SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वात्रिंशत्तम पर्व १२६ ता मनोजरसस्येव सतिं संप्राप्य चक्रभृत् । स्वं मेने सफलं जन्म परमानन्दनिर्भरः ॥१८४॥ तावानिर्जितनिःशेषम्लेच्छराजबलो बलैः । जयलक्ष्मी पुरस्कृत्य सेनानीः प्रभुमैक्षत ॥१८५॥ कृतकार्यं च सत्कृत्य तं तांश्च म्लेच्छनायकान् । विसयं सम्राट् सजोऽभूत् प्रत्यायातुमपाङमहीम् १८६ जयप्रयाणशंसिन्यस्तदा भेर्यः प्रदध्वनुः । विष्वग्बलार्णवे क्षोभमातन्वन्त्यो महीभृताम् ॥१८७॥ तां काण्डकप्रपाताख्यां प्रागेवोद्घाटितां गुहाम् । प्रविवेश बलं जिष्णोश्चक्ररत्नपुरोगमाम् ॥१८॥ गङ्गापगोभयप्रान्तमहावीथीद्वयन सा । व्यतीयाय गुहां सेना कृतद्वारा चमूभृतां ॥१८९॥ मुच्यमाना गुहा सैन्यैश्चिरादुच्छ्वसितेव सा । चमूरपि गुहारोधान्निःसृत्योज्जीवितेव सा ॥१९०॥ नाट्यमालामरस्तत्र रत्नाधैं प्रभुमर्घयन् । प्रत्यगृह्णाद् गुहाद्वारि पूर्णकुम्भादिमङ्गलैः ॥१९१॥ कृतोपच्छन्दनं चामुं नाटयमालं सुरर्षभम् । व्यसर्जयद्यथोद्देशं सत्कृत्य भरतर्षभः ॥१९२॥ कृतोदयमिनं ध्वान्तात्परितो गगनेचराः । परिचेरुर्नभोमार्गमारुध्य पृतसायकाः ॥१३॥ मालिनीवृत्तम् नमिविनमिपुरी गैरन्वितः खेचरेन्द्रः खचरगिरिगुहान्तर्धान्तमुत्सार्य दूरम् ।। रविरिव किरणोधैर्योतयन्दिग्विभागान् निधिपतिरुदियाय प्रीणयन् जीवलोकम् ॥१९४॥ सरसकिसलयान्तःस्पन्दमन्दे सुरस्त्रीस्तनतटपरिलग्नक्षौमसंक्रान्तवासे ।। सरति मरुति मन्दं कन्दरेष्वद्रिमर्तुनिधिपतिशिबिराणां प्रादुरासन्निवेशाः ॥१९५॥ विद्याधरोंके योग्य मंगलाचारपूर्वक विवाह किया ॥१८३।। रसकी धाराके समान मनोहर उस सुभद्राको पाकर उत्कृष्ट आनन्दसे भरे हुए चक्रवर्तीने अपना जन्म सफल माना था ॥१८४।। इतने में ही जिसने अपनी सेनाके द्वारा समस्त म्लेच्छ राजाओंकी सेन्ग जीत ली है ऐसे सेनापतिने जयलक्ष्मीको आगे कर महाराज भरतके दर्शन किये ॥१८५।। जिसने अपना कार्य पूर्ण किया है ऐसे सेनापतिका सन्मान कर और आये हुए म्लेच्छ राजाओंको बिदा कर सम्राट भरतेश्वर दक्षिणकी पृथिवीकी ओर आनेके लिए तैयार हुए ॥१८६॥ उस समय विजयके लिए प्रस्थान करनेकी सूचना देनेवाली भेरियाँ राजाओंकी सेनारूपी समुद्रमें क्षोभ उत्पन्न करती हुई चारों ओर बज रही थीं ॥१८७।। चक्ररत्न जिसके आगे चल रहा है ऐसी भरतकी सेनाने पहलेसे ही उघाड़ी हुई काण्डकप्रपात नामकी प्रसिद्ध गुफामें प्रवेश किया ।।१८८॥ उस सेनाने गंगा नदीके दोनों किनारोंपर-की दो बड़ी-बड़ी गलियोंमें-से, सेनापतिके द्वारा जिसका द्वार पहलेसे ही खोल दिया गया है ऐसी उस गुफाको पार किया ॥१८९।। सेनाके द्वारा छोड़ी हुई वह गुफा ऐसी जान पडती थी मानो चिरकालसे उच्छवास ही ले रही हो और वह सेना भी गुफाके रोधसे निकलकर ऐसी मालूम होती थी मानो फिरसे जीवित हुई हो ॥१९०।। वहाँ नाट्यमाल नामके देवने दक्षिण गुफाके द्वारपर पूर्णकलश आदि मंगलद्रव्य रखकर तथा रत्नोंके अर्घसे अर्घ देकर भरत महाराजकी अगवानी की थी - सामने आकर सत्कार किया था ॥१९१॥ भरत महाराजने अनेक प्रकारकी स्तुति करनेवाले उस नाट्यमाल नामके श्रेष्ठ देवका सत्कार कर उसे अपने स्थानपर जानेके लिए बिदा कर दिया ॥१९२॥ धनुष-बाण धारण करनेवाले विद्याधर चारों ओरसे आकाशमार्गको घेरकर, सूर्यके समान अन्धकारसे परे रहकर उदित होनेवाले चक्रवर्तीकी परिचर्या करते थे ॥१९३।। जिनमें नमि और विनमि मुख्य हैं ऐसे विद्याधरोंसहित तथा विजयार्ध पर्वतकी गुफाके भीतरी अन्धकारको दूर हटाकर सूर्यके समान किरणोंके समूहसे दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ वह निधियोंका अधिपति चक्रवर्ती समस्त जीवलोकको आनन्दित करता हुआ उदित हुआ अर्थात् गुफाके बाहर निकला ॥१९४।। रस१ मनोज्ञां रसस्येव । २ दक्षिणभूमिम् । ३ सेनान्या। ४ कृतसान्त्वनम् । ५ सुरश्रेष्ठम् । ६ निजदेशमनतिक्रम्य । ७ पुरःसरैः । ८ उदेति स्म । ९ सुगन्धे । १० वाति सति ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy