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## English Translation: **153** **24.** Indeed, even the smallest enemy should not be neglected. A small enemy, like a speck of dust in the eye, is capable of causing great pain if ignored. **25.** Even a small thorn, if not removed forcefully, can cause great pain when lodged in the foot. **26.** This Chakra, a divine gem, is the most precious of all gems. Its movement cannot be disrupted without a cause. **27.** Therefore, O noble one, the task indicated by this Chakra is not insignificant. It is a vital part of the kingdom, and even a minor cause cannot cause its disruption. **28.** Therefore, O wise minister, carefully consider the reason for this Chakra's stillness. Unconsidered actions bear no fruit in this world or the next. **29.** This knowledge of the task rests in your divine vision. Who else can dispel darkness except the sun? **30.** Having conveyed this task to the diviner with concise words, the king remained silent. Indeed, noble ones are usually of few words. **31.** Then, the diviner, with a pleasant and profound voice, adorned with beautiful words, spoke to King Bharata. **32.** The sweetness, the power, the elegance of your words, and the clarity of your meaning – where else can these be found? Nowhere else. **33.** We are merely scholars of the scriptures, not experts in the art of action. But who else, in the field of statecraft, can match your knowledge of applying the scriptures? No one. **34.** You are the foremost king, a king-sage, and this knowledge of statecraft originated with you. How can we, who know this knowledge, not follow your lead?
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________________ १५३ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व खलूपेक्ष्य' लघीया नप्युच्छेद्यो लघु तादृशः । क्षुद्रो रेगुरिवाक्षिस्थो रुजत्यरिरुपेक्षितः ॥२४॥ बलादुद्धरणीयो हि क्षोदीयानपि कण्टकः । अनुद्वतः पदस्थोऽसौ भवेत्पीडाकरो भृशम् ॥२५॥ चक्रं नाम परं देवं रत्नानामिदमनिमम् । गतिस्खलनमतस्य न विना कारणाद् भवेत् ॥२६॥ ततो बाल्यमिदं कार्य यच्चक्रेणार्य सूचितम् । सूचिते खलु राज्याङ्गे विकृति ल्पकारणात् ॥२७॥ तदन कारणं चिस्यं त्वया धीमन्निदन्तयाँ । अनिरूपित कार्याणां नेह नामुत्र सिद्धयः ॥२८॥ त्वयीदं कार्यविज्ञानं तिष्टते दिव्यचक्षुषि । तमसां छेदने कोऽन्यः प्रभवेदंशुमालिनः ॥२९॥ निवेद्य कार्यमित्यस्मै दैवज्ञाय" मिताक्षरैः । विरराम प्रभुः प्रायः प्रभवो मितभाषिणः ॥३०॥ ततः प्रसन्नगम्भीरपदालंकारकोमलाम् । भारती भरतेशस्य प्रबोधायेति सोऽब्रवीत् ॥३१॥ अस्ति माधुर्यमस्त्योजस्तदस्ति पदसौष्टवम् । अस्त्यर्थानुगमोऽन्यत्कियन्नास्ति त्वदचोमये ॥३२॥ शास्त्रज्ञा वयमेकान्तात् नाभिज्ञाः कार्ययुक्तिषु । शास्त्रप्रयोगवित् कोऽन्यस्त्वत्समो राजनीतिषु ॥३३॥ त्वमादिराजो राजर्षिस्तद्विद्यास्त्व"दुपक्रमम् । तद्विदस्तत्प्रयुञ्जाना न जिहीमः कथं वयम् ॥३४॥ मनुष्य नम्र नहीं हो रहा है, जान पड़ता है यह चक्र उसीका अहंकार दूर करनेके लिए वक्र हो रहा है ॥२३॥ शत्रु अत्यन्त छोटा भी हो तो भी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, द्वेष करनेवाला छोटा होनेपर भी शीघ्र ही उच्छेद करने योग्य है क्योंकि आँखमें पड़ी हुई धूलिकी कणिकाके समान उपेक्षा किया हुआ छोटा शत्रु भी पीड़ा देनेवाला हो जाता है ॥२४॥ काँटा दि अत्यन्त छोटा हो तो भी उसे जबरदस्ती निकाल डालना चाहिए क्योंकि पैर में लगा हुआ काँटा यदि निकाला नहीं जायेगा तो वह अत्यन्त दुःखका देनेवाला हो सकता है ॥२५।। यह चक्ररत्न उत्तम देवरूप है और रत्नोंमें मुख्य रत्न है इसकी गतिका स्खलन बिना किसी कारणके नहीं हो सकता है ॥२६।। इसलिए हे आर्य, इस चक्रने जो कार्य सूचित किया है वह कुछ छोटा नहीं है क्योंकि यह राज्यका उत्तम अंग है इसमें किसी अल्पकारणसे विकार नहीं हो सकता है ॥२७।। इसलिए हे बुद्धिमान् पुरोहित, आप इस चक्ररत्नके रुकनेमें क्या कारण है इसका अच्छी तरह विचार कीजिए क्योंकि बिना विचार किये हुए कार्योंकी सिद्धि न तो इस लोकमें होती है और न परलोक ही में होती है ।।२८।। आप दिव्य नेत्र हैं इसलिए इस कार्यका ज्ञान आपमें ही रहता है अर्थात् आप ही चक्ररत्नके रुकनेका कारण जान सकते हैं क्योंकि अन्धकारको नष्ट करने में सूर्यके सिवाय और कौन समर्थ हो सकता है ? ॥२९॥ इस प्रकार महाराज भरत थोड़े हो अक्षरोंके द्वारा इस निमित्तज्ञानीके लिए अपना कार्य निवेदन कर चुप हो रहे सो ठीक ही है क्योंकि प्रभु लोग प्रायः थोड़े ही बोलते हैं ॥३०॥ तदनन्तर निमित्तज्ञानो पुरोहित भरतेश्वरको समझानेके लिए प्रसन्न तथा गम्भीर पद और अलंकारोंसे कोमल वचन कहने लगा ॥३१॥ जो माधुर्य, जो ओज, जो पदोंका सुन्दर विन्यास और जो अर्थकी सरलता आपके वचनोंमें नहीं है वह क्या किसी दूसरी जगह है ? अर्थात् नहीं है ।।३२॥ हम लोग तो केवल शास्त्रको जाननेवाले हैं कार्य करनेको युक्तियोंमें अभिज्ञ नहीं हैं परन्तु राजनीतिमें शास्त्रके प्रयोगको जाननेवाला आपके समान दूसरा कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है ॥३३॥ आप राजाओंमें प्रथम राजा हैं और राजाओंमें ऋषिके समान श्रेष्ठ होनेसे राजर्षि हैं यह राजविद्या केवल आपसे ही उत्पन्न हुई है इसलिए उसे जाननेवाले हम लोग .१ नोपेक्षणीयः । २ अतिशयने लघुः । ३ शीघ्रम् । ४ पीडां करोति । ५ अतिशयेन क्षुद्रः । ६ सुष्ठचिते । ७ चक्रे । ८ प्रतीयमानस्वरूपतया । ९ अविचारित । १० निश्चितं भवति । ११ नैमित्तिकाय । १२ व्यक्तं प०, ल० । १३ तव वचन-प्रपञ्चे । १४ राजविद्याः । १५ त्वदुपक्रमात् ल । त्वया पूर्व प्रवर्तितं कार्यविज्ञानम् । २०
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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