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________________ १४ आदिपुराणम् विस्तीर्णैर्जनसंभोग्यैः कूजद्धंसालिमेखलैः । तरङ्गवसनैः कान्तां' पुलिनैर्जघनैरिव ॥१३१॥ 'लोलोमिहस्तनिधूतपक्षिमालाकलस्वनैः । किमप्यालपितुं यत्नं तन्वन्ती वा ॥१३२॥ क्षती वन्येभदन्तानां रोधोजघनवर्तिनीः। रुन्धतीमब्धिभीत्येव लसर्मिदकूलकैः ॥१३३॥ रोमराजीमिवानीलां वनराजी विवृण्वतीम् । तिष्ठमानामिवावर्तव्यक्तनाभिमुदन्वते ॥१३॥ विलोलवीचिसंवादुत्थितां पतगावलिम् । पताकामिव बिभ्राणां लब्धां सर्वापगाजयात् ॥१३५॥ समांसमीनां पर्याप्तपयसं धीरनिःस्त्रनाम् । जगतां पावनी मान्यां हसन्तीं गोमतल्लिकाम् ॥१३६॥ गुरुप्रवाहप्रसृतां तीर्थकामरूपासिताम् । गम्भीरशब्दसंभूति जैनी श्रुतिमिवामलाम् ॥१३७॥ कीति समुद्र तक गमन करनेवाली थी उसी प्रकार गंगा नदी भी समुद्र तक गमन करनेवाली थी, जिस प्रकार उनकी कीतिका प्रवाह पवित्र था उसी प्रकार गंगा नदीका प्रवाह भी पवित्र था और जिस प्रकार उनकी कीर्ति कल्पान्त काल तक टिकनेवाली थी उसी प्रकार गंगा नदी भी कल्पान्त काल तक टिकनेवाली थी। अथवा जो गंगा किसी स्त्रीके समान जान पडतो थी, क्योंकि मछलियाँ ही उसके नेत्र थे, उठती हुई तरंगें ही भौंहोंका नचाना था और दोनों किनारोंके वनकी पंक्ति ही उसकी साड़ी थी। जो स्त्रियोंके जघन भागके समान सुन्दर किनारोंसे सहित थी, उसके वे किनारे बहुत ही बड़े थे। शब्द करती हुई हंसोंकी माला ही उनकी करधनी थी और लहरें ही उनके वस्त्र थे।-चंचल लहरोंरूपी हाथोंके द्वारा उड़ाये हुए पक्षिसमूहोंके मनोहर शब्दोंसे जो ऐसी जान पड़ती थी मानो किनारेके वृक्षोंके साथ कुछ वार्तालाप करनेके लिए प्रयत्न ही कर रही हो ।- जो अपनी छलकती हुई लहरोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो तटरूपी नितम्ब प्रदेशपर जंगली हाथियोंके द्वारा किये हुए दाँतोंके घावोंको समुद्ररूप पतिके डरसे शोभायमान लहरोंरूपी वस्त्रसे ढंक ही रही हो। जो दोनों ओर लगी हुई हरीभरी वनश्रेणियोंके प्रकट करने तथा साफ-साफ दिखाई देनेवाली भँवरोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो किसी स्त्रीकी तरह अपने समद्ररूप पतिके लिए रोमराजि और नाभि ही दिखला रही हो ।-जो चंचल लहरोंके संघटनसे उड़ी हुई पक्षियोंकी पंक्तिको धारण कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो सब नदियोंको जीत लेनेसे प्राप्त हुई विजयपताकाको ही धारण कर रही हो। जो किसी उत्तम गायको हँसी करती हुई-सी जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार उत्तम गाय समांसमीना अर्थात् प्रति वर्ष प्रसव करनेवाली होती है उसी प्रकार वह नदी भी समांस-मीना अर्थात परिपृष्ट मछलियोंसे सहित थी, जिस प्रकार उत्तम गायमें पर्याप्त पय अर्थात् दुध होता है उसी प्रकार उस नदीमें भी पर्याप्त पय अर्थात् जल था, जिस प्रकार उत्तम गाय गम्भीर शब्द करती है उसी प्रकार वह भी गम्भीर कल-कल शब्द कर रही थी, उत्तम गाय जिस प्रकार जगतको पवित्र करनेवाली है उसी प्रकार वह भी जगत्को पवित्र करनेवाली थी और उत्तम गाय जिस प्रकार पूज्य होती है उसी प्रकार वह भी पूज्य थी । अथवा जो जिनवाणीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार जिनवाणी गुरु-प्रवाह अर्थात् आचार्य परम्परासे प्रसृत हुई है उसी प्रकार वह भी गुरुप्रवाह अर्थात् बड़े भारी जलप्रवाहसे प्रसृत हुई थी-प्रवाहित हुई थी। जिस प्रकार जिन वाणी तीर्थ अर्थात् धर्मको इच्छा करनेवाले पुरुषों १ कान्तः ल०। २ बालोमि-त० । ३-वनेभः ल०। ४ तीर । ५ प्रदर्शयन्तीम् । ६ मांसभक्षकमीनसहिताम् । प्रतिवर्ष गर्भ गृह णन्तीम् । 'समांसमीना सा यैव प्रतिवर्ष प्रसूयते' । ७ प्रशस्तगाम् । गोमचचिकाम् ल०, द०, इ० ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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