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455 The sixty-fourth chapter: Sukethu, the son of the Vaishya Rativarma, was a merchant. His son, Bhavadeva, was infamous for his lack of virtue and wealth. ||10|| In the same city, there lived a merchant named Shridatta, whose beloved wife, Vimala, gave birth to a daughter named Rativega. ||105|| In the same city, a son named Sukanta was born to the merchant Ashokdeva and his beloved wife, Jinadatta. Bhavadeva, known for his wickedness, was also called Durmukha. ||106|| This Bhavadeva, desiring to marry Rativega, went away to earn wealth. When he did not return by the time of the marriage, his parents gave their daughter to the very virtuous Sukanta. When Durmukha returned from a foreign land and heard of Rativega's marriage, he was enraged. Fearing him, the bride and groom fled to the shelter of Shaktisheṇa. ||107-109|| Durmukha, determined to pursue them, followed the bride and groom. However, fearing Shaktisheṇa, he suppressed his anger and returned. ||110|| Shaktisheṇa offered food to two celestial beings who had come to his shelter, considering it as a gift for his future life. ||111|| At the same lake, a wealthy merchant named Merukadatta, the leader of the merchant guild, arrived with many people. His wife was named Dharini. The merchant had four ministers: Bhutārtha, Shakuni, Brihaspati, and Dhanvantari. All four were learned in their respective scriptures. ||112-113|| One day, the merchant, surrounded by his ministers, saw a man with a deformed limb and asked him, "Why are you like this?" ||114||
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________________ ४५५ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व सुकेतुस्तन्त्र' वैश्येशस्तनूजो रतिवर्मणः । भवदेवोऽभवत्तस्य विपुण्यः कनकश्रियाम् ॥१०॥ तत्रैव दहिता जाता श्रीदत्तस्यातिवल्लभा । विमलादिश्रियाख्याता रतिवेगाख्यया सती ॥१०५। मकान्तोऽशोक देवेष्टजिनदत्तासुतोऽजनि । भवदेवस्य दुर्वृत्त्या दुर्मुखाख्योऽप्यजायत ॥१०६॥ म एष द्रव्य मावयं रतिवेगां जिघृक्षुकः । वाणिज्यार्थ गत स्तस्मान्नायात'' इति सा तदा ॥१०७॥ मातापितृभ्यां प्रादायि सुकान्ताय सुतेजसे । देशान्तरात् समागत्य त द्वार्ताश्रवणाद् भृशम् ॥१०८॥ दुर्मुग्वे कुपिते भीत्वा तदानीं तद्वधूवरम् । व्रजित्वा शक्तिषणस्य शरणं समुपागतम् ॥:०९॥ तदुर्मुखोऽपि निर्बन्धादनुगत्य वधूवरम् । शक्तिषणभयाद् बद्धवैरो निववृते ततः ॥११०॥ तत्रैकस्मै १२ वियच्चारणद्वन्द्वाय समापुषे । शक्तिषणो ददावन्नं पाथेयं परजन्मनः ॥१११॥ तत्रैवागत्य सार्थेशो" निविष्टो बहुभिः सह । विभुमेरुकदत्ताख्यः श्रेष्टी भार्यास्य धारिणी ॥