुँची थी अर्थात् पतिको मरा हुआ देखकर स्वयं भी मर गयी थी ।। २९६ - २९७ ॥ हे प्रिय, रोकी जाकर भी मैं मूर्खा आपके साथ क्यों नहीं आयी ? क्या मेरे समीप रहते ये नीच वेश्याएँ (स्वर्गकी अप्सराएँ) इस प्रकार तुम्हें ले जाती ? खैर, अब भी क्या गया ? क्या में वहाँ उनसे तुम्हें न छीन लूँगी ! इस प्रकार विलाप कर मधुर स्वरवाली कोई स्त्री अपने पतिकी अनुगामिनी हुई थी अर्थात् वह भी मर गयी थी ।। २९८. २९९ ।। जिसका सब शरीर बाणोंसे छिन्न-भिन्न हो गया है, और इसलिए ही जिसके प्राण जिसका जीवन अटका हुआ है ऐसा कोई योद्धा अपनी स्त्रीके आनेकी प्रतीक्षा कर रहा था ॥ ३०० ॥ जिसने क्रोधसे अपने ओठ डसकर छोड़ दिये हैं ऐसे अपने पतिको देखकर क्षण-भर क्रोध करती और वीरलक्ष्मी के साथ ईर्ष्या करती हुई किसी अन्य स्त्रीने अपने प्राण छोड़ दिये थे । ३०१ ॥ जिसके हृदयमें बाण घुस गया है ऐसे किसी योद्धाने १ वार्तयेवावशिष्टं प्रियं श्रुत्वेत्यर्थः । २ वैरिणां बाणैरुपलक्षितम् । ३ विगतप्राणः । ४ व्रणैः । ५ पञ्चत्वम् । ६ प्राप ल०, अ०, स०, इ०, प० । ७ आत्मना नखदन्तकृतव्रणैः । ८ आगमः । ९ वीरलक्ष्म्या निष्ठुरम् । १० ममार । ११ आगच्छः । १२ वैपरीतं नीतः वञ्चित इत्यर्थः । १३ विदन्ति ल० । १४ नरः मनुष्याः अन्तरं विरहम् । नरोत्तरमिति पाठे उत्तमपुरुषम् । १५ असूयासहितं यथा भवति तथा । १६ आगात् । १७ प्रियतमस्य मार्गम् । मृतिमित्यर्थः । १८ आगच्छम् । १९ वराक्यहम् । २० अमुख्यदेव स्त्रियः । २१ भवतु वा । २२ गमनम् । २३ स्वर्गे । २४ अपि तु हराण्येव । २५ प्रियतमस्यानुगामिन्यभूत् । कान्तास्मरणेन स्मरवशोऽभूदित्यर्थः । २६ सद्यः प्राणान् व्यसर्जयत् ल० । for- से हो गये हैं तथा नेत्रोंमें ही Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४१७ शस्त्रसंमिन्नसर्वाङ्गमन्तको नेतुमागतः । कान्ता चिन्तापरं कन्तुस्त दस्तादहृतापरम् ॥३०३॥ कण्ठे 'चालिङ्गितः प्रेमशोकाभ्यां प्रियया परः । ध्यात्वा तां त्यनदेहोऽगात् निर्वाणं सव्रणस्तया ॥३०॥ श्वः स्वर्ग किं किमत्रैव संगमो नौ न संशयः । तत्र त्वं बहकान्तोऽदा रमऽन्यन्याह सव्रतम् ॥३०५॥ अत्र वाऽमुत्र वासोऽस्तु किं तया चिन्तयावयोः। वियोगः क्वापि नास्तीति कान्ता कान्तमतर्पयत ॥३०६॥ सवतो वीरलक्ष्मी च कीर्ति चैहि चिरायुषा । हन्तुं मामेव कामोऽयमिति कान्नाऽवदद्वया ॥२०॥ जयस्य विजयः प्राणैस्तवैवैतद् विनिश्चितम् । 'सव्रतावद्य यास्यावो दिवमिन्यजीत परा ॥३०८॥ शराः पौप्पास्तव त्वं च संयुकवतिशीतगः । तत्र विज्ञातसारोऽसि पुरुषेभ्यो भयं तव ॥३०९॥ आयसाः सायकाः काम त्वमप्यस्माकमन्तकः । इति कामं समुद्दिश्य खण्डिताः स्वगतं "जगुः ॥३१॥ सा रात्रिरिति सल्लापै प्रेमप्राणैरनीयत । तावत संध्याऽगता रागाद् राक्षसीवेक्षितुं रणम् ॥३११॥ अपनी स्त्रीको अपने हृदयमें स्थित मानकर तथा हाय, यह बेचारी इस बाणसे व्यर्थ ही मरी जा रही है ऐसा समझकर शीघ्र ही अपने प्राण छोड़ दिये थे ॥३०२।। जिसका सब शरीर शस्त्रोंसे छिन्न-भिन्न हो गया है ऐसे किसी अन्य योद्धाको यमराज लेनेके लिए आ गया था परन्तु स्त्रीको चिन्तामें लगे हुए उसे कामदेवने यमराजके हाथसे छुड़ा लिया था ॥३०३॥ प्रेम और शोकके कारण अपनी स्त्रीके द्वारा गलेसे आलिंगन किया हुआ कोई घावसहित योद्धा उसी प्रियाका ध्यान कर तथा शरीर छोड़ कर उसीके साथ मर गया ॥३०४।। किसी योद्धाने व्रत धारण कर लिये थे इसलिए उसकी स्त्री उससे कह रही थी कि कल स्वर्गमें न जाने क्या-क्या होगा ? इसमें कुछ भी संशय नहीं है कि हम दोनोंका समागम यहाँ हो सकता है, चूँकि तुम्हें स्वर्गमें बहुत-सी स्त्रियाँ मिल जायेंगी इसलिए मैं आज यहाँ ही क्रीड़ा करूँगी ॥३०५॥ हम दोनोंका निवास चाहे यहाँ हो, चाहे परलोकमें हो, उसकी चिन्ता ही नहीं करनी चाहिए। क्योंकि हम लोगोंका वियोग तो कहीं भी नहीं हो सकता है इस प्रकार कहती हुई कोई स्त्री अपने पतिको सन्तुष्ट कर रही थी ॥३०६॥ कोई स्त्री क्रोधपूर्वक अपने पतिसे कह रही थी कि तुम तो व्रत धारण कर वीर लक्ष्मी और कोतिको प्राप्त होओ- उनके पास जाओ, दीर्घ आय होनेके कारण यह कामदेव मुझे ही मारे ॥३०७॥ कोई स्त्री अपने पतिसे कह रही थी कि यह निश्चित है कि जयकुमारकी जीत तेरे ही प्राणोंसे होगी और व्रतोंके धारण करनेवाले हम दोनों ही आज स्वर्ग जावेंगे ॥३०८॥ खण्डिता स्त्रियाँ कामदेवको उद्देश्य कर अपने मनमें कह रही थीं कि अरे काम, संयोगी पुरुषोंपर पड़ते समय तेरे बाण फूलोंके हो जाते हैं और तू भी बहुत ठण्डा हो जाता है, उन पुरुषोंके पास तेरे बलकी सब परख हो जाती है, वास्तवमें तू पुरुषोंसे डरता है परन्तु हम स्त्रियोंपर पड़ते समय तेरे बाण लोहेके ही रहते हैं, और तू भी यमराज बन जाता है । भावार्थ - तू पुरुषोंको उतना दुःखी नहीं करता जितना कि हम स्त्रियोंको करता है ॥३०६३१०॥ प्रेमरूपी प्राणोंको धारण करनेवाले स्त्री-पुरुषोंने इस प्रकारकी बातचीतके द्वारा ज्यों ही वह रात्रि पूर्ण की त्यों ही रागसे संग्राम देखनेके लिए आयी हुई राक्षसीके समान सन्ध्या ( सवेरेकी लाली ) आ गयो ॥३११॥ १ कण्ठेनालिङ्गितः इ०, अ०, स०, प०। २ मरणम् । ३ अनन्तरागामिदिने । ४ स्यादिति न जाने इति संबन्धः । ५ आवयोः । ६ स्वर्गे। ७ क्रीडामि । ८ स्वर्गे। ९ सनियमः । १० गच्छ । ११ सनियमावावाम् । १२ संगतेषु स्त्रीपुरुषेषु । १३ अतिशयेन सुखहेतुः । १४ संयुक्तस्त्रीपुरुषेषु । १५ अयस्संबनिधनः । १६ पुरुषवियुक्ताः । १७ स्वाभिप्रायम् । १८ भणन्ति स्म । १९ मिथो भाषणः । २० प्रेम इव प्राणा येषां तैः । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ आदिपुराणम् १२ # प्राभातानककोटीनां निःस्वनः सेनयोः समम् । आक्रामति स्म दिक्चक्रमक्रमेणोच्चरस्तदा ॥ ३१२॥ प्रतीच्याsपि युतश्चन्द्रो मयैवोदेति भास्करः । इति स्नेहादिव प्राची प्रागभादुदयाद्रवेः ॥ ३५३॥ सरस कमल|क्षिभ्यः प्रबुद्धानां तदा मुदा । निर्ययौ स्वार्थमादाय निदेव भ्रमरावली ॥ ३१४ ॥ गतायां स्वेन सङ्कोचं पद्मिन्यां स्वोदये रविः । लक्ष्मीं निजकरेणोचैर्विदधे सा हि मित्रता ॥३१५॥ रक्तः करैः समाश्लिष्य संध्यां सद्यो व्यरज्यत । वदन्निव रविर्भोगान् पर्यन्तं विरसान् स्फुटम् ॥ ३१६ ॥ पीत पुरंवैतां स्वां संध्यामिति वेयया । रविं 'रक्तमपि स्थित्यै प्राच्यक्षमत"न क्षणम् ॥३१७॥ 'शयित्वा वीरशय्यायां निशां नीत्वा नियामिनः । स्नात्वा संतर्पिताशेषदीनानाथवनीपकाः ॥ ३१८ ॥ fear विधिना स्तुत्वा जिनेन्द्रां त्रिजगन्नतान् ।' 'अतिष्टनायकाः सर्वे परिच्छिद्य रणोन्मुखाः ॥३१९॥ अरिञ्जयाख्यमारुह्य रथं श्वेताश्वयोजितम् । गृहीत्वा वज्रकाण्डं च दत्तं यच्चक्रिणा द्वयम् बन्दिमागधवृन्देन वन्द्यमानाङ्कमालिकः । गजध्वजं समुत्थाप्य जयलक्ष्मीसमुत्सुकः ॥३२१॥ जयी ज्यास्फालनं कुर्वन् कृतान्त विकृताकृतिः । द्विपानां "भीषणस्तस्थौ दिशामय्याहरन् मदम् ॥ ३२२ ॥ ९ उपोदयायशस्कीर्तिः अर्ककीर्तिश्च्युतच्छविः । कारागारमिवाध्यास्य स्यन्दनं मन्दवाजिनम् ॥ ३२३॥ १३ १४ ॥ ३२० ॥ ৬ ג'ר उसी समय दोनों सेनाओं में साथ-साथ उठनेवाले प्रातः कालीन करोड़ों बाजोंके शब्दोंने एक साथ सब दिशाएँ भर दीं ।। ३१२ ।। यद्यपि चन्द्रमा पश्चिम दिशा के साथ है तथापि सूर्य तो मेरे ही साथ उदय होगा इसी प्रेमसे मानो पूर्व दिशा सूर्योदय से पहले ही सुशोभित होने लगी थी ||३१३।। उस समय भ्रमरोंकी पंक्ति तालाबोंके फूले हुए ( पक्ष में जागे हुए ) कमलरूपी नेत्रोंसे अपना इष्ट पदार्थ लेकर निद्राके समान बड़ी प्रसन्नताके साथ निकल रही थी || ३१४॥ कमलिनी मेरे अस्त होते ही संकुचित हो गयी थी, इसलिए सूर्यने अपना उदय होते ही अपने ही किरणरूपी हाथोंसे उसपर बहुत अच्छी शोभा की थी सो ठीक ही है क्योंकि मित्रता यही कहलाती है ।। ३१५ ।। रक्त अर्थात् लाल ( पक्ष में प्रेम करनेवाला ) सूर्य, कर अर्थात् किरणों ( पक्ष में हाथों ) से सन्ध्याका आलिंगन कर शीघ्र ही विरक्त अर्थात् लालिमारहित ( पक्षमें रागहीन) हो गया था सो मानो वह यही कह रहा था कि ये भोग अन्त समयमें नीरस होते हैं।। ३१६॥ इस सूर्यने पहले के समान ही अपनी सन्ध्यारूपी स्त्रीका आलिंगन किया है इस ईर्ष्यासे ही मानो पूर्व दिशाने सूर्यको प्रेमपूर्ण अथवा लाल वर्णं होनेपर भी अपने पास क्षण-भर भी नहीं ठहरने दिया था ||३१७ ।। व्रत - नियम पालन करनेवाले सेनापतियोंने वीरशय्यापर शयन कर रात्रि व्यतीत की । सवेरे स्नान कर सब दीन, अनाथ तथा याचकोंको सन्तुष्ट किया, त्रिजगद्वन्द्य जिनेन्द्र देवकी विधिपूर्वक पूजा कर स्तुति की और फिर वे अपनी-अपनी सेनाका विभाग कर युद्धके लिए उत्सुक हो खड़े हो गये ।। ३१८ - ३१६ ॥ बन्दीजन और मागध लोगों का समूह जिसके नामके अक्षरोंकी स्तुति करते हैं जो विजयलक्ष्मी के लिए उत्सुक हो रहा है, जिसका आकार यमराजके समान विकृत है, जो दिग्गजोंके भी मदको हरण करनेवाला है और भयंकर है ऐसा जयकुमार सफेद घोड़ों से जुते हुए अरिंजय नामके रथपर सवार होकर और वज्रकाण्ड नामका वह धनुष जो कि पहले चक्रवर्तीने दिया था, लेकर हाथीकी ध्वजाको उड़ाता तथा धनुषकी फालन करता हुआ खड़ा हो गया || ३२० - ३२२ || जिसकी अपकीर्तिका उदय १ युगपत् । २ सरोवराणाम् । ३ वृद्धो वृद्धिः क्षये क्षयश्च । ४ अरुणः अनुरक्तश्च । ५ विरक्तोऽभूत् । ६ अत्रसाने निस्साराणि इति वदन्ति वेति संबन्ध: । ७ आलिलिङ्ग । ८ अनुरक्तम् । ९ निवसनाय । १० पूर्वादिक् । ११ न सहते स्म । १२ शयनं कृत्वा । १३ नियमवन्तः । १४ तिष्ठन्ति स्म । १५ रथवज्रकाण्डचापद्वयम् । पुरा ल० । १६ स्तूयमान। १७ गजाङ्कितध्वजम् । १८ भयंकरः । १९ उदयप्राप्तापकीर्तिः । २० बन्धनालयम् । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व अष्टवन्द्रान् सखी कुर्वन् न चन्द्रोपमा युधः । स्वोत्यातकेतु संकाशचक्रकेतूपलक्षितः ॥३२४॥ प्रत्यायातमहावातविहतस्वजवैः शरैः । विध्यन्म ध्यन्दिनाकं वा सुमनःक्षतहेतुभिः ॥३२॥ जयं शत्रुदुरालोकं ज्वलत्तेजोमयं स्मयात् । कलभो वाऽगमद् वारिं प्रेरितः खलकर्मणा ॥३२६॥ जयोऽपि शरसन्तानघनी कृत्यधनाधनः । सहार्ककीर्तिमर्केण कुर्वन् विनिहतप्रभम् ॥३२७॥ प्रतीयायान्तरे छिन्दन् रिपुप्रहितसायकान् । शराश्चास्य पुरो धावन् "बध्नस्येवोदयेऽशवः ॥३२८॥ अच्छेत्सी"च्छत्रमस्त्राणि वैजयन्ती च दुर्जयः । जयोऽर्ककीर्तेरौद्धत्यं विहत्य विनिनीषया ॥३२९॥ अष्टचन्द्रास्तदाभ्येत्य विद्याबलविज़म्भणात् । न्यषेधयन् जयस्येपूनम्भोदा वा रवेः करान् ॥३३०॥ भुजबल्यादयोऽ''भ्येयुर्योधुं हेमाङ्गद क्रुधा । सानुजं सिंहसखातं सिंहसङ्घ इवापरः ॥३३१॥ "सानुजोऽनन्तसेनोऽपि प्राप मेघस्वरानुजान् ।' आङ्गरेयो यथा यूथः कलिङ्गज"मतङ्गजान् ॥३३२॥ अन्येऽप्यन्यांश्च भूपाला भूपालान् कोपिनस्तदा । आनिपेतुः कुलाद्रीन्वा संचरन्तः कुलाचलाः॥३३३॥ नास्त्येषामीहशी शक्तिर्वियेयमिति विद्यया । जयो युद्धाय समद्धस्तदा 'मित्रभुजङ्गमः ॥३३४॥ हो रहा है, कान्ति नष्ट हो गयी है, युद्धके नष्ट चन्द्रोंके समान अष्टचन्द्र विद्याधरोंको जिसने अपना मित्र बनाया है, जो अपना अनिष्ट सूचित करनेवाले धमकेतुके समान चक्रके चिह्नवाली ध्वजासे सहित है, और उलटी चलनेवाली तेज वायुसे जिनका वेग नष्ट हो गया है ऐसे देवताओंका घात करनेवाले बाणोंसे जो दोपहरके सूर्यपर प्रहार करता हुआ-सा जान पड़ता है, ऐसा अर्ककीर्ति धीरे चलनेवाले घोड़ोंसे जुते हुए जेलखानेके समान अपने रथपर बैठकर, शत्रु जिसे देख भी नहीं सकते और जो जलते हुए तेजके समान है ऐसे जयकुमारपर बड़े अभिमानसे इस प्रकार आया जिस प्रकार कि हाथी पकड़नेवालोंके क्रूर व्यापारसे प्रेरित होता हुआ हाथीका बच्चा अपने बंधनेके स्थानपर आता है ॥३२३-३२६।। बाणोंके समूहसे मेघोंको सच करनेवाला जयकुमार भी सूर्यके साथ-साथ अर्ककीतिको प्रभारहित करता तथा शत्रुके द्वारा छोड़े हए बाणोंको छेदन करता हआ सामने आया और जिस प्रकार उदयकालमें सूर्यकी किरणें उसके सामने जाती हैं उसी प्रकार उसके द्वारा छोड़े हुए बाण ठीक उसके सामने जाने लगे ॥३२७-३२८।। बड़ी कठिनाईसे जीते जाने योग्य जयकुमारने अर्ककीतिको हटानेकी इच्छासे उसका उद्धतपना नष्ट कर, उसका छत्र शस्त्र तथा ध्वजा सब छेद डाली ॥३२९।। जिस प्रकार मेघ सूर्यको किरणोंको रोक लेते हैं उसी प्रकार उस समय अष्टचन्द्रोंने आकर अपनी विद्या और बलके विस्तारसे जयकुमारके बाण रोक लिये थे ॥३३०॥ जिस प्रकार एक सिंहोंका समूह दूसरे सिंहोंके समूहपर आ पड़ता है उसी प्रकार भुजबली आदि भी बड़े क्रोधसे छोटे भाइयोंके साथ खड़े हए हेमांगदसे लड़नेके लिए उसके सन्मख आये ॥३३१॥ जिस प्रकार अंगरदेशमें उत्पन्न हुए हाथियोंका समूह कलिंग देशमें उत्पन्न हुए हाथियोंपर पड़ता है उसी प्रकार अनन्तसेन भी अपने छोटे भाइयोसहित जयकुमारके छोटे भाइयोंके सामने जा पहुँचा ॥३३२।। उस समय और भी राजा लोग क्रोधित होते हए अन्य राजाओंपर इस प्रकार जा टे मानो कुलाचल कुलाचलोंपर टूट पड़ रहे हों ॥३३३॥ इन मेरे पक्षवालोंकी न तो ऐसी शक्ति है १ युद्धस्य । २ निजविनाशहेतुकजयसमान । ३ प्रतिकूलमायात । ४ मध्याह्नमिव । मध्याह्नरविमण्डलाभिमुखं मुक्ता शरा यथा स्वशरीरे पतन्ति तद्वदित्यर्थः । ५ गर्वात् । ६ गजपतनहेतुगतम् । ७ निविडीकृत । ८ अभिमुखं जगाम । ९ शत्रुविसर्जित । १० रवेः । ११ चिच्छेद । १२ ध्वजाम् । १३ निराकरणेच्छया नेतुमिच्छया वा । १४ सम्मुखमागत्य । १५ अभिमुखमाजग्मुः । १६ निजानुजसहितः । १७ अङ्गरदेशे भवः । आङ्गकेयो ल० । १८ कलिङ्गदेशे भवः । १९ प्राप्नुवन्ति स्म । अभिपेतुः ल०, इ०, स०, प० । २० सञ्चलन्तः कुलाद्रयः। ल। २१ पूर्व मुनेर्धर्मश्रवणज्जातनागराजः । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० आदिपुराणम् विदित्वा विष्टराकम्पाज्जयं संप्राप्य सादरः । नागपाशं शरं चार्द्धचन्द्रं दत्त्वा ययावसौ ॥३३॥ तं''सहस्रसहस्रांशुस्फुरदंशुप्रभास्वरम् । कौरवः शरमादाय वज्रकाण्डे प्रयोजयन् ॥३३६॥ हत एव सुतो भत्तुर्भुवोऽन नेति सम्भ्रमम् । नरविद्याधराधीशा महान्तमुदपादयन् ॥३३७॥ रथान्नव तथा दुष्टानष्टचन्द्रान् ससारथीन् । सशरो मस्मयामास शस्त्राणि च यथाऽशनिः ॥३३८॥ छिन्नदन्तकरो दन्तीवान्तको वा हतायुधः । भग्नमानः कुमारोऽस्थाद् धिक्कष्टं चेष्टितं विधेः ॥३३६॥ इति. दत्तग्रहं वीरं गज वा पादपाशकैः । अपायुधैरुपायज्ञेविधिज्ञस्तम जीग्रहत् ॥३०॥ तच्छौयं यत्पराभूतेःप्राक प्राप्तपरिभूतिभिः । यत्पश्चात्साहसं धाष्टात् "स द्वितीयः पराभवः ॥३४१॥ सोऽन्वयः स पिता ताहक पदं सा सैन्यसंहतिः । तस्याप्यासीदवस्थेयमुन्मार्ग के न पीडयेत् ॥३४२॥ वीरपट्टेन बद्धोऽयं चक्रिणानेन तत्सुतः । व्रणपट्टपदं नीतः पश्य कार्यविपर्ययम् ॥३४३॥ "पतत्पतङ्गसङ्काशमर्ककीर्तिमनायुधम् । स्वरथे स्थापयित्वोच्चरारुह्यानेकपं स्वयम् ॥३४॥ विपक्षखगभूपालान् नागपाशेन पाशिवत् । निष्पन्दं निर्जितारातियमंसीत् सिंहविक्रमान् ॥३४२॥ और न यह विद्या ही है ऐसा समझकर जयकुमार स्वयं युद्धके लिए तैयार हुआ, उसी समय उसका मित्र सर्पका जीव जो कि देव हुआ था आसन कम्पित होनेसे सब समाचार जानकर बड़े आदरके साथ जयकुमारके पाम आया और नागपाश तथा अर्द्धचन्द्र नामका बाण देकर चला गया.॥३३४-३३५।। जो हजार सूर्यकी चमकती हुई किरणोंके समान देदीप्यमान हो रहा था ऐसा वह बाण लेकर जयकुमारने अपने वज्रकाण्ड नामके धनुषपर चढ़ाया ॥३३६।। इस बाणसे चक्रवर्तीका पुत्र अवश्य ही मारा जायेगा यह जानकर - भूमिगोचरी और विद्याधरोंके अधिपति राजाओंने बड़ा भारी क्षोभ उत्पन्न किया ॥३३७।। उस बाणने नौ रथ, सारथिसहित आठों अर्धचन्द्र और सब बाण वज्रकी तरह भस्म कर दिये ॥३३८॥ जिसका मान भंग हो गया है ऐसा अर्ककीति, जिसके दाँत और कट गयो है ऐसे हाथीके समान अथवा जिसका शस्त्र नष्ट हो गया है ऐसे यमराजकी तरह चेष्टारहित खड़ा था इसलिए कहना पड़ता है कि देवको इस दुःख देनेवाली चेष्टाको धिक्कार हो ॥३३९॥ जिस प्रकार शस्त्ररहित किन्तु उपायको "जाननेवाले पुरुष पैरोंकी पाशसे दाँतोंको दबोचकर वीर हाथको पकड़ लेते हैं उसी प्रकार जयकुमारने अर्ककीतिको पकड़ लिया ॥३४०॥ तिरस्कार होनेके पहले-पहले जो लड़ना है वह शूरवीरता है और तिरस्कार प्राप्त कर धृष्टतावश जो पीछेसे लड़ता है वह दूसरा तिरस्कार है ।।३४१।। यद्यपि उस अर्ककीतिका लोकोत्तर वंश था, चक्रवर्ती पिता थे, युवराज पद था और भारी सेनाका, समूह उसके पास था तो भी उसकी यह दशा हुई इससे कहना पड़ता है कि दुराचार किसे पीड़ित नहीं करता है ? ॥३४२॥ चक्रवर्तीने जयकुमारको वीरपट्ट बाँधा था परन्तु इसने उनके पुत्रको घावोंकी पट्टियोंका स्थान बना दिया, जरा कार्यकी इस उलटपुलटको तो देखो ॥३४३॥ सब शत्रुओंको जीतनेवाले जयकुमारने अग्निपर पड़ते हुए पतंगके समान तथा हथियाररहित अर्ककीतिको अपने रथमें डालकर और स्वयं एक ऊँचे हाथीपर आरूढ़ होकर सिंहके समान पराक्रमी शत्रुभूत विद्याधर राजाओंको वरुणके १ अर्द्धचन्द्रशरम् । २ सहस्ररवि । ३ जयकुमारः । ४ वजकाण्डकोदण्डे । ५ प्रवर्तयन् । ६ चक्रिणः १७. जयेन । ८ सम्भ्रान्तिम् । ९ उत्पादितवान् । १० अर्द्धचन्द्रबाणः । ११ कृतग्रहणम् । दन्तग्रहं ल०। १२ गजबन्धनकुशलः । १३ अपगतशस्त्रैः । १४ अर्ककीर्तिम् । १५ ग्राहयति स्म । १६ धृष्टत्वात् । १७ पतत्सूर्यसदृशम् । १८ पाशपाणिवत् भवन्तीत्यर्थः । 'प्रचेताः वरुणः पाशी यादसां पतिरप्पतिः' इत्यभिधानात् । १९ नियमितवान्। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व इति सौलोचने युद्धे समिद्धे शमिते तदा । पपात पञ्चभूजेभ्यो वृष्टिः सुमनसां दिवः ॥३४६॥ जयश्रीदुर्जयस्वामितनूजविजयार्जिता । नोत्सेकायेति" नास्यैनं पैव प्रत्युताश्रयत् ॥३७॥ 'जयेनास्थान सङ्ग्रामजयायातेति लज्जया। दूरीकृतेव तत्कीतिर्दिगन्तमगमत्तदा ॥३४८॥ भकम्पनमहीशस्य यूथेशं वा वनद्विपैः । भूपैः संयमितैः" साधमर्ककीर्ति समर्प्य सः ॥३४९॥ विजया महागन्धसिन्धुरस्कन्धसंवृतः । निर्भस्सिंतोदय क्ष्माभृन्मूर्धस्थवन मण्डलः ॥३५०॥ रणभूमि समालोक्य समन्ताद्बहुविस्मयः । मृतानां प्रेतसंस्कारं जीवतां जीविकाक्रियाम् ॥३५॥ कारयित्वा पुरीं सर्वसम्मदाविष्कृतोदयाम् । प्राविशत् प्रकटेश्वर्यः सह मेघप्रमादिभिः ॥३५२॥ अकम्पनोऽप्यनुप्राप्य' वृतैरन्तःसमाकुलः । राजकण्ठीरवैर्वामा राजपुत्रशतैः पुरम् ॥३५३॥ सरक्षान् धृतभूगलान् कुमारं च नियोगिमिः । आश्वास्याश्वासकुशलैर्यथा स्थानमवापयत् ॥३५४॥ विचिन्त्य विश्वविघ्नानां विनाशोऽहत्प्रसादतः । इति वन्दितुमाजग्मुः सर्वे नित्यमनोहरम् ॥३५५॥ दूरादेवावरुह्यात्मवाहेभ्यः शान्तचेतसः। परीत्यार्थामिरागत्यतुष्टवुः स्तुतिभिर्जिनान् ॥३५६॥ समान नागपाशसे इस प्रकार बाँधा जिससे वे हिल-डुल न सकें ॥३४४-३४५।। इस प्रकार जब सुलोचना-सम्बन्धी प्रचण्ड युद्ध शान्त हो गया तब स्वर्गके पाँच प्रकारके कल्पवृक्षों से फूलोंकी वर्षा हुई ॥३४६॥ अपने दुर्जेय स्वामी ( भरत ) के पुत्र अर्ककीतिके जीतनेसे उत्पन्न हुई विजयलक्ष्मी जयकुमारके अहंकारके लिए नहीं हुई थी बल्कि इसके विपरीत लज्जाने ही उसे आ घेरा था ॥३४७॥ 'यह अयोग्य समयमें किये हए संग्रामके जीतनेसे आयी है' इस लज्जाके कारण जयकुमारके द्वारा दूर की हुई के समान उसकी वह कीर्ति उसी समय दिशाओंके अन्त तक चली गयी थी ॥३४८॥ जिस प्रकार समर्थ पुरुष जंगली हाथियोंके समान झुण्डके मालिक बड़े हाथीको पकड़कर राजाके लिए सौंपते हैं उसी प्रकार जयकुमारने बँधे हुए अनेक राजाओंके साथ अर्ककीर्तिको महाराज अकम्पनके लिए सौंप दिया, तदनन्तर उदयाचलके शिखरपर स्थित सूर्यमण्डलको तिरस्कृत करता हुआ विजयार्ध नामके बड़े भारी मदोन्मत्त हाथीके स्कन्धपर सवार होकर युद्धका मैदान देखनेके लिए निकला, चारों ओरसे युद्धका मैदान देखकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ, उसने मरे हुए लोगोंका वाहसंस्कार कराया और जीवित पुरुषोंके अच्छे होनेका उपाय कराया, इस प्रकार जिसका ऐश्वर्य प्रकट हो रहा है ऐसे जयकुमारने मेषप्रभ आदिके साथ-साथ सबको आनन्द मिलनेसे जिसकी शोभा खूब प्रकट की गयी है ऐसी काशीनगरीमें प्रवेश किया ॥३४९-३५२॥ महाराज अकम्पनने भी सैकड़ों राजपुत्रों तथा सिंहके समान तेजस्वी राजाओंके साथ-साथ नगरमें, पहुँचकर रक्षा करनेवाले जिनके साथ हैं ऐसे बँधे हुए अनेक राजाओं तथा अर्ककीतिको समझाने में कुशल नियुक्त किये हुए पुरुषों द्वारा समझा-बुझाकर उन्हें उनके योग्य स्थानपर पहुँचाया ॥३५३-३५४॥ अरहन्तदेवके प्रसादसे ही सब विघ्नोंका नाश होता है ऐसा विचारकर सब लोग वन्दना करनेके लिए नित्यमनोहर नामके चैत्यालयमें आये ॥३५५॥ उन सभीने दूरसे ही अपनी-अपनी सवारियोंसे उतरकर शान्तचित्त हो मन्दिरमें प्रवेश किया और प्रदक्षिणाएं देकर अर्थसे भरी हई स्तुतियोंसे जिनेन्द्रदेवकी स्तुति की ॥३५६।। १ सुलोचनासम्बन्धिनि । २ उपशान्ते । ३ 'मन्दारः पारिजातकः । सन्तानः कल्पवृक्षश्च पुंसि वा हरिचन्दनम्' इति पञ्चसुरभूजेभ्यः। ४ स्वर्गात् । ५ गर्वाय । ६ तस्यैनम् ल.। एनम् जयकुमारम् । ७ पुनः किमिति चेत् । ८ जयकुमारेण । ९ अनुचितस्थानकृतयुद्धविजयात् समुपागता। १० गजयूथाधिपम् । ११ बद्धः । १२ उदयाचल । १३ रवि । १४ शव । १५ जोवन्तीति जीवन्तस्तेषाम् । १६ जीवनोपायमित्यर्थः । १७ अभिलक्षितैः । १८ इव । १९ सह । २० सहस्रः। २१ नित्यमनोहराख्यं चैत्यालयम् । २२ निजवाहनेभ्यः । २३ स्तुति चक्रुः । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ आदिपुराणम् जयोऽपि जगदीशानमित्याप्तविजयोदयः। अस्तावीदस्तकर्माणं भकिनिर्भरचेतसा ॥३५७॥ वियोगिनी शमिताखिलविघ्नसंस्तवस्त्वयि तुच्छोऽप्युपयात्यतुच्छताम् । शुचिशुनिपुटेऽम्बु संघृतं ननु मुक्ताफलतां प्रपद्यते ॥३५८।। घट्यन्ति न विघ्नकोटयो निकटे त्वक्रमयोनिवासिनाम् । पटवोऽपि फलं दवाग्निमि भयमस्त्यम्बुधिमध्यवर्तिनाम् ॥३५९॥ हृदये त्वयि सन्निधापिते रिपवः केऽपि मयं विधित्सवः । अमृताशिषु सत्सु सन्ततं विषमोदार्पितविप्लवः कुतः ॥३६॥ उपयान्ति समस्तसंपदो विपदो विच्युतिमाप्नुवन्त्यलम् । वृषभं 'वृषमार्गदेशिनं झषकेतुद्विषमाप्नुषां सताम् ॥३६१॥ वसन्ततिलकम् इत्यं भवन्तमतिमक्तिपथं निनीषोः" प्रागेव बन्धकलयः' प्रलयं व्रजन्ति । पश्चादनश्वरमयाचितमप्यवश्यं १२सम्पत्स्यतेऽस्य विलसद्गुणमभद्रम् ॥३६२॥ जिसे विजयका ऐश्वर्य प्राप्त हुआ है ऐसा जयकुमार भी भक्तिसे भरे हुए हृदयसे समस्त कर्मों को नष्ट करनेवाले जगत्पति-जिनेन्द्रदेवकी इस प्रकार स्तुति करने लगा ॥३५७॥ हे समस्त विघ्नोंको नष्ट करनेवाले जिनेन्द्रदेव, आपके विषयमें किया हुआ स्तवन थोड़ा होकर भी बड़े महत्त्वको प्राप्त हो जाता है सो ठीक ही है क्योंकि पवित्र सीपके सम्पुटमें पड़ी हुई पानीकी एक बूंद भी मोतीपनेको प्राप्त हो जाती है-मोतीका रूप धारण कर लेती है ॥३५८॥ हे देव, फल देनेमें चतुर करोड़ों विघ्न भी आपके चरणोंके समीप निवास करनेवाले पुरुषोंको कुछ फल नहीं दे सकते सो ठीक ही है क्योंकि क्या समुद्रकें बीचमें रहनेवाले लोगोंको दावानलसे कभी भय होता है ? ॥३५९॥ हे प्रभो, आपको हृदयमें धारण करनेपर फिर ऐसे कौन शत्रु रह जाते हैं जो भय देनेको इच्छा कर सकें, निरन्तर अमृतभक्षण करनेवाले पुरुषोंमें किसी विषसे उत्पन्न हुआ उपद्रव कैसे हो सकता है ? ॥३६०॥ धर्मके मार्गका उपदेश देनेवाले और कामदेवके शत्रु श्रीवृषभदेवकी शरण लेनेवाले सज्जन पुरुषोंको सब सम्पदाएँ अपनेआप मिल जाती हैं और उनकी सब आपत्तियां अच्छी तरह नष्ट हो जाती हैं ॥३६१॥ हे शोभायमान गुणोंसे कल्याण करनेवाले जिनेन्द्र, इस प्रकार जो आपको अतिशय भक्तिके मार्गमें ले जाना चाहता है उसके कर्मबन्धके सब दोष पहले ही से प्रलयको प्राप्त हो जाते हैं और फिर पीछेसे कभी नष्ट नहीं होनेवाला मोक्षरूपी कल्याण बिना माँगे ही अवश्य प्राप्त हो १ प्राप्त । २ स्तौति स्म । ३ अस्ति किम् । ४ सन्निधानीकृते । ५ परिभवम् । ६ विधातुमिच्छवः । ७ अमृतमश्नन्तीति अमृताशिनस्तेषु । ८ धर्ममार्गोपदेशकम् । ९ प्राप्नुवताम् । १० नेतुमिच्छोः । ११ बन्धदोषाः । १२ सम्पन्नं भविष्यति । १३ कल्याणम् । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व मालिनी परिणतपरितापान्स्वेदधारी विलक्षो' विगलितविभुभावो विह्वशीभूतचेताः ।. अधित विधिविधानं चिन्तयश्चक्रिसूनु विरहविधुरवृत्तिं वीरलक्ष्मीवियोगे ॥३६३॥ वसन्ततिलकम् येषामयं जितसुरः समरे सहाय स्तानप्यहं कृतरतिः समुपासयामि । धुर्योऽयमेव यदि काऽन्न विलम्बनेति मत्वेव मङ्क्षु समियाय जयं जयश्रीः ॥३६॥ मालिनी स१ १२बहुतरमरा जन्प्रोच्छितान् शत्रुपासून्" १द्रुतमिति समयित्वा वृष्टिभिः सायकानाम् । उपगतहरिभूमिः प्राप्य भूरिप्रताप दिनकर इव "कन्यासंप्रयोगाभिलाषी ॥३६५॥ शार्दूलविक्रीडितम् सौभाग्येन यदा स्ववक्षसि धृता माला तदैवापर वीरोवीध्रमवार्यवीर्यविभवो विभ्रश्य' विश्वद्विषः । वीरश्रीविहितं दधौ स शिरसाऽम्लानं यशः शेखरं लक्ष्मीमान् विदधाति साहससखः किंवा न पुण्योदये" ॥३६६॥ . . जाता है । ३६२ ॥ प्राप्त हुए सन्तापसे जिसे पसीना आ रहा है, जो लज्जित हो रहा है, 'मैं सबका स्वामी हूँ' ऐसा अभिप्राय जिसका नष्ट हो गया है, जिसका चित्त विह्वल हो रहा है, और जो भाग्यकी गतिका विचार कर रहा है ऐसे अर्ककोतिने वीरलक्ष्मीका वियोग होनेपर उसके विरहसे विधुर वृत्ति धारण की थी ॥ ३६३ ।। देवोंको जीतनेवाला यह जयकुमार युद्ध में जिनकी सहायता करता है मैं उनकी भी बड़े प्रेमसे उपासना करती हूँ, फिर यदि यह ही सबमें मुख्य हो तो इसमें विलम्ब क्यों करना चाहिए ऐसा मानकर ही मानो विजयलक्ष्मी जयकुमारके पास बहुत शीघ्र आ गयी थी ॥ ३६४ ॥ इस प्रकार बाणोंकी वर्षासे ऊपर उठी हुई शत्रुरूपी धूलिको शीघ्र ही नष्ट कर पराक्रमके द्वारा सिंहका स्थान प्राप्त करनेवाला और अब कन्याके संयोगका अभिलाषी जयकुमार उस सूर्यकी तरह बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था जो कि सिंह राशिपर रहकर कन्या राशिपर आना चाहता है ।।३६५। जिसकी पराक्रमरूपी सम्पत्तिका कभी कोई निवारण नहीं कर सकता ऐसे शूरवीर जयकुमारने जिस समय सौभाग्यके वशसे अपने वक्षःस्थलपर माला धारण को थी उसी समय सब शत्रुओंको नष्ट कर वीरलक्ष्मीका बना हुआ तथा कभी नहीं मुरझानेवाला यशरूपी दूसरा सेहरा भी उसने अपने मस्तकपर धारण किया था, सो ठीक ही है क्योंकि जो लक्ष्मीमान् है, साहसका मित्र है और जिसके पुण्य १ विस्मयान्वितः । २ विभुत्वरहितः । ३ धरति स्म ।. ४ कर्मभेदम् । ५ विरहविक्लवस्य वर्तनम् । ६ जयकुमारः । ७ धुरंधरः । ८ कालक्षेपः । ९ शीघ्रम् । १० जयकुमारम् । ११ जयः । १२ अत्यधिकम् । १३ विराजति स्म । १४ उन्नतान् । १५ रेणुन् । १६ शीघ्रम् । १७ प्राप्तशक्रपदः । प्राप्तसिंहराशिस्थानश्च । १८ संतापम्, प्रभावम् । १९ सुलोचनासङ्गाभिलाषी। कन्याराशिगतसंप्रयोगाभिलाषी च । २० शुभ्रम् । २१ पातयित्वा । २२ कृतम् । २३ साहस एव सखा । २४ पुष्पोदये ल०, अ०, ५०, स०, इ० । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् शिखरिणी 'जयोऽ यान्सोऽयश्च प्रभवति गुणेभ्यो गुणगणः सदाचारात्सोऽपि तव विहितवृत्तिः श्रुतमपि । प्रणीतं सर्वविदितसकलास्ते खलु जिना स्ततस्तान विद्वान् संश्रयतु जयमिच्छन् जय इव ॥३६७॥ इत्याचे त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते जयविजयवर्णनं नाम चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ॥४४॥ उदय है वह क्या नहीं कर सकता है ? ॥ ३६६ ॥ इस संसारमें विजय पुण्यसे होती है, वह पुण्य गुणोंसे होता है, गुणोंका समूह सदाचारसे होता है, उस सदाचारका निरूपण शास्त्रोंमें है, शास्त्र सर्व देवके कहे हुए हैं और सर्वश सब पदार्थोंको जाननेवाले जिनेन्द्रदेव है इसलिए विजयको इच्छा करनेवाले विद्वान् पुरुष जयकुमारके समान उन्हीं जिनेन्द्रदेवोंका आश्रय करेंउन्हींकी सेवा करें ॥ ३६७.॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध गुणभद्राचार्य विरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके . हिन्दी भाषानुवादमें जयकुमारकी विजयका वर्णन करनेवाला चौवालीसा पर्व समाप्त हुआ । १ विजयः । २ पुण्यात् । ३ पुण्यं च । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व अथ मंघस्वरो गत्वा 'प्रथमानपराक्रमः । मथितारातिदुर्गर्वः पृथु स्वावासासितः ॥१॥ स्वयं च संचिताघानि हन्तुं स्तुत्वा जिनेशिनः । अकम्पनमहाराजः समालोक्य सुलोचनाम् ॥ २॥ कृताहारपरित्यागनियोगामायुधस्तदा। सुप्रभातपर्युष्टिं कायोत्सर्गग सुस्थिताम् ॥ ३॥ सर्वशान्तिकरी ध्याति ध्यायन्ती स्थिरचेतसा । धामैका व्यनि पन्दा जिनेन्द्राभिमुखी मुदा ॥ ४ ॥ समभ्यच्य समाश्वास्य प्रशस्य बहुशो गुणान् । भवन्माहात्म्यतः पुत्रि शा.तं सर्वममङ्गलम् ॥ ५॥ प्रतिध्वस्तानि पापानि नियाममुसहर । इत्युक्षिप्तकरामुक्त्वा पुरस्कृत्य सुतां सुतैः ॥ ६॥ हृष्टः सुप्रभया चामा राजगेहं प्रविश्य सः। याहि पुत्रि निजागारं विसज्येति सुलोचनाम् ॥ ७ ॥ अन्यथा चिन्तितं कार्य देवेन कृतमन्यथा । इति कर्तव्यतामृटः 'लुश्रुतादिभिरिद्वधीः ॥ ८॥ . औत्पत्तिक्यादि धीभेदैःलोच्य सचिवोत्तमैः । विद्याधरधराधीशान् विपाशीकृत्य कृत्यवित् ॥ ९॥ विश्वानाश्वास्य तद्योग्यैः "सामसारुदीरितैः । सम्यग्विहितसत्कारः स्नानवस्त्रासनादिभिः ॥१०॥ "कमार वंशी युप्माभिर्विहिती वर्धितौ च नः" । तरविषमयोऽप्यति'यतोऽभून्न ततः क्षयम् ॥११॥ अथानन्तर-प्रसिद्ध पराक्रमका धारक और शत्रुओंके मिथ्या अभिमानको नष्ट करनेवाला जयकुमार अपने विशाल निवासस्थानमें जाकर ठहर गया ॥ १ ॥ इधर महाराज अकम्पनने स्वयं संचित किये हुए पाप नष्ट करनेके लिए श्री जिनेन्द्रदेवकी स्तुति की और फिर जिसने यद्ध समाप्त होनेतक आहारके त्याग करनेका नियम ले रखा है, माता सुप्रभा जिसके समीप बैठी हुई है, जो कायोत्सर्गसे खड़ी हुई है, स्थिरचित्तसे सब प्रकारकी शान्ति करनेवाला धर्मध्यान कर रही है, एकाग्र मनसे निश्चल है और आनन्दसे जिनेन्द्रदेवके सन्मुख खड़ी है ऐसी सुलोचनाको देखकर उसका सत्कार किया, आश्वासन देकर उसके गुणोंको अनेक बार प्रशंसा की तथा इस प्रकार शब्द कहे-'हे पुत्रि, तुम्हारे माहात्म्यसे सब अमंगल शान्त हो गये हैं, सब प्रकारके पाप नष्ट हो गये हैं, अब तू अपने नियमोंका संकोच कर ।' ऐसा कहकर उन्होंने हाथ जोडकर खडी हुई सुलोचनाको आगे किया और राजपुत्रों तथा रानी सुप्रभाके साथ-साथ राजभवनमें प्रवेश किया। फिर 'हे पुत्रि ! तू अपने महल में जा' ऐसा कहकर सुलोचनाको बिदा किया ॥२-७॥ पूनः यह कार्य अन्य प्रकार सोचा गया था और देवने अन्य प्रकार कर दिया अब क्या करना चाहिए इस विषयमें मूढताको प्राप्त हुए अतिशय बुद्धिमान् महाराज अकम्पनने औत्पत्तिकी आदि ज्ञानके भेदोंके समान सुश्रुत आदि उत्तम मन्त्रियोंके साथ विचार कर विद्याधर राजाओंको छोड दिया। फिर कार्यको जाननेवाले उन्हीं अकम्पनने बडी शान्तिसे उनके योग्य कहे हए वचनोंसे उन सबको आश्वासन देकर स्नान, वस्त्र, आसन आदिसे सबका अच्छी तरह सत्कार किया ॥८-१०।। तथा अर्ककीर्तिसे कहा कि 'हे कुमार ! हमारे नाथवंश और सोम १ प्रकाशमान । २ स्वावासगृहे स्थितः । ३ युद्धावसानपर्यन्तम् । ४ निजजननी विहितरक्षाजिनपूजादिपरिचर्याम । ५ ध्यानम् । ६ एकाग्रत्वेन निश्चलाम् । ७ नियमम् । ८ त्यज । ६ गच्छ । १० सुश्रुतप्रभृतिमन्त्रिभिः । ११ जन्मव्रतनियमोषधतपोभिरुत्पन्नज्ञानभेदैः । १२ नागपाशबन्धनं गोत्रयित्वा। १३ साम्नां सारैः । १४ वचनैः। १५ हे अर्ककोर्ते । १६ नायवंशमोमवंशो। १७ कृतौ। १८ जयस्य अरमाकं च । १९ यस्मात् पुरुषात् । २० मंजातम् । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् पुत्रबन्धुपदातीनामपराधशतान्यपि । क्षमन्ने हि महात्मानस्तद्वि तेषां विभूषणम् ॥ १२ ॥ भवेहेवादपि स्वामिन्यपराधविधायिनाम् । आकल्पमयशः पापं चानुबन्धनिबन्धनम् ॥ १३॥ अपराधः कुतोऽस्माभिरकोऽयमविवेकिभिः । वयं वो बन्धुभृत्यास्त कुमार क्षन्तुमर्हसि ॥ १४ ॥ एषा कीर्तिरघं चैतत् प्रसादात्ते प्रशाम्यति । शापानुग्रहयोः शक्तस्त्वं विशुद्धिं विधेहि नः ॥ १५॥ अणालोकनारोधि हन्यते जगतस्तमः । अस्माकं स भवानर्कस्तस्मादन्तस्तमो हरेत ॥ ६॥ प्रातिकृल्यं तवास्मासु स्तन्यस्व स्तनधय । अस्मजन्मान्तरा दृष्टपरिपाकविशेषतः ॥ १७ ॥ विश्वविश्वम्भराहादी यदि क्षिपति वारिदः । कदाऽप्यशनिमेक स्मिस्तत्तस्यैवाशुभोदयः ॥ १८ ॥ हयेनेव दुरारोहाज्जयनेहासि पातितः । स ते प्रेष्यः किमत्रास्ति वैमनस्यस्य कारणम् ॥ १९ ॥ सुलोचनेति का वार्ता सर्वस्वं नस्तवैव तत् । निषिद्धश्चेत्त्वया पूर्व क्रियते किं स्वयंवरः ॥२०॥ लक्ष्मीमती गृहाणेमामक्षमालापराभिधाम् । निर्मलां वा यशोमालां किं ते 'पाषाणमालया ॥ २१॥ वंश दोनों ही आपके द्वारा बनाये गये हैं और आपके द्वारा ही बढ़ रहे हैं। विषका वृक्ष भी जिससे उत्पन्न होता है उससे फिर नाशको प्राप्त नहीं होता ।।११॥ महात्मा लोग पुत्र, बन्ध तथा पियादे लोगोंके सैकड़ों अपराध क्षमा कर देते हैं क्योंकि उनको शोभा इसी में है ।। १२ ।। औरोंकी वात जाने दीजिए जो देवके भी अधीन होकर स्वामीका अपराध करते हैं उनका अपयश कल्पान्त काल तक बना रहता है और उनका यह पाप भी अनेक दोषोंका बढ़ानेवाला होता है ॥१३॥ हम मूल्ने आपका यह एक अपराध किया है। चूंकि हम लोग आपके भाइयों और भृत्योंमें-से हैं इसलिए हे कुमार, यह अपराध क्षमा कर देने योग्य है ॥१४॥ यह हमारी अपकीर्ति और पाप आपके प्रसादसे शान्त हो सकता है क्योंकि आप शाप देने तथा उपकार करने-दोनोंमें समर्थ हैं इसीलिए हम लोगोंकी शुद्धता अवश्य कर दीजिए ॥१५॥ प्रकाशको रोकनेवाला संसारका अन्धकार सूर्यके द्वारा नष्ट किया जाता है परन्तु हमारे लिए तो आप ही सूर्य हैं इसलिए हमारे अन्तःकरणके अन्धकारको आप ही नष्ट कर सकते हैं ।।१६॥ पूर्वजन्मके पाप कर्मोंके विशेष उदयसे हम लोगोंके लिए जो आपका यह विरोध उपस्थित हुआ है वह मानो पुत्रके लिए माताके दूधका विरोध उपस्थित हुआ है। भावार्थ-जिस प्रकार माताके दूधके बिना पुत्र नहीं जीवित रह सकता है उसी प्रकार आपकी अनुकूलताके बिना हम लोग जीवित नहीं रह सकते हैं ॥१७॥ समस्त पृथिवीको आनन्दित करनेवाला बादल यदि कदाचित् किसी एक पर वज्र पटक देता है तो इसमें बादलका दोष नहीं है किन्तु जिसपर पड़ा है उसीके अशुभ कर्मका उदय होता है ॥१८॥ चढ़ना कठिन होनेसे जिस प्रकार घोड़ा किसीको गिरा देता है उसी प्रकार जयकुमारने आपको गिरा दिया है परन्तु वह तो आपका सेवक है इसमें बुरा माननेका कारण ही क्या है ? ॥१९॥ सुलोचना, यह कितनी-सी बात है ? हमारा जो सर्वस्व है वह आपका ही है। यदि आप पहले ही रोक देते तो स्वयंवर ही क्यों किया जाता ? ॥२०॥ जिसका दूसरा नाम अक्षमाला है ऐसी मेरी दूसरी पुत्री लक्ष्मीमतीको आप ग्रहण कीजिए। यह लक्ष्मीमती यशको मालाके समान निर्मल है, पाषाण (रत्नों) की मालासे आपको क्या प्रयो १ अलब्धलाभ. लब्धपरिरक्षणं रक्षितविवर्द्धनं चेत्यनुबन्धः ते एव निबन्धनं कारणं यस्य । २ युष्माकम् । ३ तत् कारणात् । ते द० । ४ स्तनक्षीरस्य । ५ शिशौ । यथा स्तनक्षीरस्य प्रातिकूल्यं शिशोर्जीवनाय न स्यात तथा तब प्रातिकूल्यमपि अस्माकम् । ६ अशुभकर्म । ७ एकस्मिन् पुंसि । ८ जयः । ९ तव किंकरः । १० स्वयंवरे क्षिप्तपापाणमालया। सुलोचनयाक्षिप्तरत्नमालया। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व आहारस्य' यथा तेऽद्य विकारोऽयं विना त्वया । जीविकास्ति किमस्माकं प्रसीदतु विभो भवान् ॥२२॥ यद्वयं भिन्नमर्यादे त्वय्यवार्यऽम्बुधाविव । तत्तेऽवशिष्टाः पुण्येन भवत्प्रेषणकारिणः ॥२३॥ त्वं वह्निनेव केनापि पापिना विश्व वितः । उष्णीकृतोऽसि प्रत्यस्मान् शीतीमव हि वारि वा ॥२४॥ न चेदिमान् सुतान् दारान् प्रतिग्राहय पालय । मम तावाश्रयौ यामि पुरूणां पादपादषौ ॥२५॥ इति प्रसाद्य संतोप्य समारोप्य गजाधिपम् । अर्ककीर्ति पुरोधाय वृतं भूचरखेचरैः ॥२६॥ शान्तिपूजां विधायाष्टौ दिनानि विविधद्धिकाम् । महाभिषेकपर्यन्तां सर्वपापोपशान्तये ॥२७॥ जयमानीय संधार्य संधानविधिवित्तदा । नितरां प्रीतिमुत्पाद्य कृत्वैकीभावमक्षरम् ॥२८॥ 'अक्षिमालां महाभूत्या दत्वा सर्वार्थसंपदा । संपूज्य गमयित्वैनम"नुगम्य यथोचितम् ॥२६॥ तथेतरांश्च संमान्य नरविद्याधराधिपान् । सद्यो विसर्जयामास सद्रलगजवाजिभिः ॥३०॥ ते स्वदुर्णयलज्जास्तवैराः स्वं स्वमगुः"पुरम् । साधीदेवा पराधस्य प्रतिकी हि याऽचिरात्॥३१॥ जन है ? ॥२१॥ आज यह आपका विकार आहारके विकारके समान है, क्या आपके बिना हम लोगोंकी जीविका रह सकती है ? इसलिए हे प्रभो, हम लोगोंपर प्रसन्न हूजिए। भावार्थ - जिस प्रकार भोजनके बिना कोई जीवित नहीं रह सकता उसी प्रकार आपकी प्रसन्नताके बिना हम लोग जीवित नहीं रह सकते इसलिए हम लोगोंपर अवश्य ही प्रसन्न हूजिए ॥२२॥ हम लोग तो इधर-उधर भेजने योग्य सेवक हैं और आप जिसका निवारण न हो सके ऐसे समद्रके समान हैं। हे नाथ, आपके मर्यादा छोडनेपर भो जो हम लोग जीवित बच सके हैं सो अ पुण्यसे ही बच सके हैं ॥२३॥ आप पानीके समान सबको जीवित करनेवाले हैं जिस प्रकार अग्नि पानीको गरम कर देती है उसी प्रकार किसीने हम लोगोंके प्रति आपको भी गरम अर्थात् क्रोधित कर दिया है इसलिए अब आप पानीके समान ही शीतल हो जाइए ॥२४॥ यदि आप शान्त नहीं होना चाहते हैं तो इन पुत्रों और स्त्रियोंको स्वीकार कीजिए, इनकी रक्षा कीजिए, मैं हम आप दोनोंके आश्रय श्रीवृषभदेवके चरणरूपी वृक्षोंके समीप जाता हूँ ॥२५।। इस प्रकार भूमिगोचरी और विद्याधरोंसे घिरे हुए अर्ककीर्तिको प्रसन्न कर, सन्तुष्ट कर और उत्तम हाथीपर सवार कराकर सबसे आगे किया तथा सब पापोंकी शान्तिके लिए आठ दिन तक बड़ी विभतिके साथ महाभिषेक होने पर्यन्त शान्तिपूजा की। मेलमिलापकी विधिको जाननेवाले अकम्पनने जयकुमारको भी वहाँ बुलाया और उसी समय सन्धि कराकर दोनोंमें अत्यन्त प्रेम उत्पन्न करा दिया तथा कभी न नष्ट होनेवाली एकता करा दी। तदनन्तर अर्ककीर्तिको बड़े वैभव और सब प्रकारकी धनरूप सम्पदाओंके साथ-साथ अक्षमाला नामकी कन्या दी, अच्छा आदर-सत्कार किया और उनकी योग्यताके अनुसार थोड़ी दूर तक साथ जाकर उन्हें बिदा किया। इसी प्रकार अच्छे-अच्छे रत्न, हाथी और घोड़े देकर अन्य भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंका सन्मान कर उन्हें भी शीघ्र ही बिदा किया॥२६-३०॥ अपने अन्यायके कारण उत्पन्न हुई लज्जासे जिनका वैर दूर हो गया है ऐसे वे सब लोग अपने-अपने नगरको चले गये, सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धि वही है जो भाग्यवश हुए अपराधका शीघ्र ही प्रतिकार कर लेती - १ आहारो यथा विनाशयति । २ विश्वेषां जीवनं यस्मात् स विश्वजीवितः । विश्वजीवनः अ०, १०, स०, इ०, ल० । ३ जलम् । ४ इव । ५ एवं न चेत् । ६ प्रतिग्रहं कुरु । ७ अग्रे कृत्वा । ८ अन्योन्यसंबन्धं कृत्वा ।। ९ अविनश्वरम् । १० अक्षमालाम् अ०, स०, इ०, ल०। ११ अर्ककीर्तिम् । १२ किचिदन्तरं गत्वा । १३ निरस्त । १४ स्वां स्वामगुः पुरीम् द०, अ०, स०। १५ जगुः । १६ वाज्जातापराधस्य । १७ प्रतिविधानं करिष्यति । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ आदिपुराणम् 3 1 ५० 13 तदा पूर्वोदितो देवः समागत्य सुसंपदा । सुलोचनाविवाहोरुकल्याणं समपादयत् ॥ ३२ ॥ - मेघप्रभ सुकेः वादिसमहायान सहानुजः । जयोऽप्यगमयत् सर्वान् सन्तर्यार्थे बहुप्रियः ॥ ३३ ॥ * नाथवंशाग्रणीश्राम। "अमालोय सत्वरम् सुधीः गृहसाराणि वच्या रत्नान्युपायनम् ॥३४॥ विदित प्रस्तुतार्थोऽसि यथाऽसौ नः प्रसीदति । तथा कुर्विति चक्रेशं सुमुखाख्यमजी गमत् ॥३५॥ आ गया निवेद्य दृष्ट्वेशं धरणी तनुस् । क्षिप्त्वा प्रणम्य दत्वा च प्राभृतं निभृताञ्जलिः' देवस्यानुचरो देव प्रणम्याकम्पनो भयात् । देवं विज्ञापयत्येवं प्रसादं कुरु तच्छृणु ॥ ३७ ॥ सुलोचनेति नः कन्यासारस्त्वद्विहितश्रिये । स्वयंवरविधानेन संप्रादायि जयाय सा ॥ ३८ ॥ ។ 9 'तत्रागत्य कुमारोऽपि प्राक् सर्वमनु "मध्य तत्" । विद्याधरधराधीशैः सुप्रसन्नैः सह स्थितः ॥३६॥ पश्चात् कोऽपि ग्रहः क्रूरः स्थित्वा सह शुभग्रहम् । खलो बलाद्ययाऽस्मभ्यं वृथा कोपयति स्म तम् ॥४०॥ विज्ञातमेव देवेन सर्व संविधानकम् । चार श्वेतकिं पुनः सावधिर्भवान् ॥४१॥ 'कुमारो हि कुमारोऽसौ नापराधोऽस्ति कश्चन । 'तत्र तस्य सदोषाः स्मो वयमेव प्रमादिनः ॥४२॥ ५ २० ૨૨ २५ २६ ૨૪ ૨૩ の ॥३१ ॥ उसी समय पहले कहे हुए देवने आकर बड़े वैभवके साथ सुलोचनाके विवाहका उत्सव सम्पन्न किया ||३२|| सबके प्यारे जयकुमारने भी अपने छोटे भाइयोंके साथ साथ मेघप्रभ सुकेतु आदि अच्छे-अच्छे सब सहायकोंको धन द्वारा सन्तुष्ट कर विदा किया ||३३|| तदनन्तर नाथवंश के शिरोमणि अतिशय बुद्धिमान् अकम्पनने अपने जमाई जयकुमारके साथ सलाह की और अपने घरके अच्छे-अच्छे रत्न भेंट में देनेके लिए बाँधकर सुमुख नामक दूतको यह कहकर चक्रवर्तीके पास भेजा कि तू वर्तमानका सब समाचार जानता ही है, चक्रवर्ती जिस प्रकार हम लोगोंपर प्रसन्न हों वही काम कर ।। ३४-३५ ।। उस दूसने शीघ्र ही जाकर पहले अपने आने की खबर भेजी फिर चक्रवर्तीके दर्शन कर पृथिवीपर अपना शरीर डाल प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर साथमें लायी हुई भेंट देकर कहा कि हे देव, अकम्पन नामका राजा आपका अनुचर है वह प्रणाम कर भयसे आपसे इस प्रकार प्रार्थना करता है सो प्रसन्नता कीजिए और उसे सुन लीजिए || ३६-३७|| उसने कहा है कि सुलोचना नामकी मेरी एक उत्तम कन्या थी वह मैंने स्वयंवर - विधिसे आपने ही जिसकी लक्ष्मी अथवा शोभा बढ़ायी है ऐसे जयकुमारके लिए दी थी ||३८|| कुमार अर्ककीर्तिने भी उस स्वयंवर में पधारकर पहले सब बात स्वीकार कर ली थी और वे प्रसन्न हुए विद्याधर राजाओंके साथ-साथ वहाँ विराजमान थे ||३९|| तदनन्तर जिस प्रकार कोई दुष्ट शुभ ग्रहके साथ ठहरकर उसे भी दुष्ट कर देता है उसी प्रकार किसी दुष्टने जवरदस्ती हम लोगोंपर व्यर्थ ही उन्हें क्रोधित कर दिया ||४०|| इसके बाद वहाँ जो 'कुछ' भी हुआ था वह सब समाचार आपको विदित ही है क्योंकि गुप्तचर रूप नेत्रोंको धारण करनेवाला साधारण राजा भी जब यह सब जान लेता है तब फिर भला आप तो अवधिज्ञानी हैं, आपका क्या कहना है ? ।। ४१ ।। कुमार तो अभी कुमार (लड़का ) ही हैं उसमें सदोष हैं प्रमाद करनेवाले केवल हम लोग ही इसमें उनका कुछ भी दोष नहीं है, १ स्वयंवर निर्माण प्रोक्तविचित्राङ्गकसुरः । २ सहानुजान् प०, इ० म०, ल० । ३ बहवः प्रियाणि मित्राणि यस्य सः। ४ अकम्पनः। ५ पुत्र्याः प्रियेण सह । ६ निजगृहे स्थितेषूत्कृष्टानि । ७ प्राभृतम् । ८ चक्री । ९ सुमुखा दूतम् १० गमयति स्म। ११ दूतः । १२ भूम्याम् । १३ स्थिराञ्जलिः | १४ कन्या सूत्कृष्टत्वात् । १५ स्वया कृतं जयाय संप्रादामीति संबन्धः । १६ दत्ता १७ स्वयंवरे १८ अनुमति कृत्या १९ स्वयंवर विधानम् | २० चन्द्रादिशुभग्रहान्वितं यथा भवति तथा स्थित्वा कोपयति तं तथेति संबन्धः । २१ तद्वृत्तान्तम् । २२ चारा गूढ गुरुपा एवं चक्षुर्यस्य । २३ अवधिज्ञानसहितः । २४ बालकः । २५ संविधाने । २६ सापराधाः । २७ भवामः । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व ४२६ तस्मै कन्यां गृहाणेति नास्माभिः सा समर्पिता । आराधकस्य दोषोऽसौ यत् प्रकुप्यन्ति देवताः ॥४३॥ `मयैव विहिताः सम्यक् वर्धिता बन्धवोऽपि नः । स्निग्धाश्च कथमेतेषां विदधामि विनिग्रहम् ॥४४॥ इत्येतद्देव मा मँस्थाः स्यात् सदोषो यदि त्वया । कुमारोऽपि निगृह्येत न्यायोऽयं वदुपक्रमः ॥ ४५॥ तदादिश' विधेयको दण्डस्त्रविधेऽपि नः । किंविधः किं परिक्लेशः किं वार्थहरणं प्रभो ॥ ४६ ॥ तवादेशविधानेन नितरां कृतिनो वयम् । इहामुत्र च तदेव यथार्थमनुशाधि नः ॥ ४७ ॥ इति प्रश्रयणी वाणीं निगम हृदयप्रियाम् । सुमुखो राजराजस्य व्यरंसीत् करसंज्ञया ॥ ४८ ॥ सतां चर्चासि चेतांसि हरन्त्यपि हि रक्षसाम् । किं पुनः सामसाराणि ' तादशां" समतादृशाम् ॥ ४९ ॥ इति प्रसन्नोक्त्या प्रफुलवदनाम्बुजः । उपसिंहासनं चक्री "निसृष्टार्थं निवेश्य तम् ॥ ५० ॥ अकम्पनैः किमित्येवमुदीर्य प्रहितो'' भवान् । पुरुभ्यो निर्विशेषास्ते सर्वज्येष्टाश्च सम्प्रति ॥ ५१॥ गृहाश्रमे त एवार्थ्यास्तैरेवाहं च बन्धुमान् । निषेद्वारः प्रवृत्तस्य ममाप्यन्यायवर्त्मनि ॥ ५२॥ पुरवो मोक्षमार्गस्य गुरवो दानसन्ततेः । श्रेयांश्व चक्रिणां वृत्तेर्यथेहास्म्यहमग्रणीः ॥ ५३ ॥ तथा स्वयंवरस्येमं नाभूवन् यद्यकम्पनाः । कः प्रवर्तयिताऽन्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥५४॥ 3 ॥ ४२ ॥ ' तुम इस कन्याको ग्रहण करो' ऐसा कहकर तो मैंने जयकुमार के लिए दी नहीं थी, तथापि देवता जो कुपित हो जाते हैं उसमें देवताका नहीं किन्तु आराधना करनेवाले ही का दोष समझा जाता है || ४३ || ये सब वंश मेरे ही बनाये हुए हैं, मेरे ही बढ़ाये हुए हैं, मेरे ही भाई हैं और मुझसे ही सदा स्नेह रखते हैं इसलिए इनका निग्रह कैसे करूँ ऐसा आप मत मानिए क्योंकि यदि आपका पुत्र भी दोषी हो तो उसे भी आप दण्ड देते हैं, इस न्यायका प्रारम्भ आपसे ही हुआ है । इसलिए हे प्रभो, आज्ञा दीजिए कि इस अपराधके लिए हम लोगोंको तीनों प्रकारके दण्डों में से कौन-सा दण्ड मिलने योग्य है ? क्या फाँसो ? क्या शरीरका क्लेश अथवा क्या धन हरण कर लेना ? || ४४-४६ ।। हे देव, आपकी आज्ञा पालन करनेसे ही हम लोग इस लोक तथा परलोक में अत्यन्त धन्य हो सकेंगे इसलिए आप अपराधके अनुसार हमें अवश्य दण्ड दीजिए || ४७ ।। इस प्रकार नम्रतासे भरे हुए और हृदयको प्रिय लगनेवाले वचन कहकर वह सुमुख दूत राजराजेश्वर चक्रवर्तीके हाथके इशारेसे चुप हो गया ।। ४८ ।। जब कि सज्जन पुरुषोंके वचन राक्षसोंके भी चित्तको मोहित कर लेते हैं तब सबको समान दृष्टिसे देखनेवाले भरत-जैसे महापुरुषोंके शान्तिपूर्ण चित्तकी तो बात ही क्या है ? ||४९ || जिनका मुखरूपी कमल प्रफुल्लित हो रहा है ऐसे चक्रवर्तीने 'यहाँ आओ' इस प्रकार प्रसन्नता भरे वचनोंसे उस दूतको अपने सिंहासन के निकट बैठाकर उससे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया कि 'महाराज अकम्पन ने इस प्रकार कहकर आपको क्यों भेजा है ? वे तो हमारे पिताके तुल्य हैं और इस समय हम सभीमें ज्येष्ठ हैं ।। ५०-५१ ॥ गृहस्थाश्रममें तो मेरे वे ही पूज्य हैं, उन्हीं से मैं भाई-बन्धु वाला हूँ, औरकी क्या बात ? अन्यायमार्ग में प्रवृत्ति करनेपर वे मुझे भी रोकनेवाले हैं ।। ५२ ।। इस युगमें मोक्षमार्ग चलानेके लिए जिस प्रकार भगवान् वृषभदेव गुरु हैं, दानकी परम्परा चलाने के लिए राजा श्रेयांस गुरु हैं और चक्रवर्तियोंकी वृत्ति चलाने में मैं मुख्य हूँ, उसी प्रकार स्वयंवरकी विधि चलाने के लिए वे ही गुरु हैं । यदि ये अकम्पन महाराज नहीं होते तो इस स्वयंवर मार्गका चलानेवाला दूसरा कौन था ? यह मार्ग अनादि कालका है - १०. १ जयाय । २ भरतेनैत्र । ३ स्नेहिता । ४ त्वया प्रथमोपक्रान्तः । ५ तत् कारणात् । ६ दोषे । ७ नियामय । ८ तूष्णीं स्थितः । ९ राक्षसानाम् । १० वचांसि साम्नां साराणि चेत् । ११ सताम् । १२ समत्वनेत्राणाम् । १३ अत्रागच्छेति । १४ सिंहासनसमीपे । १५ दूतमुख्यम् । १६ प्रेषितः । १७ पुरुजिनेभ्यः । गुरुभ्यो अ०, म०, ल०, इ०, स० । १८ अकम्पना एव । १९ स्वयंवरमार्गः । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० आदिपुराणम् मागांश्चिरन्तनान् येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नूतनान् सन्तः सद्भिः पूज्यास्त एव हि॥५५॥ न चक्रेण न रत्नैश्च शेषैर्न निधिभिस्तथा । बलेन न षडङगेन नापि पुत्रैर्मया च न ॥५६॥ तदेतत् सार्वभौमत्वं जयेनैकेन केवलम् । सर्वत्र शौर्यकार्येषु तेनैव विजयो मम ॥५७॥ म्लेच्छराजान् विनिर्जित्य नाभिशैले यशोमयम् । मन्नाम स्थापितं तेन किमत्रान्प्रेन केनचित् ॥५॥ अर्ककीर्तिरकीर्ति मे कीर्तनीयामकीर्तिपु । आशशाङ्कमिहाकार्षीन्मषीमाषमलीमसाम् ॥५९॥ अमुना न्यायवत्मैव प्रावतीति न केवलम् । इह स्वयं च दण्ड्यानां प्रथमः परिकल्पितः ॥६॥ अभूदयशसो रूपं मत्प्रदीपादिवाञ्जनम् । नार्ककीर्तिरसौ स्पटमयशःकीर्तिरेव हि ॥६१॥ जय एव मदादेशादी शोऽन्यायवर्तिनः । समीकुर्यात्ततस्तन स साधु दमितो युधि ॥६२॥ सदोषो यदि निर्ग्राह्यो ज्येष्ठ पुत्रोऽपि भूभुजा । इति मार्गमहं तस्मिन्नद्य वर्तयितुं स्थितः ॥६३॥ अक्षिमाला किल प्रत्ता तस्मै कन्याऽवलेपिने'। भवभिरविचायतद विरूपकमनुष्टितम् ॥६॥ पुरस्कृत्येह तामेतां नीतः सोऽपि प्रतीक्ष्यताम् । सकलङ्कति किं मूर्तिः परिहतुं भवेद्विधोः ॥६५॥ उपेक्षितः सदोषोऽपि स्वपुत्रश्चक्रवर्तिना। इतीदमयशः स्थायि' व्यधायि तदकम्पनैः ॥६६॥ इति सन्तोप्य विश्वेशः सौमुख्यं सुमुखं नयन् । हित्वा ज्येष्ठं तुजं''तोक मकरोन्न्यायमौरसम्॥६॥ ॥५३-५४।। इस युगमें भोगभूमिसे छिपे हुए प्राचीन मार्गोको जो नवीन कर देते हैं वे सत्पुरुष ही सज्जनों-द्वारा पूज्य माने जाते हैं । ५५ ।। मेरा यह प्रसिद्ध चक्रवर्तीपना न तो चक्ररत्नसे मिला है, न शेष अन्य रत्नोंसे मिला है, न निधियोंसे मिला है, न छह अंगोंवाली सेनासे मिला है, न पुत्रोंसे मिला है और न मुझसे ही मिला है, किन्तु केवल एक जयकुमारसे मिला है क्योंकि शूरवीरताके सभी कार्यों में मेरी जीत उसीसे हुई है ।। ५६-५७ ॥ म्लेच्छ राजाओंको जीतकर नाभि पर्वतपर मेरा कीर्तिमय नाम उसीने स्थापित किया था, इस विषयमें और किसीने क्या किया है ? ॥ ५८ ।। इस अर्ककोतिने तो अकीर्तियों में गिनने योग्य तथा स्थाही और उड़दके समान काली मेरी अकीति जबतक चन्द्रमा है तबतकके लिए संसार-भर में फैला दी ॥ ५९ ॥ इसने अन्यायका मार्ग चलाया है केवल इतना ही नहीं है । किन्तु संसारसे दण्ड देने योग्य लोगोंमें अपने आपको मुख्य बना लिया है ॥६०॥ जिस प्रकार दीपकसे काजल उत्पन्न होता है उसी प्रकार यह अकीर्तिरूप मुझसे उत्पन्न हुआ है, यह अर्ककीति नहीं है किन्तु साक्षात् अयशस्कीति है ॥ ६१ ॥ मेरी आज्ञासे जयकुमार ही अन्यायमें प्रवृत्ति करनेवाले इस प्रकारके लोगोंको दण्ड देता है इसलिए इसने युद्धमें जो उसे दण्ड दिया है वह अच्छा हो किया है ॥६२।। औरकी क्या बात ? यदि बड़ा पुत्र भी अपराधी हो तो राजाको उसे भी दण्ड देना चाहिए यह नीतिका मार्ग अर्ककोतिपर चलानेके लिए आज मैं तैयार बैठा हूँ ।। ६३ ॥ आप लोगोंने विचार किये बिना ही उस अभिमानीके लिए अक्षमाला नामकी कन्या दे दी यह बुरा किया है ।। ६४ ॥ अथवा उस प्रसिद्ध अक्षमाला कन्याकी भेंट देकर आपने उस अर्ककीतिको भी पूज्यता प्राप्त करा दी है सो ठीक ही है क्योंकि यह कलंकसहित है यह समझकर क्या चन्द्रमाकी मूर्ति छोड़ी जाती है ? ॥ ६५ ॥ परन्तु चक्रवर्तीने अपराध करनेपर भी अपने पुत्रकी उपेक्षा कर दी - उसे दण्ड नहीं दिया इस मेरे अपयशको महाराज अकम्पनने स्थायी बना दिया है ।। ६६ ॥ इस १ पुरातनात् पुंसः । २ युगादौ । ३ जयेन । ४ अर्ककोतिना । ५ प्रवर्तितम् । ६ दण्डितुं योग्यानाम् । ७ समदण्डं कुर्यात् । ८ अर्ककीतौं । ९ अक्षमाला अ०, म०, इ०, स०, ल०। १० दत्ता। ११ गर्विताय । १२ कष्टम् । १३ लक्ष्मीमालाम् । १४ पूज्यताम् । १५ अकारि । १६ पुत्रम् । १७ न्यायमेव पुत्रमकरोत् । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पत्र सुमुखस्तदा भारमिव वोढुं तदाक्षमः । स जयोऽकम्पनो देव देवस्य नमति क्रमौ ॥ ६८ ॥ लब्धप्रसाद इत्युक्त्वा क्षिप्त्वाऽङ्गानि प्रणम्य तम् । विकसदनाम्भोज समुत्थाय कृताञ्जलिः ॥ ६९ ॥ इत एवोन्मुख तत्व प्रतीच्छन्तौ मदागतिम् । आस्थातां चातकौ वृष्टिं प्रावृषो वाऽदिवार्मुचः ॥७०॥ इति विज्ञाप्य चक्रेशात् कृतानुज्ञः कृतत्वरः । संप्राप्याकम्पनं नत्वा सजयं विहितादरम् ॥ ७१ ॥ गोभिः प्रकाश्य रक्तस्य प्रसादं चक्रवर्तिनः । वेर्वा वासरारम्भस्तद्वक्त्रावजं व्यकासयत् ॥७२॥ साधुवादैः सदानैश्च संमानैस्तौ च तं तदा । "आनिन्यतुरतिप्रीतिं कृतज्ञा हि महीभृतः ॥७३॥ इत्यतर्कोंदयावाप्तिविभासितशुभोदयः । "अनृषिवान् जयः श्रीमान् सुखेन श्वासुरं कुलम् ॥७४॥ सुलोचना मुखाम्भोजषट्पदायितलोचनः । अनङ्गानणुबाणैकतूणीरायितविग्रहः ॥ ९५ ॥ तथा प्रवृत्ते सङ्ग्रामे सायकैरक्षतः क्षतः ' T ""पेलवैः कुसुमैरेभिर्विचित्रा विधिवृत्तयः ॥७६॥ अस्मितां सस्मितां कुर्वन्नहसन्तीं सहासिकाम् | समयां निर्भयां बालामाकुलां तामनाकुलाम् ॥७७॥ १२. 43 १५ ४३१ प्रकार सबके स्वामी महाराज भरतने सुमुख नामके दूतको सन्तुष्ट कर उसका मुख प्रसन्न किया और ज्येष्ठ पुत्रको छोड़कर न्यायको ही अपना औरस पुत्र बनाया । भावार्थ- न्यायके सामने बड़े पुत्रका भी पक्ष नहीं किया || ६७ | | उसी समय चक्रवर्तीकी दयाका भार वहन करने के लिए मानो असमर्थ हुआ सुमुख कहने लगा कि 'हे देव, जिन्हें आपका प्रसाद प्राप्त हो चुका है ऐसे जयकुमार और अकम्पन दोनों ही आपके चरणोंको नमस्कार करते हैं, ऐसा कहकर उस तने अपने समस्त अंग पृथ्वीपर डालकर चक्रवर्तीको प्रणाम किया और जिसका मुखरूपी कमल विकसित हो रहा है तथा जिसने हाथ जोड़ रखे हैं ऐसा वह दूत खड़ा होकर फिर कहने लगा कि "जिस प्रकार दो चातक वर्षा ऋतुके पहले बादलसे वर्षा होनेकी इच्छा करते हैं उसी प्रकार जयकुमार और अकम्पन आपके समीपसे मेरे आने की इच्छा करते हुए इसी ओर उन्मुख होकर बैठे होंगे" ऐसा निवेदन कर जिसने चक्रवर्तीसे आज्ञा प्राप्त की है ऐसे उस दूतने बड़ी शीघ्रतासे जाकर आदर के साथ महाराज अकम्पन और जयकुमारको नमस्कार किया तथा वचनोंके द्वारा अनुराग करनेवाले चक्रवर्तीकी प्रसन्नता प्रकट कर उन दोनों के मुखकमल इस प्रकार प्रफुल्लित कर दिये जिस प्रकार कि दिनका प्रारम्भ समय ( प्रातः काल ) किरणोंके द्वारा लाल सूर्यकी प्रसन्नता प्रकट कर कमलोंको प्रफुल्लित कर देता है || ६८-७२ ।। उस समय उन दोनों राजाओंने धन्यवाद, दान और सम्मानके द्वारा उस दूतको अत्यन्त प्रसन्न किया था सो ठीक ही है क्योंकि राजा लोग किये हुए उपकार माननेवाले होते हैं ॥ ७३ ॥ इस प्रकार विचारातीत वैभवकी प्राप्तिसे जिसके शुभ कर्मका उदय प्रकट हो रहा है ऐसा वह श्रीमान् जयकुमार सुखसे श्वसुरके घर रहने लगा || ७४ ॥ जिसके नेत्र सुलोचना के मुखरूपी कमलपर भ्रमरके समान आचरण करते थे और जिसका शरीर कामदेव के बड़े-बड़े बाण रखने के लिए तरकसके समान हो रहा था ऐसा वह जयकुमार युद्ध होनेपर बाणोंसे उस प्रकार घायल नहीं हुआ था जिस प्रकार कि अत्यन्त कोमल कामदेवके इन फूलोंके बाणोंसे घायल हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि दैवलीला बड़ी विचित्र होती है ॥७५ - - ७६ ।। वह जयकुमार मुसकराहट से रहित सुलोचनाको मुसकराहटसे युक्त करता था, न हँसनेपर जोर से हँसाता था, भयुक्त होनेपर निर्भय करता था, आकुल होनेपर निराकुल करता था, वार्तालाप न करनेपर १ चक्रिपा । २ अकम्पनजयकुमारौ । ३ त्वत्तः । ४ वाञ्छन्तौ । ५ मदागमनम् । ६ प्रथममेघात् । ७ चक्रवर्तिनः । ८ वाग्भिः किरणैश्च । ९ दिवसारम्भः । १० नीतवन्तौ । ११ स्थितवान् । १२ मातुलसंबन्धिनि गृहे । १३ पीडितः । १४ मृदुभिः । १५ हाससहिताम् । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ आदिपुराणम् अनालपम्नीमालाप्य लोकमानो विलोकिनीम् । अस्पृशन्ती समास्पृश्य व्यधाद बीडाविलोपनम् ॥७८॥ कृतो भवान्तराबद्ध तत्स्नेह वलशालिना । सुलोचनायाः कौरव्यः कामं कामंन कामुकः ॥७१॥ सुलोचनामनोवृत्ती रागामृतकरोधुरा । क्रमाच्च चाल वेलेव कामनाममहाम्बुधेः ॥८॥ मुकुले वा मुखे चक्रे विकासोऽस्याः क्रमापदम् । आक्रान्तशुर्पकारातिग्रहानक्षरसूचनः ॥८॥ सखीमुखानि संवीक्ष्य जापित्वा दिशामसौ । स्वैरं हसितुमाख्ध गृहीतमदनग्रहा ॥२॥ 1°सितासितासितालोलकटाक्षेक्षणतोमरैः । जयं तदा जितानङ्गं कृत्वानङ्गप्रतिष्कशम् ॥८॥ ससाध्वसा सलजा सा विव्याध विविधैर्मनाक । अनालोकनवेलायामति सन्दित्सयेव तम् ॥८४॥ न भुजङ्गेन संदष्टा नापि संसेवितासवा । न श्रमण समाक्रान्ता तथापि 'स्विद्यति स्म सा ॥८५॥ स्खलन्ति स्म 'कलालापाश्चकम्पे हृदयं भृशम् । चलान्यालोकितान्यासन्नवशे वात्मनश्च"सा ॥८६॥ प्रक्षालितेव लजाऽगात् सुदत्याः स्वेदवारिभिः । वागिन्धनैर्व्यदीपिष्ट विचित्रश्चित्तजोऽनलः ॥१०॥ तावत्नपा भयं तावत्तावत्कृत्यविचारणा । ताव देव धृतिर्यावज्जम्भते न स्मरन्धरः ॥८॥ उससे वार्तालाप करता था, अपनी ओर देखनेपर उसे देखता था, और स्पर्श न करनेपर उसका स्पर्श करता था। इस प्रकार यह सब करते हुए जयकुमारने सुलोचनाकी लज्जा दूर की थी ॥७७-७८।। पूर्व पर्यायमें बंधे हुए स्नेहरूपी बलसे शोभमान कामदेवने इच्छानुसार जयकुमारको सुलोचनाका सेवक बना लिया था ॥७६।। रागरूपी चन्द्रमाके सम्बन्धसे बढ़ी हुई, कामदेव नामक महासागरकी वेलाके समान सुलोचनाके मनकी वृत्ति क्रम-क्रमसे चंचल हो रही थी ।।८०॥ सब शरीरमें घुसे हुए कामदेवरूपी पिशाचके द्वारा बिना कुछ बोले ही जिसकी सूचना हो रही है ऐसे विकासने सुलोचनाके मुखरूपी मुकुलपर धीरे-धीरे अपना स्थान जमा लिया था ॥१॥ कामरूपी पिशाचको ग्रहण करनेवाली सुलोचना सखियोंके मुख देखकर दिशाओंसे बातचीत कर अर्थात् निरर्थक वचन बोलकर इच्छानुसार हँसने लगी ।।८२।। उस समय भय और लज्जा सहित सुलोचना कामदेवको जीतनेवाले जयकुमारको न देखने योग्य समयमें मानो ठगनेको इच्छासे ही कामदेवको अपना सहायक बनाकर सफेद काले इन दोनों रंगोंसे मिले हुए चंचल कटाक्षोंसे भरी हुई दृष्टिरूपी अनेक तोमर नामके हथियारोंसे धीरे-धीरे मार रही थी ॥३॥ जव जयकुमार उसकी ओर नहीं देखता था उस समय भी वह सफेद, काले और चंचल कटाक्षोंसे भरी दृष्टिसे उसे देखती रहती थी और उससे ऐसा मालूम होता था मानो यह उसे ठगना ही चाहती है ॥८४॥ उस समय उसे न तो सर्पने काटा था, न उसने मद्य ही पिया था, और न परिश्रमसे ही वह आक्रान्त थी तथापि वह पसीनेसे तर हो रही थी ॥८५।। उसके मधुर भाषण स्खलित हो रहे थे, हृदय अत्यन्त कँप रहा था, दृष्टि चंचल हो रही थी और वह ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने वशमें ही न हो ॥८६॥ सुन्दर दाँतोंवाली सुलोचनाकी लज्जा इस प्रकार नष्ट हो गयी थी मानो उसके पसीनारूपी जलसे धुल ही गयी हो और कामदेवरूपी विचित्र अग्नि वचनरूपी ईधनसे ही मानो खूब प्रज्वलित हो रही थी ।।८७।। जबतक कामदेवरूपी ज्वर नहीं बढ़ता है तबतक ही लज्जा रहती है, तबतक ही भय रहता है, तबतक ही करने योग्य कार्यका विचार रहता है और तबतक ही धैर्य रहता है ॥८८॥ १ सामर्थ्य । २ अत्यर्थम् । ३ इच्छुः । ४ अनुरागचन्द्रेणोत्कटा । ५ स्थानम् । ६ प्राप्तकामग्रहमक्षरेण विना सूचकः । ७ सहचरी। ८ निरर्थकादिदोषदुष्टमुक्त्वा । ९ उपक्रान्तवती । १० श्वेतकृष्णसंबद्ध । ११ सहायम् । १२ वञ्चनेच्छया । १३ स्वेदवती बभूव । १४ मनोज्ञवचनानि । १५ स्वस्य पराधोनेव अथवा आत्मनः वशे अधीने न वा नासीदिति । १६ चित्तजानल: अ०, ५०, इ०, स०, ल० । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व ४३३ विषयीकृत्य सर्वेषामिन्द्रियाणां परस्परम् । परामवापतुः प्रीतिं दम्पती तो पृथक् पृथक ॥८९॥ अत्यासंगात् क्रममा हिकरणस्तावतर्पितौ । अनिन्दतामशेषैककरणाकारिणं विधिम् ॥१०॥ अन्योन्यविषयं सौख्यं त्वक्त्वाऽशेषान्यगोचरम् । स्तोकेन सुखमप्राप्तं प्रापतुः परमात्मनः ॥११॥ . संप्राप्तभावपर्यन्तौ विदतुर्न स्वयं °च तौ। मुक्त्वैकं शं''सहैवोद्यत्स्त्रक्रियोकसंभवम् ॥१२॥ रतावसाने निःशक्त्योर्गाढौत्सुक्यात् प्रपश्यतोः । तयोरन्योन्यमामाता नेत्रयोरिव पुत्रिके ॥१३॥ अवापि या तया प्रीतिस्तस्मात्तेन च या ततः । तयोरन्योन्यमवासीदुपमानोपमेयता ॥९॥ भुक्तमात्मम्भरित्वेन" यत्सुखं परमात्मना । "ततोऽप्यधिकमासीद्वा' संविभागेऽपि तत्तयोः ॥१५॥ इत्यन्योन्यसमुद्भूतप्रीतिस्फीतामृताम्मसि । कामाम्भोधौ निमग्नौ तौ स्वैरं चिक्रीडतुश्चिरम् ॥१६॥ तदा स्वमन्त्रिप्र हितगूढपत्रार्थचोदितः । जयो जिगमिषुस्तूर्ण स्वस्थानीयं धियो वशः ॥७॥ वे दोनों दम्पती परस्पर पृथक्-पृथक् सब इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन कर परम आनन्दको प्राप्त हो रहे थे ॥८९॥ अत्यन्त आसक्तिके कारण, क्रम-क्रमसे एक-एक विषयको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियोंसे वे सन्तुष्ट नहीं होते थे इसलिए सब इन्द्रियोंको एक इन्द्रियरूप न करनेवाले विधाताको वे निन्दा करते रहते थे। भावार्थ - उन दोनोंकी विषयासक्ति इतनी बढ़ी हुई थी कि वे एक साथ ही सब इन्द्रियोंके विषय ग्रहण करना चाहते थे परन्तु इन्द्रियाँ अपने प्राकृतिक नियमके अनुसार एक समयमें एक ही विषयको ग्रहण कर पाती थी अतः वे असन्तुष्ट होकर सब इन्द्रियोंको एक इन्द्रियरूप न बनानेवाले नामकर्मरूपी ब्रह्माकी सदा निन्दा करते रहते थे ॥९॥ उन दोनोंने सब साधारण लोगोंको मिलनेवाला परस्परका सुख छोड़कर आत्माका वह उत्कृष्ट सुख प्राप्त किया था जो कि अन्य छोटे-छोटे लोगोंको दुष्प्राप्य था ।।११।। जिनके भावोंका अन्त आ चुका है ऐसे वे दोनों ही एक साथ उत्पन्न हुई अपनी क्रियाओंके उद्रेकसे उत्पन्न होनेवाले एक सुखको छोड़कर और कुछ नहीं जानते थे ।।९२॥ सम्भोग क्रीड़ाके अन्तमें अशक्त हुए तथा गाढ़ उत्कण्ठाके कारण परस्पर एक दूसरेको देखते हुए उनके नेत्रोंकी पुतलियाँ एक दूसरेके नेत्रोंकी पुतलियोंके समान ही सुशोभित हो रही थीं। ( यहाँ अनन्वयालंकार होनेसे उपमेय ही उपमान हो गया है ) ॥९३॥ सुलोचनाने जयकुमारसे जो सुख प्राप्त किया था और जयकुमारने सुलोचनासे जो सुख पाया था उन दोनोंका उपमानोपमेय भाव परस्पर - उन्हीं दोनोंमें था ॥६४॥ परमात्माने स्वावलम्बी होकर जिस सुखका अनुभव किया था उन दोनोंका वह सुख परस्परमें विभक्त होनेपर भी उससे कहीं अधिक था। भावार्थ - यद्यपि उन दोनोंका सुख एक दूसरेके संयोगसे उत्पन्न होनेके कारण परस्परमें विभक्त था, तथापि परिमाणको अपेक्षा परमात्माके पूर्ण सुखसे भी कहीं अधिक था। ( यहाँ ऐसा अतिशयोक्ति अलंकारसे कहा गया है वास्तवमें तो वह परमात्माके सुखका अनन्तवाँ भाग भी नहीं था ) ॥९५॥ इस प्रकार परस्परमें उत्पन्न होनेवाले प्रेमामृतरूपी जलसे भरे हुए कामरूप समुद्रमें डूबकर वे दोनों .चिरकाल तक इच्छानुसार क्रीड़ा करते रहे ॥९६॥ उसी समय एक दिन जो अपने मन्त्रीके द्वारा १ अत्यासक्तितः । २ क्रमवृत्त्या पदार्थग्राहीन्द्रियः । ३ निन्दां चक्रतुः। ४ सकलेन्द्रियविषयाणामेकमेवेन्द्रियमकुर्वन्तम् । ५ सामान्यपुरुषेण । ६ उत्तमम् । ७ स्वस्य । परमात्मनः परमपुरुषस्यति ध्वनिः । ८ लीला। ९ बुबुधाते । १० आत्मनो। ११ सुखम् । १२ सहैव प्रादुर्भवन्निजचुम्बनादिसमुत्कटसंभूतम् । १३ सुरतक्रीडावसाने । १४ परस्परमालोकमानयोः सतोः । १५ व्यराजताम् । १६ जयकुमारात् । १७ सुलोचनायाः। १८ प्रीत्योः । १९ स्वोदरपूरकत्वेन । 'उभावात्मम्भरिः स्वोदरपूरके' इत्यभिधानात् । २० परमात्मसुखात् । २१ वा अवधारेण । २२ विभजने । २३ सुखम् । २४ प्रेरित । २५ शीघ्रम् । २६ स्वां पुरीम् । स्वं स्था-ल। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् भवद्मि वितैश्वयं मां मदीया दिदृक्षवः । इति माम समभ्येत्य प्रस्थानार्थमबूबुधत् ॥१८॥ तबुद्ध्वा नाथवंशेशः किंचिदासीत् ससंभ्रमः । जये जिगमिषौ स्वस्मान्न स्यात् कस्याकुलं मनः ॥ विचार्य कार्यपर्यायं तथास्त्वित्याह तं नृपः । स्नेहानुवर्तिनी नैतिदीपिका वा धियं सुधीः ॥१०॥ प्रादात् प्रागेव सर्वस्वं तस्मै दत्तसुलोचनः । तथापि लौकिकाचारं परिपालयितुं प्रभुः ॥१०१॥ दत्वा कोशादि सर्वस्वं स्वीकृत्य' प्रीतिमात्मनः । अनुगम्य स्वयं दूरं शुभेऽहनि वधूवरम् ॥१०२॥ कथं कथमपि त्यक्त्वा स "सजानिर्जनाग्रणीः"। "व्यावर्तत ततःशोकी "तुग्वियोगो हि दुःसहः।।१०३॥ "विजयाई समारुह्य जयोऽपि ससुलोचनः । आरूढसामजैः सर्वैः स्वानुजैविजयादिभिः ॥१०४॥ हेमाङ्गदकुमारेण सानुजेन च सोत्सवः । प्रवर्तयन् कथाः पथ्याः परिहासं मनोहराः ॥१०५॥ वृतः शशीव नक्षत्रैरनुगों ययौ शनैः । इलां संचालयन् प्राग्वा श्रीमान् स जयसाधनः ॥१०६॥ स्कन्धावार यथास्थानं पारेगङ्गन्यवीविशत् । वीक्ष्य कक्षपुटत्वेन प्रशास्ता"शास्त्रवित्तदा ।१०७। हटत्पटकुटीकोटिनिकटाटोपनिर्गमः । बमासे शिबिरावासः स्वर्गवास इवापरः ॥१०॥ भेजे हुए पत्रके गूढ़ अर्थसे प्रेरित हो रहा है, बुद्धिमान् हैं, और शीघ्रसे शीघ्र अपने स्थानपर पहुँचनेकी इच्छा कर रहा है ऐसे जयकुमारने मामा (श्वसुर) के पास जाकर अपने जानेकी सूचना दी कि हे माम, आपने जिसका ऐश्वर्य बढ़ाया है ऐसे मुझे मेरी प्रजा देखना चाहती है। ॥९७-९८॥ यह जानकर नाथवंशका स्वामी अकम्पन कुछ घबड़ाया सो ठीक ही है क्योंकि अपनेसे जय (जयकुमार अथवा विजय) के जानेकी इच्छा करनेपर किसका मन व्याकुल नहीं होता है ? ॥९६।। तदनन्तर कार्योंका पूर्वापर विचार कर राजा अकम्पनने जयकुमारसे 'तथास्तु' कहा सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् मनुष्य दीपिकाके समान स्नेह (तेल अथवा प्रेम) का अनुवर्तन करनेवाली बुद्धिको नहीं प्राप्त होते हैं । भावार्थ-बुद्धिमान् मनुष्य स्नेहके पीछे बुद्धिको नहीं छोड़ते हैं ॥१००। यद्यपि महाराज अकम्पन, सुलोचनाको देकर पहले ही जयकुमारको सब कुछ दे चुके थे तथापि लौकिक व्यवहार पालन करनेके लिए अपने प्रेमके अनुसार खजाना आदि सब कुछ देकर उन्होंने किसी शुभ दिनमें वधू-वरको बिदा किया। सत्र मनुष्योंमें श्रेष्ठ महाराज अकम्पन अपनी पत्नीसहित कुछ दूर तक तो स्वयं उन दोनोंके साथ-साथ गये फिर जिस किसी तरह छोड़कर शोक करते हुए वहाँसे वापस लौट आये सो ठीक ही है क्योंकि सन्तानका वियोग बड़े दुःखसे सहा जाता है ॥२०१-१०३॥ जयकुमार भी सुलोचना सहित विजया नामके हाथीपर सवार होकर अन्य-अन्य हाथियोंपर बैठे हुए विजय आदि अपने सब छोटे भाइयों तथा लघु सहोदरोंसे युक्त हेमांगदकुमारके साथ बड़े उत्सवसे मार्गमें कहने योग्य हँसी विनोदकी मनोहर कथाएँ कहता हुआ और पृथिवीको हिलाता हुआ नक्षत्रोंसे घिरे हुए चन्द्रमाकी तरह गंगाके किनारे धीरे-धीरे इस प्रकार चला जिस प्रकार कि पहले दिग्विजयके समय सेनाके साथ-साथ चला था ॥१०४-१०६॥ शास्त्रोंके जाननेवाले और सबपर शासन करनेवाले जयकुमारने उस समय गंगाके किनारे यथायोग्य स्थानपर घासवाली जमीन देखकर सेनाके - डेरे कराये ॥१०७॥ देदीप्यमान कपड़ोंके करोड़ों तम्बुओंके समीप ही जिसमें आने-जानेका मार्ग १ अस्मदीयाः बन्धुमित्रादयः । २ द्रष्टुमिच्छवः । ३ श्वसुरम् । ४ संप्राप्य । ५ गमनप्रयोजनम् । ६ ज्ञापयति स्म । ७ अकम्पनः । ८ विजये इति ध्वनिः । ९ कार्यक्रमम् । १० न गच्छति किम् । ११ शोभना धीर्यस्य सः। १२ ददाति स्म । १३ स्वस्य प्रीतिमेकामेव स्वीकृत्य । १४ स्त्रीसहितः । १५ अकम्पनः । १६ व्याघुटितवान् । १७ पुत्रवियोगः। १८ विजया गजम् । १९ पथि हिताः । २० गङ्गामनु । २१ पूर्वदिग्विजये यथा। २२ शिबिरम्। २३ गंगातीरे । २४ जयकुमारः । २५ शुम्भद्वस्त्रकुटीसमूहासन्नविस्तृतनिगमः । २६ राव। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व ४३ तत् (तं) प्राप्य सिन्धुरं रुध्धा स राजद्वारि राजकम् । विसर्योच्चैः प्रविश्यान्तरवतीर्य निषाद्य तम् । राजा सुलोचनां चावरोप्य स्वभुजलम्बिनीम् । निविश्य स्वोचिते स्थाने मृदुशय्यातले सुखम् ॥११०॥ तत्कालोचितवृत्तज्ञः प्रियां संतर्पयन प्रियैः । स्नानभोजनवाग्वाद्यगीतनृत्यविनोदनैः ॥१११॥ नीत्वा रात्रिं सुखं तत्र प्रत्याय्य प्रत्ययं स्थितेः। तां निवेश्य समाश्वास्य हेमाङ्गदपुरस्सरान् ॥११२॥ नियोज्य स्वानुजान् सर्वान् सम्यक्कटकरक्षणे । आप्तैः कतिपयैरेव प्रत्ययोध्यमियाय सः ॥११३॥ अर्ककीर्त्यादिभिःप्रप्ठः प्रत्यागत्य प्रतीक्षितः । सस्नेहं सादरं भूयः कुमारणालपन् पुरीम् ॥११॥ सानुरागान स्वयं रागात् प्राविशद्वा विशां पतिः । न पूजयन्ति के वाऽन्ये पुरुषं राजपूजितम् ॥१५॥ इन्द्रो वेभाद् बहिराजिनस्योत्तीर्य भूपतेः । सभागेहं समासाद्य मणिकुट्टिमभूतलम् ॥११६॥ मध्ये"तस्य स्फुरद्रत्नखचितस्तम्भसम्भृते । विचित्रनेत्रविन्यस्तसद्वितानविराजिते ॥११७॥ मणिमुक्ताफलप्रो तलम्बलम्बूषभूषणे । परायरत्नभाजालजटिले मणिमण्डपे" ॥११॥ विधुं ज्योतिर्गगेनेव राजकेन विराजितम् । स्वकीर्ति निर्मलैवींज्यमानं चारजन्मभिः ॥११९॥ बनाया गया है ऐसा वह सेनाका आवास (पड़ाव) इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानो स्वर्गका दूसरा आवास ही हो ॥१०८॥ जयकुमारने अपने डेरेके पास जाकर उसके बड़े दरवाजेके समीप ही अपना हाथी रोका, वहीं सब राजाओंको विदा किया फिर ऊँचे तम्बूके भीतर प्रवेश कर हाथीको बैठाया-स्वयं उतरे, अपनी भुजाओंका सहारा लेनेवाली सुलोचनाको भी उतारा और अपने योग्य स्थानमें कोमल शय्यातलपर सुखसे विराजमान हुए। फिर उस समयके योग्य समाचारोंको जाननेवाले जयकुमारने स्नान, भोजन, वार्तालाप, बाजे, गीत, नृत्य आदि । मनोहर विनोदोंसे सुलोचनाको सन्तुष्ट किया, रात्रि वहीं सुखसे बितायी, वहाँ ठहरनेका कारण बतलाया, उसे समझा-बुझाकर वहींपर रखा, हेमांगद आदि सुलोचनाके भाइयोंको भी वह रखा, अपने सब छोटे भाइयोंको अच्छी तरह सेनाको रक्षा करने में नियुक्त किया और फिर " कुछ आप्त पुरुषोंके साथ अयोध्याकी ओर गमन किया ॥१०६-११३॥ अयोध्या पहुँचनेपर अर्ककीर्ति आदि अच्छे-अच्छे पुरुषोंने सामने आकर जिसका स्वागत किया है. तथा जो बड़े स्नेह और आदरके साथ अर्ककीतिसे वार्तालाप कर रहा है ऐसे राजा जयकुमारने अनुराग करनेवालोंके साथ-साथ बड़े प्रेमसे अयोध्यापूरीमें प्रवेश किया सो ठीक ही है क्योंकि अन्य ऐसे पुरुष कौन हैं जो राजमान्य पुरुषकी पूजा न करें ॥११४-११५। जिस प्रकार इन्द्र समवसरणके बाह्य दरवाजेपर पहुँचकर हाथीसे उतरता है उसी प्रकार जयकुमार भी राजभवनके बाह्य दरवाजेपर पहुँचकर हाथीसे उतरा. और सभागहमें पहुँचा। उस सभागृहकी जमीन मणियोंसे जड़ी हई थी, उसके मध्यमें एक रत्नमण्डप था जो कि देदीप्यमान रत्नोंसे जड़े हए खम्भोंसे भरा हुआ था, अनेक प्रकारके रेशमी वस्त्रोंके तने हुए चन्देवोंसे सुशोभित था, मणियों और मोतियोंसे गुथे हुए लम्बे-लम्बे फन्नूस रूप आभूषणसे युक्त था, और बहुमूल्य रत्नोंको कान्तिके जालसे व्याप्त था। जिस प्रकार उदयाचलपर सूर्य सुशोभित होता है उसी प्रकार उस रत्नमण्डपमें ऊँचे सिंहासनपर बैठे हुए महाराज भरत सुशोभित हो रहे थे। जिस प्रकार ज्योतिषी देवोंके समूहसे चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी प्रकार महाराज भरत भी अनेक राजाओंसे सुशोभित हो रहे थे, उनपर अपनी कोतिके समान निर्मल चमर ढुलाये जा रहे थे, इन्द्रके १ राजसमूहम् । २ उपविश्य । ३ तं गजम् । ४ प्रतिबोध्य । ५ कारणम् । ६ अयोध्या प्रति । ७१ली। ८ पूजितः । ९ चक्रवर्तीव । १० समवसरणमिव भूपतेः सभागृहमिति संबन्धः । ११ सभागृहस्य- २२ परवस्त्रकृत । १३ खचित । १४ दाम । १५ रत्नमण्डपे ल०। १६ चामरैः । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ आदिपुराणम् .. वेष्टितं वेन्द्रधनुषा नानामरणरोचिया । रोचिषेव कृताकारं पूज्यं पुण्यैश्चतुर्विधैः ॥२०॥ तुमसिंहासनासीनं भास्वन्तं वोदयादिगम् । राजराज समालोक्य बहुशो भक्तिनिर्भरः ॥१२१॥ स वा प्रणम्य तीर्थशं स्पृष्टवाऽष्टाङ्गैर्धरातलम् । कर प्रसार्य संभाव्य राज्ञवासन्नमासनम् ॥१२२॥ निजहस्तेन निर्दिष्टं दृष्टयालंकृत्य तुष्टवान् । व्यभासिष्ट समामध्ये स तदान्येन तेजसा ॥१२३॥ प्रसन्नवदनेन्दूद्यदाह्लादिवचनांशुभिः । वधूः किमिति नानीता तां द्रष्टुं वयमुत्सुकाः ॥१२४॥ वयं किमिति नाहूतास्तद्विवाहोत्सवे नवे । अकम्पनैरिदं युक्तं सनाभिभ्यो बहिष्कृताः ॥१२५॥ 'नन्वहं त्वपितृस्थाने मां पुरस्कृत्य कन्यका । त्वयाऽसौ परिणेतव्या त्वं तद्विस्मृतवानसि ॥१२६॥ इत्यकृत्रिमसामोवत्या तर्पितक्रवर्तिना । तदा विभावयन् भक्ति स्ववक्त्रं मणिकुट्टिमे ॥१२॥ नत्वाऽपश्यत्प्रसादीव प्रतिगृह्य प्रमोर्दयाम् । जयः प्राञ्जलिरुत्थाय राजराजं व्यजिज्ञपत् ॥१२८॥ काशीदेशेशिना देव देवस्याज्ञाविधायिनाम् । विवाहविधिभेदेषु प्रागप्यस्ति स्वयंवरः ॥२६॥ इति सर्वैः समालोच्य सचिवैः शास्त्रवेदिभिः । कल्याणं तत्समारब्धं देवेन कृतमन्यथा ॥१३०॥ शान्तं तत्त्वत्प्रसादेन मन्मूलोच्छेदकारणम् । रणं शरणमायात इत्येष भवतः क्रमौ ॥१३॥ सुरखेचरभूपालास्त्वत्पदाम्भोरुहालिनः । चक्रेणाक्रान्तदिक्चक्र किंकरास्तत्र कोऽस्म्यहम् ॥१३२॥ धनुषके समान अनेक प्रकारके आभरणोंकी कान्तिसे वेष्टित थे अतएव ऐसे जान पड़ते थे मानो कान्तिसे ही उनका शरीर बनाया गया हो, और चारों प्रकारके ( शुभायु, शुभनाम, शुभगोत्र और सातावेदनीय ) पुण्योंसे पूज्य थे। इस प्रकार राजराजेश्वर महाराज भरतको देखकर भक्तिसे भरे हुए जयकुमारने तीर्थकरकी तरह आठों अंगोंसे जमीनको छूकर अनेक बार प्रणाम किया। महाराज भरतने भी हाथ फैलाकर उसका सन्मान किया तथा अपने हाथसे बतलाये हुए अपने निकटवर्ती आसनपर बैठाकर प्रसन्न दृष्टिसे अलंकृत किया। इस प्रकार सन्तुष्ट हुआ जमकुमार सभाके बीच एक विलक्षण तेजसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था। ॥११६-१२३॥ तदनन्तर महाराज भरत अपने प्रसन्न मुखरूपी चन्द्रमासे निकलते हुए और सबको आनन्दित करनेवाले वचनरूपी किरणोंसे सबको प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहने लगे कि क्यों जयकुमार, तुम बहूको क्यों नहीं लाये ? हम तो उसे देखनेके लिए बड़े उत्सुक थे, इस नवीन विवाहके उत्सवमें तुमने हम लोगोंको क्यों नहीं बुलाया ? महाराज अकम्पनने अपने भाई-बन्धुओंसे हमको अलग कर दिया क्या यह ठीक किया ? अरे, मैं तो तुम्हारे पिताके तुल्य था तुम्हें मुझे आगे कर सुलोचनाके साथ विवाह करना चाहिए था, परन्तु तुम यह सब भूल गये इस प्रकार चक्रवर्तीके द्वारा स्वाभाविक शान्त वंचनोंसे सन्तुष्ट किया हुआ जयकुमार उस समय अपनी भक्तिको प्रकट करता हुआ , नमस्कार कर अपराधीके समान अपना मुंह मणियोंसे जड़ी हुई जमीनमें देखने लगा। फिर महाराज भरतसे दया प्राप्त कर हाथ जोड़कर खड़ा हुआ और राजाधिराज चक्रवर्तीसे इस प्रकार निवेदन करने लगा ॥१२४-१२८॥ हे देव, आपके आज्ञाकारी काशीनरेशने विवाहविधिके सब भेदोंमें एक स्वयंवरकी विधि भी पहलेसे चली आ रही है इस प्रकार शास्त्रोंको जाननेवाले सब मन्त्रियोंके साथ सलाह कर यह उत्सव प्रारम्भ किया था परन्तु दैवने उसे उलटा कर दिया ॥१२६-१३०॥ मेरा मूलसहित नाश करनेवाला वह युद्ध शान्त हो गया इसलिए हो यह सेवक आपके चरणोंमें आया है ॥१३१॥ हे चक्रके द्वारा समस्त दिशाओंपर आक्रमण करनेवाले महाराज, अनेक देव, विद्याधर और राजा आपके चरणकमलोंके भ्रमर होकर सेवक बन रहे हैं फिर भला मैं उन १ शुभायुर्नामगोत्रसद्वेद्यलक्षणः । २ चक्रिणा । ३ दिष्ट्या ट० । प्रीत्या । ४ राजते स्म । ५ नूतनेन । ६ अना. ह्वानिताः । ७ बन्धुभ्यः । ८ अहो । ९ प्रसादवान् । प्रमादीव ल० । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व ४ 1 ११ 12 13 ४ १५ 'देवेनान्यसामान्यमाननां मम कुर्वता । ऋणीकृतः क्व वाssनृण्यं भवान्तरशतेष्वपि ॥१३३॥ नाथेन्दुवंशसंरोहौ" पुरुणा विहितौ त्वया । वर्द्धितौ पालितौ स्थापितौ च यावद्धरातलम् ॥१३४॥ इति प्रश्रयणीं वाणीं श्रुत्वा तस्य निधीश्वरः । तुष्ट्या संपूज्य पूजाविद्वस्त्राभरणवाहनैः ॥ १३५ ॥ दत्वा सुलोचनायै च तद्योग्यं विससर्ज तम् । महीं प्रियामिवालिङ्ग्य तं प्रणम्य ययौ जयः ॥ १३६ ॥ संपत्संपन्न पुण्यानामनुबध्नाति संपदम् । पौरैर्वनी पकानीकैः स्तूयमानस्वसाहसः ॥१३७॥ पुराद् गजं समारुह्य 'निष्क्रम्येप्सुर्मनः प्रियाम् । सद्यो गङ्गां समासन्नः स्त्रमनोवेगचोदितः ॥१३८॥ शुष्क भूरुहशाखाग्रे संमुखीभूय भास्त्रतः " 'रुवन्तं 'ध्वाङ क्षमालोक्य कान्तायाश्चिन्तयन्भयम् ॥ मूच्छितः प्रेमसद्भावात् तादृशो धिक् सुखं रतेः । समाश्वास्य तदोपायैः सुखमास्ते सुलोचना ॥१४०॥ जलाद् भयं भवेत् किंचिदस्माकं शकुनादितः । इत्युदीर्येङ्गितज्ञेन शकुनज्ञेन सान्वितः ॥ १४१ ॥ सुदेवस्य तद्वाक्यं कृत्वा प्राणावलम्बनम् । व्रजन् स सत्वरं "मोहादतीर्थे ऽचोदयद् गजम् ॥१४२॥ हेयोपेयविवेकः" कः कामिनां मुग्धचेतसाम् । उत्पुष्करं स्फुरद्दन्तं प्रोद्यत्तत्प्रतिमानकम् ॥१४३॥ सबमें कौन हूँ ? - मेरी गिनती ही क्या है ? || १३२ || हे देव, जो दूसरे साधारण पुरुषोंको न प्राप्त हो सके ऐसा मेरा सन्मान करते हुए आपने मुझे ऋणी बना लिया है सो क्या सैकड़ों भवों में भी कभी इस ऋण से छूट सकता हूँ ? || १३३ || हे स्वामिन्, ये नाथवंश और चन्द्र वंशरूपी अंकुर भगवान् आदिनाथके द्वारा उत्पन्न किये गये थे और आपके द्वारा वर्धित तथा पालित होकर जबतक पृथिवी है तबतक के लिए स्थिर कर दिये गये हैं ।। १३४|| आदर-सत्कारको जाननेवाले महाराज भरत इस प्रकार विनयसे भरी हुई जयकुमारकी वाणी सुनकर बहुत ही सन्तुष्ट हुए, उन्होंने वस्त्र, आभूषण तथा सवारी आदिके द्वारा जयकुमारका सत्कार किया तथा सुलोचनाके लिए भी उसके योग्य वस्त्र, आभूषण आदि देकर उसे विदा किया । जयकुमारने भी प्रिया के समान पृथिवीका आलिंगन कर महाराज भरतको प्रणाम किया और फिर वहाँसे चल दिया । इसलिए कहना पड़ता है कि पुण्य सम्पादन करनेवाले पुरुषोंकी सम्पदाएँ सम्पदाओं को बढ़ाती हैं। इस प्रकार नगरनिवासी लोग और याचकोंके समूह जिसके साहस की प्रशंसा कर रहे हैं ऐसा वह जयकुमार हाथीपर सवार होकर नगरसे बाहर निकला और अपनी हृदयवल्लभाको प्राप्त करनेकी इच्छा करता हुआ अपने मनके वेगसे प्रेरित शीघ्र ही गंगाके किनारे आ गया ॥ १३५ - १३८ ॥ वहाँपर सूखे वृक्षकी डालोके अग्रभागपर सूर्यकी ओर मुँह कर रोते हुए कौए को देखकर वह कुमार प्रियाके भयकी आशंका करता हुआ वैसा शूरवीर होनेपर भी प्रेमके वश मूच्छित हो गया । आचार्य कहते हैं कि ऐसे रागसे उत्पन्न हुए सुखको भी धिक्कार है । चेष्टासे हृदयकी बात को समझनेवाले और शकुनको जाननेवाले पुरोहितने उसी समय अनेक उपायोंसे सचेत कर आश्वासन दिया और कहा कि सुलोचना तो अच्छी तरह है । इस शकुनसे यही सूचित होता है कि हम लोगों को जलसे कुछ भय होगा इस प्रकार कहकर पुरोहितने जयकुमारको शान्त किया ॥ १३६ - १४१ ॥ उस पुरोहितके वचनोंको प्राणोंका सहारा मानकर वह जयकुमार शीघ्र ही आगे चला और भूलसे उसने अघाटमें ही हाथी चला दिया सो ठीक ही है, क्योंकि विचारहीन कामी पुरुषोंको हेय उपादेयका ज्ञान कहाँ होता है ? ४३७ १ अकम्पन । २ ऋणेन तद्वान् कृतः । ३ कस्मिन् भवान्तरे । ४ वा अवधारणे । अनृण्यम् आनृणत्वम् । ५ जन्मनी | ६ चक्रिणम् । ७ जनयति । ८ याचक । ९ प्राप्तुमिच्छुः । १० रवेः । ११ ध्वनन्तम् । १२ वायसम् । 'काके तु करटारिष्टबलिपुष्टसकृत्प्रजाः । ध्वाङ्क्षात्मघोषपरभृबलिभुग्वायसा अपि ।' इत्यभिधानात् । १३ सामवचनं नीतः | १४ शाकुनिकस्य । १५ अजलोत्तरप्रदेशे । 'तीर्थं प्रवचने पात्रे लब्धाम्नाये विदां परे । पुण्यारण्ये जलोत्तारे महानद्यां महामुनी । १६ उपादेय । १७ प्रोद्गतकुम्भस्थलस्याधोभागप्रदेश कम् । 'अधः कुम्भस्य वाहीत्थं प्रतिमानमघोऽस्य यत् । इत्यभिधानम् । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ आदिपुराणम् तरन्तं मकराकारं मध्येहदमिमाधिपम् । देवी कालीति पूर्वोक्ता सरय्वाः सङ्गमे ऽग्रहीत् ॥१४॥ 'नक्राकृत्या स्वदेशस्थः क्षुद्रोऽपि महतां बली । दृष्ट्वा गतं निमज्जन्तं प्रत्यागत्य तटे स्थिताः ॥१४५॥ ससंभ्रमं सहापेतुः हदं हेमाङ्गदादयः । सुलोचनाऽपि तान्वीक्ष्य कृतपञ्चनमस्कृतिः ॥१४६॥ मन्त्रमूर्तीन् समाधाय हृदय भक्तितोऽहंतः । उपसर्गापसर्गान्तं त्यक्ताहारशरीरिका ॥१७॥ प्राविशद् बहुभिः साधं गङ्गां गङ्गेव देवता । गङ्गापातप्रतिष्ठानगङ्गाकूटाधिदेवता ॥१८॥ बिबुध्यासनकम्पेन कृतज्ञाऽऽगत्य सत्वरम् ।''तदानयत्तरं सर्वान् संतयं खलकालिंकाम् ॥१४९॥ स्वयमागत्य केनात्र रक्षन्ति कृतपुण्यकान् । गङ्गातटे विकृत्याशु भवनं सर्वसंपदा ॥१५०॥ मणिपीठे समास्थाप्य पूजयित्वा सुलोचनाम् । तव दत्तनमस्काराजज्ञे गङ्गाधिदेवता ॥१५॥ त्वत्प्रसादादिदं सर्वमवरुद्धामरेशिनः । तयेत्युक्ते जयोऽप्येतत् किमित्याह सुलोचनाम् ॥१५॥ उपविन्ध्यादि विख्यातो विन्ध्यपुर्यामभूद् विभुः। विन्ध्यकेतुः प्रिया तस्य प्रियङ्गश्रीस्तयोः सुता।१५३। वह हाथी पानीमें चलने लगा, उस समय उसकी सुंडका अग्रभाग ऊंचा उठा हआ था, दाँत चमक रहे थे, गण्डस्थल पानीके ऊपर था और आकार मगरके समान जान पड़ता था, इस प्रकार तैरता हुआ हाथी एक गढ़ेके बीच जा पहुँचा। उसी समय दूसरे सर्पके साथ समागम करते समय जिस सर्पिणीको पहले जयकुमारके सेवकोंने मारा था और जो मरकर काली देवी हुई थी उसने मगरका रूप धरकर जहाँ सरयू गंगा नदीसे मिलती है उस हाथीको पकड़ लिया सो ठीक ही है क्योंकि अपने देशमें रहनेवाला क्षुद्र भी बड़ों-बड़ोंसे बलवान हो जाता है। हाथीको डूबता हुआ देखकर कितने ही लोग लौटकर किनारेपर खड़े हो गये परन्तु हेमांगद आदि घबड़ाकर उसी गढ़ेमें एक साथ घुसने लगे। सुलोचनाने भी उन सबको गढ़े में घुसते देख पंच नमस्कार मन्त्रका स्मरण किया, उसने मन्त्रकी मूर्तिस्वरूप अर्हन्त भगवान्को बड़ी भक्तिसे अपने हृदयमें धारण किया और उपसर्गकी समाप्ति तक आहार तथा शरीरका त्याग कर दिया ॥१४२-१४७॥ सुलोचना भी अनेक सखियोंके साथ गंगामें घुस रही थी और उस समय ऐसी जान पड़ती थी मानो गंगादेवी ही अनेक सखियोंके साथ गंगा नदीमें प्रवेश कर रही हो। इतनेमें ही गंगाप्रपात कुण्डके गंगाकूटपर रहनेवाली गंगादेवीने आसन कम्पायमान होनेसे सब समाचार जान लिया और किये हुए उपकारको माननेवाली वह देवी बहुत शीघ्र आकर दृष्ट कालिका देवीको डाँटकर उन सबको किनारेपर ले आयी ॥१४८-१४९॥ सो ठीक ही है क्योंकि इस संसारमें ऐसे कौन हैं जो पुण्य करनेवालोंको स्वयं आकर रक्षा न करें। तदनन्तर उस देवीने गंगा नदीके किनारेपर बहुत शीघ्र अपनी विक्रिया-द्वारा सब सम्पदाओंसे सुशोभित एक भवन बनाया, उसमें मणिमय सिंहासनपर सुलोचनाको बैठाकर उसकी पूजा की और कहा कि तुम्हारे दिये हुए नमस्कार मन्त्रसे ही मैं गंगाकी अधिष्ठात्री देवी हुई हूँ, और सौधर्मेन्द्रकी नियोगिनी भी हूँ, यह सब तेरे ही प्रसादसे हुआ है ! गंगादेवीके इतना कह चुकनेपर जयकुमारने भी सुलोचनासे पूछा कि यह क्या बात है ? ।।१५०-१५२।। सुलोचना कहने लगी कि विन्ध्याचल पर्वतके समीप विन्ध्यपुरी नामकी नगरीमें विन्ध्यकेतु नामका एक सिद्ध १. तरतीति तरन् तम् । २ ह्रदस्य मध्ये । ३ पूर्वस्मिन् भवे जयेन सह बने धर्म श्रुतवत्या नाग्या सह स्थितविजातीयसहचरो। ४ सरयूनद्याः। ५ गङ्गाप्रदेशस्थाने। ६ कुम्भोराकारेण। 'नक्रस्तु कुम्भोरः' इत्यभिधानात् । ७ अभिमुखमागत्य । ८ हदे प्रविष्टवन्तः । ९ उपसर्गावसानपर्यन्तम् । १० गङ्गापतनकुण्डस्थान । ११ तानाल०, इ०, अ०, स०, प० । १२ निर्माय । १३ त्वया वितीणपंचनमस्कारपदात् । १४ अभूवम् । १५.विलासिनी (नियोगिनीति यावत् ) । १६ गङ्गादेव्या। १७ जयकुमारोऽप्येतत् किमिति पृष्टवान् । १८ विन्ध्याचलसमीपे । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व ४३६ विन्ध्यश्रीस्तां पिता तस्याः शिक्षितुं सकलान् गुणन् ।मया सह मयि स्नेहान्महीशस्य समर्पयत् ।१५४॥ वसन्ततिलकोद्याने क्रीडन्ती सैकदा दिवा । दष्टा तत्र मया दत्तनमस्कारपदान्यलम् ॥१५५॥ भावयन्ती मृतात्रेयं भूत्वाया त् स्नेहिनी मयि । इत्यब्रवीदसौं सोऽपि ज्ञात्वा संतुष्टचेतसा ॥१५॥ तत्कालोचितसामोक्त्या गङ्गादेवीं विसय॑ ताम् । सबलाकं प्रकुर्वन्तं स्वं चलत्केतुमालया ॥१५७॥ स्वावासं संप्रविश्योच्चैः सप्रियः सहबन्धुभिः । सस्नेहं राजराजोक्कम क्त्वा तत्प्रहितं स्वयम् ॥१५॥ पृथक् पृथक् प्रदायातिमुदमासाद्य वल्लभाम् । नीत्वा "तत्रैव तां रात्रिं प्रातरुत्थाय भानुवत् ॥१५॥ विधातमनुरक्तानां भुक्ति मुद्योतिताखिलः । अनुगङ्गप्रयान् प्रेम्णा कामिन्याः कुरुवल्लभः ॥१६॥ कमनीयैरतिप्रीतिमालापैरतनोत्तराम् । जाह्ववी दर्शितावर्तनाभिः कुलनितम्बिका ॥१६१॥ १७ "चटुलोज्ज्वलपाठीनलोचना रमणोन्मुखी । तरङ्गबाहुभिर्गाढमालिङ्गनसमुत्सुका ॥१६२॥ स्वभावसुभगा दृष्टहृदया स्वच्छतागुणात् । तद्यवनोत्फुल्लसुमनोमालभारिणी ॥१६३॥ "अतिवृद्धरसा वेगं संधर्तुमसहा द्रुतम् । पश्य कान्ते प्रियं याति स्वानुरूपं पयोनिधिम् ॥१६॥ रतेः कामाद् विना नेच्छा न नीचेषूत्तमस्पृहा । संगमे "तन्मयी जाता प्रेम नामेदृशं मतम् ॥ साफल्यमेतया नित्यमेति लावण्यमम्बुधेः ॥१६५॥ राजा रहता था। उसकी स्त्रीका नाम प्रियंगुश्री था। उन दोनोंके विन्ध्यश्री नामकी पुत्री थी। उसके पिताने मुझपर प्रेम होनेसे मेरे साथ सब गुण सीखनेके लिए उसे महाराज अकम्पनको सौंप दिया ॥१५३-१५४॥ वह विन्ध्यश्री किसी एक दिन उपवनमें क्रीड़ा कर रही थी, वहींपर उसे किसी साँपने काट लिया जिससे मेरे द्वारा दिये हुए पंच नमस्कार मन्त्रका चिन्तवन करती हुई मरकर यह देवी हुई है और मुझपर स्नेहके कारण यहाँ आयो है यह जानकर जयकुमारने सन्तुष्टचित्त हो शान्तिमय वचन कहकर गंगादेवीको विदा किया। तदनन्तर अपनी प्रिया सुलोचना और इष्ट-बन्धुओंके साथ-साथ, फहराती हुई पताकाओंके द्वारा अपने-आपको बगुलाओंसे सहित करते हुएके समान जान पड़नेवाले अपने ऊँचे डेरेमें प्रवेश किया । बड़े स्नेहसे महाराज भरतके कहे वचन सबको सुनाये, उनकी दी हुई भेंट सबको अलग-अलग दी। सुलोचनाको अत्यन्त प्रसन्न किया, वह रात्रि वहीं बितायी और सबेरा होते ही उठकर अपनेमें अनुराग रखनेवाले लोगोंके भोजनके लिए सूर्यके समान समस्त दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ वह कुरुवंशियोंका प्यारा जयकुमार सुलोचनाके प्रेमसे गंगा नदीके किनारे-किनारे चलने लगा ॥१५५-१६०॥ वह जाते समय मनोहर वचनोंसे सुलोचनाको बहुत ही सन्तुष्ट करता जाता था। वह कहता था कि हे प्रिये, देखो यह गंगा नदी अपने अनुरूप समुद्ररूपी पतिके पास बड़ी शीघ्रतासे जा रही है, यह अपनी नाभिरूपी भौंर दिखला रही है, दोनों किनारे हो इसके नितम्ब हैं, चंचल और उज्ज्वल मछलियाँ ही नेत्र हैं, यह पति अर्थात् समुद्रकी प्राप्तिके लिए उन्मुख है, तरंगरूपी भुजाओंके द्वारा गाढ़ आलिंगनके लिए उत्कण्ठित-सी जान पड़ती है, स्वभावसे सुन्दर है, अपने स्वच्छतारूपी गुणोंसे सबका हृदय हरनेवाली है, दोनों किनारोंपर वनके फूले हुए पुष्पोंकी माला धारण कर रही है, इसका रस अथवा पानी सब ओरसे बढ़ रहा है और अपना वेग नहीं सँभाल सक रही है ।।१६१-१६४।। सो ठीक ही है क्योंकि कामदेवके बिना १ अकम्पनस्य । २ विन्ध्यश्रीः । ३ आगच्छति स्म। ४ सुलोचना। ५ विसकण्ठिकासहितम् । 'बलाका विसकण्ठिका' इत्यभिधानात् । ६ चक्रिणा प्रोक्तम् । ७ भणित्वा । ८ चक्रिप्रेषितम् । ९ दत्त्वा । १० प्रापय्य । ११ स्कन्धावारे । १२ कर्तुम् । १३ असिमष्यादिव्यापारविभवजम् । १४ प्रकाशितसकललोकः । १५ जयः । १६ गंगा। 'गंगाविष्णुपदी जह्न तनया सुरनिम्नगा' इत्यभिधानात् । १७ चंचल । १८ समुद्रेण सह रतिक्रोडोन्मुखी। निजपतिसमुद्राभिमुखी.वा। १९ अभिवृद्ध-ल २० जलस्यासमन्ताद् वेगम् । रागोद्रेकं च । २१ समुद्रस्वरूपा। २२ गंगया। षट्पादोऽयं श्लोकश्चिन्त्यः । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् उत्पत्तिर्भूभृतां पत्युर्धरण्यां वर्धिता सती । वार्धिरेव पतिस्तस्मादेषाऽभूत् पापनाशिनी ॥ १६६ ॥ घवला धार्मिकैर्मान्या सतीनामुपमानताम् । गता कवीश्वरैः सर्वैः स्तूयते देवतेति च ॥१६७॥ गुणिनश्चेन्न के "नान्धाः संस्तुवन्ति गुणप्रियाः । " इति गङ्गागतैः श्रन्यैरन्यैश्चातिमनोहरैः ॥ १६८ ॥ ततः कतिपयैरेव प्रयाणैः कुरुजाङ्गलम् । प्राप्य तद्वर्णनाव्याजान्मोदयन् काशिपात्मजाम् ॥१६९॥ आप्तजानपदानीतफलपुष्पादिभिश्च सः । विकसन्नीलनीरेजस रोजातिविराजितैः ॥ १७० ॥ प्रत्येत्येव प्रपश्यन्तीं सरोनेत्रैर्वधूवरम् । सद्वप्रजघनाभोगां वापीकूपोरुनाभिकाम् ॥ १७१ ॥ परीत जातरूपोच्चप्राकारकंटिसूत्रिकासु । अलंकृतमहावीथिविलसद्वाहु बल्लरीम् ॥ १७२॥ सौधोत्तङ्गकुचां भास्वद्गोपुराननशोभिनीम् । कुङ्कुमागुरुकर्पूरकर्दमार्दितगात्रिकाम् ॥ १७३॥ नानाप्रसवसन्दृब्धमाला धमिल्लधारिणीम् । तोरणाबद्ध रत्नादिमालालंकृतविग्रहाम् ॥१७४॥ आह्वयन्तीमिवोर्ध्वाधः पतत्त्वग्रहस्तकैः । द्वारासंवृतिविश्रम्भनेत्रां'' वासान्तरुत्सुकाम् ॥ १७५ ॥ पुरोहितैः २ पुरन्ध्रीभिर्मन्त्रिभिर्वैश्यविश्रुतैः । दत्तशेषः पुरः स्थित्वा साशीर्वादैः समुत्सुकैः ॥१७६॥ ०१ १२ ४४० रतिकी इच्छा नहीं होती है, उत्तम पुरुषोंकी इच्छाएँ नीच पदार्थोंपर नहीं होती हैं, यह नदी समुद्र में जाकर समुद्ररूप ही हो गयो है सो ठोक ही है क्योंकि प्रेम ऐसा ही होता है, इसके समागमसे ही समुद्रका लावण्य ( सौन्दर्य अथवा खारापन ) सदा सफल होता है ॥ १६५ ॥ इस गंगा नदीकी उत्पत्ति पर्वतों के पति हिमवान् पर्वत से है, पृथिवीपर यह बढ़ी है और समुद्र ही 1. इसका पति है इसलिए ही यह संसार में पापों का नाश करनेवाली हुई है || १६६ || यह सफेद हैं, धर्मात्मा लोंगों के द्वारा मान्य है, सतियोंको इसकी उपमा दी जाती है और सब कवीश्वर यदि गुणीजनों की स्तुति न करें तो फिर कौन किसकी स्तुति करेगा ? इस प्रकार सुननेके योग्य गंगा सम्बन्धी तथा अन्य अत्यन्त मनोहर कथाओं द्वारा मार्ग तय किया ।। १६७ - १६८ ॥ तदनन्तर कुछ ही पड़ावों द्वारा कुरुजांगल देश पहुँचकर उसके वर्णन के बहानेसे सुलोचनाको आनन्दित करते हुए जयकुमारने अपनी उस हस्तिनागपुरी नामकी राजधानीमें प्रवेश किया जो कि देशके प्रधान प्रधान पुरुषों द्वारा लाये हुए फल - पुष्प आदिकी भेंट तथा खिले हुए नील कमल और सफेद कमलोंसे अत्यन्त सुशोभित सरोवररूपी नेत्रोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो आगे आकर वधू वरको देख ही रही हो । उत्तम धूलोसाल ही जिसका विस्तृत जघन प्रदेश था, बावड़ी और कुएँ ही जिसकी विशाल नाभि थी, चारों ओर खड़ा हुआ सुवर्णका ऊँचा परकोटा ही जिसकी करधनी थी, सजी हुई बड़ी-बड़ी गलियाँ ही जिसकी सुशोभित बाहुलताएँ थीं, राजभवन ही जिसके ऊंचे कुच थे, देदीप्यमान गोपुररूपी मुखसे जो सुशोभित हो रही थी, केशर, अगुरु और कपूरके विलेपनसे जिसका शरीर गीला हो रहा था, जो अनेक प्रकारके फूलोंसे गुँथी हुई मालारूपी केशपाशको धारण कर रही थी, तोरणों में बाँधी गयी रत्न आदिकी मालाओंसे जिसका शरीर सुशोभित हो रहा था, जो ऊपर नीचे उड़ती हुई पताकाओं के अग्रभागरूपी हाथोंसे बुलाती हुई-सी जान पड़ती थी, खुले हुए दरवाजे ही जिसके विश्वासपूर्ण नेत्र थे, जो घरघर होनेवाले उत्सवोंसे उत्कण्ठित-सी जान पड़ती थी और इस प्रकार जो दूसरी सुलोचनाके समान सुशोभित हो रही थी । महाराजके दर्शन करनेके लिए उत्कण्ठित हो आशीर्वाद देने १ हिमवगिरेः । २ प्रशस्ता । ३ गुणवज्जनान् । ४ अनन्धाः । कान्त्रा अ०, प०, इ०, स०, ल० । ५ इति गङ्गागतैरित्यनेन सह कमनीयैरतिप्रतिमालापैरिति संबन्धः । ६ सुलोचनाम् । ७ संप्राप्तजनपदजनानीत । ८ अभिमुखमागत्य । ९ प्रशस्तधूलिकुट्टिमघनविस्ताराम् । १० कवाटपिधानरहितद्वारनयनामित्यर्थः । ११ गृहमध्ये सोत्सवान् । १२ कुटुम्बिनीभिः । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व तूर्यमङ्गलनिर्घोषैः पुरन्दर इवापरः । सुलोचनामित्रान्यां स्वां प्रविश्य नगरीं जयः ॥ १७७॥ राजगेहं महानन्दविधायि विविधर्द्धिभिः । 'आवसत् कान्तया सार्द्धं नगर्या हृदयं मुद्रा ॥ १७८ ॥ तिथ्यादिपञ्चभिः शुद्धैः शुद्ध े लग्ने महोत्सवम् । सर्वसंतोषणं कृत्वा जिनपूजापुरःसरम् ॥ १७९॥ विश्वमङ्गलसंपत्या स्त्रोचितासनसुस्थिताम् । हेमाङ्गदा दिसांनिध्ये राजा जातमहोदयः ॥ १८० ॥ सुलोचनां महादेवीं पट्टवन्धं "व्यधान्मुदा । स्त्रीषु संचितपुण्यासु पत्युरेतावती रतिः ॥ १८६१ ॥ हेमाङ्गदं ससोदर्यमुपचर्य ससंभ्रमम् । पुरोभूय स्वयं सर्वैर्भोग्यैः प्राघूर्ण कोचितैः ॥ १८२ ॥ नृत्यगीतसुखालापैर्वारणारोहणादिभिः । वनवापीसरः क्रीडाकन्दुकादिविनोदनैः ॥ १८३॥ अहानि स्थापयित्वैवं सुखेन कतिचित्कृती । तदीप्सितगजाश्वास्त्र गणिकाभूषणादिकम् ॥ १८४ ॥ प्रदाय परिवारं च तोषयित्वा यथोचितम् । चतुर्विधेन कोशेन "तरपुरी "तमजीगमत् ॥१८५॥ सुखप्रमाणैः संप्राप्य दृष्ट्वा भूपं ससुप्रभम् । प्रणम्याह्लादयन्नस्थात् स वधूवरवार्तया ॥ १८६॥ सुखं काले गलत्येवम कम्पनमहीपतिः । तदा संचिन्तयामास विरक्तः कामभोगयोः ॥ १८७॥ अहो मया प्रमत्तेन विषयान्धेन नेक्षिता । कष्टं शरीरसंसारभोगनिस्सारता चिरम् ॥ १८८ ॥ 3 ४ ४४१ वाले पुरोहित, सौभाग्यवतो स्त्रियाँ, मन्त्री और प्रसिद्ध प्रसिद्ध सेठ लोग सामने खड़े होकर शब्दोंके साथ-साथ विभूतियों से बहुत समान अपने राजभवन में प्रिया सुलोचनाके जिसे शेषाक्षत दे रहे हैं ऐसे उस जयकुमारने तुरही आदि मांगलिक बाजों के दूसरे इन्द्रके समान अपनी उस हस्तिनागपुरी में प्रवेश कर अनेक प्रकारकी भारी आनन्द देनेवाले तथा उस नगरीके हृदयके साथ-साथ बड़े आनन्दसे निवास किया ।। १६९-१७८॥ तदनन्तर बड़े भारी अभ्युदयको धारण करनेवाले महाराज जयकुमारने शुद्ध तिथि, शुद्ध नक्षत्र आदि पांचों बातोंसे निर्दोष लग्न में बड़ा भारी उत्सव कराकर सबको सन्तुष्ट किया और फिर जिनपूजापूर्वक सब मंगल- सम्पदाओंके साथ-साथ हेमांगद आदि भाइयोंके सामने ही अपने योग्य आसनपर बैठी हुई सुलोचनाको बड़े हर्षसे पट्टबन्ध बाँधा अर्थात् पट्टरानी बनाया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यसंचय करनेवाली स्त्रियोंमें पतिका ऐसा ही प्रेम होता है ।।१७९१८१ ।। उसके बाद कुशल जयकुमारने स्वयं आगे होकर पाहुनोंके योग्य सब प्रकारके भोगोपभोगों, नृत्य, गीत और सुख देनेवाले वचनों से, हाथी आदिकी सवारीसे, वन, वापिका, तालाब आदिकी क्रीड़ाओंसे और गेंद आदिके खेलोंसे प्रसन्नतापूर्वक हेमांगद और उनके भाइयों की सेवा की, कुछ दिन तक उन्हें बड़े सुखसे रखा और फिर उनको अच्छे लगनेवाले हाथी, घोड़े, अस्त्र, गणिका तथा आभूषण आदि देकर उनके परिवार के लोगोंको यथायोग्य सन्तुष्ट किया और फिर रत्न, सोना, चाँदी तथा रुपये-पैसे आदि चारों प्रकारका खजाना साथ देकर उन्हें उनके नगर बनारसको विदा किया । ।।१८२ - १८५॥ सुखपूर्वक कितने ही पड़ाव चलकर मांगद आदि बनारस पहुँचे और माता सुप्रभाके साथ राजा अकम्पनके दर्शन कर उन्हें प्रणाम किया और जयकुमार तथा सुलोचनाकी बातचीतसे माता-पिताको आनन्दित करते हुए रहने लगे ॥१८६॥ इस प्रकार सुपूर्वक बहुत-सा समय व्यतीत होनेपर एक दिन महाराज अकम्पन कामभोगों से विरक्त होकर इस प्रकार सोचने लगे ॥ १८७॥ कि मुझ प्रमादीने विषयोंसे अन्धा १ निवसति स्म । २ नगरीजनचित्ते इत्यर्थः । ३ तिथिग्रहनक्षत्रयोगकरणैः । तिथिनक्षत्रहोरावारमुहूर्तेर्वा । ४ महोत्सवे ल० । ५ चकार । ६ ससानुजम् । ७ अग्रे भूत्वा । पुरस्कृत्य वा । ८ अतिथि । ९ दिनानि । १० रत्नसुवर्ण रजतव्यवहारयोग्यनाणकम् इति चतुविधेत ११ वाराणसीम् । १२ हेमांगदम् । १३ गमयति स्म । १४ अकम्पनम् । १५ सुप्रभादेवीसहितम् । ५६ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ आदिपुराणम् आदावशुच्युपादानमशुच्यवयवात्मकम् । विश्वाशुचिकरं पापं दुःखदुश्चेष्टितालयम् ॥१८९॥ निरन्तरश्रवोत्कोथनवद्वारशरीरकम् । कृमिपुञ्जचिताभस्मविष्टानिष्ठं विनश्वरम् ॥१०॥ तदध्युष्य जडो जन्तुस्तप्तः पञ्चन्द्रियाग्निमिः । विश्वेन्धनैः कुलिङ्गीव भूयोऽयात् कुत्सितां गतिम् ॥ साऽऽशाखनिः किलात्रैव यत्र ''विश्वमणूपमम् । तां पुपूर्षुः किलाद्याहं धनैःसंख्यातिबन्धनैः ॥ 'यदादाय भवेज्जन्मी यन्मुक्त्वा मुक्तिभागयम् । तद्याथात्म्यमिति ज्ञात्वा कथं पुष्णाति धीधनः ॥ हा हतोऽसि चिरं जन्तो मोहेनाद्यापि ते यतः । नास्ति कायाशुचिज्ञानं तत्त्यागः क्वातिदुर्लमः ॥ दुःखी सुखी सुखी दुःखी दुःखी दुःख्येव केवलम् । 'धन्यधन्योऽधनो धन्यो निर्धनो निर्धनः सदा ॥ एवंविधैस्त्रिमिर्जन्तुरीप्सितानीप्सितैश्चिरम् । चतुर्थ भङ्गमप्राप्य बम्भ्रमीति भवार्णवे ॥११६॥ "यां वध्ययमसौ वष्टि परं वष्टि स चापराम् । साऽपि वटयपरं कष्टमनिष्टेष्ट परम्परा ॥१७॥ होकर इतने दिन तक शरीर, संसार और भोगोंकी असारता नहीं देखी यह बड़े खेदकी बात है ॥१८८॥ प्रथम तो यह शरीर अपवित्र उपादानों (माता-पिताके रज वीर्य) से बना है, फिर इसके सब अवयव अपवित्र हैं, यह सबको अपवित्र करनेवाला है, पापरूप है और दुःख देनेवाली खोटी-खोटी चेष्टाओंका घर है ।।१८९।। इसके नौ द्वारोंसे सदा मल-मूत्र बहा करता है और अन्तमें यह विनश्वर शरीर कीड़ोंका समूह, चिताकी राख तथा विष्ठा बनकर नष्ट हो जानेवाला है ॥१९०।। ऐसे शरीरमें रहकर यह मूर्ख प्राणो, जिनमें संसारके सब पदार्थ ईधन रूप हैं ऐसी पाँचों इन्द्रियोंकी अग्नियोंसे तपाया जाकर कुलिंगी जोवके समान फिरसे नीच गतियों में पहुँचता है ॥१९१॥ जिसमें यह सारा संसार एक परमाणुके समान है ऐसा वह प्रसिद्ध आशारूपो गढ़ा इसी शरीरमें है, इसी आशारूपो गढ़ेको मैं आज थोड़े-से धनसे पूरा करना चाहता हैं ॥१६२।। जिस शरीरको लेकर यह जीव जन्म धारण करता है -संसारी बन जाता है और जिसे छोड़कर यह जीव मुक्त हो जाता है इस प्रकार शरीरकी वास्तविकता जानकर भी बुद्धिमान् लोग न जाने क्यों उसका भरण-पोषण करते हैं ।।१९३॥ हे जीव, खेद है कि तू मोहकर्मके द्वारा चिरकालसे ठगा गया है, क्योंकि तुझे आजतक भी अपने शरीरकी अपवित्रताका ज्ञान नहीं हो रहा है, जब यह बात है तब अत्यन्त दुर्लभ उसका त्याग भला कहाँ मिल सकता है ।।१६४॥ इस संसारमें जो दुःखी हैं वे सुखी हो जाते हैं, जो सुखी हैं वे दुःखी हो जाते हैं और कितने ही दुःखी दुःखी ही बने रहते हैं इसी प्रकार धनी निर्धन हो जाते हैं, निर्धन धनी हो जाते हैं और कितने ही निर्धन सदा निर्धन ही बने रहते हैं। इस तरह यह जीव जो सुखी है वह सुखी ही रहे और जो धनी है वह धनी ही बना रहे यह चौथा भंग नहीं पाकर केवल ऊपर कहे हुए तीन तरहके भंगोंसे ही संसाररूपी समुद्र में चिरकाल तक भ्रमण करता रहता है। ॥१९५-१९६।। यह पुरुष जिस स्त्रीको चाहता है वह स्त्री किसी दूसरे पुरुषको चाहती है, जिसको वह चाहती है वह भी किसी अन्य स्त्रीको चाहता है इस प्रकार यह इष्ट अनिष्टको १ अशुचिशुक्रशोणितमुख्यकारणम् । २ पूतिगन्धित्वम् । ३ कृमीनां पुजः चितायां भस्म विष्ठा पुरीषो निष्ठायामन्ते यस्मिन् तत् । ४ तस्मिन् शरीरे । ५ स्थित्वा । ६ सकलविषयेन्धनैः । ७ गच्छेत् । ८ अभिनिवे. शाकरः । ९ जन्तावेव। १० आशाखनी। ११ सकलवस्तु । १२ आशाखनिम् । १३ पूरयितुमिच्छुः । १४ गणनाविशेषः । १५ शरीरम् । १६ तच्छरीरस्य यथास्वरूपम् । १७ पुष्टिं नयति । १८ वैराग्योत्पन्नकालेऽपि । १९ शरीरत्यागः । २० कुत्रास्ति । २१ धनवान् । २२ धनरहितः । २३ सुखी सुखीति धनी धनोति चतुर्थभेदम् । २४ स्त्रियम् । २५ वष्टि इच्छति । अयम् पुमान् । २६ अन्यपुरुषम् । २७ अनिष्टवाञ्छासंततिः। 'वष्टि योगेच्छयोः' इत्यभिधानात् । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व ४४३ यदिष्टं तदनिष्टं स्याद् यदनिष्टं सदिष्यते । इहेष्टानिष्टयोरिष्टा नियमन न हि स्थितिः ॥ १६८॥ ससा सातत्तदेवैषां सा स स्यात् सोऽपि तत्पुनः । तत्स स्यात्तसदेवा चक्रके वक्रसंक्रमः ॥१६६ ॥ अन्तमस्व विधास्यामि चिन्तयित्वा जिनोदितम्। संततं जन्मकान्तारभ्रान्तौ मीतोऽहमन्तकात् ॥२०॥ भोगोऽयं मोगिनो मोगो भोगिनो मोगिनामकृत्तावन्मानोऽपि नास्माकं भोगो भोगेप्विति ध्रुवम् ॥ भुज्यते यःस मोगः स्याद् भुक्तिर्वा भोग इष्यते। तदद्वयं नरकेऽप्यस्ति तस्माद् भोगेषु का रतिः ॥२०२॥ मोगास्तृष्णाग्निसंवद्ध्यै दीपनीयौषधोपमाः। एभिःप्रवृद्धतृष्णाग्नेः शान्त्यै चिन्त्यमिहापरम् ॥२०३॥ इत्यतो न सुधीः संयो वान्ततृष्णाविषो भृशम् । हेमांगदं समाहूय पूज्यपूजापुरस्सरम् ॥२०॥ . अभिषिच्य चलां मत्वा बध्वा पट्टेन वाञ्चलम् । लक्ष्मी समर्प्य गत्वोच्चैरभ्यासं वृषभेशितुः ॥२०५॥ प्रव्रज्य बहुभिः साद्ध मूर्धन्यैः स ससुप्रभः'। क्रमाच्छणी समारुह्य कैवल्यमुदपादयत् ॥२०६॥ अथ जन्मान्तरापातमहास्नेहातिनिर्मरः । सुलोचनाननानन्द नेन्दुबिम्बात् स्रुतां सुधाम् ॥२०७॥ "उन्मीलन्नीलनीरेजराजिभिर्लोकनैः पिबन् । पूरयन् श्रोत्रपात्राभ्यां तद्गीर्गीतरसायनम् ॥२०८॥ परम्परा बहुत ही दुःख देनेवाली है ॥१६७।। जो इष्ट है वह अनिष्ट हो जाता है और जो अनिष्ट है वह इष्ट हो जाता है, इस प्रकार संसारमें इष्ट-अनिष्टकी स्थिति किसी एक स्थानपर नियमित नहीं रहती ? ॥१९८॥ आजका पुरुष अगले जन्ममें स्त्री हो जाता है, स्त्री नपुंसक हो जाती है, नपुंसक स्त्री हो जाता है, वही स्त्री फिर पुरुष हो जाता है, वह पुरुष भी नपुंसक हो जाता है, वह नपुंसक फिर पुरुष हो जाता है अथवा नपुंसक नपुंसक ही बना रहता है, इस प्रकार इस चक्रमें बड़ा टेढ़ा संक्रमण करना पड़ता है ॥१९९॥ इसलिए श्रीजिनेन्द्रदेवके कहे हुए वचनोंका चिन्तवन कर मैं अवश्य ही इस संसारका अन्त करूंगा क्योंकि निरन्तर संसाररूपी वनके भीतर परिभ्रमण करने में मैं अब यमराजसे डर गया हूँ॥२००॥ भोग करनेवाले मनुष्योंके ये भोग ठीक सर्पके फणाके समान हैं और भोगनेवाले जीवको भोगी नाम देनेवाले हैं। तथा इतना सब होनेपर भी उन भोगोंमें-से एक भोग भी हमारा नहीं है यह निश्चय है ॥२०१।। जिसका भोग किया जाता है उसे भोग कहते हैं अथवा उपभोग किया जाना भोग कहलाता है. वे दोनों प्रकारके भोग नरकमें भी हैं इसलिए उन भोगोंमें क्या प्रेम करना है ? ॥२०२॥ जिस प्रकार औषधसे पेटकी अग्नि प्रदीप्त हो जाती है उसी प्रकार इन भोगोंसे भी तृष्णारूपी अग्नि प्रदीप्त हो उठती है अतः इन भोगोंसे बढ़ी हुई तृष्णारूपी अग्निको शान्तिके लिए कोई दूसरा ही उपाय सोचना चाहिए ॥२०३॥ इस प्रकार तृष्णारूपी विषको उगल देनेवाले बुद्धिमान् राजा अकम्पनने बहुत शीघ्र हेमांगदको बुलाकर पूज्य-परमेष्ठियोंकी पूजापूर्वक उसका राज्याभिषेक किया, लक्ष्मीको चंचल समझ पट्टबन्धसे बाँधकर उसे अचल बनाया और हेमांगदको सौंपकर श्रीभगवान् वृषभदेवके समीप जाकर अनेक राजाओं और रानी सुप्रभाके साथ दीक्षा धारण की तथा अनुक्रमसे श्रेणियाँ चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न किया ॥२०४-२०६।। अथानन्तर अन्य जन्मसे आये हुए बहुत भारी स्नेहसे भरा हुआ जयकुमार खुले हुए नीलकमलोंके समान सुशोभित होनेवाले अपने नेत्रोंसे सुलोचनाके मुखरूपी आनन्ददायो. १ इष्टं भवति । २ स पुमान् । ३ सा स्त्री स्यात् । ४ तत् नपुंसकम् । ५. एषा स्त्री स्यात् । ६ तत् नपुंसकम् । ७ तदेव पुनपुंसकमेव स्यात् । ८ चक्रवदावर्तमानसंसारे । ९ संसारस्य । १० सर्पस्य । ११ भोगीति नामकृत् । भोगीति नामकरः । सर्पनामकृदित्यर्थः । १२ भोगीति नामकृन्मात्रोऽपि । १३ पदार्थः । १४ पदार्थानुभवनक्रिया। १५ दीपनहेतुः । १६ भोगैः । १७ उपशान्तिकारणम् । १८ परमेष्ठीपूजापूर्वकम् । १९ निश्चलं यथा भवति तथा। पट्टेन बद्ध्वा वा निबन्धनं कृत्वेव समर्थे ति संबन्धः । २० क्षत्रियः । २१ सुप्रभादेवीसहितः । २२ आनन्दहेतुचन्द्र। २३ निसृताम् । २४ कान्तिम् । २५ विकसन्नोलोत्सलवद्विराजमानैः । २६ नेत्रैः । - लोचनैः तं विहाय सर्वत्र । २७ सुलोचनावचनरूपगीतम् । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् "हरन् करिकराका रकरालिङ्गनसं गतः । तद्गात्रकूपिकान्तःस्थं रसं 'स्पर्शनवेदिनम् ॥ २०६॥ तद्भिम्बाधरसम्भावितामृतास्वादनोत्सुकः । तद्वक्त्रावारिजामोदान्मोदमानोऽनिशं भृशम् ॥२१०॥ "अत्रैव न पुन ममवामासमागमः । स सुलोचनया स्वानि चक्षुरादीन्यतर्पयत् ॥ २११॥ 'प्रमाणकालभावेभ्यो यद्वतेः समता तयोः । ततः संभोगशृंगारावारापारान्तगौ हि तौ ॥ २१२ ॥ मालिनी लोपितालेपनादिः सकलकरणानां गोचरीभूय 3 तस्याः । हितपरविषयाणां साऽपि तस्यैवमतौ ११ १० अतिपरित ख्या १५ १६ ४४४ १४ समरतिकृतसाराण्यन्वभूतां - मनसि मनसिजस्यावापि सौख्यं न ताभ्यां सुखानि ॥ २१३॥ १७ 1८ पृथगनुगतभावैः' संगताभ्यां नितान्तम् । "करण मुख सुखैस्तैस्तन्मनः प्रीतिमापत् भवति परमुखं च क्वापि सौख्यं सुवृत्ये ॥ २१४॥ शिशिरसुरभिमन्दोच्छ्वासजैः स्त्रैः समीरै "मृदुमधुरवचोभिः स्वादनीयप्रदेशैः । ललिततनुलताभ्यां मार्दवैकाकराभ्या मखिलमनयतां तौ सौख्यमात्मेन्द्रियाणि ॥ २१५ ॥ चन्द्रमासे झरते हुए अमृतको पीता था, सुलोचनाके वचन और गीतरूपी रसायनको अपने कानरूपी पात्रोंसे भरता था, हाथीकी सूँड़के समान आकारवाले हाथोंके आलिंगनसे युक्त हो स्पर्शन इन्द्रियसे जानने योग्य उसके शरीररूपी कुइँयाके भीतर रहनेवाले रसको ग्रहण करता था, बिम्बी फलके समान सुशोभित उसके ओठोंमें रहनेवाले अमृतका आस्वाद लेने में सदा उत्सुक रहता था, उसके मुखरूपी कमलको सुगन्धिसे रात-दिन अत्यन्त हर्षित होता रहता था ऐसा मानकर ही मानो सुलोचनाके और 'स्त्री समागम मुझे इसी भव में है अन्यभवमें नहीं है, द्वारा अपनी चक्षु आदि इन्द्रियोंको सन्तुष्ट करता रहता था ॥ २०७ - २११ ॥ चूंकि प्रमाण, काल और भावसे इन दोनोंके प्रेममें समानता थी इसलिए ही वे दोनों सम्भोग श्रृंगाररूपी समुद्रके अन्त तक पहुँच गये । २१२ || खूब बढ़े हुए प्रेमसे जिसने विलेपन आदि छोड़ दिया है ऐसा वह जयकुमार सुलोचनाकी सब इन्द्रियोंका विषय रहता था और सुलोचना भी जयकुमारके हित करनेवाले विषयोंमें तत्पर रहती थी इस प्रकार ये दोनों ही समान प्रीति करना ही जिनका सारभाग है ऐसे सुखोंका उपभोग करते थे ।।२१३ ।। पृथक्-पृथक् उत्पन्न हुए परिणामों से खूब मिले हुए उन दोनोंने अपने मनमें कामदेवका सुख नहीं हुए उन उन सुखोंसे उनके मन प्रीतिको अवश्य प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि दूसरेके द्वारा उत्पन्न हुआ सुख क्या कहीं उत्तम तृप्तिके लिए हो सकता है ? || २१४|| अपने श्वासोच्छ्वासके उत्पन्न हुए शीतल सुगन्धित और मन्द पवनसे, कोमल और मधुर वचनोंसे, स्वाद पाया था किन्तु इन्द्रियोंसे उत्पन्न १ स्वीकुर्वन् । २ आलिङ्गने हृदयङ्गमः 'संगतं हृदयङ्गमम्' इत्यभिधानात् । ३ सुलोचनाशरीररसकूपमध्यस्थित । ४ स्पर्शजनकम् । ५ इह जन्मन्येव । ६ उत्तरभवे नास्तीति वा । ७ स्त्रोसंग । प्रतीपदर्शिनी वामा वनिता महिला तथा' इत्यभिधानात् ।८ विजयः । ९ योनिपुष्पादिप्रमाणात् समरतिप्रभृतिकालात् अन्योन्यानुरागादिभावाच्च । १० अतीव प्रवृद्ध । ११ लुप्तश्रीखण्डकुंकुमचर्चामाल्याभरणादिः । १२ समस्तेन्द्रियाणाम् । १३ विषयीभूत्वा । १४ तिस्रक्चन्दनादिविषयाणाम् । १५ सुलोचनापि । १६ जयस्य । १७ न प्राप्यते स्म । १८ पदार्थः । १९ इन्द्रियोपायजनितसुखैः । २० परम् अन्यवस्तु मुखं द्वारमुपायो यस्य तत् । परमुखं क्वापि भवति न कुत्रा - पीत्यर्थः । २१ आस्वादितुं योग्याधरादिप्रदेशः । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व ४४५ हृतसरसिजसारैरिष्टचेटीयमानैः सततरतनिमित्तैर्जाल मार्गप्रवृत्तः । मृदुशिशिरतरैः संप्रापतुस्ती समीरैः सुरत विरतिजातस्वेदविच्छेदसौख्यम् ॥२१६॥ बसन्ततिलका तां तस्य वृत्तिरनुवर्तयति स्म तस्या इचैनं तदेव रतितृप्तिनिमित्तमासीत् । "प्रेमापदन निज भावमचिन्त्यमय सातोदयश्च भवभूतिफलं तदेव ॥२१७॥ कामोऽगमत् सुरतवृत्तिषु तस्य शिप्य भावं सुधीरिति रतिश्च सुलोचनायाः। को गर्वमुद्वहति चेन्न वृथाभिमानी स्वेष्टार्थसिद्धिविषयेषु गुणाधिकंषु ॥२१८॥ एवं सुखानि तनुजान्यनुभूय तो च "नैवेयतुश्चिररतेऽप्यभिलाषकोटिम्। धिक्कष्टमिष्टविषयोत्थसुखं सुखाय तद्वीतविश्वविषयाय बुधा यतध्वम् ॥२१९॥ इत्याचे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणश्रीमहापुराणसंग्रहे जयसुलोचना सुखानुभवव्यावर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व ॥४५॥ लेने योग्य अधर आदि प्रदेशोंसे और · कोमलताकी एक खान स्वरूप सुन्दर शरीररूपी लतासे वे दोनों अपनी इन्द्रियोंको समस्त सुख पहुँचाते थे ॥२१५॥ जिसने कमलका सार भाग हरण कर लिया है, जो प्रिय दासके समान आचरण करता है, निरन्तर सम्भोगका साधन रहता है, झरोखेके मार्गसे आता है और अत्यन्त कोमल ( मन्द ) तथा शीतल है ऐसे पवनसे वे दोनों ही सम्भोगके बाद उत्पन्न हए पसीना सूखनेका सुख प्राप्त करते थे ॥२१६।। जयकुमारकी प्रवृत्ति सुलोचनाके अनुकूल रहती थी और सुलोचनाकी प्रवृत्ति जयकुमारके अनुकूल रहती थी। उन दोनोंका परस्पर एक दूसरेके अनुकूल रहना ही उनके रतिजन्य सन्तोषका कारण था जो चितवनमें न आ सके ऐसा प्रेम इन्हीं दम्पतियोंमें पूर्णताको प्राप्त हुआ था, इन्हींके सातावेदनीयका अन्तिम उदय था और यही सब इनके जन्म लेनेका फल था ॥२१७|| बुद्धिमान् कामदेव, सम्भोग चेष्टाओंके समय जयकुमारका शिष्य बन गया था और रति सुलोचनाकी शिष्या बन गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि मनुष्य यदि व्यर्थका अभिमानी न हो तो ऐसा कौन हो जो अपने इष्ट पदार्थकी सिद्धिके विषयभूत अधिक गुणवाले पुरुषोंके साथ अभिमान करे ? ॥२१८।। इस प्रकार शरीरसे उत्पन्न हुए सुखोंका अनुभव कर चिरकाल तक रमण करनेपर भी वे दोनों इच्छाओंकी अन्तिम अवधिको प्राप्त नहीं थे – उनकी इच्छाएं पूर्ण नहीं हुई थीं। इसलिए कहना पड़ता है कि इष्ट विषयोंसे उत्पन्न हुए सुखको भी धिक्कार है । हे पण्डितो, तुम उसी सुखके लिए प्रयत्न करो जो कि संसारके सब विषयोंसे अतीत है ॥२१९।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवद्गुणभद्राचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें जयकुमार और सुलोचनाके सुखभोगका वर्णन करनेवाला पैंतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। १ष्टवयस्यायमानः । २ गवाक्षपथ । ३ सुरतावसानजात । ४ अन्योन्यानुवर्तनमेव । ५ प्रापत् । ६ जयसुलोचनयोः । ७ निजयोर्दम्पत्योर्भावो यत्र तत् । ८ अपश्चिमसुखोदयश्च । ९ जन्मप्राप्तिफलम् । १० नैव प्रापतुः । ११ अन्तम् । १२ कारणात् । १३ प्रयत्नं कुरुध्वम् । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ७ जयः प्रासादमध्यास्य 'दन्तावलगतो मुदा । यदृच्छयाऽन्यदालोक्य गच्छन्तौ खगदम्पती ॥१॥ हा मे प्रभावतीत्येतद् आलपन्नतिविह्वलः । रतिमेवाहितः सद्यः सहायीकृत्य मूर्च्छया ॥ २ ॥ द्वन्द्वं तत्रैवालोक्य कामिनी । हा मे रतिवरेत्युक्त्वा साऽपि मूर्च्छामुपागता ॥३॥ . दक्ष चेट जनक्षिप्रकृतशीतक्रिया क्रमात् । सद्यः कुमुदिनीवाप प्रबोधं शीतदीधितेः ॥ ४ ॥ 'हिमचन्दनसंमिश्र वारिभिर्मन्दमारुतैः । सोऽप्यमूच्छे दिशः पश्यन् मन्दमन्दतनुत्रः ॥ ५ ॥ यूयं सर्वेऽपि सायन्तनाम्भोजानुकृताननाः । किमेतदिति तत्सर्वं जानानोऽपि स नागरः" ॥६॥ अनेकानुनयोपायैर्गोत्रस्खलन दुःखिताम् । सुलोचनां समाश्वास्य स्मरन् जन्मान्तरप्रियाम् ॥७॥ ” आकारसंवृत्तिं कृत्वा तामेवालपयन् " स्थितः । वञ्चनाचुञ्चवः "सर्वे प्रायः कान्तासु कामिनः ॥ ८ ॥ तयोर्जन्मान्तरात्मीयवृत्तान्तस्मृत्यनन्तरम् । स्वर्गादनुगतो बोधस्तृतीयो व्यक्तिमीयिवान् ७ ॥१॥ द्विलोक्य सपम्योsस्या श्रीमती सशिवंकरा । पराश्च मत्सरोद्रेकादित्यन्योन्यं तदाब्रुवन् ॥१०॥ अथानन्तर किसी अन्य समय जयकुमार अपने महलकी छतपर आरूढ़ हो शोभाके लिए बनवाये हुए कृत्रिम हाथीपर आनन्दसे बैठा था कि इतनेमें ही अपनी इच्छानुसार जाते हुए विद्याधर दम्पती दिखे, उन्हें देखकर 'हा मेरी 'प्रभावती' इस प्रकार कहता हुआ वह बहुत ही बेचैन हुआ और मृच्छकी सहायता पाकर शीघ्र ही प्रेमको प्राप्त हुआ । भावार्थ - पूर्वभवका स्मरण होने से मूच्छित हो गया ॥ १-२ ॥ इसी प्रकार सुलोचना भी उसी स्थानपर कबूतरोंका युगल देखकर 'हा मेरे रतिवर' ऐसा कहकर मूर्च्छाको प्राप्त हो गयी ||३|| जिस प्रकार चन्द्रमासे कुमुदिनी शीघ्र ही प्रबोधको प्राप्त हो जाती है- खिल उठती है उसी प्रकार चतुर दासी जनोंके द्वारा किये हुए शीतलोपचारके क्रमसे वह सुलोचना शीघ्र ही प्रबोधको प्राप्त हुई थी - मूर्च्छारहित हो गयी थी || ४ || कपूर और चन्दन मिले हुए जलसे तथा मन्द मन्द वायुसे कुछ लज्जित हुआ और दिशाओंकी ओर देखता हुआ वह जयकुमार भी मूर्च्छारहित हुआ ||५|| यद्यपि वह चतुर जयकुमार सब कुछ समझता था तथापि पूछने लगा कि तुम लोगोंके मुँह सन्ध्याकालके कमलों का अनुकरण क्यों कर रहे हैं ? अर्थात् कान्तिरहित क्यों हो रहे हैं ? ॥ ६ ॥ पतिके मुँह से - दूसरी स्त्रीका नाम निकल जानेके कारण दुःखी हुई सुलोचनाको जयकुमारने अनेक प्रकारके अनुनय-विनय आदि उपायोंसे समझाया तथा दूसरे जन्मकी प्रिया प्रभावती समझकर अपने मुँहका आकार छिपा वह उसीके साथ बातचीत करने लगा सो ठीक ही है क्योंकि सभी कामी पुरुष . स्त्रियोंके ठगनेमें अत्यन्त चतुर होते हैं ||७-८ ॥ उन दोनोंके जन्मान्तर सम्बन्धी अपना समाचार स्मरण होनेके बाद ही स्वर्ग पर्यायसे सम्बन्ध रखनेवाला अवधिज्ञान भी प्रकट हो गया || ९ || यह सब देखकर श्रीमती शिवंकरा तथा और भी जो सुलोचनाकी सोतें थीं वे उस समय ईर्ष्याके " १ शोभायै विन्यस्तकृत्रिमगज । दन्तावलमनो ल० । २ विद्याधरदम्पती । ३ प्रीतिम् । ४ प्राप्तः । स्वीकृतो । ५ कपोत । ६ सौधाग्रे । ७ चतुर । ८ कर्पूर । ९ ईषलज्जावान् । १० अस्तमयकाल । ११ निपुणः । १२ प्रभावतीति नामान्तरग्रहण, सुलोचनाया अग्रे प्रभावतीति अन्यस्त्रोनामग्रहण । १३ जन्मान्तरप्रियास्मरण - -जात रोमाञ्च भृत्याकारप्रावरणम् । १४ सम्भाषयन् । 'संभाषणमाभाषणमालापः कुरुकुञ्चिका' इति वैजयन्ती । १५ प्रतीताः । चञ्चत्रः ल० । १६ अवधिज्ञानम् । १७ गतवान् । १८ सुलोचनायाः । १९ ऊचुः । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४४७ स्त्रीषु मायेति या वार्ता सत्यां तामद्य कुर्वती । पतिमूच्छ स्वमूर्च्छायाः प्रत्ययीकृत्य मायया ॥११॥ पश्य कृत्रिम मूर्च्छात्तभावनाव्यक्तसंवृतिः । सन्ततान्तः स्थितप्रौढ प्रेमप्रेरित चेतना ॥ १२ ॥ कन्याव्रतविलोपात्तगोत्रस्खलनदूषिता । पतिं रतिवरेत्युक्त्वाऽयान्मूच्छ कुलदूषिणी ॥ १३॥ इयं शीलवतीत्येनां निस्स्वनन् वर्णयत्ययम् । प्रायो रक्तस्य दोषोऽपि गुणवत् प्रतिभासते ॥ १४ ॥ प्रभावतीति संमु कितवः' कोपिनीमिमाम् । प्रसिसादयिषुः शोकं तत्प्रीत्या विदधाति नः ॥ १५ ॥ ११ एतान् सर्वांस्तदालापान् जयोऽवधिविलोचन । विदित्वा सस्मितं पश्यन् प्रियायाः स्मेरमाननम् ॥ १६ ॥ कान्ते जन्मान्तरावाप्तं विश्वं वृत्तान्तमावयोः । व्यावण्येंमां सभां तुष्टिकौतुकापहृतां कुरु ॥ १७॥ इति प्राचोदयत् साऽपि प्रिया तद्भाववेदिनी । कथा कथयितुं कृत्स्नां प्राक्रंस्त कलभाषिणी ॥ १८ ॥ जम्बूमति द्वीपे विदेहे प्राचि४ पुष्कलावती विषयमध्यस्था नगरी पुण्डरीकिणी ॥१९॥ तत्राभवत् प्रजापालः प्रजा राजा प्रपालयन् । फलं धर्मार्थकामानां स्वीकृत्य कृतिनां वरः ॥ २०॥ कुबेरमित्रस्तस्यासीद् राजश्रेष्ठी प्रतिष्ठितः । द्वात्रिंशदनवत्याद्या मार्यास्तस्य मनः प्रियाः ॥ २१ ॥ गृहे तस्य समुत्तुङ्गे नानाभवनवेष्टिते । वसन् रतिवरो नाम्ना धीमान् पारावतोत्तमः ॥२२॥ उद्रेक से परस्पर में इस प्रकार कहने लगीं ॥ १० ॥ देखो, यह सुलोचना मायाचारसे पतिको मूर्च्छाको अपनी मूर्च्छाका कारण बनाकर 'स्त्रियोंमें माया रहती है' इस कहावत को कैसा सत्य सिद्ध कर रही है । और इस प्रकार जिसने कृत्रिम मूर्च्छाके द्वारा प्रकट हुई भावनाओंका साफसाफ संवरण कर लिया है, जिसकी चेतना सदासे हृदय में बैठे हुए प्रौढ़ प्रेमसे प्रेरित हो रही है जो कन्याव्रतके भंग करनेसे प्राप्त हुए गोत्रस्खलन ( भूलसे दूसरे पतिका नाम लेने ) से दूषित है तथा कुलको दूषण लगानेवाली है ऐसी यह सुलोचना अपने पहले के पतिको 'हे रतिवर' इस प्रकार कहकर बनावटी मूर्च्छाको प्राप्त हुई है । ११ - १३ शीलवती है, इस प्रकार कहता हुआ वर्णन करता है सो ठीक ही है क्योंकि रागी पुरुषको प्रायः दोष भी गुणके समान जान पड़ते हैं || १४ || 'हे प्रभावति' ऐसा कहकर मूच्छित हो, क्रोध करनेवाली इस सुलोचनाको प्रसन्न करनेकी इच्छा करता हुआ यह धूर्त कुमार उसके प्रेमसे ही हम लोगों को शोक उत्पन्न कर रहा है || १५ || अवधिज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाला जयकुमार उन लोगोंकी इन सब बातोंको जानकर मन्द हँसीके साथ - साथ सुलोचनाके मुसकुराते हुए मुखको देखता हुआ कहने लगा कि 'हे प्रिये ! तू हम दोनोंके पूर्वभवका सब वृत्तान्त कहकर इस सभाको सन्तुष्ट तथा कौतुकके वशीभूत कर !' यह सुनकर पति के अभिप्राय जाननेवाली और मधुर भाषण करनेवाली सुलोचनाने भी पूर्वभवकी सब कथा कहनी प्रारम्भ की ॥ १६-१८ ॥ ॥ यह जयकुमार इसे 'यह बड़ी इस जम्बू द्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें एक पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है जो कि पुष्कलावती देशके मध्य में स्थित है । उस नगरीका राजा प्रजापाल था जो कि समस्त प्रजाका पालन करता हुआ धर्म, अर्थ तथा कामका फल स्वीकार कर सब पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ था ॥ १९-२० ॥ उस राजाका कुबेरमित्र नामक एक प्रसिद्ध राजसेठ था और उसकी हृदयको प्रिय लगनेवाली धनवती आदि बत्तीस स्त्रियाँ थीं ॥ २१ ॥ अनेक भवनोंसे घिरे हुए उस सेठके अत्यन्त ऊँचे महल में एक रतिवर नामका कबूतर रहता था जो कि अतिशय बुद्धिमान् और सब कबूतरोंमें १ कारणीकृत्य 'प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञानविज्ञानहेतुषु' इत्यभिधानात् । २ रतिवरेत्युक्तपुरुषे प्रवृद्धस्नेहेन प्रेरितमनसा । ३ अगच्छत् । ४ - त्येवं ल० । -त्येतां अ०, स०, इ०, प० । ५ निस्तनन् ट० । ब्रुवन् । ६ अनुरक्तस्य । ७ मूछ गत्वा । ८ धूर्तः । ९ प्रभावतीनामग्रहणात् कुपिताम् । १० प्रसादयितुमिच्छुः । ११ एनान् । १२ अवादीत् । १३ उपक्रान्तवती । १४ पूर्वविदेहे । १५ श्रीमानित्यर्थः । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ आदिपुराणम् कदाचिद राजगेहागतेन वैश्येशिना स्वयम् । स्नेहेन सस्मितालापैः स्वहस्तेन समुद्धतः ॥२३॥ कदाचित् कामिनीकान्तकराजार्पितशर्करा-संमिश्रितान् सुशालीयतण्डुलानमिभक्षयन् ॥२४॥ कदाचिच्छेष्टिनोद्दिष्ट हेतुदृष्टान्तपूर्वकम् । अहिंसालक्षणं धर्म भावयन् प्राणिनेहितम् ॥२५॥ कदाचिद् भवनायात तिपादसरोजजम् । रेणुजालं निराकुर्वन् पक्षाभ्यां प्रत्युपागतः ॥२६॥ स कदाचिद् गतिः का स्यात् पापापापात्मनामिति । कुतूहलेन पृष्टः सन् जनैस्तुण्डेन निर्दिशन् ॥२७॥ अधोभागमथोवं च मौनीवागमपारगः । क्षयोपशममाहात्म्यात्तियंचोऽपि विवेकिनः ॥२८॥ क्रीडनानाप्रकारेण कान्तया रतिषेणयाँ । सार्धमेवं चिरं तत्र सुखं कालमजीगमत् ॥२६॥ असौ रतिवरः कान्तस्त्वमहं सा तब प्रिया । रतिषणा भवावर्ते जन्तुः किं किं न जायते ॥३०॥ सुतः कुबेरमित्रस्य धनवत्याश्च पुण्यवान् । जातः कुबेरकान्ताख्यः कुबेरो वा परः सुधीः ॥३१॥ द्वितीय इव तस्यासीत् प्राणः सोऽनुचराग्रणीः । प्रियसेनाह्वयो बाल्यादारभ्य कृतसंगतिः ॥३२॥ आजन्मनः कुमारस्य कामधेनु रनुत्तमा । मनोऽभिलषितं दुग्धे समस्तसुखसाधनम् ॥३३॥ क्षेत्रं निष्पादयत्येकं गन्धशालिमनारतम् । इशूनमृतदेशीयानन्यत् स्थूलांस्तनुत्वचः ॥३॥ स्वयं मनोहरं वीणा दन्ध्वनीति निरन्तरम् । तत्स्नानसमये सर्वरोगस्वेदमलापहम् ॥३५॥ श्रेष्ठ था ॥२२॥ कभी तो राजभवनसे आये हुए सेठ कुबेरमित्र बड़े स्नेहसे हँस-हँसकर वार्तालाप करते हुए उसे अपने हाथपर उठा लेते थे, कभी वह स्त्रियोंके सुन्दर करकमलों द्वारा दिये हुए और शक्कर मिले हुए उत्तम धानके चावलोंको खाता था, कभी सेठके द्वारा हेतु तथा दृष्टान्तपूर्वक कहे हुए प्राणिहितकारी अहिंसा धर्मका चिन्तवन करता था, कभी भवनमें आये हुए मुनिराजके चरणकमलोंकी धूलिको उनके समीप जाकर अपने पंखोंसे दूर करता था, जब कभी कोई कुतूहलवश उससे पूछता था कि पापी तथा पुण्यात्मा लोगोंकी क्या गति होती है ? तब वह शास्त्रोंके जाननेवाले किसी मौनी महाशयके समान इशारेसे चोंचके द्वारा नीचेका भाग दिखाता हुआ पापी लोगोंकी गति कहता था और उसी चोंचके द्वारा ऊपरका भाग दिखलाता हुआ पुण्यात्मा लोगोंकी गति कहता था सो ठीक ही है क्योंकि क्षयोपशमके माहात्म्यसे तिर्यंच भी विवेकी हो जाते हैं ॥