Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
264
Adipuranam
One should recite the following mantras: "I take refuge in the one born of truth," "I take refuge in the one worthy of being an Arhat," "I take refuge in the mother of the Arhat," "I take refuge in the son of the Arhat," "I take refuge in the one who has attained eternal knowledge," "I take refuge in the one born without equal," and "I take refuge in the three jewels." After this, one should recite the words "Samyagdristi, Samyagdristi, Gyanamoorti, Gyanamoorti, Saraswati, Saraswati, Swaha" twice each. Then, one should recite the desired mantra as before. 28-30.
The collection of the above-mentioned mantras is as follows:
"I take refuge in the one born of truth, I take refuge in the one worthy of being an Arhat, I take refuge in the mother of the Arhat, I take refuge in the son of the Arhat, I take refuge in the one who has attained eternal knowledge, I take refuge in the one born without equal, I take refuge in the three jewels, Samyagdristi, Samyagdristi, Gyanamoorti, Gyanamoorti, Saraswati, Saraswati, Swaha. May the fruits of service be the six supreme abodes, may there be destruction of untimely death, may there be liberation from the cycle of birth and death."
These mantras are called "jati mantras" because they are the cause of the jati sanskar. Now, we will discuss the "nistarak mantras." 31.
First, one should remember the mantra "Satyajatay Swaha" (I offer oblations to the one who has attained the birth of truth). Then, one should recite the mantra "Arhajatay Swaha" (I offer oblations to the one who has attained the birth of an Arhat). After this, the dvija should recite the mantra "Shatkarmane Swaha" (I offer oblations to the one who performs the six karmas). Then, one should recite the mantra "Gramayataye Swaha" (I offer oblations to the Gramayatika). 32-33.
________________
२६४
आदिपुराणम्
अईनमातृपदं तद्वत्वन्तमर्हत्सुताक्षरम् । अनादिगमनस्येति तथाऽनुपमजन्मनः ॥२८॥ रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामीत्यतः परम् । बोद्ध्यन्तं च ततः सम्यग्दृष्टिं द्वित्वेन योजयेत् ॥२५॥ ज्ञानमूर्तिपदं तद्वत्सरस्वतिपदं तथा । स्वाहान्तमन्ते वक्तव्यं काम्यमन्त्रश्च पूर्ववत् ॥३०॥ __ चूर्णिः - सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अईजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अन्मातुः शरणं प्रपयामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि, अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्थ शरणं प्रपद्यामि, हें सम्यग्दृष्टे हैं सम्यग्दृष्टे, हे ज्ञानमूत, ज्ञान. हे सरस्वति, हे सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवन, अपमृत्युविनाशनं भवतु ।
जातिमन्त्रीऽयमाम्नातो जाति संस्कारकारणम् । मन्त्रं निस्तारकादि च यथाम्नायमिनो वे ॥३१॥ निस्तारकमन्त्रः स्वाहान्तं सत्यजाताय पदमादावनुस्मृतम् । तदन्तमह जातायपदं स्यात्तदनन्तरम् ॥३२॥ ततः षटकर्मणे स्वाहा पदमुच्चारयेद् द्विजः । स्याग्रामयतये स्वाहा पदं तस्मादनन्तरम् ॥३३॥ अनादिश्रोत्रियायेति ब्रूयात् स्वाहापदं ततः । तद्वच्च स्नातकायति श्रावकायेति च द्वयम् ॥३४॥
सत्यरूप जन्मको धारण करनेवाले जिनेन्द्रदेवका शरण लेता हूँ ), इस प्रकार कहना चाहिए । इसके बाद 'अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि' ( मैं अरहन्त पदके योग्य जन्म धारण करनेवालका शरण लेता हूँ ) 'अर्हन्मातुः शरणं प्रपद्यामि' ( अर्हन्तदेवकी माताका शरण लेता हूँ, ) 'अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि' ( अरहन्तदेवके पुत्रका शरण लेता हूँ ), 'अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि' ( अनादि ज्ञानको धारण करनेवालेका शरण लेता हूँ ), अनुपमजन्मन : शरणं प्रपद्यामि' (उपमारहित जन्मको धारण करनेवालेका शरण लेता है ) और 'रत्नत्रयस्य शरण प्रपद्यामि' ( रत्नत्रयका शरण ग्रहण करता है ) ये मन्त्र बोलना चाहिए। तदनन्तर सम्बोधन विभक्त्यन्त सम्यग्दृष्टि, ज्ञानमूर्ति और सरस्वती पदका दो-दो बार उच्चारण कर अन्तमें स्वाहा शब्द बोलना चाहिए अर्थात् सम्यग्दृष्टे, सम्यग्दृष्टे, ज्ञानमूर्ते, ज्ञानमूर्ते, सरस्वति, सरस्वति, स्वाहा ( हे सम्यग्दृष्टे हे सम्यग्दृष्टे, हे ज्ञानमूर्ते हे ज्ञानमूर्ते, हे सरस्वति, हे सरस्वति, मैं तेरे लिए हवि समर्पण करता है) यह मन्त्र कहना चाहिए और फिर काम्य मन्त्र पहलेके समान ही पढ़ना चाहिए ।।२७-३०।। ऊपर कहे हुए पीठिका मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है :
'सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हन्मातु: शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि, अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, ज्ञानमूर्ते ज्ञानमूर्ते, सरस्वति सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु ।'
ये मन्त्र जातिसंस्कारका कारण होनेसे जाति मन्त्र कहलाते हैं अब इसके आगे निस्तारक मन्त्र कहते हैं ॥३१।। सबसे पहले 'सत्यजाताय स्वाहा' ( सत्यरूप जन्मको धारण करने वालेके लिए मैं हवि समर्पण करता हूँ ) इस मन्त्रका स्मरण किया गया है फिर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' ( अरहन्तरूप जन्मको धारण करनेवालेके लिए मैं हवि समर्पित करता हूँ ) यह मन्त्र बोलना चाहिए और इसके बाद षट्कर्मणे स्वाहा ( देवपूजा आदि छह कम करनेवालेके लिए हवि समर्पित करता हूँ ), इस मन्त्रका द्विजको उच्चारण करना चाहिए। फिर 'ग्रामयतये स्वाहा' ( ग्रामयतिके लिए समर्पण करता हूँ ), यह मन्त्र वोलना चाहिए ॥३२-३३॥ फिर १ तु शब्दः अन्ते यस्य तत् । २ संबुद्धयन्तम् । ३ सम्यग्दृष्टिपदम् । ४ दिः कृत्वा योजयेदित्यर्थः । ५ पटपर. मस्थानेत्यादि । ६ प्रोक्तः ।७ स्वाहान्तम् ।