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## The Adi Purana, Chapter 3, Verse 95 The sun, considering his own glory as equal to that of Arka Kirti, became angry and set, delaying the victory of Jayakumar. ||261|| Even though the sun, whose light is clear and who is virtuous, set, it is only right. For who, even if he is a drinker of wine, does not go down? ||262|| From his rising, his radiance increased, and he spread his heat over the world. But even this powerful sun was destroyed in a single day. Then who else, who is more powerful and brings more suffering, can remain in the world? ||263|| The clear lakes, which dispel heat, did not want to see the sun, who had lost his radiance. So they closed their lotus-like eyes in sorrow. ||264|| The birds entered their own nests, as if they were unable to see the celestial beings who had fallen from the sky, struck by Jayakumar's sharp sword. ||265|| The sun has extraordinary power, extraordinary radiance, and is worshipped by all in an extraordinary way. Yet, he falls every day. This shows that the cruel fate is not subject to reason. ||266|| The group of wise men said, "When the sun, who was equal to Arka Kirti, became invisible, what can be said about the one who is being compared?" ||267||
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________________ आदिपुराणम् 3 95 अर्ककीर्तिं स्वकीर्ति' वा मत्वा रोषेण भास्करः । अस्तं जयजयस्यायात् कुर्वन् कालविलम्बनम् ॥२६१॥ "स्फुटालोकोऽपि सद्वृत्तोऽभ्यगादस्तमहर्पतिः । आश्रित्य वारुणीं रक्तः को न गच्छत्यधोगतिम् ॥ २६६ ॥ उदये वर्धितच्छायां व्याप्य विश्वं प्रतापवान् । "दिनेनेनोऽध्यनश्यत् कस्तिष्ठेत्तीकरः परः ॥२६३॥ स्वच्छ विच्छा तापहारीणि वा भृशम्। द्रष्टुं सरांस्यनिच्छन्ति "कआक्षीणि शुचा "व्यधुः २६४ "जयनिस्त्रिंशनिस्त्रिशनिपातपतितान् खगान् । " प्राविशन्निजनीडानि" वीक्षितुं विक्षमाः खगाः २६५ स प्रतापः प्रभा साऽस्य सा हि सर्वैक पूज्यता । पातः प्रत्यहमर्कस्याप्यतयः कर्कशो विधिः ॥ २६६॥ कीर्योपमानतां यातो यातोऽर्कश्चेददृश्यताम् । उपमेयस्य का वातेत्यवादीद्विदुषां गणः ॥ २६७ ॥ २१ २२. ४१२ उसी प्रकार सूर्य सूर्य मानो जयकुमारके तेजको न सह सकनेके कारण ही कातर हो अपने करों-किरणोंसे (हाथोंसे) अस्ताचलको पकड़कर नीचे गिर पड़ा ।। २५८ - २६० ।। वह सूर्य अर्ककीर्तिको अपनी कीर्ति मानकर क्रोध से जयकुमारके जीत में विलम्ब करता हुआ अस्त हो गया || २६१ || जिसका आलोक प्रकाश ( ज्ञान ) स्पष्ट है और जो सद्वृत्त - गोल ( सदाचारी ) है ऐसे सूर्यको भी अस्त होना पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा अथवा मद्यका सेवन करनेवाला ऐसा कौन है जो नीचेको न जाता हो - अस्त न होता हो- नरक न जाता हो । भावार्थ- जिस प्रकार मद्य पोनेवाला ज्ञानी और सदाचारी होकर भी नीच गतिको जाता है भी प्रकाशमान और गोल होकर भी पश्चिम दिशामें जाकर अस्त हो जाता है ।। २६२ ।। उदय कालसे लेकर निरन्तर जिसकी कान्ति बढ़ती रहती है और जो संसारमें व्याप्त होकर तपता रहता है ऐसा तीव्रकर अर्थात् तीव्र किरणोंवाला सूर्य भी जब एक ही दिन में नष्ट हो गया तब फिर भला तीव्रकर अर्थात् अधिक टैक्स लगानेवाला और सन्ताप देनेवाला अन्य कौन है जो संसारमें ठहर सके ।।२६३|| सन्तापको दूर करनेवाले स्वच्छ सरोवर अतिशय कान्तिरहित सूर्यको देखना नहीं चाहते थे इसलिए ही मानो उन्होंने शोकसे अपने कमलरूपी नेत्र बन्द कर लिये थे ।। २६४ || सब पक्षी अपने-अपने घोंसलोंमें इस प्रकार चले गये थे मानो वे जयकुमारकी तीक्ष्ण तलवारकी चोटसे गिरे हुए विद्याधरोंको देखनेके लिए समर्थ नहीं हो सके हों ।। २६५ ॥ सूर्यका असाधारण प्रताप है, असाधारण कान्ति है और असाधारण रूपसे ही सब उसकी पूजा करते हैं फिर भी प्रतिदिन उसका पतन हो जाता इससे जान पड़ता है कि निष्ठुर देव तर्कका विषय नहीं है । भावार्थ - ऐसा क्यों करता है इस प्रकारका प्रश्न दैवके विषयमें नहीं हो सकता है ।। २६६ ।। उस समय विद्वानों का समूह यह कह रहा था कि जब अर्ककीर्ति के साथ उपमानताप्राप्त हुआ सूर्य भी अदृश्य हो गया तब उपमेयकी क्या बात है ? भावार्थ - अर्क कीर्ति लिए सूर्य की उपमा दी जाती है परन्तु जब सूर्य ही अस्त हो गया तब अर्ककीर्तिकी तो बात ही १ निजनामधेयमिव । २ पीडया । ३ जयकुमारस्य । ४ व्यक्तोद्योतोऽपि । व्यक्तदर्शनोऽपीति ध्वनिः । 'आलोको दर्शनोद्योती' इत्यभिधानात् । ५ सद्वर्तुलमण्डलेऽपीति । सच्चारित्रोऽपीति ध्वनिः । ६ रविः । ७ पश्चिमाशाम् । मद्यमिति ध्वनिः । ८ अरुण अनुरक्तश्च । उद्गमे अभ्युदये च । १० कान्तिः पक्षे उत्कोचः । "छाया स्यादातपाभावे प्रतिबिम्बार्कयोषितोः । पालनोत्कोचयोः कान्तिसच्छोभापंक्तिषु स्मृता" इत्यभिधानात् । ११ दिवसेन च । इनः सूर्यः प्रभुश्च । 'इनः सूर्ये प्रभौ' इत्यभिधानात् । १२ अदृश्योऽभूत् । १३ सूर्यम् । १४ विगतकान्तिम् । १५ अनिच्छूनि । १६ दधति स्म । १७ जयकुमारस्य निशितास्त्रघातेन पतितान् । १८प्रविष्टाः । १९ आत्मीयकुलायान् । 'कुलायो नीडमस्त्रियाम् ।' इत्यभिधानात् । २० पक्षिणः । २१ पतनम् । २२ क्रूरः । २३ नियतिः कर्म च ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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