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________________ ३७६ आदिपुराणम् रशनारज्जुविभ्राजिसुविशालकटीतटी। मणिनूपुरनि?षभसिताब्जक्रमाब्जिका ॥२५॥ जितामरपुरोशोभा सौन्दर्यात् सा पुरी तदा । प्रसाधनमयं' कायम धिताचिन्त्यवैभवम् ॥२५२॥ उत्सवो राजगेहस्य नगरेणैव वर्णितः । अगाधो यदि पर्यन्तो मध्यमब्धेः किमुच्यते ॥२५३॥ न चित्रं तत्र मच्चित्ती सोत्सवोऽन्त बहिश्च तत् । तद्वत्स्वभूवया यस्मात् कुड्याद्यपि विचेतनम् ॥२५॥ भोक्तृशून्यं न भोगाङ्गं न भोक्ता भोगवर्जितः । तत्र सन्निहितोऽनङ्गो लक्ष्मीश्चाविष्कृतोदया ॥२५५॥ पश्य पुण्यस्य माहात्म्यमिहापीति तदुत्सवम् विलोक्य कृतधर्माणः पुरस्थान् बहु मेनिरे॥२५६॥ "उदसुन्वन् फलं मत्वा धर्मस्य मुनयोऽपि तत् । धर्माधर्मफलालोकात् स्वभावः स हि तादृशाम् ।२५७। कन्यागृहात्तदा कन्यामन्यां वा कमलालयाम् । पुरोभूय" पुरन्ध्यस्तामीषल्लज्जात्तसाध्वसाम्॥ विवाह विधिवेदिन्यः कृततत्कालसक्रियाम् । समानीय सदैवज्ञा महातूर्यरवान्विताम् ॥२५६ ।। सर्वमङ्गलसंपूर्ण मुक्तालम्बू षभूषिते । चतुःकाञ्चनसुस्तम्भे भूरिरत्नस्फुरत्त्विषि ॥२६०॥ प्रमोदात् सुप्रभादेशाद् विवाहोत्सवमण्डपे । कलधौतमये प? ' निवेश्य प्राङ्मुखीं सुखम् ॥२६॥ करधनीरूपी रज्जुसे सुशोभित हो रहा था, और उनके चरणकमल मणिमयी नूपुरोंकी झनकारसे कमलोंका तिरस्कार कर रहे थे ।।२४७-२५१॥ इस प्रकार अपनी सुन्दरतासे स्वर्गपुरोकी शोभाको जीतनेवाली वह नगरी उस समय अचिन्त्य वैभवशाली अलंकारमय शरीरको धारण कर रही थी ॥२५२॥ राजमहलका उत्सव तो नगर ही कह रहा था क्योंकि समुद्रके किनारेका भाग ही जब अगाध है तब उसके बोचका क्या पूछना है ? भावार्थ-जब नगरमें ही भारी उत्सव हो रहा था तब राजमहलके उत्सवका क्या पूछना था ? ||२५३॥ वहाँके सचेतन प्राणी अन्तरंग और बहिरंग सब जगह उत्सव मना रहे थे इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है क्योंकि वहाँकी दोवालें आदि अचेतन पदार्थ भी तो अपने अलंकारों-द्वारा सचेतन प्राणियोंके समान हो उत्सव मना रहे थे । भावार्थ-दीवाले आदि अचेतन पदार्थ भी अलंकारोंसे सुशोभित किये गये थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो उल्लाससे अलंकार धारण कर स्वयं ही उत्सव मना रहे हों॥२५४॥ वहाँपर भोगोपभोगका कोई भी पदार्थ भोक्तासे रहित नहीं था और न कोई भोक्ता भी भोगोपभोगके पदार्थसे रहित था, वहाँपर कामदेव सदा समीप ही रहता था और लक्ष्मी उदयरूप रहती थीं ॥२५५|| इस जन्ममें ही पुण्यका माहात्म्य देखो ऐसा सोचते हए कितने ही धर्मात्मा लोग वहाँका उत्सव देखकर उस नगरके रहनेवाले लोगोंको बड़े आदरको दृष्टिसे देख रहे थे ॥२५६॥ मुनि लोग भी उसे धर्मका फल मानकर प्रसन्न हुए थे सो ठीक है क्योंकि धर्मका फल देखकर प्रसन्न होना धर्मात्मा लोगोंका स्वभाव है और अधर्मका फल देखकर प्रसन्न होना अधर्मात्मा लोगोंका स्वभाव है ॥२५७।। उसी समय विवाहकी विधिको जाननेवाली सौभाग्यवती स्त्रियाँ, जिसने तात्कालिक सत्क्रियाएँ की हैं, जो लज्जासे कुछ भयभीत हो रही हैं, जिसके आगे बड़े-बड़े नगाड़ोंके शब्द हो रहे हैं, ज्योतिष शास्त्रको जाननेवाले अनेक विद्वान् जिसके साथ हैं और जो दूसरी लक्ष्मीके समान जान पड़ती है ऐसी उस कन्याको उसके सामने जाकर उसके घरसे सब प्रकारके मंगल द्रव्योंसे भरे हुए, मोतियोंके आभूषणोंसे सुशोभित, सुवर्णके बने हुए चार उत्तम खम्भोंसे युक्त और अनेक रत्नोंकी कान्तिसे जगमगाते हुए १ अलंकारस्वरूपम् । २ बिभर्ति स्म । ३-मब्धौ ल० । ४ पुर्याम् । ५ चेतनवान् । ६ उत्सववत् । ७ यस्मात कारणात् । ८ स्रक्चन्दनादि । ९ नगरे । १० अस्मिन् जन्मन्यपि । किं पुनरुत्तरजन्मनीत्यपि शब्दार्थः । ११ तत्परोत्सवम् । १२ कृतपण्याः । १३ उत्सवं प्राप्ताः । उदास्तन्वत् ल० । १४ लक्ष्मीम् । १५परस्कृत्य । १६ कुटुम्बिन्यः। 'स्यात्तु कुटुम्बिनी पुरन्ध्रो' इत्यभिधानात् । पुरं पोष्यबहुजनसमूहं धत्त इति पुरन्ध्री । पुत्रादिपोष्यवर्गशालिन्याः स्त्रिया नाम । १७ लज्जया स्वीकृत । १८ ज्योतिष्कसहिताः । १९ माला । २० सुप्रभामहादेवीनिरूपणात् । २१ फलके ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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