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________________ पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व ४४५ हृतसरसिजसारैरिष्टचेटीयमानैः सततरतनिमित्तैर्जाल मार्गप्रवृत्तः । मृदुशिशिरतरैः संप्रापतुस्ती समीरैः सुरत विरतिजातस्वेदविच्छेदसौख्यम् ॥२१६॥ बसन्ततिलका तां तस्य वृत्तिरनुवर्तयति स्म तस्या इचैनं तदेव रतितृप्तिनिमित्तमासीत् । "प्रेमापदन निज भावमचिन्त्यमय सातोदयश्च भवभूतिफलं तदेव ॥२१७॥ कामोऽगमत् सुरतवृत्तिषु तस्य शिप्य भावं सुधीरिति रतिश्च सुलोचनायाः। को गर्वमुद्वहति चेन्न वृथाभिमानी स्वेष्टार्थसिद्धिविषयेषु गुणाधिकंषु ॥२१८॥ एवं सुखानि तनुजान्यनुभूय तो च "नैवेयतुश्चिररतेऽप्यभिलाषकोटिम्। धिक्कष्टमिष्टविषयोत्थसुखं सुखाय तद्वीतविश्वविषयाय बुधा यतध्वम् ॥२१९॥ इत्याचे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणश्रीमहापुराणसंग्रहे जयसुलोचना सुखानुभवव्यावर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व ॥४५॥ लेने योग्य अधर आदि प्रदेशोंसे और · कोमलताकी एक खान स्वरूप सुन्दर शरीररूपी लतासे वे दोनों अपनी इन्द्रियोंको समस्त सुख पहुँचाते थे ॥२१५॥ जिसने कमलका सार भाग हरण कर लिया है, जो प्रिय दासके समान आचरण करता है, निरन्तर सम्भोगका साधन रहता है, झरोखेके मार्गसे आता है और अत्यन्त कोमल ( मन्द ) तथा शीतल है ऐसे पवनसे वे दोनों ही सम्भोगके बाद उत्पन्न हए पसीना सूखनेका सुख प्राप्त करते थे ॥२१६।। जयकुमारकी प्रवृत्ति सुलोचनाके अनुकूल रहती थी और सुलोचनाकी प्रवृत्ति जयकुमारके अनुकूल रहती थी। उन दोनोंका परस्पर एक दूसरेके अनुकूल रहना ही उनके रतिजन्य सन्तोषका कारण था जो चितवनमें न आ सके ऐसा प्रेम इन्हीं दम्पतियोंमें पूर्णताको प्राप्त हुआ था, इन्हींके सातावेदनीयका अन्तिम उदय था और यही सब इनके जन्म लेनेका फल था ॥२१७|| बुद्धिमान् कामदेव, सम्भोग चेष्टाओंके समय जयकुमारका शिष्य बन गया था और रति सुलोचनाकी शिष्या बन गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि मनुष्य यदि व्यर्थका अभिमानी न हो तो ऐसा कौन हो जो अपने इष्ट पदार्थकी सिद्धिके विषयभूत अधिक गुणवाले पुरुषोंके साथ अभिमान करे ? ॥२१८।। इस प्रकार शरीरसे उत्पन्न हुए सुखोंका अनुभव कर चिरकाल तक रमण करनेपर भी वे दोनों इच्छाओंकी अन्तिम अवधिको प्राप्त नहीं थे – उनकी इच्छाएं पूर्ण नहीं हुई थीं। इसलिए कहना पड़ता है कि इष्ट विषयोंसे उत्पन्न हुए सुखको भी धिक्कार है । हे पण्डितो, तुम उसी सुखके लिए प्रयत्न करो जो कि संसारके सब विषयोंसे अतीत है ॥२१९।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवद्गुणभद्राचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें जयकुमार और सुलोचनाके सुखभोगका वर्णन करनेवाला पैंतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। १ष्टवयस्यायमानः । २ गवाक्षपथ । ३ सुरतावसानजात । ४ अन्योन्यानुवर्तनमेव । ५ प्रापत् । ६ जयसुलोचनयोः । ७ निजयोर्दम्पत्योर्भावो यत्र तत् । ८ अपश्चिमसुखोदयश्च । ९ जन्मप्राप्तिफलम् । १० नैव प्रापतुः । ११ अन्तम् । १२ कारणात् । १३ प्रयत्नं कुरुध्वम् ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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