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________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व इत्यनङ्गमयों सृष्टिं तन्वानाः स्वाङ्गसंगिनीम् । मनोऽस्य' जगृहः कान्ताः कान्तः स्वैः कामचेष्टितः॥४॥ तासां मृदुकरस्पर्शः प्रेमस्निग्धैश्च वीक्षितैः । महती तिरस्यासीजल्पितैरपि मन्मनः ॥५०॥ स्मितेप्चासां दरोद्भिन्नो हसितेषु विकस्वरः । फलितः परिरम्भेषु रसिकोऽभूतदुमः ॥५१॥ भ्रक्षेपयन्त्रपाषाणैः हकक्षेपक्षेपणीकृतैः । बहुदुर्गरणस्तासां स्मरोऽभूत् सकचप्रहः ॥५२॥ खरः प्रणयगर्भेषु कोपेष्वनुनये मृदुः । स्तब्धो ब्यलोकमानेषु मुग्धः प्रणयकैतवे ॥५३॥ निर्दयः परिरम्भेषु सानुज्ञानो मुखार्पणे । प्रतिपत्तिषु संमूढः पटुः करणचेष्टिते ॥५४॥ संकल्पेष्वाहितोत्कर्षों मन्दः प्रत्यग्रसंगमे । प्रारम्भे रसिको दीप्तः प्रान्ते करुणकातरः ॥५५॥ इत्युच्चावचतां भेजे तासां दीप्तः स मन्मथः । प्रायो मिन्नरसः कामः कामिनां हृदयंगमः ॥५६॥ प्रकाममधुरानित्थं कामान् कामातिरेकिणः । स ताभिर्निर्विशन् रेमे "वपुष्मानिव मन्मथः ॥५७॥ ताश्च तच्चित्तहारिण्यस्तरुण्यः प्रणयोद्धराः । बभूवुः प्राप्तसाम्राज्या इव'रत्युत्सवश्रियः ॥१८॥ इकट्ठे हुए आगेके सुन्दर बाल कामदेवरूपी काले सर्पके बच्चोंके समान जान पड़ते थे तथा कुछ-कुछ टेढ़ी हुई केशरूपी लताएँ कामदेवके जालके समान जान पड़ती थीं ॥४८॥ इस प्रकार अपने शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाली काममयी रचनाको प्रकट करती हुई वे रानियाँ अपनी सुन्दर कामकी चेष्टाओंसे महाराज भरतका मन हरण करती थीं ॥४९॥ उनके कोमल हाथोंके स्पर्शसे, प्रेमपूर्ण सरस अवलोकनसे, और अव्यक्त मधुर शब्दोंसे इसे बहुत ही सन्तोष होतो था ॥५०॥ रससे भरा हुआ सुरतरूपी वृक्ष इन रानियोंके मन्द-मन्द हँसनेपर कुछ खिल जाता था, जोरसे हँसनेपर पूर्णरूपसे खिल जाता था और आलिंगन करनेपर फलोंसे युक्त हो जाता है था ॥५१।। भौंहोंके चलानेरूप यन्त्रोंसे फेंके हुए पत्थरोंके द्वारा तथा दृष्टियोंके फेंकनेरूपी यन्त्र विशेषों ( गुथनों ) के द्वारा उन स्त्रियोंका बहुत प्रकारका किलेबन्दीका युद्ध होता था और कामदेव उसमें सबकी चोटी पकड़नेवाला था। भावार्थ - कामदेव उन स्त्रियोंसे अनेक प्रकारको चेष्टा कराता था ॥५२॥ कामदेव इनके प्रेमपूर्ण क्रोधके समय कठोर हो जाता था, अनुनय करने अर्थात् पतिके द्वारा मनाये जानेपर कोमल हो जाता था, झूठा अभिमान करनेपर उद्दण्ड हो जाता था, प्रेमपूर्ण कपट करते समय भोला या अनजान हो जाता था, आलिंगनके समय निर्दय हो जाता था, चुम्बनके लिए मुख प्रदान करते समय आज्ञा देनेवाला हो जाता था, स्वीकार करते समय विचार मूढ़ हो जाता था, हाव-भाव आदि चेष्टाओंके समय अत्यन्त चतुर हो जाता था, संकल्प करते समय उत्कर्षको धारण करनेवाला हो जाता था, नवीन समागमके समय लज्जासे कुछ मन्द हो जाता था, सम्भोग प्रारम्भ करते समय अत्यन्त रसिक हो जाता था और सम्भोगके अन्तमें करुणासे कातर हो जाता था। इस प्रकार उन रानियोंका अत्यन्त प्रज्वलित हुआ कामदेव ऊँच-नीची अवस्थाको प्राप्त होता था अर्थात् घटता-बढ़ता रहता था सो ठीक ही है जो काम प्रायः भिन्न-भिन्न रसोंसे भरा रहता है वही कामी पुरुषोंको सुन्दर मालूम होता है ॥५३-५६॥ इस प्रकार वह चक्रवर्ती उन रानियोंके साथ अत्यन्त मधुर तथा इच्छाओंसे भी अधिक भोगोंको भोगता हुआ शरीरधारी कामदेवके समान क्रीड़ा करता था ॥५७॥ भरतके चित्तको हरण करनेवाली और प्रेमसे भरी हुई वे तरुण स्त्रियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो साम्राज्यको प्राप्त हुई रत्युत्सवरूपी लक्ष्मी ही हों ॥५८॥ उनकी १ भरतस्य । २ अव्यक्तः । ३ ईषद्विकसित । ४ फलिनः ल० । ५ आलिङ्गनेषु । ६ दुर्गयुद्धसदृशः। ७ नव । ८ करुणरसातुरः । ९ नानालंकारताम् । १० मनोरथवृद्धिकरान् । ११ मूर्तिमान् । १२ रत्युत्सवे श्रियः ल० ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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