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________________ आदिपुराणम् "हरन् करिकराका रकरालिङ्गनसं गतः । तद्गात्रकूपिकान्तःस्थं रसं 'स्पर्शनवेदिनम् ॥ २०६॥ तद्भिम्बाधरसम्भावितामृतास्वादनोत्सुकः । तद्वक्त्रावारिजामोदान्मोदमानोऽनिशं भृशम् ॥२१०॥ "अत्रैव न पुन ममवामासमागमः । स सुलोचनया स्वानि चक्षुरादीन्यतर्पयत् ॥ २११॥ 'प्रमाणकालभावेभ्यो यद्वतेः समता तयोः । ततः संभोगशृंगारावारापारान्तगौ हि तौ ॥ २१२ ॥ मालिनी लोपितालेपनादिः सकलकरणानां गोचरीभूय 3 तस्याः । हितपरविषयाणां साऽपि तस्यैवमतौ ११ १० अतिपरित ख्या १५ १६ ४४४ १४ समरतिकृतसाराण्यन्वभूतां - मनसि मनसिजस्यावापि सौख्यं न ताभ्यां सुखानि ॥ २१३॥ १७ 1८ पृथगनुगतभावैः' संगताभ्यां नितान्तम् । "करण मुख सुखैस्तैस्तन्मनः प्रीतिमापत् भवति परमुखं च क्वापि सौख्यं सुवृत्ये ॥ २१४॥ शिशिरसुरभिमन्दोच्छ्वासजैः स्त्रैः समीरै "मृदुमधुरवचोभिः स्वादनीयप्रदेशैः । ललिततनुलताभ्यां मार्दवैकाकराभ्या मखिलमनयतां तौ सौख्यमात्मेन्द्रियाणि ॥ २१५ ॥ चन्द्रमासे झरते हुए अमृतको पीता था, सुलोचनाके वचन और गीतरूपी रसायनको अपने कानरूपी पात्रोंसे भरता था, हाथीकी सूँड़के समान आकारवाले हाथोंके आलिंगनसे युक्त हो स्पर्शन इन्द्रियसे जानने योग्य उसके शरीररूपी कुइँयाके भीतर रहनेवाले रसको ग्रहण करता था, बिम्बी फलके समान सुशोभित उसके ओठोंमें रहनेवाले अमृतका आस्वाद लेने में सदा उत्सुक रहता था, उसके मुखरूपी कमलको सुगन्धिसे रात-दिन अत्यन्त हर्षित होता रहता था ऐसा मानकर ही मानो सुलोचनाके और 'स्त्री समागम मुझे इसी भव में है अन्यभवमें नहीं है, द्वारा अपनी चक्षु आदि इन्द्रियोंको सन्तुष्ट करता रहता था ॥ २०७ - २११ ॥ चूंकि प्रमाण, काल और भावसे इन दोनोंके प्रेममें समानता थी इसलिए ही वे दोनों सम्भोग श्रृंगाररूपी समुद्रके अन्त तक पहुँच गये । २१२ || खूब बढ़े हुए प्रेमसे जिसने विलेपन आदि छोड़ दिया है ऐसा वह जयकुमार सुलोचनाकी सब इन्द्रियोंका विषय रहता था और सुलोचना भी जयकुमारके हित करनेवाले विषयोंमें तत्पर रहती थी इस प्रकार ये दोनों ही समान प्रीति करना ही जिनका सारभाग है ऐसे सुखोंका उपभोग करते थे ।।२१३ ।। पृथक्-पृथक् उत्पन्न हुए परिणामों से खूब मिले हुए उन दोनोंने अपने मनमें कामदेवका सुख नहीं हुए उन उन सुखोंसे उनके मन प्रीतिको अवश्य प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि दूसरेके द्वारा उत्पन्न हुआ सुख क्या कहीं उत्तम तृप्तिके लिए हो सकता है ? || २१४|| अपने श्वासोच्छ्वासके उत्पन्न हुए शीतल सुगन्धित और मन्द पवनसे, कोमल और मधुर वचनोंसे, स्वाद पाया था किन्तु इन्द्रियोंसे उत्पन्न १ स्वीकुर्वन् । २ आलिङ्गने हृदयङ्गमः 'संगतं हृदयङ्गमम्' इत्यभिधानात् । ३ सुलोचनाशरीररसकूपमध्यस्थित । ४ स्पर्शजनकम् । ५ इह जन्मन्येव । ६ उत्तरभवे नास्तीति वा । ७ स्त्रोसंग । प्रतीपदर्शिनी वामा वनिता महिला तथा' इत्यभिधानात् ।८ विजयः । ९ योनिपुष्पादिप्रमाणात् समरतिप्रभृतिकालात् अन्योन्यानुरागादिभावाच्च । १० अतीव प्रवृद्ध । ११ लुप्तश्रीखण्डकुंकुमचर्चामाल्याभरणादिः । १२ समस्तेन्द्रियाणाम् । १३ विषयीभूत्वा । १४ तिस्रक्चन्दनादिविषयाणाम् । १५ सुलोचनापि । १६ जयस्य । १७ न प्राप्यते स्म । १८ पदार्थः । १९ इन्द्रियोपायजनितसुखैः । २० परम् अन्यवस्तु मुखं द्वारमुपायो यस्य तत् । परमुखं क्वापि भवति न कुत्रा - पीत्यर्थः । २१ आस्वादितुं योग्याधरादिप्रदेशः ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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