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The mountain was adorned with lofty peaks, stretching far and wide, with numerous flying vehicles bearing flags, as if they had come to rest there. It extended its reach into the ocean from both its eastern and western extremities, as if seeking friendship with the sea out of fear of the forest fire. The waterfalls on this mountain, forever nourishing the trees on its banks, seemed to proclaim, "The lord should surely protect those who seek refuge at his feet." The mountain, with its roaring waterfalls, seemed to be laughing, as if the water, cascading down from the high and low rocks on its banks, were the laughter of river-goddesses. The forest fire, unable to consume the entire forest, seemed to be climbing the peaks, as if seeking to commit suicide by falling from above. The peaks of this mountain, surrounded by the blazing forest fire near the month of Ashadha, appeared to the Bhils like they were made of gold. The forest on this mountain was sometimes filled with elephants, or with Chandals, with snakes, or with wicked people, and with thorns, or with troublesome people, making it a very sorrowful or deplorable sight. The forest on this mountain, though filled with intoxicated elephants, was also devoid of intoxicated elephants, and though devoid of leaves, it was also full of leaves and buds.
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________________ पस आदिपुराणम् भाति यः शिखरैस्तुङ्गैर्दूरव्यायतनिझ रैः । सपताकैर्विमानौधैर्विश्रमायेव संश्रितः ॥६६॥ यः पूर्वापरकोटिभ्यां विगाह्याम्बुनिधिं स्थितः। नूनं दावत्रयात् सख्य ममुना प्रचिकीर्षति ॥६॥ नयन्ति निझरा यस्य शश्वत्पुष्टिं तटदुमान् । स्वपादाश्रयिणः पोप्याः प्रभुणेतीव शंसितुम् ॥६॥ तटस्थपुट पाषागस्खलितोच्चलिताम्भसः । नदीवधूः कृतध्वानं निर्झरहसतीव यः ॥६९॥ वनामोगमपर्यन्तं यस्य दग्धुमिवाक्षमः । भृगुपाताय दावाग्निः शिखराण्यधिरोहति ॥७॥ चलहावपरीतानि यत्कूटानि वनेचरैः । चामीकरमयानीव लक्ष्यन्ते शुचि सन्निधौ ॥७१॥ समातङ्गं वनं यस्य सभुजङ्गपरिग्रहम् । विजाति कण्टकाकीर्ण क्वचिद्वत्तेऽतिकष्टताम् ॥७२॥ श्रीब'कुञ्जरयोगेऽपि क्वचिदक्षीवकुञ्जरम् । विपत्रमपि सत्पत्रपल्लवं भाति य द्वनम् ॥७३॥ था, जिस प्रकार आप पृथुवंश अर्थात् विस्तृत-उत्कृष्ट वंश ( कुल ) को धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी पृथुवंश अर्थात् बड़े-बड़े बाँसके वृक्षोंको धारण करनेवाला था, जिस प्रकार आप धृतायति अर्थात् उत्कृष्ट भविष्यको धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी धृतायति अर्थात् लम्बाईको धारण करनेवाला था, और जिस प्रकार आप दूसरोंके द्वारा अलंध्य अर्थात् अजेय थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी दूसरोंके द्वारा अलंध्य अर्थात् उल्लंघन न करने योग्य था॥६५।। जिनसे बहुत दूर तक फैलनेवाले झरने झर रहे हैं ऐसे ऊँचे-ऊँचे शिखर. से वह पर्वत ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पताकाओंसहित अनेक विमानोंके समूह ही विश्राम करनेके लिए उसपर ठहरे हों ॥६६॥ वह पर्वत अपने पूर्व और पश्चिम दिशाके दोनों कोणोंसे समुद्र में प्रवेश कर खड़ा हुआ था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो दावानलके डरसे समुद्रके साथ मित्रता ही करना चाहता हो ॥६७॥ उस विन्ध्याचलके झरने 'स्वामीको • अपने चरणोंको आश्रय लेनेवाले पुरुषोंका अवश्य ही पालन करना चाहिए' मानो यह सूचित करनेके लिए हो अपने किनारेके वृक्षोंका सदा पालन-पोषण करते रहते थे ॥६८॥ वह पर्वत शब्द करते हुए निर्झरनोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो अपने किनारेके ऊंचे-नीचे पत्थरोंसे स्खलित होकर जिनका पानी ऊपरकी ओर उछल रहा है ऐसी नदीरूपी स्त्रियोंकी हँसी ही कर रहा हो ।।६९॥ उस पर्वतके शिखरोंपर लगा हुआ दावानल ऐसा जान पड़ता था मानो उसके सोमारहित बहुत बड़े वनप्रदेशको जलानेके लिए असमर्थ हो ऊपरसे गिरकर आत्मघात करनेके लिए ही उसके शिखरोंपर चढ़ रहा हो ॥७०।। आषाढ़ महीनेके समीप जलते हुए दावानलसे घिरे हुए उस पर्वतके शिखर वहाँके भीलोंको सुवर्णसे बने हुएके समान दिखाई देते थे ।।७१।। उस पर्वतका वन कहीं-कहीं मातंग अर्थात् हाथियोंसे सहित था अथवा मातंग अर्थात् चाण्डालोंसे सहित था, भुजंग अर्थात् सर्पोके परिवारसे युक्त था अथवा भुजंग अर्थात् नीच ( विट-गुण्डे ) लोगोंके परिवारसे युक्त था और अनेक प्रकारके काँटोंसे भरा हुआ था अथवा अनेक प्रकारके उपद्रवी लोगोंसे भरा हुआ था इसलिए वह बहुत ही दुःखदायी अथवा शोचनीय अवस्थाको धारण कर रहा था ॥७२॥ उस पर्वतपर-का वन क्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत्त हाथियोंसे युक्त होकर भी अक्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत हाथियोंसे रहित था, और विपत्र अर्थात् पत्तोंसे रहित होकर भी सत्पत्रपल्लव अर्थात् पत्तों तथा कोंपलोंसे सहित १ इव । २ मित्रत्वम् । ३ समुद्रेण । ४ कर्तुमिच्छति । ५ तटनिम्नोन्नत । ६ प्रपातपतनाय । 'प्रपातस्त्वतटो भृगुः' इत्यभिधानात् । ७ ग्रीष्म । ८ सगजं पक्षे सचाण्डालम् । ९ ससर्प, पक्षे सविट् । १० पक्षिताति, पक्षे नीच जाति । ११ मत्तगज । १२ अक्षीबं समुद्रलवणम् 'सामुद्रं यत्तु लवणमक्षीवं वशिरञ्च तत्' । कुजो गुल्मगुहान्ती रातीति ददातीति । १३ वीनां पत्राणि पक्षा यस्मिन सन्तीति, अथवा विगताश्त्रम् ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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