SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
## Canto 35 187 The sun, clinging to the peak of Karagiri, seemed to be falling for a moment. The Karalas, fearing its fall, seemed to be holding onto its rays as if they were hands. ||154|| The sun, falling due to its union with Varuni, its radiance lost, was not supported by the Karalas, as if they were afraid of it. ||155|| Has the sun gone to search for the past day, or has it entered the Rasatal? Or has it hidden behind the peaks of the Astal? ||156|| Like a valiant man, who destroys darkness, the embodiment of poverty, and attacks the kings with his taxes, and at the end of his fortune, walks about without clothes, so too, the sun, destroying the darkness of the night, and attacking the mountains with its rays, at the end of the day, walks about without its rays. How sorrowful! ||157|| This sun, constantly revolving around Mount Meru in a circular, slanting motion, is not visible from afar, and therefore, foolish men think it is falling. ||158|| In this misfortune of the sun, the directions, like women afflicted with grief, have become devoid of radiance, their faces filled with darkness. ||159|| **Notes:** * **Karagiri:** A mountain, possibly the same as Mount Meru. * **Karalas:** The rays of the sun. * **Varuni:** The west, also a metaphor for alcohol. * **Rasatal:** The underworld. * **Astal:** The setting sun. * **Bhaanu:** The sun. * **Vibhavasu:** Radiance. * **Ananshuk:** Without clothes, a metaphor for the sun without its rays. * **Meru:** A mythical mountain, considered the center of the universe. * **Tirya-mandala:** The circular path of the sun. * **Diggana:** The directions.
Page Text
________________ १८७ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व करगिर्यग्रसंलग्नः भानुरालक्ष्यत क्षणम् । पातमीत्या करालाः ' करालम्बमिवाश्रयन् ॥१५४॥ पतन्तं वारुणी संगत् परिलुप्तविभावसुम् । नालम्बत बतास्ताविर्भानुं विभ्यदिवैनसः ॥१५५॥ गतो नु दिनमन्वेष्टुं प्रविष्टो नु रसातलम् । तिरोहितो न शृङगारस्ताक्षि भानुमान् ॥१५६॥ विक्टय्य तमो नैशं करतक्रम्य भूभृतः । दिनावसा ने पर्यास्थदहो° रविरनंशुकः ॥१५७॥ तिर्यमण्डलगत्यैव शश्वद् भानुरयं भ्रमन् । ''विप्रकर्षाज्जनैर्मूढेरग्राहीव पतन्नधः ॥१५८॥ व्यसनेऽस्मिन् दिनेशस्य शुचेय परिपीडिताः । विच्छायानि मुखान्यूहु स्तमोरुद्धा दिगगनाः॥१५९॥॥ के शिखरपर लगे हुए वनके वृक्षोंकी कोपलोंके समान कुछ-कुछ लाल रंगका दिखाई दे रहा । उस समय वह सूर्य अस्ताचलके शिखरपर लगे हुए किरणोंसे क्षण-भरके लिए ऐसा जान पड़ता था मानो नीचे गिरनेके भयसे अपने किरणरूपी हाथोंसे किसीके हाथका सहारा ही ले रहा हो ।।१५४।। जो सूर्य वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा ( पक्षमें मदिरा ) के समागमसे पतित हो रहा है और जिसका कान्तिरूपी धन नष्ट हो गया है ऐसे सूर्यको मानो पापसे डरते हुए ही अस्ताचलने आलम्बन नहीं दिया था। भावार्थ - वारुणी शब्दके दो अर्थ होते हैं मदिर और पश्चिम दिशा। पश्चिम दिशामें पहुँचकर सूर्य प्राकृतिक रूपसे नीचेकी ओर ढलने लगता है। यहाँ कविने इसी प्राकृतिक दृश्यमें श्लेषमूलक उत्प्रेक्षा अलंकारको पुट देकर उसे और भी सुन्दर बना दिया है। वारुणी अर्थात् मदिराके समागमसे मनुष्य अपवित्र हो जाता है उसका स्पर्श करना भी पाप समझा जाने लगता है, सूर्य भी वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा ( पक्षमें मदिरा ) के समागमसे मानो अपवित्र हो गया था। उसका स्पर्श करनेसे कहीं मैं भी पापी न हो जाऊँ इस भयसे अस्ताचलने उसे सहारा नहीं दिया – गिरते हुएको हस्तालम्बन देकर गिरनेसे नहीं बचाया । सूर्य डूब गया ।।१५५॥ उस समय सूर्य दिखाई नहीं देता था सो ऐसा जान पड़ता था मानो बीते हुए दिनको खोजनेके लिए गया हो, अथवा पाताललोकमें घुस गया हो अथवा अस्ताचलके शिखरोंके अग्रभागसे छिप गया हो ॥१५६॥ जिस प्रकार कोई वीर पुरुष दारिद्रयरूपी अन्धकारको नष्ट कर और अपने कर अर्थात् टैक्स-द्वारा भूभृत् अर्थात् राजाओंपर आक्रमण कर दिन अर्थात् भाग्यके अन्तमें अनंशुक अर्थात् बिना वस्त्रके यों ही चला जाता है उसी प्रकार सूर्य रात्रिसम्बन्धी अन्धकारको नष्ट कर तथा कर अर्थात् किरणोंसे भूभृत् अर्थात् पर्वतोपर आक्रमण कर दिनके अन्तमें अनंशुक अर्थात् किरणोंके बिना यों ही चला गया - अस्त हो गया, यह कितने दुःखकी बात है। ॥१५७।। यह सूर्य तो मेरु पर्वतके चारों ओर गोलाकार तिरछी गतिसे निरन्तर घूमता रहता है तथापि दूर होनेसे दिखाई नहीं देता इसलिए मूर्ख पुरुषोंको नीचे गिरता हुआ-सा जान पड़ता है ॥१५८॥ सूर्यकी इस विपत्तिके समय मानो शोकसे पीड़ित हुई दिशारूपी स्त्रियाँ अन्धकारसे भर जानेके कारण कान्तिरहित मुख धारण कर रही थीं। भावार्थ - पतिको विपत्तिके समय जिस प्रकार कुलवती स्त्रियोंके मुख शोकसे कान्तिहीन हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्यको विपत्तिके समय दिशारूपी स्त्रियोंके मख शोकसे कान्तिहीन हो गये थे। अन्धकार छा जानेसे दिशाओंकी १ विस्तृताः । 'करालो दन्तुरे तुझं विशाले विकृतेऽपि च' इत्यभिधानात् । २ वरुणसंबन्धिदिक्संगात् । मद्यसंगादिति ध्वनिः । ३ कान्तिरेव धनं यस्य । पक्षे विभा च वसु च विभावसुनो, परिप्लुते विभावसुनी यस्य तम् । ४ न धरति स्म । ५ पापात् । ६ गवेषणाय । ७ निशासंबन्धि । ८ पर्वतानाम् । नूगंश्च । ९ दिवसान्ते । भाग्यावसाने ज। दिवाव - ल०, द०। १० पतितवान् । ११ कान्तिरहितः, वस्त्ररहित इति ध्वनिः । १२ मेरुप्रदक्षिणरूपतिर्यबिम्वगमनेन। १३ दूरात् । १४ स्वीकृतः । १५ विपदि । १६ पन्तः । १२साने न। पापात् ।। पोच' इत्यभि
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy