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## Chapter Thirty-Four 155 **46.** O Chakradhara, you must act swiftly in this matter. A wise person does not neglect even a small amount of debt, wound, fire, or enemy. **47.** O King, let this earth be ruled by you alone, let it not become Rajavati, ruled by many kings, due to your brothers, leading to a state of instability with multiple rulers. **48.** O Lord, while you are the king, the word "king" does not adorn any other place. How can a deer claim the title of "Mrigaendra" (King of the Deer) when a lion is present? **49.** O Lord, let your brothers, free from envy, follow your lead. It is the scriptural injunction that the elder, the chief of this time, should be followed. **50.** Having gone and spoken to them with tact, make them obey your orders. If they do not obey, then engage in conflict and speak to them differently. **51.** If anyone, filled with false pride, does not submit to you, then it is unfortunate that he will destroy himself and his kingdom. **52.** What is the point of saying more? Either they should come and bow to you, or they should seek refuge in the Jina, the savior of the world. **53.** There is no third path for them, these are the only two options: either they enter your camp, or they enter the forest with the deer. **54.** Their own families, like burning embers, will be consumed by their disobedience. Those who follow you will experience ultimate joy. **55.** They have decided that they will not bow to anyone.
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________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व १५५ तदत्र प्रतिकर्तव्यमाशु चक्रधर त्वया । ऋणवणाग्निशत्रूणां शेषं नोपेक्षते कृती ॥४६॥ राजन् राजन्वती भूयात् त्वयैवेयं वसुंधरा । माभूद्राजवती तेषां भूम्ना द्वैराज्यदुःस्थिता ॥४७॥ स्वयि राजनि राजोतिर्देव नान्यत्र राजते । सिंहे स्थिते मृगेन्द्रोकिं हरिणा बिभृयुः कथम् ॥४८॥ देव त्वामनुवर्तन्तां भ्रातरो धूतमत्सराः । ज्येष्ठस्य कालमुख्यस्य शास्त्रोक्तमनुवर्तनम् ॥४९॥ तच्छासनहरा गत्वा सोपायमुपजप्य तान् । त्वदाज्ञानुवशान् कुर्युर्विगृह्य ब्रूयुरन्यथा ॥५०॥ मिथ्यामदोद्धतः कोऽपि नोपेयाद्यदि ते वशम् । स नाशयेद्वतात्मानमार गृह्यं च राजकम् ॥५१॥ राज्यं कुलकलनं च नेष्टं साधारणं द्वयम् । भुङ्क्ते सार्द्ध पर्यस्तन्न नरः पशुरेव सः ॥५२॥ किमत्र बहुनोक्तेन त्वामेत्य प्रणमन्तु ते । यान्तु वा शरणं देवं त्रातारं जगतां जिनम् ॥५३॥ न तृतीया गतिस्तेषामेवैषां द्वितयी गतिः"। प्रविशन्तु त्वदास्थानं वनं वामी मृगैः समम् ॥५४॥ स्वकुलान्युल मुकानीव दहन्त्यननुवर्तनैः । अनुवर्तीनि तान्येव नेत्रस्यानन्दथुः परम् ॥५५॥ किसीको प्रणाम नहीं करेंगे ऐसा वे निश्चय कर बैठे हैं ॥४५।। इसलिए हे चक्रधर, आपको इस विषयमें शीघ्र ही प्रतिकार करना चाहिए क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष ऋण, घाव, अग्नि और शत्रुके बाकी रहे हुए थोड़े भी अंशकी उपेक्षा नहीं करते हैं ॥४६॥ हे राजन्, यह पृथिवी केवल आपके द्वारा ही राजन्वती अर्थात् उत्तम राजासे पालन की जानेवाली हो, आपके भाइयोंके अधिक होनेसे अनेक राजाओंके सम्बन्धसे जिसकी स्थिति बिगड़ गयी है ऐसी होकर राजवती अर्थात् अनेक साधारण राजाओंसे पालन की जानेवाली न हो। भावार्थ-जिस पृथिवीका शासक उत्तम हो वह राजन्वती कहलाती है और जिसका शासक अच्छा न हो, नाममात्रका ही हो वह राजवती कहलाती है। पृथिवीपर अनेक राजाओंका राज्य होनेसे उसकी स्थिति छिन्न-भिन्न हो जाती है इसलिए एक आप हो इस रत्नमयी वसुन्धराके शासक हों, आपके अनेक भाइयोंमें यह विभक्त न होने पावे ॥४७॥ हे देव, आपके राजा रहते हुए राजा यह शब्द किसी दूसरी जगह सुशोभित नहीं होता सो ठीक ही है क्योंकि सिंहके रहते हुए हरिण मृगेन्द्र शब्दको किस प्रकार धारण कर सकते हैं ? ॥४८।। हे देव, आपके भाई ईर्ष्या छोड़कर आपके अनुकूल रहें क्योंकि आप उन सबमें बड़े हैं और इस कालमें मुख्य हैं इसलिए उनका आपके अनुकूल रहना शास्त्र में कहा हुआ है ॥४९॥ आपके दूत जावें और युक्तिके साथ बातचीत कर उन्हें आपके आज्ञाकारी बनावें, यदि वे इस प्रकार आज्ञाकारी न हों तो विग्रह कर (बिगड़कर) अन्य प्रकार भी बातचीत करें ॥५०॥ मिथ्या अभिमानसे उद्धत होकर यदि कोई आपके वश नहीं होगा तो खेद है कि वह अपने-आपको तथा अपने अधीन रहनेवाले राजाओंके समूहका नाश करावेगा ॥५१॥ राज्य और कुलवती स्त्रियाँ ये दोनों ही पदार्थ साधारण नहीं हैं, इनका उपभोग एक ही पुरुष कर सकता है । जो पुरुष इन दोनोंका अन्य पुरुषोंके साथ उपभोग करता है वह नर नहीं है पशु ही है ॥५२॥ इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ है या तो वे आकर आपको प्रणाम करें या जगत्की रक्षा करनेवाले जिनेन्द्रदेवकी शरणको प्राप्त हों ॥५३।। आपके उन भाइयोंकी तीसरी गति नहीं है, इनके ये ही दो मार्ग हैं कि या तो वे आपके शिबिरमें प्रवेश मगोंके साथ वनमें प्रवेश करें ॥५४॥ सजातीय लोग परस्परके विरुद्ध आचरणसे अंगारेके करें या १ कारणात् । २ कुत्सितराजवती । 'सुराज्ञि देशे राजन्वान् स्यात्ततोऽन्यत्र राजवान्' इत्यभिधानात् । ३ द्वयो राज्ञो राज्येन दुःस्थिताः । ४ स्वच्छाशन-द०, ल० । दूताः। ५ उक्त्वा । ६ विवादं कृत्वा । ७ आत्मना स्वीकरणीयम् । ८ सर्वेषामनुभवनीयम् । ९ द्वयम् । १०-मेषैषां ल०। ११ उपायः । १२ स्वगोत्राणि । तब भ्रातर इत्यर्थः । १३ परः अ०, इ०, स० ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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