२३-२८॥ इस प्रकार वह कबूतर अपनी रतिषेणा नामको कबूतरीके साथ नाना प्रकारकी क्रीडा करता हुआ वहाँ सुखसे •समय बिताता था ।।२९।। सुलोचना कह रही है कि वह रतिवर ही आप मेरे पति हैं और वह रतिषेणा ही मैं आपकी प्रिया हूँ। देखो इस संसाररूपी आवर्तमें भ्रमण करता हुआ यह जीव क्या-क्या नहीं होता है ? ॥३०॥ उस कुबेरदत्त सेठके धनवती स्त्रीसे एक कुबेरकान्त नामका पुत्र हुआ था जो कि अतिशय पुण्यवान्, बुद्धिमान् तथा दूसरे कुबेरके समान जान पड़ता था ॥३१॥ उस कुबेरकान्तका एक प्रियसेन नामका श्रेष्ठ मित्र था जो कि बाल्य अवस्थासे ही उसके साथ रहता था और उसके दूसरे प्राणोंके समान था ॥३२॥ एक अत्यन्त उत्तम कामधेनु कुमार कुबेरकान्तके जन्मसे ही लेकर उसकी इच्छाके अनुकूल सुखके सब साधनोंको पूरा करती थी। वह कामधेनु प्रति दिन एक खेत तो सुगन्धित धान्यका उत्पन्न करती थी और एक खेत अमृतके समान मोठे, पतले छिलकेवाले बड़े-बड़े ईखोंका उत्पन्न करती थी ॥३३-३४॥ इसके सिवाय वही कामधेनु कुमारके सामने निरन्तर मनोहर वीणा बजाती थी, और उसी कामधेनुके प्रतापसे उसके स्नानके १ द्दिष्ट-ल० । २ धूलिसमूहम् । ३ अपसारयन् । ४ अभिमुखागतः सन् । ५ पारावतः । ६ अधार्मिकाणां धार्मिकाणाम् । ७ रतिषणसंज्ञया निजभार्यया पारावत्या । ८ गमयति स्म। ९ धनद इव । १० मित्र । ११ जननकालादारभ्य । १२ न विद्यते उत्तमा यस्याः सकाशात् इत्यनुत्तमा, अनुपमेत्यर्थः । १३ सुधासदृशान् । २१४ परं द्वितीयं क्षेत्रम् । १५ भृशं ध्वनति । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व २ 93 सुगन्धिसलिलं गाङ्गं' गम्भीरमधुरं ' ध्वनन् । अम्मोधरो नभोभागादासन्नादवमुञ्चति ॥३६॥ कल्पद्रुमद्वयं वस्त्रभूषणानि प्रयच्छति । अन्नमानं ददात्यन्यद् द्वयं कल्पमहीरुहः ॥ ३७ ॥ एवमन्यच्च भोगाङ्गमशेषं देवनिर्मितम् । शश्वनिर्विशतस्तस्य पूर्णं प्राथमिकं वयः ॥ ३८ ॥ तद्वीक्ष्य पितरावेष' किमेकामभिलाषुकः । किं बह्वीरिति चित्तेन संदिहानौ समाकुलौ ॥३६॥ प्रिय समाहूय तत्प्रश्नासन्मनोगतम् । "अवादीधरतां मैत्री सैव या वेकचित्तता ॥४०॥ ततः समुद्रदत्ताख्यो धनवत्या' सहाभवत् । स्वसा " कुबेरभित्रस्य तन्नामैवैतयोः " सुता ॥ ४१ ॥ प्रियदत्ताह्वया तस्याश्चेटिका रतिकारिणी । कन्यकास्तां विधायादि द्वात्रिंशत्सुन्दराकृतीः ॥४२॥ arrot nainager यक्षपूजाविधौ सुधीः । सुपरीक्ष्य निमित्तेन प्रियदत्तां गुणान्विताम् ॥४३॥ अवधार्यास्य पुत्रस्य पञ्चताराबलान्विते । दिने महाविभूत्यैनां' ' कल्याणविधिनाऽग्रहीत् ॥४४॥ तन्निमित्तपरीक्षायामवलोकितुमागते । सुते गुणवती राज्ञो ं यशस्वत्यभिधा परा ॥४५॥ भाजनं भक्ष्य संपूर्णमदत्तवति" माकुले२२ (१) स्वाभ्यां लज्जामरानम्रवदने जातनिर्विदे १५ ૨૦ २४ ४४९ ॥४६॥ समय समीपवर्ती आकाशसे आकर मधुर तथा गम्भीर गर्जना करते हुए मेघ सब प्रकारके रोग, पसीना और मलको हरण करनेवाला गंगा नदीका सुगन्धित जल बरसाते थे ।। ३५-३६ ॥ उस कुमार के लिए एक कल्पवृक्ष वस्त्र देता था, एक आभूषण देता था, एक अन्न देता था और एक पेय पदार्थ देता था ।। ३७ ।। इस प्रकार इनके सिवाय देवोंके दिये हुए और भी सब प्रकार - के भोगोंका निरन्तर उपभोग करते हुए उस कुमारकी पहली अवस्था पूर्ण हुई थी ॥ ३८ ॥ पहली अवस्थाको पूर्ण हुआ देखकर माता-पिताको चिन्ता हुई कि यह एक कन्या चाहता है अथवा बहुत । उसी चिन्तासे वे कुछ सन्देह कर रहे थे और कुछ व्याकुल भी हो रहे । उन्होंने कुबेरकान्तके मित्र प्रियसेनको बुलाकर उसके मनकी बात पूछी और उसके कहनेपर उन्होंने निश्चय कर लिया कि इसके 'एक पत्नीव्रत है' - यह एक ही कन्या चाहता है, सो ठीक ही है क्योंकि दोनों का एक चित्त हो जाना ही मित्रता कहलाती है ।। ३६-४० ।। तदनन्तर - उसी नगर में समुद्रदत्त नामका एक सेठ था, जो कि कुबेरमित्रकी स्त्री धनवतीका भाई था और उसे कुबेरमित्रकी बहन कुबेर मित्रा ब्याही गयी थी । इन दोनोंके प्रियदत्ता नामकी एक पुत्री हुई थी और रतिकारिणी उसकी दासी थी । समुद्रदत्त सेठके प्रियदत्ता आदि बत्तीस कन्याएँ थीं । किसी एक दिन उस बुद्धिमान् सेठने एक बागमें यक्षकी पूजा करते समय सुन्दर आकारवाली उन बत्तीसों कन्याओंकी निमित्तवश परीक्षा की और उन सबमें प्रियदत्ताको हो गुणयुक्त समझा। फिर सूर्य, चन्द्र, गुरु, शुक्र और मंगल इन पाँचों ताराओंके बलसे सहित किसी शुभ दिनमें बड़े वैभव के साथ कल्याण करनेवाली विधिसे उस प्रियदत्ताको अपने पुत्र के लिए स्वीकार किया ।। ४१-४४ ॥ राजा प्रजापालकी गुणवती यशस्वती नामकी १ गङ्गासंबन्धि | २ गम्भीरं मधुरं ब०, अ०, प०, स०, इ०, ल० । ३ कल्पवृक्षस्य । ४ अनुभवतः । ५ जननीजनको । ६ एतामित्यपि पाठः । स्त्रियम् । ७ सन्देहं कुर्वन्ती । ८ कुबेरकान्तस्य मित्रम् | । ९ कुबेरकान्तस्याभिप्रायम् । १० एकपत्नीव्रतधारणमित्यवधारितवन्तौ । ११ कुबेर मित्रस्य भार्यया धनवत्या सहोत्पन्न इत्यर्थः । १२ भगिनी । १३ कुबेरमित्राह्वया । १४ समुद्रदत्त कुबेर मित्रयोः । १५ सखी । १६ द्वाविंशभाजनेषु विविधभक्ष्यपायसघृतं पूरयित्वा एकस्मिन् भाजने अनर्घ्यं रत्नं निक्षिप्य यक्षाग्रे संस्थाप्य द्वात्रिंशत्कन्यकानामेकैकस्य एकैकं भाजनं दत्तं यस्या हस्ते अनर्घ्यं रत्नं समागतं सा मम पुत्रस्य प्रियेति सुपरीक्ष्य । १७ तिथ्यादिपञ्चनक्षत्रबलान्विते । १८ प्रियदत्ताम् । १९ प्रजापालनृपस्य । २० भक्ष - ल०, ब०, इ०, प०, अ०, स० । २१ अति सति । २२ मातुले अ०, प०, म०, इ०, ल०, ८० । निज मामे श्रेष्ठिनि । २३ आत्मभ्याम् । २४ उत्पन्नवैराग्ये । ५७ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् अमितानन्तमत्यार्यिकाभ्याशे' संयम परम् । आददाते स्म यात्येवं काले तस्मिन् महीपतौ ॥४७॥ लोकपालाय दत्वाऽऽन्मलक्ष्मी संयममागते । शीलगुप्तगुरोः पाच शिवकरवनान्तरे ॥४॥ देव्यः कनकमालाद्याः परे चोपाययुस्तपः । दुर्गमं च व्रजन्त्यल्पाः प्रभुयदि पुरस्सरः ॥१९॥ लोकपालोऽपि संप्राप्तराज्यश्रीर्विश्रुतोदयः । कुबेरमित्रबुद्ध्यैव धरित्री प्रत्यपालयत् ॥५०॥ मन्त्री च फल्गुमत्याख्यो बालोऽसत्यवचः प्रियः। सवयस्को नृपस्याज्ञः प्रकृत्या चपलः खलः ॥५१॥ तत्समीप नृपेणामा यद्वा तद्वा मुखागतः । शङ्कमानो वचो वक्तुं श्रेष्ठ्यपायं विचिन्त्य सः ॥५२॥ स्वीकृत्य शयनाध्यक्षं सामदानस्त्वया निशि । देवतावत्तिरोभूय राजन् पितृसमं गुरुम् ॥५३॥ विनयाद् विच्युतं राजश्रेष्ठिनं तव संनिधौ । विधाय सर्वथा मा स्थाः' कार्यकाले स हृयताम् ॥५४॥ इति वक्तव्यमित्याख्यत् सोऽपि सर्व तथाकरोत् । अर्थाथिभिरकर्तव्यं न लोके नाम किंचन ॥५॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा सभीरालय मातुलम् । नागन्तव्यमनाहूतैरियनालोच्य सोऽब्रवीत् ॥५६॥ पश्चाद् विषविपाकिन्यः प्रागनालोचितोक्तयः । श्रेष्टी तद्वचनात् सद्यः सोद्वेगं स्वगृहं ययौ ॥५७॥ दो कन्याएँ भी वह नैमित्तिक परीक्षा देखनेके लिए आयी थीं, जब मामा कुबेरमित्रने भोजनसे भरे हुए पात्र उन्हें नहीं दिये तब अपने आप ही लज्जाके भारसे उनके मुख नीचे हो गये और उसी समय उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया ।। ४५-४६ ॥ उन्होंने उसी समय अमितमति और अनन्तमति आर्यिकाके समीप उत्तम संयम धारण कर लिया। इस प्रकार कितना ही समय व्यतीत होनेपर राजा प्रजापालने भी अपनी सब लक्ष्मी लोकपाल नामक पुत्रके लिए देकर शिवंकर नामके वनमें शीलगुप्त नामक मुनिराजके समीप संयम धारण कर लिया। इसी प्रकार कनकमाला आदि रानियोंने भी कठिन तपश्चरण धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि यदि राजा आगे चलता है तो अल्प शक्तिके धारक लोग भी उसी कठिन रास्तेसे चलने लगते हैं ॥ ४७-४९ ॥ इधर जिसे राज्यलक्ष्मी प्राप्त हुई है और जिसका वैभव सब जगह प्रसिद्ध हो रहा है ऐसा राजा लोकपाल भी कुबेरमित्रकी सम्मतिके अनुसार ही पृथिवीका पालन करने लगा ॥ ५० ॥ उस राजाका फल्गमति नामका एक मन्त्री था, जो अज्ञानी था, असत्य बोलनेवाला था, राजाकी समान उमरका था, मूर्ख था और स्वभावसे चंचल तथा दुर्जन था ॥ ५१ ॥ वह मन्त्री कुबेरदत्त सेठके सामने राजाके साथ मुंहपर आये हुए यद्वा-तद्वा वचन कहनेमें कुछ डरता था इसलिए वह सेठको राजाके पाससे हटाना चाहता था। उसने राजाके शयनगृहके मुख्य पहरेदारको समझा-बुझाकर और कुछ धन देकर अपने वश कर लिया, उसे समझाया कि तू रातके समय देवताके समान तिरोहित होकर राजासे कहना कि हे राजन्, राजसेठ कुबेरमित्र पिताके समान बड़े हैं, सदा अपने पास रखनेमें उनकी विनय नहीं हो पाती इसलिए उन्हें हमेशा अपने पास नहीं रखिए, कार्यके समय ही उन्हें बुलाया जाय इस प्रकार फल्गुमतिने शयनगृहके अध्यक्षसे कहा और उसने भी सब काम उसीके कहे अनुसार कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि धन चाहनेवाले लोगोंके द्वारा नहीं करने योग्य कार्य इस संसारमें कुछ भी नहीं है ॥ ५२-५५ ॥ शयनगृहके अधिकारीकी बात सुनकर राजाको भी कुछ भय हुआ और उसने बिना विचारे ही मामा (कुबेरमित्र ) को बुलाकर कह दिया कि आप बिना बुलाये न आवें ॥ ५६ ॥ जो बात पहले बिना विचार किये ही कही जाती है उसका फल पीछे विषके १ समीपे । २ पुरो ल०। ३ प्राप्तवन्तः । ४ समानवयस्कः । ५ नृपश्चान्यः इत्यपि पाठः । द्वितीयो नृपः । मन्त्रीत्यर्थः ।' ६ असमर्थः । ७ कुबेरमित्रसंनिधौ। ८ यत्किचित् । ९ स्ववशं कृत्वा । १० प्रियवचनसुवर्णरत्नादिदानः । ११ पूज्यम् । १२ मा स्म तिष्ठ। १३ आइयताम् । १४ शयनाध्यक्षः। १५ सभय; । १६ अनाहूयमानैः भवद्भिः। १७ अविचार्य । १८ विषवद् विपाकवत्यः । १९ उद्वेगसहितम् । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४५१ राजा कदाचिदबाजीद घटया ललिताख्यया । विहारार्थ वनं तत्र वाप्यामालोक्य विस्मयात् ॥५८॥ : तटशुष्कांघ्रिपासन्नशाखाग्रस्थपरिस्फुरन् । परार्ध्यवायसानीतपद्मरागमणिप्रभाम् ॥५९॥ . मणिं मत्वा प्रविश्यान्तनेषु कनाप्य लम्भ्यसो । भ्रान्त्या प्रवर्तमानानां कुतः क्लेशाद् विना फलम् ॥६०॥ चिरं निरीक्ष्य निविण्णाः सर्वे ते पुरमागमन् । बुद्धिर्नाग्रेसरी यस्य न निर्बन्धः फलत्यसौ ॥६॥ कदाचिद् भूपतिः श्रेष्ठिसुतया रक्तचित्तया । वसुमत्या विभावर्यामात्मसौमाग्यसूचिना ॥६२॥ क्रमेण कुङ्कुमाण ललाटे स्फुटमङ्कितः' । कान्ताः किं किं न कुर्वन्ति स्वमागपतिते नरे ॥६३॥ पट्टबन्धात् परं मत्वा तत्क्रमाकं महीपतिः । प्रातरास्थानमध्यास्य मन्त्र्यादीनित्यबूबुधत् ॥६॥ ललाटे यदि केनापि राजा पादेन ताडितः । कर्तव्यं तस्य किं वाच्यं ततो मन्त्र्यब्रवीदिदम् ॥६५॥ पट्टात् ललाटो नान्येन स्पृश्यः स यदि ताडितः । पादेन केनचिद् वध्यः स प्राणान्तमिति स्फुटम् ॥६६॥ तदाकावधूयैनं स्मितेनाइय मातुलम् । नृपोऽप्राक्षीत् स चाहैतत् प्रस्तुतं प्रस्तुतार्थवित् ॥६७॥ तस्य पूजा विधातव्या सर्वालंकारसंपदा । इति तद्वचनात्तष्ट्वा मणिवार्ता न्यवेदयत् ॥६॥ समान होता है। राजाके वचन सुनकर सेठ भो दुःख सहित शीघ्र ही अपने घर चला गया ॥५७॥ किसी एक दिन राजा ललितघट नामक हाथीपर बैठकर विहार करनेके लिए वनमें गया, उस वनमें एक बावड़ी थी, उसके तटपर एक सूखा वृक्ष था, उसकी एक शाखा बावड़ीके निकटसे निकली थी, उस शाखाके अग्रभागपर एक कौवेने कहींसे देदीप्यमान बहमल्य पद्मराग मणि लाकर रख दी। बावड़ीमें उस मणिकी कान्ति पड़ रही थी, राजा तथा उसके सब साथियोंने उस कान्तिको मणि समझा और यह देखकर सबको आश्चर्य हुआ - उस मणिको लेमेके लिए सब बावड़ीके भीतर घुसे परन्तु उनमें से वह मणि किसीको भी नहीं मिलो सो ठीक ही है क्योंकि भ्रान्तिसे प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषोंको क्लेशके सिवाय और क्या फल मिल सकता है ॥५८-६०॥ उन सब लोगोंने बावड़ीमें वह मणि बहुत देर तक देखी परन्तु जब नहीं मिली तब उदास हो अपने नगरको लौट आये सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रयत्नमें बुद्धि अग्रेसर नहीं होती वह प्रयत्न कभी सफल नहीं होता ॥६१॥ किसी समय प्रेमसे भरी हुई वसुमती नामकी सेठकी पुत्रीने रात्रिके समय अपने सौभाग्यको सूचित करनेवाले तथा कुंकुमसे गीले अपने पैरसे राजाके ललाटमें स्पष्ट चिह्न बना दिया सो ठोक ही है क्योंकि पुरुषके अपने अधीन होनेपर स्त्रियाँ क्या-क्या नहीं करती हैं ? ॥६२-६३॥ राजाने उस पैरके चिह्नको पट्टबन्धसे भी अधिक माना और सबेरा होते ही सभामें बैठकर मन्त्री आदिसे इस प्रकार पूछा कि यदि कोई पैरसे राजाके ललाटपर ताड़न करे तो उसका क्या करना चाहिए ? यह सुनकर फल्गुमति मन्त्रीने कहा कि राजाका जो ललाट पट्टके सिवाय किसी अन्य वस्तुके द्वारा छुआ भी नहीं जा सकता उसे यदि किसीने पैरसे ताड़न किया है तो उसे प्राण निकलने तक मारना चाहिए ।।६४-६६॥ यह सुनकर राजाने उस मन्त्रीका तिरस्कार किया तथा मन्द-मन्द हँसीके साथ मामा कुबेरमित्रको बुलाकर उनसे सब हाल पूछा। प्रकृत बातको जाननेवाला 'कुबेरमित्र कहने लगा कि जिसने आपके शिरपर पैरसे प्रहार किया है उसकी सब प्रकारके आभूषणरूपी सम्पदासे पूजा करनी चाहिए । इस प्रकार उसके वचनोंसे सन्तुष्ट होकर राजाने वनविहारके समय बावड़ी में दिखनेवाले मणिकी १. अगमत् । प्राबाजीत् ल०। २ पराय॑मिति पद्मरागस्य विशेषणम् । इ ललितघटाख्यजनेषु । ४ लब्धः । ५ मणिः । ६ पुरुषस्य । तस्य ट०। ७ अविच्छिन्नप्रवृत्ति । ८ न फलप्रदो भवति । ९ निजभार्यया । १० पादेन । ११ ताडित इत्यर्थः । १२ भवद्भिर्वक्तव्यम् । १३ परित्यज्य । १४ कुबेरमित्रः । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ आदिपुराणम् मणिर्न जलमध्येऽस्ति तटस्थतरुपंश्रितः । प्रभाव्याप्यामिति प्राह तद्विचिन्त्य' वणिग्वरः ॥६९॥ तदा कुबेरमित्रस्य प्रज्ञामज्ञानमात्मनः । दौष्ट्यं च मन्त्रिणो ज्ञात्वा पश्चात्तापान्महीपतिः ॥७॥ पश्य धूतैरहं मूढो वञ्चितोऽस्मीति सर्वदा । श्रेष्टिनं प्राहसंमानं प्रत्यासन्नं व्यधात् सुधीः ॥७१॥ तन्त्रावायमहाभारततः प्रभृति भूपतिः । तस्मिन्नारोप्य नियंग्रः सधर्म काममन्वभूत् ॥७२॥ कदाचित् कान्तया दृष्टपलितो निजमूद्धनि । श्रेष्टी तां सत्यमद्य त्वं धर्मपत्नीत्यभिष्टुवन् ॥७३॥ दृष्ट्वा विमोच्य राजानं वरधर्मगुरोस्तपः । सार्धं समुद्रदत्ताद्यैरादाय सुरभूधर ॥४॥ तावुभौ ब्रह्मलोकान्तेऽभूतां लौकान्तिको सुरौ । किं न साध्यं यथाकालपरिस्थित्या मनीषिभिः ॥७५॥ अन्याः प्रियदत्ताऽसौ दत्वा दानं मुनीशिने । भक्त्या विपुलमत्याख्यचारणाय यथोचितम् ॥७६॥ संप्राप्य नवधा पुण्यं तपसः संनिधिर्मम । किमस्तीत्यब्रवीद् व्यक्तविनया मुनिपुङ्गवम् ॥७७॥ पुत्रलाभार्थि तच्चित्तं विदित्वाऽवधिलोचनः । वामेतरकरे धीमान् स्पष्टमङ्गुलिपञ्चकम् ॥७॥ , कनिष्टामङगुलिं वामहस्तेऽसौ समदर्शयत् । पुत्रान्कालान्तरे पञ्च साऽऽकामात्मजामपि ॥७९॥ ते'कदाचिजगत्पालचक्रेशस्य सुते समम् । अमितानन्तमायाख्ये''गुणज्ञे गुणभूषणे ॥५०॥ बात निवेदन की ॥६७-६८॥ वैश्योंमें श्रेष्ठ कुबेरमित्रने विचारकर कहा कि वह मणि पानीके भीतर नहीं थी किनारेपर खड़े हुए वृक्षपर थी, बावड़ीमें केवल उसकी कान्ति पड़ रही थी ॥६६॥ यह सुनकर उस समय राजा लोकपाल कुबेरमित्रकी बुद्धिमत्ता, अपनी मूर्खता और मन्त्रीको दुष्टता जानकर पश्चात्ताप करता हुआ इस प्रकार कहने लगा - "देखो इन धृोंने मुझ मूर्खको खूब ही ठगा।" इस प्रकार कहकर वह बुद्धिमान् राजा सेठका आदर-सत्कार कर उसे सदा अपने पास रखने लगा ॥७०-७१॥ उस दिनसे राजाने तन्त्र अर्थात् अपने राष्ट्रको रक्षा करना और अवाय' अर्थात् परराष्ट्रोंसे अपने सम्बन्धका विचार करना इन दोनोंका बड़ा भारी भार सेठको सौंप दिया और आप निर्द्वन्द्व होकर धर्म तथा काम पुरुषार्थका अनुभव करने लगा ॥७२॥ किसी समय सेठकी स्त्रीने सेठके शिरमें पका बाल देखकर सेठसे कहा। सेठने यह कहते हुए उसकी बड़ी प्रशंसा की कि तू आज सचमुच धर्मपत्नी हुई है । उस सेठने बड़ी प्रसन्नताके साथ राजाको छोड़कर समुद्रदत्त आदि अन्य सेठोंके साथ-साथ देवगिरि नामक पर्वतपर वरधर्मगुरुके समीप तप धारण किया और दोनों हो तपकर ब्रह्मलोकके अन्तमें लौकान्तिक देव हुए सो ठीक ही है क्योंकि समयके अनुकूल होनेवाली परिस्थितिसे बुद्धिमानोंको क्या-क्या सिद्ध नहीं होता? ॥७३-७५॥ किसी दूसरे दिन प्रियदत्ता ( समुद्रदत्तकी पुत्री और कुबेरकान्तकी स्त्री ) ने विपुलमति नामके चारण ऋद्धिधारी महामुनिको नवधा भक्तिपूर्वक दान देकर पुण्य सम्पादन किया और फिर विनय प्रकट कर उन्हीं मुनिराजसे पूछा कि मेरे तपका समय समीप है या नहीं ! ॥७६७७।। अवधिज्ञान ही हैं नेत्र जिनके ऐसे बुद्धिमान् मुनिराजने यह जानकर कि इसका चित्त सन्तानको चाह रहा है अपने दाहिने हाथकी पाँच अंगुली और बायें हाथकी छोटी अँगुली दिखायी और उससे सूचित किया कि पांच पुत्र और एक पुत्री होगी। तथा कालान्तरमें उस प्रियदत्ताने भी पाँच पुत्र और एक पुत्री दिखलायी अर्थात् उत्पन्न की ॥७८-७९॥ किसी समय गुणरूप आभूषणोंको धारण करनेवाली, जगत्पाल चक्रवर्तीकी पुत्री, अमितमति और अनन्तमति नाम १ विचार्य । २ -सन्मानं अ०, प०, स०, इ०, ल०। ३ स्वराष्ट्रपरराष्ट्रमहाधुरम् । ४ आत्मानं राज्ञा मोचयित्वेत्यर्थः । ५ वरधर्मगुरोः समीपे । ६ सुरनाम्नि कस्मिश्चिद् गिरौ। ७ कुबेरदत्त-समुद्रदत्तो। ८ -परिच्छित्त्या ट० । कालानुरूपेण ज्ञानेन । ९ कुबेरकान्तप्रिया । १० एकां पुत्रीम् । ११ प्रसिद्धे । १२ गणिन्यौ अ०, प०, स०, इ० । गुणिन्यौ ल । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व 3४ प्रजापालतनूजाभ्यां यशस्त्रत्या तपोभृता । गुणवत्या च संप्राप्ते पुरं 'तत्परमर्द्धिकम् ॥८१॥ राजा शान्तः पुरः श्रेष्टी चानयोनिकटे चिरम् । श्रुत्वा सद्धर्मसद्भावं दानाद्युद्योगमाययौ ॥८२॥ कदाचिच्छेष्टिनो गेहं जङ्घाचारणयोर्युगम् । प्राविशद् भक्तितो स्थापयतां तौ दम्पती मुद्दा ॥ ८३ ॥ "तद्दृष्टिमात्रविज्ञातप्राग्भवं तत्पदाम्बुजम् । कपोत मिथुनं पक्षैः परिस्पृश्यामिनम् तत् ॥ ८४ ॥ गलितान्योन्यसं प्रीति वभूवालोक्य तन्मुनीं । जातसंसारनिवेंगौ निर्गत्यापगतौ गृहात् ॥ ८५॥ प्रियदत्तेङ्गितज्ञैतदवगत्यान्यदा तु ताम् । रतिषेणा मपृच्छत्ते नाम प्राग्जन्मनीति किम् ॥ ८६ ॥ सातुण्डेनालिखन्नाम रतिवेगेति वीक्ष्य तत् । ममैषा पूर्वभार्येति कपोतः प्रीतिमीयिवान् ॥ ८७ ॥ तथा रतिवरः पृष्टः स्वनाम प्रियदत्तया । "सुकान्तोऽस्म्यहमित्येषोऽप्यक्षराज्य लिखद् भुवि ॥ ८८ ॥ तन्निरीक्ष्य ममैवायं पतिरित्यभिलाषुका । रतिपेणाऽप्यगात्तेन संगमं विध्यनुग्रहात् ॥ ८९ ॥ 'तत्सभावतिनामेतत् श्रुत्वा प्रीतिरभूदलम् । पुनः शुश्रूषवश्चासन् कथाशेषं सकौतुकाः ॥९०॥ अन्यञ्चाकर्णितं दृष्टमावाभ्यां यदि चेवया । ज्ञायते तच्च वक्तव्यमित्युक्तवति कौरवे ॥९१॥ निजवागमृताम्भोभिः सिञ्चन्ती तां सभां शुभाम् । सुलोचनाऽब्रवीत् सम्यग्ज्ञायते श्रूयतामिति ॥ ६२ ॥ १४ ४५३ At afrat ( आर्यिकाओंकी स्वामिनी ), तप धारण करनेवाली, प्रजापालकी पुत्री यशस्वती और गुणवती के साथ-साथ उत्कृष्ट विभूतिसे सुशोभित उस पुण्डरीकिणी नगरी में पधारीं ॥८०-८१|| सब अन्तः पुरके साथ-साथ राजा लोकपाल और सेठ कुबेरकान्त भी उन आर्यिकाओंके समीप गये और चिरकाल तक समीचीनधर्मका अस्तित्व सुनकर दान देना आदि उद्योगको प्राप्त हुए || २ || किसी एक दिन सेठ कुबेरकान्तके घर दो जंघाचारण मुनि पधारे। दोनों ही दम्पतियोंने बड़ी भक्ति और आनन्दके साथ उनका पडगाहन किया ॥ ८३ ॥ उन मुनियों के दर्शन मात्रसे ही जिसने अपने पूर्वभव के सब समाचार जान लिये हैं ऐसे कबूतर कबूतरी ( रतिवर - रतिषेणा ) के जोड़ेने अपने पंखोंसे मुनिराजके चरणकमलोंका स्पर्श कर उन्हें नमस्कार किया और परस्परकी प्रीति छोड़ दी । यह देखकर उन मुनियोंको भी संसारसे वैराग्य हो गया और दोनों ही निराहार सेठके घर से निकलकर बाहर चले गये || ८४-८५ || इशारोंको समझनेवाली प्रियदत्ताने यह सब जानकर किसी समय रतिषेणा कबूतरीसे पूछा कि पूर्वजन्ममें तुम्हारा क्या नाम था ? ॥ ८६ ॥ उसने भी चोंचसे 'रतिवेगा' यह नाम लिख दिया । उसे देखकर यह पूर्वजन्मकी मेरी स्त्री है यह जानकर कबूतर बहुत प्रसन्न हुआ || ८७॥ प्रकार प्रियदत्ताने रतिवर कबूतरसे भी उसके पूर्वजन्मका नाम पूछा तब उसने भी मैं पूर्व जन्ममें सुकान्त नामका था ऐसे अक्षर जमीनपर लिख दिये ||८८ || उन्हें देखकर और यह मेरा ही पति है यह जानकर उसीके साथ रहनेकी अभिलाषा करती हुई रतिषेणा भी दैवके अनुग्रहसे उसीके साथ समागमको प्राप्त हुई- दोनों साथ-साथ रहने लगे ॥८६॥ यह सब सुनकर सभामें बैठे हुए सभी लोगों को बहुत भारी प्रसन्नता हुई और कथाका शेष भाग सुननेकी इच्छा करते हुए सभी लोग बड़ी उत्कण्ठासे बैठे रहे ||९० || 'इसके सिवाय हम दोनोंने और भी जो कुछ देखा या सुना है उसे यदि जानती हो तो कहो' इस प्रकार जयकुमारके कहनेपर अपने वचनामृतरूपी जलसे उस शुभ सभाको सींचती हुई सुलोचना कहने लगी- 'हाँ, अच्छी तरह १ पुण्डरीकिणीपुरम् । २ लोकपालः । ३ कुबेरकान्तः । ४ अमितानन्तमत्योः । ५ जङ्घाचारणद्वयावलोकनमात्र । ६ नत्वा । ७ विगलितपरस्परात्यन्तस्नेहवदित्यर्थः । ८ कपोतमिथुनम् । ९ गलितमोहमिति ज्ञात्वा । गम्यान्य-ल०, अ०, प०, इ० । १० लिखितनामाक्षरम् । ११ निजबूर्वजन्मनाम । १२ सुकान्ताख्योऽह-ल० । १३ विधेरानुकूल्यात् । १४ जयकुमारसभावर्तनाम् । सपत्न्यादीनाम् । १५ जातनिर्वेदात् भिक्षामगृहीत्वा निर्गत्य गतचारणादिशेषकथाम् । १६ जयकुमारे । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् 3 तदा मुनेर्गुहार भिक्षां त्यत्वा गमनकारणम् । अशाखा भूपतेः प्रश्नादाँ हामितमतिः श्रुतम् ॥९३॥ विषयेऽस्मिन् खगमात्यानं वनं महत् । अस्ति धान्यक्रमालास्वं तदभ्यर्णे पुरं परम् ॥ ९४ ॥ शोभानगरम स्पेशः प्रजापाल महीपतिः । देवश्रीस्तस्य देण्यासीत् सुखदा श्रीविापरा ॥ ३५॥ शक्तिपेणोऽस्य 'सामन्तस्तस्याभूत् प्रीतिदायिनी । अटवीश्रीस्तयो: "सत्यदेवः सूनुरिमे" समम् ॥ १६॥ सर्वेऽवासनभव्यत्वाद् अस्मत्या इसमाश्रयात् । या धर्म नृपेणामा समापन्मद्यमांसयोः ॥९७॥ त्यागं पर्वोपवासं च शक्ति पेगोऽपि भक्तिमान् । मुनिवेलात्यये भुक्तिम ग्रहीत् स गृहिव्रतम् ॥९८॥ "तत्पत्नी "शुक्लपचादिदिनेऽष्टम्यामथापरे । पक्षे पञ्चसमास्यागमाहारस्य समग्रहीत् ॥ ९९ ॥ अनुप्रवृद्धकल्याणनामधेयमुपोषितम् " सत्यदेवश्च साधूनां स्तवनं प्रत्यपद्यत ॥ १०० ॥ इत्यभूवन्नमी श्रद्धाविहीनत्रतभूषणाः । स मृणालवतीं नेतुं कदाचिदवश्रियम् ॥१०१॥ । 93 १५ " ૨૨ पित्रोः पुरी प्रवृत्तः सन् शक्तिषेणः ससैम्यकः । बने धान्यकमालाख्यं प्राप्य सर्पसरोवरम् ॥१०२॥ निविष्टानि चान्यत् प्रकृतं तत्र कथ्यते पतिर्मृगालवत्याख्यानगय धरणीपतिः ॥१०३॥ 1 ४५४ 1 - जानती हूँ, सुनिए ॥९१-९२ ।। उस समय वे मुनि आहार छोड़कर सेठ के घरसे चले गये थे । जब राजाको उनके इस तरह चले जानेका कारण मालूम नहीं हुआ तब इसने अमितमति गणिनी (आर्यिका ) से पूछा । अमितगतिने भी जैसा सुना था वैसा वह कहने लगी ||९३ ॥ इसी पुष्कलावती देशमें विजयार्थ पर्वतके निकट एक 'धान्यकमाल' नामका बड़ा भारी वन है और उस वनके पास ही शोभानगर नामकी एक बड़ा नगर है। उस नगरका स्वामी राजा प्रजापाल था और उसकी स्त्रीका नाम था देवश्री बहु देवश्री दूसरी लक्ष्मीके समान सुख देनेवाली थी ।। ९४-९५ ।। राजा प्रजापालके एक शक्तिषेण नामका सामन्त था, उसकी प्रीति उत्पन्न करनेवाली अटवीश्री नामकी स्त्री थी। उन दोनोंके सत्यदेव नामका पुत्र था । किसी समय निकटभव्य होनेके कारण इन सभीने मेरे चरणोंके आश्रयसे धर्मका उपदेश सुना। राजा भी इनके साथ था उपदेश सुनकर सभीने मद्य-मांसका त्याग किया और पर्वके दिन उपवास करनेका नियम लिया । भक्ति करनेवाले शक्तिषेणने भी गृहस्थ के व्रत धारण किये और साथमें यह नियम लिया कि मैं मुनियोंके भोजन करनेका समय टालकर भोजन करूँगा ।। ९६-९८ ।। शक्तिषेणकी स्त्री अटवीश्रीने पाँच वर्षतक शुक्ल पक्षका प्रथम दिन और कृष्णपक्ष की अष्टमीको आहार त्याग करनेका नियम किया अनुप्रवद्ध कल्याण नामका उपवास व्रत ग्रहण किया तथा सत्यदेवने भी साधुओंके स्तवन करनेका नियम लिया ||९९॥ १०० ॥ इस प्रकार ये सब सम्यग्दर्शनके बिना ही व्रतरूप आभूषणको धारण करनेवाले हो गये। किसी एक दिन सेनापति शक्तिषेण अपनी सेनाके साथ अटवीश्रीको लेनेके लिए उसके माता-पिताकी नगरी मृणालवतीको गया था। बहस लौटते समय वह धान्यकमाल नामके वनमें सपेंसरोवर के समीप ठहरा। उसी समय एक दूसरी घटना हुई जो इस प्रकार कही जाती है। , १ लोकपालस्य । २ वक्ति ३ अमितत्यायिका ४ स्वयं चारणमुनिनिकडे आकणितम् । ५ पुष्कलावत्याम् । ६ विजयार्द्धगिरिसमीपम् । ७ समीपे । ८ नगरस्य । ९ नायकः । १० सत्यदेवनामा स्वीकृतपुत्रः संजातः । ११ इमे सर्वे देवश्रीदेव्यादयः समं धर्मं श्रुत्वेति संबन्धः । १२ अमितगतिनामास्मत्वादसमाश्रयात् । १३ मुनिचर्याकाले अतिक्रान्ते सति। १४ आहारं स्वीकरोमीति व्रतम् १५ शक्तिषेणभार्या १६ शुक्लपक्षप्रति पद्दिने । अपरे पक्षे अष्टम्यां दिने च । १७ पञ्चवर्षाणि । १८ उपवासव्रतं समग्रहीत् । १९ परमेष्ठिनां स्तोत्रम् । २० गृहीतवान् २१ जननीजनकपोः। २२ मृणालवतीनामनगरीम् । २३ भूपतिः । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व सुकेतुस्तन्त्र' वैश्येशस्तनूजो रतिवर्मणः । भवदेवोऽभवत्तस्य विपुण्यः कनकश्रियाम् ॥१०॥ तत्रैव दहिता जाता श्रीदत्तस्यातिवल्लभा । विमलादिश्रियाख्याता रतिवेगाख्यया सती ॥१०५। मकान्तोऽशोक देवेष्टजिनदत्तासुतोऽजनि । भवदेवस्य दुर्वृत्त्या दुर्मुखाख्योऽप्यजायत ॥१०६॥ म एष द्रव्य मावयं रतिवेगां जिघृक्षुकः । वाणिज्यार्थ गत स्तस्मान्नायात'' इति सा तदा ॥१०७॥ मातापितृभ्यां प्रादायि सुकान्ताय सुतेजसे । देशान्तरात् समागत्य त द्वार्ताश्रवणाद् भृशम् ॥१०८॥ दुर्मुग्वे कुपिते भीत्वा तदानीं तद्वधूवरम् । व्रजित्वा शक्तिषणस्य शरणं समुपागतम् ॥:०९॥ तदुर्मुखोऽपि निर्बन्धादनुगत्य वधूवरम् । शक्तिषणभयाद् बद्धवैरो निववृते ततः ॥११०॥ तत्रैकस्मै १२ वियच्चारणद्वन्द्वाय समापुषे । शक्तिषणो ददावन्नं पाथेयं परजन्मनः ॥१११॥ तत्रैवागत्य सार्थेशो" निविष्टो बहुभिः सह । विभुमेरुकदत्ताख्यः श्रेष्टी भार्यास्य धारिणी ॥११२॥ मन्त्रिणस्तस्य भूतार्थः शकुनिः सबृहस्पतिः । धन्वन्तरिश्च चत्वारः सर्वे शास्त्रविशारदाः ॥११३॥ पुभिः परिवृतः श्रेष्टी हीनाङ्ग कंचिदागतम् । समीक्ष्यैनं कुतो हेतोर्जातोऽयमिति तान् जगौ ॥११४॥ मृणालवती नगरीका राजा धरणीपति था। उसी नगरीमें सुकेतु नामका एक सेठ रहता था जो कि रतिवर्माका पुत्र था । सुकेतुकी स्त्रीका नाम कनकश्री था और उन दोनोंके एक भवदत्त नामका पुण्यहीन पुत्र था ॥१०१-१०४॥ उसी नगर में एक श्रीदत्त सेठ थे। उनकी स्त्रीका नाम था विमलश्री और उनके दोनोंके अत्यन्त प्यारी रतिवेगा नामकी सती पुत्री थी ॥१०५॥ उसी नगरके अशोकदेव सेठ और जिनदत्ता नामकी उनकी स्त्रीसे पैदा हुआ सुकान्त नामका एक पुत्र था। जिसका वर्णन ऊपर कर आये हैं ऐसा भवदेव बड़ा दुराचारी था और उस दुराचारीपनके कारण ही उसका दूसरा नाम दुर्मुख भी हो गया था ॥१०६। वह भवदेव धन उपार्जन कर रतिवेगाके साथ विवाह करना चाहता था इसलिए व्यापारके निमित्त वह बाहर गया था, परन्तु जब वह विवाहके अवसर तक नहीं आया तब माता-पिताने वह कन्या अत्यन्त तेजस्वी सुकान्तके लिए दे दी । जब दुर्मुख (भवदेव) देशान्तरसे लौटकर आया और रतिवेगाके विवाहकी बात सुनी तब वह बहुत ही कुपित हुआ। उसके डरसे वधू और वर दोनों ही भागकर शक्तिषेणकी शरणमें पहुँचे ॥१०७-१०९॥ दुर्मुखने भी हठसे वधू और वरका पीछा किया परन्तु शक्तिषेणके डरसे अपना वैर अपने ही मनमें रखकर वहाँसे लौट गया ॥११०॥ शक्तिषणने वहाँ पधारे हुए दो चारण मुनियोंके लिए अपने आगामी जन्मके कलेवाके समान आहार दान दिया था ॥१११।। उसी सरोवरके समीप धनी और सब संघके स्वामी मेरुकदत्त नामका सेठ बहत लोगोंके साथ आकर ठहरा हआ था। उसकी स्त्रीका नाम धारिणी था। उस सेठके चार मन्त्री थे-१ भतार्थ,२ शकुनि,३ बहस्पति और ४ धन्वन्तरि । ये चारों ही मन्त्री अपने-अपने शास्त्रोंमें पण्डित थे ॥११२-११३॥ एक दिन सेठ इन सबसे घिरा हआ १ मृणालवत्याम् । २ वणिग्मुख्यस्य । ३ कनकश्रियः । ४ श्रीदत्तविमलश्रियोः । ५ पुत्री। ६ अशोकदेवस्य प्रियतमाया जिनदत्तायाः सुतः । ७ दुर्मुख इति नामान्तरमपि । स दुर्मुखः स्वमातुलं श्रीदत्तं रतिवेगां याचितवान् । मातुलो भणितवान् त्वं व्यवसायहीनो न ददामीति । दुर्मुखोऽवोचत्-यावदहं द्वीपान्तरेषु द्रव्यमावागच्छामि तावद् रतिवेगा कस्यापि न दातव्या इति द्वादशवर्षाणि कालावधिं दत्वा । ८ धनमर्जयित्वा । ९ गृहीतुमिच्छुः । १० कृतद्वादशवर्षादेः सकाशात् । ११ नागतः । १२ रतिवेगा। १३ दीयते स्म । १४ सुकान्तरतिवेगाद्वयम् । १५ गत्वा । १६ समुपाश्रयत् । १७ अविच्छेदेन । १८ पृष्ठतो गत्वा । १९ व्याधुटितवान् । २० सर्पसरोवरस्थितशक्तिषणशिबिरात् । २१ सर्पसरोवरे । २२ गगनचारण । २३ आगताय । समीयुषे ल०, इ०, अ०, म०, ५०, स० । २४ संवलम् । २५ वणिक्संघाधिपः । २६ मेरुकदत्तस्य । २७ विकलावयवम् । २८ इति पृष्टवान् तं श्रेष्ठिनम् । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ आदिपुराणम् ११ १४५५ ૨૪ शकुनिः शकुनाद् दुष्टाद् ग्रहात्पापाद् बृहस्पतिः । धन्वन्तरिस्त्रिदोषेभ्यो जन्मनीति समादिशत् ॥ ११५ ॥ भूतार्थस्त्वस्तु तत्सर्वं कर्म हिंसाद्युपार्जितम् । प्रधानकारणं तेन हीनाङ्ग इति सूक्तवान् ॥ ११६॥ शक्तिषेण महीपालप्रतिपन्नतुजः पिता । सत्यदेवस्य दृष्ट्वाऽस्मिंस्त मन्विष्यन्य दृच्छया ॥ ११७ ॥ तदा कृत्वा महद्दुःखं 'सभ्यैराकर्ण्यतामिदम् । च्युतं पयोऽतिपाकेन भाजनात्तण्डुलानपि ॥११८॥ भक्ष्यमाणान् कपोताद्यैः पश्यँस्तूष्णीमयं स्थितः । क्रोधान्मातुः कनीयस्या भर्त्सनादागतोऽसहः ' अधस्ताद् वक्त्रविवरं घ्राणस्येति तदप्ययम् । क्षमते नेति सर्वेषां तदकर्मण्यतां ब्रुवन् ॥ १२०॥ गन्तुं सहात्मना "तस्यानभिलाषाद्" विषण्णवान् । परस्मिन्नपि भूयासं भवे ते स्नेहगोचरः ॥ कृत्वा निदानं द्रव्यसंयममाश्रितः । प्रपेदे लोकपालत्वं तद्गतस्नेहमोहितः ॥ १२२ ॥ 'कदाचिच्छुक्लपक्षस्य दिनादौ भार्यया सह । कृतोपवासया शक्तिषेणो भक्तिपुरस्सरम्" ॥१२३॥ मुनिभ्यां दत्तदानेन पञ्चाश्चर्यमवाप्तवान् । दृष्ट्वा तच्छ्रेष्टिधारिण्य वावयोरन्यजन्मनि ॥ १२४ ॥ २६ एतावपत्ये "भूयास्तां निदानं कुरुतामिति । मन्त्रिणस्तस्य चत्वारोऽप्यस्तसर्वपरिग्रहाः ॥ १२५॥ बैठा था कि इतने में वहाँ एक हीन अंगवाला पुरुष आया। उसे देखकर सेठने सव मन्त्रियोंसे कहा कि यह ऐसा किस कारणसे हुआ है ? ।। ११४ || इसके उत्तर में शकुनि मन्त्रीने कहा कि जन्म के समय बुरे शकुन होनेसे यह ऐसा हुआ है ? वृहस्पतिने कहा कि जन्म के समय दुष्ट ग्रहों के पड़ने से यह होनांग हुआ है और धन्वन्तरिने कहा कि जन्म के समय वात पित्त कफ इन तीन दोपोंके कारण यह विकलांग हो गया है । यह सुनकर भूतार्थ नामक मन्त्रीने कहा कि आप यह सब रहने दीजिए, इस जीवने पूर्वभव में हिंसा आदिके द्वारा जो कर्म उपार्जन किये थे वे ही इसके हीनांग होनेमें प्रधान कारण हैं ।। ११५ - ११६ ॥ इतनेमें ही शक्तिपेण सेनापतिने जिसे अपना पुत्र स्वीकार किया है ऐसे उस सत्यदेवका पिता अपनी इच्छानुसार उसे खोजता हुआ आ पहुँचा। उस हीनांग पुत्रको देखकर उसे बहुत ही दुःख हुआ और वह कहने लगा कि है सभासदो, सुनो, एक दिन घरमें चावल पक रहे थे सो पानीके उफान के कारण कुछ चावल बरतनसे नीचे गिर गये और उन नीचे गिरे हुए चावलोंको कबूतर आदि पक्षी चुगने लगे परन्तु यह सब देखता हुआ चुपचाप खड़ा रहा - इसने उन्हें भगाया नहीं । तब इसकी माँकी छोटी बहनने क्रोधसे इसे डाँटा, उस डाँटको न सह सकनेके कारण ही यह यहाँ चला आया है। यह इतना असहनशील है कि 'तेरी नाकके नीचे मुँहका छेद है' इस बातको भी नहीं सह सकता है । इस तरह सब सभासदों से उसके पिताने उसकी अकर्मण्यताका वर्णन किया। चूँकि सत्यदेव अपने पिता के साथ वापस नहीं जाना चाहता था इसलिए उसने दुःखी होकर निदान किया कि 'अगले भवमें भी मैं तेरे स्नेहका पात्र होऊ" इस प्रकार निदान कर वह द्रव्यलिंगी मुनि हो गया और सत्यदेवके प्रेमसे मोहित होकर मरा जिससे लोकपाल हुआ ।।११७- १२२ ।। किसी एक समय शुक्लपक्षकी प्रतिपदा के दिन शक्तिपेणने उपवास करनेवाली अपनी स्त्री अटवीश्री के साथ-साथ भक्ति पूर्वक मुनियोंको आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये, उसे देखकर सेठ मेरुकदत्त और उनकी स्त्री धारिणीने निदान किया कि 'ये दोनों अगले जन्म में हमारी ही सन्तान हों । सेठ मेरुक१ कर्मकरणेन । २ विकलाङ्गो जात इति । ३ सुष्ठु प्रोक्तवान् । ४ शक्तिपेणनामसामन्तेनायं मम पुत्र इति स्वीकृतसूतस्य । ५ सत्यकनामजनकः । ६ सर्पसरोवरे । ७ गवेपयन्नित्यर्थः । ८ सभाजनैः । ९ सत्यदेवजनन्याः । १० भगिन्याः | ११ असहमान: । १२ सभाजनानाम् । १३ तत् सत्यदेवस्य कर्मण्यक्षमताम् । १४ सत्यकेन स्वेन । १५ सत्यदेवस्य । १६ अनभिमतात् । १७ भवेयम् । १८ स्नेहगोचरम् इ० अ०, स० । १९ सत्यकः । २० लोकपालनाय देवत्वम् । २१ पुरस्सरः ल० । २२ दानसंजाताश्चर्यम् । २३ मेरुदत्ततद्भार्याधारिण्यौ । २४ क्तिविक्रियो । २५ पुत्रौ । २६ अकुरुताम् । २७ मेरुकदत्तस्य । 11 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्चत्वारिंशत्तमं पर्व तपो विधाय कालानो समापन लोकपालताम् । वधूवरं च दानानुमोदपुण्यमवाप्तवन ॥१२६॥ 'तदाकर्ण्य महीशस्य देवी वसुमती तदा । स्वजन्मान्तर संबोधमूर्छानन्तरबोधिना ।। १२७॥ अहं पूर्वोक्त देवश्रीस्त्वत्प्रसादादिमां श्रियम् । प्राप्ता तदातनो राजा" वद क्वाद्य प्रवर्तते ।।२८।। इति तस्याः परिप्रश्ने स प्रजापालभूपतिः । लोकपालोऽयमित्युक्ते प्रियदत्ता स्त्रपूर्वजम् ।।१२॥ जन्मावबुध्य वन्दिवा साध्वीश्रीरियं वहम् । शक्तिषेणो मन प्रेयानसी क्वाय प्रवर्तते ।।१३०॥ इति' पृष्टाऽवदच्छक्तिषेणस्तेऽयं मनोरमः।"कुबेरदयितः सत्यदेवोऽभूत्तनुजस्तव ॥३१॥ देवभूयं गताः श्रेष्ठिसचिवास्त्वत्पते भृशम् । आरभ्य जन्मनः स्नेहात परिचर्चा प्रकुर्वते ।। १३२॥ कुबेरदयितस्यापि पिता प्राच्यः स सत्यकः । पाता गत्यन्तरस्थाश्च पुण्यात स्निह्यन्ति देहिनः।।१३३ भवदेवेन निर्दग्धं द्विजावेतो" वधूवरम् । सार्थेशो"धारिणी चेह पन्युस्ते पितराविमौ ॥१३४॥ दत्तके चारों मन्त्रियोंने सब परिग्रहका परित्याग कर तप धारण किया और आयुके अन्तमें लोकपालको पर्याय प्राप्त की। इसी प्रकार सुकान्त और रतिवेगा नामके वधू-वरने भी दानकी अनुमोदना करनेसे प्राप्त हुआ बहुत भारी पुण्य प्राप्त किया ॥ १२३-१२६ ।। यह सब सुनकर राजा लोकपालकी रानी वसुमतीको अपने पूर्वजन्मकी सब बात याद आ गयी जिससे वह मूच्छित हो गयी और सचेत होनेपर अमितमति आर्यिकासे कहने लगी कि मैं पूर्वजन्ममें शोभानगरके राजा प्रजापालकी रानी देवनी थी, आपके प्रसादसे ही मैं इस लक्ष्मीको प्राप्त हुई हूँ, मेरे उस जन्मके पति राजा प्रजापाल आज कहाँ हैं ? यह कहिए ॥ १२७-१२८ ।। इस प्रकार वसुमतीका प्रश्न समाप्त होनेपर अमितमति आर्यिकाने कहा कि यह लोकपाल ही पूर्वजन्मका प्रजापाल राजा है । इतना कहते ही प्रियदत्ताको भी अपने पूर्वभवकी याद आ गयी। उसने आर्यिकाको वन्दना कर कहा कि शक्तिषेणकी स्त्री अटवीश्री तो मैं ही हूँ, कहिए मेरा पति शक्तिषेण आज कहाँ है ? इस प्रकार पूछा जानेपर अमितमतिने कहा कि यह तेरा पति कुबेरकान्त ही उस जन्मका शक्तिषेण है और यह कुबेरदयित ही उस जन्मका सत्यदेव है जो कि तुम्हारा पुत्र हुआ है। सेठ मेरुकदत्तके जो भूतार्थ आदि चार मन्त्री थे वे देवपर्यायको प्राप्त हो स्नेहके कारण जन्मसे ही लेकर तुम्हारे पतिकी भारी सेवा कर रहे हैं - कामधेनु और कल्पवृक्ष बनकर सेवा कर रहे हैं ॥ १२९-१३२ ॥ कुबेरदयितका पूर्व जन्मका पिता सत्यक भी देव होकर उसकी रक्षा करता है सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यके प्रभावसे दूसरी गतिमें रहनेवाले जीव भी स्नेह करने लग जाते हैं ॥ १३३ ।। भवदेवने पूर्वोक्त वधू-वर ( रतिवेगा और सुकान्त ) को जला दिया था इसलिए वे दोनों ही मरकर ये कबूतर-कबूतरी हुए हैं। सेठ मेरुकदत्त और उनकी १ लोकपालसुरत्वम् । २ सुकान्तरतिवेगेति मिथुनम् । ३ प्राप्तम् । ४ पुण्यम् । प्राप्तमित्यादिवचनम् । ५ प्रजापालपुत्रलोकपालस्य । ६ भार्या कुबेरमित्रस्य, पौत्री वसुमती । ७ निजभवान्तरपरिज्ञान जात । ८ शोभानगरपतिप्रजापालमहीपतेर्भार्या देवश्री: । ९ हे अमितमत्यायिके, भवत्प्रसादात् । १० प्राप्तवत्यहम् । ११ शोभानगरप्रतिपाल प्रजापाल इत्यर्थः । १२ तव भर्ता लोकपालः । १३ आर्यिका । १४ तव प्रियदत्तायाः । १५ पुरोवर्ती । १६ कुबेरकान्तः । १७ शक्तिषणस्य स्वीकृतपुत्रः । कुबेरदयित इति तव पुत्रोऽभूदिति सम्बन्धः । १८ देवत्वम् । १९ तव भर्तुः कुबेरकान्तस्य । २० जननकालादारभ्य कामधेनुरुत्तमेति श्लोकोक्तसेवां कुर्वते । २१ पूर्वभवसंबन्धिपिता सत्यकः । २२ रक्षकोऽभूत् । २३ रतिवर्मकनकश्रियोः सूनुना भवदेवेन । क्रोधात् शक्तिषणकालान्तरेण निर्दग्धं वधूवरं सुकान्तरतिवेगेति द्वयम् । २४ कपोतपक्षिणावभूतामिति संबन्धः । २५ मेरुकदत्तः । २६ अस्यां पुर्याम् । पुण्डरीकिण्याम् । २७ तव भर्तुः कुबेरकान्तस्य । २८ कुबेरमित्रधनवत्यौ । ५८ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ आदिपुराणम् इत्युक्दा संदमयाह खगाचलसमीपगे । वसन्तौ चारणावद्रो मुनी मलयकाञ्चने ॥१३५॥ पूर्व वननिवेशे तौ भिक्षार्थ समुपागतौ । तव पुत्रसमुत्पत्तिमुपदिश्य गतौ ततः ॥१३६॥ अन्येयुर्वसुधारादिहेतुभूतौ कपोतकौ । दृष्ट्वा सकरुणौ मिक्षामनादाय वनं गतौ ॥१३७॥ गुर्वागुरुत्वं युवयोरुपयातौ तयोरिदम् । उपदेशात् समाकर्ण्य सर्वमुक्तं यथाश्रुतम् ॥१३८॥ इति ते ऽमितमत्युक्तकथावगमतत्पराः । स्वरूपं संसृतेः सम्यक् मुहुर्मुहुरमावयन् ॥१३६॥ एवं प्रयाति कालेऽसौ प्रियदत्ता प्रसंगतः । यशस्वतीगुणवत्यौ युवाभ्यां केन हेतुना ॥१४॥ इयं दीक्षा गृहीतेति पप्रच्छोत्पन्नकौतुका । ते" च तत्कारणं स्पष्टं यथावृत्तमवोचताम्॥१४१॥ ततो धनवती दीक्षा गणिन्याः सन्निधौ ययौ । माता" कुबेरसेना च तयोरार्यिकयोईयोः ॥१४२॥ तावन्येधुः कपोती च ग्रामान्तरमुपाश्रितो । तण्डुलाद्युपयोगाय समवर्तिप्रचोदितो ॥१४३॥ भवदेवचरणानुबद्धवैरेण पापिना । दृष्टमात्रोत्थकोपेन मारितौ पुरुदंशसा ॥१४॥ तद्राष्ट्रविजयाईस्य दक्षिणश्रेणिमाश्रिते । गान्धारविषयोशीरव त्याख्यनगरेऽधिपः ॥१४५॥ स्त्री धारिणी यहाँ तेरे पति कुबेरकान्तके माता-पिता हुए हैं ॥ १३४ ॥ इतना कहकर अमितमति यह भी कहने लगी कि विजयार्ध पर्वतके समीप मलयकांचन नामके पर्वतपर दो मुनिराज रहते थे, जब पूर्वजन्ममें शक्तिषेण सर्पसरोवरके समीप डेरा डालकर वनमें ठहरा हुआ था तब वे भिक्षाके लिए तेरे यहाँ आये थे और तेरे अँगुलियोंके इशारेसे पाँच पुत्र तथा एक पुत्री होगी ऐसा कहकर चले गये थे । तदनन्तर रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्योंके कारणस्वरूप वे मुनिराज इस जन्ममें भी किसी समय तेरे घर आये थे परन्तु कबूतर-कबूतरीको देखकर दयायुक्त हो बिना भिक्षा लिये ही वनको लौट गये थे। वे ही तेरे पिता और तेरे पतिके गुरु हुए हैं। उन्हीं के उपदेशसे मैंने यह सब सूनकर अनुक्रमसे कहा है ॥ १३५-१३८ । इस प्रकार जो पुरुष अमितमति आर्यिकाके द्वारा कही हुई कथाके सुनने में तल्लीन हो रहे थे वे संसारके सच्चे स्वरूपका बार-बार चिन्तवन करने लगे ॥ १३९ ॥ इस प्रकार कुछ समय व्यतीत होनेपर किसी दिन प्रियदत्ताने प्रसंग पाकर यशस्वती और गुणवतीसे पूछा कि आप लोगोंने यह दीक्षा किस कारण ग्रहण की है ? मुझे यह जाननेका कौतुक हो रहा है । तब उन दोनोंने स्पष्ट रूपसे अपनी दीक्षाका कारण बतला दिया ।। १४०-१४१ ॥ तदनन्तर कुबेरमित्रकी स्त्री धनवतीने संघकी स्वामिनी अमितमतिके पास दीक्षा धारण कर ली और उन दोनों आयिकाओंकी माता कुबेरसेनाने भी अपनी पुत्रीके समीप दीक्षा धारण की ॥ १४२ ।। किसी एक दिन यमराजके द्वारा प्रेरित हुए ही क्या मानो वे दोनों कबूतर-कबूतरी चावल चुगनेके लिए किसी दूसरे गाँव गये। वहाँ एक बिलाव था जो कि भवदेवका जीव था । उस पापीको पूर्व जन्मसे बंधे हुए वैरके कारण कबूतर-कबूतरीको देखते ही पापकी भावना जागृत हो उठी और उसने उन दोनोंको मार डाला ।। १४३--१४४ ॥ उसी पुष्कलावती देशके विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक गान्धार नामका देश है और उसमें उशीरवती १ अमितमत्यायिका । २ विजयाचपर्वत । ३ निवसन्तौ। ४ शक्तिषणाटवीश्रीभवे। ५ सर्पसरोवरनिवेशे । ६ कुबेरमित्रसमुद्रदत्तयोः । ७ कुबेरकान्तप्रियदत्तयोः गुरुत्वमुपयातो यौ द्वौ तयोरेव चारणयोः । ८ यथाक्रमम् लए । ९ लोकपालादायः । १० परिज्ञाने रताः । ११ यशस्वतीगुणवत्यो । १२ मम मातुलकुबेरदत्ताद् विविधभक्ष्यपूर्वभोजनालाभाज्जातलज्जया तपो गृहीतम् । १३ कुबेरमित्रस्य भार्या । १४ अमितमत्यायिकायाः । १५ जगत्पालचक्रवर्तिपुथ्योरमितमत्यनन्तमत्योर्जननी । १६ जम्बूग्रामम् । १७ भक्षणाय । १८ अन्तकप्रेरितो । १९ पूर्वस्मिन् भवदेवेन । २० पापेन ल० । २१ जम्बूग्रामस्य कदलीवनस्थमार्जारेण । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व आदित्यगतिरस्यासीन्महादेवी शशिप्रभा । तयोहिरण्यवर्माख्यः सुतो रतिवरोऽभवत् ॥१४६॥ तस्मिन्नेवोत्तरश्रेण्यां गौरी विषयविश्रत । पुरं भोगपुरे वायुरथो विद्याधराधिपः ॥१४७॥ तस्य स्वयंप्रम दव्यां रतिषणा प्रभावती । बभूव जैनधर्माशोऽप्यभ्युद्धरति देहिनः ॥१४८॥ माता पिताऽपि या यश्च सुकान्तरतिवेगयोः । जन्मन्यस्मिन् किलाभूतां चित्रं तावेव संसृतिः ॥१४९॥ हा में प्रभावतीत्याह जयश्च ते ससुलोचनः । रूपादिवर्णनं तस्याः किं पुनः क्रियते पृथक् ॥१५०॥ यौवनेन समाक्रान्तां कन्यां दृष्ट्वा प्रभावतीम् । कस्मै दयेयमित्याह खगेशो मन्त्रिणस्तवः (ततः) ॥१५१॥ शशिप्रभा स्ससा देव्या भ्रातादित्यगतिस्तथा । परे च खचराधीशाः प्रीत्याऽयाचन्त कन्यकाम् ॥१५२।। ततः स्वयंवरो युक्तो विरोधस्तन्न केनचित् । इत्यभाषन्त निश्चित्य तद्भूपोऽप्यभ्युपागमत् ॥१५३॥ ततः सर्वेऽपि तद्वार्ताकर्णनादागमन् वराः । कमप्येतेषु सा कन्या नाग्रहीद् रत्नमालया ॥१५॥ मातापितृभ्यां तद् दृष्ट्वा संपृष्टा प्रियकारिणी । यो जयेद् गतियुद्धे मां मालां संयोजयाम्यहम् ॥१५५॥ कण्ठे तस्येति वक्त्येषा प्रागित्याह सखी तयोः'।श्रुत्वा तत्र दिने सर्वानुचितोक्त्या व्यसर्जयत् ॥१५६॥ नामकी एक नगरी है। उसके राजा थे आदित्यगति और उनकी रानीका नाम था शशिप्रभा । रतिवर कबूतर मरकर उन दोनोंके हिरण्यवर्मा नामका पुत्र हुआ ॥१४५-१४६॥ उसी विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणी में एक गौरी नामका देश है उसके भोगपूर नामके प्रसिद्ध नगरमें विद्याधरोंका स्वामी राजा वायुरथ राज्य करता था। उसकी स्वयंप्रभा नामकी रानी थी। रतिषणा कबूतरी मरकर उन्हीं दोनोंको प्रभावती नामकी पुत्री हुई सो ठोक ही है क्योंकि जैनधर्मका एक अंश भी प्राणियोंका उद्धार कर देता है ।। १४७-१४८॥ सुकान्त और रतिवेगाके जो पहले माता-पिता थे वे ही इस जन्ममें भी माता-पिता हुए हैं सो ठीक ही है क्योंकि यह संसार बड़ा ही विचित्र है । भावार्थ - सुकान्तके पूर्वभवके माता-पिता अशोक और जिनदत्ता इस भवमें आदित्यगति और शशिप्रभा हुए हैं तथा रतिवेगाके पूर्वभवके माता-पिता विमलश्री और श्रीदत्ता इस भवमें वायुरथ तथा स्वयंप्रभा हुए हैं ।।१४९।। जब जयकुमारने सुलोचनाके साथ बैठकर 'हा' मेरी प्रभावती' ऐसा कहा तब फिर उसके रूप आदिका वर्णन अलगसे क्या किया जाय ? ॥१५०॥ प्रभावती कन्याको यौवनसे सम्पन्न देखकर विद्याधरोंके अधिपति वायुरथने अपने मन्त्रियोंसे कहा कि यह कन्या किसे देनी चाहिए ? ।।१५१॥ मन्त्रियोंने परस्परमें निश्चय कर कहा कि 'शशिप्रभा आपकी बहन है, और आदित्यगति आपकी पट्टराज्ञीका भाई है । ये दोनों तथा इनके सिवाय और भी अनेक विद्याधर राजा बड़े प्रेमसे कन्याको याचना कर रहे हैं इसलिए स्वयंवर करना ठीक होगा क्योंकि ऐसा करनेसे किसीके साथ विरोध नहीं होगा।' मन्त्रियोंकी यह बात राजाने भी स्वीकार की ॥१५२-१५३।। तदनन्तर स्वयंवरकी बात सुनकर सभी राजकुमार आये परन्तु कन्या प्रभावतीने इन सबमें-से किसीको भी रत्नमालाके द्वारा स्वीकार नहीं किया - किसीके भी गले में रत्नमाला नहीं डाली ॥१५४॥ यह देखकर माता-पिताने उसकी सखी प्रियकारिणीसे इनका कारण पूछा, सखीने उन दोनोंसे कहा कि यह पहले कहती थी कि 'जो मुझे गतियुद्ध में जीतेगा मैं उसीके गले में माला डालूँगी' यह सुनकर राजाने उस दिन यथायोग्य कहकर सबको बिदा किया ॥१५५-१५६।। १ रतिवरनामकपोतः । २ रतिपणा नाम कपोती । ३ श्रीदत्तविमलश्रियौ। अशोकदेवजिनदत्ते द्वे च अभूतां वायुरथस्वयंप्रभादेव्यो चादित्यगतिशशिप्रभे च पितरावभूतामिति । ४ सुलोचनया सहितः । ५ तव शशिप्रभेति भगिनी । ६ वायुरथस्य तव भार्यायाः । ७ स्वयंप्रभादेव्या भ्राता आदित्यगतिश्च सोऽपि स्वपुत्राय याचितवान् इत्यर्थः । ८ एवं सति । ९ तथास्त्वित्यनुमतिमकरोत् । १० कन्यायाः सखी । ११ वायुरथस्वयंप्रभयोः । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् अन्येद्युः खचराधीशो घोषयित्वा स्वयंवरम् | सिद्धकूटाख्य चैत्यालयस्य मालां पुरःस्थिताम् ॥१५७॥ अपातयन्महामेरुं त्रिः परीत्य महीतलम् । अस्पृष्टां खेचराः केचित्तां ग्रहीतुमनीश्वराः ॥ १५८ ॥ नपां गताः समादाय प्रभावत्या विनिर्जिताः । समो ननु न मृत्युश्च मानभङ्गेन मानिनाम् ॥ १९९॥ ततो हिरण्यवर्मायाद् गतियुद्धविशारदः । मालामासञ्जयामास तत्कण्ठे तेन निर्जिता ॥ १६०॥ तयोर्जन्मान्तरस्नेह समृद्ध सुखसंपदा । काले गच्छति कस्मिँश्च ( चित् ) कपोतद्वयदर्शनात् ॥१६१॥ ज्ञातप्राग्भवसंबन्धा सुविरक्ता प्रभावती । स्थिताशोकाकुलैकैव चिन्तयन्ती किमप्यसौ ॥ १६२॥ हिरण्यवर्मणा ज्ञातजन्मना लिखितं स्फुटम् । पट्टकं प्रियकारिण्या हस्ते समवलोक्य तम् ॥६६३॥ क्व लब्धमिदमित्याख्यत् प्राह सापि प्रियेण ते । लिखितं चेटकस्तस्य सुकान्तो मे समर्पयत् ॥ १६४ ॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा स्वयमप्यात्मवृत्तकम् । प्राक्तनं पट्टके तस्या लिखित्वाऽसौ करे ददौ ॥१६५॥ तद्विलोक्य कुमारोऽभूत् प्रभावत्यां प्रसक्तधीः । साऽपि तस्मिन् तयोः प्रीतिः प्राक्तन्या द्विगुणाऽभवत् संभूय बान्धवाः सर्वे वल्याणाभिषवं तयोः । अकुर्वन्निव कल्याणं द्वितीयं ते चिकीर्षवः ॥ १६७ ॥ rani सिद्धटाग्रे स्नानपूजाविधौ ४ सुवित्" । हिरण्यवर्मणा वीक्ष्य परमावधिचारणः ॥ १६८॥ दूसरे दिन राजाने स्वयंवरकी घोषणा कराकर कहा कि 'एक माला सिद्धकूट नामक चैत्यालय के द्वारसे नीचे छोड़ी जायगी' जो कोई विद्याधर माला छोड़नेके बाद महामेरु पर्वत की तीन प्रदक्षिणाएँ देकर प्रभावती के पहले उसे जमीनपर पड़नेके पहले ही ले लेगा वही इसका पति होगा' यह सुनकर बहुत से विद्याधरोंने प्रयत्न किया परन्तु पूर्वोक्त प्रकारसे माला न ले सके इसलिए प्रभावती से हारकर लज्जित होते हुए चले गये सो ठीक ही है क्योंकि मृत्यु भी अभिमानी लोगोंके मानभंगकी बराबरी नहीं कर सकती है ।। १५७ - १५९ ।। तदनन्तर गतियुद्ध करनेमें चतुर हिरण्यवर्मा आया और उससे हारकर प्रभावतीने वह माला उसके गले में डाल दी ||१६०॥ पूर्व जन्मके स्नेहसे बढ़ी हुई सुखरूप सम्पत्ति से जब उन दोनोंका कितना ही समय व्यतीत हो गया तब किसी एक दिन कबूतर कबूतरीका जोड़ा देखनेसे प्रभावतीको पूर्वभवका सम्बन्ध याद आ गया, वह विरक्त होकर शोकसे व्याकुल होती हुई अकेली बैठकर कुछ सोचने लगी ।। १६१-१६२॥ इधर हिरण्यवर्माको भी जाति स्मरण हुआ था, उसने एक पटियेपर अपने पूर्वजन्मका सब हाल साफ-साफ लिखकर प्रभावतीकी सखी प्रियकारिणीको दिया था, प्रभावतीने प्रियकारिणीके हाथमें वह पटिया देखकर कहा कि यह चित्रपट तुझे कहाँ मिला है ? सखीने कहा कि 'यह चित्रपट तेरे पतिने लिखा है और उनके नौकर सुकान्तने मुझे दिया है, इस प्रकार सखीके वचन सुनकर प्रभावतीने भी एक पटियेपर अपने पूर्वजन्मका सब वृत्तान्त लिखकर सखी - के हाथमें दिया ।। १६३ - १६५ ।। वह चित्रपट देखकर हिरण्यवर्मा प्रभावतीपर बहुत अनुराग करने लगा और प्रभावती भी हिरण्यवर्मापर बहुत अनुराग करने लगी, उन दोनों का प्रेम पूर्व पर्याय प्रेमसे कहीं दूना हो गया था ॥ १६६ ॥ कुटुम्बके सब लोगोंने मिलकर उन दोनोंका मंगलाभिषेक किया मानो वे उनका दूसरा कल्याण ही करना चाहते हों ॥ १६७ ॥ किसी समय दशमी के दिन ये दोनों सिद्धकूटके चैत्यालय में अभिषेक पूजन आदि कर रहे थे उसी समय हिरण्य ४६० १ स्वयंवर मिति घोषयित्वा तद्दिने व्यसर्जयदिति संबन्धः । २ भूमौ पातयति स्म । ३ मेरोस्त्रिः ल० । ४ संयोजयति स्म । ५ असहायैव । ६ प्रभावत्याः सख्याः । ७ हस्ते स्थितम् । ८ हिरण्यवर्मणः । ९ प्राग्भवम्, पुरातनमित्यर्थः । १० प्रभावतो । ११ पुरातनी । १२ आ समन्ताद् द्विगुणा । १३ विवाहदिनाद् दशमदिने । १४ अभिषेक पूजाविधौ । १५ प्रत्यक्षज्ञानम् । प्रत्यक्षज्ञानी ता० टि० । क्वचित् अ०, प०, स०, इ०, ल० 1 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४६१ प्रभावत्या च पृष्टोऽसौ स्वं पूर्वभयवृत्तकम् । अभाषत मुनेश्चैवमनुग्रहधिया तयोः ॥१६९॥ तृतीयजन्मनीतोऽत्र संभतौ वणिजां कुले । रतिवेगा सुकान्तश्च प्राक् मृणालवतीपुरे ॥१७॥ भर्तृ भार्याभिसंबधं संप्राप्पारिभयाद् गतौ । कृत्वाऽनुमोदनं शक्तिषेणदाने सपुण्यको ॥१७१॥ पारावतभवे चाप्य धर्म जातौ युवामिति । विधाय पितरौ वैश्यजन्मनोर्याविहापि तौ ॥१७२॥ तृतीयजन्मनो युष्मद्गुरवोऽहं च संगताः । रतिषेणगुरोः पावें गृहीतप्रोषधाश्चिरम् ॥१७३॥ जिनेन्द्रभवने भक्त्या नानोपकरणैः सदा । विधाय पूजां समजायामहीह खगाधिपाः ॥१७४॥ पिताऽहं भवदेवस्य रतिवर्माभिधस्तदा । भूत्वा श्रीधर्मनामाऽतः संयमं प्राप्य शुद्धीः ॥१७५॥ चारणत्वं तृतीयं च ज्ञान प्रापमिहेत्यदः । श्रत्वा मुनिवचः प्रीतिमापयेतान्तरां च तो' ॥१७६॥ एवं सुखेन यात्येषांकाले वायुरथः पृथुम् । विशरारु समालोक्य स्तनयित्नु प्रतिक्षणम् ॥१७७॥ 'विश्वं विनश्वरं पश्यन् शश्वच्छाश्वतिकी मतिम् । जनः करोति सर्वत्र दुस्तरं किमिदं तमः ॥१७८॥ इति याथात्म्यमासाद्य दत्वा राज्यं विरज्य सः। मनोरथाय नैस्संग्यं प्रपित्सुरभवत्तदा ॥१७९॥ आदित्यगतिमभ्येत्य प्रीत्या सर्वेऽपि बान्धवाः । प्रभावतीसुता देया भवतेयं रतिप्रभा ॥१०॥ वर्माने परमावधि ज्ञानको धारण करनेवाले चारणमुनि देखे, प्रभावतीने उनसे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त पूछा, मुनिराज भी अनुग्रह बुद्धिसे उन दोनोंके पूर्वभवका वृत्तान्त इस प्रकार कहने लगे ॥१६८-१६९।। कि तुम दोनों इस जन्मसे तीसरे जन्ममें मृणालवती नगरीके वैश्य कुलमें रतिवेगा तथा सुकान्त हुए थे ॥१७०॥ स्त्री पुरुषका सम्बन्ध पाकर तुम दोनों शत्रुके भयसे भागकर शक्तिषेणकी शरण गये थे। वहाँ शक्तिषणने मुनिराजके लिए जो आहार दान दिया था उसकी अनुमोदना कर तुम दोनोंने पुण्यबन्ध किया था, उसके बाद कबूतर-कबूतरीके भवमें धर्म लाभ कर यहाँ विद्याधर-विद्याधरी हुए हो। तुम दोनोंके वैश्य जन्मके जो माता-पिता थे वे ही इस जन्मके भी तुम्हारे माता-पिता हुए हैं। तीसरे जन्मके तुम्हारे माता-पिता तथा मैंने मिलकर एक साथ रतिषेण गुरुके समीप प्रोषध व्रत लिया था, और उसका चिरकाल तक पालन करते हुए श्रीजिनेन्द्रदेवके मन्दिरमें भक्तिपूर्वक अनेक उपकरणोंसे सदा पूजा की थी उसीके फलस्वरूप हमलोग यहाँ विद्याधर हुए हैं। मैं पूर्वभवमें रतिवर्म नामका भवदेवका पिता था, अब श्रीधर्म नामका विद्याधर हुआ हूँ, मैंने शुद्ध हृदयसे संयम धारण कर चारण ऋद्धि और तीसरा अवधि ज्ञान प्राप्त किया है । इस प्रकार मुनिराजके वचन सुनकर हिरण्यवर्मा और प्रभावती दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए ॥१७१-१७६॥ इस तरह इन सबका समय सुखसे व्यतीत हो रहा था कि किसी एक समय प्रभावतीके पिता वायुरथ विद्याधरने प्रत्येक क्षण नष्ट होनेवाला मेघ देखकर ऐसा विचार किया कि यह समस्त संसार इसी प्रकार नष्ट हो जानेवाला है, फिर भी लोग इसे स्थिर रहनेवाला समझते हैं, यह अज्ञानरूपी घोर अन्धकार सब जगह क्यों छाया हुआ है ? इस प्रकार यथार्थ स्वरूपका विचार कर विरक्त हो मनोरथ नामक पुत्रके लिए राज्य दे दिया और स्वयं निर्ग्रन्थ अवस्था धारण करनेकी इच्छा करने लगे ॥१७७-१७९॥ उसी समय वायुरथके सभी भाई-बन्धुओंने बड़े १ स्वपूर्व-अ०, ५०, इ०, स०, ल०। २ दम्पतिसंबन्धम् । ३ भवदेवभयात् । ४ पलायितौ। ५ प्राप्य । ६ श्रीदत्तविमलश्रियौ। अशोकदेवजिनदत्ते च । ७ युवयोः पितरः। श्रीदत्तविमलश्री-अशोकदेवजिनदत्ताः । ८ भवदेवस्य पिता रतिवर्मा । ९ जाताः स्म। १० श्रोधर्मखगाधिपतिः । ११ हिरण्यवर्माप्रभावत्यो । १२ वायुरथादीनाम् । १३ विनश्वरशीलम् । १४ मेघम् । 'अभ्रं मेघो वारिवाहः स्तनयित्नुर्बलाहकः' इत्यभिधानात् । १५ पुत्रमित्रकलत्रस्रकचन्दनादिकम् । १६ अज्ञानम् । १७ विरक्तो भूत्वा। १८ प्राप्तुमिच्छुः । १९ वायुरथस्य बन्धुजनाः । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ आदिपुराणम् मनोरथस्य पुत्राय कन्या चित्ररथाय सा । इत्याहुः सोऽप्यनुज्ञाय कृत्वा बन्धुविसर्जनम् ॥१८॥ *हिरण्यवर्मणः सर्वखगराजाभिषेचनम् । विधाय बहुभिः साधं संप्राप्य मुनिपुङ्गवम् ॥२॥ संयम प्रतिपन्नः सन् सहवायुरथः स्वयम् । तपो द्वादशधा प्रोक्तं यथाविधि समाचरत् ।। १८३॥ इत्युक्त्वा रतिवेगाऽहं रतिषेणा प्रभावती । चाहमवेति सभ्यानां निजगाद सुलोचना ॥१८॥ सदाकार्य जयोऽप्याह पतिस्तासामहं क्रमात् । जाये स्म' तत्र तत्रेति विश्वविस्मयकृद्वचः ॥१५॥ पुनः प्रियां जयः प्राह प्रकृतं किंचिदप्यतः । अवशिष्टं तदप्युच्चस्त्वया कान्ते निगद्यताम् ॥१८६॥ इति पत्युः परिप्रश्नाइशनज्योत्स्नया सभाम् । मूर्तिः कुमुद्वतीं वेन्दोर्विकासमुपनीयताम् ॥ १८७॥ साऽब्रवीदिति तद्वृत्तं स्वपुण्यपरिपाकजम् । सुखं राज्यसमुदभूतं यथेष्टसपि निर्विशन्॥१८॥ परेद्युः कान्तया साई स्वेच्छया विहरन् वनम् । सरो धान्यकमालाख्यं वीक्ष्यादित्यगतेः सुतः॥ १८६॥ 'स्वप्राच्यभवसंबन्धं प्रत्यक्षमिव लक्षयन् । काललब्धिवलाल्लब्धनिवेदो विदुषां वरः ॥१९०॥ भङ्गरः"संगमः सर्वोऽप्यङ्गिनामभिवाञ्छितः । किं नाम सुखम बंदमल्पसंकल्पसंभवम् ॥ १६१॥ आयुर्वायुचलं कायो हेय एवामयालयः । साम्राज्यं भुज्यते' लोलैर्वालि' शैर्बहुदोषलम् ॥१६२॥ अदूरपार" कायोऽयमसारो दुरिताश्रयः। तादात्म्यप्रात्मनोऽनेन 'धिगेनमशुचिप्रियम् ॥१९३॥ प्रेमसे आदित्यगतिके समीप जाकर प्रार्थना की 'कि यह प्रभावतीकी पुत्री रतिप्रभा कन्या आप मेरे मनोरथके पुत्र चित्ररथके लिए दे दीजिए।' आदित्यगतिने भी स्वीकार कर समागत बन्धुओंको बिदा किया ॥१८०-१८१॥ महाराज आदित्यगति सव विद्याधरोंके राज्यपर हिरण्यवर्माका अभिषेक कर अनेक लोगोंके साथ किन्हीं मुनिराजके समीप पहुँचे, और वायुरथके साथ-साथ स्वयं भी संयम धारण कर विधिपूर्वक शास्त्रोंमें कहे हुए बारह प्रकारके तपश्चरण करने लगे ॥१८२-१८३॥ यह सब कहकर सुलोचनाने सब सभासदोंसे कहा कि वह रतिवेगा भी मैं ही हूँ, रतिषेणा ( कबूतरी ) भी मैं ही हूँ और प्रभावती भी मैं ही हूँ ॥१८४॥ यह सुनकर जयकुमारने भी सबको आश्चर्य करनेवाले वचन कहे कि उन तीनों भवोंमें अनुक्रमसे मैं ही उन रतिवेगा आदिका पति हुआ हूँ ॥१८५॥ जयकुमार फिर अपनी प्रिया सुलोचनासे कहने लगा कि हे प्रिये, कुछ बात बाकी और रह गयी है उसे भी तू अच्छी तरह कह दे ।।१८६॥ जिस प्रकार चन्द्रमाकी मूर्ति कुमुदिनीको विकसित कर देती है उसी प्रकार वह सुलोचना भी अपने पतिके पूर्वोक्त प्रश्नसे दाँतोंकी कान्तिके द्वारा सभाको विकसित-हर्षित करती हुई अपने पुण्यके फलसे होनेवाले समाचारोंको इस प्रकार कहने लगी कि वह हिरण्यवर्मा राज्यसे उत्पन्न हुए सुखका इच्छानुसार उपभोग करने लगा। किसी एक दिन अपनी वल्लभाके साथ विहार करता हुआ वह आदित्यगतिका पुत्र हिरण्यवर्मा धान्यकमाल नामके वनमें जा पहुँचा । वहाँ सर्पसरोवर देखकर उसे अपने पूर्वभवके सब सम्बन्ध प्रत्यक्षकी तरह दिखने लगे, काललब्धिके निमित्तसे जिसे वैराग्य उत्पन्न हुआ है और जो विद्वानोंमें श्रेष्ठ है ऐसा वह हिरण्यवर्मा सोचने लगा कि प्राणियोंकी इच्छाका विषयभूत यह सभी समागम क्षणभंगुर है, इस समागममें थोड़े-से संकल्पसे उत्पन्न हुआ यह सुख क्या वस्तु है ? यह आयुके समान चंचल है। अनेक रोगोंका घर स्वरूप यह शरीर छोड़ने योग्य ही है । अनेक दोषोंको देनेवाले राज्यको चंचल १ वायुरथस्थ वियोगादाहुः । २ तथास्त्वित्यनुमतिं कृत्वा । ३ अयं श्लोकः ल. 'म० पुस्तकयोर्न दृश्यते । ४ वायुरथेन सहितः । ५ आदित्यगतिः । ६ रविषेणेति कपोती। ७ सुलोचना। ८ सभाजनानाम् । ९ अभाषत । १० रतिवेगादीनाम् । ११ जातोऽस्मि । १२ अनुभवन् । १३ प्रभावत्या सह । १४ हिरण्यवर्मा । १५ पूर्वभव । १६ क्षयशीलः । १७ आसक्तैः । १८ मूर्खः । १९ बहुदोषप्रदम् । २० आसन्नावसाना' । २१ तत्स्वरूपत्वम् । २२ कायेन । २३ आत्मानम् । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४६३ . देहवासो भयं नास्य यानमस्मान्म हद भयम् । देहिनः किल मार्गस्य विपर्यासोऽत्र निवृतेः॥ १६४॥ नीरूपोऽयं स्वरूपेण रूपी देहैररूपता । निर्वाणाप्तिरतो हेयो देह एव यथा तथा ॥१९५॥ बन्धः सर्वोऽपि संबन्धो भोगो रोगो रिपुर्वपुः । दीर्घमायासमत्यायुस्तृष्णाग्नेरिन्धनं धनम् ॥१९६॥ आदौ जन्म जरा रोगा मध्येऽन्तेऽप्यन्तकः खलः । इति चक्रकसंभ्रान्तिः जन्तोमध्येभवार्णवम् ॥१९७॥ भोगिनो भोगवद् भोगा न' भोगा नाम भोग्यकाः। एवं भावयतो भोगान् भूयोऽभूवन् भयावहाः॥१९८ निषेव्यमाणा विषया विषमा विषसन्निभाः । देदीप्यन्तेर "बुभुक्षाभिर्दीपनीय रिवौषधैः ॥१९९॥ न तृप्तिरेभिरित्येष एव दोषो न पोषकाः । तृषश्च विषवल्लाः संसृतेश्चावलम्बनम् ॥२०॥ वनितातनुसंभूतकामाग्निः स्नेहसेचनैः । कामिनं भस्मसाभावमनीत्वा न निवर्तते ॥२०१॥ जन्तो गेषु भोगान्ते सर्वत्र विरतिर्धवा । स्थैर्य तस्याः प्रयत्नोऽस्य क्रियाशेषो' मनीषिणः॥२०२ प्रापितोऽप्यसकृदुःखं भोगैस्तानेव याचते । धत्तेऽवताडितोऽप्यहि मात्रास्या एव बालकः ॥२०३॥ और मूर्ख लोग ही भोगते हैं, इस शरीरका अन्त निकट है, यह असार है, और पापका आश्रय है, इसी शरीरके साथ इस आत्माका तादात्म्य हो रहा है, इसलिए अपवित्र पदार्थोंसे प्रेम करनेवाले इस प्राणीको धिक्कार हो, इस प्राणीको शरीरमें निवास करनेसे तो भय मालूम नहीं होता परन्तु उससे निकलने में बड़ा भय मालूम होता है, निश्चयसे इस संसारमें मोक्षमार्गसे विपरीत प्रवृत्ति ही होती है ।। १८७-१९४ ॥ यह जोव स्व स्वरूपकी अपेक्षा रूपरहित है परन्तु शरीरके सम्बन्धसे रूपी हो रहा है, रूपरहित होना ही मोक्षकी प्राप्ति है इसलिए जिस प्रकार बने उसी प्रकार शरीरको अवश्य ही छोड़ना चाहिए ।। १९५ ॥ सब प्रकार सम्बन्ध ही बन्ध है, भोग ही रोग है, शरीर ही शत्रु है, लम्बी आयु ही तो दुःख देती है और धन ही तृष्णारूपी अग्निका ई धन है ॥ १९६ ॥ इस जीवको पहले तो जन्म धारण करना पड़ता है, मध्यमें बुढ़ापा तथा अनेक रोग हैं और अन्त में दुष्ट मरण है, इस प्रकार संसाररूप समुद्रके मध्य में इस जीवको चक्रकी तरह भ्रमण करना पड़ता है ॥ १९७ ॥ भोग करनेवाले लोगोंको ये भोग सर्पके फणोंके समान हैं इसलिए भोग करने योग्य नहीं हैं इस प्रकार भोगोंका बार-बार विचार करनेवाले पुरुषके लिए ये भोग बड़े भयंकर जान पड़ने लगते हैं ।।१९८॥ ये सेवन किये हुए विषय विषके समान हैं, जिस प्रकार उत्तेजक ओषधियोंसे पेटकी आग भभक उठती है उसी प्रकार भोगकी इच्छाओंसे ये विषय भभक उठते हैं ॥ १९९ ॥ इन विषयोंसे तृप्ति नहीं होती केवल इतना ही दोष नहीं है किन्तु तृष्णाको पुष्ट करनेवाले भी हैं और संसाररूपी विषकी बेलको सहारा देनेवाले भी हैं ॥ २०० ॥ स्त्रियोंके शरीरसे उत्पन्न हुई यह कामरूपी अग्नि स्नेहरूपी तेलसे प्रज्वलित होकर कामो पुरुषोंको भस्म किये बिना नहीं लौटती है ॥२०१॥ भोग करनेके बाद इन समस्त भोगोंमें जीवोंको वैराग्य अवश्य होता है, बुद्धिमान् लोगोंको जो तपश्चरण आदि क्रिया करन: पड़ती है वे सब इस वैराग्यको स्थिर रखनेका उपाय ही है ॥ २०२ ॥ यद्यपि यह जीव भोगोंसे अनेक बार दुःखको प्राप्त है तथापि ये जीव उन्हीं भोगोंको चाहते हैं सो ठीक ही है क्योंकि माता बालकको जिस पैरसे ताड़ती हैं बालक उसी-उसी प्रकार माताके चरणको पकड़ते हैं ॥२०३। १ शरीरे निवसनम् । २ निर्गमनम् । ३ देहवासात् । ४ व्यत्ययः । ५ देहिनि । ६ येन केन प्रकारेण । ७ पुत्रमित्रादिसंबन्धः । ८ भवार्णवे ल०, अ०, प०। ९ सर्पस्य । १० शरीरवत् । फणवद् वा । 'भोगः सुखे स्त्रियादिभृतावहेश्च फणकाययोः' इत्यभिधानात् । ११ भोगा नाम न भोग्यकाः ल० । १२ भृशं दहन्ति । १३ भोक्तुमिच्छाभिः । १४ दीपनहेतुभिः । १५ भोगैः । १६ तृष्णायाः । १७ स्नेहः प्रीतिः तैलं च । स्नेहसेवनैः अ०, स० । स्नेहदीपनैः ५०, ल० । १८ सर्वेषु । १९ अप्रीतिः । २० विरतेः । २१ अनुष्ठानशेषः । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ आदिपुराणम अध्रुवत्वं गुणं मन्ये भोगायुः 'कायसंपदाम् । ध्रुवेप्वेषु कुतो मुक्तिविना मुक्तेः कुतः सुखम् ॥२०४॥ विसम्भजननैः पूर्व पश्चात् प्राणार्थहारिभिः। पारिपन्थिकसङ्काशेर्विपयैः कस्य नापदः ॥२०५॥ नदुःखस्यैव माहात्म्यं स्यात् सुखं विषयैश्च यत् । यन्कारबल्लिका स्वादुःप्राभवं ननु तत्क्षुधः ॥२०६॥ संकल्पसुग्घसंतोषाद् विमुखस्वात्मजात् सुखान् । गुञ्जाग्नितापसंतुष्टशाखामृगसमी जनः ॥२०७॥ पदास्ति निर्जरा नासौ युक्त्यै बन्धच्युतेविना। तच्च्युतिश्च हतबन्धहेतोस्तनद्धतौ यते ॥२८॥ केन मोक्षः कथं जीव्यं कुतः सौख्यं क्व वा मतिः । 'परिग्रहाग्रहग्राहगृहीतस्य भवार्णवे ॥२०१॥ किं भव्यः किमभन्योऽयमितिसंशेरत बुधाः। ज्ञात्वाऽप्यनित्यतां लक्ष्मीकटाक्षशरशायिते ॥२१०॥ अयं कायद्रुमः ' कान्ताव्रततीततिवेष्टितः। जरित्वा जन्मकान्तारकालाग्निग्रासमाप्स्यति ॥२११॥ यदि धर्मकणादित्थं निदानविषषितात् । सुखं धर्मामृताम्मोधिमज्जनेन किमुच्यते ॥२१२॥ भोग, आयु, काल और सम्पदाओंमें जो अस्थिरपना है उसे मैं एक प्रकारका गुण ही मानता हूँ क्योंकि यदि ये सब स्थिर हो गये तो मुक्ति कैसे प्राप्त होगी? और मुक्तिके बिना सुख कैसे प्राप्त हो सकेगा ? ।। २०४ ।। पहले तो विश्वास उत्पन्न करनेवाले और पीछे प्राण तथा धनका अपहरण करनेवाले शत्रु तुल्य इन विषयोंसे किसे भला आपदाएं प्राप्त नहीं होती हैं ? ॥ २०५ ॥ इन विषयोंसे जो सुख होता है वह दुःखका हो माहात्म्य है क्योंकि जो करेला मीठा लगता है वह भूखका ही प्रभाव है ।। २०६ ॥ यह जीव कल्पित सुखोंसे सन्तुष्ट होकर आत्मासे उत्पन्न होनेवाले वास्तविक सुखसे विमुख हो रहा है इसलिए यह जीव गुमचियोंके तापनेसे सन्तुष्ट होनेवाले वानरके समान हैं। भावार्थ - जिस प्रकार गुमचियोंके तापनेसे बन्दरकी ठण्ड नहीं दूर होती है उसी प्रकार इन कल्पित विषयजन्य सुखोंसे प्राणियोंकी दुःख-रूप परिणति दूर नहीं होती है ? ॥२०७॥ इस जीवके निर्जरा तो सदा होती रहती है परन्तु बन्धका अभाव हुए बिना वह मोक्षका कारण नहीं हो पाती है, बन्धका अभाव बन्धके कारणोंका नाश होनेसे हो सकता है इसलिए मैं बन्धके कारणोंका नाश करने में ही प्रयत्नशील हूँ॥२०८॥ इस संसाररूपी समुद्रमें जिन्हें परिग्रहके ग्रहण करने रूप पिशाच लग रहा है उन्हें भला मोक्ष किस प्रकार मिल सकता है ? उनका जीवन किस प्रकार रह सकता है ? उन्हें सुख कहाँसे मिल सकता है और उन्हें बुद्धि हो कहाँ उत्पन्न हो सकती है ? ॥ २०९ ॥ लक्ष्मीके कटाक्षरूपी बाणोंसे सुलाये हुए ( नष्ट हुए ) पुरुष में अनित्यताको जानकर भी विद्वान् लोग 'यह भव्य है ? अथवा अभव्य है ?' इस प्रकार व्यर्थ संशय करने लगते हैं ॥ २१० ॥ स्त्रीरूपी लताओंके समूहसे घिरा हुआ यह शरीररूपी वृक्ष संसाररूपी अटवीमें जीर्ण होकर कालरूपी अग्निका ग्रास हो जायगा ॥२११।। जब कि निदानरूपी विषसे दूषित कर्मके एक अंशसे मुझे ऐसा सुख मिला है तब धर्मरूपी अमृतके समुद्रमें अवगाहन करनेसे जो सुख प्राप्त होगा उसका तो १ काल - ल० । २ विश्वासजनकैः । ३ शत्रुसदृशैः । ४ न विपत्तयः । ५ कटुकास्वादः शाकविशेषः । कारवेल्लिकं स्वादु ५०, द०, स०, अ०, ल०। ६ बुभुक्षायाः । ७ विमुखश्चात्मजान् ल०, ५०, इ०, अ० । ८ तत् कारणात् । ९ यत्नं करोमि । १० जीवनम् । ११ परिग्रहस्वीकारनक्रस्वीकृतस्य । १२ विशिष्टेष्टपरिणामेन कि भविष्यति । १३ संशयं कुर्वन्ति । १४ अपाङ्गदर्शनवाणतनूकृतशरीरे पुंसि । १५ भार्यालता। १६ जीर्णीभूत्वा । १७ यमदावाग्निः । १८ धर्मलेशात् । १९ कतिजन्मनि कुबेरमित्रेण स्वेन कृतदानपुण्यस्यकांशः कपोतस्य दत्तः विद्याधरविमानं विलोक्य कपोतः श्रेष्ठिदत्तपुण्यांशात् मम विद्याधरत्वं भवत्विति कृतनिदानविषदूषितत्वात् । मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धनके कारण है। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद् चत्वारिंशत्तमं पर्व ४६५ 'अवोधद्वेषरागात्मा संसारस्तद्विपर्ययः। मोक्षश्चेद वीक्षितो विद्भिः कः क्षेपो मोक्षसाधन ॥२१३॥ यदि देशादिसाकल्ये न तपस्तत्पुनः कुतः । मध्येऽर्णवं यतो वेगात् कराग्रच्युतरत्नवत् ॥२१४॥ "आत्मँस्त्वं परमात्मानमात्मन्यात्मानमात्मना । हित्वा दुरात्मतामात्मनीन ध्वनि चरन् कुरु ॥२१॥ इति संचिन्तयन् गत्वा पुरं परमतत्ववित् । सुवर्णवर्मणे राज्यं साभिषेक वितीर्य सः ॥२१६॥ अवतीय' महीं प्राप्य श्रीपुरं श्रीनिकेतनम् । दीक्षां जैनेश्वरी प्राप श्रीपालगुनगंनिधी ॥२१॥ परिग्रहग्रहान्मुक्तो दीक्षित्वा स तपोऽशुभिः । हिरण्यवर्मा 'घमांशुनिर्मलो उपटान नराम् ॥२८॥ प्रभावती च तन्मात्रा "गुणवत्यास्ततोऽगमत् । कुतश्चन्द्रमसं मुक्या चन्द्रिकायाः स्थितिः पृथक् ॥ सद्वृत्तस्तपसा दीप्तो दिगम्बरविभूषणः । निस्संगो व्योमगाम्येकविहारी विश्व इन्दितः ॥२२०॥ नित्योदयो बुधाधीशो विश्वदृश्वा विरोचनः । स कदाचित् गा मागच्छन्मोदयन परीकिणीम्॥२२१॥ कहना ही क्या है ? ॥२१२॥ यह संसार अज्ञान, द्वेप और राग स्वरूप है तथा मोक्ष इससे विपरीत है अर्थात् सम्यग्ज्ञान और समता स्वरूप है । यदि विद्वान् लोग ऐसा देखते रहें तो फिर मोक्ष होनेमें देर ही क्या लगे ? ॥२१३॥ जिस प्रकार वेगसे जाते हुए पुरुषके हाथसे बीच समुद्रमें छूटा हुआ रत्न फिर नहीं मिल सकता है उसी प्रकार देश-काल आदिकी सामग्री मिलनेपर भी यदि तप नहीं किया तो वह तप फिर कैसे मिल सकता है ? ।।२१४। इसलिए हे आत्मन्, तू आत्माका हित करनेवाले मोक्षमार्गमें दुरात्मता छोड़कर अपने आत्माके द्वारा अपने ही आत्मामें परमात्मा रूप अपने आत्माको ही स्वीकार कर ॥२१५॥ इस प्रकार चिन्तवन करते हुए परम तत्त्वके जाननेवाले राजा हिरण्यवर्माने अपने नगरमें जाकर अपने पुत्र सुवर्णवर्माके लिए अभिषेकपूर्वक राज्य सौंपा और फिर विजयार्द्ध पर्वतसे पृथ्वीपर उतरकर लक्ष्मीके गृहस्थरूप श्रीपुर नामके नगरमें श्रीपाल गुरुके समीप जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ।।२१६२१७॥ परिग्रहरूपी पिशाचसे युक्त हो दोक्षा धारण कर सूर्यके समान निर्मल हुआ वह राजा हिरण्यवर्मा तपश्चरणरूपी किरणोंसे बहुत ही देदीप्यमान हो रहा था ॥२१८॥ प्रभावतीने भी हिरण्यवर्माकी माता-शशिप्रभाके साथ गुणवती आर्यिकाके समीप तप धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि चन्द्रमाको छोड़कर चाँदनीकी पृथक् स्थिति भला कहाँ हो सकती है ? ॥२१९॥ वे हिरण्यवर्मा मुनिराज ठीक सूर्यके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार सूर्य सद्वृत्त अर्थात् गोल है उसी प्रकार वे मुनिराज भी सवृत्त अर्थात् निर्दोष चारित्रको धारण करनेवाले थे। जिस प्रकार सूर्य तप अर्थात् गरमीसे देदीप्यमान रहता है उसी प्रकार मुनिराज भी तप अर्थात् अनशनादि तपश्चरणसे देदीप्यमान रहते थे, जिस प्रकार सूर्य दिगम्बर अर्थात् दिशा और आकाशका आभूषण है उसी प्रकार मुनिराज भी दिगम्बर अर्थात् दिशारूप वस्त्रको धारण करनेवाले निर्ग्रन्थ मुनियोंके आभूषण थे, जिस प्रकार सूर्य निःसंग अर्थात् सहायतारहित अकेला होता है उसो प्रकार मुनिराज भी निःसंग अर्थात् परिग्रहरहित थे, जिस प्रकार सूर्य आकाशमें गमन करता है उसी प्रकार चारणऋद्धि होनेसे मुनिराज भी आकाशमें गमन करते थे, जिस प्रकार सूर्य अकेला ही घूमता है उसी प्रकार मुनिराज भी अकेले ही घूमते थे - एकविहारी थे, जिस प्रकार सूर्यको सब वन्दना करते हैं उसी प्रकार मुनिराजको भी सब वन्दना १ अज्ञान । २ बुधैः । ३ कालयापना। ४ सुदेशकुलजात्यादिसामग्र्ये । ५ गच्छतः । ६, आत्मन् स्वं ल० । ७ आत्महिते । ८ मार्गे। ९ वरं ल०, प० । रतिं कुरु अ०, स०। १० धान्यकमालवनात् निजनगरं प्राप्य । ११ विजयाचिलात् भुवं प्राप्य । १२ श्रीगृहम् । १३ आदित्यः । १४ हिरण्यवर्मणो जनन्या शशिप्रभया सह । १५ गुणवत्यापिकायाः समीपे । १६ रविपक्षे दिशश्च अम्बरं च विभूषयतः ति । '१७ गगनचारिणः । १८ सर्वकालोत्कृष्ट चोधः । १९ जगच्चक्षुः । २० रविरिव । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ आदिपुराणम् सप्रमा चन्द्रलेखेव सह तत्र प्रभावती । गुणवत्वा समागस्त संगतिः स्याद्यदृच्छया ॥२२२॥ गुणवत्यार्यिकां दृष्ट्वा नत्वोक्ता प्रियदत्तया। कुतोऽसौ गणिनीत्याख्यत् स्वर्गतेति प्रभावती ॥२२३॥ तच्छुत्वा नेत्रभूता नौ सैवेति शुचमागता । कुतः प्रीतिस्तयेत्युक्ता साऽब्रवीत् प्रियदत्तया ॥२२४॥ न स्मरिष्यसि किं पारावतद्वन्द्वं भवद्गृहे ।''तत्राहं रतिषेणेति तच्छुत्वा विस्मिताऽवदत् ॥२२५॥ क्वासौ रतिवरोऽद्यति सोऽपि विद्याधराधिपः । हिरण्यवर्मा कर्मारिय॑तिरत्रेति साब्रवीत् ॥२२६॥ प्रियदत्ताऽपि तं गत्वा वन्दित्वैत्य महामुनिम् । प्रभावती परिप्रश्नात् पत्युरन्याह वृत्तकम् ॥२२७॥ विजया गिोरस्य गान्धारनगरादिह । विहाँ रतिषेणोऽमा गान्धार्या प्रिययाऽगम ॥२२८॥ गान्धारी सर्पदष्टाऽहमिति तत्र मृषा स्थिता । मन्त्रौषधीः प्रयोज्यास्याः श्रष्टी विद्याधरश्व सः ॥२२॥ करते थे, जिस प्रकार सूर्यका नित्य उदय होता है उसी प्रकार मुनिराजके भी ज्ञान आदिका नित्य उदय होता रहता था, जिस प्रकार सूर्य बुध अर्थात् बुधग्रहका स्वामी होता है उसी प्रकार मुनिराज भी बुध-अर्थात् विद्वानोंके स्वामी थे, जिस प्रकार सूर्य विश्वदृश्वा अर्थात् सब पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला है उसी प्रकार मुनिराज भी विश्वदृश्वा अर्थात् सब पदार्थोंको जाननेवाले थे, जिस प्रकार सूर्य विरोचन अर्थात् अत्यन्त देदीप्यमान रहता है अथवा विरोचन नामको धारण करनेवाला है उसी प्रकार मुनिराज भी विरोचन अर्थात् अत्यन्त देदीप्यमान थे अथवा रुचिरहित उदासीन थे और जिस प्रकार सूर्य पुण्डरीकिणी अर्थात् कमलिनीको प्रफुल्लित करता है उसी प्रकार मुनिराज भी पुण्डरीकिणी अर्थात् विदेह क्षेत्रकी एक विशेष नगरीको आनन्दित करते थे इस प्रकार सूर्यकी समानता रखनेवाले मुनिराज हिरण्यवर्मा किसी समय पुण्डरीकिणी नगरीमें पधारे ॥२२०-२२१॥ प्रभासहित चन्द्रमाकी कलाके समान आर्यिकाप्रभावती भी वहाँ आयी और गुणवती-गणिनीके साथ मिलकर रहने लगी सो ठीक ही है क्योंकि समागम अपनी इच्छानुसार ही होता है ॥२२२॥ गुणवती गणिनीको देखकर प्रियदत्ताने नमस्कार कर पूछा कि संघाधिकारिणी अमितमति कहाँ हैं ? तब उसने कहा कि 'वह तो स्वर्ग चली गयी है' यह सुनकर प्रभावती कुछ शोक करने लगी और कहने लगी कि 'हम दोनोंकी आँखें वहीं थी,' तब प्रियदत्ताने पूछा कि उनके साथ तुम्हारा प्रेम कैसे हुआ ? उत्तरमें प्रभावती कहने लगी कि आपको क्या स्मरण नहीं है आपके घरमें जो कबूतर-कबूतरीका जोड़ा रहता था उनमें-से मैं रतिषणा नामकी कबूतरी हूँ, यह सुनकर प्रियदत्ता आश्चर्यसे चकित होकर कहने लगी कि 'वह रतिवर कबूतर आज कहाँ है तब प्रभावतीने कहा कि वह भी विद्याधरोंका राजा हिरण्यवर्मा हुआ है और कर्मरूपी शत्रुओंको नाश करनेवाला वह आज इसी पुण्डरीकिणी नगरीमें विराजमान है। प्रियदत्ताने भी जाकर महामुनि-हिरण्यवर्माकी वन्दना की और फिर प्रभावतीके पूछनेपर अपने पतिका वृत्तान्त इस प्रकार कहने लगी ।।२२३-२२७॥ एक रतिषेण नामका विद्याधर अपनी स्त्री गान्धारीके साथ-साथ इसी विजया पर्वतके गान्धार नगरसे विहार करनेके लिए यहाँ आया था ॥२२८।। मुझे सर्पने काट खाया है इस प्रकार झूठ-झूठ बहाना कर गान्धारी यहाँ पड़ रही, सेठ कुबेरकान्त और विद्याधरने बहुत-सी औषधियोंका प्रयोग किया परन्तु गान्धारीने मायाचारीसे कह दिया कि 'अभी मुझे १ पुण्डरीकिण्याम् । २ समागतवती संगतवती वा। ३ गुणवत्यादिका ट० । गुणवती शशिप्रभावत्यायिकाः । ४ क्वास्ते । ५ यशस्वती। ६ अनन्तमतिसहिताऽमितमत्यायिका। ७ गुणवती जगाद। ८ नाकं प्राप्तेति । ९ नेत्रसदृशी। १० प्रियदत्ता। ११ पारावतद्वन्द्वे । १२ कर्मारघाति ल०, प० । १३ अस्मिन् पुरे तिष्ठतीति। १४ प्रभावती । १५ हिरण्यवर्ममुनिम् । १६ पुनरागत्य । १७ पुण्डरीकिण्याम् । १८ कुबेरकान्तः । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व मायया नास्मि शान्तेति तद्वाक्यात् खेदमागतौ । आह तु स्त्रपतौ याते वन शक्तिमदौषधम् ॥२३०॥ . गान्धारी बन्धकीभाव मुपेत्य स्मरविक्रियाम् । दर्शयन्ती निरीक्ष्याह वणिग्वयों दृढव्रतः ॥२३१॥ . अहं वर्षवरो वेत्सि न किं मामित्युपायवित् । व्यधाद् विरक्तचित्तां तां तदेव हि धियः फलम् ॥२३२॥ तदानीमागते पत्यौ स्वे स्वास्थ्यमहमागता । पूर्वोषधप्रयोगेत्युक्त्वाऽगात् सपतिः पुरम् ॥२३३॥ दयितान्तकुबेराख्यो मित्रान्तश्च कुबेरवाक् । परः कुबेरदत्तश्च कुबेरश्चान्तदेववाक् ॥२३॥ कुबेरादिप्रियश्चान्यः पञ्चते संचितश्रताः । कलाकौशलमापन्नाः संपन्ननवयौवनाः ॥२३॥ एतैः स्वसूनुमिः सार्धमारुह्य शिविका वनम् । धृत्वा कुबे रश्रीगर्म मां विहाँ समागताम् ॥२३६॥ दृष्ट्वा कदाचिद् गान्धारी पृथक् पृष्टवती पुमान् । त्वच्छ्रेष्ठी'नेति तत्सत्यमुत नेत्यन्ववादिशम्॥२३७॥ तत्सत्यमेव ' मत्तोऽन्यां प्रत्यसौ न पुमानिति । तदाकर्ण्य विरज्यासौ सपतिः संयमं श्रिता ॥२३८॥ पुनस्तत्रागता दृष्टा दीक्षेयं केन हेतुना । तवेति सा मया पृष्टा प्रप्रणम्य प्रियोक्तिमिः ॥२३९॥ श्रेष्ट्येव ते तपोहेतुरिति प्रत्यब्रवीदसौ। निगूढं तद्वचः श्रेष्टी श्रुत्वाऽऽगत्य पुरः स्थितः ॥२४०॥ मामजैषीत् सखाऽसौ में 'क्वायेति परिपृष्टवान् । सोऽपि मत्कारणेनैव गृहीत्वेहागमत्तपः ॥२४॥ इति तद्वचनाच्छेष्ठी नृपश्चाभ्येत्य तं मुनिम् । वन्दित्वाधर्ममापृच्छय काललब्ध्या महीपतिः ॥२४२॥ शान्ति नहीं हुई है, यह सुनकर उसके पति रतिषणको बहुत दुःख हुआ। वह अधिक शक्तिवाली औषधि लानेके लिए वनमें चला गया, इधर उसके चले जानेपर गान्धारीने कुलटापन धारण कर कामकी चेष्टाएँ दिखायीं, यह देखकर उपायको जाननेवाले और अपने व्रतमें दृढ़ रहनेवाले सेठ कुबेरकान्तने कहा कि अरे, मैं तो नपुंसक हूँ - क्या तुझे मालूम नहीं ? ऐसा कहकर सेठने उसे अपनेसे विरक्तचित्त कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धि का फल यही है ॥२२९२३२॥ इतने में ही उसका पति वापस आ गया, तब गान्धारीने कह दिया कि मैं पहले दी हुई औषधिके प्रयोगसे ही स्वस्थ हो गयी हूँ ऐसा कहकर वह पतिके साथ नगरमें चली गयी ॥२३३।। कुबेरदयित, कुबेरमित्र, कुबेरदत्त, कुबेरदेव और कुबेरप्रिय ये पाँच मेरे पुत्र थे। ये पाँचों ही समस्त शास्त्रोंको जाननेवाले, कला-कौशल में निपुण तथा नव यौवनसे सुशोभित थे। किसी एक दिन जब कि कुबेरश्री कन्या मेरे गर्भमें थी तब मैं अपने पूर्वोक्त पुत्रोंके साथ पालकी में बैठकर वनमें विहार करनेके लिए गयी थी उसी समय गान्धारीने मुझे देखकर और अलग ले जाकर मुझसे पूछा कि 'आपके सेठ पुरुष नहीं हैं' क्या यह बात सच है अथवा झूठ ? तब मैंने उत्तर दिया कि बिलकुल सच है क्योंकि वे मेरे सिवाय अन्य स्त्रियोंके प्रति पुरुष नहीं हैं यह सुनकर उसने विरक्त हो अपने पतिके साथ-साथ संयम धारण कर लिया ॥२३४-२३८|| किसी एक दिन वह गान्धारी आर्यिका यहाँ फिर आयी तब मैंने दर्शन और प्रणाम कर प्रिय वचनों-द्वारा पूछा कि 'आपने यह दीक्षा किस कारणसे ली है ?' उसने उत्तर दिया था कि 'मेरे तपश्चरणका कारण तेरा सेठ ही है, सेठ भी गुप्तरूपसे यह बात सुनकर सामने आकर खड़े हो गये और पूछने लगे कि जिसने मुझे जीत लिया है ऐसा मेरा मित्र आज कहाँ है तब गान्धारी आयिकाने कहा कि वे भी मेरे ही कारण तप धारण कर यहाँ पधारे हैं. ॥२३९-२४१।। यह सुनकर सेठ और राजा दोनों ही उन मुनिराजके समीप गये और दोनोंने १ -मागते ल० । तौ द्वौ खेदमानतौ अ०, स०। २ विजया वनम् । ३ विषापहरणसामर्थ्यवन्महौषधम् । ४ गान्धारी ल० । ५ कुलटात्वम् । ६ दर्शयन्ती ल०। ७ वर्षधरः ल० । षण्डः । ८ पतिसहिता। ९ कुबेरदेवः । १० कुबेरश्रियः संबन्धि गर्भम् । ११ एकान्ते । १२ पुमान् न भवतीति । १३ असत्यं वा । १४ मत् ।' १५ गान्धारी। १६ पुण्डरीकिण्याम् । १७ जितवती। १८ मम मित्रं रतिषेणः । १९ कुत्र तिष्ठतीति । २० गतस्तपः ल०, अ०, प०, स० । २१ लोकपालः । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ आदिपुराणम् गुणपालाय तद्राज्यं दया संयममादधे । निकटे रतिषेणस्य विद्याधरमुनीशितुः ॥२४३॥ पञ्चमं स्वपदे सूनुं नियोज्यान्यैः सहात्मजैः । ययौ श्रेष्ठी' च तत्रैव दीक्षां मोक्षाभिलाषुकः ॥२४४॥ तथोक्त्वा कान्तवृत्तान्तं सा समुत्पन्नसंविदा । विरज्य गृहसंवासात् कुबेरादिश्रियं सतीम् ॥२४५॥ "गुणपालाय दत्वा स्वां सुतां गुणवती' श्रिता। प्रभावत्युपदेशेन प्रियदत्ताऽप्यदीक्षत ॥२४६॥ मुनि हिरण्यवर्माणं कदाचित् प्रतभूतले'। दिनानि सप्त संगोर्य प्रतिमायोगधारिणम् ॥२४॥ वन्दित्वा नागराः 'सर्व तत्पूर्वभवसंकथा । कुर्वाणा पुरमागच्छन् विद्यच्चोरोऽप्युदीरितात् ॥२४८॥ चेटक्याः प्रियदत्तायास्तन्मुनेः प्राक्तनं भवम् । विदित्वा तद्गतक्रोधात्तदोत्पन्नविभङ्गकः ॥२४९॥ मुनिपृथकप्रदेशस्था प्रतिमायोगमास्थिताम् । प्रभावतीं च संयोज्य चितिकायां दुराशयः ॥२५०॥ एकस्यामेव निक्षिप्याधाक्षीदधजिघृक्षया' । सोढ़वा तदुपसर्ग तौ विशुद्धपरिणामतः ॥२५१॥ स्वर्ग समुदपद्येतां क्षमया किं न जायते । "सुवर्णवर्मा तज्ज्ञात्वा विद्युच्चोरस्य निग्रहम् ॥२५२॥ करिष्यामीति कोपेन पापिनः संगरं व्यधात् । विदित्वाऽवधिबोधेन तत्तो स्वर्गनिवासिनी ॥२५३॥ प्राप्य संयमरूपेण सुतां धर्मकथादिभिः । तत्त्वं श्रद्धाप्य तं कोपादपास्य कृपयाऽऽहितौ ॥२५॥ ही वन्दना कर धर्मका स्वरूप पूछा। काललब्धिका निमित्त पाकर राजा लोकपालने अपने पुत्र गुणपालके लिए राज्य दिया और उन्हीं विद्याधर मुनि रतिषेणके निकट संयम धारण कर लिया ॥२४२-२४३॥ मोक्षके अभिलाषी सेठने भी अपने पाँचवें पुत्र - कुबेरप्रियको अपने पदपर नियुक्त कर अन्य सब पुत्रोंके साथ-साथ वहीं दीक्षा धारण की ॥२४४॥ इस प्रकार प्रियदत्ता अपने पतिका वृत्तान्त कहकर उत्पन्न हुए आत्मज्ञानके द्वारा गृहवाससे विरक्त हो गयी थी, उस सतीने अपनी कुबेरश्री पुत्री राजा गुणापलको दी और स्वयं गुणवती आर्यिकाके समीप जाकर प्रभावतीके उपदेशसे दीक्षा धारण कर ली ॥२४५-२४६।। किसी समय मुनिराज हिरण्यवर्माने सात दिनका नियम लेकर श्मशानभूमिमें प्रतिमा योग धारण किया, नगरके सब लोग उनकी वन्दना करनेके लिए गये थे। वन्दना कर उनके पूर्वभवकी कथाएँ कहते हुए जब सब लोग नगरको वापस लौट आये तब एक विद्युच्चोरने भी प्रियदत्ताकी चेटीसे उन मुनिराजका वृत्तान्त सुना, सुनकर उसे उनके प्रति कुछ क्रोध उत्पन्न हुआ और उसी क्रोधके कारण उसे विभंगावधि भी प्रकट हो गया, उस विभंगावधिसे उसने मुनिराजके पूर्वभवके सब समाचार जान लिये। यद्यपि मुनिराज प्रतिमायोग धारण कर अलग ही विराजमान थे और प्रभावती भी अलग विद्यमान थी तो भी उस दुष्टने पापसंचय करनेकी इच्छासे उन दोनोंको मिलाकर और एक ही चितापर रखकर जला दिया वे दोनों विशुद्ध परिणामोंसे उपसर्ग सहन कर स्वर्गमें उत्पन्न हुए सो ठीक ही है क्योंकि क्षमासे क्या-क्या नहीं होता ? जब सुवर्णवर्माको इस बातका पता चला तब उसने प्रतिज्ञा की कि मैं विद्युच्चोरका निग्रह अवश्य ही करूंगाउसे अवश्य ही मारूंगा। यह प्रतिज्ञा स्वर्गमें रहनेवाले हिरण्यवर्मा और प्रभावतीके जीव देवदेवियोंने अवधिज्ञानसे जान ली, शीघ्र ही संयमीका रूप बनाकर पुत्रके पास पहुँचे, दया १ -माददौ अ०, ल०, प०, स०, इ० । २ मुनाशिनः ल० । ३ चरमपुत्रं कुबेरप्रियम् । ४ कुबेरदयितादिभिः । ५ कुबेरकान्तः। ६ प्रियस्य वृत्तकम् । ७ प्रियदत्ता। ८ समुत्पन्नज्ञानेन । ९ सती ल० । १० लोकपालस्य सुताय । ११ गुणवत्यायिकाम् । १२ दीक्षामग्रहीत् । १३ चैत्यभूतले ल० । चितायोग्यमहीतले। परेतभूमावित्यर्थः । १४ प्रतिज्ञां कृत्वा । १५ नगरजनाः । १६ वचनात् । उदीरिताम् ल०, अ०, ५०, स०, इ० । १७ विभङ्गतः ल०. अ०, स०, इ० । १८ नित्यमण्डितचैत्यालयस्य पुरः प्रतिमायोगस्थितामित्यर्थः । प्रदेशस्थे ल०। १९ -मास्थितम् ल० । २० शवशय्यायाम् । २१ दहति स्म । २२ पापं गृहीतुमिच्छया । २३ कनकप्रभदेवकनकप्रभदेव्यो समुत्पन्नौ। २४ हिरण्यवर्मणः सुतः । २५ प्रतिज्ञामकरोत् । २६ हिरण्यवर्मप्रभावतीचरदेव देव्यौ । २७ विश्वास नीत्वा । २८ दयया स्वीकृती। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४६६ दिव्यरूपं समादाय निगद्य निजवृत्तकम् । प्रदायाभरणं तस्मै पराद्ध्यं स्वपदं गतौ ॥२५५॥ कदाचिद् वत्सविषये सुसीमा नगरे मुनेः । शिवघोषस्य कैवल्य मुदपाद्यस्तघातिनः ॥२५६॥ शक्रप्रिय शची मेनका च नत्वा जिनेश्वरम् । समाश्रित्य सुराधीशं स्थिते प्रश्नात् सुरेशितुः ॥२५७॥ अत्रैव सप्तमऽह्नि प्राक् समात्तश्रावकवते । नाम्ना पुष्पवती सान्त्यां प्रथमा पुष्पपालिता ॥२५॥ कुसुमावचयासक्ने वने साग्निहेतुना । मृते देव्यावजायेतामित्याहासौ स्म तीर्थकृत् ॥२६॥ प्रमावतीचरी देवी श्रुत्वा देवश्च तत्पतिः । स्वपूर्वभवसंबन्धं तत्रागातां समावनेः ॥२६०॥ निजान्यजन्मसौख्यानुमतदेशान्निजेच्छया । आलोकयन्तौ तत्सर्पसरोवणसमीपगौ ॥२६१॥ सह सार्थेन भीमाख्यं साधं दृष्ट्वा समागतम् । विनयेनाभिवन्द्यैनं धर्म तौ समपृच्छताम् ॥२६२॥ मुनिस्तद्वचनं श्रुत्वा नाहं धर्मोपदेशने । सर्वागमार्थविकार्येऽसमर्थो नवसंयतः ॥२६३॥ प्ररूपयिष्यते किंचित् स युष्मदनुरोधतः । मया तथापि श्रोतव्यं यथाशक्स्यवधानवत् ॥२६॥ इति सम्यक्त्वसत्पात्रदानादि श्रावकाश्रयम् ।' यमादियतिसंबन्धं धर्म गतिचतुष्टयम् ॥२६५॥ तद्धेतुफलपर्यन्तं भुक्तिमुक्तिनिबन्धनम् । जीवादिद्रव्यतत्त्वं च यथावत् प्रत्यपादयत् ॥२६६॥ . धारण करनेवाले उन देव-देवियोंने धर्मकथाओं आदिके द्वारा तत्त्वश्रद्धान कराकर उसका क्रोध दूर किया और अन्त में अपना दिव्यरूप प्रकट कर अपना सब हाल कहा तथा उसे बहुमूल्य आभूषण देकर दोनों ही अपने स्थानपर चले गये ॥२४७-२५५॥ किसी एक दिन वत्स देशमें सुसीमानगरीके समीप घातिया कर्म नष्ट करनेवाले शिवघोष मुनिराजको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ॥२५६॥ उस उत्सवमें शची और मेनका नामकी देवांगनाएँ भी इन्द्रके साथ आयीं और श्रीजिनेन्द्रदेवको नमस्कार कर इन्द्रके पास ही बैठ गयीं। इन्द्रने भगवानसे पूछा कि ये दे किस कारणसे देवियाँ हुई हैं ? तब तीर्थ कर देव कहने लगे कि दोनों ही पूर्वभवमें मालिनकी लड़कियाँ थीं, पहलीका नाम पुष्पपालिता था और दूसरीका पुष्पवती। इन दोनोंने आजसे सातवें दिन पहले श्रावकव्रत लिये थे। एक दिन ये वनमें फूल तोड़ने में लगी हुई थीं कि सर्परूपी अग्निके कारण मर गयीं और मरकर देवियाँ हुई हैं ॥२५७-२५६॥ हिरण्यवर्मा और प्रभावतीके जीव जो देव-देवी हुए थे उन्होंने भी उस समय समवसरण में अपने पूर्वभवके सम्बन्ध सुने और फिर दोनों ही सभाभमिसे निकलकर इच्छानुसार पूर्वभव सम्बन्धी सुखानुभवनके स्थानोंको देखते हुए सर्पसरोवरके समीपवाले वनमें पहुँचे ॥२६०-२६१॥ उस वनमें अपने संघके साथसाथ एक भीम नामके मुनि भी आये हुए थे, दोनोंने उन्हें देखकर विनयपूर्वक नमस्कार किया और धर्मका स्वरूप पूछा ॥२६२॥ उनके वचन सुनकर मुनि कहने लगे कि अभी नवदीक्षित हूँ, धर्मका उपदेश देना तो समस्त शास्त्रोंका अर्थ जाननेवाले मुनियोंका कार्य है इसलिए यद्यपि मैं धर्मोपदेश देने में समर्थ नहीं हूँ तथापि तुम्हारे अनुरोधसे शक्तिके अनुसार कुछ कहता हूँ तुम लोगोंको सावधान होकर सुनना चाहिए ॥२६३-२६४॥ यह कहकर उन्होंने सम्यग्दर्शन तथा सत्पात्रदान आदि श्रावक सम्बन्धी और यम आदि मुनि सम्बन्धी धर्मका निरूपण किया। चारों गतियाँ, उनके कारण और फल, स्वर्ग मोक्षके निदान एवं जीवादि द्रव्य और तत्त्व इन १ दिव्यं रूपं ल०, ५०, इ० । २ समुत्पन्नम् । ३ इन्द्रस्य वल्लभे । ४ इमे पूर्वजन्मनिके इति इन्द्रस्य प्रश्नवशात् तीर्थकृदाह । ५ आ सप्तदिनात् पूर्वमित्यर्थः । ६ पूर्वजन्मनि । ७ सम्य स्वीकृत । ८ सान्त्या ल० । ९ पुष्पकरण्डकनाम्नि वने पुष्पवाटीकुसुमावचयार्थमासक्ते इत्यर्थः । १० अहिविषाग्निकारणेन । ११ समसवरणात् । १२ वणिक्छिबिरेण । १३ धर्मः । १४ क्रियाविशेषणम् । १५ संयम । १६ मुक्तिकारणम् । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० आदिपुराणम् तच्श्रुत्वा पुनरप्याभ्यां भवता केन हेतुना। प्रव्रज्येत्यनुयुक्तोऽसौ वक्तुं प्रक्रान्तवान् मुनिः ॥२६७॥ विदेहे पुष्कलावत्यां नगरी पुण्डरीकिणी । तत्राहं भीमनामाऽऽसं स्वपापाद् दुर्गते कुले ॥२६८॥ अन्येार्यतिमासाद्य किंचित्कालादिलब्धितः । श्रुत्वा धर्म ततो लेभे गृहिमूलगुणाष्टकम् ॥२६९॥ तज्ज्ञात्वा मत्पिता पुत्र किमेभिर्दुष्करर्वृथा । दारिद्यकर्दमालिप्तदेहानां निष्फलैरिह ॥२७॥ व्रतान्येतानि दास्यामस्तस्मै स्वर्लोककाक्षिणे । ऐहिकं फलमिच्छामो भवेद्य नेह जीविका ॥२७१॥ व्रतं दत्तवतः स्थानं तस्य मे दर्शयत्यसी । मामवादीद गृहीत्वैनमावजन्नहमन्तरे ॥२७२॥ वज्रकेतोर्महावीथ्यां देवतागृहकुक्कुटम् । भास्वत्किरणसंशोप्यमाणधान्योपयोगिनम् ॥२७३॥ पुंसो हतवतो दण्डं जिनदेवार्पितं धनम् । लोभादपङ्कवानस्य धनदेवस्य दुर्मतेः ॥२७॥ रसनोत्पाटनं हारमनयमणिनिर्मितम् । श्रेष्टिनः प्राप्य चौर्येण गणिकायै समर्पणात् ॥२७॥ रतिपिङ्गलसंज्ञस्य शूले तलवरार्पणम् । निशि मातुः कनीयस्याः कामनिलप्तसंविदः ॥२७६॥ पुण्या गेहं गतस्याङ्गच्छेदनं पुररक्षिणः । क्षेत्रलोभानिजे ज्येष्ठे मृते दण्डहते सति ॥२७७॥ लोलस्यान्वर्थसंज्ञस्य विलाप" देशनिर्गमे । द्यूते सागरदत्तेन प्रमते निर्जिते धने ॥२७॥ सबका भी यथार्थ प्रतिपादन किया ॥२६५-२६६॥ यह सुनकर उन देव-देवियोंने फिर पूछा कि आपने किस कारणसे दीक्षा धारण की है इस प्रकार पूछे जानेपर मुनिराज कहने लगे ॥२६७॥ विदेहक्षेत्रके पुष्कलावती देशमें एक पुण्डरीकिणी नगरी है वहाँपर मैं अपने पापोंके कारण एक अत्यन्त दरिद्र कुलमें उत्पन्न हुआ था। मेरा नाम भीम है ॥२६८।। किसी अन्य दिन थोड़ी-सी काललब्धि आदिके निमित्त से मैं एक मुनिराजके पास पहुँचा और उनसे धर्मश्रवण कर मैंने गृहस्थोंके आठ मूल गुण धारण किये ॥ २६६ ।। जब हमारे पिताको इस बातका पता चला तब वे कहने लगे कि "दरिद्रतारूपी कीचड़से जिनका समस्त शरीर लिप्त हो रहा है ऐसे हम लोगोंको इन व्यर्थके कठिन व्रतोंसे क्या प्रयोजन है । इनका फल इस लोकमें तो मिलता नहीं है, इसलिए आओ, ये व्रत स्वर्गलोककी इच्छा करनेवाले उसी मुनिके लिए दे आवें। हम तो इस लोकसम्बन्धी फल चाहते हैं जिससे कि जीविका चल सके ॥२७०-२७१॥ व्रत देनेवाले गुरुका स्थान मुझे दिखा" ऐसा मेरे पिताने मुझसे कहा तब मैं उन्हें साथ लेकर चला। रास्तेमें मैंने देखा कि वज्रकेतु नामके एक पुरुषको दण्ड दिया जा रहा है। पितासे मैंने उसका कारण पूछा, तब कहने लगे कि यह सूर्यकी किरणोंमें अपना अनाज सुखा रहा था और किसी मन्दिरका मुर्गा उसे खा रहा था। इसने उसे इतना मारा कि बेचारा मर गया। इसलिए ही लोग इसे दण्ड दे रहे हैं। आगे चलकर देखा कि जिनदेवके द्वारा रखी हुई धरोहरको लोभसे छिपानेवाले दूर्बद्धि धनदेवकी जीभ उखाड़ी जा रही है। कुछ आगे चलकर देखा कि एक सेठके घरसे बहमल्य मणियोंका हार चुराकर वेश्याको देनेके अपराधमें रतिपिंगलको कोतवाल शूलीपर चढ़ा रहा है, किसी जगह देखा कि कामवासनासे जिसका सब ज्ञान नष्ट हो गया है ऐसा एक कोतवाल रातमें अपनी माताकी छोटी बहनकी पुत्रीके घर गया था इसलिए राज्यकर्मचारी उसका अंग काट रहे हैं । दूसरी जगह देखा कि सार्थक नाम धारण करनेवाले एक लोल नामके किसानने खेतके लोभसे अपने बड़े लड़केको डण्डोंसे मार-मारकर मार डाला है, इसलिए उसे देशनिकालेकी सजा १ देवदेवीभ्याम् । २ पृष्टः । ३ प्रारभते स्म । ४ अभवम् । ५ दरिद्रे कुले। ६ अस्माकम् । ७ पितरम् । ८ अदन्तम् । भक्षयन्तमित्यर्थः । ९ जिनदेवाख्येन दत्तम् । १० वञ्चयतः । ११ निरस्तज्ञानस्य । १२ तलवरस्य । १३ लोलेन हते । १४ लोल इति नाम्नः । १५ परिदेवनम् । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४७१ दातुं समुद्रदत्तस्य निश्शक्तेरातपे क्रुधा । परिवर्द्धितदुर्गन्धधूमान्तर्वर्तिनश्चिरम् ॥२७॥ निरोधममयोद्धोषणायामानन्ददेशनात् । अङ्गकस्य नृपोरभ्रवातिनः करखण्डनम् ॥२८॥ आनन्दराजपुत्रस्य तद्भुक्त्याऽवस्कराशनम् । मद्यविक्रयणे बालं कंचिदाभरणेच्छया ॥२८१॥ हत्वा भूमौ विनिक्षिप्तवत्यास्तत्संविधानकम् । प्रकाशितवती स्वात्मजे शुण्डायाश्च निग्रहम् ॥२२॥ पापान्येतानि कर्माणि पश्यन् हिंसादिदोषतः । अत्रामुत्र च पापस्य परिपाकं दुरुत्तरम् ॥२८३॥ अवधार्यानभिप्रेतव्रतत्यागो भवाद् भयात् ।' भ्रषमोषमृषायोषाश्लेषहिंसादिदृषिताः ॥२८४॥ नात्रैव किन्त्वमुत्रापि ततश्चित्रवधोचिताः । अस्माकमपि दौर्गत्यं' प्राक्तनात् पापकर्मणः ॥२८५॥ इदं तस्मात् समुच्चेयं पुष्पं सच्चेष्टितैः पुरु । इति तं मोचयित्वाऽग्रहीषं दीक्षां मुमुक्षया ॥२८६॥ सद्यो गुरुप्रसादेन सर्वशास्त्राब्धिपारगः । विशुद्धमतिरन्येद्युः समीपे सर्ववेदिनः ॥२७॥ मदृष्टपूर्वजन्मानि समश्रौषं यथाश्रुतम् । कथयिष्याम्यहं तानि कर्नु वां कौतुकं महत् ॥२८८॥ इहैव पुष्कलावत्यां विषये पुण्डरीकिणीम् । परिपालयति" प्रीत्या वसुपालमहीभुजि ॥२८१॥ विद्युद्वेगाह्वयं चोरमवष्टभ्य करस्थितम् । धनं स्वीकृत्य शेषं च भवता दीयतामिति ॥२९॥ दी जा रही है और वह विलाप कर रहा है। आगे जानेपर देखा कि सागरदत्तने जुआमें समुद्रदत्तका बहुत-सा धन जीत लिया था परन्तु समुद्रदत्त देने में असमर्थ था इसलिए उसने क्रोधसे उसे बहुत देर तक दुर्गन्धित धुआँके बीच धूप में बैठाल रखा है, किसी जगह देखा कि आनन्द महाराजकी अभय घोषणा कराये जानेपर भी उनके पुत्र अंगकने राजाका मेढ़ा मारकर खा लिया है इसलिए उसके हाथ काटकर उसे विष्ठा खिलाया जा रहा है और अन्य स्थानपर देखा कि मद्य पीनेवाली स्त्रीने मद्य खरीदनेके लिए आभूषण लेनेकी इच्छासे किसी बालकको मारकर जमीनमें गाड़ दिया था, वह यह समाचार अपने पुत्रसे कह रही थी कि किसी राज कर्मचारीने उसे सुन लिया इसलिए उसे दण्ड दिया जा रहा है। हिंसा आदि दोषोंसे उत्पन्न हुए इन पाप कार्योंको देखकर मैंने निश्चय किया कि पापका फल इस लोक तथा परलोक दोनों ही जगह बुरा होता है। मैंने संसारके भयसे व्रत छोड़ना उचित नहीं समझा । मैं सोचने लगा कि हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीसेवन आदिसे दूषित हुए पुरुषोंको इसी जन्ममें अनेक प्रकारके वध-बन्धनका दुःख भोगना पड़ता हो सो बात नहीं किन्तु परलोकमें भी वहो दुःख भोगने पड़ते हैं, हमारी यह दरिद्रता भी तो पहलेके पापकर्मोसे मिली है, इसलिए सदाचारी पुरुषोंको इस पुण्यका अधिकसे अधिक संचय करना चाहिए यह सोचकर मैंने अपने पिताको छोड़कर मोक्षकी इच्छासे दीक्षा धारण कर ली है ।। २७२-२८६ ।। गुरुके प्रसादसे मैं शीघ्र ही सब शास्त्ररूपी समुद्रका पारगामी हो गया और मेरी बुद्धि भो विशुद्ध हो गयी। किसी अन्य दिन मैंने सर्वज्ञ देवके समीप दोषोंसे भरे हुए अपने पूर्वजन्म सुने थे सो उसीके अनुसार आप लोगोंका बड़ा भारी कौतुक करनेके लिए उन्हें कहता हूँ ॥ २८७-२८८ ॥ इसी पकलावती देशकी पण्डरीकिणी नगरीको राजा वसपाल बडे प्रेमसे पालन करते थे ।। २८९ ॥ किसी एक दिन कोतवालने विद्युद्वेग नामका चोर पकड़ा, उसके हाथमें जो धन था उसे लेकर कहा कि बाकीका धन और दो, धन न देनेपर रक्षकोंने उसे दण्ड दिया तब उसने १ घोषणायां सत्याम् । २ आनन्दाख्यनृपस्य निदेशनात् । ३ एलक( एडक )घातकस्य । ४ तद्भुक्त्वा इत्यपि पाठः । ५ गूथभक्षणम् । ६ मद्यव्यवहारनिमित्तम् । ७ बालघातिन्याः सुते । ८ मद्यपायिन्याः । ९ अनिष्टो व्रतत्यागो यस्य अननुमतव्रतत्याग इत्यर्थः । १० हिंसाचौर्यानृतभाषाब्रह्मबहुपरिग्रहः । रोषमोषमृषायोषा हिंसादिश्लेषादि"ल०। ११ दारिद्रयम् । १२ मोक्तुमिच्छया । १३ सर्वज्ञस्य । १४ शृणोमि स्म । १५ युवयोः । १६ रक्षति सति । १७ बलात्कारेण गृहीत्वा । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् १३ आरक्षिणो' निगृह्णीयुर्दत्तं विमतये धनम् । इत्यब्रवीत् स सोऽप्याह गृहीतं न मयेति तत् ॥२९१॥ त्रिमतेरेव तद्गेहं दृष्टवोपायेन केनचित् । दण्डकारणिकैः प्रोक्तं मृत्स्ना पात्रीत्रयोन्मितम् ॥२९२॥ शकृतो भक्षणं मल्लैस्त्रिशन्मुष्ट्यभिताडनम् । सर्वस्वहरणं चैतस्त्रयं जीवितवान्छया ॥ २९३॥ स सर्वमनुभूयायात् प्राणान्ते नारकीं गतिम् । विद्युच्चोरस्त्वया हन्यतामित्यारक्षको नृपात् ॥ २९४॥ लब्धादेशोऽप्यहं हन्मि' नैनं हिंसादिवर्जनम् । प्रतिज्ञातं मया साधोरित्याज्ञां नाकरोदसौ ॥ २९५ ॥ गृहीतोन्कोच'' इत्येष' चोरारक्षकयोर्नृपः । शृङ्खलाबन्धनं रुष्ट्वा कारयामास निर्घृणम् ॥२९६॥ त्वयाऽहं हेतुना केन हतो नेत्यनुयुक्तवान् । प्रतुष्ट्यारक्षकं चोरः सोऽप्येवं प्रत्यपादयत् ॥ २९७ ॥ एतत्पुरममुष्यैव राज्ञः पितरि रक्षति । गुणपाले महाश्रेष्ठी कुबेरप्रियसंज्ञया ॥ २६८ ॥ अत्रैव नाटकाचार्य तनूजा नाट्यमालिका । "आस्थायिकायां भावेन स्थायिनानृत्यदुद्वसम् ॥ २९९॥ तदालोक्य महोपालो बहुविस्मयमागमत् । गणिकोत्पलमालाख्यत् किमत्राश्चर्यमीश्वर ॥ ३००॥ श्रेष्ठिनोsस्य "मिथोऽन्येद्युः प्रतिमायोगधारिणः । सोपवासस्य पूज्यस्य गत्वा चालयितुं मनः ॥ ३०१ ॥ नाशकं तदिहाश्चर्यमित्याख्यद् भूभुजापि सा । गुणप्रिये वृणीष्वेति प्रोक्ता शीलाभिरक्षणम् ॥३०२॥ अभीष्टं मम देहीति तद्दत्तं व्रतमग्रहीत् । अन्यदा तद्गृह" सर्वरक्षिताख्यः समागमत् ॥ ३०३ ॥ ७ ४७२ कहा कि मैंने बाकीका धन विमतिके लिए दे दिया है । जब विमतिसे पूछा गया तब उसने कह दिया कि मैंने नहीं लिया है, इसके बाद कोतवालने वह धन किसी उपायसे विमतिके घर ही देख लिया, उसे दण्ड देना निश्चित हुआ, दण्ड देनेवालोंने कहा कि या तो मिट्टीकी तीन थाली भरकर विष्ठा खाओ, या मल्लोंके तीस मुक्कोंकी चोट सहो या अपना सब धन दो । जीवित रहने की इच्छा से उसने पूर्वोक्त तीनों दण्ड सहे और अन्तमें मरकर नरक गतिको प्राप्त हुआ । राजाने एक चाण्डालको आज्ञा दी कि तू विद्युच्चोरको मार डाल, परन्तु आज्ञा पाकर भी उसने कहा कि मैं इसे नहीं मार सकता क्योंकि मैंने एक मुनिसे हिंसादि छोड़नेकी प्रतिज्ञा ले रखी है ऐसा कहकर उसने जब राजाकी आज्ञा नहीं मानी तब राजाने कहा कि इसने कुछ घूस खा ली है इसलिए उसने क्रोधित होकर चोर और चाण्डाल दोनोंको निर्दयतापूर्वक साँकलसे बँधवा दिया ।। २९० - २९६ ॥ चोरने सन्तुष्ट होकर चाण्डालसे पूछा कि तूने किस कारणसे मुझे नहीं मारा तब चाण्डाल इस प्रकार कहने लगा कि ॥ २९७ ॥ पहले इस नगरकी रक्षा इसी राजाके पिता गुणपाल करते थे और उनके पास कुबेरप्रिय नामका एक बड़ा सेठ रहता था || २९८ || इसी नगरी में नाट्य मालिका नामकी नाटकाचार्यकी एक पुत्री थी। एक दिन उसने राजसभा में रति आदि स्थायी भावों द्वारा शृंगारादि रस प्रकट करते हुए नृत्य किया || २९९ ॥ ..वह नृत्य देखकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ तब उत्पलमाला नामकी वेश्या बोली कि हे देव, इसमें क्या आश्चर्य है ? एक दिन अत्यन्त शान्त और पूज्य कुबेरप्रिय सेठने उपवासके दिन प्रतिमा योग धारण किया था, उस दिन मैं उनका मन विचलित करनेके लिए गयी थी परन्तु उसमें समर्थ नहीं हो सकी। इस संसार में यही बड़े आश्चर्य की बात है । यह सुनकर राजाने कहा कि " हे गुणप्रिये ! तुझे गुण बहुत प्यारे लगते हैं इसलिए जो इच्छा हो सो माँग ।” तब उसने कहा कि मुझे शीलव्रतकी रक्षा करना इष्ट है यही वर दीजिए । राजाने वह वर उसे १ तलवराः । २ निग्रहं कुर्युः । ३ त्रिमतिनामधेयाय ४ चोरः । विमतिरपि । ५ धनम् । ६ कारणज्ञः 'पुरोहितादिधर्म कारिभिरित्यर्थः । ७ गूथस्य । 'उच्चारावस्करी शमलं शकृत् । पुरीषं उत्कोच गूथवर्चस्कमस्त्री विष्ठाविशी स्त्रियाम् । इत्यभिधानात् । ८ विमतिः । ९ न वधं करोमि । १० 'लञ्च उत्कोच जामिषः, ' इत्यभिधानात् । ११ तलवरः । १२ निष्कृपं यथा भवति तथा । १३ प्रतुष्या अ०, स०, इ०, प० । १४ आस्थाने । १५ श्रेष्ठिनः शमितोऽन्येद्युः ल०, अ०, प०, इ०, स० । ३६ न समर्थोऽभूवमहम् । १७ वाञ्छितं प्रार्थय । १८ उत्पलमालागृहम् । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४७३ रात्रौ तलवरो दृष्ट्वा तं बाह्याऽद्येति तेन तत् । प्रतिपादन वेलायामेवायान्मन्त्रिणः सुतः ॥ ३०४ ॥ नृपतेमैथुनो नाम्ना पृथुधीस्तं निरीक्ष्य सा । मज्जूषायां विनिक्षिप्य गणिका सर्वरक्षितम् ॥ ३०५ ॥ त्वया मदीयाभरणं सत्यवत्यै समर्पितम् । त्वद्भगिन्यै तदानेयमित्याह नृपमैथुनम् ॥ ३०६ ॥ सोऽपि प्राक् प्रतिपाद्यैतद् व्रतग्रहणसंश्रुतेः । प्रातिकूल्यमगादीर्ष्यावान् द्वितीयदिने पुनः ॥३०७॥ साक्षिणं परिकल्प्यैनं मज्जूषास्थं महीपतेः । सन्निधौ याचितो वित्तमसावुत्पलमालया ॥३०८॥ न गृहीतं मयेत्यस्मिन्मिथ्यावादिनि भूभुजा । पृष्टा सत्यवती तस्य पुरस्तान्न्यक्षिपद्धनम् ॥ ३०९॥ मैथुनाय नृपः क्रुध्वा खलोऽयं हन्यतामिति । आज्ञापयत्पदातीन् स्वान् युक्तं तन्न्यायवर्तिनः ॥ ३१०॥ पठन्मुनीन्द्र सद्धर्मशास्त्रसंश्रवणाद् द्रुतम् । अन्येद्युः प्राक्तनं जन्म विदित्वा शसमागते ॥३११॥ यागहस्तिनि मांसस्य पिण्डदानमनिच्छति । तद्वीक्ष्योपायविच्छ्रेष्टी विबुद्ध्यानेकपेङ्गितम् ॥३१२॥ सर्पिर्गुडपयोमिश्रशाल्योदनसमर्पितम् । पिण्डं प्रायोजयत्सोऽपि द्विरदस्तमुपाहरत् ॥ ३५३ ॥ तदा तुष्ट्वा महीनाथो वृणीष्वेष्टं तवेति तम् । प्राह पश्चाद् ग्रहीष्यामीत्यभ्युपेत्य स्थितः स तु ॥ ३१४ ॥ सचिव सुतं दृष्ट्वा नोयमानं शुचा नृपात् । वरमादाय तद्घातात् दुर्वृत्तं तं व्यमोचयत् ॥३१५॥ दिया और उस दिन से उसने शील व्रत ग्रहण कर लिया। किसी दूसरे दिन सर्वरक्षित नामका कोतवाल रात के समय उसके घर गया, उसे देखकर उत्पलमालाने उससे कहा कि आज मैं बाहर की हूँ - रजस्वला हूँ । इधर इन दोनोंकी यह बात चल रही थी कि इतनेमें ही मन्त्रीका पुत्र और पृथुधी नामका राजाका साला आया, उसे देखकर उत्पलमालाने सर्वरक्षितको एक सन्दूक में छिपा दिया और राजाके सालेसे कहा कि आपने जो मेरे आभूषण अपनी बहन सत्यवतीके लिए दिये थे वे लाइए । उसने पहले तो कह दिया कि हाँ अभी लाता हूँ परन्तु बादमें जब उसने सुना कि उसने शील व्रत ले लिया है तब वह ईर्ष्या करता हुआ प्रतिकूल हो गया। दूसरे दिन वह वेश्या सन्दूक में बैठे हुए कोतवालको गवाह बनाकर राजाके पास गयी और वहाँ जाकर पृथुधीसे अपना धन माँगने लगी ॥३०० - ३०८ || पृथुधीने राजाके सामने भी झूठ कह दिया कि मैंने इसका धन नहीं लिया है । जब राजाने सत्यवतीसे पूछा तो उसने सब धन लाकर राजाके सामने रख दिया || ३०९ || यह देखकर राजा अपने सालेपर बहुत क्रोधित हुआ, उसने अपने नौकरोंको आज्ञा दी कि यह दुष्ट शीघ्र ही मार डाला जाय । सो ठीक है क्योंकि न्याय-मार्ग में चलनेवालेको यह उचित ही है ॥ ३१० ॥ किसी एक दिन पाठ करते हुए मुनिराजसे धर्मशास्त्र सुनकर राजाके मुख्य हाथीको अपने पूर्व भवका स्मरण हो आया, वह अत्यन्त शान्त हो गया और उसने मांसका पिण्ड लेना भी छोड़ दिया, यह देख उपायोंके जानने और दूध मिला हुआ शालि चावलोंका वाले सेठने हाथोकी सब चेष्टाएँ समझकर घी, गुड़ भात उसे खाने के लिए दिया और हाथीने भी वह शुद्ध भोजन खा लिया ॥३११-३१३॥ उस समय सन्तुष्ट होकर राजाने कहा कि जो तुम्हें इष्ट सो माँगो । सेठने कहा - अच्छा यह वर अभी अपने पास रखिए, पीछे कभी ले लूँगा, ऐसा कहकर वह सेठ सुखसे रहने लगा ।। ३१४॥ उसे देखकर सेठको बहुत शोक उस दुराचारी मन्त्रीके पुत्रको इसी समय मन्त्रीका पुत्र मारनेके लिए ले जाया जा रहा था हुआ और उसने राजासे अपना पहलेका रखा हुआ वर माँगकर १ तलवरेण सह । २ अद्य याहीत्येतत्प्रतिपादन । ३ आनयामीत्यनुमत्य । ४ प्रसङ्गापातकथान्तरमिह ज्ञातव्यम् । ५ नीतम् । ६ भुङ्क्ते स्म । ७ तम् ल०, अ०, प०, स०, इ० । ८ मन्त्रिणः पुत्रम् । पृथुमतिम् । ६० Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ आदिपुराणम् श्रेष्टिनैव निकारोऽयं ममाकारीत्यमस्त सः । पापिनामुपकारोऽपि सुभुजङ्गपयापते ॥३१६॥ अन्यधुमैथुनो राज्ञः स्वेच्छया विहरन् वने । खेचरा मुद्रिकामापत् कामरूपविधायिनीम् ॥३१७॥ कराङगुलौ विनिक्षिप्य तां वसोः स्वकनीयसः । संकल्प्य श्रेष्टिनो रूपं सत्यवत्या निकेतनम् ॥३१८॥ प्रवेश्य ( प्रविश्य ) पापधी राजसमीपं स्वयमास्थितः । वसं गृहीतश्रेष्ठीस्वरूपं वीक्ष्य महीपतिः ।३१६। श्रेष्टी किमर्थमायातोऽकाल' इत्यवदत्तदा । अनात्मज्ञोऽयमायातः पापी सत्यवतीं प्रति ॥३२०॥ मदनानलसंतप्त इति मैथुनिकोऽब्रवीत् । तद्वाक्यादपरीक्ष्यैव तमेवाह प्रहन्यताम् ॥३२१॥ श्रेष्ठी तवेति श्रेष्ठी च तस्मिन्नेव दिने निशि । स्वगृहे प्रतिमायोगधारको भावयन् स्थितः ॥३२२॥ पृथुधीस्तमवष्टभ्य गृहीत्वा घोषयन् जने। अपराधमसन्तं'च नीत्वा प्रेतमहीतलम् ॥३२३॥ आरक्षककर हन्तुमर्पयामास पापभाक् । सोऽपि राजनिदेशोऽयमित्यहनहिना दृढम् ॥३२४॥ तस्य वक्षःस्थले तत्र प्रहारो मणिहारताम् । प्राप शीलवतो भक्तस्याहत्परमदेवते ॥३२५॥ दण्डनादपरीक्ष्यास्य महोत्पातः पुरेऽजनि । क्षयः स येन सर्वेषां किं नादुष्टवधान भवेत् ॥३२६॥ नरेशी नागराश्चैतदालोक्य भयविह्वलाः। तमेव शरणं गन्तुं श्मशानाभिमुखं ययुः ॥३२७॥ तदोपसर्गनिर्णाशे विस्मयन्नाकवासिनः । शीलप्रभावं व्यावर्ण्य वणिग्वर्यमपूजयन् ॥३२८॥ छुड़वा दिया ॥३१५।। परन्तु मन्त्रीके पुत्रने समझा कि मेरा यह तिरस्कार सेठने ही कराया है, सो ठीक ही है क्योंकि पापी पुरुषोंका उपकार करना भी साँपको दूध पिलानेके समान है ॥३१६। किसी अन्य दिन वह राजाका साला अपनी इच्छासे वन में घम रहा था, उसे वहाँ एक विद्याधरसे इच्छानुसार रूप बना देनेवाली अंगूठी मिली ॥३१७॥ उसने वह अंगूठी अपने छोटे भाई वसुके हाथकी अंगुलीमें पहना दी एवं उसका सेठका रूप बनाकर उसे सत्यवतीके घर भेज दिया। और पाप बुद्धिको धारण करनेवाला पृथुधी स्वयं राजाके पास जाकर बैठ गया। सेठका रूप धारण करनेवाले वसुको देखकर राजाने कहा कि 'यह सेठ असमयमें यहाँ क्यों आया है ?' उसी समय पृथुधीने कहा कि 'अपने आपको नहीं जाननेवाला यह पापी कामरूपी अग्निसे सन्तप्त होकर सत्यवतीके पास आया है' इस प्रकार उसके कहनेसे राजाने परीक्षा किये बिना ही उसी पृथुधीको आज्ञा दी कि तुम सेठको मार दो। सेठ उस दिन अपने घरपर हो प्रतिमायोग धारण कर वस्तुस्वरूपका चिन्तवन कर रहा था ॥३१८-३२२॥ पृथुधीने उसे वहीं कसकर बाँध लिया और जो अपराध उसने किया नहीं था लोगोंमें उसकी घोषणा करता हुआ उसे श्मशानकी ओर ले गया ॥३२३॥ वहाँ जाकर उस पापीने मारनेके लिए चाण्डालके हाथमें सौंप दिया। चाण्डालने भी यह राजाकी आज्ञा है ऐसा समझकर उसपर तलवारका मजबूत प्रहार किया ॥३२४॥ परन्तु क्या ही आश्चर्य था कि श्री अरहन्त परमदेवके भक्त और शीलवत पालन करनेवाले उस सेठके वक्षःस्थलपर वह तलवारका प्रहार मणियोंका हार बन गया ।।३२५॥ बिना परीक्षा किये उस सेठको दण्ड देनेसे नगर में ऐसा बड़ा भारी उपद्रव हुआ कि जिससे सबका क्षय हो सकता था सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुषोके वधसे क्या नहीं होता है ? ||३२६॥ राजा और नगरके सब लोग यह उपद्रव देखकर भयसे घबड़ाये और उसी सेठकी शरणमें जानेके लिए श्मशानकी ओर दौड़े ॥३२७|| जब सब उसकी शरणमें पहुंचे तब कहीं वह उपद्रव दूर हुआ, स्वर्ग में रहनेवाले देवोंने बड़े आश्चर्य .१ तिरस्कारः वञ्चना च । २ क्रियते स्म । ३ -मुपकारोऽयं अ०, स०। ४ -माप काम-इ०, अ०, स० । ५ वसुनामधेयस्य । ६ निजानुजस्य । ७ कुबेरप्रियस्य । ८ समीपमागत्य स्थितः । ९ अवेलायाम् । १० बलाकारेण बद्ध्वा । ११ अविद्यमानम् असत्यं वा । १२ हिनस्ति स्म । १३ श्रेष्ठिनः । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४७५ अपरीक्षितकार्याणामस्माकं क्षन्तुमर्हसि । इति तेषु भयग्रस्तमानतेषु नृपादिपु ॥३२६॥ अस्मदर्जितदुष्कर्मपरिपाकादभूदिदम् । विषादस्तत्र कर्तव्यो न भवद्भिरिति ध्रुवम् ॥३३०॥ वैमनस्यं निरस्यैषां श्रेष्ठी प्रष्टः क्षमावताम् । सर्वैः पुरस्कृतः पूज्यो विभूत्या प्राविशत् पुरम् ॥३३॥ एवं प्रयाति कालेऽस्य वारिषेणां सुतां नृपः । वसुपालाय पुत्राय स्वस्यादत्त विभूतिमत् ॥३३२॥ अथान्येद्यः सभामध्ये पृष्टवान् श्रेष्टिनं नृपः । विरुद्धं किं न वाऽन्योन्यं धर्मादीनि चतुष्टयम् ॥३३३॥ परस्परानुकूलास्ते सम्यग्दृष्टिषु साधुषु । न मिथ्यादृक्ष्विति प्राह श्रेष्ठी धर्मादितत्ववित् ॥३३४॥ इति तद्वचनाद् राजा तुष्टोऽभीष्टं त्वयोच्यताम् । दास्यामीत्याह सोऽप्याख्यज्जातिमृत्युक्षयाविति ॥३३५॥ न मया तवयं साध्यमिति प्रत्याह भूपतिः। मां मुञ्च साधयामीति तमवोचद्वणिग्वरः ॥३३६॥ तदाकर्ण्य गृहत्यागमहं च सह 'तेऽधुना । करोमि किन्तु मे पुत्रा बालका इति चिन्तयन् ॥३३७॥ सद्योभिन्नाण्डकोद्भूतान् मक्षिकादानतत्परान् । क्षुधापीडाहतान् वीक्ष्य सहसा गृहकोकिलान् ॥३३८॥ सर्वेऽपि जीवनोपाय जन्तवो जानतेतराम् । स्वेषां विनोपदेशेन तत्कि मे बलचिन्तया ॥३३९॥ इत्यसौ वसुपालाय दत्वा राज्यं यथाविधि । विधाय यौवराज्यं च श्रीपालस्य सपट्टकम् ॥३४०॥ से शीलवतके प्रभावका वर्णन कर उस सेठकी पूजा की ॥३२८|| जिनके मन भयसे उद्विग्न हो रहे हैं ऐसे राजा आदिने सेठसे कहा कि हम लोगोंने परीक्षा किये बिना ही कार्य किया है अतः आप हम सबको क्षमा कर दीजिए, ऐसा कहनेपर क्षमा धारण करनेवालोंमें श्रेष्ठ सेठने कहा कि यह सब हमारे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मके उदयसे ही हुआ है । निश्चयसे इस विषयमें आपको कुछ भी विषाद नहीं करना चाहिए ऐसा कहकर उसने सबका वैमनस्य दूर कर दिया। तदनन्तर सब लोगोंके द्वारा आगे किये हुए पूज्य सेठ-कुबेरप्रियने बड़ी विभूतिके साथ नगरमें प्रवेश किया ॥३२९-३३१॥ इस प्रकार समय व्यतीत होनेपर वैभवशाली राजाने वारिषेणा नामकी इसी सेठकी पुत्री अपने पुत्र वसुपालके लिए ग्रहण की ॥३३२॥ किसी अन्य दिन राजाने सभाके बीच सेठसे पूछा कि ये धर्म आदि चारों पुरुषार्थ परस्पर एक दूसरेके विरुद्ध हैं अथवा नहीं ? ॥३३३॥ तब धर्म आदिके तत्त्वको जाननेवाले सेठने कहा कि सम्यग्दृष्टि सज्जनोंके लिए तो ये चारों ही पुरुषार्थ परस्पर अनुकूल हैं परन्तु मिथ्यादृष्टियोंके लिए अनुकूल नहीं है ॥३३४॥ सेठके इन वचनोंसे राजा बहुत ही सन्तुष्ट हुआ, उसने सेठसे कहा कि 'जो तुम्हें इष्ट हो माँग लो मैं दूंगा' तब सेठने कहा कि मैं जन्म-मरणका क्षय चाहता हूँ ॥३३५।। इसके उत्तरमें राजाने कहा कि ये दोनों तो मेरे साध्य नहीं हैं तब वैश्यवर सेठने कहा कि अच्छा मुझे छोड़ दीजिए मैं स्वयं उन दोनोंको सिद्ध कर लूँगा ॥३३६॥ यह सुनकर राजाने कहा कि तेरे साथ मैं भी घर छोड़ता परन्तु मेरे पुत्र अभी बालक हैं - छोटे-छोटे हैं इस प्रकार राजा विचार कर ही रहा था कि ॥३३७॥ अचानक उसकी दृष्टि छिपकलीके उन बच्चोंपर पड़ी जो उसी समय विदीर्ण हुए अण्डेसे निकले थे, भूखकी पीड़ासे छटपटा रहे थे और इसलिए ही मक्खियाँ पकड़ने में तत्पर थे, उन्हें देखकर राजा सोचने लगा कि अपनी-अपनी आजीविकाके उपाय तो सभी जीव बिना किसीके उपदेशके अपने-आप अच्छी तरह जानते हैं इसलिए मुझे अपने छोटे-छोटे पुत्रोंकी चिन्ता करनेसे क्या लाभ है ? यही विचार कर गुणपाल महाराजने वसुपालके लिए विधिपूर्वक राज्य दिया और श्रीपालको पट्ट सहित युवराज बनाया। तदनन्तर १ त्रस्त-प०, ल०। २ मुख्यः । ३ पुरीम् ल०। ४ विभूतिमान् प०, ल०, इ०। ५ धर्मार्थकाममोक्षाः । ६ ते धर्मादयः । ७ सज्जनेषु । ८ मिथ्यादष्टिषु । ९ धर्मार्थकाममोक्षस्वरूपवेदी। १० जननमरणविनाशी ममेष्टाविति । ११ त्वया सह । १२ तत्क्षणे स्फुटितकोशजातान् । १३ तत् कारणात् । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ आदिपुराणम् गुगपालमहाराजः सकुबेरप्रियोऽग्रहीत् । बहुभिर्भू भुजः सार्धं तपो यतिवरं श्रितः ॥३४१॥ श्रेष्टचाहिंसाफलालोकान्मयाऽयग्राहि तद्वतम् । तस्मात्वं'न हतोऽसीति ततस्तुष्टाव सोऽपि तम् ॥ इत्युक्त्वा सोऽब्रवीदेवं प्राक मृणालवतीपुर । भूत्वा त्वं भवदेवाख्यो रतिवेगासुकान्तयोः ॥३४३॥ बद्धवैशे ''निहन्ताऽभू: पारावतभवःप्यनु । मार्जारः सन्मृति 'गत्वा पुनः "खचरजन्मनि ॥३४४॥ विद्युच्चोरवमासाद्य सोपस मृति व्यधाः । तत्पापानरके दुःखमनुभूयागतस्ततः ॥३४५॥ अत्रेन्याखिलवेद्युत व्यक्तवाग विसरः स्फुटम् । व्यधात् सुधीः स्ववृत्तान्तं भीमसाधुः सुधाशिनोः । विः प्राक् त्वन्मारितावावामिति शुद्धियान्वितौ । जातसद्धर्मसभावावभिवन्द्य मुनि गतौ ॥३४७॥ इति व्याहृत्य हमाङगदानुजेदं च साऽब्रवीत् । भीमसाधुः पुरे पुण्डरीकिण्यां घातिघातनात् ॥३४८॥ रम्य शिवंकरोद्याने पञ्चमझानपूजितः । तस्थिवांस्तं समागत्य चतस्रो देवयोषितः ॥३४९॥ वन्दिया धर्ममाकार्य पापादस्मत्यतिम॑तः । त्रिलोकेश वदास्माकं पतिः कोऽन्यो भविष्यति ॥३५॥ इत्यच्छन्नसौ चाह पुरंऽस्मिन्नव भोजकः । सुरदेवाह्वयस्तस्य वसुषेणा वसुन्धरा ॥३५॥ सेठ कुबेरप्रिय तथा अन्य अनेक राजाओंके साथ-साथ मुनिराजके समीप जाकर तप धारण किया ॥३३८-३४१।। वह चाण्डाल कहने लगा कि सेठके अहिंसा व्रतका फल देखकर मैंने भी अहिंसा व्रत ले लिया था यही कारण है कि मैंने तुम्हें नहीं मारा है यह सुनकर उस विद्युच्चर चोरने भी उसकी बहुत प्रशंसा की ॥३४२॥ इतना कहकर वे भीम मुनि सामने बैठे हुए देव-देवियोंसे फिर कहने लगे कि सर्वजदेवने मुझसे स्पष्ट अक्षरों में कहा है कि 'तू पहले मृणालवती नगरीमें भवदेव नामका वैश्य हुआ था वहाँ तूने रतिवेगा और सूकान्तसे वैर बाँधकर उन्हें मारा था, मरकर वे दोनों कबूतर-कबूतरी हुए सो वहाँ भी तूने बिलाव होकर उन दोनोंको मारा था, वे मरकर विद्याधर-विद्याधरी हुए थे सो उन्हें भी तूने विद्युच्चोर होकर उपसर्ग-द्वारा मारा था, उस पापसे तू नरक गया था' और वहाँके दुःख भोगकर वहांसे निकलकर यह भीम हुआ हूँ । इस प्रकार उन बुद्धिमान् भीम मुनिने सामने बैठे हुए देव-देवियोंके लिए अपना सब वृत्तान्त कहा ।।३४३-३४६।। जिन्हें आपने पहले तीन बार मारा है वे दोनों हम ही हैं ऐसा कहकर जिनके मन, वचन, काय -- तीनों शुद्ध हो गये हैं और जिन्हें सद्धर्मकी सद्भावना उत्पन्न हुई है ऐसे वे दोनों देव-देवी उन भीममनिकी वन्दना कर अपने स्थानपर चले गये ॥३४७॥ यह कहकर हेमांगदकी छोटी बहन सुलोचना फिर कहने लगी कि एक समय पुण्डरीकिणी नगरीके शिवंकर नामके सुन्दर उद्यानमें घातिया कर्म नष्ट करनेसे जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे भीममुनिराज विराजमान थे, सभी लोग उनकी पूजा कर रहे थे, उसी समय वहाँपर चार देवियोंने आकर उनकी वन्दना की, धर्मका स्वरूप सुना और पूछा कि हे तीन लोकके स्वामी. हम लोगोंके पापसे हमारा पति मर गया है। कहिए - अब दूसरा पति कौन १ तस्मात् कारणात् । २ एवं तलवरोऽवादीत् । ३ तलवरवचनानन्तरम् । ४ स्तौति स्म । ५ विद्युच्चोरः । ६ अहिंसाव्रतम् । तस्मात् त्वं न हतोऽसोति श्लोकस्य सोऽप्येवं प्रत्यपाद्यदित्यनेन सह संबन्धः । ७ उक्तप्रकारेण प्रतिपाद्य । स मुनिः पुनरप्यात्मनः सर्वज्ञेन प्रतिपादितनिजवृत्तकं सुरदम्पत्योराह। ८ वक्ष्यमाणप्रकारेण । ९ पूर्वजन्मनि । १० हे भीममुने, भवान् । ११ घातुकः । १२ कपोतभवेऽपि मार्जारः सन् तयोनिहन्ताऽभूरिति संबन्धः । १३ कृत्वा ल०, अ०, ५०, स०, इ०। १४ तद्दम्पत्यो विद्याधर भवे । खेचरजन्मनि प०, इ०। १५ सर्वज्ञप्रोक्तम् । १६ हिरण्यवर्मप्रभावतीचरौ। १७ मनोवाक्कायशुद्धियुक्तौ । १८ भीममुनिम् । १९ उक्त्वा । २० सुलोचना । २१ भीमः साधुः प०, इ०, ल०। २२ आस्ते स्म । २३ भीमकेवलो। २४ पुण्डरीकिण्याम् । २५ पालकः । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व धारिणी पृथिवी चेति चतस्रो योषितः प्रियाः । श्रीमती वीतशोकाख्या विमला सवसन्तिका ॥३५२॥ चतस्रश्चेटिकास्तासामन्येद्युस्ता वनान्तरे । सर्वा यतिवराभ्याशे धर्म दानादिनाऽऽददुः ॥३५३॥ तत्फलेनाच्युते कल्पे प्रतीन्द्रस्य प्रियाः क्रमात् । रतिषणा सुसीमाख्या मुख्यान्या च सुखावती ॥३५४॥ सुभगति च देव्यस्ता यूयं ताश्चेटिकाः पुनः । चित्रष्णा क्रमाच्चित्रवेगा धनवती सती ॥३५५॥ धनश्रीरित्यजायन्त वनदेवेषु कन्यकाः । सुरदेवेऽप्यभून्मृत्वा पिङ्गलः पुररक्षकः ॥३५६॥ स तत्र निजदोषेण प्रापन्निगलबन्धनम् । मातुस्तत्सुरदेवस्य प्राप्ता या राजसूनुताम् ॥३५७॥ श्रीपालाख्यकुमारस्य ग्रहणे बन्धमोक्षणे । सर्वेषां पिङगलाख्योऽपि मुक्तः संन्यस्य संप्रति ॥३५८॥ भूत्वा बुधविमानेऽसौ इहागत्य भविष्यति । स्वामी युष्माकमित्येतत्तच्चेतो हरणं तदा ॥३५९॥ परमार्थ कृतं तेन तां गत्य मुनेर्वचः । पृष्ट्वानु कन्य'काश्चनमात्मनो भाविनं पतिम् ॥३६०॥ पूर्वोक्तपिङ्गलाख्यस्य सूनुर्नाम्नाऽतिपिङ्गलः । सोऽपि संन्यस्य युप्माकं रतिदायी भविष्यति ॥३६१॥ इति तत्प्रोक्तमाकर्ण्य गत्वा तत्पूजनाविधौ। स्वसां निरीक्षणात् कामसंमोहप्रकृतं महत्॥३६२॥ रतिकूलाभिधानस्य संविधानं मुनेः श्रुतम् । तस्पितुर्मणिनागादिदत्तस्य प्रकृतं तथा॥३६३॥ होगा ? तब सर्वज्ञ -- भीम मुनिराज कहने लगे कि इसी नगरमें सुरदेव नामका एक राजा था उसकी वसुषेणा, वसुन्धरा, धारिणी और पृथिवी ये चार रानियाँ थों तथा श्रीमती, वोतशोका, विमला और वसन्तिका ये चार उन रानियोंकी दासियाँ थीं। किसी एक दिन उन सबने वनमें जाकर किन्हीं मुनिराजके समीप दान आदिके द्वारा धर्म करना स्वीकार किया था। उस धर्मके फलसे वे अच्युत स्वर्गमें प्रतीन्द्रकी देवियाँ हुई हैं। क्रमसे उनके नाम इस प्रकार हैं -- रतिषणा, सुसीमा, सुखावती और सुभगा। वह देवियाँ तुम्हीं सब हो, तथा तुम्हारी दासियाँ चित्रषेणा, चित्रवेगा, धनवती और धनश्री नामकी व्यन्तर देवोंकी कन्याएँ हुई हैं। राजा सुरदेव मरकर पिंगल नामका कोतवाल हुआ है और वह अपने ही दोषसे कारागारको प्राप्त हुआ था, सुरदेवकी माता राजाकी पुत्री हुई है और श्रीपालकुमारके साथ उसका विवाह हुआ है । विवाहोत्सवके समय सब कैदी छोड़े गये थे उनमें पिंगल भी छूट गया था, अब संन्यास लेकर अच्युत स्वर्गमें उत्पन्न होगा और वही तुम सबका पति होगा ! इधर मुनिराज ऐसे मनोहर वचन कह रहे थे कि उधर पिंगल संन्यास धारण कर अच्युत स्वर्गमें उत्पन्न हुआ और वहाँसे आकर उसने मुनिराजके वचन सत्य कर दिखाये। इतनेमें ही चारों व्यन्तर कन्याएं आकर सर्वज्ञदेवसे अपने होनहार पतिको पूछने लगीं ॥ ३४८--३६० ॥ मुनिराज कहने लगे कि पूर्वोक्त पिंगल नामक कोतवालके एक अतिपिङ्गल नामका पुत्र है वहो संन्यास धारण कर तुम्हारा पति होगा ॥३६१॥ भीम केवलीके ये वचन सुनकर चारों ही देवियाँ जाकर अतिपिंगलकी पूजा करने लगी, उसे देखनेसे उन देवियोंको कामका अधिक विकार हुआ था ॥३६२।। उन देवियोंने रतिकूल नामके मुनिका चरित्र सुना, उनके पिता मणिनागदत्तका चरित्र सुना, सुकेतुका १ स्वीकुर्वन्ति स्म । २ व्यन्तरदेवेषु । ३ तलवरः । ४ विवाहसमये । ५ च्युतविमानेऽसौ इ०, ५०, ल० । बुधविमानेशः, इत्यपि पाठः । बुधविमानाधिपतिः । ६ स्वामी युष्माकमित्यसौ चाहेत्यनेन सह संबन्धः । ७ पिङ्गलचरदेवेन । ८ केवल्युक्तप्रकारेण (क्रमेण) । ९ सर्वज्ञस्य । १० अनन्तरम् । ११ व्यन्तरकन्याः । १२ भीमकेवलिनम् । १३ पुरुषः । १४ अतिपिङ्गलस्य समीपं प्राप्य । १५ अतिपिङ्गलस्य परिचर्याविधौ । १६ चित्रसेनादिव्यन्तरकन्यकानाम् । तासाम् ल०,५०,द०।१७ कामसंमोहेन प्रकर्षेण कृतम् । १८ रतिकूलाभिधानस्य पुरुषस्य । १९ व्यापारम् । २० भीमकेवलिनः सकाशात् । २१ आकणितम् । २२ रतिकूलस्य जनकस्य । २३ चेष्टितम् । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ आदिपुराणम् 'सुकेतोश्चाखिले तस्मिन्सत्यभूते मुनीश्वरम् । ताः सर्वाः परितोषेण गताः समभिवन्द्य तम् ॥३६॥ आवामपि तदा वन्दनाय तत्र गताविदम् । श्रुत्वा दृष्ट्वा गतौ प्रीतिपरीतहृदयौ दिवम् ॥३६५॥ शार्दूलविक्रीडितम् इत्यात्मीयभवावलीमनुगतैर्मान्यैर्मनोरञ्जनैः ___ स्पष्टैरस्खलितैः कलैरविरलैरव्याकुलैर्जल्पितैः” । आत्मोपात्तशुभाशुभोदयवशोद्भूतोच्चनीचस्थिति संसर्पदशनांशुभूषितसभासभ्यान सावभ्यधात् ॥३६६॥ श्रुत्वा तां हृदयप्रियोक्तिमतुषत्कान्तो रतान्ते यथा संसच्च व्यकसत्तरां शरदि वा लक्ष्मीः सरःसंश्रया । कान्तानां" वदनेन्दुकान्तिरगलत्तद्वाग्दिनेशोद्गते-१२ रस्थाने कृतमत्सरोऽसुखकरस्त्याज्यस्ततोऽसौ " बुधैः ॥३६७॥ कान्तोऽभूद रतिषेणया वणिगसौ पूर्व सुकान्तस्ततः संजातो रतिषेणया रतिवरो गेहे कपोतो विशाम्। चरित्र सुना और सबके सत्य सिद्ध होनेपर बड़े सन्तोषके साय मुनिराजकी वन्दना कर अपनेअपने स्थानोंकी ओर प्रस्थान किया ।।३६३-३६४॥ उस समय हम दोनों भी मुनिराजको वन्दना करनेके लिए वहाँ गये और यह सब देख-सुनकर प्रसन्नचित्त होते हए स्वर्ग चले गये थे ॥३६५॥ इस प्रकार अपने द्वारा उपार्जन किये हुए शुभ-अशुभ कर्मोके उदयवश जिसे ऊँची-नीची अवस्था प्राप्त हुई और जिसने अपने दाँतोंकी फैलती हुई किरणोंसे समस्त सभाको सुशोभित कर दिया है ऐसी सुलोचनाने सब सभासदोंको क्रमबद्ध मान्य, मनोहर, स्पष्ट. अस्खलित, मधर, अविरल और आकुलतारहित वचनों-द्वारा अपने पूर्वभवकी परम्परा कह सुनायी ॥३६६।। हृदयको प्रिय लगनेवाले सुलोचनाके वचन सुनकर जयकुमार उस प्रकार सन्तुष्ट हुए जिस प्रकार कि सम्भोगके बादमें सन्तुष्ट होते । वह सभा उस तरह विकसित हो उठी जिस तरह कि शरदऋतुमें सरोवरकी शोभा विकसित हो उठती है। और सुलोचनाके वचनरूपी सूर्यके उदय होनेसे अन्य स्त्रियोंके मुखरूपी चन्द्रमाओंको कान्ति नष्ट हो गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि अयोग्य स्थानपर को हुई ईर्ष्या दुःखी करनेवाली होती है इसलिए विद्वानोंको ऐसी ईर्ष्या अवश्य ही छोड़ देनी चाहिए ॥३६७।। सुलोचनाने जयकुमारसे कहा कि मैं पहले रतिवेगा थी और आप मेरे ही साथ मेरे पति सुकान्त वैश्य हुए, फिर मैं सेठके घर रतिषणा कबूतरी हुई और आप मेरे ही साथ रतिवर नामक कबूतर हुए, फिर मैं प्रभावती विद्याधरी हुई और आप मेरे ही साथ हिरण्यवर्मा विद्याधर हुए उसके बाद मैं स्वर्गमें महादेवी हुई और आप मेरे ही साथ अतिशय १ मृणालवतीपुरपतेः सुकेतोरपि चेष्टितं मुनेः सकाशाच्च्युतमिति संबन्धः । एतत् कथात्रयं ग्रन्थान्तरे द्रष्टव्यम् । २ सत्यीभूते ल०, ५०, इ०, स० । ३ प्रभावतीचरीहिरण्यवर्मचरसुरदम्पती । ४ सुन्दरैः । ५ सम्पूर्णः । ६ स्थितिः ल०। ७ सुलोचना। ८ उवाच। ९ जयः। १० सभा च । ११ जयस्य श्रीमतीशिवशङ्करादियोषिताम् । १२ सुलोचनावचनादित्योदये सति । १३ दुःखकरः । १४ मत्सरः । १५ वैश्यानाम् । