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The 15th chapter of the text describes a river, comparing it to the divine river of the Jain cosmology. It is said to be worshipped by the *rajahansas* (royal swans), just as the divine river is worshipped by the *tirthankaras* (liberated souls). The river is described as being pure and free from impurities, just as the *jinavani* (Jain scriptures) are free from impurities. It is also described as being vast and expansive, reaching the ocean just as the divine river does. The river is said to be a source of joy and prosperity, just as the divine river is. It is also described as being powerful and unstoppable, just as the divine river is. The river is said to be beautiful and majestic, just as the divine river is.
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________________ १५ षड्विंशतितमं पर्व राजहंसैः'कृतोपास्यामलध्यां विस्तायतिम् । जयलक्ष्मीमिव स्फीतामात्मीयामब्धिगामिनीम् ॥ १३८॥ विलसत्पद्मसंभूतां जनतानन्ददायिनीम् । जगद्मोग्यामिवात्मीयां श्रियमायतिशालिनीम् ॥१३९॥ विजयातटाक्रान्ति कृतश्लाघां सुरंहसम् । अमग्नप्रसरां दिव्यां निजामिव पताकिनीम् ॥१४०॥ व्यालोलोमिकरास्पृष्टैः स्वतीरवनपादपैः । दधद्मिरकुरो दमाश्रितां कामुकैरिव ॥१४१॥ रोधोलतालयासीनान स्वेच्छया सुरदम्पतीन् । हसन्तीमिव सुध्वानैः शीकरोत्थैर्विसारिभिः ॥१४२॥ किन्नराणां कलक्वाणैः सगानैरुपवीणितैः । सेव्यपर्यन्तभूभागलतामण्डपमण्डनाम् ॥१४३॥ के द्वारा उपासित होती है उसी प्रकार वह भी तीर्थ अर्थात् पवित्र तीर्थ-स्थानकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंके द्वारा उपासित होती अथवा किनारेपर रहनेवाले मनुष्य उसमें स्नान आदि किया करते थे, जिस प्रकार जिनवाणीसे गम्भीर शब्दोंकी उत्पत्ति होती है उसी प्रकार उससे भी गम्भीर अर्थात् बड़े जोरके शब्दोंकी उत्पत्ति होती थी, और जिस प्रकार जिनवाणी मल अर्थात पर्वापर विरोध आदि दोषोंसे रहित होती है उसी प्रकार वह भी मल अर्थात् कीचड़ आदि गँदले पदार्थोंसे रहित थी।-अथवा जो अपनी ( भरतकी) विजयलक्ष्मोके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार विजयलक्ष्मीकी उपासना राजहंस अर्थात् बड़े-बड़े राजा लोग करते थे उसी प्रकार उस नदीकी भी उपासना राजहंस अर्थात् एक प्रकारके हंसविशेष करते थे, जिस प्रकार जयलक्ष्मीका कोई उल्लंघन-अनादर नहीं कर सकता था उसी प्रकार उस नदोका भी कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था, जयलक्ष्मीका आयति अर्थात् भविष्यत्काल जिस प्रकार स्पष्ट प्रकट था इसी प्रकार उसकी आयति अर्थात् लम्बाई भी प्रकट थी, जयलक्ष्मी जिस प्रकार स्फीत अर्थात् विस्तृत थी उसी प्रकार वह भी विस्तृत थी और जयलक्ष्मी जिस प्रकार समुद्र तक गयी थी उसी प्रकार वह गंगा भी समुद्र तक गयी हुई थी। अथवा जो भरतकी राज्यलक्ष्मीके समान मालूम होती थी क्योंकि जिस प्रकार भरतकी राज्यलक्ष्मी शोभायमान पद्म अर्थात् पद्म नामकी निधिसे उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार वह नदी भी पद्म अर्थात् पद्म नामके सरोवरसे उत्पन्न हुई थी, भरतकी राज्यलक्ष्मी जिस प्रकार जनसमूहको आनन्द देनेवाली थी उसी प्रकार वह भी जनसमहको आनन्द देनेवाली थी, भरतकी राज्यलक्ष्मी जिस प्रकार जगत्के भोगने योग्य थी उसी प्रकार वह भी जगत्के भोगने योग्य थी, और भरतकी लक्ष्मी जिस प्रकार आयति अर्थात् उत्तरकालसे सुशोभित थी उसी प्रकार वह आयति अर्थात् लम्बाईसे सुशोभित थी ।-अथवा जो भरतकी सेनाके समान थी, क्योंकि जिस प्रकार भरतकी सेना विजयार्ध पर्वतके तटपर आक्रमण करनेसे प्रशंसाको प्राप्त हुई थी उसी प्रकार वह नदी भी विजयाध पर्वतके तटपर आक्रमण करनेसे प्रशंसाको प्राप्त हुई थी ( गंगा नदी विजया पर्वतके तटको आक्रान्त करती हुई बही है ) जिस प्रकार भरतकी सेनाका वेग तेज था उसी प्रकार उस नदीका वेग भी तेज था। जिस प्रकार भरतकी सेनाके फैलावको कोई नहीं रोक सकता था उसी प्रकार उसके फैलावको भी कोई नहीं रोक सकता था और भरतकी सेना जिस प्रकार दिव्य अर्थात् सुन्दर थी उसी प्रकार वह नदी भी १ सेवाम् । २ विवृतायतीम् ल०। ३ पद्महदे जाताम् । पक्षे निधिविशेषजाताम् । ४ आक्रमण । ५ श्लाघ्यां ल०, इ०। ६ सुवेगाम् । ७ रोमाञ्चम् । ८ तीरलतागृहस्थितान् । ९ सुस्वानः ल० । स्वस्वानः इ०।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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