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152 The enemy, like an untimely cycle, must fall. The wheel, like a planet, has been deflected by someone's hand. ||11|| Or perhaps there is still a side to be conquered by the Chakravarti. Some knowledgeable people have reasoned thus from the wheel's skidding. ||12|| The generals and other leaders informed the Chakravarti of this. Hearing the news, he was somewhat surprised. ||13|| He pondered, "Why is this wheel, which never stops, skidding today, even though I am here? Its movement never falters." ||14|| "This must be considered," he said, summoning the priest. The valiant king spoke these words in a loud voice. ||15|| From the lotus-like mouth of the king, Saraswati, with her clear intentions and adorned with beautiful ornaments, emerged like a victorious goddess. ||16|| This wheel, which has attacked all directions, which is terrifying to the enemy, why is it not advancing into my city gate? ||17|| In conquering all directions, it did not stop in the eastern, southern, or western seas, nor in the two caves of victory. Why is this wheel now skidding in my courtyard? There must be someone who desires to oppose me. ||18-19|| Is there an insurmountable enemy in my realm, or is there someone of my lineage, with a wicked heart, who hates me? ||20|| Perhaps some wicked person hates me without reason and does not welcome me. The hearts of wicked people often turn against even great men. ||21|| The hearts of great men are free from envy when others prosper, but the hearts of petty men are filled with envy when others prosper. ||22|| Or perhaps someone, filled with arrogance, has not bowed down to me. His pride has surely caused the wheel to be deflected. ||23||
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________________ १५२ आदिपुराणम् कस्याप्यकालचक्रेण पतितव्यं विरोधिनः । करेणेव ग्रहेणाद्य यतश्चक्रेण वक्रितम् ॥११॥ अथवाद्यापि जेतव्यः पक्षः कोऽप्यस्ति चक्रिणः । चक्रस्खलनतः कैश्चिदित्थं तज्ज्ञवितर्कितम् ॥१२॥ सेनानीप्रमुखास्तावत् प्रभवेतन्यवेदयन् । तद्वार्ताऽऽकर्णनाच्चक्री किमप्यासीत्सविस्मयः ॥१३॥ अचिन्तयच्च किं नाम चक्रमप्रतिशासने । मयि स्थिते स्खलत्यद्य क्वचिदप्यस्खलद्गति ॥१४॥ संप्रधार्यमिदं तावदित्याहूय पुरोधसम् । धीरो धीरतरां वाचमित्युच्चैराजगौ मनुः ॥१५॥ वदनोऽस्य मुखाम्भोजाद् व्यक्ताकूता सरस्वती । निर्ययौ सदलंकारा शम्फलीव जयश्रियः ॥१६॥ चक्रमाक्रान्तदिक्चक्रमरिचक्रभयंकरम् । कस्मानास्मत्पुरद्वारि क्रमते न्यकृतार्करुक ॥१७॥ विश्वदिग्विजये पूर्वदक्षिणापरवार्द्धिषु । यदासीदस्खलद्वृत्ति रूपयाश्च गुहाद्वये ॥१८॥ चक्रं तदधुना कस्मात् स्खलत्यस्मद्गृहाङ्गणे । प्रायोऽस्माभिर्विरुद्धेन भवितव्यं जिगीषुणा ॥