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## The Adipurana **13.** "The wise should be seen daily, their advice on good and bad sought, and they should be worshipped with great reverence, for they are the best of the best." **14.** Reflecting thus within himself, King Bharata arose from his bed in the second half of the night. Having performed his morning rituals, **15.** He stood for a moment in the assembly hall, surrounded by kings, and prepared to go to pay homage to the Lord. **16.** Surrounded by a limited number of crowned kings who had risen with him, and endowed with great splendor, he set out to pay homage. **17.** Then, accompanied by his army, the Emperor quickly reached the destination where the World Teacher resided. **18.** Seeing the ground of the Jina's assembly from afar, the Lord of Treasures bowed, his hands joined in a lotus bud, his head lowered. **19.** Having circumambulated the outer part of the assembly ground, the King of Men entered, crossing various enclosures. **20.** He observed the Manastambha, the Great Chaitya Tree, the Siddhartha Tree, and the stupas adorned with offerings, and passed by them. **21.** He saw the rows of four types of trees, the flags, and the mansions, and passed through each enclosure, observing them. **22.** In each enclosure, he heard the songs and dances of the celestial women, and his mind was filled with joy, yet he maintained perfect composure. **23.** Then, through the lofty gateway of the Gopura, he entered the assembly ground, adorned with the Sri Mandap, where the Ganadharas resided. **24.** He ascended the first platform of the three-tiered seat and circumambulated it, worshipping the Dharmachakras.
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________________ आदिपुराणम् द्रष्टव्या गुरवो नित्यं प्रष्टव्याश्च हिताहितम् । महेज्यया च यष्टव्याः शिष्टानामिष्टमाद्दशम् ॥१३॥ इत्यात्मगतमालोच्य शय्योत्संगात् परार्द्धयतः । प्रातस्तरां समुत्थाय कृतप्राभातिकक्रियः ॥ १४ ॥ ततः क्षणमित्र स्थित्वा महास्थाने नृपैर्वृतः । वन्दनाभक्तये गन्तुमुद्यतोऽभूद् विशांपतिः ॥ १५ ॥ वृतः परिमितैरेव मौलिबगैर नृस्थितैः । प्रतस्थे वन्दना हेतोर्विभूत्या परयान्वितः ॥ १६ ॥ ३१८ ततः क्षेपीय एवासौ गत्वा सैन्यैः परिष्कृतः । सम्राट् प्राप तमुद्देशं यत्रास्ते स्म जगद्गुरुः ॥ १७ ॥ दूरादेव जिनास्थानभूमिं पश्यन्निधीश्वरः । प्रणनाम चलन्मौलिघटिताञ्जलिकुड्मलः ॥ १८ ॥ सांप्रदक्षिणीकृत्य वहिर्भागे सर्दोऽवनिम् । प्रविवेश विशामीशः क्रान्त्वा कक्षाः पृथग्विधाः ॥ १९ ॥ मानस्तम्भमहाचैत्यद् मसिद्धार्थपादपान् । प्रेक्षमाणो व्यतीयाय स्तूपांश्चाचिंतपूजितान् ॥ २० ॥ चतुष्टय वनश्रेणी ध्वजान् हर्म्याधलीमपि । तत्र तत्रेक्षमाणोऽसौ तां तां कक्षामलङ्घयत् ॥२१॥ प्रतिकक्षं सुरस्त्रीणां गीतैर्नृत्तैश्च हारिभिः । रज्यमानमनोवृत्तिस्तत्रास्यासीत् परा धृतिः ॥२२॥ ततः प्राविशदुत्तुङ्गगोपुरद्वारवर्त्मना । गणैरध्युषितां भूमिं श्रीमण्डपपरिष्कृताम् ॥ २३ ॥ त्रिमेखलस्य पीरस्य प्रथमां मेखलामतः । सोऽधिरुह्य परीयाय धर्मचक्राणि पूजयन् ॥ २४ ॥ दर्पणको देखकर ही मुझे स्वप्नोंके यथार्थ रहस्यका निर्णय करना उचित है और वहीं खोटे स्वप्नोंका शान्तिकर्म करना भी उचित है ॥ १२ ॥ इसके सिवाय मैंने जो ब्राह्मण लोगोंकी नवीन सृष्टि की है उसे भी भगवान्के चरणोंके समीप जाकर निवेदन करना चाहिए ।। १३ ।। फिर अच्छे पुरुषों का यह कर्तव्य भी है कि वे प्रतिदिन गुरुओंके दर्शन करें, उनसे अपना हितअहित पूछा करें और बड़े वैभवसे उनकी पूजा किया करें || १४ || इस प्रकार मनमें विचारकर महाराज भरतने बड़े सबेरे बहुमूल्य शय्यासे उठकर प्रातःकालकी समस्त क्रियाएँ कीं और फिर थोड़ी देर तक सभा में बैठकर अनेक राजाओंके साथ भगवान् की वन्दना की तथा भक्ति के अर्थ जानेके लिए उद्यम किया ।। १५ ।। जो साथ ही साथ उठकर खड़े हुए कुछ परिमित मुकुटबद्ध राजाओंसे घिरे हुए हैं और उत्कृष्ट विभूति से सहित हैं ऐसे महाराज भरतने वन्दना के लिए प्रस्थान किया ।। १६ ।। तदनन्तर सेना सहित सम्राट् भरत शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये जहाँ जगद्गुरु भगवान् विराजमान थे ॥ १७ ॥ दूरसे ही भगवान् के समवसरणकी भूमिको देखते हुए निधियोंके स्वामी भरतने नम्रीभूत मस्तकपर कमलकी बौंड़ीके समान जोड़े हुए दोनों हाथ रखकर नमस्कार किया ।। १८ ।। उन महाराजने पहले उस समवसरण भूमिके बाहरी भागकी प्रदक्षिणा दी और फिर अनेक प्रकारकी कक्षाओंका उल्लंघन कर भीतर प्रवेश किया ॥ १६ ॥ मानस्तम्भ, महाचैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष और पूजाकी सामग्रीसे पूजित स्तूपोंको देखते हुए उन सबका उल्लंघन करते गये ॥ २० ॥ अपने-अपने निश्चित स्थानोंपर चारों प्रकारकी वनकी पंक्तियों, ध्वजाओं और हर्म्यावलीको देखते हुए उन्होंने उन कक्षाओं का उल्लंघन किया ॥ २१ ॥ समवसरण की प्रत्येक कक्षा में होनेवाले देवांगनाओंके मनोहर गीत और नृत्योंसे जिनके चित्तकी वृत्ति अनुरक्त हो रही है ऐसे महाराज भरतको बहुत ही सन्तोष हो रहा था ||२२|| तदनन्तर बहुत ऊँचे गोपुर दरवाजोंके मार्गसे उन्होंने जहाँ गणधरदेव विराजमान थे और जो श्री मण्डपसे सुशोभित हो रही थी ऐसी सभाभूमिमें प्रवेश किया ॥ २३ ॥ वहाँपर तीन कटनीवाले पीठकी प्रथम कटनीपर चढ़कर धर्मचक्रकी पूजा करते हुए प्रदक्षिणा दी || २४ ॥ तदनन्तर चक्रवर्ती दूसरी कटनीपर महाध्वजाओंकी पूजा कर तीनों जगत्को लक्ष्मीको तिरस्कृत करनेवाली गन्ध १ यजनीयाः । २ क्षणपर्यन्तम् । ३ सहोत्थितैः । ४ अतिशयेन क्षिप्रम् । ५ प्रदेशम् । ६ सभाभूमिम् । ७ नानाप्रकाराः । ८ - पार्थिवान् ल० म० ।९ प्रदक्षिणां चक्रे ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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