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________________ १८८ आदिपुराणम् पद्मिन्यो म्लानपद्मास्या द्विर फकरणामतः । शोचन्त्य इव संवृत्ता वियोगादहिमविपः ॥१६०॥ संध्यातपततान्यासन वनान्यस्तमहीभृतः । परीतानीव दावाग्निशिग्वयानिकरालया॥१६॥ अनुरक्तापि संध्ययं परित्यक्ता विवस्वता। प्रविष्टेवाग्निमारकच्छविरालश्यताम्ब ॥५६२।। शनैराकाशवाराशिबिमोद्यानराजिवत । रुरुचे दिशि वारुण्यां संध्याम्मिन्दरमच्छविः ॥ १६३॥ चक्रव कीमनस्तापदीपनो' नु हुताशनः । पप्रथे पश्चिमाशान्त संध्यारागी जपारणः ॥१६॥ सांध्या रागः स्फुरन् दिक्षु क्षणमंक्षि प्रियागमे । मानिनीनां मनोरागः कृत्स्ना मूर्छन्निकतः ॥१६५॥ धृतरतांशुकां संध्यामनुयान्ती दिनाधिपम् । बहुमने सती लोकः कृतानुमरामिव ॥१६॥ चक्रशकी तोकण्ठमनुयान्तीं कृतस्वनाम् । विजहावेव चक्राहां नियति को नु लङ्घयेत् ॥१६॥ रवेः किमपराधोऽयं कालस्य नियतः किमु । रथाङ्गमिथुनान्यासन वियुक्तानि यती मिथः ॥१६८॥ घनं तमो विनार्केण व्यानशे निखिला दिशः । विना तेजस्विना प्रायस्तमो रुन्धे नु संततम् ॥१६९॥ तमो ऽवगुण्ठिता रजे रजनी तारकातता । विनीलवसना भास्वन्मोक्केिवाभिसारिका ॥१७॥ शोभा जाती रही थी॥१५९।। कमलिनियोंके कमलरूपी मुख मुरझा गये थे जिससे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो सूर्यका वियोग होनेसे भ्रमरोंके करुणाजनक शब्दोंके बहाने रुदन करती हुई शोक हो कर रही हों ॥१६०।। सायंकालके लाल-लाल प्रकाशसे व्याप्त हुए अस्ताचलके वन ऐसे जान पड़ते थे मानो अत्यन्त भयंकर दावानलकी शिखासे ही घिर गये हों,॥१६१।। यद्यपि यह सन्ध्या अनुरक्त अर्थात् प्रेम करनेवाली ( पक्षमें लाल ) थी तथापि सूर्यने उसे छोड़ दिया था इसलिए ही वह लाल रंगकी सन्ध्या आकाशमें ऐसी जान पड़ती थी मानो उसने अग्निमें ही प्रवेश किया हो। भावार्थ - पतिव्रता स्त्रियाँ पतियोंके द्वारा अपमानित होनेपर अपनी विशुद्धताका परिचय देनेके लिए सीताके समान अग्निमें प्रवेश करती हैं यहाँपर कविने भी समासोक्ति अलंकारका आश्रय लेकर सन्ध्यारूपी स्त्रीको सूर्यरूपी पतिके द्वारा अपमानित होनेपर अपनी विशुद्धता - सच्चरित्रताका परिचय देनेके लिए सन्ध्या कालकी लालिमा रूपी अग्निमें प्रवेश कराया है ॥१६२॥ सिन्दूरके समान श्रेष्ठ कान्तिको धारण करनेवाली वह सन्ध्या धीरे-धीरे पश्चिम दिशामें ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो आकाशरूपी समुद्रमें मँगोंके बगीचोंकी पंक्ति ही हो ॥१६३॥ जवाके फलके समान लाल-लाल वह सन्ध्याकालकी लाली पश्चिम दिशाके अन्तमें ऐसी फैल रही थी मानो चकवियोंके मनके सन्तापको बढ़ानेवाली अग्नि ही हो ॥१६४॥ समस्त दिशाओंमें फैलती हुई सन्ध्याकालकी लाली क्षण-भरके लिए ऐसी दिखाई देती थी मानो पतियोंके आनेपर मान करनेवाली स्त्रियोंके मनका समस्त अनुराग ही एक जगह इकट्ठा हुआ हो ।।१६५॥ लाल किरणरूपी वस्त्र धारण कर सूर्यरूपी पतिके पीछे-पीछे जाती हुई सन्ध्याको लोग पतिके साथ मरनेवाली सतीके समान बहुत कुछ मानते थे ॥१६६॥ चकवाने बड़ी उत्कण्ठासे अपने पीछे-पीछे आती हुई और शब्द करती हुई चकवीको आखिर छोड़ ही दिया था सो ठीक ही है क्योंकि नियति अर्थात दैविक नियमका उल्लंघन कौन कर सकता है ? ॥१६७।। उस समय चकवा चकवियोंके जोड़े परस्परमें बिछुड़ गये थे - अलग-अलग हो गये थे, सो यह क्या सूर्यका अपराध है ? अथवा कालका अपराध है ? अथवा भाग्यका ही अपराध है ? ॥१६८॥ सूर्यके बिना सब दिशाओं में गाढ़ अन्धकार फैल गया था सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वीके बिना प्रायः सब ओर अन्धकार ही भर जाता है ॥१६९।। अन्धकारसे घिरी हुई और ताराओंसे व्याप्त हुई वह रात्रि ऐसी सुशोभित हो रही १ उद्दीपनकारी। २ संध्यारागः ल०, द०। ३ प्रसर्पन् । ४ सममरणाम् । अग्निप्रवेशं कुर्वतीमित्यर्थः । ५ मुमुचे । ६ चक्राङ्को ल०, द०, अ०, स०, इ० । ७ व्याप्नोति । ८ तमसाच्छादिता । ९ वेश्या ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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