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The forty-fourth chapter: The trained, strong, valiant warriors, mounted on valiant steeds, with flags flying, elephants prepared on all sides, like immovable mountains, were moving forward. The horses, like waves of the sea of battle, adorned with armor, were following behind, neighing and galloping in all directions. "Quickly attach the wheels, fix the axle, drive the horses," thus the chariots, with their swift horses and flying flags, were following behind. The infantry, armed with bows, arrows, spears, lances, and chakras, were advancing behind the chariots, enraged and blocking all directions. Elephants were pushing against elephants, horses against horses, chariots against chariots, and infantry against infantry, all rushing into battle. Mounted on the magnificent Vijayghosh elephant, adorned with a chakra flag, and surrounded by valiant warriors, Arkakirti, like the sun with the constellations and Kulachala mountains, was advancing towards Achaladhip, the lord of the earth, as if the sun itself were moving towards Sumeru. Knowing this, King Achaladhip was greatly distressed and thought, "Even a well-considered action can be overturned by fate." Thus, after consulting with his ministers and Jayakumar, he quickly sent a messenger to Arkakirti. The messenger said, "O Kumar, is it right for you to violate the boundaries? The time of destruction is far away, so be pleased. Do not be hasty."
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________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व शिक्षिताः बलिनः शूराः शूरारूढाः सकेतवः। गजाः समन्तात् सन्नाह्याः प्राक्चेलुरचलोपमाः ॥७॥ तुरङ्गमास्तरङ्गामाः सङ्नामाब्धेः सवर्मकाः । अनुदन्ति नदन्तोऽयान् विक्रामन्तः समन्ततः ॥७॥ सचक्रं धेहि संयोज्य सधुरं प्राज वाजिनः । इति "संभ्रमिणोऽपप्तन् रथास्तदनु सधजाः ॥४०॥ चहाः कोदण्डकुन्तासिप्रासचक्रादिभीकराः । यान्ति स्मानुरथं क्रुद्धा रुद्ध दिक्काः पदातयः ॥८॥ गजं गजस्तदोदव्य वाहो वाहं रथं रथः । पदातयश्च पादान्तं संभ्रमान्निर्थयुयुधे ॥ ८२॥ आरूढानेकपानेकभूपालपरिवारितः । भेरीनिष्ठुरनिर्घोषमीषिताशेषदिग्द्विपः ॥८३॥ चक्रध्वजं समुत्थाप्य सम्यगाविष्कृतोन्नतिः । गजं विजयघोषाख्यमारुह्यादिवरोत्तमम् ॥८४॥ अर्ककीर्तिर्बहिर्मास्वदस्यु द्यतभटावृतः। ज्योतिःकुलाचलैर्किश्च वालाभ्यचलाधिपम् ॥५५॥ किंवदन्ती विदित्वैतां भूपो भूत्वा कुलाकुलः । स्वालोचितं च कर्तव्यं विधिना क्रियतेऽन्यथा॥८६॥ इति स्वसचिवैः सार्धमालोच्य च जयादिमिः । प्रत्यर्ककीय॑था दिक्षद् दूतं संप्राप्य सत्वरम् ॥१७॥ कुमार तव किं युक्तमेवं सीमातिलङ्घनम् । प्रसीद प्रलयो दूरं तन्मा कार्षीषागमम् ॥८॥ था मानो कालको बुलानेके लिए ही उठा हो ॥ ७३-७७ ॥ उस समय जो शिक्षित हैं, बलवान् हैं, शूरवीर हैं, जिनपर योद्धा बैठे हुए हैं, पताकाएं फहरा रही हैं, जो सब तरहसे तैयार हैं और पर्वतोंके समान ऊँचे हैं ऐसे हाथी सब ओरसे आगे-आगे चल रहे थे ॥ ७८ ॥ जो संग्रामरूपी समुद्रकी लहरोंके समान हैं, कवच पहने हुए हैं, . हींस रहे हैं और कूद रहे हैं ऐसे घोड़े उन हाथियोंके पीछे-पीछे चारों ओर जा रहे थे ॥७९॥ पहिये जल्दी लगाओ, धुराको ठीक कर जल्दी लगाओ, इस प्रकार कुछ जल्दी करनेवाले, तथा जिनमें शीघ्रगामी घोड़े जुते हुए हैं और ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसे रथ उन घोड़ोंके पीछे-पीछे जा रहे थे ।।८०॥ उन रथोंके पीछे धनुष, भाला, तलवार, प्रास और चक्र आदि शस्त्रोंसे भयंकर, फैलकर सब दिशाओंको रोकनेवाले, क्रोधी और बलवान् पैदल सेनाके लोग जा रहे थे ॥ ८१ ॥ उस समय हाथी हाथीको, घोड़ा घोड़ाको, रथ रथको और पैदल पैदलको धक्का देकर युद्धके लिए जल्दी-जल्दी जा रहे थे । ८२ ॥ तदनन्तर - हाथियोंपर चढ़े हुए अनेक राजाओंसे घिरा हुआ, नगाड़ोंके कठोर शब्दोंसे समस्त दिग्गजोंको भयभीत करनेवाला, चक्रके चिह्नवाली ध्वजाको ऊँचा उठाकर अपनी ऊँचाईको अच्छी तरह प्रकट करनेवाला और चमकीली तलवार हाथमें लिये हुए योद्धाओंसे आवृत अर्ककीति, मेरु पर्वतके समान उत्तम विजयघोष नामक हाथीपर सवार हो अचलाधिप ( अचला अधिप ) अर्थात् पृथ्वीके अधिपति राजा अकम्पनकी ओर इस प्रकार चला मानो ज्योतिर्मण्डल और कुलाचलोंके साथ-साथ सूर्य ही अचलाधिप ( अचल अधिप ) अर्थात् सुमेरुकी ओर चला हो ।।८३-८५।। महाराज अकम्पन यह बात जानकर बहुत ही व्याकुल हुए और सोचने लगे कि अच्छी तरह विचारकर किया हुआ कार्य भी दैवके द्वारा उलटा कर दिया जाता है। इस प्रकार उन्होंने अपने मन्त्री तथा जयकुमार आदिके साथ विचारकर अर्ककीतिके प्रति शीघ्र ही एक शीघ्रगामी दूत भेजा ॥८६-८७॥ दूतने जाकर कहा कि हे कुमार, क्या तुम्हें इस प्रकार सीमाका उल्लंघन करना उचित है ? प्रलयकाल अभी दूर है इसलिए प्रसन्न हूजिए १ संनद्धाः कृताः । २ तनुत्रसहिताः । ३ दन्तिनां पश्चात् । ४ ध्वनन्तः । ५ अगच्छन् । ६ लङ्घनं कुर्वन्तः । ७ चक्रेण सह किंचिद् धेहि धारय । ८ धुरा सह किंचिद् धेहि । ९. प्रेरय । १० आशुप्रधावने प्रयुक्ताः । त्वरावन्त.। ११ अगच्छन् । १२ अश्वः । 'वाहोऽश्वस्तुरगो वाजी हयो धुर्यग्तुरंगमः' इति धनंजयः । १३ संग्रामनिमित्तम् । १४ उद्धृतासि । १५ अकम्पनं महाराज प्रति । मेरुं च । १६ जनवार्ताम् । १७ अधिकाकुलः । .१८ सुष्ट्वालोचितम् । १९ कार्यम् । २० अर्ककीर्ति प्रति । २१ प्राहिणोत् । २२ प्रलयः षष्ठकालान्तें भवतीत्यागमम् । मृषा मा कुरु ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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