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## Adipurana Then, the minister, Anvadyamati, who was pure from all impurities and possessed the qualities of a minister, was recognized by the people of the kingdom and others. ||22|| He spoke words that were full of the essence of glory, well-formed, not cruel, well-considered, just, and beneficial. ||23|| He said, "The earth, the sky, the moon, the sun, the ocean, the wind, the fire, you, your father, the clouds, and time, all these are the benefactors of the world." ||24|| "Because of the reversal in you, this creation is reversed, and because of your adherence, it exists well. It is clear that this creation depends on you." ||25|| "The qualities like forgiveness, etc., are present individually in the earth, etc., but they are all together in the Chakravarti and in you for the benefit of the world." ||26|| "The earth, etc., sometimes deviate from their proper place, but there is no time that can make you two deviate from your proper place." ||27|| "This creation, which is the earth, was created by your grandfather, the Lord Vrishabhadeva, and was entrusted to him. Your father, King Bharat, is protecting it now, and after him, you are the one who will protect it." ||28|| "If there is any harm to anyone in this world due to divine or human-made troubles, then you should consider it as 'mine' and resolve it." ||29|| "The one who protects from injury is called Kshatriya. You are the eldest son of the King of the Bharatas, and therefore you are the first Kshatriya in this world." ||30|| "New laws originate from you, and the old ones are also protected by you. Therefore, the old ones are also yours." ||31||
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________________ आदिपुराणम् तदा सर्वोपाशुद्ध' मन्त्री जानपदादिभिः । अनवद्यमतिर्नाम लक्षितो मन्त्रिलक्षणैः ॥ २२ ॥ म यशस्सारं ससौष्ठवमनिष्ठुरम् । सुविचार्य वचो न्याय्यं पथ्यं प्रोक्तुं प्रचक्रमं ॥ २३॥ नही व्योम शशी सूर्यः सरिदीशोऽनिलोऽनलः । त्वं त्वत्पिता घनाः कालो जगक्षेमविधायिनः ॥ २४॥ विपर्यासे विपर्येति भवतामनुवर्तनात् । वर्तते सृष्टिरेषा हि व्यक्तं युष्मासु तिष्ठते ॥ २५॥ गुणाः क्षमादयः सर्वे ‘व्यस्तास्तेषु क्षमादिषु । समस्तास्ते जगद्वृद्धयै चक्रिणि त्वयि च स्थिताः २६ च्यवन्ते" स्वस्थितेः काले क्वचित्तेऽपिक्षमादयः । न स कालोऽस्ति यः कर्ता प्रच्युतेर्युवयोः स्थितेः ॥ २७ ॥ सृष्टिः पितामहनेयं सृष्टैनां " तत्समर्पिताम्" । पाति सम्राट् पिता तेऽद्य तस्यास्वमनुपालकः २८ दैवमानुषबाधाभ्यः क्षतिः कस्यापि या क्षितौ । ममैवेयमिति स्मृत्वा समाधेया" त्वयैव सा ॥२९॥ क्षतात् त्रायत इत्यासीत् क्षत्त्रोऽयं भरतेश्वरः । सुतस्तस्यौरसो ज्येष्टः क्षत्रियस्त्वं तदादिमः ॥