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________________ आदिपुराणम् १४ नखांशु कुसुमोद्भेदेरारकैः पाणिपल्लवैः । तास्तन्थ्यो भुजशाखाभिर्भेजुः कल्पलताश्रियम् ॥३७॥ स्तनाब्जकुट्मलैरास्यपङ्कजैश्व विकासिभिः । अब्जिन्य इव ता रेजुर्मदनावासभूमिकाः ॥ ३८ ॥ मन्ये पात्राणि गात्राणि तासां कामग्रहोच्छितौ । पदावेश्वशादेष' दशां प्राप्तोऽतिवर्तिनीम् ॥ ३६ ॥ शङ्के' निशातपाषाणानखानासां मनोभुवः । यत्रोपारूढ तैक्ष्ण्यैः स्वैरविध्यत् कामिनः शरैः ॥ ४० ॥ सत्यं महेषुधी जतासां मदनधन्विनः । कामस्यारोह निःश्रेणी स्थानीयावूरुदण्डकौ ॥४१॥ कटी कुटी मनोजस्य काञ्चीसालकृतावृतिः । नाभिरासां गभीरैका कूपिका चित्तजन्मनः ॥४२॥ मनोभुवोऽतिवृद्धस्य मन्येऽवष्टम्भ यष्टिका । रोमराजिः स्तनौ चासां कामरत्नकरण्डकौ ॥४३॥ कामपाशातौ बाहू शिरीषोद्गमकोमलौ । कामस्योच्छ्वसितं कण्ठः सुकण्ठीनां मनोहरः ॥ ४४ ॥ मुखं रतिसुखागारप्रमुखं मुखबन्धनम् । बैराग्य रससंगस्य तासां च दशनच्छदः ॥४५॥ दृग्विलासाः शरास्तासां कर्णान्तौ लक्ष्यतां गतौ । भ्रूवल्लरी धनुर्यष्टिजिगीषोः पुष्पधन्विनः ॥४६॥ ललाटाभोगमेतासां मन्ये बाह्यालिका स्थलम् । अनङ्गनृपतेरिष्ट' ' भोगकन्दुकचारिणः ॥४७॥ 'अलकाः कामकृष्णाहेः शिशवः परिपुञ्जिताः । कुञ्चिताः केशवलय मंदनस्येव वागुराः 118211 वाले जिनके नेत्ररूपी बाणोंसे यह समस्त संसार जीता गया था ऐसी बत्तीस हजार रानियाँ और भी उनके अन्तःपुरमें थीं ॥ ३६ ॥ वे छियानबे हजार रानियाँ नखोंकी किरणरूपी फूलोंके खिलनेसे, कुछ-कुछ लाल हथेलीरूपी पल्लवोंसे और भुजारूपी शाखाओंसे कल्पलताकी शोभा धारण कर रहीं थीं ||३७|| कामदेवके निवास करनेकी भूमिस्वरूप वे रानियाँ स्तनरूपी कमलों की बोड़ियोंसे और खिले हुए मुखरूपी कमलोंसे कमलिनियोंके समान सुशोभित हो रही थीं ||३८|| मैं समझता हूँ कि उन रानियोंके शरीर कामरूपी पिशाचकी उन्नतिके पात्र थे क्योंकि उनके आवेशके वशसे ही यह कामदेव सबको उल्लंघन करनेवाली विशाल अवस्थाको कामदेव के प्राप्त हुआ था ||३९|| अथवा मुझे यह भी शंका होती है कि उन रानियोंके नख, पैने करने के पाषाण थे क्योंकि वह उन्हींपर घिसकर पैने किये हुए बाणोंसे कामी लोगोंपर प्रहार किया करता था ||४०|| यह भी सच है कि उनकी जंघाएँ कामदेवरूपी धनुर्धारीके बड़े-बड़े तरकस थे और ऊरुदण्ड ( घुटनोंसे ऊपरका भाग ) कामदेवके चढ़नेकी नसैनीके समान थे ।।४१।। करधनीरूपी कोटसे घिरी हुई उनकी कमर कामदेवकी कुटोके समान थी और उनकी नाभि कामदेवकी गहरी कूपिका ( कुइयाँ) के समान जान पड़ती थी ॥ ४२ ॥ मैं मानता हूँ कि उनकी रोमराजि कामदेवरूपी अत्यन्त वृद्ध पुरुषके सहारेकी लकड़ी थी और उनके स्तन कामदेव के रत्न रखनेके पिटारे थे ॥ ४३ ॥ शिरीषके फूलके समान कोमल उनकी दोनों भुजाएँ कामदेव पाशके समान लम्बी थीं और अच्छे कण्ठवाली उन रानियों का मनोहर कण्ठ कामदेवके उच्छ्वासके समान था || ४४ || उनका मुख रति ( प्रीति ) रूपी सुखका प्रधान भवन था और उनके होंठ वैराग्यरसकी प्राप्तिके मुखबन्धन अर्थात् द्वार बन्द करनेवाले कपाट थे ।। ४५ ।। उन रानियोंके नेत्रोंके कटाक्ष विजयको इच्छा करनेवाले कामदेवके बाणोंके समान थे, कानके अन्तभाग उसके लक्ष्य अर्थात् निशानोंके समान थे और भौंहरूपी लता धनुषकी लकड़ी के समान थी || ४६ || मैं समझता हूँ कि उन रानियोंके ललाटका विस्तार इष्टभोग रूपी गेंदसे खेलनेवाले कामदेवरूपी राजाके खेलनेका मानो मैदान ही हो ||४७ || उनके २२४ 97 १ चक्री । २ शङ्कां करोमि । ३ प्राप्त । ४ सदृशौ इत्यर्थः । ५ आधार । ६ जीवितम् । ७ प्रकृष्टद्वारम् । ८ पीनाहः । 'पीनाहो मुखबन्धनमस्य यत्' इत्यभिधानात् । ९ रदनच्छदः -ल० । १० 'सेतुः । 'सेतुराली स्त्रियां पुमान्' । ९१ इष्टभोगा एव कन्दुक । १२ चूर्णकुन्तला । 'अलका चूर्णकुन्तला' इत्यभिधानात् । १३ शावकाः । 'पृथुकः शावकः शिशुः' इत्यभिधानात् । १४ मृगबन्धनी ।
SR No.090011
Book TitleAdi Puran Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2011
Total Pages566
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size21 MB
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