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86 Adipuranam The mobile being, emitting a distressed sound from the cave-like holes, the great life-force, was about to depart, as if seeking strength in death. ||46|| The mobile-branched, mobile-being, mobile-loose-girded, he, the Adi, had attained fickleness in name, thus he was mobile-immobile. ||47|| The enjoyments of the elephant-forest, the clashing of horse-hooves, had crushed the upper surface of the Sahya mountain, making it level with the ground in an instant. ||48|| From the western sea-shore, and from the middle mountain, and from the Tungavaraka mountain, marked by high cliffs, ||49|| He, the Krishnagiri, and he, the Sumandara mountain, and the Mukunda, were overrun by the victorious forces. ||50|| There, the western-born elephants, with short necks, excellent in appearance, with thick, long, smooth teeth, black, with good senses, soft skin, broad backs, tall bodies, red tongues, lips and palates, proud, with long tails and lips, with a fragrance like that of lotus-madness, content in their own forest, valiant, with strong feet, good bodies, were brought by the lords of those forests, with great joy or sorrow. ||51-53|| The many rivers flowing towards the east and west seas, whose hair is the forest and whose buttocks are the high banks, were crossed by Maharaja Bharata, like daughters of the Sahya mountain. ||54|| The terrible Bhimarathi river, moving about, seized by fearsome crocodiles, and the terrible Daruveena river, with its whirlpools created by a group of snakes, ||55||
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________________ ८६ आदिपुराणम् चलत्सत्त्वो 'गुहारन्ध्रविमुञ्चन्नाकुलं स्वनम् । महाप्राणोऽद्विरुत्क्रान्ति मियायेव बलक्षतः ॥४६॥ चलच्छाखी चलत्सत्त्वः चलच्छिथिलमेखलः । नाम्नै वाचलतां भेजे सोऽदिरेवं चलाचलः ॥४७॥ गजतावन संभोगैस्तुरङ्गखुरघट्टनैः । सह्योत्सङ्गभुवः क्षुण्णाः स्थलीभावं क्षणाद् ययुः ॥४८॥ आपश्चिमार्णवतटादा च मध्यमपर्वतात् । आतुङ्गवरकादवेस्तुङ्गगण्डोपलावितात् ॥४९॥ तं कृष्णगिरिमुलक्य तं च शैलं सुमन्दरम् । मुकुन्दं चाद्विमुदृप्ता जयेभास्तस्य बभ्रमुः ॥५०॥ तत्रोपरान्तकान् नागान् ह्रस्वग्रीवान् परान रदैः।युक्तान् पीनायतस्निग्धैः श्यामान् स्वक्षान् मृदुत्ववः॥५१॥ 'महोत्सङ्गानुदग्राङ्गान् रक्तजिह्मोष्टतालुकान् । मानिनो दीर्घवालोष्टान् पद्मगन्धमदच्युतः ॥५२॥ संतुष्टान् स्वे वने शूरान् दृढपादान् सुवर्षणः । स भेजे तद्वनाधीशैः ससंभ्रममुपाहृतान् ॥५३॥ वनरोमावलीस्तुङ्गतटारोहा' बहूदीः । पूर्वापराब्धिगाः सोऽत्यत सह्याद्रे१हितरिव ॥५४॥ संचरद्भीषणग्राहीमा भैमरथी नदीम् । नक्रचक्रकृतावर्तेरवेणां च दारुणाम् ॥५५॥ कर भरतके प्रति अपनी पराजय ही स्वीकृत कर रहा हो (पूर्व कालमें यह एक पद्धति थी कि पराजित राजा सिरपर लकड़ियोंका गट्ठा रखकर गले में कुल्हाड़ो लटकाकर अथवा मुखमें तृण दबाकर विजयी राजाके सामने जाते थे और उससे क्षमा माँगते थे। ) ॥४५॥ वह पर्वतरूपी बड़ा भारी प्राणी सेनाके द्वारा घायल हो गया था, उसके शिखर टूट-फूट गये थे, उसका सत्त्व अर्थात् धैर्य विचलित हो गया था-उसके सब सत्त्व अर्थात् प्राणी इधर-उधर भाग रहे थे, वह गुफाओंके छिद्रोंसे व्याकुल शब्द कर रहा था और इन सब लक्षणोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो बहुत शीघ्र मरना ही चाहता हो ॥४६॥ उस पर्वतके सब वृक्ष हिलने लगे थे, सब प्राणी इधर-उधर चंचल हो रहे थे-भाग रहे थे और उसके चारों ओरका मध्यभाग भी शिथिल होकर हिलने लगा था इस प्रकार वह पर्वत नाममात्रसे ही अचल रह गया था, वास्तवमें चल हो गया था ॥४७।। लोगोंकी वनक्रीड़ाओंसे तथा घोड़ोंके खुरोंके संघटनसे उस सह्य पर्वतके ऊपरकी भूमि चूर-चूर होकर क्षण-भर में स्थलपनेको प्राप्त हो गयी थी अर्थात् जमीनके समान सपाट हो गयी थी ॥४८॥ चक्रवर्ती भरतके मदोन्मत्त विजयी हाथी, पश्चिम समुद्रके किनारेसे लेकर मध्यम पर्वत तक और मध्यम पर्वतसे लेकर ऊंची-ऊँची चट्टानोंसे चिह्नित तुंगवरक पर्वत तक, कृष्ण गिरि, सुमन्दर तथा मुकुन्द नामके पर्वतको उल्लंधन कर, चारों ओर घूम रहे थे ॥४९५०॥ जिनकी गरदन कुछ छोटी है, जो देखने में उत्कृष्ट हैं, मोटे लम्बे और चिकने दाँतोंसे सहित हैं, काले हैं, जिनकी सब इन्द्रियाँ अच्छी हैं, चमड़ा कोमल है, पीठ चौड़ी है, शरीर ऊंचा है, जोभ, होंठ और तालु लाल हैं, जो मानी हैं, जिनकी पूँछ और होंठ लम्बे हैं, जिनसे कमलके समान गन्धवाला मद झर रहा है, जो अपने ही वनमें सन्तुष्ट हैं, शूरवीर हैं, जिनके पैर मजबूत हैं, शरीर अच्छा है और जिन्हें उन वनोंके स्वामी बड़े हर्ष या क्षोभके साथ भेंट देनेके लिए लाये हैं ऐसे पश्चिम दिशामें उत्पन्न होनेवाले हाथो भी भरतने प्राप्त किये थे ।।५१-५३॥ वन-ही जिनकी रोमावली है और ऊँचे किनारे ही जिनके नितम्ब हैं ऐसी सह्य पर्वतकी पुत्रियोंके समान पूर्व तथा पश्चिम समुद्रकी ओर बहनेवाली अनेक नदियाँ महाराज भरतने उल्लंघन की थी-पार की थीं ॥५४॥ चलते-फिरते हुए भयंकर मगरमच्छोंसे भयानक भीमरथी नदी, नाकुओंसे समूहसे की हुई आवर्तोसे भयंकर दारुवेणा नदी, किनारे १ गुह्यरन्ध्रः ल०। २ सिंहादिसत्त्वरूपमहाप्राणः । 'प्राणो हुन्मारुते चोले काले जीवेऽनिले बले।' इत्यभिधानात् । ३ मरणावस्थाम् ( मृतिम् ) । ४ जनता ल०, द०। ५ पश्चिमदिक्समीपान् । ६ कुब्जस्कन्धोत्कृष्टान् । ७ पीनायित-ल०। ८ सुनेत्रान् । ९ बृहदुपरिभागान् । १० उपायनीकृतान् । ११ नितम्बाः । १२ अगात् । १३ पुत्रीरिव । १४ भीमरथीं ल० ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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