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व 'वत्यन्तप्रभयाऽभवत्खगपति वर्मा हिरण्यादिवाक देवः कल्पगतो मय मालिनी सह महादेव्याऽजनीड्यो भवान् ॥ ३६८ ॥ सकलमविकलं तत्सप्रपञ्चं रमण्या मुखकमलरसाक्तं श्रोत्रपात्रे निधाय । तदुदितमपरंच श्रोतुकामो जयोऽभू न रसिकदयितोक्तैः कामुकास्तृप्नुवन्ति ॥ ३६६॥ इत्यार्षे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे जयसुलोचनाभवान्तरवर्णनं नाम षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ॥४६॥ ४७९ पूज्य देव हुए ।। ३६८ || इस प्रकार जयकुमार प्रियाके मुखरूपी कमलके रससे भीगे हुए मनोहर, पूर्ण और विस्तारयुक्त वचनोंको अपने कर्णरूपी पात्र में रखकर उसके द्वारा कहे हुए अन्य वृत्तान्तको सुनने की इच्छा करने लगा सो ठीक ही है क्योंकि कामी पुरुष स्त्रियोंके रसीले वचनोंसे कभी तृप्त नहीं होते हैं ॥ ३६९॥ इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध भगवद्गुणभद्राचार्य विरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें जयकुमार और सुलोचनाके भवान्तर वर्णन करनेवाला छियालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ । १ प्रभावत्या सहेत्यर्थः । २ विद्याधरपतिः । ३ हिरण्यवर्मा । ४ सुलोचनया सह । ५ जयः । ६ रससंबद्धम् । ७ रसनप्रियदयितावचनैः । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व कान्ते तत्रान्यदप्यस्ति प्रस्तुतं स्मर्यते त्वया । श्रीपालचक्रिसंबन्धमित्यप्राक्षीत् स तां पुनः ॥१॥ बाढं स्मरामि सौभाग्यभागिनस्तस्य वृत्तकम् । तवैवाद्येक्षितं वेति सा प्रवक्तुं प्रचक्रमे ॥२॥ जम्बूद्वीपे विदेहेऽस्मिन् पूर्वस्मिन्पुण्डरीकिणी । नगरी नगरवासी वासवस्यातिविश्रता ॥३॥ श्रीपालवसुपालाख्यौ सूर्याचन्द्रमसौ च तौ। जित्वा महीं सहैवावतः स्मेव नयविक्रमौ ॥४॥ जननी वसुपालस्य कुबेरश्रीदिनेऽन्यदा । वनपाले समागत्य केवलावगमोऽभवत् ॥५॥ गुणपालमुनीशोऽस्मत्पतेः सुरगिराविति । निवेदितवति क्रान्त्वा पुरः सप्तपदान्तरम् ॥६॥ प्रणम्य वनपालाय दत्वाऽसौ पारितोषिकम् । पौराः सपर्यया सर्वेऽप्याययुरिति घोषणाम् ॥७॥ विधाय प्राक स्वयं प्राप्य भगवन्तमवन्दत । श्रीपालवसुपालौ च ततोऽनु समुदौ गतौ ॥६॥ प्रमदाख्यं वनं प्राप्य "सद्रुमैरम्यमन्तरे। प्रागजगत्पालचक्रेशो यस्मिन्न्यग्रोध"पादपे ॥९॥ देवताप्रतिमालक्ष्ये स्थित्वा जग्राह संयमम् । तस्याधस्तात् समीक्ष्येक्ष्यं प्रवृत्तां नृत्तमादरात् १० तयोः कुमारः श्रीपालः पुरुषो नर्तयत्ययम् । अस्तु" स्त्रीवेषधार्यत्र स्त्री चेत्पुंरूपधारिणी ॥११॥ स्यादेव स्त्री प्रनृत्यन्ती नृत्तं युक्तमिदं भवेत् । इत्याह तद्वचः श्रुत्वा नटी मूर्छामुपागता ॥१२॥ यह सुनकर जयकुमारने सुलोचनासे फिर पूछा कि हे प्रिये, इस कही हुई कथामें श्रीपाल चक्रवर्तीसे सम्बन्ध रखनेवाली एक कथा और भी है, वह तुझे याद है या नहीं ? सुलोचनाने कहा हाँ, सौभाग्यशाली श्रीपाल चक्रवर्तीकी कथा तो मुझे ऐसी याद है मानो मैंने आज ही देखी हो, यह कहकर वह उसकी कथा कहने लगी॥१-२॥ इस जम्बू द्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें एक पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है जो कि इन्द्रकी नगरी-अमरावतीके समान अत्यन्त प्रसिद्ध है ॥३॥ सूर्य और चन्द्रमा अथवा नय और पराक्रमके समान श्रीपाल और वसुपाल नामके दो भाई समस्त पृथिवीको जीतकर साथ ही साथ उसका पालन करते थे ॥४॥ किसी एक दिन मालीते आकर वसुपालकी माता कुबेरश्रीसे कहा कि सुरगिरि नामक पर्वतपर आपके स्वामी गणपाल मनिराजको केवलज्ञान उत्पन्न हआ है. यह सुनकर उसने सामने सात पैंड चलकर नमस्कार किया, मालीको पारितोषिक दिया और नगरमें घोषणा करायी कि सब लोग पुजाकी सामग्री साथ लेकर भगवान के दर्शन करनेके लिए चलें. उसने स्वयं सबसे पहले जाकर भगवान्की वन्दना की। माताके पीछे ही श्रीपाल और वसुपाल भी बड़ी प्रसन्नतासे चले ॥५-८॥ मार्गमें वे एक उत्तम वनमें पहँचे जो कि अच्छे-अच्छे वक्षोंसे सुन्दर था और जिसमें देवताकी प्रतिमासे यक्त किसी वट वृक्षके नीचे खड़े होकर महाराज जगत्पाल चक्रवर्तीने संयम धारण किया था। उसी वृक्ष के नीचे एक दर्शनीय नृत्य हो रहा था, उसे दोनों भाई बड़े आदरसे देखने लगे ॥९-१०॥ देखते-देखते कुमार श्रीपालने कहा कि यह स्त्रीका वेष धारण कर पुरुष नाच रहा है और पुरुषका रूप धारण कर स्त्री नाच रही है। यदि, यह स्त्री स्त्रीके ही वेषमें नृत्य करती तो बहुत ही अच्छा नृत्य होता। श्रीपालकी यह बात सुनकर नटी मूच्छित १ तत्रवा--अ०, स० । यथैवी ल०, ५०, इ० । २ प्रत्यक्षं दृष्टमिव । ३ चितौ ट० । संयोजितौ । ४ अवारक्षताम् ! ५ मुनीशस्य । ६ सुरगिरिनाम्नि पर्वते । ७ कुबेरश्रीः । ८ पूजया । ६ आगच्छेयुः। १० शुभवृक्षः । ११ वट । 'न्यग्रोधो बहुपाद् वटः' इत्यभिधानात् । १२ वटस्य । १३ आलोच्य । १४ दर्शनीयम् । १५ वसुपालथीपालयोः । १६ चेत् । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१३३ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व उपायैः प्रतिबोध्यैनां तदा प्रश्रयपूर्वकम् । इति विज्ञापयामास काचित्तं भाविचक्रिणम् ॥१३॥ सुरम्यविषये श्रीपुराधिपः श्रीधराहूयः । तदेवी श्रीमती तस्याः सुता जयवतीत्यभूत् ॥ १४॥ तजाती' चक्रिणो देवी भाविनीत्यादिशन्विदः । अभिज्ञानं च तस्यैतत् नटनट्योविवेति यः ॥१५॥ भेदं स चक्रवर्तीति तत्परीक्षितुमागताः । पुण्याद् दृष्टस्त्वमस्माभिनिधिकल्पो यदृच्छया ॥ १६ ॥ अहं प्रियरतिर्नामा सुतेयं नर्तकी मम । ज्ञेया मदनवेगाख्या पुरुषाकारधारिणी ॥ १७ ॥ नटोऽयं वासवो नाम ख्यातः स्त्रीवेषधारकः । तच्छ्रुत्वा नृपतिस्तुष्ट्वा तां संतर्प्य यथोचितम् ॥१८॥ गुरुं वन्दितमात्मीयं गच्छन् सुरगिरिं ततः । अश्वं केनचिदानीतमारुह्यासक्तचेतसा ॥१२॥ - अधाचिदन्तरं धरणीतले । गढ़वा गगनमारुह्य व्यक्तीकृतखगाकृतिः ॥२०॥ न्यग्रोधपादपाःस्थप्रतिमावासिना भृशम् । देवेन तर्जितो भीत्वाऽशनिवेगोऽमुचत् खगः ॥ २१॥ कुमारं पर्णध्वाख्यविद्यया स्वनियुक्तया । रत्नावर्तगिरेर्मूर्ध्नि स्थितं तं सन्ति भाविनः ॥ २२ ॥ बहवोऽप्यस्य लम्मा इत्यग्रहीत्वा निवृत्तवान् । देवः सरसि कस्मिंश्चित् स्नानादिविधिना श्रमम् ॥ २३ ॥ मार्गजं स्थितमुद्भूतमेकस्मात् सुधागृहात । आगत्य राजपुत्रोऽयमिति ज्ञात्वा यथोचितम् ॥ २१ ॥ दृष्ट्वा षड्राजकन्यास्ताः स्ववृत्तान्तं न्यवेदयन् । स्वगोत्रकुलनामादि निर्दिश्य खचरेशिना ॥ २५ ॥ बलादशनिवेगेन वयमस्मिन्निवेशिताः । इति तत्प्रोक्तमाकर्ण्य कुमारस्यानुकम्पिनः ॥ २६ ॥ हो गयी ॥११- १२ ।। उसी समय अनेक उपायोंसे नटीको सचेत कर कोई स्त्री उस होनहार चक्रवर्ती श्रीपालसे विनयपूर्वक इस प्रकार कहने लगी || १३|| कि सुरम्य देशके श्रीपुर नगर के राजाका नाम श्रीधर है उसकी रानीका नाम श्रीमती है और उसके जयवती नामकी पुत्री है। ॥ १४ ॥ उसके जन्म के समय ही निमित्तज्ञानियोंने कहा था कि यह चक्रवर्तीकी पट्टरानी होगी और उस चक्रवर्तीकी पहचान यही है कि जो नट और नटीके भेदको जानता हो वही चक्रवर्ती है, हम लोग उसीकी परीक्षा करनेके लिए आये हैं, पुण्योदयसे हम लोगोंने निधिके समान इच्छानुसार आपके दर्शन किये हैं ।। १५-१६ ।। मेरा नाम प्रियरति है, यह पुरुषका आकार धारण कर नृत्य करनेवाली मदनवेगा नामकी मेरी पुत्री है और स्त्रीका वेष धारण करनेवाला यह वासव नामका नट है । यह सुनकर राजाने सन्तुष्ट होकर उस स्त्रीको योग्यतानुसार सन्तोषित किया और स्वयं अपने पिताकी वन्दना करनेके लिए सुरगिरि नामक पर्वतकी ओर चला, मार्ग - में कोई पुरुष घोड़ा लाया उसपर आसक्तचित्त हो श्रीपालने सवारी की और दौड़ाया। कुछ दूर तक तो वह घोड़ा पृथिवीपर दौड़ाया परन्तु फिर अपना विद्याधरका आकार प्रकट कर उसे आकश में ले उड़ा। उस वट वृक्षके नीचे स्थित प्रतिमाके समीप रहनेवाले देवने उस विद्याधरको ललकारा, देवकी ललकारसे डरे हुए अशनिवेग नामके विद्याधरने अपनी भेजी हुई पर्णलघु विद्यासे उस कुमार श्रीपालको रत्नावर्त नामके पर्वत के शिखरपर छोड़ दिया । देवने देखा कि उस पर्वतपर रहकर ही उसे बहुत लाभ होनेवाला है इसलिए वह कुमारको साथ लिये बिना ही लौट गया । कुमार भी किसी तालाब में स्नान आदि कर मार्ग में उत्पन्न हुए परिश्रमको दूर कर बैठे ही थे कि इतनेमें एक सफेद महलसे छह राजकन्याएँ निकलकर आयीं. और कुमारको 'यह राजाका पुत्र है' ऐसा समझकर यथायोग्य रीति से दर्शन कर अपना समाचार निवेदन करने लगीं । उन्होंने अपने गोत्र-कुल और नाम आदि बतलाकर कहा कि 'अशनिवेग नामके विद्याधरने हम लोगोंको यहाँ जबरदस्ती लाकर पटक दिया है' कन्याओंकी यह बात ४ विशेषेण जानाति । १ जयवत्या जननसमये । २ विद्वांसः ३ परिचायकं चिह्नम् । ५ नाम्ना ल० अ०, प०, स०, इ० । ६ वनात् ( प्रमथवनात् ) । ७ गमयति स्म । ८ मायाश्वः । ९ विद्याधराकारः । F. 9 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् निजागमनवृत्तान्तकथनावसरे परा । विद्यद्वेगाभिधा विद्याधरी तत्र समागता ॥२७॥ पापिनाऽशनिवेगेन हन्तुमनं प्रयोजिता । समीक्ष्य मदनाक्रान्ताऽभूच्चित्राश्चित्तवृत्तयः ॥२८॥ मूनः स्तनितवेगस्य राज्ञो राजपुरंशितः । खगेशोऽशनिवेगाख्यो ज्योतिबंगाख्यमातृकः ॥२६॥ वमत्र तेन सौहार्दादानीतः स ममाग्रजः । विद्युद्वेगाह्वयाऽहं च प्रेषिता ते स मैथुनः ॥३०॥ रत्नावर्तगिरिं याहि स्थितस्तत्रेति सादरम् । भवत्समीपं प्राप्तवमिति रक्तविचेष्टितम् ॥३१॥ दर्शयन्ती समीपस्थं यावत् सोधगृहान्तरम् । इत्युक्त्वाऽनभिलाषं च ज्ञात्वा तस्य महात्मनः ॥३२॥ तत्रैव विद्यया सौधरोहं निर्माप्य निस्त्रपा । स्थिता तद्वाजकन्याभिः सह का कामिनां त्रपा ॥३३॥ एत्यानङ्गपताकाऽस्या स्तं सखीथमवोचत । त्वत्पितुर्गुणपालस्य सन्निधाने जिनेशितुः ॥३४॥ ज्योतिबंगागुरुं प्रीत्या कुबेरश्रीः समादिशत् । निजजामातर क्वापि श्रीपालस्वामिनं मम ॥३५॥ स्वयं स्तनितवेगोऽसौ सुतमन्वेषयदिति । प्रतिपन्नः स तत्प्रोक्तं भवन्तं मैथुनस्तव ॥३६॥ आनीतवानि हेत्येतदवबुध्यात्मनो द्विषम् । पतिं मस्वोत्तरश्रेणेराशङ्क्यानलवेगकम् ॥३७॥ स्वयं तदा समालोच्य निवार्य खचराधिपम् । उदीर्यान्वेषणोपायं त्वत्स्नेहाहितचेतसः ॥३८॥ आनीयतां प्रयत्नेन कुमार इति वान्धवाः । आवां प्रियसकाशं ते प्राहपुस्त' 'दिहागते ॥३९॥ सुनकर कुमारको उनपर दया आयी और वह भी अपने आनेका वृत्तान्त कहनेके लिए उद्यत हुआ । वह जिस समय अपने आनेका समाचार कह रहा था उसी समय विद्युद्वेगा नामकी एक दूसरी विद्याधरी वहाँ आयी। पापी अशनिवेगने कुमारको मारनेके लिए इसे भेजा था परन्तु वह कुमारको देखकर कामसे पीड़ित हो गयी सो ठीक ही है क्योंकि चित्तकी वृत्ति विचित्र होती है ।।१७-२८। वह कहने लगी कि अशनिवेग नामका विद्याधर राजपुरके स्वामी राजा स्तनितवेगका पुत्र है, उसकी माताका नाम ज्योतिर्वेगा है ॥२९॥ वह अशनिवेग मित्रताके कारण आपको यहाँ लाया है, वह मेरा बड़ा भाई है, मेरा नाम विधुढेगा है और उसीने मुझे आपके पास भेजा है, अब वह आपका साला होता है ।।३०॥ उसने मुझसे कहा था कि तू रत्नावर्त पर्वतपर जा, वे वहाँ विराजमान हैं इसलिए ही मैं आदर सहित आपके पास आयी हूँ' ऐसा कहकर उसने रागपूर्ण चेष्टाएँ दिखलायीं और कहा कि यह समीप ही चूनेका बना हुआ पक्का मकान है परन्तु इतना कहनेपर भी जब उसने उन महात्माकी इच्छा नहीं देखी तब वहींपर विद्याके द्वारा मकान बना लिया और निर्लज्ज होकर उन्हीं राजकन्याओंके साथ बैठ गयी सो ठीक ही है क्योंकि कामी पुरुषोंको लज्जा कहाँसे हो सकती है ? ॥३१-३३॥ इतने में विद्युद्वेगाकी सखी अनंगपताका आकर कुमारसे इस प्रकार कहने लगी कि 'आपकी माता कुबेरश्री आपके पिता श्रीगुणपाल जिनेन्द्रके समीप गयी हुई थी वहाँ उसने बड़े प्रेमसे ज्योतिर्वेगाके पितासे कहा कि मेरा पुत्र श्रीपाल कहीं गया है उसे ले आओ। ज्योतिर्वेगाके पिताने अपने जामाता स्तनितवेगसे कहा कि मेरे स्वामी श्रीपाल कहीं गये हैं उन्हें ले आओ। स्तनितवेगने स्वयं अपने पुत्र अशनिवेगको भेजा, पिताके कहनेसे ही अशनिवेग आपको यहाँ लाया है, वह आपका साला है। उत्तरश्रेणीका राजा अनलवेग इनका शत्रु है उसकी आशंका कर तुम्हारे स्नेहसे जिनका चित्त भर रहा है ऐसे सब भाई-बन्धुओंने स्वयं विचारकर आपके खोजनेका उपाय बतलाया और कहा कि कुमारको बड़े प्रयत्नसे यहाँ लाया जाय । वे सब विद्याधरोंके अधिपति अनलवेगको रोकनेके लिए गये हैं और हम दोनोंको आपके पास भेजा है। यहाँ आनेपर यह विद्युद्वेगा १ श्रीपालम् । २ पुरेशिनः अ०, प०, स०, ल०। ३ ज्योतिर्वेगाख्या माता यस्यासी । ४ विद्यद्वेगायाः । ५ श्रीपालम् । ६ जिनेशिनः ल०, ५०,। ७ अशनिवेगस्य मातुर्योतिर्वगायाः पितरम् कुबेरश्रीः समादिशदिति संबन्धः । ८ स्तनितवेगजामातरम् । ९ ज्योतिर्वेगापिता । १० अशनिवेगम् ।११ तत्कारणात् । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व ४ 9 3 १५ 13. १८ विथुगावलीयय स्वामनुरकामवश्यया । न व्याज्येति तदाकयं स विचिन्त्योचितं वचः ॥४०॥ मयोपनयनेऽग्राहि व्रतं गुरुभिरर्पितम् । मुक्त्वा गुरुजनानीतां स्वीकरोमि न चापराम् ॥४१॥ इस्योत्ततस्ताच शृङ्गाररसः । नानाविधं रजयितुं प्रवृत्ता नाशकस्तदा ॥ ४२ ॥ विद्युद्वेगा तो गच्छ स्वमातृपितृसंनिधौ । पिधाय द्वारमारोप सौधाग्रं प्राणवल्लभम् ॥४३॥ तावानेतुं कुमारोऽपि सुतवान् रककम्बलम् । प्रावृतं समालोक्य भेरुण्डः विशितोचयम् ॥४४॥ मानवा द्विजः सिद्धकूटाग्रे खादितुं स्थितः । चलन्तं वीक्ष्य सोऽत्याक्षीत् स तेषां जातिजो गुण: ४५ "ततोऽवतीयं श्रीपाल स्नात्वा सरसि मतिमान् सुपुष्पाणि सुगन्धीनि समादाय जिनालयम् ॥४६॥ परीत्यस्तोमारंभे विवृत" द्वास्तदा स्वयम् । निरीक्षण प्रसन्नसन्नभ्यच्यं निपुंगवान् ॥४७॥ अभिवन्द्य यथाकामं विधिवत सुस्थितः । तमभ्येत्य खगः कश्चित् समुद्रस्य नभः पथे ॥४८॥ गच्छन्मनोरमे राष्ट्रे शिवंकरपुरेशिनः । नृपस्यानिल वेगस्य कान्ता कान्तवर्तीत्यभूत् ॥४९॥ तयोः सुतां भोगवतीमाकाशस्फटिकालये सुदुशय्यातले सुप्तां का कुमारीयमिवसी ॥५०॥ अपृच्छत् सोऽयवीदेषा भुजंगी विषमेति च तदुक्तः स कुधा कृत्वा कम्पापिनुसमीपगम् ॥५१॥ .१६ ۶۹ । १०. । १५ ४८३ आपको देखकर आपमें अत्यन्त अनुरक्त हो गयी है अतः आपको यह छोड़नी नहीं चाहिए । कुमारने ये सब बातें सुनकर और अच्छी तरह विचारकर उचित उत्तर दिया कि मैंने यज्ञोपवीत संस्कारके समय गुरुजनोंके द्वारा दिया हुआ एक व्रत ग्रहण किया था और वह यह है कि मैं माता-पिता आदि गुरुजनोंके द्वारा दी हुई कन्याको छोड़कर और किसी कन्याको स्वीकार नहीं करूंगा । जब कुमारने यह उत्तर दिया तब वे सब कन्याएँ अनेक प्रकारकी श्रृंगाररसकी चेष्टाओ कुमारको अनुरक्त करनेके लिए तैयार हुई परन्तु जब उसे अनुरक्त नहीं कर सकीं तब विद्युद्वेगा प्राणपति श्रीपालको मकानकी छतपर छोड़कर और बाहरसे दरवाजा बन्द कर माता-पिताको बुलाने के लिए उनके पास गयी। इधर कुमार श्रीपाल भी लाल कम्बल ओढ़कर सो गये, इसने में एक भेरुण्ड पक्षीकी दृष्टि उनपर पड़ी, वह उन्हें मांसका पिण्ड समझकर उठा ले गया और सिद्धकूट चैत्यालय के अग्रभागपर रखकर खानेके लिए तैयार हुआ परन्तु कुमारको हिलता डुलता देखकर उसने उन्हें छोड़ दिया सो ठीक ही है क्योंकि यह उन पक्षियोंका जन्मजात गुण है ।।३४-४५ ॥ तदनन्तर श्रीपालने सिद्धकूटके शिखरसे नीचे उतरकर सरोवर में स्नान किया और अच्छे-अच्छे सुगन्धित फूल लेकर भक्तिपूर्वक श्री जिनालयकी प्रदक्षिणा दी और स्तुति करना प्रारम्भ किया, उसी समय चैत्यालयका द्वार अपने आप खुल गया, यह देखकर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ और विधिपूर्वक इच्छानुसार श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा-वन्दना कर सुखसे वहीं पर बैठ गया। इतनेमें ही एक विद्याधर सामने आया और कुमारको उठाकर आकाशमार्ग में ले चला, चलते-चलते वे मनोरम देशके शिवंकरपुर नगरमें पहुँचे, वहांके राजाका नाम अनिलवेग था, और उसकी स्त्रीका नाम था कान्तवती, उन दोनोंके भोगवती नामकी पुत्री थी, वह भोगवती आकाश में बने हुए स्फटिकके महल में कोमल शय्यापर सो रही थी उसे देखकर उस विद्याधर ने श्रीपालकुमारसे पूछा कि यह कुमारी कौन है? कुमारने उत्तर दिया कि १ संविचि ० ० अ० २ स्वीकृतः ३ कन्यकाजननीजनकानुमतेन दताम् ४ संरदत्ताम् । ५ शक्ताः न बभूवुः। ६ रत्नावतंगिरेः । ७ निजमातापितरौ । ८ प्रच्छाद्य ९ पक्षिविशेषः । १० मांसपिण्ड ११ भेरुण्ड: । १२ मुमोच । १३ सजीवस्य त्यागः | १४ पक्षिणाम् । १५ सिद्धकूटाग्रात् । १६ उद्घाटितम् । १७ द्वारम् १८ विद्याधरः । १९ श्रीपाल । २० श्रीपालवचनात् २१ भोगवतीजनकस्य समीप तेन अनिलवेगेन सह विद्याधरी वदति किमिति ? अस्मत्कन्यका भोगवतीमेव खल: थोपाल: विषमभुजंगीति अब्रवीदिति । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ आदिपुराणम् तमस्मकन्यकामेष भुजंगीति खलोऽब्रवीत् । इत्यवोचत्ततः क्रुद्ध्वा दुर्धी निक्षिप्यतामयम् ॥५२॥ दुर्द्धरोरुतपोभारधारियोग्य घने वने । इत्यभ्यधान्नपस्तस्य वचनानुगमादसौ ॥५३॥ विजयाङ्केत्तरश्रेणिमनोहरपुरान्तिके । स्मशाने शीतवैताल विद्यया तं शुभाकृतिम् ॥५४॥ कृत्वा व्यत्यक्षिपत् पापी जरतीरूपधारिणम् । तत्रास्पृश्यकुले जाता काऽपि जामातरं स्वयम् ॥५५॥ स्वं ग्राममृगरूपेण स्वसुताचरणद्वये । समन्ताल्लुठितं कृत्वा तां प्रसाद्य भृशं ततः ॥५६॥ "तं पुरातनरूपेण समवस्थापयत् खला।''तद्विलोक्य कुमारोऽसौ खगाः स्वाभिमता कृतिम् ॥५७॥ 'विनिवर्तयितु शक्ता इत्याशङ्कयविचिन्तयन् । "यमाग्रयायिसंकाशकाशप्रसंवहासिभिः ॥५८॥ शिरोरुहर्जराम्भोधितरङ्गामतनुत्वचा । समेतमात्मनो रूपं दृष्टा दुष्टविभावितम् ॥५९॥ लज्जाशोकाभिभूतः सन् मच गच्छंस्ततः परम् । तत्र भोगवती भ्रातुर्हरिकेतोः सुसिद्धया ॥६०॥ विद्यया शवरूपेण सद्यः प्रार्थितया करे । कुमारस्य समुद्वम्य' निर्वान्तमविचारयन् ॥६१॥ उद्धृत्येदं विशङ्कस्त्वं पिबेत्युक्तं प्रपीतवान् । तं दृष्ट्वा हरिकेतुस्त्वां सर्वव्याधिविनाशिनी ॥६२॥ विद्याश्रितेति संप्रीतः प्रयुज्य वचनं गतः। ततः स्वरूपमापन्नः कुमारो वटभूरुहः ॥६३॥ गच्छन् स्थितमधोभागे दृष्ट्वा कचिन्नमश्चरम् । प्रदेशः कोऽयमित्येतदपृच्छत् सोऽब्रवीदिदम् ॥६॥ यह विषम सर्पिणी है। श्रीपालके ऐसा कहनेपर वह विद्याधर क्रुद्ध होकर उन्हें उस कन्याके पिताके पास ले गया और कहने लगा कि यह दुष्ट हम लोगोंकी कन्याको सर्पिणी कह रहा है । यह सुनकर कन्याके पिताने भी क्रुद्ध होकर कहा कि 'इस दुष्टको कठिन तपका भार धारण करनेके योग्य किसी सघन वनमें छुड़वा दो।' राजाके अनुसार उस पापी विद्याधरने शीतवैताली विद्याके द्वारा सुन्दर आकारवाले श्रीपालकुमारको वृद्धका रूप धारण करनेवाला बनाकर विजया पर्वतको उत्तर श्रेणिके मनोहर नगरके समीपवाले श्मशानमें पटक दिया । वहाँ अस्पृश्य कुलमें उत्पन्न हुई किसी स्त्रीने अपने जमाईको कुत्ता बनाकर अपनी पुत्रीके दोनों चरणोंपर खूब लोटाया और इस तरह अपनी पुत्रीको अत्यन्त प्रसन्न कर फिर उस दुष्टा चाण्डालिनीने उसका पुराना रूप कर दिया। यह देखकर कुमार कुछ भयभीत हो चिन्ता करने लगा कि ये विद्याधर लोग इच्छानुसार रूप बनानेमें समर्थ हैं। उस समय वह मानो यमराजके सामने जानेवालेके समान ही था - अत्यन्त वृद्ध था, उसके बाल काशके फूले हुए फूलोंकी हंसी कर रहे थे, और शरीरमें बुढ़ापारूपी समुद्रको तरंगोंके समान सिकुड़नें उठ रही थीं। इस प्रकार दुष्ट विद्याधरके द्वारा किया हुआ अपना रूप देखकर वह लज्जा और शोकसे दब रहा था । इसी अवस्थामें वह शीघ्र ही आगे चला। वहाँ भोगवतीके भाई हरिकेतुको विद्या सिद्ध हुई थी उससे उसने प्रार्थना की तब विद्याने मुरदेका रूप धारण कर श्रीपाल कुमारके हाथपर कुछ उगल दिया और कहा कि तू बिना किसी विचारके निशंक हो इसे उठाकर पी जा, कुमार भी उसे शीघ्र ही पी गया। यह देखकर हरिकेतुने कुमारसे कहा कि तुझे सर्वव्याधिविनाशिनी विद्या प्राप्त हुई है, यह कहकर और विद्या देकर हरिकेतु प्रसन्न होता हुआ वहाँ चला गया। इधर कुमार भी अपने असली रूपको प्राप्त हो गया। कुमार आगे बढ़ा तो उसने एक वट वृक्षके १ इत्युवाच ततः क्रुध्वा दुष्टो अ०, ५०, इ०, स०, ल०। २ तद्वचनाकर्णनानन्तरम् । ३ अनिलवेगः प्रकुप्य । ४ श्रीपालः । ५ खगः । ६ श्रीपालम् । ७ स्मशाने । ८ सारमेयरूपेण । ९ प्रसन्नतां नीत्वा । १० जामातरम् । ११ मायास्वरूपम् । १२ विनिर्मातुम् । १३ कृतान्तस्य पुरोगामिसदृशः। .१४ हारिभिः ल०। १५ जराम्भोधेस्तरङ्गाभ इत्यपि पाठः। १६ दुष्टविद्याधरेण समुत्पादितम् । १७ तस्मादन्यप्रदेशम्। १८ स्मशाने । १९ पूर्वोक्तभोगवतीकन्याग्रजस्य । २० श्रीपालकुमारस्य । २१ वमनं कृत्वा । २२ पिबति स्म। २३ श्रीपालम्। २४ निजरूपं प्राप्तः । २५ न्यग्रोधवृक्षस्य । वटभूरुहम् ल०। २६ वक्ष्यमाणामित्येवम्-ल०,५०,०, स०,इ०। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व ४८५ खगाद्रेः पूर्वदिग्भागे नीलादेरपि पश्चिम । सुसीमाख्योऽस्ति देशोऽत्र महानगरमप्यदः ॥६५॥ तद्भूतवनमतत्त्वं सम्यक् चित्तेऽवधारय । अस्मिन्नेताः शिलाः सप्त परस्परताः कृताः ॥६६॥ येनाऽसौ चक्रवर्तित्वं प्राप्तेत्यादेश ईदृशः । इति तद्वचनादेष तास्तथा कृतवांस्तदा ॥६॥ दृष्ट्वा तत्साहसं वक्तुं सोऽगमन्नगरेशिनः । कुमारोऽपि विनिर्गत्य ततो निर्विण्णचेतसा ॥६॥ कांचिजरावती कुत्स्यशरीरां कस्यचित्तरोः। अवस्थितामधोमागे विषयं पुष्कलावतीम् ॥६॥ वद प्रयाति कः पन्था इत्यप्राशीत प्रियं वहन् । विना गगनमार्गेण प्रयातुं नैव शक्यते ॥७॥ "स'गव्यूतिशतोत्संधविजया गिरेरपि । परस्मिन्नित्यसावाह तदाकर्ण्य नृपात्मजः ॥१॥ बहि तत्प्रापणोपायमिति तां प्रत्यभाषत । इह जम्बूमति द्वीपे विषयो वत्सकावती ॥७२॥ तरखेचरगिरौ राजपुरे खेचरचक्रिणः । देवी धरणिकम्पस्य सुप्रभा वा प्रभाकरी ॥७३॥ तयोरहं तनूजास्मि विख्याताख्या सुखावती । त्रिप्रकारोरुविद्यानां पारगाऽन्ये धुरागता ॥७४॥ विषये वत्सकावत्यां विजयामिहीधर । अकम्पनसेतां पिप्पलाख्यां प्राणसमां सखीम् ॥७५॥ ममाभिवीक्षितुं तत्र चित्रमालोक्य कम्बलम् । कथयायं कुतस्त्यस्तं तन्वीति प्रश्नतो मम ॥७६॥ नीचे बैठे हुए किसी विद्याधरको देखकर उससे पूछा कि यह कौन-सा देश है ? तब वह विद्याधर कहने लगा कि ॥४६-६४॥ विजयार्ध पर्वतकी पूर्वदिशा और नीलगिरिको पश्चिमकी ओर यह सुसीमा नामका देश है, इसमें यह महानगर नामका नगर है और यह भूतारण्य वन है, यह तू अपने मनमें अच्छी तरह निश्चय कर ले, इधर इस वनमें ये सात शिलाएँ पड़ी हैं जो कोई इन्हें परस्पर मिलाकर एकपर एक रख देगा वह चक्रवर्ती पदको प्राप्त होगा ऐसी सर्वज्ञ देवकी आज्ञा है' विद्याधरके यह वचन सुनकर श्रीपालकुमारने उन शिलाओंको उसी समय एकके ऊपर एक करके रख दिया ॥६५-६७।। कुमारका यह साहस देखकर वह विद्याधर नगरके राजाको खबर देनेके लिए चला गया और इधर कुमार भी कुछ उदासचित्त हो वहाँसे निकलकर आगे चला। आगे किसी वृक्षके नीचे निन्द्य शरीरको धारण करनेवाली एक बुढ़ियाको देखकर मधुर वचन बोलनेवाले कुमारने उससे पूछा कि पुष्कलावती देशको कौन-सा मार्ग जाता है, बताओ, तब बुढ़ियाने कहा कि वहाँ आकाश मार्गके बिना नहीं जाया जा सकता क्योंकि वह देश पच्चीस योजन ऊँचे विजया पर्वतसे भी उस ओर है, यह सुनकर राजपुत्र श्रीपालने उससे फिर कहा कि वहाँ जानेका कुछ भी तो मार्ग बतलाओ। तब वह कहने लगी- इस जम्बू द्वीपमें एक वत्सकावती नामका देश है, उसके विजयार्ध पर्वतपर एक राजपुर नामका नगर है। उसमें विद्याधरोंका चक्रवर्ती राजा धरणीकम्प रहता है, उसकी कान्तिको फैलानेवाली सुप्रभा नामकी रानी है, मैं उन्हीं दोनोंकी प्रसिद्ध पुत्री हूँ, सुखावती मेरा नाम है और मैं जाति विद्या, कुल विद्या तथा सिद्ध की हुई विद्या इन तीनों प्रकारकी बड़ी-बड़ी विद्याओंकी पारगामिनी हूँ। किसी एक दिन मैं वत्सकावती देशके विजयाध पर्वतपर अपने प्राणोंके समान प्यारी सखी, राजा अकम्पनकी पुत्री पिप्पलाको देखनेके लिए गयी थी। वहाँ मैंने एक विचित्र कम्बल देखकर उससे पूछा कि हे सखि, कह, यह कम्बल तुझे कहाँसे प्राप्त हुआ है ? उसने कहा कि 'यह कम्बल मेरी ही आज्ञासे प्राप्त हुआ है' । कम्बल प्राप्तिके समयसे ही कम्बलवालेका ध्यान करती हुई वह अत्यन्त विह्वल हो रही है ऐसा सुनकर उसकी सखी मदनवती उसे देखनेके लिए उसी १ वने । २ एकैकस्याः उपर्युपरिस्थिताः । ३ विहिता। ४ प्राप्स्यति । ५ शीतलाः । ६ नगरेशितुः ल०, ५०, अ०, स०, इ० । ७ वनात् । ८ निन्द्य । ९ अधः- ल० । १० प्रियं वदः ल० । ११ पुष्कलावतीविषयः । १२ पञ्चविंशतियोजन । १३ अपरभागे। १४ जरती। १५ चन्द्रिकेव। १६ नातिकुलसाधितविद्यानाम् । १७ महीतले ल०, प० । १८ पिप्पलायाम् । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम जगाद साऽपि मापं प्रायादेशवादिति । कम्बलावाप्तितस्तन्तं समाप्यायविलाम् ॥७७॥ तस्याः सखीया समम् समागता । कालनाव्य पुरानाम्ना मदनादिवती सदा ॥ ७८ ॥ दृष्ट्वा तत्कम्बलस्यान्तं निबद्ध रत्नमुद्रिकाम् । तत्र श्रीपालनामाक्षराणि चादेशसंस्मृतः ॥ ७९ ॥ अकायसायकोद्भिन्नहृदयाभूहं ततः । कथं वैद्याधरं लोकमिमं श्री पालनामभृत् ॥८०॥ समागतः स इत्येतन्निश्चेतुं पुण्डरीकिणीम् । उपगत्य जिनागारे वन्दित्वा समुपस्थिता ॥ ८१ ॥ त्वत्प्रवासकथां तव मातुः प्रजल्पनात् । विदित्वा विस्तरेण त्वामानेष्यामीति निश्चयात् ॥ ८२ ॥ आगच्छन्ती भवार्ता विद्युद्वेगामुखोद्गताम् । अवगन्य त्वया सार्द्धं योजयिष्यामि ते प्रियम् ॥ ८ ॥ ॥ व विषादी विधातव्य इत्याश्वास्य भवन्प्रियाम् । विनिर्गत्य ततोऽभ्येत्य सिद्धकूटजिनालयम् ॥ ८४ ॥ अभिवन्द्यागताऽस्येहि मयाऽमा पुण्डरी किणीम् । मातरं भ्रातरं चान्यांस्त्वद्वश्च समीक्षितुम् ॥ ८५ ॥ यदीच्छास्ति तत्रेत्याह सा तच्छु वा पुनः कुतः त्यमेव जस्ती जातत्वीत् स सुखावतीम् ॥ ८६ ॥ कुमारवचन कर्णनेन वार्द्धक्यमागतम् । भवतश्च न किं वेत्सीत्यपहस्य तयोदितम् ॥ ८१ ॥ जराभिभूतमालस्य स्वशरीरमिदं खया कृतमेवंविधं केन हेतुनेत्यनुयुक्तवान् ॥ ८८ ॥ तच्छ्रु देवपादिता महनादवतीया च मैथुन विभुती ॥८॥ बलवान् धूमवेगाख्यस्तादृग्घरिवरोऽपि च । तद्भयात्वां तिरोधाय पुरं प्रापयितुं मया ॥ ६०॥ मायारूपद्वयं विद्याभावात् प्रकटीकृतम् । कुमार, मत्करस्यामृतास्वादुफलभक्षणात् ॥ ६१ ॥ १८ 15 ४८६ 93 3 समय कांचनपुर नगर से आयी उसने वह कम्बल देखा, कम्बल के छोर में बंधी हुई रत्नोंकी अँगूठी और उसपर खुदे हुए श्रीपाल के नामाक्षर देखकर मुझे अपने गुरुकी आज्ञाका स्मरण हो आया, उसी समय मेरा हृदय कामदेवके बाणोंसे भिन्न हो गया, मैं सोचने लगी कि श्रीपाल नामको धारण करनेवाला यह भूमिगोचरी विद्याधरोंके इस लोक में कैसे आया? इसी बातका निश्चय करने के लिए मैं पुण्डरीकिणी पुरी पहुंची, वहाँ जिनालय में भगवान्‌को वन्दना कर बैठी ही थी कि इतने में वहाँ आपकी माता आ पहुँची, उनके कहने से मैंने विस्तारपूर्वक आपके प्रवासकी कथा मालूम की और निश्चय किया कि मैं आपको अवश्य ही ढूँढ़कर लाऊंगी । उसी निश्चयके अनुसार में आ रही थी, रास्ते में विद्युद्वेगाके मुखसे आपका सब समाचार जानकर मैंने उससे कहा कि 'तू अभी विवाह मत कर, मैं तेरे इष्टपतिको तुझसे अवश्य मिला दूँगी' इस प्रकार आपकी भावी प्रियाको विश्वास दिलाकर यहांसे निकली और सिद्धकूट चैत्यालयमें पहुँची । वहाँको वन्दना कर आयी हूँ, यदि माता भाई तथा अन्य बन्धुओंको देखनेकी तुम्हारी इच्छा हो तो मेरे साथ पुण्डरीकिणी पुरीको चलो, यह सब सुनकर मैंने सुखावती से फिर कहा कि अच्छा, यह बतला तू इतनी बूढ़ी क्यों हो गयी है ? कुमारके वचन सुनकर उस बुढ़ियाने हँसते-हँसते कहा कि क्या आप अपने शरीरमें आये हुए बुढ़ापेको बूढ़े हो रहे हैं । कुमारने अपने शरीरको बूढ़ा देखकर उससे पूछा प्रकार बूढ़ा क्यों कर दिया है।' कुमारकी यह बात सुनकर वह इस कथन पहले कर आयी हूँ ऐसी पिप्पला और मदनवती नामकी दो । नहीं जानते - आप भी तो कि ' तूने मेरा शरीर इस तरह कहने लगी कि जिनका कन्याएँ हैं, उन्हें दो प्रसिद्ध ० ३ कम्पलवन्तं पुरुषम् " २ कम्बल २ कम्बलप्राप्तिमादि कृत्वेत्यर्थः कम्बलप्राप्तिस्त अ० स० ४ पिपलाम् । ५ पिप्पलायाः । ६ मुद्रिकायाम् । ७ संस्मृती इ० अ०, स०, प० । ८ कामबाण । ९ सुखावती । १० भवद्देशान्तरगमनकथाम् । ११ विवाहो ल० । विदोषो अ०, स० । १२ अत्रागताहम् । १३ आगच्छ । १४ सुखावतीवचनमाकर्ण्य । १५ श्रीपालः । १६ कुमारवाचमाकर्ण्य इ० अ०, स० । कुमारवचनाकर्ण्य ल० । १७ धूमवेगरवरभपात् १८ पुण्डरीकणीम् १९ मम जरतीरूपम् भवतश्च वाक्यमिति इयम् । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व विगतक्षुच्छ्रमः शीघ्रं मामारुह्य पुरं प्रति । व्रजेति सोऽपि तच्छ्रुत्वा स्त्रियो रूपममामकम् ॥९२॥ न स्पृशामि कथं चाहमारोहामि पुरा गुरोः । संनिधावाददामीतमित्यब्रवीदिदम् ॥९३॥ सा तदाकर्ण्य संचिन्त्य किं जातमिति विद्यया । गृहीत्वा पुरुषाकारमुद्रहन्ती "तमित्वरी ॥२४॥ वन्दित्वा सिन्द्वकूटाख्यं तत्र विश्रान्तये स्थिता । तस्मिन्नेव दिने भोगवती शशिनमात्मनः ॥ ९५ ॥ प्रविश्य भवनं कान्त्या कलाभिश्चाभिवर्द्धितम् । निर्वर्त्तमानमालोक्य स्वप्नेऽमांगत्यशान्तये ॥ ६६ ॥ सिद्धपूजार्थं कान्ता कान्तवती सती । रत्नवेगा सुवेगाऽमितमती रतिकान्तया ||९७ ॥ सहिता चित्तवेगाख्या पिपला मदनावती । विद्युद्वेगा तथैवान्यास्ताभिः सा परिवारिता ॥ ६८ ॥ समागत्य महाभक्त्या परीत्य जिनमन्दिरम् । यथाविधि प्रणम्येशं संपूज्य स्तोतुमुद्यता ॥ ३९॥ ताच तासां तदा व्याकुलीभावमपि चेतसः । तस्मिन् शिवकुमारस्य वक्रताक्रान्तमाननम् ॥१००॥ 'आदिष्टसंनिधानेन विलोक्य प्रकृतिं गतम् । सुखावती तदुद्देशादपनीय कुमारकम् ॥ १०१ ॥ स्थानेऽन्यस्मिन्न्यधादेनं तत्राप्यम्बुनि मुद्रया । स्वरूपं कामरूपिण्या "प्रेक्षमाणं यदृच्छया ॥ हरिवरस्तस्मान्नीत्वा कोपात् स पापभाक् । निचिक्षेप' महाकालगुहायां विहितायकम् ॥ १०३ ॥ ૨ ४८७ विद्याधर चाहते हैं, एकका नाम धूमवेग है और दूसरेका नाम हरिवर । ये दोनों ही अत्यन्त बलवान् हैं, उन दोनोंके भयसे ही मैंने आपको छिपाकर नगर में पहुँचाने के लिए विद्या के प्रभावसे मायामय दो रूप बनाये हैं । हे कुमार, मेरे हाथमें रखे हुए इस अमृत के समान स्वादिष्ट फलको खाकर आप अपनी भूख तथा थकावटको दूर कीजिए और मुझपर सवार होकर शीघ्र ही नगरकी ओर चलिए' यह सुनकर कुमार ने कहा कि मेरे सवार होनेके लिए स्त्रीका रूप अयोग्य है, मैं तो उसका स्पर्श भी नहीं करता हूँ, सवार कैसे होऊँ ? क्योंकि मैंने पहले गुरुके समीप ऐसा ही व्रत लिया है यह सुनकर उसने सोचा और कहा कि अब भी क्या हुआ ? वह विद्या द्वारा उसी समय पुरुषका आकार धारण कर कुमारको बड़ी शीघ्रतासे ले चली । चलते-चलते वह सिद्धकूट चैत्यालय में पहुँची और वन्दना कर विश्राम करनेके लिए वहीं बैठ गयी। उसी दिन भोगवतीने स्वप्न में देखा कि कान्ति और कलाओंसे बढ़ा हुआ चन्द्रमा हमारे भवन में प्रवेश कर लौट गया है। इस स्वप्नको देखकर वह अमंगलकी शान्ति के लिए सिद्धकूट चैत्यालय में पूजा करनेके लिए आयी थी । वह सुन्दरी कान्तवती, सती रत्नवेगा, सुवेगा, अमितमती, रतिकान्ता, चित्तवेगा, पिप्पला, मदनावती, विद्युद्वेगा तथा और भी अनेक राजकन्याओं से घिरी हुई थी । उन सभी कन्याओंने आकर बड़ी भक्तिसे जिन मन्दिरकी प्रदक्षिणा दी, विधिपूर्वक नमस्कार किया, पूजा की और फिर सबकी सब स्तुति करनेके लिए उद्यत हुई । स्तुति करते समय भी उनका चित्त व्याकुल हो रहा था । उसी चैत्यालय में एक शिवकुमार नामका राजपुत्र भी खड़ा था, उसका मुँह टेढ़ा था परन्तु श्रीपालकुमार के समीप आते ही वह ठीक हो गया, यह देखकर सुखावतीने उसे उसके स्थानसे हटाकर दूसरी जगह रख दिया। उस चैत्यालय में श्रीपालकुमार अपनी कामरूपिणी मुद्रासे इच्छानुसार जलमें अपना खास रूप देख रहा था । उसे ऐसा करते पापी हरिवर विद्याधरने देख लिया और पूर्व जन्ममें पुण्य करनेवाले कुमारको १ मम संबन्धिस्त्रीरूपं मुक्त्वा अन्यस्त्रीरूपम् । २ पूर्वस्मिन् । ३ गुरोः समीपे ४ स्वीकरोमि । ५ श्रीपालम् । ६ गमनशीला । ७ पुरा कुमारेण भुजङ्गीत्युक्ता भोगवती । ८ सहागताः कन्यकाः । ९ आदेशपुरुषसामीप्येन । १० पूर्वस्वरूपम् । ११ तत्प्रदेशात् । १२ स्थापयामास । १३ जले । १४ मुद्रिकया । १५ प्रेक्ष्यमाणं इ० । १६ मदनावतीमैथुनः । १७ निक्षिप्तवान् । १८ कृतपुण्यं श्रीपालम् । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ आदिपुराणम् वसंस्तत्र महाकालस्तं गृहीतुमुपागतः । तस्य पुण्यप्रभावेन सोऽप्यकिंचित्करो गतः ॥१०४॥ तन शय्यातले सुप्त्वा शुची मृदुनि विस्तृते । परेद्यर्निर्गतं तस्याः संप्रयुक्तैः परीक्षितम् ॥१०५॥ आदिष्टपुरुषं भृत्यैत्विाऽभ्येत्य निवेदितम् । गृहीत्वा स्थविराकारं कोपपावकदीपितः ॥१०६॥ तं वीक्ष्य धूमवेगाख्यः खगश्चन्द्र पुराद् बहिः । श्मशानमध्ये पाषाणनिशातविविधायुधैः ॥१०७॥ 'न्यगृहात्तानि चास्यासन् पतन्ति कुसुमानि वा । परोऽपि खेचरस्तव नरंशोऽतिवलाह्वयः ॥१०॥ स्वदव्यां चित्रसेनायां भृत्ये दुष्टतरे सति । तं निह त्यादहत्तस्मिन् धूमवेगो निधाय तम् ॥१०॥ कुमारं चागमत्तत्र महौषधजशक्तितः । निराकृतज्वल इतिशक्तिस्तस्मात् स निर्गतः ॥१६॥ हतानुचरभार्यात्र काचिन्निरपराधकः । हतो नृपेण मभतेत्यस्य शुद्धिप्रकाशिनी ॥१११॥ तत्कुमारस्य संस्पर्शान्निश्शक्ति सा हुताशनम् । विदित्वा प्राविशद् दृष्ट्वा कुमारस्तां सकौतुकः ॥११२॥ अभंद्यमपि बज्रेण स्त्रीणां मायाविनिर्मितम् । कवचं दिविजेशा च नीरन्ध्रमिति निर्भयः ॥११३।। स्थितस्तत्र स्मरन्नेवं सुता तन्नगरेशिनः । राज्ञो विमलसेनस्य वत्यन्तकमलाह्वया ॥११४॥ कामग्रहाहिता तस्यास्तद्ग्रहापजिहीर्षया । जने समुदिते सद्यः कुमारस्तमपाहरत् ॥११॥ क्रोधसे उस स्थानसे ले जाकर महाकाल नामकी गुफामें गिरा दिया। उस गुफामें एक महाकाल नामका व्यन्तर रहता था वह उसे पकड़नेके लिए आया परन्तु कुमारके पुण्यके प्रभावसे अकिंचित्कर हो चला गया-उसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। वह कुमार उस दिन उसी गुफामें पवित्र, कोमल और बड़ी शय्यापर सोकर दूसरे दिन वहाँसे बाहर निकला, यद्यपि उसने अपना बूढेका रूप बना लिया था तथापि धूमवेगके द्वारा परीक्षाके लिए नियुक्त किये हुए पुरुषोंने उसे पहचान लिया, स्वामीके पास जाकर उन्होंने सब खबर दी और पकड़कर श्रीपालकुमारको सामने उपस्थित किया। क्रोधरूपी अग्निसे प्रज्वलित हुए धूमवेग विद्याधरने कुमारको देखकर आज्ञा दी कि इसे नगरके दाहर श्मशानके बीच पत्थरपर घिसकर तेज किये हुए अनेक शस्त्रोंसे मार डालो। सेवक लोग मारने लगे परन्तु वे सब शस्त्र उसपर फूल होकर पड़ते थे । इसोसे सम्बन्ध रखनेवाली एक कथा और लिखी जाती है जो इस प्रकार है - उसी नगरमें एक अतिवल नामका दूसरा विद्याधर राजा रहता था ।।६८-१०८॥ उसकी चित्रसेना नामकी रानीसे कोई दुष्ट नौकर फंस गया था, इसलिए राजा उसे मारकर जला रहा था । धूमवेग विद्याधर श्रीपालकुमारको उसी अग्निकुण्डमें रखकर चला गया परन्तु कुमारकी महौषधिको शक्तिसे वह अग्नि निस्तेज हो गयी इसलिए वह उससे बाहर निकल आया। उस मारकर जलाये हुए सेवककी स्त्रीको जब इस बातका पता चला कि कुमारके स्पर्शसे अग्नि शक्ति रहित हो गयी है तब वह स्वयं उस अग्नि में घुस पड़ी और उससे निकलकर यह कहती हुई अपनी शुद्धि प्रकट करने लगी कि 'मेरा पति निरपराध था राजाने उसे व्यर्थ ही मार डाला है ।' कुमारको यह सब चरित्र देखकर बड़ा कौतुक हुआ, वह सोचने लगा कि 'स्त्रियोंकी मायासे बने हुए इस कवचको इन्द्र भी अपने वज्रसे नहीं भेद सकता है, यह छिद्ररहित है' इस प्रकार सोचता हुआ वह निर्भय होकर वहीं बैठा था। इधर उस नगरके स्वामी राजा विमलसेनकी पुत्री कमलावती कामरूप पिशाचसे आक्रान्त हो रही थी, उसके उस पिशाचको दूर करनेकी इच्छासे बहुत आदमी इकट्ठे हुए थे, श्रीपालकुमार भी वहाँ गया था और उसने उस पिशाचको दूर १ मुक्षितुमित्यर्थः । २ गुहायाः सकाशात् । ३ सप्रयुक्तैः ब० । सुप्रयुक्तैः ल०, अ०, प० । ४ पिप्पलायाः मैथुनः । ५ निशित । ६ निग्रहं चकार । ७ पाषाणायुधानि । ८ हत्वा। ९ चिताग्नौ। १० पुरा स्मशाने हरिकेतीविद्यया निन्तिं पीत्वा जातमहौषधिशक्तितः । ११ स्वभर्तुः । १२ कपटमित्यर्थः । १३ इन्द्रेण । १४ कानग्रहमहर्तुमिच्छया । १५ एकत्र मिलिते सति । १६ कामग्रहमपसारितवानित्यर्थः । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व ४८६ सत्योऽभूत् प्राक्तनादेश इति तस्मै महीपतिः । तुष्ट्वा तां कन्यां दिल्लुस्तस्यानिच्छां विबुध्य सः ११६ अभ्यर्णं वन्धुवर्गस्य नेयोऽयं भवता द्रुतम् । यत्नेनेत्यात्मजं स्वस्य वरसेनं समादिशत् ॥ ११७ ॥ नया खोऽपि कुमारं तं विमलादिपु बहिः । वने तृष्णोपसंतप्तं स्थापयित्वा गत॥११८॥ तदा सुखावती कुजा भूत्वा कुसुममालया । परिस्पृश्य तृषां नीत्वा कन्यकां तं चकार सा ॥१६६॥ भूमयेगो हरिवरश्चैतां वीक्ष्याभिलाषिणौ । अभूतां यमात्सर्यौ तस्याः स्वीकरणं प्रति ॥ १२० ॥ द्वेषवन्तौ तदाऽऽलोक्य युवयोर्विग्रहो वृथा । पतिर्भवत्वसावस्या यमेषाऽभिलषिष्यति ॥ १२१ ॥ इति बन्धुजनैर्वार्यमाणौ वैराद् विरेमतुः । स्त्रीहेतोः कस्य वा न स्यात् प्रतिघातः परस्परम् ॥ १२२॥ कन्याकृत्यैव वातः कान्तया स सुकान्तया । रतिकान्ताख्यया कान्तवत्या च सहितः पुनः ॥ १२३ ॥ स्थितं प्रातरूपेण कालिज्जता रतिं समागमन काचिन्नैकनावा हि योषितः ॥ १२५ ॥ प्रसुप्तवन्तं तं तत्र प्रत्यूषे च सुखावती । यत्नेनोद्धृत्य गच्छन्ती तेनोन्मीलितचक्षुषा ॥१२५॥ ११ 1 सामिकाकिनं त्वं च प्रस्थितेति सा पृष्टा न क्यापि यावत्समीपगता सदा ॥ १२६ ॥ आदिष्टवनितारत्नलाभो नैवात्र ते भयम् । इत्यन्तर्हितमापाद्य स्वरूपेण समागमः ॥ १२७ ॥ १५ ५३ १ ।' यह कर दिया था । 'निमित्तज्ञानियोंने जो पहले आदेश दिया था वह आज सत्य सिद्ध हुआ देख राजाने सन्तुष्ट होकर वह पुत्री कुमारको देनी चाही परन्तु जब कुमारकी इच्छा न देखो तब उसने अपने पुत्र वरसेनको आज्ञा दी कि इन्हें शीघ्र ही बड़े यत्नके साथ इनके बन्धु वर्ग के समीप भेज आओ ।। १०९-११७। वह वरसेन भी कुमारको लेकर चला और विमलपुर नामक नगरके बाहर प्यास से पीड़ित कुमारको बैठाकर पानी लेनेके लिए गया || ११ | उसी समय कूबड़ीका रूप बनाकर सुखावती वहाँ आ गयी, उसने अपने फूलोंकी माला के स्पसि कुमारको प्यास दूर कर दी और उसे कन्या बना दिया ।। ११९ ।। उस कन्याको देखकर धूमवेग और हरिवर दोनों ही उसकी इच्छा करने लगे । उसे स्वीकार करनेके लिए दोनों ईर्ष्यालु हो उठे और दोनों ही परस्पर द्वेष करने लगे। यह देखकर उनके भाई बन्धुओंने रोका और कहा कि 'तुम दोनोंका लड़ना व्यर्थ है इसका पति वही हो जिसे यह चाहे इस प्रकार बन्धुजनोंके द्वारा रोके जानेपर वे दोनों वैरसे विरत हुए देखो ! स्त्रीके कारण परस्पर किस किसका प्रेम भंग नहीं हो जाता है ? ।।१२०-१२२।। उस कन्याने उन दोनोंमें से किसीको नहीं चाहा. इसलिए सुखावती उसे कन्याके आकारमें ही वहाँ ले गयी जहाँ कान्ता, सुकान्ता, रतिकान्ता और कान्तवती थीं ।। १२३ ।। पहले के समान असली रूपमें बैठे हुए कुमारको देखकर कोई कन्या लज्जित हो गयी और कोई प्रीति करने लगी सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रियोंके भाव अनेक प्रकारके होते हैं || १२४ || श्रीपाल रातको वहीं सोया, सोते-सोते ही सवेरेके समय सुखावती बड़े प्रयत्नसे उठा ले चली, कुमारने आंख खुलनेपर उससे पूछा कि तू मुझे यहाँ अकेला छोड़कर कहीं चली गयी थी ? तब मुखावतीने कहां कि मैं कहीं नहीं गयी थी, मैं सदा आपके पास ही रही हैं, यहाँ आपको स्त्रीरत्न प्राप्त होगा ऐसा निमित्तज्ञानीने बतलाया है, यहाँ आपको कोई भय नहीं है । आज तक मैं अपने रूपको छिपाये रहती थी परन्तु आज असली रूप में आपसे मिल १ दातुमिच्छुः । २ श्रीपालस्य । ३ कन्यकायामनभिलाषम् । ४ विमलसेनः । ५ जलाय । जलमानेतुमित्यर्थः । ६ गमयित्वा । अपसार्येत्यर्थ: । ७ श्रपालम् । ८ कृतकन्यकाम् । ९ प्रीतिघातः ल० अ०, प०, स० । १० कन्यकाकारेणैव । ११ पूर्वस्वरूपेण ( निजकुमारस्वरूपेण ) । १२ अनेक परिणामाः । १३ आदिष्टो ल०, ०६० १४ इम्तहितरूपाद्य-ल० । अन्तहितमाच्छादितं यथा भवति तथा। १५ समागममित्यपि पाठः । समागतास्मि । ६२ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम ७ इत्याह तद्वचः श्रुत्वा प्रमुद्येत्य खगाचले । पुरं दक्षिणभागस्थं गजादि तत्समीपगम् ॥ १२८ ॥ कंचित् गजपति स्तम्भमुम्ल्याउदकम्। द्वात्रिंशदुकक्रीडाभिः क्रीडत्या यशमानयत् ॥ १२१ ॥ ततः समुदिते चण्डदीधिती' निर्जिताद् गजात् । कुमारागमनं पौरा बुद्ध्वा संतुष्टचेतसः ॥१३०॥ प्रतिकेतनमुपताककाः प्रत्युद्गममकुर्वतं तत्पुण्योदय चोदिताः ॥ १३१ ॥ ततो नभस्य सौ गच्छन् कंचिद्वयपुरे हयम् । स्थितं प्रदक्षिणीकृत्य त्वं पश्यन्नात्तविस्मयः ॥ ९३२॥ नत्रापि विदिनादेश नागरः प्राप्तपूजनः पुनस्ततोऽपि निष्क्रम्य समागच्छन्निजेच्छया ॥ १३३ ॥ 'चतुर्जनपदाभ्यन्तरस्थसीममहाचले | जने महति संभूय स्थिते केनापि हेतुना ॥ १३४॥ कस्यचित कोशतः खड्गं कस्मिँश्चिदपि यत्नतः । सत्यशक्ते समुत्खानुं तं समुद्गीर्य हेलया ॥ कुमारः "प्राह वंशस्त संत वंशकम् तदालोक्य जनः सर्वः प्रमोदादारवं व्यवान् ॥ १३६॥ तत्र कश्चित् समागत्य मूकः समुपविष्टवान् । प्रप्रणम्य कुमारं तं जयशब्दपुरस्सरम् ॥ १३७ ॥ 91 १२ १० १४ 93 18 १६ 10 "कुण्ड कचिदस्या प्रसारितकराङ्गुलि अलि मुकुलीकृत्य समीपं समुपस्थितः ॥१३८॥ यो वज्रमणिपाका समुयुक्तस्तदा मुदा । तेषां पाके व्यलोकिट कुमारं विनयेन सः ॥ १३९॥ ४६० १७ रही हूँ" ।। १२५-१२७। उसके यह वचन सुनकर श्रीपाल बहुत ही हर्षित हुआ और वहांसे आगे चलकर विजयार्ध पर्वत के दक्षिण भाग में स्थित गजपुर नगरके समीप जा पहुँचा || १२८|| वहाँ कोई एक गजराज खम्भा उखाड़कर मदोन्मत्त हो रहा था उसे कुमारने शास्त्रोक्त बत्तीस क्रीड़ाओंसे कोड़ा कराकर वश किया || १२९|| तदनन्तर सूर्योदय होते-होते नगरके सब लोगोंने गजराजको जीत लेनेसे कुमारका आना जान लिया, सबने सन्तुचित्त होकर घर-घर चंचल पताकाएँ फहरायीं और कुमारके पुण्योदयसे प्रेरित होकर सब लोगोंने उसकी अगवानी की ।।१३०-१३१।। कुमार वहाँसे भी आकाशमें चला, चलता चलता हयपुर नगर में पहुँचा वहाँ एक घोड़ा कुमारकी प्रदक्षिणा देकर समीप ही में खड़ा हो गया, कुमारने यह सब स्वयं देखा परन्तु उसे कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ ।। १३२ ।। जब नगरनिवासियोंको इस बातका पता चला तब सबने कुमारका सत्कार किया, कुमार वहाँसे भी निकलकर अपनी इच्छानुसार आगे चला ।।१३३।। चलता-चलता चार देशोंके बीचमें स्थित सुसीमा नामक पर्वतपर पहुँचा । वहाँ किसी कारण बहुत-से लोग इकट्ठे हो रहे थे, वे प्रयत्न कर म्यानसे तलवार निकाल रहे थे परन्तु उनमें से कोई भी उक्त कार्यके लिए समर्थ नहीं हो सका परन्तु कुमारने उसे लीलामात्र में निकाल दिया जिसमें बहुत से बाँस उलझे हुए खड़े थे, ऐसे बाँसके विपर उसे चलाया यह देखकर सब लोगोंने बड़े पैसे कुमारका आदर-सत्कार किया ।। १३४ - १३६ ।। इतनेमें ही वहाँ एक गंगा मनुष्य आया और जय जय शब्दका उच्चारण करता हुआ कुमारको प्रणाम कर बैठ गया || १३७|| वहींपर एक टेढ़ी अंगुलीका मनुष्य आया, कुमारको देखते ही उसकी अंगुली ठीक हो गयी, उसने हाथकी अंगुली फैलाकर हाथ जोड़े और नमस्कार कर पास ही खड़ा हो गया || १३८ || वहींपर एक मनुष्य हीराओंकी भस्म बना रहा था, वह बनती नहीं थी परन्तु कुमारके सन्निधानसे वह बन गयो इसलिए उसने भी बड़ी विनयसे कुमारके दर्शन किये १ संतुष्य । २ गजपुरम् । ३ उदयं गते सति । ४ सूर्ये । ५ प्रतिगृहम् । ६ सम्मुखागमनम् । ७ चक्रिरे । ८ श्रीपालपुष्प ९ स्वयं पश्यन्नविस्मयः ल० इ० अ० स० १० चतुर्दशमध्यस्थितसीमारूप महागिरी । ११ महागिरौ ट० । १२ मिलित्वा । १३ खड्गपिधानतः । १४ खड्गम् । १५ उत्खातं कृत्वा । १६ प्रहरति स्म । १७ वेणुगुल्मम् | १८ परिवेष्टितकम् १९ दारं ल० प० २० कुजश्य अ०, स० कुणिश्व ल० । विनालः । 1 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व 1 | १२ ११ प्रागुककरवादेशः पुरंऽभूद् विजयाये। सोऽस्य सेनापतिर्मात्री भविष्यचक्रवर्तिनः ॥ १४० ॥ तत्पुरं वर की एक संयमापने गोत्पादनमा देशस्तस्य श्रीपाल चक्रिणः ॥ १४॥ कः श्रेयः पुरे जातस्तस्य भावी पुरोहितः । शिवसेनमहीपाला श्रीमांस्तनगरेश्वरः ॥१४२॥ वीतशोकाया तस्य तन्ता यनजक्षणा सभाषणमादेशः कुमारस्य तदापने ॥१३॥ "कुण्डः शिल्पपुनः स्थपतिस्तस्य भाव्यसी नाम्ना नरपतिस्तपुरेशी नरपतेः सुता ॥ १५५॥ रत्यादिविमला खार्द्धं तथैतस्य समागमः । अङ्गलिप्रखर देशात् स्मरयपया' विरम् ॥ १४५ ॥ स वज्रमणिपाकस्य प्रधानपुरुष भवेत् तस्य धान्यपुरे " जातिविशालस्तत्पुराधिपः ॥१४६॥ सुता विमलसेनास्य श्रीपालस्य तदाप्तये आदेशस्तस्य मणिपाको महौजसः ॥ १४०॥ " इत्यादेशवरं ज्ञात्वा सर्वे स्वं स्वं पुरं ययुः । तदा कुमारमूढवाज्यान्नभोभागे सुखावती ॥ १४८ ॥ धूमवेगो विलोक्यैनं विद्विषो भीषणारवः । अभित स्थितो रुध्वा खे खेटेकयुतासिभृत् ॥ १४९ ॥ तदा पूर्वोदितापायां देवता यस्य पालिका | सा विद्यारूपेण समुपेत्य सुखावतीम् ॥ १५० ॥ ॥ १३९ ॥ श्रीपालने जो तलवार म्यानसे निकाली थी उसका स्वामी विजयपुर नगरका रहनेवाला था और होनहार इसी श्रीपाल चक्रवर्तीका भावी सेनापति था ॥ १४० ॥ उसी विजयपुर नगरके राजा बरकीर्तीकी रानी कीर्तिमतीकी एक पुत्री थी, उसके विवाह के विषय में निमित्तज्ञानियोंने बतलाया था कि इसका वर श्रीपाल चक्रवर्ती होगा और उसकी पहचान म्यानमें से तलवार निकाल लेनी होगी || १४१ || वह गंगा श्रेयस्पुरमें उत्पन्न हुआ था और इसका भावी पुरोहित था, उसी श्रेयस्पुर नगरका स्वामी राजा शिवसेन था, उसके कमल के समान नेत्रवाली वीतशोका नामकी पुत्री थी उसके बरके विषय में निमित्तज्ञानियोंने आदेश दिया था कि जिसके समागमसे यह गूँगा बोलने लगेगा, वही इसका वर होगा ।। १४२ - १४३ || जिसकी अँगुली टेढ़ी थी वह शिल्पपुरमें उत्पन्न हुआ था और इसका होनहार स्थपति रन था। उसी शिल्पपुर के राजाका नाम नरपति था उसके रतिविमला नामकी पुत्री थी निमित्तज्ञानियोंने बताया था कि जिसके देखनेसे इसकी टेढ़ी अँगुली फैलने लगेगी उसीके साथ कामक्रीड़ा करनेवाली इस कन्याका चिरकाल तक समागम रहेगा || १४४ - १४५ || जो हीराओंका भस्म बना रहा था वह इसका मन्त्री होनेवाला था और धान्यपुर नगरमें पैदा हुआ था, उसी धान्यपुर नगरके राजाका नाम विशाल था उसकी एक विमलसेना नामकी कन्या थी, निमित्तज्ञानियोंने बतलाया था कि जिसके आनेपर हीराओंका भस्म बन जायेगा वही महा तेजस्वी श्रीपाल इसका पति होगा || १४६ - १४७|| इस प्रकार निमित्तज्ञानियोंके आदेशानुसार उस पुरुषको पहचान कर वे सब अपने-अपने नगरको चले गये और उसी समय सुखावती श्री कुमारको लेकर आकाशमार्गसे चलने लगी ।। १४८ ।। चलते-चलते इसे धूमवेग शत्रु मिला, वह कुमारको देखकर भयंकर शब्द करने लगा, और डाँट दिखाकर रास्ता रोक आकाशमें खड़ा हो गया, उस समय खेटक और तलवार दोनों शस्त्र उसके पास थे ।। १४६ | उसी समय पहले कही 3 3 ४६१. १ श्रीपालस्य । २ वरकीर्तिनृपतेः प्रियायाः कीर्तिमत्याः सुतायाः आपने परिणयने । ३ 'पन व्यवहारे स्तुतौ च' पुत्रीव्यवहारे त० टि० -त्यात्मजापतेः इ० । जायते अ०, स० ल० । ४ वीतशोकायाः परिणयने । ५ कुणिः ल० । ६ कामविशिष्टधर्मप्रदया अथवा कामविविधगमनप्रदया। ७ वज्रमणिपाक्यस्य ल०, ८० । वचमणिपाकी व रत्नपाकवान् । अस्य श्रीपालस्य । ८ मन्त्रिमुख्यः । ९ वचमणिपाकिनः । १० उत्पत्तिः । ११ विमलसेनायाः प्राप्त्ये १२ आदेशजामातरम् | -देशनरं ल०, प० । - देशान्तरं अ० स० । १३ शत्रोर्भयंकरध्वनिः । तद्विषो भीषणारवम् इ० अ०, स० । १४ पूर्वोक्तप्रमदवनस्थ त्रटतरोरवस्थितप्रतिमायाम् १५ श्रीपाल १६ रक्षिका । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ आदिपुराणम् मुक्त्वा कुमारमभ्येत्य विभीविद्याधराधमम् । नियुध्य विजयस्वेति निजगाद निराकुलम् ॥१५॥ साऽपि मुक्त्वा कुमारं तं धूमवेगं रणाङ्गणे । चिरं युध्वा स्वविद्याभियंरौत्सी'च्चौर्यशालिनी ॥१५॥ कुमारोऽपि समीपस्थशिलायां धरणाधरे। शनैः समापतत्तस्य देवश्री जननी पुरा ॥१५३॥ यक्षीभूता तदागत्य संस्पृशन्ती करेण तम् । अपास्यास्य श्रमं मक्षु कुमार प्रविश हृदम् ॥१५४॥ जगादैनमिति श्रुत्वा सोऽपि विश्वस्य तद्वचः । प्रविश्य तं" शिलास्तम्भस्योपरि स्थतवान्निशि ॥१५५॥ कुर्वन् पञ्चनमस्कारपदानां परिवर्तनम् । प्रभाते तदुदग्भागे जिनेन्द्रप्रतिबिम्बकम् ॥१५६॥ विलोक्य कृतपुष्पादिसंपूजननमस्क्रियः । सहस्रपत्रमम्भोज चक्ररत्नं सकूर्मकम् ॥१५७॥ आतपत्रं सहस्रोरु फणं च फणिनां पतिम् । दण्डरत्नं समण्डूकं नर्क चूडामहामणिम् ॥१५॥ चर्मरत्नं स्फुरद्रतवृश्चिकं काकिणीमणिम् । ईक्षांचक्रे स पुण्यात्मा तत्र यक्ष्युपदेशतः ॥१५९॥ तदा मुदितचित्तः सन् छनमुद्यम्य दण्डभृत् । प्रद्योतमानरत्नोपानको यक्षीसमर्पितैः ॥१६०॥ सर्वरत्नमयैर्दिव्यैर्भूषाभेदविभूषितः । निर्जगाम ''गुहातोऽसौ तदेवेत्य सुखावती ॥१६१॥ धूमवेगं विनिर्जित्य प्रतिपदा हिमद्युतिम् । वृद्ध्यै कुमारमापन्ना सकलाऽसिलतान्विता ॥१६२॥ एतया सह गत्वातः संप्राप्तसुरभूधरम् । गुणपालजिनाधीश सभामण्डलमाप्तवान् ॥१६३॥ तत्र तं सुचिरं स्तुत्वा मनोवाक्कायशुद्धिभाक । मातरं भ्रातरं चोचितोपचारो विलोक्य तौ ॥१६॥ हुई प्रतिमापर जो इसकी रक्षा करनेवाली देवी रहती थी वह विद्याधरका रूप धारण कर आयी और सुखावतीको छोड़कर कुमारको ले गयी तथा सुखावतीसे कह गयी कि तू निर्भय हो निराकुलतापूर्वक इस नीच विद्याधरसे लड़ना और इसे जीतना ॥१५०-१५१॥ शूरवीरतासे शोभायमान रहनेवाली सुखावती भी कुमारको छोड़कर धूमवेगसे लड़ने लगी और रणके मैदानमें बहुत समय तक युद्ध कर उसने उसे अपनी विद्याओं-द्वारा रोक लिया ॥१५२॥ कुमार भी समीपवती पर्वतकी एक शिलापर धीरे-धीरे जा पड़ा। वहाँ उसकी पूर्वभवकी माता देवश्री जो कि यक्षी हुई थी आयी। उसने हाथसे स्पर्श कर श्रीपालका सब परिश्रम दूर कर दिया और कहा कि तू शोघ्र ही इस तालाबमें घुस जा। कुमार भी उसके वचनोंका विश्वास कर तालाबमें घुस गया और वहीं रात-भर पत्थरके खम्भेपर बैठा रहा ॥१५३-१५५॥ सवेरे पंच नमस्कार मन्त्रका पाठ करता हआ उठा, तालाबके उत्तरकी ओर श्रीजिनेन्द्रदेवकी प्रतिमा देखकर पुष्प आदि सामग्रीसे पूजन और नमस्कार किया। तदनन्तर उसी यक्षीके उपदेशसे उस पुण्यात्माने सहसू पत्रवाले कमलको चक्ररत्नरूप होते देखा, कछुवेको छत्र होते देखा, बड़ी-बड़ी हजार फणाओंको धारण करनेवाले नागराजको दण्डरत्न होते देखा, मेंढकको चूड़ामणि, मगरको चर्मरत्न और देदीप्यमान लाल रंगके बिच्छूको काकिणी मणि रूप होते देखा ॥१५६-१५९।। उस समय उसने प्रसन्नचित्त होकर छत्र धारण किया, दण्ड उठाया, चमकीले रत्नोंके जूते पहने और फिर वह यक्षीके द्वारा दिये हुए मणिमय दिव्य आभूषणोंसे सुशोभित होकर गुहासे बाहर निकला। उसी समय जिस प्रकार चन्द्रमाकी वृद्धि के लिए शुक्लपक्षकी प्रतिपदा आती है उसी प्रकार धूमवेगको जीतकर तलवार लिये हुए चतुर सुखावती कुमारकी वृद्धिके लिए उसके पास आ पहुँची। श्रीपाल यहाँसे उसके साथ-साथ चला और चलता-चलता सुरगिरि पर्वतपर गुणपाल जिनेन्द्रके समवसरणमें जा पहुँचा ॥१६०-१६३॥ वहाँ मन, १ रुरोध । २ संप्राप्तः । ३ श्रीपालस्य । ४ कुमारं ल० । ५ ह्रदम् । ६ मुहुर्मुहुरनुचिन्तनम् । ७ हृदस्योत्तरदिग्भागे। ८ चूडामणि तथा ल०, १०, अ०, स०, इ० । ९ ह्रदे। वक्त्राण्येव रूपाणि । सहस्रपत्राम्भोजादीनि ईक्षांचक्रे इति संबन्धः । १० मणिमयपादत्राणः । ११ गुहायाः सकाशात् । १२ प्रतिपद्दिनश्रीरिव । १३ चन्द्रम् । १४ चन्द्रकलान्विता । १५ सुखावत्या । १६ सुरगिरिनामगिरिम् । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व ४९३ 'तदाशीर्वादसंतुष्टः संविष्टो मातृसंनिधौ । सुखावतीप्रभावेण युष्मदन्तिकमाप्तवान् ॥१६॥ . क्षेमेणेति तयोरग्रे प्राशंसत्तां नृपानुजः । सतां स सहजो मावो यत्स्तुवन्त्युपकारिणः ॥१६६॥ वसुपलमहीपालप्रश्नाद् भगवतोदितैः । स्थित्वा विद्याधरश्रेण्या बहुलम्मान समापिवान् ॥१६७॥ ततः सप्तदिनैरेव सुखेन प्राविशत् पुरम् । संचितोर्जितपुण्यानां भवेदापच्च संपदे ॥१६८॥ वसुपालकुमारस्य वारिषेणादिभिः समम् । कन्याभिरभवत् कल्याणविधिविधद्धिकः ॥१६॥ स श्रीपालकुमारश्च जयावत्यादिभिः कृती । तदा चतुरशीतीष्ट कन्यकाभिरलंकृतः ॥१७॥ सूर्याचन्द्रमसौ वा तौ स्त्रप्रभाव्याप्तदिक्तटौ। पालयन्तौ धराचक्रं चिरं निर्विशतः स्म शम् ॥१७१॥ जयावत्यां समुत्पन्नो गुणपालो गुणोज्ज्वलः । श्रीपालस्यायुधागारे चक्रं च समजायत ॥१७२॥ स सर्वांश्चक्रवर्युक्तभोगाननुभवन् भृशम् । शकलीला' व्यडम्बिष्ट लक्ष्म्यां' लक्षितविग्रहः ॥१७३॥ अभूज्जयावतीभ्रातुस्तनूजा जयवर्मणः । जयसेनाह्वया कान्तेस्सा सेनेव" विजित्वरी" ॥१७॥ मनोवेगोऽशनिवरः शिवाख्योऽशनिवेगवाक् । हरिकेतु : परे चोच्चैः क्ष्माभुजः खगनायकाः ॥१७॥ "जयसेनाख्यमुख्यामिस्तेषां तुग्भिः सहाभवत् । विवाहो गुणपालस्य स ताभिः प्राप्तसंमदः ।१७।। वचन, कायकी शुद्धि धारण करनेवाले श्रीपालने बहुत देर तक गुणपाल जिनेन्द्र की स्तुति की, माता और भाईको देखकर उनका योग्य विनय किया और फिर उन दोनोंके आशीर्वादसे सन्तुष्ट होकर वह माताके पास बैठ गया । उसने माता और भाईके सामने यह कहकर सुखावतीकी प्रशंसा की कि मैं इसके प्रभावसे ही कुशलतापूर्वक आपलोगोंके समीप आ सका हूँ सो ठीक हो है क्योंकि सज्जन पुरुषोंका जन्मसे ही ऐसा स्वभाव होता है कि जिससे वे उपकार करनेवालोंकी स्तुति किया करते हैं ॥१६४-१६६॥ महाराज वसुपालके प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने जैसा कुछ कहा था उसीके अनुसार उस श्रीपालने विद्याधरोंकी श्रेणी में रहकर अनेक लाभ प्राप्त किये थे ॥१६७।। तदनन्तर वह सात दिनमें ही सुखसे अपने नगर में प्रविष्ट हो गया सो ठीक ही है क्योंकि प्रबल पुण्यका संचय करनेवाले पुरुषोंको आपत्तियाँ भी सम्पत्तिके लिए हो जाती हैं ।।१६८।। नगरमें जाकर वसुपाल कुमारका वारिषेणा आदि कन्याओंके साथ विवाहोत्सव हुआ, वह विवाहोत्सव अनेक प्रकारकी विभूतियोंसे युक्त था ॥१६९।। उसी समय चतुर श्रीपाल कुमार भी जयावती आदि चौरासी इष्ट कन्याओंसे अलंकृत-सुशोभित हुए ॥१७०॥ अपनी कान्तिसे दिग्दिगन्तको व्याप्त करनेवाले सूर्य और चन्द्रमाके समान पृथिवीका पालन करते हुए दोनों भाई चिरकाल तक सुखका उपभोग करते रहे ॥१७१॥ कुछ दिन बाद श्रीपालकी जयावती रानीके गुणोंसे उज्ज्वल गुणपाल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ और इधर आयुधशालामें चक्ररत्न प्रकट हुआ ॥१७२॥ जिसका शरीर लक्ष्मीसे सुशोभित हो रहा है ऐसा वह श्रीपाल चक्रवर्तीके कहे हुए सब भोगोंका अत्यन्त अनुभव करता हुआ इन्द्रकी लीलाको भी उल्लंघन कर रहा था ॥१७३॥ जयावतीके भाई जयवर्माके जयसेना नामकी पुत्री थी जो अपनी कान्तिसे सेनाके समान सबको जीतनेवाली थी ॥१७४। इसके सिवाय मनोवेग, अशनिबर, शिव, अशनिवेग, हरिकेतु तथा और भी अनेक अच्छे-अच्छे विद्याधर राजा थे, जयसेनाको आदि लेकर १ कुबेरश्रीवसुपालयोराशीर्वचन । २ सुखावत्याः सामर्थ्येन । ३ स्तौति स्म । ४ श्रीपाल: । ५ कन्यादिप्राप्तिः। ६ प्राप्तः सन् । ७ सप्तदिनानन्तरमेव । ८ आत्मीयपुण्डरीकिणीपुरम् । ९ वटवृक्षाधो नृत्यसंबन्धिनी । १० प्रियतरुणीभिः, पट्टाहा॑भिरित्यर्थः । ११ सुखमन्वभूताम् । १२ तिरस्करोति स्म । पलविष्ट ल० । १३ लक्षम्यालिङ्गित अ०, स० । लक्ष्मीलक्षित प०, ल०। १४ कान्त्या इ०,५०, अ०, स०, ल० । १५ चमूरिव। १६ जयशीला । १७ जयसेनादिप्रधानाभिः । १८ मनोवेगादीनाम् । १९ पुत्रीभिः । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ आदिपुराणम् कदाचित् काललव्ध्यादिचोदितोऽभ्यर्णनितिः। विलोकयन्नमोभागमकस्मादन्धकारितम् ॥१७७॥ चन्द्रग्रहणमालोक्य धिगैत स्यापि चेदियम् । अवस्था संसृतौ पापग्रस्तस्यान्यस्य का गतिः ॥१७॥ इति निर्विद्य संजातजातिस्मृतिरुदात्तधीः । स्वपूर्वभवसंबन्धं प्रत्यक्षमिव संस्मर ॥१७९॥ पुष्कराढेऽपरे भागे विदह पद्मकाह्वयं । विषये विश्रुते कान्त पुराधीशोऽवनीश्वरः ॥१०॥ रथान्तकनकस्तस्य वल्लभा कनकप्रभा । तयोर्भूत्वा प्रभापास्तभास्करः कनकप्रभः ॥१८१॥ तस्मिन्नन्येा रुद्याने दष्टा सर्पण मन्प्रिया । विद्यत्प्रभाह्वया तस्या वियोगेन विषण्णवान् ॥१८२॥ सार्धं समाधिगुप्तस्य समीपे संयम परम् । संप्राप्तवानतिस्निग्धैः पितृमातृसनाभिभिः ॥१३॥ तत्र सम्यक्त्वशुद्धयादिषोडश प्रत्ययान् भृशम् । भावयित्वा भवस्यान्ने जयन्ताख्यविमानजः ॥१८४॥ प्रान्त ततोऽहमागत्य जातोऽत्रैवमिति स्फुटम् । 'समुद्रदत्तेनादित्यगति 'र्वायुरथाह्वयः ॥१८५॥ श्रेष्ठी कुबेरकान्तश्च लौकान्तिकपदं गताः । बोधितस्तैः समागत्य गुणपालः प्रबुद्धवान् ॥१८६॥ मोहपाशं समुच्छिद्य तप्तवांश्च तपस्ततः । घातिकर्माणि निर्मूल्य सयोगिपदमागमत् ॥१८७॥ यशःपालः सुखावत्यास्तनूजस्तेन संयमम् । गृहीत्वा सह तस्यैव गणभृत्प्रथमोऽभवत् ॥१८८॥ उन सब राजाओंकी पुत्रियोंके साथ गुणपालका विवाह हुआ। इस प्रकार वह गुणपाल उन कन्याओंके मिलनेसे बहुत ही हर्षित हुआ ॥१७५-१७६॥ अथानन्तर-किसी समय जिसका मोक्ष जाना अत्यन्त निकट रह गया है ऐसा गुणपाल काललब्धि आदिसे प्रेरित होकर आकाशकी ओर देख रहा था कि इतने में उसको दृष्टि अकस्मात् अन्धकारसे भरे हुए चन्द्रग्रहणकी ओर पड़ी, उसे देखकर वह सोचने लगा कि इस संसारको धिक्कार हो, जब इस चन्द्रमाकी भी यह दशा है तब संसारके अन्य पापग्रसित जीवोंकी क्या दशा होती होगी? इस प्रकार वैराग्य आते ही उस उत्कृष्ट बुद्धिवाले गुणपालको जाति स्मरण उत्पन्न हो गया जिससे उसे अपने पूर्वभवके सम्बन्धका प्रत्यक्षकी तरह स्मरण होने लगा ॥१७७-१७९|| उसे स्मरण हआ कि पुष्करार्ध द्वीपके पश्चिम विदेह में पद्मक नामका एक प्रसिद्ध देश है, उसके कान्तपूर नगरका स्वामी राजा कनकरथ था। उसकी रानीका नाम कनकप्रभा था, उन दोनोंके मैं अपनी प्रभासे सुर्यको तिरस्कृत करनेवाला कनकप्रभ नामका पूत्र हुआ था। किसी दिन एक बगीचे में विद्युत्प्रभा नामकी मेरी स्त्रीको साँपने काट खाया, उसके वियोगसे मैं विरक्त हआ और अपने ऊपर अत्यन्त स्नेह रखनेवाले पिता माता तथा भाइयोंके साथ-साथ मैंने समाधिगुप्त मुनिराजके समीप उत्कृष्ट संयम धारण किया था ॥१८०--१८३॥ वहाँ मैं दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका अच्छी तरह चिन्तवन कर आयुके अन्तमें जयन्त नामके विमानमें अहमिन्द्र उत्पन्न हुआ ॥१८४॥ और अन्तमें वहाँसे चयकर यहाँ श्रीपालका पुत्र गुणपाल हुआ हूँ । वह इस प्रकार विचार ही रहा था कि इतनेमें ही समुद्रदत्त, आदित्यगति, वायु रथ और इसेठ कुबेरकान्त जो कि तपश्चरण कर लौकान्तिक देव हुए थे उन्होंने आकर समझाया। इस प्रकार प्रबोधको प्राप्त हुए गुणपाल मोहजालको नष्ट कर तपश्चरण करने लगे और घातिया कर्मोको नष्ट कर सयोगिपद-तेरहवें गुण स्थानको प्राप्त हुए ||१८५-१८७॥ सूखावतीका पूत्र यशपाल भी उन्हीं गणपाल जिनेन्द्र के पास दीक्षा धारण कर १ चन्द्रस्य । २ रुदारधीः अ०, स०, ल० । ३ कान्त्या निराकृत । ४ कारणानि। ५ आयुषस्यान्ते । ६ अहमिन्द्रः । ७ स्वर्गायुरन्ते । ८ स्वर्गात् । ९ पूर्वभवसंबन्धं प्रत्यक्षमिव संस्मरन्निति संबन्धः । १० प्रियकान्तायाः जनकेन सह । ११ हिरण्यवर्मणो जनकः । १२ प्रभावत्याः पिता । १३ उक्तलौकान्तिकामरैः । *प्रियदत्ताका पिता, हिरण्यवर्माका पिता, प्रभावतीका पिता, ६ कुबेरमित्रका पिता । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व ४६५ राजराजस्तदा भूरिविभूत्याऽभ्येत्य तं' मुदा । श्रीपालः पूजयित्वा तु श्रुत्वा धर्मद्वयात्मकम् ॥