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________________ ४७८ आदिपुराणम् 'सुकेतोश्चाखिले तस्मिन्सत्यभूते मुनीश्वरम् । ताः सर्वाः परितोषेण गताः समभिवन्द्य तम् ॥३६॥ आवामपि तदा वन्दनाय तत्र गताविदम् । श्रुत्वा दृष्ट्वा गतौ प्रीतिपरीतहृदयौ दिवम् ॥३६५॥ शार्दूलविक्रीडितम् इत्यात्मीयभवावलीमनुगतैर्मान्यैर्मनोरञ्जनैः ___ स्पष्टैरस्खलितैः कलैरविरलैरव्याकुलैर्जल्पितैः” । आत्मोपात्तशुभाशुभोदयवशोद्भूतोच्चनीचस्थिति संसर्पदशनांशुभूषितसभासभ्यान सावभ्यधात् ॥३६६॥ श्रुत्वा तां हृदयप्रियोक्तिमतुषत्कान्तो रतान्ते यथा संसच्च व्यकसत्तरां शरदि वा लक्ष्मीः सरःसंश्रया । कान्तानां" वदनेन्दुकान्तिरगलत्तद्वाग्दिनेशोद्गते-१२ रस्थाने कृतमत्सरोऽसुखकरस्त्याज्यस्ततोऽसौ " बुधैः ॥३६७॥ कान्तोऽभूद रतिषेणया वणिगसौ पूर्व सुकान्तस्ततः संजातो रतिषेणया रतिवरो गेहे कपोतो विशाम्। चरित्र सुना और सबके सत्य सिद्ध होनेपर बड़े सन्तोषके साय मुनिराजकी वन्दना कर अपनेअपने स्थानोंकी ओर प्रस्थान किया ।।३६३-३६४॥ उस समय हम दोनों भी मुनिराजको वन्दना करनेके लिए वहाँ गये और यह सब देख-सुनकर प्रसन्नचित्त होते हए स्वर्ग चले गये थे ॥३६५॥ इस प्रकार अपने द्वारा उपार्जन किये हुए शुभ-अशुभ कर्मोके उदयवश जिसे ऊँची-नीची अवस्था प्राप्त हुई और जिसने अपने दाँतोंकी फैलती हुई किरणोंसे समस्त सभाको सुशोभित कर दिया है ऐसी सुलोचनाने सब सभासदोंको क्रमबद्ध मान्य, मनोहर, स्पष्ट. अस्खलित, मधर, अविरल और आकुलतारहित वचनों-द्वारा अपने पूर्वभवकी परम्परा कह सुनायी ॥३६६।। हृदयको प्रिय लगनेवाले सुलोचनाके वचन सुनकर जयकुमार उस प्रकार सन्तुष्ट हुए जिस प्रकार कि सम्भोगके बादमें सन्तुष्ट होते । वह सभा उस तरह विकसित हो उठी जिस तरह कि शरदऋतुमें सरोवरकी शोभा विकसित हो उठती है। और सुलोचनाके वचनरूपी सूर्यके उदय होनेसे अन्य स्त्रियोंके मुखरूपी चन्द्रमाओंको कान्ति नष्ट हो गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि अयोग्य स्थानपर को हुई ईर्ष्या दुःखी करनेवाली होती है इसलिए विद्वानोंको ऐसी ईर्ष्या अवश्य ही छोड़ देनी चाहिए ॥३६७।। सुलोचनाने जयकुमारसे कहा कि मैं पहले रतिवेगा थी और आप मेरे ही साथ मेरे पति सुकान्त वैश्य हुए, फिर मैं सेठके घर रतिषणा कबूतरी हुई और आप मेरे ही साथ रतिवर नामक कबूतर हुए, फिर मैं प्रभावती विद्याधरी हुई और आप मेरे ही साथ हिरण्यवर्मा विद्याधर हुए उसके बाद मैं स्वर्गमें महादेवी हुई और आप मेरे ही साथ अतिशय १ मृणालवतीपुरपतेः सुकेतोरपि चेष्टितं मुनेः सकाशाच्च्युतमिति संबन्धः । एतत् कथात्रयं ग्रन्थान्तरे द्रष्टव्यम् । २ सत्यीभूते ल०, ५०, इ०, स० । ३ प्रभावतीचरीहिरण्यवर्मचरसुरदम्पती । ४ सुन्दरैः । ५ सम्पूर्णः । ६ स्थितिः ल०। ७ सुलोचना। ८ उवाच। ९ जयः। १० सभा च । ११ जयस्य श्रीमतीशिवशङ्करादियोषिताम् । १२ सुलोचनावचनादित्योदये सति । १३ दुःखकरः । १४ मत्सरः । १५ वैश्यानाम् ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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