११२॥ मन्त्रिणस्तस्य भूतार्थः शकुनिः सबृहस्पतिः । धन्वन्तरिश्च चत्वारः सर्वे शास्त्रविशारदाः ॥११३॥ पुभिः परिवृतः श्रेष्टी हीनाङ्ग कंचिदागतम् । समीक्ष्यैनं कुतो हेतोर्जातोऽयमिति तान् जगौ ॥११४॥ मृणालवती नगरीका राजा धरणीपति था। उसी नगरीमें सुकेतु नामका एक सेठ रहता था जो कि रतिवर्माका पुत्र था । सुकेतुकी स्त्रीका नाम कनकश्री था और उन दोनोंके एक भवदत्त नामका पुण्यहीन पुत्र था ॥१०१-१०४॥ उसी नगर में एक श्रीदत्त सेठ थे। उनकी स्त्रीका नाम था विमलश्री और उनके दोनोंके अत्यन्त प्यारी रतिवेगा नामकी सती पुत्री थी ॥१०५॥ उसी नगरके अशोकदेव सेठ और जिनदत्ता नामकी उनकी स्त्रीसे पैदा हुआ सुकान्त नामका एक पुत्र था। जिसका वर्णन ऊपर कर आये हैं ऐसा भवदेव बड़ा दुराचारी था और उस दुराचारीपनके कारण ही उसका दूसरा नाम दुर्मुख भी हो गया था ॥१०६। वह भवदेव धन उपार्जन कर रतिवेगाके साथ विवाह करना चाहता था इसलिए व्यापारके निमित्त वह बाहर गया था, परन्तु जब वह विवाहके अवसर तक नहीं आया तब माता-पिताने वह कन्या अत्यन्त तेजस्वी सुकान्तके लिए दे दी । जब दुर्मुख (भवदेव) देशान्तरसे लौटकर आया और रतिवेगाके विवाहकी बात सुनी तब वह बहुत ही कुपित हुआ। उसके डरसे वधू और वर दोनों ही भागकर शक्तिषेणकी शरणमें पहुँचे ॥१०७-१०९॥ दुर्मुखने भी हठसे वधू और वरका पीछा किया परन्तु शक्तिषेणके डरसे अपना वैर अपने ही मनमें रखकर वहाँसे लौट गया ॥११०॥ शक्तिषणने वहाँ पधारे हुए दो चारण मुनियोंके लिए अपने आगामी जन्मके कलेवाके समान आहार दान दिया था ॥१११।। उसी सरोवरके समीप धनी और सब संघके स्वामी मेरुकदत्त नामका सेठ बहत लोगोंके साथ आकर ठहरा हआ था। उसकी स्त्रीका नाम धारिणी था। उस सेठके चार मन्त्री थे-१ भतार्थ,२ शकुनि,३ बहस्पति और ४ धन्वन्तरि । ये चारों ही मन्त्री अपने-अपने शास्त्रोंमें पण्डित थे ॥११२-११३॥ एक दिन सेठ इन सबसे घिरा हआ १ मृणालवत्याम् । २ वणिग्मुख्यस्य । ३ कनकश्रियः । ४ श्रीदत्तविमलश्रियोः । ५ पुत्री। ६ अशोकदेवस्य प्रियतमाया जिनदत्तायाः सुतः । ७ दुर्मुख इति नामान्तरमपि । स दुर्मुखः स्वमातुलं श्रीदत्तं रतिवेगां याचितवान् । मातुलो भणितवान् त्वं व्यवसायहीनो न ददामीति । दुर्मुखोऽवोचत्-यावदहं द्वीपान्तरेषु द्रव्यमावागच्छामि तावद् रतिवेगा कस्यापि न दातव्या इति द्वादशवर्षाणि कालावधिं दत्वा । ८ धनमर्जयित्वा । ९ गृहीतुमिच्छुः । १० कृतद्वादशवर्षादेः सकाशात् । ११ नागतः । १२ रतिवेगा। १३ दीयते स्म । १४ सुकान्तरतिवेगाद्वयम् । १५ गत्वा । १६ समुपाश्रयत् । १७ अविच्छेदेन । १८ पृष्ठतो गत्वा । १९ व्याधुटितवान् । २० सर्पसरोवरस्थितशक्तिषणशिबिरात् । २१ सर्पसरोवरे । २२ गगनचारण । २३ आगताय । समीयुषे ल०, इ०, अ०, म०, ५०, स० । २४ संवलम् । २५ वणिक्संघाधिपः । २६ मेरुकदत्तस्य । २७ विकलावयवम् । २८ इति पृष्टवान् तं श्रेष्ठिनम् ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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