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The Twenty-Eighth Chapter 3 * "O Lord, we are ready to retaliate against whoever, be it a Deva or a Danava, has sent this arrow." || 126 || Thus, the valiant protectors, having informed their Lord, the Magadha, were told by him, "Be silent! There is no benefit in such heroic words." || 127 || "You are the Devas under my command, and I am the Magadha. Have you ever heard of me tolerating an enemy? " || 128 || "A man who bears his life, stained with defeat, is not considered a man by virtue of his qualities, but only by his gender." || 129 || "He is a painted man or a straw man who, without any qualities, merely wants to be called a man." || 130 || "He who purifies his lineage and birth through his valor is truly a man. On the other hand, a man who calls himself a hero merely by name, it would be better if he were not born on this earth." || 131 || "We are called Devas only by conquering our enemies, not by merely roaming around at will. Therefore, our wealth should always be obtained through victory over our enemies." || 132 || "He who worships another by offering him things like ropes, elephants, horses, and royal insignia like umbrellas and fans, his wealth is for the enjoyment of others. I consider such wealth to be a mockery." || 133 || "This king, who shoots arrows, wants wealth from me. For this, I will give him death along with war." || 134 || "First, I will break this arrow and make it the first fuel for my fire of anger. This arrow, in its small pieces, will be the fuel for my fire of anger." || 135 || 1 7 47 1
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________________ अष्टाविंशतितमं पर्व 3 * येनायं प्रहितः पत्री नाकिना दानवेन वा । तस्य कर्तुं प्रतीकारमिम सज्जा वयं प्रभो ॥ १२६॥ इत्यारक्षि मस्तूर्णमस्य विज्ञापितः प्रभुः । माच्वं महालापैरित्युचैः प्रत्युवाच तान् ॥१२७॥ यूयं एवमाद्याः सोऽहमेवास्मि मागधः । श्रुतपूर्वमिदं किं वः सोडपूर्वी मयेत्यः ॥ १२८ ॥ विभर्ति यः पुमान् प्राणान् परिभूतिमलीमसान् । न गुणैलिंगमात्रेण पुमाने प्रतीयते ॥ ३२२ ॥ स चित्रपुरुषो वास्तु चञ्चापुरुष एव च । यो विनापि गुणैः पोर्नाम्नैव पुरुषायते ॥१३०॥ १३ 43 16 स पुमान् यः पुनीते स्वं कुलं जन्म च पौरुषः भटबुबो जनो यस्तु तस्यास्च भवनिभुवि ॥ १३१ ॥ विजिगीता देवा" वयं नेच्छाविहारतः । ततोऽरिविजयादेव संग्दस्तु सदापि नः ॥ १३२ ॥ वस्तुवाहन राज्याङ्गराराधयति यः परम् । परभोगीणमैश्वर्य ेतस्य मम्ये विडम्बनम् ॥ १३३ ॥ शरणाली शशी प्रभुः कोऽपि मतोऽयं धनमीप्सति । धनायतोऽस्य दास्यामि निधनं प्रश्नः समम् ॥ १३४ ॥ येनं शरं तावन् कोपानेः प्रथनम् । करवाणीदमेवास्तु "तनुशर कैरुपेन्धनम् ॥ १३५ ॥ भवनके आंगन में कोई देदीप्यमान बाण आकर पड़ा है उसीसे यह क्षोभ हुआ है इसका दूसरा कारण नहीं है ।। १२५ ।। हे प्रभो, जिस किसी देव अथवा दानवने यह बाण छोड़ा है हम सब लोग उसका प्रतिकार करनेके लिए तैयार हैं ।। १२६ ।। इस प्रकार रक्षा करनेवाले वीर योद्धाओंने शीघ्र ही आकर अपने स्वामी मागध देवसे निवेदन किया और मागध देवने भी बड़े जोरसे उन्हें उत्तर दिया कि चुप रहो, इस प्रकार वीर वाक्योंसे कुछ लाभ नहीं है ।। १२७।। तुम लोग वे ही मेरे अधीन रहनेवाले देव हो और मैं भी वही मागध देव हैं, क्या मुझे कभी पहले अपना शत्रु सहन हुआ है ? यह बात तुम लोगोंने पहले भी कभी सुनी है ? ।।१२।। जो पुरुष पराभवसे मलिन हुए अपने प्राणोंको धारण करता है वह गुणोंसे पुरुष नहीं कहलाता किन्तु केवल लिंगसे ही पुरुष कहलाता है ।। १२९ ।। जो पुरुष पुरुषोंमें पाये जानेवाले गुणोंके बिना केवल नाम से ही पुरुष बनना चाहता है वह या तो चित्रमें लिखा हुआ पुरुष है अथवा तृण काष्ठ वगैरह से बना हुआ पुरुष है ।। १३०|| जो अपने पराक्रमसे अपने कुल और जन्मको पवित्र करता है। वास्तव में वही पुरुष कहलाता है, इसके विपरीत जो मनुष्य मूठमूठ ही अपनेको वीर कहता है पृथिवीपर उसका जन्म न लेना ही अच्छा है ।। १३१ ।। हम लोग शत्रुओंको जीतनेसे ही 'देव' कहलाते हैं, इच्छानुसार जहां-तहां विहार करनेमात्र से देव नहीं कहलाते इसलिए हम लोगोंकी सम्पत्ति सदा शत्रुओंको विजय करनेमात्र से ही प्राप्त हो ।। १३२ ।। जो मनुष्य रस्न आदि वस्तु, हाथी घोड़े आदि वाहन और छत्र चमर आदि राज्यके चिह्न देकर किसी दूसरेकी आराधना सेवा करता है उसका ऐश्वर्य दूसरोंके उपभोगके लिए हो और में ऐसे ऐश्वयंको केवल विडम्बना समझता हूँ ।। १३३॥ बाण चलानेवाला यह कोई राजा मुझसे धन चाहता है सो इसके लिए मैं युद्धके साथ-साथ निधन अर्थात् मृत्यु दूंगा || १३४|| सबसे पहले मैं इस बाणको चूर कर अपने क्रोधरूपी अग्निका पहला ईधन बनाऊँगा, यही बाण अपने छोटे-छोटे टुकड़ों 1 ७ ४७ 1 दोष्यन्ति १ प्रभो वयम् स० अ०, प०, इ० । २ अङ्गरक्षिभटैः । ३ तूष्णीं तिष्ठत । ४ ते पूर्वस्मिन् विद्यमाना एव । ५ परिभव । ६ तृणपुरुषः । चञ्चोऽनलादिनिर्माणे चञ्चा तु तृणपूरुषे' इत्यभिधानात् । करिकलभन्यायमाश्रित्य पुनः पुरुषशब्दप्रयोगः । ७ वा ल०, ब०, अ०, प०, स० द०, इ० । ८ पुरुषसंबन्धिभिः ९ अनुत्पत्तिः । 'नङो निः शापे' इति अनिप्रत्ययान्तः । १० विजिगीषन्तीति देवाः ११ स्वरविहारतः । क्रीडाविहारत इति भावः । १२ परभोगि १३] अस्मत् । १४ प्रधनैः ० ० ० अ०, प०, स० युद्ध इत्यभिधानात् । १५ अलगकलै: ( चूर्णीकृतशरोरेन्धनैः ) । शत्रुशरीरशकलैः । १६ संधुक्षणम्, अग्निज्वालनम् । । हितम् । युद्धमायोधनं जन्यं प्रधनं प्रविदारणम्'
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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