१८६॥ ततः स्वभावसंबन्धमप्राक्षीत् प्रश्रयाश्रयः । भगवांश्चेत्युवाचेति कुरुराज सुलोचना ॥१०॥ निवेदितवती पृष्टा मृष्टवाक सौष्टवान्विता । विदह पुण्डरीकिण्यां यशःपालो महीपतिः ॥११॥ तत्र सर्वसमृद्धाख्यो वणिक् तस्य मनःप्रिया । धनञ्जयानुजाताऽसौ धनश्रीर्धनवर्द्विनी ॥१६॥ तयोस्तु सर्वदयितः श्रेष्टी तद्भगिनी सती । संज्ञया सर्वदयिता श्रेष्टिनश्चित्तवल्लभे ॥१९३॥ सुता सागरसेनस्य जयसेना समाया । धनञ्जयवणीशस्य जयदत्ताभिधाऽपरा ॥१६॥ देवश्रीरनुजा श्रेष्टि पितुस्तस्यां तनूद्भवौ । जातौ सागरसेनस्य सागरी दत्तवाक्परः ॥१५॥ ततः समुद्रदत्तश्च सह सागरदत्तया। सुतौ "सागरसेनानुजायां जातमहोदयौ ॥१६६॥ जातौ "सागरसेनायां दत्तो वैश्रवणादिवाक् । दत्ता वैश्रवणादिश्च दायादः श्रेष्टिनः स तु ॥ भार्या सागरदत्तस्य दत्ता' वैश्रवणादिका । सती समुद्रदत्तस्य"सा सर्वदयिता' प्रिया ॥१६८॥ सा वैश्रवणदत्तेष्टा दत्तान्ता" सागराया । तेषां २ २"सुखसुखेनैवं काले गच्छति संततम् ॥१९९॥ यशःपालमहीपालमावर्जितमहाधनः । वणिग्धनञ्जयोऽन्येद्युः सद्रत्नैर्दर्शनीकृतैः ॥२०॥ उन्हींका पहला गणधर हुआ ॥१८८। उसी समय राजाधिराज श्रीपालने बड़ी विभूतिके साथ आकर गुणपाल तीर्थ करकी पूजा की और गृहस्थ तथा मुनिसम्बन्धी-दोनों प्रकारका धर्म सुना । तदनन्तर बड़ी विनयके साथ अपने पूर्वभवका सम्बन्ध पूछा, तब भगवान् इस प्रकार कहने लगे - यह सब बातें मधुर वचन बोलनेवाली सुन्दरी सुलोचना महाराज जयकुमारके पूछनेपर उनसे कह रही थी। उसने कहा कि - विदेह क्षेत्रकी पुण्डरीकिणी नगरीमें यशपाल नामका राजा रहता था ॥१८९-१९१।। उसी नगरमें सर्वसमृद्ध नामका एक वैश्य रहता था। उसकी स्त्रीका नाम धनश्री था जो कि धनको बढ़ानेवाली थी और धनंजयकी छोटी बहिन थी। उन दोनोंका पुत्र सर्वदयित सेठ था, उसकी बहिनका नाम सर्वदयिता था जो कि बड़ी ही सतो थी। सर्वदयितकी दो स्त्रियाँ थीं, एक तो सागरसेनकी पुत्री जयसेना और दूसरी धनंजय सेठकी पुत्री जयदत्ता ॥१९२-१९४।। सेठ सर्वदयितके पिताकी एक छोटी बहिन थी जिसका नाम देवश्री था और वह सेठ सागरसेनको ब्याहो थी। उसके सागरदत्त और समुद्रदत्त नामके दो पुत्र थे तथा सागरदत्ता नामकी एक पुत्री थी। सागरसेनकी छोटी बहिन सागरसेनाके दो सन्तानें हुई थीं - एक वैश्रवणदत्ता नामकी पुत्री और दूसरा वैश्रवणदत्त नामका पुत्र । वैश्रवणदत्त सेठ सर्वदयितका हिस्सेदार था ॥१९५-१९७॥ वैश्रवणदत्ता सेठ सागरदत्तकी स्त्री हुई थी, सेठ समुद्रदत्त की स्त्रीका नाम सर्वदयिता था और सागरदत्ता सेठ वैश्रवणदत्तको ब्याही गयी थी। इस प्रकार उन सबका समय निरन्तर बड़े प्रेमसे व्यतीत हो रहा था ॥१६८-१६४।। जिसने बहुत धन उपार्जन किया है ऐसे सेठ धनंजयने किसी दिन अच्छे-अच्छे रत्न भेंट देकर राजा यशपालके दर्शन किये १ गुणपालकेवलिनम् । २ जयकुमारम् । ३ भगिनी। ४ पुत्रः। ५ राजश्रेष्ठी। ६ धनंजयनामवैश्यस्य । ७ द्वितीया। ८ सर्वदयितश्रेष्ठिजनकसर्वसमृद्धस्य । ९ पुत्रौ। १० देवश्रियोर्भर्तुगिन्याम् । ११ सर्वसमृद्धस्य भार्यायाम् । १२ दत्ता अ०, प०, इ०, स०, ल० । १३ दत्तो ल०, ५०, इ०, अ०, स०। १४ ज्ञातिः । १५ सर्वदयितश्रेष्टिनः । १६ वैश्रवणदत्तः । १७ सागरसेनस्य ज्येष्ठपुत्रस्य । १८ वैश्रवणदत्ता। भार्याऽभूदिति सम्बन्धः । १९ सागरसेनस्य कनिष्ठपुत्रस्य । २० सर्वदयितश्रेष्ठिनो भगिनीप्रिया । भार्या जातेति संबन्धः । २१ समुद्रदत्तस्यानुजा सागरदत्ताया। वैश्रवणदत्तस्येष्टा बभूवेति संबन्धः । २२ समुद्रादीनाम्। २३ अकृच्छे ण, अत्यन्तसुखेनेत्यर्थः । २४ आनीत । २५ उपायनीकृतैः । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् crorest स्मै संमानपूर्वकम् । प्रीत्या धनं हिरण्यादि प्रभूतमदितोचितम् ॥२०३॥ लोक्य' तं वणिक्पुत्राः सर्वेऽपि धनमार्जितम् । ग्रामे पुरोपकण्ठस्थे संभूय विनिवेशिरे ॥ २०२ ॥ " तन्निवेशादथाऽन्येयुः स समुद्रादिदत्तकः । रात्रौ स्वगृहमागत्य भार्यासंपर्कपूर्वकम् ॥ २०३ ॥ केनाध्यविदितो रात्रावेव सार्थमुपागतः । काले गर्भं विदित्वाऽस्याः पापो दुश्चरितोऽभवत्"" ॥२०४॥ इति सागरदत्ताख्यस्या' भर्तृसमागमम् । बोधितोऽप्यपरीक्ष्यासी स्वर्ग हा "त्तामपाकरोत् ॥ २०५ ।। ततः श्रेष्टिगृहं याता तेनापि त्वं दुराचरा" । "नास्मद्गेहं समागच्छेत्यज्ञानात् सा निवारिता ॥ २०६॥ समीपवर्तिन्येकस्मिन् केतने विहितस्थितिः । नवमासावधौ पुत्रलब्धानल्पपुण्यकम् ॥ २०७॥ २ RE दिया कुलस्यैष समुत्पन्नः पराभवः । यत्र वचन नीवैनं निक्षिपेत्यनुजीविकः ॥२०८॥ प्रत्येयः श्रेष्टिना प्रोक्तः श्रष्टिमित्रस्य बुद्धिमान् । स्मशाने साधितुं विद्यामागतस्य खयायिनः ॥ २०९ ॥ बालं समर्पयामास विचित्रो दुरितोदयः । खगोऽसौ जगधामाख्यो जयमामास्य वल्लभा ॥ २१० ॥ २७ " भोगपुर वास्तव्य" जितशत्रु समाह्वयम् । कृत्वावर्धयतां पुत्रमित्र मस्यौरवं मुदा ॥२११॥ ४३६ १२ O राजाने भी उसका सम्मान किया और बड़े प्रेमसे उसके लिए यथायोग्य बहुत-सा सुवर्ण आदि धन वापिस दिया || २०० - २०१ ॥ यह देखकर सब वैश्यपुत्र धन कमानेके लिए बाहर निकले और सब मिलकर नगरके समीप ही एक गाँव में जाकर ठहर गये ॥ २०२ || दूसरे दिन समुद्रदत्त रात्रि में उन डेरोंसे अपने घर आया और अपनी स्त्रीसे संभोग कर किसीके जाने बिना ही रात्रि में ही अपने झुण्ड में जा मिला। इधर समयानुसार उसका गर्भ बढ़ने लगा। जब इस बातका पता समुद्रदत्त के बड़े भाई सागरदत्तको चला तब उसने समझा कि यह अवश्य ही इसका पापरूप दुराचरण है । समुद्रदत्त की स्त्री सर्वदयिताने पति के साथ समागम होनेका सब समाचार यद्यपि बतलाया तथापि उसने परीक्षा किये बिना ही उसे घर से निकाल दिया || २०३ - २०५ ॥ तब सर्वदयिता अपने भाई सेठ सर्वदयितके घर गयी परन्तु उसने भी अज्ञानतासे यही कहकर उसे भीतर जानेसे रोक दिया कि 'तू दुराचारिणी है, मेरे घरमें मत आ' ॥ २०६॥ तदनन्तर वह पास ही एक दूसरे घर में रहने लगी, नौ महीनेकी अवधि पूर्ण होनेपर उसने एक अतिशय पुण्यवान् पुत्र प्राप्त किया || २०७ || जब सेठ सर्वदयितको यह खबर लगी तो उसने समझा यह पुत्र क्या, हमारे कुलका कलंक उत्पन्न हुआ है, इसलिए उसने एक नौकरको यह कहकर भेजा कि 'इसे ले जाकर किसी दूसरी जगह रख आ' । वह सेवक बुद्धिमान् था और सेठका विश्वासपात्र भी था, वह बालकको ले गया और सेठके एक विद्याधर मित्रको जो कि विद्या सिद्ध करनेके लिए श्मशान में आया था, सौंप आया सो ठीक ही है क्योंकि पापका उदय बड़ा विचित्र होता है। सेठके उस मित्रका नाम जयधाम था और उसकी स्त्रीका नाम जयभामा था । वे दोनों भोगपुर के रहनेवाले थे उन्होंने उस पुत्रका नाम जितशत्रु रखा और उसे औरस पुत्रके समान मानकर वे बड़ी प्रसन्नतासे उसका पालन-पोषण करने लगे ॥२०८ १ ददर्श । २ धनंजयाय । ३ ददौ । ४ धनंजयं राज्ञा पूजितोऽयं दृष्ट्वा । ५ - मजितुम् ल० । ६ तच्छिबिरात् । ७ देवश्री सागरसेनयोः पुत्रः समुद्रदत्तः । ८ शिबिरम् । ९ सर्वदत्तायाः । १० अशोभनव्यवहारः । ११ दुर्वृत्त: कचिज्जारोऽभवदिति । १२ सर्वदयितया । १३ निजपुरुषागमनम् । १४ मम भर्त्ता शिबिरादागत्य मया सह। सम्पर्क कृतवानिति निवेदितोऽपि । १५ सर्वदयिताम् । १६ निष्कासितवान् । १७ निजाग्रसर्वदयितश्रेष्ठिगृहम् । १८ दुष्टमाचरस्मि । १९ नास्मद्गृहं ल०, अ०, प०, स०, इ० । २० गृहे । २१ शिशुः | २२ यत्र कुत्रापि । २३ स्थापय । २४ भृत्यः | २५ विश्वास्यः । २६ विद्याधरस्य । २७ जयधामजयभामेति द्वौ । २८ भोगपुर निवासिनो । २९ शिशोजितशत्रुरित्याख्यां कृत्वा । ३० वर्धयतः स्म । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व तदा पुत्रवियोगेन सा सर्वदयिताऽचिरात् । स्त्रीवेदनिन्दनान्मृत्वा संप्रापजन्म पौरुषम् ॥ २१२ ॥ ततः समुद्रदत्तोऽपि सार्थेनामा समागतः । श्रुत्वा स्वभार्यावृत्तान्तं निन्दित्वा भ्रातरं निजम् ॥२१३॥ श्रेष्ठिनेऽनपराधाया गृहवेश निवारणात्। अकुप्यन्नितरां कृत्यं कः सहेताविचारितम् ॥ २१४॥ 3 ક્ ज्येष्ठे न्यायगतं बोग्ये मयि स्थितकेति स्वयम् । श्रेष्टित्वमयमध्यास्त इति अष्ठिनि कोपवान् ॥ २१५ ॥ "वैश्रयणदतोऽपि स ससागरदत्तकः सार्द्धं समुद्रद सेन मात्सर्याष्टिनि स्थिताः ॥ २१६ ॥ दुस्सहे तपसि श्रेयो मत्सरोऽपि क्वचित् नृणाम् । अम्येयुर्जितशत्रुं तं दृष्ट्वा श्रेष्टी कुतो भवान् ॥ २१७॥ 'समुद्रदत्तसारूप्यं दधत्संस दमागतः । इति पप्रच्छ सोऽप्यात्मागमनक्रममब्रवीत् ॥२१८॥ नान्यो मद्भागिनेयोऽयमिति तद्धस्तसंस्थिताम् । मुद्रिकां वीक्ष्य निश्चित्य निःपरीक्षकतां निजाम् ॥ मैथुनस्य'" च संस्मृत्य तस्मै " सर्वश्रियं सुताम् । धनं श्रेष्ठिपदं चासौ दस्या निर्विण्णमानसः ॥ २२० ॥ जयधामा जयभामा जयसेना" तथाऽपरा । जयदत्तामिधाना च परा सागरदन्तिका ॥२२१॥ सा वैश्रवणदत्ता च परे पोत्पन्नयोधकाः संजातास्तैः सह श्रेष्ठी संयमं प्रत्यपद्यत ॥ २२२ ॥ .१० १३ १६ ५४ སཾ་བྷ १७ । मुनिं रतिवरं प्राप्य चिरं विहितसंयमाः । एते सर्वेऽपि कालान्ते स्वर्गलोकं समागमन् ॥ २२३ ॥ २११॥ सर्वदयिताने पुत्रके वियोग से बहुत दिन तक स्त्रीवेदकी निन्दा की और मरकर पुरुषका जन्म पाया ॥ २१२ ॥ तदनन्तर समुद्रदत्त भी अपने झुण्डके साथ वापस आ गया और अपनी स्त्रीका वृत्तान्त सुनकर अपने भाईकी निन्दा करने लगा। सेठने अपराधके बिना ही उसकी स्त्रीको घरमें प्रवेश करनेसे रोका था इसलिए वह सेठपर अत्यन्त क्रोध करता रहता था सो ठीक ही है क्योंकि जो कार्य बिना विचारे किया जाता है उसे भला कौन सहन कर सकता है ? ॥२१३-२१४। कुछ दिन बाद वैश्रवण सेठ सागरदत्तसे यह कहकर क्रोध करने लगा कि 'जब मैं बड़ा हूँ, और योग्य हूँ तो न्यायसे मुझे सेठ पद मिलना चाहिए, मेरे रहते ' हुए यह सेठ क्यों बन बैठा है। इसी प्रकार सागरदत्त और समुद्रदत्त भी सेठके साथ ईर्ष्या करने लगे ।।२१५–२१६ ॥ आचार्य कहते हैं कि कठिन तपश्चरणके विषय में की हुई मनुष्यों की ईर्ष्या भी कहीं कहीं अच्छी होती है परन्तु अन्य सब जगह अच्छी नहीं होती। किसी एक दिन सेठ सर्वदयितने जितशत्रुसे पूछा कि तू समुद्रदत्त की समानता क्यों धारण कर रहा है। तेरा रूप उसके समान क्यों है ? और तू सभामें किसलिए आया है? तब जितशत्रुने भी अनुक्रमसे अपने आनेका सब समाचार कह दिया || २१७ - २१८ ।। उसी समय सेठकी दृष्टि उसके हाथमें पहिनी हुई अँगूठीपर पड़ी, उसे देखकर उसने निश्चय कर लिया कि 'यह मेरा भानजा ही है, दूसरा कोई नहीं है। उसे अपनी और अपने बहनोईकी अपरीक्षकता ( बिना विचारे कार्य करने ) की याद आ गयी और उसे सर्वश्री नामकी पुत्री, बहुत सा धन और सेठका पद देकर स्वयं विरक्तचित्त हो गया ॥ २१६ - २२० ॥ उसी समय जितशत्रुको पालनेवाला जयधाम विद्याधर, उसकी स्त्री जयभामा, जयसेना और जयदत्ता नामकी अपनी स्त्रियां, वैश्रवणदत्तकी स्त्री सागरदत्ता और वैश्रवणदत्तकी बहन वैश्रवणदत्ता तथा और भी अनेक लोगोंको आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ। उन सबके साथ-साथ सेठने रतिवर मुनिके समीप जाकर संयम धारण - ' ४९७ १ वणिक्समूहेन सह । २ सर्वदयिताय । ३ चुकोप । ४ सर्वदयिते । ५ स वै-ल०, अ०, स०, इ० । ६ सागरदत्तसहितः ७ श्रेष्ठिनः ०, प०, ६०, स० अ० ८ समुद्रदत्तस्य समानरूपताम् । ९ सभाम् । १० विचारशून्यताम् । ११ सागरदत्तस्य विचारशून्यताम् । १२ निजभागिनेयजितशत्रवे । १३ सर्वदयितश्रेष्ठी । १४ जितशत्रुवर्धनविद्याधरदम्पती १५ सर्वदयितस्य भायें। १६ वैश्रवणदत्तस्य भार्या १७७ सागरदत्तस्य भार्या । : ६३ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ आदिपुराणम् प्रान्ते स्वर्गादिहागत्य जयधामा तदातनः । वसुलोऽत्र संजातो जयभामाऽप्यजायत ॥२२४॥ जयवत्यात्तसौन्दर्या जयसेनाऽजनिष्ट सा । पिप्पला जयदत्ता तु वत्यन्तमदनाऽभवत् ॥२२५॥ विद्युद्वेगाऽभवद् वैश्रवणदत्ता कलाखिला । जाता सागरदत्तापि स्वर्गादेत्य सुखावती ॥२२६॥ तदा सागरदत्ताख्यः स्वर्गलोकात् समागतः । पुत्रो हरिवरो जातः स पुरुरवसः प्रियः ॥२२७॥ समुद्रदत्तो ज्वलनवेगस्याजनि विश्रुतः । तनूजो धूमवेगाख्यो विद्याविहितपौरुषः ॥२२८॥ स वैश्रवणदत्तोऽपि भूतोऽत्राशनिवेगकः । श्रेष्ठी स सर्वदयितः श्रीपालस्त्वमिहाभवः ॥२२९॥ त्वं जामातुनिराकृत्या सनाभिभ्यो वियोजितः । तदा त्वद्वेषिणोऽस्मिश्च तव द्वेषिण एव ते ॥२३०॥ तदा प्रियास्तवात्राऽपि संजाता नितरां प्रियाः। अहिं सयाऽर्भक स्यासीद् बन्धुभिस्तव "संगमः ॥२३१॥ नत्तपःफलतो जातं चक्रित्वं सकलक्षितेः । सर्वसंगपरित्यागान्मङक्षु मोक्षं गमिष्यसि ॥२३२॥ अथोदीरिततीर्थेशवचनाकर्णनेन ते । सर्वे परस्परद्वेषाद् विरमन्ति स्म विस्मयात् ॥२३३॥ जन्मरोगजरामृत्यूनिहन्तुं "सन्ततानुगान् । संनिधाय धियं ''धन्योऽधासीद्धर्मामृतं ततः ॥२३॥ धिगिदं चक्रिसाम्राज्यं कुलालस्येव जीवितम् । "भुक्तिश्चक्रं परिभ्राम्य मृदुत्पन्नफलाप्तितः ॥२३॥ कर लिया। वे सभी लोग चिरकाल तक संयमका साधन कर आयुके अन्त में स्वर्ग गये ॥२२१२२३॥ वहाँको आयु पूरी होनेपर स्वर्गसे आकर पहलेका जयधाम विद्याधर यहाँ राजा वसुपाल हुआ है, जयभामा वसुपालकी सुन्दरी रानी जयावती हुई है, जयसेना पिप्पली हुई है, जयदत्ता मदनावती हुई है, वैश्रवणदत्ता सब कलाओंमें निपुण विद्युद्वेगा हुई है, सागरदत्ता स्वर्गसे आकर सुखावती हुई है, उस समयका सागरदत्त स्वर्गसे आकर पुरुरवाका प्यारा पुत्र हरिवर हुआ है, समुद्रदत्त ज्वलनवेगका प्रसिद्ध पुत्र हुआ है जो कि अपनी विद्याओंसे ही अपना पौरुष प्रकट कर रहा है, वैश्रवणदत्त अशनिवेग हुआ है और सर्वदयित सेठ यहाँ श्रीपाल हुआ है जो कि तू ही है ॥२२४-२२६।। तूने पूर्वभवमें अपने जमाई ( भानेज जितशत्रु ) को उसकी मातासे अलग कर दिया था इसलिए तुझे भी इस भवमें अपने भाई-बन्धुओंसे अलग होना पड़ा है, पूर्वभवमें जो वैश्रवणदत्त, सागरदत्त तथा समुद्रदत्त तेरे द्वेषी थे वे इस भवमें भी तुझसे द्वेष करनेवाले धूमवेग, अशनिवेग और हरिवर हुए हैं। उस भवमें जो तुम्हारी स्त्रियाँ थीं वे इस भवमें भी तुम्हारी अत्यन्त प्यारी स्त्रियाँ हुई हैं। तुमने अपनी बहनके बालककी हिंसा नहीं की थी इसलिए ही तेरा इस भवमें अपने भाई-बन्धुओंके साथ फिरसे समागम हुआ है। तूने उस भवमें जो तपश्चरण किया था उसीके फलसे सम्पूर्ण पृथिवीका चक्रवर्ती हुआ है और अन्तमे सब परिग्रहोंका त्याग कर देनेसे तू शीघ्र ही मोक्ष पा जायेगा ॥२३०-२३२।। इस प्रकार तीर्थकर भगवान् गुणपालके कहे हुए वचनोंको सुनकर सब लोगोंने आश्चर्यपूर्वक अपना परस्परका सब वैर छोड़ दिया ।।२३३॥ तदनन्तर पुण्यात्मा श्रीपालने सदासे पीछे लगे हुए जन्म, रोग, जरा और मृत्युको नष्ट करनेके लिए बुद्धि स्थिर कर धर्मरूपी अमृतका पान किया ॥२३४॥ वह सोचने लगा कि यह चक्रवर्तीका साम्राज्य कुम्हारकी जीवनीके समान है क्योंकि जिस प्रकार कुम्हार अपना चक्र ( चाक ) घुमाकर मिट्टीसे बने हुए घड़े आदि बरतनोंसे अपनी आजीविका चलाता है १ तत्कालभवः । २ श्रीपालस्याग्रमहिषी जाता। ३ पिप्पली ल०, ५०, इ०, अ०, स०। ४ संपूर्णकला । ५ पुरुरवस इति विद्याधरस्य । ६ भगिनीपुत्रस्य निराकरणेन । ७ तत्काले। ८ अहिंसनेन । ९ तव भगिनीशिशोः । १० पुनर्बान्धवैः सह संयोगः। ११ निरन्तरानुगमनशीलान् । १२ पपौ। धेट पाने इति धातुः । १३ भोजनक्रिया । १४ चक्ररत्नम् घटक्रियायन्त्री च । १५ क्षेत्रोत्पन्नफलप्राप्तितः । मत्पिण्डोत्पन्नप्राप्तितश्च । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व ४६६ आयुर्वायुरयं' मोहो भोगो भङ्गी हि संगमः । वपुः पापस्य दुष्पात्रं विद्युल्लोला विभूतयः ॥२३६॥ "मार्गविभ्रंशहेतुत्वाद् यौवनं गहनं वनम् । या रतिर्विषयेष्वेषा गवेषयति साऽरतिम् ॥२३७॥ सर्वम तत्सुखाय स्याद् यावन्मतिविपर्ययः । प्रगुणायां मतौ सत्यां किं तस्याज्यमतः परम् ॥२३८॥ चित्तद्रुमस्य चेद् वृद्धिरमिलाषविषाङ्कुरैः । कथं दुःखफलानि स्युः संभोगविटपेषु नः ॥२३६॥ भुक्तो भोगो दशाङ्गोऽपि यथेष्टं सुचिरं मया । मात्रामात्रेऽपि नानासीत्तृप्तिस्तृष्णाविघातिनी ॥२४०॥ अस्तु वास्तु समस्तं च संकल्पविषयीकृतम् । इष्टमेव तथाप्यस्मानास्ति' ब्यस्ताऽपि निर्वृतिः ॥२४॥ किल स्त्रीभ्यः सुखावाप्तिः पौरुषं २ किमतः परम् । दै-यमात्मनि संभाव्य सौख्यं स्यां परमः पुमान् ॥ इति स्त्रीपालचक्रेशः संत्यजन् वक्रतां धियः । अक्रमेणाखिलं त्यक्तुं सचक्रं मतिमातनोत् ॥२४३॥ ततः सुखावतीपुत्रं नरपालाभिधानकम् । कृताभिषेकमारोप्य समुत्तुङ्गं निजासनम् ॥२४॥ जयवत्यादिभिः स्वाभिर्देवीभिर्धरणीश्वरैः । वसुपालादिभिश्चामा संयम प्रत्यपद्यत ॥२४५॥ ... स बासमन्तरङ्गं च तपस्तप्त्वा यथाविधि । क्षपकश्रेणिमारुह्य मासेन (?) हतमोहकः ॥२५६॥ यथाख्यातमवाप्योरुचारित्रनिष्कषायकम् । ध्यायन् द्वितीयशुक्लेन वीचाररहितात्मता'' ॥२४७॥ उसी प्रकार चक्रवर्ती भी अपना चक्र ( चक्ररत्न ) घुमाकर मिट्टीसे उत्पन्न हुए रत्न या कर आदिसे अपनी आजीविका चलाता है - भोगोपभोगकी सामग्री जुटाता है इसलिए इस चक्रवर्तीके साम्राज्यको धिक्कार है ॥२३५।। यह आयु वायुके समान है, भोग मेघके समान हैं, इष्टजनोंका संयोग नष्ट हो जानेवाला है, शरीर पापोंका खोटा पात्र है और विभूतियाँ बिजलीके समान चंचल हैं ॥२३६।। यह यौवन समीचीन मार्गसे भ्रष्ट करानेका कारण होनेसे सघन वनके समान है और जो यह विषयोंमें प्रीति है वह द्वेषको ढूंढ़नेवाली है ॥२३७॥ इन सब वस्तुओंसे सुख तभी तक मालूम होता है जबतक कि बुद्धिमें विपर्ययपना रहता है। और जब बुद्धि सीधी हो जाती है - तब ऐसा जान पड़ने लगता है कि इन वस्तुओंके सिवाय छोड़ने योग्य और क्या होगा ? ॥२३८।। जब कि अभिलाषारूपी विषके अंकुरोंसे इस चित्तरूपी वृक्षकी सदा वृद्धि होती रहती है तब उसकी संभोगरूपी डालियोंपर भला दुःखरूपी फल क्यों नहीं लगेंगे ? ॥२३९।। मैंने इच्छानुसार चिरकाल तक दसों प्रकारके भोग भोगे परन्तु इस भवमें तृष्णाको नष्ट करनेवाली तृप्ति मुझे रंचमात्र भी नहीं हुई ॥२४०॥ यदि हमारी इच्छाके विषयभूत सभी इष्ट पदार्थ एक साथ मिल जायें तो उनसे थोड़ा-सा भी सुख नहीं मिलता है ॥२४१।। स्त्रियोंसे सुखकी प्राप्ति होना ही पुरुषत्व है ऐसा प्रसिद्ध है परन्तु इससे बढ़कर और दीनता क्या होगी? इसलिए अपने आत्मामें ही सच्चे सुखका निश्चय कर पूरुष हो सकता हैपुरुषत्वका धनी बन सकता हूँ ॥२४२॥ इस प्रकार बुद्धिकी वक्रताको छोड़ते हुए श्रीपाल चक्रवर्तीने चक्ररत्नसहित समस्त परिग्रहको एक साथ छोड़नेका विचार किया ॥२४३।। तदनन्तर उसने नरपाल नामके सुखावतीके पुत्रका राज्याभिषेक कर उसे अपने बहुत ऊंचे सिंहासनपर बैठाया और स्वयं जयवती आदि रानियों तथा वसुपाल आदि राजाओंके साथ दीक्षा धारण कर ली ॥२४४-२४५॥ उन्होंने विधिपूर्वक बाह्य और अन्तरंग तप तपा, क्षपक श्रेणीमें चढ़कर मोहरूपी शत्रुको नाश करनेसे प्राप्त होनेवाला कषायरहित यथाख्यात नामका उत्कृष्ट चारित्र प्राप्त किया, वीचाररहित द्वितीय शुक्ल ध्यानके द्वारा आत्मस्वरूपका १ वायुवेगी। २ मेघो ल० । ३ विनाशी। ४ इष्टसंयोगः । ५ सन्मार्गच्युतिकारपात्वात् । ६ स्रक्चन्दनादि । ७ मतेर्व्यायामः, मोहः । ८ इष्टस्रक्कामिन्यादिकादन्यत् । ९ अत्यल्पकालेऽपि । १० अल्पापि। ११ सुखम् । १२ कुशलाकुशलसमाचरणलक्षणं पौरुषम् । १३ संकल्पसुखम् । १४ अहं परमपुरुषो भवेयम् । १५ मोहारातिजयाजितम् ल०, ५०, अ०, स०, इ० । १६ एकत्ववितर्कवीचाररूपद्वितीयशुक्लध्यानेन । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् घातिकर्मत्रयं हत्वा संप्राप्तनव केवलः । सयोगस्थानमाक्रम्य वियोगो वीतकल्मषः ॥ २४८ ॥ 'शरीरचितयोपायादाविष्कृतगुणोत्करः । अनन्तशान्तमप्रायमवाप सुखमुत्तमम् ॥ २४९ ॥ तस्य राज्यश्च ताः सर्वा विधाय विविधं तपः । स्वर्गलोके स्वयोग्योरुविमानेष्वभवन् सुराः ॥ २५० ॥ आवां चाकर्ण्य तं नत्वा गत्वा नाकं निजोश्चितम् । अनुभूय सुखं प्रान्ते शेषपुण्य विशेषतः ॥ २५१॥ इहागताविति व्यक्तं व्याजहार सुलोचना । जयोऽपि स्वप्रियाप्रज्ञाप्रभावादतुषत्तदा ॥ २५२ ॥ तदा सदस्सदः सर्वे प्रतीयु स्तदुदाहृतम् । कः प्रत्येति न दुष्टश्चेत् सद्भिर्निगदितं वचः ॥ २५३॥ एवं सुखेन साम्राज्य भोगसारं निरन्तरम् । भुआनौ रञ्जितान्योन्यौ कालं गमयतः स्म तौ ॥२५४॥ तदा "खगमवावातप्रज्ञप्तिप्रमुखाः श्रिताः । विद्यास्तां २ च महीशं च संप्रीत्या तौ ननन्दतुः ॥ २५५॥ "तलात् कान्तया सार्द्धं विहर्तुं सुरगोचरान् । वाञ्छन् देशान् निजं राज्यं नियोज्य विजयेऽनुजे ॥ २५६॥ यथेष्टं सप्रियो विद्यावाहनः सरितां पतीन् । कुलशैलानदीरम्यवनानि विविधान्यपि ॥२५७॥ विहरन्नन्यदा मेघस्वरः कैलासशैलजे । वने सुलोचनाभ्यर्णादसौ किंचिदपासरत् ॥ २९८ ॥ ११ १३ १५ ५०० चिन्तवन करते हुए ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोंको नष्ट कर नौ केवललब्धियाँ प्राप्त कीं, सयोगकेवली गुणस्थान में पहुँचकर क्रमसे योगरहित होकर सब कर्म नष्ट किये और अन्त में औदारिक, तेजस, कार्माण - तीनों शरीरोंके नाशसे गुणोंका समूह प्रकट कर अनन्त, शान्त, नवीन और उत्तम सुख प्राप्त किया ।। २४६ - २४९ ॥ श्रीपाल चक्रवर्तीको सब रानियाँ भी अनेक प्रकारका तप तपकर स्वर्गलोकमें अपने-अपने योग्य बड़ेबड़े विमानोंमें देव हुई ॥२५० || सुलोचना जयकुमारसे कह रही है कि हम दोनों भी ये सब कथाएँ सुनकर एवं गुणपाल तीर्थ करको नमस्कार कर स्वर्ग चले गये थे और वहाँ यथायोग्य • सुख भोगकर आयुके अन्त में बाकी बचे हुए पुण्यविशेषसे यहाँ उत्पन्न हुए हैं । ये सब कथाएँ सुलोचनाने स्पष्ट शब्दोंमें कही थीं और जयकुमार भी अपनी प्रियाकी बुद्धिके प्रभावसे उस समय अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ था ॥ २५१ - २५२ ॥ उस समय सभामें बैठे हुए सभी लोगोंने सुलोचना के कहने पर विश्वास किया सो ठीक ही है, क्योंकि जो दुष्ट नहीं है वह ऐसा कौन है जो सज्जनोंके द्वारा कहे हुए वचनोंपर विश्वास न करे ।। २५३ || इस प्रकार साम्राज्य तथा श्रेष्ठ भोगोंका निरन्तर उपभोग करते और परस्पर एक दूसरेको प्रसन्न करते हुए वे दोनों सुख से समय बिताने लगे ||२५४|| उसी समय पहले विद्याधरके भवमें लक्ष्मीको बढ़ानेवाली जो प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ थीं वे भी बड़े प्रेमसे जयकुमार और सुलोचना दोनोंको प्राप्त हो गयीं || २५५ || उन विद्याओंके बलसे महाराज जयकुमारने अपनी प्रिया सुलोचनाके साथ देवोंके योग्य देशोंमें विहार करने की इच्छा की और इसलिए ही अपने छोटे भाई विजयकुमारको राज्यकार्य में नियुक्त कर दिया ॥ २५६ ॥ तदनन्तरे जिसकी सवारियाँ विद्याके द्वारा बनी हुई हैं ऐसा वह जयकुमार अपनी प्रिया - सुलोचनाके साथ-साथ समुद्र, कुलाचल और अनेक प्रकारके मनोहर वनों में विहार करता १ संप्राप्तक्षायिकज्ञानदर्शनसम्यक्त्व चारित्रदानलाभभोगोपभोगवीर्याणीतिनव केवललब्धिः । २ आदारिकशारीरकार्मणमिति शरीर त्रय विनाशात् । ३ अनन्तं शान्तमप्राप्तमवाप्तः इ० अ०, स०, ल०, प० । अप्रायमनुपमम् । 'प्रायश्चानशने मृत्यौ तुल्यबाहुल्ययोरपि' इत्यभिधानात् । ४ यथोचितम् ल०, प०, अ०, स०, इ० । ५ आयुरन्ते । ६ उवाच । ७ सदः सीदन्तीति सदस्सदः । सभां प्राप्ता इत्यर्थः । ८ विश्वस्तवन्तः । ९ सुलोचनावचनम् । १० न श्रद्दधाति । ११ हिरण्यवर्म प्रभावतीभवे प्राप्त । १२ सुलोचनाम् । १३ जयम् । १४ वर्धितश्रियः ल०, प०, इ०, स० । १५ प्रज्ञप्त्यादिविद्याबलात् । १६ पतिम् ल०, प०, इ०, स० । १७ अपसरति स्म । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व ५०१ अमरेन्द्र सभामध्ये शीलमाहात्मशंसनम् । जयस्य तत्प्रियायाश्च प्रकुर्वति कदाचन ॥२५॥ श्रुत्वा तदादिमे कल्पे रविप्रमविमानजः । श्रीशा रविप्रभाख्येन तच्छीलान्वेषणं प्रति ॥२६॥ प्रेषिता कांचना नाम देवी प्राप्य जयं सुधीः । क्षेत्रेऽस्मिन् मारते खेचरादरुत्तरदिक्तटे ॥२६॥ मनोहराख्यविषये राजारत्नपुराधिपः । अभूत् पिङ्गलगान्धारः सुखदा तस्य सुप्रभा ॥२६२॥ तयोविद्युत्प्रभा पुत्री नमेर्भार्या यहच्छया । त्वां नन्दने महामेरौ क्रीडन्तं वीक्ष्य सोत्सुका ॥२३॥ तदा प्रभृति मच्चित्तेऽभवस्त्वं लिखिताकृतिः । त्वत्समागममेवाहं ध्यायन्ती दैवयोगतः ॥२६॥ दृष्टवत्यस्मि कान्ताऽस्मिन्निवेगं सोढुमक्षमा। इत्यपास्तोपकण्ठस्थान् स्वकीयान् स्मरविह्वला ॥२६५॥ स्वानुरागं जये व्यक्तमकरोद् विकृतेक्षणा । तदुष्टचेष्टितं दृष्ट्वा मा मंस्थाः पापमीदृशम् ॥२६६॥ सोदर्या त्वं ममादायि मया मुनिवराद् व्रतम् । पराङ्गनाङ्ग संसङ्गसुखं में विषभक्षणम् ॥२६॥ महीशेनेति संप्रोक्ता मिथ्या सा'कोपवेषिनी । उपात्तराक्षसीवेषा त समुद्धृत्य गत्वरी ॥२६॥ पुष्पावचयसंसक्त नृपकान्ताभितर्जिता । भीत्वा तच्छीलमाहात्म्यात् ''काञ्चनाऽदृश्यतां गता ॥२६॥ अबिभ्यद्देवता चैवं शीलवत्याः परे न के। ज्ञात्वा तच्छीलमाहात्म्यं गत्वा स्वस्वामिनं प्रति ॥२७॥ हुआ किसी समय कैलाश पर्वतके वनमें पहुँचा और किसी कारणवश सुलोचनासे कुछ दूर चला गया ॥२५७-२५८॥ उसी समय इन्द्र अपनी सभाके बीचमें जयकुमार और उसकी प्रिया सुलोचनाके शीलकी महिमाका वर्णन कर रहा था उसे सुनकर पहले स्वर्गके रविप्रभ विमानमें उत्पन्न हुए लक्ष्मीके अधिपति रविप्रभ नामके देवने उनके शीलकी परीक्षा करनेके लिए एक कांचना नामकी देवी भेजी, वह बुद्धिमती देवी जयकुमारके पास आकर कहने लगी कि 'इसी भरतक्षेत्रके विजयाध पर्वतकी उत्तरश्रेणी में एक मनोहर नामका देश है, उसके रत्नपुर नगरके अधिपति राजा पिङ्गलगान्धार हैं, उनके सुख देनेवाली रानी सुप्रभा है, उन दोनोंकी मैं विद्युत्प्रभा नामकी पुत्री हूँ और राजा नमिकी भार्या हूँ। महामेरु पर्वतपर नन्दन वन में क्रीड़ा करते हुए आपको देखकर मैं अत्यन्त उत्सुक हो उठी हूँ। उसी समयसे मेरे चित्तमें आपकी आकृति लिख-सी गयी है, मैं सदा आपके समागमका ही ध्यान करती रहती हूँ। दैवयोगसे आज आपको देखकर आनन्दके वेगको रोकनेके लिए असमर्थ हो गयी हूँ।' यह कहकर उसने समीपमें बैठे हुए अपने सब लोगोंको दूर कर दिया और कामसे विह्वल होकर तिरछी आँखें चलाती हुई वह देवी जयकुमारमें अपना अनुराग स्पष्ट रूपसे प्रकट करने लगी। उसकी दुष्ट चेष्टा देखकर जयकुमारने कहा कि तू इस तरह पापका विचार मत कर, तू मेरी बहन है, मैंने मुनिराजसे व्रत लिया है कि मुझे परस्त्रियोंके शरीरके संसर्गसे उत्पन्न होनेवाला सुख विष खानेके समान है। महाराज जयकुमारके इस प्रकार कहनेपर वह देवी झूठमूठके क्रोधसे काँपने लगी और राक्षसीका वेष धारण कर जयकुमारको उठाकर जाने लगी। फूल तोड़नेमें लगी हुई सुलोचनाने यह देखकर उसे ललकार लगायी जिससे वह उसके शीलके माहात्म्यसे डरकर अदृश्य हो गयी । देखो, शीलवती स्त्रीसे जब देवता भी डर जाते हैं तब औरोंकी तो बात ही क्या है ? वह कांचना देवी उन दोनोंके शीलका माहात्म्य जानकर अपने स्वामीके पास गयी, वहाँ उसने उन दोनोंके उस माहात्म्यकी प्रशंसा की जिसे सुनकर वह रविप्रभ देव भी आश्चर्यसे उनके गुणोंमें प्रेम करता हुआ उन दोनोंके पास आया। उसने अपना सब १ रविप्रभविमानोत्पन्नलक्ष्मीपतिः । २ श्रीशो ल०। ३ निरूपिता । ४ भो प्रिय । ५ एतस्मिन् प्रदेशे । ६ कामवेगम् । ७ स्वजनान् । ८ स्वीकृतम् । ९ संसर्ग-ल०, ५०, इ०, स० । १० सम्प्रोक्तं ल०।११ पापवेपनो ट० । अशोभनं कम्पयन्ती। १२ जयम् । १३ गमनशोला । १४ सुलोचनातजिता । १५ काञ्चनास्यामराङ्गना। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ आदिपुराणम् प्राशंसत् सा तयोस्ताङमाहात्म्यं सोऽपि विस्मयात् । रविप्रमः समागत्य तावुमौतद्गुणप्रियः ॥२१॥ स्ववृत्तान्तं समाख्याय युवाभ्यां क्षम्यतामिति । पूजयित्वा महारत्न कलोकं समीयिवान् ॥२७२॥ 'नथा चिरं विहृत्यात्तसंप्रीतिः कान्तया समम् । निवृत्त्य पुरमागत्य सुखसारं समन्वभूत् ॥२७॥ अथान्यदा समुत्पन्नबोधिर्मेघस्वराधिपः । तीर्थाधिनाथ मासाद्य वन्दित्वाऽऽनन्दभाजनम् ॥२४॥ कृत्वा धर्मपरिप्रश्नं श्रुत्वा तस्माद्यथोचितम् । आक्षेपिण्यादिकाः सम्यक कथाबन्धोदयादिकम् ॥२७५॥ कर्मनिर्मुक्तसंप्राप्यं शर्मसारं प्रबुद्धधीः । शिवंकरमहादेव्यास्तनूजो जगतां प्रियः ॥२७६॥ अवार्योऽनन्तवीर्याख्यः शत्रुभिः शस्त्रशास्त्रवित् । आकुमारं यशस्तस्य शौर्य शत्रुजयावधि ॥२७७॥ त्यागः सर्वार्थिसंतपी सत्यं स्वप्नेऽप्यविप्लुतम् । विधायामिषवं तस्मै प्रदायात्मीयसंपदम् ॥२७८॥ पदं परं परिप्राप्नुमव्यग्रममिलाषुकः । विसर्जितसगोत्रादिर्विनिर्जिवनिजेन्द्रियः ॥२७९॥ वितर्जितमहामोहः समर्जितशुभाशयः। विजयेन जयन्तेन संजयन्तेन सानुजैः ॥२८॥ अन्यैश्च निश्चितत्यागै रागद्वेषाविदूषितैः । रविकीर्ती ४ १"रिपुजयोऽरिन्दमोऽरिंजयाह्वयः ॥२८॥ सुजयश्च सुकान्तश्च सप्तमश्चाजितंजयः । महाजयोऽतिवीर्यश्च वीरंजयसमाह्वयः ॥२८२॥ - रविवीर्यस्तथाऽन्ये च तनूजाश्चक्रवर्तिनः । तैश्च साद्धं सुनिविण्णैश्चरमाङ्गो विशुद्धि भाक ॥२८३॥ वृत्तान्त कहकर उन दोनोंसे क्षमा माँगी और फिर बड़े-बड़े रत्नोंसे पूजा कर वह स्वर्गको चला गया । इधर जयकुमार भी प्रिया-सुलोचनाके साथ चिरकाल तक बड़े प्रेमसे विहारकर वापस लौटे और नगरमें आकर श्रेष्ठ सुखोंका अनुभव करने लगे ॥२५९-२७३॥ अथानन्तर-जिसे आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे जयकुमारने किसी एक दिन आनन्दके पात्र श्री आदिनाथ तीर्थकरके पास जाकर उनकी वन्दना की, धर्मविषयक प्रश्न कर उनका यथा योग्य उत्तर सुना, आक्षेपिणी आदि कथाएँ कहीं और कर्मो के बन्ध उदय आदिकी चर्चा की ॥२७४-२७५।। इस प्रकार प्रबुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाले जयकुमारने कर्मोके नाशसे प्राप्त होने योग्य श्रेष्ठ सुखको प्राप्त किया । तदनन्तर उसने जो लोगोंको बहुत ही प्रिय है, जिसे शत्रु नहीं रोक सकते हैं, जो शस्त्र और शास्त्र दोनोंका जाननेवाला है, जिसका यश कुमार अवस्थासे ही फैल रहा है, जिसकी शूरवीरता शत्रुओंके जीतने तक है, जिसका दान सब याचकोंको सन्तुष्ट करनेवाला है, और जिसका सत्य कभी स्वप्नमें भी खण्डित नहीं हुआ है ऐसे शिवंकर महादेवीके पुत्र अनन्तवीर्यका राज्याभिषेक कर उसे अपनी सब राज्य-सम्पदा दे दी ॥२७६-२७८॥ तदनन्तर जो आकुलतारहित परम पद प्राप्त करनेकी इच्छा कर रहा है, जिसने अपने सब कुटुम्बका परित्याग कर दिया है, अपनी इन्द्रियोंको वश कर लिया है, महामोहको डाँट दिखा दी है और शुभासवका संचय किया है ऐसे चरमशरीरी तथा विशुद्धिको धारण करनेवाले जयकुमारने विजय, जयन्त, संजयन्त तथा परिग्रहके त्यागका निश्चय करनेवाले और राग-द्वेषसे अदूषित अन्य छोटे भाइयों एवं रविकीति, रविजय, अरिंदम, अरिंजय सुजय, सुकान्त, सातवाँ अजितंजय, महाजय, अतिवीर्य, वरंजय, रविवीर्य तथा इनके सिवाय और भी वैराग्यको प्राप्त हुए चक्रवर्तीके पुत्रोंके साथ-साथ दीक्षा धारण की ॥२७९-२८३।। १ प्रशसां चकार । २ जयसुलोचनयोः । ३ तया ल०। ४ मण्डभाजन कल्याणभाजनं वा। तीर्थादि-ल। ५ आक्षेपणी विक्षेपणी संवैजनी निर्वेजनीति चेति चतस्रः । “आक्षेपणी स्वमतसंग्रहणीं समेक्षी विक्षेपणीं कुमतनिग्रहणीं यथाहम् । संवेजनों प्रथयितुं सुकृतानुभावं निर्वेजनों वदतु धर्मकथाविरक्त्यै ॥" ६ कृत्वा कथाबन्धोदयादिकाः ल०, ५०, इ०, स० । ७ कर्मबन्धविमुक्तः प्राप्तुं योग्यम् । ८ जनताप्रियः ल०, ५०, अ०, स०, इ० । ९ कुमारकालादारभ्य । १० अनन्तवीर्यस्य । ११ अविच्युतम् । निधिं वा । १२ बान्धवादि । 'सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः' इत्यभिधानात् । १३ शुभास्रकः ल०। १४ रविकोतिनामा । १५ रविजयो ल०, १०, स०, इ० । १६ वरञ्जय ल०, अ०, १०, स० । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व ५०३ सम्पण एष पात्रविशेषस्ते संवोढुं शासनं महत् । इति विश्वमहीशेन' देवदेवस्य सोऽपितः ॥२८॥ कृतग्रन्थपरित्यागः प्राप्तग्रन्थार्थसंग्रहः । प्रकृष्टं संयमं प्राप्य सिद्धसप्तर्द्धिवर्द्धितः ॥२८५॥ चतुर्ज्ञानामलज्योतिर्हताततमनस्तमाः । अभूद् गणधरो भर्तुरेकसप्ततिपूरकः ॥२८६॥ सुलोचनाप्यसंहार्यशोका पतिवियोगतः । गलिताकल्पवल्लीव प्रम्लानामरभूरुहात् ॥२८७॥ शमिता चक्रवर्तीष्टकान्तयाऽशु सुमद्रया । ब्राह्मीसमीपे प्रव्रज्य भाविसिद्धिश्चिरं तपः ॥२८॥ कृत्वा विमाने साऽनुत्तरेऽभूत् कल्पेऽच्युतेऽमरः । आदितीर्थाधिनाथोऽपि मोक्षमार्ग प्रवर्तयन् ॥२८९॥ चतुरुत्तरयाऽशीत्या विविधर्द्धिविभूषितैः । चिरं वृषभसेनादिगणेशैः परिवेष्टितः ॥२९०॥ खपञ्चसप्तबार्राशिमितपूर्वधरान्वितः । खपञ्चैकचतुर्मेय शिक्षकैर्मुनिभि युतः ॥२६॥ तृतीयज्ञानसन्नेत्रैः सहस्रनवभिर्वृतः । केवलावगमैविंशतिसहस्रैः समन्वितः ॥२९२॥ खद्वयर्तुखपक्षोरुविक्रियर्द्धिविवर्द्धितः । स्रपञ्चसप्तपक्षकमिततुर्यविदन्वितः ॥२३॥ तावद्भिर्वादिमिर्वन्द्यो निरस्तपरवादिभिः । चतुरष्टखवायष्टमितैः सर्वश्च पिण्डितः ॥२६॥ संयमस्थानसंप्राप्तसंपद्भिस्सद्भिरर्चितः । खचतुष्केन्द्रियाग्न्युक्तपूज्यब्राह्मयार्यिकादिभिः ॥२९५॥ आर्यिकाभिरमिष्ट्रयमाननानागुणोदयः । दृढव्रतादिभिलक्षत्रयोक्तः श्रावकैः श्रितः ॥२९६॥ श्राविकामिः स्तुतः पञ्चलक्षामिः सुव्रतादिभिः । भावनादिचतुभेंददेवदेवीडितक्रमः ॥२९७॥ उस समय भगवान् ऋषभदेवके समीप जयकुमार ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो आपके बड़े भारी शासनको धारण करनेके लिए यह एक विशेष पात्र है यही समझकर महाराज भरतने उसे भगवान्के लिए सौंपा हो ॥२८४॥ इस प्रकार जिसने सब परिग्रहका त्याग कर दिया है, तका अर्थसंग्रह प्राप्त किया है, जो उत्कृष्ट संयम धारण कर सात ऋद्धियोंसे निरन्तर.. बढ़ रहा है, और चार ज्ञानरूपी निर्मल ज्योतिसे जिसने मनका विस्तीर्ण अन्धकार नष्ट कर दिया है ऐसा वह जयकुमार भगवान्का इकहत्तरवां गणधर हुआ ॥२८५-२८६॥ इधर पतिके वियोगसे जिसे बड़ा भारी शोक रहा है और जो पड़े हुए कल्पवृक्षसे नीचे गिरी हुई कल्पलताके समान निष्प्रभ हो गयी है ऐसी सुलोचनाने भी चक्रवर्तीकी पट्टरानी सुभद्राके समझानेपर ब्राह्मी आर्यिकाके पास शीघ्र ही दीक्षा धारण कर ली और जिसे आगामी पर्यायमें मोक्ष होनेवाला है ऐसी वह सुलोचना चिरकाल तक तप कर अच्युतस्वर्गके अनुत्तरविमानमें देव पैदा हुई। ____इधर जो मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति चला रहे हैं, अनेक ऋद्धियोंसे सुशोभित वृषभसेन आदि चौरासी गणधरोंसे घिरे हुए हैं, चार हजार सात सौ पचास पूर्वज्ञानियोंसे सहित हैं, चार हजार एक सौ पचास शिक्षक मुनियोंसे युक्त हैं, नौ हजार अवधिज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले मुनियोंसे सहित हैं, बीस हजार केवलज्ञानियोंसे युक्त हैं, बीस हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक मुनियोंसे वृद्धिको प्राप्त हो रहे हैं, बारह हजार सात सौ पचास मनःपर्ययज्ञानियोंसे अन्वित हैं, परवादियोंको हटानेवाले बारह हजार सात सौ पचास वादियोंसे वन्दनीय हैं, और इस प्रकार सब मिलाकर तपश्चरणरूपी सम्पदाओंको प्राप्त करनेवाले चौरासी हजार चौरासी मुनिराज जिनकी निरन्तर पूजा करते हैं, ब्राह्मी आदि तीन लाख पचास हजार आर्यिकाएँ जिनके गुणोंका स्तवन कर रही हैं, दृढ़वत आदि तीन लाख श्रावक जिनकी सेवा कर रहे हैं, सुव्रता आदि पाँच लाख श्राविकाएं जिनकी स्तुति कर रही हैं, भवनवासी आदि चार प्रकारके देव देवियाँ जिनके चरणकमलोंका स्तवन कर रही हैं, चौपाये आदि तिर्य चगतिके जीव जिनकी १.भरतेश्वरेण । २ वृषभेश्वरस्य । ३ जयः । ४ भ्रष्टादमर-ल०, ५०, १०, स०, इ० । ५ उपशान्ति नीता । ६ मातुं योग्य । ७-भिर्वतः ल०। ८ अवधिज्ञान । ९-भिर्युतः ल०। १० -राजितः । ११ मन:पर्ययज्ञानिसहितः । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ आदिपुराणम् चतुष्पदादिमिस्तिर्यग्जातिभिश्वामिषेवितः । चतुस्त्रिंशदतीशेष'विशेषैर्लक्षितोदयः ॥२९८॥ आत्मोपाधिविशिष्टावबोधदृक् सुखवीर्यसद् । देहसौन्दर्यवासोक्त सप्तसंस्थानसंगतः ॥२९९॥ प्रातिहार्याष्टकोद्दिष्टनष्टघातिचतुष्टयः । वृषमाद्यन्वितार्थाष्टसहस्राह्वयभाषितः ॥३०॥ विकासितविनेयाम्बुजावलिर्वचनांशुभिः। संवृताञ्जलि पङ्कजमुकुलेनाखिलेशिना ॥३०१॥ भरतेन समभ्यर्च्य पृष्टो धर्मममाषत । ध्रियते धारयत्युच्चै 'विनेयान् कुगतेस्ततः ॥३०२॥ धर्म इत्युच्यते सद्भिश्चतुर्मेदं समाश्रितः । सम्यग्दृक्ज्ञानचारित्रतपोरूपः कृपापरः ॥३०॥ जीवादिसप्तके तत्त्वे श्रद्धानं यत् स्वतोऽञ्जसा । परप्रणयनाद् वा तत् सम्यग्दर्शनमुच्यते ॥३०॥ शङ्कादिदोषनिर्मुक्त भावत्रयविवेचितम् । तेषां जीवादिसप्तानां संशयादिविवर्जनात् ॥३०॥ याथात्म्येन परिज्ञानं सम्यग्ज्ञानं समादिशेत् । यथाकर्मास्रवो न स्याच्चारित्रं संयमस्तथा ॥३०६॥ निर्जरा कर्मणां येन तेन वृत्तिस्तपो मतम् । चत्वार्यतानि मिश्राणि कषायैः स्वर्गहेतवः ॥३०७॥ निष्कषायाणि नाकस्य मोक्षस्य च हितैषिणाम् । चतुष्टयमिदं वर्म मुक्तर्दुष्प्रापमंगिमिः ॥३०८॥ मिथ्यात्वमव्रताचारः प्रमादाः सकषायता । योगाः शुभाशुभा जन्तोः कर्मणां बन्धहेतवः ॥३०९॥ सेवा कर रहे हैं, चौंतीस अतिशय विशेषोंसे जिनका अभ्युदय प्रकट हो रहा है, जो केवल आत्मासे उत्पन्न होनेवाले विशिष्ट ज्ञान, विशिष्ट दर्शन, विशिष्ट सुख और विशिष्ट वीर्यको प्राप्त हो रहे हैं, जो शरीरको सुन्दरतासे युक्त हैं, जो सज्जाति आदि सात परम स्थानोंसे संगत हैं, जो आठ प्रातिहार्योंसे युक्त हैं, जिन्होंने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं, जो वृषभ आदि एक हजार आठ नामोंसे कहे जाते हैं और जिन्होंने भव्य जीवरूपी कमलोंके वनको प्रफुल्लित कर दिया है ऐसे भगवान् वृषभदेवके पास जाकर मुकुलित कमलके समान हाथ जोड़े हुए चक्रवर्ती भरतने उनको पूजा की और धर्मका स्वरूप पूछा तब भगवान् इस प्रकार कहने लगे - ___जो शिष्योंको कुगतिसे हटाकर उत्तम स्थानमें पहुँचा दे सत् पुरुष उसे ही धर्म कहते हैं। उस धर्मके चार भेद हैं - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यकतप । यह धर्म कर्तव्य प्रधान है ॥२८७-३०३॥ अपने-आप अथवा दूसरेके उपदेशसे जीव आदि सात तत्त्वामें जो यथार्थ श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन कहलाता है ॥३०४॥ यह सम्यग्दर्शन शंका आदि दोषोंसे रहित होता है तथा औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीन भावोंद्वारा इसकी विवेचना होती है अर्थात् भावोंकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनके तीन भेद हैं। संशय, विपर्यय और अनध्यवसायका अभाव होनेसे उन्हीं जीवादि सात तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जिससे कर्मोंका आसूव न हो उसे चारित्र अथवा संयम कहते हैं । ॥३०५-३०६॥ जिससे कर्मोकी निर्जरा हो ऐसी वृत्ति धारण करना तप कहलाता है। ये चारों ही गुण यदि कषायसहित हों तो स्वर्गके कारण हैं और कषायरहित हों तो आत्माका हित चाहनेवाले लोगोंको स्वर्ग और मोक्ष दोनोंके कारण हैं। ये चारों ही मोक्षके मार्ग हैं और प्राणियोंको बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होते हैं ॥३०७-३०८॥ मिथ्यात्व, अव्रताचरण, ( अविरति ), प्रमाद, कषाय और शुभ-अशुभ योग ये जीवोंके कर्मबन्धके कारण हैं ॥३०९॥ १ अतिशय । २ आत्मा उपाधिः कारणं यस्य । ३ वीर्यगः ल०, ५०, इ०, अ०, स०। प्रशस्त-सौन्दर्यवास । समवसरण । ४ सौन्दर्यवान् स्वोक्तसप्त-ल०. ५०, इ०, अ०, स०। ५ अभ्युदयनिःश्रेयसरूपोन्नतस्थाने । ६ भव्यान् । ७ दुर्गतेः सकाशात् अपसार्य । ८ ततः कारणात् । ९ दयाप्रधानः । क्रियापरः ल०। १० परोपदेशात् । ११ औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकभावनिर्णीतम् । १२ बिसर्जनात् ल । १३ सकषायत्वम् । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ सप्तचत्वारिंशत्तमं पवे मिथ्यात्वं नवधा 'साष्टशतं चाऽविरतिर्मता । प्रमादाः पञ्चदश च कषायास्ते चतुर्विधाः ॥३१०॥ योगाः पञ्चदश ज्ञेयाः सम्यग्ज्ञानविलोचनैः । समृलोत्तरभेदेन कर्माण्युक्तानि कोविदः ॥३११॥ बन्धश्चतुर्विधो ज्ञेयः प्रकृत्यादिविकल्पितः । कर्माण्युदयसंप्राप्त्या हेतवः फलबन्धयोः ॥३१२॥ तय्यं संसृतेहेतुं परित्यज्य गृहाश्रमम् । दोषदुःखजरामृत्युपापप्रायं भयावहम् ॥३१३॥ शक्तिमन्तस्समासन्नविनेया विदितागमाः । गुप्त्यादिषड्विधं सम्यगनुगत्य यथोचितम् ॥३१॥ प्रोक्तोपेक्षादिभेदेषु वीतरागादिकेषु च । पुलाकादिप्रकारेषु व्यपंतागारकादिषु ॥३१५॥ प्रमत्तादिगुणस्थानविशेषेषु च सुस्थिताः । निश्चयव्यवहारोक्तमुपाध्वं मोक्षमुत्तमम् ॥३१६॥ तथा गृहाश्रमस्थाश्च सम्यग्दर्शनपूर्वकम् । दानशीलोपवासार्हदादिपूजोपलक्षिताः ॥३१७॥ आश्रितैकादशोपासकव्रताः सुशुभाशयाः । संप्राप्तपरमस्थानसप्तकाः सन्तु धीधनाः ॥३१८॥ इति सत्तत्त्वसंदर्भगर्भवाग्विभवात्प्रमोः । ससभो भरताधीशः सर्वमेवममन्यत ॥३१९॥ त्रिज्ञाननेत्रसम्यक्त्वशुद्धिमाग देशसंयतः । स्रष्टारमभिवन्द्यायात् कैलासान्नगरोत्तमम् ॥३२०॥ जगस्त्रितयनाथोऽपि धर्मक्षेत्रेवनारतम् । उध्वा सद्धर्मबीजानि न्यषिञ्चद्धर्मवृष्टिभिः ॥३२॥ मिथ्यात्व पाँच तरहका है, अविरति एक सौ आठ प्रकारकी है, प्रमाद पन्द्रह है, कषायके चार भेद हैं, और सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले लोगोंको योगके पन्द्रह भेद जानना चाहिए। विद्वानोंने कर्मोका निरूपण मूल और उत्तरभेदके द्वारा किया है - कर्मोके मूल भेद आठ हैं और उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं ॥३१०-३११॥ प्रकृति आदिके भेदसे बन्ध चार प्रकारका जानना चाहिए तथा कर्म उदयमें आकर ही फल और बन्धके करण होते हैं। भावार्थ - पहलेके बंधे हुए कर्मोका उदय आनेपर ही उनका सुख-दुःख आदि फल मिलता है तथा नवीन कर्मोका बन्ध होता है ॥३१२॥ तुम लोग भक्तिमान् हो, निकटभव्य हो और आगमको जाननेवाले हो, इसलिए संसारके कारण स्वरूप – दोष, दुःख, बुढ़ापा और मृत्यु आदि पापोंसे भरे हुए इस भयंकर गृहस्थाश्रमको छोड़कर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र इन छहोंका अच्छी तरह अभ्यास करो तथा जिनके उपेक्षा आदि भेद कहे गये हैं ऐसे वीतरागादि मुनियोंमें, जिनके पुलाक आदि भेद हैं ऐसे अनगारादि मुनियोंमें अथवा प्रमत्तसंयतको आदि लेकर उत्कृष्ट गुण-स्थानोंमें रहनेवाले प्रमत्तविरत आदि मुनियोंमें-से किसी एकको अवस्था धारण कर निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकारके उत्तम मोक्षकी उपासना करो ॥३१३-३१६॥ इसी प्रकार गृहस्थाश्रममें रहनेवाले बुद्धिमान् पुरुष सम्यग्दर्शन पूर्वक दान, शील, उपवास तथा अरहन्त आदि परमेष्ठियोंकी पूजा करें, शुभ परिणामोंसे श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमाओंका पालन करें और यथायोग्य सज्जाति आदि सात परमस्थानोंको प्राप्त हों ॥३१७३१८॥ इस प्रकार भरतेश्वरने समीचीन तत्त्वोंकी रचनासे भरी हुई भगवान्की वचनरूप विभूति सुनकर सब सभाके साथ-साथ कही हुई सब बातोंको ज्योंकी त्यों माना अर्थात् उनका ठीक-ठीक श्रद्धान किया ॥३१६॥ मति, श्रुत, अवधि - इन तीनों ज्ञानरूपी नेत्रों और सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिको धारण करनेवाला देशसंयमी भरत भगवान् वृषभदेवकी वन्दना कर कैलास पर्वतसे अपने उत्तम नगर अयोध्याको आया ॥३२०॥ इधर तीनों लोकोंके स्वामी भगवान् आदिनाथने भी धर्मके योग्य क्षेत्रोंमें समीचीन धर्मका बीज बोकर उसे धर्मवृष्टि के १ चाष्टशतधाविरति -ल०, ५०, अ०, स०, इ० । २ तत् कारणात् । ३ भक्ति-ल०, ५०, इ०, अ०, स० । ४ अत्यासन्नभव्याः । ५ गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रभेदैः । ६ सुष्टु शोभनपरिणामाः । ७ पूर्वोत्तरतत्त्व । ८ पुरोस्सकाशात् । विभो ल०।९ सभासहितः । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ आदिपुराणम् ११ सतां सत्फलसंप्राप्त्यै विहरन् स्वगणैः समम् । चतुर्दशदिनोपेतसहस्राब्दीनपूर्वकम् ॥ ३२२ ॥ लक्षं कैलासमासाद्य श्रीसिद्ध शिखरान्तरे । पौर्णमासीदिने पौषे' निरिच्छः समुपाविशत् ॥ ३२३॥ तदा भरतराजेन्द्रो महामन्दरभूधरम् । आप्राग्भारं व्यलोकिष्ट स्वप्ने दैर्येण संस्थितम् ॥ ३२४ ॥ दैव युवराजोऽपि स्वर्गादेत्य महौषधिः । द्रुमश्छित्वा नृणां जन्मरोगं स्वर्यान्तमैक्षत ॥ ३२५ ॥ कल्पद्रुममभीष्टार्थं दत्वा नृभ्यो निरन्तरम् । गृहेट् निशामयामास स्वर्गप्राप्तिसमुद्यतम् ॥ ३२६॥ aati नारत्नकदम्बकम् । प्रादायाभ्रगमोयुक्तमद्राक्षीत् सचिवाग्रिमः ॥ ३२७॥ वज्रपञ्जरमुद्भिद्य कैलासं गजवैरिणम् । उल्लङ्घयितुमुद्यन्तं सेनापतिमपश्यत ॥३२८॥ आलुलो बुधो ऽनन्तवीर्यः श्रीमान् जयात्मजः । यान्तं त्रैलोक्यमामास्य सतारं तारकेश्वरम् ॥ ३२९ ॥ यशस्वतीसुनन्दाभ्यां सार्द्धं शक्रमनःप्रिया । शोचन्तीश्चिरमद्राक्षीत् सुभद्रा स्वप्नगोचरा ॥३३० ॥ वाराणसीपतिश्चित्राङ्गदोऽप्यालोकताकुलः । खमुत्पतन्तं भास्वन्तं प्रकाश्य धरणीतलम् ॥ ३३१॥ एवमालोकितस्वप्ना राजराजपुरस्सराः । पुरोधसं फलं तेषामपृच्छन्नर्यमोदये ॥ ३३२ ॥ कर्माणि हत्वा निर्मूलं मुनिभिर्बहुभिः समम् । पुरोः सर्वेऽपि शंसन्ति स्वप्नाः स्वर्गाग्रगामिताम् ॥ ३३३॥ इति स्वप्नफलं तेषां भाषमाणे पुरोहिते । तदैवानन्दनामैत्य भर्त्तुः" स्थितिमवेदयत् ॥ ३३४॥ ध्वनौ भगवता दिव्ये संहृते मुकुलीभवत् । कराम्बुजा सभा जाता पूष्णीव" सरसीत्यसौ ॥३३५॥ द्वारा खूब ही सींचा ॥। ३२१|| इस प्रकार सज्जनोंको मोक्षरूपी उत्तम फलकी प्राप्ति करानेके लिए भगवान् ने अपने गणधरोंके साथ-साथ एक हजार वर्ष और चौदह दिन कम एक लाख पूर्व विहार किया । और जब आयुके चौदह दिन बाकी रह गये तब योगोंका विरोध कर पौष मासकी पौर्णमासीके दिन श्रीशिखर ओर सिद्धशिखर के बीच में कैलास पर्वतपर जा विराजमान हुए ।। ३२२ - ३२३ ।। उसी दिन महाराज भरतने स्वप्न में देखा कि महामेरु पर्वत अपनी लम्बाईसे सिद्ध क्षेत्र तक पहुँच गया है || ३२४ | | उसी दिन युवराज अर्ककीर्तिने भी स्वप्न में देखा कि एक महौषधिका वृक्ष मनुष्योंके जन्मरूपी रोगको नष्ट कर फिर स्वर्गको जा रहा है || ३२५ ॥ उसी दिन गृहपतिने देखा कि एक कल्पवृक्ष निरन्तर लोगोंके लिए उनकी इच्छानुसार अभीष्ट फल देकर अब स्वर्ग जानेके लिए तैयार हुआ है ।। ३२६ || प्रधानमन्त्रीने देखा कि एक रत्न - द्वीप, ग्रहण करनेकी इच्छा करनेवाले लोगोंको अनेक रत्नोंका समूह देकर अब आकाशमें जानेके लिए उद्यत हुआ है || ३२७|| सेनापतिने देखा कि एक सिंह वज्रके पिंजड़े को तोड़कर कैलास पर्वतको उल्लंघन करनेके लिए तैयार हुआ है || ३२८ || जयकुमारके विद्वान् पुत्र श्रीमान् अनन्तवीर्यंने देखा कि चन्द्रमा तीनों लोकोंको प्रकाशित कर ताराओं सहित जा रहा है || ३२९ || सोती हुईं सुभद्राने देखा कि यशस्वती और सुनन्दाके साथ बैठी हुई इन्द्राणी बहुत देर तक शोक कर रही है ||३३०|| बनारस के राजा चित्रांगदने घबड़ाहट के साथ यह स्वप्न देखा कि सूर्य पृथिवीतलको प्रकाशित कर आकाशकी ओर उड़ा जा रहा है ।। ३३१ || इस प्रकार भरतको आदि लेकर सब लोगोंने स्वप्न देखे और सूर्योदय होते ही सबने पुरोहितसे उनका फल पूछा ॥ ३३२ ॥ पुरोहितने कहा कि ये सभी स्वप्न कर्मोंको बिलकुल नष्ट कर भगवान् वृषभदेवका अनेक मुनियोंके साथ-साथ मोक्ष जाना सूचित कर रहे हैं ||३३३|| इस प्रकार पुरोहित उन सबके लिए स्वप्न का फल कह ही रहा था कि इतनेमें ही आनन्द नामका एक मनुष्य आकर भगवान्का सब हाल कहने लगा ॥ ३३४ ॥ उसने कहा कि भगवान्ने अपनी दिव्यध्वनिका १ पुष्यमासे । २ पूर्व सिद्धक्षेत्रपर्यन्तम् । ३ अर्ककीर्तिः । ४ स्वर्गं गतम् । ५ गृहपतिरत्नम् । ६ ददर्श । ७ गृहीतुमिच्छुभ्यः । ८ बुद्धिमान् । ९ तारकासहितम् । १० स्त्रीरत्नम् । ११ एवं विलोकित-ल० । १२ सूर्योदये । १३ मोक्षगामित्वम् । १४ भरतादीनाम् । १५ पुरो: । १६ सूर्ये । इत्यसाववेदयदिति संबन्धः । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व तदाकर्णेनमात्रेण सस्वरः सर्वसंगतः । चक्रवर्ती 'तमभ्येत्य त्रिःपरीत्य कृतस्तुतिः ॥३३६॥ महामहमहापूजां भक्त्या निरवर्तयन्स्वयम् । चतुर्दश दिनान्येवं भगवन्तमसेवत ॥३३७॥ माघकृष्णचतुर्दश्यां भगवान् भास्करोदये । मुहूर्तेऽभिजिति प्राप्तपल्यको मुनिभिः सममें ॥३३८॥ प्राग्दिजाखस्तृतोयेन शुक्लध्यानेन रुद्धवान् । योगत्रितयमन्त्येन ध्यानेनाघातिकर्मणाम् ॥३३९॥ पञ्चहस्त्रस्वरोच्चारणप्रमाणेन संक्षयम् । कालेन विदधत्प्रान्तगुणस्थानमधिष्टितः ॥३४०॥ शरीरत्रितयापाये प्राप्य सिद्धत्वपर्ययम् । निजाष्टगुणसंपूर्णः क्षणाप्ततनुवातकः ॥३४१॥ नित्यो निरञ्जनः किंचिदूनो देहादमूर्तिभाक् । स्थितः स्वसुखसातः पश्यन्विश्वमनारतम् ॥३४२॥ तदागत्य सुराः सर्वे प्रान्तपूजाचिकीर्षयाँ । पवित्रं परमं मोक्षसाधनं शुचिनिर्मलम् ॥३४३॥ शरीरं भर्तुरस्येति परार्ध्यशिविकार्पितम् । अग्रीन्द्ररत्नभाभासिप्रोत्तुङ्गमुकुटो वा ॥३४४॥ चन्दनागुरुकर्पूरपारी काश्मीरजादिभिः । घृतक्षीरादिभिश्वाप्तवृद्धिना हुतभोजिना ॥३४५॥ जगद्गृहस्य सौगन्ध्यं संपाद्याभूतपूर्वकम् । तदाकारोपमर्दैन पर्यायान्तरमानयन् ॥३४६॥ अभ्यर्चिताग्निकुण्डस्य गन्धपुष्पादिमिस्तथा । तस्य दक्षिणभागेऽभूद् गणभृत्संस्क्रियानलः ॥३४७॥ तस्यापरस्मिन् दिग्भागे शेषकेवलिकायगः । एवं वह्नित्रयं भूमा अवस्थाप्यामरेश्वराः ॥३४८॥ संकोच कर लिया है इसलिए सम्पूर्ण सभा हाथ जोड़कर बैठी हुई है और ऐसा जान पड़ता है मानो सूर्यास्तके समय निमीलित कमलोंसे युक्त सरसी ही हो ॥३३५॥ यह सुनते ही भरत चक्रवर्ती बहुत ही शीघ्र सब लोगोंके साथ-साथ कैलास पर्वतपर गया, वहाँ जाकर उसने भगवान् वृषभदेवकी तीन प्रदक्षिणाएं दीं, स्तुति की और भक्तिपूर्वक अपने हाथसे महामह नामकी पूजा करता हुआ वह चौदह दिन तक इसी प्रकार भगवान्की सेवा करता रहा ॥३३६-३३७।। माघ कृष्ण चतुर्दशीके दिन सूर्योदयके शुभ मुहूर्त और अभिजित् नक्षत्रमें भगवान् वृषभदेव पूर्वदिशाको ओर मुँहकर अनेक मुनियोंके साथ-साथ पर्यकासनसे विराजमान हुए, उन्होंने तीसरे-सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामके शुक्ल ध्यानसे तीनों योगोंका निरोध किया और फिर अन्तिम गुणस्थानमें ठहरकर पाँच लघु अक्षरोंके उच्चारण प्रमाण कालमें चौथे व्युपरत क्रियानिवृति नामके शुक्लध्यानसे अघातिया कर्मोंका नाश किया। फिर औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीनों शरीरोंके नाश होनेसे सिद्धत्वपर्याय प्राप्त कर वे सम्यक्त्व आदि निजके आठ गुणोंसे युक्त हो क्षण भरमें ही तनुवातवलयमें जा पहुँचे तथा वहाँपर नित्य, निरंजन, अपने शरीरसे कुछ कम, अमूर्त, आत्मसुख तल्लीनमें और निरन्तर संसारको देखते हुए विराजमान हुए ॥३३८-३४२॥ उसी समय मोक्ष-कल्याणककी पूजा करनेकी इच्छासे सब देव लोग आये उन्होंने यह भगवान्का शरीर पवित्र, उत्कृष्ट, मोक्षका साधन, स्वच्छ और निर्मल है" यह विचारकर उसे बहुमूल्य पालकीमें विराजमान किया। तदनन्तर जो अग्निकुमार देवोंके इन्द्रके रत्नोंकी कान्तिसे देदीप्यमान उन्नत मुकुटसे उत्पन्न हुई है तथा चन्दन, अगुरु, कपूर, केशर आदि सुगन्धित पदार्थों और घी दूध आदिसे बढ़ायी गयी है ऐसी अग्निसे जगत्की अभूतपूर्व सुगन्धि प्रकट कर उसका वर्तमान आकार नष्ट कर दिया और इस प्रकार उसे दूसरी पर्याय प्राप्त करा दो ॥३४३-३४६॥ गन्ध, पुष्प आदिसे जिसकी पूजा की गयी है ऐसे उस अग्निकुण्डके दाहिनी ओर गणधरोंके शरीरका संस्कार करनेवाली अग्नि स्थापित की और बायीं ओर तीर्थकर तथा गणधरोंसे अतिरिक्त अन्य सामान्य केवलियोंके शरीरका संस्कार १ जिनम् । २ लोकालोकम् । ३ निर्वाणपूजां कर्तुमिच्छया। ४ याने स्थापितम्। ५ मुकुटोद्भतेन । ६ कर्पूरमणि । ७ कुंकुमादिभिः । ८ पूर्वस्मिन्नजातम् । ९ शरीराकारोपमर्दनेन । १. भस्मीभावं चरित्यर्थः । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ आदिपुराणम् ततो भस्म समादाय पञ्चकल्याणभागिनः । वयं चैवं भवामेति स्वललाटे भुजद्वये ॥३४॥ कण्ठे हृदयदेशे च तेन' संस्पृश्य भक्तितः। तत्पवित्रतमं मत्वा धर्मरागरसाहिताः ॥३५०॥ तोषाद् संपादयामासुः संभूयानन्दनाटकम् । सप्तमोपासकाद्यास्ते सर्वेऽपि ब्रह्मचारिणः ॥३५१॥ गार्हपत्यामिधं पूर्व परमाहवनीयकम् । दक्षिणाग्निं ततो न्यस्य संध्यासु तिसृषु स्वयम् ॥३५२॥ तच्छिखित्रयसांनिध्ये चक्रमातपवारणम् । जिनेन्द्रप्रतिमाश्चैवा स्थाप्य मन्त्रपुरस्सरम् ॥३५३॥ तास्त्रिकालं समभ्यर्य गृहस्थैविहितादराः। भवतातिथयो यूयमित्याचख्युरुपासकान् ॥३५४॥ स्नेहेनेप्टवियोगोत्थः प्रदीप्तः शोकपावकः । तदा प्रबुद्धमप्यस्य चेतोऽधाक्षीदधीशितुः ॥३५५॥ गणी वृषभसेनाख्यस्तच्छोकापनिनीषया । प्राक्रस्त वक्तुं सर्वेषां स्वेषां व्यक्तां भवावलीम् ॥३५६॥ जयवर्मा भवे पूर्व द्वितीयेऽभून्महाबलः । तृतीये ललिताङ्गाख्यो वज्रजङ्घश्चतुर्थके ॥३५७॥ पञ्चमे भोगभूजोऽभूत् षष्ठेऽयं श्रीधरोऽमरः । सप्तमे सुविधिः क्ष्माभृदष्टमेऽच्युतनायकः ॥३५८॥ - नवमे वज्रन भीशो दशमेऽनुत्तरान्त्यजः । ततोऽवतीर्य सर्वेन्द्रवन्दितो वृषभोऽभवत् ॥३५९॥ धनश्रीरादिमे जन्मन्यतो निर्णायिका ततः। स्वयंप्रभा ततस्तस्माच्छ्रीमत्यार्या ततोऽभवत् ॥३६०॥ स्वयंप्रभः सुरस्तस्मादस्मादपि च केशवः । ततः प्रतीन्द्रस्तस्माच्च धनदत्तोऽहमिन्द्रताम् ॥३६१॥ गतस्ततस्ततः श्रेयान् दानतीर्थस्य न यकः । आश्चर्यपञ्चकस्यापि प्रथमोऽभूत् प्रवर्तकः ॥३६२॥ करनेवाली अग्नि स्थापित की, इस प्रकार इन्द्रोंने पृथिवीपर तीन प्रकारकी अग्नि स्थापित की । तदनन्तर उन्हीं इन्द्रोंने पंचकल्याणकको प्राप्त होनेवाले श्री वृषभदेवके शरीरकी भस्म उठायी और 'हम लोग भी ऐसे ही हों' यही सोचकर बड़ी भक्तिसे अपने ललाटपर दोनों भुजाओंमें, गलेमें और वक्षःस्थलमें लगायी। वे सब उस भस्मको अत्यन्त पवित्र मानकर धर्मानुरागके रससे तन्मय हो रहे थे ॥३४७-३५०॥ सबने मिलकर बड़े संन्तोषसे आनन्द नामका नाटक किया और फिर श्रावकोंको उपदेश दिया कि 'हे सप्तमादि प्रतिमाओंको धारण करनेवाले सभी ब्रह्मचारियो, तुम लोग तीनों सन्ध्याओंमें स्वयं गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि इन तीन अग्नियोंकी स्थापना करो, और उनके समीप ही धर्मचक्र, छत्र तथा जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाओंकी स्थापना कर तीनों काल मन्त्रपूर्वक उनकी पूजा करो। इस प्रकार गृहस्थोंके द्वारा आदर-सत्कार पाते हुए अतिथि बनो' ॥३५१-३५४॥ इधर उस समय इष्टके वियोगसे उत्पन्न हुई और स्नेहसे प्रज्वलित हुई शोकरूपी अग्नि भरतके प्रबुद्ध चित्तको भी जला रही थी ॥३५५॥ जब भरतका यह हाल देखा तब वृषभसेन गणधर भरतका शोक दूर करनेकी इच्छासे अपने सब लोगोंके पूर्वभव स्पष्ट रूपसे कहने लगे ॥३५६॥ उन्होंने कहा कि वृषभदेवका जीव पहले भवमें जयवर्मा था, दूसरे भवमें महाबल हुआ, तीसरे भवमें ललितांगदेव और चौथे भवमें राजा वज्रजंघ हुआ। पाँचवें भवमें भोगभूमिका आर्य हुआ। छठवें भवमें श्रीधरदेव हुआ, सातवें भवमें सुविधि राजा हुआ। आठवें भवमें अच्युतेन्द्र हुआ, नौवें भवमें राजा वज्रनाभि हुआ, दशवें भवमें सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ और वहाँसे आकर सब इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय वृषभदेव हुआ है ॥३५७-३५९॥ श्रेयान्का जीव पहले भवमें धनश्री था, दूसरे भवमें निर्णामिका, तीसरे भवमें स्वयंप्रभा देवी, चौथे भवमें श्रीमती, पाँचवें भवमें भोगभूभिकी आर्या, छठवें भवमें स्वयंप्रभदेव, सातवें भवमें केशव, आठवें भवमें अच्युतस्वर्गका प्रतीन्द्र, नौवें भवमें धनदत्त, दशवें भवमें अहमिन्द्र हुआ और वहाँसे १ भस्मना । २ भस्म 1३ संस्थाप्य । ४ चावस्थाप्य ल०, ५०, इ०, स०। ५ पात्रतयाभीक्षकाः । ६ चक्रिणः । ७ दहति स्म । ८ भरतस्य शोकमपनेतुमिच्छया । ९ प्रारभते स्म । १० सर्वार्थसिद्धिजः । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व ५०६ अतिगृद्धः पुरा पश्चान्नारकोऽनु चमूरकः । दिवाकरप्रभो देवस्तथा मतिवरायः ॥३६३॥ ततोऽहमिन्द्रस्तस्माच्च सुबाहुरहमिन्द्रताम् । प्राप्य त्वं भरतो जातः षटखण्डाखण्डपालकः ॥३६४॥ आद्यः सेनापतिः पश्चादार्यस्तस्मात्प्रभंकरः । ततोऽकम्पनभूपालः कल्पातीतस्ततस्ततः ॥३६॥ महाबाहुस्ततश्चाभूदहमिन्द्रस्ततश्च्युतः । एष बाहुबली जातो जातापूर्वमहोदयः ॥३६६॥ मन्त्री प्राग भोगभूजोऽनु सुरोऽनु कनकप्रभः । आनन्दोऽन्वहमिन्द्रोऽनु ततः पीठाह्वयस्ततः ॥३६७॥ अहमिन्द्रोऽग्रिमोऽभूवमहमद्य गणाधिपः । पुरोहितस्ततश्चार्यो बभूवास्मत्प्रभञ्जनः ॥२६॥ धनमित्रस्ततस्तस्मादहमिन्द्रस्ततश्च्युतः । महापीठोऽहमिन्द्रोऽस्मादनन्तविजयोऽभवत् ॥३६९॥ उग्रसेनश्चमूरोऽतो भोगभूमिसमुद्भवः । ततश्चित्राङ्गदस्तस्माद् वरदत्तः सुरो जयः ॥३७०॥ ततो गत्वाऽहमिन्द्रोऽभूत्तस्माच्चागत्य भूतलम् । महासेनोऽभवत् कर्ममहासेनाजयोजितः ॥३७१॥ हरिवाहननामाद्यो वराहार्यस्ततोऽभवत् । मणिकुण्डल्यतस्तस्माद् वरसेनः सुरोत्तमः ॥३२॥ ततोऽस्माद् विजयस्तस्मादहमिन्द्रो दिवश्च्युतः। अजनिष्ट विशिष्टेष्ट : श्रीषेण: सेवितः श्रिया ॥३७३॥ नागदत्तस्ततो वानरार्योऽस्माच्च मनोहरः । देवश्चित्रांगदस्तस्मादभूत् सामानिकः सुरः ॥३७४॥ ततश्च्युतो जयन्तोऽभूदहमिन्द्रस्ततस्ततः । महीतलं समासाद्य गुणसेनोऽभवद् गणी ॥३७५॥ आकर दानतीर्थका नायक तथा पंचाश्चर्यकी सबसे पहले प्रवृत्ति करानेवाला राजा श्रेयान् हुआ है ॥३६०-३६२॥ तेरा जीव पहले भवमें अतिगृद्ध नामका राजा था, दूसरे भवमें नारकी हुआ, तीसरे भवमें शार्दूल हुआ, चौथे भवमें दिवाकरप्रभदेव हुआ, पाँचवें भवमें मतिवर हुआ, छठवें भवमें अहमिन्द्र हुआ, सातवें भवमें सुबाहु हुआ, आठवें भवमें अहमिन्द्र हुआ और नौवें भवमें छह खण्ड पृथिवीका अखण्ड पालन करनेवाला भरत हुआ है ॥३६३-३६४॥ बाहुबलीका जीव पहले सेनापति था, फिर भोगभूमिमें आर्य हुआ। उसके बाद प्रभंकर देव हुआ, तदनन्तर अकंपन हुआ, उसके पश्चात् अहमिन्द्र हुआ, फिर महाबाहु हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ और अब उसके बाद अपूर्व महा उदयको धारण करनेवाला बाहुबली हुआ है ॥३६५-३६६।। मैं पहले भवमें राजा प्रीतिवर्धनका मंत्री था, उसके बाद भोग-भूमिका आर्य हुआ, फिर कनकप्रभ देव हुआ, उसके पश्चात् आनन्द हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ, वहाँसे आकर पीठ हुआ, फिर सर्वार्थसिद्धिका अहमिन्द्र हुआ और अब-भगवान् वृषभदेवका गणधर हुआ हूँ। अनन्तविजयका जीव सबसे पहले पुरोहित था, फिर भोगभूमिका आर्य हुआ, उसके बाद प्रभंजन नामका देव हुआ, फिर धनमित्र हुआ, उसके पश्चात् अहमिन्द्र हुआ, उसके अनन्तर महापीठ हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ और अब अनन्तविजय गणधर हुआ है ॥३६७-३६६॥ महासेन पहले भवमें उग्रसेन था, दूसरे भवमें शार्दूल हुआ, तीसरे भवमें भोगभूमिका आर्य हुआ, चौथे भवमें चित्राङ्गद देव हुआ, पाँचवें भवमें वरदत्त राजा हुआ, छठे भवमें देव हुआ, सातवें भवमें जय हुआ, वहाँसे चलकर आठवें भवमें अहमिन्द्र हुआ और नौवें भवमें वहाँसे पृथिवीपर आकर कर्मरूपी महासेनाको जीतनेमें अत्यन्त बलवान महासेन हुआ है ॥३७०-३७१॥ श्रीषेणका जीव पहले भवमें हरिवाहन था, दूसरे भवमें वराह हुआ, तीसरे भवमें भोगभूमिका आर्य हुआ, चौथे भवमें मणिकुण्डली देव हुआ, पाँचवें भवमें वरसेन नामका राजा हुआ, छठवें भवमें उत्तम देव हुआ, सातवें भवमें विजय हुआ, आठवें भवमें अहमिन्द्र हुआ और नौवें भवमें अतिशय पूज्य तथा लक्ष्मीसे सेवित श्रीषेण हुआ है ॥३७२-३७३।। गुणसेनका जीव पहले नागदत्त था, फिर वानर हुआ, उसके बाद भोगभूमिका आर्य हुआ, फिर मनोहर नामका देव हुआ, उसके पश्चात् चित्राङ्गद नामका राजा हुआ, फिर सामानिक देव हुआ, वहाँसे च्युत होकर १ व्याघ्रः । २ पूर्वभवे । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् लोलुपो नकुलार्योsस्मादेतस्मात्समनोरथः । ततोऽपि शान्तमदनस्ततः सामानिकामरः ॥ ३७६ ॥ राजाऽपराजितस्तस्मादहमिन्द्रस्ततोऽजनि । ततो ममानुजो जातो जयसेनोऽयमूर्जितः ॥ ३७७॥ शार्दूलविक्रीडितम् इत्यस्मिन्भव संकटे भवभृतः स्वेष्टेरनिष्टैस्तथा संयोगः सहसा वियोगचरमः सर्वस्य नन्वीदृशम् । त्वं जानन्नपि किं विषण्णहृदयो विश्लिष्टकर्माष्टको निर्वाणं भगवानवापदतुलं तोषे विषादः कुतः ॥ ३७८ ॥ मालिनी ५१० वयमपि चरमाङ्गाः संगमाच्छुद्धबुद्धः सकलमलविलोपपादितात्मस्वरूपा । निरुपम सुखसारं चक्रवत्तिस्तदीयं २ पदमचिरतरेण प्राप्नमोऽ नाप्यमन्यैः ॥ ३७६ ॥ हरिणी भवतु सुहृदां मृत्यौ शोकः शुभाशुभकर्मभिः भवति हि स चेत्तेषामस्मिन्पुनर्जननावहः । विनिहतभवे प्रार्थ्य तस्मिन् स्वयं समुपागते कथमयमहो धीमान् कुर्याच्छुचं यदि नो रिपुः ॥ ३८० ॥ वसन्ततिलका अष्टापि दुष्टरिपवोऽस्य समूलतूल नष्टा गुणैर्गुरुभिरष्टमिरेष जुष्टः । किं नष्टमत्र निधिनाथ जहीहि मोहं 'सन्धेहि शोकविजयाय धियं विशुद्धाम् ॥ ३८१ ॥ जयन्त हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ और अब वहाँसे पृथिवीपर आकर गुणसेन नामका गणधर हुआ है ।। ३७४-- ३७५ || जयसेनका जीव पहले लोलुप नामका हलवाई था, फिर नेवला हुआ, उसके बाद भोगभूमिका आर्य हुआ, फिर मनोरथ नामका देव हुआ, उसके पश्चात् राजा शान्तमदन हुआ, फिर सामानिक देव हुआ, तदनन्तर राजा अपराजित हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ और अब मेरा छोटा भाई अतिशय बलवान् जयसेन हुआ है ।। ३७६-३७७॥ श्री वृषभसेन गणधर चक्रवर्ती भरतसे कह रहे हैं कि इस संसाररूपी संकटमें इसी प्रकार सब प्राणियों को इष्ट-अनिष्ट वस्तुओं का संगम होता है और अन्त में अकस्मात् ही उसका नाश हो जाता है, तू यह सब जानता हुआ भी इतना खिन्नहृदय क्यों हो रहा है ? भगवान् वृषभदेव तो आठों कर्मों को नष्ट कर अनुपम मोक्षस्थानको प्राप्त हुए हैं फिर भला ऐसे सन्तोषके स्थान में विषाद क्यों करता है ? || ३७८ ॥ हे चक्रवर्तिन् हम सब लोग भी चरमशरीरी हैं, शुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाले भगवान् के समागमसे सम्पूर्ण कर्ममलको नष्ट कर आत्मस्वरूपको प्राप्त हुए हैं और अनुपम सुखसे श्रेष्ठ तथा अन्य मिथ्यादृष्टियों के दुर्लभ उन्हीं भगवान्के पदको हम लोग भी बहुत शीघ्र प्राप्त करेंगे || ३७९ ।। इष्ट मित्रोंकी मृत्यु होनेपर शोक हो सकता है क्योंकि उनकी वह मृत्यु शुभ अशुभ कर्मोंसे होती है और फिर भी इस संसारमें उनका जन्म करानेवाली होती है, परन्तु जिसने संसारका नाश कर दिया है और निरन्तर जिसकी प्रार्थना की जाती है ऐसा सिद्ध पद यदि स्वयं प्राप्त हो जावे तो इस बुद्धिमान् मनुष्यको यदि वह शत्रु नहीं है तो शोक कैसे करना चाहिए ? भावार्थ- हर्ष के स्थान में शत्रुको ही शोक होता है, मित्रको नहीं होता इसलिए तुम सबको आनन्द मानना चाहिए न कि शोक करना चाहिए ॥ ३८० ॥ हे निधिपते, भगवान् वृषभदेवके आठों ही दुष्ट शत्रु जड़ और शाखासहित बिलकुल १ वृषभसेनभरतादय । २ पुरोः सम्बन्धि ३ अप्रापणीयम् । ४ मृत्युः । ५ संसारे । ६ मृत्यो । ७ कारण - सहितम् । ८ सेवितः । ९ सम्यग् धारय । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व ५११ देहच्युतौ यदि गुरोर्गुरु' शोचसि त्वं तं भस्मसात्कृतिमवाप्य विवृद्धरागाः । प्राग्जन्मनोऽपि परिकर्मकृतोऽस्य कस्मादानन्दनृत्तमधिकं विदधुर्घनाथाः ॥३८२॥ शार्दूलविक्रीडितम् नेक्षे विश्वदृशं शृणोमि न वचो दिव्यं तदङ्घ्रिद्वये नम्रस्तन्नखभाविभासिमुकुटं कर्तुं लभे नाधुना । तस्मात् स्नेहवशोऽस्म्यहं बहुतरं शोकीति चेदस्त्विदं । किन्तु भ्रान्तिरियं व्यतीतविषयप्राप्यै भवत्प्रार्थना ॥३३॥ वसन्ततिलका विज्ञान त्रिभुवनैकगुरुगुरुस्ते स्नेहेन मोहविहितेन विनाशयेः किम् । स्वोदात्ततां शतमखस्य न लजसे किं तस्मात्तव प्रथममुक्तिगतिं न वे सि ॥३८४॥ शादूलविक्रीडितम् इष्ट किं किमनिष्टमत्र वितथं संकल्प्य जन्तुर्जडः किंचिद्वेष्यपि वष्टि" किंचिदनयोः कुर्यादपि व्यत्ययम् । 'तेनैनोऽनुगतिस्ततो भववने भव्योऽप्यभव्योपमो भ्राम्यत्येष कुमार्गवृत्तिरधनो वाऽऽतङ्कभीदुःखितः ॥३८५॥ हो नष्ट हो गये हैं और अब वे आठ बड़े-बड़े गुणोंसे सेवित हो रहे हैं, भला, इसमें क्या हानि हो गयी ? इसलिए अब तू मोह छोड़ और शोकको जीतनेके लिए विशुद्ध बुद्धिको धारण कर ॥३८१।। पूज्य पिताजीका शरीर छूट जानेसे यदि तू इतना अधिक शोक करता है तो बतला, जन्मसे पहले ही उनकी सेवा करनेवाले और बढ़े हए अनुरागको धारण करनेवाले ये देव लोग भगवान्के शरीरको भस्म कर इतना अधिक आनन्द नृत्य क्यों कर रहे हैं ? भावार्थ - ये देव लोग भी भगवान्से अधिक प्रेम रखते थे जन्मसे पहले ही उनकी सेवामें तत्पर रहते थे फिर ये उनके शरीरको जलाकर क्यों आनन्द मना रहे हैं इससे मालूम होता है कि भगवान्का शरीर छूट जाना दुःखका कारण नहीं है तू व्यर्थ ही क्यों शोक कर रहा है ? ॥३८२।। कदाचित् तु यह कहेगा कि 'अब मैं उनके दर्शन नहीं कर रहा है. उनके दिव्य वचन नहीं सुन रहा है, और उनके दोनों चरणोंमें नम्र होकर उनके नखोंकी कान्तिसे अपने मुकुटको देदीप्यमान नहीं कर पाता हूँ, इसलिए ही स्नेहके वशसे आज मुझे बहुत शोक हो रहा है तो तेरा यह कहना ठीक है परन्तु बीती हुई वस्तुके लिए प्रार्थना करना तेरी भूल ही है.॥३८३॥ हे भरत, तेरे पिता तो तीनों लोकोंके अद्वितीय गुरु थे और तू भी तीन ज्ञानोंका धारक है फिर इस मोहजात स्नेहसे अपनी उत्तमता क्यों नष्ट कर रहा है ? क्या तुझे ऐसा करते हुए इन्द्रसे लज्जा नहीं आती? अथवा क्या तू यह नहीं समझता है कि मैं इन्द्रसे पहले ही मोक्षको प्राप्त हो जाऊँगा? ॥३८४॥ इस संसारमें क्या इष्ट है ? क्या अनिष्ट है ? फिर भी यह मूर्ख प्राणी व्यर्थ ही संकल्प कर किसीसे द्वेष करता है, किसीको चाहता है और कभी दोनोंको उलटा समझ लेता है, इसलिए ही इसके पापकी परम्परा चलती रहती है और इसलिए ही यह भव्य होकर भी १ बहलं यथा भवति तथा । २ देहम् । ३ भस्माधीनम् । ४ नीत्वा । ५ उत्पत्तेरादावपि । ६ परिचर्याकराः । ७ वृषभस्य । ८ तस्य नखकान्त्या भासत इति । ९ भो त्रिज्ञानधारिन् भरत । १० अज्ञानकृतेन । ११ भवदुदात्तत्वम् । १२ शतमखात् । १३ न जानासि किम् । १४ वाञ्छति । १५ कारणेन । १६ पापानुगतिः । १७ निर्धन इव । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् भव्यस्यापि भवोऽभवद् भवगतः कालादिलब्धेर्विना कालोऽनादिरचिन्त्यदुःखनिचितो धिक धिक स्थिति संसृतेः । इत्येतद्विदुषाऽत्र शोच्यमथवा नैतच्च यहेहिनां ___भव्यत्वं बहुधा महीश सहजा वस्तुस्थितिस्तादृशी ॥३८६॥ उपजाति गतानि संबन्धशतानि जन्तोरनन्तकालं परिवर्तनेन "नावेहि किं त्वं हि विबुद्धविश्वो वृथैव मुह्येः "किमिहेतरो वा ॥३८७॥ अनुष्टुप् कर्मभिः कृतमस्यापि न स्थास्नु त्रिजगत्पतेः । शरीरादि ततस्त्याज्यं मन्वते तन्मनीषिणः ॥३८॥ प्रागभिगोचरः संप्रत्येष चेतसि वर्तते । भगवांस्तत्र कः शोकः पश्यैनं तत्र सर्वदा ॥३८॥ मालिनी इति मनसि यथार्थ चिन्तयन् शोकवहिं शमय विमलबोधाम्भोमिरित्यावभाषे। गणभृदथ स चक्री दावदग्धो महीध्रो नवजलदजलैर्वा तद्वचोभिः प्रशान्तः ॥३९०॥ वसन्ततिलका चिन्ता व्यपास्य गुरुशोककृतां गणेश मानम्य नम्रमुकुटो निकटात्मबोधिः । निन्दनितान्तनितरां निजमोगतृष्णां मोक्षोष्णकः स्वनगरं ब्यविशद् विभूत्या ॥३६॥ अभव्यकी तरह दुःखी, निर्धन, कुमार्ग में प्रवृत्ति करनेवाला और रोगोंसे भयभीत होता हुआ इस संसाररूपी वनमें भ्रमण करता रहता है ॥३८॥ काल आदि लब्धियोंके बिना पूज्य भव्य जीवको भी संसारमें रहना पड़ता है, यह काल अनादि है तथा अचिन्त्य दुःखोंसे भरा हआ है इसलिए संसारकी इस स्थितिको बार-बार धिक्कार हो, यही सब समझ विद्वान् पुरुषको इस संसारमें शोक नहीं करना चाहिए अथवा जीवोंका यह भव्यत्वपना भी अनेक प्रकारका होता है। हे राजन्, वस्तुका सहज स्वभाव ही ऐसा है ॥३८६॥ हे भरत, तू तो संसारका स्वरूप जाननेवाला है, क्या तू यह नहीं जानता कि अनन्त कालसे परिवर्तन करते रहनेके कारण इस जीवके सैकड़ों सम्बन्ध हो चुके हैं ? फिर क्यों अज्ञानीकी तरह व्यर्थ ही मोहित होता है ॥३८७॥ तीनों लोकोंके अधिपति भगवान वषभदेवका शरीर भी तो कर्मोके द्वारा किया हुआ है इसलिए वह भी स्थायी नहीं है और इसलिए ही विद्वान् लोग उसे हेय समझते हैं ॥३८८॥ जो भगवान् पहले आँखोंसे दिखायी देते थे वे अब हृदयमें विद्यमान हैं इसलिए इसमें शोक करनेकी क्या बात है ? तू उन्हें अपने चित्तमें सदा देखता रह ॥३८९॥ इस प्रकार मनमें वस्तुके यथार्थ स्वरूपका चिन्तवन करता हआ तू निर्मल ज्ञानरूपी जलसे शोकरूपी अग्नि शान्त कर, ऐसा गणधर वृषभसेनने कहा तब चक्रवर्ती भी जिस प्रकार दावानलसे जला हआ पर्वत नवीन बादलोंके जलसे शान्त हो जाता है उसी प्रकार उनके वचनोंसे शान्त हो गया ॥३९०॥ जिसे आत्मज्ञान शीघ्र होनेवाला है और जिसका मुकुट नम्रभूत हो रहा है ऐसे भरतने पिताके शोकसे उत्पन्न हई चिन्ता छोडकर गणधरदेवको नमस्कार किया और अत्यन्त बढ़ी हुई अपनी भोगविषयक तृष्णाकी निन्दा करते हए तथा मोक्षके लिए शीघ्रता करते हए उसने बड़े वैभवके साथ अपने नगरमें प्रवेश किया ॥३९॥ १ संसारानुगतः । २ संसारे । ३ शोकविषयम् । ४ अन्य अज्ञ इवेत्यर्थः । ५ चेतसि । ६ मुक्त्युद्योगे दक्षः । 'दक्षे तु चतुरपेशलपटवः । सूत्थान उष्णश्च' इत्यभिधानात् शीघ्र कारी वर्गः । मोक्षोत्सुकः ल० । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व द्रुतविलम्बितम् समभिवीक्ष्य समुज्ज्वलदर्पणे । अथ कदाचिदसौ वदनाम्बुजं पलितमैचत दूतमिवागतं परमभीयपदात् पुरुसंनिधेः ॥ ३९२ ॥ वसन्ततिलका आलोक्य तं गतिमोहरसः स्वराज्यं मस्या जरचूणमिवोद्गतयोधिन् । आदातुमात्महितमात्मजमर्ककी लक्ष्म्या स्वया स्वयं मयोजय दूर्जितेच्छः ॥ ३६३॥ मालिनी विदितसतस्वः सोऽपश्यंस्य मार्ग 3 "जिगमिपुपसर्गमं निष्प्रयासम् । 'यमसमितिसमयं संयमं शम्पले वा sदि विदितसमर्थाः किं परं प्रार्थयन्ते ॥ ३६४॥ भुजङ्गप्रयातम् मन:पर्ययज्ञानमध्यस्व यः समुत्पन्नव केवलं चानु तस्मात्" । तदैवाभवद् भव्यता तादृशी सा विचित्राङ्गनां निर्वृतेः प्राप्तिरत्र ॥ ३६५॥ स्वदेशोद्भवैरेव संपूजितोऽसौ सुरेन्द्रादिभिः सांप्रतं वन्द्यमानः | त्रिलोकाधिनाथोऽभवत् किं न साध्यं १२ तपो दुष्करं चेत् समादातुमीशः ॥ ३६६॥ - ५१३ अथानन्तर भरत महाराजने किसी समय उज्ज्वल दर्पण में अपना मुखकमल देखकर परम सुखके स्थान स्वरूप भगवान् वृषभदेवके पाससे आये हुए इसके समान सफेद बाल देखा || ३९२ ॥ उसे देखकर जिनका सब मोहरस गल गया है, जिन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ है, जो आत्महितको ग्रहण करनेके लिए उद्युक्त हैं और जिनकी वैराग्यविषयक इच्छा अत्यन्त सुदृढ़ तथा वृद्धिशील है ऐसे भरतने अपने राज्यको जीर्णतृणके समान मानकर अपने पुत्र अर्ककीर्तिको अपनी लक्ष्मीसे युक्त किया अर्थात् अपनी समस्त सम्पत्ति अर्ककीर्तिको प्रदान कर दी ॥ ३९३ ॥ जिसने समस्त तत्त्वोंको जान लिया है और जो हीन जीवोंके द्वारा अगम्य मोक्षमार्ग में गमन करना चाहते हैं ऐसे चक्रवर्ती भरतने मार्ग हितकारी भोजनके समान प्रयासहीन यम तथा समितियोंसे पूर्ण संयमको धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि पदार्थके यथार्थ स्वरूपको समझनेवाले पुरुष संयमके सिवाय अन्य किसी पदार्थ की प्रार्थना नही करते हैं ? || ३६४ | उन्हें उसी समय मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया और उसके बाद ही केवलज्ञान प्रकट हो गया। उनकी वैसी भव्यता उसी समय प्रकट हो गयी सो ठीक ही है क्योंकि प्राणियोंको मोक्षकी प्राप्ति बड़ी विचित्र होती है || ३६५|| जो भरत पहले अपने देश में उत्पन्न हुए राजाओंसे ही पूजित थे वे अब इन्द्रोंके द्वारा भी वन्दनीय हो गये । इतना ही नहीं, तीन लोकके स्वामी भी हो गये सो ठीक ही है जो कठिन तपश्चरण ग्रहण करने के लिए समर्थ रहता है उसे क्या-क्या वस्तु साध्य १ उद्यमान: । २ गन्तुमिच्छुः । ३ अपगतबलैः । ४ मूलगुणसमूह । समीचीनार्थः । ज्ञातार्थक्रियासमर्था वा । ८ समुद्भूतम् । ९ पश्चात् १२ समर्थः । ६५ पाथेयमिन । ६ स्वीकृतवान् । ७ ज्ञात१० संयमात् ११ पटण्डनैः । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् मालिनी परिचितयतिहंसो धर्मवृष्टिं निषिञ्चन् नमसि कृतनिवेशो निर्मलस्तुङ्गवृत्तिः । फलमविकलमग्र्यं मन्यसस्येषु कुर्वन् व्यहरदखिलदेशान् शारदो वा स मेघः ॥३९ ।। पृथ्वी विहृत्य सुचिरं विनेयजनतोपकृत्स्वायुषो, मुहूर्तपरिमास्थितौ विहितसक्रियो विच्युतौ। तनुत्रितयबन्धनस्य गुणसारमूर्तिः स्फुरन् जगत्त्रयशिखामणिः सुखनिधिः स्वधाम्नि स्थितः ॥३१८॥ वसन्ततिलका सर्वेऽपि ते वृषभसेनमुनीशमुख्याः सौख्यं गताः सकलजन्तुषु शान्तचित्ताः । कालक्रमेण यमशीलगुणाभिपूर्णा निर्वाणमापुरमितं गुणिनो गणीन्द्राः ॥३९९॥ शार्दूलविक्रीडितम् यो नेतेव पृथु जघान दुरितारातिं चतुस्साधनो येनाप्तं कनकाश्मनेव विमलं रूपं स्वमाभास्वरम् । आभेजुश्चरणौ सरोजजयिनौ यस्यालिनो वाऽमरा स्तं त्रैलोक्यगुरुं पुरुं श्रितवतां श्रेयांसि वः स क्रियात् ॥१०॥ शार्दूलविक्रीडितम् । योऽभूत्पञ्चदशो विभुः कुलभृतां तीथें शिनां चाग्रिमो दृष्टो येन मनुष्यजीवन विधिमुक्तश्च मार्गो महान् । बोधो रोधविमुक्तवृत्तिरखिलो यस्योदपायन्तिमः स श्रीमान् जनकोऽखिलावनिपतेरायः" स दद्याच्छियम् ॥१०॥ नहीं है अर्थात् सभी वस्तुएँ उसे साध्य हैं ॥३९६॥ मुनिरूपी हंस जिनसे परिचित हैं, जो धर्मकी वर्षा करते रहते हैं, जो आकाशमें निवास करते हैं, निर्मल हैं, उत्तमवृत्तिवाले हैं (पक्षमें ऊंचे स्थानपर विद्यमान रहते हैं) और जो भव्य जीवरूपी धानोंमें मोक्षरूपी पूर्ण फल लगानेवाले हैं ऐसे भरत महाराजने शरद् ऋतुके मेघके समान समस्त देशोंमें विहार किया ॥३९७॥ चिरकाल तक विहार कर जिन्होंने शिक्षा देने योग्य जनसमूहका बहत भारी कल्याण किया है ऐसे भरत महाराजने अपनी आयुकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति बाकी रहनेपर योगनिरोध किया और औदारिक, तैजस तथा कार्माण इन तीन शरीररूप बन्धनोंके नष्ट होनेपर सम्यक्त्व आदि सारभूत गुण ही जिनकी मूर्ति रह गयी है, जो प्रकाशमान हैं, जगत्त्रयके चूड़ामणि हैं और सुखके भाण्डार हैं ऐसे वह भरतेश्वर आत्मधाममें स्थित हो गये अर्थात् मोक्षको प्राप्त हो गये ॥३९८॥ जो समस्त जीवोंके विषयमें शान्तचित्त हैं, उत्तम सुखको प्राप्त हैं, यम शील आदि गुणोंसे पूर्ण हैं, गुणवान् हैं और गण अर्थात् मुनिसमूहके इन्द्र हैं ऐसे वृषभसेन आदि मुख्य मुनिराज भी कालक्रमसे अपरिमित निर्वाणधामको प्राप्त हुए ॥३९६॥ जिन्होंने नेताकी तरह चार आराधनारूप चार प्रकारकी सेनाको साथ लेकर पापरूपी विशाल शत्रको नष्ट किया था, जिन्होंने सुवर्ण पाषाणके समान अपना देदीप्यमान स्वरूप प्राप्त किया है, भ्रमरोंके समान सब देवलोग जिनके कमलविजयी चरणोंकी सेवा करते हैं और जो तीन लोकके गुरु हैं ऐसे श्री भगवान् वृषभदेवकी सेवा करनेवाले तुम सबको वे ही कल्याण प्रदान करनेवाले हों ॥४००॥ जो कुलकरोंमें पन्द्रहवें कुलकर थे, तीर्थंकरोंमें प्रथम तीर्थ कर थे, जिन्होंने मनुष्योंकी जीविका १ परिवेष्टितयतिमुख्यः । २ भव्यजनसमूहस्योपकारि। ३ मुहर्तपरिसमास्थितौ सत्याम् । ४ सख्यं ल०। ५ सेनापतिरिव । ६ चतुर्विधाराधनसाधनः । ७ आ समन्ताद् भास्वरम् । ८ जीवितकल्पः । ९ आवरणविमुक्तः । १० उत्पन्नवान् । ११ भरतस्य । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व वसन्ततिलका साक्षात्कृतप्रथितसप्तपदार्थसार्थः सद्धर्मतीर्थपथपालनमूलहेतुः । भन्यात्मनां भवभृतां स्वपरार्थसिद्धि मिक्ष्वाकुवंशवृषभो वृषभो विदध्यात् ॥४०२॥ शार्दूलविक्रीडितम् यो नाभेस्तनयोऽपि विश्वविदुषां पूज्यः स्वयम्भूरिति त्यक्ताशेषपरिग्रहोऽपि सुधियां स्वामीति यः शब्द्यते । मध्यस्थोऽपि विनेयसत्त्वसमितेरेवोपकारी मतो निर्दानोऽपि बुधैरपास्य चरणो यः सोऽस्तु वः शान्तये ॥४०३॥ इत्यारे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रह प्रथमतीर्थ करचक्रधरपुराणं नाम सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व परिसमाप्तम् ॥४७॥ की विधि और मोक्षका महान् मार्ग प्रत्यक्ष देखा था, जिन्हें आवरणसे रहित पूर्ण अन्तिम - केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और जो समस्त पृथिवीके अधिपति भरत चक्रवर्ती के पिता थे वे श्रीमान् प्रथम तीथकर तम सबको लक्ष्मी प्रदान करें ॥४०॥ जिन्होंने प्रसिद्ध सप्त पदार्थों के सम को प्रत्यक्ष देखा है और जो समीचीन धर्मरूपी तीर्थके मार्गकी रक्षा करने में मुख्य हेतु हैं ऐसे - इक्ष्वाकु वंशके प्रमुख श्री वृषभनाथ भगवान् संसारी भव्य प्राणियोंको मोक्षरूपी आत्माको उत्कृष्ट सिद्धिको प्रदान करें ॥४०२॥ नाभिराजके पुत्र होकर भी स्वयंभू हैं अर्थात् अपने आप उत्पन्न हैं, समस्त विद्वानोंके पूज्य हैं, समस्त परिग्रहका त्याग कर चुके हैं फिर भी विद्वानोंके स्वामी कहे जाते हैं, मध्यस्थ होकर भी भव्यजीवोंके समूहका उपकार करनेवाले हैं और दानरहित होनेपर भी विद्वानोंके द्वारा जिनके चरणोंकी सेवा की जाती है ऐसे भगवान् वृषभदेव तुम सबकी शान्तिके लिए हों अर्थात् तुम्हें शान्ति प्रदान करनेवाले हों ॥४०३॥ इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध भगवान् गुणभद्राचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण श्रीआदिपुराण संग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें प्रथम तीर्थकर और प्रथम चक्रवर्तीका वर्णन करनेवाला यह सैंतालीसवाँ पर्व पूर्ण हुआ। पुराणधिरगम्योऽयमर्थवीचिविभूषितः । सर्वथा शरणं मन्ये जिनसेनं महाकविम् ॥ पारग्रामों जन्मभूमिर्यदीया । गल्लीलालो जन्मदाता यदीयः । पनालालः क्षुद्रबुद्धिः स चाहं टीकामेतां स्वल्पबुद्धया चकार ॥ आषाढकृष्णपक्षस्य त्रयोदश्यां तिथावियम् । पञ्चसप्तचतुर्युग्मवर्षे पूर्णा बभूव सा॥ ते ते जयन्तु विद्वांसो वन्दनीयगुणाधराः । यत्कृपाकोणमालम्ब्य तीर्णोऽयं शास्त्रसागरः ॥ १ स्वपरार्थज्ञानं सम्यग्ज्ञानमित्यर्थः । २ श्रेष्ठः । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनूनां नाम प्रतिश्रुति सन्मति ८४ ८४ ८४ ८४ ८४ ८४ ८४ ८४ ८४ ८४ ८४ १६ १५ १४ १३ ८४ ८४ ८४ १० ९ ८ मनूनामायुः पल्यका अमम अममांग अटट अटटांग तुटिक तुख्यंग कमल कमलांग नलिन नलिनांग पद्मपद्मांग कुमुद कुमुदांग नउत नउतांग पर्व पर्वांग दशमांश ८४गुण्य ८४गुण्य ८४ ८४ २० १६ १८१७ गुणाकार गुणाकार १२ ११ ६ ४ मनूनामुत्सेधः १८०० ५२ शून्यं ५० शून्य ५०४२ ४५ १३०० ८०० क्षेमंकर क्षेमंघर सीमंकर सीमंधर ७७५ ४० ४० ७५० ३५ ३५ शुन्य ७२५ L ३० 1 ३० २५ २५ ७०० ६७५ ६५० २० २० ६२५ ६०० ५ १५ १५ १० ५७५ ५५० अङ्गशब्दवाच्यो यः सख्याविकल्पः स चतुरशीत एवं अन्यस्तु पूर्वागताडित एवं जहाँ अंग शब्द आये वहाँ ८४००००० को ८४ से गुणा करना जहाँ अंग शब्द नहीं है वहाँ ८४००००० से गुणा करना । 1 - ( आराकी प्रति अन्तिम पत्र में यह अंगक संदृष्टि दी गयी है ।) चतुरुत्तराशीतिलक्षवर्षाणि पूर्वांगं भवति । तस्यांकसंदृष्टिः ८४००००० । तत् पूर्वागयर्गित अन्येन पूर्वागेन ताडितं चेत् पूर्वं भवति । तस्यांकसम्हहिः ७०५६०००००००००० तेषां पूर्वाणां कोटिः पूर्वकोटिर्भवति । ७०५६००००००००००००००००० प्रागुकपूर्व चतुरशीतिनं चेत् पर्वांगं भवति । अं० [सं० ५१२७०४०००००००००० पूर्वागतादितं तत्पर्यागं पर्व भवति । अं० [सं० • ४९७८७१३६००००००००००००००० चतुरशीतिताडितं ८४ तत् पर्व नउतांगं भवति । अं० सं० - ४१८२११६४२४००००००००००००००० । प्रागुक्तं नउतांगं चतुरशीतिलक्षताडितं चेत् ८४००००० नउतं भवति । अं० सं० ३५१२९८०३१६१६०००००००० ०००००००००० प्रागुक्तं नउतं चतुरशीति ८४ ताडितं चेत् कुमुदांगं भवति । अं० सं० २६५०६०३४६५५७४४०००००००००० ००००००००० प्रागुक्तं कुमुदांगं चतुरशीति लक्ष ८४००००० ताडितं चेत् कुमुदं भवति अं० सं० २४७८७५८९११०८ २४३६ शून्य २५ । एवं चतुरशीत्या ताडितं अंगशब्दयुकमुतरीसरस्थानं भवति चतुरशीतिलक्षैस्ताडितं चेत् अंगशब्दरहितमुत्तरोत्तरस्थानं भवति । क्रमेणांकसं दृष्टिः पद्मा २०८२३५०४८ २००२७६६४ शुभ्यं २५ पद्मं । १०४०११२७६२३८०९१७७६ शून्यं ३० नलिनांग १४६ε१७०३२१६३४२३६७०८१८४ शून्यं ३० । नलिनं १२३४१०३०९० १७२७६१३५ - ७१४५६ शून्यं ३५ | कमलांगं १०३६६४६५७८९४५१०९५३८८००२३०४ शून्य ३५ । कमलं ८७०७८३१३९००४०२५६२१९३५३६ शून्य ४० । त्र्युट्यङ्गम् - ७३१४५७८२६१०३६५६३४६५७७४४२५७०२४ शून्य ४० । ड्युटिकम् - ६१४४२४५७३३१२७०७१३३११२५०५१७५९००१६ शून्य ४५ । अटटाङ्गम् - ५१६११६५४ २०९९७३६८१८१४५०४३४७७५६१३४४ शून्य ४५ । अटम् - ४३३५३७८६५३६२९४१५३१२४१८३६५११५१५२८६६ शून्य ५० । अममाङ्गम् - ३६४१७१८३२१०४८१०८८६२४३१४२६७७७६७२८ ३७२६४ शून्य ५० । अमम । ८४ ८४००००० २ ०१ शून्यानि १ ५२५ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण [द्वितीय भाग] शब्दसूची Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्द-सूची है। ये बारह होती हैं - अन्तरङ्ग शत्रुओंका समूह अक्षीणमहानस-जैन मुनिकी एक १ अनित्य, २ अशरण, ३ है । ३८।२८० ऋद्धि, जिसके प्रभावसे जहाँ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्य- अलोक-लोकके बाहरका अनन्त इस ऋद्धिप्राप्त मुनिका त्व, ६ अशुचित्व, ७ आस्रव, आकाश ३३।१३२ भोजन होता है वहाँकी ८ संवर, ९ निर्जरा, १० अश्व- चक्रवर्तीका एक सचेतन भोजन-सामग्री अक्षीण हो लोक, ११ बोधिदुर्लभ, और रत्न ६७१८४ जाती है। अर्थात् वहाँ १२ धर्मस्वाख्यातत्व । ३६। असि- चक्रवर्तीका एक निर्जीव कितने ही लोग भोजन १५९-१६० रत्न ३७८४ करते जायें, पर भोजन- अनुत्तरोपपादिकदशाङ्ग-द्वादशां आ सामग्री कम नहीं होती। गका नौंवा भेद। जिसमें ३६।१५५ प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थ में आकिंचन्य-परिग्रहका त्याग अक्षीणावसथ-जैन मुनिकी एक उपसर्ग सहन कर अनुत्तर करना ३६।१५७ ऋद्धि, जहाँ इस ऋद्धिका विमानोंमें उत्पन्न होनेवाले आचाराङ्ग- द्वादशाङ्गका पहला धारक मुनि निवास करता दश-दश पुरुषोंका वर्णन अङ्ग, जिसमें मुनियों के है, वहाँ छोटे स्थानमें भी होता है । ३४।१४२ आचारका वर्णन है। ३४ बहुत बड़ा समूह भी अनूचान- अङ्गसहित वेदका १३५ • स्थान प्राप्त कर सकता है। अध्ययन करनेवाला ३९।५३ आज्ञाविषय-धर्म्यध्यानका एक ३६.१५५ अनुप्रवृद्धकल्याण-एक उपोषित भेद ३६।१६१ अग्रनिवृति- गर्भान्वय क्रियाका व्रतका नाम ४६।१०० आतपत्र- चक्रवर्तीका एक निर्जीव एक भेद । ३८१६२ अन्तकृद्दशाङ्ग- द्वादशाङ्गका रत्न ३७१८४ अणिमादिगुण- अणिमा, महिमा आठवाँ भेद ३४।१४२ आतपयोग- ग्रीष्म ऋतुमें पर्वतगरिमा, लघिमा, प्राप्ति, अन्वयदत्ति-पुत्रके लिए परिग्रह चट्टानोंपर ध्यान करना प्राकाम्य, ईशित्व और का भार सौंपना। इसीका ३४।१५४ वशित्व ये आठ सिद्धियाँ दूसरा नाम सकलदत्ति है। भाधान- गर्भावय क्रियाका एक अथवा गुण कहलाते हैं। ३८।४० भेद ३८५५ ३८।१९३ अपायविनय-धर्म्यध्यानका एक भावश्यक- अवश्य करने योग्य अजीव-जानने देखनेकी शक्तिसे भेद ३६।१६१ छह कार्य - १ समता, रहित । इसके पाँच भेद अब्जचक्रवर्तीकी एक निधि । २ वन्दना, ३ स्तुति, ४ हैं - १ पुद्गल, २ धर्म, इसीका दूसरा नाम शङ्ख प्रतिक्रमण, ५ स्वाध्याय ३ अधर्म, ४ आकाश और भी है ३७१७३ और ६ व्युत्सर्ग ३६।१३४ ५ काल । ३४।१९२ अभिषेक-गन्विय क्रियाका एक आजव-मायाचारको जीतना अणुव्रत-हिंसादि पांच पापोंका भेद ३८०६० ३६।१५७ एकदेश त्याग करना, ये ___अवतार- गर्भान्वय क्रियाका एक ____ आर्य षट्कर्म- इज्या, वार्ता, अहिंसाणुव्रत आदि पांच भेद ३८।६० दत्ति, स्वाध्याय, संयम है। ३९।४ अवतार-दीक्षान्वय क्रियाका एक और तप ये आर्योंके छह अनुप्रेक्षा- पदार्थके स्वरूपका भेद ३८।६४ कर्म है । ३९।२४ बार-बार चिन्तन करना। अरिषड्वर्ग-काम, क्रोध, लोभ, आहती- अरहन्त सम्बन्धी इसका दूसरा नाम भावना मोह, मद, मात्सर्य ये छह ३६।११५ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहस्य- गर्भान्त्रय क्रियाका एक भेद ३८|६२ आहवनीय वह अग्नि जिसमे गणधरोंका अन्तिम संस्कार होता है ४० ८४ आष्टाद्विक पूजाका एक भेद । कार्तिक, फाल्गुन ओर आषाढ़ मास के अन्तिम आठ दिनोंमें नन्दीश्वर द्वीप सम्बन्धी ५२ चैत्यालयोंकी पूजा ३८।२६ इ इज्या पूजा, पूजाके चार भेद हैं १ सदाचन ( नित्यमह ), २ चतुर्मुखम ३ कल्पद्रुममह और ४ आष्टाह्निकमह ३८।२६ इन्द्रत्याग गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८|६० इन्द्रोपपाद - गर्भावय क्रियाका एक भेद ३८।६० इम चक्रवर्तीका एक सचेतन रत्न- हाथी ३७१८४ उ उत्तमक्षमा - क्रोधपर विजय प्राप्त करना ३६।१५७ उत्तर गुण- मुनियोंके चौरासी लाख उत्तर गुण होते हैं ३६।१३५ उपधा- धर्म, अर्थ, काम और भयके समय किसी बहानेसे दूसरेके विसकी परीक्षा करना उपधा है । ४४।२२ उपनीति - गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।५६ उपयोगिता - दीक्षाग्यय क्रियाका एक भेद ३८।६४ उपासकाध्याय सातवाँ भेद जिसमें श्रावकाचारका वर्णन है ३४१४१ ऋतु- स्त्रीकी रजः शुद्धिके दिन पारिभाषिक शब्द सूची से लेकर पन्द्रह दिन तकका काल ऋतुकाल कहलाता है । ३८।१३४ ऋद्धि- तपसे प्रकट हुई विशिष्ट शक्तियाँ। ये बुद्धि, त्रिक्रिया आदिके भेदसे अनेक प्रकारकी होती है ३६ । १४४ ऐ ऐन्द्रध्वज - इन्द्रोंके द्वारा की हुई पूजा । पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा की पूजा इन्द्रध्वज पूजा है। इसमें मनुष्य में इन्द्रका आरोप कर उसके द्वारा पूजा की जाती है । भ औषधद्वि- इसके अनेक भेद हैं। आमर्ष, दवेल, जल्ल, मल्ल आदि ३६।१५३ क कर्मचक्र- ज्ञानावरणादि कमौका समूह ४३।२ कमंत्रय - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय ४७।२४७ कर्त्रन्वय किया- एक विशिष्ट क्रिया, इसके ७ भेद है ३८।५१ कल्पद्रुम जिनपूजाका एक भेद । इसे चक्रवर्ती ही कर पाता है । ३८।२६ कषाय- क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं ३६।१३९ काकिणी - चक्रवर्तीका एक रत्न जिससे दीवालपर लिखनेसे प्रकाश उत्पन्न होता है, ३२।१५ कारुण्य - दुःखी जीवोंका दुःख दूर करने का भाव होन ३९ १४५ काल- चक्रवर्तीकी एक निषि ३७/७३ ५१९ कुल- पिताकी वंशशुद्धि ३९१८५ कुल चर्या - गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।५७ कृतयुग - चतुर्थकाल ४१५ केशवाप - गर्भाश्वय क्रियाका एक भेद ३८०५६ केवलाख्य ज्योति - केवलज्ञानरूपी ज्योति ३३।१३२ कोष्टबुद्धि बुद्धिऋद्धिका एक भेद ३६१६ 1 क्षपकश्रेणी- चारित्र मोहका क्षय करनेके लिए परिणामोंकी विशुद्धता यह विशुद्धता आठवेसे दसवें गुणस्थान तक रहती है ४७।२४६ क्षयोपशम- पातिया कर्मों की एक अवस्था विशेष, जिसमें वर्तमान कालमें उदय आनेबाले सर्वधाति स्पर्द्धकका उदयाभावी क्षय आगामी कालमें उदय आनेवाले सर्वपाति स्पर्धकोंका सदयस्था रूप उपशम और देशपाति स्पर्द्धकोंका उदय रहता है ३६।१४५ क्रव्याद - मांस खानेवाले व्यक्ति ३९।१३७ ग गण- समवसरणकी १२ सभाएँ ३३।१५७ गणग्रह- दीक्षान्वय क्रियाका एक भेद ३८।६४ गणग्रह - मिथ्या देवी-देवताओंको अपने घर से अन्यत्र विसर्जित करना, ३९।४५ गणोपग्रहण - गर्भान्वय क्रियाको एक भेद ३८।५८ गन्धकुटी - समवसरणका वह मूलस्थान जहाँ भगवान् विराजमान रहते हैं ३३| १५० Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० आदिपुराणम् गर्मान्वय क्रिया- एक विशेष सर्पिणी युगमें बारह-बारह जातिब्राह्मण- तप और श्रुतसे प्रकारको क्रिया, इसके ५३ . होते हैं। भरतक्षेत्रका पहला रहित नाम मात्रके ब्राह्मण भेद होते हैं । ३८१५१ चक्रवर्ती भरत था जो कि . जातिब्राह्मण है ३८।४५ गार्हपत्य- जिस अग्निसे तीर्थंकर प्रथम तीर्थकर वृषभदेवका जिनरूपता- गर्भावय क्रियाका के मृत शरीरका दाह पुत्र था २६।१ एक भेद ३८५७ संस्कार होता है वह अग्नि चक्रलाभ- गर्भान्वय क्रियाका जीव- जानने देखने की शक्तिसे ४०१८४ एक भेद ३८।६१ युक्त जीव द्रव्य ३४।१९२ गुप्तित्रयी-१ मनोगुप्ति, २ वचन- चकामिषेक- गर्भान्वय क्रियाका ज्ञातृधर्मकथा- द्वादशाङ्गका गुप्ति, ३ कायगुप्ति ३६। एक भेद ३८।६२ .. छठवाँ भेद ३४।१४० १३८ चतुर्गति- नरक, तिर्यंच, मनुष्य गुरुपूजोपलम्भन- गर्भान्वय और देव ये चार गतियाँ तक्षन्- चक्रवर्तीका एक सचेतन क्रियाका एक भेद ३८।६१ हैं । ४२।९३ रत्त ३७१८४ गुरुस्थानाभ्युपगम- गर्भान्वय चतुर्दश महाविद्या- उत्पादपूर्व तद्विहार-गर्भान्वय क्रियाका एक क्रियाका एक भेद ३८१५८ आदि चौदह पूर्व ३४।१४७ भेद ३८।६२ गृहत्याग- गर्भावय क्रियाका तप- इच्छाका निरोध करना तप चतुर्मुखमह- पूजाका एक भेद, एक भेद ३८।५७ है। इसके बारह भेद है महामुकुटबद्ध राजाओंके गृहपति- चक्रवर्तीका एक सचे द्वारा यह की जाती है। १ अनशन, २ ऊनोदर, ३ तन रत्न ३७१८४ वृत्ति परिसंख्यान, ४ रस इसका दूसरा नाम सर्वतोगृहिमूलगुणाष्टक-गृहस्थके आठ परित्याग, ५ विविक्तभद्र है ३८।२६ मूलगुण-१ मद्यत्याग, २ शय्यासन, ६ कायक्लेश, ७ चतुर्भेद ज्ञान- मतिज्ञान, श्रुतमांसत्याग, ३ मधुत्याग, ज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय प्रायश्चित्त,८ विनय,९ वैया४ अहिंसाणुव्रत, ५.सत्याणु वृत्य, १० स्वाध्याय, ११ ज्ञान ३६।१४५ व्रत, ६ अचौर्याणुव्रत, ७ व्युत्सर्ग और १२ ध्यान ब्रह्मचर्याणुव्रत और ८ परिचमूपति- सेनापति, चक्रवर्तीका ३८।४१ ग्रहपरिमाणाणुव्रत ४६। एक सजीव रत्न ३७१८४ तप ऋद्धि- इसके उग्रोग्रतप, चर्म- चक्रवर्तीका एक निर्जीव २६९ दीप्ततप, घोरतप आदि गृहीशिता- गर्भान्वय क्रियाका रत्न ३७१८४ अनेक भेद है ३६।१४९चर्या- मन्त्र, देवता, औषध एक भेद ३८।५७ १५१ तथा आहार आदिके लिए तीर्थ- तीर्थकरका प्रवृत्तिकाल हिंसा नहीं करूँगा ऐसी घातिकर्म- ज्ञानावरण, दर्शना ३४।१४२ वरण, मोहनीय और अन्त प्रतिज्ञा धारण करना ३९। तीर्थकृद्भावना-गर्भावय क्रिया १४५-१४७ राय ये चार घातियाकर्म का एक भेद ३८।५७ कहलाते हैं । ३३।१३० चातुराश्रम्य- ब्रह्मचर्य, गृहस्था तिथ्यादिपञ्च-तिथि, ग्रह, नक्षत्र, श्रम, वानप्रस्थ और संन्यास योग और करण ४५।१७९ ये चार आश्रम हैं। ३९:२४ चक्रधर- चक्रवर्ती भरत । भरत, त्याग- विकार भावोंको छोड़ना ऐरावत और विदेह क्षेत्रमें चार आराधना- १ सम्यग्दर्शन, ३६।१५७ चक्रवर्ती होते हैं। ये षट् २ सम्यग्ज्ञान, ३ सम्यक् . अस-चलने-फिरनेवाले जीव खण्ड भूमण्डलके स्वामी चारित्र और सम्यक् तप ये द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिहोते हैं। इन्हें देवोपनीत चार आराधना है ४७१४०० न्द्रिय, पंचेन्द्रिय ३४।१९४ चक्ररत्न प्राप्त होता है। त्रिगौरव- १रस गौरव, २ शब्दये दश कोडाकोड़ी सागरके जाति- माताकी. अन्वय शुद्धि गौरव, ३ ऋद्धिगौरव, अवसर्पिणी तथा उत्- ३९।८५ गौरव = अहंकार ३६।१३७ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२१ क्रियाका एक भेद ३८५९ निर्जरा- कोका एकदेश क्षय __ होना ३६।१३८ निषद्या- गर्भावय क्रियाका एक भेद ३८1५५ निष्क्रान्ति- गर्भावय क्रियाका एक भेद ३८।६२ नैःसर्प- चक्रवर्तीको एक निधि ३७७३ नोकर्म- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर ४२।९१ पारिभाषिक शब्द-सूची त्रैगुण्यसंश्रिता- सम्यग्दर्शन, रूपसे स्थित बारह सभाएँ सम्यग्ज्ञान और सम्यक- ४२।४५ चारित्र सम्बन्धी ३९।११५ द्वादशाङ्ग- आचाराङ्ग आदि बारह अङ्ग ३४|१३३ दक्षिणाग्नि- वह अग्नि जिसके द्विज- ब्राह्मण, क्षत्रिय और द्वारा सामान्य केवलियोंके वैश्य ३८०४८ शरीरका दाह संस्कार द्वितीय शुक्लध्यान- एकत्वहोता है ४०१८४ वितक, यह बारहवें गुणदण्डकपाटादि- केवलिसमुदधात स्थान में होता है ४७।२४७ के भेद-१ दण्ड, २ कपाट, द्विधाम्नात- अन्तरङ्ग और बहि३ प्रतर और ४ लोकपूरण रङ्गके भेदसे दो प्रकारका ३८१३०७ माना हुआ ३४।१७२ दण्ड- चक्रवर्तीका एक निर्जीव । द्विरष्टौ भावना- सोलह कारण रत्न ३७१८४ भावनाएँ १ दर्शनविशुद्धि, दत्ति- दान, इसके चार भेद हैं २ विनय सम्पन्नता, ३ शोल१ पात्रदत्ति, २ समदत्ति, व्रतेष्वनतो चार, ४ अभीक्ष्ण ३ अन्वयदत्ति और ४ ज्ञानोपयोग, ५ संवेग, ६ करुणादत्ति ३८।३५-३६ शक्तितस्त्याग, ७ शक्तिदयादत्ति- करुणा दान ३८३६ । तस्तप, ८ साधुसमाधि, ९ दशधर्म-१ क्षमा, २ मार्दव, वैयावृत्यकरण, १० अर्हद्३ आर्जव, ४ शौच, ५ भक्ति, ११ आचार्यभक्ति, सत्य, ६ संयम, ७ तप, १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रव८ त्याग, ९ आकिंचन्य और चन भक्ति, १४ आवश्यका१० ब्रह्मचर्य ३६।१३७ परिहाणि, १५ मार्गप्रभावना दिल्या जाति- इन्द्रकी जाति और १६ प्रवचनवात्सल्य दिव्या जाति कहलाती है। ३९।१६८ धर्म्यध्यान- ध्यानका एक भेद, दिशाञ्जय- गर्भावय क्रियाका इसके चार भेद हैं-१ एक भेद ३८।६१ आज्ञा विचय, २ अपायविदीक्षाघ- गर्भान्वय क्रियाका एक चय, ३ विपाकविचय और भेद ३८।५७ ४ संस्थानविचय ३६।१६१ दीक्षान्वय किया- एक विशिष्ट धूलीसाल- समवसरणका एक क्रिया, इसके ४८ भेद होते कोट जो कि रत्नमयी धूलीसे है। ३८१५१ निर्मित होता है ३३।१६० दीपोद्बोधनसंविधि- पूजाके ति- गर्भान्वय क्रियाका एक समय दीपक जलाना। इस भेद ३८१५५ कार्यमें दक्षिणाग्निका प्रयोग होता है । ४०८६ नामकर्म- गर्भान्वय क्रियाका दृष्टिवाद- द्वादशाङ्गका बारहवाँ एक भेद ३८.५५ भेद ३४।१४६ निगोत- सम्मूर्च्छन जीव विशेष द्वादशगण- समवसरणमें गन्ध- ३८।१८ कुटीके चारों बोर परिक्रमा निःसत्वात्मभावना- गर्मान्वय ७१ पक्ष- एक वृत्तिका भेद-जिन धर्मका पक्ष स्वीकृत करना ३९।१४५ पञ्चनमस्कारपद- णमोकार मन्त्रःणमो अरहन्ताणं आदि ३९।४३ पन्चेन्द्रिय-१ स्पर्शन, २ रसना, ३ घ्राण, ४ चक्षु और ५ कर्ण ये पाँच इन्द्रियां हैं: ३६।१३० पम्चोदुम्बर-बड़, पीपल, पाकर, ऊमर और अजीर ३८।१२२ पन- चक्रवर्तीकी एक निधि ३७१७३ परमनिर्वाण- कन्वय क्रियाका एक भेद ३८।६७ परमा जाति-अरहन्त भगवान्की परमा जाति कहलाती है ३९.१६८ परमार्हन्स्य- कन्वय क्रियाका एक भेद ३८।६७ परमावधि- अवधिज्ञानका एक भेद, जो मुनियों होता है ३६।१४७ परमेष्टिन्- अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच परमेष्ठी हैं ३८।१८८ परिषह- समता भावसे वागत Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् हर्ष धारण करना ३९।१४५ प्रश्नन्याकरण- द्वादशाङ्गका ___ दशवाँ भेद ३४।१४४ प्रशान्ति- गर्भान्वय क्रियाका भेद ३८५७ प्रातिहार्य- अरहन्त अवस्थामें तीर्थकरके प्रकट होनेवाले आठ विशिष्ट कार्य - १ अशोक वृक्ष, २ सिंहासन, ३ छत्रत्रय, ४ भामण्डल, ५ दिव्यध्वनि, ६ पुष्पवृष्टि, ७ चौंसठ चमर, ८ दुन्दुभि बाजा ४२।४५ प्राशन- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८1५५ प्रासुक- निर्जीव ३४।१९२ प्रियोद्भव- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।५५ प्रीति- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।५५ विपत्तिको सहन करना। इसके २२ भेद हैं-१ क्षुधा, २ तृषा, ३ शीत, ४ उष्ण, ५ दंशमशक, ६ नाग्न्य, ७ अरति, ८ स्त्री, ९ चर्या, १० निषद्या, ११ शय्या, १२ आक्रोश, १३ वध, १४ याचना, १५ अलाभ, १६ रोग, १७ तृणस्पर्श, १८ मल, १९ सत्कार पुरस्कार, २० प्रज्ञा, २१ अज्ञान और २२ अदर्शन, ३६।१२८ पर्णलवी- एक विद्या, जिसके प्रभावसे भारी शरीर पत्तेके समान हलका होकर आकाशसे नीचे आ जाता है ४७।२२ पक्ष्यङ्क- एक आसन-पालकी ३४.१८८ पाण्डक-चक्रवर्तीकी एक निधि ३७७३ पात्रदान-मुनि-आर्यिका, श्रावक श्राविक आदि चतुःसंघको विधिपूर्वक दान देना ३८।३७ पारिव्रज्य- कन्वय क्रियाका एक भेद ३८।६७ पिङ्ग-चक्रवर्तीकी एक निधि ३७१७३ पुण्ययज्ञ- दीक्षान्वय क्रियाका एक भेद ३८।६४ पुराकल्प- पञ्चमकाल ४१।३ पुरोधस्- चक्रवर्तीका पुरोहित रत्न ३७१८४ पूजाराध्य- दीक्षान्वय क्रियाका एक भेद ३८।६४ प्रतिमा योग धारण- पर्वके उप वासके बाद रातमें एकान्तमें प्रतिमाके समान नग्न रहकर ध्यान धारण करना । ३९।५२ प्रमोद- गुणी मनुष्योंको देखकर मनकी सहायतासे होनेवाला एक ज्ञान ३६।१४२ मनःपर्ययज्ञान- दूसरेके मनमे स्थित पदार्थको जाननेवाला ज्ञान । यह ज्ञान मुनिके ही होता है ३६।१४७ मन्दरेन्द्राभिषेक- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।६१ महामह- भगवान्की एक विशिष्ट पूजा ३८।६ महाकाल- चक्रवर्तीकी एक निधि ३७१७३ महाव्रत- हिंसादि पापोंका सर्व देश त्याग करना । ये पाँच हैं ३९।४ महाचैत्यद्रुम- समवसरणमें विद्यमान चैत्यवृक्ष; इनके नीचे जिन-प्रतिमाएं विद्य मान रहती हैं। ४१।२० माणव- चक्रवर्तीकी एक निधि ३७.७३ माध्यस्थ्य- विपरीत मनुष्योंपर समभाव रखना ३९।१४५ मानस्तम्म-समवसरणकी चारों दिशाओं में विद्यमान रत्नमय चार स्तम्भ इनके देखनेसे मानो जीवोंका मान नष्ट हो जाता है । ४०।२० मार्दव-मानको जीतना ३६।१५७ मूलगुण- मुनियोंके मूलगुण २८ होते हैं -५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रिय दमन, ६ आवश्यक, ७ शेष सात गुण ३६।१३५ मैत्री-किसी जीवको दुःख न हो ऐसी भावना रखना ३९।१४६ मोद- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।५५ मौनाध्ययन वृत्तत्व- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।५८ बलर्दि-ऋद्धि का एक भेद ३६।१५। बहिर्यान-गर्भावय क्रियाका एक भेद ३८१५५ बोधि- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र ३९।८५-८६ ब्रह्मचर्य- आत्मस्वरूपमें लीन रहना अथवा स्त्री मात्रका परित्याग करना ३६।१५८ मोगाङ्ग- चक्रवर्तीके भोगके दश अङ्ग होते हैं-१ रत्न और निधियाँ, २ देवियाँ, ३ नगर, ४ शय्या, ५ आसन, ६ सेना, ७ नाट्यशाला, ८ वर्तन, ९ भोजन और १० वाहनसवारी ३७।१४३ मणि- चक्रवर्तीका एक निर्जीव रत्न ३७१८४ मतिज्ञान- पाँच इन्द्रियों और Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्द-सूची ५२३ द्रव्य पाये जायें उसे लोक सत्य, ३ अचौर्य, ४ ब्रह्मचर्य यथाख्यात- चारित्र मोहके कहते हैं। यह १४ राजू ऊँचा और अपरिग्रह ३६।१३३ अभावमें प्रकट होनेवाला है और ३४३ राजू क्षेत्रफल व्रतचर्या-गर्भान्वय क्रियाका एक चारित्र। इसके औपशमिक वाला है । ३३॥१३२ भेद ३८१५६ और क्षायिकके भेदसे दो व्रतावतरण- गर्भान्वय क्रियाका भेद हैं । ४७।२४७ वर्णलाभ- गर्भान्वय क्रियाका __एक भेद ३८५६ योगत्याग- गर्भान्विय क्रियाका एक भेद ३८१५७ वृत्त-चारित्र- पापपूर्ण क्रियाओंएक भेद ३८।६२ वार्ता- खेतो आदिके द्वारा से विरत होना ३९।२४ योगनिर्वाणसंप्राप्ति- गर्भान्वय निर्दोष आजीविका करना व्याख्याप्रज्ञप्ति- द्वादशांगका क्रियाका एक भेद ३८५९ ३८।३५ पांचवाँ भेद ३४।१३८ यौवराज्य- गर्भान्वय क्रियाका विकथा- राग द्वेषको बढ़ानेवाली व्युष्टि- गर्भान्वय क्रियाका एक एक भेद ३८।६१ कथाएँ, ये चार हैं-१ स्त्री भेद ३८५६ योगसम्मह- गर्भान्वय क्रियाका कथा, २ राष्ट्र कथा, ३ एक भेद ३८।६२ भोजन कथा ४ और राज शल्य-१ माया, २ मिथ्या और योजन- चारकोशका एक योजन कथा ३६।१४० ३ निदान ये तीन शल्य है। होता है परन्तु अकृत्रिम विक्रिया- एक प्रकारकी ऋद्धि, व्रती मनुष्यके इनका अभाव चीजोंके नापमें दो हजार इसके ८ अवान्तर भेद हैं। होना चाहिए । ३६।१३७ कोशका योजन लिया जाता ३६।१५२ शुक्लध्यान- ध्यानका सर्वोत्कृष्ट है । ३३।१५९ विजयाश्रिता- चक्रवतियोंकी भेद ३६।१८४ योषित्- चक्रवर्तीका एक सचेतन जाति विजयाश्रिता जाति शौच- लोभका त्याग करना रत्न, स्त्री ३७१८४ कहलाती है । ३९।१६९ ३६३१५७ विधिदान- गर्भान्वय क्रियाका श्रीमण्डप- समवसरणका मूल रत्नत्रय- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एक भेद ३८६० मण्डप जिसमें भगवान्की और सम्यकचारित्र ये तीन विपाक विचय-धर्म्यध्यानका एक गन्धकुटी होती है । रत्नत्रय है । ३६।१३९ भेद ३६।१६१ ३३।१५९ रसद्धि- ऋद्धिका एक भेद विपाकसूत्र- द्वादशाङ्गका ग्यार श्रुत-पाँच इन्द्रियों और मनकी ३६।१५४ हवां भेद ३४।१४५ सहायतासे उत्पन्न होनेवाला रहस्- अन्तराय कर्म ३५।१८६ विपुलमति- मनःपर्यय ज्ञानका एक तर्कणाशील ज्ञान राजविद्या- आन्वीक्षिकी, त्रयी, ___उत्कृष्ट भेद ३६।१४७ ३६।१४२ वार्ता और दण्डनीति ये विमुक्तता-निष्परिग्रहता चार . राजविद्याएं हैं। ३४।१६९ ४१।१३९ विवाह-गर्भान्वय क्रियाका एक षडष्टकम्- अड़तालीस ( षण्णाभेद ३८1५७ मष्टकं षडष्टकम् ) ३९।६ लिपि- गर्भान्वय क्रियाका एक वीरासन-आसनका एक भेद, भेद ३८५६ जिसमें दोनों पगथली जंघा- . सज्जाति-कन्वय क्रियाका एक लेश्या-कषायके उदयसे अनु- पर रखकर ध्यानस्थ हुआ भेद ३८।६७ रञ्जित योगोंको प्रवृत्ति । जाता है ३४।१८७ सत्य- हितमित प्रामाणिक वचन इसके ६ भेद है-१ कृष्ण, वृत्तलाम- दीक्षान्वय क्रियाका बोलना ३६।१५७ २ नील, ३ कापोत, ४ पीत, एक भेद ३८।६४ सदार्चन-नित्यमह-पूजाका एक ५ पद्म और ६ शुक्ल । व्रत-हिंसादि पांच पापोंके त्याग- भेद घरसे लायी हुई सामग्नी३६।१८४ पे प्रकट होनेवाले पांच से जिनेन्द्रदेवका प्रतिदिन लोक- जहाँ तक जीव आदि छह महाव्रत- १ अहिंसा, २ पूजन करना ३८।२६ - Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् संख्यानसंग्रह- गर्भान्वय क्रिया- का एक भेद ३८।५६ ५२४ सदगृहित्व- कन्वय क्रियाका एक भेद ३८।६७ सप्तमय-१ इस लोकका भय, २ परलोकका भय, ३ वेदनाभय, ४ आकस्मिक भय, ५ मरण भय, ६ अगुप्तिभय और ७ अरक्षा भय ३४।१७६ सप्तभङ्गी-किसी पदार्थका निरू पण करने के लिए वक्ताकी इच्छासे होनेवाले सात-भंगों का समूह । जो इस प्रकार है-१ स्यादस्ति, २ स्यानास्ति, ३ स्यादस्तिनास्ति, ४ स्याद् अबक्तव्य, ५ स्याद् अस्ति अवक्तव्य, ६ स्याद् नास्ति अवक्तव्य, और ७ स्याद् अस्ति नास्ति अव क्तव्य, ३३।१३५ समवाय-द्वादशांगका चौथा भेद, ३४।१३८ . समानदत्ति- सहधर्मीके लिए दान देना । ३८।३८-३९ समिति- प्रमादरहित प्रवृत्ति करना। समितियाँ पाँच है--१ ईर्या, २ भाषा, ३ एषणा, ४ आदान निक्षेपण और ५ प्रतिष्ठापन, ३६।१३५ सर्वरत्न- चक्रवर्तीकी एक निधि, ३७१७३ सविधि- अवधिज्ञानका एक भेद जो मुनियोंके होता है ३६११४७ ये ४ हैं १ आहार, २ भय, ३ मैथुन और परिग्रह, ३६।१३१ संयम- पाँच इन्द्रिय और मन को वश करना तथा छह कायके जीवोंकी रक्षा करना ३६।१५७ संस्थानविचय- धर्म्यध्यानका एक भेद ३६।१६१ साधन- आयुके अन्त में संन्यास धारण करना, ३९।१४५ सामायिक- चारित्रका एक भेद जिसका सामान्य रूपसे समस्त पापोंका त्याग कर समताभाव धारण करना अर्थ ई ३४।१३० साम्राज्य- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।६२ साम्राज्य- कन्वयक्रियाका एक भेद ३८.६७ सिद्धार्थपादप- समवसरणमें विद्यमान एक वृक्ष ४०।२० सिद्धि- १ अणिमा, २ महिमा, ३ गरिमा, ४ लघिमा, ५ प्राप्ति, ६ प्राकाम्य, ७ ईशित्व, और ८ वशित्व ये आठ सिद्धियाँ है ३४१२१४ सुखोदय- गर्भान्वय क्रियाका एक.भेद ३८.६० सुप्रीति-- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८५५ सुरेन्द्रता- कौन्वय क्रियाका एक भेद ३८।६७ सूत्र- यज्ञोपवीत ३९।९४ सूत्रकृत- द्वादशाङ्गका दूसरा भेद ३४।१३६ स्तूप- समवसरणमें विद्यमान ऊँची भूमि ४१।२० स्थपति- चक्रवर्तीका एक चेतन रत्न जिसे इंजीनियर कह सकते हैं ३२।२४ स्थानलाभ-दीक्षान्वय क्रियाका एक भेद ३८१६४ स्थानाध्ययन- द्वादशाङ्गका तीसरा भेद ३४।१३६ स्वाध्याय- शास्त्रका अध्ययन और भावना करना ३८।४१ स्वगुरुस्थानसंकान्ति- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।५९ स्वराज्य- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८।६१ स्वात्मोत्था- मुक्त जीवोंकी स्वात्मोत्थ जाति कहलाती है। ३९।१६८ हरितकाय- वृक्ष, लता, फल, फूल आदि हरी वनस्पतियाँ ३४।१९४ हविष्पाक- नैवेद्य बनाना इसमें गार्हपत्यअग्निका उपयोग होता है ३४।८६ हिरण्योत्कृष्टजन्मता- गर्भान्वय क्रियाका एक भेद ३८६० Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौगोलिक शब्द-सूची ऊर्जयन्ताद्रि = गिरनार पर्वत ३०।१०२ ऊहा= एक नदी २९।६२ ऋक्षवत् = एक पर्वत २९।६९ ऋष्यमूक=एक पर्वत २९५६ श्रो ओड़ = ओड्र देशके लोग २९।९३ औद्र = दक्षिण भारतका एक देश २९४७९ औदुम्बरी = एक नदी २९।५४ अङ्ग = एक देश - भागलपुरका समीपवर्ती प्रदेश २९।३८ अतिगम्भीरा = एक नदी २९।५० भद्रीन्द्र = सुमेरु पर्वत ३६।५० अनङ्ग = एक पर्वत २९७० अनन्तर पाण्ड्य = एक देश २९५८० अपरान्त = पश्चिम दिग्भाग ३०१ अम्बेणा = एक नदी २९।८७ अयोध्या = सम्राट भरतकी राज धानी उत्तरप्रदेशकी प्रसिद्ध नगरी २६६८३ अरुणा = एक नदी २९।५० अवन्तिकामा = एक नदी २९।६४ अवन्ती = मालवाका एक भाग उज्जैनका समीपवर्ती भाग २९।४० असुरधूपन = एक पर्वत २९७० आन्ध्र = एक देश २९४७९ आन्ध्र = आन्ध्र देशके लोग २९।९२ आपाण्डर गिरि = एक पर्वत २९।४६ कच्छ = एक देश काठियावाड़ २९।४१ कञ्जा = एक नदी २९।६२ कपीवती = एक नदी २९।४९ कमेकुर = एक देश २९१८० कम्बलाद्रि = एक पर्वत २९।६९ कम्बुक = एक सरोवर २९।५१ करभवेगिनी=एक नदी २९।६५ करीरी = एक नदी ३०५७ कर्णाटक = कर्णाटक देशके लोग २९।९१ कलिङ्ग = उड़ीसा - भुवनेश्वरका समीपवर्ती प्रदेश २९।३८ । कागन्धु = एक नदी २९।६४ काञ्चनपुर = विदेहका एक नगर ४७१७८ काण्डकप्रपात = एक गुफा ३२।१८८ कान्तपुर = पुष्कराध द्वीपके पश्चिम विदेह क्षेत्रके पद्मक देशका एक नगर ४७।१८० कामरूपएक देश - आसाम २९।४२ कालमही = एक नदी २९।५० कालकूट = एक देश २९।४८ कालतोया= एक नदी २९।५० कालिङ्गक = कलिङ्ग देशके लोग २९।९३ कालिन्द =एक देश २९।४८ काश्मीर = भारतका उत्तर दिशावर्ती एक प्रसिद्ध प्रदेश २९।४२ काशी = वाराणसीका समीपवर्ती प्रदेश २९।४० किरातविषय = म्लेच्लोंका एक देश २९.४८ किष्किन्ध = एक पर्वत २९.९० कुडुम्ब = एक देश २९।८० कुब्जा = एक नदी २९५८७ कुरु = उत्तर प्रदेशके अन्तर्गत मेरठका समीपवर्ती प्रदेश २९।४० कुरुजाङ्गल = मेरठका समीपवर्ती 'प्रदेश ४५।१६९ कूटाद्रि=एक पर्वत २९।६७ कृतमाला = एक नदी २९।६३ कृष्णगिरि = एक पर्वत ३०५० कृष्णवेणा = एक नदी २९।८६ केतम्बा-केतवा = एक नदी ३०५७ केरल = एक देश २९७९ कैलास = वर्तमान हिमालय ३३।११ कोलाहलगिरि = एक पर्वत ३३१११ कौसल = अयोध्याका समीपवर्ती प्रदेश २९।४० कौशिकी = एक नदी २९।५० इक्षुमती=एक नदी २९४८३ उण्ड = एक देश २९।४१ उन्मग्नजला = विजयार्धकी गुफा- में बहनेवाली एक नदी ३२।२१ उमयश्रेणी = विजयार्धकी उत्तर ___ और दक्षिण श्रेणी ३५।७३ उशीरवती= गान्धार देशकी एक नदी ४६।१४५ उशीनर = एक देश २९।४२ पर्वत खचराचल = विजयाध ३७।१९८ गङ्गा = एक प्रसिद्ध नदी २९।४९ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ आदिपुराणम् ४८ गङ्गापात = एक कुण्ड जिसमें हिमवत् पर्वतसे गङ्गा नदी गिरती है ३२११६३ गङ्गाद्वार = जिस द्वारसे गङ्गा नदी लवणसमुद्र में प्रवेश करती है ३५१६८ गजपुर = विजयाध पर्वतके दक्षिणभागमें स्थित एक नगर ४७।१२८ गदागिरि = एक पर्वत २९।६८ गम्भीरा = एक नदी २९।५० गान्धारदेश = पुष्कलावती देशके विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीका एक देश ४६।१४५ गोदावरी = एक नदी २९।८५ गोमती = एक नदी २९।४९ गोरथ = एक पर्वत २९।४६ गोशीर्ष = एक पर्वत २९।८९ गौड़ = एक देश २९।९१ गौरी विषय = विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक देश ४६।१४७ तमिस्रा - विजयाई पर्वतकी एक निमग्नजला = विजयाधको गुफागुफा ३२॥६ में बहनेवाली एक नदी 'तापी-एक नदी ३०१६१. ३२१२१ ताम्रा = एक नदी २९।५० निर्विन्ध्या = एक नदी २९।६२ तुङ्गवरक = एक पर्वत ३०।४९ निषध = एक कुलाचल ३६।४८ तैरश्चिक = एक पर्वत २९।६४ निष्कुन्दरी एक नदी २९।६१ तैला= एक नदी २९।८३ . नीरा = एक नदी ३०५६ त्रिकलिङ्ग = दक्षिण भारतका एक नीलाद्रि = एक कुलाचल ३६॥ देश २९४७९ त्रिकूट = दक्षिणका एक पर्वत । ३०१२६ पद्मक = पुष्कराध द्वीपके पश्चिम त्रिमार्गगा=गंगा २८११९ विदेहका एक प्रसिद्ध देश राज्य-चोल, केरल, पाण्ड्य ४७।१८० ३०३५ पनसा = एक नदी २९।५४ पम्पासरस् = एक प्रसिद्ध सरोवर दशार्ण = विदिशाका समीपवर्ती २९।५५ प्रदेश २९।४२ परा = एक नदी २९।६३ दशा = धसान नदी २९।६० पाञ्चाल = पंजाब २९।४० दमना = एक नदी ३०५९ पाण्ड्य = एक देश २९।८० दर्दुराद्रि = एक पर्वत २९।८९ । पाण्ड्य कवाटक = एक पर्वत दारुवेणा = एक नदी ३०५५ २९८९ देवनिम्नगा = गंगा नदी २७।३ पारा = एक नदी ३०।५९ पारियात्र = एक पर्वत २९।६७ धान्यकमाल = विदेह क्षेत्रके पुण्ड्र =एक देश २९।४१ पुष्कलावती देश सम्बन्धी पुण्डरीकिणी=विदेहकी एक विजयाध पर्वतके निकट नगरी ४६।१९ स्थित एक वन ४६।९४ पुन्नाग = एक देश २९।६९ धान्यपुर = विजयाका एक पुष्कलावती = विदेहका एक देश नगर ४७।१४६ ४६।१९ धैर्या = एक नदी २९।८७ पुष्पगिरि = एक पर्वत २९।६८ पोदन = पोदनपुर - बाहुबलीको नक्ररवा = एक नदी २९।८३ राजधानी ३४.६८ नन्दा = एक नदी २९।६५ प्रमृशा = एक नदी २९।५४ नर्मदा = भारतकी एक प्रसिद्ध प्रवेणी = एक नदी २९।८६ नदी २९।५२ प्रहरा = एक नदी ३०५८ नाग = एक पर्वत २९।८७ प्राच विदेह - पूर्व विदेह ४६। नागप्रिय = एक पर्वत २९।५८ नामिशैल = वृषभाचल जिसपर प्राङमाल्यगिरि = एक पर्वत ___चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ति २९।५६ लिखता है ४५।५८ प्रातर = एक देश २९४७९ नालिका = एक नदी २९।६१ निचुरा = एक नदी २९।५० बा= बंगाल २९।३८ चर्मण्वती = एक नदी - चम्बल २९।६४ चित्रवती=एक नदी २९।५८ चुल्लितापी = एक नदी २९।६५ चूर्णी = एक नदी २९।८७ चेदिककूश = एक देश २९।५७ चेदिपर्वत = एक पर्वत २९।५५ चेदिराष्ट्र = चेदी देश २९।५५ चेदी = एक देश मालवाका एक भाग २९।४१ जगती- लवणसमुद्रकी वेदी २८।६७ जम्बूद्वीप =प्रथम द्वीप ४३।७४ जम्बूमती = एक नदी २९।६२ जाह्नवी = गंगा नदी २६।१४७ तत्साह = वरतनु नामका द्वीप २९।१६६ तमसा = एक नदी २९।५४ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौगोलिक शब्द-सूची ५२७ बहुवज्रा = एक नदी २९।६१ बाणा = एक नदी ३०५७ बीजानदी = एक नदी २९।५२ भ भरत =जम्बू द्वीपका दक्षिण दिशावर्ती क्षेत्र ४३७४ भूतवन = भूतारण्य नामका वन ४७१६६ भैमरथी ( भीमरथी ) = एक नदी ३०५५ मोगपुर = गौरी देशकी नगरी ४६।१४७ १७३ मदेभ = एक पर्वत २९७० मद्र = एक देश २९।४१ मनोरम = एक देश ४७।४९ मलय = दक्षिणका एक पर्वत ३०।२६ मलयकाञ्चन = विजयाध पर्वत के समीपस्थ एक पर्वत ४६।१३५ मलद = एक देश २९।४७ मल्लदेश = एक देश २९।४८ महाकाल = एक गुफा ४७।१०३ महेन्द्र = एक पर्वत २९४८८ महेन्द्रका = एक नदी २९६८४ मागधिक = मगध देशके राजा। राजगृही (विहार ) का समीपवर्ती प्रदेश मगध कहलाता था २९।३८ मानस =एक प्रसिद्ध सरोवर २९।८५ माल्यवती = एक नदी २९१५९ माषवती= एक नदी २९१८४ महिष = एक देश २९५८० मुकुन्द =एक पर्वत ३०५० मुररा=एक नदो ३०५८ मूला = एक नदी ३०५६ मृणालवती = विदेहकी एक नगरी ४६।१०१ मेखला नदी = एक नदी २९।५२ विनीता = अयोध्यापुरी ३४।१ यमकाद्रि = बिदेहका एक पर्वत, विन्ध्य = एक पर्वत २९४८८ जिसे घेरकर सीता नदो विन्ध्याद्रि = भारतका एक बहती है ३७।९८ प्रसिद्ध पर्वत ४५।१५३ यमुना = एक प्रसिद्ध नदी विन्ध्यपुरी = विन्ध्याचलके २९।५४ निकटमें स्थित एक नगरी ४५।१५३ रत्नावर्त = एक पर्वत ४७।२२ विमलपुर = एक नगर ४७।११८ रथास्फा = एक नदी २९।४९ विबुधापगा=गंगा नदी २६। रम्या = एक नदी २९।६१ १५० राजत = विजयाई पर्वत ३१।१४। विशाला = एक नदी २९।६१ राजपुर = जम्बू द्वीपके विदेह वृत्रवती = एक नदी २९।५८ क्षेत्र में स्थित विजया पर्वत- वृषभाद्रि = वृषभाचल, जिसपर का एक नगर ४७।७३ ___ चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ति रूप्याद्रि = विजया पर्वत ३७। लिखता है ३५७७ वेणा=एक नदी २९४८७ रेयिक = एक पर्वत २९।७० वेणी%= एक नदी ३०1८३ रेवतक = गिरनार पर्वत' ३०॥ वेणुमती = एक नदी २९।५९ १०१ वैतरणी = एक नदी २९।८४ 'रेवा = एक नदी २९।६५ वैजयन्त = समुद्रका द्वार २५। रोहितास्या = एक महानदी १६७ , ३२।१२३ विदर्भ - बरार २९।४० रौप्य शैल = विजयाध पर्वत वैमार पर्वत = एक पर्वत २९।४६ ३७१८६ बैडूर्य = एक पर्वत २९।६७ व्याघ्री = एक नदी २९।६४ लाङ्गल खातिका = एक नदी ३०॥६२ शतमोगा = एक नदी २९।६५ लौहित्य समुद्र = एक सरोवर शर्करावती=एक नदी २९।६३ २९।५१ शिवंकर=मनोरमदेशका एक नगर ४७१४९ वङ्गा=एक नदी २९८३ शिवंकर = एक वन ४६।४८ वत्स = प्रयागके पासका एक शिल्पपुर = विजयाका एक नगर देश २९।४१ ४७।१४४ वल्सकावती = जम्बू द्वीपका एक शुष्कनदी = एक नदी २९९८४ देश ४७१७२ शुक्तिमती=एक नदी २९।५४ वसुमती = एक नदी २९।६३ शीतगुह = एक पर्वत २९।८९ वातपृष्ठ = एक पर्वत २९।६९ शोण = एक नदी-सोन २९।५२ वासवत् = एक पर्वत २९।७० शोभानगर = विदेह क्षेत्र पुष्कलाविजयपुर = विजयाका एक वती देशका एक नगर नगर ४७।१४० ४६।९५ . विजयार्धाचल = विजयाध पर्वत श्रीपुर = सुरम्य देशका नगर ३५।७२ ४७।१४ वी Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् ५२८ श्रीकट = एक पर्वत २९६८९ श्रीपर्वत = एक पर्वत २९।९० श्रेयस्पुर = विजयाका एक नगर ४७।१४२ श्वसना=एक नदी २९।८३ सितगिरि = एक पर्वत २९।६८ सिद्ध कूट = विजयार्धका. एक चैत्यालय ४६।१५८ सिन्धु = एक नदो २९॥ ६१ सिमा = एक नदी २९।६३ सिंहल = एक देश (श्रीलंका) ३०।२६ सीता = विदेहकी एक नदो ३७।९८ सीममहाचल = सीम नामका पर्वत ४७।१३४ सप्रयोगा = एक नदी २९५८६ सुमन्दर = एक पर्वत ३०५० सुमागधी = एक नदी २९।४९ सुरम्य = विदेहका एक देश ४७।१४ सुरगिरि = एक पर्वत ४७।६ सुसीमा- विदेहका एक देश ४७१६५ सुसीमानगर = वत्स देशका नगर ४६२५६ सुह्मक = एक देश २९।४१ सूकरिका = एक नदी २९८७ स्वःस्रवन्ती = गंगा नदी २६॥ १४८ स्वधुनी = गंगा नदी ३५।७७ सप्तपारा = एक नदी २९।६५ सन्नीरा = एक नदी २९।८६ सप्तगोदावर = एक नदी २९१८५ समतोया = एक नदो २९।६२ सरयू = अयोध्याके निकट बहने वाली एक नदी ४५।१४४ सर्पसरोवर = धान्यकमाल वनका एक सरोवर ४६।१०२ सह्याचल = एक पर्वत ३०।२७ . साकेत = अयोध्यापुरी ३७। १ सिकतिनी = एक नदी २९।६१ हयपुर = विजयाका एक नगर ४७।१३२ हस्तिपानी = एक नदी २९।६४ हास्तिनाख्यपुर = हस्तिनापुर ४३७६ हिमाद्रि = हिमवत् नामका कुला चल ३६.६१ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तिवाचक शब्द-सूची श्र अवतंसिका- चक्रवर्ती भरतकी रत्नमाला ३७।१५३ अशनिवेग- एक विद्याधर ४७।२१ अशनिवर- एक विद्याधर राजा ४७।१७५ अशोकदेव- मृणालवती नगरीका एक सेठ ४६।१०६ अष्टचन्द्र- विद्याधरविशेष ४४। अकम्पन- वाराणसीके राजा ४३।१२७ अकम्पन- वत्सकावती देशके विजयापर रहनेवाला एक विद्याधर राजा - पिप्पला. का पिता ४७.७५ . अक्षमाला- सुलोचनाकी बहिन लक्ष्मीमतोका दूसरा नाम ५२०२१ अक्षिमाला- सुलोचनाको बहिन लक्ष्मीमती, इसके दूसरे नाम अक्षिमाला, अक्षमाला ४५।६४ अग्निदेव- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३१४५ अचल- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३१५७ अजितञ्जय- चक्रवर्ती भरतका रथ २८1५८ अजितञ्जय- भरत चक्रवर्तीका पुत्र ४७।२८२ अटवीश्री- शोभा नगरके शक्ति षेण सामन्तकी स्त्री ४६।९६ अतिबल-एक विद्याधर ४७।१०८ अतिबल- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३१६५ अतिवीर्य- भरत चक्रवर्तीका पुत्र ४७।२८२ अतिपिङ्गल- पिंगल नामक कोतवालका पुत्र ४६।३६१ अधिराट- भरत चक्रवर्ती ३६।१९२ अनवद्यमति- भरत चक्रवर्तीका एक मन्त्री, जो कि सुलोचनाके स्वयंवरके समय अर्ककीतिके साथ गया था ४४।२२ ७२ अनन्तमति- एक आर्यिका ४६४७ अनङ्गपताका-विद्युद्वेगाकी सखी ४७१३४ अनन्तवीर्य-जयकुमारका पुत्र ४७।२७७ अनिलवेग- शिवंकरपुरका राजा ४७१४९ अनुत्तर- चक्रवर्ती भरतका सिंहा सन ३७११५४ अनुपमान- चक्रवर्ती भरतके चमर ३७।१५५ अनुपम- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३१६६ अन्त्यमनु- भरत चक्रवर्ती ३६।१०३ अपराजित- भगवान् वृषभदेवका एक पुत्र ४३.५९ अभेद्य- भरत चक्रवर्तीका कवच ३७।१५९ अमितमति- एक आयिकाका नाम ४६।४७ अमृत- भरत चक्रवर्तीका पेय । रस ३७।१८९ अमृतकल्प- भरत चक्रवर्तीके _ खाद्य पदार्थ ३७११८९ अमृतगर्म- भरत चक्रवर्तीके 'खाने योग्य लड्डू आदि पदार्थ ३७।१८८ अमोघ- चक्रवर्ती भरतके बाण ३७।१६२ अयोध्य- चक्रवती भरतका सेनापति ३७।१७४ अरिन्दम- भरत चक्रवर्तीका पुत्र ४७।२८१ अरिजय- भरत चक्रवर्तीका पुत्र ४७१२८१ अर्ककीर्ति- भरत चक्रवर्तीका पुत्र ४३१५३ आ आदिगुरु- भगवान् वृषभदेव ३४।४५ आदिभर्ता- भगवान् आदिनाथ ४११४ आदिवेधम- भगवान् आदिनाथ ३५।१०९ आदित्यगति- उशीरवती नगरी का राजा ४६।१४६ आदित्यगति- हिरण्यवर्माका पिता ४७।१८५ आद्यवेधा- भगवान् वृषभदेव ४२।२ आयस्रष्टा- भगवान् वृषभदेव ३६९५ आनन्द- एक राजा ४६।२८० आनन्दिनी- भरत चक्रवर्तीको - भेरी ३७११८२ आप्त- जिनेन्द्रका नाम ३९।१३ आवत-विजयाके उत्तरमें रहनेवाला एक म्लेच्छ खण्डका राजा ३२।४६ वेश्या उत्पलमाला- एक ४६।३०० राजा ऐक्ष्वाक- इश्वाकुवंशी भरत ३५।६७ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणपाल- राजा लोकपालका पुत्र ४६।२४३ गुणवतो- एक आर्यिका ४६।२१९ गुणवती- राजा प्रजापालकी पुत्री ४६।४५ गुप्तफल्गु- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।६२ गुप्तयज्ञ- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३३६१ गुरु- भगवान् आदिनाथ ३६।२०३ गृहकूटक- चक्रवर्ती भरतका वर्षाकालीन महल ३७।१५० गौतम- भगवान् महाबीरके प्रतिगणधर आदिपुराणम् क कुबेरकान्त- चक्रवर्ती भरतका कच्छ- भगवान् वृषभदेवका एक अक्षय भाण्डार ३७।१५१ गणधर ४३३६५ कुबेरमित्र- एक सेठका नाम कनकरथ-कान्तपुरका राजा ४६।२१ .४७११८१ कुबेरमित्रा- समुद्रदत्त सेठकी कनकप्रम- राजा कनकरथ और स्त्री ४६।४१ रानी कनकप्रभाका पुत्र कुमार- अर्ककीर्ति ४५।४२ ४७।१८१ कुम्भ- भगवान् वृषभदेवका एक कनकप्रमा- राजा कनकरथकी गणधर ४३१५४ स्त्री ४७।१८१ कुरुराज-हस्तिनापुरके राजा कनकमाला- राजा प्रजापालकी सोमप्रभका पुत्र जयकुमार रानी ४६।४९ ३२।६८ कनकश्री- मृणालवतीके सेठ । कौरव्य- जयकुमार ४५१७८ सुकेतुकी स्त्री ४६।१०४ कृतमाल- एक देव ३५।७३ कमलावती- विमेलसेनकी पुत्री कृतमाल- एक देव ३११९४ ४७।११४ क्षितिसार- चक्रवर्ती भरतके काकोदर- एक साँपका नाम प्राकार-कोटका नाम ३७। ४३१९३ १४६ काञ्चना- स्वर्गकी एक देवी ४७।२६१ गङ्गा- गंगा नामकी देवी ३७।१० कान्तवती- अनिलवेगकी स्त्री गङ्गा देवी- एक देवी ४५।१४९४७।४९ १५१ कामदेव- भगवान् वृषभदेवका गणबद्धामर- चक्रवर्ती की आज्ञाएक पुत्र ४३।६६ का पालन करनेवाले एक कामवृष्टि- भरत चक्रवर्ती के प्रकारके देव, जो कि सोलह गृहपति-रत्नका नाम ३७। हजारको संख्या में चक्रवर्ती को निधियों और रत्नोंकी कालो- नागीका जीव मरकर रक्षा करते हैं ३७-१४५ काली नामकी जलदेवी हुई गम्भीरावर्त- भरत चक्रवर्तीके ४३।९५ शंखका नाम ३७११८४ काशिपात्मजा- सुलोचना . गान्धारी- एक आर्यिका ४६। ४५।१६९ २३७ काशिराज- वाराणसीका राजा गिरिकूटक- चक्रवर्ती भरतका अकम्पन ४४।९० राजमहल, जिसपर चढ़कर कीर्तिमती-वरकीति राजाकी सब दिशाओंको शोभा देखते - प्रिय स्त्री ४७।१४१ थे ३७।१४९ कीर्ति- एक देवी ३८।२२६ गुणपाल-एक मुनिराज ४७।६।। कुबेरकान्त- कुबेरमित्र सेठ और गुणपाल- श्रीपालकी जयावती धनवतीका पुत्र कुबेरकान्त रानीसे उत्पन्न पुत्र ४६।३१ ४७११७२ कुबेरश्री- वसुपालकी माता गुणपाल-विदेह क्षेत्रके एक ४७५ तीर्थकर ४७।१६३ चकधर- भरत चक्रवर्ती ३४।४६ चक्रपाणि - , ३४७१ चकिन्- ,२६१५९ चण्डवेग- चक्रवर्ती भरतके दण्ड रत्नका नाम ३७।१७० चन्द्रचूल- भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३१६४ चित्ररथ- मनोरथका पुत्र ४६।१८१ चित्रवेगा-व्यन्तर देवी ४६।३५५ चित्रसेना- अतिबल विद्याधरकी स्त्री ४७११०९ चित्रषेणा-व्यन्तर देवी ४६।३५५ चिन्ताजननी- भरत चक्रवर्तीके काकिणी रत्नका नाम ३७।१७३ चिलात-विजयाके उत्तरवर्ती खण्डमें रहनेवाला एक म्लेच्छ राजा ३२।४६ चूडामणि- चक्रवर्ती भरतके मणिका नाम ३२०४६ जगद्गुरु- भगवान् आदिनाथ ४१।