३०॥ त्वत्तो न्यायाः प्रवर्तन्ते नूतना ये पुरातनाः । तेऽपि त्वत्पालिता एव भवन्त्यत्र पुरातनाः ॥३१ ॥ 93 १४ ९ ही राजा लोग उसके सहायक हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि पापक्रियाओंके प्रारम्भमें सहायता देनेवाले सुलभ होते हैं ॥२० - २१ ॥ उस समय जो सब उपधाओंसे शुद्ध हैं तथा जनपद आदि मन्त्रियों के लक्षणोंसे सहित हैं ऐसा निर्दोषबुद्धिका धारक अनवद्यमति नामका मन्त्री अच्छी तरह विचारकर धर्मयुक्त, अर्थपूर्ण, यशके सारभूत, उत्तम, कठोरतारहित, न्यायरूप और हितकारी वचन कहने लगा ||२२ - २३ ।। उसने कहा कि पृथिवी, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, समुद्र, वायु, अग्नि, तू, तेरा पिता, मेघ और काल ये सब पदार्थ संसार में कल्याण करनेवाले हैं ॥२४॥ आप लोगोंमें उलट-पुलट होनेसे यह संसार की सृष्टि उलट-पुलट हो जाती है और आपके अनुकूल रहनेसे अच्छी तरह विद्यमान रहती है इससे स्पष्ट है कि यह सृष्टि आप लोगों पर अवलम्बित है ||२५|| क्षमा आदि गुण अलग-अलग तो पृथिवी आदिमें भी रहते हैं परन्तु इकट्ठे होकर संसारका कल्याण करनेके लिए चक्रवर्तीमें और तुझमें ही रहते हैं ||२६|| पृथिवी आदि पदार्थ किसी समय अपनी मर्यादासे च्युत भी हो जाते हैं परन्तु ऐसा कोई समय नहीं है जो तुम दोनोंको अपनी मर्यादासे च्युत कर सके ||२७|| तुम्हारे पितामह भगवान् वृषभदेवने इस कर्मभूमिरूपी सृष्टिकी रचना की थी, उनके द्वारा सौंपी हुई इस पृथिवीका पालन इस समय तुम्हारे पिता भरत महाराज कर रहे हैं और उनके बाद इसका पालन करनेवाले तुम ही हो ||२८|| इस पृथिवी में यदि किसीकी भी दैव या मनुष्यकृत उपद्रवोंसे कुछ हानि होती हो तो 'यह मेरी' ही है ऐसा समझकर आपको ही उसका समाधान करना चाहिए ||२६|| जो क्षत अर्थात् संकटसे रक्षा करे उसे क्षत्र कहते हैं, क्षत्र हैं और तुम उनके सबसे बड़े औरस पुत्र हो इस संसारमें नवीन न्याय तुमसे ही प्रवृत्त होते हैं द्वारा पालित होकर ही पुरातन कहलाते हैं । भरतेश्वर सबकी रक्षा करते हैं इसलिए वे इसलिए तुम सबसे पहले क्षत्रिय हो ||३०|| और जो पुरातन अर्थात् प्राचीन हैं वे तुम्हारे भावार्थ- आपसे नवीन न्याय मार्गकी प्रवृत्ति १ धर्मार्थ कामभयेषु व्याजेन परचित्तपरीक्षणमुपधा तया शुद्धः । 'उपधा धर्माद्यैर्यत्परीक्षणम्' इत्यभिधानात् । २ जनपदभवनृपपुरजनादिभिः । ३ लोकस्य क्षेमकारिणः । ४ विपर्यासमेति । ५ जगत्सृष्टिः । ६ युष्मासु महाप्रभृतिषु प्रकाशते । ७ क्षान्त्यवगाहनसंहानसंतापहरण प्रकाशनादिगुणाः । ८ विकलाः । एकैकस्मिन्नेकैकश एवेत्यर्थः । ९ पृथिव्याकाशादिषु । १० जगद्वृद्धौ प०, ल० म० । ११ प्रच्युता भवन्ति । १२ भरतार्ककः । १३ पितृपित्रा आदिब्रह्मणा । 'पितामहः पितृपिता' इत्यभिधानात् । १४ सृष्टा तां अ०, स० ॥ सृष्टयैतां इ०, प०, ल० | १५ आदिब्रह्मणा विस्तीर्णाम् । १६ चक्री | १७ सृष्टे । १८ निवर्तनीया । १९ क्षतिः । २० उरसि भवः । साक्षात्सुतः न दत्तपुत्रः । २१ क्षत्राज्जातः ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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