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________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४१५ उस्थितः 'पिलकोऽस्माकं विधुर्गण्डस्य वोपरि । का जीविकेति निर्विण्णाः प्रायः "प्रोषितयोषितः २८४ ॥ लब्धचन्द्रबलस्योच्चैः स्मरस्य परितोषिणः । अट्टहास इवाशेषं साक्रश्चन्द्रातपोऽतत ॥ २८५ ॥ रूढो रागाङ्कुरश्चित्ते प्रम्लानो भानुभानुभिः । तदा चन्द्रिका प्राच्यवृष्टये वावर्द्धताङगिनाम् ॥ २८६ ॥ 'खण्डितानां तथा तापो नाभूद् भास्कररश्मिभिः । यथांशुभिस्तु षारांशोर्विचित्रा द्रव्यशक्तयः ॥ २८७ ॥ खण्डनादेव॰ कान्तानां" ज्वलितो मदनानलः । जाज्वलीत्ययमेतेने 'त्यत्यजन्मधु "काश्चन ॥२८८॥ वृथाभिमानविध्वंसी नापरं मधुना विना । कलहान्तरिताः काश्चित्सखीभिरतिपायिताः ॥ २८६ ॥ प्रेमनः कृत्रिमं नैतत् किमनेनेति' 'काश्चन । दूरादेवात्यजन् स्निग्धाः श्राविका वाssसवादिकम् ' ॥ २९० ॥ मधु द्विगुणितस्वादु पीतं कान्तकरार्पितम्" । कान्ताभिः कामदुर्वारमातङ्गमदवर्द्धनम् ॥ २९१ ॥ इत्याविर्भावितानङ्गरसास्ताः प्रियसङ्गमात् । प्रीतिं वाग्गोचरातीतां स्वीचक्रर्वक्रवीक्षणाः ॥ २९२ ॥ १६ ९ ० ૨૧ ૨૨ को हर्षसे प्रसन्न ही कर रहे हों । विशेष - इस श्लोक में सरसी शब्दके स्त्रीलिंग होने तथा कर शब्दके श्लिष्ट हो जानेसे यह अर्थ ध्वनित होता है कि जिस प्रकार स्त्रियाँ अपने पतियों के हाथका स्पर्श पाकर प्रसन्न हुए नेत्रोंसे उन्हें हर्षपूर्वक आनन्दित करती हैं उसी प्रकार सरसियाँ भी चन्द्रमाके कर अर्थात् किरणोंका स्पर्श पाकर प्रफुल्लित हुए कुमुदरूपी नेत्रोंसे उसे हर्षपूर्वक आनन्दित कर रही थीं ॥ २८३ ॥ प्रायः विरहिणी स्त्रियाँ यह सोच-सोचकर विरक्त हो रही थीं कि यह चन्द्रमा हमारे गालपर फोड़ेके समान उठा है अथात् फोड़ेके समान दुःख देनेवाला इसीलिए अब जीवित रहनेसे क्या लाभ है ? ॥ २८४ ॥ जिसे चन्द्रमाका बल प्राप्त हुआ है और इसीलिए जो जोरसे संतोष मना रहा है ऐसे कामदेव के अट्टहासके समान चन्द्रमाका गाढ़ प्रकाश सब ओर फैल गया था ।। २८५ ।। मनुष्योंके हृदयमें उत्पन्न हुआ जो रागका अंकूरा सूर्यकी किरणोंसे मुरझा गया था वह भारी अथवा पूर्व दिशासे आनेवाली वर्षाके समान फैली हुई चाँदनीसे उस समय खूब बढ़ने लगा था ।। २८६ ॥ खण्डिता स्त्रियोंको सूर्यकी किरणोंसे वैसा संताप नहीं हुआ था जैसा कि चन्द्रमाकी किरणोंके स्पर्शसे हो रहा था सो ठीक ही है क्योंकि पदार्थोंकी शक्तियाँ विचित्र प्रकारकी होती हैं ।। २८७ ॥ प्रिय पतिके विरहसे ही जो कामरूपी अग्नि जल रही थी वह इस मद्यसे ही जल रही है ऐसा समझकर कितनी ही विरहिणी स्त्रियोंने मद्य पीना छोड़ दिया था ॥ २८८ ॥ मद्यके सिवाय व्यर्थके अभिमानको नष्ट करनेवाला और कोई पदार्थ नहीं है यही सोचकर कितनी ही कलहान्तरिता स्त्रियोंको उनकी सखियोंने खूब मद्य पिलाया था ॥ २८९ ॥ हमारा यह प्रेम बनावटी नहीं है इसलिए इस मद्यके पीने से क्या होगा ? यही समझकर कितनी ही प्रेमिकाओंने श्राविकाओंके समान मद्य आदिको दूर से ही छोड़ दिया था ॥ २६० ॥ कितनी ही स्त्रियाँ कामदेवरूपी दुर्निवार हाथीके मदको बढ़ानेवाले स्वादिष्ट मद्यको पतिके हाथसे दिया जानेके कारण दूना पी गयी थीं ।। २९१ ।। इस प्रकार जिनके कामका रस प्रकट हुआ है और जिनकी दृष्टि कुछ-कुछ तिरछी हो रही है ऐसी स्त्रियाँ १ पिटको ल०, अ०, इ०, स०, प० । पिटक: स्फोटक: । 'विस्फोट: पिटकस्त्रिषु' इत्यभिधानात् । २ गलगण्डस्य । 'गलगण्डो गण्डमाला' इत्यभिधानात् । ३ जीवितम् । ४ उद्वेगपराः । दुःखे तत्परा इत्यर्थः । ५ विमुक्तभर्तृकाः स्त्रियः । ६ व्याप्नोति स्म । ७ प्रथमवृष्टया । ८ विरहिणीनां योषिताम् । ९ चन्द्रस्य । १० वियोगात् । ११ प्रियतमानां पुंसाम् । १२ भृशं ज्वलति । १३ दावाग्निः । १४ मध्येन । १५ मद्यम् । १६ मद्यपानं कारिताः । १७ अस्माकम् । १८ मध्येन । १९ मद्यादिकम् । २० त्रिगुणितं स्वादु इत्यपि पाठः । २१ प्रियतमकरेण दत्तम् । २२ कामदुःपूरः - ट० । पूरयितुमशक्यः । २३ वामलोकनाः ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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