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414 The Adi Purana states: 'The west swallowed the sun, as if it were angry with the one from whom I was born.' (27) 'I am ashamed to be seen with the sun, so the evening, taking on a form, followed the sun.' (275) 'The sun, having taken me forward, left me behind when it went to the night. The evening, overwhelmed with sorrow, disappeared.' (276) 'The darkness, which had been hidden in caves and other places during the day, spread everywhere. Wise people do not leave their enemies alive, they destroy them completely.' (277) 'Just as the sky had previously made space for the light, so it made space for the darkness. This greatness of the sky is to be condemned.' (278) 'Just as in the Kali Yuga, the absence of the Jina leads to the spread of the influence of many fools due to ignorance, so at that time, the absence of the sun led to the spread of the light of many lamps and other things due to darkness.' (279) 'The moon rose, as if the Creator had lifted a silver pitcher filled with nectar to awaken the world, which was blinded by darkness.' (280) 'The moon was drinking the thick darkness with its rays, as if it were smoking to cure a cough or a wasting disease.' (281) 'The moon was unable to destroy all the darkness. This is because one whose sphere is impure and who is without power cannot destroy enemies.' (282) 'The lotuses in the ponds were blooming profusely from the touch of the moon's rays, as if they were looking at the moon with their blooming lotus-like eyes.' (283)
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________________ ४१४ आदिपुराणम् प्रतीची 'येन जायेऽहमगिल हस्करम् । इति सन्ध्याच्छलेना हस्तत्र कोपमिवागतम् ॥२७॥ लज्जे संपर्कमर्केण कतुं लोचनगोचरे । इयं वेलेति वा सन्ध्याऽप्यन्वगादात्तविग्रहा ॥२७५॥ अगादहः' पुरस्कृत्य मामर्को रात्रिगामिना । तेन 'पश्चात्कृतेऽतीव शोकात् सन्ध्या न्यलीयत ॥२७६॥ तमः सर्वं तदा व्यापत् क्वचिल्लीनं गुहादिपु । शत्रुशेषं न कुर्वन्ति तत एव विचक्षणाः ॥२७७॥ अवकाशं प्रकाशस्य यथात्मानमधात् पुरा । तथैव तमसः पश्चाद् धिङमहत्त्वं विहायसः ॥२७॥ ''तमोबलान् प्रदीपादिप्रकाशाः प्रदिदीपिरे । जिनेनेव विनेनेन कलौ कष्टं कुलिङगिनः ॥२७९॥ तमोविमोहितं विश्वं प्रबोधयितुमुद्धतः । विधिनेव सुधाकुम्भो दौर्वर्णो विधुरुद्ययौ ॥२०॥ चन्द्रमाःकरनालीभिरपिबद् बहलं तमः । वृद्धकासं २ क्षयं हातुं धूमपानमिवाचरन् ॥२१॥ निःशेष नाशकद्वन्तुं ध्वान्तं हरिणलाञ्च्छनः । अशुद्धमण्डलो हन्यानिष्प्रतापः कथं रिपून् ॥२८॥ विधुं तत्करसंस्पर्शाद भृशमासन् विकासिभिः । सरस्यो ह्रादयन्त्यो वा मुदा कुमुदलोचनैः ॥२८॥ ॥२७३॥ सन्ध्याके बहानेसे दिन लाल लाल हो गया, मानो जिससे मैं पैदा हुआ हूँ उस सूर्यको यह पश्चिम दिशा निगल रही है यही समझकर उसे क्रोध आ गया हो । २७४ ॥ मैं सबके देखते हुए सूर्य के साथ सम्बन्ध करनेके लिए लज्जित होती हूँ यही समझकर मानो सन्ध्याकी वेला भी शरीर धारण कर सूर्यके पीछे पीछे चली गयी ॥२७५॥ सूर्य जब दिनके पास गया था तब मुझे आगे कर गया था परन्तु अब रात्रिके पास जाते समय उसने मुझे पीछे छोड़ दिया है इस शोकसे ही मानो सन्ध्या वहीं विलीन हो गयी थी ।। २७६ ।। दिनके समय जो अन्धकार किन्हीं गुफा आदि स्थानोंमें छिप गया था उस समय वह सबका सब आकर फैल गया था सो ठीक ही है क्योंकि चतुर लोग इसलिए ही शत्रुको बाकी नहीं छोड़ते हैं - उसे समूल नष्ट कर देते हैं ॥ २७७ ॥ आकाशने जिस प्रकार पहले प्रकाशके लिए अपने में स्थान दिया था उसी प्रकार पीछेसे अन्धकारके लिए भी स्थान दे दिया इसलिए आचार्य कहते हैं कि आकाशके इस बड़प्पनको धिक्कार हो । भावार्थ - बड़ा होनेपर भी यदि योग्य-अयोग्यका ज्ञान न हुआ तो उसका बड़प्पन किस कामका है ? ॥ २७८ ॥ जिस प्रकार कलिकालमें जिनेन्द्रदेवके न होनेसे अज्ञानके कारण अनेक कुलिङ्गियोंका प्रभाव फैलने लगता है उसी प्रकार उस समय सूर्यके न होनेसे अन्धकारके कारण अनेक दीपक आदिका प्रकाश फैलने लगा था ॥ २७९।। __ इतनेमें चन्द्रमाका उदय हुआ जो ऐसा जान पड़ता था मानो अन्धकारसे मोहित हुए समस्त संसारको जगानेके लिए विधाताने अमृतसे भरा हुआ चाँदीका कलश ही उठाया हो ॥२८०॥ उस समय चन्द्रमा अपनी किरणरूपी नालियोंके द्वारा गाढ अन्धकारको पी रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो जिसमें खाँसी बढ़ी हुई है ऐसे क्षय रोगका नाश करनेके लिए धूम्रपान ही कर रहा हो ॥ २८१ ॥ चन्द्रमा सम्पूर्ण अन्धकारको नष्ट करनेके लिए समर्थ नहीं हो सका था सो ठीक ही है क्योंकि जिसका मण्डल अशुद्ध है और जो प्रतापरहित है वह शत्रुओंको कैसे नष्ट कर सकता है ? ॥ २८२ ॥ तालाबोंमें चन्द्रमाके किरणोंके स्पर्शसे कुमुद खूब फूल रहे थे और उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो खिले हुए कुमुदरूपी नेत्रोंके द्वारा चन्द्रमा १ अहस्करेण । २ प्रादुर्भवामि । ३ गिलति स्म । ४ दिवसः । ५ प्रतीच्याम् । ६ ह्रीवती भवानि । ७ दृष्टिविषये प्रदेशे । बहजनप्रदेशे इत्यर्थः । ८ स्वीकृतशरीराः । ९ आगच्छति स्म । १० दिवसम् । ११ पृष्ठे कृताहमिति । १२ विलयं गता। १३ सर्वत्र विश्वं जगत् । १४ आकाशस्य । १५ तिमिरप्राबल्यात् । पक्षे आकाशसामथ्योत् । १६ प्रकाशन्ते स्म । १७ रविणा। १८ मूढीकृतम्। १९ जगद् । २० राजतः । २१ किरणनालीभिः । २२ कुत्सितगतिम् वृद्धप्रकाशं वा । २३ क्षयव्याधिम् । २४ कलंकयुतमण्डलः । शत्रुसहितमण्डलश्च । २५ मुदं नयन्ति वा।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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