१७ जगत्पाल-एक चक्रवर्ती ४७९ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तिवाचक शब्द-सूची ५३१ धनवती- व्यन्तरदेवी ४६।३५५ धनवती- कुबेरमित्र सेठकी बत्तीस स्त्रियोंमें एकका नाम ४६।२१ धनश्री- सर्वसमृद्ध वणिक्की स्त्री ४७११६२ धनश्री- व्यन्तरदेवी ४६।३५६ धरणिकम्प- राजपुरका राजा विद्याधर ४७१७३ धरणीपति- मृणालवती नगरोका राजा ४६।१०३ धारागृह- चक्रवर्तीका फब्बारा, जहाँ बैठकर वे गरमीको शान्त करते थे ३७।१५० धारिणी- मेरुकदत्त सेठकी स्त्री ४६।११२ धारिणी- राजा सुरदेवकी स्त्री ४६।३५२ धूमवेग- एक विद्याधर ४७१९० ति- एक देवी ३८।२२६ जगन्माता- भगवानकी माताका नाम ३८।२२५ दिक्स्वस्तिका- चक्रवर्ती भरतको जय-जयकुमार ४३१५० सभाभूमिका नाम ३७११४८ जय- भगवान् वृषभदेवका गण दुर्मर्षण- एक राजकुमार ४४०१ धर ४३।६५ दुर्मुख- भवदेवका दूसरा नाम जयन्त- जयकुमारका छोटा भाई ४६।१०६ ४७।२८० देवकीर्ति- एक राजा ४४।१०६ जयधाम- सर्वदयित सेठका एक देवभाव- भगवान् ऋषभदेवमित्र ४७।२१० __ का एक गणधर ४३१५४ जयदत्ता- सर्वदयित सेठको देवरम्या- चक्रवर्ती भरतको स्त्री ४७।१९४ कपड़ेकी चाँदनी ३७।१५३ जयमामा- जयधामकी स्त्री देवश्री- शोभानगरके राजा ४७।२१० प्रजापालकी स्त्री ४६।९५ जयवती- राजा श्रीधर और देवश्री- एक यक्षी, श्रीपाल रानी श्रीमतीकी पुत्री चक्रवर्तीकी पूर्वभवको माता ४७।१४ ४७।१५३ जयावती- श्रीपाल चक्रवर्तीको देवश्री- सर्वदयित सेठके पिताकी स्त्री ४७।१७० छोटी बहन ४७।१९५ जयसेना-सर्वदयित सेठकी स्त्री देवशर्मा- भगवान् वृषभदेवका ४७।१९४ एक गणधर ४३।५४ जयसेना- श्रीपालके पुत्र गुण देवसत्य- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।६० पालकी स्त्री ४७।१७६ दृढ़रथ- भगवान् वृषभदेवका जयवर्मा- जयावतीका भाई गणधर ४३१५४ ४७।१७४ दृढ़व्रत- भगवान् वृषभदेवके जयवर्मा- एक राजा ४४।१०६ समवसरणका प्रमुख श्रावक जितशत्रु- समुद्रदत्तका शंकित ४७।२९६ पुत्र ४७।२११ देवाग्नि- भगवान् वृषभदेवका जिनदत्ता- मृणालवतीके सेठ गणधर ४३।५५ अशोकदेवको स्त्री ४६।१०६ दोर्बली- बाहुबली, भगवान् जिनदेव-धरोहर रखनेवाला आदिनाथका सुनन्दा स्त्रोसे एक पुरुष ४६।२७४ उत्पन्न पुत्र ३५।१ जिनाम्बिका- भगवान्की माता ध __ का नाम ३८।२२५ धनञ्जय- एक सेठ ४७।२०० . धनञ्जय-धनश्रीका बड़ा भाई जीमूत- चक्रवर्ती भरतकास्नान ४७।१९२ ___ गृह ३७।१५२ धन्वन्तरि- मेरुकदत्त सेठका ज्योतिवेगा-अशनिवेगकी माता मन्त्री ४६।११३ का नाम ४७।२९ धनदेव- दण्ड्य मान एक पुरुष ४६।२७५ . तेजोराशि- भगवान् ऋषभदेव- धनपालक- भगवान् वृषभदेवका का एक गणधर ४३।६३ गणधर ४३१६३ नन्दन-भगवान् वृषभदेवका एक । गणधर ४३।५५ नन्दिमित्र-भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६६ नन्दी- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।६६ नन्द्यावर्त- चक्रवर्तीकी सेनाका पड़ाव ३७।१४७ नमि- भगवान् वृषभदेवका एक. गणधर ४३१६५ नमि-विद्याधर राजा ३२।१८० नरपति- शिल्पपुरका राजा ४७।१४४ नागमुख- एक देव ३२।५६ नागामर , ४३।९१ नाट्यमाल-, ३२।१९१ नाट्यमालिला-नाट्याचार्यकी पुत्री ४६।२९२१ निधिपति- चक्रवर्ती भरत २६।१५० Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ निधिराट् - चक्रवर्ती भरत ४१।४२ निधीश ३६.३ निधीश्वर ४१।१८ ३६/६५ निधीशिन्निर्मल- भगवान् वृषभदेवका 11 " " गणधर ४३।६० नृपशार्दूल - चक्रवर्ती भरत ३६/६० प पवनञ्जय - भरत चक्रवर्तीके अश्वरत्नका नाम ३७।१७९ पिङ्गल- राजा सुरदेवका जीव, नगररक्षक ४६।३५६ पितामह भगवान् आदिनाथ ४४२८ पिप्पला सुखावतीकी सखी ४७/७५ पुराणपुरुष- भगवान आदिनाथ ३४।२२.० पुरु- भगवान् आदिनाथ ४३।४९ पुष्कररावर्ति - चक्रवर्ती, भरतका खास ३७१५१ पुष्पपालिका एक मालिनकी पुत्री ४६ । २५२ पुष्पवती एक मालिनकी पुत्री ४६।२५८ पृथिवी राजा सुरदेवकी स्त्री ४६।३५२ पृथिवीश्वर- भरत चक्रवर्ती ३६।२० पृथुधी- मन्त्रीका पुत्र ४६ । ३०५ प्रजापाल- विदेहक्षेत्र सम्बन्धी पुष्कलावती देशके शोभानगरका राजा ४६।९५ प्रजापाल- पुण्डरीकिणी नगरीका राजा ४६।२० प्रजापति भगवान् आदिनाथ का गणधर ४३।६३ प्रभञ्जन- एक ४३।१८९ प्रभावती - रतिषेणा कबूतरीका जीव ४६।१४८ राजकुमार आदिपुराणम् प्रभावती सुलोचनाके पूर्वभव के वर्णनमें आनेवाला एक नाम प्रभास व्यन्तर देवोंका अधिपति ३०।१२३ प्रियकारिणी - प्रभावतीकी सखी ४६।१५५ प्रियङ्गुखी विपपुरीके राजा ४५।१५३ प्रियदा- समुद्रदत्त और कुबेरमित्राकी पुत्री प्रियरति - एक नट प्रियसेन - कुबेरकान्तका मित्र ४६।३२ पौरवा- भगवान् वृषभदेव सम्बन्धी एक फ फल्गुमति राजा लोकपालका मन्त्री ४६।५१ ब बल- भगवान् वृषभदेवका गण धर ४३।६५ बाहुबली भगवान् वृषभदेवका पुत्र ३४ ६७ बुद्धिसागर चक्रवर्ती भरतका पुरोहित ३७ १७५ बृहस्पति- मेरुकदत्त सेठका मन्त्री ४६।११३ ब्राह्मी - भगवान् वृषभदेवकी पुत्री ४५।२८८ भ भगदत्त- भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६२ भगदेव ४३।६२ ४३।६२ भगफल्गु 11 भवदेव- मृणालवतीके सेठ सुकेतुका पुत्र ४६।१०४ भद्रमुख चक्रवर्ती भरतका शिलावट ३६।१७७ भद्रवल भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६६ भरत - भरत चक्रवर्ती ३८|४ भरताधीश- भरत चक्रवर्ती ३६।१८६ भरतेश- भरत चक्रवर्ती ३४।३१ मरतेश्वर३४।२२३ भरतेशिन्- ३६।१८८ भीम एक मुनि ४६/२६२ भीमभुज- एक राजकुमार ४३।१९० 11 भुजबली बाहुबली ३४१८८ भुजविक्रमी," ३६०५१ भूतमुख भरत चक्रवर्तीकी ढाल ३७।१६८ भूतार्थ- मेरुकदत्त सेठका मन्त्री ४६।११३ भोगवती अनिलवंग और कान्त वतीकी पुत्री ४७।५० म मघवान् भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६३ मणिनागदत्त - रतिकुल मुनिके पिता ४६।३६३ मदनवती- पिपलाकी सखी ४६।७८ मदनवेगा- एक नटी प्रियरति नटकी पुत्री ४७।१७ मनु- भरत चक्रवर्ती २०१४ मनोरथ - प्रभावती के पिता वायु रथका पुत्र ४६।१७९ मनोवेग - भरत चक्रवर्तीके एक कणप ( शस्त्रविशेष) का नाम ३७।१६६ मनोवेग - एक विद्याधर राजा ४७।१७७ महाकच्छ भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।६५ महाकल्याणक - भरत चक्रवर्तीके भोजनका नाम ३७।१८७ महाकाल महाकाल गुफार्मे रहनेवाला एक व्यन्तरदेव ४७॥ १०४ - महाजय- चक्रवर्तीका पुत्र ४७२८२ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवी - भगवान्की माताका नाम २८।२२५ मित्रफल्गु - भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३६२ महाबलिन् बाहुबलीका पुत्र ३६.१०४ महाबाल- भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६४ महाभागी भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६६ महाबीर महारस महारथ महासती भगवान्को माताका - "" 31 " ४३।६३ ४३।६५ ४३।६३ नाम ३८।२२५ महीधर - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५६ महेन्द्रदत्त - राजा अकम्पनका कंचुकी ४३२७८ महेन्द्र भगवान् उपभदेवका गणधर ४३।५६ मागध - लवण समुद्रका अधिष्ठाता एक व्यतरदेव २८।१२२ मित्राग्नि- भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५६ मित्रयज्ञ - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३ । ६२ मुनिदत्त ४३।६१ मुनियज्ञ४३।६१ मुनिगुप्त भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६१ " मुनिदेव -,, ४३/६१ मेघमुख - एक देव ३२५६ मेघघोषा - एक भेरीका नाम ४४।९३ मेधस्वर- जयकुमारका नाम ४३ । १९० मेघप्रम एक विद्याधर ४४१०८ मेनका इन्द्रकी इन्द्राणी ४६।२५७ दूसरा व्यक्तिवाचक शब्द सूची मेरका एक सेटका नाम ४६| ११२ मेरु- भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५७ मेरुपन- ४३।५७ मेरुभूति-,, ४३/५७ 11 य यशपाल विदेह क्षेत्रकी पुण्ड रोकिणी नगरीका राजा ४७।१९१ यशपाल सुखावतीका ४७।१८८ यशस्वती- राजा प्रजापालकी पुत्री ४६।४५ यशबाहु भगवान्का एक गण बाहुबली धर ४३।५५ योगिराज - मुनि ३६।२०१ पुत्र - र रतिकारिणी - प्रियदत्ताकी चेटी ४६।४२ रतिकूल एक मुनि ४३३६३ रतिपिङ्गल - एक वेश्याभक्त चोर ४६, २७६ रतिवर एक कबूतर ४६।२२ रतिवर्मा - मृणालवतीका एक सेठ ४६ १०४ रतिविमला - शिल्पपुर के राजा नरपतिकी पुत्री ४७२१४५ रतिषेणा - मृणालवती के सेठ श्री दत्तकी पुत्री ४६।१०५ रतिषेणा- अच्युत स्वर्गके प्रतीन्द्र की देवी ४६।३५२ रतिषेणा रतिवर कबूतरकी स्त्री ४६।३० रविप्रभा प्रभावतीकी पुत्री ४६ १८० रविप्रभा प्रभावतीकी पुत्री ४६।१८० रतिवर एक मुनि ४७।२२३ रत्नेश- भरत चक्रवर्ती ३६।१९५ ५३३ रथचरण देति चक्रायुध-चक्रवर्ती २८.२०७ रथवर - एक राजकुमार ४३।१८९ रविकीर्ति भरत चक्रवर्तीका एक पुत्र ४७२८१ रविप्रभ- स्वर्गका देव ४७२६० रविवीयं भरत चक्रवर्तीका पुत्र ४७।२८२ राजप्रभ - हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभका दूसरा नाम ४३।८२ राजराज - भरत चक्रवर्ती ४५।४८ रिपुजय भरत चक्रवर्तीका पुत्र ४७।२८१ ल लक्ष्मीवान् भरत चक्रवर्ती ३८ २० लक्ष्मी - एक देवी ३८।२२६ लक्ष्मीमती- वाराणसीके राजा अकम्पन की पुत्री ४३ | १३५ लक्ष्मीवती जयकुमारको माता ४३।७८ लोकपाल- राजा पुत्र ४६।४८ लोल- एक किसान ४६ । २७८ लोहवाहिनी - भरत चीकी खुरीका नाम ३७।११५ व प्रजापालका वज्र - भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।६४ वज्रकाण्ड- भरत चक्रवर्तीका धनुष ३७।१६१ वज्रकेतु एक पुरुष जिसे लोग दण्ड दे रहे थे ४६।२७३ वज्रतुण्डा - भरत चक्रवर्तीकी शक्तिका नाम ३७।१६३ वज्रमय- भरत चक्रवर्तीके चर्म रत्नका नाम ३७/१७१ वज्रसार भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।६४ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ वज्रायुध- एक राजकुमार ४३१८९ वरतनु - व्यन्तर देवोंका स्वामी २९।१६६ वरकीर्ति विजयपुरका राजा ४७।१४१ वरधर्मगुरु - एक मुनि ४६।७४ वरुण - भगवान् वृषभदेवका गण धर ४३।६३ वर्धमानक- चक्रवर्तीका नाटच गृह ३७।१४९ वरसेन - विमलसेनका पुत्र ४७।११७ वलि - एक राजकुमार ४३ । १८९ वसन्तिका- राजा सुरदेवकी एक दासी ४६ । ३५२ वसु- राजाका साला ४६।३१८ वसुपाल - पुष्कलावती देशपुण्डरीकिणी नगरीका राजा ४६।२८९ वसुपाल श्रीपाल चक्रवर्तीका भाई ४७ ४ वसुपाल राजा पुत्र ४६।३३२ - गुणपालका वसुदेव भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।५६ वसुधारक- चक्रवर्ती भरतका कोटार-संचयगृह ३७।१५२ वसुन्धर - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५६ वसुन्धरा राजा सुरदेवकी स्त्री ४६।३५१ वसुमती- लोकपालकी स्त्री ४६.६२. वसुमित्र - भगवान् वृषभदेवका पुत्र ४३।५९ वसुषेणा- राजा सुरदेवकी स्त्री ४६।३५१. वायुरध- प्रभावतीका पिता ४७।१८५ बायुरथ भोगपुरका एक विद्या -धर राजा ४६।१४७ आदिपुराणम् वायुशर्मा भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५५ वारिषेणा - वसुपालकी ४६।३३२ वासव - एक मनुष्य ४७।१८ विचित्राङ्गद - अकम्पनका मित्र देव ४३ २०४ विजयगुप्त - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५८ विजय-जयकुमारका भाई ४७२८० विजयघोष - चक्रवर्ती भरतके पटह - नगाड़ेका ३७।१८३ विजयपर्वत- भरतका नाम स्त्रो विद्युत्प्रभ चक्रवर्ती कुण्डल २७१५७ विद्युत्प्रभा - गुणपालकी ४७।१८२ हाथी रत्न ३७।१७९ विजयमित्र भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।५९ विजयार्थ- जयकुमारका हाथी ४४।१०२ विजयार्ध - विजयार्ध पर्वतका अधिष्ठाता देव ३१।४२ विजयाधेश विजयार्थ पर्वतका स्वामी देव ३७।१२ विजयार्धकुमार विजयापर्यंत का अधिष्ठाता ३७।१५५ देव विजयिल - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५९ विद्युप्रभ- हस्तिनापुरके राजा सोमप्रभका दूसरा नाम ४३।८४ भरतके ४७।२७ छोटा विशुद्वेग एक चोर ४६।२९० विद्वेगा एक विद्याधरी - स्त्री और विद्युयोर हिरण्यवर्मा प्रभावतीपर उपसर्ग करनेवाला एक चोर ४६ । २४८ विनमि- भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६५ विनमि विद्याधर ३२।१८० विनीत- भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६१ विन्ध्यकेतु राजा विन्ध्यपुरीका निवासी राजा ४५।१५३ विन्ध्यश्री- विन्ध्यपुरीके राजा विन्ध्यकेतु और रानी प्रियङ्गीकी पुत्री ४५।१५४. विपुलमति एक चारण ऋद्धि घारी मुनि ४६।७६ विमलसेना - धान्यपुरके राजा विशालकी पुत्री ४७। १४७ बिमलसेन - एक विद्याधर ४७।११४ विमलश्री मृणालवती नगरीके सेठ श्रीदत्तकी स्त्री ४६।१०५ विमला - राजा सुरदेवकी एक दासी ४६।३५२ विमति - एक पुरुष ४६।२९१ विशाम्पति- चक्रवर्ती भरत २६१८८ विराग - जिनेन्द्रदेवका ३९।१३ विशामीश:- भरत ४१।१९ नाम चक्रवर्ती विशालाक्ष भगवान् वृषभदेव का गणधर ४३।६४ विशाल - धान्यपुरका ४७ १४६ विश्वसेन - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५९ विश्वेश्वर - जगत्के ईश्वर तीर्थ राजा कर ३९।२७ विश्वेश्वरा - भगवान्की माताका नाम ३८।२२५ विश्वसृज् - भगवान् वृषभदेव ३४२२२ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तिवाचक शब्द-सूची विषमोचिका- भरत चक्रवर्तीकी शिव- एक विद्याधर राजा पादुका ३७।१५८ ४७।१७५ वीतशोका- श्रेयस्पुरके राजा शिवंकर महादेवी- जयकुमारकी शिवसेनकी पुत्री ४७।१४३ रानी ४७।२७६ वीतशोका- राजा सुरदेवको शिवंकर-पुण्डरीकिणी पुरीका एक दासी ४६।३५२ एक उद्यान ४६।३४९ वीरअय- भरत चक्रवर्तीका शिवंकरा- सुलोचनाकी सपत्नी पुत्र ४७।२८२ ४६।१० वीराङ्गद- भरत चक्रवर्तीके शिवकुमार- एक राजकुमार हाथके कड़ेका नाम ४७११०० ३७।१८५ शिवसेन- श्रेयस्पुरका राजा वृषभ- भगवान् आदिनाथ ४७।१४२ ३४।२१६ शिवघोष- एक मुनि, जिन्हें वृषमध्वज-प्रथम तीर्थकर सुसीमा नगरमें केवल ज्ञान ४३।१ उत्पन्न हुआ ४६।२५६ वृषभसेन- भगवान् वृषभदेवका शुचिसाल- भगवान् वृषभदेवगणधर ४३१५४ का एक गणधर ४३१६४ वृषभेशिन्- प्रथम तीर्थंकर शीलगुप्त- एक मुनि ४३।८८ ३७१४ शीलगुप्त- , ४६।४८ वैजयन्त- चक्रवर्ती भरतके श्री- एक देवी ३८।२२६ महलका नाम ३७११४७ श्रीदत्त- मृणालवती नगरीका वैश्रवणदत्त- सागरसेन और एक सेठ ४६।१०५ सागरसेनाका पुत्र ४७।१९७ श्रीधर- एक राजा ४४।१०६ वैश्रवणदत्ता- सागरसेन और श्रीधर-श्रीपुरका राजा ४७।१४ सागरसेनाकी पुत्री श्रीपाल- एक मुनि ४६।२१७ ४७।१९७ श्रीपाल- राजा गुणपालका छोटा पुत्र ४६।३४० श्रीपाल- जम्बू द्वीपके पूर्व विदेह शकुनि- मेरुकदत्त सेठका . क्षेत्र सम्बन्धो पुण्डरीकिणी मन्त्री ४६।११३ पुरीका राजा ४७।४. शक्तिषण- शोभानगरके. राजा श्रीमती- सुलोचनाकी सपत्नी प्रजापालका एक सामन्त ४६।१० ४६६९६ श्रीमती- राजा सुरदेक्की एक शची- इन्द्रकी इन्द्राणी ४६।२५७ दासी ४६।३५२ शतधनु- भगवान् वृषभदेवका श्रीमती- श्रीपुरके राजा श्रीधर- एक गणधर ४३१५४ की स्त्री ४७।१४ शातमातुरः- भरत चक्रवर्ती श्रेणिक-राजगृहका राजा, भग- (शतस्य माता शतमाता, वान् महावीर स्वामीका तस्या अपत्यं पुमान् शात प्रधान श्रोता ३८॥३ मातुरः ) ३७।२१ श्रेयान्स-हस्तिनापुरके राजा शशिप्रमा- उशीरवती नगरीके 'सोमप्रभके छोटे भाई, दान- राजा आदित्यगतिकी स्त्री तीर्थके प्रवर्तक ४३१८२ संजयन्त- जयकुमारका छोटा भाई ४७।२८० सत्यगुप्त- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३१६० सत्यदेव- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३१६० सत्यदेव- शोभानगरके शक्तिषेण सामन्तका पुत्र ४६।९६ सत्यमित्र- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।६० सत्यवती- एक स्त्री ४६।३०६ सन्मार्गदेशिन्- जिनेन्द्रका नाम ३९।१३ समाधिगुप्त- एक मुनिराज ४७।१८३ समुद्रदत्त- एक सेठ, कुबेरमित्र की स्त्री धनवतीका भाई . ४६।४१ समुद्रदत्त-एक जुआड़ी४६।२७९ समुद्रदत्त- सागरसेन और देवश्रीका पुत्र ४७।१९६ समुद्रदत्त- प्रियदत्ताका पिता ४७।१८५ सम्राट- भरत चक्रवर्ती ३८।११ संवर- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।६१ सर्वविजय- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।५८ सर्वतोभद्र- चक्रवर्ती भरतके गोपुरका नाम ३७।१४६ सर्वतोभद्र- एक महत्त्वका नाम ४३।२७८ सर्वदेव- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३१५८ सर्ववित्- सर्वज्ञ, जिनेन्द्रका नाम सवा ३९।१३ सर्वयश- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३१५७ सर्वयज्ञ- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३१५७ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ सर्वसमृद्ध पुण्डरीकिणी नगरी का राजा ४७।१९२ सर्वदति - सर्वसमृद्ध वणिक् और पीका पुत्र ४७।१९३ सर्वप्रिय - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५८ सर्वसन्ध - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६३ सर्वगुप्त - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५८ सर्वरक्षित - कोतवालका नाम ४६।३०३ सर्वदयिता सर्वसमृद्ध वणिक् और पनधीकी पुत्री, सर्वद मितकी बहिन ४७।१९३ सर्वदयिता- समुद्रदत्तकी स्त्री ४७ १९८ सागरदत्त - सागरसेन और देवश्रीका पुत्र ४७ १९६ सागरदत्त - एक जुआका खिलाड़ी ४६।२७८ सागरदत्त - वैश्रवणदत्ताका पति ४७।१९८ सागरदत्ता- वैचरणदत्तकी स्त्री ४७/१९९ सागरसेन देवश्रीका पति ४७ १९५ सागरसेना- सागर सेनकी छोटी बहन ४७।१९७ साधुसेन- भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।५९ सायं- जिनेन्द्रका नाम ३९।१३ सिद्धार्थ वाराणसी के राजा अकम्पनका मन्त्री ४३ । १८८ सिन्धु सिन्धु नामकी देवी ७३।१० सिन्धुदेवी - सिन्धु नदीको अधिछात्री देवी ३२७९ सिंहवाहिनी - भरत चक्रवर्तीकी शय्या ३७।१५४ सिंहाटक- भरत चक्रवर्तीके मालेका नाम ३७।१६४ सुकान्त- वाराणसी के राजा अकम्पनका पुत्र ४३।१३४ सुकान्त- हिरण्यवर्माका सेवक ४६।१६४ आदिपुराणम सुकान्त- भरत चक्रवर्तीका पुत्र ४७।२८२ सुकान्त- मृणालवती नगरीके सेठ अशोकदेव और जिनदत्ताका पुत्र ४६।१०६ सुकेतुश्री - वाराणसी के राजा अकम्पनका पुत्र ४३ । १३४ सुकेतु- एक राजा ४४।१०६ सुकेतु- मृणालवतीका एक सेठ ४६।१०४ सुखावती अच्युतस्वर्गके प्रतीन्द्रकी देवी ४६ । ३५४ सुखावती - धरणिकम्प और सुप्रभाकी पुत्री ४७।७४ सुजय भरत चक्रवर्तीका पुत्र ४७।२८२ सुदर्शन- भरत चक्रवर्तीका चक्ररत्न ३७।१६९ सुनमि एक विद्याधर ४४।११२ सुप्रभा - धरणिकम्प विद्याधरकी स्त्री ४७।७३ सुप्रमा- अकम्पनकी स्त्रीसुलोचनाकी माता ४५७ सुभगा अच्युत स्वर्गके प्रतीन्द्र की देवी ४६।३५५ सुभद्रा भरत चक्रीकी पट्टराज्ञी ३२।१८३ सुमति-वाराणसीके अकम्पनका ४३।१९४ एक राजा मन्त्री सुमती सुमित्रा सुलोचनाकी घाव ४३१३७ सुमङ्गला - भगवान्‌की माताका नाम ३८।२२५ सुमुख- अकम्पनका दूत ४५।३४ सुरदेव एक राजा ४६।३५१ सुलोचना - वाराणसीके राजा अकम्पनकी पुत्री ४३०१३५ सुवर्णवर्मा - हिरण्यवर्माका पुत्र ४६।२५२ सुविधि चक्रवर्ती भरतकी छड़ी का नाम ३७ । १४८ सुत्रता- भगवान वृषभदेवकी समवसरण की प्रमुख धाविका सुसीमा अच्युतस्वर्ग के प्रतीन्द्रकी देवी ४६।३५२ सूरदत- भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५५ सूर्यप्रभ - चक्रवर्ती भरतके छत्रका नाम ३७।१५६ सूर्यमित्र - एक राजा ४४ । १०६ सोमदत्त - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।५५ सोमप्रभ हस्तिनापुर के राजा जयकुमारके पिता ४३।७७ सौनन्दक- भरत चक्रवर्तीकी तलवारका नाम ३७ १६७ सौम्य जयकुमार ४३१२० स्वनितवेग अशनिवेगका पिता ४७।२९ स्वयंप्रमा- भोगपुर के राजा वायुरथकी स्त्री ४६।१४८ स्वयंभू - भगवान् वृषभदेवका गणधर ४३।६२ - ह हरिकेतु- भोगवतीका ४७/६२ हरिवर- एक विद्याधर ४७ ९० हलभृत् - भगवान् वृषभदेवका एक गणधर ४३।५६ हिमवदीश - हिमवान् पर्वतका स्वामी देव ३७।१२हिरण्यवर्मा प्रभावतीका पति ४६।१६० नाम हिरण्यवर्मा आदिश्यगति और शशिप्रभाका पुत्र रतिवर कबूतरका जीव ४६१४६ मवत् - हिमवत् पर्वतके हिमवत् कूटपर रहनेवाला एक देव ३२।८९ हेमाद- वाराणसी के राजा अकम्पनका एक पौत्र ४३. १३४ हेमाङ्गदानुजा४६।३४८ ही एक देवी ३८।२२६ सुलोचना Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द-सूची अधित्यका = पर्वतका ऊपरी अकथन = स्वयं अपनी प्रशंसा मैदान ३३।३१ करनेवाला ३५।२३. अधीयान = पढ़ता हुआ। अकामसायक= कामबाण ४७.८० ३९।१०३ अकालचन्द्र = अपमृत्यु ३४।११ अर्धती = अध्ययनकुशल अकृतकस्नेह = वास्तविक प्रेम ३६।१०५ ३५।२१७ अध्यध्वम् = मागमें ३१५ अक्षरपद = अविनाशी पद मोक्ष अनगार = मुनि ३८७ ३४।१९७ अनन्यज = काम ३५।१९२ अक्षरम्लेच्छ = हिंसादिमें प्रवृत्ति अनन्तुकामाः= नमस्कार करनेकरनेवाला ४२।१८४ के अनिच्छुक ३४।२२० अङ्गसाद = शरीरपोड़ा ३६।८७ अनंशुक = किरणरहित, नग्न अग्रेसर - प्रधान ३४।२२३ ३५।१५७ अगोष्पद = जहाँ गायोंका भी अनाविल = निर्दोष ३९।९ प्रवेश असम्भव है - अत्यन्त अनाश्वान् = उपवास करनेवाला निर्जन २७।३३ ३६।१०७ भग्रज = बड़े भाई भरत चक्रवर्ती अनिकेत = निवासरहित मुनि ३६९१ ३४।१७४ अग्रजन्मा = ब्राह्मण ४०।९० अनुदात्तता = निकृष्टता, नीचता अग्निकार्य = होम ३९।१११ ३६१९१ अचेलता = नग्नता ३६।१३३ अनुदन्ति = हाथियों के पीछे अजयूथ = बकरोंका समूह ४४।७९ ४११६८ अनुद्विग्न = उद्वेगरहित अञ्जसा = यथार्थ ३४।१३७ ३४।१८३ अतन्द्रालु = प्रमादरहित ३९।१०० अनुपानत्क = जूतासे रहित अतन्द्रित =आलस्यरहित ३८।१५५ ३९।१९३ अतिकम =दोष - अतिचार अनुशय = पश्चात्ताप ३५॥१९८ ३१११३५ अनूचान = शास्त्रका सांगोपांग अतिगृध्नुता = अत्यासक्ति अध्ययन करनेवाले ३४।२१७ ३५।११० अनेकपेङ्गित = हाथीकी चेष्टा अतितिक्षा = अक्षमा, क्रोध ३४।१२० ४६।३१२ अतिरेकिणी = अधिक ३४।२११ अन्तर = स्थान ३४।१८५ अतिबालिश्य = अतिमूर्खता अन्तर = भेद ३५।११ ४११३२ अन्तःप्रकृतिज = मूलवर्गमें उत्पन्न अद्रीन्द्र = मेरुपर्वत ३७३३२ हुआ ३५।१८ अद्रीश = सुमेरु पर्वत २६।७२ - अन्वीय = अनुकूल ३५।२३ अन्दुतनतुक = बाँधने की साँकल २९।१३७ अन्धतमस = गाढ़ अन्धकार ३५।१७१ अन्यपुष्ट = कोयल ३७.१२० अपक्षपतित = पक्षपातसे रहित ४२१२०० अपराग = द्वेषरहित ३५।२३८ अपदान = पराक्रम ३२१७४ अपध्वान्त = अन्धकारसे रहित ३५।७४ अपचिति = पूजा ४२।२०७ अपवर्ग = मोक्ष ३४॥२१६ अपत्रपा = लज्जा ३६।२०५ अपाय =विघ्न ३४।१९४ अप्रतिष्कश = असहाय-अकेला ३५।६८ अप्रतिशासन =प्रतिद्वन्द्वीसे रहित शासनवाला ३४।१४ अप्सव्य = जलमें होनेवाला २८।१९३ अप्सुज = जलमें उत्पन्न होने वाला मत्स्य २८।१९४ अब्दकाल = वर्षाऋतु ३६।२११ अभिगम्य = आराध्य ३६।२०२ अभिचार किया = मारणक्रिया २६४ अमिसारिका = व्यभिचारके लिए पतिके घर जानेवाली वेश्या ३५।१७० अभ्यग्नि = अग्निके सन्मुख ४४।१८६ अभ्यवकाश = खुला आकाश ३४।१५८ अभवनि = अजन्म २८।१३१ अमिज्ञ = जानकार ३४।३३ अभ्यर्ण = निकट ४११४७ अमत्र = पात्र ३४।१९८ .. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ अमा = साथ ४५।७ अमुत्र = परलोकमे ३४०११० अमोघपाती = अवपाती ३५॥७२ अम्बर = आकाश, वस्त्र ३६।२२ अम्बरमणि सूर्य ३४।१० = अरत्नि = मुट्ठी बंधा हुआ हाथ ३५।१३१ अररीपुट किवाड़ोंकी जोड़ी : = ३१।१२४ भरण्यानी- भयंकर अटवी ३६।८१ = अर्क - सूर्य ३५ १६९ अर्ककान्त सूर्यकान्तमणि = ३४।४२ अलक = केश, आगेके बाल २६६ अलिनी = भ्रमरी ३५।२३५ अल्पदर्क = मोड़े फलवाला ३५।१४४ अवष्टम्भयष्टिका = सहारेको लकडी ३७१४३ अवन्ध्य = अव्यर्थ ३५।८६ अवश्याय बर्फ, ओसकी बूंदे = २७।१०३ अवस्कराशन = विष्टाका भोजन ४६।२८१ = परराष्ट्रचिन्ता अवाय = ४१।१३८ अवारपारीण दोनों पार, तटोंमें होनेवाले २९॥७४ अन्यध्या= पीड़ासे ३४।१५६ अशन = आहार ३४।१९२ अशनीयित = वज्रके ਹਿਰ समान आचरण करनेवाला ३७।१६६ अश्वीय = घोड़ोंका समूह ३६।३ अंशुमत् = सूर्य ३८|१ अशाश्वत = भंगुर, नाशशील 1 ३४।१२१ अशिव = अमांगलिक ३४।१८२ आदिपुराणम् असन सहजनाके वृक्ष २६/५२ असाध्वंस = निर्भय ३४१७९ असंस्कृत = संस्काररहित ३५६३ असिपुत्रिका = छुरी ३७।१६५ असुमति = मूर्ख, दुर्बुद्धि २८।१८२ अस्मदुपज्ञम् = मेरे द्वारा प्रारम्भित ४१।१२ अत्र = आँसू ३५।२३१ अहः = दिन ३५।१५१ अंहस् पाप ४४।६७ = अहिमत्विष् = सूर्य ३५।१६० श्रा = अकम्पन के आकम्पनि : पुत्र हेमांगद आदि ४३ । २३१ आकाशवाराशि= आकाशरूपी समुद्र ३५।१६३ आकालिकी = अस्थिर २९।१०७ आकुलाकुल = अत्यन्त आकुल २८।१२४ आगःपराग = अपराधरूपी धूलि ३५।१२७ = आगाढ = प्रविष्ट ३६।५३ आजि युद्ध ४४।११९ आजीमुख रणाग्रभाग ३७।१६८ आजानेय उच्चजातिके घोड़े = = ३०।१०८ आत्रिक = इसलोक ३८।२७१ आचून बहुत खानेवाला २८।७६ आध्यानमात्रम् = स्मरण करते - ही ३६।६६ आपूर्ति = अकम्पन ३५।१४० आधोरण = हाथी के महावत - सम्बन्धी ४४।२०५ आनन्द = हर्ष ३४/५५ आनाय = जाल ३५।११ आनुषत्रिणी- गौण ४१।११९ आपाटल = कुछ-कुछ गुलाबी = ३७/९० - आप्तीय = आप्त-जिनेन्द्र सम्बन्धी वचन ३९।२ आमिष = मांस ३९।२७ आमुत्रिक = परलोकसम्बन्धी ३८ २७१ आमुष्यायण = प्रसिद्ध पितासे उत्पन्न पुत्र ३९।१०९ आयुरालानक- आयुरूपी सम्भा ३६।८८ = आयुधालय = शस्त्रागार ३७।८५ आयुधः = युद्धपर्यन्त ४५।३ आयति = उत्तरकाल ४१।५४ आयुष्मन् हे चिरंजीव ३५४८८ आरसित = शब्द ३४।१७८ आरट्ट = आरट्ट देश के ३०।१०७ आरेका = शंका ३९/१४३ आर्जुनम् = चाँदीका ३३।९६ आर्षभी = भगवान् सम्बन्धी ३४।२१६ घोडे ऋषभदेव आलष्ट = कुपित ३४।१८६ आलान = हाथी बाँधनेका स्तम्भ २९/१३६ आवर्जित = वशीकृत ३७१८७ आवसथ = स्थान ३४ । १९२ आवान् = आता हुआ २९।१६४ आविष्ट = प्रविष्ट, घुसा हुआ ३५११० आशा = दिशा और अभिलाषा २६।२२ आशितम्भव = सन्तोष, ३४११८ भारत निष्ठिति = तृप्ति शास्त्रकी समाप्ति पर्यन्त ३८।१६१ आशु = शीघ्र ३९ । २१० आसन्नभव्य = निकटभव्य ३९।८२ आसिस्वादयिषु = स्वाद लेनेका इच्छुक ४३।४७ आसेतुहिमाद्रि = लेकर ३७।२०३ सेतुबन्धसे हिमगिरि तक आस्माकी मेरी ३८५ आस्थायिका = सभा ४६।२९९ आहव = युद्ध ३५।१२९ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द-सूची आहार्य - आभूषण३३।१२१ उपनाह = बाँधना ३२।२७, उपशल्यभू = गाँवोंकी निकट- इज्या=पूजा ३८।२४ वर्तिनी भूमि ३५४४० इन = स्वामो ४४।२६५ उपाघ्रि = चरणोंके समीप इभ=हाथी ३५।४३ ३६।१६५ इषुधि = तरकश ३६।१२ उपात्त = स्वीकृत-गृहीत ३८।२१ इष्टि = यज्ञ ३४।२१७ उपालब्ध = उलाहना दिया हुआ इह = इस लोकमें ३९।११३ उपोषित = उपवास करनेवाला ईडा=स्तुति ३६।९५ ३५४१२५ ईडित =स्तुत ४१।२६ उन्मुक = जलती हुई लकड़ी ३४।५५ उड्डमरप्रिय = युद्धके प्रेमी २९।९३ ।। उल्वण = बहुत भारी ३७।१५८ उच्चावच= नानाप्रकारके ३५।२४८ ऊर्जस्वि = बलिष्ठ ३७८७ उत्कता = उत्कण्ठा ३५।१८७ ऊर्जिता = बलिष्ठता २८।१३४ उत्कोच = घूस ४६।२९६ उत्सेक = गर्व ३६।१२९ एकतान = मुख्यरूपसे लगे हुए उत्त्रस्त = खेदखिन्न ४११२ तन्मय ३४।२२१ उदगाह = जलप्रवेश ३७।१२६ एकावली = एक लड़का हार उदच = उत्तर दिशा ३०।९५ ३७।९६ उदन्यन् = प्याससे युक्त होता एणाजिन = मृगचर्म ३९।२८ हुआ ३४।१०७ एनस् = पाप ३५।१५५ उदन्वान् = समुद्र ३५।१८४ एनःप्रकर्षतः = पापको अधिकताउदर्क = फल ३९।१ से ४११५ उद्दात्र = काटनेके लिए हँसिया औ ऊँचा उठाये हुए ३५।३० औक्षक = बैलोंका समूह २९।१६२ उदितोदित = एकसे एक बढ़कर औत्पातिक = उत्पातको सूचित अभ्युदयसे युक्त ४३।१९० करनेवाला ३६।१५ उद्देश = स्थान ४०।१७ औपासिक = उपासकाचार. उद्ध = प्रशस्त ३५।२४४ सम्बन्धी ३९।९५ उद्दिष्ट = अपने उद्देश्यसे निर्मित ३४।१९९ कक्षा = तुलना ३५।१०५ उमस = नाक ऊपर करनेवाला कज = कमल २६३११ ... अहंकारी ३९।१०९ कडगार = बुस (भूसा) २९।१५६ उपक्षेत्रम् = खेतोंके समीप३५।३८ कणिश = बाले २६।१७ उपधि = बाह्य और अभ्यन्तर कणिशमारी-धानकी बालें परिग्रह ३४।१८९ । ३५॥३१ उपघ्न = माश्रयभूत ३०।१७ कदर्यक= कृपण २९।११० उपगूढ = आलिङ्गित ३६।११० कबरी= चोटी ३७।१०७ उपबृंहित = वृद्धिको प्राप्त हुआ कमलावती= लक्ष्मी ३५।४९ ३४|१३० कर = किरण, टैक्स ३५।१५७ करक = ओले ३६।२९ कराल = तीक्ष्ण भयंकर ३६।१६ कर्णजाह = कानोंके पास ३५।२०४ कहि = कब ३५।१४९ कलकण्ठी= कोयल ३७।१२१ कलत्र = स्त्री ३४।११९ कलम = हाथीके बच्चे ३६।१६८ कलम = धान ३५।३२। कलधौतमय = स्वर्णनिर्मित ४३।२६१ कल्पाधिप = इन्द्र ३९।१५ कादम्बजाया = कलहंसी २६६१० काञ्चीस्थान = नितम्ब ४३।१४३ कामरूपविधायिनी = मनचाहा रूप बना देनेवाली ४६।३१७ कामितसंसिद्धि = कार इष्टसिद्धि ३४।२१६ कामिनीकलकाशी = स्त्रियोंकी सुन्दर मेखलाएँ ३५।२०३ काम्बोज = काबुली घोड़े ३०।१०७ कायमान% कुटियोंके प्रकार २७।१३२ काहल = अस्फुट वचन बोलने___ वाले २७।२१ किमीय=किसका २८।१४३ किल्क = केसर २६।११ किलासिन : कुष्ठी ३३।२२ कुट्टिमभूतल =फर्स २६।९ कुक्षिवास = जहाँ रत्नोंका व्यापार होता है ३७१७० कुटिब-हलमें लगी हुई बीज बोनेकी नलो ३७।६८ कुण्ड= टेढ़ी अंगुलीवाला ४७११३८ कुण्डोधी=कुण्डके समान बड़े बड़े थनवाली गायें २६।४६ कुतप= मकानकी देहरी २९४५७ कुन्त = भाला ३७।१६४ कुन्जक= अन्तःपुरमें रहनेवाले बौने मनुष्य ३७।१४१ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् क्षेपीयस = अत्यन्त शीघ्र ४१।१७ क्षेम = प्राप्त हुई वस्तुको रक्षा करना २९।२८ क्षोदीयान् = अत्यन्त क्षुद्र ३४।३४ क्ष्मा = भूमि ३४१७६ क्ष्माज = वृक्ष ३५।१५३ क्ष्माध्र = पर्वत ३७।१६६ क्षमात्राण = पृथिवी रक्षा ३७।८३ गृहकोकिल = छिपकूलो ४६।३३८ गोगृष्टि = पहली बार बियानी हुई गाय २६।४६ गोत्रस्खलन = स्त्रीके सामने हृदयमें बसी हुई दूसरी स्त्रीका नाम उच्चरित होना ४६७ गोमतल्लिका = श्रेष्ठ गायें २६।४५ गाममृग = कुत्ता ३५।१२१ घनस्तनित = मेघगर्जना ३७।१३१ घस्मर = विनाशक ४४।१०६ कुपतित्व = भूपतिपना, खोटा राजपना ३०।१० कुमार =बालक ४५।४२ कुलाल = कुम्हार ३५।१२६ कुल्या = नहर ३५।४० कुवलय = पृथ्वीमण्डल, नील कमल ४३ ७७ कुसुमतु = वसन्त २७१४३ कुसुमवाण = कामदेव २७।१९ कूजित = पक्षियोंका कलरव २६.१५ कृतक्षण = कृतोत्साह ४१।१३९ कृतंकृतं = व्यर्थ-व्यर्थ ३६६७ कृतवेदी = कृतज्ञ ४३।११७ कृतसङ्गर=कृतप्रतिज्ञ ४३।५३ कृतानुबन्धन = जिनसे आग्रह किया गया ३८।१५ कृतान्तवाक = यमवचन ३९।२२ कृत्स्ना = सम्पूर्ण ४२।२०८ केतन = गृह ४७।२०७ केतुमालाकुल = पताकाओंके समूहसे व्याप्त ४११८४ करल = केरल देश के लोग २९।९४ केवलार्क = केवलज्ञान रूपी सूर्य ४११९ कोक = चकवा ३५।२३० कोककान्ता = चकवी ३५।२२३ कोटी = अग्रभाग, चरम सीमा ३०११३० कोश = म्यान ४७।१३५ कौशेयक = तलवार ३६।११ कौबेरी = उत्तर दिशा ३१४१ कौशिक = उल्लू ४११३७ क्रमज्ञ = क्रमको जाननेवाला खग = बाण ४४।१२१ . खग=विद्याधर ४७।२१ खण्डिता = वियोगिनी स्त्री, जिसका पति संकेत देकर भी न आवे ३५।१९३ खरघृणि = सूर्य ३६।२११ खरांशु = सूर्य २७१९३ खलकल्पाः = दुर्जनके समान ४४।११८ खेचर = विद्याधर ४६।३१७ ग गजता हाथियोंका समूह ३०।४८ गजप्रवेक = श्रेष्ठ हाथी ३०।१०५ गन्धर्व = व्यन्तर देवोंका एक __भेद ४१।२६ गरुडयावसच्छवि = नीलमणि के समान वर्णवाला ३६।४९ निवृति = शारीरिक सुख ३७।१२७ गान्धार = कान्धारके घोड़े चक्र = चक्रवर्तीका एक अजीव रत्न ३७४८४ चक्राह्व% चकवा २७।२८ चक्रोद्योत = चक्ररत्नका प्रकाश ३६।२३ चक्षुःश्रवस = साँप ३६।१७६ चञ्चापुरुष = तृणका बना पुरुष २८।१३० चण्डमरुत्-तेजवायु • आँधी ३०११०७ चतुष्क = चौराहा २६।३ चतुरस्रं = समचतुरस्रसंस्थानसे युक्त मनोज्ञ ३७।२८ चमरिरुह = चमर ३५।२४४ चरमाङ्गधर- तद्भवमोक्षगामी ३६॥३९ चर्याशुद्धि-चारित्रकी शुद्धता ३४।१३५ चातुरन्त-चतुर्दिगन्त ३५।११२ चातुरन्त = सब दिशाओंका स्वामी चक्रवर्ती २८१८५ चामीकर = स्वर्ण ३६५० चारभट = शूरवीर ३११६५ चारचक्षुः = गुप्तचररूपी नेत्रसे युक्त ४५।४१ चित्तज = काम ४५।८७ चित्तजन्मन् = काम ३७।४२ चुन्चुक = प्रतीत-प्रसिद्ध २९।९४ गुणग्राम = गुणोंका समूह ३५।५० गुप्ति = रक्षा ३६।११७ गुरु = पिता, भगवान् वृषभदेव ३६।१०४ गुरु = पिता ३८।१३७ गुरुकल्प = पितृतुल्य ३४।८१ गुर्वनुगृह = गुरुकी कृपा ३९।६५ गुल्फदन = घुटने प्रमाण ३३१७१ गृध्नु = लोभो ३५।१३३ ऋयक्रीत = मूल्य देकर खरीदा हुआ ३४।१९९ क्रमाब्ज= चरणकमल ३५१२४५ क्लम = खेद ३४।११७ क्षत्रिय = एक वर्ण ३८।४६ क्षीरस्यत् = दूधकी इच्छा रखने वाला २६।४८ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द-सूची लोग चोलिक = चोलदेशके २९।९४ ५४१ स्वच्यम् = त्वचापर काम देने वाली ३५।१४ सरु = तलवार आदिको मठ तके= कुत्सिता : ते तके ३४।६३ तदातना = तत्कालसम्बन्धी २९।१०७ तनुत्राण = कवच ३७।१५९ तनुभूषा = शरीररूपी साँचा ३४।२१२ तनुभृत = कृश ३४।२०८ तनुत्रक= कवच ३६।१४ तन्त्र = स्वराष्ट्र चिन्ता ४१।१३७ तन्त्रभूयस्त्व = सेनाकी अधिकता ३६।३० तपस्तनूनपात् = तपरूपी अग्नि ३६।११३ तपात्यय = वर्षा ऋतु ३७१३१ तमिस्रा = अँधेरी रात ३४।१८४ तमामुख = रात्रिका प्रारम्भ त्विष = कान्ति ३८? त्रिक = नितम्ब ३८।३२ त्रिपथगा = गङ्गा ३७।२५ त्रिदिवौकस =देव ३५।६९ विधात्मक युद्ध = १ दृष्टियुद्ध, २ जलयुद्ध, ३ मल्लयुद्ध ३६।४२ त्रियामा=रात्रि ३४११६० जगदजगदगार = लोक और ___ अलोकरूपी भवन ३५।२४० जडप्रिय = मोंके प्यारे, (पक्ष में जलप्रिय, जिन्हें जल प्रिय है ) २६।१९ जयसाधन = विजयी सेना ३५१७५ जयाङ्ग = विजयका साधन ३६।३० जलवाहिन् = मेघ ३४।१५६ जलार्दा = पंख ३५।१९३ जातकर्म = जन्मसंस्कार . २६॥४ जातरूप = नग्नमुद्रा ३९१७८ जातरूप = सुवर्ण ४५।१७२ जाति = जन्म ४६।३३५ जात्यश्व = उच्च जातिके घोड़े ३०।१०५ जलाशय = जलका आधार, जड़बुद्धिवाला २८।१७२ जलोत्पीड = जलका समूह २८।११० जिस्वरी =जीतनेवाली ३७।६१ जिनवृष = जिनेन्द्र ३४।२२३ । जिनार्चा=जिनप्रतिमा ३८.७१ जिनास्थानभूमि = समवसरण भूमि ४१।१८ जिष्णु = विजयी ३६।५४ जीमूतदन्तिन् = मेघरूपी हाथी तमोऽवगुण्ठिता = अन्धकार समूह से आच्छादित ३५।१७० तरणि = सूर्य २७।१०० तरणाङ्गोपीविन = नाव चला कर ६।५७ तके = कुत्सित आजीविका करने वाला ३५।१८० तलवर = कोतवाल ४६।३०४ ।। तारकित = ताराओंसे व्याप्त २६।२६ तितिक्षा = क्षमा ३६।१२९ तिग्मांशु = सूर्य ३५।१५२ तिरीट = मकुट २८।१५८ तिमिरकरिन् = अन्धकाररूपी हाथी ३५।२३२ तुज = पुत्र ४५।६७ तुरुष्क = तुर्की घोड़े ३०।१०६ तेजः=भामण्डल ३५।२४४ तैतिल = तैतिल देशके घोड़े ३०।१०७ तोक = पुत्र ४५।६७ त्वदुपकमम् = तुम्हारे-द्वारा प्रब तित ३४।३४ दक्षिणापरदिग्भाग = नैऋत्य दिशा ३०११ दण्ड =दण्डरत्न अथवा सेना ३५।१२६ दरी = पर्वतको गुफा ३४।१८६ दरोद्भिन्न = कुछ-कुछ प्रकट ३७१५१ दर्भशय्या = कुशाकी शय्या ३५।१२५ दशनच्छद = ओठ ३५।२१४ दाक्षिणात्य = दक्षिणदिशा सम्बन्धी २९७७ दानव = भवनबासी देव ४१।२६ दिगिभवदन = दिग्गजका मुख ३५।२३४ दिधक्षु = जलानेका इच्छुक ४४।११ दिविजनाथ = इन्द्र ३५।२३८ दुष्कलत्रवत् = खोटी स्त्रीके समान ३६७१ दुःश्रुति = खोटे शास्त्र ४११४९ दीक्षा = व्रत धारण करना ३९।३ दुरारोह = जिनपर चढ़ना कठिन है ऐसे पर्वत २९।७२ दुरापा = दुष्प्राप्य ३४।१६८ दुर्ललित = गवित मस्त ३४।१०४ दूना = दुःखी होती , हुई ३५।१९० जीवकाय = जीवोंका समूह ३४।१९४ जुहूषति = बुलाना चाहता है ३४।१०३ जैत्र = विजयी ३४॥३७ ज्यायस = अत्यन्त श्रेष्ठ ३०४।१२४ हुण्डम = पनया साँप ३५।११३ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराणम् दृष्यकुटी = कपड़ेका तम्बू ३७।१५३ दूष्यशाला = कपड़ेकी चाँदनी २७।२४ दृढसंगर = दृढ़प्रतिज्ञ ३४।२०८ दृब्बा = गूंथी हुई ३७३१४१ देव = स्वर्गके निवासी देव ४११२६ देवदत्त = विचित्राङ्गद नामक देवके द्वारा किया हुआ ४३।२७८ देवभूय = देवत्व ३९।१०८ देशसन्धि = दो देशोंके मिलनेको सीमाएँ ३५।२७ दोर्यात = भुजाओंका आघात ३६७९ दोर्दण्ड = भुजदण्ड २९।९५ दैवज्ञान = ज्योतिष शास्त्र ४१।१४८ द्वैप्य = द्वीपोंमें होनेवाले २९।७४ द्वैराजदुःस्थिता = दो राजाओंके राज्यसे । व्यवस्थाहीन ३४।४७ द्रोणामुख = बन्दरगाह ३७।६२ द्वन्द्व परीषह ३६।११६ द्विजन्मन् = द्विज ३८१४९ द्विजिह्वता= दुष्टता, कुटिलता ३४।८८ द्विषच्चक्र = शत्रुओंका समूह ३६।६५ द्विषड् = बारह २८।११५ द्विरद = हाथी ३५।११५ धुसद् = देव ३५।७० धुमणि = सूर्य २९।१०८ ध धनाया = तृष्णा ३६।७८ धनोन्छनचुम्वुता=धन इकट्ठा करनेको तत्परता ३५।१२२ ६न्वन् = धनुष धारण करनेवाले . .. २७१११ धव = पति ४३।९८ धर्मसर्ग = धर्मसृष्टि ४१।३२ धा = धर्मयुक्त ३४।१४० निगलस्य = बेड़ीमें पड़ा हुआ धात्रीकल्प =धायके समान ४२१७६ ४३।३३ निघ्नता = अधीनता ३७११४२ धारित = धैर्य-भरे वचन ३६।२१ निचुल =वेतका वृक्ष २७:४६ धुर्य = धुरन्धर ४३३८५ नितम्बिनी=स्त्री ३५।१९४ धूर्गत = महावत ३६।१० निधन =मृत्यु २८।१३४ धूमध्वज = अग्नि ४४।१० निधुवन = मैथुन ३५।२१८ धृतिप्रावार = धैर्यरूपो ओढ़नी निध्यान = अवलोकन ४१।६८ ३४।१५७ निनृत्सु = नृत्यके इच्छुक तिसंवर्मित = धैर्यरूपी कवचसे ३६।१७४ युक्त ३४।१५९ नियति =देव, भाग्य ३५।१६७ धेनुका = हथिनी २९।१५६ नियाम =नियम ४५।६ धेनुष्या = बँधानमें दो हुई गायें। नियुद्ध = बाहुयुद्ध, कुश्ती ३६।४५ २६१४८ निरारेका = सन्देहरहित ३०।२३ धौरित = घोड़ोंको एक ल । निरूढ = प्रसिद्ध ३७।२६ घोड़ोंकी चालको धारा निर्वात = वज्र २६७७ कहते हैं। इसके पाँच भेद निर्वात - निर्घोष = वज्रपातका हैं - आस्कान्दित, २ धौरि शब्द २८।१२२ निर्मल = निरतिचार (निमम = तक, ३ रेचित, ४ वल्गित और प्लुत । ३११ ममतारहित) ३४।१७१ निर्मूच्छ = मोहरहित ३४।१७३ धौरेय = श्रेष्ठ ३८८ निर्वाणक्षेत्र = मुक्तिस्थान ४०।८९ ध्याति = ध्यान ४५।४ निर्विष्ट = उपभुक्त ३७।१९ ध्वाडक्ष = कौए ४११३७ निवृति = सुख ३७।१४ निवर्तित = पूर्ण-समाप्त ३७११ नद्धा=बँधी हुई २६८ निर्णिक्त = प्रक्षालित ३७।१२६ नन्दथु =आनन्द ३५।२ निविष्ट = बैठे हुए ४२११ नभोग = विद्याधर ३५।७३ निःश्रेयस = मोक्ष ३९।१ नर्मदा = क्रीड़ा देनेवाली ३०1८५ निशात = तीक्ष्ण ३६।११ नवग्रह = नया पकड़ा हआ निषधाद्रि ( भौ) = निषध २९।१२२ कुलाचल ३३।८० नवोढा = नयी विवाहित ४४/२०७ निष्प्रवाणी-नवीन शास्त्र, नागमिथुन = नाग-नागीका जोड़ा अभी हाल यन्त्रसे उतारे। ४३।९० हुए २६।५४ नाथवंश = वाराणसीके राजा निष्टा=पूर्णता ४२।१०७ अकम्पनका वंश ४४।३७ । निसर्गसुभग = स्वभावसे सुन्दर नापत्य = राज्य ( नृपतेः कार्य ३७५२९ नापत्यम् ) ४३१८६ निसृष्टार्थ = राजदूत ४३।२०२ नालिकं = सत्य ३५।१९६ नीरेक = निःसन्देह ३५।१३८ निकार=तिरस्कार ४६।३१६ नोतुचुन्चुत्व = नोतिनिपुणता निगम = गांव २६।१३४ . ३५।१२ . निगल = बेड़ी ४२१७६ नृपशु = नीच मनुष्य ३५।११४ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द-सूची नृपशार्दूल = श्रेष्ठ राजा ३७।२ नैदाधी = ग्रीष्म ऋतुसम्बन्धी ३७१३० नैष्किञ्चन्य = निष्परिग्रहता ३४।१८९ नैश = रात्रिसम्बन्धी ३५।१५७ नैःश्रेयसी = मोक्षसम्बन्धिनी ३९।२ नैस्त्रिंशिक=तलवार धारण करनेवाले २७।१११ पङ्क = पाप और कीचड़ २६१२२ पञ्चसमाः=पाँच वर्ष तक ४६।९९ पञ्चाह = पाँच दिन ३४।१७५ पटविद्या = गारुड़ी विद्या, जिससे विषका वेग दूर होता है ३८।२ पटु = चतुर ३५१७ पतत् = पक्षी ३५।२३३ पताकिनी = सेना २६।१४० पत्रिन् = बाण २८।१२१ पद्माकर = तालाब ३५।२२३ पयस्विनी = गायें २६।४८ परासु = मृत ४४।१३२ परिगत = व्याप्त ३५।२३५ परिच्छित्ति = समाप्ति-विनाश ३५।१५१ परिणीति=विवाह ४४।५५ परिफल्गु = अत्यन्त निःसार ३५।१२१ परिभूति = तिरस्कार ३४।११२ परिमा =प्रमाण २८।१७३ परिष्कृत = घिरा हुआ २६१८९ परिष्वक्त = आलिङ्गित ३६।१०५ पलित - वृद्धावस्थाके कारण प्रकट हुई बालोंकी सफेदी ३६१८४ पल्वल =स्वल्प जलाशय ३३१४९ पाकसत्त्व =सिंह आदि दुष्ट जन्तु ३३१५४ पाञ्चनद = पंजाबके ३०।९८ पाटल = गुलाब ३७.९० पाणिगृहीती = कन्या ३४।१२७ पण्ड्य = पाड्य देशके लोग २९.९५ पादात = पैदल सैनिकोंका समूह ३२।२ पाय = पैर धोनेका पानी २७।१ पारिपन्थिक = शत्रु ४६।२०५ पार्थिव = वृक्ष, राजा ३४।४३ पार्थिव =घड़ा, राजा ३५।१२६ पार्थिव = राजा, वृक्ष २९।१०५ पिण्डीखण्ड = खलीका टुकड़ा ३५।१११ पिशितोच्चय = मांसका पिण्ड ४७।४४ पीथ = दूधसहित मक्खन २७।२६ पीनापीनाः -- स्थूल थनोंवाली गायें २६।४७ पुत्रकल्प = पुत्रतुल्य ३४।१९१ पुत्रविटपाटोप = पुत्ररूपी शाखाओंके विस्तारसे युक्त ४३।८३ पुराविद् = पूर्व व्यवहारके ज्ञाता ४३३१८८ पुरुषव्रत = पौरुष ३७।२६ पुरुषोत्तम = नारायण, श्रेष्ठ पुरुष ४३।३५ पुरुदंशस = मार्जार ४६।१४४ पुरुधी = अत्यन्त बुद्धिमान् ३७।१७५ पुष्कर = कमल ३६।१७० पुष्करोदस्त = सूंडके अग्रभागसे __ उठाये हुए ३६।१७० पुष्पबाण = काम ३७।१०६ पुष्पधन्वन् = काम ३७१४६ पूगीकृत = राशीकृत ३५।४२ पौरस्त्य = पुरुषसम्बन्धी २९१७७ पौंस्न = पुरुषसम्बन्धी २८।१३० प्रकीर्णकवात = चमरोंका समूह ३८।२५५ ५४३ प्रगेतनमारुत = प्रातःकालकी वायु ३५।२३६ प्रग्रह = रस्सी २८।१०५ प्रणय = स्नेह ३५।१०६ प्रणिधानपरायण = एकाग्रतामें तत्पर ४२११३१ प्रणिधि=दूत ३४।२२३ प्रणीत अग्नि =संस्कार की हुई ___ अग्नि ३४।२१५ प्रणेय = संस्कार करने योग्य ४०१८२ प्रतिभू = जामिनदार ४२११७३ प्रतिच्छन्द = प्रतिबिम्ब, प्रति___ निधि ४१११४६ प्रतिष्कस = सहायक ३४।४३ प्रतिवृष = प्रतिद्वन्द्वो बैल २६।४२ प्रतिसूर्य = दूसरा सूर्य ३४।१० प्रतीची = पश्चिम दिशा ३०१९५ प्रतीच्य = पश्चिमके राजा ३०१११२ प्रतीक्ष्य = पूज्य २८।१५५ प्रतीक्ष्यता = पूज्यता ४५।६५ प्रतीयता = प्रतिकूलता ३५।३ प्रतोली = गोपुर, नगरका प्रधान द्वार २६६८३ प्रत्यग = नवीन २६।८६ प्रत्यगसंगम = नवीन समागम ३७।५५ प्रत्यगखण्डिता=नयी विरहिणी ३५।२०२ प्रत्यनीक = शत्रु ३५।१४६ प्रत्याय्य = जतलाकर ४५।११२ प्रत्यासन्ननिष्ट = निकट कालमें मोक्ष जानेवाला ३९।८१ प्रत्यय = कारण ४५।११२ प्रत्यर्कम् =सूर्यके सम्मुख ३४।४२ प्रत्युद्यात = अगवानी किया हुआ ३५।२२९ प्रत्याय्याः = विश्वास दिलानेके योग्य ३४।८४ प्रत्याख्येयत्व = प्रत्याख्यान-तिर स्कार ३५।१३३ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ प्रत्येय = विश्वास योग्य ३५।१२४ प्रथन = युद्ध २८।१३४ प्रमास = प्रकृष्ट कान्तिसे युक्त ३०।१२३ प्रभूत = बहुत भारी ४१७१ प्रमथ = भूत ४१।३७ प्रयुरस युद्ध इच्छा ३६।३७ प्रवयस् = वृद्ध २७।१२० प्रवालवन = मूंगे का प्रशेमुषी = प्राच्य = दिलानेके ३५।२३४ शान्त होती हुई २८।१५४ प्रश्रय : विनय ३५।१०६ प्रभवी विनवी ३५४७ प्रष्ट = = श्रेष्ठ ४३।३८ प्रस्थ = शिखर ३५।१५३ प्रसह्य = हठपूर्वक जबरदस्ती ३५।१७२ प्रह्नता = नम्रता ३४।२२३ प्राकृत = साधारण पुरुष ४३।४५ प्राक्तनी = पूर्वभव सम्बन्धिनी ३६।१८८ पूर्वदिशाके करने की = वन राजा ३०।११२ प्राजितृ = सारथि २८|१०४ प्राज्य = श्रेष्ठ ३६ । २०४ प्राशबुद्धिमान् ३५॥७ प्रातिकूल्य प्रतिकूलता ३५०५ प्रातोप्य शत्रुता २८।१४९ प्राकृत्य बन्धनमें डालकर = ३५।७० प्राबोधिक = जगानेके कार्यमें नियुक्त चारण ३५।२२६ प्रारोहित = अंकुरित २९।१३५ प्रावृषेण्य = = वर्षाऋतु-सम्बन्धी ३२।६९ प्रांशुऊंचे ३६।५५ प्रासुक= जोवरहित ३८।१५ प्रासिक भाले धारण करने वाला. २७।१११ आदिपुराणम् प्रेपस्कर पतिका हाव फ फालिनीफलमनी के = २८ ३९ फल ब बद्धकक्ष = तत्पर ३४।१४५ बन्ध = बन्धन ३६।९७ यन्धूक = लाल रंगके पुण्यविशेष जिन्हें दुपहरिया के फूल कहते हैं । २६।२१ बलपरिवृढ = सेनापति ३५।२४९ बलाम्भोधि = सेनारूपी समुद्र ३५॥१ बाणासन = पुष्पविशेष जिन्हें झिण्टि कहते हैं २६।२४ बाणासन = धनुष ३६।२४ बालार्क = प्रातः कालका सूर्य ३५।२३५ = बालिश मूर्ख ४६।१९२ बाल्हीक = बाल्हीक देशके घोड़े ३०|१०७ बाह्यालिकास्थल = खेलका मैदान ३७/४७ वृंहित हाथियोंकी = चिग्धाड़ ३४।१८५ = आत्मतेज ३९।१०१ ब्रह्मसूत्र = जनेऊ २६/६३ ब्राह्मण = एक वर्ण ३८ ४६ भ भग्नरद = जिसका दाँत टूट गया है ३५।११५ भटब्रुव = मटव अपनेको मूठ-मूठ योद्धा कहनेवाला २८।१३१ भवदेव पर भवदेवके जीव ( भूतपूर्वो भवदेवो भवदेवचरः ) ४६ । १४४ भर्मकुम्भ: = स्वणकलश ४३।२१० भास्वत् = सूर्य ३५।२३३ भिदा = भेद ३५।११५ भूध = पर्वत ३६।२१० भूभृत् = पर्वत, राजा ३५।१५७ भूति = सम्पत्ति ३५।११४ भृगुपात = पर्वतोंके ऊपरी भागसे नीचे गिरकर मरना ३०/७० भेरुण्ड = एक पक्षी ४७।४४ भोग = साँपका फन ३६ । १०८ भोगिन् ३६०१७१ भ्रातृजाया = भाईकी ३५।१३४ भ्रातृमाण्ड = भाईरूप मूलधन ३४।५९ स्त्री म मकरकेतन = कामदेव ३५।१८४ मकरालय = समुद्र ३५/६८ मगधावास = मगध नामक देव का निवासस्थान ३५/७१ मधु = वसन्त ऋतु ३७।१२० मधुकरव्रज = भ्रमरसमूह २६।६ मन्त्रविद्याचण = मन्त्रविद्या के प्रसिद्ध विद्वान् ३५।१० मन्दसान = हंस २६।१८ मनोभू काम ३५१८६ मन्दाक्रान्ता = मन्द गमन करने. बाली २८।१९२ = = मन्दुरा = घुड़साल २९।१११ मन्यु क्रोध ३५।१९२ महानक = बड़े-बड़े नगाड़े ३७।७ महापितृवन = महाश्मशान ३४।१८२ : = महाभिजन महाकुल ४२३७ | महाहव = महायुद्ध ३७।१५९ महास्थान = सभामण्डप ४१।१५ महीक्षित् = = राजा ३७।३२ महीयस् अत्यन्त महान् = १४।२१८ मागधायितम् = स्तुति पाठकोंके समान आचरण किया २९।३९ मातृकल्प = माताके समान ३४।१९१ माधवी = वसन्त ऋतु सम्बन्धो २०४६ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधवी = एक लता-मधुकामिनी २७.४७ मुखोन्मुखी=मुखके सम्मुख ३७१०५ मृगेन्द्रासन = सिंहासन २१११५८ मैथुन - साला ४६।३१७ मौजी = {जकी रस्सीसे बनी हुई मेखला ३८।१०४ विशिष्ट शब्द-सूची राजन्वती = उत्तम राजासे युक्त भूमि ३४।४७ राजीवास्य = कमलके समान मुखवाले २८।१८७ . राजेव = चन्द्रमाके समान ४४।३८ रोगाखु = रोगरूपी चूहे ३६६८९ का का अन्तराल ३६।१ रैराशि = धनकी राशि ३१६६२ लघु = शीघ्र ३४।३४ लघीयान् = अत्यन्त छोटा ३४।२४ लाट = लाट देशके राजा ३०१९७ लाला = लार ३५।४३ लालाटिक = सेवक ४३।१५७ लुब्धक = शिकारी ३७४१३४ यवीयान = अतिशय युवा ३४।४४ यवीयान् = छोटे भाई बाहुबली ३६।५२ यष्टव्याः = पूजा करने योग्य ४१।१३ याचित्रिम = याचनासे प्राप्त ३६।१२२ यादस् = जलजन्तु ३६।७९ यादसां पतिः= समुद्र ३६४७९ याममात्र = प्रहरमात्र ४२११७४ याष्टीक = यष्टि-लकड़ी धारण करनेवाले २७।१११ युग्य = वाहन ३५।२१ योग = ध्यान ३८।१७९ योग = अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करना ३७११७ योगसिद्धि = ध्यानसिद्धि ३६।१५८ योगज = तपके प्रभावसे होने वाली ३६।१४४ वनीपकानीक= याचकसमूह ४५।१३७ वन्दारु= वन्दना करनेवाले ४२१२०७ वप्रभूमि = खेतकी भूमि २६।१४ वरना=चमड़ेकी मजबूत रस्सी ३५।१४९ वरिष्ट = अत्यन्त श्रेष्ठ ४४।३२ वरासेंहा = उत्तम नितम्बवाली स्त्री ३७।९२ वरूथ = रथ ३३।९ वर्क = तरुण हाथी २९।१५३ वर्ष = क्षेत्र ३८०४ वर्मन् = शरीर ३५।५२ वसुवाहन = धन, सवारी ३८१८ वागुरा = जाल ३७।४८ वाग्देवी सरस्वती ३५।४९ वाचंयम= मौनी ३८।१६२ वाचंयमत्व = मौनव्रत ३४।२०५ वाचिक = सन्देश ३४१८४ वाजि = घोड़ा ३५।४३ वात्सक = बछड़ोंका समूह २६।१११ वापेय = वापी देशके घोड़े ३०।१०७ वामी = घोड़ी ३०।१०१ वायुवीथ्यनुगामिन् = वायुके मार्गका अनुसरण करनेवाले, निष्परिग्रह ३४।१९० वारुणी = मदिरा, पश्चिम दिशा ३५।१५५ वारी = हाथी बांधनेका स्थान २९।१२२ वार्षिकी = वर्षाकालसम्बन्धी ___ ३४।१५६ वास्तु = घर २८१५१ विकर्षितम् = कम नहीं हुआ ३७।१५ विक्रया= विकार ३५१७ विगाढ = प्रविष्ट ३१३१४५ विग्रह = शरीर२६.६ विग्रह = युद्ध ३५।२३ वचोहर = दूत ३५।१३८ वञ्चनाचुन्चु - प्रतारणापटु, ठगनेमें होशयार ४६१८ वज्रसार = वज्रके समान स्थिर ३५।५२ वज्रिजय = इन्द्र विजय ३७।१६३ वणिज = वैश्य ३८।४६ वत्सरानशन = एक वर्षका उपवास ३६।१८५ वत्स्ययुग = आगामी - पञ्चम - काल ४११५३ वदान्यकुल = दानियोंका समूह २६।१२ वनधिसरोवर २८०२२ वनमातङ्ग = जंगली ३४।१८६ वनक्ष्माज = वनके वृक्ष ३६।१२ वनसामज जंगली हाथी ३०।६३ वनजेक्षणा - कमललोचना ४७११४३ रजःसन्तमस =धूलिरूपी गाढ़ अन्धकार ३६२३ रथकट्या = रथोंका समूह ३६।४ रथाङ्ग = चकवा ३५।१६८ रथ्या = रथ चलने योग्य चौड़ी सड़क २६॥३ रद = दांत ३७४२३ रंहस् = वेग ३७।२४ राजवती% कुत्सित राजाओंसे युक्त भूमि ३४।४७ ७४ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ आदिपुराणम् विचक्षण = बुद्धिमान् ३४।१९७ विजाति पक्षियोंकी जाति, नीच जाति ३०७२ - वितृड् (वितृषु )= प्याससे रहित २७८ वित्रस्त = भयभीत २९।१६१ विदाम्बर = विद्वानोंपें श्रेष्ठ ३४।१४३ विद्याधर = विजयाई पर्वतके निवासी विद्याओंसे सुशो भित मनुष्य ४११२६ विद्रुम = मूंगा ३५।१६३ विधु= चन्द्रमा ३५।१७५ विधूय = कम्पित करके ३५।२३० विधेयता= आज्ञाकारिता, __ अधीनता ३५।७३ विनियोग = कार्य ४०1८६ विनिपात = वाधा ३६।१७९ विनियन्त्रण = निरंकुश ३६।२५ विनीलवसना = नीले वस्त्र धारण करनेवाली ३५।१७० विपाश = बन्धनसे मुक्त ४२१७८ विप्रकृष्ट = दूरवर्ती पदार्थ ४२११६ विप्रतिपत्ति = सन्देह ४११४१ विभावरी = रात्रि ३५।२१२ विमलाम्बरा = निर्मल वस्त्रवाली, निर्मल आकाशवाली २६।५ विमानता = तिरस्कार ३४।२०४ विरूपक= विरुद्ध-कष्टकारी ३६।२७ विरूपा = अमूर्ता, कुरूपा ३५।२४१ विलक्षता=आश्चर्य ३६१६३ विलक्ष्यता = लज्जा, आश्चर्य ३३.५९ विवस्वत् = सूर्य ३५।१६२ विवृत्सु = जमीनपर लोटनेका इच्छुक २९।११२ विशरारु = नश्वर ४६।१७७ विशङ्कट = विशाल ३१।१४ विशाप = जिसका शाप नष्ट हो व्याघ्र धेनुका = नवप्रसूता व्याघ्री चुका है ३५।२३३ ३६।१६६ विशिखावलीबाण पङ्क्ति व्यात्तास्य = जिसने मुख खोल ४४।१२३ रखा है २८।१८० विश्वविन्मत = सर्वज्ञमत व्यातुक्षी = एक दूसरेपर पानी ४१।१४१ उछालना, फाग ३६।५३ विय = देश ४६।९४ व्यावहासी = परस्पर हास्यविष्वग = सब ओस्से ३५।९७ मजाक २६।३३ विष्टपातिग= लोकोत्तर ३३।१४९ शकृत् = विष्ठा ४६।२९१ विष्वाण = भोजन ३६।११२ शतमखेष्वास = इन्द्रधनुष २६२० विसिनी = कमलिनी ३५।२३०। शताध्वर = इन्द्र ३६।१९६ विस्रब्ध = निश्चिन्त, विश्वासको शब्दविद्या = व्याकरण शास्त्र प्राप्त ३६४१६४ ३८।११९ विहितायक = कृतपुण्य ४७।१०३ शम्बल-(सम्बल) = मार्गहितवीरागणी = वीरोंमें अग्रेसर कारी भोजन ३५।२२ श्रेष्ठ ३६।३४ शम्फली दुती ३४।१६ वीरुध = लता ३६०२०८ शरव्यता= लक्ष्यता २८९ वृत्तिभेद = आजीविका भेद शयुपोत = अजगरके बच्चे ३८।४५ २७१३४ वृष = बल ४१७७ शल्कसात्कृतात् = खण्ड-खण्ड वेपथु = कम्पन ३६।८६ किये ३४।६० वेशन्त = स्वल्प जलाशय ३३१५० शरतल्प = बाणोंकी शय्या वेसर = खच्चर २९।१६१ ३५।२११ बैलक्ष्य = आश्चर्य, लज्जा, झेंप शरवात =बाणोंका समूह ३६८० ३६१९२ शरव्य = निशाना ३५७१ वैवस्वतास्पद % यमपुर ४४८ शर्वरी = रात्रि ३४।१५५ वैशाखस्थान = बाण चलानेका शाक्तम् = शक्ति समूह (उत्साहएक आसन ३२८७ शक्ति, मन्त्रशक्ति, प्रभुत्वव्यञ्जन = तिल मसे आदि चिह्न शक्ति ) ३०७ ३७।२९ शाक्तिक=शक्तिनामक शस्त्रको व्यामूढि = मूढता - मूर्खता धारण करनेवाले २७।१११ ३५।२३५ शाखामृग = वानर ४११३७ व्युत्थित = विरुद्ध आचरणवाले शाखिन् = वृक्ष ३६६ ३४।४० शारीर = शरीर सम्बन्धी ३७।३० न्यूढोरस्क = चौड़ी छातीवाला । शारदी = शरद् ऋतु सम्बन्धी ३१११४६ ३७।१४० व्यपरोपण = घात करना ३८।१७ शार्वर = रात्रि सम्बन्धी ३५।२२२ ब्युत्सृष्ट % त्यक्त ३६४१२३ शालिगोपिका = धानके खेत व्रज = गोष्ठ - गायोंके रहनेका रखानेवाली गोपियाँ ३५॥३६ - स्थान ३७१६९ शालिवप्र = धानके खेत ३५।३१ व्रतवात = व्रतोंका समूह ३९।३६ शासन = शिक्षक ३५।८६ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासनहर = दूत ३४।५० शिखण्डिन् = मयूर २६।१९ शिञ्जित = नपुरोंको झनकार २६।१५ शिवा = शृगाली ३४।१८२ शिरस्त्र = शिरका टोप ३६।१४ शीक्यमान = सींचे गये २८।१०९ शुचि = ग्रीष्म ऋतु २७४४९ शूद्र=एक वर्ण ३८।४६ शेमुषी = बुद्धि २८।१५८ श्रमधर्माम्बुविष = पसीनाकी बूंदें ३५।३५ श्रावकाचारचुञ्च = श्रावकाचारसे प्रसिद्ध ४०।३० श्रीगृह = खजाना ३७८५ श्रुतोपासक सूत्र = उपासकाध्य- यनाङ्गश्रावकाचारका वर्णन करनेवाला शास्त्र ३८२४ श्रौत= श्रुति अथवा वेद सम्बन्धी ३९.१० इलाध्य परिच्छद = प्रशंसनीय परिकरसे सहित ३४।१२४ श्वेतभानु = चन्द्र ४११७६ विशिष्ट शब्द-सूची संग्रामनिकष = युद्धरूपी कसौटी ३५।१३७ सजयकेतन = विजय पताकासे सहित ३६६ सजानि = स्त्रियोंसे सहित २९१०८ सत्योद्य = सत्यपदार्थका कथन - करनेवाला ३९।१२ सत्त्वोपघात = प्राणिघात४११५१ सदोऽवनि = समवसरण भूमि ४१।१९ सध्रीची = सखी २६।१४६ सनामि = बन्धु ४५।१२५ सनाभि = सगोत्र, कुटुम्बीजन ३४२० सनामित्व = सगा भाईपना ३५२ सन्नाह = कवच ३२१६९ सन्निधि = सामीप्य, सन्निधान, ३६।२०३ सन्निधि = एकत्र उपस्थिति ३५।४६ सप्तच्छद = सप्तपर्ण नामका एक वृक्ष, जो शरद् ऋतुमें फूलता है। इसको डण्ठलमें सात-सात पत्ते होते हैं। २६६ सभावनि = सभाभूमि ३६।२०० सभामण्डल =समवसरण ४७।१६३ . समरसंघट्टपिशुन = युद्धके सम्मदको सूचित करने. वाला ३५।१४१ समवाय = समह ३४।१३८ समवर्ती= यम ४६।१४३ सम्पतन्ती - उड़ती हुई २६१८ संप्रीत = प्रसन्न ३९।४४. संभूत = समुत्पन्न ३४।११२ समावर्ष ३३।२०२ समानता=मानसे सहितपना ३५।११७ समांसमीना = प्रतिवर्ष गभिणी होनेवाली गाय २६।१३६ समित्सहस्र = हजारों लकड़ियाँ ३५।११ समिद्ध = प्रचण्ड ४४।३४६ समुत्सित = गवित ४४०६२ समुद्वाह =विवाह २६।६५ सरोजरागरत्न = पद्मरागमणि ३३॥६० सर्जन = सृष्टि ४१।१२ सर्वकष =सर्वघाती ३९।२९ सर्वमोगीणा = सबके भोगने योग्य ३४।११९ सलिलालोडित = पानीमें घुला हुआ ३९।४३ सव्येष्ट = सारथि २८।५९ सहसान = मयूर २६।१८ सहसारसाः = सारस पक्षियोंसे सहित २६।१५ संख्यातरात्र = कुछ रातें ३५।२७ संख्याज्ञान = गणित शास्त्र ३८।१२० संघात =समूह ३६६ संदंशित = कवच पहने हुए . ३६।१५ संप्रेक्षा = आलोकन ३६।२२ संप्लुष्ट = दग्ध ३४।१५४ संयुग = युद्ध ४४०९९ संवर्मित = कवच धारण किये हुए ३६।१३८ संवाह = पहाड़ोंपर बसने वाले गांव ३७।६६ संविद् = ज्ञान ४६।२४५ संवेग = संसारसे भय ३४।१४६ संस्कृत = उत्तम मनुष्य ४३।४५ संहित = इकट्ठे हुए, मिले हुए ४२११ साकम्पनि = आकम्पनि - अक म्पनके पुत्रोंसे / सहित ४४।१०५. सागार = गृहस्थ, ३८७ षटकर्मजीविन् = असि, - मषी, कृषि, शिल्प, वाणिज्य, और विद्या इन छह कार्योंसे आजीविका करनेवाले ३९४१४३ षट्तयी=छह भेदसे युक्त ३८।४२ षडङ्ग = हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल सैनिक, देव, और विद्याधर ये चक्रवर्तीकी सेनाके ६ अंग कहलाते हैं । ३६५ षाङ्गण्य = सान्ध, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव, आश्रय, ये राजाओंके छह गुण हैं। २८।२८ सगर - युद्ध ४३१५२ सङ्गर = प्रतिज्ञा ३४।१७० Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 आदिपुराणम् सागामिकी = युद्ध सम्बन्धी 3602 सातोद्य = वादित्रोंसे सहित 37159 सादिन् = घुड़सवार 36 / 11 साधन = सेना 36 / 18 साध्वस = भय 36 / 2 साध्वाचार = मुनिके योग्य आचारसे सहित 34 / 135 साम्तानिको = कल्पवृक्षसम्बन्धी 30 / 124 साम= साम, दान, दण्ड, भेद इन चार उपायोंमें-से एक उपाय 35 / 100 सामज = हाथी 35 / 102 सामवायिक = सहायक 44 / 21 साम्प्रतम् = युक्त-ठीक 41143 सामि=कुछ 36 / 111 सायंप्रातिक= सुबह शामके 28 / 55 साराम बगीचोंसे सहित 34 / 41 सार्व- सर्वहितकारी 35 / 244 सार्वभौमत्व = चक्रवर्तित्व 45/57 सावनी- सवन-यज्ञसम्बन्धिनी 33093 सावधिः = अवधिज्ञानसे सहित 45 // 41 / सावध = पापसहित कार्य 34 / 192 सावद्यमीरु = पापसहित कार्यों से डरनेवाले 38 / 14 सितम्छदावली = हंसोंकी पंक्ति 268 सितपक्षिम् = हंस 26 / 12 सिद्ध = न्यन्तर देवोंका एक भेद सिद्धि = मुक्ति 36 / 158 सिति = काले 36 / 172 सीमन्त =माँग 35 / 34 सीमान्त= गाँवोंको सीमा 35 / 39 सुधाशिन् = देव 30 / 202 सुधाभुज-देव 36 / 31 सुधासित = चूनासे पुता हुआ सफेद 37 / 151 . सुयज्वन् =होम करनेवाले 34 / 215 सुमेधस् = बुद्धिमान् 34157 सुरगज =ऐरावत हाथी 37 / 23 सुरदेव=शकुनज्ञ 45 / 142 सुरभिमास= चैत्र मास, वसन्त मास 37 / 122 सुरभीकृत = सुगन्धीकृत 374122 सुरा=मदिरा 36687 सुरेभ =सुन्दर शब्दसे युक्त 28 / 6 सैकतारोह = रेतीले तटरूपी नितम्ब 26 / 148 सैन्धव =सिन्धु नदी सम्बन्धी 28 / 172 सैन्धव = सिन्धु देशके घोड़े 301107 सोमकल्पाविप =राजा सोम प्रभरूपी कल्पवृक्ष 43383 सोदर्य =सगे भाई 34 / 45 सौराष्ट्रिक = सौराष्ट्र देशके 3099 सौविदल्ल= कंचुकी, अन्तःपुरका पहरेदार 21 / 118 स्कन्धावार=शिविर - सेनाका पड़ाव 45 / 107 स्तन्य = दूध 36 / 166 स्तनित = मेघगर्जना 3317 स्तम्बकरिस्तम्ब = धानके पौधे 35 / 29 स्तम्बरम = हाथी 36 / 170 स्तनयित्नु = मेघ 46 / 177 स्थपुट =ऊँचे नीचे स्थान 26 / 91 स्थलपद्मायित =गुलाबके फूलके समान आचरण करनेवाला 35076 स्थविराकार=वृद्धका 47 / 106 स्फीत = अत्यन्त विस्तृत 37 / 201 स्मराकाण्डावस्कन्द = कामका असमयमें हुआ आक्रमण 371121 स्रग्विणी = माला पहननेवाली 35 / 183 स्वधुनी = गङ्गा नदी 35 / 197 स्वःसद् =देव 27 / 57 स्ववगृह = उत्तम ललाटसे युक्त, * पक्षमें सुष्ठु प्रतिबन्धसे युक्त 33 / 43 स्वायम्भुव = भगवान् सम्बन्धी 34 / 215 स्वारोह = जिनपर अच्छी तरह चढ़ा जाय ऐसे पर्वत 2972 स्वान्त = चित्त 34 / 183 हरि=घोड़े 44 / 75 हरि = सिंह 34.112 हरिणाराति = सिंह 36 / 167 हरिन्मुख = दिङ्मुख 27 / 18 हरिविष्टर = सिंहासन 4211 हारि = मनोहर 35 / 62 हार्य = हरण करने योग्य - नश्वर 34 / 116 हास्तिक = हाथियोंका समूह 36 / 3 हिमानी = बहुत भारी बर्फ 301211 हेति =शस्त्र 36 / 13 हृद्भूकाम 374134 हेषित = घोड़ोंकी हिनहिनाहट 3316 हैमनी = हेमन्त ऋतु सम्बन्धी 30 / 160 4126 सिद्धार्थविटप = सिद्धार्थ नामक वृक्ष जिसके नीचे जिन प्रतिमाएं होती हैं 33099 सिन्धु नदी 35 / 27 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जैन पुराण एवं चरित काव्य-ग्रन्थ आदिपुराण (संस्कृत, हिन्दी) : आचार्य जिनसेन (दो भाग) सम्पा.-अनु : डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य उत्तरपुराण (संस्कृत, हिन्दी) : आचार्य गुणभद्र सम्पा.-अनु. : डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य पद्मपुराण (संस्कृत, हिन्दी): आचार्य रविषेण, (तीन भाग) सम्पा.-अनु. : डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य हरिवंशपुराण (संस्कृत, हिन्दी) : आचार्य जिनसेन सम्पा.-अनु. : डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य हरिवंश गाथा (हरिवंशपुराण का हिन्दी सार) : डॉ. अमृता भारती प्रद्युम्नचरित : (संस्कृत, हिन्दी) आचार्य महासेन सम्पा.-अनु. : डॉ. रमेश चन्द्र जैन वीरवर्धमानचरित (संस्कृत, हिन्दी) : सकलकीर्ति सम्पा.-अनु. : पं. हीरालाल जैन, सिद्धान्तशास्त्री समराइच्चकहा (प्राकृत गद्य, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद) हरिभद्र सूरि, अनु. : डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर महापुराण (अपभ्रंश, हिन्दी) : कवि पुष्पदन्त, (पाँच भागों में) सम्पा. : डॉ. पी. एल. वैद्य, अनु. : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर भाग एक (तीर्थंकर ऋषभदेव, पूर्वाध, भाग दो (तीर्थंकर ऋषभदेव, उत्तरार्ध) भाग तीन (तीर्थंकर अजितनाथ से मल्लिनाथ तक) भाग चार (तीर्थंकर मुनिसुब्रत एवं नमि, जैन रामायण) भाग पाँच (तीर्थंकर नेमि, पार्श्व और वर्धमान) पासणाहचरिउ (अपभ्रंश-हिन्दी) : महाकवि बुध श्रीधर सम्पा.-अनुवाद : डॉ. राजाराम जैन पज्जुण्णचरिउ (प्रद्युम्नचरित) (अपभ्रंश, हिन्दी): महाकवि सिंह, सम्पा.-अनुवाद : डॉ. विद्यावती जैन वड्ढमाणचरिउ (वर्धमानचरित) (अपभ्रंश, हिन्दी): विबुध श्रीधर, सम्पा.-अनु. : डॉ. राजाराम जैन पउमचरिउ (पद्मचरित) (अपभ्रंश, हिन्दी) : (पाँच भागों में) महाकवि स्वयम्भू, सम्पा.-अनु. : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर रिट्ठणेमिचरिउ (यादवकाण्ड) (अपभ्रंश, हिन्दी) : महाकवि स्वयम्भू सम्पा.-अनु. : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर श्रीपालचरित : पं दौलतराम कासलीवाल सम्पा. : डॉ. वीरसागर जैन Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली - 110 003 संस्थापक : स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन, स्व. श्रीमती रमा जैन