१९॥ किमसाध्यो द्विषत्कश्चिदस्त्यस्मद्भक्तिगोचरे । सनाभिः कोऽपि किं वाऽस्मान् द्वेष्टि दुष्टान्तराशयः॥२०॥ यः कोऽप्यकारणद्वेषी खलोऽस्मान्नाभिनन्दति । प्रायः स्खलन्ति चेतांसि महत्स्वपि दुरात्मनाम् ॥२१॥ विमत्सराणि चेतांसि महतां परवृद्धिषु । मत्सरीणि तु तान्येव क्षुद्राणामन्यवृद्धिषु ॥२२॥ अथवा दुर्मदाविष्टः कश्चिदप्रणतोऽस्ति मे । स्ववय॑स्तन्मदोच्छित्यै नूनं चक्रेण वक्रितम् ॥२३॥ आज यह चक्र क्रूरग्रहके समान वक्र हुआ है इसलिए अकालचक्रके समान किसी विरोधी शत्रपर अवश्य ही पड़ेगा ॥११॥ अथवा अब भी कोई चक्रवर्तीके जेतव्य पक्ष में हैं - जीतने योग्य शत्र विद्यमान है इस प्रकार चक्रके रुक जानेसे चक्रके स्वरूपको जाननेवाले कितने ही लोग विचार कर रहे थे ।।१२।। सेनापति आदि प्रमुख लोगोंने यह बात चक्रवर्तीसे कही और उसके सुनते ही वे कुछ आश्चर्य करने लगे ।। १३ ।। वे विचार करने लगे कि जिसकी आज्ञा कहीं भी नहीं रुकती ऐसे मेरे रहते हुए भी, जिसकी गति कहीं भी नहीं रुको ऐसा यह चक्ररत्न आज क्यों रुक रहा है ? ॥ १४ ॥ इस बातका विचार करना चाहिए यही सोचकर धीर वीर मनुने पुरोहितको बुलाया और उसने नीचे लिखे हुए बहुत ही गम्भीर वचन कहे ॥१५॥ कहते हुए भरत महाराजके मुखकमलसे स्पष्ट अभिप्रायवाली और उत्तम-उत्तम अलंकारोंसे सजी हुई जो वाणी निकल रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो विजयलक्ष्मीकी दूती ही हो ।।१६।। जिसने समस्त दिशाओंके समूहपर आक्रमण किया है जो शत्रुओंके समूहके लिए भयंकर है और जिसने सूर्यकी किरणोंका भी तिरस्कार कर दिया है ऐसा यह चक्र मेरे ही नगरके द्वारमें क्यों नहीं आगे बढ़ रहा है - प्रवेश कर रहा है ? ॥१७॥ जो समस्त दिशाओंको विजय करनेमें पूर्व-दक्षिण और पश्चिम समुद्रमें कहीं नहीं रुका, तथा जो विजयाकी दोनों गुफाओंमें नहीं रुका वही चक्र आज मेरे घरके आँगनमें क्यों रुक रहा है ? प्रायः मेरे साथ विरोध रखनेवाला कोई विजिगीषु (जीतकी इच्छा करनेवाला) ही होना चाहिए ॥१८-१९।। क्या मेरे उपभोगके योग्य क्षेत्र ( राज्य ) में ही कोई असाध्य शत्रु मौजूद है अथवा दुष्ट हृदयवाला मेरे गोत्रका ही कोई पुरुष मुझसे द्वेष करता है ॥२०॥ अथवा बिना कारण ही द्वेष करनेवाला कोई दुष्ट पुरुष मेरा अभिनन्दन नहीं कर रहा है - मेरी वृद्धि नहीं सह रहा है सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट पुरुषोंके हृदय प्रायः कर बड़े आदमियोंपर भी बिगड़ जाते हैं ॥२१॥ महापुरुषोंके हृदय दूसरोंकी वृद्धि होनेपर मात्सर्यसे रहित होते हैं परन्तु क्षुद्र पुरुषोंके हृदय दूसरोंकी वृद्धि होनेपर ईष्योसहित होते हैं ॥२२॥ अथवा दुष्ट अहंकारसे घिरा हुआ कोई मेरे ही घरका १ अपमृत्युना । २ गन्तव्यम् मर्तव्यमित्यर्थः । ३ जेतव्यपक्षः ल०, द०। ४ चक्रिणे । ५ विचार्यम् । ६ व्यक्ताभिप्राया। ७ कुट्टणी। ८ भुक्तिक्षेत्रे । ९ सपिण्डः । 'सपिण्डास्तु सनाभयः' इत्यभिधानात् । नाभिसंबन्धीत्यर्थः । १० आत्मवर्गे भवः ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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