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387 The Forty-Fourth Chapter 10 93 18 25 "Arkkirti, whose words are like blazing, large sparks, desires to burn all his enemies with his words, as if he were a blazing sun." || 11 || "The wicked one who insulted me and gave me this girl, has already poured water on his own head, like a fool." || 12 || "When the chariot carrying the girl passed by, my anger, like fire, flared up. But I stood there, not knowing who to burn." || 13 || "The fool, deceived by his name, thinks he is unshakeable. He doesn't know that the earth, along with the mountains, trembles when I am angry." || 14 || "My sword-like stream of water is beyond reach. My army-like waves easily destroy all enemies with ease." || 15 || "The vast forest of withered, wicked Nath and Soma dynasties, will be consumed by my blazing anger, and will never sprout again in this world." || 16 || "I endured the coronation of Jayakumar, the king of the earth, out of fear of him. But how can I endure this garland, which destroys all my good fortune?" || 17 || "My garland of fame, made of fragrant flowers, will remain until the end of this age. I will take this garland from Jayakumar's chest, along with Jayalakshmi, today." || 18 || "Having conquered the soft clouds, which dissolve with just a touch of wind, and gained arrogance, I will see the victory of Jayakumar in battle today." || 19 || "Thus, Arkkirti, who has broken the rules, whose mind is confused about what is right and wrong, and who cannot be stopped, conquered the roar of the ocean of the end of time with his words. Just as wind helps to fan a fire, so too, many people helped to fuel his anger." || 20 ||
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________________ ३८७ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व 10 93 १८ २५ उज्जगार' ज्वलत्स्थूलविस्फुलिङ्गोपमा गिरः । अर्ककीर्तिर्द्विषोऽशेषान् दिधक्षुरिव वाचया ॥ ११॥ मामधिक्षिप्य कन्येयं येन दत्ता दुरात्मना । तेन प्रागेव मूढेन दत्तः स्वस्मै जलाञ्जलिः ॥१२॥ अतिक्रान्ते रथे "तस्मिन् प्रोत्थितः क्रोधपावकः । तदैव किन्नु को दाह्य इत्यजानन्नहं स्थितः ॥ १३ ॥ "नाम्नातिसन्धितो मूढो मन्यते स्वमकम्पनम् । 'क्रुद्धे मयि न वेतीति कम्पते सधरा धरा ॥५४॥ "म खड्गवारिवा राशि रास्तां तावदगोचरः । संहरन्त्यखिलान् शत्रून् बलवेलैव " हेलया ॥१५॥ प्ररूढशुष्कनाथेन्दुदुर्वंश विपुलाटवी । मत्क्रोधप्रस्फुरद्वह्निमस्मिताऽस्मिन्न रोक्ष्यति ॥ १६ ॥ वीरस्तदा सोढो भुवो भर्तुर्भयान्मया । कथमद्य सहे मालां सर्वसौभाग्यलोपिनीम् ॥१७॥ 'मद्यशः कुसुमाम्लानमाले वास्त्वायुगावधि । जयलक्ष्म्या सहायैतां" हरेयं जयवक्षसः ॥ ३८ ॥ जलदानू पेलवान् जित्वा मरुन्मात्रविलायिनः । अद्य पश्यामि दृप्तस्य जयस्य जयमाहवे ॥ १९ ॥ इति निर्मिन्नमर्यादः कार्याकार्यविमूढधीः । अनिवार्यो विनिर्जित्य कालान्तजलधिध्वनिम् ॥२०॥ अनलस्यानिलो वाऽस्य साहाय्यमगमंस्तदा । केऽपि पापक्रियारम्भे सुलभाः सामवायिकाः जो लाल-लाल हो रहा है, जिसके नेत्ररूपी अंगारे घूम रहे हैं, और क्रोधसे जो अग्निकुमार देवोंके समान जान पड़ता है ऐसा वह अर्ककीर्ति अपने वचनोंसे ही समस्त शत्रुओंको जलानेकी इच्छा करता हुआ ही मानो जलते हुए बड़े-बड़े फुलिंगोंके समान वचन उगलने लगा ।। १०-११॥ वह बोला जिस दुष्टने मेरा अपमान कर यह कन्या दी है उस मूर्खने अपने लिए पहले ही जलांदे रखी है ||१२|| उस समय कन्याका रथ आगे निकलते ही मेरी क्रोधरूपी अग्नि भड़क उठी थी परन्तु जलने योग्य कौन है ? यह नहीं जानता हुआ मैं चुप बैठा रहा था || १३ ॥ केवल नामसे ठगाया हुआ वह मूर्ख अपने आपको अकम्पन मानता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि मेरे कुपित होनेपर पर्वतों सहित पृथिवी भी कँपने लगती है || १४ || मेरी तलदाररूपी जलकी धाराका विषय तो दूर ही रहे मेरी सेनारूपी लहर हो समस्त शत्रुओंको ॥२१॥ अनायास ही कर देती है ||१५|| बहुत बढ़े और सूखे हुए नाथवंश तथा चन्द्रवंशरूपी दुष्ट बाँसोंकी बड़ी भारी अटवी मेरे क्रोधरूपी प्रज्वलित अग्निसे भस्म हो जायगी और फिर इस संसार में कभी नहीं उग सकेगी ॥ १६ ॥ उस समय पृथिवीके अधिपति चक्रवर्ती महाराजने जयकुमारको जो वीरपट्ट बाँधा था उसे तो मैंने उनके डरसे सह लिया था परन्तु आज अपने सब सौभाग्यको नष्ट करनेवाली इस चरमालाको कैसे सह सकता हूँ ? ||१७|| मेरे यशरूपी फूलोंकी अम्लान माला ही इस युगके अन्त तक विद्यमान रहे। इस मालाको तो मैं जयलक्ष्मीके साथ-साथ जयकुमारके वक्षःस्थलसे आज ही हरण किये लेता हूँ || १८ || केवल वायुमात्रसे विलीन हो जानेवाले कोमल मेघोंको जीतकर अहंकारको प्राप्त हुए जयकुमारकी जीत आज मैं युद्धमें देखूँगा ॥ १६ ॥ इस प्रकार जिसने मर्यादा तोड़ दी है, कार्य अकार्यके करनेमें जिसकी बुद्धि विचाररहित हो रही है और जो किसीसे निवारण नहीं किया जा सकता ऐसे अर्ककीर्तिने उस समय अपने शब्दोंसे प्रलयकालके समुद्रकी गर्जनाको भी जीत लिया था और जिस प्रकार अग्निat भड़काने के लिए वायु सहायक होता है उसी प्रकार उसका क्रोध भड़कानेके लिए कितने १ उवाच । २ दग्धुमिच्छुः । ३ तिरस्कृत्य । ४ मामुल्लङ्घ्य गते । ५ कन्यारूढस्यन्दने । ६ अकम्पन इति नाम्ना । ७ वञ्चितः । ८ क्रुधे ल० । ९ पर्वतसहिता भूमिः । 'महीने शिखरिक्ष्माभृदहार्यधरपर्वताः' इत्यभिधानात् । १० अस्मदायुधधाराजल । ११ वारिधारासि प०, ल० । १२ सेनाबेला । १३ प्रवृद्ध निस्सारदुष्टनाथवंशसोमवंशविशालविपिन इत्यर्थः । १४ अस्मिन् लोके । १५ न जनिष्यते । १६ चक्रिणः । १७ सहामि । १८ अस्मत्कीर्तिः | १९ मालाम् । २० स्वीकुर्याम् । २१ मृदून् । २२ विनाशिनः । २३ इति उज्जगारेति सम्बन्धः । २४ सहायता । २५ समवायं सहायतां प्राप्ताः ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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