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416 Adipurana 3 There, seeing her beloved, a woman, pierced by the arrows of enemies, herself became lifeless, though her body was not wounded by the arrows of love. ||293|| Seeing her beloved, whose limbs were not marked by wounds, another woman, not knowing, thought that the wounds were inflicted by herself, and, realizing this, she became lifeless. ||294|| O beloved, you were very dear to Vira-Lakshmi, and therefore, even though I stopped you, you went to her. Now, you are in this state because of the cruel wounds of Vira-Lakshmi. Saying this, another woman died. ||295|| Beloved, I was coming with you at that time, but you stopped me and came here to accept Kirti. Although you knew that Kirti is always roaming around (promiscuous), you were deluded into thinking that she is pure. Now, see, Kirti has remained there. Alas, do men know the heart or separation? Saying this, another woman, filled with jealousy, went to the path of her beloved, that is, she died seeing her beloved dead. ||296-297|| O beloved, why did I, a fool, not come with you even though I was stopped? Do these low-born courtesans (celestial nymphs) take you away while I am near you? Well, what is gone is gone. Can't I still go there and snatch you from them? Saying this, a woman with a sweet voice followed her beloved, that is, she also died. ||298-299|| A warrior, whose whole body was pierced by arrows, and whose life was hanging by a thread, was waiting for his beloved to come. ||300|| Seeing her beloved, whose lips were bitten in anger, another woman, filled with momentary anger and jealousy towards Vira-Lakshmi, gave up her life. ||301|| A warrior, whose heart was pierced by an arrow, thinking that his beloved was in his heart, said, "Alas, this noble woman is dead. Someone has taken away her life." ||302||
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________________ ४१६ आदिपुराणम् 3 तत्र काचिद् प्रियं वीक्ष्य कथाशेषं द्विषच्छरैः । स्वयं कामशरैरक्षताङ्गी चित्रमभूद् व्यसुः ॥२९३॥ `क्षतैरनुपलक्ष्याङ्गं वीक्ष्य कान्तमजानती । परा परासुतां " " प्रापज्ज्ञात्वाऽऽत्मविहितव्रणैः ॥ २९४॥ मया निवारितोऽध्यार्या वीरलक्ष्मीप्रियः प्रिय । तत्कठोरवणैरेवं जातोऽसीति मृता परा ॥ २९५ ॥ मां निवार्य सहायान्तीं कीर्तिं स्वीकर्तुमागमः " । निर्मलेति विपर्यस्तो ? जानन्नपि बहिश्चम् ॥ २९६ ॥ स्थिता तत्रैव सा कीर्तिः किं वदन्ति' 'नरोऽन्तरम् । इतिसासू' "यमुक्वाऽन्या' 'प्रायासीत् प्रियपद्धतिम् । न किं निवारिताऽध्यायां' ' त्वया सार्द्धं विचेतना" । सन्निधौ मे किमेवं त्वां नयन्ति गणिकाधमाः | २९८ | 'अस्तु किं २२ यात मद्यापि तत्र स्वान हराणि 'किम् । विलप्येवं कलालापा काचित् "कान्तानुगाऽभवत् २९९ शरनिर्भिन्नसर्वाङ्गः कीलितासुरिवापरः । कान्तागमं प्रतीक्ष्यास्त लोचनस्थितजीवितः ॥ ३००॥ कोपदष्टविष्टं कान्तमालोक्य कामिनी । वीरलक्ष्म्या कृतासूया क्षणकोपाऽसुमत्यजत् ॥ ३०१ ॥ हृदि निर्भिन्ननाराचो मत्वा कान्तां हृदि स्थिताम् | हा मृतेयं वराकीति प्राणान् कश्चिद् व्यसर्जयत् । ३०२ । . २१ पति के समागम होनेसे वचनातीत आनन्दका अनुभव कर रही थीं ॥ २९२ ॥ उन स्त्रियोंमें से कोई स्त्री अपने पतिको शत्रुओंके बाणोंसे मरा हुआ देखकर आश्चर्य है कि काम के बाणोंसे शरीर क्षत न होनेपर भी स्वयं मर गयी थी || २९३ || अन्य कोई अजान स्त्री घावोंसे जिसके अंग उपांग ठीक-ठीक नहीं दिखाई देते ऐसे अपने प्रिय पतिको देखकर और उन्हें अपने द्वारा ही किये हुए घाव समझकर प्राणरहित हो गयी थीं ।। २९४ ॥ हे प्रिय, तुम्हें वीर लक्ष्मी बहुत ही प्यारी थी इसीलिए मेरे रोकनेपर भी तुम उसके पास आये थे अब उसी वीरलक्ष्मीके कठोर घावोंसे तुम्हारी यह दशा हो रही है यह कहती हुई कोई अन्य स्त्री मर गयी थी ।। २९५ ।। प्रिय, मैं उसी समय आपके साथ आ रही थी परन्तु आप मुझे रोककर कीर्ति को स्वीकार करनेके लिए यहाँ आये थे, यद्यपि आप यह जानते थे कि कीर्ति सदा बाहर घूमनेवाली (स्वैरिणी - व्यभिचारिणी) है तथापि यह शुद्ध है ऐसा आपको भ्रम हो गया, अब देखिए, वह कीर्ति वहीं रह गयी, हाय, क्या मनुष्य हृदय अथवा विरहको जानते हैं ? इस प्रकार ईर्ष्या के साथ कहकर अन्य कोई स्त्री अपने पतिके मार्गपर जा पहुँची थी अर्थात् पतिको मरा हुआ देखकर स्वयं भी मर गयी थी ।। २९६ - २९७ ॥ हे प्रिय, रोकी जाकर भी मैं मूर्खा आपके साथ क्यों नहीं आयी ? क्या मेरे समीप रहते ये नीच वेश्याएँ (स्वर्गकी अप्सराएँ) इस प्रकार तुम्हें ले जाती ? खैर, अब भी क्या गया ? क्या में वहाँ उनसे तुम्हें न छीन लूँगी ! इस प्रकार विलाप कर मधुर स्वरवाली कोई स्त्री अपने पतिकी अनुगामिनी हुई थी अर्थात् वह भी मर गयी थी ।। २९८. २९९ ।। जिसका सब शरीर बाणोंसे छिन्न-भिन्न हो गया है, और इसलिए ही जिसके प्राण जिसका जीवन अटका हुआ है ऐसा कोई योद्धा अपनी स्त्रीके आनेकी प्रतीक्षा कर रहा था ॥ ३०० ॥ जिसने क्रोधसे अपने ओठ डसकर छोड़ दिये हैं ऐसे अपने पतिको देखकर क्षण-भर क्रोध करती और वीरलक्ष्मी के साथ ईर्ष्या करती हुई किसी अन्य स्त्रीने अपने प्राण छोड़ दिये थे । ३०१ ॥ जिसके हृदयमें बाण घुस गया है ऐसे किसी योद्धाने १ वार्तयेवावशिष्टं प्रियं श्रुत्वेत्यर्थः । २ वैरिणां बाणैरुपलक्षितम् । ३ विगतप्राणः । ४ व्रणैः । ५ पञ्चत्वम् । ६ प्राप ल०, अ०, स०, इ०, प० । ७ आत्मना नखदन्तकृतव्रणैः । ८ आगमः । ९ वीरलक्ष्म्या निष्ठुरम् । १० ममार । ११ आगच्छः । १२ वैपरीतं नीतः वञ्चित इत्यर्थः । १३ विदन्ति ल० । १४ नरः मनुष्याः अन्तरं विरहम् । नरोत्तरमिति पाठे उत्तमपुरुषम् । १५ असूयासहितं यथा भवति तथा । १६ आगात् । १७ प्रियतमस्य मार्गम् । मृतिमित्यर्थः । १८ आगच्छम् । १९ वराक्यहम् । २० अमुख्यदेव स्त्रियः । २१ भवतु वा । २२ गमनम् । २३ स्वर्गे । २४ अपि तु हराण्येव । २५ प्रियतमस्यानुगामिन्यभूत् । कान्तास्मरणेन स्मरवशोऽभूदित्यर्थः । २६ सद्यः प्राणान् व्यसर्जयत् ल० । for- से हो गये हैं तथा नेत्रोंमें ही
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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