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462 Leaving the Adipurana, she approached the Kumar and, addressing the vile Vidyaadhara, said without fear, "Fight and conquer!" ||15|| She, too, leaving the Kumar, fought fiercely with Dhumavega on the battlefield, and for a long time, she restrained him with her own Vidyaas. ||15|| The Kumar, too, slowly approached a nearby rock, where his mother, Devasri, who had become a Yakshi in a previous life, was present. ||153|| Approaching him, she touched him with her hand, removed his fatigue, and said, "Kumar, quickly enter the heart (of the lake)." ||154|| Hearing her words, he, trusting her, entered the lake and stood on top of a stone pillar that night. ||155|| Performing the five prostrations, he rose in the morning and, looking towards the north of the lake, saw the image of Jinendra. ||156|| He offered worship and prostrations with flowers and other offerings. Following the Yakshi's instructions, he saw the thousand-petaled lotus as a chakra-ratna, the tortoise as a parasol, the king of snakes with a thousand hoods as a staff-ratna, the frog as a crown jewel, the crocodile as a leather-ratna, and the glowing red scorpion as a kakini-mani. ||157-159|| With a joyful heart, he took up the staff, adorned with shining jewels, and wearing divine ornaments made of all kinds of jewels, given by the Yakshi, he emerged from the cave. ||160|| Just as the pratipada of the bright fortnight arrives for the growth of the moon, so too, having defeated Dhumavega, the valiant Sukhavati, armed with a sword, arrived for the growth of the Kumar. ||161-162|| Accompanied by her, he went from there and reached the mountain of Suragiri, where he met the assembly of Gunapala Jinendra. ||163||
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________________ ४६२ आदिपुराणम् मुक्त्वा कुमारमभ्येत्य विभीविद्याधराधमम् । नियुध्य विजयस्वेति निजगाद निराकुलम् ॥१५॥ साऽपि मुक्त्वा कुमारं तं धूमवेगं रणाङ्गणे । चिरं युध्वा स्वविद्याभियंरौत्सी'च्चौर्यशालिनी ॥१५॥ कुमारोऽपि समीपस्थशिलायां धरणाधरे। शनैः समापतत्तस्य देवश्री जननी पुरा ॥१५३॥ यक्षीभूता तदागत्य संस्पृशन्ती करेण तम् । अपास्यास्य श्रमं मक्षु कुमार प्रविश हृदम् ॥१५४॥ जगादैनमिति श्रुत्वा सोऽपि विश्वस्य तद्वचः । प्रविश्य तं" शिलास्तम्भस्योपरि स्थतवान्निशि ॥१५५॥ कुर्वन् पञ्चनमस्कारपदानां परिवर्तनम् । प्रभाते तदुदग्भागे जिनेन्द्रप्रतिबिम्बकम् ॥१५६॥ विलोक्य कृतपुष्पादिसंपूजननमस्क्रियः । सहस्रपत्रमम्भोज चक्ररत्नं सकूर्मकम् ॥१५७॥ आतपत्रं सहस्रोरु फणं च फणिनां पतिम् । दण्डरत्नं समण्डूकं नर्क चूडामहामणिम् ॥१५॥ चर्मरत्नं स्फुरद्रतवृश्चिकं काकिणीमणिम् । ईक्षांचक्रे स पुण्यात्मा तत्र यक्ष्युपदेशतः ॥१५९॥ तदा मुदितचित्तः सन् छनमुद्यम्य दण्डभृत् । प्रद्योतमानरत्नोपानको यक्षीसमर्पितैः ॥१६०॥ सर्वरत्नमयैर्दिव्यैर्भूषाभेदविभूषितः । निर्जगाम ''गुहातोऽसौ तदेवेत्य सुखावती ॥१६१॥ धूमवेगं विनिर्जित्य प्रतिपदा हिमद्युतिम् । वृद्ध्यै कुमारमापन्ना सकलाऽसिलतान्विता ॥१६२॥ एतया सह गत्वातः संप्राप्तसुरभूधरम् । गुणपालजिनाधीश सभामण्डलमाप्तवान् ॥१६३॥ तत्र तं सुचिरं स्तुत्वा मनोवाक्कायशुद्धिभाक । मातरं भ्रातरं चोचितोपचारो विलोक्य तौ ॥१६॥ हुई प्रतिमापर जो इसकी रक्षा करनेवाली देवी रहती थी वह विद्याधरका रूप धारण कर आयी और सुखावतीको छोड़कर कुमारको ले गयी तथा सुखावतीसे कह गयी कि तू निर्भय हो निराकुलतापूर्वक इस नीच विद्याधरसे लड़ना और इसे जीतना ॥१५०-१५१॥ शूरवीरतासे शोभायमान रहनेवाली सुखावती भी कुमारको छोड़कर धूमवेगसे लड़ने लगी और रणके मैदानमें बहुत समय तक युद्ध कर उसने उसे अपनी विद्याओं-द्वारा रोक लिया ॥१५२॥ कुमार भी समीपवती पर्वतकी एक शिलापर धीरे-धीरे जा पड़ा। वहाँ उसकी पूर्वभवकी माता देवश्री जो कि यक्षी हुई थी आयी। उसने हाथसे स्पर्श कर श्रीपालका सब परिश्रम दूर कर दिया और कहा कि तू शोघ्र ही इस तालाबमें घुस जा। कुमार भी उसके वचनोंका विश्वास कर तालाबमें घुस गया और वहीं रात-भर पत्थरके खम्भेपर बैठा रहा ॥१५३-१५५॥ सवेरे पंच नमस्कार मन्त्रका पाठ करता हआ उठा, तालाबके उत्तरकी ओर श्रीजिनेन्द्रदेवकी प्रतिमा देखकर पुष्प आदि सामग्रीसे पूजन और नमस्कार किया। तदनन्तर उसी यक्षीके उपदेशसे उस पुण्यात्माने सहसू पत्रवाले कमलको चक्ररत्नरूप होते देखा, कछुवेको छत्र होते देखा, बड़ी-बड़ी हजार फणाओंको धारण करनेवाले नागराजको दण्डरत्न होते देखा, मेंढकको चूड़ामणि, मगरको चर्मरत्न और देदीप्यमान लाल रंगके बिच्छूको काकिणी मणि रूप होते देखा ॥१५६-१५९।। उस समय उसने प्रसन्नचित्त होकर छत्र धारण किया, दण्ड उठाया, चमकीले रत्नोंके जूते पहने और फिर वह यक्षीके द्वारा दिये हुए मणिमय दिव्य आभूषणोंसे सुशोभित होकर गुहासे बाहर निकला। उसी समय जिस प्रकार चन्द्रमाकी वृद्धि के लिए शुक्लपक्षकी प्रतिपदा आती है उसी प्रकार धूमवेगको जीतकर तलवार लिये हुए चतुर सुखावती कुमारकी वृद्धिके लिए उसके पास आ पहुँची। श्रीपाल यहाँसे उसके साथ-साथ चला और चलता-चलता सुरगिरि पर्वतपर गुणपाल जिनेन्द्रके समवसरणमें जा पहुँचा ॥१६०-१६३॥ वहाँ मन, १ रुरोध । २ संप्राप्तः । ३ श्रीपालस्य । ४ कुमारं ल० । ५ ह्रदम् । ६ मुहुर्मुहुरनुचिन्तनम् । ७ हृदस्योत्तरदिग्भागे। ८ चूडामणि तथा ल०, १०, अ०, स०, इ० । ९ ह्रदे। वक्त्राण्येव रूपाणि । सहस्रपत्राम्भोजादीनि ईक्षांचक्रे इति संबन्धः । १० मणिमयपादत्राणः । ११ गुहायाः सकाशात् । १२ प्रतिपद्दिनश्रीरिव । १३ चन्द्रम् । १४ चन्द्रकलान्विता । १५ सुखावत्या । १६ सुरगिरिनामगिरिम् ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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