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## The Twenty-Seventh Chapter Even though the sun was at its zenith, it still scorched the earth intensely. Indeed, even the middle ground of those with intense heat is scorching. (10) The queens, their faces like lotuses, were adorned with a network of sweat droplets, like pearls. (101) The beauty of the queens' faces, like lotus blossoms, was enhanced by the flow of sweat, like a stream of nectar. (102) The faces of the queens, dripping with sweat, shone like lotuses covered in dew. (103) The lotus-like faces of the queens were adorned with sweat droplets, like melted pearls decorating their hair. (104) The charioteers, driving their chariots, had foamy mouths, their horses' hooves slipping on the hot ground, even though the sun was at its zenith. (105) The horses, with their short, round hooves, smooth fur, tall stature, and broad backs, moved swiftly like the wind. (106) The horses, with their great speed, their chests heaving, their nostrils flaring, and their manes flowing, moved swiftly. (107) The horses, with their high foreheads, pure swirls, and swiftness like the mind, moved quickly on the narrow path. (108) The horses, filled with strength, speed, and grace, moved swiftly, as if disdaining to touch the earth. (109) Even faster than the horses and chariots, the birds flew, their feet like steps, leaping over thorns and stones. (110)
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________________ सप्तविंशतितमं पर्व मध्यस्थोऽपि तदा तीव्र तताप तरणिर्भुवम् । नूनं तावप्रतापानां माध्यस्थ्यमपि तापकम् ॥१०॥ स्वेदबिन्दुभिराबद्धजालकानि' नृपस्त्रियः । वदनान्यूहरब्जिन्यः पमानीवाग्वुशीकरैः ॥१०॥ नृपवल्लभिकावक्त्रपङ्कजेप्वपुषच्छ्रियम् । धर्मबिन्दृद्गमो निर्यल्लावण्यरसपूरवत् ॥१०२॥ गलधर्माम्बुबिन्दूनि मुखानि नृपयोषिताम् । अवश्यायततानीव राजीवानि विरंजिरे ॥१०३॥ नृपाङ्गनामुखाब्जानि धर्मबिन्दुभिराबभुः । मुक्ताफलैर्द्रवीभूतैरिवालकविभूषणैः ॥१०४॥ रथवाहा रथानुहुरायस्ताः फेनिलमुखेः । तंव तपति तिग्मांशी समऽपि प्रस्खलत्खुराः ॥१०५॥ हृस्ववृत्तखुरास्तुङ्गास्तनुस्निग्धतनूरुहाः । पृथ्वासना महावाहाः प्रययुर्वायुरंहसः ॥१०६॥ महाजवजषो वस्त्रादुदमन्तः खुरानिव । महोरस्काः स्फुरत्प्रोथा द्रुतं जग्मुर्महाहयाः ॥१०७॥ समुच्छ्रितपुरो भागाः शुद्धावर्ता मनोजवाः । अपर्याप्तेषु मार्गेषु द्रुतमीयुस्तुरङगमाः ॥१०८॥ मंधासत्वजवोपेता विनीताश्चटुल क्रमाः । गल्हमाना'' इव स्प्रष्टुं महीमश्वा द्रुतं ययुः ॥१०॥ अश्वेभ्योऽपि रथेभ्योऽपि पत्तयो वेगितं ययुः । सोपानकैः पदैः स्थाणुकण्टकोपललङ्घिनः ॥११०॥ था और उससे तपे हए नदियोंके किनारोंपर हंसोंको सन्तोष नहीं हो रहा था ॥९९।। उस समय सूर्य यद्यपि मध्यस्थ था-आकाशके बीचोबीच स्थित था, पक्षपातरहित था तथापि वह पृथिवीको बहुत ही सन्तप्त कर रहा था सो ठीक ही है क्योंकि तीव्र प्रतापी पदार्थोंका मध्यस्थ रहना भी सन्ताप करनेवाला होता है ॥१००। जिस प्रकार कमलिनियाँ ( कमलकी लताएँ ) । सुशोभित कमलोंको धारण करती हैं उसी प्रकार महाराज भरतकी स्त्रियाँ पसीनेकी बूंदोंसे जिनपर मोतियोंका जाल-सा बन रहा है ऐसे अपने मुख धारण कर रही थीं ॥१०१।। रानियोंके मुख-कमलोंपर जो पसीनेकी बूंदें उठी हुई थीं वे निकलते हुए सौन्दर्य रूपी रसके प्रवाहके समान शोभाको पुष्ट कर रही थीं ॥१०२॥ जिनसे पसीनेकी बूंदें टपक रही हैं ऐसे रानियोंके मुख ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो ओसकी बूंदोंसे व्याप्त हुए कमल ही हों ॥१०३॥ जिन पसीनेकी बूंदोंसे रानियोंके मुख-कमल सुशोभित हो रहे थे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो केशपाशको अलंकृत करनेवाले मोती ही पिघल-पिघलकर तरल रूप हो गये हों ।।१०४।। उस समय सूर्य बड़ी तेजीके साथ तप रहा था इसलिए जो घोड़े रथोंको ले जा रहे थे उनके मुख परिश्रमसे खुल गये थे, उनमें फेन निकल आया था और उनके खुर समान जमीनपर भी स्खलित होने लगे थे ॥१०५॥ जिनके खुर छोटे और गोल हैं, जिनपर छोटे और चिकने रोम हैं, जो बहुत ऊँचे हैं, जिनका आसन अर्थात् पीठ बहुत बड़ी है, और जिनका वेग वायुके समान है ऐसे बड़े-बड़े उत्तम घोड़े भी जल्दी-जल्दी दौड़े जा रहे थे ।।१०६॥ जो तीव वेगसे सहित हैं. जो अपने आगेके खरोंको मखसे उगलते हएके समान जान पड़ते हैं. जिनका वक्षःस्थल बड़ा है और जिनकी नाकके नथने कुछ-कुछ हिल रहे हैं ऐसे बड़े-बड़े घोडे जल्दी-जल्दी जा रहे थे ॥१०७॥ जिनके आगेका भाग बहत ऊँचा है. जिनके शरीरपर-के भंवर अत्यन्त शद हैं. और जिनका वेग मनके समान है ऐसे घोड़े उस छोटे-से मार्गमें बडी शीघ्रताके साथ जा रहे थे ॥१०८॥ जो बुद्धि-बल और वेगसे सहित हैं, विनयवान् हैं तथा सुन्दर गमनके धारक हैं ऐसे घोड़े पृथिवीको ( रजस्वला अर्थात् धूलिसे युक्त-पक्षमें रजोधर्मसे युक्त-समझ ) उसके स्पर्श करनेमें घृणा करते हुए ही मानो बड़े वेगसे जा रहे थे ॥१०९॥ पैदल चलनेवाले १ जालसमूहानि । कोरकाणि वा। २ प्रालेय । 'अवश्यायस्तु नीहारस्तुषारस्तुहिनं हिमम् । प्रालेयं मिहिका च' इत्यभिधानात् । ३ रयाश्वाः । ४ उपतप्ताः । - रायस्तैः इत्यपि पाठः । ५ समानभूतलेऽपि । ६ पृयुलपृष्ठभागाः । ७ वायुवेगाः । ८ घोगाः। ९देवमणि प्रमुखशुभावर्ताः । १० असम्पूर्णषु सत्सु । ११ कुत्समानाः । १२ वेगवद् यथा भवति तथा । १३ सपादत्राणः ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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